tag:blogger.com,1999:blog-28061915429488359412024-03-19T02:10:38.400+05:30आवाज़musical platform young talented new music song composers singers lyricists arrangers poets story tellers writers critics review writers hindi content writers bloggers are welcome every friday a new release new song fresh sound rock hard rock hindi rock hard metel pop jazz filmy lounge folk sufi poetic expressions podcast poetry your poem your voice online poetry recital online audience critics story new generation song foot tapping songs soul searching intruments new star featured artistनियंत्रक । Adminhttp://www.blogger.com/profile/02514011417882102182noreply@blogger.comBlogger114125tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-13210390219052787892011-05-11T09:15:00.002+05:302011-05-11T14:43:56.721+05:30भला हुआ मेरी मटकी फूटी.. ज़िन्दगी से छूटने की ख़ुशी मना रहे हैं कबीर... साथ हैं गुलज़ार और आबिदा<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११३</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">सू</span>फ़ियों-संतों के यहां मौत का तसव्वुर बडे खूबसूरत रूप लेता है| कभी नैहर छूट जाता है, कभी चोला बदल लेता है| जो मरता है ऊंचा ही उठता है, तरह तरह से अंत-आनन्द की बात करते हैं| कबीर के यहां, ये खयाल कुछ और करवटें भी लेता है, एक बे-तकल्लुफ़ी है मौत से, जो जिन्दगी से कहीं भी नहीं|<br />
<br />
<b>माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे ।<br />
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रोदुंगी तोहे ॥</b><br />
<br />
माटी का शरीर, माटी का बर्तन, नेकी कर भला कर, भर बरतन मे पाप पुण्य और सर पे ले|<br />
<br />
आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे"..:<br />
<b><br />
भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे ।<br />
मैं तो पनिया भरन से छूटी रे ॥<br />
<br />
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोय ।<br />
जो दिल खोजा आपणा, तो मुझसा बुरा ना कोय ॥<br />
<br />
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नांहि ।<br />
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठे घर मांहि ॥<br />
<br />
हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को हुशारी क्या ।<br />
रहे आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ॥<br />
<br />
कहना था सो कह दिया, अब कछु कहा ना जाये ।<br />
एक गया सो जा रहा, दरिया लहर समाये ॥<br />
<br />
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल ।<br />
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ॥<br />
<br />
हँस हँस कुन्त ना पाया, जिन पाया तिन रोये ।<br />
हाँसि खेले पिया मिले, कौन _____ होये ॥<br />
<br />
जाको राखे साईंयाँ, मार सके ना कोये ।<br />
बाल न बांकाँ कर सके, जो जग बैरी होये ॥<br />
<br />
प्रेम न भाजी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।<br />
राजा-प्रजा जोही रूचें, शीश देई ले जाय ॥<br />
<br />
कबीरा भाठी कलाल की, बहूतक बैठे आई ।<br />
सिर सौंपें सोई पीवै, नहीं तो पिया ना जाये ॥<br />
<br />
सुखिया सब संसार है, खाये और सोये ।<br />
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये ॥<br />
<br />
जो कछु सो तुम किया, मैं कछु किया नांहि ।<br />
कहां कहीं जो मैं किया, तुम ही थे मुझ मांहि ॥<br />
<br />
अन-राते सुख सोवणा, राते नींद ना आये ।<br />
ज्यूं जल छूटे माछरी, तडफत नैन बहाये ॥<br />
<br />
जिनको साँई रंग दिया, कभी ना होये कुरंग ।<br />
दिन दिन वाणी आफ़री, चढे सवाया रंग ॥<br />
<br />
ऊंचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय ।<br />
नीचे होये सो भरि पिये, ऊँचा प्यासा जाय ॥<br />
<br />
आठ पहर चौंसठ घडी, मेरे और ना कोये ।<br />
नैना मांहि तू बसे, नींद को ठौर ना होये ॥<br />
<br />
सब रगे तान्त रबाब, तन्त दिल बजावे नित ।<br />
आवे न कोइ सुन सके, के साँई के चित ॥<br />
<br />
कबीरा बैद्य बुलाया, पकड के देखी बांहि ।<br />
बैद्य न वेधन जानी, फिर भी करे जे मांहि ॥<br />
<br />
यार बुलावे भाव सूं, मोपे गया ना जाय ।<br />
दुल्हन मैली पियु उजला, लाग सकूं ना पाय ॥</b><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/KabByAbi/abi-kabir04.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो दोहे हमने पेश किए हैं, उसके एक दोहे की एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उन दोहों को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/03/saahib-mera-ek-abida-kabeer-gulzar.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "चाह" और मिसरे कुछ यूँ थे-<br />
<br />
चाह गयी चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।<br />
जिनको कछु न चहिये, वो ही शाहनशाह ॥<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
चाहे गीता बांचिये या पढ़िए कुरआन <br />
मेरी तेरी प्रीत है हर पुस्तक का ज्ञान - निदा फाजली .. वैसे इसमें चाल शब्द नहीं है, बल्कि चाहे है... इसलिए इस शेर को सही नहीं माना जा सकता..<br />
<br />
चाह मेरे भारत की ,विश्व कप जाए जीत,<br />
हर एक करे प्रार्थना , क्रिकेट से है प्रीत - मंजु जी आपकी चाह पूरी हो गयी, खुश हैं न ? :)<br />
<br />
चाह होती है तो राह होती नहीं <br />
हर ख्वाहिश कभी पूरी होती नहीं <br />
जिंदगी जीने का ढूँढती है सबब<br />
हर कली खिलके फूल होती नहीं. - शन्नो जी <br />
<br />
कभी हम में तुम में भी चाह थी , कभी हम से तुम से भी राह थी <br />
कभी हम भी तुम भी थे आशना तुम्हे याद हो के न याद हो - मोमिन खां मोमिन<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-26245008340939159672011-03-30T08:27:00.001+05:302011-03-30T08:29:10.306+05:30साहिब मेरा एक है.. अपने गुरू, अपने साई, अपने साहिब को याद कर रही है कबीर, आबिदा परवीन और गुलज़ार की तिकड़ी<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११२</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">न</span>शे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है।<br />
<br />
<b>सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये ।<br />
जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥</b><br />
<br />
कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये !<br />
<br />
गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह नशा उससे भी बढकर है, यह तिहरा से किसी भी मायने में कम नहीं। आबिदा कबीर को गा रही हैं तो उनकी आवाज़ के सहारे कबीर की जीती-जागती मूरत हमारे सामने उभर आती है, इस कमाल के लिए आबिदा की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। लेकिन आबिदा गाना शुरू करें उससे पहले सबा के झोंके की तरह गुलज़ार की महकती आवाज़ माहौल को ताज़ातरीन कर जाती है, इधर-उधर की सारी बातें फौरन हीं उड़न-छू हो जाती है और सुनने वाला कान को आले से उतारकर दिल के कागज़ पर पिन कर लेता है और सुनता रहता है दिल से.. फिर किसे खबर कि वह कहाँ है, फिर किसे परवाह कि जग कहाँ है! ऐसा नशा है इस तिकड़ी में कि रूह पूरी की पूरी डूब जाए, मदमाती रहे और जिस्म जम जाए वहीं का वहीं!!<br />
<br />
<b>कबीरा खड़ा बजार में, सब की चाहे खैर। <br />
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।</b><br />
<br />
कबीर... कबीर ऐसा नाम है, जिसे सुनते हीं दिल सूफ़ियाना हो जाता है। जैसे सूफ़ियों के हर कलाम में उस ऊपर वाले का ज़िक्र होता है, उसी तरह कबीर अपने गुरू, अपने साईं, अपने साहिब का ज़िक्र किसी न किसी बहाने अपने दोहों में ले हीं आते हैं। गुरू के प्रति कबीर का यह प्रेम अनुपम है। कबीर अपने गुरू की बहुत कदर करते थे। एक शिष्य के लिए गुरू का क्या महत्व होता है, यह बताने के लिए कबीर ने इतना तक कह दिया कि:<br />
<br />
<b>कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।<br />
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥</b><br />
<br />
गुरू का माहात्म्य जानना हो तो कोई कबीर से पूछे:<br />
<br />
<b>सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।<br />
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥</b><br />
<br />
कबीर का अपने गुरू के प्रति प्रेम और लगाव का बखान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का इतिहास" में कुछ यूँ किया है:<br />
<br />
<blockquote>कहते हैं, काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था, जिसकी किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया। फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पना हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेंक आयी। अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा। यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ। कबीर का जन्मकाल जेठ सुदी पूर्णिमा, सोमवार विक्रम संवत १४५६ माना जाता है। कहते हैं कि आरंभ से हीं कबीर में हिंदू भाव से भक्ति करने की प्रवृत्ति लक्षित होती थी जिसे उसे पालने वाल माता-पिता न दबा सके। वे "राम-राम" जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। इससे सिद्ध होता है कि उस समय स्वामी रामानंद का प्रभाव खूब बढ रहा था। अत: कबीर पर भी भक्ति का यह संस्कार बाल्यावस्था से ही यदि पड़ने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। <br />
<br />
रामानंद जी के माहात्म्य को सुनकर कबीर के हृदय में शिष्य होने की लालसा जगी होगी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन वे एक पहर रात रहते हुए उप्त (पंचगंगा) घाट की सीढियों पर जा पड़े जहाँ से रामानंद जी स्नान करने के लिए उतरा करते थे। स्नान को जाते समय अंधेरे में रामानंद जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। रामानंद जी बोल उठे, ’राम-राम कह’। कबीर ने इसी को गुरूमंत्र मान लिया और वे अपने को गुरू रामानंद जी का शिष्य कहने लगे।<br />
<br />
आरंभ से हीं कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे। अत: उन दिनों जब कि रामानंद जी की बड़ी धूम थी, अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे। रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमे जाति-पाँति का भेद और खानपान का आचार दूर कर दिया गया था। अत: इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को ’राम-राम’ नाम रामानंद जी से हीं प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के ’राम’ रामानंद के ’राम’ से भिन्न हो गए। अत: कबीर को वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत नहीं ले सकते। कबीर ने दूर-दूर तक देशाटन किया, हठयोगियों तथा सूफ़ी मुसलमान फकीरों का भी सत्संग किया। अत: उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ हुई। फल यह हुआ कि कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं रह गये, वे ब्रह्म के पर्याय हुए -<br />
<br />
<b>दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।<br />
राम नाम का मरम है आना॥</b><br />
<br />
सारांश यह है कि जो ब्रह्म हिंदुओं की विचारपद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफ़ियों के ढर्रे पर उपासना का हीं विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफ़ियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मत रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी बानी में ये सब अवयव लक्षित होते हैं।</blockquote><br />
<b>गुरू गोविंद दोऊ खड़े काकै लागूं पाय,<br />
बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय।</b> <br />
<br />
गुरू को गोविंद के आगे खड़े करने वाले संत कबीर ने गुरू के बारे में और क्या-क्या कहा है, यह जानने के लिए चलिए आबिदा परवीन की मनमोहक आवाज़ की ओर रूख करते हैं। और हाँ, आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "साहिब मेरा एक है"..:<br />
<b><br />
साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय ।<br />
दूजा साहिब जो कहूं, साहिब खडा रसाय ॥<br />
<br />
माली आवत देख के, कलियां करें पुकार ।<br />
फूल फूल चुन लिये, काल हमारी बार ॥<br />
<br />
____ गयी चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।<br />
जिनको कछु न चहिये, वो ही शाहनशाह ॥<br />
<br />
एक प्रीत सूं जो मिले, ताको मिलिये धाय ।<br />
अन्तर राखे जो मिले, तासे मिले बलाय ॥<br />
<br />
सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।<br />
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥<br />
<br />
अब गुरु दिल मे देखया, गावण को कछु नाहि ।<br />
कबीरा जब हम गांवते, तब जाना गुरु नाहि ॥<br />
<br />
मैं लागा उस एक से, एक भया सब माहि ।<br />
सब मेरा मैं सबन का, तेहां दूसरा नाहि ॥<br />
<br />
जा मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द ।<br />
तब मरहू कब पाहूं, पूरण परमानन्द ॥<br />
<br />
सब बन तो चन्दन नहीं, सूर्य है का दल(?) नाहि ।<br />
सब समुंद्र मोती नहीं, यूं सौ भूं जग माहि ॥<br />
<br />
जब हम जग में पग धरयो, सब हसें हम रोये ।<br />
कबीरा अब ऐसी कर चलो, पाछे हंसीं न होये ॥<br />
<br />
अवगुण किये तो बहु किये, करत न मानी हार ।<br />
भांवें बन्दा बख्शे, भांवें गर्दन मार ॥<br />
<br />
साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि ।<br />
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाहि ॥<br />
<br />
कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।<br />
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥<br />
<br />
करता था तो क्यों रहा, अब काहे पछताय ।<br />
बोवे पेड बबूल का, आम कहां से खाय ॥<br />
<br />
साहिब सूं सब होत है, बन्दे ते कछु नाहि ।<br />
राइ से परबत करे, परबत राइ मांहि ॥<br />
<br />
ज्यूं तिल मांही तेल है, ज्यूं चकमक में आग ।<br />
तेरा सांई तुझमें बसे, जाग सके तो जाग ॥</b><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/KabByAbi/abi-kabir03.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो दोहे हमने पेश किए हैं, उसके एक दोहे की एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उन दोहों को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/03/man-lago-yaar-abida-kabir-gulzar.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "पिया" और मिसरे कुछ यूँ थे-<br />
<br />
सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।<br />
ले सूती पिया आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
पिया रे, पिया रे , पिया रे, पिया रे,<br />
तेरे बिन लागे नहीँ मोरा जिया रे ।<br />
<br />
मंजु जी, आपने शब्द पहचानने में गलती कर दी, इसलिए हम आपके शेर (दोहे) को यहाँ पेश नहीं कर सकते। अगली बार से ध्यान दीजिएगा।<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शुरूआत सजीव जी की प्रेरणादायक टिप्पणी से हुई। बंधुवर धन्यवाद आपका! आपके बाद महफ़िल को रंगीन करने आए शरद जी। शरद जी ने न सिर्फ़ सही शब्द की पहचान की बल्कि उस पर एक शेर भी कहा। यह क्या, आपसे हमें स्वरचित शेर की उम्मीद रहती है, आपने तो नुसरत साहब के एक गाने की दो पंक्तियों से हीं काम चला लिया। आगे से ऐसा नहीं चलेगा। समझे ना? :) आपने एक गलती की तरफ़ हमारा ध्यान दिलाया, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। हमने आज की महफ़िल में उस गलती को ठीक कर लिया है। अवध जी, शायद "दोहावली" हीं कहा जाना चाहिए। मैं और भी एक-दो जगह से पता करता हूँ, उसके बाद आगे से इसी शब्द का प्रयोग करूँगा। बहुत-बहुत धन्यवाद। मंजु जी, हाँ पिछली बार मैंने "अहसास" पर सारे शेर जमा तो कर दिये थे, लेकिन जल्दीबाजी में "आँगन" को हटाना भूल गया। दर-असल "आँगन" पिछली से पिछली महफ़िल का गुमशुदा शब्द था। आपको यकीन दिलाता हूँ कि आगे से ऐसा नहीं होगा। कुलदीप जी, महफ़िल को और महफ़िल में पेश की गई रचना को पसंद करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। बस लगे हाथों आप "पिया" पर कोई शेर भी कह देते तो खुशी चौगुनी हो जाती। खैर, इस बार से कोशिश कीजिएगा।<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-77447367838449745412011-03-09T10:13:00.002+05:302011-03-09T12:18:38.632+05:30मन लागो यार फ़क़ीरी में: कबीर की साखियों की सखी बनकर आई हैं आबिदा परवीन, अगुवाई है गुलज़ार की<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१११</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">सू</span>फ़ियों का कलाम गाते-गाते आबिदा परवीन खुद सूफ़ी हो गईं। इनकी आवाज़ अब इबादत की आवाज़ लगती है। मौला को पुकारती हैं तो लगता है कि हाँ इनकी आवाज़ ज़रूर उस तक पहुँचती होगी। वो सुनता होगा.. सिदक़ सदाक़त की आवाज़।<br />
<br />
<b>माला कहे है काठ की तू क्यों फेरे मोहे,<br />
मन का मणका फेर दे, तुरत मिला दूँ तोहे।</b><br />
<br />
आबिदा कबीर की मार्फ़त पुकारती हैं उसे, हम आबिदा की मार्फ़त उसे बुला लेते हैं।<br />
<br />
<b>मन लागो यार फ़क़ीरी में...</b><br />
<br />
एक तो करैला उस पर से नीम चढा... इसी तर्ज़ पर अगर कहा जाए "एक तो शहद ऊपर से गुड़ चढा" तो यह विशेषण, यह मुहावरा आज के गीत पर सटीक बैठेगा। सच कहूँ तो सटीक नहीं बैठेगा बल्कि थोड़ा पीछे रह जाएगा, क्योंकि यहाँ गुड़ चढे शहद के ऊपर शक्कर के कुछ टुकड़े भी हैं। कबीर की साखियाँ अपने आप में हीं इस दुनिया से दूर किसी और शय्यारे से आई हुई सी लगती है, फिर अगर उन साखियों पर आबिदा की आवाज़ के गहने चढ जाएँ तो हर साखी में कही गई दुनिया को सही से समझने और सही से समझकर जीने का सीख देने वाली बातों का असर कई गुणा बढ जाएगा। वही हुआ है यहाँ... लेकिन यह जादू यही तक नहीं थमा। इससे पहले की आबिदा अपनी आवाज़ का सम्मोहन डालना शुरू करतीं, उस सम्मोहन को और पुख्ता बनाने के लिए गुलज़ार साहब अपनी पुरकशिश शख्सियत के साथ आबिदा की अगुवाई करने आ पहुँचते हैं। "रांझा-रांझा करदी नी" कहते हुए जब गुलज़ार की आवाज़ हमारे कानों तक पहुँचती है तो पहले हीं मालूम हो जाता है कि अगले १०-१५ मिनट तक हमें कुछ और नहीं सूझने वाला। यकीन मानिए, मेरी तो यही हालत थी और मैं पक्के दावे के साथ कह सकता हूँ कि "<b>गुलज़ार प्रजेन्ट्स कबीर बाई आबिदा</b>" के गानों/साखियों/दोहों को सुनते वक़्त आप एक ट्रान्स में चले जाएँगे.. डूब जाएँगे भक्ति के इस दरिया में। <br />
<br />
कबीर दास... एक ऐसा इंसान जो जितना जाना-पहचाना है, उतना हीं अनजाना भी है। उसे आप जितना समझते हैं, उससे ज्यादा वह अनबुझा है। उसे बूझने की कईयों ने कोशिश की, कई पहुँचे भी उसके आस-पास, लेकिन कभी वह रेगिस्तान की मरीचिका की तरह दूर निकल गया तो कभी खुर्शीद की तरह इतना चमका कि झुलसने के डर से लोग पीछे की ओर खिसक गए। वह क्या था? हिन्दू.. मुसलमान.. ब्राह्मण.. शूद्र... सूफ़ी.. साधु... कोई सही से नहीं कह सकता। असल में वह सब कुछ था और कुछ भी नहीं। वह किसी भी पंथ के खिलाफ़ था और इस बात के भी खिलाफ़ था कि उसकी कही बातें कहीं कोई पंथ न बन जाए। वह फ़क्कड़ था.. मस्तमौला.. इसलिए बनी बनाई हर चीज़ को बिगड़ने का एक साधन मानता था। वह अस्वीकार करना जानता था.. बस अस्वीकार.. <br />
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"हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास" पुस्तक में "बच्चन सिंह" कहते हैं:<br />
<br />
<blockquote>कबीर दास को कोई भी मत स्वीकार्य नहीं है जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद उत्पन्न करता है। उन्हें कोई भी अनुष्ठान या साधना मंजूर नहीं है जो बुद्धि-विरूद्ध है। उन्हें कोई भी शास्त्र मान्य नहीं है जो आत्मज्ञान को कुंठित करता है। वेद-कितेब भ्रमोत्पादक हैं अत: अस्वीकार्य हैं। तीर्थ, व्रत, पूजा, नमाज, रोजा गुमराह करते हैं इसलिए अग्राह्य हैं। पंडित-पांडे, काजी-मुल्ला उन धर्मों के ठेकेदार हैं जो धर्म नहं हैं। अत: घृणास्पद हैं।<br />
<br />
वे वैष्णवों को अपना संगी मानते हैं, किंतु विष्णु को चौदह भुवनों का चौधरी कहकर मजाक उड़ाते हैं। शाक्तों से उन्हें घृणा है - "साकत काली कामरी"। हिन्दू-तुर्क दोनों झूठे हैं। वे अकरदी, सकरदी सूफी पर हँसते हुए उसे अपना वचन मानने का उपदेश देते हैं। गोरखनाथ उनके श्रद्धेय हैं पर गोरखपंथी उपहास्य। "चुंडित-मुंडित" श्रावकों और श्रमणों के लिए उनके यहाँ जगह नहीं है। तात्पर्य यह कि वे अपने समय के समस्त मतों को खारिज कर देते हैं। उनसे बड़ा मूर्ति-भंजक (आइकनोक्लास्ट) इतिहास में दूसरा नहीं है। <br />
<br />
यह कहना कि वे समाज-सुधारक थे, गलत है। यह कहना कि वे धर्म-सुधारक थे, और भी गलत है। यदि सुधारक थे तो रैडिकल-सुधारक। वे धर्म के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे। वे कोई भी पंथ खड़ा करने के पक्षपाती नहीं थे। वे ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें न कोई हिन्दू हो न मुसलमान, न पूजा हो न नमाज, न पंडित हो न मुल्ला, सिर्फ़ इंसान हो।<br />
<br />
वे निर्गुण धारा के प्रवर्तक थे। पर उनका निर्गुणपंथ सूफ़ियों के निर्गुणवाद से किंचित भिन्न था। कबीर का ब्रह्म न वेद-वर्णित ईश्वर है, न कुरान-वर्णित ख़ुदा। वह इन दोनों से न्यारा है। वह निर्गुण की लीकबद्धता से अलग है। निर्गुण सम्बन्धी सारी शास्त्रोक्त शब्दावली ग्रहण करते हुए भी वह शास्त्रेतर हो जाता है। यदि उनका निर्गुण शास्त्रोक्त निर्गुण हीं होता तो उससे निम्न वर्ग का कैसे काम चलता? <br />
<br />
सामंती समाज की जड़ता को तोड़ने का जितना काम अकेले कबीर ने किया उतना अन्य संतों और सगुणमार्गियों ने मिलकर भी नहीं किया। उनकी चोटों की मार से, जातिवाद के संरक्षक पंडित और मौलवी समान रूप से दु:खी हैं। वे सबसे अधिक आधुनिक और सबसे अधिक प्रासंगिक हैं।</blockquote><br />
कबीरदास आज भी कितने प्रासंगिक हैं, इसे समझना हो तो गुलज़ार की "मेरे यार जुलाहे" से बड़ा कोई उदाहरण नहीं होगा। टूटते रिश्ते की कसक और उसे जोड़ने में अपनी मजबूरी को दर्शाने के लिए गुलज़ार सीधे-सीधे कबीर को याद करते हैं और कहते हैं कि "मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे".. भला कौन होगा जो कबीर से यह तरकीब न जानना चाहेगा.. आखिर अलादीन का कौन-सा वह चिराग था जो कबीरदास के हाथ लग गया था, जिससे वह सीधे-सीधे ऊपरवाले से जुड़ जाते थे.. जिससे वह सीधे-सीधे धरती के इंसानों से जुड़ जाते थे, जुड़ जाते हैं। <br />
<br />
हम आगे की कड़ियों में कबीरदास से इसी तरकीब को जानने की कोशिश जारी रखेंगे। तबतक संगीत की शरण में चलते हैं और डूब जाते हैं बेग़म आबिदा परवीन की स्वरलहरियों में। चलिए.. चलिए.. बढिए भी.. देखिए तो गुलज़ार साहब किस शिद्दत से हम सबको बुला रहे हैं। झूमकर कहिए "मन लागो यार फ़क़ीरी में"<br />
<b><br />
मन लागो यार फ़क़ीरी में!<br />
<br />
कबीरा रेख सिन्दूर, उर काजर दिया न जाय ।<br />
नैनन प्रीतम रम रहा, दूजा कहां समाय ॥<br />
<br />
प्रीत जो लागी भुल गयि, पीठ गयि मन मांहि ।<br />
रोम रोम पियु पियु कहे, मुख की सिरधा नांहि ॥<br />
<br />
मन लागो यार फ़क़ीरी में,<br />
बुरा भला सबको सुन लीजो, कर गुजरान गरीबी में ।<br />
<br />
सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।<br />
ले सूती _____ आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥<br />
<br />
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय ।<br />
बलिहारी गुरू आपणे, गोविन्द दियो बताय ॥<br />
<br />
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा ।<br />
तेरा तुझ को सौंप दे, क्या लागे है मेरा ॥<br />
<br />
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांहि ।<br />
जब अन्धियारा मिट गया, दीपक देर कमांहि ॥<br />
<br />
रूखा सूखा खाय के, ठन्डा पानी पियो ।<br />
देख परायी चोपड़ी मत ललचावे जियो ॥<br />
<br />
साधू कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खुजूर ।<br />
चढे तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकना-चूर ॥<br />
<br />
मन लागो यार फ़क़ीरी में,<br />
आखिर ये तन खाक़ मिलेगा, क्यूं फ़िरता मगरूरी में ॥<br />
<br />
लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात ।<br />
दुल्हा-दुल्हन मिल गये, फ़ीकी पड़ी बारात ॥<br />
<br />
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।<br />
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावे सोय ॥<br />
<br />
हद हद जाये हर कोइ, अन-हद जाये न कोय ।<br />
हद अन-हद के बीच में, रहा कबीरा सोय ॥<br />
<br />
माला कहे है काठ की तू क्यूं फेरे मोहे ।<br />
मन का मणका फेर दे, सो तुरत मिला दूं तोहे ॥<br />
<br />
जागन में सोतिन करे, साधन में लौ लाय ।<br />
सूरत डार लागी रहे, तार टूट नहीं जाये ॥<br />
<br />
पाहन पूजे हरि/अल्लाह मिले, तो मैं पूजूं पहाड़ ।<br />
ताते या चक्की भली, पीस खाये संसार ॥<br />
<br />
कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होइ ।<br />
