Wednesday, September 30, 2009

रात के राही थम न जाना....लता की पुकार, साहिर के शब्दों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 218

'मेरी आवाज़ ही पहचान है' शृंखला की आज की कड़ी में लता जी के जिस दुर्लभ नग़मे की बारी है, उसके गीतकार और संगीतकार हैं साहिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन, जिन्होने एक साथ बहुत सारी फ़िल्मों के गानें बनाए हैं। और लगे हाथ आप को यह भी बता दें कि बहुत जल्द हम इस गीतकार- संगीतकार जोड़ी के गीतों से सजी एक पूरी की पूरी शृंखला आप की सेवा में प्रस्तुत करने जा रहे हैं। तो आज जिस गीत को हमने चुना है, या युं कहें कि आज के लिए जिस गीत को लता जी के अनन्य भक्त नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे ने हमें चुन कर भेजा है, वह गीत है फ़िल्म 'बाबला' का, "रात के राही थक मत जाना, सुबह की मंज़िल दूर नहीं"। एक बहुत ही आशावादी गीत है जिसके हर एक शब्द में यही सीख दी गई है कि दुखों से इंसान को कभी घबराना नहीं चाहिए, हर रात के बाद सुबह को आना ही पड़ता है। इस तरह आशावादी रचनाएँ बहुत सारी यहाँ बनी हैं और जिनमें से बहुत सारे बेहद लोकप्रिय भी हुए हैं। लेकिन फ़िल्म 'बाबला' के इस गीत को बहुत ज़्यादा नहीं सुना गया है और समय के साथ साथ मानो इस गीत पर धूल सी जम गयी है। आज हमारी छोटी सी कोशिश है इस धूल की परत को साफ़ करने की और इस भूले बिसरे गीत की मधुरता में खो जाने की तथा इसमें दी गई उपदेश पर अमल करने की। फ़िल्म 'बाबला' बनी थी सन् १९५३ में एम. पी. प्रोडक्शन्स के बैनर तले, जिसका निर्देशन किया था अग्रदूत ने। दोस्तों, आप को एम. पी प्रोडक्शन्स की बारे में पता है ना? यह वही बैनर है जिसने सन् १९४२ में कानन बाला को लेकर बनाई थी फ़िल्म 'जवाब' जिसमें कानन बाला का गाया "दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल" उस ज़माने का सब से हिट गीत बन गया था। इससे पहले कानन बाला न्यु थियटर्स से अनुबंधित थीं, लेकिन फ़िल्म 'जवाब' से वो 'फ़्रीलांसिंग' पर उतर आईं। ख़ैर, एम. पी. प्रोडक्शन्स की फ़िल्म 'बाबला' के मुख्य कलाकार थे मास्टर नीरेन, शोभा सेन, मंजु डे, हीरालाल और परेश बैनर्जी। ये सभी कलकत्ता फ़िल्म इंडस्ट्री के कलाकार थे। इस फ़िल्म में लता जी के साथ साथ तलत साहब ने भी कुछ गीत गाए थे।

आज जब बर्मन दादा और लता जी की एक साथ बात चली है तो आज हम जानेंगे लता जी क्या कहती हैं इस सदाबहार संगीतकार के बारे में, जिन्हे वो पिता समाम मानती हैं। लता जी और दादा के बीच में हुई अन-बन की बात तो हम एक दफ़ा कर चुके हैं, आज कुछ और हो जाए। अमीन सायानी के उस इंटरव्यू का ही हिस्सा है यह अंश - "बर्मन दादा हमेशा डरे रहते थे। उनको लगता था कि लता अगर नहीं आई तो गाना मेरा क्या होगा! वो जब ख़ुद गा कर बताते थे तो हम लोगों को थोड़ी मुश्किल होती थी कि हम दादा की तरह कैसे गाएंगे। तो उनकी आवाज़ ज़रा सी टूटती थी। तो वो हम नहीं, मतलब मैं नहीं कर सकती थी। पर मैं उनसे हमेशा पूछती थी कि दादा, ये कैसे गाऊँ? तो वो बताते थे कि तुम इसे इस तरह गाओ तो अच्छा लगेगा। जब वो बहुत ज़्यादा 'ऐप्रीशिएट' करते थे तो उनकी एक ख़ास बात थी कि वो पान खिलाते थे, (हँसते हुए), क्योंकि वो ख़ुद पान खाते थे। पर वो पान किसी को नहीं देते थे, पर जिसको दिया वो समझ लीजिए कि उससे वो बहुत ख़ुश हैं। और वो पान मुझे हमेशा देते थे।" दोस्तों, आज बर्मन दादा तो नहीं रहे लेकिन लता जी की यादों में वो ज़रूर ज़िंदा हैं और ज़िंदा हैं अपने अनगिनत लोकप्रिय गीतों के ज़रिए। लता जी की तरफ़ से बर्मन दादा के नाम हम यही कह सकते हैं कि "तुम न जाने किस जहाँ में खो गए, हम भरी दुनिया में तन्हा रह गए"। तो आइए, आप और हम मिल कर सुनते हैं फ़िल्म 'बाबला' से लता, साहिर और दादा बर्मन की यह बेमिसाल रचना "रात के राही थक मत जाना, सुबह की मंज़िल दूर नहीं"।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. एक मस्ती भरा गीत शैलेन्द्र का लिखा, लता का गाया.
२. धुन है शंकर जयकिशन की.
३. गीत चुलबुला है पर इस शब्द से शुरू होता है -"दर्दे.."

पिछली पहेली का परिणाम -

वाह वाह लता जी के दुर्लभ गीतों की मुश्किल पहेली का जवाब देने आये नए प्रतिभागी, मुरारी पारीख....बधाई आपका खाता खुला है ३ शानदार अंकों से. आशा है आगे भी आप इसी तरह सक्रिय रहेंगें...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, September 29, 2009

दुखियारे नैना ढूँढ़े पिया को... इन्दीवर के बोल और लता के स्वर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 217

'मेरी आवाज़ ही पहचान है' के तहत इन दिनों आप सुन रहे हैं लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीत जिन्हे चुनकर हमें भेजा है नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे ने। अब तक आप ने जिन संगीतकारों की रचनाएँ इस शृंखला में सुने, वे थे खेमचंद प्रकाश, मास्टर ग़ुलाम हैदर, हुस्नलाल भगतराम, पंडित गोबिन्दराम और सी. रामचन्द्र। आज जिस संगीतकार की बारी है, वो एक ऐसे संगीतकार रहे जिनके साथ लता जी का भाई बहन का गहरा रिश्ता बना और इन दोनों ने मिलकर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने को कुछ इस तरह समृद्ध किया कि आज दशकों बाद भी उन तमाम सुरीली मोतियों से रोशन है यह ख़ज़ाना। इन दोनों ने ख़ास कर फ़िल्मी ग़ज़लों की धारा ही बदल दी और उन्हे आम गीतों की तरह लोकप्रिय बनाया। जी हाँ, हम आज संगीतकार मदन मोहन की ही बात कर रहे हैं। अपने मदन भ‍इया के बारे में लता जी ने समय समय पर कई इंटरव्यू में कहे हैं, आज भी हम ऐसी ही एक इंटरव्यू के अंश लेकर उपस्थित हुए हैं। लता जी का यह इंटरव्यू अमीन सायानी ने कुछ साल पहले लिया था। "मदन भ‍इया के बारे में मैं यही कहूँगी कि जब भी रिकार्डिंग होती थी तो उनका एक यही होता था कि रिहर्सल वगेरह करते रहते थे, तो वो गाते ही रहते थे, और मुझसे कहते थे कि इसमें से तुमको जो ठीक लगे वो उठा लो। घर की बात थी, मैं उनके घर जाती थी, कभी कभी मैं सारा सारा दिन उनके साथ रहती थी, खाना बहुत अच्छा बनाते थे, 'म्युज़िक डिरेक्टर' मेरे हिसाब से बहुत बड़े थे, जैसे ग़ज़लें उन्होने बनाई, फ़िल्मों के लिए, किसी ने नहीं बनाई। बहुत लोगों ने कोशिश की और आज भी लोग कोशिश कर रहे हैं कि मदन मोहन की स्टाइल की ग़ज़ल बनाएँ पर कोई बना नहीं सकता है। अब ये सुनिए कि उनको संगीत की कितनी बड़ी देन थी। आमद का यह हाल था कि हारमोनियम लेके बैठे और धुन युँही चुटकियों में बन जाती। कभी मोटर चलाते हुए, कभी लिफ़्ट में उपर या नीचे जाते हुए भी तो धुन तैयार हो जाती। मदन भ‍इया एक दो साल मिलिटरी में रहे थे। और शायद इसी वजह से उनकी उपरी बरताव में एक सख़ती हुआ करती थी। कई बार बड़े रफ़ से लगते थे। बातें खरी खरी मुँह पर सुना देते थे। प्यार भी उनका युं होता था कि बस हाथ उठाया और धम से मार दिया। मगर यह सख़ती सिर्फ़ उपर की थी, अंदर से तो वो बड़े भावुक थे और बड़े नरम। और यही नरमी, यह भावुकता, कभी कभी झलक दिखला जाती थी दिल को छू लेने वाली धुनों में ढलकर।"

लता मंगेशकर और मदन मोहन की जोड़ी का जो दुर्लभ नग़मा आज के लिए हमने चुना है वह है फ़िल्म 'निर्मोही' से। १९५२ में मदन मोहन के संगीत में इंटर्नेट से उपलब्ध जानकारी के अनुसार कुल ४ फ़िल्में परदर्शित हुईं थीं - अंजान, आशियाना, ख़ूबसूरत, और निर्मोही। 'निर्मोही' का निर्माण 'शीतल मूवीज़' के बैनर तले हुआ था, जिसके निर्देशक थे बृज शर्मा। सज्जन, नूतन, अमरनाथ, लीला मिश्रा अभिनीत यह फ़िल्म बड़ी बजट की फ़िल्म नहीं थी। शायद यही वजह थी कि मदन मोहन के रचे और लता जी के गाए इस फ़िल्म के गीतों को आज लोग कुछ भूल से गए हैं। लता जी ने इस फ़िल्म में कई गीत गाए, जिन्हे अलग अलग गीतकारों ने लिखे। लता जी की आवाज़ में पी. एन. रंगीन के लिखे दो गीत थे इस फ़िल्म में - "अब ग़म को बना लेंगे जीने का सहारा, दिल टूट गया छूट गया साथ हमारा" और "ये कहे चांदनी रात सुना दो अपने दिल की बात, आई रुत मस्तानी आई रुत मस्तानी"। उद्धव कुमार का लिखा गीत था "कल जलेगा चाँद सारी रात, रात भर होती रहेगी आग़ की बरसात"। लेकिन आज हम जिस गीत को सुनवा रहे हैं उसे लिखा है इंदीवर साहब ने - "दुखियारे नैना ढ़ूंढे पिया को, निसदिन करें पुकार"। इस गीत में "दुखियारे नैना" की धुन कुछ कुछ मदन मोहन साहब की ही फ़िल्म 'देख कबीरा रोया' की "मेरी वीणा तुम बिन रोये" की तरह सुनाई देती है। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह गीत फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने का एक अनमोल नगीना है। ऐसे न जाने लता - मदन मोहन के कितने गीत होंगे जिन्हे आज हम ज़्यादा याद नहीं करते, लेकिन जब भी कभी इन्हे सुनते हैं बस इनमें डूब से जाते हैं। भविष्य में लता-मदन मोहन के कमचर्चित गीतों पर एक शृंखला प्रस्तुत करने की हम ज़रूर कोशिश करेंगे, फिलहाल सुनिए आज का यह अनमोल गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. साहिर है गीतकार लता के गाये इस दुर्लभ गीत के.
२. एस डी बर्मन की धुन से सजे इस गीत बूझकर पाईये 3 अंक.
३. इस प्रेरणात्मक गीत की पहली पंक्ति में शब्द है -"राही".

पिछली पहेली का परिणाम -
बिलकुल सही गीत है पूर्वी जी आपके ३१ शानदार अंक हो गए है और आप दूसरे स्थान पर हैं अब.....बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

घायल जो करने आए वही चोट खा गए........"गुमनाम" के शब्द और "रेशमा" आपा का दर्द



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४९

ड़े दिनों के बाद ऐसा हुआ कि महफ़िल में हाज़िरी लगाने के मामले में सीमा जी पिछड़ गईं और महफ़िल का मज़ा कोई और लूट गया। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं पिछली महफ़िल की प्रश्न-पहेली की। वैसे अगर शरद जी के लिए कुछ कहना हो तो हम यही कहेंगे कि "बड़े दिनों के बाद उन बेवतनों को याद वतन की मिट्टी आई है।" यूँ तो आप महफ़िल से कभी भी गायब नहीं हुए लेकिन ऐसा आना भी क्या आना कि आने की खबर न हो। वैसे तो हम सीधे-सादे गणित में अंकों का हिसाब लगाया करते हैं, लेकिन इस बार हमने सोचा कि क्यों न अंकों के मायाजाल में थोड़ा उलझा जाए। तो अगर हम ४७वीं कड़ी की प्रश्न-पहेली के अंकों को देखें तो हिसाब कुछ यूँ था: सीमा जी: ४ अंक, शरद जी: २ अंक और शामिख जी: १ अंक। अब हम इन अंकों को एक चक्रीय क्रम में आगे की ओर सरका देते हैं। फिर जो हिसाब बनता है, वही पिछली कड़ी की अंक-तालिका है यानि कि सीमा जी: १ अंक, शरद जी: ४ अंक और शामिख जी: २ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) एक शायर जिसे जीते-जी अपना एक हीं गज़ल-संग्रह "बर्ग-ए-नै" देखना नसीब हुआ और जिसने पूरी की पूरी छंद में एक नाटिका की रचना की थी। उस शायर और उसकी उस नाटिका के नाम बताएँ।
२) "तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है"- इस पंक्ति में किस फ़ार्म, किस विधा की बात की जा रही है। और उस फ़ार्म की तख़्लीक़ का श्रेय किसे दिया जाता है?


