tag:blogger.com,1999:blog-28061915429488359412024-03-19T09:45:10.808+05:30आवाज़musical platform young talented new music song composers singers lyricists arrangers poets story tellers writers critics review writers hindi content writers bloggers are welcome every friday a new release new song fresh sound rock hard rock hindi rock hard metel pop jazz filmy lounge folk sufi poetic expressions podcast poetry your poem your voice online poetry recital online audience critics story new generation song foot tapping songs soul searching intruments new star featured artistनियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.comBlogger52125tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-33104702161495782882011-11-05T17:00:00.002+05:302011-11-05T17:00:01.763+05:30कुछ एल पी गीतों की क्वालिटी तो आजकल के डिजिटल रेकॉर्डिंग् से भी उत्तम थी -विजय अकेला<strong>ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 66 </strong><strong>गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-२)</strong> <br />भाग ०१ <a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/10/blog-post_29.html">यहाँ</a> पढ़ें <br /><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' मे पिछले सप्ताह हम आपकी मुलाकात करवा रहे थे गीतकार विजय अकेला से जिनसे हम उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर साहब के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर चर्चा कर रहे थे। आइए आज बातचीत को आगे बढ़ाते हुए आनन्द लेते हैं इस शृंखला की दूसरी और अन्तिम कड़ी। <br /><br />सुजॉय - विजय जी, नमस्कार और एक बार फिर आपका स्वागत है 'आवाज़' के मंच पर। <br /><br /><strong>विजय अकेला - धन्यवाद! नमस्कार!</strong> <br /><br />सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते आप से बातचीत करने के साथ साथ जाँनिसार साहब के लिखे आपकी पसन्द के तीन गीत भी हमनें सुने। क्यों न आज का यह अंक अख़्तर साहब के लिखे एक और बेमिसाल नग़मे से शुरु की जाये? <br /><br /><strong>विजय अकेला - जी ज़रूर!</strong> <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://www.hindisong.com/MusicHappening/VijayAkela/Vijay%20Akela.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 210px; height: 164px;" src="http://www.hindisong.com/MusicHappening/VijayAkela/Vijay%20Akela.jpg" border="0" alt="" /></a><br />सुजॉय - तो फिर बताइए, आपकी पसन्द का ही कोई और गीत। <br /><br /><strong>विजय अकेला - फ़िल्म 'नूरी' का शीर्षक गीत सुनवा दीजिए। ख़य्याम साहब की तर्ज़, लता जी और नितिन मुकेश की आवाज़ें। </strong><br /><br /><strong>गीत - आजा रे आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा (नूरी)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_66/OIG_SS_66_01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी इस बात पर कि जाँनिसार साहब के गीतों के ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स तो आपको मिल गए, पर समस्या यह आन पड़ी कि इन्हें सूना कहाँ जाये क्योंकि ग्रामोफ़ोन प्लेयर तो आजकल मिलते नहीं हैं। तो किस तरह से समस्या का समाधान हुआ? <br /><br /><strong>विजय अकेला - जी, ये रेकॉर्ड्स सुनना बहुत ज़रूरी था क्योंकि गानों को करेक्टली और शुद्धता के साथ छापना भी तो इस किताब को छापने की एक अहम वजह थी बिना किसी ग़लती के! </strong><br /><br />सुजॉय - बिल्कुल! ऑथेन्टिसिटी बहुत ज़रूरी है। <br /><br /><strong>विजय अकेला - जी! </strong><br /><br />सुजॉय - तो फिर रेकॉर्ड प्लेयर का इंतज़ाम हुआ? <br /><br /><strong>विजय अकेला - प्लेयर का इंतज़ाम करना ही पड़ा। महंगी क़ीमत देनी पड़ी।</strong><br /><br />सुजॉय - महंगी क़ीमत देनी पड़ी, मतलब ऐन्टिक की दुकान में मिली? <br /><br /><strong>विजय अकेला - जी, ठीक समझे आप। मगर एक एक लफ़्ज़ को सौ सौ बार सुन कर पर्फ़ेक्ट होने के बाद ही किताब में लिखा। </strong><br /><br />सुजॉय - जी जी, क्योंकि ऑडियो क्वालिटी अच्छी नहीं होगी। <br /><strong>विजय अकेला - बिल्कुल सही। पर हमेशा नहीं, कुछ गीतों की क्वालिटी तो आजकल के डिजिटल रेकॉर्डिंग् से भी उत्तम थी। </strong><br /><br />सुजॉय - सही है! क्या है कि उन गीतों में गोलाई होती थी, आजकल के गीतों में शार्पनेस है पर राउण्डनेस ग़ायब हो गई है, इसलिए ज़्यादा तकनीकी लगते हैं और जज़्बाती कम। ख़ैर, विजय जी, यहाँ पर जाँनिसार साहब के लिखे एक और गीत की गुंजाइश बनती है। बताइए कौन सा गीत सुनवाया जाये? <br /><br /><strong>विजय अकेला - "आँखों ही आँखों में इशारा हो गया", फ़िल्म 'सी.आई.डी' का गीत है। </strong><br /><br />सुजॉय - नय्यर साहब के संगीत में रफ़ी साहब और गीता दत्त की आवाज़ें। <br /><br /><strong>गीत - आँखों ही आँखों में इशारा हो गया (सी.आई.डी)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_66/OIG_SS_66_02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - विजय जी, 'निगाहों के साये' किताब का विमोचन कहाँ और किनके हाथों हुआ? <br /><br /><strong>विजय अकेला - जुहू के 'क्रॉसरोड' में गुलज़ार साहब के हाथों हुआ। जावेद अख़्तर साहब और ख़य्याम साहब भी वहाँ मौजूद थे। </strong><br /><br />सुजॉय - विजय जी, हम अपने पाठकों के लिए यहाँ पर पेश करना चाहेंगे वो शब्द जो गुलज़ार साहब और जावेद साहब नें आपके और आपके इस किताब के बारे में कहे हैं। <br /><br /><strong>विजय अकेला - जी ज़रूर!</strong> <br /><br /><blockquote><strong>गुलज़ार - मुझे ख़ुशी इस बात की है कि यह रवायत अकेला नें बड़ी ख़ूबसूरत शुरु की है ताकि उन शायरों को, जिनके पीछे काम करने वाला कोई नहीं था, या जिनका लोगों नें नेग्लेक्ट किया, या जिनपे राइटर्स ऐसोसिएशन काम करती या ऐसी कोई ऑरगेनाइज़ेशन काम करती, उन शायरों के कलाम को सम्भालने का एक सिलसिला शुरु किया, वरना फ़िल्मों में लिखा हुआ कलाम या फ़िल्मों में लिखी शायरी को ऐसा ही ग्रेड दिया जाता था कि जैसे ये किताबों के क़ाबिल नहीं है, ये तो सिर्फ़ फ़िल्मों में है, बाक़ी आपकी शायरी कहाँ है? ये हमेशा शायरों से पूछा जाता था। यह एक बड़ा ख़ूबसूरत क़दम अकेला नें उठाया है कि जिससे वो शायरी, जो कि वाक़ई अच्छी शायरी है, जो कभी ग़र्द के नीचे दब जाती या रह जाती, उसका एक सिलसिला शुरु हुआ है और उसका आग़ाज़ उन्होंने जाँनिसार अख़्तर साहब से, और बक्शी साहब से किया है, और भी कई शायर जिनका नाम उन्होंने लिया, जैसे राजेन्द्र कृष्ण है, और भी बहुत से हैं, ताकि उनका काम सम्भाला जा सके।</strong></blockquote><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://images.indiaplaza.in/books/9788/1267/9788126712656.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 285px;" src="http://images.indiaplaza.in/books/9788/1267/9788126712656.jpg" border="0" alt="" /></a> <br /><blockquote><strong>जावेद अख़्तर - सबसे पहले तो मैं विजय अकेला का ज़िक्र करना चाहूँगा, जिन्होंने इससे पहले ऐसे ही बक्शी साहब के गीतों को जमा करके एक किताब छापी थी और अब जाँनिसार अख़्तर साहब के १५१ गीत उन्होंने जमा किए हैं और उसे किताब की शक्ल में 'राजकमल' नें छापा है। ये बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और हमारे जो पुराने गीत हैं और मैं उम्मीद करता हूँ कि इसके बाद जो दूसरे शायर हैं, राजेन्द्र कृष्ण हैं, राजा मेहन्दी अली हैं, शैलेन्द्र जी हैं, मजरूह साहब हैं, इनकी रचनाओं को भी वो संकलित करने का इरादा करेगें </strong></blockquote><br /> <br />सुजॉय - विजय जी, गुलज़ार साहब और जावेद साहब के विचार तो हमने जाने, और यह भी पता चला कि आगे आप किन गीतकारों पर काम करना चाहते हैं। फ़िल्हाल जाँनिसार साहब का लिखा कौन सा गीत सुनवाना चाहेंगे? <br /><br /><br /><strong>विजय अकेला - 'रज़िया सुल्तान' का "ऐ दिल-ए-नादान"</strong> <br /><br /><strong>गीत - ऐ दिल-ए-नादान (रज़िया सुल्तान)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_66/OIG_SS_66_03.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - विजय जी, बहुत अच्छा लगा आपसे बातचीत कर, आपकी इस किताब के लिए और इस साहसी प्रयास के लिए हम आपको बधाई देते हैं, पर एक शिकायत है आपसे। <br /><br /><strong>विजय अकेला - वह क्या?</strong> <br /><br />सुजॉय - आप फ़िल्मों में बहुत कम गीत लिखते हैं, ऐसा क्यों? <br /><br /><strong>विजय अकेला - अब ज़्यादा लिखूंगा। </strong>सुजॉय - हा हा, चलिए इसी उम्मीद के साथ आज आपसे विदा लेते हैं, बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएँ। <br /><br /><strong>विजय अकेला - शुक्रिया बहुत बहुत!</strong> <br /> <br />तो ये थी बातचीत गीतकार विजय अकेला से उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर। अगले सप्ताह फिर किसी विशेष प्रस्तुति के साथ उपस्थित होंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिये, पर आप बने रहिये 'आवाज़' के साथ! नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-82736823743635736772011-10-29T17:00:00.003+05:302011-10-29T17:00:01.934+05:30जाँनिसार अख्तर की पोयट्री में क्लास्सिकल ब्यूटी और मॉडर्ण सेंसब्लिटी का संतुलन था - विजय अकेला की पुस्तक से<strong>ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 65</strong><br /><strong><em>गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-१</em><em>)</em></strong> <br /><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' के साथ मैं एक बार फिर हाज़िर हूँ। दोस्तों, आपनें इस दौर के गीतकार विजय अकेला का नाम तो सुना ही होगा। जी हाँ, वो ही विजय अकेला जिन्होंने 'कहो ना प्यार है' फ़िल्म के वो दो सुपर-डुपर हिट गीत लिखे थे, "एक पल का जीना, फिर तो है जाना" और "क्यों चलती है पवन... न तुम जानो न हम"; और फिर फ़िल्म 'क्रिश' का "दिल ना लिया, दिल ना दिया" गीत भी तो उन्होंने ही लिखा था। उन्हीं विजय अकेला नें भले ही फ़िल्मों में ज़्यादा गीत न लिखे हों, पर उन्होंने एक अन्य रूप में भी फ़िल्म-संगीत जगत को अपना अमूल्य योगदान दिया है। गीतकार आनन्द बक्शी के गीतों का संकलन प्रकाशित करने के बाद हाल ही में उन्होंने गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों का संकलन प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'निगाहों के साये'। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम विजय अकेला जी से बातचीत करें और जानने की कोशिश करें इस पुस्तक के बारे में। <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://www.hindisong.com/MusicHappening/VijayAkela/Vijay%20Akela.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 210px; height: 164px;" src="http://www.hindisong.com/MusicHappening/VijayAkela/Vijay%20Akela.jpg" border="0" alt="" /></a><br />सुजॉय - विजय जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'आवाज़' के इस मंच पर। मैं सुजॉय चटर्जी, आप का इस मंच पर स्वागत करता हूँ, नमस्कार! <br /><br /><strong>विजय अकेला - नमस्कार सुजॉय जी!</strong> <br /><br />सुजॉय - सबसे पहले मैं आपको बधाई देता हूँ 'निगाहों के साये' के प्रकाशित होने पर। आगे कुछ कहने से पहले मैं आपको यह बता दूँ कि जाँनिसार साहब का लिखा यह जो गीत है न "ये दिल और उनकी निगाहों के साये", यह बचपन से मेरा पसन्दीदा गीत रहा है। <br /><br /><strong>विजय अकेला - जी, बहुत ही सुकून देने वाला गीत है, और संगीत भी उतना सुकूनदायक है इस गीत का। </strong> <br /><br />सुजॉय - क्या इस किताब के लिए यह शीर्षक 'निगाहों के साये' आप ही नें सुझाया था? <br /><br /><strong>विजय अकेला - जी हाँ। </strong><br /><br />सुजॉय - यही शीर्षक क्यों? <br /><br /><strong>विजय अकेला - क्योंकि यह उनका न केवल एक हिट गीत था, बल्कि कोई भी इस गीत से उन्हें जोड़ सकता था। यही शीर्षक मुझे सब से बेहतर लगा। </strong><br /><br />सुजॉय - तो चलिए इसी गीत को सुनते हैं, फ़िल्म 'प्रेम पर्बत' का यह गीत है लता जी की आवाज़ में, जयदेव का संगीत है। <br /><strong>गीत - ये दिल और उनकी निगाहों के साये (प्रेम पर्बत)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_65/OIG_SS_65_01.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br /> <br />सुजॉय - अच्छा विजय जी, यह बताइए कि आप नें संकलन के लिए आनन्द बक्शी जी के बाद जाँनिसार साहब को ही क्यों चुना? <br /><br /><strong>विजय अकेला - बक्शी जी ही की तरह जाँनिसार साहब की भी फ़िल्मी गानों की कोई किताब नहीं आई थी। जाँनिसार साहब भी एक ग़ज़ब के शायर हुए हैं और मैं उनसे मुतासिर रहा हूँ, इसलिए मैंने उन्हें चुना। गोल्डन ईरा उनकी वजह से महकी है, रोशन हुई है ऐसा मैं मानता हूँ। </strong><br /><br />सुजॉय - विजय जी, इससे पहले कि मैं आप से अगला सवाल पूछूँ, मैं अपने पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ पर 'निगाहों के साये' किताब की भूमिका में वो शब्द प्रस्तुत करता हूँ जो किसी समाचार पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं इसी किताब के बारे में। <br /><br /><blockquote><strong>'निगाहों के साये' मशहूर शायर जाँनिसार अख़्तर की फ़िल्मी यात्रा का एक ऐसा संकलन है जिसमें ग़ज़लों की रवानी है तो गीतों की मिठास भी और भावनाओं का समन्दर है तो जलते हुए जज़्बात भी। इसीलिए इस संकलन के फ़्लैप पर निदा फ़ाज़ली नें लिखा है: "जाँनिसार अख़्तर एक बाहेमियन शायर थे। उन्होंने अपनी पोयेट्री में क्लासिकल ब्यूटी और मॉडर्ण सेंसब्लिटी का ऐसा संतुलन किया है कि उनके शब्द ख़ासे रागात्मक हो गए हैं।" १९३५-३६ में ही जाँनिसार अख़्तर तरक्के पसंद आंदोलन का एक हिस्सा बन गए थे। सरदार जाफ़री, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और साहिर लुधियानवी की तरह अख़्तर साहब फ़िल्मी दुनिया के इल्मी शायर थे। विजय अकेला द्वारा संपादित यह संकलन कई अर्थों में विशिष्ट है।<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://images.indiaplaza.in/books/9788/1267/9788126712656.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 285px;" src="http://images.indiaplaza.in/books/9788/1267/9788126712656.jpg" border="0" alt="" /></a> २१८ गीतों को तिथिवार सजाया गया है। पहला गीत 'शिकायत' फ़िल्म से है जिसकी रचना १९४८ में हुई थी और अंतिम गीत 'रज़िया सुल्तान' से है जिसे शायर नें १९८३ में रचा था। यानी ३५ वर्षों का इतिहास इस संकलन में है। कई ऐसी फ़िल्मों के नग़में भी इस संग्रह मे हैं जो अप्रदर्शित रहीं जैसे 'हम हैं राही प्यार के', 'मर्डर ऑन हाइवे', 'हमारी कहानी'। यह विजय अकेला का साहसिक प्रयास ही है कि ऐसी दुर्लभ सूचनाएँ इस पुस्तक में पढ़ने को मिलती हैं। इसके साथ डॉ. गोपी चंद नारंग का संस्मरण 'इंकलाबों की घड़ी' है, जावेद अख़्तर के साथ बातचीत के अंश, नैनिताल और भोपाल से जाँनिसार अख़्तर की बेगम सजिया अख़्तर के लिखे दो ख़त, हसन कमाल की बेबाक टिप्पणी, ख़य्याम का भाव से भरा लेख, सपन (जगमोहन) की भावभीनी श्रद्धांजलि आदि इस पुस्तक में दी गई हैं।</strong></blockquote><br /> <br />सुजॉय - तो दोस्तों, अब आपको अंदाज़ा हो गया होगा कि विजय जी के इस पुस्तक का क्या महत्व है गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के शौकीनों के लिए। अच्छा विजय जी, बातचीत को आगे बढ़ाने से पहले क्यों न एक गीत सुन लिया जाये अख़त्र साहब का लिखा हुआ और आपकी पसंद का भी? <br /><br /><br /><strong>विजय अकेला - ज़रूर, 'छू मंतर' का "ग़रीब जान कर मुझको न तुम मिटा देना"</strong> <br /><br />सुजॉय - वाह! "तुम्ही ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना", आइए सुनते हैं रफ़ी साहब की आवाज़ और नय्यर साहब की तर्ज़। <br /><br /><strong>गीत - ग़रीब जान कर मुझको न तुम मिटा देना (छू मंतर)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_65/OIG_SS_65_02.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br /><br />सुजॉय - विजय जी, आपके इस पुस्तक के बारे में तो हमनें उस समाचार पत्र में छपे लेख से जान लिया, पर यह बताइए कि हर एक गीत के पूरे-पूरे बोल आपनें कैसे प्राप्त किए? किन सूत्रों का आपनें सहारा लिया? <br /><br /><strong>विजय अकेला - CDs तो जाँनिसार साहब की फ़िल्मों के जैसे मार्केट में थे ही नहीं, एक 'रज़िया सुल्तान' का मिला, एक 'नूरी' का, एक 'सी.आई.डी' का, बस, और नहीं। </strong><br /><br />सुजॉय - जी, तो फिर बाकी आपनें कहाँ ढूंढे? <br /><br /><strong>विजय अकेला - मुझे फ़िल्म-हिस्टोरियन सी. एम. देसाई साहब के पास जाना पड़ा। फिर आकाशवाणी की लाइब्रेरी में जहाँ FM पे मैं जॉकी भी हूँ, और फिर आख़िर में जावेद (अख़्तर) साहब के भाई शाहीद अख़्तर के पास गया जिनको जाँनिसार साहब नें अपने रेकॉर्ड्स, फ़ोटोज़, रफ़ बूक्स वगेरह दे रखी थी, और जिन्होंने उन्हें सम्भाल कर रखा भी था। </strong><br /><br />सुजॉय - सुनार को ही सोने की पहचान होती है। <br /><br /><strong>विजय अकेला - मगर रेकॉर्ड्स मिलने के बाद प्रोब्लेम यह आई कि इन्हें कहाँ सुनी जाए, कोई रेकॉर्ड-प्लेयर तो है नहीं आज!</strong> <br /><br />सुजॉय - बिल्कुल! पर आपकी यह समस्या का समाधान कैसे हुआ, यह हम जानेंगे अगली कड़ी में। और भी कुछ सवाल आप से पूछने हैं, लेकिन आज बातचीत को यहीं विराम देंगे, लेकिन उससे पहले जाँनिसार साहब का लिखा आपकी पसंद का एक और गीत सुनना चाहेंगे। <br /><br /><strong>विजय अकेला - "मैं तुम्ही से पूछती हूँ मुझे तुमसे प्यार क्यों है" </strong><br /><br />सुजॉय - बहुत ख़ूब! 'ब्लैक कैट' फ़िल्म का गीत है, एन. दत्ता का संगीत है, लता जी की आवाज़, सुनते हैं। <br />गीत - मैं तुम्ही से पूछती हूँ मुझे तुमसे प्यार क्यों है (ब्लैक कैट) <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_65/OIG_SS_65_03.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br /><br />तो दोस्तों, यह थी बातचीत गीतकार विजय अकेला से उनके द्वारा संकलित व सम्पादित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' से सम्बंधित। इस बातचीत का दूसरा व अन्तिम भाग आप तक पहुँचाया जायेगा अगले सप्ताह इसी स्तंभ में। आज अनुमति दीजिये, और हमेशा बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-68140288744287992322011-10-15T17:00:00.001+05:302011-10-15T17:00:00.164+05:30"पहला म्युज़िक विडियो प्लस चैनल नें ही बनाया नाज़िया हसन को लेकर"- अमित खन्नाओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 63<br /><strong>"मैं अकेला अपनी धुन में मगन" - भाग:२ </strong><br />पढ़ें भाग ०१ <a href="http://www.blogger.com/%3Ca%20href=">यहाँ </a><br /><br />ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! पिछले अंक में आप मिले सुप्रसिद्ध गीतकार एवं फ़िल्म व टी.वी. प्रोड्युसर-डिरेक्टर अमित खन्ना से। अमित जी इन दिनों रिलायन्स एन्टरटेनमेण्ट के चेयरमैन हैं, इसलिए ज़ाहिर है कि वो बहुत ही व्यस्त रहते हैं। बावजूद इसके उन्होंने 'हिन्द-युग्म' को अपना मूल्यवान समय दिया, पर बहुत ज़्यादा विस्तार से बातचीत सम्भव नहीं हो सकी। और वैसे भी अमित जी अपने बारे में ज़्यादा बताने में उत्साही नहीं है, उनका काम ही उनका परिचय रहा है। आइए अमित जी से बातचीत पर आधारित शृंखला 'मैं अकेला अपनी धुन मे मगन' की दूसरी कड़ी में उनसे की हुई बातचीत को आगे बढ़ाते हैं। पिछली कड़ी में यह बातचीत आकर रुकी थी फ़िल्म 'चलते चलते' के शीर्षक गीत पर। अब आगे... <br /><br />सुजॉय - अमित जी, 'चलते चलते' फ़िल्म का ही एक और गीत था लता जी का गाया "दूर दूर तुम रहे"। <br /><strong>अमित जी - जी हाँ, इस गीत के लिए उन्हें अवार्ड भी मिला था। इस गीत की धुन बी. जे. थॉमस के मशहूर गीत "raindrops keep falling on my head" की धुन से इन्स्पायर्ड थी। </strong><br /><br />सुजॉय - चलिए इस गीत को भी सुनते चलें। <br /><br /><strong>गीत - दूर दूर तुम रहे पुकारते हम रहे (चलते चलते)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_63/OIG_SS_63_01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - अच्छा, 'चलते चलते' के बाद फिर आपकी कौन सी फ़िल्में आईं? <br /><strong>अमित जी - उसके बाद मैंने बहुत से ग़ैर-फ़िल्मी गीत लिखे, ८० के दशक में, करीब १००-१५० गानें लिखे होंगे। फ़िल्मी गीतों की बात करें तो 'रामसे ब्रदर्स' की ४-५ हॉरर फ़िल्मों में गीत लिखे, जिनमें अजीत सिंह के संगीत में 'पुराना मन्दिर' भी शामिल है। </strong><br /><br />सुजॉय - 'पुराना मन्दिर' का आशा जी का गाया "वो बीते दिन याद हैं" गीत तो ख़ूब मकबूल हुआ था। क्यों न इस गीत को भी सुनवाते चलें और बीते दिनों को यादों को एक बार फिर ताज़े किए जायें? <br /><strong>अमित जी - ज़रूर!</strong> <br /><br /><strong>गीत - वो बीते दिन याद हैं (पुराना मन्दिर)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_63/OIG_SS_63_02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - अच्छा अमित जी, यह बताइए कि जब आप कोई गीत लिखते हैं तो आप की रणनीति क्या होती है, किन बातों का ध्यान रखते हैं, कैसे लिखते हैं? <br /><strong>अमित जी - देखिए मैं बहुत spontaneously लिखता हूँ। मैं दफ़्तर या संगीतकार के वहाँ बैठ कर ही लिखता था। घर पे बिल्कुल नहीं लिखता था। फ़िल्म में गीत लिखना कोई कविता लिखना नहीं है कि किसी पहाड़ पे जा कर या तालाब के किनारे बैठ कर लिखने की ज़रूरत है, जो ऐसा कहते हैं वो झूठ कहते हैं। फ़िल्मों में गीत लिखना एक बहुत ही कमर्शियल काम है, धुन पहले बनती है और आपको उस हिसाब से सिचुएशन के हिसाब से बोल लिखने पड़ते हैं। हाँ कुछ गीतकार हैं जिन्होंने नए नए लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया, जैसे कि राजा मेहन्दी अली ख़ाँ साहब, मजरूह साहब, साहिर साहब। इनके गीतों में आपको उपमाएँ मिलेंगी, अन्य अलंकार मिलेंगे। </strong><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://www.xmedialab.com/images/made/files/amit_khanna_170_170_s_cy_100_gra.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 170px; height: 170px;" src="http://www.xmedialab.com/images/made/files/amit_khanna_170_170_s_cy_100_gra.jpg" border="0" alt="" /></a><br />सुजॉय - अच्छा अलंकारों की बात चल रही है तो फ़िल्म 'मन-पसन्द' में आपनें अनुप्रास अलंकार का एक बड़ा ख़ूबसूरत प्रयोग किया था, उसके बारे में बताइए। <br /><strong>अमित जी - 'मन-पसन्द' मैंने ही प्रोड्युस की थी। फ़िल्म में एक सिचुएशन ऐसा आया कि जिसमे छन्दों की ज़रूरत थी। देव आनद टिना मुनीम को गाना सिखा रहे हैं। तो मैंने उसमें जयदेव की कविता से यह लाइन लेकर गीत पूरा लिखा। </strong><br /><br />सुजॉय - बहुत सुन्दर! <br /><strong>अमित जी - मैं यह समझता हूँ कि जो एक गीतकार लिखता है उसपे उसके जीवन और तमाम अनुभवों का असर पड़ता है। उसके गीतों में वो ही सब चीज़ें झलकती हैं। सबकॉनशियस माइण्ड में वही सबकुछ चलता रहता है गीतकार के। </strong><br /><br />सुजॉय - वाह! चलिए 'मनपसन्द' का लता जी और किशोर दा का गाया यह गीत सुनते चलें। <br /><br /><strong>गीत - चारू चन्द्र की चंचल चितवन... सा रे गा मा (मनपसन्द)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_63/OIG_SS_63_03.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - 'मनपसन्द' के सभी गीत इतने सुन्दर हैं कि जी चाहता है कि सभी गीत सुनवाएँ। "सुमन सुधा रजनीगंधा" भी लाजवाब गीत है। इस गीत को हम फिर कभी अवश्य अपने श्रोताओं को सुन्वएंगें. राजेश रोशन और बप्पी लाहिड़ी के अलावा और किन किन संगीतकारों के साथ आपने काम किया है? <br /><strong>अमित जी - लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के साथ फ़िल्म 'भैरवी' में काम किया, एक और फ़िल्म थी उनके साथ जो बनी नहीं। भूपेन हज़ारिका के साथ NFDC की एक फ़िल्म 'कस्तूरी' में गीत लिखे। दान सिंह के साथ भी काम किया है। जगजीत सिंह के साथ भी काम किया है, दूरदर्शन की एक सीरियल था जलाल आग़ा साहब का, उसमें। अनु मलिक की २-३ फ़िल्मों में गीत लिखे, रघुनाथ सेठ के साथ १-२ फ़िल्मों में। इस तरह से कई संगीतकारों के साथ काम करने का मौका मिला। </strong><br /><br />सुजॉय - अमित जी, कई नए कलाकारों नें आप ही के लिखे गीत गा कर फ़िल्म-जगत में उतरे थे, उनके बारे में बताइए। <br /><strong>अमित जी - अलका याग्निक नें अपना पहला गीत 'हमारी बहू अलका' में गाया था जिसे मैंने लिखा था। उदित नारायण नें भी अपना पहला गीत रफ़ी साहब के साथ 'उन्नीस बीस' फ़िल्म में गाया था जो मेरा लिखा हुआ था। शरन प्रभाकर, सलमा आग़ा नें मेरे ग़ैर फ़िल्मी गीत गाए। पिनाज़ मसानी का पहला फ़िल्मी गीत मेरा ही लिखा हुआ था। शंकर महादेवन नें पहली बार एक टीवी सीरियल में गाया था मेरे लिए। सुनिता राव भी टीवी सीरियल से आई हैं। फिर शारंग देव, जो पंडित जसराज के बेटे हैं, उनके साथ मैंने २/३ फ़िल्मों में काम किया। </strong><br /><br />सुजॉय - जी हाँ, फ़िल्म 'शेष' में आप प्रोड्युसर, डिरेक्टर, गीतकार, कहानीकार, पटकथा, संवाद-लेखक सभी कुछ थे और संगीत दिया था शारंग देव नें। <br /><strong>अमित जी - फिर इलैयाराजा के लिए भी गीत लिखे। गायकों में किशोर कुमार नें सबसे ज़्यादा मेरे गीत गाये, रफ़ी साहब नें कुछ ८-१० गीत गाये होंगे। लता जी, आशा जी, मन्ना डे साहब, और मुकेश जी नें भी मेरे दो गीत गाये हैं, दोनों डुएट्स थे, एक बप्पी लाहिड़ी के लिए, एक राजेश रोशन के लिए। इनके अलावा अमित कुमार, शैलेन्द्र सिंह, कविता कृष्णमूर्ति, अलका, अनुराधा, उषा उथुप नें मेरे गीत गाये हैं। भीमसेन जोशी जी के बेटे के साथ मैंने एक ऐल्बम किया है। नॉन-फ़िल्म में नाज़िया हसन और बिद्दू नें मेरे कई गीत गाए हैं। मंगेशकर परिवार के सभी कलाकारों नें मेरे ग़ैर-फ़िल्मी गीत गाए हैं। मीना मंगेशकर का भी एक ऐल्बम था मेरे लिखे हुए गीतों का। मीना जी नें उसमें संगीत भी दिया था, वर्षा नें गीत गाया था। </strong><br /><br />सुजॉय - अमित जी, अब मैं जानना चाहूँगा 'प्लस चैनल' के बारे में। <br /><strong>अमित जी - 'प्लस चैनल' हमनें १९९० में शुरु की थी पार्टनर्शिप में, जिसने मनोरंजन उद्योग में क्रान्ति ला दी। उस समय ऐसी कोई संस्था नहीं थी टीवी प्रोग्रामिंग की। महेश भट्ट भी 'प्लस चैनल' में शामिल थे। हमनें कुछ १० फ़ीचर फ़िल्मों और ३००० घंटों से उपर टीवी प्रोग्रामिंग् और १००० म्युज़िक ऐल्बम्स बनाई। 'बिज़नेस न्यूज़', 'ई-न्यूज़' हमने शुरु की थी। पहला म्युज़िक विडियो हम ही नें बनाया नाज़िया हसन को लेकर। </strong><br /><br />सुजॉय - 'प्लस चैनल' तो काफ़ी कामयाब था, पर आपने इसे बन्द क्यों कर दिया? <br /><strong>अमित जी - रिलायन्स में आने के बाद बन्द कर दिया। </strong><br /><br />सुजॉय - क्या आपनें गीत लिखना भी छोड़ दिया है? <br /><strong>अमित जी - जी हाँ, अब बस मैं नए लोगों को सिखाता हूँ, मेन्टरिंग् का काम करता हूँ। रिलायन्स एन्टरटेन्मेण्ट का चेयरमैन हूँ, सलाहकार हूँ, बच्चों को सिखाता हूँ। </strong><br /><br />सुजॉय - अच्छा अमित जी, चलते चलते अपने परिवार के बारे में कुछ बताइए। <br /><strong>अमित जी - मैं अकेला हूँ, मैंने शादी नहीं की। </strong><br /><br />सुजॉय - अच्छा अच्छा। फिर तो 'मनपसन्द' का गीत "मैं अकेला अपनी धुन में मगन, ज़िन्दगी का मज़ा लिए जा रहा था" गीत आपकी ज़िन्दगी से भी कहीं न कहीं मिलता-जुलता रहा होगा। ख़ैर, अमित जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका, इतनी व्यस्तता के बावजूद आपनें हमें समय दिया, फिर कभी सम्भव हुआ तो आपसे दुबारा बातचीत होगी। बहुत बहुत धन्यवाद आपका। <br /><strong>अमित जी - धन्यवाद! </strong><br /><br /><strong>गीत - मैं अकेला अपनी धुन में मगन (मनपसन्द)</strong> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_63/OIG_SS_63_04.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो दोस्तों, यह था गीतकार और फ़िल्मकार अमित खन्ना से की हुई बातचीत पर आधारित शृंखला 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन' का दूसरा और अन्तिम भाग। अगले शनिवार फिर एक विशेषांक के साथ उपस्थित होंगे, तब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमित कड़ियों का आनन्द लेते रहिए, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-67714907607719534672011-10-08T17:00:00.001+05:302011-10-08T17:00:02.650+05:30मैं अकेला अपनी धुन में मगन - बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी अमित खन्ना से एक खास मुलाक़ात<span style="font-weight:bold;">ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 62</span><br /><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! आज के इस शनिवार विशेषांक में हम आपकी भेंट करवाने जा रहे हैं एक ऐसे शख़्स से जो बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। एक गीतकार, फ़िल्म-निर्माता, निर्देशक, टी.वी प्रोग्राम प्रोड्युसर होने के साथ साथ इन दिनों वो रिलायन्स एन्टरटेनमेण्ट के चेयरमैन भी हैं। तो आइए मिलते हैं श्री अमित खन्ना से, दो अंकों की इस शृंखला में, जिसका नाम है 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन'। आज प्रस्तुत है इसका पहला भाग। <br /> <br />सुजॉय - अमित जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। और बहुत बहुत शुक्रिया हमारे मंच पर पधारने के लिये, हमें अपना मूल्यवान समय देने के लिए। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - नमस्कार और धन्यवाद जो मुझे आपने याद किया!</span> <br /><br />सुजॉय - सच पूछिये अमित जी तो मैं थोड़ा सा संशय में था कि आप मुझे कॉल करेंगे या नहीं, आपको याद रहेगा या नहीं। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - मैं कभी कुछ भूलता नहीं। </span><br /><br />सुजॉय - मैं अपने पाठकों को यह बताना चाहूँगा कि मेरी अमित जी से फ़ेसबूक पर मुलाकात होने पर जब मैंने उनसे साक्षात्कार के लिए आग्रह किया तो वो न केवल बिना कुछ पूछे राज़ी हो गये, बल्कि यह कहा कि वो ख़ुद मुझे टेलीफ़ोन करेंगे। यह बात है ३ जून की और साक्षात्कार का समय ठीक हुआ ११ जून १२:३० बजे। इस दौरान मेरी उनसे कोई बात नहीं हुई, न ही किसी तरह का कोई सम्पर्क हुआ। इसलिये मुझे लगा कि शायद अमित जी भूल जायेंगे और कहाँ इतने व्यस्त इन्सान को याद रहेगा मुझे फ़ोन करना! लेकिन ११ जून ठीक १२:३० बजे उन्होंने वादे के मुताबिक़ मुझे कॉल कर मुझे चौंका दिया। इतने व्यस्त होते हुए भी उन्होंने समय निकाला, इसके लिए हम उन्हें जितना भी धन्यवाद दें कम है। एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि फलदार पेड़ हमेशा झुके हुए होते हैं। सच कहूँ कि उनका फ़ोन आते ही अमित जी का लिखा वह गीत मुझे याद आ गया कि "आप कहें और हम न आयें, ऐसे तो हालात नहीं"। एकदम से मुझे ऐसा लगा कि जैसे यह गीत उन्हीं पर लागू हो गया हो। तो आइए बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने से पहले फ़िल्म 'देस-परदेस' के इसी गीत का आनंद ले लिया जाये! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - आप कहें और हम न आयें (देस परदेस)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_62/OIG_SS_62_01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - अमित जी, आपकी पैदाइश कहाँ की है? अपने माता-पिता और पारिवारिक पार्श्व के बारे में कुछ बताइये। क्या कला, संस्कृति या फ़िल्म लाइन से आप से पहले आपके परिवार का कोई सदस्य जुड़ा हुआ था? <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://www.indiantelevision.com/images9/amit_khanna.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 231px; height: 189px;" src="http://www.indiantelevision.com/images9/amit_khanna.jpg" border="0" alt="" /></a><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - मेरा ताल्लुख़ दिल्ली से है। मेहली रोड पर हमारा घर है। मेरा स्कूल था सेण्ट. कोलम्बा'स और कॉलेज था सेण्ट. स्टीवेन्स। हमारे घर में कला-संस्कृति से किसी का दूर दूर तक कोई सम्बंध नहीं था। हमारे घर में सब इंजिनीयर थे, और नाना के तरफ़ सारे डॉक्टर थे। </span><br /><br />सुजॉय - तो फिर आप पर भी दबाव डाला गया होगा इंजिनीयर या डॉक्टर बनने के लिये? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी, मुझे पूरी छूट थी कि जो मैं करना चाहूँ, जो मैं बनना चाहूँ, वह बनूँ। मेरा रुझान लिखने की तरफ़ था, इसलिए किसी ने मुझे मजबूर नहीं किया।</span> <br /><br />सुजॉय - यह बहुत अच्छी बात है, और आजकल के माता-पिता जो अपने बच्चों पर इंजिनीयर या डॉक्टर बनने के लिये दबाव डालते हैं, और कई बार इसके विपरीत परिणाम भी उन्हें भुगतने पड़ते हैं, उनके लिये यह कहना ज़रूरी है कि बच्चा जो बनना चाहे, उसकी रुझान जिस फ़ील्ड में है, उसे उसी तरफ़ प्रोत्साहित करनी चाहिए। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - सही बात है!</span> <br /><br />सुजॉय - अच्छा अमित जी, बाल्यकाल में या स्कूल-कॉलेज के दिनों में आप किस तरह के सपने देखा करते थे अपने करीयर को लेकर? वो दिन किस तरह के हुआ करते थे? अपने बचपन और कॉलेज के ज़माने के बारे में कुछ बताइए। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - मैं जब १४-१५ साल का था, तब मैंने अपना पहला नाटक लिखा था। फिर कविताएँ लिखने लगा, और तीनों भाषाओं में - हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी। फिर उसके बाद थिएटर से भी जुड़ा जहाँ पर मुझे करंथ, बी. एम. शाह, ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला। वो सब NSD से ताल्लुख़ रखते थे। </span><br /><br />सुजॉय - आपने भी NSD में कोर्स किया था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - नहीं, मैंने कोई कोर्स नहीं किया।</span> <br /><br />सुजॉय - आपनें फिर किस विषय में पढ़ाई की। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - मैंने इंगलिश लिटरेचर में एम.ए किया है।</span> <br /><br />सुजॉय - फिर आपनें अपना करीयर किस तरह से शुरू किया? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - कॉलेज में रहते समय मैं 'टेम्पस' नामक लातिन पत्रिका का सम्पादक था, १९६९ से १९७१ के दौरान। दिल्ली यूनिवर्सिटी में 'डीबेट ऐण्ड ड्रामाटिक सोसायटी' का सचीव भी था। समाचार पत्रिकाओं में भी फ़िल्म-संबंधी लेख लिखता था। कॉलेज में रहते ही मेरी मुलाक़ात हुई देव (आनंद) साहब से, जो उन दिनों दिल्ली में अपने 'नवकेतन' का एक डिस्ट्रिब्युशन ऑफ़िस खोलना चाहते थे। तो मुझे उन्होंने कहा कि तुम भी कभी कभी चक्कर मार लिया करो। इस तरह से मैं उनसे जुड़ा और उस वक़्त 'हरे रामा हरे कृष्णा' बन रही थी। मुझे उस फ़िल्म के स्क्रिप्ट में काम करने का उन्होंने मौका दिया और मुझे उस सिलसिले में वो नेपाल भी लेकर गए। मुझे कोई स्ट्रगल नहीं करना पड़ा। यश जोहर नवकेतन छोड़ गये थे और मैं आ गया। </span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - होठों पे गीत जागे, मन कहीं दूर भागे (मनपसंद)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_62/OIG_SS_62_02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - अच्छा, फिर उसके बाद आपनें उनकी किन किन फ़िल्मों में काम किया? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - 'नवकेतन' में मेरा रोल था 'एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर' का। १९७१ में देव साहब से जुड़ने के बाद 'हीरा-पन्ना' (१९७३), 'शरीफ़ बदमाश' (१९७३), 'इश्क़ इश्क़ इश्क़' (१९७४), 'देस परदेस' (१९७८), 'लूटमार' (१९८०), इन फ़िल्मों में मैं 'एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर' था। 'जानेमन' (१९७६) और 'बुलेट' (१९७६) में मैं बिज़नेस एग्ज़ेक्युटिव और प्रोडक्शन कन्ट्रोलर था। </span><br /><br />सुजॉय - एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर से प्रोड्युसर आप कब बनें? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - फ़िल्म 'मन-पसंद' से। १९८० की यह फ़िल्म थी, इसके गीत भी मैंने ही लिखे थे। फ़िल्म के डिरेक्टर थे बासु चटर्जी और म्युज़िक डिरेक्टर थे राजेश रोशन।</span> <br /><br />सुजॉय - वाह! इस फ़िल्म के गीत तो बहुत ही कर्णप्रिय हैं। "होठों पे गीत जागे, मन कहीं दूर भागे", "चारु चंद्र की चंचल चितवन", "मैं अकेला अपनी धुन में मगन", एक से एक लाजवाब गीत। अच्छा राजेश रोशन के साथ आपनें बहुत काम किया है, उनसे मुलाक़ात कैसे हुई थी? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - राजेश रोशन के परिवार को मैं जानता था, राकेश रोशन से पहले मिल चुका था, इस तरह से उनके साथ जान-पहचान थी।</span> <br /><br />सुजॉय - एक राजेश रोशन, और दूसरे संगीतकार जिनके साथ आपनें अच्छी पारी खेली, वो थे बप्पी लाहिड़ी साहब। उनसे कैसे मिले? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - इन दोनों के साथ मैंने कुछ २०-२२ फ़िल्मों में काम किये होंगे। मेरा पहला गीत जो है 'चलते चलते' का शीर्षक गीत, वह मैंने बप्पी लाहिड़ी के लिए लिखा था। उन दिनों वो नये नये आये थे और हमारे ऑफ़िस में आया करते थे। मैं उनको प्रोड्युसर भीषम कोहली के पास लेकर गया था। तो वहाँ पर उनसे कहा गया कि फ़िल्म के टाइटल सॉंग के लिये कोई धुन तैयार करके बतायें। केवल १५ मिनट के अंदर धुन भी बनी और मैंने बोल भी लिखे। </span><br /><br />सुजॉय - वाह! केवल १५ मिनट में यह कल्ट सॉंग् आपनें लिख दिया, यह तो सच में आश्चर्य की बात है! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">अमित जी - देखिये, मेरा गीत लिखने का तरीका बड़ा स्पॉन्टेनीयस हुआ करता था। मैं वहीं ऑफ़िस में ही लिखता था, घर में लाकर लिखने की आदत नहीं थी। फ़िल्म में गीत लिखना एक प्रोफ़ेशनल काम है; जो लोग ऐसा कहते हैं कि उन्हें घर पर बैठे या प्रकृति में बैठ कर लिखने की आदत है तो यह सही बात नहीं है। फ़िल्मी गीत लिखना कोई काविता या शायरी लिखना नहीं है। आज लोग कहते हैं कि आज धुन पहले बनती है, बोल बाद में लिखे जाते हैं, लेकिन मैं यह कहना चाहूँगा कि उस ज़माने में भी धुन पहले बनती थी, बोल बाद में लिखे जाते थे, 'प्यासा' में भी ऐसा ही हुआ था, 'देवदास' में भी ऐसा ही हुआ था। </span><br /><br />सुजॉय - किशोर कुमार के गाये 'चलते चलते' फ़िल्म का शीर्षक गीत "कभी अलविदा ना कहना" तो जैसे एक ऐन्थेम सॉंग् बन गया है। आज भी यह गीत उतना ही लोकप्रिय है जितना उस ज़माने में था, और अब भी हम जब इस गीत को सुनते हैं तो एक सिहरन सी होती है तन-मन में। "हम लौट आयेंगे, तुम युंही बुलाते रहना" सुन कर तो आँखें बिना भरे नहीं रह पातीं। और अब तो एक फ़िल्म भी बन गई है 'कभी अलविदा ना कहना' के शीर्षक से। चलिए, आज इस गीत की याद एक बार फिर से ताज़ा की जाये। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना (चलते चलते)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_62/OIG_SS_62_03.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो दोस्तों, ये था गीतकार और फ़िल्म व टेलीविज़न प्रोड्युसर अमित खन्ना से बातचीत पर आधारित शृंखला 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन' का पहला भाग। अगले हफ़्ते इस बातचीत का दूसरा व अंतिम भाग ज़रूर पढियेगा इसी मंच पर। आज इजाज़त दीजिए, नमस्कार!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">(जारी)</span>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-40734293617148952172011-09-24T17:00:00.001+05:302011-09-24T17:00:01.789+05:30"हर इन्सान को अपनी ज़िंदगी जीने का पूरा हक़ है..."