सीस चढाये गांठड़ी, जात न देखा कोइ ॥<br />
<br />
हरि से ते हरि-जन बड़े, समझ देख मन मांहि ।<br />
कहे कबीर जब हरि दिखे, सो हरि हरि-जन मांहि ॥<br />
<br />
मन लागो यार फ़क़ीरी में,<br />
कहे कबीर सुनो भई साधू, साहिब मिले सुबूरी में ।</b><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/02/gulzar-pancham-asha-dil-padosi-hai.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
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पिछली महफिल का सही शब्द था "आँगन" और मिसरे कुछ यूँ थे-<br />
<br />
थोड़ी ख़लिश होगी, थोड़ा सा ग़म होगा,<br />
तन्हाई तो होगी, अहसास कम होगा<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
या मेरे जहन से यादो के दिये गुल कर दो,<br />
मेरे एहसास की दुनिया को मिटा दो हमदम.<br />
रात तारे नही अँगारे लिये आती है,<br />
इन बरसते हुए शोलो को बुझा दो हमदम... <br />
<br />
जिस कलम से जिंदगी को लिखा,<br />
उस अहसास की रोशनाई भी तेरी - मंजु जी<br />
<br />
मर मर के जी रहा हूँ और क्या करूँ<br />
ज़ख्मों को सी रहा हूँ और क्या करू <br />
तेरा एहसास जो पड़ा है खाली जाम की तरह<br />
अश्क भर भर के पी रहा हूँ और क्या करूँ - अवनींद्र जी<br />
<br />
तेरे होने का एहसास शेष रहा, <br />
"मैं" का न तनिक अवशेष रहा. - पूजा जी<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शुरूआत सुजॉय जी की टिप्पणी से हुई। सातों बार बोले बंसी सुनकर मज़ा तो आना हीं था क्योंकि हमें यह गाना और इसके पीछे की कहानी आपकी वज़ह से हीं मयस्सर हो पाई थी। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। सुमित जी, आपने सही शब्द की पहचान की और उसपर शेर कहे, इसलिए आपको "शान-ए-महफ़िल" घोषित किया जाता है। शायर का नाम तो मुझे भी नहीं मालूम। पता करने की कोशिश कर रहा हूँ। सजीव जी, ज़रूर कभी हम भी ऐसा कुछ करेंगे। अभी तो अपनी बस शुरुआत है। कुहू जी, मुझसे ज्यादा शुक्रिया के हक़दार सुजॉय जी और सजीव जी हैं, लेकिन मैं अपनी मेहनत को भी कम नहीं आंकता। इसलिए आपका धन्यवाद स्वीकार करता हूँ। ऐसे हीं आते रहिएगा महफ़िल में। मंजु जी एवं पूजा जी, आप दोनों के स्वरचित शेर काफ़ी उम्दा हैं। बधाई स्वीकारें! इंदु जी, मैं आपके भावनाओं और पसंद की कद्र करता हूँ। मुझे संगीत की कोई खासी समझ नहीं, मैं तो बस गीत के बोलों से प्रभावित होकर गीत की तरफ़ आकर्षित होता हूँ। इसलिए अगर किसी गाने से गुलज़ार साब का नाम जुड़ा है तो वह गाना ऐसे हीं मेरे लिए मास्टरपीस बन जाता है। अवनींद जी, महफ़िलें कद्रदानों से सजती हैं और जब तक हमारी महफ़िल के पास आप जैसा कद्रदान है, मुझे नहीं लगता हमें चिंता करने की ज़रूरत है। बाकी हाँ, टिप्पणियाँ कम तो हुई हैं और इसका कारण यह हो सकता है कि महफ़िल भी इन दिनों नियमित नहीं हो पाई। मैं आगे से कोशिश करूँगा कि गायब कम हीं होऊँ :)<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-85700784554336554862011-02-09T09:22:00.004+05:302011-02-09T12:00:20.431+05:30"सातों बार बोले बंसी" और "जाने दो मुझे जाने दो" जैसे नगीनों से सजी है आज की "गुलज़ार-आशा-पंचम"-मयी महफ़िल<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११०</span><br /><br /><span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">बा</span>द मुद्दत के फिर मिली हो तुम,<br />ये जो थोड़ी-सी भर गई हो तुम,<br />ये वज़न तुम पर अच्छा लगता है..<br /><br />अभी कुछ दिनों पहले हीं भरी-पूरी फिल्मफेयर की ट्रॉफ़ी स्वीकार करते समय गुलज़ार साहब ने जब ये पंक्तियाँ कहीं तो उनकी आँखों में गज़ब का एक आत्म-विश्वास था, लहजे में पिछले ४८ सालों की मेहनत की मणियाँ पिरोई हुई-सी मालूम होती थीं और बालपन वैसा हीं जैसे किसी पाँचवे दर्ज़े के बच्चे को सबसे सुंदर लिखने या सबसे सुंदर कहने के लिए "इन्स्ट्रुमेंट बॉक्स" से नवाज़ा गया हो। उजले कपड़ों में देवदूत-से सजते और जँचते गुलज़ार साहब ने अपनी उम्र का तकाज़ा देते हुए नए-नवेलों को खुद पर गुमान करने का मौका यह कह कर दे दिया कि "अच्छा लगता है, आपके साथ-साथ यहाँ तक चला आया हूँ।" अब उम्र बढ गई है तो नज़्म भी पुरानी होंगी साथ-साथ, लेकिन "दिल तो बच्चा है जी", इसलिए हर दौर में वही "छुटभैया" दिल हर बार कुछ नया लेकर हाज़िर हो जाता है। यूँ तो यह दिल गुलज़ार साहब का है, लेकिन इसकी कारगुजारियों का दोष अपने मत्थे नहीं लेते हुए, गुलज़ार साहब "विशाल" पर सारा दोष मथ देते हैं और कहते हैं कि "इस नवजवान के कारण हीं मैं अपनी नज़्मों को जवान रख पाता हूँ।" अब इसे गुलज़ार साहब का बड़प्पन कहें या छुटपन.. लेकिन जो भी हो, इतना तो मानना पड़ेगा कि लगभग पचास सालों से चल रही इनकी लेखनी अब भी दवात से लबालब है.. अब भी दिल पर वही सुंदर-से "हस्ताक्षर" रचती रहती है.. वही गोल-गोल अक्षर.. गोल-गोल अंडा, मास्टर-जी का डंडा, बकड़ी की पूँछ, मास्टर-जी की मूँछ... और लो बन गया "क".. ऐसे हीं प्यारे-प्यारे तरीकों से और कल्पना की उड़ानों के सहारे गुलज़ार साहब हमारे बीच की हीं कोई चीज हमें सौंप जाते हैं, जिसका तब तक हमें पता हीं नहीं होता। ८ सितम्बर १९८७ को भी यही बात हुई थी। उस दिन जब गुलज़ार साहब ने हमें "दिल" का अड्डा बताया, तभी हमें मालूम हुआ कि यह नामुराद कोई और नहीं "हमारा पड़ोसी है", यह ऐसा पड़ोसी है जो "हमारे ग़म उठा लेता है, लेकिन हमारे ग़मों को दूर नहीं करता" तभी तो गुलज़ार साहब कहते हैं:<br /><br /><b>हाँ मेरे ग़म तो उठा लेता है, ग़मख्वार नहीं,<br />दिल पड़ोसी है, मगर मेरा तरफ़दार नहीं..</b><br /><br />("ये जो थोड़ी-सी भर गई हो तुम..." यह सुनकर आपको नहीं लगता कि शायर ने किसी खास के लिए ये अल्फ़ाज़ कहे हैं। अलग बात है कि फिल्मफेयर की बलैक-लेडी पर भी ये पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं, लेकिन <a href="http://twitter.com/#!/p1j/status/34891934203904000">पवन झा जी की मानें तो</a> गुलज़ार साहब ने कुछ सालों पहले "एक खास" के लिए यह नज़्म लिखी थी.. वह खास कौन है? यह पूछने की ज़रूरत भी है क्या? :) )<br /><br />हाँ तो हम गुलज़ार साहब और "दिल पड़ोसी है" की बातें कर रहे थे। इस एलबम के एक-एक गीत को गुलज़ार साहब ने इतनी शिद्दत से लिखा है (वैसे ये हर गीत को उतनी हीं मेहनत, शिद्दत और हसरत से रचते हैं) कि मुझसे अपनी पसंद के एक या दो गाने चुनते नहीं बन रहे। "कोयले से हीरे को ढूँढ निकाला जा सकता है, लेकिन जहाँ हीरे हीं हीरे हो वहाँ पारखी का सर घूम न जाए तो कहना।" वैसे मैं अपने आप को पारखी नहीं मानता लेकिन हीरों के बीच बैठा तो ज़रूर हूँ।.... शायद एक-एक हीरा परखता चलूँ तो कुछ काम बने। अब ज़रा इसे देखिए:<br /><br /><b>चाँद पेड़ों पे था,<br />और मैं गिरजे में थी,<br />तूने लब छू लिए,<br />जब मैं सजदे में थी,<br />कैसे भूलूँगी मैं, वो घड़ी गश की थी,<br />ना तेरे बस की थी, ना मेरे बस की थी..</b> (रात क्रिसमस की थी)<br /><br />या फिर इसे:<br /><br /><b>माँझी रे माँझी, रमैया माँझी,<br />मोइनी नदी के उस पार जाना है,<br />उस पार आया है जोगी,<br />जोगी सुना है बड़ा सयाना है..<br /><br />शाम ढले तो पानी पे चलके पार जाता है,<br />रात की ओट में छुपके रसिया मोहे बुलाता है,<br />सोना सोना, जोगी ने मेरा<br />जाने कहाँ से नाम जाना है..</b> (माँझी रे माँझी) <br /><br />यहाँ पर माँझी और मोइनी नदी के बहाने "माया-मोह" की दुनिया के उस पार बसे "अलौकिक" संसार की बात बड़े हीं खूबसूरत और सूफ़ियाना तरीके से गुलज़ार साहब ने कह दी है। ऐसी हीं और भी कई सारी नज़्में हैं इस एलबम में जिसमें गुलज़ार, पंचम और आशा की तिकड़ी की तूती गूँज-गूँज कर बोलती है। जिस तरह हमने पिछली कड़ी में खुद इन दिग्गजों से हीं इनकी पसंद-नापसंद और गानों के बनने की कहानी सुनी थी, उसी तरह आज भी क्यों न वह बागडोर इन्हीं को सौंप दी जाए। (साभार: सजीव जी एवं सुजॉय जी)<br /><br /><blockquote>आशा: "सातों बार बोले बंसी"<br /><br />पंचम: इसके बारे में गुलज़ार, तुम बताओ।<br /><br />गुलज़ार: "सातों बार बोले बंसी, एक हीं बार बोले ना.. तन की लागी सारी बोले, मन की लागी खोले ना".. ये गाने में खास बात ये है कि बांसुरी को "पर्सोनिफ़ाई" करके देखिए आप।<br /><br />पंचम: कैसे?<br /><br />गुलज़ार: जितनी फूंक तन पे लगती है, उतनी हीं बार बोलती है लेकिन अंदर की बात नहीं बताती। उसके सुर सात हैं, सातों बोलते हैं, जो चुप रहती है जिस बात पे, वो नहीं बोलती।<br /><br />आशा: वाह!<br /><br />गुलज़ार: उसमें खूबसूरत बात ये है कि उसको "पर्सोनिफ़ाई" करके देखिए। किस तरह से वो उठके कृष्णा के मुँह लगती है, मुँह लगी हुई है, मुँह चढी हुई है, और वो सारी बातें कहती है, एक जो उसका अपनापन है, वो चुप है, वो नहीं बोलती, उन सात सुरों के अलावा। उसके सारी "इलस्ट्रेशन" जितनी है, वो बाँसुरी के साथ "पर्सोनिफ़ाई" करके देखिए आप।<br /><br />पंचम: ये गाने में थोड़ा लयकारी भी किया था, सरगम भी किए थे, बड़ा अच्छा था।<br /><br />आशा: और उसमें बाँसुरी साथ में बोल रही है, और आवाज़ भी आ रही है, तो समझ में नहीं आ रहा कि बाँसुरी बोल रही है कि राधा बोल रही है।<br /><br />गुलज़ार: हाँ, वही, उसमें "परसोनिफ़िकेशन" है सारी की सारी। फूंक पे बोलती है और वो फूंक पे हीं बोलती है बाँसुरी।</blockquote><br />अब चूँकि गुलज़ार साहब ने इस गाने को बड़ी हीं बारीकी से समझा दिया है, इसलिए मुझे नहीं लगता है मुझे कुछ और कहने की ज़रुरत पड़ेगी। तो चलिए पढते और सुनते हैं यह गाना:<br /><b><br />सातों बार बोले बंसी,<br />एक ही बार बोले ना,<br />तन की लागी सारी बोले,<br />मन की लागी खोले ना..<br /><br />चुपके सुर में भेद छुपाये,<br />फूँक-फूँक बतलाये,<br />तन की सीधी मन की घुन्नी,<br />पच्चीस पेंचे खाए,<br />हो.. हाँ बोले ना बोले ना,<br />हाँ बोले ना बोले ना..<br /><br />प्रीत की पीड़ा जाने मुई,<br />छाती छेद पड़े, <br />उठ-उठ के फिर मुँह लगती है,<br />कान्हा संग लड़े,<br />हो.. हाँ बोले ना बोले ना,<br />हाँ बोले ना बोले ना..</b><br /><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/meggulzarrdasha/meg01.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br /><br />नियम से तो हमें बस एक हीं गाने तक अपनी महफ़िल को सीमित रखना चाहिए था, लेकिन बात जब इस "स्वर्णिम" तिकड़ी की हो रही हो तो एक से किसका मन भरता है! यूँ भी हम जितना इनके गाने सुनेंगे, उतना हीं हमें संगीत की बारीकियाँ जानने को मिलेंगी। पंचम दा की यही तो खासियत रही थी कि वे संगीत को बस "ट्रेडिशनल" एवं "कन्वेशनल" वाद्य-यंत्रों तक घेरकर नहीं रखते थे, बल्कि "बोल" के हिसाब से उसमे "रेलगाड़ी की सीटी", "मुर्गे की बाँग", "जहाज का हॉर्न" तक डाल देते थे। तभी तो सुनने वाला इनके संगीत की ओर खुद-ब-खुद खींचा चला आता था। जहाँ तक आशा ताई की बात है, तो इनके जैसा "रेंज" शायद हीं किसी गायिका के पास होगा। ये जितने आराम से "दिल चीज़ क्या है" गाती हैं, उतनी हीं सहूलियत से "दम मारो दम" को भी निभा जाती हैं। अब जहाँ ये तीनों अलग-अलग इतने करामाती हैं तो फिर साथ आ जाने पर "क़यामत" तो आनी हीं है। आशा जी "दिल पड़ोसी है" को अपना सर्वश्रेष्ठ एलबम मानती है.. तभी तो गुलज़ार साहब को उनके जन्मदिवस पर बधाई-संदेश भी इसी के रंग में रंगकर भेज डालती हैं: "<b>भाई जन्म-दिन मुबारक। पंचम, आप और मैं खंडाला में, दिल पड़ोसी है के दिन, मैं जिंदगी में कभी नहीं भूलूंगी।</b>" हम भी इस तिकड़ी को कभी नहीं भूलेंगे। इसी वादे और दावे के साथ चलिए अगली बातचीत और अगले गाने का लुत्फ़ उठाते हैं:<br /><br /><blockquote>आशा(गाती हैं): "जेते दाओ आमाए डेको ना... "<br /><br />गुलज़ार: वाह!<br /><br />पंचम: ये तो आप बंगाली में गा रही हैं.. "प्रोग्राम" का हिन्दी गानों का है।<br /><br />आशा: हिन्दी हो, पंजाबी हो, चाहे टिम्बकटु की ज़बान हो, गाना सुर जहाँ अच्छे, मतलब जहाँ अच्छा, वो गाना अच्छा होता है।<br /><br />गुलज़ार: सच में आशा जी, मैंने इसके कई बंगाली गाने चुराए हैं।<br /><br />आशा: अच्छा?<br /><br />गुलज़ार: हाँ, बहुत बार। ये पूजा के लिए जो गाने करते हैं, तो मैं पास बैठे हुए, कई बार धुन बहुत अच्छी लगी, जैसे एक, उसके पूरे बंगाली के बोल मुझे याद नहीं, और गौरी दा "फ़ेमस पोयट फ़्रॉम बंगाल"<br /><br />आशा: गौरी शंकर मजुमदार<br /><br />गुलज़ार: जी हाँ, और इनके बोल चल रहे थे पूजा के गाने के "आस्थे आमार देरी होबे"<br /><br />पंचम: आ हा हा<br /><br />गुलज़ार: उसपे वो गाना लिखा था उस ट्युन पर.. "तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं"<br /><br />पंचम: ये उसी का गाना?<br /><br />गुलज़ार: हाँ, आँधी में। और ये भी उसी तरह का गाना इनका, जिसपे आप अभी गा रहीं थीं, "जेते दाव आमाय"<br /><br />आशा: "दिल पड़ोसी है" में.. (गाती हैं) "जाने दो मुझे जाने दो"।</blockquote><br />और ये रहे उस गाने के बोल:<br /><b><br />जाने दो मुझे जाने दो<br />रंजिशें या गिले, वफ़ा के सिले<br />जो गये जाने दो<br />जाने दो मुझे जाने दो<br /><br />थोड़ी ख़लिश होगी, थोड़ा सा ग़म होगा,<br />तन्हाई तो होगी, _______ कम होगा<br />गहरी ख़राशों की गहरी निशानियाँ हैं<br />चेहरे के नीचे कितनी सारी कहानियाँ हैं<br />माज़ी के सिलसिले, जा चुके जाने दो <br />ना आ आ..<br /><br />उम्मीद-ओ-शौक़ सारे लौटा रही हूँ मैं,<br />रुसवाई थोड़ी-सी ले जा रही हूँ मैं<br />बासी दिलासों की शब तो गुज़ार आये<br />आँखों से गर्द सारी रोके उतार आये<br />आँखों के बुलबुले बह गये, जाने दो <br />ना आ आ..</b><br /><br /><script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/meggulzarrdasha/meg02.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br /><br />चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br /><br />इरशाद ....<br /><br /><a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/01/gulzar-pancham-asha-bheeni-bheeni-bhor.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br /><br />पिछली महफिल का सही शब्द था "आँगन" और मिसरे कुछ यूँ थे-<br /><br />ओस धुले मुख पोछे सारे<br />आँगन लेप गई उजियारे<br /><br />इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br /><br />आँगन में चहकें गौरैयाँ छत पर बैठा काग <br />जाड़ों की धूप सलोनी उस पर तेरा ये राग. - शन्नो जी<br /><br />जिस आँगन में सजन संग हुए फेरे ,<br />अपनों का सुहाना मंजर याद आए रे - मंजु जी<br /><br />कोई हँसता है तो तुमसा लगता है <br />दिल धड़कता है तो तुमसा लगता है <br />किसी सुबह मेरे आंगन मैं ओस से भीगा <br />कोई जब फूल खिलता है तो तुमसा लगता है - अवनींद्र जी<br /><br />बहुत याद आती है<br />आँगन में लेटी हुई ,<br />कहानी सुनाती हुई वो मेरी <br />अम्मा (दादी ) - नीलम जी<br /><br />डॉक्टर साहब महफ़िल की शुरूआत आपकी टिप्पणी से हुई, मेरे लिए इससे बड़ी बात क्या होगी। आपने सही कहा कि पंचम के गुजरने के बाद अकेले पड़े गुलज़ार के लिए विशाल भारद्वाज राहत की साँस की तरह आए हैं। वैसे बीच-बीच में "भूपिंदर" भी ऑक्सीजन की झलक दिखाते रहते हैं। लेकिन गुलज़ार तो गुलज़ार हैं। इन्हें कहीं एक छोटी-सी चिनगी भी दिख गई तो ये उसे आग में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए हमें फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम तो बस उन पढते और लिखते जाएँगे, बस आप ऐसे हीं हमारा हौसला-आफ़ज़ाई करते रहें। शन्नो जी, घर छोड़कर कहाँ जाएँगीं आप.. आखिरकार लौटकर तो यहीं आना है :) सुजॉय जी, लीजिए हमने आज आपकी फ़रमाईश पूरी कर दी.. आप भी क्या याद करेंगे! मंजु जी, अवनींद्र जी एवं नीलम जी, आपकी स्वरचित पंक्तियों ने महफ़िल के सूनेपन को समाप्त करने में हमारी सहायता की। इसके लिए हम आपके तह-ए-दिल से आभारी हैं। पूजा जी, दिलीप जी से हमारा परिचय कराने के लिए आपका धन्यवाद! लेकिन यह क्या.. शेर किधर हैं? अगली बार ध्यान रखिएगा।<br /><br />चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br /><br /><span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br /><br /><hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-31771546491602609952011-01-26T09:21:00.002+05:302011-01-26T11:07:59.500+05:30अपने पडो़सी दिल से भीनी-भीनी भोर की माँग कर बैठे गोटेदार गुलज़ार साहब, आशा जी एवं राग तोड़ी वाले पंचम दा<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०९</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">गु</span>लज़ार और पंचम - ये दो नाम दो होते हुए भी एक से लगते हैं और जब भी इन दोनों का नाम साथ में आता है तो सुनने वालों को मालूम हो जाता है कि कुछ नया कुछ अलबेला पक के आने वाला है बाहर.. अभी-अभी पतीला खुलेगा और कोई मीठी-सी नज़्म छलकते हुए हमारे कानों तक पहुँच जाएगी। ये दोनों फ़नकार एक-दूसरे के पूरक-से हो चले थे। कैसी भी घुमावदार सोच हो, किसी भी मोड़ पर बिन कहे मुड़ने वाले मिसरे हों या फिर किसी अखबार की सुर्खियाँ हीं क्यों न हो.. गुलज़ार के हरेक शब्द-नुमा ईंट का जवाब पंचम अपने सुरों के पत्थर (अजीब उपमा है.. यूँ होना तो फूल चाहिए, लेकिन मुहावरा बनाने वाले ने हमारे पास कम हीं विकल्प छोड़े हैं) से दिया करते थे... और जवाब ऐसा कि "साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे".. गुलज़ार के शब्द जहाँ शिखर पर हीं मौजूद रहें, वहीं उसी के इर्द-गिर्द पंचम अपनी पताका भी लहरा आएँ... तभी तो दोनों की जोड़ी आजतक प्यार और गुमान से याद की जाती है। <br />
<br />
लेकिन यह जोड़ी ज्यादा दिनों तक रह नहीं पाई। गुलज़ार को राह में अकेले छोड़कर पंचम दुसरी दुनिया में निकल लिए। पंचम के गुजरने का असर गुलज़ार पर किस हद तक पड़ा, इसका अंदाजा पंचम की याद में लिखे गुलज़ार के इस नज़्म से लगाया जा सकता है:<br />
<br />
<b>याद है बारिशों का दिन, पंचम <br />
<br />
याद है जब पहाड़ी के नीचे वादी में <br />
धुंध से झांककर निकलती हुई <br />
रेल की पटरियां गुज़रती थीं <br />
धुंध में ऐसे लग रहे थे हम <br />
जैसे दो पौधे पास बैठे हों <br />
हम बहुत देर तक वहां बैठे <br />
उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे <br />
जिसको आना था पिछली शब, लेकिन <br />
उसकी आमद का वक्त टलता रहा <br />
देर तक पटरियों पर बैठे हुए <br />
रेल का इंतज़ार करते रहे <br />
रेल आई ना उसका वक्त हुआ <br />
और तुम, यूं ही दो क़दम चलकर <br />
धुंध पर पांव रखके चल भी दिए <br />
<br />
मैं अकेला हूं धुंध में 'पंचम'...</b><br />
<br />
पंचम की क्षति अपूर्णीय है.. जितना गुलज़ार के लिए उतना हीं संगीत के अन्य साधकों के लिए भी... पंचम के गए पूरे सत्रह बरस हो गए, गए ४ जनवरी को उनकी पुण्य-तिथि थी। मैंने जब यह "आलेख" लिखना शुरू किया था तो यह सोचा नहीं था कि मेरी लेखनी पंचम को याद करने में डूब जाएगी, लेकिन भावनाओं का वह सैलाब बह निकला कि न मैं खुद को रोक पाया, न अपनी लेखनी को। बात जब गुलज़ार और पंचम की हो रही है तो क्यों न आज अपनी महफ़िल को इन्हीं दोनों की एक नज़्म से सजाया जाए। <br />
<br />
हम आज की नज़्म तक पहुँचें, इससे पहले एक और फ़नकार से आपका परिचय कराना लाजिमी हो जाता है... मुआफ़ कीजिएगा, फ़नकार नहीं.. फ़नकारा। इन फ़नकारा के बिना गुलज़ार-पंचम की जोड़ी में उतनी जान नहीं, जोकि इनकी तिकड़ी में है। यह फ़नकारा कोई और नहीं, बल्कि पंचम दा की अर्धांगिनी आशा भोसले जी हैं, जिन्हें सारी दुनिया आशा ताई के नाम से पुकारती है। गुलज़ार साहब, पंचम दा और आशा ताई की तिकड़ी ने फिल्मों में एक से बढकर एक गीत दिए है। चंद नाम यहाँ पेश किए देता हूँ: --'क़तरा क़तरा मिलती है', 'मेरा कुछ सामान', 'आंकी चली बांकी चली', 'आऊंगी एक दिन आज जाऊं' 'बड़ी देर से मेघा बरसा', 'बेचारा दिल क्या करे', 'छोटी सी कहानी से'... यह फेहरिश्त और भी बहुत लंबी है, लेकिन मेरे हिसाब से इतने उदाहरण हीं काफी हैं। <br />
<br />
न सिर्फ़ फिल्मों में बल्कि इनकी तिकड़ी का कमाल "एलबमों" में भी नज़र आता है। "एलबमों" की बात करने पर जिस एलबम की याद सबसे पहले आती है, वह है "दिल पड़ोसी है"। इस एलबम को आशा ताई के जन्मदिन पर यानि कि ८ सितम्बर को १९८७ में रीलिज किया गया था। इसमें में कुल चौदह गाने थे(हैं)। आज आपको हम इस एलबम से "भीनी भीनी भोर आई" सुनवाने जा रहे हैं। अगली कड़ी में हम एलबम के बाकी गानों से रूबरू होंगे। इस गाने के बारे में हम कुछ कहें, इससे अच्छा होगा कि क्यों न इसके कारीगरों से हीं इसके बनने की कहानी सुन लें। "संगीत सरिता" कार्यक्रम के अंतर्गत "मेरी संगीत यात्रा" लेकर आ रहे हैं "गुलज़ार साहब, पंचम दा एवं आशा ताई" (सौजन्य: सजीव जी, सुजॉय जी)<br />
<br />
<blockquote><b>पंचम दा:</b> आशा जी, आपको याद है कोई गीत जो आपने काफ़ी मेहनत से गाया होगा?<br />
<br />
<b>आशा जी:</b> हाँ, एक गीत आपने राग तोड़ी में बनाया था। वैसे तोड़ी में "धा" से पंचम लगाना चाहिए, पर फिल्मी गीत में अगर पूरा का पूरा राग वैसे हीं रख दिया जाए तो उस राग पर आधारित सभी गीत एक जैसे हीं लगेंगे। थोड़ी-बहुत चेंज करके अगर गीतों को ढाला जाए तो एक नयापन भी आता है और सुनने में भी अच्छा लगता है।<br />
<br />
<b>गुलज़ार साहब:</b> हाँ सही बात है, अगर "क्लासिकल म्युज़िक" को मिसाल बनाकर कोई फिल्म बन रही है तब अलग बात है।<br />
<br />
<b>पंचम दा:</b> गुलज़ार, आप को याद है "भीनी भीनी भोर".. "दिल पड़ोसी है" एलबम का ये पहला गाना रखा था हमने?<br />
<br />
<b>आशा जी:</b> गुलज़ार भाई, आपने इस गाने में "गोटा" शब्द का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल किया था।<br />
<br />
<b>गुलज़ार साहब:</b> सोने की चमक की "उपमा" हमारे फिल्मी गीतों में काफ़ी पाई जाती है, कभी आग से, कभी धूप से। लेकिन हर चीज़ जो चमकती है वह सोना नहीं होती (तीनों हँसते हैं), हमारे यहाँ शादी में गोटेदार चुनरी देखने को मिलती है, तो उसी से मैंने यह लिया था।<br />
<br />
<b>आशा जी:</b> लेकिन आपने तो बादल को गोटा लगाया था ना?<br />
<br />
<b>गुलज़ार साहब:</b> मुझे लगता था कि गोटे की जो चुनरी है वो बहुत हीं खूबसूरत है। आशा जी, आपने कहा कि पंचम ने तोड़ी का "चलन" बदला, मुझे तो हमेशा हीं इसके चाल-चलने पर शक़ रहा है (तीनों ठहाका लगाते हैं), आपने कहा कि इन्होंने अपना चलन बदला! (हँसी ज़ारी है)<br />
<br />
<b>पंचम दा:</b> यह सुबह का गाना था, इसमें हमने मुर्गियों की आवाज़ डाली थी, बहुत सारे "साउंड इफ़ेक्ट्स" थे कि जिससे सुबह का "वातावरण" सामने आए, एक आदत हो चुकी थी, अब आप इसे चलन कहिये, ऐसे कोई राग बन जाता हओ, "मूड" बन जाता है।</blockquote><br />
तो आपने देखा कि माहौल कितना खुशगवार हो जाता था, जब ये तीनों एक जगह आ जुटते थे। जब बातचीत इतनी सुरीली है तो संगीत के बारे में क्या कहा जाए! चलिए तो फिर हम भी राग तोड़ी में मुर्गिर्यों की बांग के बीच गुलज़ार साहब के "गोटे" का मज़ा लेते हैं और इस तिकड़ी को फिर से याद करते हैं (वैसे अगली कड़ी भी इसी तिकड़ी और इसी एलबम को समर्पित है):<br />
<b><br />
भिनी भिनी भोर आई<br />
भिनी भिनी भोर आई<br />
रूप रूप पर छिडके सोना<br />
स्वर्ण कलश चमकाती आई<br />
भिनी भिनी भोर भोर आई ...<br />
<br />
माथे सुनहरी टीका लगाये<br />
पात पात पर गोटा लगाये<br />
गोटा लगाई<br />
सात रंग की जाई आई<br />
भिनी भिनी भोर आई...<br />
<br />
ओस धुले मुख पोछे सारे<br />
_____ लेप गई उजियारे<br />
उजियारे उजियारे<br />
सा रे ग मा धा नि<br />
जागो जगर की बेला आई<br />
भिनी भिनी भोर आई...<br />
<br />
भिनी भिनी भोर आई<br />
रूप रूप पर छिडके सोना<br />
रूप रूप पर छिडके सोना<br />
स्वर्ण कलश चमकाती आई<br />
भिनी भिनी भोर आई<br />
भिनी भिनी भोर आई.....</b><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js">
</script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/mehfil-e-ghazal109/ViniVini.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/01/hussain-bandhu-hasrat-nazar-mujhse.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "ऊँगली" और मिसरे कुछ यूँ थे-<br />
<br />
नज़र नीची किए दाँतों में ऊँगली को दबाती हो,<br />
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
उँगली उठाना बड़ा आसां होता है किसी पे <br />
लोग अपनी कमियों की बात करते नहीं हैं. - शन्नो जी ( इशारा किसकी तरफ़ है? :) )<br />
<br />
उसका अँगुली पकडना गजब ढा गया ,<br />
उसका प्रेम का इजहार गजब ढा गया - मंजु जी (ये पंक्तियाँ शेर बनते-बनते रह गई.. कुछ कमी है कहीं न कहीं)<br />
<br />
वो चीरता रहा मेरे हृदय को,<br />
मैं देखता रहा फिर भी समय को<br />
ऊँगली उठा रहा था वो मेरी तरफ मगर,<br />
छुपा रहा था शायद वो अपने भय को - अवनींद्र जी (इस बार आपका चिरपरिचित जादू कहीं गायब मालूम पड़ता है)<br />
<br />
उँगलिया उठेगी सुखे हुए बालो की तरफ,<br />
एक नजर डालेंगें बीते हुए सालो की तरफ - कफ़ील आज़र.. हमने इनपर <a href="http://podcast.hindyugm.com/2009/07/baat-niklegi-to-fir-door-talak-jayegi.html">पूरी की पूरी एक कड़ी</a> लिख डाली थी (जगजीत सिंह जी तो बस गुलुकार हैं, हमें तो ग़ज़लगो के नाम की दरकार है)<br />