इन सवालों के बाद चलिए अब रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। आज की गज़ल की खासियत यह है कि इसके शायर गुमनाम हैं तो इसकी गायिका के बारे में लोगों को ज़्यादा कुछ मालूंम नहीं है। यूँ तो इनकी आवाज़ हिन्दुस्तान के कोने-कोने में रवाँ-दवाँ है, लेकिन कितनों को इनकी शख्सियत की जानकारी है, यह पक्के यकीन से नहीं कहा जा सकता। बरसों पहले सुभाष घई साहब की एक फिल्म आई थी "हीरो" जिसका एक गाना बड़ा हीं मक़बूल हुआ। उस गाने की मक़बूलियत का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी पिछले साल हीं रीलिज हुई "ज़न्नत" में एक नगमा उसी गाने पर आधार करके तैयार किया गया था। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं "चार दिनों का प्यार ओ रब्बा, बड़ी लंबी जुदाई" गाने की। इस गाने का असर ऐसा हुआ कि चाहे किसी को फिल्म की कहानी या फिल्म के कलाकार याद हों न हों, लेकिन इस गाने और इस गाने में छिपी कशिश की छाप मिटाए नहीं मिटती। कहते है कि जब "रेशमा" जी (यह नाम याद है ना?) को इस गाने के लिए संपर्क किया गया तो वो इस हालत में नहीं थीं कि इसे गा सकें। मतलब कि इन्हें अपनी "पश्तो" ज़बान छोड़कर और कोई भी ज़बान सही से नहीं आती थी और हिंदी/उर्दू के लफ़्ज़ों का सही तलफ़्फ़ुज़ तो इनके लिए दूर की कौड़ी के समान था। लेकिन सुभाष घई साहब और एल०पी० साहबान जिद्द पर अड़े थे कि गाना इन्हीं को गाना है। कई दिनों की मेहनत और न जाने कितने रिहर्सल्स के बाद यह गाना तैयार हो पाया। और जैसा कि कहते हैं कि "रेस्ट इज हिस्ट्री"। वैसे हम भारतीयों और हिंदी-भाषियों के लिए इनकी पहचान यहीं तक सीमित है लेकिन जिन्होंने इनके पंजाबी गाने सुने हैं उन्हें "रेशमा" आपा का सही मोल मालूम है। "शाबाज़ कलंदर" ,"गोरिये मैं जाना परदेस" और "कित्थे नैन न जोरीं" जैसे नज़्मों को सुनने के बाद और कुछ सुनने का दिल हीं नहीं होता। पाकिस्तान के एक अखबार "न्युज लाईन" के संवाददाता "आयेशा जावेद अकरम" के साथ "आपा" ने अपनी ज़िंदगी कुछ यूँ शेयर की: मेरा जन्म राजस्थान के बीकानेर में सौदागरों के एक परिवार में हुआ था। जन्म की सही तारीख मालूम नहीं क्योंकि घरवालों ने इसे याद रखना जरूरी नहीं समझा। वैसे मुझे इतना मालूम है कि देश के बंटवारे के समय मैं एक या दो महीने की थी और उसी दौरान मेरे परिवार का हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाना हुआ था। जब मेरा परिवार हिन्दुस्तान में था तो हम बीकानेर से देश के दूसरे कोनों में ऊँट ले जाया करते थे(क्योंकि हमारे यहाँ के ऊँट बड़े मशहूर थे) और उन जगहों से गाय-बकरियाँ लाकर अपने यहाँ व्यापार करते थे। हमारा समुदाय बहुत बड़ा था और हम खानाबदोशों की ज़िंदगी जिया करते थे। आपस में हममे बड़ा प्यार था। पाकिस्तान जाने के बाद भी यही सब चलता रहा। वैसे हममें से बहुत सारे अब लाहौर और करांची में बस गए हैं।

बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि "आपा" को नाक की हड्डी का कैंसर हुआ था। लेकिन उनके आत्म-विश्वास और उनके प्रशंसकों की दुआओं ने उन्हें वापस ठीक कर दिया। इस बारे में वो कहती हैं: क्या मैं आपको बीमार लगती हूँ? नहीं ना? फिर क्यों मेरे बारे में लोग लिखते रहते हैं कि मैं मर रही हूँ। हाँ, मुझे कैंसर था, लेकिन भला हो इमरान खान का, जिनके अस्पताल के डाक्टरों के इलाज से मेरा रोग जाता रहा। लेकिन मुझे मालूम नहीं कि इन अखबार वालों के साथ क्या दिक्कत है कि वे हमेशा मेरे खराब स्वास्थ्य के बारे में छापते रहते हैं और इसी कारण अब मेरे पास गाने के न्योते नहीं आते। अब आप बताएँ, बस ऐसे गुजारा होता है? मैं आपको यकीन दिलाती हूँ कि मैं दुनिया की किसी भी भाषा में गा सकती हूँ। इस खूबी में मेरा कोई योगदान नहीं है। सब ऊपर वाले का करम है, उसी ने मुझे ऐसी आवाज़ दी है। संगीत के सफ़र की शुरूआत कैसे हुई, यह पूछने पर उनका जवाब था: मैं हमेशा दरगाहों, मज़ारों और मेलों में गाया करती थी। एक बार इसी तरह मैं अपने किसी संबंधी की शादी में गा रही थी तो सलीम गिलानी साहब ने मुझे सुना और मुझे रेडियो पर गाने की सलाह दी। उस समय मेरी उम्र कोई ११-१२ साल की होगी। फिर तो मेरी नई कहानी हीं शुरू हो गई। "ओ रब्बा, दो दिनां दा मेल, ओथे फिर लंबी जुदाई"(यह गाना आपको सुना-सुना नहीं लग रहा, हीरो की "लंबी जुदाई" कहीं इसी की नकल तो नहीं है?) जैसे गाने घर-घर में सुने जाने लगे और इस तरह मैं धीरे-धीरे आगे बढती गई। भले हीं मेरा बहुत नाम था और अब भी है लेकिन इस दौरान मैने अपनी हया कायम रखी है और किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं किया है। दैनिक भास्कर में "आपा" से जुड़ा एक बड़ा हीं अनोखा किस्सा छपा था। आप भी देखें: यूं तो मलिका पुखराज को काफ़ी आत्म-केंद्रित व्यक्ति माना जाता था, मगर उनकी ज़िंदगी की कुछ ऐसी मार्मिक घटनाएं हैं, जिनसे उनके अंदर का इंसान उभरकर बाहर आ जाता है। अपने पति शब्बीर शाह की मृत्यु के बाद मलिका अंदर से ही टूट गईं। एक दिन उन्होंने गायिका रेशमा का गाया एक गीत "हैयो रब्बा! दिल लगदा नैयों मेरा" सुन लिया। रेशमा ख़ुद मलिका जी की बहुत भक्त थीं। मलिका जी ने उन्हें बुलवा भेजा। कहा कि वे एक ह़फ्ते उनके साथ उनके घर रुक जाएं और उन्हें यही गीत गा-गाकर सुनाएं। रेशमा ने इसे अपना सम्मान माना और ठहर गईं। अब दिन में कई बार रेशमा से गाने की फरमाइश होती। रेशमा गातीं और मलिका फूट-फूटकर रोना शुरू कर देतीं। इस क्रम से रेशमा डर गईं। हाथ जोड़े कि अब बस भी करें। मगर मलिका रोना चाहती थीं। सो रेशमा ने ख़ूब गाया और वे भी ख़ूब रोईं। यह आपा की आवाज़ में बसे दर्द का हीं असर था कि आँसू बरबस निकल पड़े। "आपा" के बाद अब बात करते हैं आज की गज़ल के गज़लगो की। सुरेन्द्र मलिक "गुमनाम" साहब के बारे में अंतर्जाल पर ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसलिए अभी हम इन दो शेरों के अलावा कुछ और कह नहीं सकेंगे। वैसे यह तो ज़ाहिर है कि इन शेरों को लिखने वाला शायर "गुमनाम" हीं रहा और इसे गाकर जगजीत सिंह जी कहाँ से कहाँ पहुँच गए। है ना?:

काँटों की चुभन पाई, फूलों का मज़ा भी,
दिल दर्द के मौसम में रोया भी हँसा भी।

आने का सबब याद ना जाने की खबर है,
वो दिल में रहा और उसे तोड़ गया भी।


और यह रही आज़ की गज़ल, जिसे हमने "दर्द" एलबम से लिया है। तो आनंद लीजिए हमारी आज की पेशकश का:

लो दिल की बात आप भी हमसे छुपा गए,
लगता है आप गैरों की बातों में आ गए।

मेरी तो इल्तजा थी रक़ीबों से मत मिलो,
उनके बिछाए जाल में लो तुम भी आ गए।

ये इश्क़ का सफ़र है मंज़िल है इसकी मौत,
घायल जो करने आए वही चोट खा गए।

रोना था मुझको उनके दामन में ज़ार-ज़ार,
पलकों के मेरे अश्क उन्हीं को रूला गए।

"गुमनाम" भूलता नहीं वो तेरी रहगु़ज़र,
जिस रहगुज़र से प्यार की शम्मा बुझा गए।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

____ करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये


आपके विकल्प हैं -
a) ख़ुदकुशी, b) बेदिली, c) दिल्लगी, d) बेरुखी

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "तेशे" और शेर कुछ यूं था -

मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जायेगा
मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता...

यगाना चंगेजी साहब के लिखे इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना शामिख जी ने। आप बहुत दिनों के बाद समय पर हाज़िर हुए हैं। वैसे महफ़िल में पहली हाज़िरी तो निर्मला जी ने लगाई थी। निर्मला जी, आपको हमारी महफ़िल पसंद आ रही है, इसके लिए हम आपका तहे-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। लेकिन यह क्या, आपने तो शब्द/शेर-पहेली में हिस्सा हैं नहीं लिया। हमारी महफ़िल में कोई ऐसे खाली हाथ नहीं आता, आगे से इस बात का जरूर ध्यान रखिएगा :) । शरद जी, आपसे भी यही शिकायत है।

तो हाँ, हम बात कर रहे थे शामिख जी के शेरों की, तो यह रही आपकी पेशकश:

हमसुख़न तेशे ने फ़रहाद को शीरीं से किया
जिस तरह का भी किसी में हो कमाल अच्छा है। (चचा ग़ालिब)

हाँ इश्क़ मेरा दीवाना ये दीवाना मस्ताना
तेशे को बना कर अपना क़लम लिखेगा नया फ़साना (अनाम)

जहाँ शरद जी इस बार स्वरचित शेरों के मामले में पिछड़ गए, वहीं मंजु जी ने अपना पलड़ा हल्का नहीं होने दिया। बानगी देखिए:

सैकड़ों तेशे चलाए थे नींव के लिए ,
चिन्नी थी दीवार इमारत के लिए . (हमारे हिसाब से यहाँ चुननी थी, होना चाहिए था)

इस बार हमारी महफ़िल बड़ी जल्दी हीं सिमट गई। शायद इसे किसी की नज़र लग गई है। तो हम चले नज़र उतारने का इंतजाम करने। तब तक आप महफ़िल में सबसे आखिर में हाज़िर होने वालीं सीमा जी के शेरों का मज़ा लें। खुदा हाफ़िज़!