- युवा अभिनेता युवराज पराशर<span class="Apple-style-span" ><span style="font-weight:bold;">अभिनेता युवराज पराशर के पसन्द के ५ लता नम्बर्स</span> </span><br /><span style="font-weight:bold;">ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 60</span><br /><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। मैं, सुजॉय चटर्जी, हाज़िर हूँ फिर एक बार फिर एक साक्षात्कार के साथ। आज हम आपको मिलवा रहे हैं हाल में बनी फ़िल्म 'डोन्नो व्हाई न जाने क्यों' के नायक श्री युवराज पराशर से, जो बनाएंगे अपनी इस फ़िल्म के बारे में और साथ ही साथ हमें सुनवाएंगे लता जी के गाए हुए उनके पसन्दीदा पाँच गीत। आइए मिलते हैं युवा अभिनेता युवराज पराशर से।<br /><br />सुजॉय - नमस्कार युवराज, स्वागत है आपका 'हिन्द-युग्म' के 'आवाज़' मंच पर और यह है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का साप्ताहिक विशेषांक।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - नमस्कार, और बहुत बहुत धन्यवाद आपका!</span><br /><br />सुजॉय - युवराज, क्योंकि लता जी के जनमदिवस के उपलक्ष्य पर इस सप्ताह का यह विशेषांक प्रस्तुत हो रहा है, और आपका भी लता जी से एक तरह का सम्बंध हुआ है आपकी फ़िल्म के ज़रिए, इसलिए बातचीत का सिलसिला भी मैं लता जी से ही शुरु करना चाहूँगा। सबसे पहले तो अपने पाठकों को वह तस्वीर दिखा दें जिसमें आप और कपिल शर्मा लता जी के साथ नज़र आ रहे हैं।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEircgYt2xbqQT_5ZWodvDsWaW7v_KdEdlj0qtVppQKQn4dJ6JCF0ibh-h_Z9ts5rc9ysMYuA42ogzDTelyBTvRBf3CkSLNKdtySeDZxtD-ITorKnrn-jXdBBJmdpd0qXKdOPZdnMQ0EIOIb/s1600/yuvraaj01.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 138px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEircgYt2xbqQT_5ZWodvDsWaW7v_KdEdlj0qtVppQKQn4dJ6JCF0ibh-h_Z9ts5rc9ysMYuA42ogzDTelyBTvRBf3CkSLNKdtySeDZxtD-ITorKnrn-jXdBBJmdpd0qXKdOPZdnMQ0EIOIb/s200/yuvraaj01.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5655380593820129250" /></a><br /><span style="font-weight:bold;">चित्र-१: युवराज और कपिल के साथ स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर</span><br /><br />सुजॉय - कैसा रहा वह अनुभव लता जी के साथ फोटो खिंचवाने का?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - Oh my God! जब मैंने उनकी शख़्सीयत को सामने से देखा तो ऐसा लगा कि जैसे मैं भगवान के सामने खड़ा हूँ, या कोई देवी मेरे सामने खड़ी हों। मैंने उनके पाँव छूए और उनसे आशीर्वाद लिया। मुझे लगता है कि वो कोई आम इंसान नहीं हैं, बल्कि माँ सरस्वती का अवतार हैं। मैं आपको बता नहीं सकता कि मुझे कैसा रोमांच महसूस हुआ जब उनके साथ फोटो खिंचवाने का मौका मिला। और मेरी पहली फ़िल्म का टाइटल गीत उन्होंने ही गाया है, इससे बड़ी ख़ुशी की बात और मेरे लिए क्या हो सकती है!</span><br /><br />सुजॉय - वाह! वाक़ई बहुत भाग्यशाली हैं आप! अच्छा तो बताइए कि आपकी पसन्द पर लता जी का गाया हुआ कौन सा गीत आप सब से पहले सुनवाना चाहेंगे?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - इसी फ़िल्म का सुनवा दीजिए, 'डोन्नो व्हाई' का टाइटल ट्रैक।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत-१ - डोन्नो व्हाई न जाने क्यों (शीर्षक गीत)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_60/OIG_SS_60_01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - और इसी फ़िल्म में आपको एक और बड़ी हस्ती के साथ काम करने का भी मौका मिला, वो हैं ज़ीनत अमान जी। इस बारे में भी कुछ बताइए।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - ओह... ज़ीनत जी के साथ काम करना एक बहुत ही सुन्दर अनुभव रहा। उनका दिल भी उतना ही ख़ूबसूरत है जितनी ख़ूबसूरत वो दिखती हैं। उन्होंने मुझे कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि मैं न्युकमर हूँ। जब पहली बार 'डोन्नो व्हाई' के सेट पर मैं उनसे मिला तो उन्होंने मुझे देख कर यह कॉम्प्लिमेण्ट दिया कि मैं ब्रैड पिट जैसा दिखता हूँ। यह बात मैं कभी नहीं भूल सकता।</span><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZLF71_czupGuN1-QHay6kai4R9tD69O4uzHhKxRqftCXGiYR-mUXEEJLOhzUrZG8x5omHvbkrezVhJMJKpLPNfIm0xJ7rKe1fGtE4Ryx9mGa8arMEgYrKXqhHqpwddWG-gOUxSMa-C4S-/s1600/yuvraaj02.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 134px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZLF71_czupGuN1-QHay6kai4R9tD69O4uzHhKxRqftCXGiYR-mUXEEJLOhzUrZG8x5omHvbkrezVhJMJKpLPNfIm0xJ7rKe1fGtE4Ryx9mGa8arMEgYrKXqhHqpwddWG-gOUxSMa-C4S-/s200/yuvraaj02.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5655380988096438914" /></a><br /><span style="font-weight:bold;">चित्र-२: ज़ीनत अमान की नज़र में युवराज हैं भारत के ब्रैड पिट</span><br /><br />सुजॉय - युवराज, 'डोन्नो व्हाई...' फ़िल्म के बारे में बताइए। यह फ़िल्म थिएटरों में तो नहीं आई हमारे शहर में पर हमें पता है कि कई फ़िल्म-उत्सवों में इसने काफ़ी नाम कमाया है।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - 'डोन्नो व्हाई...' एक कहानी है रिश्तों की, कुछ ऐसे रिश्ते जिन्हें हमारा समाज स्वीकार नहीं करता। यह कहानी तीन रिश्तों की है, पहला रिश्ता एक 'सिन्गल मदर' का है जो अपने परिवार और अपने पति के परिवार के देखभाल के लिए कुछ भी कर सकती है; दूसरा रिश्ता है है एक जवान लड़की का जो अपने जीजाजी से प्यार करने लगती है; और तीसरा रिश्ता है एक शादीशुदा लड़के का सम्लैंगिक रिश्ता।</span><br /><br />सुजॉय - यानि कि दूसरे शब्दों में यह एक बहुत ही बोल्ड फ़िल्म है। इसके लिए मैं आपको सलाम करता हूँ कि अपने करीयर के शुरु में आपने इतना बड़ा रिस्क लिया। कैसे मिला आपको यह रोल?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - धन्यवाद आपका! मुझे ऑडिशन के लिए बुलाया गया था और स्क्रीनटेस्ट के माध्यम से मुझे चुन लिया गया।</span><br /><br />सुजॉय - इस फ़िल्म से जुड़ी कुछ और बातें आपसे करेंगे, लेकिन उससे पहले हम आपकी पसन्द का लता जी का गाया दूसरा गाना सुनना चाहेंगे।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - फ़िल्म 'लम्हे' का "कभी मैं कहूँ कभी तुम कहो"।</span><br /><br />सुजॉय - वाह! मुझे भी यह गीत बहुत पसन्द है और एक समय में यह मेरा हैलो-ट्युन भी हुआ करता था। लता जी के साथ हरिहरण की आवाज़ में सुनते हैं 'लम्हे' का यह गीत।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत-२ - कभी मैं कहूँ कभी तुम कहो (लम्हे)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_60/OIG_SS_60_02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - अच्छा यह बताइए यह जो आपका रोल था, क्या आपको इसे स्वीकार करने में डर नहीं लगा या हिचकिचाहट नहीं हुई एक समलैंगिक चरित्र निभाने में?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - मैं समझता हूँ कि यह केवल एक चरित्र था जिसे मैंने निभाया और हर अभिनेता को हर किस्म का किरदार निभाना आना चाहिए। क्या मुझसे यही सवाल करते अगर मैंने किसी डॉन या बदमाश गुंडे का रोल निभाया होता? फ़िल्में और कुछ नहीं हमारे समाज का ही आईना हैं। मुझे फ़िल्म की कहानी बहुत पसन्द आई और मुझे लगा कि मेरा रोल अच्छा है, इसलिए मैंने किया।</span><br /><br />सुजॉय - लेकिन मैंने सुना है कि इस रोल को निभाने की वजह से आपको एक भारी कीमत चुकानी पड़ी है। आपके परिवार नें आप से नाता तोड़ लिया था सिर्फ़ इस वजह से कि आपने एक समलैंगिक चरित्र निभाया है?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - हाँ यह सच है, जब मेरे पापा नें मेरे निभाये गये रोल के बारे में सुना तो वो बहुत बिगड़ गए थे। मैंने उन्हें समझाने की बहुत कोशिशें की पर उस वक़्त वो कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे। पर अब सबकुछ ठीक है। ज़ीनत जी का भी एक बड़ा हाथा था उन्हें समझाने में कि यह केवल एक फ़िल्म मात्र है, हक़ीक़त नहीं। मैं सदा ज़ीनत जी का आभारी रहूंगा।</span><br /><br />सुजॉय - युवराज, क्यों न यहाँ पर आपकी पसन्द का तीसरा गीत सुना जाये लता जी का गाया हुआ।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - ज़रूर! फ़िल्म 'लकी' का "शायद यही तो प्यार है" सुनवा दीजिए जिसे लता जी नें अदनान सामी के साथ मिलकर गाया है।</span><br /><br />सुजॉय - वाह! युवराज, मानना पड़ेगा कि भले आप नए गीतों की फ़रमाइशें कर रहे हैं पर ये गानें लाजवाब हैं, एक से बढ़कर एक हैं, आइए सुनते हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत-३ - शायद यही तो प्यार है (लकी)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_60/OIG_SS_60_03.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - 'डोन्नो व्हाई...' में आपनें एक समलैंगिक चरित्र निभाया है। समलैंगिकता के बारे में आपके क्या निजी विचार हैं और आप समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - मैं बस यही कहना चाहता हूँ कि यह एक व्यक्तिगत पसन्द है और हर इन्सान को अपनी ज़िंदगी जीने का पूरा हक़ है, और समाज को चाहिए कि किसी भी इन्सान को इन्सान होने के नाते इज़्ज़त दें ना कि उसकी यौन प्रवृत्ति की जाँच पड़ताल कर।</span><br /><br />सुजॉय - मीडिया में कुछ दिन पहले ख़बर आई थी कि आपनें एक जानेमाने फ़िल्मकार पर आप पर हुए यौन शोषण का आरोप लगाया है। पर उस फ़िल्मकार नें आप पर यह उल्टा आरोप लगाया कि आप दोनों में जो कुछ भी हुआ आपकी रज़ामन्दी से ही हुआ। 'हिन्द-युग्म' के माध्यम से कुछ कहना चाहेंगे अपनी सफ़ाई में?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - माफ़ कीजिए मैं इस विषय पर कुछ कहना नहीं चाहूंगा क्योंकि जब इस गंदे मुद्दे का समाधान हुआ था हमारे एक कॉमन फ़्रेण्ड के ज़रिए, हम दोनों नें यह वादा लिया था कि इस विषय पर हम कहीं भी अपनी ज़ुबान नहीं खोलेंगे। और मैं अपना वादा तोड़ना नहीं चाहता।</span><br /><br />सुजॉय - पर युवराज आपने वादा तो हमसे भी किया है, उसका क्या?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - वह क्या?</span><br /><br />सुजॉय - वही, लता जी के गाए अपनी पसन्द के पाँच गीत सुनवाने का?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - हा हा हा, जी हाँ, ज़रूर, चौथा गाना है फ़िल्म 'ग़ुलामी' का "ज़िहाले मिस्किन"।</span><br /><br />सुजॉय - क्या बात है! यह तो मेरा भी पसन्दीदा गीत है और पता है इस गीत में लता जी के साथ शब्बीर कुमार हैं और शब्बीर साहब नें ख़ुद मुझे कहा था कि यह उनका सबसे पसन्दीदा गीत रहा है अपना गाया हुआ। चलिए सुनते हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत-४ - ज़िहाले मिस्किन मुकुन ब रंजिश (ग़ुलामी)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/SatSpShabkumar01/SatSp01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - जब हमारी बातचीत समलैंगिकता के इर्द-गिर्द घूम ही रही है तो एक और बात जो आजकल चर्चा में आती रहती है कि नवोदित मॉडल और अभिनेताओं का यौन शोषण किया जाता है, जिसे हम 'कास्टिंग काउच' कहते हैं, पहले तो लड़कियों को ही इन सब से गुज़रना पड़ता था, पर अब तो सुनने में आता है कि लड़कों का भी यही अंजाम हो रहा है। आप तो इस ग्लैम वर्ल्ड से ताल्लुख़ रखते हैं। आप बताइए कि क्या यह सच है?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युचराज - यह एक कड़वा सच है जिसे हम सब जानते हैं कि यह होता है।</span><br /><br />सुजॉय - और युवराज, अब हम बहुत पीछे की तरफ़ जाते हुए आपसे जानना चाहेंगे आपके बचपन के बारे में, और किस तरह से आप इस ग्लैम वर्ल्ड में आये?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - ह्म्म्म्म, मेरा बचपन आगरा में बीता है। बचपन से ही मुझे डान्स का बड़ा शौक था। और केवल शौक ही नहीं, मैंने बकायदा कई प्रकार के डान्स सीखे हैं जैसे कि कथक, साल्सा, हिप-हॉप और बॉलीवूड।</span><br /><br />सुजॉय - वाह! युवराज, क्योंकि बात आपके बचपन की चल रही है, तो हम चाहेंगे कि आप अपने पसन्द का पाँचवा और अन्तिम गीत उसी ज़माने से हमें सुनवायें।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - 'आपकी कसम' फ़िल्म का "करवटें बदलते रहें सारी रात हम"</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत-५ - करवटें बदलते रहें सारी रात हम (आपकी कसम)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_60/OIG_SS_60_05.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - बहुत बहुत शुक्रिया युवराज, जो आपने अपनी व्यस्तताओं के बावजूद हमें समय दिया। 'हिन्द-युग्म' की तरफ़ से, अपने पाठकों की तरफ़ से और मैं अपनी तरफ़ से आपको धन्यवाद देता हूँ और आपको एक बेहद उज्वल भविष्य की शुभकामनाएं देते हुए इस बातचीत को यही विराम देता हूँ, नमस्कार!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">युवराज - बहुत बहुत शुक्रिया आपका!</span><br /><br />तो दोस्तों, यह था युवा फ़िल्म अभिनेता युवराज पराशर से एक मुलाक़ात और उनकी पसन्द के पाँच लता नम्बर्स। चलते चलते लता जी को जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएँ देते हुए आज की यह प्रस्तुति यहीं समाप्त करते हैं, कल यानि रविवार शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित महफ़िल में फिर भेंट होगी, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-12997656998504812532011-09-11T09:15:00.002+05:302011-09-11T09:15:00.733+05:30उपन्यास में वास्तविक जीवन की प्रतिष्ठा हुई रविन्द्र युग में - माधवी बंधोपाध्याय<div><span style="font-weight:bold;">सुर संगम - 34 -रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सार्द्धशती वर्ष-२०११ पर श्रद्धांजलि (दूसरा भाग)</span></div><div><br /></div><div><blockquote><span style="font-weight:bold;">बांग्ला और हिन्दी साहित्य की विदुषी श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय से कृष्णमोहन मिश्र की रवीन्द्र साहित्य और उसके हिन्दी अनुवाद विषयक चर्चा</span><br /><a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/09/blog-post_04.html">पहला भाग पढ़ें</a> <br /></blockquote></div><div><span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000;">‘सु</span><span style="font-style:italic;"><span style="font-style:italic;">र संगम’ के आज के अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। दोस्तों, गत सप्ताह के अंक में हमने आपको बांग्ला और हिन्दी साहित्य की विदुषी श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय से रवीन्द्र-साहित्य पर बातचीत की शुरुआत की थी। पिछले अंक में माधवी जी ने रवीन्द्र-साहित्य के विराट स्वरूप का परिचय देते हुए रवीन्द्र-संगीत की विविधता के बारे में चर्चा की थी। आज हम उससे आगे बातचीत का सिलसिला आरम्भ करते हैं।</span><br /><br />कृष्णमोहन- माधवी दीदी, नमस्कार और एक बार फिर स्वागत है,"सुर संगम" के मंच पर। पिछले अंक में आपने रवीन्द्र संगीत पर चर्चा आरम्भ की थी और प्रकृतिपरक गीतों की विशेषताओं के बारे में हमें बताया। आज हम आपसे रवीन्द्र संगीत की अन्य विशेषताओं के बारे में जानना चाहते हैं।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhau2qNMRo2EX0zlO1LghIN1xf5PaShPBKLOWJrKqK4Xcqn_L-9k7HKetPElb0cKPP9P9hxeFZNEa8z_ctFl2fCU5vFzUgdvYjooZK5v-RgHIPSK9fJRvIs1EgEiuGaTkikAcaqdw2fhw7W/s1600/ph2.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 132px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhau2qNMRo2EX0zlO1LghIN1xf5PaShPBKLOWJrKqK4Xcqn_L-9k7HKetPElb0cKPP9P9hxeFZNEa8z_ctFl2fCU5vFzUgdvYjooZK5v-RgHIPSK9fJRvIs1EgEiuGaTkikAcaqdw2fhw7W/s200/ph2.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5650227838599314514" /></a><br /><span style="font-weight:bold;">माधवी दीदी- सभी पाठकों को नमस्कार करती हुई आज मैं विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के देशात्मबोधक गीतों पर कुछ चर्चा करना चाहती हूँ। सन् १९०५ में बंगभग आन्दोलन के समय उन्होंने बहुत सारे देशात्मबोधक गीतों की रचना की थी जिसने देशवासियों के मन को देशप्रेम से ओत-प्रोत कर दिया था। केवल यही नहीं उन्होंने दो राष्ट्रों के लिए दो राष्ट्रगीत भी लिखे। भारत के लिए "जन गण मन..." और बांग्लादेश के लिए "ओ आमार देशेर माटि..."। </span><br /><br />कृष्णमोहन- माधवी दी’, भारतीय संगीत की विधाओं में रवीन्द्र संगीत को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि रवीन्द्र संगीत में रागों का महत्त्व कितना होता है?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">माधवी दीदी- रवीन्द्रनाथ, शास्त्रीय संगीत तथा रागों के पूर्ण रूप से ज्ञाता थे। पर उनके संगीत को राग-रागिनी ने एक सीमा तक ही प्रभावित किया। रवीन्द्र संगीत की मर्मवाणी है, भाषा, भाव और रस। रागों को रवीन्द्रनाथ, अपने संगीत में एक सीमा तक व्यवहार करते थे। यह सीमा वहीं तक है कि राग शब्द, भाव और रस पर आरोपित न हो, बल्कि भावभिव्यक्ति में वह सहायक हो। वे कहते थे कि यदि रवीन्द्र संगीत पूर्णतया रागों पर आधारित कर दिया जाय तो संगीत पूर्णतया शास्त्रगत तथा व्याकरण-सम्मत बन जायगा और इसका भाव, रस और सुर-माधुर्य लुप्त हो जायगा। यद्यपि रवीन्द्रनाथ स्वररोपण करते समय अपने सुर के साथ एक नहीं कई रागों का मिश्रण कर देते थे, उसके बावजूद उसमें ऐसा प्राण-संचार होता था कि वह रागाश्रयी होने की जगह भावाश्रयी बनकर कानों में गूँजते हैं और हृदय को स्पर्श करते हैं।</span><br /><br />कृष्णमोहन- माधवी जी, आपने रवीन्द्र संगीत के विषय में बहुत अच्छी जानकारी दी। यहाँ थोड़ा रुक कर हम अपने पाठकों/श्रोताओं को रवीन्द्र संगीत का एक ऐसा उदाहरण सुनवाते हैं, जो मूल बांग्ला का हिन्दी काव्यान्तरण है। इस गीत को स्वर दिया है, "विश्वभारती विश्वविद्यालय" के संगीत विभाग के प्राध्यापक मोहन सिंह खंगूरा ने। आइए, सुनते हैं, बांग्ला गीत –"आजि झोरेर राते तोमार अभिसार...." का हिन्दी अनुवाद-<br /></span><br /><span style="font-weight:bold;">रवीद्र संगीत (हिन्दी अनुवाद) : "आज आँधी की रात..." : स्वर – मोहन सिंह खंगूरा</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/ssoigss/ss01.r.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object></div><div> <br /><br /><span style="font-style:italic;">कृष्णमोहन- माधवी जी, अत्यन्त मधुर गीत सुनने के बाद अब मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कथा-साहित्य के विषय में कुछ बताइए।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">माधवी दीदी- कृष्णमोहन जी, रवीन्द्रनाथ की विशाल साहित्य-परिधि के विषय में जितना कहा जाय उतना ही कम है। कथा-साहित्य के क्षेत्र में विगत शताब्दी के प्रथमार्द्ध को रवीन्द्र-युग कहा जाता है। बंकिम युग के पश्चात् रवीन्द्रनाथ ने उपन्यास में नये युग की अवतारणा की। उन्होंने उपन्यास में आधुनिक युग की स्थापना की। रवीन्द्र-युग की दो विशेषताएँ है- एक, बंकिमचन्द्र के ऐतिहासिक युग का तिरोभाव और दूसरा- सामाजिक उपन्यास के रूप में एक सूक्ष्मतर और व्यापक वास्तविकता का प्रवर्त्तन। बंकिमचन्द्र का उपन्यास, इतिहास और अपूर्व कल्पनाशक्ति का द्योतक था। उन्होंने इतिहास का सिंहद्वार खोलकर उसमें जान फूँक दिया था। पर रवीन्द्र-युग के उपन्यास में इतिहास और कल्पना हट गई और सामाजिकता तथा वास्तविकता ने सम्पूर्ण रूप से स्थान ग्रहण कर लिया। उपन्यास में वास्तविक जीवन की प्रतिष्ठा हुई। वैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बहुत सारे उत्कृष्ट उपन्यासो की रचना की है-‘चोखेर बालि’, ‘विषवृक्ष’, घरे बाहिरे, ‘गोरा’, ‘नवनीत’, ‘चार अध्याय’, ‘जोगाजोग’, ‘चतुरंग’, ‘शेषेर कविता’ इत्यादि। पर उनका ‘गोरा’ उपन्यास सर्वश्रेष्ठ है। कल्पना जगत से निकलकर यथार्थवाद को आधार बनाकर जो सर्वश्रेष्ट उपन्यास उन्होंने लिखा, वह है ‘गोरा’। १९०९ में लिखे गए इस उपन्यास का विस्तार और परिधि एक साधारण उपन्यास से बहुत अधिक है। इसमें एक महाकाव्य की विशेषता और महाकाव्य के लक्षण दिखते हैं। इसमें जितने में चरित्र लिये गये हैं, उनकी केवल व्यक्तिगत जीवन की या साधारण जीवन की छवि ही अंकित नहीं की गयी है। उन्हें हम तरह-तरह के आन्दोलन में, धर्मगत् संघर्ष में, राजनैतिक भावनाओं में प्रतिनिधित्व करते हुए पाते हैं। जीवन के ये सारे संघर्ष, उनके जीवन-आदर्श की कहानी उन्हें एक वृहत्तर संस्था के रूप में पाठकों के सामने स्थापित करती हैं।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गोरा, सुचरिता, विनय, ललिता, परेश बाबू, आनन्दमयी, इन सभी के चरित्र-विस्तार में, क्रियाकलाप में, संकल्प से, उस समय के बंगदेश में, उस विशिष्ट्य युग-सन्धिक्षण में फैला हुआ समस्त विक्षोभ, आलोड़ल और चांचल्य की छवि परिस्फुट होती है। उस समय धर्म-विप्लव एक विशेष समस्या के रूप में सामने आया था। इस उपन्यास के चरित्रों के संकल्पों के माध्यम से पता चलता है कि उन दिनों समाज में सनातनपन्थ तथा नवीनपन्थ दो धर्ममार्ग विद्यमान थे। लोग अपने-अपने विचार तथा युक्तितर्क द्वारा उसकी पुष्टि करते थे। इसमें एक भावना को और उजागर किया गया है- मानव का देशात्म-बोध और नारी की जागरूकता। गोरा की जन्म-कथा तो उपन्यास की रूपरेखा है। समस्त धार्मिक विचारों के ऊपर मानव सत्य है। गोरा को एक आइरिसमैन के रूप में अंकित करना रवीन्द्रनाथ ठाकुर का लेखन कौशल ही तो था, जिसके द्वारा उन्होंने साबित किया कि मानव का स्थान सर्वोपरि है।</span><br /><br />कृष्णमोहन- माधवी दी’ आज हमें यहीं पर विराम लेना पड़ेगा। परन्तु विराम लेने से पहले हम अपने पाठको/श्रोताओं के लिए रवीन्द्र संगीत का एक अनूठा प्रयोग प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे हिन्दी फिल्म के संगीतकार सचिनदेव बर्मन ने फिल्म "अभिमान" में शामिल किया था। मूल रवीन्द्र संगीत और उसी धुन पर आधारित फिल्म ‘अभिमान’ का गीत आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं- साशा घोषाल। आप यह गीत सुनिए और माधवी दीदी के साथ मुझे आज यहीं विराम लेने की अनुमति दीजिए। अगले रविवार को प्रातःकाल इस श्रृंखला की तीसरी और समापन कड़ी लेकर हम पुनः उपस्थित होंगे। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">रवीद्र संगीत (हिन्दी/बांग्ला) : “तेरे मेरे मिलन की ये रैना.../जोदि तारे नाईं छिलिगो...” : स्वर – साशा घोषाल</span> </span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/ssoigss/ss-rabindra-01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object></div><div><br /><br /><span style="font-weight:bold;">संलग्न चित्र परिचय :- माधवी जी की मौलिक बाँग्ला कृति 'गल्पो संकलन' का विमोचन करते हुए तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकान्त शास्त्री.</span><br /></div><div>खोज व आलेख -<a href="http://vahak.hindyugm.com/2011/04/blog-post.html"> कृष्णमोहन मिश्र</a></div><div><br /></div><div><span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://vahak.hindyugm.com/2011/03/blog-post.html">सुमित चक्रवर्ती</a></span></div><div><hr /></div><div><div style="background:#e1f8fe; padding:5px 5px; font-weight:bold;"><a href="http://podcast.hindyugm.com/?cx=partner-pub-9993819084412964:kw52fxuglx0&cof=FORID:11&ie=UTF-8&q=sur+sangam&sa=%E0%A4%87%E0%A4%B8+%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%9F+%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82+%E0%A4%96%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%82&siteurl=podcast.hindyugm.com/"><img title="Listen Sadabahar Geet" align="right" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiujumNxPtyDKPOhvxIB-53f2BHklyxfqOg4T5kXg_lepylRkX7-68f5GuhTtJ3i3ZYT1uHL-rVJnHA9Ppen5gi-zUTCwGPgTsh1Y1F-fO9i9i0rXFPM2r-ltcK1GxZEmXKiRJuSrW-fF1W/s740/legend.jpg" /></a>आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.</div><blockquote></blockquote></div>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-57591323231515955042011-09-10T17:00:00.004+05:302011-09-10T17:00:01.332+05:30...और जो बिक ही नहीं पाई वो वैसे भी किसी काम की नहीं थी - असद भोपाली<span style="font-weight:bold;">सुविख्यात शायर और फिल्म-गीतकार श्री असद भोपाली के सुपुत्र श्री ग़ालिब खाँ साहब से उनके पिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बातचीत </span><br /><a href="http://www.blogger.com/%3Ca%20href=">अब तक आपने पढ़ा...</a><br />अब आगे <br /><br />‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ के ‘शनिवार विशेषांक’ में आपका एक बार पुनः स्वागत है। दोस्तों, पिछले सप्ताह हमने फिल्म-जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार असद भोपाली के सुपुत्र ग़ालिब खाँ से उनके पिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बातचीत का पहला भाग प्रस्तुत किया था। इस भाग में आपने पढ़ा था कि असद भोपाली को भाषा और साहित्य की शिक्षा अपने पिता मुंशी अहमद खाँ से प्राप्त हुई थी। आपने यह भी जाना कि अपनी शायरी के उग्र तेवर के कारण असद भोपाली, तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर जेल में डाल दिये गये थे। आज़ादी के बाद अपनी शायरी के बल पर ही उन्होने फिल्म-जगत में प्रवेश किया था। आज हम उसके आगे की बातचीत को आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।<br /><br />कृष्णमोहन- ग़ालिब साहब, ‘शनिवार विशेषांक’ के दूसरे भाग में एक बार फिर आपका हार्दिक स्वागत है।<br /> <span style="font-weight:bold;">ग़ालिब खाँ- धन्यवाद, और सभी पाठकों को मेरा नमस्कार। अपने पिता असद भोपाली के बारे में ज़िक्र करते हुए पिछले भाग में मैंने बताया था कि १९४९ की फिल्म ‘दुनिया’ के माध्यम से एक गीतकार के रूप में उनकी शुरुआत हुई थी। इसके बाद १९५१ की फिल्म ‘अफसाना’ के गीत से उन्हें लोकप्रियता भी मिली, परन्तु फिल्म कि सफलता के सापेक्ष उन्हें काम नहीं मिला। उस समय के कलाकारों को काम से ज्यादा संघर्ष करना पड़ता था, उन्होंने भी किया। १९६३ में प्रदर्शित फिल्म 'पारसमणि' के गीत लिखने का उन्हें प्रस्ताव मिला। यह एक फेण्टेसी फिल्म थी। फिल्म की संगीत-रचना के लिए नये संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल को अनुबन्धित किया गया था। मेरे पिता ने उस समय की जन-रुचि और फिल्म की थीम के मुताबिक इस फिल्म के लिए गीत लिखे थे। फिल्म ‘पारसमणि’ के गीत- "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." और "वो जब याद आये, बहुत याद आये..." ने लोकप्रियता के परचम लहरा दिये थे। ये गीत वर्षों बाद आज भी लोकप्रियता के शिखर पर हैं।</span><br /> <br />कृष्णमोहन- आगे बढ़ने से पहले क्यों न हम इस फिल्म का एक गीत अपने पाठकों-श्रोताओं को सुनवाते चलें।<br /> <span style="font-weight:bold;">ग़ालिब खाँ- जी हाँ, मेरे खयाल से हम अपने पाठकों को ‘पारसमणि’ का बेहद लोकप्रिय गीत– "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." सुनवाते हैं-</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">फिल्म – पारसमणि : "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." : स्वर – लता मंगेशकर और कमल बरोट</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/ssoigss/oig-ss-02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br /> कृष्णमोहन- बहुत ही मधुर गीत आपने सुनवाया। ग़ालिब साहब; अब हम जानना चाहेंगे की आपके पिता असद भोपाली ने किन-किन संगीतकारों के साथ काम किया और किन संगीतकारों से उनके अत्यन्त मधुर सम्बन्ध रहे?<br /> <span style="font-weight:bold;">ग़ालिब खाँ- मेरे पिता ने संगीतकार सी. रामचन्द्र, हुस्नलाल-भगतराम, खैय्याम, हंसराज बहल, एन. दत्ता, नौशाद, ए.आर. कुरैशी (मशहूर तबलानवाज़ अल्लारक्खा), चित्रगुप्त, रवि, सी. अर्जुन, सोनिक ओमी, राजकमल, लाला सत्तार, हेमन्त मुखर्जी, कल्याणजी-आनन्दजी जैसे दिग्गज संगीतकरों के साथ काम किया। परन्तु ‘पारसमणि’ में लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल जैसे नए संगीतकारों के साथ सफलतम गीत देने के बाद नए संगीतकारों के साथ काम करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अन्त तक चलता रहा। नए संगीतकारों में गणेश और उषा खन्ना के साथ वो अधिक सहज थे। संगीतकार राम लक्ष्मण उनके अन्तिम संगीतकार साथियों में से हैं, जिनके पास आज भी उनके कई मुखड़े और गीत लिखे पड़े हैं।</span><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIEe84NKTDNIHfIZ5GkY87qUQDi3sQvvGF3cmzl7lotvkqnB7KERGo7_l3aNlZLAism0ZxigfxF_HnCWqaLrz6iBTk4ziUK3khbrwlYZKLlaTb1AD43Fn1_rTekb937qfSD2vw3m_RJmRQ/s1600/asad-bhopali.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 120px; height: 181px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIEe84NKTDNIHfIZ5GkY87qUQDi3sQvvGF3cmzl7lotvkqnB7KERGo7_l3aNlZLAism0ZxigfxF_HnCWqaLrz6iBTk4ziUK3khbrwlYZKLlaTb1AD43Fn1_rTekb937qfSD2vw3m_RJmRQ/s200/asad-bhopali.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5650232699737174354" /></a> <br />कृष्णमोहन- असद भोपाली जी ने हर श्रेणी की फिल्मों में अनेक लोकप्रिय गीत लिखे हैं, किन्तु उन्हें वह सम्मान नहीं मिल सका, जो उन्हें बहुत पहले ही मिलना चाहिए था। इस सम्बन्ध में आपका और आपके परिवार का क्या मत है?<br /> <span style="font-weight:bold;">ग़ालिब खाँ- मेरे पिता ने १९४९ से १९९० तक लगभग चार सौ फिल्मों में दो हज़ार से ज्यादा गीत लिखे परन्तु फिल्म ‘दुनिया’ से लेकर ‘मैंने प्यार किया’ के गीत "कबूतर जा जा जा..." तक उन्हें वो प्रतिष्ठा नहीं मिली जिसके वो हकदार थे। इस अन्तिम फिल्म के लिए ही उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड प्राप्त हुआ था। दरअसल इस स्थिति के लिए वो खुद भी उतने ही ज़िम्मेदार थे, जितनी ये फिल्म नगरी। कवियों और शायरों वाली स्वाभाविक अकड़ उन्हें काम माँगने से रोकती थी और जीवनयापन के लिए जो काम मिलता गया वो करना पड़ा। बस इतना ध्यान उन्होने अवश्य रखा था कि कभी अपनी शायरी का स्तर नहीं गिरने दिया। कम बजट की स्टंट फिल्मों में भी उन्होंने "हम तुमसे जुदा हो के, मर जायेंगे रो-रो के..." जैसे गीत लिखे। अपेक्षित सफलता न मिलने से या यूँ कहूँ कि उनकी असफलता ने उन्हें शराब का आदी बना दिया था और उनकी शराब ने पारिवारिक माहौल को कभी सुखद नहीं होने दिया। पर आज जब मैं उनकी स्थिति को अनुभव कर पाता हूँ तो समझ में आता है कि जितना दुःख उनकी शराब ने हमें दिया उससे ज्यादा दुःख वो चुपचाप पी गए और हमें एहसास तक नहीं होने दिया। प्रसिद्ध शायर ग़ालिब के हमनाम (असद उल्लाह् खाँ) होने के साथ-साथ स्वभाव, संयोग और भाग्य भी उन्होंने कुछ वैसा ही पाया था। मेरे पिता के अन्तर्मन का दर्द उनके गीतों में झलकता है। दर्द भरे गीतों की लम्बी सूची में से फिल्म ‘मिस बॉम्बे’ का एक गीत मैं पाठकों को सुनवाना चाहता हूँ।</span><br /> <br />कृष्णमोहन- दोस्तों, ग़ालिब खाँ के अनुरोध पर हम आपको १९५७ की फिल्म ‘मिस बॉम्बे’ का यह गीत सुनवा रहे हैं। स्वर मोहम्मद रफी का और संगीत हंसराज बहल का है। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">फिल्म – मिस बॉम्बे : "ज़िंदगी भर ग़म जुदाई का.." : स्वर – मोहम्मद रफी</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/ssoigss/oig-ss01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br /> कृष्णमोहन- ग़ालिब साहब! साहित्य क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों के बारे में भी हमें बताएँ। क्या उनके गीत/ग़ज़ल के संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं?<br /> <span style="font-weight:bold;">ग़ालिब खाँ- इस मामले में भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उनकी लिखी हजारों नज्में और गजले जिस डायरी में थी वो डायरी बारिश कि भेंट चढ़ गयी। उन दिनों हम जिस स्थान पर रहते थे उसका नाम था "नालासोपारा", जो पहाड़ी के तल पर था और वहाँ मामूली बारिश में भी बाढ़ कि स्थिति पैदा हो जाती थी और ऐसी ही एक बाढ़, असद भोपाली की सारी "गालिबी" को बहा ले गयी। तब उनकी प्रतिक्रिया, मुझे आज भी याद है। उन्होने कहा था- 'जो मैं बेच सकता था मैं बेच चुका था,और जो बिक ही नहीं पाई वो वैसे भी किसी काम की नहीं थी'। एक शायर के पूरे जीवन की त्रासदी इस एक वाक्य में निहित है।</span><br /> <br />कृष्णमोहन- आप अपने बारे में भी हमारे पाठको को कुछ बताएँ। यह भी बताएँ कि अपने पिता का आपके ऊपर कितना प्रभाव पड़ा?<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnxAPxh9mhuC1_k8oDK7k6opLZCHI9EFkuC2MAV02Lof8tMc-WhDt9Gp8Gzw4BXEMghAMKZnUa2h_tBbcfnEn2PvU1QfJC-T0I8QFcCPUjuvFGjWgRQwzy-PQZRuFhnnuWcuiLvugga959/s1600/ghalib+asad+bhopalee.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 107px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnxAPxh9mhuC1_k8oDK7k6opLZCHI9EFkuC2MAV02Lof8tMc-WhDt9Gp8Gzw4BXEMghAMKZnUa2h_tBbcfnEn2PvU1QfJC-T0I8QFcCPUjuvFGjWgRQwzy-PQZRuFhnnuWcuiLvugga959/s200/ghalib+asad+bhopalee.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5650232896346365090" /></a> <span style="font-weight:bold;">ग़ालिब खाँ- मेरे पिता मिर्ज़ा ग़ालिब से कितने प्रभावित थे इसका अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि उन्होने मेरा नाम ग़ालिब ही रखना पसन्द किया। वो अक्सर कहते थे कि वो असदउल्लाह खाँ "ग़ालिब" थे और ये 'ग़ालिब असदउल्लाह खाँ’ है। अब ये कुछ उस नाम का असर है और कुछ धमनियों में बहते खून का, कि मैंने भी आखिरकार कलम ही थाम ली। शायरी और गीत लेखन से शुरुआत की, फिर टेलीविज़न सीरियल के लेखन से जुड़ गया। ‘शक्तिमान’ जैसे धारावाहिक से शुरुआत की। फिर ‘मार्शल’, ‘पैंथर’, ‘सुराग’ जैसे जासूसी धारावाहिकों के साथ ‘युग’, ‘वक़्त की रफ़्तार’, ‘दीवार’ के साथ-साथ ‘माल है तो ताल है’, ‘जीना इसी का नाम है’, ‘अफलातून’ जैसे हास्य धारावाहिक भी लिखे। ‘हमदम’, ‘वजह’ जैसी फिल्मो का संवाद-लेखन किया और अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म ‘भिन्डी बाज़ार इंक’ की पटकथा-संवाद लिखने का सौभाग्य मिला, जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। बस मेरी इतनी ही कोशिश है कि मैं अपने पिता के नाम का मान रख सकूँ और उनके अधूरे सपनों को पूरा कर पाऊँ।</span><br /> <br /> कृष्णमोहन- आपका बहुत-बहुत आभार, आप ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ के मंच पर आए और अपने पिता असद भोपाली की शायरी के विषय में हमारे पाठकों के साथ चर्चा की। अब चलते –चलते आप अपनी पसन्द का कोई गीत हमारे पाठकों/श्रोताओं को सुनवा दें।<br /> <span style="font-weight:bold;"> ग़ालिब खाँ- ज़रूर, पाठको को मैं एक ऐसा गीत सुनवाना चाहता हूँ, जिसे जब भी मैं सुनता हूँ अपने पिता को अपने आसपास पाता हूँ। यह फिल्म ‘एक नारी दो रूप’ का गीत है जिसे रफी साहब ने गाया है और संगीतकार हैं गणेश। चूँकि फिल्म चली नहीं इसलिए गीत भी अनसुना ही रह गया। आप इस गीत को सुने और मुझे इजाज़त दीजिए। </span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">फिल्म – एक नारी दो रूप : “दिल का सूना साज तराना ढूँढेगा...” : स्वर – मोहम्मद रफी</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/ssoigss/ss-oig-03.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br /><span style="font-weight:bold;"><a href="http://vahak.hindyugm.com/2011/04/blog-post.html">कृष्णमोहन मिश्र</a></span>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-32607671191163815722011-09-04T09:15:00.000+05:302011-09-04T09:15:00.414+05:30वे (रवीन्द्रनाथ ठाकुर) असाधारण गीतकार तथा संगीतकार थे - माधवी बंद्योपाध्याय<div><span style="font-weight:bold;">सुर संगम - 33 -रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सार्द्धशती वर्ष-२०११ पर श्रद्धांजलि (पहला भाग)</span></div><div>
<br /></div><div><blockquote><span style="font-weight:bold;">बांग्ला और हिन्दी साहित्य की विदुषी श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय से कृष्णमोहन मिश्र की रवीन्द्र साहित्य और उसके हिन्दी अनुवाद विषयक चर्चा</span></blockquote></div><div><span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000;">न</span><span style="font-style:italic;">त कर देना शीश को प्रभु, चरण कमल रज के तल में।
<br />मेरे अहं को सतत डुबोना, मेरे वचन अश्रु-जल में।</span>
<br />
<br />‘सुर संगम’ का आज का अंक हमने कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता के हिन्दी अनुवाद से किया है।‘गीतांजलि’ के इस पद का हिन्दी काव्यानुवाद विदुषी माधवी बंद्योपाध्याय ने किया है। १२ सितम्बर, १९३७ को उत्तर प्रदेश के अयोध्या में एक प्रवासी बंगाली परिवार में माधवी जी का जन्म हुआ था। पारिवारिक संस्कार और स्वाध्याय से उन्होने बांग्ला भाषा और साहित्य का गहन अध्ययन किया। अँग्रेजी विषय में उन्होने स्नातक तक शिक्षा ग्रहण की। माधवी जी को बाल्यावस्था से कविता, कहानी, निबन्ध आदि लिखने में पर्याप्त रुचि थी। विवाह के उपरान्त पति श्री दिलीप कुमार बनर्जी के सहयोग और प्रोत्साहन से बांग्ला और हिन्दी की मौलिक तथा अनूदित कृतियाँ एक के बाद एक प्रकाशित होती रहीं। अब तक माधवी जी की लगभग डेढ़ दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हमारे आग्रह पर माधवी दीदी ने‘सुर संगम’के लिए रवीन्द्र-संगीत, साहित्य और उनके हिन्दी अनुवाद पर चर्चा करने की सहर्ष सहमति दी। हम उनके प्रति आभार प्रकट करते हुए इस बातचीत का सिलसिला आरम्भ करते हैं।
<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDgQHTQGG_KnLOit4Nu7-3TWQCEp5QrBtjGw-pvc6LPxgtZwaUX9lZmOi27K6hJrJPa-tkDiUgNKlpbPQ5L9Sgyudx3NcaaNTApuDPGba4FwBeDDEM3209FYE4pw6blDUjzn33V2gARTdA/s1600/ph1.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 137px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDgQHTQGG_KnLOit4Nu7-3TWQCEp5QrBtjGw-pvc6LPxgtZwaUX9lZmOi27K6hJrJPa-tkDiUgNKlpbPQ5L9Sgyudx3NcaaNTApuDPGba4FwBeDDEM3209FYE4pw6blDUjzn33V2gARTdA/s200/ph1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5647613576804528162" /></a>
<br />कृष्णमोहन- आदरणीया माधवी दीदी, नमस्कार! और‘सुर संगम’के मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है। यद्यपि यह स्तम्भ शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोक संगीत पर केन्द्रित है किन्तु इस अंक में हम रवीन्द्रनाथ ठाकुर के १५० वें जयन्ती वर्ष के उपलक्ष्य में रवीन्द्र संगीत के साथ-साथ उनके समग्र साहित्य पर आपसे चर्चा करेंगे।
<br />
<br /><span style="font-weight:bold;">माधवी दीदी- नमस्कार! कृष्णमोहन जी आपको और ‘सुर संगम’के सभी पाठकों का आभार प्रकट करती हूँ कि आपने मुझे विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सार्द्धशती वर्ष में उनको श्रद्धांजलि अर्पण करने का अवसर दिया।</span>
<br />
<br />कृष्णमोहन- माधवी जी, आपने रवीन्द्र साहित्य का न केवल गहन अध्ययन किया है, बल्कि उनकी अनेक कृतियों का हिन्दी अनुवाद भी किया है। सर्वप्रथम हमें यह बताएँ कि विश्वकवि और उनका साहित्य आपकी दृष्टि में किस प्रकार उल्लेखनीय है?