<br />
डूब गयी जब कलम हमारी प्यार के गहरे सागर मे..<br />
दर्द की उंगली थामे थामे, उसे उबरते देखा है -दिलीप तिवारी (पूजा जी, इनके बारे में कुछ और जानकारी कहीं से हासिल होगी? )<br />
<br />
पिछली महफ़िल में सबसे पहले हाज़िरी लगाई अवध जी ने, लेकिन कोई भी शब्द गायब न पाकर आप फिर से आने का वादा करके रवाना हो लिए, लेकिन यह क्या, एक बार फिर आपने वादाखिलाफ़ी की.. ये अच्छी बात नहीं :) आपके बाद आकर शन्नो जी ने न सिर्फ़ गायब शब्द पहचाना बल्कि उसपर एक-दो शेर भी कहे। इसलिए नियम से शन्नो जी हीं "शान-ए-महफ़िल" बनीं। प्रतीक जी, आपने हमारे प्रयास को सराहा, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार! मंजु जी एवं अवनींद्र जी, महफ़िल में स्वरचित शेरों के दौर को आप दोनों ने आगे बढाया। शुक्रिया! सुमित जी, अगली बार से शायर का नाम भूल मत आईयेगा कहीं :) नीलम जी, आपके आने को आना समझूँ या नहीं, आपने शेर कहने की बजाय शन्नो जी को शांत कराना हीं जरूरी समझा.. ऐसा क्यों? :) पूजा जी, दिलीप जी का शेर है तो काबिल-ए-तारीफ़, लेकिन हम इनकी तारीफ़ भी जानना चाहेंगे। इस बार याद रखिएगा :) <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-35776623490257725872011-01-12T10:19:00.004+05:302011-01-13T14:44:28.185+05:30इसी को प्यार कहते हैं.. प्यार की परिभाषा जानने के लिए चलिए हम शरण लेते हैं हसरत जयपुरी और हुसैन बंधुओं की<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०८</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">ग़</span>ज़लों की दुनिया में ग़ालिब का सानी कौन होगा! कोई नहीं! है ना? फिर आप उसे क्या कहेंगे जिसके एक शेर पर ग़ालिब ने अपना सारा का सारा दीवान लुटाने की बात कह दी थी.. "तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता।" इस शेर की कीमत आँकी नहीं जा सकती, क्योंकि इसे खरीदने वाला खुद बिकने को तैयार था। आपको पता न हो तो बता दूँ कि यह शेर उस्ताद मोमिन खाँ ’मोमिन’ का है। अब बात करते हैं उस शायर की, जिसने इस शेर पर अपना रंग डालकर एक रोमांटिक गाने में तब्दील कर दिया। न सिर्फ़ इसे तब्दील किया, बल्कि इस गाने में ऐसे शब्द डाले, जो उससे पहले उर्दू की किसी भी ग़ज़ल या नज़्म में नज़र नहीं आए थे - "शाह-ए-खुबां" (इस शब्द-युग्म का प्रयोग मैंने भी अपने एक गाने "<a href="http://www.muziboo.com/sriramemani/music/husn-e-ilahi-original-composition/">हुस्न-ए-इलाही</a>" में कर लिया है) एवं "जान-ए-जानाना"। दर-असल ये शायर ऐसे प्रयोगों के लिए "विख्यात"/"कुख्यात" थे। इनके गानों में ऐसे शब्द अमूमन हीं दिख जाते थे, जो या तो इनके हीं गढे होते थे या फिर न के बराबर प्रचलित। फिर भी इनके गानों की प्रसिद्धि कुछ कम न थी। इन्हें यूँ हीं "रोमांटिक गानों" का बादशाह नहीं कहा जाता। बस इनसे यही शिकायत रही थी कि ये नामी-गिरामी और किवदंती बन चुके शायरों के शेरों को तोड़-मरोड़कर अपने गानों में डालते थे (जैसा कि इन्होंने "मोमिन" के शेर के साथ किया), जबकि दूसरे गीतकार उन शेरों को जस-का-तस गानों में रखते थे/हैं और इस तरह से उन शायरों को श्रद्धांजलि देते थे/हैं। मेरे हिसाब से "गुलज़ार" ने सबसे ज्यादा अपने गानों में "ग़ालिब", "मीर", "जिगर" एवं "बुल्ले शाह" की रचनाओं का इस्तेमाल किया है, लेकिन उन शायरों के लिखे एक भी हर्फ़ में हेर-फेर नहीं किया, इसलिए कोई भी सुधि श्रोता/पाठक इनसे नाराज़ नहीं होता। हमारे आज के शायर ने यही एक गलती कर दी है... इसलिए मुमकिन है कि जब भी ऐसी कोई बात उठेगी तो ऊँगली इनकी तरफ़ खुद-ब-खुद हीं उठ जाएगी। खैर छोड़िये... हम भी कहाँ आ गए! हमें तो अपने इस रोमांटिक शायर से बहुत कुछ सुनना है, बहुत कुछ सीखना है और इनके बारे में बहुत कुछ जानना भी है।<br />
<br />
बहुत देर से हम "इस" और "ये" के माया-जाल में फँसे थे, तो इस जाल से बाहर निकलते हुए, हम यह बता दें कि जिनकी बात यहाँ की जा रही है, वे और कोई नहीं राज कपूर साहब के चहेते जनाब "हसरत जयपुरी" हैं। ये क्या थे.... चलिए यह जानने के लिए हम कुछ चिट्ठों को खंगाल मारते हैं (साभार: लाईव हिन्दुस्तान, सुरयात्रा, पत्रिका, ड्रीम्स एवं कविताकोश)<br />
<br />
<blockquote>१५ अप्रैल, १९१८ को जन्मे हसरत जयपुरी का मूल नाम इकबाल हुसैन था। उन्होंने जयपुर में प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद अपने दादा फिदा हुसैन से उर्दू और फारसी की तालीम हासिल की। बीस वर्ष का होने तक उनका झुकाव शेरो-शायरी की तरफ होने लगा और वह छोटी-छोटी कविताएं लिखने लगे। वर्ष १९४० मे नौकरी की तलाश में हसरत जयपुरी ने मुंबई का रुख किया और आजीविका चलाने के लिए वहां बस कंडक्टर के रुप में नौकरी करने लगे। इस काम के लिए उन्हे मात्र ११ रुपये प्रति माह वेतन मिला करता था। इस बीच उन्होंने मुशायरा के कार्यक्रम में भाग लेना शुरू किया। ऐसे हीं एक मुशायरे मे उन्होंने मजदूरों के बीच अपनी कविता "मजदूर की लाश" पढ़ी, जिसे पृथ्वीराज कपूर ने भी सुना। उनकी काबिलियत से प्रभावित होकर वे उन्हें पृथ्वी थिएटर ले आए और राज कपूर से मिलने की सलाह दी। राज कपूर ने उनकी कविता "मैं बाजारों की नटखट रानी" सुनकर अपनी दूसरी फिल्म "बरसात" के गीत लिखने का ऑफर दे दिया। १५० रूपए माहवार पर उनकी नौकरी पक्की हो गई। इसे महज एक संयोग ही कहा जायेगा कि फिल्म बरसात से ही संगीतकार शंकर जयकिशन ने भी अपने सिने कैरियर की शुरूआत की थी।<br />
<br />
राजकपूर के कहने पर शंकर जयकिशन ने हसरत जयपुरी को एक धुन सुनाई और उसपर उनसे गीत लिखने को कहा। धुन के बोल कुछ इस प्रकार थे- "अंबुआ का पेड़ है वहीं मुंडेर है आजा मेरे बालमा काहे की देर है" शंकर जयकिशन की इस धुन को सुनकर हसरत जयपुरी ने गीत लिखा "जिया बेकरार है छाई बहार है आजा मेरे बालमा तेरा इंतजार है"। वर्ष १९४९ में प्रदर्शित फिल्म बरसात में अपने इस गीम की कामयाबी के बाद हसरत जयपुरी रातोंरात बतौर गीतकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फिल्म की कामयाबी के बाद राजकपूर, हसरत जयपुरी और शंकर जयकिशन की जोड़ी ने कई फिल्मों मे एक साथ काम किया। इनमें आवारा, श्री 420, चोरी चोरी, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, संगम, तीसरी कसम, दीवाना, एराउंड द वर्ल्ड, मेरा नाम जोकर, कल आज और कल जैसी फिल्में शामिल है। यह जोड़ी १९७१ तक अनेक फिल्मो में साथ काम करती रही, "मेरा नाम जोकर " के फेल होने और जयकिशन के निधन होने के बाद राज कपूर ने इस टीम को छोड़ दिया और अपनी नयी टीम आनंद बक्षी - लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ बना ली, लेकिन अपनी फ़िल्म "राम तेरी गंगा मैली" में हसरत को वापस ले आये, जहाँ हसरत ने "सुन साहिबा सुन" लिखा, लेकिन राज कपूर की मौत के बाद हसरत का फिल्मी सफ़र थम सा गया था, फिर भी वे कुछ संगीतकारों के साथ काम करते रहे।<br />
<br />
हसरत जयपुरी को दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें पहला फिल्म फेयर पुरस्कार वर्ष १९६६ में फिल्म सूरज के गीत बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है के लिए दिया गया। वर्ष १९७१ मे फिल्म अंदाज में जिंदगी एक सफर है सुहाना गीत के लिए भी वह सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। हसरत जयपुरी वर्ल्ड यूनिवर्सिटी टेबुल के डाक्ट्रेट अवार्ड और उर्दू कान्फ्रेंस में जोश मलीहाबादी अवार्ड से भी सम्मानित किए गए। फिल्म मेरे हुजूर में हिन्दी और ब्रज भाषा में रचित गीत झनक झनक तोरी बाजे पायलिया के लिए वह अम्बेडकर अवार्ड से सम्मानित किए गए। <br />
<br />
अपने गीतों से कई वर्षों तक श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाला यह शायर और गीतकार १७ सिंतबर, १९९९ को संगीतप्रेमियों को रोता और तनहा छोड़कर चला गया।</blockquote><br />
इन जानकारियों के बाद आज की नज़्म की ओर रुख करें.. उससे पहले बड़ी हीं मज़ेदार बात आपसे बाँटने का जी कर रहा है। २८ जुलाई, २००९ को सुजॉय जी ने अपने "ओल्ड इज गोल्ड" पर हमें एक गीत सुनाया था "ये मेरा प्रेम-पत्र पढकर<a href="http://podcast.hindyugm.com/2009/07/blog-post_28.html"></a>" और उस आलेख में लिखा था कि "<b>हसरत साहब ने इस गीत में अपने आप को इस क़दर डूबो दिया है कि सुनकर ऐसा लगता है कि उन्होने इसे अपनी महबूबा के लिए ही लिखा हो! इससे बेहतर प्रेम-पत्र शायद ही किसी ने आज तक लिखा होगा!</b>" और इतना कहते-कहते सुजॉय जी रूक गए थे। तो दर-असल बात ये है कि "हसरत" साहब ने यह गीत अपने महबूबा के लिए हीं लिखा था। यह रही पूरी कहानी: <b>लगभग बीस साल की उम्र में उनका राधा नाम की हिन्दू लड़की से प्रेम हो गया था, लेकिन उन्होंने अपने प्यार का इजहार नहीं किया। उन्होंने पत्र के माध्यम से अपने प्यार का इजहार करना चाहा, लेकिन उसे देने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाए। वह लड़की उनकी प्रेरणा बन गई और उसी को कल्पना बनाकर वे जीवनभर शायरी करते रहे। बाद में राजकपूर ने उस पत्र में लिखी कविता 'ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज ना होना...' का इस्तेमाल अपनी फिल्म संगम के लिए किया।</b> नाकाम एकतरफ़ा प्रेम क्या-क्या न करवा देता है.. कोई हम जैसों से पूछे!! चलिए इसी बहाने एक शायर तो मिला हमें!<br />
<br />
हमने एक बार जब "मुहम्मद हुसैन" और "अहमद हुसैन" यानि कि "हुसैन बंधुओं" की <a href="http://podcast.hindyugm.com/2009/06/blog-post_09.html">ग़ज़ल आप सबको सुनवाई थी</a> तो लिखा था कि इनका हसरत जयपुरी से बड़ा हीं गहरा नाता है। आज उसी नाते के कारण हम आज की यह नज़्म लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं। "हुसैन बंधुओं" ने इस "रोमांटिक"-से नज़्म को किस कशिश से गाया है, इसका अंदाजा बिना सुने नहीं लगाया जा सकता। इसलिए आईये हम और आप डूब जाते हैं "प्यार के इस सागर" में और जानते हैं कि "प्यार कहते किसे हैं":<br />
<b><br />
नज़र मुझसे मिलाती हो तो तुम शरमा-सी जाती हो<br />
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।<br />
<br />
जबाँ ख़ामोश है लेकिन निग़ाहें बात करती हैं<br />
अदाएँ लाख भी रोको अदाएँ बात करती हैं।<br />
नज़र नीची किए दाँतों में ____ को दबाती हो।<br />
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।<br />
<br />
छुपाने से मेरी जानम कहीं क्या प्यार छुपता है<br />
ये ऐसा मुश्क है ख़ुशबू हमेशा देता रहता है।<br />
तुम तो सब जानती हो फिर भी क्यों मुझको सताती हो?<br />
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।<br />
<br />
तुम्हारे प्यार का ऐसे हमें इज़हार मिलता है<br />
हमारा नाम सुनते ही तुम्हारा रंग खिलता है<br />
और फिर साज़-ए-दिल पे तुम हमारे गीत गाती हो।<br />
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।<br />
<br />
तुम्हारे घर में जब आऊँ तो छुप जाती हो परदे में<br />
मुझे जब देख ना पाओ तो घबराती हो परदे में<br />
ख़ुद ही चिलमन उठा कर फिर इशारों से बुलाती हो।<br />
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।</b><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2011/01/aao-phir-se-diya-jalaayein-atal-lata.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "मोह-जाल" और मिसरे कुछ यूँ थे-<br />
<br />
वर्त्तमान के मोह-जाल में,<br />
आने वाला कल न भुलाएँ।<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
निश्छल, निष्कपट भावना हो <br />
स्नेह से हो हर मन सुरभित<br />
उलझे ना कोई भी मोहजाल में <br />
उल्लास से हो हर मन कुंजित - शन्नो जी<br />
<br />
जान लिखकर लगा दिए चार चाँद ,<br />
सृजन कराता लिखने का मोह जाल . - मंजु जी<br />
<br />
मोह-जाल का जाल न मोह सके <br />
जीवन को सच का प्राण मिले - अवनींद्र जी<br />
<br />
<b>शुभ रेखांकित सप्त पदी से, <br />
सरस नेत्र ने थामी अंगुल, <br />
लिये हाथ में हाथ सदी से, <br />
नव निर्मित बादामी अंगुल.<br />
किंचित सरस नेत्र शरमाया,<br />
मधुर मोह जाल यह पाया,<br />
अधर पहन कर अधरों पर, <br />
भरती लजीली हामी अंगुल</b>. - पूजा जी (पूरी कविता हीं पेश कर रहा हूँ क्योंकि मुझे यह रचना बेहद पसंद आई.. पूजा जी, आपने सारी शिकायतें पल में हीं दूर कर दीं)<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शान बनीं "शन्नो जी"। आपने "मोह-जाल" पर इतनी सारी पंक्तियाँ पेश कीं कि हम भी आपके मोह-जाल में फँस गए। अपना यह प्यार ऐसे हीं बनाए रखियेगा। शन्नो जी के बाद महफ़िल का हिस्सा बने अवध जी। हाँ, मोह-जाल शब्द थोड़ा अलग तरह का है, इसलिए इस पर शेर या दोहा लिखना आसान नहीं, लेकिन यह क्या, आप दुबारा आने का वादा करके मुकर गए, आए हीं नहीं.. ऐसे नहीं चलेगा :) इसकी सज़ा यह है कि आप आज की महफ़िल के कम से कम चार चक्कार लगाएँ। सही है ना? अगली बारी थी मंजु जी की। मंजु जी ने छुट्टियाँ का मोह-जाल समेटे हुए नए वर्ष में कदम रखा और हमें भी नए वर्ष की बधाईयाँ दी। आपका स्वागत है! नीलम जी, हम आपकी भी पंक्तियाँ इस महफ़िल में शामिल करते, लेकिन आपसे एक गलती हो गई। आपने "मोह-जाल" को एक शब्द की तरह नहीं रखा, बल्कि इसे "मोह का कोई जाल" बना दिया। आगे से ध्यान रखियेगा। पिछली महफ़िल में जिन दो फ़नकारों ने चार चाँद लगाए, वे हैं "अवनींद्र" जी एवं "पूजा" जी। मैं चाहता तो था कि अवनींद्र जी की भी कविता अपनी टिप्पणी में डालूँ, लेकिन वह बहुत बड़ी है, इसलिए उनका बस "ज़िक्र" हीं कर पा रहा हूँ, जहाँ तक पूजा जी की बात है तो आपने हमारा दिल जीत लिया। और क्या कहूँ! :)<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-15746000285165079842011-01-05T10:16:00.002+05:302011-01-05T12:39:50.100+05:30नव दधीचि हड्डियां गलाएँ, आओ फिर से दिया जलाएँ... अटल जी के शब्दों को मिला लता जी की आवाज़ का पुर-असर जादू<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०७</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">रा</span>जनीति और साहित्य साथ-साथ नहीं चलते। इसका कारण यह नहीं कि राजनीतिज्ञ अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता या फिर एक साहित्यकार अच्छी राजनीति नहीं कर सकता.. बल्कि यह है कि उस साहित्यकार को लोग "राजनीति" के चश्मे से देखने लगते हैं। उसकी रचनाओं को पसंद या नापसंद करने की कसौटी बस उसकी प्रतिभा नहीं रह जाती, बल्कि यह भी होती है कि वह जिस राजनीतिक दल से संबंध रखता है, उस दल की क्या सोच है और पढने वाले उस सोच से कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं। अगर पढने वाले उसी सोच के हुए या फिर उस दल के हिमायती हुए तब तो वो साहित्यकार को भी खूब मन से सराहेंगे, लेकिन अगर विरोधी दल के हुए तो साहित्यकार या तो "उदासीनता" का शिकार होगा या फिर नकारा जाएगा... कम हीं मौके ऐसे होते हैं, जहाँ उस राजनीतिज्ञ साहित्यकार की प्रतिभा का सही मूल्यांकन हो पाता है। वैसे यह बहस बहुत ज्यादा मायना नहीं रखती, क्योंकि "राजनीति" में "साहित्य" और "साहित्यकार" के बहुत कम हीं उदाहरण देखने को मिलते है, जितने "साहित्य" में "राजनीति" के। "साहित्य" में "राजनीति" की घुसपैठ... हाँ भाई यह भी होती है और बड़े जोर-शोर से होती है, लेकिन यह मंच उस मुद्दे को उठाने का नहीं है, इसलिए "साहित्य में राजनीति" वाले बात को यहीं विराम देते हैं और "राजनीति" में "साहित्य" की ओर ओर मुखातिब होते हैं। अगर आपसे पूछा जाए कि जब भी इस विषय पर बात होती है तो आपको सबसे पहले किसका नाम याद आता है.. (मैं यहाँ पर हिन्दी साहित्य की बात कर रहा हूँ, इसलिए उम्मीद है कि अपने जवाब एक हीं होंगे), तो निस्संदेह आपका उत्तर एक हीं इंसान के पक्ष में जाएगा और वे इंसान हैं हमारे पूर्व प्रधानमंत्री "श्री अटल बिहारी वाजपेयी"। यहाँ पर यह ध्यान देने की बात है कि इस आलेख का लेखक यानि कि मैं किसी भी दलगत पक्षपात/आरक्षण के कारण अटल जी का ज़िक्र नहीं कर रहा, बल्कि साहित्य में उनके योगदान को महत्वपूर्ण मानते हुए उनकी रचना को इस महफ़िल का हिस्सा बना रहा हूँ। अटल जी की इस रचना का चुनाव करने के पीछे एक और बड़ी शक्ति है और उस शक्ति का नाम है "स्वर-कोकिला", जिन्होंने इसे गाने से पहले वही बात कही थी, जो मैंने अभी-अभी कही है: "<b>मैं उन्हें एक कवि की तरह देखती हूँ और वो मुझे एक गायिका की तौर पे.. हमारे बीच राजनीति कभी भी नहीं आती।</b>"<br />
<br />
अटल जी.. इनका कब जन्म हुआ और इनकी उपलब्धियाँ क्या-क्या हैं, मैं अगर इन बातों का वर्णन करने लगा तो इनकी राजनीतिक गतिविधियों से बचना मुश्किल होगा, इसलिए सही होगा कि हम सीधे-सीधे इनकी रचनाओं की ओर रुख कर लें। <b>लेकिन उसके पहले हम इन्हें जन्मदिवस की शुभकामनाएँ एवं बधाईयाँ देते हैं। इन्होंने पिछले २५ दिसम्बर को हीं अपने जीवन के ८७वें वसंत में कदम रखा है</b>। "कवि के रूप में अटल" इस विषय पर "हिन्दी का विकिपीडिया" कुछ ऐसे विचार रखता है: <br />
<br />
<blockquote>मेरी इक्यावन कविताएं वाजपेयी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। अटल बिहारी वाजपेयी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस घूम रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता प्रकट होती रही। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियां, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेलवास सभी हालातों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में अभिव्यक्ति पायी। उनकी कुछ प्रकाशित रचनाएँ हैं:<br />
<br />
मृत्यु या हत्या<br />
अमर बलिदान (लोक सभा मे अटल जी वक्तव्यों का संग्रह)<br />
कैदी कविराय की कुन्डलियाँ<br />
संसद में तीन दशक<br />
अमर आग है<br />
कुछ लेख कुछ भाषण<br />
सेक्युलर वाद<br />
राजनीति की रपटीली राहें<br />
बिन्दु बिन्दु विचार<br />
न दैन्यं न पलायनम<br />
मेरी इक्यावन कविताएँ...इत्यादि</blockquote><br />
बात जब अटल जी की कविताओं की हीं हो रही है तो क्यों न इनकी कुछ पंक्तियों का आनंद लिया जाए:<br />
<br />
क) हमें ध्येय के लिए <br />
जीने, जूझने और <br />
आवश्यकता पड़ने पर— <br />
मरने के संकल्प को दोहराना है। <br />
<br />
आग्नेय परीक्षा की <br />
इस घड़ी में— <br />
आइए, अर्जुन की तरह <br />
उद्घोष करें : <br />
"न दैन्यं न पलायनम्।" ("न दैन्यं न पलायनम्" से)<br />
<br />
ख) <b>पहली अनुभूति</b>:<br />
गीत नहीं गाता हूँ<br />
<br />
बेनक़ाब चेहरे हैं,<br />
दाग़ बड़े गहरे हैं <br />
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ<br />
<br />
<b>दूसरी अनुभूति</b>:<br />
गीत नया गाता हूँ<br />
<br />
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर<br />
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर<br />
झरे सब पीले पात<br />
कोयल की कुहुक रात<br />
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पाता हूँ ("दो अनुभूतियाँ" से)<br />
<br />
ग) ऊँचे पहाड़ पर, <br />
पेड़ नहीं लगते, <br />
पौधे नहीं उगते, <br />
न घास ही जमती है।<br />
जमती है सिर्फ बर्फ..<br />
<br />
....<br />
न वसंत हो, न पतझड़, <br />
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़, <br />
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा। <br />
<br />
मेरे प्रभु! <br />
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, <br />
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ, <br />
इतनी रुखाई कभी मत देना। ("ऊँचाई" से)<br />
<br />
रचनाएँ तो और भी कई सारी हैं, लेकिन "वक़्त" और "जगह" की पाबंदी को ध्यान में रखते हुए आईये आज की नज़्म से रूबरू होते हैं। "आओ फिर से दिया जलाएँ" एक ऐसी नज़्म है, जो मन से हार चुके और पथ से भटक चुके पथिकों को फिर से उठ खड़ा होने और सही राह पर चलने की सीख देती है। शुद्ध हिन्दी के शब्दों का चुनाव अटल जी ने बड़ी हीं सावधानी से किया है, इसलिए कोई भी शब्द अकारण आया प्रतीत नहीं होता। अटल जी ने इसे जिस खूबसूरती से लिखा है,उसी खूबसूरती से लता जी ने अपनी आवाज़ का इसे अमलीजामा पहनाया है.. इन दोनों बड़ी हस्तियों के बीच अपने आप को संयत रखते हुए "मयूरेश पाई" ने भी इसे बड़े हीं "सौम्य" और "सरल" संगीत से संवारा है। लेकिन इस गीत की जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वह है "गीत की शुरूआत में बच्चों का एक स्वर में हूक भरना"। यह गीत "अंतर्नाद" एलबम का हिस्सा है, जो २००४ में रीलिज हुई थी और जिसमें अटल जी के लिखे और लता जी के गाए सात गाने थे। "अटल" जी और "लता" जी की यह जोड़ी कितनी कारगर है यह तो इसी बात से जाहिर है कि "अंग्रेजी में अटल को उल्टा पढने से लता हो जाता है" (यह बात खुद <a href="http://archive.thepeninsulaqatar.com/component/content/article/348-indiaarchiverest/53097.html">लता जी ने कही थी</a> इस एलबम के रीलिज के मौके पर) इसी "ट्रीविया" के साथ चलिए हम और आप सुनते हैं यह नज़्म:<br />
<b><br />
आओ फिर से दिया जलाएँ<br />
भरी दुपहरी में अंधियारा<br />
सूरज परछाई से हारा<br />
अंतरतम का नेह निचोड़ें-<br />
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।<br />
आओ फिर से दिया जलाएँ<br />
<br />
हम पड़ाव को समझे मंज़िल<br />
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल<br />
वतर्मान के _______ में-<br />
आने वाला कल न भुलाएँ।<br />
आओ फिर से दिया जलाएँ।<br />
<br />
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा<br />
अपनों के विघ्नों ने घेरा<br />
अंतिम जय का वज़्र बनाने-<br />
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।<br />
आओ फिर से दिया जलाएँ।</b><br />
<br />
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</script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/MehfilEGhazal105/AaoPhirSeDiyaJalayeinAtalLata.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/12/nadiya-kinare-mora-gaon-shafqat-ali.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "नगर" और मिसरे कुछ यूँ थे-<br />
<br />
आ बस हमरे नगर अब<br />
हम माँगे तू खा..<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
मेरे नगर के लोग बडे होशियार हैं<br />
रातें गुजारते है सभी जाग जाग कर - शरद जी<br />
<br />
मेरे नगर में खुशबू रचते हाथ ,<br />
महकाते समाज-देश-संसार - मंजु जी<br />
<br />
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया<br />
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया - मोहम्मद सनाउल्लाह सानी ’मीराजी’<br />
<br />
जिस नगर में अब कोई याद करता नहीं <br />
उसकी गलियों से भी अब वास्ता है नहीं. - शन्नो जी<br />
<br />
तेरे नगर में वो कैसी कशिश थी ,कैसी मस्ती थी <br />
जो अब तक तो देखी न थी,पर अब सबमे दिखती है - नीलम जी<br />
<br />
पत्थर के नगर मैं इंसान भी<br />
पत्थर सा हो गया है !<br />
घात लपेटे हर रिश्ता <br />
बदतर सा हो गया है ! - अवनींद्र जी<br />
<br />
ख्वाबों के मीठे फूल,<br />
ख्यालों के रंगीन झरने,<br />
बहारों का नगर है यह,<br />
यहाँ खुशियों के फल हैं मिलते. - पूजा जी<br />
<br />
सबसे पहले आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाईयाँ।<br />
<br />
पिछली महफ़िल में फिर से वही हुआ जो पहले की न जाने कई सारी महफ़िलों में हो चुका था। बस फ़र्क यह था कि पहले यह गलती शन्नो जी किया करती थीं, लेकिन इस बार बारी अवध जी की थी। आपने गलत शब्द "नज़र" सुन लिया और उस पर अपनी पंक्तियाँ भी लिख डालीं, ये तो शरद जी थे जिन्होंने "नगर" को पकड़ा और अपना स्वरचित शेर महफ़िल के हवाले किया। शरद जी ने हमारी भी ख़बर ली, अच्छी ख़बर ली :) लेकिन बस इसी वज़ह से हम इन्हें "शान-ए-महफ़िल" की पदवी से अलग नहीं कर सकते, बल्कि इन्होंने हमारी सहायता करके अपनी पदवी और मजबूत कर ली है। शरद जी के बाद महफ़िल में मंजु जी, शन्नो जी और नीलम जी का आना हुआ... अपने-अपने स्वरचित शेरों के साथ। आप तीनों की तिकड़ी कमाल की है और सच कहूँ तो यही तिकड़ी महफ़िल की जान है। यह मेल-मिलाप इसी तरह कायम रखिएगा... । तीन महिलाओं के बाद बारी आई मीराजी की। मीराजी खुद तो नहीं आए महफ़िल में, बल्कि उनका शेर लेकर हाज़िर हुए सुमित जी, जो खुद नहीं जानते थे कि उनकी पोटली में पड़ा शेर किसका है.. यह तो "गूगल" बाबा का कमाल है कि हमें "मीराजी" के शेर और <a href="http://kabaadkhaana.blogspot.com/2007/12/blog-post_15.html">उनकी जीवनी</a> के बारे में जानकारी हासिल हुई। आप सबों के बाद महफ़िल में चार चाँद लगाए अवनींद्र जी और पूजा जी ने। अवनींद्र जी तो इस महफ़िल को अपना घर समझते हीं हैं, अच्छी बात यह है कि पूजा जी भी अब महफ़िल के रंग में रंगने लगी हैं और टिप्पणी करने से नहीं मुकरती/कतराती। आशा करता हूँ कि इस नए साल में भी आप सब अपना प्यार यूँ हीं बनाए रखेंगे।<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-87107983497104795462010-12-15T10:26:00.005+05:302010-12-16T10:15:47.925+05:30उस्ताद शफ़कत अली खान की आवाज़ में राधा की "नदिया किनारे मोरा गाँव" की पुकार कुछ अलग हीं असर करती है<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०६</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">पि</span>छले कुछ हफ़्तों से अगर आपने महफिल को ध्यान से देखा होगा तो महफ़िल पेश करने के तरीके में हुए बदलाव पर आपकी नज़र ज़रूर गई होगी। पहले महफ़िल देर-सबेर १० बजे तक पूरी की पूरी तैयार हो जाती थी और फिर उसके बाद उसमें न कुछ जोड़ा जाता था और न हीं उससे कुछ हटाया जाता था। लेकिन अब १०:३० तक महफ़िल का एक खांका हीं तैयार हो पाता है, जिसमें उस दिन पेश होने वाली नज़्म/ग़ज़ल होती है, उसके बोल होते हैं, फ़नकार के बारे में थोड़ी-सी जानकारी होती है एवं पिछली महफ़िल के गायब हुए शब्द और शेर का ज़िक्र होता है। और इस तरह महफ़िल जब पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के लिए खोल दी जाती है, उस वक़्त महफ़िल खुद पूरी तरह से रवानी पर नहीं होती। ऐसा लगता है मानो दर्शक फ़नकारों का प्रदर्शन देख रहे हैं लेकिन उस वक़्त मंच पर दरी, चादर, तकिया भी सही से नहीं सजाए गए हैं। ऐसे समय में जो दर्शक एवं श्रोता महफ़िल से लौट जाते हैं और दुबारा नहीं आते, वो महफ़िल का सही मज़ा नहीं ले पाते, उनसे बहुत कुछ छूट जाता है। इसलिए मैं आप सभी प्रियजनों से आग्रह करूँगा कि भले हीं आप बुधवार की सुबह महफ़िल का आनंद ले चुके हों, फिर भी बुधवार की शाम या अगली सुबह महफ़िल का एक और चक्कर ज़रूर लगा लें.. महफ़िल पूरी तरह से सजी हुई आपको तभी नज़र आएगी। इसी दरख्वास्त के साथ आज की महफ़िल का शुभारंभ करते हैं।<br />