एक हुआ दीवाना एक ने सर तेशे से फोड़ लिया
कैसे कैसे लोग थे जिनसे रस्म-ए-वफ़ा की बात चली (मुनिर नियाज़ी)

तेशे बग़ैर मर न सका कोह्‌कन असद
सर्‌गश्‌तह-ए ख़ुमार-ए रुसूम-ओ-क़ुयूद था! (अनाम)

कोह-ए-गम और गराँ, और गराँ और गराँ
गम-जूड तेशे को चमकाओ कि कुछ रात कटे (मखदूम मुहीउद्दीन)

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Monday, September 28, 2009

मुस्कुराहट तेरे होंठों की मेरा सिंगार है....लता जी का हँसता हुआ चेहरा संगीत प्रेमियों के लिए ईश्वर का प्यार है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 216

ज २८ सितंबर का दिन फ़िल्म संगीत के लिए एक बेहद ख़ास दिन है। क्यों शायद बताने की ज़रूरत नहीं। लता जी को ईश्वर दीर्घायु करें, उन्हे उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें, लता जी के जन्मदिन पर हम तह-ए-दिल से उन्हे मुबारक़बाद देते हैं। आज है साल २००९। आज से ८० साल पहले १९२९ को लता जी का जन्म हुआ था मध्य प्रदेश के इंदौर में। दोस्तों आज मौका है लता जी के जन्मदिन का, तो क्यों ना आज हम उन्ही से जानें उनकी जनम के बारे में। एक बार अमीन सायानी ने लता जी का एक इंटरव्यू लिया जिसमें उन्होने लता जी को कई 'कॊन्ट्रोवर्शियल' सवालों के जाल से घेर लिया था, लेकिन लता जी हर बार जाल को चीरते हुए बाहर निकल आईं थीं। उन सवालों में से एक सवाल यह भी था - "कुछ लोगों का ख़याल है कि कुछ सस्पेन्स सा आप ने क्रीएट किया हुआ है कि आप कहाँ पैदा हुईं थीं। कुछ कहते हैं गोवा में पैदा हुईं थीं, कुछ कहते हैं धुले में, कुछ इंदौर में, तो कुछ कहीं और का बताते हैं। तो आप बताइए कि आप कहाँ पैदा हुईं थीं?" लता जी का बेझिझक जवाब था - "नहीं, इसमें कोई सस्पेन्स नहीं है अमीन भाई, मेरा जनम इंदौर में हुआ है, क्योंकि मेरी मौसी वहाँ रहती थीं, और मेरी माँ जब, मतलब मैं पेट में थीं तो वहाँ गई, मौसी के वहाँ, पहला जो बच्चा होता है वो अपने मायके में होता है, तो वहाँ नहीं जा सकी जहाँ मेरी नानी रहती थीं, क्योंकि छोटा सा गाँव था, तो वो फिर इंदौर गईं और इंदौर में सिख मोहल्ले में मेरा जनम हुआ। और वहाँ वकील का बाड़ा था वह। मेरे पिताजी गोवा के थे, माँ धुले की तरफ़ छोटा सा गाँव है, और मेरी माँ की जो माँ थीं वो गुजराती नहीं थीं पर पिताजी गुजराती थे, मेरे नाना गुजराती थे, और उनको महाराष्ट्र से बड़ा प्यार था, महाराष्ट्र की भाषा से, और वो मराठी बोलते थे, गुजराती बहुत कम बोलते थे। और मैं सिख मोहल्ले में पैदा हुई, इसलिए मेरे बाल लम्बे हैं (यह कहकर लता जी ज़ोर से हँस पड़ीं)।"

लता जी के जन्मदिन पर हम उनकी शुभकामना करते हुए उनके जिस दुर्लभ गीत को प्रस्तुत करने जा रहे हैं वह है १९५२ की फ़िल्म 'शीशम' का। इस शृंखला में आप दस संगीतकारों के संगीतबद्ध किए दस बेहद दुर्लभ गीत सुन रहे हैं, तो आज के कड़ी के संगीतकार हैं रोशन। गीत इंदीवर का लिखा हुआ है। फ़िल्म 'शीशम' बनी थी 'अनिल पिक्चर्स' के बैनर तले। किशोर शर्मा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नासिर ख़ान और नूतन। इसके पिछले साल, १९५१ में फ़िल्म 'मल्हार' में लता-मुकेश के गाए सुपरहिट गीत "प्यार की दुनिया में यह पहला क़दम" के बाद 'शीशम' में रोशन ने एक बार फिर से लता-मुकेश से गवाया "सपनों में आना छेड़ छेड़ जाना सीखा कहाँ से मेरे बलम ने"। इस फ़िल्म में भी कई गीतकारों ने गीत लिखे जैसे कि इंदीवर, ज़िया सरहदी, उद्धव कुमार, नज़ीम पानीपती और कैफ़ इर्फ़ानी। आज का गीत है "मुस्कुराहट तेरे होंठों की मेरा सिंगार है, तू है जब तक ज़िंदगी में ज़िंदगी से प्यार है"। बेहद मीठा और सुरीला गाना है यह। सोचने वाली बात है कि क्या कमी रह गई होगी इस गीत में जो यह गीत बहुत ज़्यादा मशहूर नहीं हुआ, और ना ही आज कहीं से सुनाई देता है। आज लता जी के जन्मदिन पर उनकी तारीफ़ में भी हम इसी गीत के मुखड़े के आधार पर यही कहेंगे कि 'लता जी, आपकी आवाज़ ही फ़िल्म संगीत का सिंगार है, और जब तक आप के गाए गीत हमें कहीं ना कहीं से सुनाई देते रहेंगे, हम सब युंही जीते रहेंगे।" इससे ज़्यादा आपकी तारीफ़ में और क्या कहें!



मुस्कराहट तेरे होठों की मेरा सिंगार है
तू है जब तक ज़िन्दगी में ज़िन्दगी से प्यार है ।

मैनें कब मांगी मुहब्बत कब कहा तुम प्यार दो
प्यार तुमको कर सकूं इतना मुझे अधिकार दो
मेरे नैया की तुम्हारे हाथ में पतवार है ।

मेरे काजल में भरा है रंग तेरी तस्वीर का
सामने है तू मेरे एहसान है तक्दीर का
तेरी आँखों में बसाया मैनें इक संसार है ।


और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. मदन मोहन की तर्ज पर लता के गाये इस गीत को बूझिये और जीतिए ३ अंक.
२. एक बार फिर गीतकार हैं इन्दीवर.
३. मुखड़े में शब्द है -"निसदिन"

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी ६ अंकों पर पहुँच गए हैं आप....बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

जश्न है जीत का...सा रे गा मा चुनौती से नाबाद लौटे प्रोमिसिंग गायक अभिजीत घोषाल अपने "ड्रीम्स" लेकर अब पहुँच गए हैं "लन्दन"



ताजा सुर ताल (25)

ताजा सुर ताल में आज सुनिए उभरते हुए गायक अभिजीत घोषाल का "लन्दन ड्रीम्स"

सुजॉय- सजीव, क्या आपने एक बात पर ग़ौर किया है?

सजीव- कौन सी बात?

सुजॉय - यही कि आजकल जो भी फ़िल्में बन रही हैं, उनमें से ज़्यादातर के शीर्षक अंग्रेज़ी हैं। जैसे कि 'ब्लू', 'ऑल दि बेस्ट', 'वेक अप सिद', 'व्हट्स योर राशी?', 'वांटेड', 'थ्री', वगैरह वगैरह ।

सजीव- बात तो सही है तुम्हारी। तो क्या आज हम किसी ऐसी ही फ़िल्म का गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसका शीर्षक अंग्रेज़ी में है?

सुजॉय - बिल्कुल ठीक समझे आप। आज हम चर्चा करेंगे 'लंदन ड्रीम्स‍' की और इस फ़िल्म का एक गीत भी बजाएँगे। इस फ़िल्म के निर्माता हैं आशिन शाह, निर्देशक हैं विपुल शाह, संगीत शंकर अहसान लोय का, गीतकार प्रसून जोशी, और इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं सलमान ख़ान, अजय देवगन, आसिन थोट्टुम्कल, रणविजय सिंह, बृंदा पारेस्ख, ओम पुरी, ख़ालिद आज़्मी और आदित्य रोय कपूर।

सजीव- यानी कि मल्टि-स्टारर फ़िल्म है यह। और ये जो रणविजय है, ये वही है ना MTV Roadies वाले?

सुजॉय- हाँ बिल्कुल वही है।

सजीव- पिछले साल 'रॉक ऑन' ने मास और क्लास दोनों से तारीफ़ें लूटी थी, और फ़रहान अख़्तर की भी काफ़ी सराहना हुई। तो इसी के मद्देनज़र विपुल शाह ने तय किया कि वो भी इसी फोर्मुले को अपनाएँगे।

सुजॉय - कौन सा फार्मूला सजीव?

सजीव- यही बैंड्स+ म्युज़िक + ड्रामा, और क्या!

सुजॉय - अच्छा! और इसीलिए 'रॉक ऑन' वाले संगीतकार तिकड़ी को ही लिया गया है।

सजीव- हो सकता है, लेकिन मैने तो सुना है कि क्योंकि इस फ़िल्म का एक अहम पक्ष संगीत का रहेगा, इसीलिए निर्माता चाहते थे कि ए. आर. रहमान इसका म्युज़िक करें, लेकिन बात बन नहीं पायी।

सुजॉय - अच्छा, खैर शंकर एहसान लॉय भी निराश करने वालों में से नहीं हैं, मैंने भी इस अल्बम के सभी गीत सुनें हैं और मेरे ख्याल से ये इस साल की बेहतरीन अल्बम्स में से एक है, जिसमें में लगभग सभी गीत एक से बढ़कर एक हैं, पर ताज्जुब इस बात का है कि फिल्म के कुल ८ गीतों में से किसी में भी फीमेल स्वर नहीं है....सोचता हूँ कि आखिर आसीन कर क्या रही है फिल्म में :), हाँ एक बात और, बहुत से नए गायकों ने इन गीतों को अपनी आवाज़ दी है, धुरंधर शंकर, रूप कुमार राठोड और राहत फतह अली खान आदि के साथ साथ...

सजीव - हाँ और उन्हीं नए गायकों में से एक आज तुम्हारे और मेरे साथ इस कांफ्रेंस में जुड़ने भी वाले हैं ...जानते हो कौन हैं वो ?

सुजॉय - कहीं ये अभिजीत घोषाल तो नहीं... मैं जानता हूँ कि आपको उनका गाया "जश्न है जीत का..." इन दिनों बहुत भा रहा है... । वाकई ...यह एक 'पावर पैक्ड नंबर' है। इस गीत में आप इलेक्ट्रॊनिक और रॊक के साथ साथ अरबी संगीत की भी झलक पाएँगे। सजीव ये अभिजीत घोषाल वही हैं जो ज़ी टीवी के सा रे गा मा चैलेंज में लगातार १२ बार विजेयता बने थे। मेरे ख्याल से ये रिकॉर्ड अभी तक कोई तोड़ नहीं पाया है

सजीव - बिलकुल सुजॉय.....लीजिये आ गए हैं अभिजित....स्वागत है आपका...

अभिजित -शुक्रिया सुजॉय और सजीव आपका....मैं हिंद युग्म का हिस्सा तो पहले ही बन चुका हूँ....आप के इस कार्यक्रम की बदौलत आज मेरे इस ताजा गीत पर भी कुछ चर्चा हो जायेगी...

सजीव- अभिजीत सबसे पहले तो इस बड़ी फिल्म में इतने महत्वपूर्ण गीत के लिए बधाई....सा रे गा मा से लन्दन ड्रीम तक पहुँचने में काफी लम्बा समय लगा आपको...इस दौरान हुए संघर्ष के बारे में कुछ बताएं...

अभिजित- सजीव मैं आज आपको कुछ ऐसा बताता हूँ जो कभी मैंने किसी को नहीं बताया...जिन दिनों मैं सा रे गा मा के चैलेन्ज राउंड में लगातार ११ बार जीतने के बाद स्वेच्छा से अपना नाम वापस ले चुका था, कई लोगों ने सोचा कि शायद चैनल वालों ने इन पर दबाब डाला होगा, पर ऐसा नहीं था. जब मैं अपनी ८ वीं चुनौती पार कर चुका था तब मेरी माँ की तबियत अचानक खराब हो गयी.....पर मुझे घरवालों ने यह बात मालूम नहीं होने दी, बाद में जब मुझे अपने दोस्त के माध्यम से उनकी नाज़ुक हालत की खबर मिली, तब मुझे तुंरत इलाहाबाद के लिए कूच करना पड़ा...आप शायद जानते होंगें कि मैं मूल रूप से इलाहाबाद का रहने वाला हूँ, बाद में हम लोग माँ के इलाज के लिए मुंबई आ गए.....आप यकीन नहीं करेंगें, मैं सुबह बिना किसी को बताये माँ को अस्पताल पहुंचा कर वहां उनके लिए पर्याप्त इंतजाम कर स्टूडियो पहुँचता था गाने के लिए, पर कभी किसी से मैंने इन सब का जिक्र नहीं किया....आप शायद यकीन नहीं करेंगें, सा रे गा मा के वो ११ एपिसोड जिसमें मैं जीता था उनमें से मैंने मात्र २ एपिसोडस का प्रसारण ही टी वी पर देख पाया, वो भी घर पर नहीं....एक एपिसोड तो मैंने लखनऊ के एक छोटे से ढाबे में रात का खाना खाते वक़्त देखा....वहां बैठे हुए लोग मेरी शक्ल देख कर कहने लगे - "अरे भाई साहब ये तो आपकी तरह लगता है", मैंने भी जवाब में बस इतना ही कहा -"हाँ मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है...", उस छोटे से ढाबे में बैठकर आप इससे ज्यादा क्या कह सकते थे...

सुजॉय - और अब माँ...?

अभिजीत - अभी इसी साल मार्च में मैंने उन्हें सदा के लिए खो दिया. उस हादसे के बाद लगभग ५ साल वो जीवित रही...मैं कभी भी ५ दिन से अधिक घर से दूर नहीं रहा...यही वजह है कि मैंने कभी USA का टूर नहीं किया, क्योंकि वहां जाने के लिए मुझे कम से कम १० दिन तक दूर रहना पड़ता...आप समझ सकते हैं ..ये सब मेरे लिए कितना मुश्किल था ...घर का एक कमरा अस्पताल सरीखा था ...माँ को निरंतर देखबाल की आवश्यकता थी...

सजीव - बिलकुल अभिजीत हम लोग समझ सकते हैं, आप अपने दुःख में हमें भी शरीक मानें...ये शायद आपकी माँ का आशीर्वाद ही है जो आज आप इस बड़ी फिल्म का हिस्सा हैं..

अभिजीत - हाँ बिलकुल, माँ को हमेशा ये लगता था कि मैं उनकी वजह से पीछे रह गया हूँ, हालाँकि ऐसा नहीं था, क्योंकि लगतार मैं काम कर रहा था. लुईस बैंक के साथ ढेरों प्रोजेक्ट का मैं हिस्सा रहा हूँ, उस्ताद विलायत राम जी, शिव जी, जैसे गुरुओं का हमेशा ही आशीर्वाद मिला मुझे, और अब तो मुझे लगता है जैसे माँ ने स्वर्ग में जाकर मेरी तकदीर के बचे कुचे दोष भी दूर हटा दिए हैं, तभी तो पहले किसान में "झूमो रे" मिला और अब ये लन्दन ड्रीम्स, ख़ुशी हुई जानकार कि आप सब को ये गीत पसंद आया है, मैं आपको बता दूं भारत में ही नहीं विदेशों से भी अल्बम को काफी अच्छे रीव्यूस मिल रहे हैं...