<br />
<br /><span style="font-weight:bold;">माधवी दीदी- विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर आज हमारे बीच सशरीर उपस्थित नहीं हैं, किन्तु उनकी पवित्र आत्मा सदा हमारे बीच विद्यमान है। वह हमारी अन्तरात्मा के साथ इस प्रकार घुलमिल गए हैं कि अब उन्हें स्वयं से अलग करना सम्भव नहीं है। वायु-प्रकाश सदैव हमारे साथ लिप्त रहते हैं। उनके बिना हम एक पल नहीं जी सकते। हम उन्हें हर समय अनुभव नहीं करते है फिर भी ये दोनों तत्व अनजाने में ही हमारे साथ बने रहते हैं। कविगुरु भी इसी प्रकार अनजाने में सदा हमारे मन में विद्यमान रहते हैं। यद्यपि हम उन्हें हर समय स्मरण नहीं करते हैं पर, वह हमारे मन में इस प्रकार बसे हुए है कि हम उन्हें कभी भूलते भी नहीं हैं। रवीन्द्रनाथ को हम एक शब्द में महामानव कह सकते हैं। उनके गुणों की परिधि की विशालता उनके ६ विराट कर्मकाण्ड तथा उनकी विविधता के बारे में हम निर्वाक होकर केवल सोचते ही रहते है।
<br />
<br />एक तरफ है उनकी साहित्यिक कृतियों के अन्तर्गत- कथा साहित्य में उपन्यास, लघुकथाएँ, प्रबन्ध आदि अत्यन्त रोचक है। नाट्य साहित्य में उनके नाटक, नृत्य नाटिकाएँ वास्तव में मनोगुग्धकारी है। कविताओं की जितनी प्रशंसा करें, कम हैं। ‘गीतांजलि’ में उन्होंने नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था, जो हर भारतवासी के लिये गर्व की बात है। रवीन्द्रनाथ का प्रबन्ध अपनी एक अलग गभ्भीरता रखता है। यदि उनके संगीत के बारे में कहा जाय तो वह रस और भाव से भरा हुआ है। वे असाधारण गीतकार तथा संगीतकार थे। स्वयं गीत लिखते थे और स्वयं ही उसकी स्वरलिपि बनाते थे। रवीन्द्र संगीत का एक अलग ही वैशिष्ट्य होता है। गाने से पूरे परिवेश में वह सुर छा जाता है। गीत सुनकर ही पता चल जाता है कि वह रवीन्द्र संगीत है।</span>
<br />
<br />कृष्णमोहन- इससे पहले कि हम आपसे रवीन्द्र संगीत की विशेषताओं के बारे में कुछ और प्रश्न करें, हम अपने पाठकों/श्रोताओं को रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ही आवाज़ में कुछ काव्य-पंक्तियाँ सुनवाना चाहते हैं।
<br />
<br /><span style="font-weight:bold;">माधवी दीदी- अवश्य सुनवाइए कृष्णमोहन जी, स्वयं कविगुरु की आवाज़ में उन्हीं की कविता को सुनना मेरे लिए भी दुर्लभ क्षण होगा।</span>
<br />
<br /><span style="font-weight:bold;">कविता का शीर्षक ‘प्रोश्नों’ : स्वर – रवीन्द्रनाथ ठाकुर</span>
<br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/SsRabindra/ss-rabindra01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object></div><div>
<br />
<br /><span style="font-weight:bold;">माधवी दीदी- इस आवाज़ को सुनवा कर आपने मेरे कानों को तृप्त कर दिया। अब मैं आपके प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करती हूँ। रवीन्द्र संगीत में ऐसी विशेषताएँ होती हैं कि इसे भारतीय संगीत के क्षेत्र में एक अलग विधा के रूप में मान्यता भी प्राप्त हो चुकी है। रवीन्द्र संगीत, स्वर तथा भाव प्रधान होता है और सादगी में सुन्दरता इसकी विशेषता है। रवीन्द्रनाथ अपने संगीत को तान-तरानों से नहीं सजाते थे। वाद्य संगति में भी सादगी होती है। मात्र स्वर और ताल के लिए एक-एक वाद्य संगति के लिए पर्याप्त होता है। खुले हुए कण्ठ में रवीन्द्र संगीत गाना चाहिए। काव्य के भावों के अनुकूल रागों का चयन और स्वर के साथ-साथ अपनी आत्मा को संतुष्टि देना ही इस संगीत का वैशिष्ट्य है। गाते समय केवल कण्ठ का ही नहीं बल्कि आत्मा की आवाज भी सुनाई देती है। रवीन्द्र संगीत कई पर्वों में विभाजित है। प्रकृति पर्व, प्रेम पर्व, पूजा पर्व, देशात्मबोधक संगीत, भानु सिंह की पदावलि इत्यादि उनके संगीत की विविधता है। एक और विशेषता यह है कि उनका प्रेमपर्व और पूजापर्व मानों एक ही साथ घुल-मिल गया है। यदि वे गीत में प्रेमी को सम्बोधित करते है तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह ईश्वर के उद्देश्य से बोल रहे है। ईश्वर ही उनका प्रेमी है।</span>
<br />
<br /><span style="font-weight:bold;">इसके साथ ही कविगुरु प्रकृति-प्रेमी थे। प्रत्येक ऋतु के अनुकूल उन्होंने गीत रचना की है। वर्षा ऋतु पर उनके सबसे अधिक गीत हैं। उनका मानना था कि वर्षा ऋतु का प्रभाव सीधे मनुष्य के मन पर पड़ता है। बरसात की ध्वनि में जो विविधता होती है वह व्यक्ति की मानसिकता पर अलग-अलग प्रभाव का विस्तार करती है। कभी प्रेम तो कभी विरह जगाता है, कभी मन उदास होकर दूर आसमान में उड़ने लगता है, कभी-कभी वर्षा की ध्वनि मनुष्य को बावरा सा बना देता है, उसे घर में, या फिर किसी काम में मन नहीं लगता है। उन्होंने वर्षा ऋतु पर बहुत सारे गीत लिखे और भाष्य के साथ ‘वर्षामंगल’ नामक धारा-भाष्य लिखा है। ‘ऋतुरंग’ उनका दूसरा धारा-भाष्य है।</span>
<br />
<br />कृष्णमोहन- माधवी दी’ आपने अभी ‘वर्षामंगल’ की चर्चा की है। यहाँ थोड़ा विराम लेकर हम रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कालजयी रचना ‘वर्षामंगल’ का एक ऋतु आधारित गीत अपने पाठकों/श्रोताओं को सुनवाते हैं।
<br />
<br /><span style="font-weight:bold;">रवीन्द्र संगीत : "एसो श्यामलो सुन्दरो..." (वर्षामंगल) : स्वर – आशा भोसले</span>
<br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/SsRabindra/ss-rabindra02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object></div><div>
<br />
<br />दोस्तों, इस गीत के साथ आज के अंक को यहीं विराम देता हूँ। ‘सुर संगम’ के अगले अंक में भी हम रवीन्द्र साहित्य की विदुषी माधवी वंद्योपाध्याय से की गई यह चर्चा जारी रखेंगे। आप सभी संगीत प्रेमियों की हमें अगले रविवार को प्रतीक्षा रहेगी।
<br />
<br /><span style="font-weight:bold;">संलग्न चित्र परिचय :- भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् द्वारा आयोजित कार्यक्रम में व्याख्यान/प्रदर्शन करती हुई श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय.</span>
<br /></div><div>खोज व आलेख -<a href="http://vahak.hindyugm.com/2011/04/blog-post.html"> कृष्णमोहन मिश्र</a></div><div>
<br /></div><div><span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://vahak.hindyugm.com/2011/03/blog-post.html">सुमित चक्रवर्ती</a></span></div><div><hr /></div><div><div style="background:#e1f8fe; padding:5px 5px; font-weight:bold;"><a href="http://podcast.hindyugm.com/?cx=partner-pub-9993819084412964:kw52fxuglx0&cof=FORID:11&ie=UTF-8&q=sur+sangam&sa=%E0%A4%87%E0%A4%B8+%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%9F+%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82+%E0%A4%96%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%82&siteurl=podcast.hindyugm.com/"><img title="Listen Sadabahar Geet" align="right" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiujumNxPtyDKPOhvxIB-53f2BHklyxfqOg4T5kXg_lepylRkX7-68f5GuhTtJ3i3ZYT1uHL-rVJnHA9Ppen5gi-zUTCwGPgTsh1Y1F-fO9i9i0rXFPM2r-ltcK1GxZEmXKiRJuSrW-fF1W/s740/legend.jpg" /></a>आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.</div><blockquote></blockquote></div>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-25531847041606925382011-07-23T17:00:00.002+05:302011-07-23T17:00:00.784+05:30OIG - शनिवार विशेष - 51 - किशोर दा के कई गीतों में पिताजी का बड़ा योगदान था<span style="font-weight:bold;">पार्श्वगायिका पूर्णिमा (सुषमा श्रेष्ठ) अपने पिता व विस्मृत संगीतकार भोला श्रेष्ठ को याद करते हुए...</span><br /><br />ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, १९३१ से लेकर अब तक फ़िल्म-संगीत संसार में न जाने कितने संगीतकार हुए हैं, जिनमें से बहुत से संगीतकारों को अपार सफलता और शोहरत हासिल हुई, और बहुत से संगीतकार ऐसे भी हुए जिन्हें वो मंज़िल नसीब नहीं हुई जिसकी वो हक़दार थे। कभी छोटी बजट की फ़िल्मों में मौका पाने की वजह से तो कभी स्टण्ट या धार्मिक फ़िल्मों का ठप्पा लगने की वजह से, कभी व्यक्तिगत कारणों से और कभी कभी सिर्फ़ क़िस्मत के खेल की वजह से ये प्रतिभाशाली संगीतकार गुमनामी में रह कर चले गए। पर फ़िल्म-संगीत के धरोहर को अपनी सुरीली धुनों से समृद्ध कर गए। ऐसे ही एक कमचर्चित पर गुणी संगीतकार हुए भोला श्रेष्ठ। आज की पीढ़ी के अधिकतर नौजवानों को शायद यह नाम कभी न सुना हुआ लगे, पर गुज़रे ज़माने के सुरीले संगीत में दिलचस्पी रखने वालों को भोला जी का नाम ज़रूर याद होगा। पर बहुत कम ऐसे लोग होंगे जिन्हें यह पता होगा कि भोला श्रेष्ठ दरअसल पार्श्वगायिका पूर्णिमा (सुषमा श्रेष्ठ) के पिता हैं। पिछले दिनों हमनें सम्पर्क किया पूर्णिमा जी से और उनसे जानना चाहा उनके पिता के बारे में। पूर्णिमा जी नें बहुत ही आग्रह के साथ हमें सहयोग दिया और हमसे बातचीत की। तो आइए, आज के इस विशेषांक में प्रस्तुत है पूर्णिमा जी से की हुई बातचीत। <br /><br />सुजॉय - पूर्णिमा जी, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है 'हिंद-युग्म' के 'आवाज़' मंच पर।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - नमस्कार!</span><br /><br />सुजॉय - पूर्णिमा जी, आज की पीढ़ी के लोग सुषमा श्रेष्ठ और पूर्णिमा के नामों से तो भली-भाँति वाकिफ़ हैं, पर बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे जिन्होंने भोला श्रेष्ठ जी का नाम सुना होगा। इसलिए हम चाहते हैं कि आपके पिता भोला जी के बारे में जानें और अपने पाठकों को भी जानकारी दें।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - ज़रूर!</span><br /><br />सुजॉय - तो बताइए अपने पिता के बारे में। क्या उन्हें संगीत विरासत में मिली थी? कहाँ से ताल्लुख़ रखते थे वो?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - मेरे पिताजी श्री भोला श्रेष्ठ जी का जन्म १७ जून १९२४ में कोलकाता में हुआ था। उन्होंने अपनी पढ़ाई कोलकाता से ही पूरी की। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि किसी संगीतमय परिवार से ताल्लुख़ न रखते हुए भी वो एक बहुत अच्छे तबला वादक थे। बनारस घराने के दिग्गज कलाकारों से उन्होंने हिंदुस्तानी परकशन की बारीक़ियों को सीखा। फिर १९४९ में वो मुंबई आए फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आज़माने। मुंबई आकर वो जुड़े 'बॉम्बे टॉकीज़' से और सहायक बनें खेमचंद प्रकाश के। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि फ़िल्म 'महल' के सदाबहार गीत "आयेगा आनेवाला" में उनका कितना बड़ा योगदान था।</span><br /><br />सुजॉय - अच्छा? यह तो वाक़ई ताज्जुब की बात है! उसके बाद जब सहायक से स्वतंत्र संगीतकार बनें, तो बतौर स्वतंत्र संगीतकार उन्होंने अपनी पारी कहाँ से शुरु की थी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - उनके संगीत से सजी पहली फ़िल्म थी 'नज़रिया' (१९५२), जिसमें गीत लिखे थे राजकुमार संतोषी के पिता श्री पी. एल. संतोषी जी नें। इसके बाद आई फ़िल्म 'नौ लखा हार' (१९५३), 'ये बस्ती ये लोग' (१९५४), 'आबशार' (१९५४) आदि।<br /></span><br />सुजॉय - पूर्णिमा जी, एक पिता के रूप में भोला जी को आपने कैसा पाया?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - एक पिता के रूप में वो बहुत ही सख़्त अनुशासन-पसंद इंसान थे, पर साथ ही साथ फ़्लेक्सिबल भी थे। वो यह नहीं चाहते थे कि मैं या उनका कोई और संतान किसी तरह के क्रीएटिव आर्ट को अपना प्रोफ़ेशन बनाए। शायद अपनी अनुभूतिओं और दुखद परिस्थितिओं को देखने के बाद उनको ऐसा लगा होगा। पर मैं तब तक अपना करीयर शुरु कर चुकी थी। मैं स्टेज पर गाती थी, पर उन्हें इस बात का पता नहीं था क्योंकि वो हमेशा किशोर कुमार जी के साथ टूर पे रहते थे, और जिनके वो सहायक थे अपने अंतिम दिनों तक। एक दिन मेरी माँ की ज़िद की वजह से उन्होंने मुझे मुंबई के किसी स्टेज शो पर गाते हुए सुना और अपने ख़यालात के सामने वो झुके। इसके बाद मैंने उनसे संगीत सीखना शुरु किया।</span><br /><br />सुजॉय - मैंने सुना है कि भोला जी का बहुत कम उम्र में देहान्त हो गया था। आपकी उम्र उस वक़्त क्या होगी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - पिताजी अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ने पर चल बसे। उनकी उम्र केवल ४६ वर्ष थी। वह दिन था ११ अप्रैल १९७१, और मैं उस वक़्त ११ साल की थी।</span><br /><br />सुजॉय - अपने पिता की विशेषताओं के बारे में कुछ बताइए।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - पिता जी का दिमाग़ बहुत ही विश्लेषणात्मक था, he had an analytical mind, और उनके सेन्स ऑफ़ ह्युमर के तो क्या कहने थे। पर उन्हें ग़ुस्सा जल्दी आ जाता था, लेकिन बहुत जल्द शांत भी हो जाते थे। उनका दिमाग़ बहुत तेज़ था और हर चीज़ को बारीक़ी से ऑबसर्व करते थे। हालाँकि उन्होंने अपनी औपचारिक शिक्षा पूरी नहीं कर सके, पर उन्होंने ख़ुद ही अपनी शिक्षा पूरी की। He was totally self educated. मैं यह बहुत मानती हूँ कि एक उत्कृष्ट संगीतकार और म्युज़िशियन होने के बावजूद इस फ़िल्म इंडस्ट्री नें उन्हें वो सब कुछ नहीं दिया जिसके वो हक़दार थे। उनकी प्रतिभा का इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि किशोर कुमार के स्वरबद्ध कई मशहूर गीतों में उनका बहुत बड़ा योगदान था। "बेकरार दिल तू गायेजा", "पंथी हूँ मैं उस पथ का", "जीवन से ना हार जीने वाले" जैसे गीतों की धुनों में पिता जी का भी बड़ा योगदान था।</span><br /><br />सुजॉय - जी, यह मैंने भी कहीं पढ़ा था कि "बेकरार दिल" की धुन भोला जी नें ही बनाई थी। अच्छा, भोला जी द्वारा स्वरबद्ध किन किन गीतों को आप उनकी सर्वोत्तम रचनाएँ मानती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - मेरी व्यक्तिगत पसंद होगी "दिल जलेगा तो ज़माने में उजाला होगा", यह १९५४ की फ़िल्म 'ये बस्ती ये लोग' का गीत है। फिर "मैं हूँ हिंदुस्तानी छोरी" (नज़रिया) और "बेकरार दिल तू गायेजा" (दूर का राही), ये सब गीत मेरे दिल के बहुत करीब हैं।</span><br /><br />सुजॉय - भोला जी को उनका कौन सा गीत सब से प्रिय था?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - मेरा ख़याल है "दिल जलेगा" और "बेक़रार दिल" भी उनके पसंदीदा गीत थे।</span><br /><br />सुजॉय - भोला जी के बारे में और कोई बात हमारे पाठकों को बताना चाहेंगी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - बहुत ज़्यादा लोगों को यह मालूम न होगा कि हालाँकि मेरे पिताजी का जन्म कोलकाता में हुआ और वहीं उनकी परवरिश हुई, और हर दृष्टि से वो एक बंगाली थे, पर जन्म से वो नेपाली थे।</span><br /><br />सुजॉय - पूर्णिमा जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका अपने पिता के बारे में वो सब जानकारी दी जो कहीं और से प्राप्त करना मुश्किल था। अगली बार जब हम बातचीत करेंगे तो हम आपके करीयर के बारे में जानना चाहेंगे, आपके एक से एक सुपरहिट गीत की भी चर्चा करेंगे। लेकिन आज चलते चलते भोला जी का कौन सा गीत आप हमारे श्रोताओं को सुनवाना चाहेंगी जो आपकी तरफ़ से भोला जी को डेडिकेशन स्वरूप होगा?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">पूर्णिमा जी - एकमात्र गीत जिसे मैं उन्हें समर्पित कर सकती हूँ, वह है "बेक़रार दिल तू गायेजा"।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - बेक़रार दिल तू गायेजा (दूर का राही)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300" height="30"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OldIsGold131/6.bekarar-e-dilTuGayeJa-Airshad-kishore.mp3"><paramname="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो ये था फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका पूर्णिमा (सुषमा श्रेष्ठ) से उनके पिता व गुज़रे दौर के संगीतकार भोला श्रेष्ठ पर एक बातचीत। अब आज की यह प्रस्तुत समाप्त होती है, नमस्कार!<br /><br />और अब एक विशेष सूचना:<br /><br /><span style="font-weight:bold;">२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।</span>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-85059436124879362712011-07-16T17:01:00.002+05:302011-07-16T17:01:00.820+05:30अदभुत प्रतिभा की धनी गायिका मिलन सिंह से बातचीत<span style="font-weight:bold;">ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 50</span><br /><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, यूं तो यह साप्ताहिक विशेषांक है, पर इस बार का यह अंक वाक़ई बहुत बहुत विशेष है। इसके दो कारण हैं - पहला यह कि आज यह स्तंभ अपना स्वर्ण जयंती मना रहा है, और दूसरा यह कि आज हम जिस कलाकार से आपको मिलवाने जा रहे हैं, वो एक अदभुत प्रतिभा की धनी हैं। इससे पहले कि हम आपका परिचय उनसे करवायें, हम चाहते हैं कि आप नीचे दी गई ऑडिओ को सुनें।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मेडली गीत</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_50/OIG_SS_50_1.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />कभी मोहम्मद रफ़ी, कभी किशोर कुमार, कभी गीता दत्त, कभी शम्शाद बेगम, कभी तलत महमूद और कभी मन्ना डे के गाये हुए इन गीतों की झलकियों को सुन कर शायद आपको लगा हो कि चंद कवर वर्ज़न गायक गायिकाओं के गाये ये संसकरण हैं। अगर ऐसा ही सोच रहे हैं तो ज़रा ठहरिए। हाँ, यह ज़रूर है कि ये सब कवर वर्ज़न गीतों की ही झलकियाँ थीं, लेकिन ख़ास बात यह कि इन्हें गाने "वालीं" एक ही गायिका हैं। जी हाँ, यह सचमुच चौंकाने वाली ही बात है कि इस गायिका को पुरुष और स्त्री कंठों में बख़ूबी गा सकने की अदभुत शक्ति प्राप्त है। अपनी इस अनोखी प्रतिभा के माध्यम से देश-विदेश में प्रसिद्ध होने वालीं इस गायिका का नाम है मिलन सिंह।<br /><br />पिछले दिनों जब मेरी मिलन जी से फ़ेसबूक पर मुलाक़ात हुई तो मैंने उनसे एक इंटरव्यू की गुज़ारिश कर बैठा। और मिलन जी बिना कोई सवाल पूछे साक्षात्कार के लिए तैयार भी हो गईं, लेकिन उस वक़्त वो बीमार थीं और उनका ऑपरेशन होने वाला था। इसलिए उन्होंने यह वादा किया कि ऑपरेशन के बाद वो ज़रूर मेरे सवालों के जवाब देंगी। मैंने इंतज़ार किया, और उनके ऑपरेशन के कुछ दिन बाद जब मैंने उनके वादे का उन्हें याद दिलाया तो वादे को अंजाम देते हुए उन्होंने मेरे सवालों का जवाब दिया, हालाँकि बातचीत बहुत लम्बी नहीं हो सकी उनकी अस्वस्थता के कारण। तो आइए 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आज आपका परिचय करवाएँ दो आवाज़ों में गाने वाली गायिका मिलन सिंह से।<br /><br />सुजॉय - मिलन जी, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युम' के 'आवाज़' मंच पर। हमें ख़ुशी है कि अब आप स्वस्थ हो रही हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - बहुत बहुत शुक्रिया आपका।</span><br /><br />सुजॉय - मिलन जी, आप कहाँ की रहनेवाली हैं? और आपने गाना कब से शुरु किया था?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - मैं यू.पी से हूँ, ईटावा करके एक जगह है, वहाँ की मैं हूँ।</span><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://profile.ak.fbcdn.net/hprofile-ak-snc4/50254_109475075203_728_n.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 291px;" src="http://profile.ak.fbcdn.net/hprofile-ak-snc4/50254_109475075203_728_n.jpg" border="0" alt="" /></a><br />सुजॉय - आप जिस वजह से मशहूर हुईं हैं, वह है नर और नारी, दोनो कंठों में गा पाने की प्रतिभा की वजह से। तो यह बताइए कि किस उम्र में आपनें यह मह्सूस किया था कि आपके गले से दो तरह की आवाज़ें निकलती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - जब मैं ११ साल की थी, तब हालाँकि उम्र के हिसाब से बहुत छोटी थी और आवाज़ उतनी मच्योर नहीं हुई थी, पर कोई भी मेरी दोनो तरह की आवाज़ों में अंतर को स्पष्ट रूप से महसूस कर लेता था।</span><br /><br />सुजॉय - आपके गाये गीतों को सुनते हैं तो सचमुच हैरानी होती है कि यह कैसे संभव है। हाल ही में आपके वेबसाइट पर आपके दो आवाज़ों में गाया हुआ लता-रफ़ी डुएट "यूंही तुम मुझसे बात करती हो" सुना और अपनी पत्नी को भी सुनवाया। वो तो मानने के लिए तैयार ही नहीं कि इसे किसी "एक गायिका" नें गाया है। तो बताइए कि किस तरह से आप इस असंभव को संभव करती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है, यह ईश्वर की देन है बस! It is 100% God's gift to me.</span><br /><br />सुजॉय - मुझे पता चला कि रफ़ी साहब आपकी पसंदीदा गायक रहे हैं, और आप उनके गीत ही ज़्यादा गाती आईं हैं और वो भी उनके अंदाज़ में। इस बारे में कुछ कहना चाहेंगी? सिर्फ़ रफ़ी साहब ही क्यों, आपनें सहगल, तलत महमूद, किशोर कुमार, हेमन्त कुमार आदि गायकों के स्टाइल को भी अपनाया है इनके गीतों को गाते वक़्त।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - इन कालजयी कलाकारों की नकल करने की जुर्रत कोई नहीं कर सकता, तो मैं क्या चीज़ हूँ? बस इतना है कि मैंने इन कलाकारों को गुरु समान माना है; इसलिए जब कभी इनके गीत गाती हूँ तो इन्हें ध्यान में रखते हुए इनके स्टाइल में गाने की कोशिश करती हूँ। मैं फिर से कहूंगी कि यह भी ईश्वर की देन है। ईश्वर मुझ पर काफ़ी महरबान रहे हैं।</span><br /><br />सुजॉय - दो आवाज़ों में आपनें बहुत सारे लता जी और रफ़ी साहब के युगल गीतों को गाया है। आपका पसंदीदा लता-रफ़ी डुएट कौन सा है?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - लिस्ट इतनी लम्बी है कि उनमें से किसी एक गीत को चुनना बहुत मुश्किल है। फिर भी मैं चुनूंगी "कुहू कुहू बोले कोयलिया", "ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं", "पत्ता पत्ता बूटा बूटा", "वो हैं ज़रा ख़फ़ा ख़फ़ा" को।</span><br /><br />सुजॉय - आप कभी लता जी और रफ़ी साहब से मिली हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - जी हाँ, रफ़ी साहब से मैं मिली हूँ पर लता जी से मिलने का सौभाग्य अभी तक नहीं हुआ। पर मैं उन्हें लाइव कन्सर्ट में सुन चुकी हूँ।</span><br /><br />सुजॉय - यहाँ पर हम अपने श्रोताओं को आपकी आवाज़ में रफ़ी साहब के लिए श्रद्धांजली स्वरूप एक गीत सुनवाना चाहेंगे।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - रफ़ी साहब को मिलन सिंह की श्रद्धांजली</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_50/OIG_SS_50_2.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - मुझे याद है ८० के दशक में रेडियो में एक गीत आता था "रात के अंधेरे में, बाहों के घेरे में", और उस गीत के साथ गायिका का नाम मिलन सिंह बताया जाता था। क्या यह आप ही का गाया हुआ गीत है?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - जी हाँ, मैंने ही वह गीत गाया था।</span><br /><br />सुजॉय - कैसे मिला था यह मौका फ़िल्म के लिए गाने का?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - दरअसल उस गीत को किसी और गायिका से गवाया जाना था, एक नामी गायिका जिनका नाम मैं नहीं लूंगी, पर फ़िल्म के निर्माता और उस गायिका के बीच में कुछ अनबन हो गई। तब फ़िल्म के संगीतकार सुरिंदर कोहली जी, जो मुझे पहले सुन चुके थे, उन्होंने मुझे इस गीत को गाने का मौका दिया।</span><br /><br />सुजॉय - मिलन जी, 'रात के अंधेरे में' फ़िल्म के इस गीत को बहुत ज़्यादा नहीं सुना गया, इसलिए बहुत से लोगों नें इसे सुना नहीं होगा, तो क्यों न आगे बढ़ने से पहले आपके गाये इस फ़िल्मी गीत को सुन लिया जाए?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - जी ज़रूर!</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - रात के अंधेरे में (फ़िल्म- रात के अंधेरे में, १९८६)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_50/OIG_SS_50_3.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - मिलन जी, 'रात के अंधेरे में' फ़िल्म का यह गीत तो रेडियो पर ख़ूब बजा था, पर इसके बाद फिर आपकी आवाज़ फ़िल्मी गीतों में सुनाई नहीं दी। इसका क्या कारण था?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - उसके बाद मैंने कुछ प्रादेशिक और कम बजट की हिंदी फ़िल्मों के लिए गानें गाए ज़रूर थे, लेकिन मेरे अंदर "कैम्प-कल्चर" का हुनर नहीं था, जिसकी वजह से मुझे कभी बड़ी बजट की फ़िल्मों में गाने का अवसर नहीं मिला। यह मेरी ख़ुशनसीबी थी कि टिप्स म्युज़िक कंपनी नें मेरे गीतों के कई ऐल्बम्स निकाले जो सुपर-हिट हुए और मुझे ख़ूब लोकप्रियता मिली। मेरा जितना नाम हुआ, मुझे जितनी शोहरत और सफलता मिली, वो इन सुपरहिट ऐल्बम की वजह से ही मिली।</span><br /><br />सुजॉय - इन दिनों आप क्या कर रही हैं? क्या अब भी स्टेज शोज़ करती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - मैंने स्टेज शोज़ कभी नहीं छोड़ा, हाँ, एक ब्रेक ज़रूर लिया है अस्वस्थता के कारण। अभी अभी मैं संभली हूँ, तो इस साल बहुत कुछ करने का इरादा है, देश में भी और विदेश में भी।</span><br /><br />सुजॉय - बहुत बहुत शुक्रिया मिलन जी! अस्वस्थता के बावजूद आपनें हमें समय दिया, बहुत अच्छा लगा। आपको हम सब की तरफ़ से एक उत्तम स्वास्थ्य की शुभकामनाएँ देते हुए आपसे विदा लेता हूँ, नमस्कार!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मिलन सिंह - बहुत बहुत शुक्रिया!</span><br /><br />******************************************************<br /><br />तो दोस्तों, यह था नर और नारी, दोनों कंठों में गाने वाली प्रसिद्ध गायिका मिलन सिंह से बातचीत। मिलन जी के बारे में विस्तार से जानने के लिए आप उनकी वेबसाइट www.milansingh.com पर पधार सकते हैं।<br /><br />और अब एक विशेष सूचना:<br /><br /><span style="font-weight:bold;">२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।<br /><br />तो इसी के साथ अब आज का यह अंक समाप्त करने की अनुमति दीजिये। कल से शुरु होने वाली 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला में आपके साथी होंगे कृष्णमोहन मिश्र, और मैं आपसे फिर मिलूंगा अगले शनिवार के विशेषांक में। अब दीजिये अनुमति, नमस्कार!</span>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-10971328540772459912011-06-18T17:00:00.003+05:302011-06-18T17:00:00.994+05:30ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 46 - "मेरे पास मेरा प्रेम है"<span style="font-weight:bold;">पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत - भाग-2</span><br />पहले पढ़ें <a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/06/45.html">भाग १ </a><br /><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। पिछले शनिवार से हमनें इसमें शुरु की है शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है', जो कि केन्द्रित है सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई हमारी बातचीत पर। आइए आज प्रस्तुत है इस शृंखला की दूसरी कड़ी। <br /><br />सुजॉय - लावण्या जी, एक बार फिर हम आपका स्वागत करते है 'आवाज़' पर, नमस्कार!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - नमस्ते!</span><br /><br />सुजॉय - लावण्या जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी पंडित जी के आयुर्वेद ज्ञान की चर्चा पर। साथ ही आपनें पंडित जी के शुरुआती दिनों के बारे में बताया था। आज बातचीत हम शुरु करते हैं उस मोड़ से जहाँ पंडित जी मुंबई आ पहुँचते हैं। हमने सुना है कि पंडित जी ३० वर्ष की आयु में बम्बई आये थे भगवती चरण वर्मा के साथ। यह बताइए कि इससे पहले उनकी क्या क्या उपलब्धियाँ थी बतौर कवि और साहित्यिक। बम्बई आकर फ़िल्म जगत से जुड़ना क्यों ज़रूरी हो गया?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - पापा जी ने इंटरमीडीयेट की पढाई खुरजा से की और आगे पढने वे संस्कृति के गढ़, इलाहाबाद मे आये और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जोइन की। १९ वर्ष की आयु मे, सन १९३४ मे प्रथम काव्य-संग्रह, "शूल - फूल" प्रकाशित हुआ। अपने बलबूते पर, एम्.ए. अंग्रेज़ी विषय लेकर, पास किया। 'अभ्युदय दैनिक समाचार पत्र' के सह सम्पादक पद पर काम किया। सन १९३६ मे "कर्ण - फूल" छपी, पर १९३७ मे "प्रभात - फेरी" काव्य संग्रह ने नरेंद्र शर्मा को कवि के रूप मे शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा दिया। काव्य-सम्मलेन मे उसी पुस्तक की ये कविता जब पहली बार नरेंद्र शर्मा ने पढी तब, सात बार, 'वंस मोर' का शोर हुआ ...गीत है - "आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगें, आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगें".</span><br /><br /><a href="http://www.lavanyashah.com/2008/09/blog-post_10.html">लिंक : </a><br /><br /><span style="font-weight:bold;">और एक सुमधुर गीतकार के रूप मे नरेंद्र शर्मा की पहचान बन गयी। इसी इलाहाबाद मे, आनंद भवन मेँ, 'अखिल भारतीय कोँग्रेस कमिटि के हिंदी विभाग से जुडे, हिंदी सचिव भी रहे जिसके लिये पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने पापा जी को अखिल भारतीय कोंग्रेस कमिटी के दस्तावेजों को, जलदी से अंग्रेज़ी से हिंदी मे अनुवाद कर, भारत के कोने कोने तक पहुंचाने के काम मे, उन्हे लगाया था। अब इस देश भक्ति का नतीजा ये हुआ के उस वक्त की अंग्रेज़ सरकार ने, पापा जी को, २ साल देवली जेल और राजस्थान जेल मे कैद किया जहां नरेंद्र शर्मा ने १४ दिन का अनशन या भूख हड़ताल भी की थी और गोरे जेलरों ने जबरदस्ती सूप नलियों मे भर के पिलाया और उन्हे जिंदा रखा। जब रिहा हुए तब गाँव गये, सारा गाँव बंदनवार सजाये, देश भक्त के स्वागत मे झूम उठा! दादी जी स्व. गंगा देवी जी को १ सप्ताह बाद पता चला के उनका बेटा, जेल मे भूखा है तो उन्होंने भी १ हफ्ते भोजन नहीं किया। ऐसे कई नन्हे सिपाही महात्मा गांधी की आज़ादी की लड़ाई मे, बलिदान देते रहे तब कहीं सन १९४७ मे भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली थी।</span><br /><br />सुजॉय - वाह! बहुत सुंदर!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - इस रोमांचक घटना का जिक्र करते हुए जनाब सादिक अली जी का लिखा अंग्रेज़ी आलेख देखें ..वे कहते हैं -- "Poet, late Pandit Narendra Sharma, was arrested without trial under the British Viceroy's Orders, for more than two years. His appointment to AICC was made by Pandit Jawaharlal Nehru. Pandit Narendra Sharma's photo along with then AICC members, is still there in Swaraj Bhavan, Allahabad."</span><br /><br /><a href="http://antarman-antarman.blogspot.com/2006/10/shri-sadiq-ali-on-narendra-sharma.html">लिंक :</a> <br /><br />सुजॉय - बम्बई कैसे आना हुआ उनका?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - आपका कहना सही है के भगवती चरण वर्मा, 'चित्रलेखा ' के मशहूर उपन्यासकार नरेन्द्र शर्मा को अपने संग बम्बई ले आये थे। कारण था, फिल्म निर्माण संस्था "बॉम्बे टॉकीस" नायिका देविका रानी के पास आ गयी थी जब उनके पति हिमांशु राय का देहांत हो गया और देविका रानी को, अच्छे गीतकार, पट कथा लेख़क, कलाकार सभी की जरूरत हुई। भगवती बाबू को, गीतकार नरेंद्र शर्मा को बोम्बे टाकीज़ के काम के लिये ले आने का आदेश हुआ था और नरेंद्र शर्मा के जीवन की कहानी का अगला चैप्टर यहीं से आगे बढा।</span> <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJxuKc0hKqFQzFQD3Ra-U_6O59tRO6Mgv4tbsB0M4ohcf2YaGStosR8XhAX9NywmOYM-T1coIgDDQmdCBERaiaUh8rgflmADk-A2jUdy_y-EMJnyqX1V0ZRqh1sXGssuqTpBrB8IUQHNBy/s1600/photo-1.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 139px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJxuKc0hKqFQzFQD3Ra-U_6O59tRO6Mgv4tbsB0M4ohcf2YaGStosR8XhAX9NywmOYM-T1coIgDDQmdCBERaiaUh8rgflmADk-A2jUdy_y-EMJnyqX1V0ZRqh1sXGssuqTpBrB8IUQHNBy/s200/photo-1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5619515263655156322" /></a> <br />फ़ोटो: Magic of Black & WhitePapaji @ Allahabad with Famous writer Bhagwati Charan Vermaji <br /><br />सुजॉय - पंडित जी का लिखा पहला गीत पारुल घोष की आवाज़ में १९४३ की फ़िल्म 'हमारी बात' का, "मैं उनकी बन जाऊँ रे" बहुत लोकप्रिय हुआ था। क्योंकि यह उनका पहला पहला गीत था, उन्होंने आपको इसके बारे में ज़रूर बताया होगा। तो हम भी आपसे जानना चाहेंगे उनके फ़िल्म जगत में पदार्पण के बारे में, इस पहली फ़िल्म के बारे में, इस पहले मशहूर गीत के बारे में। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - पापा ने बतलाया था कि फिल्म 'हमारी बात' के लिए लिखा सबसे पहला गीत 'ऐ बादे सबा, इठलाती न आ...' उन्होंने इस ख्याल से इलाहाबाद से बंबई आ रही ट्रेन मे ही लिखा रखा था कि हिन्दी फिल्मों मे उर्दू अलफ़ाज़ लिए गीत जूरूरी है, जैसा उस वक्त का ट्रेंड था, तो वही गीत पहले चित्रपट के लिए लिखा गया और 'हमारी बात' मे अनिल बिस्वास जी ने स्वरबद्ध किया और गायिका पारुल घोष ने गाया। आप इस सुमधुर गीत 'मैं उनकी बन जाऊं रे' को सुनवा दें; पारुल घोष, मशहूर बांसुरी वादक श्री पन्ना लाल घोष की पत्नी थीं और भारतीय चित्रपट संगीत के भीष्म पितामह श्री अनिल दा अनिल बिस्वास की बहन। जब यह गीत बना तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था पर आज इस गीत को सुनती हूँ तब भी बड़ा मीठा, बेहद सुरीला लगता है।</span><br /><br />सुजॉय - ज़रूर इस गीत को हम आज की कड़ी के अंत में सुनवायेंगे, बहरहाल आप इस गीत से जुड़ी कुछ और बात बता सकती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - एक वाकया याद आ रहा है, हमारे पडौसी फिल्म कलाकार जयराज जी के घर श्री राज कपूर आये थे और बार बार इसी गीत की एक पंक्ति गा रहे थे, 'दूर खड़ी शरमाऊँ, मैं मन ही मन अंग लगाऊँ, दूर खडी शरमाऊँ, मैं, उनकी बन जाऊं रे, मैं उनकी बन जाऊं' और इसी से मिलते जुलते शब्द यश राज की फिल्म 'दिल तो पागल है' मे भी सुने 'दूर खडी शरमाये, आय हाय', तो प्रेम की बातें तब भी और अब भी ऐसे ही दीवानगी भरी होती रहीं हैं और होतीं रहेंगीं ..जब तक 'प्रेम', रहेगा ये गीत भी अमर रहेगा।</span><br /><br />सुजॉय - बहुत सुंदर! और पंडित जी ने भी लिखा था कि "मेरे पास मेरा प्रेम है"। अच्छा लावण्या जी, यह बताइए कि 'बॉम्बे टॉकीज़' के साथ वो कैसे जुड़े? क्या उनकी कोई जान-पहचान थी? किस तरह से उन्होंने अपना क़दम जमाया इस कंपनी में?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - पापा के एक और गहरे मित्र रहे मशहूर कथाकार श्री अमृत लाल नागर : उनका लिखा पढ़ें - <br /><br />नागर जी चाचा जी लिखते हैं ...<br /><br />"एक साल बाद श्रद्धेय भगवती बाबू भी "बोम्बे टाकीज़" के आमंत्रण पर बम्बई पहुँच गये, तब हमारे दिन बहुत अच्छे कटने लगे। प्राय: हर शाम दोनोँ कालिज स्ट्रीट स्थित, स्व. डॉ. मोतीचंद्र जी के यहाँ बैठेकेँ जमाने लगे। तब तक भगवती बाबू का परिवार बम्बई नहीँ आया था और वह, कालिज स्ट्रीट के पास ही माटुंगा के एक मकान की तीसरी मंजिल मेँ रहते थे। एक दिन डॉक्टर साहब के घर से लौटते हुए उन्होँने मुझे बतलाया कि वह एक दो दिन के बाद इलाहाबाद जाने वाले हैँ। "अरे गुरु, यह इलाहाबाद का प्रोग्राम एकाएक कैसे बन गया ?" "अरे भाई, मिसेज रोय (देविका रानी रोय) ने मुझसे कहा है कि, मैँ किसी अच्छे गीतकार को यहाँ ले आऊँ! नरेन्द्र जेल से छूट आया है और मैँ समझता हूँ कि वही ऐसा अकेला गीतकार है जो प्रदीप से शायद टक्कर ले सके!' सुनकर मैँ बहुत प्रसन्न हुआ प्रदीप जी तब तक, बोम्बे टोकीज़ से ही सम्बद्ध थे "कंगन, बंधन" और "नया संसार" फिल्मोँ से उन्होँने बंबई की फिल्मी दुनिया मेँ चमत्कारिक ख्याति अर्जित कर ली थी, लेकिन इस बात के से कुछ पहले ही वह बोम्बे टोकीज़ मेँ काम करने वाले एक गुट के साथ अलग हो गए थे। इस गुट ने "फिल्मीस्तान" नामक एक नई संस्था स्थापित कर ली थी - कंपनी के अन्य लोगोँ के हट जाने से देविका रानी को अधिक चिँता नहीँ थी, किंतु, ख्यातनामा अशोक कुमार और प्रदीप जी के हट जाने से वे बहुत चिँतित थीँ - कंपनी के तत्कालीन डायरेक्टर श्री धरम्सी ने अशोक कुमार की कमी युसूफ ख़ान नामक एक नवयुवक को लाकर पूरी कर दी! युसूफ का नया नाम, "दिलीप कुमार" रखा गया, (यह नाम भी पापा ने ही सुझाया था - एक और नाम 'जहांगीर' भी चुना था पर पापा जी ने कहा था कि युसूफ, दिलीप कुमार नाम तुम्हे बहुत फलेगा - (ज्योतिष के हिसाब से) और आज सारी दुनिया इस नाम को पहचानती है। किंतु प्रदीप जी की टक्कर के गीतकार के अभाव से श्रीमती राय बहुत परेशान थीँ। इसलिये उन्होँने भगवती बाबू से यह आग्रह किया था एक नये शुद्ध हिंदी जानने वाले गीतकार को खोज लाने का। इस बारे में आप और विस्तृत रूप से नीचे दिये गये लिंक्स में पढ़ सकते हैं।<br /></span><br />http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_1748.html<br /><br />http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_24.html<br /><br />http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_12.html <br /><br />सुजॉय - किसी भी सफल इंसान के पीछे किसी महिला का हाथ होता है, ऐसी पुरानी कहावत है। आपके विचार में आपकी माताजी का कितना योगदान है पंडित जी की सफलता के पीछे? अपनी माताजी की शख़्सीयत के बारे में विस्तार से बतायें।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - मेरी माँ, श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा, कलाकार थीं। ४ साल हलदनकर इंस्टिट्यूट मे चित्रकला सीख कर बेहतरीन आयल कलर और वाटर कलर के चित्र बनाया करतीं थीं। हमारे घर की दीवारों को उनके चित्रोँ ने सजाया। उस सुन्दर, परम सुशील, सर्वगुण संपन्न मा के लिये, पापा का गीत गाती हूँ - "दर भी था, थीं दीवारें भी, माँ, तुमसे, घर घर कहलाया!"<br /></span><br />सुजॉय - आइए इस गीत को यूट्युब पर सुनते हैं:<br /><br /><iframe width="480" height="390" src="http://www.youtube.com/embed/v323AKmk5E0" frameborder="0" allowfullscreen></iframe> <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPDgbcVSeop81jrblAcEdvXUSARKqwtOnUZMS1QWG1MxBEvgGv_hoVF_XEivH670WD8CWmnkXUJT4wVpAykMZKETo_nlUm1-pQ1lHRpuzrpUmfjoJPqFiPh-2FB87eEplPX-EkP4lOa-2z/s1600/photo-2.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 144px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPDgbcVSeop81jrblAcEdvXUSARKqwtOnUZMS1QWG1MxBEvgGv_hoVF_XEivH670WD8CWmnkXUJT4wVpAykMZKETo_nlUm1-pQ1lHRpuzrpUmfjoJPqFiPh-2FB87eEplPX-EkP4lOa-2z/s200/photo-2.