<br />
आज की महफ़िल में हम जो नज़्म लेकर हाज़िर हुए हैं, वह शायद ठुमरी है। इसे ठुमरी मानने के दो कारण हैं:<br />
१) इसे जिस फ़नकार ने गाया है वो ज्यादातर ख्याल एवं ठुमरी हीं गाते हैं।<br />
२) इसी नाम की एक और नज़्म श्री भीमसेन जोशी की आवाज़ में मुझे सुनने को मिली और वह नज़्म एक ठुमरी है, राग "मिश्र पुली" में<br />
लेकिन मैं "शायद" शब्द का हीं इस्तेमाल करूँगा, क्योंकि मुझे कहीं यह लिखा नहीं मिला कि "उस्ताद शफ़क़त अली खान" ने "नदिया किनारे मोरा गाँव" नाम की एक ठुमरी गाई है। वैसे इस गाने के बारे में मेरा शोध अभी खत्म नहीं हुआ है, जैसे हीं मुझे कुछ और जानकारी मिलती है, मैं पूरी महफ़िल को उससे अवगत करा दूँगा।<br />
<br />
हाँ तो हम इतना जान चुके हैं कि आज के फ़नकार का नाम "उस्ताद शफ़कत अली खान" है। शुरू-शुरू में मैंने जब इनका नाम सुना तो मैं इन्हें "शफ़कत अमानत अली खान" हीं मान बैठा था, लेकिन इनकी आवाज़ सुनने पर मुझे अपनी हीं सोच हजम नहीं हुई। इनकी आवाज़ का टेक्सचर "शफ़कत अमानत अली खान" ("फ़्युज़न" वाले) से काफी अलग है। इनके कई गाने (ठुमरी, ख्याल..) सुनने और इनके बारे में और ढूँढने के बाद मुझे सच का पता चला। लीजिए आप भी जानिए कि ये कौन हैं (सौजन्य: एक्सडॉट २५)<br />
<br />
<blockquote>१७ जून १९७२ को पाकिस्तान के लाहौर में जन्मे शफ़कत अली खान पूर्वी पंजाब के शाम चौरासी घराने से ताल्लुक रखते हैं। इस घराने का इतिहास तब से है जब हिन्दुस्तान में मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था। इस घराने की स्थापना दो भाईयों चाँद खान और सूरज खान ने की थी। शफ़कत अली खान के पिताजी उस्ताद सलामत अली खान और चाचाजी उस्ताद नज़ाकत अली खान.. दोनो हीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं और ये दोनों शाम चौरासी घराने के दसवीं पीढी के शास्त्रीय गायक हैं।<br />
<br />
शफ़क़त ने महज ७ साल की उम्र में अपनी हुनर का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था। अपनी गायकी का पहला जौहर इन्होंने १९७९ में लाहौर संगीत उत्सव में दिखलाया। अभी तक ये यूरोप के कई सारे देशों मसलन फ़्रांस, युनाईटेड किंगडम, इटली, जर्मनी, हॉलेंड, स्पेन एवं स्वीटज़रलैंड (जेनेवा उत्सव) के महत्वपूर्ण कन्सर्ट्स में अपना परफ़ॉरमेंश दे चुके हैं। हिन्दुस्तान, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में तो ये नामी-गिरामी शास्त्रीय गायक के रूप में जाने जाते है हीं, अमेरिका और कनाडा में भी इन्होंने अपनी गायकी से धाक जमा ली है। १९८८ और १९९६ में स्मिथसोनियन इन्स्टिच्युट में, १९८८ में न्यूयार्क के मेट्रोपोलिटन म्युज़ियम के वर्ल्ड म्युज़िक इन्स्टिच्युट में एवं १९९१ में मर्किन कन्सर्ट हॉल में दिए गए इनके प्रदर्शन को अभी भी याद किया जाता है।<br />
<br />
शफ़कत को अभी तक कई सारे पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। १९८६ में इन्हें "सर्वश्रेष्ठ युवा शास्त्रीय गायक" के तौर पर लाहौर का अमिर खुसरो पुरस्कार मिला था। आगे चलकर १९८७ में इन्हें पाकिस्तान के फ़ैज़लाबाद विश्वविद्यालय ने "गोल्ड मेडल" से सम्मानित किया। ये अभी तक दुनिया की कई सारी रिकार्ड कंपनियों के लिए गा चुके हैं, मसलन: निम्बस (युके), इ०एम०आई० (हिन्दुस्तान), एच०एम०वी० (युके), वाटरलिली एकॉसटिक्स (युएसए), वेस्ट्रॉन (हिन्दुस्तान), मेगासाउंड (हिन्दुस्तान), कीट्युन प्रोडक्शन (हॉलैंड), प्लस म्युज़िक (हिन्दुस्तान) एवं फोक़ हेरिटेज (पाकिस्तान)। गायकी के क्षेत्र में ये अभी भी निर्बाध रूप से कार्यरत हैं।</blockquote><br />
चलिए तो हम और आप सुनते हैं उस्ताद की आवाज़ में "नदिया किनारे मोरा गाँव":<br />
<b><br />
संवरिया मोरे आ जा रे,<br />
तोहू बिन भई मैं उदास रे.. हो..<br />
आ जा रे.<br />
<br />
नदिया किनारे मोरा गाँव..<br />
आ जा रे संवरिया आ जा..<br />
नदिया किनारे मोरा गाँव..<br />
<br />
साजन प्रीत लगाकर <br />
अब दूर देश मत जा<br />
आ बस हमरे _____ अब<br />
हम माँगे तू खा..<br />
<br />
नदिया किनारे मोरा गाँव रे.<br />
संवरिया रे<br />
<br />
ऊँची अटरिया चंदन केंवरिया<br />
राधा सखी रे मेरो नाँव<br />
नदिया किनारे मोरा गाँव..<br />
<br />
ना मैं माँगूं सोना, चाँदी<br />
माँगूं तोसे प्रीत रे.. <br />
बलमा मैका छाड़ गए<br />
यही जगत की रीत रे..<br />
<br />
नदिया किनारे मोरा गाँव रे..</b><br />
<br />
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</script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/MehfilEGhazal105/NadiyaKinareMoraGaonShafqatAliKhan.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/12/kavita-seth-badal-raha-hai-jo-shab.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "फ़लक" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
जो फूल खुशबू गुलाब में है,<br />
ज़मीं, फ़लक, आफ़ताब में है<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
फलक पे जितने सितारे हैं वो भी शर्माए <br />
ओ देने वाले मुझे इतनी जिन्दगी दे दे <br />
<br />
उसका चेहरा आंसुओं से धुआं धुआं सा हुआ,<br />
फलक पे चाँद तारों मैं गुमशुदा सा हुआ,<br />
उसके साथ बीता ख़ुशी का हर लम्हा,<br />
उसीकी याद से ग़मों का कारवाँ सा हुआ !! -अवनींद्र जी<br />
<br />
है जिसकी कीमत हर एक कण मे ,खुदा वही है<br />
है जिसने की,झुक के इबादत,फलक है उसका,खुदा वही है. - नीलम जी<br />
<br />
जैसे फलक पर चाँद चांदनी संग चमचमा रहा.<br />
वैसे ही खुदा फूलों की खुशबू बन जग महका रहा. - मंजू जी<br />
<br />
ये किसको देख फ़लक से गिरा है गश खा कर<br />
पड़ा ज़मीं पे जो नूरे-क़मर को देखते हैं. - शेख इब्राहीम ज़ौक़<br />
<br />
कहते है जिंदगी है फकत चार दिनों की<br />
क्या पता फलक में कितना इंतज़ार हो. - शन्नो जी<br />
<br />
यूँ तो पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई शन्नो जी की टिप्पणी से, जिसमें उन्होंने गायब शब्द पर एक शेर भी कहा था, लेकिन बदकिस्मती से एक बार फिर वह शान-ए-महफ़िल बनने से चूक गईं। चूक हुई सही शब्द पहचानने में.. शब्द था "फ़लक" और उन्होंने "तलक" समझकर शेर तक सुना डाला। अवनींद्र जी ने सही शब्द की शिनाख्त की और आगे आने वाले ग़ज़ल-प्रेमियों के लिए शेर कहने का रास्ता खोल दिया। "फ़लक" पर शेर/रूबाई कहकर आप शान-ए-महफ़िल भी साबित हुए। आपके बाद जहाँ नीलम जी एवं मंजू जी अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल का हिस्सा बनीं, वही अवध जी ने बड़े-बड़े शायरों के शेर सुनाकर महफ़िल में चार चाँद लगा दिए। हमें कुहू जी एवं पूजा जी का भी प्रोत्साहन हासिल हुआ। तो यूँ कुल मिलाकर सभी दोस्तों ने हमारी पिछली महफ़िल को सफल बना्या। इसके लिए हम आप सबके तह-ए-दिल से आभारी हैं।<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-62349408238587730552010-12-08T10:25:00.008+05:302010-12-08T15:06:59.582+05:30है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में, खुदा वही है.. कविता सेठ ने सूफ़ियाना कलाम की रंगत हीं बदल दी है<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०५</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">इ</span>ससे पहले कि हम आज की महफ़िल की शुरूआत करें, मैं अश्विनी जी (अश्विनी कुमार रॉय) का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा। आपने हमें पूरी की पूरी नज़्म समझा दी। नज़्म समझकर हीं यह पता चला कि "और" कितना दर्द छुपा है "छल्ला" में जो हम भाषा न जानने के कारण महसूस नहीं कर पा रहे थे। आभार प्रकट करने के साथ-साथ हम आपसे दरख्वास्त करना चाहेंगे कि महफ़िल को अपना समझें और नियमित हो जाएँ यानि कि ग़ज़ल और शेर लेकर महफ़िल की शामों (एवं सुबहों) को रौशन करने आ जाएँ। आपसे हमें और भी बहुत कुछ सीखना है, जानना है, इसलिए उम्मीद है कि आप हमारी अपील पर गौर करेंगे। धन्यवाद!<br />
<br />
आज हम अपनी महफ़िल को उस गायिका की नज़र करने वाले हैं, जो यूँ तो अपनी सूफ़ियाना गायकी के लिए मक़बूल है, लेकिन लोगों ने उन्हें तब जाना, तब पहचाना जब उनका "इकतारा" सिद्दार्थ (सिड) को जगाने के लिए फिल्मी गानों के गलियारे में गूंज उठा। एकबारगी "इकतारा" क्या बजा, फिल्मी गानों और "पुरस्कारों" का रूख हीं मुड़ गया इनकी ओर। २००९ का ऐसा कौन-सा पुरस्कार है, ऐसा कौन-सा सम्मान है, जो इन्हें न मिला हो!<br />
<br />
इन्हें सुनकर एक अलग तरह की अनुभूति होती है.. ऐसा लगता है मानो आप खुद "ट्रांस" में चले गए हों और आपके आस-पास की दुनिया स्वर-विहीन हो गई हो.. शांति का वातावरण-सा बुन गया हो कोई... । <br />
<br />
<b>आत्मा में कलम डुबोकर लिखी गई किसी कविता की तरह हीं हैं ये, जिनका नाम है "कविता सेठ"। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली में हुआ, वहीं इनका पालन-पोषण हुआ और वहीं पर स्नातक तक की शिक्षा इन्होंने ग्रहण की। शादी के बाद ये दिल्ली चली आई और फिर ऑल इंडिया रेडिया एवं दूरदर्शन के लिए गाना शुरू कर दिया। इसी दौरान इन्होंने दिल्ली के हीं "गंधर्व महाविद्याल" से "संगीत अलंकार" (संगीत के क्षेत्र में स्नातकोत्तर) की उपाधि प्राप्त की .. साथ हीं साथ दिल्ली विश्वविद्यालय से "हिन्दी साहित्य" में परा-स्नातक की डिग्री भी ग्रहण की। इन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्वालियर घराने के "एन डी शर्मा", गंधर्व महाविद्यालय के विनोद एवं दिल्ली घराने के उस्ताद इक़बाल अहमद खान से प्राप्त की है। <br />
<br />
इन्होंने बरेली के "खान-कहे नियाज़िया दरगाह" से अपनी हुनर का प्रदर्शन प्रारंभ किया, फिर आगे चलकर ये पब्लिक शोज़ एवं म्युज़िकल कंसर्ट्स में गाने लगीं। कविता मुख्यत: सूफ़ी गाने गाती हैं, अगरचे गीत, ग़ज़ल एवं लोकगीतों में भी महारत हासिल है। इन्होंने देश-विदेश में कई सारी जगहों पर शोज़ किए हैं। ऐसे हीं एक बार मुज़फ़्फ़र अली के अंतरराष्ट्रीय सूफ़ी महोत्सव इंटरनेशल सूफ़ी फ़ेस्टिवल) में इनके प्रदर्शन को देखकर/सुनकर सतीश कौशिक ने इन्हें अपनी फिल्म "वादा" में "ज़िंदगी को मौला" गाने का न्यौता दिया था। आगे चलकर जब ये मुंबई आ गईं तो इन्हें २००६ में अनुराग बसु की फिल्म "गैंगस्टर" में "मुझे मत रोको" गाने का मौका मिला। इस गाने में इनकी गायकी को काफी सराहा गया, लेकिन अभी भी इनका फिल्मों में सही से आना नहीं हुआ था। ये अपने आप को प्राइवेट एलबम्स तक हीं सीमित रखी हुई थीं। इन्होंने "वो एक लम्हा" और "दिल-ए-नादान" नाम के दो सूफ़ी एलबम रीलिज किए। फिर आगे चलकर एक इंडी-पॉप एलबम "हाँ यही प्यार है" और दो सूफ़ी अलबम्स "सूफ़ियाना (२००८)" (जिससे हमने आज की नज़्म ली है) एवं "हज़रत" भी इनकी नाम के साथ जुड़ गए। "सूफ़ियाना" सूफ़ी कवि "रूमी" की रूबाईयों और कलामों पर आधारित है.. कविता ने इन्हें लखनऊ के ८०० साल पुराने "खमन पीर के दरगाह" पर रीलिज किया था।</b><br />
<br />
कुछ महिनों पहले हीं कविता "कारवां" नाम के सूफ़ी बैंड का हिस्सा बनीं हैं, जब एक अंतर्राष्ट्रीय सूफ़ी महोत्सव में इनका ईरान और राजस्थान के सूफ़ी संगीतकारों से मिलना हुआ था। तब से यह समूह सूफ़ी संगीत के प्रचार-प्रसार में पुरज़ोर तरीके से लगा हुआ है। आजकल ये अपने बेटे को भी संगीत की दुनिया में ले आई हैं।<br />
<br />
कविता से जब उनके पसंदीदा गायक, संगीतकार, गीतकार के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब कुछ यूँ था: (साभार: प्लैनेट बॉलीवुड)<br />
<br />
<b>पसंदीदा गायक:</b> एल्टन जॉन, ए आर रहमान, सुखविंदर, शंकर महादेवन, आबिदा परवीन<br />
<b>पसंदीदा संगीतकार:</b> ए आर रहमान, अमित त्रिवेदी, शंकर-एहसान-लॉय<br />
<b>पसंदीदा गीतकार/शायर:</b> वसीम बरेलवी, ज़िया अल्वी, जावेद अख़्तर, गुलज़ार साहब<br />
<b>पसंदीदा वाद्य-यंत्र:</b> रबाब, डफ़्फ़, बांसुरी, ईरानी डफ़्फ़<br />
<b>पसंदीदा सूफ़ी कवि:</b> कबीरदास, मौलाना रूमी, हज़रत अमिर खुसरो, बाबा बुल्लेशाह<br />
<b>पसंदीदा गीत:</b> ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा (जोधा-अकबर)<br />
<br />
उनसे जब यह पूछा गया कि नए गायकों को "रियालिटी शोज़" में हिस्सा लेना चाहिए या नहीं, तो उनका जवाब था: "रियालिटी शोज़ के बारे में कभी न सोचें, बल्कि यह सोचें कि "रियालिटी" में उनकी गायकी कितनी अच्छी है। जितना हो सके शास्त्रीय संगीत सीखने की कोशिश करें। कहा भी गया है कि - नगमों से जब फूल खिलेंगे, चुनने वाले चुन लेंगे, सुनने वाले सुन लेंगे, तू अपनी धुन में गाए जा।" वाह! क्या खूब कहा है आपने! <br />
<br />
चलिए तो अब आज की नज़्म की ओर रूख करते हैं। कविता को यह नज़्म बेहद पसंद है और उन्हें इस बात का दु:ख भी है कि यह नज़्म बहुत हीं कम लोगों ने सुनी है, लेकिन इस बात की खुशी है कि जिसने भी सुनी है, वह अपने आँसूओं को रोक नहीं पाया है। आखिर नज़्म है हीं कुछ ऐसी! आप यह तो मानेंगे हीं कि सूफ़ियाना कलामों में ख़ुदा को जिस नज़रिये से देखा जाता है, वह नज़रिया बाकी कलामों में शायद हीं नज़र आता है। कविता इसी नज़रिये को अपनी इस नज़्म के माध्यम से हम सबके बीच लेकर आई हैं। "शब को सहर" मे बदलने वाला वह ख़ुदा आखिरकार कैसा लगता है, आप खुद सुनिए:<br />
<b><br />
बदल रहा है जो शब सहर में,<br />
ख़ुदा वही है..<br />
<br />
है जिसका जलवा नज़र-नज़र में,<br />
ख़ुदा वही है..<br />
<br />
जो फूल खुशबू गुलाब में है,<br />
ज़मीं, ______, आफ़ताब में है,<br />
है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में,<br />
खुदा वही है..</b><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/12/jaao-ni-koi-chhalla-shaukat-ali.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "सांवला" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
हो छल्ला पाया ये गहने, दुख ज़िंदरी ने सहने,<br />
छल्ला मापे ने रहने, गल सुन सांवला<br />
ढोला,<br />
ओए सार के कित्ते कोला<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
मेरा हर लफ़्ज़ लकीर, अहसास स्याही है "आजाद"<br />
चेहरा एक सांवला-सा ग़ज़ल में दिख रहा होगा. -आजाद <br />
<br />
सांवले की आमद से हर चीज़ खिल गयी है.<br />
मौसम हुआ है खुशनुमा दुनिया बदल गयी है. -अवध लाल जी<br />
<br />
सांवला सभी को मेरा लगे है सजन<br />
मगर मुझे ऐसा लागे जैसे किशन । - शरद तैलंग जी<br />
<br />
कोई सांवला यहाँ कोई सफेद है <br />
कोई खुश तो किसी को खेद है<br />
एक खुदा ने बनाया हम सबको<br />
फिर सबके रंगों में क्यों भेद है? - शन्नो जी (जबरदस्त....... )<br />
<br />
सांवला सा मन और उजली सी धूप,<br />
बस इसके सिवा कुछ नहीं,कैसा भी हो रूप - नीलम जी<br />
<br />
चितचोर सांवला सजन , करता है नित शोर .<br />
नदी पर करे इशारा , आजा मेरी ओर . - मंजु जी<br />
<br />
मन के वीरान कोने मैं एक सांवला सा गम <br />
मन के अँधेरे मैं कुछ घुल मिल सा गया है !! <br />
सिसकियों की स्याह गोद मैं <br />
सहमी सहमी सी यादों के <br />
शूल भरे फूलों से कुछ छिल सा गया है !! - अवनींद्र जी<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई सजीव जी के प्रोत्साहन के साथ। आपके बाद शन्नो जी की आमद हुई। अपने बहुचर्चित मज़ाकिया लहजे में शन्नो जी ने फिर से हमें डाँट की खुराक पिलाई, लेकिन हमारे आग्रह करने के बाद उन्होंने गीत को फिर से सुना और अंतत: गायब शब्द की शिनाख्त करने में सफ़ल हुईं। तो इस तरह से कुछ कोशिशों के बाद महफ़िल का गायब शब्द सब के सामने प्रस्तुत हुआ। शन्नो जी, आपने शब्द तो पहचान लिया, लेकिन आपसे एक गलती हो गई। अगर आप उस शब्द पर कोई शेर कह देतीं तो हम "शान-ए-महफ़िल" के खिताब से आप हीं को नवाज़ते। अब चूँकि "साँवला" शब्द पर शेर लेकर पूजा जी सबसे पहले हाज़िर हुईं, इसलिए हम उन्हें हीं "शान-ए-महफ़िल" घोषित करते हैं। पूजा जी के बाद अवध जी, शरद जी , नीलम जी, मंजु जी एवं अवनींद्र जी का महफ़िल में आना हुआ। आप सभी के स्वरचित शेर एवं नज़्म कमाल के हैं। बधाई स्वीकारें! इन सबके बाद शन्नो जी फिर से महफ़िल में आईं, लेकिन इस बार वो खाली हाथ न थीं.. आपकी झोली में तीन-तीन रूबाईयाँ थीं और तीनों एक से बढकर एक। हमारी पिछली महफ़िल की सबसे बड़ी उपलब्धि रही अश्विनी जी का महफ़िल में आना। यूँ तो आपका शुक्रिया हम शुरूआत में हीं कर चुके हैं, लेकिन आपका जितना भी आभार प्रकट किया जाए कम होगा। उम्मीद करता हूँ कि हमारे बाकी मित्र भी भविष्य में इसी तरह हमारी सहायता करेंगे। <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-56579430850585956192010-12-01T10:25:00.005+05:302010-12-01T12:11:37.243+05:30छल्ला कालियां मर्चां, छल्ला होया बैरी.. छल्ला से अपने दिल का दर्द बताती विरहणी को आवाज़ दी शौकत अली ने<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०४</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">यूँ</span>तो हमारी महफ़िल का नाम है "महफ़िल-ए-ग़ज़ल", लेकिन कभी-कभार हम ग़ज़लों के अलावा गैर-फिल्मी नगमों और लोक-गीतों की भी बात कर लिया करते हैं। लीक से हटने की अपनी इसी आदत को ज़ारी रखते हुए आज हम लेकर आए हैं एक पंजाबी गीत.. या यूँ कहिए पंजाबी लोकगीतों का एक खास रूप, एक खास ज़ौनर जिसे "छल्ला" के नाम से जाना जाता है। इस "छल्ला" को कई गुलुकारों ने गाया है और अपने-अपने तरीके से गाया है। तरीकों के बदलाव में कई बार बोल भी बदले हैं, लेकिन इस "छल्ला" का असर नहीं बदला है। असर वही है, दर्द वही है... एक "विरहणी" के दिल की पीर, जो सुनने वालों के दिलों को चीर जाती है। आखिर ये "छल्ला" होता क्या है, इसके बारे में "एक शाम मेरे नाम" के मनीष जी लिखते हैं (साभार):<br />
<br />
<blockquote>जैसा कि नाम से स्पष्ट है "छल्ला लोकगीत" के केंद्र में वो अंगूठी होती है, जो प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिलती है। पर जब उसका प्रेमी दूर देश चला जाता है तो वो अपने दिल का हाल किससे बताए? और किससे? उसी छल्ले से जो उसके साजन की दी हुई एकमात्र निशानी है। यानि कि छल्ला लोकगीत छल्ले से कही जाने वाली एक विरहणी की आपबीती है। छल्ले को कई पंजाबी गायकों ने समय-समय पर पंजाबी फिल्मों और एलबमों में गाया है। इस तरह के जितने भी गीत हैं उनमें रेशमा, इनायत अली, गुरदास मान, रब्बी शेरगिल और शौकत अली के वर्ज़न काफी मशहूर हुए।</blockquote><br />
तो आज हम अपनी इस महफ़िल को शौकत अली के गाए "छल्ला" से सराबोर करने वाले हैं। हम शौकत अली को सुनें, उससे पहले चलिए इनके बारे में कुछ जान लेते हैं। (सौजन्य: विकिपीडिया)<br />
<br />
<b>शौकत अली खान पाकिस्तान के एक जानेमाने लोकगायक हैं। इनका जन्म "मलकवल" के एक फ़नकरों के परिवार में हुआ था। शौकत ने अपने बड़े भाई इनायत अली खान की मदद से १९६० के दशक में हीं अपने कॉलेज के दिनों में गाना शुरू कर दिया था। १९७० से ये ग़ज़ल और पंजाबी लोकगीत गाने लगे। १९८२ में जब नई दिल्ली में एशियन खेलों का आयोजन किया गया था, तो शौकत अली ने वहाँ अपना लाईव परफ़ारमेंश दिया। इन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च सिविलियन प्रेसिडेंशियल अवार्ड भी प्राप्त है। अभी हाल हीं में आए "लव आज कल" में इनके गाये "कदि ते हंस बोल वे" गाने (जो कि अब एक लोकगीत का रूप ले चुका है) की पहली दो पंक्तियाँ इस्तेमाल की गई थी। शौकत अली साहब के कई गाने मक़बूल हुए हैं। उन गानों में "छल्ला" और "जागा" प्रमुख हैं। इनके सुपुत्र भी गाते हैं, जिनका नाम है "इमरान शौकत"।</b><br />
<br />
"छल्ला" गाना अभी हाल में हीं इमरान हाशमी अभिनीत फिल्म "क्रूक" में शामिल किया गया था। वह छल्ला "लोकगीत वाले सारे छ्ल्लों" से काफ़ी अलग है। अगर कुछ समानता है तो बस यह है कि उसमें भी "एक दर्द" (आस्ट्रेलिया में रह रहे भारतीयों का दर्द) को प्रधानता दी गई है। उस गाने को बब्बु मान ने गाया है और संगीत दिया है प्रीतम ने। प्रीतम ने उस गाने के लिए "किसी लोक-धुन" को क्रेडिट दी है, लेकिन सच्चाई कुछ और है। दो महिने पहले जब मैंने और सुजॉय जी ने <a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/10/music-review-of-crook-and-akrosh.html#comments">"क्रूक" के गानों की समीक्षा</a> की थी, तो उस पोस्ट की टिप्पणी में मैंने सच्चाई को उजागर करने के लिए यह लिखा था: <b>वह गाना बब्बु मान ने नहीं बनाया था, बल्कि "बब्बल राय" ने बनाया था "<a href="http://www.youtube.com/watch?v=zlcYFoJIuuU">आस्ट्रेलियन छल्ला</a>" के नाम से... वो भी ऐं वैं हीं, अपने कमरे में बैठे हुए। और उस वीडियो को यू-ट्युब पर पोस्ट कर दिया। यू-ट्युब पर उस वीडियो को इतने हिट्स मिले कि बंदा फेमस हो गया। बाद में उसी बंदे ने यह गाना सही से रीलिज किया .. बस उससे यह गलती हो गई कि उसने रीलिज करने के लिए बब्बु मान के रिकार्ड कंपनी को चुना... और आगे क्या हुआ, यह हम सबके सामने है। कैसेट पर कहीं भी बब्बल राय का नाम नहीं है, जबकि गाना पूरा का पूरा उसी से उठाया हुआ है।</b> यह पूरा का पूरा पैराग्राफ़ आज की महफ़िल के लिए भले हीं गैर-मतलब हो, लेकिन इससे दो तथ्य तो सामने आते हीं है: क) हिन्दी फिल्मों में पंजाबी संगीत और पंजाबी संगीत में छल्ला के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। ख) हिन्दी फिल्म-संगीत में "कॉपी-पेस्ट" वाली गतिविधियाँ जल्द खत्म नहीं होने वाली और ना हीं "चोरी-सीनाजोरी" भी थमने वाली है।<br />
<br />
बातें बहुत हो गईं। चलिए तो अब ज्यादा समय न गंवाते हुए, "छल्ला" की ओर अपनी महफ़िल का रूख कर देते हैं और सुनते हैं ये पंजाबी लोकगीत। मैं अपने सारे पंजाबी भाईयों और बहनों से यह दरख्वास्त करूँगा कि जिन्हें भी इस नज़्म का अर्थ पता है, वो हमसे शेयर ज़रूर करें। हम सब अच्छे गानों और ग़ज़लों के शैदाई हैं, इसलिए चाहते हैं कि जो भी गाना, जो भी ग़ज़ल हमें पसंद हो, उसे समझे भी ज़रूर। बिना समझे हम वो आनंद नहीं ले पाते, जिस आनंद के हम हक़दार होते हैं। उम्मीद है कि आप हमारी मदद अवश्य करेंगे। इसी विश्वास के साथ आईये हम और आप सुनते हैं "छल्ला":<br />
<br />
<b>जावो नि कोई मोर लियावो,<br />
नि मेरे नाल गया नि लड़ के,<br />
अल्लाह करे आ जावे सोणा,<br />
देवन जान कदमा विच धर के।<br />
<br />
हो छल्ला बेरीपुर ए, वे वतन माही दा दूरे,<br />
जाना पहले पूरे, वे गल्ल सुन छल्लया<br />
ओ छोरा,<br />
दिल नु लावे झोरा/छोरा<br />
<br />
हो छल्ला कालियां मर्चां, ओए मोरा पी के मरसां,<br />
सिरे तेरे चरसां, वे गल्ल सुन छल्लया,<br />
ओ ढोला,<br />
वे तैनु कागा होला/ओला<br />
<br />
हो छल्ला नौ नौ थेवे, पुत्तर मित्थे मेवे,<br />
अल्लाह सब नु देवे, छल्ला छे छे<br />
ओ पाया,<br />
ओए दिया तन/धन ने/दे पराया<br />
<br />
हो छल्ला पाया ये गहने, दुख ज़िंदरी ने सहने,<br />
छल्ला मापे ने रहने, गल सुन _____<br />
ढोला,<br />
ओए सार के कित्ते कोला<br />
<br />
हो छल्ला होया बैरी, सजन भज गए कचहरी,<br />
रोवां शिकर दोपहरी, ओ गल सुन छलया<br />
पावे,<br />
बुरा वेला ना आवे<br />
<br />
हो छल्ला हिक वो कमाई, ओए जो बहना दे भाई,<br />
अल्लाह अबके जुदाई, परदेश....<br />
ओ गल्ल सुन छलया<br />
ओ सारां (?),<br />
वीरा नाल बहावां</b><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/11/paniyon-mein-chal-rahi-hai-sajjad-ali.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "मेहरबानी" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
ज़िंदगी की मेहरबानी,<br />
है मोहब्बत की कहानी,<br />
आँसूओं में पल रही है... हो..<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
बहुत शुक्रिया बडी मेहरबानी<br />
मेरी जिन्दगी मे हजूर आप आये<br />
<br />
ज़िन्दगी से हम भी तर जाते,<br />
जीते जी ही हम मर जाते,<br />
पर उनकी नज़रों की ज़रा सी मेहरबानी न हो सकी (प्रतीक जी)<br />
<br />
चीनी से भी ज्यादा मीठी माफ़ी ,<br />
महफिल सजा के की मेहरबानी (मंजु जी)<br />
<br />