सुजॉय- आपने बंगला सा रे गा मा प् होस्ट भी किया....सोनू निगम, शान जैसे बड़े गायकों ने भी होस्टिंग के काम को बेहद मुश्किल करार दिया....आपका अनुभव कैसा रहा....

अभिजीत- मेरा तो बहुत बढ़िया रहा सुजॉय... ये एक ऐसा काम था जिसे मैंने बहुत एन्जॉय किया, उसकी वजह एक ये भी है कि मैं बच्चों से बहुत जल्दी खुद को जोड़ लेता हूँ, और बच्चे भी मुझसे बहुत जल्दी घुल मिल जाते हैं, यहाँ तक कि जब मेरी पहली एल्बम जो की बांगला में थी, उसमें मैंने उस कार्यक्रम के दो सबसे प्रोमिसिंग बच्चों से ओरिजनल गाने गवाए थे...आज भी वो सब मुझसे जुड़े हुए हैं और अपनी हर बात मुझसे शेयर करते हैं...

सजीव - अभिजीत, आप इलाहाबाद से हैं और अभी हाल ही में इस शहर पर एक गाना भी बना है....इलाहाबाद में बीते अपने शुरूआती दिनों पर कुछ हमारे श्रोताओं को बताईये...

अभिजीत - सजीव स रे गा मा में आने से पहले मैं एक बैंकर था, acedamically भी मेरा background बहुत स्टोंग रहा, मेरा दायरा हमेशा से ही ज़रा बुद्दी संपन्न लोगों का रहा, आप देखिये मेरे यदि १०० दोस्त होंगे तो उनमें से कम से कम ९० जन आई ऐ अस अधिकारी होंगे....मैं भी उन्हीं में से एक होता....अब ये मेरी खुशकिस्मती है कि मैं आज वो काम कर पा रहा हूँ जिसमें मेरी खुद की रूचि है, अभी ३ साल पहले ही मैंने नौकरी छोड़ी है, मैं हालाँकि बहुत जिम्मेदारी से काम को अंजाम देने वाला अधिकारी रहा, जब तक भी नौकरी की पर आप जानते हैं रचनात्मक लोग बहुत दिनों तक ९ से ५ के ढाँचे में बंध कर नहीं रह सकते...

सुजॉय - शंकर एहसान लॉय तक कैसे पहुंचना हुआ ?

अभिजीत - शंकर से लुईस के माध्यम से ही मिलना हुआ था, लुईस शंकर और शिव मणि का एक ग्रुप हुआ करता था आपको याद होगा "सिल्क" नाम का...शंकर जब पहली बार मिले तो खुद ही बोले..."अरे अभिजित आप तो वही....अरे क्या गाते हो भाई....". वो बहुत बड़े कलाकार हैं. आप जानते हैं कि इंडस्ट्री में निर्माताओं को विश्वास दिलाना बहुत मुश्किल होता है. पर विपुल जी को जब शंकर ने मेरा गीत सुनाया तो भाग्यवश उन्हें भी पसंद आ गया...

सजीव - इस फिल्म में दो बड़े स्टार हैं आपका गीत इस पर फिल्माया गया है....

अभिजीत - सच कहूँ तो मुझे भी अभी तक पक्का नहीं पता, पर शायद ये गीत अजय देवगन पर होना चाहिए....फिल्म की कहानी के हिसाब से....

सुजॉय - जब गीत रिकॉर्ड हो रहा था, तब कैसा मौहौल था स्टूडियो में उस बारे में कुछ बताईये....शंकर ने क्या टिपण्णी की जब गीत ख़तम हुआ.....क्या गीतकार प्रसून भी वहां मौजूद थे..

अभिजीत- नहीं प्रसून तो मौजूद नहीं थे....पर उनका लिखा हुआ मैंने पढ़ा...और बस करीब २० मिनट में गाना रिकॉर्ड हो गया...शंकर भाई ने रिकॉर्डिंग के बाद कहा कि अभिजीत तुमने बहुत ही अच्छा गाया.....मैंने भी उनसे कहा....कि गीत ये पंक्तियाँ देखिये.....

छाले कई, तलवों में चुभे
भाले कई, जलती हुई कहीं थी जमींन,
ताले कई, दर्द संभाले कई,
हौंसलों में नहीं थी कमी,
हम अभी अड़ गए, आँधियों से लड़ गए,
मैंने धकेल के अँधेरे, छीन के ले ली रोशिनी,
मेरे हिस्से के थे सवेरे, मेरे हिस्से की जिन्दगी....

बिलकुल मुझे अपने जीवन की कहानी लगी...गाते हुए भी, और मेरे ही क्या आपकी भी...मेरा मतलब जो जो हम जैसे संघर्षशील कलाकार हैं उन सब का है ये गीत....

सजीव - बिलकुल सही है अभिजीत...अच्छा...इस फिल्म में आपके अलावा भी कुछ नए गायकों ने अपनी आवाज़ मिलायी है, जैसे "खानाबदोश" मोहन की आवाज़ में बहुत खूब जमा है, पंजाबी गायक फिरोज़ खान का भी एक गीत. खुद शंकर ने गाया है गीत "ख्वाब" जिसकी कुछ पंक्तियाँ भी आपको बहुत पसंद है ....

अभिजीत - हाँ ये पंक्तियाँ इस फिल्म का भी सार है और कुछ कुछ मेरी अपनी सोच भी इनसे मिलती है. आप भी देखिये -

मंजिलों पे त्यौहार है,
लेकिन वो हार है, क्या ख़ुशी अपनों के बिन,
है अधूरी हर जीत भी सरगम संगीत भी
अधूरा है अपनों के बिन,
ख्वाबों के बादल छाने दो लेकिन,
रिश्तों की धूप बचा के बरसना,
कहती है हवाएं, चूम ले गगन को,
पंखों को खोल दो छोड़ दो गरजना.....


सुजॉय -वाह क्या बात है अभिजीत...और कौन कौन सी फिल्में हैं आने वाली जिसमें हमें आपकी आवाज़ सुनने को मिलेगी

अभिजित - प्रोजेक्ट तो बहुत से हैं पर जब तक मुक्कमल न हो जाएँ उनके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता....हाँ पर मैं आपको बता दूं की बहुत जल्दी यानी कि दिसम्बर जनवरी के आस पास मैं और आप एक बड़े प्रोजेक्ट पर यहाँ बैठे बात कर रहे होंगें.

सजीव - अभिजीत उन दिनों जब आप सा रे गा मा में परफोर्म करते थे तब हम भी उन श्रोताओं में से थे जो आपकी जीत के लिए SMS किया करते थे....आप आपको इस बड़ी फिल्म के लिए गाते हुए देखकर बहुत अधिक ख़ुशी हो रही है....आने वाला वक़्त हिंदी सिनेमा के शीर्ष गायकों की श्रेणी में आपका भी नाम जोड़े....स्वीकार करें मेरी सुजॉय और तमाम हिंद युग्म टीम की तरफ से ढेरों शुभकामनाएँ...

अभिजीत - शुक्रिया सजीव और सुजॉय....मेरी तरफ से भी हिंद युग्म परिवार के सभी सदस्यों को ढेर सारा प्यार

सुजॉय - तो दोस्तों सुनिए लन्दन ड्रीम्स से अभिजीत घोषाल का गाया ये शानदार गीत, "जश्न है जीत का", याद रखिये ये सिर्फ एक डेमो उद्देश्य से मात्र ३२ kbps की क्वालिटी पर आपके लिए बजाय जा रहा है, उच्च क्वालिटी में सुनने के लिए ओरिजनल एल्बम ही खरीदें.



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, September 27, 2009

मैं हूँ कली तेरी तू है भँवर मेरा, मैं हूँ नज़र तेरी तू है जिगर मेरा...लता का एक दुर्लभ गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 215

ता मंगेशकर के गाए कुछ भूले बिसरे और दुर्लभ गीतों पर आधारित हमारी विशेष शृंखला आप इन दिनों सुन रहे हैं 'मेरी आवाज़ ही पहचान है'। अब तक आप ने कुल ४ गानें सुने हैं जो ४० के दशक की फ़िल्मों से थे। आइए आगे बढ़ते हुए प्रवेश करते हैं ५० के दशक में। सन् १९५१ में एक फ़िल्म आयी थी 'सौदागर'। 'वेस्ट हिंद पिक्चर्स' के बैनर तले बनी इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नासिर ख़ान और रेहाना। पी. एल. संतोषी के गीत थे और सी. रामचन्द्र का संगीत। दोस्तों, इससे पहले हम ने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पी. एल. संतोषी और सी. रामचन्द्र के जोड़ी की बातें भी कर चुके हैं और 'शिन शिना की बबला बू' फ़िल्म के गीत "तुम क्या जानो तुम्हारी याद में हम कितना रोये" सुनवाते वक़्त संतोषी साहब और रेहाना से संबंधित एक क़िस्सा भी बताया था। अगर आप ने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में हाल ही में क़दम रखा है तो उस आलेख को यहाँ क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। इस गीत के अलावा पी. एल. संतोषी, सी. रामचन्द्र और लता जी की तिकड़ी का जो एक और गीत हमने आप को यहाँ सुनवाया है वह है फ़िल्म 'सरगम' का "वो हम से चुप हैं हम उनसे चुप हैं"। ये दोनों ही गीत अपने ज़माने के बेहद मशहूर गीतों मे से रहे हैं। लेकिन आज इस तिकड़ी के जिस गीत को हम पेश कर रहे हैं वह इन गीतों से अलग हट के है। 'सौदागर' फ़िल्म के इस गीत के बोल हैं "मैं हूँ कली तेरी तू है भँवर मेरा, मैं हूँ नज़र तेरी तू है जिगर मेरा"। लता और सखियों की आवाज़ों में इस गीत को सुनते हुए, इसके रीदम को सुनते हुए आप को सी. रामचन्द्र का वह मशहूर गीत "भोली सूरत दिल के खोटे" ज़रूर याद आ जायेगा, इन दोनों गीतों के बीट्स एक जैसे ही हैं। गोवन लोक संगीत की छटा इस गीत में बिखेरी है चितलकर साहब ने।

लता जी ने सी. रामचन्द्र के संगीत में ५० के दशक में बेशुमार गानें गाए हैं। लेकिन पता नहीं किसकी नज़र लग गई कि इन दोनों में कुछ ग़लतफ़हमी सी हो गई और दोनों ने एक दूसरे के साथ काम करना बंद कर दिया कई सालों के लिए। चलिए आज वही दास्तान आप को बताते हैं ख़ुद लता जी के शब्दों में जिन्हे उन्होने अमीन सायानी के एक इंटरव्यू में कहा था।

"मेरा दुश्मन कोई नहीं है, ना ही मैं किसी की दुश्मन हूँ। पर इतने सारे म्युज़िक डिरेक्टर्स के साथ जब हम काम करते हैं, इतने लोग मिलते हैं रोज़, तो कहीं ना कहीं छोटी मोटी बात हो जाती है। उनके (सी. रामचन्द्र) साथ क्या हुआ था कि एक रिकार्डिस्ट थे जो मेरी पीठ पीछे कुछ बात करते थे। मुझे मालूम हुआ था और वो जिसने मुझे बताया था वो आदमी मुझे बहुत ज़्यादा प्यार करता था, कहता था 'मैं सुन नहीं सकता हूँ लता जी, वो आप के बारे में बात ऐसी करते हैं'। और मेरी रिकार्डिंग थी सी. रामचन्द्र की जो उसी स्टुडियो में। अन्ना को कहा कि 'अन्ना, मैं इस रिकार्डिस्ट के पास रिकार्डिंग नहीं करूँगी क्योंकि ये मेरे लिए बहुत ख़राब बात करता है। जब मैं गाउँगी मेरा मन नहीं लगेगा यहाँ और मैं जब गाती हूँ मेरे दिमाग़ को अच्छा लगना चाहिए, सुकून मिलना चाहिए कि भई जो गाना मैं गा रही हूँ, अच्छा लग रहा है, तभी गाना अच्छा बन सकता है।' उनको पता नहीं क्या हुआ, उन्होने कहा कि 'लता, तुम अगर नहीं गाओगी तो मैं भी अपने दोस्त को नहीं छोड़ सकता हूँ, मैं तुम्हारी जगह किसी और को लाउँगा'। मैने कहा कि 'बिल्कुल आप ला सकते हैं, किसी को भी ले आइए'। और मैने वह काम छोड़ दिया, पर मेरा उनका झगड़ा ऐसा नहीं हुआ। मैने वह गाना, मतलब रिहर्सल किया हुआ, मैं छोड़ के चली आई और उन्होने फिर किसी और से वह गाना लिया, और वह एक मराठी गाना था। तो वह गाना होने के बाद, उस समय उनके पास काम भी बहुत कम था, और फिर बाद में मेरी उनकी बात नहीं हुई, मुलाक़ात नहीं हुई, कुछ नहीं। और फिर अगर उनका मेरा इतना झगड़ा हुआ होता तो फिर वो मेरे पास दोबारा "ऐ मेरे वतन के लोगों" लेकर आते? तो झगड़ा तो था ही नहीं। "ऐ मेरे वतन के लोगों" के लिए वो मेरे घर आए बुलाने के लिए, वो और प्रदीप जी, दोनों ने आ कर कहा कि 'यह गाना तुमको गाना ही पड़ेगा'। मैने कहा 'मैं गाउँगी नहीं, मेरी तबीयत ठीक नहीं, रिहर्सल करना पड़ेगा, दिल्ली जाना पड़ेगा'। पर उस गाने के लिए प्रदीप जी ने बहुत ज़ोर लगाया। प्रदीप जी ने यहाँ तक कहा कि 'लता, अगर तुम यह गाना नहीं गाओगी तो फिर मैं यह गाना दूँगा ही नहीं।' तो उनका दिल नहीं तोड़ सकी मैं।"

तो दोस्तों, ये बातें थीं लता जी की कि किस तरह से उनके और अन्ना के बीच में दूरियाँ बढ़ी और किस तरह से "ऐ मेरे वतन के लोगों" ने सुलह भी करवा दिया। तो आइए अब लता और अन्ना की सुरीली जोड़ी के नाम सुनते हैं आज का यह गीत, जिसके लिए हम विशेष रूप से आभारी हैं अजय देशपाण्डे जी के जिन्होने इस गीत को हमें उपलब्ध करवाया, सुनिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. संगीतकार रोशन के लिए गाया लता ने ये गीत..बूझने वाले को मिलेंगें २ के स्थान पर ३ अंक.
२. इस फिल्म में कलाकार थे नासिर खान और नूतन.
३. मुखड़े में शब्द है -"सिंगार".