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5619515535415861378" /></a> <br />फ़ोटो-२: श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा की तसवीर <br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - ये एक चित्र जो मुझे बहुत प्रिय है। और ये कम लोग जानते हैं के सुशीला गोदीवाला संगीत निर्देशक गायक अविनाश व्यास के ग्रुप मे गाया भी करतीं थीं; रेडियो आर्टिस्ट थीं और अनुपम सुन्दरी थीं - हरी हरी, अंगूर सी आँखें, तीखे नैन नक्श, उजला गोरा रंग और इतनी सौम्यता और गरिमा कि स्वयं श्री सुमित्रानंदन पन्त जी ने सुशीला को दुल्हन के जोड़े मे सजा हुआ देख कहा था, "शायद दुष्यंत राजा की शकुन्तला भी ऐसी ही होगी"। पन्त जी तो हैं हिंदी के महाकवि! मैं, अम्मा की बेटी हूँ! जिस माँ की छाया तले अपना जीवन संवारा वो तो ऐसी देवी मा को श्रद्धा से अश्रू पूरित नयनों से प्रणाम ही कर सकती है। कितना प्यार दुलार देकर अपनी फुलवारी सी गृहस्थी को अम्मा ने सींचा था। पापा जी तो भोले शम्भू थे, दिन दुनिया की चिंता से विरक्त सन्यासी - सद गृहस्थ! अम्मा ही थी जो नमक, धान, भोजन, सुख सुविधा का जुगाड़ करतीं, साक्षात अम्बिका भवानी सी हमारी रक्षा करती, हमे सारे काम सीख्लाती, खपती, थकती पर कभी घर की शांति को बिखरने न दिया, न कभी पापा से कुछ माँगा। अगर कोई नयी साड़ी आ जाती तो हम ३ बहनों के लिये सहेज कर रख देतीं। ऐसी निस्पृह स्त्री मैंने और नहीं देखी और हमेशा सादा कपड़ों मे अम्मा महारानी से सुन्दर और दिव्य लगतीं थीं। अम्मा की बगिया के सारे सुगंधी फूल, नारियल के पेड़, फलों के पेड़ उसी के लगाए हुए आज भी छाया दे रहे हैं पर अम्मा नहीं रहीं, यादें रह गयीं, बस!</span><br /><br />सुजॉय - बहुत खी सुंदर तरीके से आपनें अपनी माताजी का वर्णन किया, हम भी भावुक हो गए हैं। क्योंकि माँ ही शुरुआत है और माँ पर ही सारी दुनिया समाप्त हो जाती है, इसलिए यहीं पर हम आज की बातचीत समाप्त करते हैं, और वादे के मुताबिक फ़िल्म 'हमारी बात' से पारुल घोष का गाया "मैं उनकी बन जाऊँ रे" सुनवाते हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - "मैं उनकी बन जाऊँ रे" (हमारी बात)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_46/OIG_SS_46.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो ये था पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई लम्बी बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की दूसरी कड़ी। बातचीत जारी रहेगी अगले सप्ताह भी। ज़रूर पधारियेगा, और आज के लिए मुझे अनुमति दीजिये, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-53955856148872423712011-06-11T17:00:00.001+05:302011-06-11T17:00:00.466+05:30ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 45 "मेरे पास मेरा प्रेम है"<span style="font-weight:bold;">पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत भाग-१</span><br /><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। शनिवार की इस साप्ताहिक प्रस्तुति होती है ख़ास, आम प्रस्तुतियों से ज़रा हट के, जिसमे हम कभी साक्षात्कार, कभी विशेषालेख, और कभी आप ही के भेजे ई-मेल शामिल करते हैं। आज इस इस स्तंभ में हम शुरु कर रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार, उत्तम साहित्यकार, कवि, दार्शनिक, आयुर्वेद के ज्ञाता और विविध भाषाओं के महारथी, स्व: पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से की हुई लम्बी बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है'। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की पहली कड़ी। लावण्या जी से ईमेल के माध्यम से लम्बी बातचीत की है आपके इस दोस्त सुजॉय नें। <br /><br />सुजॉय - लावण्या जी, आपका बहुत बहुत स्वागत है 'आवाज़' पर, नमस्कार!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - नमस्ते, सुजॉय भाई, आपका व 'हिंद-युग्म' का आभार जो आपने आज मुझे याद किया।</span><br /><br />सुजॉय - यह हमारा सौभाग्य है आपको पाना, और आप से आपके पापाजी, यानी पंडित जी के बारे में जानना। युं तो आप नें उनके बारे में अपने ब्लॉगों में या साक्षात्कारों में कई बार बताया भी है, इसलिए हम उन सब का दोहराव नहीं करना चाहते। हम सब से पहले चाहेंगे कि आप उन ब्लॉगों और वेबसाइटों के लिंक्स हमें बतायें जिनमें जाकर हम उन्हें पढ़ सकें।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - हाँ, अक्सर मैं अपने ब्लॉग "लावण्यम - अंतर्मन" (http://www.lavanyashah.com) पे लिखती रही हूँ। और भी कुछ लिंक्स दे रही हूँ, समय निकालकर मेरे प्रयासों को पढ़ियेगा।<br /><br />१ ) सुकवि श्री हरिवंश राय बच्चन जी का कहना सुनिए,http://www.lavanyashah.com/2007/11/blog-post_28.html<br />२ )http://www.lavanyashah.com/2008/06/blog-post_24.html<br />३ ) He is no more .....http://www.lavanyashah.com/2008/02/blog-post_08.html<br />४ )http://www.lavanyashah.com/2010/02/blog-post_10.html<br />५ )http://www.lavanyashah.com/2008/04/blog-post_29.html<br />६ )http://www.lavanyashah.com/2008/04/blog-post_24.html<br />७ )http://www.lavanyashah.com/2009/07/blog-post_12.html<br />८ )http://www.lavanyashah.com/2009/01/blog-post_12.html<br />9 )http://www.lavanyashah.com/2008/08/blog-post_30.html </span> <br /><br />सुजॉय - लावण्या जी, हम भी इन ब्लॉग्स को पढ़ेंगे और हम अपने पाठकों से भी अनुरोध करते हैं कि इनमें अपनी नज़र दौड़ायें, और पंडित जी के बारे में और निकटता से जानें। आज के इस साक्षात्कार में हम आपसे पंडित जी की शख्शियत के कुछ अनछुये पहलुओं के बारे में भी जानना चाहेंगे। सबसे पहले यह बताइए पंडित जी के पारिवारिक पार्श्व के बारे में। ऐसे महान शख़्स के माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी कौन थे, उनके क्या व्यवसाय थे?<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://i447.photobucket.com/albums/qq194/sahityashilpi/Lavanya.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 302px;" src="http://i447.photobucket.com/albums/qq194/sahityashilpi/Lavanya.jpg" border="0" alt="" /></a><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - पूज्य पापा जी का जन्म उत्तर प्रदेश प्रांत के ज़िला बुलंद शहर, खुर्जा, ग्राम जहांगीरपुर मे हुआ, जो अब ग्रेटर नॉयडा कहलाता है। तारीख थी फरवरी की २८, जी हाँ, लीप-यीअर मे २९ दिन होते हैं, उस के ठीक १ दिन पहले सन १९१३ मे। उनका संयुक्त परिवार था, भारद्वाज वंश का था, व्यवसाय से पटवारी कहलाते थे। घर को स्वामी पाडा कहा जाता था जो ३ मंजिल की हवेलीनुमा थी। जहां मेरे दादाजी स्व. पूर्णलाल शर्मा तथा उनकी धर्मपत्नी मेरी दादी जी स्व. गंगा देवी जी अपने चचेरे भाई व परिवार के अन्य सदस्यों के साथ आबाद थे। उनके खेत थे, अब भी हैं और फलों की बाडी भी थी। खुशहाल, समृद्ध परिवार था जहां एक प्रतिभावान बालक का जन्म हुआ और दूर के एक चाचाजी जिन्हें रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानियां पढ़ने का शौक था, उन्होंने बालक का नामकरण किया और शिशु को "नरेंद्र" नाम दिया!</span><br /><br />सुजॉय - वाह!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - किसे खबर थी कि "नरेंद्र शर्मा" का नाम एक दिन भारतवर्ष मे एक सुप्रसिद्ध गीतकार और कवि के रूप मे पहचाना जाएगा? पर ऐसे ही एक परिवार मे, बालक नरेंद्र पलकर बड़े हुए थे।</span><br /><br />सुजॉय - पंडित जी के परिवार का माहौल किस तरह का था जब वो छोटे थे? क्या घर पर काव्य, साहित्य, गीत-संगीत आदि का माहौल था? किस तरह से यह बीज पंडित जी के अंदर अंकुरित हुई?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - पापा से ही सुना है और उन्होंने अपनी पुस्तक "मुठ्ठी बंद रहस्य" में अपने पिताजी श्री पूर्ण लाल शर्मा जी को समर्पित करते हुए लिखा है कि 'पिता की तबीयत अस्वस्थ थी और बालक पिता की असहाय स्थिति को देख रहा था ..' ४ साल की उमर मे बालक नरेंद्र के सर से पिता का साया हट गया था और बड़े ताऊजी श्री गणपत भाई साहब ने, नरेंद्र को अपने साथ कर लिया और बहुत लाड प्यार से शिक्षा दी और घर की स्त्रियों के पास अधिक न रहने देते हुए उसे आरंभिक शिक्षा दी थी। एक कविता है पापा जी की ..'हर लिया क्यूं शैशव नादान'।<br /><br /><span style="font-style:italic;">हर लिया क्यों शैशव नादान? <br />शुद्ध सलिल सा मेरा जीवन, <br />दुग्ध फेन-सा था अमूल्य मन, <br />तृष्णा का संसार नहीं था, <br />उर रहस्य का भार नहीं था, <br />स्नेह-सखा था, नन्दन कानन <br />था क्रीडास्थल मेरा पावन; <br />भोलापन भूषण आनन का <br />इन्दु वही जीवन-प्रांगण का <br />हाय! कहाँ वह लीन हो गया <br />विधु मेरा छविमान? <br />हर लिया क्यों शैशव नादान? <br /> <br />निर्झर-सा स्वछन्द विहग-सा, <br />शुभ्र शरद के स्वच्छ दिवस-सा, <br />अधरों पर स्वप्निल-सस्मिति-सा, <br />हिम पर क्रीड़ित स्वर्ण-रश्मि-सा, <br />मेरा शैशव! मधुर बालपन! <br />बादल-सा मृदु-मन कोमल-तन। <br />हा अप्राप्य-धन! स्वर्ग-स्वर्ण-कन <br />कौन ले गया नल-पट खग बन? <br />कहाँ अलक्षित लोक बसाया? <br />किस नभ में अनजान! <br />हर लिया क्यों शैशव नादान? <br /> <br />जग में जब अस्तित्व नहीं था, <br />जीवन जब था मलयानिल-सा <br />अति लघु पुष्प, वायु पर पर-सा, <br />स्वार्थ-रहित के अरमानों-सा, <br />चिन्ता-द्वेष-रहित-वन-पशु-सा <br />ज्ञान-शून्य क्रीड़ामय मन था, <br />स्वर्गिक, स्वप्निल जीवन-क्रीड़ा <br />छीन ले गया दे उर-पीड़ा <br />कपटी कनक-काम-मृग बन कर <br />किस मग हा! अनजान? <br />हर लिया क्यों शैशव नादान?</span> <br /> <br />...नरेन्द्र शर्मा <br />...१९३२ <br />http://www.lavanyashah.com/2009/01/blog-post_08.html</span><br /><br />सुजॉय - बहुत सुंदर, बहुत सुंदर!<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/narendrasharma/sharma_n.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 150px; height: 189px;" src="http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/narendrasharma/sharma_n.jpg" border="0" alt="" /></a><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - भारत के संयुक्त परिवारों मे अकसर हमारे पौराणिक ग्रंथों का पाठ जैसे रामायण होता ही है और सुसंस्कार और परिवार की सुद्रढ़ परम्पराएं भारतीयता के साथ सच्ची मानवता के आदर्श भी बालक मन मे उत्पन्न करते हुए, स्थायी बन जाते हैं, वैसा ही बालक नरेंद्र के पितृहीन पर परिवार के लाड दुलार भरे वातावरण मे हुआ था। और हां हमारे घर पली बड़ी हुईं हमारे बड़े ताऊजी की पुत्री गायत्री दीदी के संस्मरण पढियेगा इस लिंक में:<br /><br />http://www.lavanyashah.com/2007/09/blog-post_16.html</span><br /><br />सुजॉय - वाह! इस संस्मरण में गायत्री दीदी नें कितनी सुंदरता से लिखा है कि...<br /><br />"मनुष्य की माया और वृक्ष की छाया उसके साथी ही चली जाती है ", पूज्य चाचाजी ने यही कहा था एक बार मेरे पति स्व. श्री राकेश जी से ! आज उनकी यह बात रह -रह कर मन को कुरेदती है. पूज्य चाचाजी के चले जाने से हमारी तो रक्शारुपी "माया ' और छाया ' दोनोँ एक साथ चली गयीँ और हम असहाय और छटपटाते रह गये| जीवन की कुछ घटनायेँ , कुछ बातेँ बीत तो जातीँ हैँ किँतु, उन्हेँ भुलाया नहीँ जा सकता, जन्म - जन्म तक याद रखने को जी चाहता है. कुछ तो ऐसी है, जो बँबई के समुद्री ज्वारोँ मेँ धुल - धुल कर निखर गयी हैँ और शेष <br />ग्राम्य जीवन के गर्द मेँ दबी -दबी गँधमयी बनी हुईँ हैँ ! सच मानिए, मेरी अमर स्मृतियोँ का केन्द्रबिन्दु केवल मेरे दिवँगत पूज्य चाचाजी कविवर पं.नरेन्द्र शर्मा जी हैँ! अपने माता पिता से अल्पायु मेँ ही वियुक्त होने के लगभग ६ दशकोँ के उपरान्त यह परम कटु सत्य स्वीकार करना पडता है कि, मैँ अब अनाथ - पितृहिना हो गयी हूँ !<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - अधिक विस्तार से, पुस्तक 'शेष - अशेष' मे आप मेरी अम्मा श्रीमती सुशीला नरेद्र शर्मा के लिखे संस्मरण मे पढ़ सकते हैं। ये पुस्तक पापा के देहांत के बाद उनकी बड़ी पुत्री स्व. वासवी ने छपवाई थ। आज तो अम्मा, पापा और वासवी, ये तीनों ही अब नहीं रहे!</span><br /><br />सुजॉय - ज़रूर पढ़ना चाहेंगे हम इस पुस्तक को, और हमारे पाठकों नें भी इसे नोट कर लिया होगा! अच्छा, पंडित जी की शिक्षा-दीक्षा कैसे शुरु हुई?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - शिक्षा घर पर ही आरम्भ हुई, फिर नरेंद्र को सीधे बड़ी कक्षा मे दाखिला मिल गया और स्कूल के शिक्षक नरेंद्र की प्रतिभा व कुशाग्र बुद्धि से चकित तो थे पर बड़े प्रसन्न भी थे। उनकी एक कविता "मुट्ठी बंद रहस्य" से कुछ यूं है...<br /><br />" सच्चा वीर "<br /><br /><span style="font-style:italic;">वही सच्चा वीर है, जो हार कर हारा नहीं,<br />आत्म विक्रेता नहीं जो, बिरुद बंजारा नहीं!<br />जीत का ही आसरा है, जिन्ह के लिये,<br />जीत जाये वह भले ही, वीर बेचारा नहीं!<br /><br />निहत्था रण मेँ अकेला, निराग्रह सत्याग्रही, <br />हृदय मेँ उसके अभय, भयभीत, हत्यारा नहीं,<br />कौन है वह वीर? मेरा देश भारत -वर्ष है!<br />प्यार जिसने किया सबको, किसी का प्यारा नहीं!</span> <br /></span><br />सुजॉय - वाह! बहुत ख़ूब! अच्छा आगे की शिक्षा उन्होंने कहाँ से प्राप्त की?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - प्रारम्भिक शिक्षा खुर्जा में हुई। इलाहाबाद विश्वविध्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में MA करने के बाद, कुछ वर्ष आनन्द भवन में 'अखिल भारतीय कॉंग्रेज़ कमिटी के हिंदी विभाग से जुड़े और नज़रबंद किये गए। देवली जेल में भूख हड़ताल से (१४ दिनो तक) जब बीमार हालत में रिहा किए गए तब गाँव, मेरी दादीजी गंगादेवी से मिलने गये। वहीं से भगवती बाबू ("चित्रलेखा" के प्रसिद्ध लेखक) के आग्रह से बम्बई आ बसे। वहीं गुजराती कन्या सुशीला से वरिष्ठ सुकवि श्री पंत जी के आग्रह से व आशीर्वाद से पाणि ग्रहण संस्कार सम्पन्न हुए। बारात में हिंदी साहित्य जगत और फिल्म जगत की महत्त्वपूर्ण हस्तियाँ हाजिर थीं - दक्षिण भारत से स्वर-कोकिला सुब्बुलक्षमीजी, सुरैयाजी, दिलीप कुमार, अशोक कुमार, अमृतलाल नागर व श्रीमती प्रतिभा नागरजी, भगवती बाबू, सपत्नीक अनिल बिश्वासजी, गुरु दत्त जी, चेतनानन्दजी, देवाननदजी इत्यादी .. और जैसी बारात थी उसी प्रकार १९ वे रास्ते पर स्थित उनका आवास डॉ. जयरामनजी के शब्दों में कहूँ तो "हिंदी साहित्य का तीर्थ-स्थान" बम्बई जैसे महानगर में एक शीतल सुखद धाम मेँ परिवर्तित हो गया।</span><br /><br />सुजॉय - लावण्या जी, हम बात कर रहे हैं पंडित जी की शिक्षा के बारे में। कवि, साहित्यिक, गीतकार, दार्शनिक - ये सब तो फिर भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन आयुर्वेद तो बिल्कुल ही अलग शास्त्र है, जो चिकित्सा-विज्ञान में आता है। यह बताइए कि पंडित जी नें आयुर्वेद की शिक्षा कब और किस तरह से अर्जित की? क्या यह उनकी रुचि थी, क्या उन्होंने इसे व्यवसाय के तौर पर भी अपनाया, इस बारे में ज़रा विस्तार से बतायें।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - पूज्य पापा जी ने आयुर्वेद का ज्ञान किन गुरुओं की कृपा से पाया उनके बारे मे बतलाती हूँ पर ये स्पष्ट कर दूं कि व्यवसाय की तरह कभी इस ज्ञान का उपयोग पापा जी ने नहीं किया था। हां, कई जान-पहचान के लोग आते तो उन्हें उपाय सुझाते और पापा ज्योतिष शास्त्र के भी प्रखर ज्ञाता थे, तो जन्म पत्रिका देखते हुए, कोई सुझाव उनके मन मे आता तो बतला देते थे। हमारे बच्चों के जन्म के बाद भी उनके सुझाव से 'कुमार मंगल रस' शहद के साथ मिलाकर हमने पापा के सुझाव पर दी थी। आयुर्वेद के मर्मग्य और प्रखर ज्ञाता स्व. श्री मोटा भाई, जो दत्तात्रेय भगवान के परम उपासक थे, स्वयं बाल ब्रह्मचारी थे और मोटाभाई ने, पावन नदी नर्मदा के तट पर योग साधना की थी, वे पापा जी के गुरु-तुल्य थे, पापा जी उनसे मिलने अकसर सप्ताह मे एक या दो शाम को जाया करते थे और उन्हीं से आयुर्वेद की कई गूढ़ चिकित्सा पद्धति के बारे मे पापा जी ने सीखा था। मोटा भाई से कुछ वर्ष पूर्व, स्व. ढूंडीराज न्याय रत्न महर्षि विनोद जी से भी पापा का गहन संपर्क रहा था। इस बारे में और विस्तार से जानने के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं:<br /><br />http://www.aroundalibag.com/idols/vinod.html<br /></span><br />सुजॉय - लावण्या जी, आज हम यहाँ आकर रुकते हैं, पंडित जी के सफ़र को हम अगले सप्ताह आगे बढ़ायेंगे, आज की यह प्रस्तुति समाप्त करने से पहले आइए पंडित जी का लिखा फ़िल्म 'रत्नघर' का वही गीत सुनते हैं, जो मुझे बेहद पसंद है, और जिस गीत के मुखड़े से मैंने इस शृंखला का नामकरण भी किया है, "तुम्हे बांधने के लिए मेरे पास और क्या मेरा प्रेम है, मेरा प्रेम है, मेरा प्रेम है"। इस गीत को हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हिंदी साहित्यकारों द्वारा लिखे फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'दिल की कलम से' की पहली ही कड़ी में बजाया था, आइए इस कर्णप्रिय गीत को यहाँ दोबारा सुनें। आवाज़ है लता मंगेशकर की और धुन है सुधीर पड़के का।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लावण्या जी - ज़रूर सुनाइए।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - तुम्हे बांधने के लिए मेरे पास और क्या है (रत्नघर)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_45/OIG_SS_45.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो ये था 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की पहली कड़ी। कैसा लगा ज़रूर लिख भेजिएगा, टिप्पणी के अलावा oig@hindyugm.com के ईमेल पते पर भी आप अपने सुझाव और राय लिख सकते हैं। और हाँ, आप अपने जीवन के यादगार अनुभवों को भी हमारे साथ बांट सकते हैं इसी स्तंभ में। 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' ओल्ड इज़ गोल्ड का एक ऐसा सह-स्तंभ है, जिसे हम सजाते हैं आप ही के भेजे हुए ईमेलों से। तो इसी आशा के साथ कि आपके ईमेल हमें जल्द ही प्राप्त होंगे, आज हम आप से विदा लेते हैं। 'आवाज़' पर अगली प्रस्तुति होगी कल सुबह, सुमित के साथ 'सुर-संगम' पर ज़रूर पधारिएगा, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-27730506715965889422011-06-04T17:00:00.001+05:302011-06-04T17:00:00.655+05:30ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 44 - 'उषा मंगेशकर से ट्विटर पर छोटी सी मुलाक़ात और उनके गाये चंद असमीया फ़िल्मी गीत'नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, शनिवार विशेषांक के साथ मैं, आपका दोस्त सुजॉय, हाज़िर हूँ। पिछले दिनों 'हिंद-युग्म' नें मुझे 'लोकप्रिय गोपीनाथ बार्दोलोई हिंदी सेवी सम्मान' से जब सम्मानित किया था, तो मेरी ख़ुशी की सीमा न थी। यह ख़ुशी सिर्फ़ इस बात की नहीं थी कि मैं पुरस्कृत हो रहा था, बल्कि इस बात की भी थी कि यह पुरस्कार उस महान शख़्स के नाम पर था जो उसी जगह से ताल्लुख़ रखते थे जहाँ से मैं हूँ। जी हाँ, आसाम की सरज़मीं। आसाम, जहाँ मेरा जन्म हुआ, जहाँ से मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की, और जहाँ से मेरी नौकरी जीवन की शुरुआत हुई। उस रोज़ मैं उस पुरस्कार को ग्रहण करते हुए यह सोच रहा था कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिये मुझे यह पुरस्कार दिया गया है, तो क्यों न 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक विशेषांक असमीया फ़िल्म संगीत को लेकर की जाये! तभी मुझे याद आया कि पिछले साल, जून के महीने में, जब तीनों मंगेशकर बहनों का ट्विटर पर आगमन हुआ, उस वक़्त मैंने लता जी और उषा जी से कुछ सवाल पूछे थे, जिनमें से कुछ के उन दोनों ने जवाब भी दिये थे। आपको याद होगा लता जी से की हुई बातचीत को हमनें इसी साप्ताहिक स्तंभ में प्रस्तुत किया था। आइए आज उषा जी से की हुई बातचीत की चर्चा करते हैं। <br /><br />दोस्तों, फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर में लता जी और आशा जी सूरज और चांद की तरह चमक रहे थे। ऐसे में दूसरी प्रतिभा-सम्पन्न गायिकाओं की आवाज़ें भी टिमटिमाते तारों की तरह कहीं खो सी जा रही थी। जो गायिकाएँ इसी राह पर संघर्ष करती रहीं, उनकी यात्रा ज़्यादा दूर तक नहीं तय हो सकी। और जिन गायिकाओं नें अपने रुख़ को प्रादेशिक फ़िल्म संगीत की तरफ़ मोड़ लिया, उनमें से कई आवाज़ें प्रादेशिक जगत में चमक उठीं। और इन्हीं आवाज़ों में एक आवाज़ लता और आशा की ही बहन उषा की थी। जी हाँ, उषा मंगेशकर नें मराठी फ़िल्मों में तो बेशुमार सफल गीत गाये ही, साथ ही नेपाली और असमीया गीतों की भी लिस्ट काफ़ी लम्बी है। आइए आज उषा जी के गाये कुछ बेहद लोकप्रिय असमीया गीतों की चर्चा करें और उन्हें सुनें। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - सिनाकी मूर मोनोर मानूह (फ़िल्म: खोज)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_44/OIG_SS_44_01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />फ़िल्म 'खोज' का यह एक हॉंटिंग् नंबर था, जिसमें संगीत था डॉ. भूपेन हज़ारिका का। इस गीत के लिये उषा जी को आसाम सरकार प्रदत्त पुरस्कार भी मिला था। उषा जी के गाये असमीया गीतों की सफलता का राज़ है उनका असमीया उच्चारण जो आसाम के लोगों तक को भी हैरत में डाल देता था। भूपेन दा ही वो संगीतकार थे जिन्होंने उषा जी से ही नहीं, बल्कि लता जी और आशा जी से भी असमीया फ़िल्मों के गीत गवाये। लता जी से फ़िल्म 'एरा बाटोर सुर' में तथा आशा जी से 'चिकमिक बिजुली' में गवाये गीत बेहद लोकप्रिय रहे। उषा जी पर वापस आते हैं, ये रहा मेरा पहला ट्वीट उषा जी के नाम: <br /><br />soojoi_india@ushamangeshkar उषा जी, नमस्कार! आपको ट्विटर में देख कर बहुत अच्छा लग रहा है। मैं आसाम का रहने वाला हूँ, और आपनें असमीया में बहुत सारे गीत गाये हैं। मुझे आपके तमाम असमीया गीत बहुत पसंद हैं, जैसे कि "सिनाकी मूर मोनोर मानूह", "पौलाखोरे रौंग", और 'चमेली मेमसाब', 'अपरुपा' और 'मोन प्रोजापोती' के गानें भी। <br /><br />इसके जवाब में उषा जी नें लिखा: <br /><br />ushamangeshkar@soojoi_india <span style="font-weight:bold;">I love Assam, the Assamese people & Assamese music tremendously! Bhupen da is one of my all-time favourite composers! (मैं आसाम से प्यार करती हूँ, मुझे आसाम के लोगों से बहुत प्यार है और असमीया संगीत मेरे दिल के बहुत करीब है! भूपेन दा मेरे पसंदीदा संगीतकारों में से हैं।) <br /></span><br />तो दोस्तों, इसी बात पर आइए उषा जी और भूपेन दा के संगम से उत्पन्न एक और असमीया गीत सुनते हैं। यह है सुपरहिट फ़िल्म 'चमेली मेमसाब' का सुपरहिट गीत जो आधारित है आसाम के चाय-बागानों के लोक-संगीत पर। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - औख़ोम देख़ौर बागीसार सोवाली (फ़िल्म: चमेली मेमसाब)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_44/OIG_SS_44_02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />फ़िल्म 'चमेली मेमसाब' को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और भूपेन हज़ारिका को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इस फ़िल्म में दो और गीत उषा जी के ख़ूब मशहूर हुए थे - "जौबोनेर अंगनाय उड़े गेन्दाफूल गो", जिसे उन्होंने भूपेन हज़ारिका के साथ मिल कर गाया था और दूसरा गीत उनका एकल था "सुटु हौये ओ नगर..."। ख़ैर, आगे मैंने उषा जी को यह ट्वीट किया: <br /><br />soojoi_india@ushamangeshkar उषा जी, 'चमेली मेमसाब' और 'खोज' फ़िल्मों के अलावा आपनें भूपेन दा के साथ और भूपेन दा के लिये फ़िल्म 'पौलाखोरे रौंग' में भी गाया था। मैं आपको बताना चाहूँगा कि इस फ़िल्म का शीर्षक गीत आज भी आकाशवाणी के गुवाहाटी केन्द्र से प्रसारित फ़रमाइशी गीतों के कार्यक्रम 'कल्पतरु' में आये दिन बजता रहता है, और लोग आज भी बड़ी तादाद में इस गीत की फ़रमाइश भेजते हैं। <br /><br />उषा जी का जवाब था: <br /><br />ushamangeshkar@soojoi_india <span style="font-weight:bold;">Yes, it's a beautiful song. I sang it under Bhupenda's personal supervision. (हाँ, यह एक सुंदर गीत है। मैंने इसे भूपेन दा की निजी देखरेख में रह कर गाया था।)</span> <br /><br />दोस्तों, ज़रा आप भी तो सुनिये इस ख़ूबसूरत गीत को। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - पौलाखोरे रौंग (फ़िल्म: पौलाखोरे रौंग)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_44/OIG_SS_44_03.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />उषा जी से असमीया गीतों के संदर्भ में और आगे बातचीत तो नहीं हो सकी, और आजकल वो ट्विटर पर ज़्यादा सक्रीय भी नहीं हैं, इसलिये मुझे इतने से ही संतुष्ट होना पड़ा। लेकिन उनके गाये हुए गीतों का ख़ज़ाना तो हमारे पास है न! उषा जी के गाये तीन गीत हमनें सुनें तीन अलग अलग फ़िल्मों से। एक और गीत मैं आपको सुनवाऊँगा, लेकिन उससे पहले उषा जी और भूपेन दा की कुछ बातें हो जाये! भूपेन हज़ारिका नें उषा मंगेशकर को केवल असमीया फ़िल्मों में ही नहीं, अपनी हिंदी फ़िल्म 'एक पल' में भी गवाया था। भूपेन्द्र और उषा जी के साथ भूपेन दा नें इस फ़िल्म के गीत "ज़रा धीरे ज़रा धीमे लेके जइहो डोली" में अपनी आवाज़ मिलायी थी। हिंदी में उनकी संगीतबद्ध पहली फ़िल्म 'आरोप' (१९७४) में उन्होंने आशा भोसले और उषा मंगेशकर से एक डुएट गवाया था "सब कुछ मिला" जो एक क्लब शैली का गीत था। कहा जाता है कि लता मंगेशकर नें ही उषा को भूपेन दा से मिलवाया था जब वो उनके लिये 'एरा बाटोर सुर' फ़िल्म के लिये "जोनाकोरे राती" गीत गा रही थीं। फिर उषा जी से पहली मुलाक़ात में ही भूपेन दा नें उन्हें कुछ असमीया गीत गाने का न्योता दे दिया और उषा जी नें यह मौका हाथों हाथ ग्रहण किया। <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHntZOvd8SIo_4DreQyFJX6wf1gd6DkyaXFZ7lE1kj4CW_blOb7I0pwxeZfDJ2vCFTb-vfKlAXrsPG1N-KbUM-wCVNMD8vpzyGLHM0HHpdtJfHYPjsmOmo-CH0lmLPo6S4fn4Nt8cryROi/s1600/usha_ji1_696157476.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 132px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHntZOvd8SIo_4DreQyFJX6wf1gd6DkyaXFZ7lE1kj4CW_blOb7I0pwxeZfDJ2vCFTb-vfKlAXrsPG1N-KbUM-wCVNMD8vpzyGLHM0HHpdtJfHYPjsmOmo-CH0lmLPo6S4fn4Nt8cryROi/s200/usha_ji1_696157476.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5613858545926919042" /></a><br />अभी कुछ वर्ष पहले, साल २००८ में उषा मंगेशकर को आसाम के नगाँव में आयोजित 'नाट्यप्रबर शिल्पप्राण' के पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में निमंत्रित किया गया था। आसाम के प्रति उनके अगाध प्रेम की वजह से उन्होंने यह आतिथ्य ग्रहण की, और अपनी भाषण में उन्होंने आसाम और वहाँ के लोगों के साथ उनके "ईमोशनल क्लोज़नेस' का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि असमीय संस्कृति बहुत ही उच्च श्रेणी की है और वो चाहती हैं कि इसका सही तरीके से संरक्षण हो। उन्होंने इस राह में नई पीढ़ी को सामने आने का आहवान किया। उसी भाषण में उन्होंने अपने बीते दिनों को याद किया कि किस तरह से उन दिनों भूपेन दा नें उन्हें और उनकी दीदी लता जी को असमीया गीत सिखाया करते थे। अंत में उन्होंने अपनी मशहूर असमीया गीत "सिनाकी सिनाकी मूर मोनोर मानूह" गा कर उपस्थित जनता को मंत्रमुग्ध कर दिया। <br /><br />अपनी उस आसाम यात्रा में कार्यक्रम ख़त्म हो जाने के बाद वह रात उन्होंने नगाँव के सर्किट हाउस में बितायी। रात्री भोज में जब उन्हें उनकी पसंदीदा व्यंजन "कालदिलोर तरकारी" परोसा गया तो वो एक बार फिर से बीते समय में पहुँच गईं। उन्होंने कहा कि बिलकुल वही भोजन उन्होंने भूपेन दा के साथ कई साल पहले किया था, जिसमें था टमाटर और नींबू में बनी खट्टी मछली। इसलिए जब अगले दिन वो काज़ीरंगा गईं तो वहाँ पर उनके इसी मनपसंद मछली से उनका स्वागत किया गया। काज़ीरंगा जाते समय वो केलीडेन चाय बागान में भी गईं और चाय-पत्ती निर्माण की समस्त पद्धतिओं से अपने आप को अवगत किया। चाय बागान में सैर करते हुए वो गुनगुना उठीं "औख़ोम देख़ोर बागीसार सोवाली... लोक्स्मी नौहौय मोरे नाम सामेली" ('चमेली मेमसाब' फ़िल्म का यह गीत चायबागान के पार्श्व पर बना था)। वापस जाते समय उन्होंने पत्रकारों को बताया कि उनकी दिली तमन्ना है कि अपने गाये असमीया गीतों को वो एक ऐल्बम के रूप में फिर से रेकॉर्ड करें। और दोस्तों, हम भी उषा जी को इस मिशन के लिये शुभकामनाएँ देते हुए यहाँ पर उनका गाया एक और असमीया फ़िल्मी गीत सुनते हैं। इस बार सुनिये फ़िल्म 'राधापुरोर राधिका' से यह मशहूर गीत। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - राधाचुड़ार फूल (फ़िल्म: राधापुरोर राधिका)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_44/OIG_SS_44_04.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष', जिसमें हमनें पार्श्व-गायिका उषा मंगेशकर के गाये असमीया गीतों का आनंद लिया और आसाम से उनके जुड़ाव के बारे में जाना। आशा है आपको हमारी यह प्रस्तुति पसंद आई होगी, ज़रूर लिखिएगा, अब आज के लिये अनुमति दीजिये, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-5614000278234678192011-05-28T17:00:00.001+05:302011-05-28T17:00:00.476+05:30ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 43 - बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शीनमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले तीन हफ़्तों से इसमें हम आप तक पहुँचा रहे हैं फ़िल्म जगत के सफलतम गीतकारों में से एक, आनन्द बक्शी साहब के सुपुत्र राकेश बक्शी से की हुई बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बक्शी'। इस शृंखला की पिछली तीन कड़ियाँ आप नीचे लिंक्स पर क्लिक करके पड्ज़ सकते हैं। <br /><a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/05/blog-post_07.html">भाग-१</a><br /><a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/05/41.html">भाग-२</a><br /><a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/05/42.html">भाग-३</a> <br /><br />आइए आज प्रस्तुत है इस ख़ास बातचीत की चौथी व अंतिम कड़ी। <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJQh0sYKK2z3Eku_AOBnaW8_WZU5J8xrTer3ttaYT3byoSHchQ0bFjhnjaV282qV-NhG2itwguYDZ00Rf4ihJ4QvK1w50ss53lPlB-reZOLQ7Ul8SQ145Z-exEyeYXgVJbu-r9Xxoywnit/s1600/anand+bakshi.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 191px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJQh0sYKK2z3Eku_AOBnaW8_WZU5J8xrTer3ttaYT3byoSHchQ0bFjhnjaV282qV-NhG2itwguYDZ00Rf4ihJ4QvK1w50ss53lPlB-reZOLQ7Ul8SQ145Z-exEyeYXgVJbu-r9Xxoywnit/s200/anand+bakshi.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5611259988321858370" /></a><br />सुजॉय - नमस्कार राकेश जी, और फिर एक बार स्वागत है 'हिंद-युग्म' के 'आवाज़' मंच पर। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - नमस्कार!</span> <br /><br />सुजॉय - पिछले सप्ताह हमारी बातचीत आकर रुकी थी बक्शी साहब के गाये गीत पर, "बाग़ों में बहार आई"। बात यहीं से आगे बढ़ाते हैं, क्या कहना चाहेंगे बक्शी साहब के गायन प्रतिभा के बारे में? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - बक्शी जी को गायन से प्यार था और अपने आर्मी और नेवी के दिनों में अपने साथियों को गाने सुना कर उनका मनोरंजन करते थे। और आर्मी में रहते हुए ही उनके साथियों नें उनको गायन के लिये प्रोत्साहित किया। उन साथियों नें उन्हें बताया कि वो अच्छा गाते हैं और बहुत अच्छा लिखते हैं, इसलिए उन्हें फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आज़मानी चाहिये। मेरा ख़याल है कि वहीं पे उनके सपनों का बीजारोपण हो गया था। आर्मी के थिएटर व नाटकों में वो अभिनय भी करते थे और गीत भी गाते थे। फ़िल्मी पार्टियों में नियमित रूप से वो अपनी लिखी हुई कविताओं और गीतों को गा कर सुनाते थे। </span><br /><br />सुजॉय - वाह! अच्छा, ये तो आपने बताया कि किस तरह से वो सेना में रहते समय साथियों के लिये गाते थे। लेकिन फ़िल्मों में उन्हें बतौर गायक कैसे मौका मिला? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - दरअसल क्या हुआ कि पिताजी अक्सर अपने गीतों को प्रोड्युसर-डिरेक्टर्स को गा कर सुनाया करते थे। ऐसे में एक दिन मोहन कुमार साहब नें उन्हें गाते हुए सुन लिया और उन्हें ज़बरदस्ती अपनी फ़िल्म 'मोम की गुड़िया' में दो गीत गाने के लिये राज़ी करवा लिया। इनमें से एक सोलो था और एक लता जी के साथ डुएट, जिसे आपने पिछली कड़ी में सुनवाया था।</span> <br /><br />सुजॉय - जी हाँ, और क्या ग़ज़ब का गीत था वह। उनकी आवाज़ भले ही हिंदी फ़िल्मी नायक की आवाज़ न हो, लेकिन कुछ ऐसी बात है उनकी आवाज़ में कि सुनते हुए दिल को अपने मोहपाश में बांध लेती है। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - पता है "बाग़ों में बहार आयी" गीत की रेकॉर्डिंग् पर वो बहुत सज-संवरकर गये थे। जब उनसे यह पूछा गया कि इतने बन-ठन के क्यों आये हैं, तो उन्होंने कहा कि पहली बार लता जी के साथ गाने का मौका मिला है, इसलिये यह उनके लिये बहुत ख़ास मौका है ज़िंदगी का। </span><br /><br />सुजॉय - बहुत सही है! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - लेकिन वो लोगों के सामने गाने से कतराते थे। पार्टियों में वो तब तक नहीं गाते जब तक उनके दोस्त उन्हें गाने पर मजबूर न कर देते। पर एक बार गाना शुरु कर दिया तो लम्बे समय तक गाते रहते। <span style="font-weight:bold;"></span></span><br /><br />सुजॉय - राकेश जी, बक्शी साहब नें हज़ारों गीत लिखे हैं, इसलिये अगर मैं आपसे आपका पसंदीदा गीत पूछूँ तो शायद बेवकूफ़ी वाली बात होगी। बताइये कि कौन कौन से गीत आपको बहुत ज़्यादा पसंद है आपके पिताजी के लिखे हुए?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - "मैं शायर तो नहीं" (बॉबी), "गाड़ी बुला रही है" (दोस्त), "एक बंजारा गाये" (जीने की राह), "अच्छा तो हम चलते हैं" (आन मिलो सजना), "आदमी जो कहता है" (मजबूर), "ज़िंदगी हर क़दम एक नई जंग है" (मेरी जंग), "ये रेश्मी ज़ुल्फ़ें" (दो रास्ते), "हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें" (अमर अकबर ऐन्थनी), "भोली सी सूरत आँखों में मस्ती" (दिल तो पागल है), और इसके अलवा और ३०० गीत होंगे जहाँ तक मेरा अनुमान है।</span><br /><br />सुजॉय - इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - उनके गीतों में गहरा दर्शन छुपा होता था। उनके बहुत से चाहनेवालों और निर्माता-निर्देशकों नें मुझे बताया और अहसास दिलाया कि सरल से सरल शब्दों के द्वारा भी वो गहरी से गहरी बात कह जाते थे। उनके लिखे तमाम गीत ले लीजिये, जैसे कि "चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये", "यहाँ मैं अजनबी हूँ", "रोते रोते हँसना सीखो, हँसते हँसते रोना", "ज़िंदगी हर कदम एक नई जंग है", "तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो", "गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है", "कैसे जीते हैं भला हम से सीखो ये अदा", "दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है", "ज़िंदगी क्या है एक लतीफ़ा है", "आदमी मुसाफ़िर है" (जिसके लिये उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था), "दुनिया में रहना है तो काम कर प्यारे", "शीशा हो या दिल हो टूट जाता है", "ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते", "माझी चल, ओ माझी चल", "हाथों की चंद लकीरों का, ये खेल है सब तकदीरों का", "चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वो कौन सा देस, जहाँ तुम चले गये", "इक रुत आये इक रुत जाये, मौसम बदले, ना बदले नसीब", "जगत मुसाफ़िरखाना है", "आदमी जो कहता है", "दुनिया में ऐसा कहाँ सबका नसीब है", और भी न जाने कितने कितने उनके दार्शनिक गीत हैं जो कुछ न कुछ संदेश दे जाते हैं ज़िंदगी के लिये।</span><br /><br />सुजॉय - बिलकुल बिलकुल! अच्छा राकेश जी, आपने बहुत सारे गीतों का ज़िक्र किया। अब हम आपसे कुछ चुने हुए गीतों के बारे में जानना चाहेंगे जिनके साथ कुछ न कुछ ख़ास बात जुड़ी हुई है। इस तरह के कुछ गीतों के बारे में बताना चाहेंगे?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - उनका लिखा गीत है 'बॉबी' का "मैं शायर तो नहीं"। वो मुझे कहते थे और बहुत से लेखों में भी मैंने उन्हें कहते पढ़ा है कि वो अपने आप को एक शायर नहीं, बल्कि एक गीतकार मानते थे, साहिर साहब को वो शायर मानते थे। 'अमर प्रेम' के गीत "कुछ तो लोग कहेंगे" को ही ले लीजिये; जावेद साहब इस कश्मकश में थे कि क्या उन्हें अपनी शादी को तोड़ कर एक नया रिश्ता कायम कर लेना चाहिये, और इस गीत नें उन्हें परिणाम की परवाह किये बिना सही निर्णय लेने में मददगार साबित हुई। जावेद साहब से ही जुड़ा एक और क़िस्सा है, "ज़िंदगी के सफ़र में" गीत को सुनने के बाद जावेद साहब नें पिताजी से वह कलम माँगी जिससे उन्होंने इस गीत को लिखा था। पिताजी नें अगले दिन उन्हें दूसरा कलम भेंट किया। जावेद साहब नें ऐसा कहा था कि अगर यह दुनिया उन्हें एक सूनसान द्वीप में अकेला छोड़ दे, तो केवल इस गीत के सहारे वो अपनी ज़िंदगी के बाक़ी दिन काट सकते हैं।</span><br /><br />सुजॉय - वाक़ई एक लाजवाब गीत है, और मैं समझता हूँ कि यह गीत एक यूनिवर्सल गीत है, और हर इंसान को अपने जीवन की छाया इस गीत में नज़र आती होगी। "कुछ लोग जो सफ़र में बिछड़ जाते हैं, वो हज़ारों के आने से मिलते नहीं, बाद में चाहे लेके पुकारा करो उनका नाम, वो फिर नहीं आते", कमाल है!!! राकेश जी, बहुत अच्छा लग रहा है जो आप एक एक गीत के बारे में बता रहे हैं, और भी कुछ इसी तरह के क़िस्सों के बारे में बताइये न!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - "नफ़रत की दुनिया को छोड़ के प्यार की दुनिया में", इस गीत में एक अंतरा है "जब जानवर कोई इंसान को मारे.... एक जानवर की जान आज इंसानो ने ली है, चुप क्यों है संसार", पिताजी कभी भी मुझे किसी पंछी को पिंजरे में क़ैद करने नहीं दिया, कभी मछली को अक्वेरियम में सीमाबद्ध नहीं करने दिया। वो कहते थे कि क्योंकि वो ब्रिटिश शासन में रहे हैं और उन्हें इस बात का अहसास है कि ग़ुलामी क्या होती है, इसलिये वो कभी नहीं चाहते कि किसी भी जीव को हम अपना ग़ुलाम बनायें।</span><br /><br />सुजॉय - वाह! राकेश जी, चलते चलते अब हम आपसे जानना चाहेंगे बक्शी साहब के लिखे उन गीतों के बारे में जो उन्हें बेहद पसंद थे।