शमा के नसीब में तो बुझना ही लिखा है<br />
मेहरबानी है उसकी जो जला के बुझाता है. (शन्नो जी)<br />
<br />
दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं<br />
दोस्तों की मेहरबानी चाहिए<br />
<br />
ऐ मेरे यार ज़रा सी मेहरबानी कर दे<br />
मेरी साँसों को अपनी खुशबु की निशानी कर दे (अवनींद्र जी)<br />
<br />
मेहरवानी थी उनका या कोई करम था ,<br />
या खुदा ये उनको कैसा भरम था (नीलम जी)<br />
<br />
अवध जी, माफ़ कीजिएगा.. अगर समय पर मैं एक शब्द गायब कर दिया होता तो शायद आप हीं पिछली महफ़िल की शान होते। हाँ, लेकिन आपका शुक्रिया ज़रूर अदा करूँगा क्योंकि आपने समय पर हमें जगा दिया। सुमित भाई, आप "महफ़िल में फिर आऊँगा" लिखकर चल दिए तो हमें लगा कि इस बार भी आप एक-दो दिन के लिए नदारद हो जाएँगे और "शान" की उपाधि से कोई और सज जाएगा। लेकिन आप ६ मिनट में हीं लौट आए और "शान-ए-महफ़िल" बन गए। बधाई स्वीकारें। प्रतीक जी, हमारी मेहनत को परखने और प्रोत्साहित करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार! मंजु जी, बड़े हीं नायाब तरीके से आपने हमारी प्रशंसा कर दी। धन्यवाद स्वीकारें! शन्नो जी, आपकी डाँट भी प्यारी होती है। आपने कहा कि "कितनी हीं पंजाबी कुड़ियाँ इत-उत मंडराती होगी" तो मैं उन कुड़ियों में से एकाध से अपील करूँगा कि वो हमारी महफ़िल में तशरीफ़ लाएँ और हमें "छल्ला" का अर्थ बता कर कृतार्थ करें :) वैसे, वे अगर महफ़िल में न आना चाहें तो हमसे अकेले में हीं मिल लें। इसी बहाने मेरी पंजाबी थोड़ी सुधर जाएगी। :) अवध जी, शेर तो आपने बहुत हीं जबरदस्त पेश किया, लेकिन शायर का नाम मैं भी नहीं ढूँढ पाया। अवनींद्र जी, मुझे भी आप लोगों से वापस मिलकर बेहद खुशी हुई। कोशिश करूँगा कि अपने ये मिलने-मिलाने का कार्यक्रम यूँ हीं चलता रहें। और हाँ, आपको तो पंजाबी आती है ना? तो ज़रा हमें "छल्ला गाने" का मतलब बता दें। बड़ी कृपा होगी। :) नीलम जी, क्या बात है, दो-दो शेर.. वो भी स्वरचित :) चलिए मैंने अपने पसंद का एक चुन लिया।<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-6636613136872754422010-11-24T10:21:00.004+05:302010-11-24T12:28:11.311+05:30मोहब्बत की कहानी आँसूओं में पल रही है.. सज्जाद अली ने शहद-घुली आवाज़ में थोड़ा-सा दर्द भी घोल दिया है<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०३</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">मा</span>फ़ी, माफ़ी और माफ़ी... भला कितनी माफ़ियाँ माँगूंगा मैं आप लोगों से। हर बार यही कोशिश करता हूँ कि महफ़िल-ए-ग़ज़ल की गाड़ी रूके नहीं, लेकिन कोई न कोई मजबूरी आ हीं जाती है। इस बार घर जाने से पहले यह मन बना लिया था कि आगे की दो-तीन महफ़िलें लिख कर जाऊँगा, लेकिन वक़्त ने हीं साथ नहीं दिया। घर पर अंतर्जाल की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए वहाँ से महफ़िलों की मेजबानी करने का कोई प्रश्न हीं नहीं उठता था। अंत में मैं हार कर मन मसोस कर रह गया। तो इस तरह से पूरे तीन हफ़्ते बिना किसी महफ़िल के गुजरे। अब क्या करूँ!! फिर से माफ़ी माँगूं? मैं सोच रहा हूँ कि हर बार क्षमा-याचना करने से अच्छा है कि पहले हीं एक "सूचना-पत्र" महफ़िल-ए-ग़ज़ल के दरवाजे पर चिपका दूँ कि "मैं महफ़िल को नियमित रखने की यथा-संभव कोशिश करूँगा, लेकिन कभी-कभार अपरिहार्य कारणों से महफ़िल अनियमित हो सकती है। इसलिए किसी बुधवार को १०:३० तक आपको महफ़िल खाली दिखे या कोई रौनक न दिखे, तो मान लीजिएगा कि इसके मेजबान को ऐन मौके पर कोई बहुत हीं जरूरी काम निकल आया है। फिर उस बुधवार के लिए मुझे क्षमा करके अगले बुधवार को महफ़िल की राह जरूर ताकिएगा, क्योंकि महफ़िल आएगी तो बुधवार को हीं और ९:३० से १०:३० के बीच किसी भी वक़्त। अगर आप ऐसा करते हैं तो मैं आप सभी का आभारी रहूँगा। धन्यवाद!"<br />
<br />
चलिए तो आज की महफ़िल में शमा जलाते हैं। आज की महफ़िल जिस नज़्म से सजने वाली है, जिस नज़्म के नाम है... उस नज़्म को अपनी आवाज़ से मक़बूल किया है पाकिस्तान के बहुत हीं जाने-माने सेमि-क्लासिकल एवं पॉप गायक, अभिनेता , निर्माता और निर्देशक सज्जाद अली ने। आपको शायद याद हो कि पिछले साल ९ दिसम्बर को हमने "शामिख फ़राज़" जी के आग्रह पर "अहमद फ़राज़" की ग़ज़ल "<a href="http://podcast.hindyugm.com/2009/12/ab-ke-bichde-to-shayad-sajjad-faraz.html">अब के बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले</a>" सुनवाई थी, जिसे इन्हीं सज्जाद साहब ने गाया था। उस वक़्त हमने इनका छोटा-सा परिचय दिया था। तो पहले उसी परिचय से शुरूआत करते हैं:<br />
<br />
<blockquote>सज्जाद अली के अब्बाजान साजन(वास्तविक नाम: शफ़क़त हुसैन) नाम से मलयालम फिल्में निर्देशित किया करते हैं। ७० के दशक से अबतक उन्होंने लगभग ३० फिल्में निर्देशित की हैं। मज़े की बात यह है कि खुद तो वे हिन्दुस्तान में रह गए लेकिन उनके दोनों बेटों ने पाकिस्तान में खासा नाम कमाया। जैसे कि आज की गज़ल के गायक सज्जाद अली पाकिस्तान के जानेमाने पॉप गायक हैं, वहीं वक़ार अली एक जानेमाने संगीतकार। सज्जाद अली का जन्म १९६६ में कराची के एक शिया मुस्लिम परिवार में हुआ था। बचपन से हीं इन्हें संगीत की शिक्षा दी गई। शास्त्रीय संगीत में इन्हें खासी रूचि थी। उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद बरकत अली खान, उस्ताद मुबारक अली खान, मेहदी हसन खान, गुलाम अली, अमानत अली खान जैसे धुरंधरों के संगीत और गायिकी को सुनकर हीं इन्होंने खुद को तैयार किया। इनका पहला एलबम १९७९ में रीलिज हुआ था, जिसमें इन्होंने बड़े-बड़े फ़नकारों की गायिकी को दुहराया। उस एलबम के ज्यादातर गाने "हसरत मोहानी" और "मोमिन खां मोमिन" के लिखे हुए थे। यूँ तो इस एलबम ने इन्हें नाम दिया लेकिन इन्हें असली पहचान मिली पीटीवी की २५वीं सालगिरह पर आयोजित किए गए कार्यक्रम "सिलवर जुब्ली" में। दिन था २६ नवंबर १९८३. "लगी रे लगी लगन" और "बावरी चकोरी" ने रातों-रात इन्हें फर्श से अर्श पर पहुँचा दिया। एक वो दिन था और एक आज का दिन है...सज्जाद अली ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अप्रेल २००८ में "चहार बलिश" नाम से इन्होंने अपना एलबम रीलिज किया, जिसमें "चल रैन दे"(यह गाना वास्तव में जुलाई २००६ में मार्केट में आया था और इस गाने ने उस समय खासा धूम मचाया था) भी शामिल है। इनके बारे में इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि खुद ए०आर०रहमान इन्हें "ओरिजिनल क्रोसओवर" मानते हैं।</blockquote><br />
रहमान इन्हें "ओरिजिनल क्रोसओवर" मानते हैं और कहते हैं कि: "From the realm of the classical, he metamorphosed into one of the brightest lights of Pakistani pop.Always striking the right note, and never missing a beat, even the most hardened purist has to give Sajjad his due. This man can breathe life in a Ghazal even as he puts the V back into verve. He is one of the very few singers in Pakistan who seems a complete singer. As far as skill is concerned I feel nobody compares to Sajjad Ali. He is simply too good at everything he chooses to create." यानि कि "शास्त्रीय संगीत के साम्राज्य से चलकर सज्जाद ने पाकिस्तानी पॉप की चमकती-धमकती दुनिया में भी अपनी पकड़ बना ली है। ये हमेशा सही नोट लगाते हैं और एक भी बीट इधर-उधर नहीं करते, इसलिए जो "प्युरिस्ट" हैं उन्हें भी सज्जाद का महत्व जानना चाहिए। ये ग़ज़लों में जान फूँक देते हैं और गानों में जोश का संचार करते हैं। ये पाकिस्तान के उन चुनिंदे गायकों में से हैं जिन्हें एक सम्पूर्ण गायक कहा जा सकता है। जहाँ तक योग्यता की बात है तो मेरे हिसाब से सज्जाद अली की कोई बराबरी नहीं कर सकता। ये जो भी करते हैं, उसमें शिखर तक पहुँच जाते हैं।"<br />
<br />
सज्जाद अली के बारे में हंस राज हंस कहते हैं कि "अगर मेरा पुनर्जन्म हो तो मैं सज्जाद अली के रूप में जन्म लेना चाहूँगा।" तो इतनी काबिलियत है इस एक अदने से इंसान में। <br />
<br />
"विकिपीडिया" पर अगर देखा जाए तो इनके एलबमों की फेहरिश्त इतनी लंबी है कि किसे चुनकर यहाँ पेश करूँ और किसे नहीं, यह समझ नहीं आता। फिर भी मैं कुछ हिट सिंगल्स की लिस्ट दिए देता हूँ:<br />
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<b>बाबिया, चल उड़ जा, कुछ लड़कियाँ मुझे, चीफ़ साब, माहिवाल, तस्वीरें, जादू, झूले लाल, चल झूठी, दुआ करो, प्यार है, पानियों में, सोहनी लग दी, सिन्ड्रेला, तेरी याद, ऐसा लगा, कोई नहीं, ना बोलूँगी (रंगीन), चल रैन दे (जिसका ज़िक्र हमने पहले भी किया है), पेकर (२००८)</b><br />
<br />
कुछ सालों से सज्जाद गायकी की दुनिया में नज़र नहीं आ रहे थे, लेकिन अच्छी खबर ये है कि अभी हाल में हीं इन्होंने "शोएब मंसूर" की आने वाली फिल्म "बोल" के लिए एक गाना रिकार्ड किया है। इसी अच्छी खबर के साथ चलिए हम अब आज की नज़्म की ओर रूख करते हैं।<br />
<br />
हम अभी जो नज़्म सुनवाने जा रहे हैं उसे हमने "सिन्ड्रेला" एल्बम से लिया है, जो २००३ में रीलिज हुई थी। इस नज़्म में सज्जाद अली की आवाज़ की मिठास आपको बाँधे रखेगी, इसका मुझे पूरा यकीन है। नज़्म का उनवान है "पानियों में"..<br />
<br />
<b>पानियो में चल रही हैं,<br />
कश्तियाँ भी जल रही हैं,<br />
हम किनारे पे नहीं हैं.. हो..<br />
<br />
ज़िंदगी की _______,<br />
है मोहब्बत की कहानी,<br />
आँसूओं में पल रही है... हो..<br />
<br />
जो कभी मिलते नहीं हैं,<br />
मिल भी जाते हैं कहीं पर,<br />
ना मिलें तो ग़म नहीं है.. हो..<br />
<br />
दूर होते जा रहे हैं,<br />
ये किनारे, वो किनारे,<br />
ना तुम्हारे, ना हमारे... हो..</b><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/10/haal-sunaawaan-kisnu-dil-da-rahat-fateh.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "बिछड़" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
ईंज मैं रोई, जी मैं बिछड़ के खोई,<br />
कूंज (गूंज) तड़प दीदार बिना<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो<br />
मेरी तरह तुम भी झूठे हो (बशीर बद्र)<br />
<br />
बिछड़ कर हम से कहाँ जाओगे <br />
तासीर हमारी वापिस ले आएगी (मंजु जी)<br />
<br />
शायद कोई रोयेगा अपनी कब्र पर भी <br />
बिछड़ जाने की रस्म निभानी ही होगी (शन्नो जी)<br />
<br />
बिछड़ के भी वो मुझसे दूर रह न सका <br />
आंख से बिछड़ा और दामन मैं रह गया (अवनींद्र जी)<br />
<br />
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों मैं मिले <br />
जैसे सूखे हुए कुछ फूल किताबों मैं मिले (अहमद फ़राज़)<br />
<br />
हर बार की तरह पिछली महफ़िल में भी मैं शब्द गायब करना भूल गया। सजीव जी ने इस बात की जानकारी दी। सजीव जी, आपका धन्यवाद! वैसे उस महफ़िल की शोभा बनीं पूजा जी (शायद पहली बार :) ).. पूजा जी, इस उपलब्धि के लिए आपको ढेरों बधाईयाँ। मंजु जी, जन्मदिवस की बधाईयों को स्वीकार करते हुए मैं आपको तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। आपने मेरे लिए जो पंक्तियाँ लिखीं, जो दुआएँ दीं (जीवेत शरद: शतम) उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। ताज मैंने नहीं पहनाया, ताज आपने मुझे पहनाया है। शन्नो जी, आप सबसे थोड़ा-बहुत मजाक कर लूँ, इतना हक़ तो मुझे है हीं। है ना? :) पंजाबी तो मुझे भी नहीं आती (आ जाती, अगर कोई पंजाबन मिल जाती मुझे.. लेकिन मिली हीं नहीं :) ) , इसलिए तो आप सबसे कहा था कि रिक्त स्थानों की पूर्ति कर दें। लेकिन यह नज़्म भी "तन्हा" हीं रह गई, किसी ने भी इसे पूरा करके इसका साथ नहीं दिया। खैर, लगता है कि अब किसी पंजाबन को हीं ढूँढ कर कहना होगा कि बताओ हमारे "राहत" भाईसाब क्या कह रहे हैं और उन पंक्तियों का अर्थ क्या निकलता है। हा हा.. अवनींद्र जी, आप देर आए, लेकिन आए तो सही.. आपके बिना महफ़िल में कमी-सी रह जाती। ये क्या, आपको अहमद फ़राज़ साहब का नाम नहीं याद आ रहा था। कोई बात नहीं, आप हीं के लिए हमने आज के पोस्ट में अहमद साहब की उसी ग़ज़ल का लिंक दिया है, वहाँ जाकर ग़ज़ल पढ लें, सुन लें और उनके बारे में जान भी लें। यह आपके लिए गृह-कार्य है। करेंगे ना? :)<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-61666678226968000382010-10-27T06:53:00.004+05:302010-10-27T11:59:18.346+05:30मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना.. राहत साहब की दर्दीली आवाज़ में इस ग़मनशीं नज़्म का असर हज़ार गुणा हो जाता है<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०२</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">अ</span>भी कुछ महीनों से हमने अपनी महफ़िल "गज़लगो" पर केन्द्रित रखी थी.. हर महफ़िल में हम बस शब्दों के शिल्पी की हीं बातें करते थे, उन शब्दों को अपनी मखमली, पुरकशिश, पुर-असर आवाज़ों से अलंकृत करने वाले गलाकारों का केवल नाम हीं महफ़िल का हिस्सा हुआ करता था। यह सिलसिला बहुत दिन चला.. हमारे हिसाब से सफल भी हुआ, लेकिन यह संभव है कि कुछ मित्रों को यह अटपटा लगा हो। "अटपटा"... "पक्षपाती"... "अन्यायसंगत"... है ना? शर्माईये मत.. खुलकर कहिए? क्या मैं आपके हीं दिल की बात कर रहा हूँ? अगर आप भी उन मित्रों में से एक हैं तो हमारा कर्त्तव्य बनता है कि आपकी नाराज़गी को दूर करें। तो दोस्तों, ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि वे सारी महफ़िलें "बड़े शायर" श्रृंखला के अंतर्गत आती थीं और "बड़े शायर" श्रृंखला की शुरूआत (जिसकी हमने विधिवत घोषणा कभी भी नहीं की थी) आज से ८ महीने और १० दिन पहले <a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/02/ye-na-thi-humaari-kismat-ghalib-asad.html">मिर्ज़ा ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी</a> से हुई थी। ७१ से लेकर १०१ यानि कि पूरे ३१ कड़ियों के बाद पिछले बुधवार हमने उस श्रृंखला पर पूर्णविराम डाल दिया। और आज से हम "फ़्रीलासिंग" की दुनिया में वापस आ चुके हैं यानि कि किसी भी महफ़िल पर किसी भी तरीके की रोक-टोक नहीं, कोई नियम-कानून नहीं.. । अब से गायक, ग़ज़लगो और संगीतकार को बराबर का अधिकार हासिल होगा, इसलिए कभी कोई महफ़िल गुलुकार को पेश-ए-नज़र होगी तो कभी ग़ज़लगो के रदीफ़ और काफ़ियों की मोमबत्तियों से महफ़िलें रौशन की जाएँगीं.. और कभी तो ऐसा होगा कि संगीतकार के राग-मल्हार से सुरों और धुनों की बारिसें उतरेंगी ज़र्रा-नवाज़ों के दौलतखाने में। और हर बार महफ़िल का मज़ा वही होगा.. न एक टका कम, न आधा टका ज्यादा। तो इस दुनिया में पहला कदम रखा जाए? सब तैयार हैं ना? <br />
<br />
अगर आप में से किसी ने कल का "ताज़ा सुर ताल" देखा हो तो एक शख्स के बारे में मेरी राय से जरूर वाकिफ़ होंगे। ये शख्स ऐसे हैं जिनके लिए सात सुर इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह हैं.. इन सात रंगों के बिखरने से जो रंगीनी पैदा होती है, वही रंगीनी इनके मिज़ाज़ में भी नज़र आती है और इन सात रंगों के मिलने से जो सुफ़ेदी उभरती है, वो सुफ़ेदी, वो सादापन, वो सीधापन इनके दिल का अहम हिस्सा है या यूँ कहिए कि पूरा का पूरा दिल है। नुसरत साहब के बाद अगर इन्हें कव्वालियों का बादशाह कहा जाए तो कोई ज्यादती न होगी। अलग बात है कि आजकल ये कव्वालियाँ कम हीं गाते हैं। मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए लिखा था कि "राहत साहब के बारे में कोई नया क्या कह सकता है, वे हैं हीं बेहतरीन। मुझे भी यह बात हमेशा खटकती थी(है) कि उन्हें उनके माद्दे जितना मौका नहीं मिल रहा। मैंने उनकी पुरानी कव्वालियाँ सुनी हैं। कुछ सालों पहले तक हिन्दी फिल्मों में भी कव्वालियाँ बनती थीं, जिन्हें साबरी बंधु गाया करते थे अमूमन.. लेकिन अब बनती हीं नहीं। अब बने तो राहत साहब से बढकर कोई उम्मीदवार न होगा। मेरी तो यही चाहत है कि हिन्दी फिल्मों में फिर से ऐसे सिचुएशन तैयार किये जाएँ।" जी हाँ, मैं राहत फ़तेह अली खान की हीं बात कर रहा हूँ। आज की महफ़िल इन्हीं शख्सियत को समर्पित है। यूँ तो राहत साहब ने आजकल हर फिल्म में एक सुकूनदायक गाना देने का बीड़ा उठाया हुआ है, लेकिन मेरी राय में यह इनकी क्षमता से हज़ारों गुणा कम है। इन्होंने "पाप" के "मन की लगन" से जब हिन्दी फिल्मों में पदार्पण किया था तो यकीनन हमारे भारतीय संगीत उद्योग को एक बेहद गुणी कलाकार की प्राप्ति हुई थी, लेकिन उसी वक़्त सूफ़ी संगीत ने एक अनमोल हीरा खो दिया था। अगर आप राहत साहब के "पाप" के पहले की रिकार्डिंग्स देखेंगे तो खुद-ब-खुद आपको मेरी बात समझ आ जाएगी कि कल के राहत और आज के राहत में क्या फ़र्क है और कहाँ फ़र्क है। मैं आज भी राहत साहब का बहुत बड़ा मुरीद हूँ, लेकिन मैं हर पल यही दुआ करता हूँ कि जिस तरह नुसरत साहब अपनी विशेष गायकी के लिए याद किए जाते हैं, वैसे हीं राहत साहब को भी उनकी बेमिसाल गलाकारी के लिए जाना जाए। इन्हें इनकी कव्वालियों, ग़ज़लों और गैर-फिल्मी गीतों से प्रसिद्धि मिले, ना कि फिल्मी गानों से, क्योंकि कालजयी तो वही होता है जो दिल को छू ले और आजकल दिल को छूने वाले फिल्मी गीत बिरले हीं बनते हैं। <br />
<br />
यह तो सभी जानते हैं कि राहत साहब नुसरत साहब के वंश के हैं, लेकिन कई सारे लोगों को यह गलतफ़हमी है कि राहत नुसरत के बेटे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि राहत नुसरत के भतीजे हैं। राहत साहब के अब्बाजान फ़ार्रूख फ़तेह अली खान अपने दूसरे भाईयों के साथ नुसरत साहब की मंडली का हिस्सा हुआ करते थे.. पूरे परिवार की एक मंडली सजती थी। उसी मंडली में अपने छुटपन से हीं राहत बैठा करते थे और नुसरत साहब की हर ताल में ताल मिलाते थे। नुसरत साहब इन्हें मौका भी पूरा देते थे। किसी एक आलाप की शुरूआत करके आलाप निबाहने का काम राहत को दे देते थे और राहत भी उस आलाप को क्या खूब अंज़ाम देते थे। छुटपन से हीं चलता यह सिलसिला तब खत्म हुआ, जब नुसरत साहब इस जहां-ए-फ़ानी से रूख्सत कर गए। उसके बाद इन्होंने हीं नुसरत साहब की जगह ली। <br />
<br />
राहत साहब का जन्म १९७४ में फ़ैसलाबाद में हुआ था। इन्होंने अपना पहला पब्लिक परफ़ॉरमेंश ११ साल की उम्र में दिया जब ये अपने चाचाजान के साथ ग्रेट ब्रिटेन गए थे। २७ जुलाई १९८५ को बरमिंघम में हुए इस कन्सर्ट में इन्होंने कई सारे एकल ग़ज़ल गाए, जिनमें प्रमुख हैं: "मुख तेरा सोणया शराब नलों चंगा ऐ" और "गिन गिन तारें लंग गैयां रातां"। मैंने पहले हीं बताया कि बॉलीवुड में इन्होंने अपना पहला कदम "पाप" के जरिये रखा था। वहीं हॉलीवुड में इनकी शुरुआत हुई थी फिल्म "डेड मैन वाकिंग" से, जिसमें संगीत दिया था नुसरत साहब और अमेरिकन रॉक बैंड पर्ल जैम के एड्डी वेड्डर ने। फिर २००२ में "जेम्स होमर" के साथ इन्होंने "द फ़ोर फ़ेदर्स" के साउंडट्रैक पर काम किया। २००२ में हीं "द डेरेक ट्र्क्स बैंड" के एलबम "ज्वायफ़ुल न्वायज़" में इनका एक गीत "मकी/माकी मदनी" शामिल हुआ। अभी कुछ सालों पहले हीं "मेल गिब्सन" की "एपोकैलिप्टो" में इनकी आवाज़ गूंजी थी। भले हीं बॉलीवुड और हॉलीवुड में इन्होंने काम किया हो, लेकिन इस दौरान वे अपने मादर-ए-वतन पाकिस्तान को नहीं भूले। तभी तो पाकिस्तान जाकर इन्होंने दो देशभक्ति गीत "धरती धरती" और "हम पाकिस्तान" रिकार्ड किया। अभी हाल में हीं इन्होंने "हिन्दुस्तान-पाकिस्तान" की एकता के लिए "अमन की आशा" एलबम का शीर्षक गीत गाया है। ये पाकिस्तान की आवाज़ थे जबकि हिन्दुस्तान की कमान संभाली थी शंकर महादेवन ने। संगीत में राहत साहब के इसी योगदान को देखते हुए "यू के एशियन म्युज़िक अवार्ड्स" की तरफ़ से इन्हें साल २०१० के "बेस्ट इंटरनेशनल एक्ट" की उपाधि से नवाज़ा गया है। हम कामना करते हैं कि ये आगे भी ऐसे हीं पुरस्कार और उपाधियाँ प्राप्त करते रहें और हमारी श्रवण-इन्द्रियों को अपनी सुमधमुर अवाज़ का ज़ायका देते रहें।<br />
<br />
बातें बहुत हो गईं..अब वक़्त है आज की नज़्म से रूबरू होने का। चूँकि इस गाने के अधिकतर शब्द पंजाबी के हैं और मुझे कहीं भी इस गाने के बोल हासिल नहीं हुए, इसलिए अपनी समझ से मैंने शब्दों को पहचानने की कोशिश की है। अब ये बोल किस हद तक सही हैं, इसका फैसला आप सब हीं कर सकते हैं। मैं आपसे बस यही दरख्वास्त करता हूँ कि जिस किसी को भी सही लफ़्ज़ मालूम हों, वह टिप्पणियों के माध्यम से हमारी सहायता जरूर करें। या तो रिक्त स्थानों की पूर्ति कर दें या फिर पूरा का पूरा गाना हीं टिप्पणी में डाल दें। उम्मीद है कि आप हमें निराश नहीं करेंगे। चलिए तो हम भी आपको निराश न करते हुए आज की महफ़िल की लाजवाब नज़्म का दीदार करवाते हैं। मुझे भले हीं इसका पूरा अर्थ न पता हो, लेकिन राहत साहब की आवाज़ में छिपे दर्द को महसूस कर सकता हूँ। आवाज़ में उतार-चढाव से इन्होंने दु:ख का जो माहौल गढा है, आप न चाहते हुए भी उसका एक हिस्सा बन जाते हैं। "मेरा दिल तड़पे दिलदार बने"- यह पंक्ति हीं काफ़ी है, आपके अंदर बैठे नाज़ुक से दिल को मोम की तरह टुकड़े-टुकड़े करने को। दिल का एक-एक टुकड़ा आपको रोने पर बाध्य न कर दे तो कहना! <br />
<br />
<b>हाल सुनावां किसनु दिल दा, दिल नईं लगदा यार बिना,<br />
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..<br />
<br />
सोचा मैंके प्यार जता दें (.....)<br />
हाथे खोके जावन वाला.. सोंचा पा गया पल्ले<br />
ईंज मैं रोई, जी मैं ______ के खोई,<br />
कूंज (गूंज) तड़प दीदार बिना,<br />
मैरा दिल तड़पे दिलदार बिना<br />
<br />
दिन तो लेके शामत(?) आई, रांवां तकदी रैंदी,<br />
वो की जाने, रोंदी(?) कमली, की की दुखरे सहदीं<br />
मेड़ें चलदी, जीवे नाल पइ बलदी,<br />
(...)<br />
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना<br />
<br />
खपरांदे वीच फंस गई जाके आसां वाली बेरी<br />
समझ न आए केरे वेल्ले हो गई ये फुलकेरी<br />
मोरे केड़ा, मेरे नाल जेड़ा <br />
रुस बैठा तकरार बिना,<br />
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना<br />
<br />
हाल सुनावां किसनु दिल दा, दिल नईं लगदा यार बिना,<br />
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..</b><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js">
</script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/Mehfil-e-ghazal07/Meradiltarpedildarbina.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/10/lagta-nahi-hai-jee-zafar-habib-wali.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "आरज़ू" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन <br />
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में <br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
आरजू है हमारी आप से जनाब !<br />
यूँ लंबी छुट्टी न किया करें जनाब . (मंजु जी)<br />
<br />
ये दिल न कोई आरजू ऐसी कभी कर <br />
कि दम तोड़ दे तेरे अंदर ही वो घुटकर. (शन्नो जी)<br />
<br />
आरजू ही ना रही सुबह वतन की अब मुझको,<br />
शाम ए गुरबत है अजब वक्त सुहाना तेरा (अनाम)<br />
<br />
न आरज़ू ,न तमन्ना,न हसरत-ओ-उम्मीद<br />
मुझे जगह न मिली फिर भी सर छुपाने को (जनाब सरवर)<br />
<br />
दिल की यह आरज़ू थी कोई दिलरुबा मिले,<br />
लो बन गया नसीब कि तुम हम से आ मिले. (हसन कमाल)<br />
<br />
आरज़ू तो खूब रही कि आप जल्दी लौट आयें, <br />
देर से ही सही, खैर मकदम है आपका (पूजा जी)<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई सजीव जी और शन्नो जी की शुभकामनाओं के साथ। हम आप दोनों का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। शन्नो जी, आप आईं तो पहले लेकिन शान-ए-महफ़िल का खिताब मंजु जी ले गईं क्योंकि आपके बताए हुए शब्द पर इन्होंने चार पंक्तियाँ लिख डालीं। महफ़िल फिर से पटरी पर आ गई है, यह सूचना शायद सभी मित्रों के पास सही वक़्त पर नहीं पहुँची थी, इसलिए तो २-३ दिनों तक बस आप तीन लोगों के भरोसे हीं महफ़िल की शमा जलती रही। फिर जाकर सुमित जी का आना हुआ। सुमित जी के बाद अवध जी आए जिन्होंने अपने पसंदीदा गुलुकार की ग़ज़ल को खूब सराहा और इस दौरान हमें शुक्रिया भी कहा। अवध जी, शुक्रिया तो हमें आपका करना चाहिए, जो आपने हबीब साहब की कुछ और ग़ज़लों से हमारी पहचान करवाई। हम जरूर हीं उन ग़ज़लों का महफ़िल का हिस्सा बनाएँगे। वैसे यह बताईये कि "गजरा बना के ले आ मलिनिया" और "गजरा लगा के ले आ सजनवा" एक हीं ग़ज़ल या दो मुख्तलिफ़? अगर दो हैं तो हम दूसरी ग़ज़ल ढूँढने की अवश्य कोशिश करेंगे। और अगर आपके पास ये ग़ज़लें हों (ऑडिया या फिर टेक्स्ट) तो हमें भेज दें, हमें सहूलियत मिलेगी। महफ़िल की आखिरी शमा पूजा जी के नाम रही, जो अंतिम दिन ज़फ़र के दरबार का मुआयना करने आई थीं :) चलिए आप आईं तो सही.. महफ़िल को "रिस्टार्ट" करने के साथ-साथ मुझे मेरे जन्मदिवस की भी बधाईयाँ मिलीं। मैं आप सभी मित्रों का इसके लिए तह-ए-दिल से आभारी हूँ।<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-52272974120783423722010-10-20T10:15:00.004+05:302010-10-20T12:14:04.895+05:30लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में.. मादर-ए-वतन से दूर होने के ज़फ़र के दर्द को हबीब की आवाज़ ने कुछ यूँ उभारा<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०१</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">पू</span>रे एक महीने की छुट्टी के बाद मैं वापस आ गया हूँ महफ़िल-ए-ग़ज़ल की अगली कड़ी लेकर। यह छुट्टी वैसे तो एक हफ़्ते की हीं होनी थी, लेकिन कुछ ज्यादा हीं लंबी खींच गई। दर-असल मेरे साथ वही हुआ जो इन महाशय के साथ हुआ था जिन्होंने "कल करे सो आज कर" का नवीनीकरण किया है कुछ इस तरह से:<br />