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह पराग लगातार २ सही जवाब और आपका स्कोर पहुंचा है ३६ पर...बधाई...हमारे और धुरंधर सब कहाँ चले गए भाई....सभी को नवमी, दुर्गा पूजा और दशहरे की ढेरों बधाईयाँ

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का शक्ति विशेषांक



इंटरनेटीय कवि सम्मेलन का 15वाँ अंक

Rashmi Prabha
रश्मि प्रभा
Khushboo
खुश्बू
इन दिनों पूरे भारतवर्ष में दुर्गा पूजा की धूम है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार देवी दुर्गा शक्तिरूप हैं। शक्ति का एक नाम ऊर्जा भी है। भारतीय दर्शन में ऊर्जा को ही अंतिम सत्य माना गया है। यदि हम पदार्थों के विभाजन की क्वार्क संकल्पना से भी सूक्ष्मत्तम किसी अविभाजित ईकाई की कल्पना करें तो वह भी ऊर्जा का ही समग्र रूप होगा। यानी ऊर्जा मूल में है, शक्ति मूल में है। शायद तभी कहते हैं कि तमाम तरह के गुणधर्मों से युक्त शिव भी बिना शक्ति के शव (मृत) है।

हम इस शक्ति के विभिन्न रूपों से हमेशा ही अपने जीवन में एकाकार होते रहते हैं। इस बार का पॉडकास्ट कवि सम्मेलन शक्ति के व्यापक रूपों की पड़ताल करने की एक कोशिश है। पिछली बार की तरह अपनी समर्थ आवाज़ और संचालन से शक्ति के विभिन्न स्वरों को पिरोने का काम किया है कवयित्री रश्मि प्रभा ने और तकनीकी ताना-बाना खुश्बू का है। श्रोताओं को याद होगा कि सितम्बर माह के इस कवि-सम्मेलन के लिए हमने 'शक्ति' को विषय के रूप में चुना था।

अब तो यह आप ही बतायेंगे कि इसे सफल बनाने में हमारी टीम ने कितनी शक्ति लगाई है।



वीडियो देखें-










प्रतिभागी कवि- नीलम प्रभा, सरस्वती प्रसाद, प्रीती मेहता, किरण सिन्धु, संगीता स्वरुप, रेणु सिन्हा, शन्नो अग्रवाल, मुकेश पाण्डेय, विवेकरंजन श्रीवास्तव, प्रो.सी.बी श्रीवास्तव।

नोट - अगले माह यानी अक्तूबर माह के पॉडकास्ट कवि सम्मलेन के लिए सभी प्रतिभागी कवियों के लिए हमने एक थीम निर्धारित किया है। "हिन्दी'। अपनी मातृभाषा की स्थिति को लेकर आपके दिमाग में तरह-तरह के विचार आते होंगे। बहुत से उद्‍गार, बहुत सी चिताएँ और बहुत सी सम्भावनाएँ आपकी कल्पना-शक्ति ने आपको दिये हैं। तो 'हिन्दी' पर अपनी कलम चलाइए और कविता रिकॉर्ड करके भेज दीजिइ। हमारी कोशिश रहेगी कि आपकी कविताओं पर एक वीडियो का भी निर्माण करें।


संचालन- रश्मि प्रभा

तकनीक- खुश्बू


यदि आप इसे सुविधानुसार सुनना चाहते हैं तो कृपया नीचे के लिंकों से डाउनलोड करें-

ऑडियोWMAMP3
वीडियोOgg (.ogv)WMVMPEG




आप भी इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनें

1॰ अपनी साफ आवाज़ में अपनी कविता/कविताएँ रिकॉर्ड करके भेजें।
2॰ जिस कविता की रिकॉर्डिंग आप भेज रहे हैं, उसे लिखित रूप में भी भेजें।
3॰ अधिकतम 10 वाक्यों का अपना परिचय भेजें, जिसमें पेशा, स्थान, अभिरूचियाँ ज़रूर अंकित करें।
4॰ अपना फोन नं॰ भी भेजें ताकि आवश्यकता पड़ने पर हम तुरंत संपर्क कर सकें।
5॰ कवितायें भेजते समय कृपया ध्यान रखें कि वे 128 kbps स्टीरेओ mp3 फॉर्मेट में हों और पृष्ठभूमि में कोई संगीत न हो।
6॰ उपर्युक्त सामग्री भेजने के लिए ईमेल पता- podcast.hindyugm@gmail.com
7. अक्तूबर 2009 अंक के लिए कविता की रिकॉर्डिंग भेजने की आखिरी तिथि- 17 अक्टूबर 2009
8. अक्टूबर 2009 अंक का पॉडकास्ट सम्मेलन रविवार, 25 अक्टूबर 2009 को प्रसारित होगा।


रिकॉर्डिंग करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। हमारे ऑनलाइन ट्यूटोरियल की मदद से आप सहज ही रिकॉर्डिंग कर सकेंगे। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

# Podcast Kavi Sammelan. Part 15. Month: September 2009.
कॉपीराइट सूचना: हिंद-युग्म और उसके सभी सह-संस्थानों पर प्रकाशित और प्रसारित रचनाओं, सामग्रियों पर रचनाकार और हिन्द-युग्म का सर्वाधिकार सुरक्षित है।

Saturday, September 26, 2009

इतना भी बेकसों को न आसमान सताए...पंडित गोविन्दराम के सुरों के लिए स्वर मिलाये लता ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 214

"मुझसे चलता है सर-ए-बज़्म सुखन का जादू,
चांद ज़ुल्फ़ों के निकलते हैं मेरे सीने से,
मैं दिखाता हूँ ख़यालात के चेहरे सब को,
सूरतें आती हैं बाहर मेरे आइने से।

हाँ मगर आज मेरे तर्ज़-ए-बयाँ का ये हाल,
अजनबी कोई किसी बज़्म-ए-सुखन में जैसे,
वो ख़यालों के सनम और वो अलफ़ाज़ के चांद,
बेवतन हो गए अपने ही वतन में जैसे।

फिर भी क्या कम है, जहाँ रंग ना ख़ुशबू है कोई,
तेरे होंठों से महक जाते हैं अफ़कार मेरे,
मेरे लफ़ज़ों को जो छू लेती है आवाज़ तेरी,
सरहदें तोड़ के उड़ जाते हैं अशार मेरे।

तुझको मालूम नहीं या तुझे मालूम भी हो,
वो सिया बख़्त जिन्हे ग़म ने सताया बरसों,
एक लम्हे को जो सुन लेते हैं तेरा नग़मा,
फिर उन्हें रहती है जीने की तमन्ना बरसों।

जिस घड़ी डूब के आहंग में तू गाती है,
आयतें पढ़ती है साज़ों की सदा तेरे लिए,
दम ब दम ख़ैर मनाते हैं तेरी चंग़-ओ-रबाब,
सीने नए से निकलती है दुआ तेरे लिए।

नग़मा-ओ-साज़ के ज़ेवर से रहे तेरा सिंगार,
हो तेरी माँग में तेरी ही सुरों की अफ़शाँ,
तेरी तानों से तेरी आँख में रहे काजल की लक़ीर,
हाथ में तेरे ही गीतों की हिना हो रखशाँ।"

बरसों पहले शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने कुछ इसी तरह से बाँधा था उस गायिका के तारीफ़ों का पुल जिनकी आवाज़ कानों में ही नहीं बल्कि अंतरात्मा में मिसरी घोल देती है, जिसे सुन कर मन की हर पीड़ा दूर हो जाए, जिस आवाज़ की शीतल छाँव के नीचे बैठ कर इंसान ज़िंदगी की दुख तकलीफ़ों को पल में भूल जाए, और जिस आवाज़ की सुरगंगा में नहाकर मन पवित्र हो जाए, ६ दशकों से हवाओं में अमृत घोलती आ रही उस गायिका को आप और हम लता मंगेशकर के नाम से जानते हैं।

'मेरी आवाज़ ही पहचान है' शृंखला के तहत इन दिनों आप सुन रहे हैं लता मंगेशकर के गाए गुज़रे ज़माने के कुछ ऐसे भूले बिसरे नग़में जो बेहद दुर्लभ हैं और जिन्हे हमें उपलब्ध करवाया है नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे जी ने, जिनका हम दिल से आभारी हैं। उनके भेजे हुए गीतों में से आज की कड़ी के लिए हम ने जिस गीत को चुना है वह है सन्‍ १९४९ की फ़िल्म 'भोली' का। दोस्तों, कल जो गीत आप ने सुना था वह गीता बाली पर फ़िल्माया गया था, और संयोग वश आज का गीत भी उन्ही का है। फ़िल्म 'भोली' के मुख्य कलाकार थे प्रेम अदीब और गीता बाली। मुरली मूवीज़ के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को निर्देशित किया था राम दर्यानी ने। पंडित गोबिन्दराम थे इस फ़िल्म के संगीतकार और गानें लिखे आइ. सी. कपूर ने। पंडित गोबिन्दराम गुज़रे ज़माने के उन प्रतिभाशाली संगीतकारों में से हैं जिनकी आज चर्चा ना के बराबर होती है। क्या आप जानते हैं कि संगीतकार सी. रामचन्द्र जिन दो संगीतकारों से प्रभावित हुए थे उनमें से एक थे सज्जाद हुसैन और दूसरे थे गोबिन्दराम। पंडित गोबिन्दराम ने अपनी फ़िल्मी यात्रा शुरु की थी सन् १९३७ में। फ़िल्म थी 'जीवन ज्योति'। ४० के दशक के शुरुआती सालों में उनकी चर्चित फ़िल्में रहीं १९४१ की 'हिम्मत' और १९४३ की तीन फ़िल्में - 'आबरू', 'सलमा', और 'पगली'। जब गोबिन्दराम के श्रेष्ठ फ़िल्मों का ज़िक्र होता है तो 'भोली' और 'माँ का प्यार' फ़िल्मों का ज़िक्र किए बग़ैर बात ख़तम नहीं समझी जा सकती। 'माँ का प्यार' भी इसी साल, यानी कि १९४९ में बनी थी और इस फ़िल्म में भी लता जी के गीत थे। नूरजहाँ के अंदाज़ में लता जी ने इस फ़िल्म के गीत गाए और पहली बार यह साबित भी कर दिया था कि वो कितनी भी ऊँची पट्टी पर गा सकती हैं। 'माँ का प्यार' फ़िल्म का लता जी का गाया हुआ एक प्रसिद्ध गीत है "तूने जहाँ बना कर अहसान क्या किया है"। लेकिन आज हम सुनने जा रहे हैं फ़िल्म 'भोली' से एक दर्दीला गीत, "इतना भी बेक़सों को ना आसमाँ सताए, के दिल का दर्द लब पे फ़रियाद बन के आए", सुनिए!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. 3 अंकों के लिए बूझिये लता का गाया ये गीत.
२. इस नाम की कम से कम दो फिल्में बाद में बनी एक में अमिताभ थे नायक संगीत रविन्द्र जैन का था तो दूसरी फिल्म में थे राज कुमार और दिलीप कुमार.
३. मुखड़े में शब्द है -"भंवर".

पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी बोनस अंकों का फायदा देखिये....आप सीधे ३३ अंकों पर पहुँच गए हैं...यानी मंजिल के कुछ और करीब. शरद जी और पूर्वी जी दिखाईये ज़रा सी और फुर्ती जी....