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - यहाँ भी एक लम्बी लिस्ट है, कुछ के नाम गिना देता हूँ - "मैंने पूछा चांद से" (अब्दुल्ला), "परदेसियों से न अखियाँ मिलाना" (जब जब फूल खिले), "चिंगारी कोई भड़के" (अमर प्रेम), "मेरे दोस्त क़िस्सा ये क्या हो गया" (दोस्ताना), "डोली ओ डोली", "खिलौना जान कर तुम तो", "जब हम जवाँ होंगे", "बाग़ों में बहार आयी", "मैं ढूंढ़ रहा था सपनों में", "सुन बंटो बात मेरी", "जिंद ले गया वो दिल का जानी", "वो तेरे प्यार का ग़म", "सावन का महीना पवन करे सोर", "राम करे ऐसा हो जाये", "जिस गली में तेरा घर न हो बालमा", "ज़िंदगी के सफ़र में", "मेरे नसीब में ऐ दोस्त तेरा प्यार नहीं", "प्रेम से क्या एक आँसू", "दीवाने तेरे नाम के खड़े हैं दिल थाम के", "क्या कोई सूरत इतनी ख़ूबसूरत हो सकती है", "तेरे नाम के सिवा कुछ याद नहीं", "दुनिया में कितना ग़म है", "आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं", "चिट्ठी आयी है", "पनघट पे परदेसी आया", "मैं आत्मा तू परमात्मा", "घर आजा परदेसी तेरा देस बुलाये रे", "जब जब बहार आयी", "कुछ कहता यह सावन", "वो क्या है, एक मंदिर है", "हर एक मुस्कुराहट मुस्कान नहीं होती", "यहाँ मैं अजनबी हूँ", "मैं तेरी मोहब्बत को रुसवा करूँ तो", आदि।</span><br /><br />सुजॉय - राकेश जी, क्या बताऊँ, किन शब्दों से आपका शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा। इतने विस्तार से आपनें बक्शी जी के बारे में हमें बताया कि उनकी ज़िंदगी के कई अनछुये पहलुओं से हमें अवगत कराया। चलते चलते कुछ कहना चाहेंगे?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - "मैं बर्फ़ नहीं हूँ जो पिघल जाऊँगा", यह कविता उन्होंने अपने लिये लिखी थी। बहुत अरसे बाद इसे फ़िल्मी गीत का रूप दिया सुभाष घई साहब नें। यह कविता उन्हें निरंतर अच्छे अच्छे गीत लिखने के लिये प्रेरीत करती रही। It is the essence of his life, his attitude to his profession, his soul.</span><br /><br />सुजॉय - वाह! अच्छा तो राकेश जी, बहुत अच्छा लगा आपसे लम्बी बातचीत कर, आपको एक उज्वल भविष्य के लिये हमारी तरफ़ से ढेरों शुभकामनाएँ, आप फ़िल्मनिर्माण के जिस राह पर चल पड़े हैं, ईश्वर आपको कामयाबी दे, और आनन्द बक्शी साहब के नाम को आप चार-चांद लगायें यही हमारी कामना है आपके लिये, बहुत बहुत शुक्रिया।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - बहुत बहुत शुक्रिया आपका।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - ज़िंदगी के सफ़र में (आपकी क़सम)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/SS_22_ShobhaGurtu/SsAbint.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो ये था 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की ख़ास लघु शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बक्शी' का चौथा और अंतिम भाग। इस पूरी शृंखला के बारे में आप अपनी राय टिप्पणी के अलावा oig@hindyugm.com के ईमेल आइडी पर भेज सकते हैं। अब आज के लिये इजाज़त दीजिये, फिर मुलाक़ात होगी, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-71397687858301791612011-05-21T17:00:00.002+05:302011-05-21T17:00:00.388+05:30ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 42 - बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी<span style="font-weight:bold;">अब तक आपने पढ़ा <br /><a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/05/blog-post_07.html">भाग १</a><br /><a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/05/41.html">भाग २</a> </span><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTfirK-5lyNJmvTF2H4RSTIk9c25tX7r6B8fxRxPoCFOs2-OMP_G-V4eV14swn2WTT_xcN8k3Y-KTrJTV15T9p9FqlDvz91LcNevnONF7qQ4hLuo7SE5QHA1VL3v_eTFgqrV3TTjdRBD7S/s1600/anand_bakshi1.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 154px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTfirK-5lyNJmvTF2H4RSTIk9c25tX7r6B8fxRxPoCFOs2-OMP_G-V4eV14swn2WTT_xcN8k3Y-KTrJTV15T9p9FqlDvz91LcNevnONF7qQ4hLuo7SE5QHA1VL3v_eTFgqrV3TTjdRBD7S/s200/anand_bakshi1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5608990655416286642" /></a><br />नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, शनिवार की इस ख़ास प्रस्तुति को पिछले दो हफ़्तों से हम ख़ास बना रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार आनंद बक्शी के बेटे राकेश बक्शी के साथ बातचीत कर। पिछली दो कड़ियों में आपनें जाना कि किस तरह का माहौल हुआ करता था बक्शी साहब के घर का, कैसी शिक्षा/अनुशासन उन्होंने अपने बच्चों को दी, उनकी जीवन-संगिनी नें किस तरह का साथ निभाया, और भी कई दिल को छू लेने वाली बातें। आइए बातचीत के उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हैं। प्रस्तुत है शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' की तीसरी कड़ी। <br /><br />सुजॉय - राकेश जी, नमस्कार! मैं, हिंद-युग्म की तरफ़ से आपका फिर एक बार स्वागत करता हूँ। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - नमस्कार!</span> <br /><br />सुजॉय - राकेश जी, आज सबसे पहले तो मैं आपको यह बता दूँ कि यह जो हमारी और आपकी बातचीत चल रही है, यह हमारे पाठकों को बहुत पसंद आ रही है। और यही नहीं, इसकी इंटरव्यु की चर्चा मीडिया तक पहुँच चुकी है। पिछले सोमवार को <a href="http://blogsinmedia.com/2011/05/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9F%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%A8%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0/">'हिंदुस्तान' अखबार में इसके कुछ अंश</a> प्रकाशित हुए थे। यह हमारी उपलब्धि नहीं, बल्कि आनंद बक्शी साहब की महिमा है। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - बहुत बहुत शुक्रिया।</span> <br /><br />सुजॉय - पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी बटाटे वडे पर। आपनें यह बताया कि आपनें कभी बक्शी साहब को किसी गीत के लिये सुझाव नहीं दिया। लेकिन क्या आप कभी अपने पिताजी के साथ रेकॉर्डिंग् पर जाते थे? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - जी हाँ, मैं रेकॉर्डिंग् पर जाता था। और बहुत ही अच्छा अनुभव होता था और मुझे बहुत गर्व होता था। लेकिन साथ ही साथ अंतर्मुखी होने की वजह से मैं म्युज़िशियन्स, कम्पोज़र्स और सिंगर्स से शर्माता था और वो लोग मुझे प्यार करते थे। कुछ लोग तो बिना यह जाने कि मैं किनका बेटा हूँ, मुझे प्यार करते। </span><br /><br />सुजॉय - राकेश जी, आनंद बक्शी वो गीतकार हैं जिन्होंने फ़िल्मों में सब से ज़्यादा गीत लिखे हैं। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि वो बहुत ज़्यादा व्यस्त भी रहते होंगे। तो किस तरह से वो 'वर्क-लाइफ़ बैलेन्स' को मेण्टेन करते थे? परिवार के लिये समय निकाल पाना क्या मुश्किल नहीं होता था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - वो सुबह ७ बजे से सुबह ११ बजे तक, और फिर शाम ४ बजे से रात ९ बजे तक लिखते थे। रात ९ बजे के बाद उनका समय हमारे लिये होता था। रात १०:३० बजे वो खाना खाते थे, और ९ से १०:३० तक का समय वो हमें देते थे। वो हमें ढेर सारी कहानियाँ सुनाते थे अपनी ज़िंदगी के तमाम तजुर्बों की, और तमाम उर्दू के उपन्यासों की, अंग्रेज़ी उपन्यासों की। वो रोज़ाना Readers' Digest पढ़ते थे। वो कहा करते थे कि हर किसी को हर रोज़ कोई न कोई नई चीज़ पढ़नी चाहिये। जिसनें यह काम किसी रोज़ नहीं किया, तो उसने जीना छोड़ दिया। वो हर रोज़ एक नई कहानी पढ़ते थे। और शायद यही वजह है कि उन्हें फ़िल्मी कहानियों और दृश्यों की इतनी अच्छी समझ थी। बहुत से निर्माता और निर्देशक अपनी फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले पिताजी को अपनी फ़िल्म दिखाते थे ताकि वो अपने विचार और सुझाव उनके सामने रख सकें।</span> <br /><br />सुजॉय - आपनें बताया कि बक्शी साहब को पढ़ने का बेहद शौक था और रोज़ नई कहानी पढ़ते थे। किन किन लेखकों की किताबें उन्हें ज़्यादा पसंद थी? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - सिडनी शेल्डन और डैनियल स्टील। वो कुछ उर्दू मासिक पत्रिकाएँ भी पढ़ते थे, ख़ास कर दिल्ली के शमा ग्रूप के। Readers' Digest उनकी पहली पसंद थी। He believed any person who has not read anything new in 24 hours, has nothing to contribute to society, to life. </span><br /><br />सुजॉय - अब मैं एक सवाल मैं आपसे पूछना चाहूँगा अगर आप उसे अन्यथा न लें तो। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - पूछिये। </span><br /><br />सुजॉय - क्या आपको लगता है कि बक्शी साहब के इतने ज़्यादा गीत लिखने की वजह से उनके लेखन के स्तर में उसका असर पड़ा है? क्या आपको लगता है कि अगर वो क्वाण्टिटी के बदले क्वालिटी पर ज़्यादा ध्यान देते तो और उम्दा काम हुआ होता? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - हाँ, कभी कभी मैं इस बात को मानता हूँ। मैं उन्हें पूछता भी था कि वो कुछ निर्देशकों के लिये हमेशा अच्छे गीत लिखते और कुछ निर्देशकों के लिये हमेशा बुरे गीत लिखते, ऐसा क्यों? और उनका जवाब होता कि कुछ निर्देशक उनके पास अच्छी कहानी और सिचुएशन लेकर आते थे, अच्छे किरदार लेकर आते थे, और उससे उनको प्रेरणा मिलती थी अच्छा गीत लिखने की। यानी वो यह कहना चाहते थे कि वो सिर्फ़ आइने का काम करते थे, जो जैसी चीज़ लेकर उनके पास आते थे, वो वैसी ही चीज़ उन्हें वापस करते। </span><br /><br />सुजॉय - अच्छा राकेश जी, पहले अंक में आपनें बताया था कि आपका इम्पोर्ट का बिज़नेस था। क्या आपके परिवार के किसी और सदस्य नें बक्शी साहब के नक्श-ए-क़दम पर चलने का प्रयास किया है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - मैं ख़ुद एक राइटर-डिरेक्टर हूँ, और कोशिश कर रहा हूँ मेरी पहली हिंदी फ़ीचर फ़िल्म बनाने की। और कोई इस लाइन में नहीं है। मेरा भाई फ़ाइनन्शियल मार्केट में है, मेरी दो बहनों की शादी हो चुकी है वो अपना अपना घर सम्भालती है। </span><br /><br />सुजॉय - यह तो बहुत अच्छी बात है कि आप फ़िल्म-निर्माण में क़दम रख रहे हैं। लेकिन इस राह में आपने कुछ अनुभव भी हासिल किये हैं? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - जी हाँ, इस लाइन में मैने अपना करीयर १९९९ में शुरु किया था। इस वर्ष मैंने दो स्क्रिप्ट्स लिखे - सिनेविस्टा कम्युनिकेशन्स के लिये टीवी धारावाहिक 'सबूत', और धारावाहिक 'हिंदुस्तानी' में मैंने बतौर प्रथम सहायक निर्देशक काम किया। इसी साल फ़रवरी और अगस्त के दरमीयाँ मैं 'मुक्ता आर्ट्स' में बतौर सहायक निर्देशक काम किया, उनकी फ़िल्म 'ताल' में। </span><br /><br />सुजॉय - 'मुक्ता आर्ट्स' यानी कि सुभाष घई की बैनर? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - जी हाँ। 'ताल' में मैं 'शॉट कण्टिन्युइटी' के लिये ज़िम्मेदार था, और एडिटिंग् के वक़्त डिरेक्टर के साथ तथा 'प्रीमिक्स' व 'फ़ाइनल मिक्स' में ऐसोसिएट डिरेक्टर के साथ था। फिर 'मुक्ता आर्ट्स' की ही अगली फ़िल्म 'यादें' में कास्टिंग् और शेड्युलिंग् से जुड़ा था, और तमाम तकनीकी पक्ष संभाला था। </span><br /><br />सुजॉय - यह तो थी फ़िल्म-निर्माण के तकनीकी पक्षों में आपका अनुभव। आपने यह भी बताया कि आप लिखते भी हैं। तो इस ओर आपने अब तक क्या काम किया है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - साल २००३ में मैंने निर्माता वाशु भगनानी के लिये अंग्रेज़ी में एक ऑरिजिनल फ़िल्म-स्क्रिप्ट लिखी, जिसका शीर्षक था 'दि इमिग्रैण्ट'। इसी के हिंदी ऐडप्टेशन पर बनी हिंदी फ़िल्म 'आउट ऑफ़ कण्ट्रोल'। मेरी खुद की लिखी और मेरे ही द्वारा बनाई और निर्देशित जो लघु फ़िल्में हैं, उनके नाम हैं - 'कीमत - दि वैल्यु', 'एनफ़ - वी आर नेवर टू पूओर टू शेयर', 'आइ विल बी देयर फ़ॉर यू - कीपिंग् लव अलाइव' और 'सीकिंग् - इन सर्च ऑफ़ ब्यूटी'। २००३ में ही मैं एक हिंदी लघु फ़िल्म में निर्देशक अभय रवि चोपड़ा के साथ मिलकर उसकी स्क्रिप्ट लिखी, जिसका शीर्षक था 'इण्डिया, १९६४'। अभय की यह फ़िल्म 'दि न्यु यॉर्क स्कूल ऑफ़ विज़ुअल आर्ट्स' में उनके ग्रैजुएशन यीअर की फ़िल्म थी। इस फ़िल्म को 'स्टुडेण्ट्स ऑस्कर' के लिये नामांकन मिला था। फ़िल्म में अभिनय है रणबीर ऋषी कपूर और शरद सक्सेना का। <br /></span><br />सुजॉय - वाह! अच्छा सुभाष घई के साथ और किन किन फ़िल्मों में आपनें काम किया था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - स्क्रिप्ट-रीडिंग् और स्क्रिप्ट-एडिटिंग् में मैंने उन्हें ऐसिस्ट किया 'एक और एक ग्यारह', 'जॉगर्स पार्क', 'ऐतराज़', 'इक़बाल' और '३६ चायना टाउन' में। 'किस्ना' में मैं स्क्रिप्ट-ऐसिस्टैण्ट था जिसमें मैंने सचिन भौमिक, फ़ारुख़ धोंडी और सुभाष घई के साथ स्क्रिप्ट-कूओर्डिनेशन का काम किया। </span><br /><br />सुजॉय - बहुत ख़ूब! आपने ज़िक्र किया था कि आप अपनी पहली हिंदी फ़ीचर फ़िल्म की राह पर बढ़ रहे हैं। इसके बारे में कुछ बताइये। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - फ़िल्म का नाम है 'फ़ितरत', जिसका मैं राइटर-डिरेक्टर हूँ। कास्ट की तलाश कर रहा हूँ। इसके अलावा एक ऐडवेंचर थ्रिलर 'एवरेस्ट' भी प्लान कर रहा हूँ। मैंने एक ऐनिमेशन फ़िल्म 'लिबर्टी टेकेन' को लिखा व निर्देशित भी किया है। </span><br /><br />सुजॉय - बहुत सही है! और हमारी आपके लिये यह शुभकामना है कि आप एक बहुत बड़े फ़िल्म-मेकर बनें और अपने पिता से भी ज़्यादा आपका नाम हो, और आप उनके नाम के मशाल को और आगे लेकर जा सकें। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - बहुत शुक्रिया!</span> <br /><br />सुजॉय - अच्छा राकेश जी, अब वापस आते हैं बक्शी साहब पर। आज जो गीत हम सुनेंगे, वह उन्हीं का गाया हुआ गीत है फ़िल्म 'मोम की गुड़िया' का। आप समझ गये होंगे, लता जी के साथ गाया हुआ डुएट "बाग़ों में बहार आयी"। आइए सुनते हैं। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - बाग़ों में बहार आयी (मोम की गुड़िया) </span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_42/OIG_SS_42.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - राकेश जी, आज हम अपनी बातचीत को यहीं अर्धविराम देना चाहेंगे। अगले हफ़्ते हम आप से चर्चा करेंगे बक्शी साहब के लिखे कुछ चुनिंदा गीतों की। आज के लिये हम आप से और अपने श्रोता-पाठकों से अनुमति लेना चाहेंगे। अपने पाठकों से आग्रह करेंगे कि यह आख़िरी मौका है, अगर आप आनंद बक्शी साहब के बारे में कुछ जानना चाहते हैं जो इस बातचीत में नहीं बतायी गयी है, तो आप जल्द से जल्द अपना सवाल oig@hindyugm.com पर लिख भेजिये। हम आपके सवालों को पहुँचायेंगे राकेश बक्शी जी तक, और अगले अंक में आपको मिल जायेंगे अपने सवालों के जवाब। इसी के साथ आज अब अनुमति दीजिये, नमस्कार! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">चित्र में - बक्शी साहब अपने फ़ौज के दिनों में</span>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-38351610779174704022011-05-14T17:00:00.003+05:302011-05-14T17:00:00.404+05:30ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - (41) बेटे राकेश बख्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बख्शी - भाग २इस बातचीत का पहला भाग <a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/05/blog-post_07.html">यहाँ</a> पढ़ें <br /><br /><span style="font-weight:bold;">((भाग-2)) </span> <br /><br />नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले हफ़्ते से हमनें इस विशेषांक में शुरु की है एक लघु शृंखला 'बेटे राकेश बख्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बख्शी'। पिछले हफ़्ते अगर आपनें इसका पहला भाग नहीं पढ़ा था तो <a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/05/blog-post_07.html">यहाँ</a> क्लिक कर उसे अवश्य पढ़ें। आइए आज प्रस्तुत है बक्शी साहब के बेटे राकेश बख्शी से हमारी बातचीत का दूसरा भाग। <br /><br />सुजॉय - राकेश जी, नमस्कार और एक बार फिर स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - नमस्कार!</span> <br /><br />सुजॉय - पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी 'माँ' पर। आपनें बताया कि किस तरह से बक्शी साहब नें आप सब को माँ की अहमियत बतायी। आज बातचीत का सिलसिला वहीं से आगे बढ़ाते हैं। आज हम आपकी माँ से चर्चा शुरु करना चाहेंगे, क्योंकि हमारा ख़याल है कि उनके सहयोग के बिना आनन्द बक्शी साहब शायद यह मुकाम हासिल न कर पाते। किसी की सफलता के पीछे उसके जीवन-संगिनी का बड़ा हाथ होता है। तो बताइए न बक्शी साहब की जीवन-संगिनी, यानी आपकी माताजी के बारे में। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - शादी के बाद पिताजी की आमदनी इतनी नहीं थी कि बम्बई में घर किराये पर लेते। इसलिए शादी के बाद भी कुछ सालों तक मेरी माँ उनके माता-पिता के घर में ही रहती थीं, लखनऊ में। वो महिलाओं के कपड़े सीती थीं ताकि अपने पिता, जो एक रिटायर्ड आर्मी मैन थे, को कुछ आर्थिक मदद कर सके। एक दिन जब मैं मेरी माताजी के साथ गुस्से से पेश आया, तब पिताजी नें मुझे बताया कि बचपन में मेरी माँ अण्डे इसलिये नहीं खाती थीं ताकि हम बच्चों को अण्डे खाने के मौके मिले। उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि अच्छा नाश्ता कर पाते। इसलिए मेरी माताजी नें काफ़ी त्याग और समर्पण किये अपने चार बच्चों को बड़ा करने के लिये। और पिताजी नें उस दिन हम बच्चों को आगाह किया और चेतावनी भी दी कि हम कभी भी अपनी माँ के साथ बदतमीज़ी से पेश न आये।</span> <br /><br />सुजॉय - सही बात है! अच्छा राकेश जी, ये तो थी उन दिनों की बातें जब आपकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। जब बक्शी साहब को दौलत और शोहरत हासिल हुई, उस वक़्त आपकी माताजी के व्यवहार में किसी तरह का परिवर्तन आया? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - पिताजी के स्थापित होने के बाद और अमीर बनने के बाद भी माँ अपनी पुरानी साड़ियों और पुराने कपड़ों को पहनना नहीं छोड़ीं, क्योंकि वो जानती थी कि पिताजी जो कमाते थे, उसकी कीमत क्या थी। उसका मूल्य उन्हें मालूम था, और कितनी मेहनत से यह धन आता था, वह भी वो ख़ूब समझती थी। इसलिए कभी अपव्यय नहीं की। उन्होंने अपने जीवन में कभी भी पिताजी से किसी चीज़ की फ़रमाइश नहीं की। बल्कि पिताजी को ज़बरदस्ती से उन्हें कुछ अपने लिये दिलाना पड़ता था। बस एक बार मेरी माँ नें कुछ खरीदना चाहा था। यह बात थी उस वक़्त की जब पिताजी गुज़र गये थे और उन्हें हमारे रिश्तेदारों की Toyota Innova में बैठना पड़ा था, उस वक़्त उन्होंने कहा था कि हमें भी ऐसी एक गाड़ी खरीदनी चाहिये ताकि वो उसमें बैठकर हमारे पंचगनी के घर में जा सके। </span> <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg50PUajGNp77xlYAqXVzCnS8ght1HA5X4yKkd3gnmtujJH_enJ8E1S10T-IyR3Si2pww-y2V-o4lXGrvA6GjuO7JIWvrXphoxLthyyL9LaKUxkW2n6PeJZ3whUbTTKDS5Xi9VLB_GHo3R6/s1600/anand_bakshi.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 147px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg50PUajGNp77xlYAqXVzCnS8ght1HA5X4yKkd3gnmtujJH_enJ8E1S10T-IyR3Si2pww-y2V-o4lXGrvA6GjuO7JIWvrXphoxLthyyL9LaKUxkW2n6PeJZ3whUbTTKDS5Xi9VLB_GHo3R6/s200/anand_bakshi.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5606449821316274018" /></a><br />सुजॉय - बक्शी साहब जब गीत लेखन के कार्य में बाहर जाते थे, या कभी दूसरे शहर में, या फिर कहीं हिल-स्टेशन में, तो क्या आपकी माताजी भी साथ जाया करतीं? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - ज़्यादातर समय पिताजी अपने बेड-रूम में बैठ कर ही गीत लिखते थे, और कभी लिविंग्-रूम में बैठ कर। उनके 99% गीत उन्होंने घर में बैठ कर ही लिखे हैं, न कि किसी पर्वत, वादी या नदी या झील के किनारे बैठ के, जैसा कि कुछ फ़िल्मों में दिखाया जाता है। इस वजह से माँ नें अपना सोशल-लाइफ़ भी बहुत सीमित कर लिया था ताकि घर में रह कर पिताजी की ज़रूरतों की तरफ़ ध्यान दे सके, ताकि गीत-लेखन कार्य में उन्हें कोई कठिनाई न हो। </span><br /><br />सुजॉय - यही बात मैं कह रहा था कि जीवन-संगिनी का उसकी सफलता के पीछे बहुत बड़ा हाथ होता है। अच्छा इसका मतलब यह हुआ कि आपके माताजी की सखी-सहेलियों का दायरा बहुत ही छोटा होगा? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - उनकी बस एक सहेली थी और दो तीन रिश्तेदार थे जिनके वो करीब थीं। वो इनके घर महीने दो महीने में एक बार जाती थीं। पिताजी के गुज़र जाने के बाद उन्होंने एक महाशून्य महसूस किया अपनी ज़िंदगी में। <br /></span><br />सुजॉय - और मेरे ख़याल से यह एक ऐसा शून्य है जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता, अपने बच्चे भी नहीं। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - बिलकुल सही! और पिताजी फ़िल्म जगत से जुड़े लोगों से ज़रा दूर दूर ही रहा करते थे, इसलिए कम्पोज़र, प्रोड्युसर और डिरेक्टर्स के परिवार वालों से हमारा ज़्यादा मेल-मिलाप नहीं हुआ। और इसलिए माँ भी फ़िल्मी पार्टियों में और अवार्ड फ़ंक्शन में नहीं जाती थीं। पिताजी की मृत्यु के बाद जब प्रेस वाले अपने न्युज़ कैमेरों से हमारे घर के अंदर शूट करना चाह रहे थे और पिताजी की पार्थिव शरीर को हमारे लिविंग्-रूम में रखा गया था, हमनें उनसे पूछा कि क्या हमें प्रेस को अंदर कैमरों से शूट करने की अनुमति देनी चाहिये, तब उन्होंने कहा कि पिताजी अपनी पूरी ज़िंदगी प्रेस और पब्लिसिटी से दूर ही रहे ताकि उनका ध्यान लेखन से न हट जाये, और अब जब वो घर आना चाह रहे हैं, यह तुम्हारे पिताजी की उपलब्धि है, और यह उनका हक़ भी है, इसलिए उन्हें आने दो।</span> <br /><br />सुजॉय - राकेश जी, आपकी स्मृतियों में आनन्द बक्शी साहब राज करते होंगे। उनमें से कुछ के बारे में बताइए न! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - एक नहीं हज़ार हैं स्मृतियाँ, कौन कौन सा बताऊँ। हाँ, एक जो मैं बताना चाहूँगा, वह यह कि जब वो कभी रात को देर से घर लौटते थे और हमें सोया पाते थे, तो वो हमारे बगल में बैठ जाते और हमारे सर पे अपना हाथ फेरते। कभी कभी मैं जगा ही रहता था जब वो हाथ फेरते, लेकिन मैं सोने का नाटक करता था ताकि उनके हाथ फेरने का आनन्द लेता रहूँ। </span><br /><br />सुजॉय - वाह! वाक़ई अपने माता-पिता के छुवन से मुलायम दुनिया की और कोई चीज़ नहीं हो सकती। अच्छा राकेश जी, आप सब मिल कर, पूरा परिवार, कभी छुट्टी मनाने जाते थे? जैसे मान लीजिये कि किसी पर्वतीय स्थल पर गये हों, और वहाँ पर बक्शी जी को यकायक किसी गीत की प्रेरणा मिल गयी हो? इस तरह का वाकया कभी हुआ है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - हम हर साथ महाबलेश्वर और पंचगनी जाते थे। हम अपनी गाड़ी लेकर जाते थे। उन सर्पीले रास्तों पर चढ़ाई करते हुए उनका जो फ़ेवरीट गाना था, वह था "Walk Don't Run, 64", यह 'The Ventures' का गाना है। वो अक्सर अपने फ़ेवरीट सिगरेट 555 के पैकिट के उपर झट से कोई भाव लिख लिया करते थे। ऐसा इसलिए कि भले ही वो अपना नोट-बूक भूल जायें साथ लेना, लेकिन 555 का पैकिट कभी नहीं भूलते थे। लगभग ५ से १० गीत ऐसे होंगे जो उन्होंने हिल-स्टेशन में लिखे होंगे। जैसा कि मैंने बताया था कि वो अधिकतर गीत बेडरूम और लिविंग्-रूम में बैठ कर ही लिखे हैं, और कभी कभी म्युज़िक डिरेक्टर्स के सिटिंग् रूम में। और यह बात भी है कि छुट्टी में जाकर वो कभी नहीं लिखते थे। वो लिखते वक़्त कभी शराब नहीं पीते थे क्योंकि वो इसे माँ सरस्वती का अपमान मानते थे।</span> <br /><br />सुजॉय - वो घर पर शराब पीते थे? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - अगर कभी पीते भी थे तो रात के ९ बजे के बाद पीते थे, लेकिन डिनर के बाद कभी नहीं। यहाँ पर ऐसी मान्यता है कि शायर को लिखने के लिये पीना ज़रूरी होता है। लेकिन देखिये, पिताजी नें लिखते वक़्त शराब का कभी सहारा नहीं लिया। वो सिगरेट ज़रूर पीते थे या पान चबाते थे लिखते वक़्त। लिखते वक़्त वो व्हिसल भी बजाते थे। और मेरा ख़याल है कि कभी कभी वो ख़ुद धुन भी बनाने की कोशिश करते होंगे या व्हिसलिंग् के माध्यम से मीटर पर लिखने की कोशिश करते होंगे। म्युज़िक डिरेक्टर्स भी कई बार उन्हें धुन बता देते थे, इसलिए भी वो उस धुन को व्हिसल कर उसपे बोल बिठाते। लेकिन बहुत बार उन्हें संगीतकार नें धुन नहीं भी दी। तब वो ख़ुद ही अपने बोलों को ख़ुद धुन पर बिठाते होंगे व्हिसलिंग् के ज़रिये। </span><br /><br />सुजॉय - ऐसा कोई गीत आपको पता है जिसकी धुन बक्शी साहब नें ख़ुद बनायी या सुझायी होगी? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - कुछ संगीतकारों नें ख़ुद मुझे यह बात बतायी है कि किस तरह से पिताजी उनका काम आसान बना देते थे। लेकिन मैं न उन संगीतकारों के नाम लूँगा और न ही उन गीतों के बारे में कुछ कहना चाहूँगा जिनकी धुनें पिताजी नें बनाये थे। यह हक़ केवल पिताजी को था और उन्होंने कभी यह बात किसी को नहीं बतायी। इसलिए बेहतर यही होगा कि यह राज़ दुनिया के लिये राज़ ही बना रहे। </span><br /><br />सुजॉय - हम भी सम्मान करते हैं आपके इस फ़ैसले का। और बहुत सही किया है आपनें। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - पिताजी उन्हें गीतों के साथ साथ धुनें भी दे दिया करते, लेकिन कभी भी निर्माता से धुनों के लिये क्रेडिट या पब्लिसिटी की माँग नहीं की। और यही कारण है कि वो लोग उन्हें दूसरे गीतकारों की तुलना में इतना ज़्यादा सम्मान क्यों करते थे! मुझे उन संगीतकारों से ही पता चला कि पिताजी कभी कभी एक ही गीत के लिये १० से २० अंतरे लिख डालते थे, जब कि उनसे माँग दो या तीन की ही होती थी। यह उनकी प्रतिभा की मिसाल है। निर्माता और निर्देशक द्वंद में पड़ जाते थे कि उन १०-२० अंतरों में से किन तीन अंतरों को चुनना है क्योंकि सभी के सभी अंतरे एक से बढ़कर एक होते थे और उनमें से श्रेष्ठ तीन चुनना आसान काम नहीं होता था। यहाँ तक कि कई बार तो रेकॉर्डिंग् के दिन तक यह फ़ैसला नहीं हो पाता था कि कौन कौन से अंतरे फ़ाइनल हुए हैं। उन्हें ऐसा लगता कि जिन अंतरों को वो नहीं ले रहे हैं, उनके साथ अन्याय हो रहा है। आज भी जब वो पुराने लोग मुझे मिलते हैं तो इस बात का ज़िक्र करते हैं।</span> <br /><br />सुजॉय - अच्छा क्या ऐसा कभी हुआ कि आप नें जाने अंजाने उन्हें कोई गीत लिखने का सुझाव दिया हो या आपनें कोई मुखड़ा या अंतरा सुझाया हो? या उन्होंने कभी आप बच्चों से पूछा हो कि भई बताओ, इस गीत को किस तरह से लिखूँ? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - नहीं, कभी भी नहीं! लेकिन मुझे मालूम है कि एक गीत है १९८७ की फ़िल्म 'हिफ़ाज़त' का, "बटाटा वडा, बटाटा वडा, प्यार नहीं करना था, करना पड़ा"। </span><br /><br />सुजॉय - हा हा हा <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - यह गीत उन्होंने इसलिये लिखा था क्योंकि उनकी पोती को बटाटा वडा बहुत ज़्यादा पसंद थी।</span> <br /><br />सुजॉय - वाह! तो आइए, आज के इस अंक का समापन भी हम बटाटा वडा के साथ ही करें। एस. पी. बालसुब्रह्मण्यम और एस. जानकी की आवाज़ों में दक्षिणी अंदाज़ में बनाया हुआ यह गीत है। गीत की उत्कृष्टता पर न जाते हुए ज़रा हल्के फुल्के अंदाज़ में इस गीत का मज़ा लीजिए दोस्तों। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - बटाटा वडा (हिफ़ाज़त, १९८७)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_41/OIG_SS_41.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो ये था 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बक्शी' शृंखला की दूसरी कड़ी 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' के अन्तर्गत। अगले हफ़्ते इस शृंखला की तीसरी कड़ी के साथ हम फिर हाज़िर होंगे। और कल सुबह 'सुर-संगम' तथा शाम को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में ज़रूर पधारियेगा, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-48047041739131933012011-05-07T16:30:00.000+05:302011-05-07T16:30:01.703+05:30ओल्ड इस् गोल्ड - शनिवार विशेष- 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' ((भाग-१))<span style="font-weight:bold;">नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' आज अपना चालीसवाँ सप्ताह पूरा कर रहा है। दोस्तों, "आनंद बक्शी" एक ऐसा नाम है जो किसी तारीफ़ का मोहताज नहीं। यह वह नाम है जिसे हम बचपन से ही सुनते चले आ रहे हैं। रेडियो पर फ़िल्मी गीत सुनने में शौक़ीनों के लिये तो यह नाम जैसे एक दैनन्दिन नाम है। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जिस दिन बक्शी साहब का नाम रेडियो पर घोषित न होता होगा। जिस आनंद बक्शी का नाम छुटपन से हर रोज़ सुनता चला आया हूँ, आज उसी बक्शी साहब के बेटे से एक लम्बी बातचीत करने का मौका पाकर जैसे मैं स्वप्नलोक में पहुँच गया हूँ। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि यह दिन भी कभी आयेगा। दोस्तों, आज से हम एक शृंखला ही कह लीजिये, शुरु कर रहे हैं, जिसमें गीतकार आनंद बक्शी साहब के बारे में बतायेंगे उन्ही के सुपुत्र राकेश बक्शी। चार भागों में सम्पादित इस शृंखला का शीर्षक है 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी'। आज प्रस्तुत है इस शृंखला का पहला भाग।</span> <br /><br />सुजॉय - राकेश जी, 'हिंग-युग्म' की तरफ़ से, हमारे तमाम पाठकों की तरफ़ से, और मैं अपनी तरफ़ से आपका 'हिंद-युग्म' के इस मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ, नमस्कार! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - नमस्कार!</span> <br /><br />सुजॉय - राकेश जी, सच पूछिये तो हम अभिभूत हैं आपको हमारे बीच में पाकर। फ़िल्म संगीत के सफलतम गीतकारों में से एक थे आनंद बक्शी जी, और आज उनके बेटे से बातचीत करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है, जिसके लिये आपको हम जितना भी धन्यवाद दें, कम होगी। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - बहुत बहुत धन्यवाद!</span> <br /><br />सुजॉय - राकेश जी, वैसे तो बक्शी साहब के बारे में, उनकी फ़िल्मोग्राफ़ी के बारे में, उनके करीयर के बारे में हम कई जगहों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए इस बातचीत में हम उस तरफ़ न जाकर उनकी ज़िंदगी के कुछ ऐसे पहलुयों के बारे में आपसे जानना चाहेंगे जो शायद पाठकों को मालूम न होगी। और इसीलिए बातचीत के इस सिलसिले का नाम हमने रखा है 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी'। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - ज़रूर!</span> <br /><br />सुजॉय - तो शुरु करते हैं, मेरा पहला सवाल आपके लिए बहुत ही आसान सा सवाल है, और वह है कि कैसा लगता है 'राकेश आनंद बक्शी' होना? मान लीजिए आप कहीं जा रहे हैं, और अचानक कहीं से बक्शी साहब का लिखा गीत बज उठता है, किसी पान की दुकान पे रेडियो पर, कैसा महसूस होता है आपको? <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguDW1swvLNi7uq19V3oMYs3EFApjC5IprG4tbGsk7nCeDj10-gTryHH16zgJvp9CuCWzpb6DUhx8qWMje51TOK6jpYFX6xFDFVeL0hXeQVIh1__Ha4Ndf9XqiQsEHQ8umwE8ZeFPzTbiMt/s1600/anandbakshi-1b-1_1186980692.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 150px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguDW1swvLNi7uq19V3oMYs3EFApjC5IprG4tbGsk7nCeDj10-gTryHH16zgJvp9CuCWzpb6DUhx8qWMje51TOK6jpYFX6xFDFVeL0hXeQVIh1__Ha4Ndf9XqiQsEHQ8umwE8ZeFPzTbiMt/s200/anandbakshi-1b-1_1186980692.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5603474970281974738" /></a><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - उनके लिखे सभी गीत मुझे नॉस्टल्जिक बना देता है। उनके लिखे न जाने कितने गीतों के साथ कितनी हसीन यादें जुड़ी हुईं हैं, या फिर कोई पर्सनल ईक्वेशन। कहीं से उनका लिखा गीत मेरे कानों में पड़ जाये तो मैं उन्हें और भी ज़्यादा मिस करने लगता हूँ।</span> <br /><br />सुजॉय - अच्छा राकेश जी, किस उम्र में आपको पहली बार यह अहसास हुआ था कि आप 'आनंद बक्शी' के बेटे हैं? उस आनंद बक्शी के, जो कि फ़िल्म जगत के सबसे लोकप्रिय गीतकारों में से एक हैं? अपने बालपन में शायद आपको अंदाज़ा नहीं होगा कि बक्शी साहब की क्या जगह है लोगों के दिलों में, लेकिन जैसे जैसे आप बड़े होते गये, आपको अहसास हुआ होगा कि वो किस स्तर के गीतकार हैं और इंडस्ट्री में उनकी क्या जगह है। तो कौन सा था वह पड़ाव आपकी ज़िंदगी का जिसमें आपको इस बात का अहसास हुआ था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - यह अहसास एक पल में नहीं हुआ, बल्कि कई सालों में हुआ। इसकी शुरुआत उस समय हुई जब मैं स्कूल में पढ़ता था। मेरे कुछ टीचर मेरी तरफ़ ज़्यादा ध्यान दिया करते। या डॉक्टर के क्लिनिक में, या फिर बाल कटवाने के सलून में, कहीं पर भी मुझे लाइन में खड़ा नहीं होना पड़ता। बड़ा होने पर मैंने देखा कि पुलिस कमिशनर और इन्कम टैक्स ऑफ़िसर, जिनसे लोग परहेज़ ही किया करते हैं, ये मेरे पिताजी के लगभग चरणों में बैठे हैं, और उनसे अनुरोध कर रहे हैं उनके लिखे किसी नये गीत या किसी पुराने हिट गीत को सुनवाने की। </span> <br /><br />सुजॉय - वाक़ई मज़ेदार बात है! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - जब मैं पहली बार विदेश गया और वहाँ पर जब NRI लोगों को यह बताया गया कि मैं बक्शी जी का बेटा हूँ, तो वो लोग जैसे पागल हो गये, और मुझे उस दिन इस बात का अहसास हुआ कि कभी विदेश न जाने के बावजूद मेरे पिताजी नें कितना लम्बा सफ़र तय कर लिया है। और यह सफ़र है असंख्य लोगों के दिलों तक का। मैं आपको यह बता दूँ कि उनका पासपोर्ट बना ज़रूर था, लेकिन वो कभी भी विदेश नहीं गये क्योंकि उन्हें हवाईजहाज़ में उड़ने का आतंक था, जिसे आप फ़्लाइंग-फ़ोबिआ कह सकते हैं। लेकिन यहाँ पर यह भी कहना ज़रूरी है कि सेना में रहते समय वो पैराट्रूपिंग् किया करते थे अपनी तंख्वा में बोनस पाने के लिये। </span><br /><br />सुजॉय - इस तरह के और भी अगर संस्मरण है तो बताइए ना! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - जब हम अपने रिश्तेदारों के घर दूसरे शहरों में जाते, तो वहाँ हमारे ठहरने का सब से अच्छा इंतज़ाम किया करते, या सब से जो अच्छा कमरा होता था घर में, वह हमें देते। एक वाक़या बताता हूँ, एक बार मैंने कुछ सामान इम्पोर्ट करवाया और उसके लिये एक इम्पोर्ट लाइसेन्स का इस्तमाल किया जिसमें कोई तकनीकी गड़बड़ी (technical flaw) थी। कम ही सही, लेकिन यह एक ग़ैर-कानूनी काम था जो सज़ा के काबिल था। और उस ऑफ़िसर नें मुझसे भारी जुर्माना वसूल करने की धमकी दी। लेकिन जाँच-पड़ताल के वक़्त जब उनको पता चला कि मैं किनका बेटा हूँ, तो वो बोले कि पिताजी के गीतों के वो ज़बरदस्त फ़ैन हैं। उन्होंने फिर मुझे पहली बार बैठने को कहा, मुझे चाय-पानी के लिये पूछा, जुर्माने का रकम भी कम कर दिया, और मुझे सलाह दी कि भविष्य में मैं इन बातों का ख़याल रखूँ और सही कस्टम एजेण्ट्स को ही सम्पर्क करूँ ताकि इस तरह के धोखा धड़ी से बच सकूँ। उन्होंने यह भी कहा कि अगर मैं पुलिस या कस्टम्स में पकड़ा जाऊँगा तो इससे मेरे पिताजी का ही नाम खराब होगा। उस दिन से मैंने अपना इम्पोर्ट बिज़नेस बंद कर दिया। इन सब सालों में और आज भी मैं बहुत से लोगों का विश्वास और प्यार अर्जित करता हूँ, जिनसे मैं कभी नहीं मिला, जो मेरे लिये बिल्कुल अजनबी हैं। यही है बक्शी जी का परिचय, उनकी क्षमता, उनका पावर। और मैंने भी हमेशा इस बात का ख़याल रखा कि मैं कभी कोई ऐसा काम न करूँ जिससे कि उनके नाम को कोई आँच आये, क्योंकि मेरे जीवन में उनका नाम मेरे नाम से बढ़कर है, और मुझे उनके नाम को इसी तरह से बरकरार रखना है। </span><br /><br />सुजॉय - वाह! क्या बात है! अच्छा, आपने ज़िक्र किया कि स्कूल में आपको स्पेशल अटेंशन मिलता था बक्शी साहब का बेटा होने के नाते। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - जी</span> <br /><br />सुजॉय - तो क्या आपको ख़ुशी होती थी, गर्व होता था, या फिर थोड़ा एम्बरेसिंग् होता था, यानी शर्म आती थी? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - मैं आज भी बहुत ही शाई फ़ील करता हूँ जब भी इस तरह का अटेंशन मुझे मिलता है, हालाँकि मुझे उन पर बहुत बहुत गर्व है। अगर मैं ऐसे किसी व्यक्ति से मिलता हूँ जो स्टेटस में मुझसे नीचे है, तो मैं अपना सेलफ़ोन या घड़ी छुपा लेता हूँ या उन्हें नहीं जानने देता कि मैं किस गाड़ी में सफ़र करता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि मैं उनके साथ घुलमिल जाऊँ और उनसे सहजता से पेश आ आऊँ और वो भी मेरे साथ सहजता अनुभव करें। </span><br /><br />सुजॉय - बहुत ही अच्छी बात है यह, और कहावत भी है कि फलदार पेड़ हमेशा झुके हुए होते हैं। आनंद बक्शी साहब भी इतने बड़े गीतकार होते हुए भी बहुत सादे सरल थे, और शायद यही बात आप में भी है। अच्छा, यह बताइए कि एक पिता के रूप में बक्शी साहब कैसे थे? किस तरह का रिश्ता था आप दोनों में? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - वो एक सख़्त पिता थे। सेना में एक सिपाही और रॉयल इण्डियन नेवी के कडेट होने की वजह से उन्होंने हमें भी अनुशासन, पंक्चुअलिटी और अपने पैरों पर खड़े होने की शिक्षा दी। वो मुझे लेकर पैदल स्कूल तक ले जाते थे जब कि घर में गाड़ियाँ और ड्राइवर्स मौजूद थे। कॉलेज में पढ़ते वक़्त भी मैं बस और ट्रेन में सफ़र किया करता था। जब मैं काम करने लगा, तब भी मैं घर की गाड़ी और ड्राइवर को केवल रात की पार्टी में जाने के लिये ही इस्तमाल किया करता। पिताजी कभी भी सिनेमा घरों के मैनेजरों या मालिकों को फ़िल्म की टिकट भिजवाने के लिये नहीं कहते थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि वो पैसे नहीं लेंगे। इसलिये हम भी सिनेमाघरों के बाहर लाइन में खड़े होकर टिकट खरीदते। सिर्फ़ प्रीमियर या ट्रायल शो के लिये हमें टिकट नहीं लेना पड़ता और वो परिवार के सभी लोगों को साथ में लेकर जाते थे। </span> <br /><br />सुजॉय - वाह! बहुत मज़ा आता होगा उन दिनों! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - जी हाँ! रात को जब वो घर वापस आते और हमें सोये हुए पाते, तो हमारे सर पर हाथ फिराते। वो चाहते थे कि हम इंजिनीयर या डॉक्टर बनें। वो नहीं चाहते थे कि हम फ़िल्म-लाइन में आये।</span> <br /><br />सुजॉय - राकेश जी, आप किस लाइन में गये, उसके बार में भी हम आगे चलकर बातचीत करेंगे, लेकिन इस वक़्त हम और जानना चाहेंगे कि बक्शी साहब किस तरह के पिता थे? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">राकेश जी - दिन के वक़्त, जब उनके लिखने का समय होता था, तब वो बहुत ही कम शब्दों के पिता बन जाते थे, लेकिन रात को खाना खाने से पहले वो हमें अपने बचपन और जीवन के अनुभवों की कहानियाँ सुनाया करते। उन्हें किताब पढ़ने का शौक था और ख़ुद पढ़ने के बाद अगर उन्हें अच्छा लगता तो हमें भी पढ़ने के लिये देते थे; ख़ास कर मासिक 'रीडर्स डाइजेस्ट'। हम देर रात तक घर से बाहर रहे, यह उन्हें पसंद नहीं था। जब हम स्कूल में थे, तब रात को खाने के वक़्त से पहले हमारा घर के अंदर होना ज़रूरी था। खेलकूद के लिये वो हमें प्रोत्साहित किया करते थे। हम पढ़ाई या करीयर के लिये कौन सा विषय चुनेंगे, इस पर उनकी कोई पाबंदी नहीं थी, उनका बस यह विचार था कि हम पढ़ाई को जारी रखें और पोस्ट-ग्रैजुएशन करें। उनको उच्च शिक्षा का मोल पता था और वो कहते थे कि यह उनका दुर्भाग्य है कि वो सातवीं कक्षा के बाद पढ़ाई जारी नहीं रख सके, देश के बँटवारे की वजह से। उनका इस बात पर हमेशा ध्यान रहता था कि हम अपनी माँ की सब से ज़्यादा इज़्ज़त करें क्योंकि उन्होंने अपनी माँ को बहुत ही कम उम्र में खो दी थी। जिन्हें माँ का प्यार मिलता है, वो बड़े ख़ुशनसीब होते हैं, ऐसा उनका मानना था। </span><br /><br />सुजॉय - बहुत ही सच बात है! तो राकेश जी, बातों का सिलसिला जारी रहेगा, लेकिन अगले हफ़्ते। आइए आज क्योंकि बातचीत माँ पर आकर रुकी है, तो चलने से पहले बक्शी साहब का लिखा और लता जी का गाया फ़िल्म 'राजा और रंक' का गीत ही सुन लेते हैं, "तू कितनी अच्छी है"। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - तू कितनी अच्छी है (राजा और रंक)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_40/OIG_SS_40.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object> <br /><br />तो दोस्तों, यह था फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार आनंद बक्शी के सुपुत्र राकेश बक्शी से बातचीत पर आधारित शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' की पहली कड़ी। अगर आपके मन में भी बक्शी साहब के जीवन से संबंधित कोई सवाल है जिसका जवाब आप उनके बेटे से प्राप्त करना चाहें, तो हमें अपना सवाल oig@hindyugm.com के पते पर शीघ्रातिशीघ्र लिख भेजिये। आपका सवाल इसी शृंखला में शामिल किए जायेंगे। तो आज के लिये मुझे अनुमति दीजिये, फिर मुलाक़ात होगी, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-59789867451182631152011-04-23T17:00:00.004+05:302011-04-23T17:00:00.091+05:30ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - एक मुलाक़ात शब्बीर कुमार से<span style="font-weight:bold;">ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 38</span><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAD1VcvwevZ7cYGUd10F9L6SWVSYawTqP-D9lZJe1FwrRsE1im5qIi4C1fVm4C_38tdPSF4419VNP7DzN8suyzPnWmN73h1wPWkqmErChLDAxgSRrhCpIVQElv0mt1FLlrZsORBA_8mS3D/s1600/Shabbir_Kumar_1238274578_music.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 179px; height: 180px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAD1VcvwevZ7cYGUd10F9L6SWVSYawTqP-D9lZJe1FwrRsE1im5qIi4C1fVm4C_38tdPSF4419VNP7DzN8suyzPnWmN73h1wPWkqmErChLDAxgSRrhCpIVQElv0mt1FLlrZsORBA_8mS3D/s200/Shabbir_Kumar_1238274578_music.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5598669855163717794" /></a><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! आज शनिवार की इस विशेष प्रस्तुति के लिए हम लेकर आये हैं फ़िल्म जगत के जाने-माने पार्श्वगायक शब्बीर कुमार से एक छोटी सी मुलाक़ात। छोटी इसलिए क्योंकि शब्बीर साहब का हाल ही में विविध भारती ने भी एक साक्षात्कार लिया था, जिसमें बहुत ही विस्तार से शब्बीर साहब नें अपने जीवन के बारे में और अपने संगीत करीयर के बारे में बताया था। बचपन की बातें, किस तरह से संगीत में उनकी दिलचस्पी हुई, रफ़ी साहब के वे कैसे फ़ैन बने, रफ़ी साहब से उनकी पहली मुलाक़ात कब और किस तरह से हुई, रफ़ी साहब के अंतिम सफ़र में वो किस तरीके से शरीक हुए, वो ख़ुद एक पार्श्वगायक कैसे बने, ये सब कुछ विविध भारती के उस साक्षात्कार में आ चुका है। आप में से जो श्रोता-पाठक उस कार्यक्रम को सुनने से चूक गये थे, उनके लिए इस साक्षात्कार का लिखित रूप हमनें 'विविध भारती लिस्नर्स क्लब' में पोस्ट किया था। ये रहे उसके लिंक्स: <br /><br />'आज के महमान - शब्बीर कुमार -<a href="http://in.groups.yahoo.com/group/vividhbharati/message/2378"> भाग-१-१</a>'<br /><br />'आज के महमान - शब्बीर कुमार - <a href="http://in.groups.yahoo.com/group/vividhbharati/message/2399">भाग-१-२</a>'<br /><br />'आज के महमान - शब्बीर कुमार -<a href="http://in.groups.yahoo.com/group/vividhbharati/message/2412"> भाग-२-१</a>'<br /><br />'आज के महमान - शब्बीर कुमार - <a href="http://in.groups.yahoo.com/group/vividhbharati/message/2420">भाग-२-२</a>'<br /><br />दोस्तों, युं तो उपर्युक्त साक्षात्कार में शब्बीर कुमार से सभी अहम विषयों पर बातचीत हो चुकी थी, लेकिन पिछले दिनों जब शब्बीर साहब को मैंने अपने फ़ेसबूक में ऐड किया और उन्होंने उसकी मंज़ूरी दी, तो मेरे मन में दो चार सवाल जगे जो मैं उनसे जानना चाहता था, और मेरे ख़याल से जो सवाल विविध भारती के उस साक्षात्कार में शामिल नहीं हुए थे। मैंने शब्बीर साहब से मेरे सवाल भेजने की अनुमति माँगी जिसकी उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी। तो ये रहे मेरे सवाल और शब्बीर कुमार के जवाब। <br /><br />सुजॉय - शब्बीर जी, सबसे पहले आपका बहुत बहुत शुक्रिया जो आपने मुझे फ़ेसबूक में ऐड किया। मैंने विविध भारती पर आप्का इंटरव्यु सुना है और बहुत ही विस्तार से आपनें उसमें अपने बारे में बताया है। फिर भी मेरे मन में कुछ सवाल है जो मैं आपको पूछना चाहता हूँ अगर आपको कोई आपत्ति न हो तो? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - ज़रूर पूछिये!</span> <br /><br />सुजॉय - शुक्रिया! शब्बीर जी, आपनें हाल ही में फ़िल्म 'हाउसफ़ुल' में एक गीत गाया है सुनिधि चौहान के साथ। यह बताइए कि इतने साल आप कहाँ थे? मुझे जितना याद है मैंने पिछली बार आपकी आवाज़ कपूर परिवार की फ़िल्म 'आ अब लौट चलें' में सुना था और गीत था "ओ यारों माफ़ करना"। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - वैसे मैं कभी भी इस इंडस्ट्री से बाहर नहीं हुआ था। ईश्वर की कृपा से मैं नियमित रूप से गा भी रहा था। 'आ अब लौट चलें' के बाद भी मैंने कई फ़िल्मों में गीत गाया है जैसे कि 'आवारा पागल दीवाना', 'आन', 'दिल ढूंढता है' वगेरह। और मैं प्रादेशिक फ़िल्मों में भी लगातार गाता रहा हूँ। लेकिन ये सभी गानें लोगों की नज़र में ज़्यादा नहीं आ सके।</span> <br /><br />सुजॉय - अच्छा, 'हाउसफ़ुल' में गाने का ऒफ़र आपको कैसे मिला? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - 'हाउसफ़ुल' साजिद ख़ान की फ़िल्म थी और साजिद मेरा बहुत बड़ा फ़ैन है। मुझे उनका ही कॉल आया था 'हाउसफ़ुल' में गाने के लिए।</span> <br /><br />सुजॉय - शब्बीर जी, आपनें जब गाना शुरु किया था, उस समय से लेकर आज तक, पूरा का पूरा युग बीत गया है, फ़िल्म संगीत का भी चेहरा पूरी तरह बदल चुका है। इस परिवर्तन को आप किस रूप में देखते हैं? मेरा मतलब है कि लता जी, आशा जी, अनुराधा जी, इन सब के साथ लाइव रेकॉडिंग् करने के बाद आज ट्रैक पर गाना कैसा लगता है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - ८० के दशक तक मैंने ६०-पीस ऒर्केस्ट्रा के साथ और म्युज़िक ऐरेंजर्स के साथ रेकॉर्ड किया है। लेकिन अब तकनीक इतना आगे बढ़ चुका है कि एक एक शब्द को अलग से डब किया जा सकता है। कोई भी ग़लती को सुधारा जा सकता है। इससे गायक के लिए काम बहुत आसान हो गया है, जो अच्छी बात है। लेकिन मैं समझता हूँ कि आज के दौर में गीत की आत्मा चली गई है। उस ज़माने में गायक जो मेहनत या ईफ़ोर्ट लगाता था, वह अब ज़रा सी कहीं पे कम हो गई है। </span><br /><br />सुजॉय - क्या आपको याद है कि वह कौन सा गीत था जिसे आपने पहली बार ट्रैक पे गाया था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - जी नहीं, यह तो मुझे अब याद नहीं कि मेरा पहला ट्रैक पे गाया हुआ गीत कौन सा था, लेकिन मैं यह ज़रूर बताना चाहूँगा कि किसी रेकॉर्डिंग् स्टुडियो में रेकॉर्ड किया गया मेरा पहला गीत फ़िल्म 'तजुर्बा' में था।</span> <br /><br />सुजॉय - लता जी के साथ पहली बार गाने का अनुभव कैसा था? नर्वस थे आप? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - लता जी के साथ डुएट गाना मेरे सपने से परे था। लेकिन यह आशातीत स्वप्न सच साबित हुई फ़िल्म 'बेताब' में, जिसके लिए मैं पंचम दा को शत शत धन्यवाद देता हूँ। और मेरा पहला गीत लता जी के साथ "बादल युं गरजता है" रेकॉर्ड हुआ। और रही बात नर्वसनेस की, वह तो मैं यकीनन था ही।</span> <br /><br />सुजॉय - हा हा हा, कितने गीत गाये होंगे लता जी के साथ अब तक? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - अब तक मैंने लता दीदी के साथ ४८ गीत गा चुका हूँ, जो मैं समझता हूँ मेरे जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है।</span> <br /><br />सुजॉय - बहुत सही बात है! कौन नहीं चाहता लता जी के साथ गाना या काम करना! अच्छा शब्बीर जी, आपके गाये गीतों की बात करें तो वह एक कौन सा गीत है जो आपका सब से पसंदीदा गीत रहा है, जो सब से ज़्यादा आपके दिल के क़रीब है? या कि वह गीत अभी आना बाक़ी है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - मैंने अब तक ४५०० से ज़्यादा गीत गाया है, और इनमें से बहुत से गीत हैं जो मेरे दिल के बहुत ही करीब है। लेकिन एक गीत जो मेरे दिल के सब से ज़्यादा करीब है, वह है "ज़ीहाल-ए-मुस्क़ीन", फ़िल्म 'ग़ुलामी' का।</span> <br /><br />सुजॉय - वाह! यह गीत मुझे भी बेहद पसंद है और मुझे याद है बचपन में जब मैं इस गीत को सुनता था तो इसके बोल समझ में नहीं आते थे, लेकिन फिर भी गीत बहुत भाता था। शब्बीर जी, अब एक आख़िरी सवाल और यह सवाल है रफ़ी साहब से जुड़ा हुआ। रफ़ी साहब की मृत्यु के बाद कई गायक आये जिनकी आवाज़ में रफ़ी साहब जैसी आवाज़ की छाया थी। इनमें आप शामिल तो हैं ही, आपके अलावा मोहम्मद अज़ीज़, अनवर, देबाशीष दासगुप्ता, और यहाँ तक कि सोनू निगम भी रफ़ी साहब को अपना गुरु माना। मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि इनमें आपकी आवाज़ सब से ज़्यादा रफ़ी साहब की आवाज़ के क़रीब है। इस पर आपका क्या कहना है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - इस ख़ूबसूरत कॉम्प्लिमेण्ट के लिए मुझे आपका शुक्रिया अदा करना चाहिए :-) वैसे विविध भारती के उस इंटरव्यु में मैं यह बता चुका हूँ कि अगर लोग यह कहते हैं कि मेरी आवाज़ रफ़ी साहब से मिलती है तो यह उनकी हसीन ग़लतफ़हमी है और कुछ नहीं।</span> <br /><br />सुजॉय - बहुत बहुत शुक्रिया शब्बीर जी, आपनें अपनी व्यस्तता के बावजूद हमारे सवालों के जवाब देने के लिए वक़्त निकाला। चलते चलते आपका पसंदीदा गीत फ़िल्म 'ग़ुलामी' का, हम अपने श्रोता-पाठकों को सुनवा रहे हैं। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">शब्बीर जी - गॉड ब्लेस यू!</span> <br /><br />सुजॉय - सुनते हैं गुलज़ार के बोल, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत, लता मंगेशकर और शब्बीर कुमार की आवाज़ें। फ़िल्म 'ग़ुलामी' का यह गीत फ़िल्माया गया था अनीता राज और मिथुन चक्रवर्ती पर। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - ज़ीहाल-ए-मुस्क़ीन (ग़ुलामी)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/SatSpShabkumar01/SatSp01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />तो ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष'। आशा है आपको अच्छा लगा होगा। आप से अनुरोध है कि 'ईमेल के बहाने यादों के बहाने' के लिए हमें oig@hindyugm.com पर ईमेल लिखें, जिसमें आप अपने जीवन की कोई यादगार घटना या संस्मरण लिख सकते हैं। अगले हफ़्ते एक और ख़ास प्रस्तुति के साथ हाज़िर होंगे। लेकिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' नियमीत अंक लेकर हम कल शाम ६:३० बजे फिर उपस्थित होंगे, तब तक के लिए मुझे अनुमति दीजिये, और आप सुमित के साथ कल सुबह 'सुर-संगम' में ज़रूर तशरीफ़ लाइएगा, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-74179981910330986132011-04-09T17:00:00.001+05:302011-04-09T17:00:02.429+05:30ओल्ड इज़ गोल्ड -शनिवार विशेष - सुनहरे दौर के विस्मृत संगीतकार बसंत प्रकाश के पुत्र ॠतुराज सिसोदिआ से एक बातचीत'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार। फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग में जहाँ एक तरफ़ कुछ संगीतकार लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुँचे, वहीं दूसरी तरफ़ बहुत से संगीतकार ऐसे भी हुए जो बावजूद प्रतिभा सम्पन्न होने के बहुत अधिक दूर तक नहीं बढ़ सके। आज जब सुनहरे दौर के संगीतकारों की बात चलती है तब अनिल बिस्वास, नौशाद, सी. रामचन्द्र, रोशन, सचिन देव बर्मन, ओ.पी. नय्यर, मदन मोहन, रवि, हेमन्त कुमार, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, राहुल देव बर्मन जैसे नाम सब से पहले लिए जाते हैं। इन चमकीले नामों की इस चकाचौंध के आगे बहुत से नाम ऐसे है जो नज़रअंदाज़ हो जाते हैं। ऐसा ही एक नाम है संगीतकार बसंत प्रकाश का। जी हाँ, वही बसंत प्रकाश जो ४० के दशक के सुप्रसिद्ध संगीतकार खेमचंद प्रकाश के छोटे भाई थे। खेमचंद जी की तरह बसंत प्रकाश इतने मशहूर तो नहीं हुए, पर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने को समृद्ध करने में अपना अमूल्य योगदान दिया। आज बसंत प्रकाश जी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन हमनें उनके बेटे श्री ॠतुराज सिसोदिआ से सम्पर्क स्थापित किया और पूछे चंद सवाल, जिनका उन्होंने पूरी उत्सुकता के साथ जवाब दिया। तो आइए आज के इस विशेषांक में प्रस्तुत है वही साक्षात्कार। <br />********************************************<br /><br />सुजॉय - ऋतुराज जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। आप से बातें करते हुए हम बहुत रोमांचित हो रहे हैं, क्योंकि हम एक ऐसे शख़्स से बातें कर रहे हैं जिनका संबंध फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के दो संगीतकारों से है, एक हैं महान खेमचंद प्रकाश जी और दूसरे हैं उन्हीं के भाई बसंत प्रकाश जी। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - धन्यवाद! मुझे भी अपने उन दोनों पर बहुत गर्व है।</span> <br /><br />सुजॉय - ऋतुराज जी, सबसे पहले तो हम जानना चाहेंगे खेमचंद प्रकाश और बसंत प्रकाश के संबंध के बारे में। मेरा मतलब है कि कुछ लोग कहते हैं कि बसंत जी खेमचंद जी के मानस पुत्र हैं, कोई कहता है कि वो उनके मुंहबोले भाई हैं, तो हम आपसे जानना चाहेंगे इस रिश्ते के बारे में। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - बहुत अच्छा सवाल है यह। मैं आपको बताऊँ कि मेरे पिता बसंत प्रकाश जी और खेमचंद जी सगे भाई भी थे और पिता-पुत्र भी।</span> <br /><br />सुजॉय - सगे भाई और पिता-पुत्र भी? मतलब? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ॠतुराज जी - यानी कि रिश्ते में तो दोनों सगे भाई ही थे, लेकिन बाद में खेमचंद जी नें व्यक्तिगत कारणों से मेरे पिता बसंत प्रकाश जी को अपने इकलौते पुत्र के तौर पर गोद लिया। </span><br /><br />सुजॉय - यानी कि खेमचंद जी आपके ताया जी भी हुए और साथ ही दादाजी भी! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ॠतुराज जी - बिल्कुल ठीक!</span> <br /><br />सुजॉय - वैसे तो हम आज बसंत प्रकाश जी के बारे में ही चर्चा कर रहे हैं, लेकिन खेमचंद जी का नाम उनके साथ ऐसे जुड़ा हुआ है कि उनका भी ज़िक्र करना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए बसंत प्रकाश जी पर चर्चा आगे बढ़ाने से पहले, हम आपसे खेमचंद जी के बारे में जानना चाहेंगे। क्या जानते हैं आप उनके बारे में? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - जी हाँ, हर पोता अपने दादाजी के बारे में जानना चाहेगा, और मेरे पिता जी नें भी उनके बारे में मुझे बताया था। खेमचंद जी नें 'सुप्रीम पिक्चर्स' के 'मेरी आँखें' के ज़रिये १९३९ में फ़िल्म जगत में पदार्पण किया था। और जल्द ही नामचीन रणजीत फ़िल्म स्टुडिओ ने उन्हें अनुबंधित कर लिया। लता मंगेशकर के लिए खेमचंद प्रकाश फलदायक साबित हुए और उस दौर में 'आशा', 'ज़िद्दी' और 'महल' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर लता जी को नई नई प्रसिद्धी हासिल हुई थी। लेकिन खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु नें फ़िल्म जगत में एक कभी न पूरा होने वाले शून्य को जन्म दिया।</span> <br /><br />सुजॉय - निस्संदेह खेमचंद जी के जाने से जो क्षति हुई, वह फ़िल्म जगत की अब तक की सब से बड़ी क्षतियों में से एक है। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - 'तानसेन' को बेहतरीन म्युज़िकल फ़िल्मों में गिना जाता है। खेमचंद जी नें लता जी को तो ब्रेक दिया ही, साथ ही किशोर कुमार को भी पहला ब्रेक दिया "मरने की दुवायें क्यों माँगू" गीत में। यह बात मशहूर है कि लता मंगेशकर की आवाज़ को शुरु शुरु में निर्माता चंदुलाल शाह नें रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन खेमचंद जी नें उनके निर्णय को चैलेंज किया और उन्हें बताया कि एक दिन यही आवाज़ इस इंडस्ट्री पर राज करेगी। 'ज़िद्दी' में लता जी का गाया एक बेहद सुंदर गीत था "चंदा रे जा रे जा रे"।</span> <br /><br />सुजॉय - अभी हाल ही में हमनें इस गीत को '<a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/03/blog-post_21.html">ओल्ड इज़ गोल्ड</a>' में सुनवाया है इस्मत चुगताई को समर्पित अंक में। अच्छा ॠतुराज जी, यह बताइए कि खेमचंद जी का स्वरबद्ध कौन सा गीत आपको सब से प्रिय है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - ऐसे बहुत से गीत हैं जो मुझे व्यक्तिगत तौर पे बहुत पसंद है, लेकिन एक जो गीत जो मेरा फ़ेवरीट है, वह है फ़िल्म 'महल' का "मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना"।</span> <br /><br />सुजॉय - वाह! आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि इस गीत को भी हम बजा चुके हैं सस्पेन्स फ़िल्मों के गीतों की शृंखला '<a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/01/blog-post_16.html">मानो या ना मानो</a>' में। ॠतुराज जी, हम अब बसंत प्रकाश जी पर आते हैं; बताइए कि एक पिता के रूप में वो कैसे थे? उनकी कुछ विशेषताओं के बारे में बताएँ जो संगीत-रसिक जान कर अभिभूत हो जाएँगे। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - मेरा और मेरे पिताजी का संबंध दोस्ताना वाला था और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, पूरे परिवार के साथ ही वो घुलमिल कर रहते थे, और एक अच्छे पिता के सभी गुण उनमें थे। परिवार का वो ख़याल रखा करते थे। बहुत ही शांत और सादे स्वभाव के थे। उनकी रचनाएँ मौलिक हुआ करती थी। उन्होंने कभी डिस्को या पाश्चात्य संगीत का सहारा नहीं लिया क्योंकि वो भारतीय शास्त्रीय संगीत में विश्वास रखते थे। राग-रागिनियों, ताल और लोक-संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। खेमचंद जी से ही उन्होंने संगीत सीखा और संगीत और नृत्य कला की बारीकियाँ उनसे सीखी। वो थोड़े मूडी थे और उनका संगीत उनके मूड पे डिपेण्ड करता था। </span><br /><br />सुजॉय - कहा जाता है कि 'अनारकली' फ़िल्म के लिए पहले पहले बसंत प्रकाश जी को ही साइन करवाया गया था, लेकिन बाद में इन्होंने फ़िल्म छोड़ दी। क्या इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - जी हाँ, यह सच बात है। 'अनारकली' के संगीत को लेकर कुछ विवाद खड़े हुए थे। एक दिन काम के अंतराल के वक़्त मेरे पिता जी फ़िल्मिस्तान स्टुडिओ में आराम कर रहे थे। उस समय निर्देशक के सहायक उस कमरे में आये और उन पर चीखने लगे। मेरे पिता जी को उस ऐसिस्टैण्ट के चिल्लाने का तरीका अच्छा नहीं लगा। उन दोनों में बहसा-बहसी हुई, और उसी वक़्त पिताजी फ़िल्म छोड़ कर आ गये। लेकिन तब तक पिताजी फ़िल्म का एक गीत रेकॉर्ड कर चुके थे। सी. रामचंद्र आकर फ़िल्म के संगीत का भार स्वीकारा और अपनी शर्त रख दी कि न केवल फ़िल्म के गानें लता मंगेशकर से गवाये जाएँगे, बल्कि मेरे पिताजी द्वारा स्वरब्द्ध गीता दत्त के गाये गीत को फ़िल्म से हटवा दिया जाये। शुरु शुरु में उनके इन शर्तों को फ़िल्मिस्तान मान तो गये, लेकिन आख़िर में गीता दत्त के गाये गीत को फ़िल्म में रख लिया गया। और वह गीत था "आ जाने वफ़ा"। <br /></span><br />सुजॉय - वाह! आइए आगे बढ़ने से पहले इस लाजवाब गीत को सुन लिया जाये! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - आ जाने वफ़ा (अनारकली)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_36/OIG_SS_36_01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - अच्छा ॠतुराज जी, मैंने पढ़ा है कि खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु के बाद बसंत प्रकाश जी नें उनकी कुछ असमाप्त फ़िल्मों के संगीत को पूरा किया था और इसी तरह से उनका फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था। तो हम आपसे जानना चाहते हैं कि वह कौन सी फ़िल्म थी जिसमें बसंत प्रकाश जी नें संगीत दिया था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - १० अगस्त १९५० को दादाजी की मृत्यु हो गई थी, और उनकी कई फ़िल्में असमाप्त थी जैसे कि 'जय शंकर', 'श्री गणेश जन्म', 'तमाशा'। 'श्री गणेश जन्म' में मन्ना डे सह-संगीतकार थे और 'तमाशा' के गीतों को मन्ना डे और एस. के. पाल नें पूरा किया था। बसंत प्रकाश जी नें 'जय शंकर' का संगीत पूरा किया था और यही उनकी पहली फ़िल्म भी थी।</span> <br /><br />सुजॉय - बसंत प्रकाश जी द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों में कौन कौन सी फ़िल्में उल्लेखनीय हैं आपके हिसाब से? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ॠतुराज जी - उनकी उल्लेखनीय फ़िल्में हैं - सलोनी (१९५२), श्रीमतिजी (१९५२), निशान डंका (१९५२), बदनाम (१९५२), महारानी (१९५७), नीलोफ़र (१९५७), भक्तध्रुव (१९५७), हम कहाँ जा रहे हैं (१९६६), ज्योत जले (१९६८), ईश्वर अल्लाह तेरे नाम (१९८४), अबला (१९८६)। </span> <br /><br />सुजॉय - १९६८ के बाद पूरे २० साल तक वो ग़ायब रहे और १९८६ में दोबारा उनका संगीत सुनाई दिया। इसके पीछे क्या कारण है? वो ग़ायब क्यों हुए थे और दोबारा वापस कैसे आये? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ॠतुराज जी - उनके पैत्रिक स्थान पर कुछ प्रॉपर्टी के इशूज़ हो गये थे जिस वजह से उन्हें लकवा मार गया और १५ साल तक वो लकवे से पीड़ित थे। जब वो ठीक हुए, तब उनके मित्र वसंत गोनी साहब, जो एक निर्देशक थे, उन्होंने पिताजी को फिर से संगीत देने के लिए राज़ी करवाया और इन दोनों फ़िल्मों, 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' और 'अबला', में उन्हें संगीत देने का न्योता दिया। वसंत जी को पिताजी पर पूरा भरोसा था। पिताजी राज़ी हो गये और इस तरह से एक लम्बे अरसे के बाद उनका संगीत फिर से सुनाई दिया। </span><br /><br />सुजॉय - बसंत प्रकाश जी के युं तो कई गीत लोकप्रिय हुए थे, आपको व्यक्तिगत तौर पे उनका बनाया कौन सा गीत सब से पसंद है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ॠतुराज जी - युं तो अभी जिन फ़िल्मों के नाम मैंने लिए, उन सब के गानें पसंद है, लेकिन एक जो मेरा फ़ेवरीट गीत है, वह है उनकी अंतिम फ़िल्म 'अबला' का, "अबला पे सितम निर्बल पर जुलुम, तू चुप बैठा भगवान रे..."। </span><br /><br />सुजॉय - यह तो था आपका पसंदीदा गीत। बसंत प्रकाश जी को अपने गीतों में कौन सा गीत सब से ज़्यादा पसंद था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - मेरे पिताजी का सब से पसंदीदा गीत फ़िल्म 'नीलोफ़र' का "रफ़्ता रफ़्ता वो हमारे दिल के अरमान हो गये" था। यह गीत इस फ़िल्म का भी सब से लोकप्रिय गीत था। और अब तक लोग इस गीत को याद करते हैं, सुनते हैं।</span> <br /><br />सुजॉय - इसमें कोई शक़ नहीं है। आइए आज हम भी इस गीत का आनंद लें, फ़िल्म 'नीलोफ़र', आवाज़ें आशा भोसले और महेन्द्र कपूर की। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - रफ़्ता रफ़्ता वो हमारे दिल के अरमान हो गये (नीलोफ़र)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_36/OIG_SS_36_02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॉय - और अब आख़िरी सवाल। सुनने में आता है कि खेमचंद जी की एक बेटी भी थी जिनका नाम था सावित्री, और जिनके लिए खेमचंद जी नें पैत्रिक स्थान सुजानगढ़ में एक आलीशान हवेली बनवाई थी, पर बाद में आर्थिक कारणों से वह गिरवी रख दी गई, और आज वह किसी और की अमानत है। क्या आप खेमेचंद जी की बेटी सावित्री जी के बारे में कुछ बता सकते हैं? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - जी नहीं, मुझे उनके बारे में कुछ नहीं मालूम। पिताजी नें कभी मुझे उनके बारे में नहीं बताया, इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।</span> <br /><br />सुजॉय - बहुत बहुत शुक्रिया ऋतुराज जी। हम वाक़ई अभिभूत हैं खेमचंद जी और बसंत प्रकाश जी जैसे महान कलाकारों के बारे में आप से बातचीत कर। 'हिंद-युग्म' के लिए अपना कीमती वक़्त निकालने के लिए और इतनी सारी बातें बताने के लिए मैं अपनी तरफ़ से, हमारे तमाम श्रोता-पाठकों की तरफ़ से, और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से, आपका शुक्रिया अदा करता हूँ। नमस्कार! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऋतुराज जी - आपका भी बहुत धन्यवाद, नमस्कार!</span><br /><br />************************************************ <br />तो दोस्तों, ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष', आशा है आपको पसंद आई होगी। अगले हफ़्ते फिर किसी ख़ास प्रस्तुति के साथ वापस आयेंगे। मेरी और आपकी दोबारा मुलाक़ात होगी कल शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में, लेकिन सुमित के साथ कल सुबह 'सुर-संगम' सुनना/पढ़ना न भूलिएगा, अब अनुमती दीजिए, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-88881900462485004492011-03-19T17:00:00.000+05:302011-03-19T17:00:01.785+05:30होली के हजारों रंग अपने गीतों में भरने वाले शकील बदायूनीं साहब को याद करें हम उनके बेटे जावेद बदायूनीं के मार्फ़तहोली है!!! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और आप सभी को रंगीन पर्व होली पर हमारी ढेर सारी शुभकामनाएँ। तो कैसा रहा होली से पहले का दिन? ख़ूब मस्ती की न? हमनें भी की। और 'आवाज़' की हमारी टोली दिन भर रंग उड़ेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए, लोगों को शुभकामनाएँ देते हुए, अब दिन ढलने पर आ पहुँचे हैं एक मशहूर शायर व गीतकार के बेटे के दर पर। ये उस अज़ीम शायर के बेटे हैं, जिस शायर नें अदबी शायरी के साथ साथ फ़िल्म-संगीत में भी अपना अमूल्य योगदान दिया। हम आये हैं शक़ील बदायूनी के साहबज़ादे जावेद बदायूनी के पास उनके पिता के बारे में थोड़ा और क़रीब से जानने के लिए और साथ ही शक़ील साहब के लिखे कुछ बेमिसाल होली गीत भी आपको सुनवायेंगे। <br /><br />सुजॊय - जावेद बदायूनी साहब, नमस्कार, और 'हिंद-युग्म' परिवार की तरफ़ से आपको और आपके परिवार को होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - शुक्रिया बहुत बहुत, और आपको भी होली की शुभकामनाएँ!</span><br /> <br />सुजॊय - आज का दिन बड़ा ही रंगीन है, और हमें बेहद ख़ुशी है कि आज के दिन आप हमारे पाठकों से रु-ब-रु हो रहे हैं। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - मुझे भी बेहद ख़ुशी है अपने पिता के बारे में बताने का मौका पाकर।</span> <br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiniFhn4ekePumhD0DVQ5C53QBadALwj8qqvc7N0qZWlk_YVVlmyKAgbRHc31kn0IXQeN6q7pcq2y3gbYpfHisGMw1iNhYwz8eNCffEfm8Z6vmw_gw1ZwxL74bin4VzE7AJxp34YAc2uQ0j/s1600/shakeel-badayuni.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 152px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiniFhn4ekePumhD0DVQ5C53QBadALwj8qqvc7N0qZWlk_YVVlmyKAgbRHc31kn0IXQeN6q7pcq2y3gbYpfHisGMw1iNhYwz8eNCffEfm8Z6vmw_gw1ZwxL74bin4VzE7AJxp34YAc2uQ0j/s200/shakeel-badayuni.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5585297066559824370" /></a>सुजॊय - जावेद साहब, इससे पहले कि मैं आप से शक़ील साहब के बारे में कुछ पूछूँ, मैं यह बताना चाहूँगा कि उन्होंने कुछ शानदार होली गीत लिखे हैं, जिनका शुमार सर्वश्रेष्ठ होली गीतों में होता है। ऐसा ही एक होली गीत है फ़िल्म 'मदर इण्डिया' का, "होली आई रे कन्हाई, रंग छलके, सुना दे ज़रा बांसुरी"। शम्शाद बेगम की आवाज़ में इस गीत को आइए पहले सुनते हैं, फिर बातचीत आगे बढ़ाते हैं। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - ज़रूर साहब, सुनवाइए!</span> <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - होली आई रे कन्हाई (मदर इण्डिया)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_33/OIG_SS_33_01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object> <br /><br />सुजॊय - जावेद साहब, यह बताइए कि जब आप छोटे थे, तब पिता के रूप में शक़ील साहब का बरताव कैसा हुआ करता था? घर परिवार का माहौल कैसा था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - एक पिता के रूप में उनका व्यवहार दोस्ताना हुआ करता था, और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, अपने सभी बच्चों को बहुत प्यार करते थे और सब से हँस खेल कर बातें करते थे। यानी कि घर का माहौल बड़ा ही ख़ुशनुमा हुआ करता था।</span> <br /><br />सुजॊय - अच्छा जावेद जी, क्या घर पर शायरों का आना जाना लगा रहता था? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - जी हाँ जी हाँ, शक़ील साहब के दोस्त लोगों का आना जाना लगा ही रहता था जिनमें बहुत से शायर भी होते थे। घर पर ही शेर-ओ-शायरी की बैठकें हुआ करती थीं।</span><br /> <br />सुजॊय - जावेद साहब, शक़ील साहब के अपने एक पुराने इंटरव्यु में ऐसा कहा था कि उनके करीयर को चार पड़ावों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भाग में १९१६ से १९३६ का समय जब वे बदायूँ में रहा करते थे। फिर १९३६ से १९४२ का समय अलीगढ़ का; १९४२ से १९४६ का दिल्ली का उनका समय, और १९४६ के बाद बम्बई का सफ़र। हमें उनकी फ़िल्मी करीयर, यानी कि बम्बई के जीवन के बारे में तो फिर भी पता है, क्या आप पहले तीन के बारे में कुछ बता सकते हैं? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - बदायूँ में जन्म और बचपन की दहलीज़ पार करने के बाद शक़ील साहब नें अलीगढ़ से अपनी ग्रैजुएशन पूरी की और दिल्ली चले गये, और वहाँ पर एक सरकारी नौकरी कर ली। साथ ही साथ अपने अंदर शेर-ओ-शायरी के जस्बे को क़ायम रखा और मुशायरों में भाग लेते रहे। ऐसे ही किसी एक मुशायरे में नौशाद साहब और ए. आर. कारदार साहब भी गये हुए थे और इन्होंने शक़ील साहब को नज़्म पढ़ते हुए सुना। उन पर शक़ील साहब की शायरी का इतना असर हुआ कि उसी वक़्त उन्हें फ़िल्म 'दर्द' के सभी गानें लिखने का ऒफ़र दे दिया।</span> <br /><br />सुजॊय - 'दर्द' का कौन सा गीत सब से पहले उन्होंने लिखा होगा, इसके बारे में कुछ बता सकते हैं? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - "हम दर्द का फ़साना" उनका लिखा पहला गीत था, और दूसरा गाना था "अफ़साना लिख रही हूँ", उमा देवी का गाया हुआ।</span><br /> <br />सुजॊय - इस दूसरे गीत को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं। क्योंकि आज होली है, आइए यहाँ पर शक़ील साहब का लिखा हुआ एक और शानदार होली गीत सुनते हैं। फ़िल्म 'कोहिनूर' से "तन रंग लो जी आज मन रंग लो"। संगीत नौशाद साहब का। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - ज़रूर सुनवाइए।</span> <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - तन रंग लो जी आज मन रंग लो (कोहिनूर)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_33/OIG_SS_33_02.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /> <br />सुजॊय - जावेद साहब, क्या शक़ील साहब कभी आप भाई बहनों को प्रोत्साहित किया करते थे लिखने के लिये? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - जी हाँ, वो प्रोत्साहित भी करते थे और जब हम कुछ लिख कर उन्हें दिखाते तो वो ग़लतियों को सुधार भी दिया करते थे।</span> <br /><br />सुजॊय - शक़ील बदायूनी और नौशाद अली, जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू। ये दोनों एक दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त भी थे। क्या शक़ील साहब आप सब को नौशाद साहब और उस दोस्ती के बारे में बताया करते थे? या फिर इन दोनों से जुड़ी कोई यादगार घटना या वाकया ? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - शक़ील साहब और नौशाद साहब वर ग्रेटेस्ट फ़्रेण्ड्स! यह हक़ीक़त है कि शक़ील साहब नौशाद साहब के साथ अपने परिवार से भी ज़्यादा वक़्त बिताया करते थे। दोनों के आपस की ट्युनिंग् ग़ज़ब की थी और यह ट्युनिंग् इनके गीतों से साफ़ छलकती है। शक़ील साहब के गुज़र जाने के बाद भी नौशाद साहब हमारे घर आते रहते थे और हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते थे। यहाँ तक कि नौशाद साहब हमें बताते थे कि ग़ज़ल और नज़्म किस तरह से पढ़ी जाती है और मैं जो कुछ भी लिखता था, वो उन्हें सुधार दिया करते थे। </span><br /><br />सुजॊय - यानी कि शक़ील साहब एक पिता के रूप में जिस तरह से आपको गाइड करते थे, उनके जाने के बाद वही किरदार नौशाद साहब ने निभाया और आपको पिता समान स्नेह दिया।<br /> <br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - इसमें कोई शक़ नहीं!</span> <br /><br />सुजॊय - जावेद साहब, बचपन की कई यादें ऐसी होती हैं जो हमारे मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ जाती हैं। शक़ील साहब से जुड़ी आप के मन में भी कई स्मृतियाँ होंगी। उन स्मृतियों में से कुछ आप हमारे साथ बाँटना चाहेंगे? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - शक़ील साहब के साथ हम सब रेकॊर्डिंग् पर जाया करते थे और कभी कभी तो वो हमें शूटिंग् पर भी ले जाते। फ़िल्म 'राम और श्याम' के लिए वो हमें मद्रास ले गये थे। 'दो बदन', 'नूरजहाँ' और कुछ और फ़िल्मों की शूटिंग् पर सब गये थे। वो सब यादें अब भी हमारे मन में ताज़े हैं जो बहुत याद आते हैं। </span> <br /><br />सुजॊय - अब मैं आप से जानना चाहूँगा कि शक़ील साहब के लिखे कौन कौन से गीत आपको व्यक्तिगत तौर पे सब से ज़्यादा पसंद हैं? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - उनके लिखे सभी गीत अपने आप में मास्टरपीस हैं, चाहे किसी भी संगीतकार के लिये लिखे गये हों।</span> <br /><br />सुजॊय - निसंदेह! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - यह बताना नामुमकिन है कि कौन सा गीत सर्वोत्तम है। मैं कुछ फ़िल्मों के नाम ज़रूर ले सकता हूँ, जैसे कि 'मदर इण्डिया', 'गंगा जमुना', 'बैजु बावरा', 'चौदहवीं का चांद', 'साहब बीवी और ग़ुलाम', और 'मुग़ल-ए-आज़म'। </span><br /><br />सुजॊय - वाह! आप ने 'मुग़ल-ए-आज़म' का ज़िक्र किया, और आज हम आप से शक़ील साहब के बारे में बातचीत करते हुए उनके लिखे कुछ होली गीत सुन रहे हैं, तो मुझे एकदम से याद आया कि इस फ़िल्म में भी एक ऐसा गीत है जिसे हम पूर्णत: होली गीत तो नहीं कह सकते, लेकिन क्योंकि उसमें राधा और कृष्ण के छेड़-छाड़ का वर्णन है, इसलिए इसे यहाँ पर बजाया जा सकता है। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - "मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे"।</span> <br /><br />सुजॊय - जी हाँ, आइए इस गीत को सुनते हैं, संगीत एक बार फिर नौशाद साहब का। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे (मुग़ल-ए-आज़म)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_33/OIG_SS_33_03.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॊय - अच्छा जावेद साहब, आप से अगला सवाल पूछने से पहले हम अपने श्रोता-पाठकों के लिए एक सवाल पूछना चाहेंगे। अभी जो हमनें गीत सुना "मोहे पनघट पे", इसी गीत का एक अन्य संस्करण भी हमारे हाथ लगा है। इस वर्ज़न को हम यहाँ पर सुनवा रहे हैं और हमारे श्रोताओं को हमें लिख भेजना है कि यह किनकी आवाज़ में है। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे - अन्य संस्करण (मुग़ल-ए-आज़म)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_33/OIG_SS_33_04.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॊय - जावेद साहब, हम शक़ील साहब के लिखे गीतों को हर रोज़ ही कहीं न कहीं से सुनते हैं, लेकिन उनके लिखे ग़ैर-फ़िल्मी नज़्मों और ग़ज़लों को कम ही सुना जाता है। इसलिए मैं आप से उनकी लिखी अदबी शायरी और प्रकाशनों के बारे में जानना चाहूँगा। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - मैं आपको बताऊँ कि भले ही वो फ़िल्मी गीतकार के रूप में ज़्यादा जाने जाते हैं, लेकिन हक़ीक़त में पहले वो एक लिटररी फ़िगर थे और बाद में फ़िल्मी गीतकार। फ़िल्मों में गीत लेखन वो अपने परिवार को चलाने के लिये किया करते थे। जहाँ तक ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं का सवाल है, उन्होंने ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों के पाँच दीवान लिखे हैं, जिनका अब 'कुल्यात-ए-शक़ील' के नाम से संकलन प्रकाशित हुआ है। उन्होंने अपने जीवन काल में ५०० से ज़्यादा ग़ज़लें और नज़्में लिखे होंगे जिन्हें आज भारत, पाक़िस्तान और दुनिया भर के देशों के गायक गाते हैं। </span><br /><br />सुजॊय - आपनें आंकड़ा बताया तो मुझे याद आया कि हमनें आप से शक़ील साहब के लिखे फ़िल्मी गीतों की संख्या नहीं पूछी। कोई अंदाज़ा आपको कि शक़ील साहब ने कुल कितने फ़िल्मी गीत लिखे होंगे? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - उन्होंने १०८ फ़िल्मों में लगभग ८०० गीत लिखे हैं, और इनमें ५ फ़िल्में अनरिलीज़्ड भी हैं।</span> <br /><br />सुजॊय - वाह! जावेद साहब, यहाँ पर हम शक़ील साहब का लिखा एक और बेहतरीन होली गीत सुनना और सुनवाना चाहेंगे। नौशाद साहब के अलावा जिन संगीतकारों के साथ उन्होंने काम किया, उनमें एक महत्वपूर्ण नाम है रवि साहब का। अभी कुछ देर पहले आपने 'दो बदन' और 'चौदहवीं का चाँद' फ़िल्मों का नाम लिया जिनमें रवि का संगीत था। तो रवि साहब के ही संगीत में शक़ील साहब नें फ़िल्म 'फूल और पत्थर' के भी गीत लिखे जिनमें एक होली गीत था "लायी है हज़ारों रंग होली, कोई तन के लिये, कोई मन के लिये"। सुनते हैं इस गीत को। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - लायी है हज़ारों रंग होली (फूल और पत्थर)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_33/OIG_SS_33_05.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॊय - दोस्तों, आपने ग़ौर किया कि इस गीत में और 'कोहिनूर' के होली गीत में, दोनों में ही "तन" और "मन" शब्दों का शक़ील साहब ने इस्तमाल किया है। अच्छा जावेद साहब, अब एक आख़िरी सवाल आप से। शक़ील साहब नें जो मशाल जलाई है, क्या उस मशाल को आप या कोई और रिश्तेदार उसे आगे बढ़ाने में इच्छुक हैं? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - मेरी बड़ी बहन रज़ीज़ शक़ील को शक़ील साहब के गुण मिले हैं और वो बहुत ख़ूबसूरत शायरी लिखती हैं।</span> <br /><br />सुजॊय - आप किस क्षेत्र में कार्यरत है? <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - मैं ३२ साल से SOTC Tour Operators के साथ था, और अब HDFC Standard Life में हूँ, मुंबई में स्थित हूँ। </span> <br /><br />सुजॊय - बहुत बहुत शुक्रिया जावेद साहब। होली के इस रंगीन पर्व को आप ने शक़ील साहब की यादों से और भी रंगीन किया, और साथ ही उनके लिखे होली गीतों को सुन कर मन ख़ुश हो गया। भविष्य में हम आप से शक़ील साहब की शख्सियत के कुछ अनछुये पहलुयों पर चर्चा करना चाहेंगे। आपको एक बार फिर होली की हार्दिक शुभकामना देते हुए अब विदा लेते हैं, नमस्कार! <br /><br /><span style="font-weight:bold;">जावेद बदायूनी - बहुत बहुत शुक्रिया आपका!</span> <br /><br />तो दोस्तों, होली पर ये थी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास प्रस्तुति जिसमें हमनें शक़ील बदायूनी के लिखे होली गीत सुनने के साथ साथ थोड़ी बहुत बातचीत की उन्हीं के बेटे जावेद बदायूनी से। आशा है आपको यह प्रस्तुति अच्छी लगी होगी। ज़रूर लिख भेजिएगा अपने विचार oig@hindyugm.com के पते पर। अब आज के लिए हमें इजाज़त दीजिए, 'आवाज़' पर 'सुर-संगम' लेकर सुमित हाज़िर होंगे कल सुबह ९ बजे, पधारिएगा ज़रूर। आप सभी को एक बार फिर होली की हार्दिक शुभकामनाएँ, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-77628517895060533802011-03-05T17:00:00.006+05:302011-03-05T17:00:00.281+05:30ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - अभिनेत्री व फ़िल्म-निर्मात्री आशालता के जीवन की कहानी उन्हीं की सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा की जुबानीनमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की ३१-वीं कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। आज हम आपको मिलवा रहे हैं एक ऐसी शख्सियत से जिनकी माँ ना केवल हिंदी सिनेमा की पहली पीढ़ी की एक जानीमानी अदाकारा रहीं, बल्कि अपने एक निजी बैनर तले कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया। इस अदाकारा और फ़िल्म निर्मात्री को हम आशालता के नाम से जानते हैं। जी हाँ, वही आशालता बिस्वास जिन्हें आप मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास की पहली पत्नी के रूप में ज़्यादा जानते हैं। इसे हम अफ़सोस की बात ही कहेंगे कि आशालता जी के बारे में बहुत कम और ग़लत जानकारियाँ दुनिया को मिल पायी है, कारण चाहे कोई भी हो। लेकिन हक़ीक़त यह है कि आशालता जी का अपना भी एक अलग व्यक्तित्व था, अपनी अलग पहचान थी, और इस बात का अंदाज़ा आपको इस साक्षात्कार को पढ़ने के बाद हो जाएगा। आशालता जी के बारे में विस्तार से बातचीत करने के लिए 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से हमने आमंत्रित किया उनकी सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा जी को। तो आइए आपको मिलवाते हैं आशालता जी और अनिल दा की सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा जी से। <br /><br />********************************<br /><br />सुजॊय - शिखा जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंदयुग्म' पर, और बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने हमारे इस निमंत्रण को स्वीकारा, और आशालता जी के बारे में विस्तार से हमारे पाठकों को बताने के लिए राज़ी हुईं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - आपका बहुत धन्यवाद जो आपने अपने फ़ोरम में मुझे बुलाया। सब से पहले मैं यह कहना चाहूँगी कि बच्चे अपने माता-पिता के काम के बारे में बहुत कम ही बातचीत करते हैं और हम भी दूसरे बच्चों से अलग नहीं थे। हमने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा आ जाएगा कि ये सब बातें इतिहास बन जाएँगी या इन सब बातों को जानने में लोगों की दिलचस्पी होगी। माँ-बाप चाहे बाहर कितने भी लोकप्रिय या पब्लिक फ़िगर हों, बच्चों के लिए तो वो केवल माँ-बाप ही होते हैं। सिनेमा के रसिक उनके बारे में ज़्यादा जानकारी रखते हैं, इसलिए आपके इस मुहिम में शायद मैं बहुत ज़्यादा कारगर न साबित हो सकूँ।</span><br /><br />सुजॊय - शिखा जी, आशालता जी उस पीढ़ी की अभिनेत्री थीं जब बोलती फ़िल्मों की बस शुरुआत ही हुई थी। जब मैंने इंटरनेट पर उपलब्ध आशालता जी की फ़िल्मोग्राफ़ी पर नज़र दौड़ाई, तो पाया कि उनकी पहली फ़िल्में थीं 'सजीव मूर्ती', 'आज़ादी' और 'सती तोरल', और ये फ़िल्में आईं थीं सन् १९३५ में। क्या आप बता सकती हैं कि क्या वाक़ई आशालता जी १९३५ में लौंच हुईं थीं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - 'आज़ादी' का निर्माण १९३४ में शुरु होकर फ़िल्म १९३५ में रिलीज़ हुई थी, इसलिए यही फ़िल्म शायद उनकी डेब्यु फ़िल्म थी, और इसमें उनके नायक थे विजय कुमार। उस वक़्त आशालता जी की उम थी १८ वर्ष।</span><br /><br />सुजॊय- क्या आशालता जी ने कभी आपको बताया कि उनका सिनेमा में पदार्पण किस तरह से हुआ था?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - न उन्होंने कभी इसके बारे में हमें बताया और न ही हमने कभी उनसे यह पूछा। लेकिन जितना मुझे मालूम है, वो और शोभना समर्थ क्लासमेट्स थीं और बहुत अच्छे दोस्त भी। इसलिए हो सकता है कि वे दोनों एक ही समय पर फ़िल्मी मैदान में उतरी होंगी। शोभना समर्थ जी के अंकल एक फ़ोटो-स्टुडिओ चलाते थे 'देवारे' नाम से।</span><br /><br />सुजॊय - मैंने सुना है कि आशालता जी का असली नाम था मेहरुन्निसा। जहाँ तक एक फ़िल्मी नायिका के नाम का सवाल है, इस नाम में कोई ख़ामी नहीं थी। फिर उन्होंने अपना नाम क्यों बदला होगा, क्या इसके बारे में आप कुछ बता सकती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - उनका असली नाम था मेहरुन्निसा भगत। शायद उन्होंने या फ़िल्म के निर्माता ने उनका नाम बदल दिया होगा क्योंकि उन दिनों यह एक रवायत थी।</span><br /><br />सुजॊय - ये जो तीन फ़िल्मों का ज़िक्र हमने अभी किया, वे सभी 'शक्ति मूवीज़' के बैनर तले निर्मित फ़िल्में थीं। उस ज़माने में फ़िल्मी कलाकार फ़िल्म कंपनी के कर्मचारी हुआ करते थे जिन्हें मासिक तौर पर तनख्वा मिलती थी। तो क्या आशालता जी भी 'शक्ति मूवीज़' में कार्यरत थीं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - मुझे नहीं लगता कि उनका किसी स्टुडिओ विशेष से कोई अनुबंधन था, बल्कि फ़िल्म निर्माण के दौरान उन्हें उस कंपनी से मासिक तनख्वा मिला करती होगी।<br /></span><br />सुजॊय - शायद आप ठीक कह रही हैं, क्योंकि अगले ही साल, यानी १९३६ से वो कई बैनरों की फ़िल्मों में नज़र आयीं, जैसे कि 'गोल्डन ईगल', 'ईस्टर्ण आर्ट्स', 'सागर मूवीटोन', 'दर्यानी प्रोडक्शन्स' आदि। अच्छा, १९३६ की बात करें तो इस साल 'शेर का पंजा' और 'पिया की जोगन' जैसी फ़िल्में उनकी आयीं, जिनमें संगीत आपके पिता श्री अनिल बिस्वास जी का था। तो यह बताइए कि आशालता जी अनिल दा से कब मिलीं? क्या इन्ही दो फ़िल्मों के निर्माण के दौरान या उससे पहले?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - अनिल बिस्वास 'मनमोहन' फ़िल्म के संगीतकार के सहायक थे, जिसका निर्माण १९३५ से ही शुरु हो चुका था। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि वे दोनों तभी मिले होंगे और दोनों ने शादी की १९३६ में।<br /></span><br />सुजॊय - अच्छा शिखा जी, वह ३० का दशक कुंदन लाल सहगल साहब का दशक था, और १९४० में एक बहुत ही मशहूर फ़िल्म आयी थी 'ज़िंदगी' जिसमें सहगल साहब मुख्य भूमिका में थे। इस फ़िल्म में आशालता जी ने भी अभिनय किया था। क्या उन्होंने आपको इस फ़िल्म के बारे में या सहगल साहब के बारे में कुछ बताया?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - जी नहीं, उन्होंने कभी ऐसा कुछ ज़िक्र नहीं किया कि इस फ़िल्म में उनका सहगल साहब के साथ कोई सीन था।</span><br /><br />सुजॊय - १९३७ में आशालता जी की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'प्रेमवीर', जिसका निर्माण हिंदी और मराठी, दोनों में हुआ था। यह बताइए कि क्या आशालता जी ने इस फ़िल्म के लिए मराठी सीखा था? उनकी मातृभाषा क्या थी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - 'प्रेमवीर', मास्टर विनायक के साथ। नंदा जी के पिता मास्टर विनायक जी के लिए उनके दिल में बहुत सम्मान था। वो ख़ुद बहुत अच्छा मराठी, गुजराती और सिंधी बोल लेती थीं और शादी के बाद बंगला भी सीख गई थीं। वो मूलत: भुज की थीं और उनकी मातृभाषा थी कच्छी।<br /></span><br />सुजॊय - फ़िल्मों से संन्यास लेने के एक अरसे बाद वो फिर से नज़र आयीं गुजराती फ़िल्म 'मारे जावुण पेले पार' फ़िल्म में जो १९६८ में बनी थी। इस फ़िल्म के लिए उन्हें न्योता कैसे मिला?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - दरअसल १९६६ में उन्होंने एक फ़िल्म 'श्रीमान फ़ंटूश' का निर्माण किया था अपने भाई के बैनर तले और जिसमें उन्होंने किशोर कुमार के माँ का किरदार भी निभाया था। उसी दौरान मुझे भी एक फ़िल्म 'फिर वही आवाज़' में नायिका बनने का ऒफ़र आया था जिसमें सुजीत कुमार नायक थे, और उस फ़िल्म के निर्देशक थे शांतिलाल सोनी, जो कि एक गुजराती थे। उन्होंने मेरी मम्मी को रेकमेण्ड किया उस रोल के लिए। वह फ़िल्म बहुत बड़ी हिट साबित हुई और उसका हिंदी में री-मेक हुआ 'खिलौना' शीर्षक से, जिसमें अरुणा इरानी वाला किरदार मुमताज़ ने निभाया।</span><br /><br />सुजॊय - एक फ़िल्म निर्मात्री के रूप में आशालता जी के करीयर को देखें तो उन्होंने कुछ यादगार म्युज़िकल फ़िल्मों का निर्माण किया है जैसे कि 'लाडली', 'बड़ी बहू', 'लाजवाब', 'हमदर्द', 'बाज़ूबंद', जो अपने ज़माने के हिट फ़िल्में हैं। इन सब फ़िल्मों के बारे में आप क्या जानती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - देखिए वो हमेशा से ही एक ऐक्टिव पर्सन रही हैं अपने प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में। वो काम करना चाहती थीं, लेकिन दो बच्चों के जन्म के बाद वो अभिनय से संयास लेना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने अभिनय को छोड़ कर फ़िल्म निर्माण का काम ले लिया और अपने बैनर 'वरायटी पिक्चर्स' की स्थापना की। मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी कि उन्होंने फ़िल्म निर्माण के हर पहलु को वो ख़ुद परखती थीं, रोज़ ऒफ़िस जाना, और पूरे शिड्युल को बकायदा मेण्टेन करना। निम्मी, शेखर, सुलोचना चटर्जी जैसे कलाकारों के साथ उनका रिश्ता बहुत ही अच्छा था। मैं अक्सर उनके साथ आउटडोर जाया करती थी जैसे कि पंचगनी और महाबलेश्वर। एक बार किसी डान्स सिक्वेन्स के शूटिंग् के दौरान मैं ग़लती से कैमरे के फ़्रेम में आ गई और जुनियर आर्टिस्ट्स के साथ डान्स करने लग पड़ी। फ़िल्म के निर्देशक 'कट' बोलने ही वाले थे कि उन्होंने कैमरा चलते रहने का इशारा किया। उनकी ज़्यादातर फ़िल्में 'रणजीत' और दादर के 'श्री साउण्ड स्टुडिओ' में शूट हुआ करती थी। मुझे याद है कि फ़िल्म 'बड़ी बहू' के गीत "मेरे दिल की धड़कन में" और "सपने तुझे बुलाये" का डान्स रिहर्सल हमारे घर के बैठकखाने में हुई थी। और रिहर्सल कर रहे थे गोपी कृषन और स्मृति बिस्वास; और बाद में इनका फ़िल्मांकन 'फ़ेमस स्टुडिओ महालक्ष्मी' में हुआ, जहाँ पर मम्मा ने अपना ऒफ़िस बाद में शिफ़्ट कर लिया था।<br /></span><br />सुजॊय - बहुत ही हसीन यादें जुड़ी हुई होगी इनके साथ, है न? तो क्यों न यहाँ पर हम फ़िल्म 'बड़ी बहू' का एक गाना सुन लें!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - मीठी मीठी निंदिया आई रे (बड़ी बहू)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_31_1/OIG_SS_31_001.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॊय - अच्छा शिखा जी, जैसा कि आपने बताया कि आपके घर पर फ़िल्मों के रिहर्सल हुआ करते थे, तो यह बताइए कि किस तरह का माहौल हुआ करता था?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - बहुत ही मज़ेदार होते थे वो दिन कि जब बाबा खाना बनाते थे सभी के लिए और जैसे घर पर एक पिकनिक का माहौल बन जाता था। उस ज़माने में फ़िल्म से जुड़े सभी लोग आपस में एक दूसरे के बहुत नज़दीक हुआ करते थे और एक परिवार की तरह काम किया करते थे। मुझे याद है बाबा ने 'हमदर्द' में एक गेस्ट अपीयरेन्स दिया था, उन्होंने एक नाई की भूमिका निभाई थी। और जितना मुझे याद है 'मेहमान' में उन्होंने एक पुजारी का रोल निभाया था और उन पर एक गीत भी फ़िल्माया गया था "खोल दे पुजारी द्वार खोल दे"।<br /></span><br />सुजॊय - अरे वाह! यह तो वाक़ई दुर्लभ जानकारी है! शिखा जी, हमनें कोशिशें तो बहुत की थी कि इस गीत का विडिओ कहीं से ढूंढ सकें, लेकिन अफ़सोस कि कहीं पर हम इसे खोज नहीं पाये। भविष्य में कभी अगर हमारे हाथ लगा तो आप के साथ भी और अपने श्रोता-पाठकों के साथ भी ज़रूर बाँटेंगे। लेकिन फ़िल्हाल यहाँ पर हम अपने पाठकों को फ़िल्म 'मेहमान' का पोस्टर ज़रूर दिखा सकते हैं जिसे आपके सौजन्य से ही हमें प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम आपके आभारी हैं। <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7NJ_X5y9cwrHVe7D9DhNcFGRiMVCRIeraYVvFbJlSsiGu_YMFGvVakAj__dJqg3hlMZkrHud4Jr6ruA4H4IXtxCwNu0NT7S__N1Gn2xlDR3RmWfmKG7i9OeXQRPAMywpgSVCtIJwgWbpT/s1600/mehman.JPG"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 126px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7NJ_X5y9cwrHVe7D9DhNcFGRiMVCRIeraYVvFbJlSsiGu_YMFGvVakAj__dJqg3hlMZkrHud4Jr6ruA4H4IXtxCwNu0NT7S__N1Gn2xlDR3RmWfmKG7i9OeXQRPAMywpgSVCtIJwgWbpT/s200/mehman.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5580080230749482722" /></a> <br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - पता है 'वरायटी पिक्चर्स' का जो लोगो था, उसे भी बाबा ने ही डिज़ाइन किया था, एक ढोलक के उपर विराजमान माँ सरस्वती, जिसके दोनों तरफ़ तानपुरे से सहारा दिया गया है। इस लोगो का एक रेप्लिका हमारे बैठकखाने की दीवार पर टंगा होता था।</span><br /><br />सुजॊय - 'लाजवाब' फ़िल्म के बारे में कुछ बताइए।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - फ़िल्म 'लाजवाब' का निर्माण रेस-कोर्स में हुई जीत के पैसे से हुआ था। 'लाजवाब' नाम से एक घोड़ा था जिस पर ममा ने बाज़ी रखी थी। यह घोड़ा अभिनेता मोतीलाल जी का था। और इस तरह से फ़िल्म का नाम भी 'लाजवाब' रख लिया गया।<br /></span><br />सुजॊय - यह तो वाक़ई दिलचस्प बात है। 'हमदर्द' फ़िल्म भी एक यादगार फ़िल्म थी अनिल दा के करीयर की। इस फ़िल्म से जुड़ी क्या यादें हैं आपकी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - 'हमदर्द' की रचनात्मक रागमाला "ऋतु आये ऋतु जाये", जो बाबा की जीवनी का भी शीर्षक बना, हमारे घर में लगभग तीन हफ़्तों तक इसकी रिहर्सल चलती रही और तब जाकर बाबा आश्वस्त हुए रेकॊर्डिंग के लिए। वो बहुत ज़्यादा एक्साइटेड थे जब रेकॊर्डिंग के बाद गीत को बजाया जा रहा था। मन्ना दा के शब्दों में बाबा नृत्य करने लगे थे। मन्ना दा हम बच्चों को अंग्रेज़ी के शरारत भरे गीत सिखाया करते थे।</span><br /><br />सुजॊय - जब 'हमदर्द' और मन्ना दा की बात चल ही पड़ी है तो क्यों ना यहाँ पर "ऋतु आये ऋतु जाये" का भी आनंद हम उठा ही लें!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - ज़रूर!</span> <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - ऋतु आये ऋतु जाये (हमदर्द)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_31_1/OIG_SS_31_002.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॊय - फ़िल्म 'बड़ी बहू' के बारे में कुछ कहना चाहेंगी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - 'बड़ी बहू' को बहुत सारे पुरस्कार मिले किसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल में जो शायद शिमला या देहरादून में हुआ था। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए बलराज साहनी जी को। मुझे याद है मैंने एक फ़ोटो देखा था जिसमें पूरी कास्ट अपने अपने पुरस्कारों के साथ खड़े हैं और ये पुरस्कार अशोक स्तंभ के सिंह की आकृति के थे।<br /></span><br />सुजॊय - शिखा जी, क्या आप हमारे पाठकों को आशालता जी की कुछ तस्वीरें दिखा सकती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - अफ़सोस की बात है कि ममा की ज़्यादातर तस्वीरें उन्होंने किसी को दिया था जो पूना से आया हुआ था और जिसने वादा किया था उन्हें वापस करने का लेकिन नहीं किया। और बाद में वही तस्वीरें FTII में पायी गई जहाँ से मेरी बेटी ने एक "ख़रीदा" है।<br /></span><br />सुजॊय - ओ हो हो! बहुत ही अफ़सोस की बात है! अच्छा शिखा जी, अभी हमने आशालता जी निर्मित जिन फ़िल्मों की चर्चा की, वो सभी अनिल दा के संगीत से सजे हुए थे। लेकिन 'बाज़ूबंद' फ़िल्म में संगीत मोहम्मद शफ़ी का था। ऐसा क्यों?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - १९५४ में बदक़िस्मती से मेरे ममा और बाबा एक दूसरे से अलग हो गये और अपनी अपनी राह पर चल निकले। और उनके व्यक्तिगत जीवन की यह जुदाई ज़ाहिर है प्रोफ़ेशनल लाइफ़ पर भी अपना असर चला गई। मोहम्मद शफ़ी को, जो पहले नौशाद साहब के सहायक हुआ करते थे, 'बाज़ूबंद' के लिए अनुबंधित कर लिया गया। इस फ़िल्म में उन्होंने कुछ पारम्परिक ठुमरियों को फ़िल्मी रूप में पेश किया, और इनमें इस फ़िल्म का शीर्षक गीत "बाज़ूबंद खुल खुल जाये" भी शामिल था।<br /></span><br />सुजॊय - आगे बढ़ने से पहले हम 'बाज़ूबंद' के इस शीर्षक गीत को यहाँ पर सुनना चाहेंगे जिसे लोगों ने शायद एक अरसे से नहीं सुना होगा। <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - बाज़ूबंद खुल खुल जाये (बाज़ूबंद)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_31_1/OIG_SS_31_003.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॊय - और कोई फ़िल्म है जिसे आशालता जी ने प्रोड्युस किया था?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - उन्होंने 'मेहमान' फ़िल्म प्रोड्युस की थी जिसमें उन्होंने रामानंद सागर को बतौर निर्देशक अपना पहला ब्रेक दिया था। 'बाज़ूबंद' के बाद १९५५ में उन्होंने 'अंधेर नगरी चौपट राजा' फ़िल्म का भी निर्माण किया जिसमें गोप ने मुख्य भूमिका निभाई और चित्रा नायिका थीं। नायक का नाम याद नहीं आ रहा।<br /></span><br />सुजॊय - आशालता जी एक अभिनेत्री/निर्मात्री थीं और अनिल दा एक सुप्रसिद्ध संगीतकार। ऐसे वातावरण में क्या आप भाई बहनों में किसी को भी फ़िल्म लाइन में जाने की आकांक्षा नहीं हुई? आपने कभी किसी फ़िल्म में अभिनय या गायन नहीं किया?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा- मोतीलाल जी के अनुसार ६० के दशक की तीन नई नायिकाएँ होनी थी - अंजु महेन्द्रु, ज़हीदा, और शिखा बिस्वास। मुझे बहुत सारे बड़े प्रोडक्शन हाउसेस से ऒफ़र मिले जिनमें 'पड़ोसन' शामिल थी, और 'कश्मीर की कली' भी।'मेरे मेहबूब' के लिए मुझे याद है, एच.एस. रवैल मेरे दाँत कैप करवाना चाहते थे, कुछ दिनों के लिये 'ड्रमर' नामक फ़िल्म की शूटिंग भी की, जो 'वेस्ट-साइड स्टोरी' पर आधारित थी और जिसका निर्माण 'फ़िल्मालय' कर रहे थे देब मुखर्जी को लौंच करने के लिए। 'फिर वही आवाज़' की बात मैं कर चुकी हूँ, और मेरे जीवन की सब से बड़ी भूल कि मैंने 'धूप के साये में' नामक एक फ़िल्म के लिए "ना" कह दी जिसमें मेरे नायक होते संजीव कुमार। बाद में इस फ़िल्म के लिए हेमा मालिनी को ले लिया गया, लेकिन यह फ़िल्म नहीं बनीं या रिलीज़ नहीं हुई। फिर शम्मी कपूर जी एक फ़िल्म बनाना चाहते थे मुझे लेकर, जिसमें जय मुख्रजी नायक बनने वाले थे। इस तरह से और भी कई फ़िल्में थीं जो इस वक़्त मुझे याद नहीं आ रहे। लेकिन आख़िर में मैं कुछ व्यक्तिगत कारणों से फ़िल्म लाइन से बाहर निकल आई। वैसे मेरे दो भाई फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े, एक बतौर संगीतकार और दूसरा भाई जिसने पहली बार मुंबई में डिजिटल रेकॊर्डिंग् स्टुडिओ की स्थापना की।</span><br /><br />सुजॊय - आशालता जी को एक माँ के रूप में आपने कैसा पाया? उनसे जुड़ी कुछ बातें बताइए जिनकी यादें आज भी आपके दिल में ताज़ी हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - मेरी माँ एक सशक्त महिला थीं, एक फ़ेमिनिस्ट जो अपने समय से काफ़ी आगे बढ़ के थीं। और इनके साथ साथ एक बहुत ही ख़ूबसूरत औरत, न केवल बाहरी रूप से दिखने में, बल्कि मन की भी बहुत सुंदर थीं। उनके जैसा इमानदार इंसान मैंने आज तक नहीं पाया। उनका ऐटिट्युड, सीधी बात कहने की उनकी अदा, बहुत ही डाउन-टू-अर्थ और हिपोक्रिसी से कोसों दूर, ये सब उनकी कुछ विशेषताएँ थीं। मुझे उनकी कपड़ों और गहनों में हमेशा दिलचस्पी रही; वो एक राजकुमारी की तरह दिखतीं थीं और जब किसी कमरे में प्रवेश करतीं तो वहाँ की मध्यमणि बन जातीं। हम सब उनसे बहुत ज़्यादा प्रभावित थे। उनके गुस्से और भड़क उठने की बातें मशहूर थीं इंडस्ट्री में, लेकिन किसी भी ग़लती या अन्याय का वो हमेशा पूरा पूरा न्याय करतीं। व्यस्तता की वजह से वो हमें ज़्यादा समय नहीं दे पातीं, लेकिन हमारी ज़रूरतों का पूरा ख़याल रखतीं। उनकी बड़प्पन का एक उदाहरण देना चाहूँगी। एक बार उनका कोई पूर्व ड्राइवर उनके पास गाड़ी ख़रीदने के लिए लोन माँगने आया। लेकिन क्योंकि वह एक शनिवार की शाम थी और अगले दिन भी बैंक बंद होते, इसलिए उन्होंने अपने सोने के कंगन हाथों से निकाल लिए और उस ड्राइवर को दे दिया। लोग शायद उन्हें कुछ भी कहें, लेकिन जिस तरह से बाहर और घर, दोनों को अकेले उन्होंने सम्भाला है, चार चार बच्चों को अकेले बड़ा किया है, उनके लिए हमारा सर इज़्ज़त से झुक जाता है। यही नहीं, ५० वर्ष की उम्र में तैराकी सीखी और लगभग उसी समय खाना बनाने के बहुत से तरीकें खोज निकाली, नये नये रेसिपीज़ इजाद किये, और फिर मेरी बेटियों के लिए भी एक केयरिंग नानी के रूप में अपने आप को साबित किया। बस उनकी जो एक कमज़ोरी थी, वह था जुआ। लेकिन कोई भी इंसान पर्फ़ेक्ट तो नहीं होता न! हर इंसान में बहुत सारी कमज़ोरियाँ और ख़ामियाँ होती हैं, और उनमें बस कुछ ही थे। उनकी एक और कमज़ोरी यह थी कि वो बहुत जल्द किसी की बातों पर यकीन कर लेती थीं, और क्योंकि वो एक दुखभरी कहानी की नरम पात्र थीं, बहुत से लोग इस बात पर उनका फ़ायदा उठाने की कोशिश करते। उनकी जिस याद को मैं सब से ज़्यादा चेरिश करती हूँ, वह यह कि उन्होंने हम सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई और यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, यहाँ तक कि मेरे पिता के नाम और शोहरत से भी बहुत बहुत ज़्यादा। मुझे बहुत दुख होता था उन्हें अल्ज़ाइमर्स से तड़पते देख कर; उनकी ख़ूबसूरती और वैभव का वक़्त के साथ साथ गिरते जाना भी कम दुखदायी नहीं था। एक बार, जब उनकी आर्थिक अवस्था बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुकी थीं, वो अपना सर्वस्व हार चुकी थीं, मैं दिल्ली से उनके यहाँ आई; उन्होने अपने रुमाल की गांठ खोल कर एक जीर्ण २० रुपय का नोट निकालकर अपनी कामवाली बाई को दिया और उससे मछली ख़रीद लाने को कहा क्योंकि वो जानती थीं कि मुझे 'सी-फ़ूड' बहुत पसंद था। यकीन मानिए, उस वक़्त उनकी जो हालत थी, उसमें पैसा ही एक ऐसा चीज़ था जो वो सब से कम खर्च कर सकती थी। ये थी "आशालता"।<br /></span><br />सुजॊय - शिखा जी, जिस तरह से आपने आशालता जी का परिचय आज करवाया है, इन सब बातों को सुन कर मेरी आँखें भी नम हो गईं हैं और मुझे पूरा यकीन है कि जो छवि आज तक लोगों के दिल में आशालता जी की रही हैं, आज ये सब पढ़कर वो दुबारा अपने मन में मंथन करने पर मजबूर हो जाएँगे। और भी कुछ कहना चाहेंगी अपनी माँ के बारे में जो शायद आज तक आप कहना चाह रही होँगी लेकिन कभी मौका नहीं मिला?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - मैं जिस बात पर सब से ज़्यादा ज़ोर डालना चाहती हूँ, वह यह है कि मेरी जन्मदात्री माँ आशालता के बारे में लोगों को बहुत कम मालूमात है। और बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि वो अनिल बिस्वास की पत्नी थीं। लोग सोचते हैं कि मीना कपूर उनकी पत्नी हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उन्हीं की वजह से मेरे ममा और बाबा अलग हो गये। ये सब बातें अब पुरानी हो चुकी हैं और इन सब का मुझ पर और कोई प्रभाव नहीं होता। जिस बात को मैं सब से ज़्यादा ज़रूरी मानती हूँ, वह यह कि लोग आशालता के बारे में नहीं जानते, उनके उल्लेखनीय जीवन की कहानी नहीं जानते, उनके बलिदान और शक्ति के बारे में नहीं जानते। मैं एक काल्पनिक उपन्यास लिख रही हूँ उनके जीवन के संघर्ष को आधार बनाकर और आशा करती हूँ कि यह उपन्यास किसी दिन पब्लिश होगा और लोगों को असली कहानी का पता चलेगा।<br /></span><br />सुजॊय - ज़रूर शिखा जी, हम दिल से यह दुआ करते हैं कि आपको ईश्वर इस राह में आपका हमसफ़र बनें और आपको अपनी मंज़िल जल्द ही दिखाई दे।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - शुक्रिया! एक और बात जिस पर ध्यान देना आवश्यक है, वह यह कि मेरे बाबा ने अपना सब से मीठा काम तभी किया है जब वो मेरी ममा के साथ थे। १९५४ में मेरी ममा से अलग होने के बाद उनका करीयर ग्राफ़ भी ढलान पर उतरने लगा था।</span><br /><br />सुजॊय - वाक़ई सोचने वाली बात है। अच्छा शिखा जी, हमने आशालता जी के बारे में बहुत सारी बातें की। आपके दिल में उनकी क्या जगह है आपने हमें बताया, लेकिन अपने पिता और मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास जी के लिए आपके दिल में किस तरह की फ़ीलिंग्स है, उसके बारे में कुछ बताना चाहेंगी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - एक प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में मेरे दिल में अपने पिता के लिए बहुत ज़्यादा सम्मान है। मुझे बहुत गर्व होता है उनकी सांगीतिक खोजों के बारे में जानकर और जिस तरह से उन्होंने एक पायनियरिंग् म्युज़िक डिरेक्टर की भूमिका निभाई और अगली पीढ़ी के संगीतकारों के लिए रास्ता बनाया, यह वाक़ई गर्व करने लायक बात है। उनके कम्पोज़िशन्स बहुत ही मीठे और दिव्य हुआ करते और उनके गीतों को बार बार सुनने पर भी जैसे दिल नहीं भरता। हम दोनों में पिता-पुत्री का रिश्ता भी बहुत प्यारा था। उन्होंने मुझे जीवन के मूल्यों के बारे में सिखाया; ग़ज़ल, काव्य और साहित्य के प्रति जो मेरी रुचि है, वो सब उन्हीं की देन है। उनका अनुशासन, सब से जुनियर म्युज़िशियन या कोरस सिंगर के लिए उनका सम्मान, अड्डेबाज़ी में उनका लगाव, ये सब उनकी बातें मुझे प्रभावित करतीं। उनकी एक मित्र-मण्डली हुआ करती थी जो अगर रविवार को जमा होती और तरह तरह के विषयों पर चर्चा करते। एक बार ऐसी ही एक "राजकीय" गोष्ठी में जमा हुए थे पंडित नरेन्द्र शर्मा, फणी मजुमदार, के.ए. अब्बास, रामानंद सागर, प्रेम धवन, कोल कैविश, महेश कौल, सफ़्दार आह सितापुरी, पंडित चन्द्रशेखर और अभिनेता जयराज जैसे गण्य मान्य व्यक्ति। उन सब ने रामायण पर चर्चा की और शायद यहीं से रामानंद सागर जी के मन में उस महत्वाकांक्षी टीवी धारावाहिक को बनाने की प्रेरणा मिली होगी। और मेरा जो शब्दकोश है, यह भी उन्हीं के साथ स्क्रैबल खेलने की वजह से है। मेरे लिए उनकी जो फ़रमाइश होती, वह थी एक अच्छे हेड-मसाज की!!!</span><br /><br />सुजॊय - बहुत ख़ूब!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - मैं इन दिनों दिल्ली में एक म्युज़िक सोसायटी चलाती हूँ उनकी और सभी बड़े संगेतकारों की स्मृति में, जिसका नाम है 'संगीत स्मृति'। हम गुज़रे ज़माने के फ़िल्म संगीत पर स्टेज शोज़ करते हैं।</span> <br /><br />सुजॊय - वाह! बहुत अच्छा लगा शिखा जी, अब बारी है एक गीत सुनवाने की। हम एक ऐसा गीत आप से सुनवाना चाहेंगे अपने पाठकों व श्रोताओं को, जो आप अपनी माँ आशालता जी और अपने पिता अनिल दादा को एक साथ डेडिकेट कर सकें। बताइए कौन से गीत से आप इन दोनों को याद करना चाहेंगी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - ममा और बाबा को जोड़ने के लिए जो गीत मेरे दिमाग में आता है, वह है तलत महमूद साहब का गाया फ़िल्म 'दोराहा' का "मोहब्बत तर्क की मैंने"। यह ममा का फ़ेवरीट गीत था बाबा की कम्पोज़िशन में। और मेरी ममा ने ही मुझे पहली बार यही गीत सिखाया था।</span><br /><br />सुजॊय - आइए सुनते हैं... <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - मोहब्बत तर्क की मैंने (दोराहा)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_31/OIG_SS_31_04.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा - साथ ही 'गजरे' का "घर यहाँ बसाने आये थे" भी उन्हीं से मैंने सीखा था। इस गीत की धुन "सीने में सुलगते हैं अरमान" गीत की धुन से बहुत ज़्यादा मिलती-जुलती है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसका पता है। क्या इस गीत को भी आप सुनवा सकते हैं?</span><br /><br />सुजॊय - ज़रूर! बल्कि हम दोनों गीतों को सुनना व सुनवाना चाहेंगे एक के बाद एक... <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - सीने में सुलगते अरमान (तराना)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_31/OIG_SS_31_05.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - घर यहाँ बसाने आये (गजरे)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_31_1/oig_ss_31_006.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br />सुजॊय - शिखा जी, किन शब्दों में मैं आपका शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा। जिन लोगों को आशालता जी के बारे में मालूमात नहीं थी या ग़लत धारणा थी, मुझे पूरा विश्वास है कि इस साक्षात्कार के माध्यम से उनकी असली छवि को हमने यहाँ आज प्रस्तुत किया है आपके सहयोग से। मैं अपनी तरफ़ से, अपने तमाम पाठकों की तरफ़ से और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ, और भविष्य में फिर से आप से बातचीत करने की उम्मीद रखता हूँ, बहुत बहुत धन्यवाद!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शिखा- बहुत बहुत धन्यवाद! मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई अपनी माँ के बारे में बताते हुए।</span>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-92044425442652849742011-02-26T16:48:00.001+05:302011-02-26T16:56:18.375+05:30ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - पियानो स्पर्श से महके फ़िल्मी गीतों सुनने के बाद आज मिलिए उभरते हुए पियानो वादक मास्टर बिक्रम मित्र सेनमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शनिवार की विशेष प्रस्तुति के साथ हम फिर हाज़िर हैं। पिछले दिनों आपने इस स्तंभ में पियानो पर केन्द्रित लघु शृंखला 'पियानो साज़ पर फ़िल्मी परवाज़' का आनंद लिया, जिसमें हमनें आपको न केवल पियानों साज़ के प्रयोग वाले १० लाजवाब गीत सुनवाये, बल्कि इस साज़ से जुड़ी बहुत सारी बातें भी बताई। और साथ ही कुछ पियानो वादकों का भी ज़िक्र किया। युवा पियानो वादकों की अगर हम बात करें तो कोलकाता निवासी, १७ वर्षीय मास्टर बिक्रम मित्र का नाम इस साज़ में रुचि रखने वाले बहुत से लोगों ने सुना होगा। स्वयं पंडित हरिप्रसाद चौरसिआ और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन जैसे महारथियों से प्रोत्साहन पाने वाले बिक्रम मित्र नें अपना संगीत सफ़र ७ वर्ष की आयु में शुरु किया, और एक सीन्थेसाइज़र के ज़रिए सीखना शुरु किया प्रसिद्ध वेस्टर्ण क्लासिकल टीचर श्री दीपांकर मिश्र से। उन्हीं की निगरानी में बिक्रम ने प्राचीन कला केन्द्र चण्डीगढ़ से संगीत में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की। अब बिक्रम 'इंद्रधनु स्कूल ऒफ़ म्युज़िक' के छात्र हैं जहाँ पर उनके गुरु हैं प्रसिद्ध हारमोनियम एक्स्पर्ट पंडित ज्योति गोहो। अपने शुरुआती दिनों में बिक्रम मित्र 'अंजली ऒर्केस्ट्रा' नामक ग्रूप से जुड़े रहे जहाँ पर उन्होंने दो वर्ष तक वोकलिस्ट की भूमिका अदा की। उसके बाद उनका रुझान गायन से हट कर साज़ों की तरफ़ होने लगा। उन्हें दुर्गा पूजा के उपलक्ष्य पर 'शारदीय सम्मान' से सम्मानित किया जा चुका है। सीन्थेसाइज़र पर उन्होंने जिन बैण्ड्स के साथ काम किया, उनमें शामिल हैं 'Hellstones', 'Touchwood', 'Crossghats' आदि। यह हमारा सौभाग्य है कि हमें बिक्रम मित्र के संस्पर्श में आने का अवसर प्राप्त हुआ और उनका यह बड़प्पन है कि इस इंटरव्यु के लिए तुरंत राज़ी हो गए। तो आइए आपको मिलवाते हैं इस युवा प्रतिभाशाली पियानिस्ट से।<br /><br />*******************************************<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0QKqlYiONpEhUzh2f29HeA7DOJkB56u64SwAtuEAAP_xA-RbfMhphlv4-Rx4PXIZRnOmd4_RdMF_AEFyWhU6su3SS4hc4PBt1TUVeN1HV_LRyG6WjRDWAM6wtTGt6HpY4rQ17_5iDl00-/s1600/bikram+440.bmp"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 98px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0QKqlYiONpEhUzh2f29HeA7DOJkB56u64SwAtuEAAP_xA-RbfMhphlv4-Rx4PXIZRnOmd4_RdMF_AEFyWhU6su3SS4hc4PBt1TUVeN1HV_LRyG6WjRDWAM6wtTGt6HpY4rQ17_5iDl00-/s200/bikram+440.bmp" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5577881950021295874" /></a><br /><br />सुजॊय - बिक्रम, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' के इस मंच पर। यह वाक़ई संयोग की ही बात है कि इन दिनों हम इस मंच पर पियानो पर केन्द्रित एक शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें हम १० ऐसे फ़िल्मी गीत सुनवा रहे हैं, जिनमें पियानो मुख्य साज़ के तौर पर प्रयोग हुआ है। ऐसे में आप से मुलाक़ात हो जाना वाक़ई हैरान कर देने वाली बात है।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - बहुत बहुत शुक्रिया आपका!</span><br /><br />सुजॊय - बिक्रम, सब से पहले तो यह बताइए कि इतनी कम उम्र में पियानो जैसी साज़ में आपकी दिलचस्पी कैसे हुई?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - मुझे पियानो में दिलचस्पी सात वर्ष की आयु में होने लगी थी। एक दिन मेरे एक चाचा ने एक की-बोर्ड हमारे घर में ला कर रख दिया, एक 'यामाहा की-बोर्ड', और मैं उसे बजाने लग पड़ा था बिना कुछ सोचे समझे ही। बस कुछ छोटे छोटे पीसेस, लेकिन कहीं न कहीं मुझे मेलडी की समझ होने लगी थी। और वो पीसेस सुंदर सुनाई दे रहे थे, हालाँकि उनमें बहुत कुछ वाली बात नहीं थी। लेकिन यकायक मैंने ख़ुद को कहा कि मैं एक म्युज़िशियन ही बनना चाहता हूँ। और तब मैंने पियानो को अपना साज़ मान लिया, जो मेरे लिए बहुत बड़ी चीज़ बन गई, एक ऐसी चीज़ जो मुझे ख़ुशी देने लगी और जिसकी मैं पूजा करने लगा।<br /></span><br />सुजॊय - वाह! बहुत ख़ूब बिक्रम! अच्छा यह बताइए कि आपने पहली बार घर से बाहर पियानो कब और कहाँ पर बजाया था?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - मेरा पहला इन्स्ट्रुमेण्टल प्रोग्राम मेरे स्कूल में ही था, जिसमें मैंने एक रबीन्द्र संगीत बजाया था।</span><br /><br />सुजॊय - आपके अनुसार भारत में एक पियानिस्ट का भविष्य कैसा है? क्या एक भारतीय पियानिस्ट वही सम्मान और शोहरत हासिल कर सकता है जो एक पाश्चात्य पियानिस्ट को आमतौर पर मिलता है?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - इसमें कोई संदेह नहीं कि पियानो एक विदेशी साज़ है। और ख़ुद एक पियानिस्ट होने के कारण मैं यही कह सकता हूँ कि जब आप किसी पाश्चात्य साज़ पर भारतीय संगीत प्रस्तुत करते हैं तो आपका परिचय, आपकी आइडेण्टिटी बहुत ज़रूरी हो जाती है, क्योंकि आप दुनिया के सामने भारतीय शास्त्रीय संगीत पेश कर रहे होते हैं। पियानो एक बहुत ही सुरीला और महत्वपूर्ण साज़ है और मैं समझता हूँ कि भारतीय संगीत का पियानो की तरफ़ काफ़ी हद तक झुकाव है। यह आपकी सोच और सृजनात्मक्ता पर निर्भर करती है कि आप इस बात को किस तरह से समझें। और यह पूरी तरह से कलाकार पर डिपेण्ड करता है कि पियानो को किस तरह से वो अपना प्रोफ़ेशन बनाए और अपने आप को साबित कर दिखायें। लेकिन जो भी है भारत में पियानिस्ट का भविष्य उज्वल है और इसकी वजह है भारतीय शास्त्रीय संगीत।</span><br /><br />सुजॊय - क्या बात है! बहुत ही अच्छा लगा आपके ऐसे विचार जान कर कि आप एक विदेशी साज़ के महारथी होते हुए भी भारतीय शास्त्रीय संगीत को सब से उपर रखते हैं। अच्छा, आपके क्या क्या प्लैन्स हैं भविष्य के लिए?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - मेरे प्लैन्स? मैं चाहता हूँ कि मैं देशवासियों को यह समझाऊँ कि अपनी धरती का संगीत कितना महान है, और यह बात मैं मेरी पियानो के माध्यम से समझाना चाहता हूँ। एक युवा होते हुए जब मैं अपनी चारों तरफ़ युवाओं को देखता हूँ रॊक, पॊप और रैप जैसी शैलियों में डूबे रहते हुए, या पूरी तरह से पाश्चात्य अंदाज़ में रंगते हुए, तब मुझे कहीं न कहीं बहुत चोट पहुँचती है। मैं सोचने लगता हूँ कि हमारे संगीत में कहाँ ख़ामियाँ रह गईं जो आज की पीढ़ी इससे दूर होती जा रही है! इसलिए मेरा यह मिशन होगा कि मैं दुनिया को बताऊँ कि भारतीय संगीत क्या है?</span><br /><br />सुजॊय - वाह! बहुत ख़ूब!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - चाहे ग़ज़ल हो, ख़याल हो, या कोई साधारण हिंदी फ़िल्मी गीत के ज़रिये ही क्यों न हो!</span><br /><br />सुजॊय - जी बिल्कुल!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - मैं फ़िल्में भी बनाना चाहता हूँ जिनमें मैं अपनी संगीत को भी उस तरह से पेश करना चाहता हूँ जैसा मुझे पसंद है। और फिर मैं एक इन्स्ट्रुमेण्टल बैण्ड भी बनाना चाहता हूँ क्योंकि आख़िर में मैं यही चाहूँगा कि जब मैं स्टेज पर से उतरूँ तो सभी मुस्कुरायें।</span><br /><br />सुजॊय - बहुत ही ख़ूबसूरत विचार हैं आपके बिक्रम, बहुत ही अच्छा लगा, और हमें पूरी उम्मीद है कि आज की युवा पीढ़ी के जितने भी संगीत में रुचि रखने वाले लोग आपकी इन बातों को इस वक़्त पढ़ रहे होंगे, वो बहुत ही मुतासिर हो रहे होंगे। अच्छा बिक्रम, जैसा कि हमने आपको बताया था कि पियानो पर आधारित फ़िल्मी गीतों से सजी लघु शृंखला 'पियानो साज़ पर फ़िल्मी परवाज़' हमने पिछले दिनों प्रस्तुत किया था, जिसमें हमनें ३० के दशक से लेकर ९० के दशक तक के १० हिट गीत सुनवाये गये थे। हम आप से यह पूछना चाहेंगे कि पियानो पर आधारित किस फ़िल्मी गीत को आप सब से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं पियानो के इस्तमाल की दृष्टि से?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - ऐसा कोई एक गीत तो नहीं है जिसका मैं नाम ले सकूँ, मुझे अपने पियानो पर पुराने गानें बजाने में बहुत अच्छा लगता है। मुझे किशोर कुमार बहुत पसंद है। मुझे आर.डी. बर्मन बहुत पसंद है।</span><br /><br />सुजॊय - किशोर कुमार और आर.डी. बर्मन की जोड़ी का एक बहुत ही ख़ूबसूरत पियानो वाला गीत "जीवन के दिन छोटे सही हम भी बड़े दिलवाले" उस शृंखला में हमनें शामिल किया था।