<br />
आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो,<br />
इतनी जल्दी क्या है भाई, जीना है अभी बरसों।<br />
<br />
तो आप समझ गए ना? हर बुधवार को मैं यही सोचता था कि भाई पूरे सौ अंकों के बाद जाकर मुझे आराम करने का यह मौका नसीब हुआ है, तो इसे ज़ाया क्यों गंवाया जाए, चलो आज भी महफ़िल से नदारद हो लेता हूँ। यही सोचते-सोचते ४ हफ़्ते निकल गए। फिर जब इस बार बुधवार नजदीक आया तो विश्राम करने के विचार के साथ-साथ अपराध-बोध भी अपना सर उठाने लगा। अपराधबोध का मंतव्य था कि भाई तुमने तो सभी पाठकों से यह वादा किया था कि एक हफ़्ते में वापस आ जाओगे, फिर ये वादाखिलाफ़ी क्यों? अपराधबोध कम होता, अगर मेरे सामने सुजॉय जी का उदाहरण न होता। एक मैं हूँ जो सप्ताह में एक आलेख लिखता हूँ और अभी तक उन आलेखों की संख्या १०० तक हीं पहुँची है और एक ये हुज़ूर हैं जो हरदिन लिखते हैं और अभी तक ५०० कड़ियाँ लिख चुके हैं, फिर भी अगर इन्हें छुट्टी पर घर जाना होता है तो पहले से हीं उतने आलेख लिखकर सजीव जी को थमा जाते हैं, ताकि "ओल्ड इज गोल्ड" सटीक समय पर हर दिन आए, ताकि नियम की अवहेलना न हो पाए। ये तो कभी आराम नहीं करते, फिर मैं क्यों आराम के पीछे भाग रहा हूँ। चाचा नेहरू भी कह गए हैं कि आराम हराम है। इस अपराधबोध का आना था कि मैने विश्राम करने के प्रबलतम विचार को एक एंड़ी मारी और बढ निकला आज की कड़ी की ओर। तो चलिए आज से आपकी महफ़िल-ए-ग़ज़ल फिर से सजने वाली है.. हर बुधवार, बिना रूके...वैसे हीं मज़ेदार अंदाज़ में।<br />
<br />
आज की महफ़िल में हम जो ग़ज़ल लेकर हाज़िर हैं, उस ग़ज़ल का ज़िक्र हमने आज से पूरे ९ महीने पहले "<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/01/gajra-bana-ke-le-aa-habib-afshan.html">गजरा बना के ले आ... एक मखमली नज़्म के बहाने अफ़शां और हबीब की जुगलबंदी</a>" शीर्षक से प्रकाशित आलेख में किया था। "गजरा बना के.." को जिस गुलुकार ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया था, वही गुलुकार, वही फ़नकार आज की ग़ज़ल में अपनी आवाज़ के जरिये मौजूद है। बस फ़र्क इतना है कि उस ग़ज़ल/नज़्म के ग़ज़लगो और आज के ग़ज़लगो दो मुक्तलिफ़ इंसान हैं। उस कड़ी में हमने कहा तो यह था कि हबीब साहब जल्द हीं ग़ालिब की एक ग़ज़ल के साथ हाज़िर हो रहे हैं.. लेकिन सच ये है कि हम जिस ग़ज़ल की बात कर रहे थे, वह ग़ालिब की नहीं है, बल्कि मुगलिया सल्तनत के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की है। हमने जल्दबाजी में ज़फ़र की ग़ज़ल ग़ालिब के हवाले कर दी थी.. हम उस गलती के लिए आपसे अभी माफ़ी माँगते हैं।<br />
<br />
ये तो सभी जानते हैं कि १८५७ के गदर के वक़्त ज़फ़र ने अपने किले बागियों के लिए खोल दिए थे। इस गुस्ताखी की उन्हें यह सज़ा मिली की उनके दो बेटों और एक पोते को मौत के घाट उतार दिया गया.. बहादुर शाह जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली, लेकिन मेजर हडस ने उन्हें उनके बेटे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान व पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया। अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए। ८२ साल के उस बूढे पर उस वक़्त क्या गुजरी होगी, इसका अंदाजा लगाना भी नामुमकिन है। क्या ये कम था कि अंग्रेजों ने ज़फ़र को कैद करके दिल्ली से बाहर .. दिल्ली हीं नहीं उनकी सरज़मीं हिन्दुस्तान के बाहर बर्मा(आज का मयन्मार) भेज दिया.. कालापानी के तौर पर। ज़फ़र अपनी मौत के अंतिम दिन तक अपनी सरज़मों को वापस आने के लिए तड़पते रहे। उन्हें अपनी मौत का कोई गिला न था, उन्हें गिला..उन्हें अफसोस तो इस बात का था कि मरने के बाद जो मिट्टी उनके सीने पर डाली जायगी, वह मिट्टी पराई होगी। वे अपने कू-ए-यार में, अपने मादर-ए-वतन की गोद में दफ़न होना चाहते थे, लेकिन ऐसा न हुआ। बर्मा की गुमनाम गलियों में घुट-घुटकर मरने के बाद उन्हीं अजनबी पौधों और परिंदों के बीच सुपूर्द-ए-खाक होना उनके नसीब में था। ७ नवंबर १८६२ को उनकी मौत के बाद उन्हें वहीं रंगून (आज का यंगुन) में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफ़ना दिया गया। वह जगह <a href="http://www.kapadia.com/Dargah/zafrdarg.html">बहादुर शाह ज़फ़र दरगाह</a> के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। शायद ज़फ़र को अपनी मौत का पूर्वाभास हो चुका था, तभी तो इस ग़ज़ल के एक-एक हर्फ़ में उनका दर्द मुखर होकर हमारे सामने आता है:<br />
<br />
<b>लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में <br />
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में <br />
<br />
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें <br />
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में<br />
<br />
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन <br />
दो _____ में कट गये दो इन्तज़ार में <br />
<br />
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये <br />
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में</b><br />
<br />
यह ग़ज़ल पढने वक़्त जितना असर करती है, उससे हज़ार गुणा असर तब होता है, जब इसे हबीब वली मोहम्मद की आवाज़ में सुना जाए। तो लीजिए पेश है हबीब साहब की यह पेशकश:<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js">
</script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/mehfil-e-ghazalBadeShayar1/LagtaNahiHaiDilHabibWaliZafar.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
हाँ तो बात ज़फ़र की हो रही थी, तो आज भी हमारे हिन्दुस्तान में ऐसे कई सारे मुहिम चल रहे हैं, जिनके माध्यम से ज़फ़र की आखिरी मिट्टी, ज़फ़र के कब्र को हिन्दुस्तान लाए जाने के लिए सरकार पर दबाव डाला जा रहा है। हम भी यही दुआ करते हैं कि सरकार जगे और उसे इस बात का बोध हो कि स्वतंत्रता-सेनानियों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए। आज़ादी की लड़ाई में आगे रहने वाले धुरंधरों और रणबांकुरों को इस तरह से नज़र-अंदाज़ किया जाना सही नहीं।<br />
<br />
ज़फ़र उस वक़्त के शायर हैं जब ग़ालिब, ज़ौक़ और मोमिन जैसे शायर अपनी काबिलियत से सबके बीच लोहा मनवा रहे थे। ऐसे में भी ज़फ़र ने अपनी खासी पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की। (और क्यों न करते, जब ये तीनों शायर इन्हीं के राज-दरबार में बैठकर अपनी शायरी सुनाया करते थे.. जब ज़ौक़ ज़फ़र के उस्ताद थे और ज़ौक़ की असमय मौत के बाद ग़ालिब ज़फ़र के साहबजादे के उस्ताद बने) ज़फ़र किस हद तक शेर कह जाते थे, यह जानने के लिए उनकी इस ग़ज़ल पर नज़र दौड़ाना जरूरी हो जाता है:<br />
<br />
<b>या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता <br />
या मेरा ताज गदाया न बनाया होता <br />
<br />
ख़ाकसारी के लिये गरचे बनाया था मुझे <br />
काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ न बनाया होता <br />
<br />
नशा-ए-इश्क़ का गर ज़र्फ़ दिया था मुझ को <br />
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता <br />
<br />
अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने <br />
क्यों ख़िरद्मन्द बनाया न बनाया होता <br />
<br />
शोला-ए-हुस्न चमन् में न दिखाया उस ने <br />
वरना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता <br />
<br />
रोज़-ए-ममूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र' <br />
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता</b> <br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/09/tere-khushboo-mein-base-khat-rahbar.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "अनमोल" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
याद थे मुझको जो पैगाम-ए-जुबानी की तरह,<br />
मुझको प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
रिश्तों के पुल <br />
मिलाते रहे <br />
स्वार्थ के तटों को <br />
और <br />
अनमोल भावना की <br />
नदी<br />
बहती रही<br />
नीचे से होकर <br />
अछूती सी !! (अवनींद्र जी)<br />
<br />
आँसू आँखों में छिपे होते हैं गम दिखाये नहीं जाते<br />
बड़े अनमोल होते हैं वो लोग जो भुलाये नहीं जाते. (शन्नो जी)<br />
<br />
ग़ज़ल की महफ़िल का अनमोल तोहफा तुमने दिया <br />
बधाई हो सौवां अंक जो तुमने पूरा किया (नीलम जी)<br />
<br />
अनमोल शतक की दे रही बधाई ,<br />
'विश्व 'ने खुशियों की शहनाई बजाई . (मंजु जी)<br />
<br />
बेशक हो मुश्किल भरी वो डगर,<br />
मगर था 'अनमोल' ग़ज़ल का सफर (अवध जी)<br />
<br />
जब तक बिके ना थे कोई पूछता ना था,<br />
तूने मुझे खरीद कर अनमोल कर दिया। (अनाम)<br />
<br />
चूँकि पिछली महफ़िल में हमने शतक पूरा किया था, इसलिए हमारे सभी शुभचिंतकों और मित्रों से हमें शुभकामनाएँ प्राप्त हुईं। हम आप सभी का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। पिछली महफ़िल में सबसे पहले शन्नो जी का आना हुआ और आपने हमें हमारी भूल (शब्द गायब न करना) से अवगत कराया। शिकायत करने में काहे की मुश्किल.. आगे से ऐसे कभी भी किंकर्तव्यविमूढ न होईयेगा। समझीं ना? :) आपके बाद सजीव जी ने हमें बधाईयाँ दीं। सजीव जी, सब कुछ तो आपके कारण हीं संभव हो सका है। आपसे प्रोत्साहन पाकर हीं तो मैं महफ़िल-ए-ग़ज़ल की दूसरी पारी लेकर हाज़िर हो पाया हूँ। अवनींद्र जी, आपने महफ़िल की पहली नज़्म कही, लेकिन चूँकि शब्द गायब करने में मुझसे देर हो गई थी, इसलिए "शान-ए-महफ़िल" की पदवी मैं आपको दे नहीं पाऊँगा.. मुझे मुआफ़ कीजिएगा। नीलम जी, आपके बधाई-पत्र की अंतिम पंक्ति (अब क्यों कोई करे कोई शिकवा न गिला) मैं समझ नहीं पाया, ज़रा प्रकाश डालियेगा। :) सुजॉय जी, आप मुझे यूँ लज्जित न कीजिए। आप ५०० एपिसोड तक पहुँच चुके हैं और जिस तरह की आप जानकारियाँ देते हैं, वह अंतर्जाल पर कहीं नहीं है, इसलिए आपका यह कहना कि फिल्मी गानों के बारे में जानकारी लाना आसान होता है.. आपकी बड़प्पन का परिचय देता है। पूजा जी, आपने कुछ दिन विश्राम करने को कहा था और मैंने महिने भर विश्राम कर लिया। आप नाराज़ तो नहीं हैं ना? :) चलिए अब आप फिर से नियमित हो जाईये, क्योंकि मैं भी नियमित होने जा रहा हूँ। मंजु जी और अवध जी, आपके "अनमोल" शब्द मेरी सर-आँखों पर.. प्रतीक जी, क्षमा कीजिएगा मैंने आपकी आग्रह के बावजूद महफ़िल को महिने भर का विराम दे दिया, आगे से ऐसा न होगा। :) सुमित भाई, महफ़िल आ गई फिर से, अब आप भी आ जाईये.. <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-62006016224922006572010-09-15T10:19:00.006+05:302010-09-15T12:32:19.721+05:30महफ़िल-ए-ग़ज़ल की १००वीं कड़ी में जगजीत सिंह लेकर आए हैं राजेन्द्रनाथ रहबर की "तेरे खुशबू में बसे खत"<span style="font-weight: bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१००</span><br />
<br />
<span style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-color: white; background-image: initial; background-origin: initial; color: black; float: left; font-family: times; font-size: 70px; font-weight: bold; line-height: 60px; padding-right: 5px; padding-top: 1px;">हं</span>स ले 'रहबर` वो आये हैं, <br />
रोने को तो उम्र पड़ी है<br />
<br />
राजेन्द्रनाथ ’रहबर’ साहब के इस शेर की हीं तरह हम भी आपको खुश होने और खुशियाँ मनाने का न्यौता दे रहे हैं। जी हाँ, आज बात हीं कुछ ऐसी है। दर-असल आज महफ़िल-ए-ग़ज़ल उस मुकाम पर पहुँच गई है, जिसके बारे में हमने कभी भी सोचा नहीं था। जब हमने अपनी इस महफ़िल की नींव डाली थी, तब हमारा लक्ष्य बस यही था कि "आवाज़" पर "गीतों" के साथ-साथ "ग़ज़लों" को भी पेश किया जाए.. ग़ज़लों को भी एक मंच मुहैया कराया जाए.. यह मंच कितने दिनों तक बना रहेगा, वह हमारी मेहनत और आप सभी पाठकों/श्रोताओं के प्रोत्साहन पर निर्भर होना था। हमें आप पर पूरा भरोसा था, लेकिन अपनी मेहनत पर? शायद नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि महफ़िल की शुरूआत करने से पहले मैं ग़ज़लों का उतना बड़ा मुरीद नहीं था, जैसा अब हो चुका हूँ। हाँ, मैं ग़ज़लें सुनता जरूर था, लेकिन कभी भी ग़ज़लगो या शायर के बारे में पता करने की कोशिश नहीं की थी। इसलिए जब शुरूआत में सजीव जी ने मुझे यह जिम्मेवारी सौंपी तो मैंने उनसे कहा भी था कि मुझे इन सबके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है। तब उन्होंने कहा कि आप ग़ज़ल के साथ अपना कोई शेर और अपनी तरफ़ से कुछ बातें डाल दिया करें.. जिससे माहौल बनाने में मदद मिले। शायर/संगीतकार/गुलुकार के बारे में ज्यादा लिखने की जरूरत नहीं, उनका बस नाम हीं काफी है। शुरू-शुरू में मैंने ऐसा हीं किया.. पहली ८ या १० महफ़िलों को अगर आप देखेंगे तो आपको मेरे शेर और मेरी उलुल-जुलुल बातों के हीं दर्शन होंगे। शुरू में तो हम एक महफ़िल में दो ग़ज़लें सुनाया करते थे और उस वक़्त हम ग़ज़लों के बोल महफ़िल में डालते भी नहीं थे, लेकिन जैसे-जैसे मैं महफ़िल लिखता गया, मेरी रूचि कलाकारों में बढने लगी.. और फिर एक ऐसा दिन आया, जब हमने महफ़िल के ढाँचे में बदलाव कर हीं दिया। अब महफ़िलें कलाकारों को समर्पित होने लगीं.. ग़ज़ल के साथ ग़ज़लगो और गुलुकार भी महफ़िल का अहम हिस्सा होने लगें। यही ढाँचा आजतक कायम है, बस इतना परिवर्तन आया है कि पहले हम महफ़िल सप्ताह में दो दिन (मंगलवार और वृहस्पतिवार को) पेश करते थे, लेकिन चूँकि अब हमें इतनी सारी जानकारियाँ इकट्ठा करनी होती थीं, इसलिए हमने दो दिन को कम करके एक हीं दिन(बुधवार को) कर दिया। इतना सब होने के बावजूद हमें लगता था कि महफ़िल ज्यादा से ज्यादा ६० या ६५ सप्ताह हीं पूरी करेगी, लेकिन यह आप सबकी दुआ और प्यार का हीं नतीजा है कि आज हम <b>सौवीं</b> कड़ी लेकर आप सबके सामने हाजिर हैं। तो हो जाए हम सबके लिए तालियाँ :)<br />
<br />
अमूमन महफ़िल के अंत में हम उस दिन की ग़ज़ल सुनवाते हैं, लेकिन आज क्यों न इसी से शुरूआत कर ली जाए।<br />
<br />
यूँ तो जगजीत सिंह जी महफ़िलों और मुशायरों में या फिर मंच पर "तेरे खुशबू" नज़्म का एक छोटा हिस्सा हीं गाते हैं, लेकिन चूँकि आज महफ़िल-ए-ग़ज़ल की १००वीं कड़ी है इसलिए हम आपके लिए लाए हैं पूरी की पूरी नज़्म। पढकर इसके अंदर छुपे गंगा के प्रवाह को महसूस कीजिए।<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
प्यार की आखिरी पूंजी भी लुटा आया हूँ,<br />
अपनी हस्ती भी लगता है मिटा आया हूँ,<br />
उम्र भर की जो कमाई थी वो गंवा आया हूँ,<br />
तेरे खत आज मैं गंगा में बहा आया हूँ,<br />
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ।<br />
<br />
तूने लिखा था जला दूँ मैं तिरी तहरीरें,<br />
तूने चाहा था जला दूँ मैं तिरी तस्वीरें,<br />
सोच लीं मैंने मगर और हीं कुछ तदबीरें,<br />
तेरे खत आज मैं गंगा में बहा आया हूँ,<br />
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ।<br />
<br />
तेरे खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे,<br />
प्यार में डूबे हुए खत मैं जलाता कैसे,<br />
तेरे हाथों के लिखे खत मैं जलाता कैसे,<br />
तेरे खत आज मैं गंगा में बहा आया हूँ,<br />
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ।<br />
<br />
जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाये रखा,<br />
जिनको इक उम्र कलेजे से लगाये रखा,<br />
दीन जिनको जिन्हें ईमान बनाये रखा<br />
<br />
जिनका हर लफ़्ज़ मुझे याद पानी की तरह,<br />
याद थे मुझको जो पैगाम-ए-जुबानी की तरह,<br />
मुझको प्यारे थे जो _____ निशानी की तरह<br />
<br />
तूने दुनिया की निगाहों से जो बचकर लिखे,<br />
सालहा-साल मेरे नाम बराबर लिखे,<br />
कभी दिन में तो कभी रात को उठकर लिखे<br />
<br />
तेरे रूमाल तिरे खत तिरे छल्ले भी गए,<br />
तेरी तस्वीरें तिरे शोख लिफ़ाफ़े भी गए,<br />
एक युग खत्म हुआ, युग के फसाने भी गए,<br />
तेरे खत आज मैं गंगा में बहा आया हूँ,<br />
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ।<br />
<br />
कितना बेचैन उनको लेने को गंगाजल था,<br />
जो भी धारा था उन्हीं के लिए वो बेकल था,<br />
प्यार अपना भी तो गंगा की तरह निर्मल था,<br />
तेरे खत आज मैं गंगा में बहा आया हूँ,<br />
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ।</span><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js">
</script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" height="30" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/mehfil-e-ghazalBadeShayar1/teriKhushbooMeinBaseJagjitRahbar.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
आज माहौल अलग है, आज दिन दूसरा है... इसलिए आज अंदाज़ भी तो अलहदा होना चाहिए। तो फिर क्यों न आज के लिए जानकारियों के भारी-भरकम डोज़ को किनारे कर दिया जाए और बस ग़ज़ल की हीं बात हो। अभी हमने जगजीत सिंह जी की आवाज़ में राजेन्द्रनाथ रहबर साहब की लिखी नज़्म सुनी। अब हम आपको एक ऐसी ग़ज़ल पढवाते हैं जिसके मतले में रहबर साहब ने अपने जग्गु दादा का ज़िक्र किया है: (साभार: रविकांत ’अनमोल’.. ब्लॉग <a href="http://rehbarsaheb.blogspot.com/search/label/%E0%A5%9A%E0%A5%9B%E0%A4%B2">"तेरे खत"</a>)<br />
<br />
<b>तुम जन्नते कश्मीर हो तुम ताज महल हो <br />
'जगजीत` की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो <br />
<br />
हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद <br />
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो <br />
<br />
होते हैं सफल लोग मुहब्बत में हज़ारों <br />
ऐ काश कभी अपनी मुहब्बत भी सफल हो <br />
<br />
उलझे ही चला जाता है उस ज़ुल्फ़ की मानिन्द <br />
ऐ उक़दा-ए-दुशवारे मुहब्बत२ कभी हल हो <br />
<br />
लौटी है नज़र आज तो मायूस हमारी <br />
अल्लह करे दीदार तुम्हारा हमें कल हो <br />
<br />
मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज़ अचानक <br />
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो</b><br />
<br />
रहबर साहब की एक नज़्म और एक ग़ज़ल के बाद उनका हल्का-फुल्का परिचय और उनके कुछ शेर:<br />
<br />
परिचय: <b>राजेन्द्रनाथ रहबर का जन्म पंजाब के शकरगढ में (जो अब पाकिस्तान में है) ५ नवंबर १९३१ को हुआ था। मल्हार, तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त, और शाम ढल गई, याद आऊँगा... इनकी प्रमुख कृतियों में गिनी जाती हैं। हाल हीं में पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल (मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के पुत्र) ने इन्हें शिरोमणी उर्दू साहित्यकार पुरस्कार से सम्मानित किया है। रहबर साहब की रचनाएं भारत के आम आदमी की ज़ुबान हैं, उसकी पहचान हैं। हम रहबर साहब के स्वस्थ एवं सुखद भविष्य की कामना करते हैं। </b><br />
<br />
एक आम आदमी की दैनिक ज़िंदगी कैसी होती है, उसकी सोच कैसी होती है, उसके ख्वाब कैसे होते हैं.. अगर यह जानना हो तो रहबर साहब के शेरों से अच्छा कोई श्रोत शायद हीं होगा। आप खुद देखें:<br />
<br />
<i>सुबह सवेरे नूर के तड़के ख़ुश्बू सी हर जानिब फैली<br />
फेरी वाले बाबा ने जब संत कबीर का दोहा गाया<br />
<br />
तू कृष्ण ही ठहरा तो सुदामा का भी कुछ कर<br />
काम आते हैं मुश्क़िल में फ़क़त यार पुराने<br />
<br />
जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो <br />
देंगे फ़क़ीर तुम को दुआएं नई नई <br />
<br />
एक दिन मैं ख़ुदा से पूछूं गा <br />
क्या ग़रीबों का भी ख़ुदा है कोई <br />
<br />
कुछ वक्त़ ने भी साथ हमारा नहीं दिया <br />
कुछ आप की नज़र के सहारे भी कम मिले</i> <br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/09/parishaan-hoke-meri-khaak-iqbal-mehdi.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "खटक" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को<br />
खटक-सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
हम फँसे हैं जिंदगी की सलाखों में<br />
यहाँ दुश्मन भी मिलते हैं लाखों में<br />
महफूज रहीं अब तक हमारी साँसें <br />
पर खटक रही हैं उनकी आँखों में. (शन्नो जी)<br />
<br />
फूल जिस डाली पे उगा करता है<br />
शूल उस डाली पे खटक जाता है<br />
फूल और शूल में इतना सा ही बस अन्तर है<br />
इक मन में अटक जाता है इक तन में अटक जाता है। (अज्ञात)<br />
<br />
न लुटता दिन को तो कब रात को यूं बेखबर सोता .<br />
रहा खटका न चोरी का ,दुआ देते हैं राहजन को (ग़ालिब)<br />
<br />
तेरी यादों को पलकों का चिलमन बना लिया <br />
तेरे वादों को जीवन का आँगन बना लिया <br />
जाने किस किस की आँख मैं खटकते रहे हैं हम <br />
इक तुझे दोस्त बनाया तो जहान दुश्मन बना लिया (अवनींद्र जी)<br />
<br />
पिछली महफ़िल में पहला कदम रखा प्रतीक महेश्वरी जी ने। प्रतीक जी, आपको हमारी महफ़िल पसंद आई.. इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। हम पूरी कोशिश करेंगे कि आगे भी यह प्रयास इसी मेहनत और लगन के साथ जारी रखें। यूँ तो शन्नो जी प्रतीक जी के बाद महफ़िल में नज़र आईं, लेकिन चूँकि आपने गायब शब्द की शिनाख्त की, इसलिए आपको शान-ए-महफ़िल की पदवी से नवाज़ा जाता है। इक़बाल के बारे में पढकर जितना अचंभा आपको हुआ, उतना हीं पहली दफ़ा मुझे भी हुआ था, इसी लिए तो मैंने ९९वीं महफ़िल उन्हें समर्पित की, ताकि हम सब उन्हें सही से जान सकें। शरद जी, आपके स्वरचित शेरों की कमी खली। किसी दूसरे शायर के साथ-साथ अपनी रचना भी डाल दिया करें.. क्योंकि हमें उनका इंतज़ार रहता है। नीलम जी, इक़बाल की महफ़िल में ग़ालिब का शेर.. वाह! मज़ा आ गया.. इक़बाल को इससे बड़ी भेंट क्या होगी। इस शेर के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! अरविंद जी एवं महेन्द्र जी, हमें अच्छा लगा कि आपको हमारी कोशिश अच्छी लगी। आपने इसे "संग्रहनीय" कह दिया, हमें इससे ज्यादा क्या चाहिए! अवनींद्र जी, महफ़िल के अंत में आपके स्वरचित शेर ने महफ़िल के शम्मों को और भी रौशन कर दिया.. यह अलग बात है कि शम्मा भी आपके शेर के साथ हीं बुझी। लेकिन कुछ देर के लिए महफ़िल की रौनक बढी तो जरूर।<br />
<br />
अब एक जरूरी सवाल आप सबों से: <b>चूँकि महफ़िल अपनी १००वीं कड़ी तक पहुँच चुकी है, इसलिए हमारा ख्याल है कि कुछ दिनों या महिनों के लिए इसे विराम देना चाहिए। लेकिन हम कोई भी निर्णय आपसे पूछे बिना नहीं ले सकते। इसलिए टिप्पणियों के माध्यम से आप हमें अपने विचारों से अवगत जरूर कराईयेगा।</b> <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल (अगर आप चाहें) तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight: bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight: bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-86177085164713121932010-09-08T10:16:00.003+05:302010-09-08T14:45:25.232+05:30परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए.. पेश-ए-नज़र है अल्लामा इक़बाल का दर्द मेहदी हसन की जुबानी<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९९</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">सि</span>तारों के आगे जहाँ और भी हैं,<br />
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं|<br />
<br />
अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म<br />
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं|<br />
<br />
गए दिन के तन्हा था मैं अंजुमन में<br />
यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं|<br />
<br />
हमारे यहाँ कुछ शायर ऐसे हुए हैं, जिन्हें हमने उनकी कुछ ग़ज़लों (कभी-कभी तो महज़ एक ग़ज़ल या एक नज़्म) तक हीं बाँधकर रखा है। ऐसे हीं एक शायर हैं, "मोहम्मद इक़बाल"। अभी हमने ऊपर जो शेर पढे, उन शेरों में से कम-से-कम एक शेर तो (पहला शेर हीं) अमूमन हर इंसान की जुबान पर काबिज़ है ,लेकिन ऐसे कितने हैं, जिन्हें इन शेरों के शायर का नाम पता है। हाँ, "इक़बाल" के नाम से सभी वाकिफ़ हैं, लेकिन कितनों की इसकी जानकारी है कि "सितारों के आगे... " कहकर लोगों में आशा की एक नई लहर पैदा करने वाला शायर "इक़बाल" हीं है। हमारे लिए तो इक़बाल बस "सारे जहां से अच्छा" तक हीं सीमित हैं। और यही कारण है कि जब हम बड़े शायरों की गिनती करते हैं तो ग़ालिब के दौर के शायरों को गिनने के बाद सीधे हीं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तक पहुँच जाते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि इन दो दौरों के बीच भी एक शायर हुआ है, जिसने पुरानी शायरी और नई शायरी के बीच एक पुल की तरह काम किया है। मेरे हिसाब से ऐसी गलती या ऐसी अनदेखी बस हिन्दुस्तान में हीं होती है, क्योंकि पाकिस्तान के तो ये क़ौमी शायर (राष्ट्रकवि) हैं और इनके जन्म की सालगिरह पर यानि कि ९ नवंबर को वहाँ सार्वजनिक (राष्ट्रीय) छुट्टी होती है। <br />