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

बोर - हरिशंकर परसाई



सुनो कहानी: हरिशंकर परसाई की "बोर"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में काका हाथरसी की कहानी "प्यार किया तो मरना क्या" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य "बोर", जिसको स्वर दिया है नितिन व्यास ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 12 मिनट 33 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।






मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। ।
~ हरिशंकर परसाई (1922-1995)


हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी


मैंने कहा, "तुझे बालों की पडी है, यहाँ मेरी गर्दन कट रही है।"
(हरिशंकर परसाई की "बोर" से एक अंश)



नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)








यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3


#Thirty nine Story, Bore: Harishankar Parsai/Hindi Audio Book/2009/33. Voice: Nitin Vyas

Friday, September 25, 2009

चाहे चोरी चोरी आओ चाहे चुप चुप आओ....सुनिए लता का ये दुर्लभ अंदाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 213

जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लता मंगेशकर के गाए हुए कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीतों की एक बेहद ख़ास शृंखला 'मेरी आवाज़ ही पहचान है'। १९४७ और १९४८ की दो फ़िल्मों के गीत सुनने के बाद आज हम एक साल और आगे बढ़ते हैं, यानी कि १९४९ में। लता जी के संगीत सफ़र का शायद सब से महत्वपूर्ण साल रहा होगा यह। क्यों ना हो, 'महल', 'बरसात', 'बाज़ार', 'एक थी लड़की', 'लाहौर', और 'बड़ी बहन' जैसी फ़िल्मों में एक से एक सुपरहिट गीत गा कर लता जी एक दम से अग्रणी पार्श्व गायिका बन गईं। उनके इस तरह से छा जाने पर जैसे फ़िल्म संगीत की धारा ने एक नया मोड़ ले लिया हो! इन तमाम फ़िल्मों के संगीतकार थे खेमचंद प्रकाश, शंकर जयकिशन, विनोद, श्यामसुंदर, और हुस्नलाल भगतराम। १९४९ में फ़िल्म जगत की पहली संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल भगतराम के संगीत से सज कर कुल १० फ़िल्में प्रदर्शित हुईं, जिनके नाम हैं - अमर कहानी, बड़ी बहन, बलम, बंसरिया, हमारी मंज़िल, जल तरंग, जन्नत, नाच, राखी, और सावन भादों। 'बड़ी बहन' में तो लता जी के गाए "चले जाना नहीं" और "चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है" ने सफलता के कई झंडे गाढ़े, लेकिन फ़िल्म 'बंसरिया' का एक गीत ज़रा कम सुना सा रह गया। जिस गीत की हम बात कर रहे हैं, उसे भी कुछ कुछ "चुप चुप खड़े हो" के अंदाज़ में ही बनाया गया था, लेकिन इसे वह कामयाबी नहीं मिली जितना की उस गीत को मिली थी। फ़िल्म 'बंसरिया' का प्रस्तुत गीत है "चाहे चोरी चोरी आओ चाहे छुप छुप आओ, पर हमको पिया आज ज़रूर मिलना"। फ़िल्म 'बंसरिया' का निर्माण 'निगारिस्तान फ़िल्म्स' ने किया था, जिसे निर्देशित किया राम नारायण दवे और मुख्य भूमिकाओं में थे रणधीर और गीता बाली। फ़िल्म के गानें लिखे मुल्कराज भाकरी ने।

दोस्तों, आज का यह गीत सुनने से पहले आइए लता जी के बारे में कुछ ऐसे कलाकारों के उद्‍गार जान लेते हैं जो आज के इस दौर के कलाकार हैं। इस नई पीढ़ी के कलाकारों के दिलों में भी लता जी के लिए उतनी ही इज़्ज़त और सम्मान है जितने कि पिछले सभी पीढ़ियों के दिलों में हुआ करती है। ये तमाम बातें हम विविध भारती के अलग अलग 'जयमाला' और 'सरगम के सितारे' कार्यक्रमों से मिला-जुला कर प्रस्तुत कर रहे हैं।

प्रसून जोशी - मुझे याद है कि बचपन में एक प्रतियोगिता में मैने इस गीत को गाने की कोशिश की थी, लेकिन बीच में ही मैं बेसुरा हो गया और गा नहीं पाया। तब मुझे अहसास हुआ कि यह गीत कितना मुश्किल है और लता जी ने इसे कितनी आसानी से गाया है। यह गीत है "रसिक बलमा", बहुत सुंदर गीत है, बहुत सुंदर संगीत है, और इस गीत को सुनकर आप समझ सकते हैं कि लता जी लता जी क्यों है!!!

सोनू निगम - मुझे याद है वह १ अप्रैल १९९९ का दिन था, यानी कि 'अप्रैल फ़ूल्स डे'। लता जी पहले पहले गा रही थी ("ख़ामोशियाँ गुनगुनाने लगी"), और मुझे उनके ख़तम होने के बाद गाना था। वो गाने का अपना पोर्शन ख़तम कर जब बाहर आयीं तो मुझे कहने लगीं कि उन्होने मेरा 'सा रे गा मा पा' शो टी.वी पर देखा था जिसमें मैने तलत महमूद साहब का गाया एक गीत गाया था और वह उन्हे बहुत पसंद आया था। फिर उन्होने कहा कि वो मुझे सुनना चाहती हैं जब मैं अपना हिस्सा रिकार्ड करूँ। लेकिन उस दिन काफ़ी देर हो गई थी, इसलिए उन्हे निकलना पड़ा। उस दिन का एक्स्पेरियन्स मेरे लिए एक बहुत 'फ़ैन्टास्टिक एक्स्पेरियन्स' था।

श्रेया घोषाल - एक बार मैं किसी स्टुडियो में रिकार्डिंग कर रही थी, और वहाँ पर एक रिकार्डिस्ट को यह पता था कि मैं लता जी की बहुत बड़ी फ़ैन हूँ। नसीब से उस दिन लता जी भी उसी स्टुडियो में उपस्थित थीं। वो संगीतकार के साथ बैठी हुईं थीं। उस रिकार्डिस्ट ने मुझे कहा आ कर कि लता जी आई हुईं हैं, क्या मैं मिलना चाहूँगी? मैने कहा 'औफ़कोर्स'। फिर वो मुझे लता जी के पास ले गए। मैं कभी नहीं भूल सकती उस दिन को। लता जी के चेहरे पर एक नूर है। उनकी ऊंचाई ज़्यादा नहीं है लेकिन उनमें एक कमाल का व्यक्तित्व है। उनके सामने मैं गूँगी हो गई और एक शब्द मेरे मुँह से नहीं निकला। तब वो बोलीं 'श्रेया, मैने तुम्हारी एक इंटरव्यू देखा है, मैं माफ़ी चाहती हूँ लेकिन तुम्हारी बंगला प्रोनन्सिएशन अच्छा नहीं है।' मुझे इतनी ख़ुशी हुई यह सोच कर कि मुझ जैसी नई और छोटे सिंगर को उन्होने सुना है और मेरे बारे में इतना कुछ नोटिस भी किया है। वो महान हैं। फिर वहाँ बैठे संगीतकार ने मुझे कहा कि अभी अभी लता जी मेरी तारीफ़ कर रहीं थीं। यह सुनकर तो मैं सातवें आसमान पर उड़ने लगी। इससे ज़्यादा मैं क्या माँग सकती हूँ!

सुनिधि चौहान - लता जी तो भगवान हैं। तो उनके मुख से सिर्फ़ मेरा नाम निकलना ही बहुत बड़ी बात है। तो अगर वो मेरी तारीफ़ करती हैं तो इससे बड़ी बात मेरे लिए और कोई हो नहीं सकती। उनको तो मैं शुक्रिया अदा भी नहीं कर सकती। यही बोलूँगी कि अगर वो मुझे चाहती हैं तो बस उनका आशिर्वाद रहे और मैं अपनी तरफ़ से उनको निराश नहीं करूँगी। उनकी अगर उम्मीदें हैं मुझ से तो मैं ज़रूर कोशिश करूँगी। शुरु से ही उनके साथ एक अजीब सा रिश्ता रहा है, 'मेरी आवाज़ सुनो' के टाइम से, जब मैने ट्राफ़ी उनके हाथ से ली थी। कौम्पिटिशन में हिस्सा ही इसलिए लिया था कि एक दिन लता जी के दर्शन हो जाए। दिल्ली से थी तो मेरे लिए तो सपना सा था कि उनको छू के देखूँ कि वो कैसी दिखती हैं सामने से, और सोचा भी नहीं था कि जीतूँगी, बस यह कोशिश थी कि काफ़ी राउंड्स क्लीयर कर लूँ और मेगा फ़ाइनल तक पहुँच जाऊँ ताकि लता जी से मिल सकूँ। जीती तो ख़ुशी का कोई अंदाज़ा ही नहीं था, फिर उनका मुझे ट्राफ़ी देना, मेरे आँसू पोंछ कर मुझसे बोलना कि 'अगर तुमको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मैं हूँ'। मेरे लिए तो उससे बड़ा दिन ही नहीं था, सब से बड़ा ज़िंदगी का दिन वह था, और उसके बाद, वो सब हो जाने के बावजूद मेरी हिम्मत भी नहीं होती कि उनको फ़ोन करूँ, बात करूँ, तो दीदी से आज तक इतने सालों में मेरे ख़याल से ३ या ४ बार बात की होगी।

महालक्ष्मी अय्यर - अब मैं एक ऐसी गायिका का गाया गीत सुनाने जा रही हूँ जिनका गाना जितना सुरीला है उनकी बातें उससे भी मीठी। मेरे इस 'सिंगिंग लाइन' में आने का एक कारण भी वो ही हैं। जी हाँ, लता मंगेशकर जी। मैं हमेशा चाहती हूँ कि अगर लता जी के ५००० गानें हैं तो मेरा सिर्फ़ एक गाना उनके जैसा
हो।

तो दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में लता जी के ज़िक्र के द्वारा हमने गुज़रे दौर और आज के दौर का संगम महसूस किया। यानी कि गुज़रे दौर के लता जी का गाया गीत बज रहा है और साथ में इस दौर के फ़नकारों के दिलों में लता जी के लिए प्यार और इज़्ज़त के चंद अंदाज़-ए-बयाँ आप ने पढ़े। कल कौन सा गीत बजने वाला है उसका आप अंदाज़ा लगाइए नीचे दिए गए पहेली के सुत्रों से, और अब मुझे आज के लिए इजाज़त दीजिए, नमस्कार!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. ३ अंकों की बढ़त पाने के लिए बूझिये लता का एक बेहद दर्द भरा नगमा.
२. पंडित गोविन्दराम और आई सी कपूर थे इस गीत में गीत-संगीत के जोडीदार.
३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"आसमाँ"

पिछली पहेली का परिणाम -
लगता है बेहद मुश्किल पहेली थी कल वाली....चलिए कोई बात नहीं आज कोशिश कीजिये....शुभकामनाएँ

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

क्या टूटा है अन्दर अन्दर....इरशाद के बाद महफ़िल में गज़ल कही "शहज़ाद" ने...साथ हैं "खां साहब"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४८

पिछली कड़ी में पूछे गए दो सवालों में से एक सवाल था "गुलज़ार" साहब के उस मित्र का नाम बताएँ जिसने गुलज़ार साहब के बारे में कहा था कि "कहीं पहले मिले हैं हम"। जहाँ तक हमें याद है हमने महफ़िल-ए-गज़ल की ३६वीं कड़ी में उन महाशय का परिचय "मंसूरा अहमद" के रूप में दिया था। जवाब के तौर पर सीमा जी, शरद जी और शामिख जी में बस सीमा जी ने हीं "मंसूरा अहमद" लिखा, बाकियों ने "मंसूरा" को शायद टंकण में त्रुटि समझकर "मंसूर" कर दिया। चाहते तो हम "मंसूर" को गलत उत्तर मानकर अंकों में कटौती कर देते, लेकिन हम इतने भी बुरे नहीं। इसलिए आप दोनों को भी पूरे अंक मिल रहे हैं। लेकिन आपसे दरख्वास्त है कि आगे से ऐसी गलती न करें। वैसे अगर आपने कहीं "मंसूर अहमद" पढ रखा है तो कृप्या हमें भी अवगत कराएँ ताकि हमें उनके बारे में और भी जानकारी मिले। अभी तो हमारे पास उन कविताओं के अलावा कुछ नहीं है। हाँ तो इस बात को मद्देनज़र रखते हुए पिछली कड़ी के अंकों का हिसाब कुछ यूँ बनता है: सीमा जी: ४ अंक, शरद जी: २ अंक, शामिख जी: १ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) अपनी बहन "दिना" की जगह पर एक कार्यक्रम पेश करके संगीत की दुनिया में उतरने वाली एक फ़नकारा जिसे १९७४ में रीलिजे हुई एक फ़िल्म के टाईटल ट्रैक ने रातोंरात स्टार बना दिया। फ़नकारा के साथ-साथ उस फिल्म की भी जानकारी दें।
२) दो गायक बंधु जिनकी प्रसिद्धि के साथ भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का भी नाम जुड़ा है और जिनके बारे में कई लोगों को लगता है कि हसरत जयपुरी उनके पिता है। उन दोनों के साथ-साथ उनके पिता का भी नाम बताएँ।