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - मोहम्मद रफ़ी साहब मेरे प्रेरणास्रोत रहे हैं। मैं इन सब के गानें बजाता हूँ। और आपको यह जानकर शायद हैरानी हो कि मुझे हर तरह के गानें पियानो पर बजाने में अच्छा लगता है, यहाँ तक कि मैं 'दबंग' के गानें भी बजा चुका हूँ। और सॊफ़्ट रोमांटिक नंबर्स भी।<br /></span><br />सुजॊय - आप ने रफ़ी साहब का नाम लिया, तो आइए चलते चलते रफ़ी साहब की आवाज़ में फ़िल्म 'बहारें फिर भी आयेंगी' से "आप की हसीन रुख़ पे आज नया नूर है", यह गीत सुनते हैं, जिसमें पियानो का लाजवाब इस्तेमाल हुआ है। वैसे तो संगीत ओ.पी. नय्यर साहब का है, लेकिन इस गीत में पियानो बजाया है रॊबर्ट कोरीया नें जो उस ज़माने के एक जाने माने पियानिस्ट थे जिन्होंने अनगिनत फ़िल्मी गीतों के लिए पियानो बजाये, ख़ास कर संगीतकार शंकर-जयकिशन के लिए।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - ज़रूर सुनवाइए!</span><br /><br />सुजॊय - इस गीत को लिखा है गीतकार अंजान नें, आइए सुनते हैं... <br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - आप की हसीन रुख़ पे आज नया नूर है (बहारें फिर भी आयेंगी)</span> <br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_301/OIG_SS_30.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br />सुजॊय - बिक्रम, बहुत अच्छा लगा आप से बातें कर के, मैं अपनी तरफ़ से, हमारी तमाम पाठकों की तरफ़ से, और पूरे 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से आपको ढेरों शुभकामनाएँ देता हूँ, कि आप इतनी कम आयु में जिस महान कार्य का सपना देख रहे हैं, यानी कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को पियानो के ज़रिये पूरी दुनिया के सामने प्रस्तुत करना, इसमें ईश्वर आपको कामयाबी दें, आप एक महान पियानिस्ट बन कर उभरें। आपको एक उज्वल भविष्य के लिए हम सब की तरफ़ से बहुत सारी शुभकामनाएँ।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बिक्रम - सुजॊय, आपका बहुत बहुत शुक्रिया इस ख़ूबसूरत मुलाक़ात के लिए, मुझे भी बहुत अच्छा लगा। आपके मैगज़ीन पर इसे पढ़कर भी मुझे उतना ही आनंद आयेगा।<br /></span><br />सुजॊय - शुक्रिया बहुत बहुत!<br /><br />***********************************************<br /><br />तो दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आज हमनें आपका परिचय एक युवा-प्रतिभा से करवाया, एक उभरते पियानिस्ट मास्टर बिक्रम मित्र से। आशा है आपको अच्छा लगा होगा। अगले हफ़्ते 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' के साथ वापस आयेंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिए, और हाँ, कल सुबह 'सुर-संगम' में पधारना न भूलिएगा, क्योंकि कल से यह स्तंभ पेश होगा हमारे एक नये साथी की तरफ़ से। आज बस इतना ही, नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-78727906971573187992011-02-12T15:02:00.001+05:302011-02-12T15:08:39.625+05:30ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - एक खास बातचीत में हिंदुस्तान की पहली पार्श्व गायिका पारुल घोष को याद किया उनकी परपोती श्रुति मुर्देश्वर कार्तिक नेनमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की एक और विशेषांक के साथ हम उपस्थित हैं। जैसा कि आप जानते हैं भारत में बोलती फ़िल्मों की शुरुआत सन् १९३१ में हुई थी 'आलम आरा' के साथ। उस वक़्त अभिनेता अपनी ही आवाज़ में गीत भी गाते थे; यानी कि उस वक़्त आज की तरह पार्श्वगायन या प्लेबैक की तकनीक विकसित नहीं हुई थी। पार्श्वगायन की नीव रखी गई साल १९३५ में जब संगीतकार रायचंद बोराल ने कलकत्ते के न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'धूप छाँव' में पहली बार "गायकों" से गानें गवाए। इस फ़िल्म में के. सी. डे के गाये गीत "तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर जाग ज़रा" को पहला प्लेबैक्ड गीत माना जाता है। गायिकाओं की बात करें तो इसी फ़िल्म में पारुल घोष, सुप्रभा सरकार और साथियों ने भी एक गीत गाया था, और इस तरह से ये दोनों गायिकाओं का नाम पहली बार दर्ज हुआ हिंदी सिनेमा की पार्श्वगायिकाओं की फ़ेहरिस्त में। यह बात आज से ठीक ७५ वर्ष पहले की है। और यह मेरा सौभाग्य ही कहूँगा कि हाल ही में मेरा परिचय हुआ पारुल जी की परपोती श्रुति मुर्देश्वर जी से, और एक अजीब सा रोमांच हो आया यह सोचकर कि श्रुति जी से पारुल जी के बारे में कुछ बातें जाना जा सकता है। मेरे एक बार निवेदन से ही श्रुति जी ने इंटरव्यु के लिए हामी भर दी, और उनसे की हुई बातचीत से आज के इस अंक को हम सजा रहे हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का यह साप्ताहिक विशेषांक समर्पित है हिंदी सिनेमा की प्रथम पार्श्वगायिका स्वर्गीय पारुल घोष जी को। <br /> <br />चित्र: पारुल घोष (सौजन्य: श्रुति मुर्देश्वर कार्तिक) <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicS-fptmR9M5D7oz_nJpGTjSRgpUUp07yXGgjli3z0GuzIQvCAm5rfKH0nkR4fJxkSAVJRUzWRtww_OQ4zJtvkcNjN2PeCqVYYBIO6xLcOnzSJa8BOLgQyeEVOX9EaO8WBd2ilhBleEmTR/s1600/parul-ghosh.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 163px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicS-fptmR9M5D7oz_nJpGTjSRgpUUp07yXGgjli3z0GuzIQvCAm5rfKH0nkR4fJxkSAVJRUzWRtww_OQ4zJtvkcNjN2PeCqVYYBIO6xLcOnzSJa8BOLgQyeEVOX9EaO8WBd2ilhBleEmTR/s200/parul-ghosh.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5572304799388221650" /></a><br /><br />सुजॊय - श्रुति जी, हिंद-युग्म में आपका बहुत बहुत स्वागत है। हमें कितनी ख़ुशी हो रही है आपको हमारे पाठकों से मिलवा कर कि क्या बताएँ! यह वाक़ई हमारे लिए गर्व और सौभाग्य की बात है हिंदी सिनेमा की प्रथम पार्श्वगायिका स्व: पारुल जी की परपोती से हम उनके बारे में जानने जा रहे हैं। यह बताइए कि आपको कैसा लगता है पारुल जी की बातें करते हुए?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - सुजॊय जी, आपको भी बहुत बहुत धन्यवाद। सही मायने में मैं आपका आभारी हूँ क्योंकि यह मेरा पहला इंटरव्यु है जिसमें मैं अपनी दीदा (बंगला में नानी को दीदा कहते हैं) के बारे में बातें करूँगी। मुझे बहुत बहुत गर्व महसूस होता है यह सोचकर कि मैं उनकी परपोती हूँ। मैं हमेशा सोचती हूँ कि काश मैं उनसे मिल पाती। मेरे पिता पंडित आनंद मुर्देश्वर और दादा पंडित देवेन्द्र मुर्देश्वर ने दीदा के बारे में बहुत कुछ बताया है। और मेरे पिता जी ने तो मुझे उनकी गाई हुई कई गीतों को सिखाया भी है, जो दीदा ने उन्हें उनकी बचपन में सिखाया था। मैं उन गीतों के बारे में बहुत जज़्बाती हूँ और वो सब गीत मेरे दिल के बहुत बहुत करीब हैं।</span><br /><br />सुजॊय - श्रुति जी, आप पारुल जी की परपोती हैं, यानी कि ग्रेट-ग्रैण्ड डॊटर। इस रिश्ते को ज़रा खुलकर बताएँगी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - मैं पारुल दीदा की परपोती हूँ। वो मेरे पिता जी की माँ सुधा मुर्देश्वर जी की माँ हैं।</span><br /><br />सुजॊय - अच्छा अच्छा, यानी कि पारुल जी की बेटी हैं सुधा जी, जिनका देवेन्द्र जी से विवाह हुआ। और आप सुधा जी और देवेन्द्र जी के बेटे आनंद जी की पुत्री हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - जी हाँ।</span><br /><br />सुजॊय - जैसा कि आपने बताया कि आपने पारुल जी के बारे में अपने दादा जी और पिता जी से बहुत कुछ सुना है, जाना है। तो हमें बताइए कि पारुल जी की किस तरह की छवि आपके मन में उभरती है?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - मुझे अफ़सोस है कि मैं दीदा को नहीं मिल सकी। काश कि मैं कुछ वर्ष पूर्व जन्म लेती! उनकी लम्बी बीमारी के बाद १३ अगस्त १९७७ को बम्बई में निधन हो गया। जैसा कि मैंने बताया कि दादाजी, पिताजी और तमाम रिश्तेदारों से मैंने पारुल दीदा के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। हमेशा से ही उनकी एक बहुत ही सुंदर तस्वीर मेरे दिल में रही है। एक सुंदर बंगाली चेहरा और एक दिव्य आवाज़ की मालकिन। कुछ किस्से थे जैसे कि दीदा खाना बनाते हुए अपनी बेटी सुधा घोष (मेरी दादी) के साथ मेरे पिताजी को गाना सिखाते थे। जब मैं छोटी थी, तब मेरे पिताजी हमेशा कहते थे कि मेरी आवाज़ कुछ कुछ उन्हीं के जैसी है, और मैं यह बात सुन कर ख़ुश हो जाया करती थी। लेकिन अब मैं मानती हूँ कि दीदा के साथ मेरा कोई मुकाबला ही नहीं। वो स्वयं भगवान थीं।</span><br /><br />सुजॊय - वाह! आपने बताया कि आपकी आवाज़ पारुल जी की तरह थी, ऐसा आपके पिताजी कहा करते थे। तो क्या आप ख़ुद भी गाती हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - जी हाँ, मैं गाती हूँ। मैंने अपने पिताजी से सीखा है और बाद में तुलिका घोष जी से भी संगीत सीखा, जो सुप्रसिद्ध तबलानवाज़ पंडित निखिल घोष जी की पुत्री हैं। वर्तमान में मैं मीडिया से जुड़ी हुई हूँ लेकिन गायन मेरा पैशन है।</span><br /><br />सुजॊय - तो क्या आप अपनी गायन को अपना करीयर बनाने की भी सोच रही हैं?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - नहीं, ऐसा तो कोई विचार नहीं है, लेकिन अगर कोई अच्छा मौका मिला कि जिससे मैं अपने परिवार के संगीत परम्परा को आगे बढ़ा सकूँ, अगली पीढ़ी तक लेकर जा सकूँ, तो मैं ज़रूर इसे अपना प्रोफ़ेशन बना लूँगी।</span><br /><br />सुजॊय - बहुत ख़ूब, हम भी आपको इसकी शुभकामनाएँ देते हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - धन्यवाद!</span><br /><br />सुजॊय - अच्छा श्रुति जी, वापस आते हैं पारुल जी पर, उनके गीतों की अगर हम बात करें तो १९४३ की फ़िल्म 'क़िस्मत' में उनका गाया "पपीहा रे, मेरे पिया से कहियो जाये" शायद उनका सब से लोकप्रिय गीत रहा है। क्या आप इस गीत को अक्सर गाती हैं, या फिर अपने दोस्तों से, रिश्तेदारों से इस गीत को गाने की फ़रमाइश भी आती होंगी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - इस गीत के साथ तो न जाने कितनी स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। जब मैं बहुत छोटी थी, तब सब से पहला पहला गीत जो मैंने सीखा था, वह यही गीत था। और जब भी कोई मुझे गीत गाने को कहते, मैं यही गीत गाती रहती। और आज तक यह मेरा पसंदीदा गीत रहा है :-) आप ने ठीक ही अनुमान लगाया कि आज तक मुझे इस गीत की फ़रमाइशें आती हैं, अपने दोस्तों से, परिवार वालों से, और मैं ख़ुशी ख़ुशी इसे गाती भी हूँ। अनिल दादु का बनाया हुआ एक बेहद ख़ूबसूरत कम्पोज़िशन है।<br /></span><br />सुजॊय - श्रुति जी, आगे बढ़ने से पहले, आइए इस गीत का यहाँ पर आनंद लिया जाये।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - ज़रूर!</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाये (किस्मत, १९४३)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_29/OIG_SS_29_01.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object> <br /><br />सुजॊय - वाह! क्या मधुर आवाज़ और क्या गाया था उन्होंने! भई वाह! और पारुल जी किस स्तर की गायिका थीं, इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लता मंगेशकर जी ने भी अपनी चर्चित 'श्रद्धाजन्ली' ऐल्बम में पारुल जी को याद करते हुए "पपीहा रे" गाया था।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - आपने 'श्रद्धांजली' ऐल्बम की बात छेड़ी, तो मैं आपको बताना चाहूँगी कि 'श्रद्धांजली' ऐल्बम मेरे दिल के बहुत करीब रहा है, क्योंकि यह मुझे मेरे पिताजी ने गिफ़्ट किया था जब मैं स्कूल में थी। और मैं आँखें बंद करके भी इस ऐल्बम में शामिल सभी गीतों को गा सकती हूँ।</span><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPra0df9CypoanbzCeGKGDn2VGIGL0OFL3sgSYqvFJwHfIl3ZN6WCQfkEDv3gQYm4XTGk66wuKHIvFOTKOM74FrYLVccQitkmPCZ7SGirDyjsMk3rjshcQMYj5x56aEf8ZTEQq_krcZOWD/s1600/3.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 194px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPra0df9CypoanbzCeGKGDn2VGIGL0OFL3sgSYqvFJwHfIl3ZN6WCQfkEDv3gQYm4XTGk66wuKHIvFOTKOM74FrYLVccQitkmPCZ7SGirDyjsMk3rjshcQMYj5x56aEf8ZTEQq_krcZOWD/s200/3.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5572309371670358450" /></a><br />सुजॊय - तब तो आपको पता ही होगा कि लता जी ने पारुल जी के बारे में क्या बताया था। लेकिन हम अपने पाठकों के लिए यहाँ बताना चाहेंगे कि लता जी ने कुछ इस तरह से पारुल जी को संबोधित किया था - "पारुल घोष, जानेमाने संगीतकार अनिल बिस्वास जी की बहन, और प्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित पन्नालाल घोष की पत्नी थीं। फ़िल्म गायिका होने के बावजूद वो घर संसार सम्भालने वाली गृहणी भी थीं। उनके जाने के बाद महसूस हुआ कि वक़्त की गर्दिश ने हमसे कैसे कैसे फ़नकार छीन लिए।" तो आइए लता जी की आवाज़ में भी इसी गीत का आनंद हम उठाते हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाये ('श्रद्धांजली', लता मंगेशकर)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OigSsExtra/PapihaRe-lataMangeshkarshradhanjali.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object> <br /> <br />सुजॊय - अच्छा श्रुति जी, अनिल दादु का आपने ज़िक्र किया, हमारे कुछ पाठकों को यह मालूम भी होगा, जिन्हें नहीं है, उनके लिए हम यह बता दें कि अनिल बिस्वास जी पारुल जी के बड़े भाई साहब थे। अनिल दा के बचपन के गहरे दोस्त हुआ करते थे पन्ना दा। जी हाँ, वही पन्ना बाबू, जो आगे चलकर सुप्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित पन्नालाल घोष के नाम से जाने गये। अनिल दा ने पन्ना बाबू के साथ अपनी इस दोस्ती को और भी गहरा बनाते हुए अपनी बहन पारुल का हाथ पन्ना बाबू के हाथों सौंप दिया। अच्छा श्रुति जी, और कौन कौन से गानें हैं पारुल जी के जो आपको बेहद पसंद है?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - मुझे पुराने गानें पसंद है, ज़्यादातर ग़ज़लें सुनती हूँ, और दीदा के गानें भी बहुत पसंद है। "पपीहा रे" तो पसंद है ही, कुछ और भी हैं जो मेरे पिताजी ने मुझे सिखाया था जो उन्हें पारुल दीदा ने सिखाया था, जिनमें एक है "मैं उनकी बन जाऊँ रे"।</span><br /><br />सुजॊय - तो क्यों ना इस गीत को भी यहाँ पर सुनें और अपने पाठकों को सुनवाये?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - ज़रूर!</span><br /><br />सुजॊय - यह गीत है १९४३ की ही फ़िल्म 'हमारी बात' का, जिसमें अनिल दा का ही संगीत था।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - मैं उनकी बन जाऊँ रे (हमारी बात, १९४३</span>)<br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/OIG_SS_29/OIG_SS_29_03.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object> <br /><br />सुजॊय - श्रुति जी, मैंने एक वेबसाइट पर पाया कि पारुल जी ने कुल ७५ हिंदी फ़िल्मी गीत गाया है। आपका क्या ख़याल है इस बारे में?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - सुजॊय जी, जैसा कि मैंने सुना है कि उस ज़माने में दीदा के गाये गीतों के बहुत से रेकॊर्ड्स ऐसे थे जिनमें उनकी नाम के बजाय उन अभिनेत्रियों के किरदारों के नाम मिलते थे जिन पर वो गीत फ़िल्माये गये थे। इसलिए सटीक सटीक उनके गाये गीतों की संख्या बता पाना मुश्किल है।</span><br /><br />सुजॊय - क्या आप उनके हिंदी फ़िल्म संगीत करीयर के बारे में थोड़ा विस्तार से बता सकती हैं? 'धूप छाँव' फ़िल्म का वह कौन सा गीत था जिसने पारुल जी को देश की पहली पार्श्वगायिका बना दी?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - सुप्रभा सरकार के साथ गाया हुआ वह गीत था "मैं ख़ुश होना चाहूँ, ख़ुश हो न सकूँ"। उनका गाया हुआ अगला गीत भी एक फ़ीमेल डुएट था १९४१ की फ़िल्म 'कंचन' का, जिसके बोल थे "मोरे मन की नगरिया बसाई रे", जिसे पारुल दीदा ने लीला चिटनिस जी के साथ मिलकर गाया था। फिर १९४२ की फ़िल्म 'बसंत' में उन्होंने बेबी मुम्ताज़, जो बाद में मधुबाला के नाम से मशहूर हुईं, उनके लिए गीत गाया था "एक छोटी सी दुनिया रे, मेरे छोटे से मन में"। १९४२-४३ में 'बसंत', 'क़िस्मत', 'हमारी बात', 'सवाल' जैसी फ़िल्मों में अनिल दादु और पन्ना दादु ने उनसे बहुत सारे गानें गवाए।</span><br /><br />सुजॊय - फिर उसी दौरान नौशाद साहब ने भी तो उनसे गाना गवाया था फ़िल्म 'नमस्ते' में?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - जी हाँ, एक गीत था "आये भी वो गये भी वो, ख़त्म फ़साना हो गया", और इसी फ़िल्म में जी. एम. दुर्रानी के साथ मिलकर उन्होंने एक हास्य युगल गीत भी गाया था "दिल ना लगे नेक टाइ वाले बाबू"। फिर इसी साल १९४३ में संगीतकार रफ़ीक़ ग़ज़नवी ने भी उनसे गवाये फ़िल्म 'नजमा' में। इस फ़िल्म में फिर एक बार उन्हें फ़ीमेल डुएट्स गाने का मौका मिला। एक डुएट था मुमताज़ के साथ ("भला क्यों ओ हो मगर क्यों") और एक था सितारा जी के साथ ("फ़सल-ए-बहार गाए जा, दीदा-ए-ग़म रुलाये जा")।</span><br /><br />सुजॊय - उनकी उपलब्ध फ़िल्मोग्राफ़ी पर नज़र डालें तो पाते हैं कि सब से ज़्यादा और सब से लोकप्रिय गीत उन्होंने १९४२ से १९४७ के बीच गाया है। फिर धीरे धीरे उनके गानें कम होते गये और १९५१ की फ़िल्म 'आंदोलन' में उन्होंने अंतिम बार के लिए गाया था। आपको क्या लगता है कि उन्होंने गाना क्यों छोड़ दिया होगा?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - मैं समझती हूँ कि हर कलाकार का अपना दौर होता है, अपना समय होता है जब वो बुलंदी पर होता है। मुझे बहुत ज़्यादा गर्व और ख़ुशी है कि मैं उनकी परपोती हूँ।</span><br /><br />सुजॊय - श्रुति जी, बहुत अच्छा लगा आपसे बातें करके, पारुल जी के बारे में आप ने जो बातें बताईं, हमें पूरी उम्मीद है कि पुराने फ़िल्म संगीत के रसिक इसका भरपूर आनंद लिए होंगे, मैं अपनी तरफ़ से, हमारे पाठकों की तरफ़ से, और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से आपको बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ, फिर किसी दिन आप से अनिल दा और पन्ना बाबू के बारे में बातचीत करेंगे, नमस्कार!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">श्रुति - शुक्रिया तो मुझे अदा करनी चाहिए जो आपने मुझे यह मौका दिया अपनी पारिवारिक संगीत परम्परा के बारे में कहने का। बहुत बहुत शुक्रिया, नमस्कार!<br /></span><br />*********************************************<br /><br />तो दोस्तों, आज बस इतना ही, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में भी जल्द ही आप पारुल जी का गाया हुआ एक और गीत सुनेंगे, ऐसा हम आपको विश्वास दिलाते हैं। आज की यह प्रस्तुति आपको कैसी लगी, ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में लिखकर। आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के बारे में अपनी राय और सुझाव हमें ईमेल के द्वारा भी व्यक्त कर सकते हैं oig@hindyugm.com के पते पर। अब इजाज़त दीजिए, कल सुबह 'सुर संगम' के साथ हम फिर उपस्थित होंगे, बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-26311157195053145862011-01-08T17:10:00.003+05:302011-01-08T17:13:56.111+05:30ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने....मिलिए महेंद्र कपूर के बेटे रोहन कपूर से सुजॉय से साथ<span style="font-weight:bold;">महेन्द्र कपूर के बेटे रोहन कपूर से सुजॊय की बातचीत</span><br /><br />'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और स्वागत है इस साप्ताहिक विशेषांक में। युं तो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' रविवार से लेकर गुरुवार तक प्रस्तुत होता रहता है, लेकिन शनिवार के इस ख़ास पेशकश में कुछ अलग हट के हम करने की कोशिश करते हैं। इस राह में और हमारे इस प्रयास में आप पाठकों का भी हमें भरपूर सहयोग मिलता रहता है और हम भी अपनी तरफ़ से कोशिश में लगे रहते हैं कि कलाकारों से बातचीत कर उसे आप तक पहूँचाएँ। दोस्तों, आज ८ जनवरी है, और कल, यानी ९ जनवरी को जयंती है फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर जी का। उनकी याद में और उन्हें श्रद्धांजली स्वरूप हमने आमंत्रित किया उन्हीं के सुपुत्र रोहन कपूर को अपने पिता के बारे में हमें बताने के लिए। ज़रिया वही था, जी हाँ, ईमेल। तो लीजिए ईमेल के बहाने आज अपने पिता महेन्द्र कपूर की यादों से रोशन हो रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह महफ़िल।<br /><br />*******************************************<br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय</span> - रोहन जी, जब हर साल २६ जनवरी और १५ अगस्त के दिन पूरा राष्ट्र "मेरे देश की धरती" और "है प्रीत जहाँ की रीत सदा" जैसे गीतों पर डोलती है, और आप ख़ुद भी इन गीतों को इन राष्ट्रीय पर्वों पर अपने आसपास के हर जगह से सुनते हैं, तो किस तरह के भाव, कैसे विचार आपके मन में उत्पन्न होते हैं? <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi5_LFcK4Fwi9VCb8UbXpmv32zgHhqmJvmYCvwOE-4DUIFJupfb09-ItGuB7g1AwJ1_FfxL5Wv8NQl_mXPCoLvCFwDepRl8LtX8DZV_tqrL9avlbeb9yv_BMufXtQl3vVo1xDNw54trpCSC/s1600/rohan_kapoor.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 169px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi5_LFcK4Fwi9VCb8UbXpmv32zgHhqmJvmYCvwOE-4DUIFJupfb09-ItGuB7g1AwJ1_FfxL5Wv8NQl_mXPCoLvCFwDepRl8LtX8DZV_tqrL9avlbeb9yv_BMufXtQl3vVo1xDNw54trpCSC/s200/rohan_kapoor.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5559778752729998466" /></a><br />रोहन - <span style="font-weight:bold;">उनकी आवाज़ को सुनना तो हमेशा ही एक थ्रिलिंग् एक्स्पीरिएन्स रहता है, लेकिन ये दो दिन मेरे लिये बचपन से ही बहुत ख़ास दिन रहे हैं। उनकी जोशिली और बुलंद आवाज़ उनकी मात्रभूमि के लिये उनके दिल में अगाध प्रेम और देशभक्ति की भावनाओं को उजागर करते हैं। और उनकी इसी खासियत ने उन्हें 'वॊयस ऒफ़ इण्डिया' का ख़िताब दिलवाया था। वो एक सच्चे देशभक्त थे और मुझे नहीं लगता कि उनमें जितनी देशभक्ति की भावना थी, वो किसी और लीडर में होगी। <br /><span style="font-style:italic;"></span></span><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय</span> - महेन्द्र कपूर जी एक बहुत ही मृदु भाषी और मितभाषी व्यक्ति थे, बिल्कुल अपने गुरु रफ़ी साहब की तरह। आप ने एक पिता के रूप में उन्हें कैसा पाया? किस तरह के सम्बन्ध थे आप दोनों में? मित्र जैसी या थोड़ी औपचारिक्ता भी थी उस रिश्ते में?<br /><br />रोहन - <span style="font-weight:bold;">'He was a human par excellence'। अगर मैं यह कहूँ कि वो मेरे सब से निकट के दोस्त थे तो ग़लत ना होगा। I was more a friend to him than anybody on planet earth। हम दुनिया भर में साथ साथ शोज़ करने जाया करते थे और मेरे ख़याल से हमने एक साथ हज़ारों की संख्या में शोज़ किये होंगे। वो बहुत ही मिलनसार और इमानदार इंसान थे, जिनकी झलक उनके सभी रिश्तों में साफ़ मिलती थी।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय</span> - क्या कभी उन्होंने आपके बचपन में आपको डाँटा हो या मारा हो जैसे बच्चों को उनके माता-पिता कभी कभार मार भी देते हैं? या कोई ऐसी घटना कि जब उन्होंने आपकी बहुत सराहना की हो?<br /><br />रोहन - <span style="font-weight:bold;">सराहना भी बहुत की और उतनी ही संख्या है उनकी नाराज़गी की। वो ख़ुद भी बहुत अनुशासित थे और हम सब से भी हमारी आदतों और पढ़ाई में उसी अनुशासन की उम्मीद रखते थे। लेकिन इसके बाहर वो बहुत ही मज़ाकिया और हँसमुख और मिलनसार इंसान थे। वो कभी शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते थे डाँटने के लिए, उनका चेहरा ही काफ़ी होता था मुझे और मेरी बहनों को सतर्क करने के लिए।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय</span> - जब आप छोटे थे, या जब बड़े हो रहे थे, क्या वो चाहते थे कि आप भी उनकी तरह एक गायक बनें?<br /><br />रोहन - <span style="font-weight:bold;">Probably in my sub conscience …yes, but never dared to tell him that I wanted to। बल्कि जब मैं नौ साल का था, तब उन्होंने ही मुझे गाने के लिए प्रोत्साहित किया और मैं उनके साथ साउथ अफ़्रीका में स्टेज पर गाने लगा।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय</span> - आप अपने पिता पर गर्व करते होंगे, और गर्व होनी ही चाहिए। लेकिन क्या आपको वाकई लगता है कि इस इण्ड्रस्ट्री ने उन्हें वो सब कुछ दिया है जिसके वो सही मायनो में हकदार थे?<br /><br />रोहन - <span style="font-weight:bold;">वो हमेशा यही मानते थे कि किसी को जीवन में जो कुछ भी मिलना है, वो सब उपरवाला निर्धारित करता है, और हम कोई नहीं होते उसकी इच्छा को चैलेंज करने वाले। इसलिए यह सवाल ही अर्थहीन है कि वो क्या चाहते थे या उन्हे क्या मिला या नहीं मिला।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय </span>- महेन्द्र कपूर जी से जुड़ी कोई ख़ास घटना याद आती है आपको जो आप हमारे पाठकों के साथ बाँटना चाहें?<br /><br />रोहन - <span style="font-weight:bold;">मैं हमेशा उनके साथ उनकी रेकॊर्डिंग्स पर जाया करता था बचपन से ही। ऐसी ही एक रेकॊर्डिंग् की बात बताता हूँ। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए रेकॊर्डिंग् थी, फ़िल्म 'क्रान्ति' का गीत "दुर्गा है मेरी माँ, अम्बे है मेरी माँ"। महबूब स्टुडिओज़ में रेकॊर्डिंग् हो रही थी। यह एक मुश्किल गाना था जिसे बहुत ऊँचे पट्टे पर गाना था और ऒर्केस्ट्रा भी काफ़ी भारी भरकम था। जब रेकॊर्डिंग् OK हो गई, और वो बाहर निकले तो लक्ष्मी-प्यारे जी और मनोज कुमार जी, सबके मुख से उनके लिए तारीफ़ों के पुल बांधे नहीं बंध रहे थे। वो लगातार उनकी तारीफ़ें करते गये और पिता जी एम्बैरेस होते रहे। जैसे ही हम कार में बैठे वापस घर जाने के लिए, वो कार को सीधे हनुमान जी के मंदिर में लेके गये और ईश्वर को धन्यवाद दिया। वो हमेशा कहा करते थे कि यह ईश्वर की शक्ति या कृपा ही है जो हमें हमारे काम को अच्छा बनाने में मदद करता है। It’s the Devine Grace which gives you excellence in your work।</span> <br /><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय</span> - रोहन जी, बस आख़िरी सवाल। वह कौन सा एक गीत है महेन्द्र कपूर जी का गाया हुआ जो आपको सब से ज़्यादा पसंद है? या जिसे आप सब से ज़्यादा गुनगुनाया करते हैं?<br /><br />रोहन - <span style="font-weight:bold;">किसी एक गीत का नाम लेना तो असम्भव है, लेकिन हाँ, कुछ गीत जो मुझे बेहद पसंद है, उनके नाम गिनाता हूँ। "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों", "अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो, अरे ओ रोशनी वालों", लता जी के साथ उनका गाया "आकाश पे दो तारे", आशा जी के साथ "रफ़्ता रफ़्ता आप मेरे दिल के महमाँ हो गये", और "यकीनन "मेरे देश की धरती"।</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय</span> - वाह, एक से एक लाजवाब गीत हैं ये सब! चलिए हम यहाँ पर "अंधेरे में जो बैठे हैं" गीत सुनवाते हैं अपने श्रोताओं व पाठकों को। यह फ़िल्म 'संबंध' का गीत है। १९६९ की यह फ़िल्म थी जिसमें संगीत था ओ. पी. नय्यर का, और इस गीत को लिखा है कवि प्?दीप ने।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">गीत - "अंधेरे में जो बैठे हैं" (संबंध)</span><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=2&soundFile=http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/ssrohankapoor/AndhereMainJoBaitheHain.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br /><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॊय</span> - रोहन जी, बहुत अच्छा लगा, आपने अपने पिता और महान गायक महेन्द्र कपूर जी की शख़्सीयत के बारे में हमें बताया, बहुत बहुत धन्यवाद आपका। फिर किसी दिन आपसे और भी बातें हम करना चाहेंगे। मैं अपनी तरफ़ से, 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से, और हमारे तमाम पाठकों व श्रोताओं की तरफ़ से आपका आभार व्यक्त करता हूँ, नमस्कार!<br /><br />रोहन - <span style="font-weight:bold;">बहुत बहुत शुक्रिया आपका।</span><br />******************************************<br /><br />तो दोस्तों, ये था इस सप्ताह का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने', कल महेन्द्र कपूर जी के जन्मदिवस पर हम 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। और अब आज के इस प्रस्तुति को समाप्त करने की इजाज़त दीजिए, नमस्कार!<br /><br /><span style="font-weight:bold;">सुजॉय चट्टर्जी </span>Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-42244047013312834482010-05-17T09:59:00.006+05:302010-05-17T10:15:06.047+05:30संगीत के आकाश में अपनी चमक फैलाने को आतुर एक और नन्हा सितारा - पी. भाविनी<img src="http://pbhavini.com/Img/home1.gif" align="right">लगभग ७ वर्ष पूर्व की बात है मैं ग्वालियर में ’उदभव’ संस्था द्वारा आयोजित ’राज्य स्तरीय गायन प्रतियोगिता- सुर ताल’ में निर्णायक के रूप में गया था उस दिन वहाँ राज्य भर से लगभग ३०० प्रतियोगी आए हुए थे, जिसमें ५ साल से लेकर ५० साल तक के गायक गायिकाएं शामिल थे। कुछ प्रतियोगियों के बाद मंच पर एक ७ वर्ष की बच्ची ने प्रवेश किया। मंच पर आने के पश्चात उसने जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल गाना प्रारम्भ किया। उसकी उम्र को देखते हुए उसकी गायकी, स्वर, ताल तथा शब्दों का उच्चारण सुन कर हम निर्णायक तथा सभी दर्शक मंत्र मुग्ध हो रहे थे। प्रतियोगिता में स्वयं की पसंद के गीत गाने के पश्चात एक गीत निर्णायकों की पंसद का भी सुनाना था। मैंनें उसके कोन्फिडेन्स को देख कर उसे एक कठिन गीत फ़िल्म ’माचिस’ का लता जी का ’पानी पानी रे भरे पानी रे, नैनों में नीन्दे भर जा’ गाने को कहा। उस बच्ची ने जब यह गीत समाप्त किया तो इस गीत की जो बारीकियाँ थी उस को उस बच्ची ने जिस तरह से निभाया मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसकी प्रशंसा में क्या कहूँ। फ़िर कुछ दो तीन साल बाद एक दिन जीटीवी के कार्यक्रम ’सारेगामापा’ देखते समय उस कार्यक्रम के प्रतियोगियों में वह बच्ची दिखाई दी। निर्णायक थे भप्पी लहरी, अभिजीत और अलका याग्निक। उस कार्यक्रम में तो वह अपनी जगह नही बना पाई किन्तु उसका हौसला देख कर महसूस हो रहा था कि एक न एक दिन वह जरूर नाम कमाएगी और वह मौका शीघ्र ही आगया। स्टार टीवी का ’अमूल वॉयस ऑफ इण्डिया मम्मी के सुपर स्टार’ कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ और वह बच्ची वहाँ भी अपनी गायकी की खुशबू बिखेरने को तैयार थी। एक लम्बी प्रतिस्पर्धा के पश्चात प्रतियोगिता के निर्णायक शुभा मुदगल, शंकर महादेवन और संगीतकार विशाल और शेखर ने उस प्रतियोगिता के दस लाख रुपए इनाम की विजेता का नाम घोषित किया तो वह कोई और नही वरन वही नन्ही गायिका यानि पी, भाविनी ही थी। आइए आज आपकी मुलाकात करवाते है उस उभरती हुई गायिका पी. भाविनी से जो आजकल भोपाल में रहती है।<br />
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<b><b>शरद-</b> हाय भाविनी! हिन्दयुग्म पर तुम्हारा स्वागत है।</b><br />
<b>भाविनी-</b> नमस्ते अंकल! यह मेरा सौभाग्य है कि ’हिन्दयुग्म’ के पाठकों से मुझे मिलने का अवसर आपने दिया। हिन्दयुग्म के माध्यम से ही आजकल में Audacity पर अपने गीतों को रिकॊर्ड करना सीख रही हूँ। बहुत ही आसान तथा उपयोगी है यह।<br />
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<div style="background: #e7fbb7; border-bottom: #ff8888 1px solid; border-left: #ff8888 1px solid; border-right: #ff8888 1px solid; border-top: #ff8888 1px solid; display: block; margin: 5px 0px 0px; padding-bottom: 10px; padding-left: 10px; padding-right: 10px; padding-top: 10px;float:right;width:340px;"><span style="font-size: 120%; font-weight: bold;">भाविनी के गाये कुछ गीत</span><br />
<iframe frameBorder="0" width="100%" height="400" src="http://www.pbhavini.com/42-mp3player.swf?autostart=false">आपका ब्राउजर IFRAME को सपोर्ट नहीं करता</iframe><br />
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<span style="font-size: 120%; font-weight: bold;">एक वीडियो परफॉरमेंस</span><br />
<object width="330" height="265"><param name="movie" value="http://www.youtube.com/v/lCpjEChw_Ug&hl=en_US&fs=1&"></param><param name="allowFullScreen" value="true"></param><param name="allowscriptaccess" value="always"></param><embed src="http://www.youtube.com/v/lCpjEChw_Ug&hl=en_US&fs=1&" type="application/x-shockwave-flash" allowscriptaccess="always" allowfullscreen="true" width="330" height="265"></embed></object><br />
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<a href="http://www.pbhavini.com/">भाविनी की निजी वेबसाइट</a> पर इनसी जुड़ी बहुत सी सामग्री है। एक बार ज़रूर जायें।</div><b>शरद- तुमने इतनी छोटी उम्र में ही स्टार टीवी का कार्यक्रम’ अमूल वॊयस ऒफ इण्डिया मम्मी के सुपर स्टार’ जीत कर अच्छा खासा नाम कमा लिया और बहुत छोटी उम्र से ही मंचों पर गा रही हो लेकिन तुमने अपने गायन की शुरुआत कब प्रारम्भ की तथा तुम्हे किसने प्रेरित किया।</b><br />
<b>भाविनी -</b> मेरा जन्म १७ फरवरी १९९७ को जबलपुर में हुआ था ।मैं जब ४ साल की थी उस समय भी घर में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह जी की ग़ज़लें गुनगुनाया करती थी उनको सुनकर मेरी मम्मी ने सोचा कि जब इसको अभी से गाने का शौक है तो इसको संगीत के क्षैत्र में ही कुछ करना चाहिए। जब मैं ६-७ साल की थी तब मैनें अपना पहला कार्यक्रम संगम कला ग्रुप की प्रतियोगिता में दिया जहाँ पर मैंने ’दिल ने कहा चुपके से, ये क्या हुआ चुपके से’ गाया जिसे गाकर मुझे बहुत आनन्द आया और सबने मेरी खूब प्रशंसा की। मेरी नानीजी ने मुझे संगीत के क्षैत्र में ही आगे बढ़्ने के लिए प्रेरित किया तथा उन्ही के आशीर्वाद के कारण मुझे बहुत से पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।<br />
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<b>शरद- जब तुम्हारी मन्ज़िल संगीत ही है तो क्या तुम संगीत की शिक्षा भी ले रही हो?</b><br />
<b>भाविनी-</b> हाँ! मैंने ८ साल की उम्र से ही ग्वालियर में श्री नवीन हाल्वे तथा श्री सुधीर शर्मा जी से संगीत की शिक्षा लेना प्रारम्भ कर दिया था और अब भोपाल में श्री जितेन्द्र शर्मा जी और कीर्ति सूद से सीख रही हूँ। मैं प्रतिदिन २ घन्टे शास्त्रीय संगीत तथा २ घन्टे सुगम संगीत का रियाज़ करती हूँ।<br />
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<b>शरद- अपनी इस संगीत यात्रा के बारे में हमारे पाठकों को थोडा और बताओ।</b><br />
<b>भाविनी-</b> जब मैं ७-८ साल की थी तब मैंनें ग्वालियर में ’उदभव’ संस्था की प्रतियोगिता ’सुर-ताल’ में हिस्सा लिया जहाँ मैं लगातार तीन वर्षों तक विजेता रही । इन तीन वर्षों में उस प्रतियोगिता के निर्णायक साधना सरगम जी, ग़ज़ल गायक चन्दन दास तथा डॊ, रोशन भारती तथा आपने मेरी भरपूर प्रशंषा की तथा मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान किया। ९ साल की उम्र में मुझे जीटीवी के सारेगामापा में गाने का मौका मिला जहाँ अभिजीत जी, शान, भप्पी लहरी जी तथा अलका याग्निक ने भी मेरी गायकी को अत्यधिक सराहा। मैं बहुत भाग्यशाली हूँ की उस कार्यक्रम में मुझे आशा भोषले जी से भी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तथा उन्होंने भी मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान किया। इसके बाद मैं स्टार टीवी के कार्यक्रम ’अमूल वॊयस ऒफ इण्डिया मम्मी के सुपर स्टार’ की कडे़ मुकाबले में विजेता बनी तथा उस प्रतियोगिता के निर्णायक शुभा मुदगल, शंकर महादेवन तथा संगीतकार विशाल और शेखर जी का भरपूर प्यार मिला। इसके साथ ही मैं’तानसेन संगीत अकादमी सम्मान’ तथा इन्दौर में’ ’एम,पी.स्मार्ट आइडल’ सम्मान से भी सम्मानित हो चुकी हूँ।<br />
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<b>शरद- उस मुकाबले को जीतने के बाद इस क्षैत्र में तुम्हारी और क्या क्या उपलब्धियाँ रहीं हैं?</b><br />
<b>भाविनी-</b> इस मुकाबले के पहले और बाद में मैनें कुछ और अच्छे कार्यक्रम किए हैं तथा मैं अपने गायन के साथ साथ अपनी पढ़ाई पर भी एकाग्रचित्त हो कर पूरा पूरा ध्यान देती हूँ। मैं संगीत एवं पढाई में संतुलन बनाए रखती हूँ। जब भी मेरे स्कूल चलते हैं मेरा पूरा ध्यान पढाई पर रहता है उसके बाद कुछ समय निकाल कर संगीत की तैयारी भी कर लेती हूँ। वर्तमान में मैं भोपाल के देहली पब्लिक स्कूल की छात्रा हूँ। मेरे द्वारा दिए गए कार्यक्रमों, मुझे मिले हुए सम्मान, फोटोज़ तथा मेरे द्वारा गाए गए गीतों के वीडियोज़ और कवर वर्ज़न आप मेरी वेब साइट www.pbhavini.com पर देख सकते हैं ।<br />
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<b>शरद- आज जब संगीत का स्वरूप एकदम बदल गया तुम अपने कार्यक्रमों में अधिकांश पुराने गीत ही गाती हो इसका क्या कारण है?</b><br />
<b>भाविनी -</b> मुझे पुराने फिल्मी गीत बहुत पसन्द हैं क्योंकि उनकी धुन बहुत मैलोडियस होती है, उनके शब्द भी इतने अच्छे होते है कि उनका असर एक लम्बे समय तक बरकरार रहता है तथा वे हमारे दिल को छू जाते हैं। मेरा ऐसा मानना है कि यदि पुराने गीतों को अच्छी तरह से गा लिया जाए तो नए गीत आसानी से गाए जा सकते हैं। मैं अपना आदर्श लताजी, आशाजी, जगजीत सिंह, चित्रा सिंह तथा मदन मोहन जी को मानती हूँ । मेरे परिवार के सदस्य मुझे बहुत प्यार करते है तथा संगीत के क्षैत्र में आगे बढ़्ने के लिए मेरी हर संभव सहायता करते हैं। इसके साथ ही मुझे देश विदेश के अनेक लोगों का भरपूर प्यार मिल रहा है। मेरा परिवार मुम्बई में बसने का भी विचार कर रहा है। मेरी अभिलाषा एक अच्छी गायिका बनने की है, देखिए कोशिश कहाँ तक सफल होती है।<br />
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<b>शरद- जाते जाते कभी कोई ऐसा वाकया याद आ रहा हो जिसे पाठकों को बताना चाहती हो?</b><br />
<b>भाविनी-</b> हाँ । मेरा कोटा शहर के राष्ट्रीय दशहरे मेले में कार्यक्रम था। मेले की एक भारी भीड़ के सामने जब मैनें गाना प्रारम्भ किया तो एक के बाद एक गीत गाती ही चली जा रही थी और लोग तालियाँ बजाए जा रहे थे। उस दिन मैनें अपनी पहली सिटिंग में ही लगातार १४ गीत एक साथ गाए उसके बाद ही दूसरे कलाकारों की बारी आई।<br />
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<b>शरद- बहुत बहुत बधाई भाविनी! ईश्वर से कामना है कि तुम दिन दूनी रात चौगनी उन्नति करो और संगीत के क्षैत्र में तुम्हारा नाम बहुत रोशन हो।</b><br />
<b>भाविनी-</b> धन्यवाद! मैं हिन्दयुग्म परिवार की बहुत आभारी हूँ जिसके माध्यम से मुझे अपनी बात कहने का मौका मिला ।नियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.com0