<br />
मैंने अपने कई लेखों में यह लिखा है कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ग़ालिब के एकमात्र उत्तराधिकारी थे, यह बात शायद सच हो, लेकिन यह भी सच है कि <b>उर्दू भाषा ने ‘ग़ालिब’ के अतिरिक्त अभी तक इक़बाल से बड़ा शायर उत्पन्न नहीं किया।</b> ग़ालिब के उत्तराधिकारी होने वाली बात इसलिए सच हो सकती है क्योंकि इक़बाल पर सबसे ज्यादा प्रभाव मौलाना 'रूमी' का था। हाँ, साथ-हीं-साथ ये ग़ालिब और जर्मन शायर 'गेटे' को भी खूब पढा करते थे, लेकिन ’रूमी’ की बात तो कुछ और हीं थी। इक़बाल की शायरी प्रसिद्धि के मामले में ग़ालिब के आस-पास ठहरती है, ऐसा कईयों का मानना है.. उन्हीं में से एक हैं उर्दू पत्रिका "मख़जन" के भूतपूर्व संपादक "स्वर्गीय शेख अब्दुल कादिर बैरिस्टर-एट-लॉ"। उन्होंने कहा था (साभार: प्रकाश पंडित):<br />
<br />
<b>"अगर मैं तनासख़ (आवागमन) का क़ायल होता तो ज़रूर कहता कि ‘ग़ालिब’ को उर्दू और फ़ारसी शायरी से जो इश़्क था उसने उनकी रूह को अदम (परलोक) में भी चैन नहीं लेने दिया और मजबूर किया कि वह फिर किसी इन्सानी जिस्म में पहुँचकर शायरी के चमन की सिंचाई करे; और उसने पंजाब के एक गोशे में, जिसे स्यालकोट कहते हैं, दोबारा जन्म लिया और मोहम्मद इक़बाल नाम पाया।"</b><br />
<br />
इक़बाल के बारे में और कुछ जानने के लिए चलिए प्रकाश पंडित जी की पुस्तक "इक़बाल और उनकी शायरी" को खंगालते हैं:<br />
<br />
<blockquote>सन् १८९९ में इक़बाल ने पंजाब विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया। और यही वह ज़माना था जब लाहौर के सीमित क्षेत्र से निकलकर उनकी शायरी की चर्चा पूरे भारत में पहुँची। पत्रिका ‘मख़ज़न’ उन दिनों उर्दू की सर्वोत्तम पत्रिका मानी जाती थी। उसके सम्पादक स्वर्गीय शेख़ अब्दुल क़ादिर ‘अंजुमने-हिमायते-इस्लाम’ के जल्सों में इक़बाल को नज़्में पढ़ते देख चुके थे और देख चुके थे कि इन दर्द-भरी नज़्मों को सुनकर उपस्थिति सज्जनों की आँखों में आँसू आ जाते हैं। उन्होंने इक़बाल की नज़्मों को ‘मख़ज़न’ में विशेष स्थान देना शुरू किया। पहली नज़्म ‘हिमालय’/’हिमाला’ के प्रकाशन पर ही, जो अप्रैल १९०१ के अंक में निकली, पूरा उर्दू-जगत् चौंक उठा। सभाओं द्वारा प्रार्थनाएं की जाने लगीं कि उनके वार्षिक सम्मेलनों में वे अपनी नज़्मों के पाठ द्वारा लोगों को लाभान्वित करें। स्वर्गीय अब्दुल क़ादिर के कथनानुसार उन दिनों इक़बाल शे’र कहने पर आते तो एक-एक बैठक में अनगिनत शे’र कह डालते। <b>"मैंने उन दिनों उन्हें कभी काग़ज़-क़लम लेकर शे’र लिखते नहीं देखा। गढ़े-गढ़ाए शब्दों का एक दरिया या चश्मा उबलता मालूम होता था। अपने शे’र सुरीली आवाज़ में, तरन्नुम से (गाकर) पढ़ते थे। स्वयं झूमते थे, औरों को झुमाते थे। यह विचित्र विशेषता है कि मस्तिष्क ऐसा पाया था कि जितने शे’र इस प्रकार ज़बान से निकलते थे, सब-के-सब दूसरे समय और दूसरे दिन उसी क्रम से मस्तिष्क में सुरक्षित होते थे।"</b><br />
<br />
शायरी कैसी हो, इस बारे में इक़बाल का ख्याल था: "अगरचे आर्ट के मुतअ़ल्लिक़ दो नज़रिये (दृष्टिकोण) मौजूद हैं : अव्वल यह कि आर्ट की ग़रज़ (उद्देश्य) महज़ हुस्न (सौंदर्य) का अहसास (अनुभूति) पैदा करना है और दोयम यह है कि आर्ट से ज़िन्दगी को फ़ायदा पहुँचाना चाहिए। मेरा ज़ाती ख़याल यह है कि आर्ट ज़िन्दगी के मातहत है। हर चीज़ को इन्सानी ज़िन्दगी के लिए वक़्त होना चाहिए और इसलिए हर आर्ट जो ज़िन्दगी के लिए मुफ़ीद हो, अच्छा और जाइज़ है। और जो ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ हो, जो इन्सानों की हिम्मतों को पस्त और उनके जज़बाते-आलिया (उच्च भावनाओं) को मुर्दा करने वाला हो, क़ाबिले-नफ़रत है और उसकी तरवीज (प्रसार) हुकूमत की तरफ़ से ममनू (निषिद्ध) क़रार दी जानी चाहिए।" इसी ख्य़ाल के तहत १९०५ तक (जब तक वे उच्च शिक्षा के लिए यूरोप नहीं गए थे) वे देश-प्रेम में डूबी हुई तथा भारत की पराधीनता और दरिद्रता पर खून के आँसू रुलाने वाली नज़्मों की रचना करते रहे। उन्होंने हर किसी के मुख में यह प्रार्थना डाली:<br />
<br />
<b>हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत <br />
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत</b><br />
<br />
फिर १९०५ में उनका यूरोप जाना हुआ। वहाँ छोटे-बड़े और काले-गोरे का भेद-भाव देखकर उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। अब विशाल अध्ययन तथा विस्तृत निरीक्षण के बाद उनकी क़लम से ऐसे शेर निकलने लगे:<br />
<br />
<b>दियारे-मग़रिब के रहनेवालों खुदा की बस्ती दुकां नहीं है<br />
खरा जिसे तुम समझ रहे हो, वो अब ज़रे-कम-अयार होगा<br />
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही खुदकशी करेगी<br />
जो शाख़े-नाजुक पे आशियाना बनेगा नापायदार होगा</b><br />
<br />
वे अब प्रगतिशील शायरी की और कूच करने लगे। ये इक़बाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले ‘इंक़िलाब’ (क्रान्ति) का प्रयोग राजनीतिक तथा सामाजिक परिवर्तन के अर्थों में किया और उर्दू शायरी को क्रान्ति का वस्तु-विषय दिया। पूँजीपति और मज़दूर, ज़मींदार और किसान, स्वामी और सेवक, शासक और पराधीन की परस्पर खींचातानी के जो विषय हम आज की उर्दू शायरी में देखते हैं, उन सबपर सबसे पहले इक़बाल ने ही क़लम उठाई थी और यही वे विषय हैं जिनसे उनके बाद की पूरी पीढ़ी प्रभावित हुई और यह प्रभाव राष्ट्रवादी, रोमांसवादी और क्रान्तिवादी शायरों से होता हुआ आधुनिक काल के प्रगतिशील शायरों तक पहुँचा है।<br />
<br />
१९०८ में यूरोप से लौटने के बाद वे उर्दू की बजाय फ़ारसी में अधिक लिखने लगे। फ़ारसी इस्तेमाल करने का कारण यह था कि उर्दू भाषा का शब्द-भण्डार फ़ारसी के मुक़ाबले में बहुत कम है। वहीं कुछ लोगों का मत यह है कि अब वे केवल भारत के लिए नहीं, संसार-भर के मुसलमानों के लिए शे’र कहना चाहते थे। कारण कुछ भी हो, वास्तविकता यह है कि फ़ारसी भाषा में शे’र कहने से उनका यश भारत से निकलकर न केवल ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, टर्की और मिश्र तक पहुँचा, बल्कि ‘असरारे-ख़ुदी’ (अहंभाव के रहस्य) पुस्तक की रचना और डॉक्टर निकल्सन के उसके अंग्रेज़ी अनुवाद से तो पूरे यूरोप और अमरीका की नज़रें इस महान भारतीय कवि की ओर उठ गईं। और फिर अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें ‘सर’ की श्रेष्ठ उपाधि प्रदान की।</blockquote><br />
इक़बाल का जन्म ९ नवंबर १८७७ को स्यालकोट में हुआ था। पुरखे कश्मीरी ब्राह्मण थे जिन्होंने तीन सौ वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था और कश्मीर से निकलकर पंजाब में आ बसे थे। उनके पिता एक अच्छे सूफी संत थे। यह उनके पिता की हीं तालीम थी कि इक़बाल की शायरी में गहरी सोच के दर्शन होते हैं। जैसे कि इन्हीं शेरों को देखिए:<br />
<br />
<b>पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है<br />
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है<br />
<br />
ख़ुदा के बन्दे तो हैं हज़ारों बनो में फिरते हैं मारे-मारे<br />
मैं उसका बन्दा बनूँगा जिसको ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा<br />
<br />
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी<br />
बड़ा बे-अदब हूँ, सज़ा चाहता हूँ</b> <br />
<br />
इक़बाल के बारे में इतनी जानकारियों के बाद चलिए अब हम आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की ग़ज़ल को अपनी मखमली आवाज़ से मुकम्मल किया है उस्ताद मेहदी हसन ने। तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है "राख" को परीशां करके "दिल" बना देने वाली ग़ज़ल, जो इक़बाल की पुस्तक "बाम-ए-जिब्रील" में दर्ज़ है:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए<br />
जो मुश्किल अब है यारब फिर वोही मुश्किल न बन जाए<br />
<br />
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को<br />
___ सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए<br />
<br />
बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैगा-गराँ मुझको<br />
ये मेरी ख़ुद निगहदारी मेरा साहिल न बन जाए<br />
<br />
अरूज़-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं<br />
के ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए</span><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300" height="30"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/mehfil-e-ghazalBadeShayar1/parishanHoKeMeriMehdiIqbal.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/09/zahid-na-kah-buri-daagh-tahira-syed.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "बेगाने" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे <br />
ये दुश्मनी करेंगे, बेगाने आदमी हैं<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
चलो अच्छा है अपनों में कोई गैर तो निकला.<br />
अगर होते सभी अपने तो बेगाने कहाँ जाते. (राजेंद्र कृष्ण)<br />
<br />
अगर पाना है सुकून तो कुछ बेगाने तलाश कर <br />
अपनों के यहाँ तो आजकल महफ़िल नहीं होती (अवनींद्र जी)<br />
<br />
जब से वे दिल की महफ़िल से रुखसत हुए ,<br />
सारे मोसम अपने अब बेगाने हो गए . (मंजु जी)<br />
<br />
अपनों- बेगानों का फ़रक न रहा होता ,<br />
कभी वो नजरें यूं चुरा के न गया होता<br />
जाना ही था तो बता के जाता ,<br />
रास्ता हमने खुद ही दिखा दिया होता (नीलम जी)<br />
<br />
जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,<br />
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं| (हबीब जालिब)<br />
<br />
ख्वाबों पे कोई जोर नहीं उनकी मनमानी होती है<br />
बेगाने दिल में बसने की उनसे नादानी होती है. (शन्नो जी)<br />
<br />
यूँ तो पिछली महफ़िल के सबसे पहले मेहमान थे "नीरज रोहिल्ला" जी, लेकिन सही शब्द की पहचान कर अवध जी महफ़िल की शान बने। नीरज जी, सच कहूँ तो महफ़िल सजाने से पहले मुझे भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि "ख़ूब परदा है... " वाला शेर "दाग़" का है। मैं बता नहीं सकता कि महफ़िल लिखने का मुझे कितना फायदा हो रहा है। आलेख पसंद करने के लिए आपका और अन्य मित्रों का तह-ए-दिल से आभार। अवध जी, ये हाज़िर-गैरहाज़िर होने का खेल कब तक खेलते रहिएगा.. हमारे नियमित पाठक/श्रोता क्यों नहीं बन जाते.. :) अवनींद्र जी, आपके इस स्वरचित शेर के क्या कहने.. इसी तरह हर बार महफ़िल में चार चाँद लगाते रहें। मंजु जी और नीलम जी, हमें अच्छा लगा कि हमारे बहाने आपको भी छुट्टी मिल गई :) लेकिन आगे से ऐसा नहीं होगा.. हम इसका आपको यकीन दिलाते हैं। सजीव जी, महफ़िल जैसी भी बन पड़ी है, सब आपकी दुआओं का हीं असर है.. हमारे लिए यूँ हीं दुआ करते रहिएगा। शन्नो जी, आपको भी जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ, और हाँ ईद, तीज और गणेश-चतुर्थी की शुभकामनाएँ भी लगे हाथों कबूल कीजिए। (बस शन्नो जी हीं क्यों.. ये बधाईयाँ तो हरेक स्वजन के लिए हैं)। आशीष जी, हबीब साहब के शेरों से हमें रूबरू कराने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-19224023885075710472010-09-01T10:07:00.005+05:302010-09-01T14:25:23.813+05:30ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं.. ताहिरा सैय्यद ने कुछ यूँ आवाज़ दी दाग़ की दीवानगी और मस्तानगी को<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९८</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">को</span>ई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना,<br />
तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं।<br />
<br />
"कौन ऐसी तवाएफ़ थी जो ‘दाग़’ की ग़ज़ल बग़ैर महफिल में रंग जमा सके? क्या मुशाअरे, क्या अदबी मजलिसें, क्या आपसी सुहबतें, क्या महफ़िले-रक्स, क्या गली-कूचें, सर्वत्र ‘दाग़’ का हीं रंग ग़ालिब था।" अपनी पुस्तक "शेर-ओ-सुखन: भाग ४" में अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने उपरोक्त कथन के द्वारा दाग़ की मक़बूलियत का बेजोड़ नज़ारा पेश किया है। ये आगे लिखते हैं: <br />
<br />
<blockquote>मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद इब्राहिम ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़समें पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर १०० रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’, ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’, ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई? जागीर मिलने और उच्च पदवियोंसे विभूषित होनेके अतिरिक्त १५०० रू० मासिक वेतन, राजसी ठाट-बाट और नवाब हैदराबाद के उस्ताद होने का महान् गौरव मिर्जा़ ‘दाग़’ को प्राप्त था। सच मानिए तो १९वीं शताब्दीका अन्तिम युग ‘दाग़’ युग था।<br />
<br />
दाग़ की ख्याति का यह आलम था कि उनकी शिष्य मण्डली में सम्मलित होना बहुत बड़ा सौभाग्य एवं गौरव समझा जाता था। हैदराबाद-जैसे सुदूर प्रान्तमें ‘दाग़’ के समीप जो शाइर नहीं रह सकते थे, वे लगभग शिष्य संशोधनार्थ ग़ज़लें भेजते थे। ‘दाग़’ का शिष्य कहलाना ही उन दिनों शाइर होने का बहुत बड़ा प्रमाणपत्र समझा जाता था। मिर्जा दाग़के जन्नत-नशीं होने के बाद एक दर्जन से अधिक शिष्य अपने को ‘जा-नशीने-दाग़’ (गुरुका उत्तराधिकारी शिष्य) लिखने लगे। नवाब ‘साइल’ मिर्जा ‘दाग़’ के दामाद भी थे और शिष्य भी। अतः बहुत बड़ी संख्या उन्हीं को ‘जानशीने-दाग़’ समझती थी। ‘बेखुद’ देहलवी, ‘बेखुद’ बेख़ुद’ बदायूनी, ‘आगा’ शाइर क़िज़िलबाश, ‘अहसन’ मारहरवी’, ‘नूह’ नारवी, भी अपने को ‘जानशीने-दाग़’ लिखने में बहुत अधिक गर्व का अनुभव करते हैं; और किसी कि मजाल नहीं जो उन्हें इस गौरवास्पद शब्द से वंचित कर सके। वास्तविक उत्ताधिकारी कौन है, इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वर्षों वाद-विवाद चले है।</blockquote><br />
कहा जाता है कि दाग़ के २००० से अधिक शागिर्द थे। इन शागिर्दों में दो ऐसे भी शागिर्द रहे हैं, जिन्हें उत्तराधिकारी कहे जाने का कोई शौक़ या कोई जिद्द नहीं थी, लेकिन इन्हीं दोनों ने दाग़ का नाम सबसे ज्यादा रौशन किया है। उनमें से एक थे जिगर मुरादाबादी, जिनके बारे में हम पिछली एक महफ़िल में ज़िक्र कर चुके हैं और दूसरे थे मोहम्मद अल्लामा इक़बाल। इक़बाल अपनी कविताएँ डाक द्वारा ‘दाग़’ देहलवी को संशोधनार्थ भेजा करते थे। महज २२ वर्ष की आयु में हीं इक़बाल ऐसी दुरूस्त गज़लें लिखने लगे थे कि मिर्ज़ा दाग़ को भी उनकी काबिलियत का लोहा मानना पड़ा था। दाग़ ने उनकी रचनाएँ इस टिप्पणी के साथ वापस करनी शुरू कर दीं कि रचनाएँ संशोधन की मोहताज नहीं हैं।<br />
<br />
अभी ऊपर हमने दाग़ के सुपूर्द-ए-खाक होने की बातें कीं, लेकिन इससे पहले जो चार दिन की ज़िंदगी होती है या फिर जन्म होता है, उसका ज़िक्र भी तो लाजिमी है। तो <b>दाग़ का जन्म नवाब मिर्ज़ा खान के रूप में २५ मई १८३१ को हुआ था। इन्होंने बस दस वर्ष की अवस्था से ही ग़ज़ल पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। १८६५ में वे रामपूर चले गए। रामपुर में इनकी मक़बूलियत का हवाला देते हुए हजरत ‘नूह’ नारवी लिखते हैं कि -"मुझसे रामपुर के एक सिन-रसीदा (वयोवृद्ध) साहब ने जिक्र किया कि नवाब कल्ब अली खाँ साहब का मामूल था कि मुशाअरे के वक़्त कुछ लोगों को मुशाअरे के बाहर महज़ इस ख्याल बैठा देते थे कि बाद में ख़त्म मुशाअरा लोग किसका शेर पढ़ते हुए मुशाइरे से बाहर निकलते हैं। चुनाव हमेशा यही होता था कि ‘दाग़’ साहबका शेर पढ़ते हुए लोग अपने-अपने घरोंको जाते थे।" २४ साल रामपुर में व्यतीत करने के बाद दाग़ १८९१ के आस-पास हैदराबाद चले गए। यहीं पर १७ फरवरी १९०५ को इन्होंने अंतिम साँसें लीं।</b><br />
<br />
दाग़ के बारे में और जानने के लिए चलिए अब हम निदा फ़ाज़ली साहब की शरण में चलते हैं:<br />
<br />
<blockquote>दाग़ के पिता नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी बंदूक से देश प्रेम में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी को उड़ा दिया था. नवाब साहब को फाँसी दी गई और उनकी पत्नी अपने पाँच साल के बेटे को रामपुर में अपनी बहन के हवाले करके, जान बचाने के लिए इधर-उधर भागती रहीं. जहाँ उन्हें मदद मिली वहाँ-वहाँ इसकी क़ीमत उन्हें अपने शरीर से चुकानी पड़ी. जिसके नतीजे में दाग़ के एक भाई और बहन अंग्रेज़ नस्ल से भी हुए. यह अभागिन महिला आख़िर में, आख़िरी मुगल सम्राट के होने वाले जानशीन मिर्ज़ा फखरू के निकाह में आई. यह १८५७ से पहले का इतिहास है. महल में आने के बाद माँ को रामपुर में छोड़े हुए बेटे की याद आई और किस्मत, बदकिस्मत बेटे को रामपुर से लालकिले में ले आई. १८५७ से एक साल पहले मिर्जा फखरू का देहांत हुआ और उसके बाद माँ और बेटा दोनों फिर से बेघर हो गए. दाग़ उस वक़्त शायर बन चुके थे. मशहूर हो चुके थे. शायरी ने उस समय के रामपुर नबाव को उन पर मेहरबान बनाया और उन्होंने फिर से घर-बार बसाया.<br />
<br />
रामपुर में हर साल एक मेला लगता था. जिसमें देश की मशहूर तवायफ़ें अपने गायन और नृत्य का प्रदर्शन करती थीं. उन तवायफों में एक नवाब साहब के भाई की प्रेमिका थी. दाग़ का दिल उसी पर आ गया. उनका नाम था मुन्नी बाई हिजाब. मुहब्बत की दीवानगी में पत्नी के मना करने के बावजूद नवाब साहब के नाम दाग़ ने खत लिख डाला: "नवाब साहब आपको ख़ुदा ने हर ख़ुशी से नवाज़ा है, मगर मेरे लिए सिर्फ़ एक ही ख़ुशी है और वह है मुन्नी बाई."<br />
<br />
नवाब तो दाग़ की शायरी के प्रशंसक थे. उन्होंने मुन्नी बाई के ज़रिए ही उत्तर भेजा. लिखा था - "दाग़ साहब हमें आपकी ग़ज़ल से ज़्यादा मुन्नी बाई अजीज़ नहीं है." मुन्नी बाई दाग़ साहब की प्रेमिका के रूप में उनके साथ रहने लगीं. लेकिन जब मन में धन का प्रवेश हुआ तो मन बेचारा बंजारा बन गया और मुन्नी बाई उन्हें छोड़ के चली गईं. इसी बेवफ़ाई पर शायद दाग़ ने यह शेर कहा था:<br />
<br />
<b>तू जो हरजाई है अपना भी यही तौर सही<br />
तू नहीं और सही और नहीं, और सही</b></blockquote><br />
लखनवी और देहलवी अंदाज़ की शायरी का सम्मिश्रण दाग की शायरी में बखूबी नज़र आता है। अब आप सोच रहे होंगे कि ये दो अंदाज़ हैं क्या और इनमें अंतर क्या है। इसी प्रश्न का जवाब देवी नागरानी आर०पी०शर्मा "महर्षि" से पूछ रही हैं: (साभार: साहित्य कुंज) "<b>देहलवी शायरी में प्रेमी का उसके सच्चे प्रेम तथा दुख-दर्द का स्वाभाविक वर्णन होता है, जब कि लखनवी शायरी अवध की उस समय विलासता से प्रभावित रही। अतः उसमें प्रेम को वासना का रूप दे दिया गया तथा शायरी प्रेमिका के इर्द -गिर्द ही घूमती रही। वर्णन में कृत्रिमता एवं उच्छृंखलता से काम लिया गया। अब लखनवी शायरी में सुधार आ गया है।</b>" ये तो हुई अंतर की बात, लेकिन अगर इनमें मेल-मिलाप जानना हो तो दाग़ के इन शेरों से बढकर और मिसाल नहीं मिल सकते:<br />
<br />
<b>ग़म से कहीं निजात मिले चैन पाएं हम,<br />
दिल खुं में नहाए तो गंगा नहाएं हम<br />
<br />
ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं,<br />
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं<br />
<br />
अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा<br />
सब ने जाना, जो पता एक ने जाना तेरा</b><br />
<br />
दाग़ के बारे में आज हमने बहुत कुछ जाना। महफ़िल तभी सफ़ल मानी जाती है जब शेरों के साथ-साथ शायर की भी दिल खोलकर बातें हों। आज की महफ़िल भी कुछ वैसी हीं थी। इसलिए मैं मुतमुईन होकर ग़ज़ल की और बढने को बेकाबू हूँ। चलिए तो अब आज की ग़ज़ल से रूबरू हुआ जाए। इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से सजाया है मल्लिका पुखराज की सुपुत्री ताहिर सैय्यद ने, जो खुद हीं बेमिसाल आवाज़ की मालकिन रही हैं। तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है आज की ग़ज़ल, जिसमें दाग़ ज़ाहिद से यह दरख्वास्त कर रहे हैं कि ये प्यार में पागल मस्ताने और दीवाने आदमी हैं, इसलिए इन्हें बुरा न कहा जाए:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं <br />
तुझ से लिपट पड़ेंगे, दीवाने आदमी हैं <br />
<br />
गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे <br />
ये दुश्मनी करेंगे, ____ आदमी हैं <br />
<br />
तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है <br />
आबाद करते. आख़िर वीराने आदमी हैं <br />
<br />
क्या चोर हैं जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके<br />
कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं</span><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/08/laayi-hayaat-aaye-zauq-begum-sehgal.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "बला" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
जा कि हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'<br />
अपनी बला से बादे-सबा अब कहीं चले<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
वो जब चाहे छीन ले मुझको ही मुझसे <br />
उनकी बला से फिर में भले तड़पता ही रहूँ (अवनींद्र जी)<br />
<br />
जल गया दिल मगर ऐसी जो बला निकले है<br />
जैसे लू चलती मेरे मुँह से हवा निकले है। (मीर तक़ी ’मीर’)<br />
<br />
उनकी बला से जीउँ या मरूँ मैं ,<br />
उनकी आदत रिवाज बन गई रे ! (मंजु जी)<br />
<br />
आईने में वो अपनी अदा देख रहे है<br />
मर जाये की मिट जाये कोई उनकी बला से (सोहेल राना)<br />
<br />
ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्से, काम की बातें<br />
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ (जावेद अख्तर)<br />
<br />
रुतबा है जिनका ना आपे में वो हैं <br />
सरे आम मुल्क में तबाही मची है <br />
न है परवाह उनको उनकी बला से <br />
इज्ज़त लुटी या किसी की बची है. (शन्नो जी)<br />
<br />
पूरे दो घंटे बैठकर लिखी गई महफ़िल पोस्ट करते वक़्त डिलीट (गायब) हो गई। मैं पूरी तरह से हतोत्साहित हो चुका था। लेकिन फिर हिम्मत जुटाकर महज़ २५ मिनट में मैंने इसे याद से तैयार किया है। <br />
<br />
पिछली महफ़िल की शान बने अवनींद्र जी। इस मुकाम के लिए आप बधाई के पात्र हैं। आपके बाद महफ़िल में शरद जी की आमद हुई। उस्ताद ज़ौक़ को समर्पित महफ़िल में उस्तादों के उस्ताद मीर तक़ी मीर का शेर पेश करके आपने सोने पर सुहागा जड़ दिया। इसके लिए किन लफ़्ज़ों में आपका शुक्रिया अदा करूँ! शन्नो जी और मंजु जी, आप दोनों के स्वरचित शेर कमाल के हैं। इन्हें पढकर मज़ा आ गया। आशीष जी, दाग़ का शेर "खूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं... " आप पर फिट बैठता है। आप की यह लुकाछिपी, किसी एक महफ़िल में आना, किसी से नदारद रहना कोई अदा है क्या? नहीं ना? तो फिर नियमित हो जाईये। :) चलिए आप सब आए तो कम से कम, न जाने हमारे बाकी मित्र किधर गायब हैं। सीमा जी, नीलम जी, आप दोनों तो नियमित हुआ करती थीं। भई.. जिधर भी हैं आप, तुरत लाईन-हाज़िर होईये, आपको तलब किया जाता है। :) उम्मीद है कि हमारे वे सारे भूले-भटके दोस्त आज भटकते हुए महफ़िल की ओर रूख कर लेंगे। दिल पर हाथ रखकर कह रहा हूँ, हमारा यह दिल मत तोड़िएगा। अरे हाँ, बातों-बातों में पिछले बुधवार की अपनी गैर-मौजूदगी की तो मुआफ़ी माँगना हीं भूल गया। दर-असल मैं अपने गृह-नगर (गाँव हीं कह लीजिए) गया हुआ था, वहाँ न तो बिज़ली सही थी और न हीं इंटरनेट, इसलिए लाख कोशिशों के बावजूद महफ़िल पोस्ट न कर सका। आप हमारी मजबूरी समझ रहे हैं ना? बढिया है। <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-44594173641931305192010-08-18T09:45:00.002+05:302010-08-18T10:06:54.423+05:30लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले.. ज़िंदगी और मौत के बीच उलझे ज़ौक़ को साथ मिला बेग़म और सहगल का<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९७</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">ना</span>ज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’,<br />
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले<br />
<br />
इस तपिश का है मज़ा दिल ही को हासिल होता<br />
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम दिल होता<br />
<br />