आज हम जिस गज़ल को लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं, उस गज़ल को अपनी सधी हुई आवाज़ से सजाने वाले फ़नकार की तबियत आजकल कुछ नासाज़ चल रही है। यूँ तो इस फ़नकार की एक गज़ल हम आपको पहले हीं सुनवा चुके हैं, लेकिन उस समय हमने इनके बारे में ज्यादा बातें नहीं की थी या यूँ कहिए कि हम उस कड़ी में बस उनका जीवन-वृंतात हीं समेट पाए थे। हमने सोचा कि क्यों न आज कुछ हटकर बातें की जाए। इस लिहाज़ से उनके स्वास्थ्य के बारे में बात करना सबसे जरूरी हो जाता है। २९ मार्च २००९ को उनके बारे में नवभारत टाईम्स में यह खबर आई थी: १९२७ में राजस्थान के लूना में जन्मे मेहदी हसन नौ बरस पहले पैरलाइसिस के चलते मौसिकी से दूर हो गए थे। फिलहाल, वह फेफड़ों के संक्रमण के कारण पिछले डेढ़ महीने से कराची के आगा खान यूनिवर्सिटी अस्पताल में भर्ती हैं, लेकिन जल्दी ही उन्हें छुट्टी मिलने वाली है क्योंकि उनका परिवार मेडिकल बिल भरने में असमर्थ है। उनके बेटे आरिफ हसन ने कराची से को दिए इंटरव्यू में कहा, एक बार हिन्दुस्तान आना चाहते हैं। लता से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी गजल के इस बादशाह के मुरीदों में शामिल हैं। आरिफ ने बताया, लताजी को उनकी बीमारी के बारे में पता चला तो उन्होंने मुंबई आकर इलाज कराने की पेशकश की। उन्होंने खुद सारा खर्च उठाने की भी बात कही। उनके भतीजे आदिनाथ ने हमें फोन किया था। उन्होंने बताया कि २००२ में तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भी पत्र लिखकर हसन के जल्दी ठीक होने की कामना की थी। उन्होंने भी हिन्दुस्तान सरकार की ओर से हरसंभव मदद का प्रस्ताव रखा था। आरिफ ने कहा, हसन साहब ने फन की सौदेबाजी नहीं की लिहाजा पैसा कभी जोड़ नहीं पाए। रेकॉर्डिंग कंपनियों से मिलने वाला पैसा ही आय का मुख्य जरिया था जो उस समय बहुत कम होता था। शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचने पर भी उन्हें सीखने का जुनून रहा। उनका कहना है कि संगीत तो एक समंदर की तरह है जितना इसमें उतरा, उतना ही अपने अज्ञान का पता चलता है। अफज़ल सुभानी ,जो अपने बारे में कहते हैं कि "पाकिस्तान से बाहर का मैं पहला शागिर्द हूं, जिसे मेहदी हसन साहब ने गंडा बांध कर विधिवत शिष्य बनाया है", मेहदी साहब की हालत से बड़े हीं परेशान नज़र आते हैं। मेहदी साहब की बात चलने पर कुछ याद करके वो कहते हैं: मुझे आज भी याद है, जब हमने उनके लकवाग्रस्त होने के बाद फोन पर बात की थी। मैं उनकी महान आवाज़ नहीं पहचान पाया। मैं रो पड़ा। लकवा ने उनके वोकल कॉर्डस पर असर डाला था. पर बहुत ही कम समय में वो समय भी आया जब उन्होंने अपनी उसी आवाज़ में घोषणा की “मेरी आवाज़ वापस आ गई है”, मैंने उन्हें इतना खुश कभी नहीं सुना।" आखिर कौन होगा जिसे मेहदी साहब की फ़िक्र न होगी। हमारे हिन्दुस्तान, पाकिस्तान या यूँ कहिए कि पूरे विश्व के लिए वे एक धरोहर के समान हैं। हमारी तो यही दुआ है कि वे फिर से उसी रंग में वापस आ जाएँ, जिसके लिए उन्हें जाना जाता है।

आकाशवाणी से प्रकाशित एक भेंटवार्ता के दौरान मन्ना डे साहब से जब यह पूछा गया कि "इतनी अधिक सफलता, लोकप्रियता, पुरस्कार, मान-सम्मान सभी कुछ मिलने के बाद भी क्या आपके मन में कोई इच्छा ऐसी है जो अभी भी पूरी नहीं हुई है"। तो उनका उत्तर कुछ यूँ था: हां! दो इच्छाएं अभी भी मेरे मन में हैं। एक तो यह कि मैं अपने अंतिम समय में मोहम्मद रफ़ी के गाये गीतों को सुनता रहूं, और दूसरी यह कि मैं कभी मेहदी हसन की तरह ग़ज़ल गा सकूं| संगीत की देवी के दो लाडले बेटों को इस कदर याद करना खुद मन्ना दा की संगीत-साधना को दर्शाता है। इसी तरह की एक भेंटवार्ता में मेहदी साहब से जब यह पूछा गया था कि "क्या मुल्कों को बाँटने वाली सरहदें बेवजह हैं?" तो उन्होंने कहा था कि "हाँ बेकार की चीज़े हैं ये सरहदें, पर जो अल्लाह को मंज़ूर होता है वही होता है"। वैसे भी संगीत-प्रेमियों के लिए सरहद कोई मायने नहीं रखती और यही कारण है कि हम भी फ़नकारों से यही उम्मीद रखते हैं कि उनकी गायकी में सरहदों की सोच उभरती नहीं होगी। यूँ तो कई जगहों पर और कई बार मेहदी साहब ने यह तमन्ना ज़ाहिर की है कि वे हिन्दुस्तान आना चाहते हैं(क्योंकि हिन्दुस्तान उनकी सरजमीं है, उनका अपना मुल्क है जिसकी गोद में उन्होंने अपना बचपन गुजारा है), फिर भी कुछ लोग यह कहते हैं कि मेहदी साहब तरह-तरह के विवादास्पद बयान देकर हिंदुस्तान के कुछ श्रेष्ठतम कलाकारों की बेइज्जती का प्रयास करते रहे हैं। हम यहाँ पर कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहते लेकिन उन घटनाओं को लोगों के सामने रखनें में कोई बुराई नहीं है। "शहंशाहे-गज़ल - मेहदी हसन" शीर्षक से प्रकाशित एक आलेख में ऐसे हीं कुछ वाक्यात जमा हैं(सौजन्य: सृजनगाथा): उनका एक बयान कि "हिंदुस्तान में किसी को गाना ही नहीं आता है", विश्व प्रसिद्ध गायक मोहम्मद रफ़ी को आहत कर गया था; जबकि उनका दूसरा बयान कि "हिंदुस्तान की गायिकाएं कोठेवाली गायिकाएं हैं", स्वर-सम्राज्ञी लता मंगेश्कर को भी दुखी कर गया था। प्रख्यात संगीतकार निर्देशक ख़्य्याम से तो मेहदी हसन की ज़बरदस्त झड़प अनगिनत प्रतिष्ठित कलाकारों के सामने ही हो गयी थी। मेहदी हसन ने ख़य्याम से मशहूर गायक मुकेश के बारे में कह दिया था कि "ख़य्याम साहब, आप जैसे गुणी म्यूज़िक डायरेक्टर को एक बेसुरे आदमी से गीत गवाने की क्या ज़रूरत है"। ख़य्याम ने सरेआम मेहदी हसन को बहुत बुरी तरह डांट दिया था और बात बिगड़ती देखकर कुछ महत्वपूर्ण कलाकारों ने ख़य्याम और मेहदी हसन को एक-दूसर से काफ़ी दूर हटा दिया।" हमारा मानना है कि हर फ़नकार के साथ अच्छी और बुरी दोनों तरह की बातें जुड़ी होती हैं। फ़नकार का व्यक्तित्व जिस तरह का भी हो, हमें बस उसकी फ़नकारी से मतलब रखना चाहिए। अगर फ़नकार दिल से अच्छा हो तो वह एक तरह से अपना हीं भला करता है, नहीं तो सभी जानते हैं कि प्रशंसकों की याद्दाश्त कितनी कम होती है! चलिए, हसन साहब (खां साहब) के बारे में बहुत बातें हो गईं। हम अब आज की गज़ल के गज़लगो को याद कर लेते हैं। इस गज़ल को लिखा है "फ़रहत शहज़ाद" ने, जिनकी कई सारी गज़लें मेहदी हसन साहब ने गाई हैं। हम जल्द हीं इनके बारे में भी आलेख लेकर हाज़िर होंगे। आज बस उनके लिखे इस शेर से काम चला लेते हैं:

फ़ैसला तुमको भूल जाने का,
एक नया ख्वाब है दीवाने का।


और यह रही आज़ की गज़ल। "नियाज़ अहमद" के संगीत से सनी इस गज़ल को हमने लिया है "कहना उसे" एलबम से। तो आनंद लीजिए हमारी आज की पेशकश का:

क्या टूटा है अन्दर अन्दर क्यूँ चेहरा कुम्हलाया है
तन्हा तन्हा रोने वालो कौन तुम्हें याद आया है

चुपके चुपके सुलग़ रहे थे याद में उनकी दीवाने
इक तारे ने टूट के यारो क्या उनको समझाया है

रंग बिरंगी इस महफ़िल में तुम क्यूँ इतने चुप चुप हो
भूल भी जाओ पागल लोगो क्या खोया क्या पाया है

शेर कहाँ है ख़ून है दिल का जो लफ़्ज़ों में बिखरा है
दिल के ज़ख़्म दिखा कर हमने महफ़िल को गर्माया है

अब 'शहज़ाद' ये झूठ न बोलो वो इतना बेदर्द नहीं
अपनी चाहत को भी परखो गर इल्ज़ाम लगाया है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

मुसीबत का पहाड़ आखिर किसी दिन कट ही जायेगा
मुझे सर मार कर ___ के मर जाना नहीं आता ...


आपके विकल्प हैं -
a) दीवार , b) पत्थर, c) तेशे, d) आरी

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "आईना" और शेर कुछ यूं था -

वो मेरा आईना है मैं उसकी परछाई हूँ,
मेरे ही घर में रहता है मुझ जैसा ही जाने कौन....

निदा फ़ाज़ली साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना सीमा जी ने। सीमा जी, आप पिछली न जाने कितनी कड़ियों से हमारी महफ़िल की शान बनी हुई हैं। आगे भी ऐसा हीं हो, यही दुआ है। आपने कुछ शेर महफ़िल के सुपूर्द किए:

हर एक चेहरे को ज़ख़्मों का आईना न कहो|
ये ज़िन्दगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो| (राहत इन्दौरी)

यही कहा था मेरे हाथ में है आईना
तो मुझपे टूट पड़ा सारा शहर नाबीना। (अहमद फ़राज़)

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है। (शहरयार)

सीमा जी के बाद महफ़िल में हाज़िरी लगाई शरद जी ने। आपने अपने विशेष अंदाज में दो शेर पेश किए:

पुराने आइने में शक्ल कुछ ऐसी नज़र आई
कभी तिरछी नज़र आई कभी सीधी नज़र आई
लुटी जब आबरु उसकी तो मैं भी चुप लगा बैठा
मग़र फिर ख्वाब में अपनी बहन बेटी नज़र आई। (आह!!!)

शामिख जी, आपकी पेशकश भी कमाल की रही। ये रही बानगी:

बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे। (कुँवर बेचैन)

अब मोहब्बत की जगह दिल में ग़मे-दौरां है
आइना टूट गया तेरी नज़र होने तक। (कृष्ण बिहारी नूर)

मंजु जी, वाकई चेहरा ज़िंदगी का सच बतलाता है। आप अपनी बात कहने में सफ़ल हुई हैं:

चेहरा है आईना जिन्दगी का ,
सच है बतलाता जिन्दगी का।

अवध जी, आपने महफ़िल में पहली मर्तबा तशरीफ़ रखा, इसलिए आपका विशेष स्वागत है। आपने "अनवर" और "आशा सचदेव" के बारे में जो कुछ हमसे पूछा है, उसका जवाब देने में हम असमर्थ हैं। कारण यह कि अनवर साहब के व्यक्तिगत साईट पर भी ऐसा कुछ नहीं लिखा। आप यहाँ देखें। साथ हीं पेश है आपका यह शेर:

आइना देख अपना सा मुंह ले कर रह गए.
साहेब को दिल न देने पे कितना गुरूर था.

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Thursday, September 24, 2009

अब कोई जी के क्या करे जब कोई आसरा नहीं...दर्द में डूबी लता की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 212

"कुछ लोगों के बारे में कहा जाता है कि फ़लाना व्यक्ति इतनी भाग्यशाली है कि मिट्टी को भी हाथ लगाए तो वह सोना बन जाती है। कुमारी लता मंगेशकर के लिए यह बात शत प्रतिशत सही बैठती है। कितनी ही नगण्य संगीत रचना क्यों न हो, लता जी की आवाज़ उसे ऊँचा कर देती है।" दोस्तों, ये अल्फ़ाज़ थे गुज़रे दौर के बहुत ही प्रतिभाशाली और सुरीले संगीतकार एस. एन त्रिपाठी साहब के। 'मेरी आवाज़ ही पहचान है' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का हम हार्दिक स्वागत करते हैं। दोस्तों, अगर मदन मोहन और लता जी के साथ की बात करें तो आम धारणा यही है कि मदन साहब ने लता जी को पहली बार सन् १९५० की फ़िल्म 'अदा' में गवाया था और तभी से उनकी जोड़ी जमी। जी हाँ यह बात सच ज़रूर है, लेकिन क्या आपको पता है कि सन् १९४८ में लता जी और मदन मोहन ने साथ साथ एक युगल गीत रिकार्ड करवाया था? चलिए आप को ज़रा तफ़सील से आज बताया जाए। हुआ युं कि मास्टर विनायक ने लता को काम दिलाने के लिए संगीतकार ग़ुलाम हैदर साहब के पास ले गए। हैदर साहब लता की आवाज़ और गायकी के अंदाज़ से इतने प्रभावित हुए कि वो उसे अपनी अगली फ़िल्म 'शहीद' में गवाने की ख़ातिर फ़िल्मिस्तान के एस. मुखर्जी के पास ले गए। लेकिन मुखर्जी साहब ने यह कह कर लता को रीजेक्ट कर दिया कि उसकी आवाज़ बहुत पतली है उस ज़माने की वज़नदार गायिकाओं के सामने। उसी वक़्त सब के सामने मास्टर ग़ुलाम हैदर ने यह घोषणा की थी कि एक दिन यही पतली आवाज़ इस इंडस्ट्री पर राज करेगी। उनकी यह भविष्यवाणी पत्थर की लक़ीर बन कर रह गई। ख़ैर, हैदर साहब लता को फ़िल्म 'शहीद' में तो नहीं गवा सके, और 'शहीद' के गाने चले गए सुरिंदर कौर, ललिता देयोलकर और गीता राय के खाते में। लेकिन हैदर साहब ने इस फ़िल्म के लिए लता और मदन मोहन की आवाज़ों में एक युगल गीत रिकार्ड किया जो कि भाई बहन के रिश्ते पर आधारित था। एस. मुखर्जी ने इस गीत को फ़िल्म में रखने से इंकार कर दिया और इसलिए फ़िल्म के ग्रामोफ़ोन रिकार्ड पर भी यह गीत जारी नहीं हुआ।

चाहते हुए भी ग़ुलाम हैदर 'शहीद' में लता को नहीं गवा पाए, लेकिन उन्हे बहुत ज़्यादा इंतज़ार भी नहीं करना पड़ा। उसी साल, यानी कि १९४८ में बौम्बे टाकीज़ ने बनाई फ़िल्म 'मजबूर'। और इसमें बात बन गई। ग़ुलाम हैदर के संगीत में लता के गाए इस फ़िल्म के गानें नज़रंदाज़ नहीं हुए, और लता को मिला अपना पहला लोकप्रिय गीत गाने का मौका। याद है ना आपको इस फ़िल्म का "दिल मेरा तोड़ा, हाए कहीं का न छोड़ा तेरे प्यार ने"! हिंदू-मुसलिम प्रेम कहानी पर आधारित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे श्याम और मुनव्वर सुल्ताना। नई नई आज़ादी का जश्न मनाते हुए इस फ़िल्म में लता और मुकेश ने गाए "अब डरने की बात नहीं अंग्रेज़ी छोरा चला गया"। यह गीत भी पसंद की गई। लेकिन दोस्तों, क्योंकि यह शृंखला है लता जी के कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीतों को सुनने का, इसलिए हम आज इस 'मजबूर' फ़िल्म से चुन लाए हैं एक ऐसा गीत जिसे बहुत कम सुना गया और आज तो बिल्कुल नहीं सुनाई देता है कहीं से भी। यह गीत है "अब कोई जी के क्या करे जब कोई आसरा नहीं, दिल में तुम्हारी याद है और कोई इल्तिजा नहीं"। गीतकार नज़ीम पानीपती ने इस गीत को लिखा था। इससे पहले की आप यह गीत सुनें, क्यों ना अमीन सायानी द्वारा लता जी के लिए उस इंटरव्यू का एक अंश पढ़ लें जिसमें लता जी ने मास्टर ग़ुलाम हैदर से उनकी पहली मुलाक़ात का ज़िक्र किया था। "मैं १९४५ में बम्बई आयी, मैं नाना चौक में, एक जगह है जहाँ हम लोग रहने लगे। हमारी कंपनी में एक कैमरामैन थे, वो मेरे पास आए, कहने लगे कि एक म्युज़िक डिरेक्टर हैं जिन्हे नई सिंगर की ज़रूरत है। तो तुम अगर गाना चाहो तो चलो। हरिशचंद्र बाली उनका नाम था। उनको मैने गाना सुनाया तो उनको बहुत अच्छा लगा। जब उनके गाने मैं रिकार्ड कर रही थी तब एक एक्स्ट्रा सप्लायर होते हैं ना हमारी फ़िल्मों में, वो एक आया, उसने मुझे आ के कहा कि कल तुम फ़िल्मिस्तान में आना, मास्टर ग़ुलाम हैदर आए हैं, उन्होने तुमको बुलाया है। जब मै मास्टर जी को मिलने गई तो उन्होने कहा कि तुम गाना सुनाओ। मैने एक गाना उनका सुनाया, उनकी ही पिक्चर का का कोई गाना। ग़ुलाम हैदर से मैने एक बात सीखी थी कि बोल बिल्कुल साफ़ होनी चाहिए और दूसरी बात यह कि जहाँ पर 'बीट' आता है, थोड़ा सा ज़ोर देना ताकी गाना एक दम उठे।" तो दोस्तों आज की इस कड़ी में लता जी के साथ साथ मास्टर ग़ुलाम हैदर, मदन मोहन, एस. एन. त्रिपाठी, और थोड़ी बहुत हरिशचंद्र बाली की भी बातें हो गईं, तो चलिए अब इस दुर्लभ गीत को सुना जाए, जिसे हमें उपलब्ध करवाया नागपुर के अजय देशपाण्डे जी ने, जिनके हम बेहद आभारी हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. ३ अंकों की बढ़त पाने के लिए बूझिये लता का एक और दुर्लभ गीत.
२. गीतकार हैं मुल्कराज भाकरी.
३. हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन में बने इस गीत को "चुप चुप खड़े हो" वाले अंदाज़ में बुना गया है.

पिछली पहेली का परिणाम -
रोहित जी वाह एक दम सही जवाब ...३ अंक जुड़े आपके खाते में, पराग जी आपने जिस गीत की याद दिलाई वो भी गजब का है

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

ऑस्कर जीत के बाद लौटे हैं रहमान मगर इस बार रंग है "ब्लू"



ताजा सुर ताल (24)

ताजा सुर ताल में आज में आज सुनिए हिंदुस्तान की अब तक की सबसे महंगी फिल्म "ब्लू" का एक गुस्ताख गीत

सुजॉय - सजीव, लगता है कि अब वह वक़्त आ गया है कि हमारे यहाँ भी पारंपरिक फ़िल्मी कहानियों से आगे निकलकर हॉलीवुड की तरह नए नए विषयों पर फ़िल्में बनने लगी हैं।

सजीव- किस फ़िल्म की तरफ़ तुम्हारा इशारा है सुजॉय?

सुजॉय- अक्षय कुमार की नई फ़िल्म 'ब्लू'। इस ऐक्शन फ़िल्म की कहानी केन्द्रित है समुंदर के नीचे छुपे हुए ख़ज़ाने की जिसकी रखवाली कर रहे हैं शार्क मछलियाँ। अमेरिकी लेखक जोशुआ लुरी और ब्रायान सुलिवन ने इस कहानी को लिखा है और गायिका कायली मिनोग ने भी अतिथी कलाकार के रूप में इस फ़िल्म में एक गीत गाया है जो उन्ही पर फ़िल्माया गया है।

सजीव- हाँ, मैने भी सुना है इस फ़िल्म के बारे में। क्यों ना थोड़ी सी जानकारी और दी जाए इस फ़िल्म से संबंधित! कहानी ऐसी है कि सागर और सैम दो भाई हैं, जिन्हे गुप्तधन ढ़ूंढने का ज़बरदस्त शौक है। सागर की पत्नी मोना के साथ वे बहामा के लिए निकल पड़ते हैं समुंदर के २०० फ़ीट नीचे छुपे किसी ख़ज़ाने को ढ़ूंढने के लिए। लेकिन उनकी मुलाक़त होती है आरव से जो उसी गुप्तधन को ढ़ूंढने के लिए वहाँ पे आया हुआ है। फ़िल्म का ज़्यादातर हिस्सा समुंदर के नीचे फ़िल्माया गया है, और इसीलिए फ़िल्म का शीर्षक भी रखा गया है 'ब्लू'।

सुजॉय- भई, मुझे तो बहुत इंटरेस्टिंग लग रही है, मैं तो ज़रूर देखूँगा यह फ़िल्म। वैसे फ़िल्म में कलाकार भी अच्छे हैं - संजय दत्त, अक्षय कुमार, ज़ायद ख़ान और लारा दत्ता। इन्ही चार लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है कहानी। सुना है कि बैंकॉक में इन सभी कलाकारों को फ़िल्म की शूटिंग शुरु होने से पहले स्कूबा डायविंग की ट्रेनिंग लेनी पड़ी है। अच्छा सजीव, पता है फ़िल्म में संगीत किसका है?

सजीव- हाँ, ए. आर. रहमान का। कुल ७ ट्रैक्स हैं इस ऐल्बम में। गानें लिखे हैं अब्बास टायरवाला, मयूर पुरी और रक़ीब आलम ने, और गीतों में आवाज़ें हैं सोनू निगम, उदित नारायण, श्रेया घोषाल, सुखविंदर सिंह, राशिद अली, नीरज श्रीधर, मधुश्री, सोनू कक्कर, विजय प्रकाश, जसप्रीत सिंह, दिल्शाद और रक़ीब की, साथ ही एक गीत में कायली मिनोग और सुज़ैन डी'मेलो की भी आवाज़ें हैं।

सुजॉय- यानी की ये ऑस्कर में जीत के बाद रहमान साहब की पहली प्रर्दशित फिल्म होगी, तो आज हम कौन सा गीत सुनवाएँगे?

सजीव- वही गीत जो इन दिनों काफ़ी सुना और देखा जा रहा है। श्रेया और सुखविंदर का गाया "आज दिल गुस्ताख़ है, पानियों में आग है"। ये एक पेशानेट गीत है और श्रेया ने खूब जम कर गाया है इसे, ३ बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित इस गायिका ने खुद को कभी किसी इमेज में कैद नहीं होने दिया....हाँ सुखविंदर की आवाज़ कुछ ख़ास नहीं जमी इस गीत में....हो सकता है उनका चुनाव नायक संजय दत्त को जेहन में रख कर किया गया है....

सुजॉय- मैने यह गीत सुना है, और बहुत दिनों के बाद ऐसा लगा कि ए. आर. रहमान कुछ अलग हट के बनाया है, वर्ना पिछले कई फ़िल्मों से पीरियड फ़िल्मों में संगीत देते देते वो थोड़े से टाइप-कास्ट होते जा रहे थे।

सजीव- हाँ, दरअसल रहमान साहब फिल्म के मूड के हिसाब से संगीत देने में माहिर हैं, अब यदि तेज़ बीट्स संगीत की बात की जाए तो "हम से मुकाबलa" से लेकर "गजनी" तक एक लम्बी सूची है, वहीँ आत्मीय और मेलोडी वाले संगीत पर गौर करें तो "रोजा" से लेकर 'जोधा अकबर" और "जाने तू..." जैसी फिल्मों में उनका संगीत कितना मधुर था ये बात हम सब जानते हैं. "ब्लू" की अगर बात की जाए तो ये एक तेज़ तर्रार एक्शन फिल्म है तो जाहिर है इसमें हर रंग का कुछ न कुछ होना चाहिए था, इस बड़े बजट फिल्म संगीत भी बड़े कैनवास का दिया है रहमान ने. कहते हैं कायली पर जो गीत फिल्माया गया है उस पर पूरे ६ करोड़ का खर्चा आया है, सुजोय अगर ६ करोड़ मिल जाए तो आप कितनी फिल्में बना सकते हैं ?

सुजॉय - कम से कम २ अच्छी फिल्में तो बन ही सकती है....

सजीव - तो सोचिये हमारी दो फिल्मों का खर्चा लेकर इन लोगों ने एक गीत फिल्मा दिया .....हा हा हा...खैर बड़े निर्माताओं की बड़ी बातें हैं ये...हम जिस गीत की आज बात कर रहे हैं इस गीत में भी जहाँ एक तरफ़ रोमांस है, वहीं दूसरी ओर इसका म्युज़िक ऐरेंजमेंट भी कमाल का है।

सुजॉय - ऐकोस्टिक गीटार का बहुत ही सुंदर इस्तेमाल सुनने को मिलता है इस गीत में, और जो ध्वनियाँ, जो संगीत इस गीत में सुनाई देता है वह बहुत ही मॊडर्ण है, कॊंटेम्पोररी है, लेकिन एक मेलडी भी है, मिठास भी है। अनर्थक शोर शराबा नहीं है, बल्कि एक सूथिंग नंबर है। कई बार सुनते सुनते गीत ज़हन में बसने लगता है। एक और बात कि इस गीत का जो अंत है, उसमें गीत का वॊल्युम धीरे धीरे कम हो कर गीत समाप्त हो जाता है। इस तरह का समापन पुराने दौर में काफ़ी सुनने को मिला है, लेकिन पिछले दो दशकों के गीतों को अगर आप सुनें तो पाएँगे कि गानें झट से समाप्त होते हैं ना कि ग्रैजुअली। तो बहुत दिनों के बाद इस तरह का ग्रैजुअल एंडिंग सुनने को मिला है।

सजीव- बिल्कुल! ऑस्कर मिलने के बाद अब रहमान से काफ़ी उम्मीदें हैं सभी को। तो ज़ाहिर बात है कि वो जल्द बाज़ी में आकर अपने संगीत के स्तर को गिरने नहीं देंगे, और आगे भी नए नए उनके प्रयोग हमें सुनने को मिलेंगे। तुम कितने अंक दोगे इस गीत को?

सुजॉय - मैं दूँगा ४ अंक। आपका क्या ख़याल है?

सजीव - बिलकुल सही मैं भी ४ अंक दूंगा.

सुजॉय- तो चलिए सुनते हैं गीत, इस फ़िल्म से तो मुझे बहुत सारी उम्मीदें हैं, देखते हैं कि फ़िल्म कैसी बनी है। एक बात तो ज़ाहिर है कि अगर हमारी जनता ने फ़िल्म को सर आँखों पर बिठा लिया तो आगे भी इस तरह की ग़ैर पारंपरिक फ़िल्में हमारे यहाँ और भी बनेंगी। क्या पता यह एक ट्रेंडसेटर फ़िल्म साबित हो जाए!

सजीव- ज़रूर! हमारी शुभकामनाएँ फ़िल्म के निर्माता धिलिन मेहता के साथ है....



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

संग्रहालय

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