यूँ तो इश्क़ और शायर/शायरी में चोली-दामन का साथ होता है, लेकिन कुछ ऐसे भी शायर होते हैं जो इश्क़ को बखूबी समझते हैं और हर शेर लिखने से पहले स्याही को इश्क़ में डुबोते चलते हैं। ऐसे शायरों का लिखा पढने में दिल को जो सुकूं मिलता है, वह लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता। ज़ौक़ वैसे हीं एक शायर थे। जितनी आसानी ने उन्होंने "सर-ता-ब-कदम" दिल होने की बात कही है या फिर यह कहा है कि गुलशन के फूलों को जो अपनी नज़ाकत पे नाज़ है, उन्हें यह मालूम नहीं कि यह नाज़-ओ-नज़ाकत उनसे बढकर भी कहीं और मौजूद है .. ये सारे बिंब पढने में बड़े हीं आम मालूम होते हैं ,लेकिन लिखने वाले को हीं पता होता है कि कुछ आम लिखना कितना खास होता है। मैंने ज़ौक़ की बहुत सारी ग़ज़लें पढी हैं.. उनकी हर ग़ज़ल और ग़ज़ल का हर शेर इस बात की गवाही देता है कि यह शायर यकीनन कुछ खास रहा है। फिर भी न जाने क्यों, हमने इन्हें भुला दिया है या फिर हम इन्हें भुलाए जा रहे हैं। इस गु़स्ताखी या कहिए इस गलती की एक हीं वज़ह है और वह है ग़ालिब की हद से बढकर भक्ति। अब होता है ये है कि जो भी सुखनसाज़ या सुखन की कद्र करने वाला ग़ालिब को अपना गुरू मानने लगता है, उसके लिए यक-ब-यक ज़ौक़ दुश्मन हो जाते हैं। उन लोगों को यह लगने लगता है कि ज़ौक़ की हीं वज़ह से ग़ालिब को इतने दु:ख सहने पड़े थे, इसलिए ज़ौक़ निहायत हीं घटिया इंसान थे। इस सोच का जहन में आना होता है कि वे सब ज़ौक़ की शायरी से तौबा करने लगते हैं। मुझे ऐसी सोच वाले इंसानों पे तरस आता है। <b>शायर को उसकी शायरी से मापिए, ना कि उसके पद या ओहदे से।</b> ज़ौक़ ज़फ़र के उस्ताद थे और उनके दरबार में रहा करते थे.. अगर दरबार में रहना गलत है तो फिर ग़ालिब ने भी तो दरबार में रहने के लिए हाथ-पाँव मारे थे। तब तो उन्हें भी बुरा कहा जाना चाहिए, पथभ्रष्ट कहा जाना चाहिए। सिर्फ़ ग़ालिब और ज़ौक़ के समकालीन होने के कारण ज़ौक़ से नाक-भौं सिकोड़ना तो सही नहीं। मुझे मालूम है कि हममें से भी कई या तो ज़ौक़ को जानते हीं नहीं होंगे या फिर जानकर भी अनजान रहना हीं पसंद करते होंगे। अपने वैसे मित्रों के लिए मैं "प्रकाश पंडित" जी के खजाने से "ज़ौक़" से ताल्लुक रखने वाले कुछ मोती चुनकर लाया हूँ। इसे पढने के बाद यकीनन हीं ज़ौक़ के प्रति बरसों में बने आपके विचार बदलेंगें।<br />
<br />
प्रकाश जी लिखते हैं:<br />
<blockquote>उर्दू शायरी में ‘ज़ौक़’ का अपना खास स्थान है। वे शायरी के उस्ताद माने जाते थे। आखिरी बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के दरबार में शाही शायर भी थे। <br />
<br />
बादशाह की उस्तादी ‘ज़ौक़’ को किस क़दर महंगी पड़ी थी, यह उनके शागिर्द मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद की ज़बानी सुनिए:<br />
"वह अपनी ग़ज़ल खुद बादशाह को न सुनाते थे। अगर किसी तरह उस तक पहुंच जाती तो वह इसी ग़ज़ल पर खुद ग़ज़ल कहता था। अब अगर नयी ग़ज़ल कह कर दें और वह अपनी ग़ज़ल से पस्त हो तो बादशाह भी बच्चा न था, 70 बरस का सुख़न-फ़हन था। अगर उससे चुस्त कहें तो अपने कहे को आप मिटाना भी कुछ आसान काम नहीं। नाचार अपनी ग़ज़ल में उनका तख़ल्लुस डालकर दे देते थे। बादशाह को बड़ा ख़याल रहता था कि वह अपनी किसी चीज़ पर ज़ोर-तबअ़ न ख़र्च करें। जब उनके शौक़े-तबअ़ को किसी तरफ़ मुतवज्जह देखता जो बराबर ग़ज़लों का तार बांध देता कि तो कुछ जोशे-तबअ़ हो इधर ही आ जाय।"<br />
<br />
शाही फ़रमायशों की कोई हद न थी। किसी चूरन वाले की कोई कड़ी पसंद आयी और उस्ताद को पूरा लटका लिखने का हुक्म हुआ। किसी फ़क़ीर की आवाज़ हुजूर को भा गयी है और उस्ताद पूरा दादरा बना रहे हैं। टप्पे, ठुमरियां, होलियां, गीत भी हज़ारों कहे और बादशाह को भेंट किये। खुद भी झुंझला कर एक बार कह दिया :<br />
<br />
<b>ज़ौक मुरत्तिब क्योंकि हो दीवां शिकवाए-फुरसत किससे करें <br />
बांधे हमने अपने गले में आप ‘ज़फ़र’ के झगड़े हैं</b><br />
<br />
"ज़ौक़" के काव्य के स्थायी तत्वों की व्याख्या के पहले उनके बारे में फैली हुई कुछ भ्रांतियों का निवारण आवश्यक मालूम होता है। पहली बात तो यह है कि समकालीन होने के लिहाज़ से उन्हें ‘ग़ालिब’ का प्रतिद्वंद्वी समझ लिया जाता है और चूंकि यह शताब्दी ‘ग़ालिब’ के उपासकों की है इसलिए ‘ज़ौक़’ से लोग खामखाह ख़ार खाये बैठे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि समकालीन महाकवियों में कुछ न कुछ प्रतिद्वंद्विता होती ही है और ‘ज़ौक़’ ने भी कभी-कभी मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की छेड़-छाड़ की बादशाह से शिकायत कर दी थी, लेकिन इन दोनों की प्रतिद्वंद्विता में न तो वह भद्दापन था जो ‘इंशा’ और ‘मसहफ़ी’ की प्रतिद्वंद्विता में था, न इतनी कटुता जो ‘मीर’ और ‘सौदा’ में कभी-कभी दिखाई देती है। असल में उनके बीच प्रतिद्वंद्विता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। ‘ग़ालिब’ नयी भाव-भूमियों को अपनाने में दक्ष थे और वर्णन-सौंदर्य की ओर से उदासीन; ‘ज़ौक़’ का कमाल वर्णन-सौंदर्य में था और भावना के क्षेत्र में बुजुर्गों की देन ही को काफ़ी समझते थे। जैसा कि हर ज़माने के समकालीन महाकवि एक दूसरे के कमाल के क़ायल होते हैं, यह दोनों बुजुर्ग भी एक-दूसरे के प्रशंसक थे। ग़ालिब ‘ज़ौक़’ के प्रशंसक थे और अपने एक पत्र में उन्होंने ‘ज़ौक़’ के इस शे’र की प्रशंसा की है :<br />
<br />
<b>अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे<br />
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे।</b><br />
<br />
और उधर ‘ज़ौक़’ भी मुंह-देखी में नहीं बल्कि अपने दोस्तों और शागिर्दों मैं बैठकर कहा करते थे कि मिर्ज़ा (ग़ालिब) को खुद अपने अच्छे शे’रों का पता नहीं है और उनका यह शे’र सुनाया करते थे:<br />
<br />
दरियाए-मआ़सी तुनुक-आबी से हुआ खुश्क<br />
मेरा सरे-दामन भी अभी तक न हुआ था।<br />
<br />
ज़ौक़ की असली सहायक उनकी जन्मजात प्रतिभा और अध्ययनशीलता थी। कविता-अध्ययन का यह हाल कि पुराने उस्तादों के साढ़े तीन सौ दीवानों को पढ़कर उनका संक्षिप्त संस्करण किया। कविता की बात आने पर वह अपने हर तर्क की पुष्टि में तुरंत फ़ारसी के उस्तादों का कोई शे’र पढ़ देते थे। इतिहास में उनकी गहरी पैठ थी। तफ़सीर (कुरान की व्याख्या) में वे पारंगत थे, विशेषतः सूफी-दर्शन में उनका अध्ययन बहुत गहरा था। रमल और ज्योतिष में भी उन्हें अच्छा-खासा दख़ल था और उनकी भविष्यवाणियां अक्सर सही निकलती थीं। स्वप्न-फल बिल्कुल सही बताते थे। कुछ दिनों संगीत का भी अभ्यास किया था और कुछ तिब्ब (यूनानी चिकित्सा-शास्त्र) भी सीखी थी। धार्मिक तर्कशास्त्र (मंतक़) और गणित में भी वे पटु थे। उनके इस बहुमुखी अध्ययन का पता अक्सर उनके क़सीदों से चलता है जिनमें वे विभिन्न विद्याओं के पारिभाषिक शब्दों के इतने हवाले देते हैं कि कोई विद्वान ही उनका आनंद लेने में समर्थ हो सकता है। उर्दू कवियों में इस कोटि के विद्वान कम ही हुए हैं।<br />
<br />
‘ज़ौक़’ १२०४ हि. तदनुसार १७८९ ई. में दिल्ली के एक ग़रीब सिपाही शेख़ मुहम्मद रमज़ान के घर पैदा हुए थे। शेख़ रमज़ान नवाब लुत्फअली खां के नौकर थे। शेख़ इब्राहीम (ज़ौक़ का असल नाम) इनके इकलौते बेटे थे। इस कमाल के उस्ताद ने १२७१ हिजरी (१८५४ ई.) में सत्रह दिन बीमार रहकर परलोक गमन किया। मरने के तीन घंटे पहले यह शे’र कहा था:<br />
<br />
<b>कहते हैं ‘ज़ौक़’ आज जहां से गुज़र गया<br />
क्या खूब आदमी था, खुदा मग़फ़रत करे</b></blockquote><br />
ग़ालिब और ज़ौक़ के बीच शायराना नोंक-झोंक और हँसी-मज़ाक के कई सारे किस्से मक़बूल हैं। मुझे याद नहीं कि मैंने यह वाक्या ग़ालिब के लिए सजी महफ़िल में सुनाया था या नहीं, अगर सुनाया हो, तब भी दुहराए देता हूँ। बात एक गोष्ठी की है । मिर्ज़ा ग़ालिब मशहूर शायर मीर तक़ी मीर की तारीफ़ में कसीदे गढ़ रहे थे । शेख इब्राहीम ‘जौक’ भी वहीं मौज़ूद थे । ग़ालिब द्वारा मीर की तारीफ़ सुनकर वे बैचेन हो उठे । वे सौदा नामक शायर को श्रेष्ठ बताने लगे । मिर्ज़ा ने झट से चोट की- “मैं तो आपको मीरी समझता था मगर अब जाकर मालूम हुआ कि आप तो सौदाई हैं ।” यहाँ मीरी और सौदाई दोनों में श्लेष है । मीरी का मायने मीर का समर्थक होता है और नेता या आगे चलने वाला भी । इसी तरह सौदाई का पहला अर्थ है सौदा या अनुयायी, दूसरा है- पागल।<br />
<br />
ज़ौक़ कितने सौदाई थे या फिर कितने मीरी... इसका निर्धारण हम तो नहीं कर सकते, लेकिन हाँ उनके लिखे कुछ शेरों को पढकर और उन्हें गुनकर अपने इल्म में थोड़ी बढोतरी तो कर हीं सकते हैं:<br />
<br />
<b>आँखें मेरी तलवों से मल जाए तो अच्छा<br />
है हसरत-ए-पा-बोस निकल जाए तो अच्छा<br />
<br />
ग़ुंचा हंसता तेरे आगे है जो गुस्ताख़ी से<br />
चटखना मुंह पे वहीं बाद-सहर देती है<br />
<br />
आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै<br />
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा<br />
<br />
वाँ से याँ आये थे ऐ 'ज़ौक़' तो क्या लाये थे<br />
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर</b><br />
<br />
चलिए अब इन शेरों के बाद उस मुद्दे पर आते हैं, जिसके लिए हमने महफ़िल सजाई है। जानकारियाँ देना हमारा फ़र्ज़ है, लेकिन ग़ज़ल सुनना/सुनवाना तो हमारी ज़िंदगी है.. फ़र्ज़ के मामले में थोड़ा-बहुत इधर-उधर हो सकता है, लेकिन ज़िंदगी की गाड़ी पटरी से हिली तो खेल खत्म.. है ना? तो आईये.. लगे हाथों हम आज की ग़ज़ल से रूबरू हो लें। आज हम जो ग़ज़ल लेकर महफ़िल में हाज़िर हुए हैं उसे ग़ज़ल-गायिकी की बेताज बेगम "बेगम अख्तर" की आवाज़ नसीब हुई है। इतना कह देने के बाद क्या कुछ और भी कहना बचा रह जाता है। नहीं ना? इसलिए बिना कुछ देर किए, इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाया जाए:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले<br />
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले<br />
<br />
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे<br />
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले<br />
<br />
कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार<br />
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले<br />
<br />
हो उम्रे-ख़िज़्र भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग<br />
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले<br />
<br />
दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ<br />
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले<br />
<br />
नाज़ाँ न हो ख़िरद पे जो होना है वो ही हो<br />
दानिशतेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले<br />
<br />
जा कि हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'<br />
अपनी ___ से बादे-सबा अब कहीं चले</span><br />
<br />
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<br />
वैसे तो हम एक महफ़िल में एक हीं गुलुकार की आवाज़ में ग़ज़ल सुनवाते हैं। लेकिन इस ग़ज़ल की मुझे दो रिकार्डिंग्स हासिल हुई थी.. एक बेग़म अख्तर की और एक कुंदन लाल सहगल की। इन दोनों में से मैं किसे रखूँ और किसे छाटूँ, मैं यह निर्धारित नहीं कर पाया। इसलिए बेगम की आवाज़ में ग़ज़ल सुनवा देने के बाद हम आपके सामने पेश कर रहे हैं "सहगल" साहब की बेमिसाल आवाज़ में यही ग़ज़ल एक बार फिर:<br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/08/patta-patta-boota-boota-hariharan-meer.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "उम्र" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे<br />
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है<br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
आह को चाहिये इक उम्र असर होते तक <br />
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक (ग़ालिब)<br />
<br />
सर्द रातों की स्याही को चुराकर हमने <br />
उम्र यूँ काटी तेरे शहर में आकर हमने (आशीष जी)<br />
<br />
उम्रभर तलाशा था हमने जिस हंसी को <br />
आज वो खुद की ही दीवानगी पे आई है (अवनींद्र जी)<br />
<br />
उनके बच्चे भी सोये हैं भूखे<br />
जिनकी उम्र गुजरी है रोटियाँ बनाने में (नीलम जी की प्रस्तुति.. शायर का पता नहीं)<br />
<br />
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन<br />
दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तज़ार में । (बहादुर शाह ज़फ़र)<br />
<br />
ता-उम्र ढूंढता रहा मंजिल मैं इश्क़ की,<br />
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफर लेके आ गया। (सुदर्शन फ़ाकिर)<br />
<br />
उम्र हो गई तुम्हें पहचानने में ,<br />
अभी तक न जान पाई हमदम मेरे ! (मंजु जी)<br />
<br />
दिल उदास है यूँ ही कोई पैगाम ही लिख दो<br />
अपना नाम ना लिखो तो बेनाम ही लिख दो<br />
मेरी किस्मत में गम-ए-तन्हाई है लेकिन<br />
पूरी उम्र ना सही एक शाम ही लिख दो. (शन्नो जी की पेशकश.. शायर का पता नहीं)<br />
<br />
उम्र जलवों में बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं <br />
हर शब्-ए-ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं (ख़ामोश देहलवी) .. नीलम जी, आपके शायर का नाम गलत है।<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शान बने आशीष जी। इस उपलब्धि के लिए आपको ढेरों बधाईयाँ। मुझे पिछली महफ़िल इसलिए बेहद पसंद आई क्योंकि उस महफ़िल में अपने सारे मित्र मौजूद थे, बस सीमा जी को छोड़कर। न जाने वो किधर गायब हो गई हैं। सीमा जी, आप अगर मेरी यह टिप्पणी पढ रही हैं, तो आज की महफ़िल में टिप्पणी देना न भूलिएगा :) मनु जी, आपको ग़ज़ल पढने में अच्छी लगी, लेकिन सुनने में नहीं। चलिए हमारी आधी मेहनत तो सफल हुई। जहाँ तक सुनने-सुनाने का प्रश्न है और गुलुकार के चयन का सवाल है तो अगर मैं चाहता तो मेहदी हसन साहब या फिर गुलाम अली साहब की आवाज़ में यह ग़ज़ल महफ़िल में पेश करता, लेकिन इनकी आवाज़ों में आपने "पत्ता-पत्ता" तो कई बार सुनी होगी, फिर नया क्या होता। मुझे हरिहरण प्रिय हैं, मुझे उनकी आवाज़ अच्छी लगती है और इसी कारण मैं चाहता था कि बाकी मित्र भी उनकी आवाज़ से रूबरू हो लें। दक्षिण भारत से संबंध रखने के बावजूद उर्दू के शब्दों को वो जिस आसानी से गाते हैं और जितनी तन्मयता से वो हर लफ़्ज़ के तलफ़्फ़ुज़ पर ध्यान देते हैं, उतनी मेहनत तो हिंदी/उर्दू जानने वाला एक शख्स नहीं करता। मेरे हिसाब से हरिहरण की ग़ज़ल सुनी जानी चाहिए.. हाँ, आप इनकी ग़ज़लों की तुलना मेहदी हसन या गुलाम अली से तो नहीं हीं कर सकतें, वे सब तो इस कला के उस्ताद हैं, लेकिन यह कहाँ लिखा है कि उस्ताद के सामने शागिर्द को मौका हीं न मिले। मेरी ख्वाहिश बस यही मौका देने की थी... कितना सफल हुआ और कितना असफल, ये तो बाकी मित्र हीं बताएँगे। अवनींद्र जी और शन्नो जी, आप दोनों ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमें शुभकामनाएँ दीं, हमारी तरफ़ से भी आप सभी स्वजनों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.. मराठी में कहें तो "शुभेच्छा".. महाराष्ट्र में रहते-रहते यह एक शब्द तो सीख हीं गया हूँ :) <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-54804120381463208142010-08-11T10:14:00.003+05:302010-08-11T12:24:14.298+05:30जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है.. "मीर" के एकतरफ़ा प्यार की कसक औ’ हरिहरण की आवाज़<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९६</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">प</span>ढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग,<br />
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।<br />
<br />
जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़,<br />
ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा।<br />
<br />
ये दो शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरू (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरू माना) मीर के हैं। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि चाहे कितना भी लिख लो, लेकिन मीर जैसा अंदाज़ हासिल नहीं हो सकता। ग़ालिब और नासिख के शेर तो हमने पहले हीं आपको पढा दिए थे (ग़ालिब को समर्पित महफ़िलों में), आज चलिए ग़ालिब के समकालीन इब्राहिम ज़ौक़ का यह शेर आपको सुनवाते हैं, जो उन्होंने मीर को नज़र करके लिखा था:<br />
<br />
न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब।<br />
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।<br />
<br />
हसरत मोहानी साहब कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी वही दुहराया जो पहले मीर ने कहा और बाद में बाकी शायरों ने:<br />
<br />
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’।<br />
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।<br />
<br />
ग़ज़ल कहने की जो बुनियादी जरूरत है, वह है "हर तरह की भावनाओं विशेषकर दु:ख की संवेदना"। जब तलक आप कथ्य को खुद महसूस नहीं करते, तब तलक लिखा गया हरेक लफ़्ज़ बेमानी है। मीर इसी कला के मर्मज्ञ थे, सबसे बड़े मर्मज्ञ। इस बात को उन्होंने खुद भी अपने शेर में कहा है:<br />
<br />
मुझको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने।<br />
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।<br />
<br />
मीर का दीवान जितना उनके ग़म का संग्रह था, उतना हीं जमाने के ग़म का -<br />
<br />
दरहमी हाल की है सारे मिरा दीवां में,<br />
सैर कर तू भी यह मजमूआ परीशानी का।<br />
<br />
अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास" में "बच्चन सिंह" जी मीर के बारे में लिखते हैं:<br />
<br />
<blockquote>मीर का पूरा नाम मीर तक़ी मीर था। मीर ने फ़ारसी में अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसका अनुवाद "ज़िक्रे मीर" के नाम से हो चुका है। ज़िक्रे मीर के हिसाब से उनका जन्म १७२५ में अकबराबाद (आगरा) में हुआ था। लेकिन और घटनाओं के समय उन्होंने अपनी जो उम्र बताई है उससे हिसाब लगाने पर उनकी जन्म-तिथि ११३७ हि.या १७२४ ई. निकलती है। (प्रकाश पंडित की पुस्तक "मीर और उनकी शायरी" में भी इस बात का उल्लेख है) मीर के पिता प्रसिद्ध सूफ़ी फ़कीर थे। उनका प्रभाव मीर की रचनाओं पर देखा जा सकता है। दिल्ली को उजड़ती देखकर वे लखनऊ चले आए। नवाब आसफ़ुद्दौला ने उनका स्वागत किया और तीन सौ रूपये की मासिक वृत्ति बाँध दी। नवाब से उनकी पटरी नहीं बैठी। उन्होंने दरबार में जाना छोड़ दिया। फिर भी नवाब ने उनकी वृत्ति नहीं बंद की। १८१० में मीर का देहांत हो गया।<br />
<br />
मीर पर वली की शायरी का प्रभाव है - जबान, ग़ज़ल की ज़मीन और भावों में दोनों में थोड़ा-बहुत सादृश्य है। पर दोनों में एक बुनियादी अंतर है। वली के इश्क़ में प्रेमिका की अराधना है तो मीर के इश्क़ पर सूफ़ियों के इश्क़-हक़ीक़ी का भी रंग है और वह रोजमर्रा की समस्याओं में नीर-क्षीर की तरह घुलमिल गया है। मीर की शायरी में जीवन के जितने विविध आयाम मिलेंगे उतने उस काल के किसी अन्य कवि में नहीं दिखाई पड़ते।<br />
<br />
दिल्ली मीर का अपना शहर था। लखनऊ में रहते हुए भी वे दिल्ली को कभी नहीं भूले। दिल्ली छोड़ने का दर्द उन्हें सालता रहा। लखनऊ से उन्हें बेहद नफ़रत थी। भले हीं वे लखनऊ के पैसे पर पल रहे थे, फिर भी लखनऊ उन्हें चुगदों (उल्लुओं) से भरा हुआ और आदमियत से खाली लग रहा था। लखनऊ के कवियों की इश्क़िया शायरी में वह दर्द न था, जो छटपटाहट पैदा कर सके। लखनऊ के लोकप्रिय शायर "जुर्रत" को मीर चुम्मा-चाटी का शायर कहा करते थे। <br />
<br />
मीर विचारधारा में कबीर के निकट हैं तो भाषा की मिठास में सूर के। जिस तरह कबीर कहते थे कि "लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल", उसी तरह मीर का कहना है - "उसे देखूँ जिधर करूँ निगाह, वही एक सूरत हज़ारों जगह।" दैरो-हरम की चिंता उन्हें नहीं है। मीर उससे ऊपर उठकर प्रेमधर्म और हृदयधर्म का समर्थन करते हैं-<br />
<br />
<b>दैरो-हरम से गुजरे, अब दिल है घर हमारा,<br />
है ख़त्म इस आवले पर सैरो-सफ़र हमारा।</b><br />
<br />
हिन्दी के सूफ़ी कवि भी इतने असांप्रदायिक नहीं थे, जितने मीर थे। इस अर्थ में मीर जायसी और कुतबन के आगे थे। वे लोग इस्लाम के घेरे को नहीं तोड़ सके थे, जबकि मीर ने उसे तोड़ दिया था। पंडों-पुरोहितों, मुल्ला-इमामों में उनकी आस्था नहीं थी, पर मुसलमां होने में थी। शेखों-इमामों की तो उन्होंने वह गत बनाई है कि उन्हें देखकर फ़रिश्तों के भी होश उड़ जाएँ -<br />
<br />
<b>फिर ’मीर’ आज मस्जिद-ए-जामें में थे इमाम,<br />
दाग़-ए-शराब धोते थे कल जानमाज़ का।</b> (जानमाज़ - जिस कपड़े पर नमाज़ पढी जाती है)<br />
<br />
सौन्दर्य-वर्णन मीर के यहाँ भी मिलेगा, किन्तु इस सावधानी के साथ कि "कुछ इश्क़-ओ-हवस में फ़र्क़ भी कर-<br />
<br />
क्या तन-ए-नाज़ुक है, जां को भी हसद जिस तन प’ है,<br />
क्या बदन का रंग है, तह जिसकी पैराहन प’ है।<br />
<br />
मीर की भाषा में फ़ारसी के शब्द कम नहीं हैं, पर उनकी शायरी का लहजा, शैली, लय, सुर भारतीय है। उनकी कविता का पूरा माहौल कहीं से भी ईरानी नहीं है।</blockquote><br />
मीर ग़ज़लों के बादशाह थे। उनकी दो हज़ार से अधिक ग़ज़लें छह दीवानों में संगृहीत हैं। "कुल्लियात-ए-मीर" में अनेक मस्नवियाँ, क़सीदे, वासोख़्त, मर्सिये आदि शामिल हैं। उनकी शायरी के कुछ नमूने निम्नलिखित हैं:-<br />
<br />
<b>इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या<br />
आगे आगे देखिये होता है क्या<br />
<br />
इश्क़ इक "मीर" भारी पत्थर है<br />
कब दिल-ए-नातवां से उठता है<br />
<br />
हम ख़ुदा के कभी क़ायल तो न थे<br />
उनको देखा तो ख़ुदा याद आ गया<br />
<br />
सख़्त काफ़िर था जिसने पहले "मीर"<br />
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया</b><br />
<br />
आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख नाम और उर्दू साहित्य के इतिहास 'आब-ए-हयात' के लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी 'मीर' के बारे में दर्ज़ किया है- "क़द्रदानों ने उनके कलाम को जौहर और मोतियों की निगाहों से देखा और नाम को फूलों की महक बना कर उड़ाया. हिन्दुस्तान में यह बात उन्हीं को नसीब हुई है कि मुसाफ़िर,ग़ज़लों को तोहफ़े के तौर पर शहर से शहर में ले जाते थे"। जिनकी शायरी मुसाफ़िर शहर-दर-शहर दिल में लेकर घूमते हैं, हमारी खुश-किस्मती है कि हमारी महफ़िल को आज उनकी खिदमत करने का मौका हासिल हुआ है। कई महीनों से हमारे दिल में यह बात खटक रही थी कि भाई ग़ालिब पर दस महफ़िलें हो गईं और मीर पर एक भी नहीं। तो चलिए आज वह खटक भी दूर हो गई, इसी को कहते हैं "देर आयद दुरूस्त आयद"। इतनी बातों के बाद लगे हाथ अब आज की ग़ज़ल भी सुन लेते हैं। आज की ग़ज़ल मेरे हिसाब से मीर की सबसे मक़बूल गज़ल है और मेरे दिल के सबसे करीब भी। "जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है।" एकतरफ़ा प्यार की कसक इससे बढिया तरीके से व्यक्त नहीं की जा सकती। मीर के लफ़्ज़ों में छुपी कसक को ग़ज़ल गायिकी को एक अलग हीं अंदाज़ देने वाले "हरिहरण" ने बखूबी पेश किया है। यूँ तो इस ग़ज़ल को कई गुलूकारों ने अपनी आवाज़ दी है, लेकिन हरिहरण का "क्लासिकल टच" और किसी की गायकी में नहीं है। पूरे ९ मिनट की यह ग़ज़ल मेरे इस दावे की पुख्ता सुबूत है:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है<br />
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है<br />
<br />
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं<br />
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है<br />
<br />
चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं<br />
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है<br />
<br />
आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे<br />
यार के आ जाने को यकायक ____ दो बारा जाने है<br />
<br />
तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश<br />
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है</span><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300" height="30"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/mehfil-e-ghazalBadeShayar1/pattaPattaBootaBootaHariharanMeer.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/08/main-aur-meri-tanhai-jagjit-sardar.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
आँखों से लहू टपका दामन में बहार आई<br />
मैं और मेरी तन्हाई... <br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
मेरे अश्रु भरे मन की खातिर <br />
वो फैला दे दामन तो जी लूं (अवनींद्र जी)<br />
<br />
दामन छुड़ा के अपना वो पूछ्ते हैं मुझसे<br />
जब ये न थाम पाए थामोगे हाथ कैसे ? (शरद जी)<br />
<br />
इन लम्हों के दामन में पाकीजा से रिश्ते हैं<br />
कोई कलमा मुहब्बत का दोहराते फ़रिश्ते हैं (जावेद अख्तर)<br />
<br />
दामन में आंसू थे, या रुस्वाईयां थी<br />
ये किस्मत थी या वो बे- वफ़ाइयाँ थी (नीलम जी)<br />
<br />
फूलों से बढियां कांटे हैं ,<br />
जो दामन थाम लेते हैं. (मंजु जी)<br />
<br />
फूल खिले है गुलशन गुलशन,<br />
लेकिन अपना अपना दामन (जिगर मुरादाबादी)<br />
<br />
रात के दामन में शमा जब जलती है<br />
हवा आके उससे लिपट के मचलती है (शन्नो जी)<br />
<br />
छोड़ कर तेरे प्यार का दामन यह बता दे के हम किधर जाएँ<br />
हमको डर है के तेरी बाहों में हम सिमट कर ना आज मर जाएँ. (रजा मेहदी अली खान)<br />
<br />
आपको मुबारक हों ज़माने की सारी खुशियाँ<br />
हर गम जिंदगी का हमारे दामन में भर दो . (शन्नो जी) <br />
<br />
पिछली महफ़िल की शान बने अवनीद्र जी। हुज़ूर, आप की अदा हमें बेहद पसंद आई। एक शब्द पर पूरी की पूरी ग़ज़ल कह देना आसान नहीं। हम आपके हुनर को सलाम को करते हैं। आपके बाद महफ़िल को अपने स्वरचित शेर से शरद जी ने रंगीन किया। शरद जी, आपने तो बड़ा हीं गूढ प्रश्न पूछा है। अगर आशिक़ एक दामन नहीं थाम सकता तो हाथ क्या खाक थामेगा! उम्मीद करता हूँ कि कोई सच्चा आशिक़ इसका जवाब देगा। शरद जी के बाद नीलम जी की बारी थी। इस बार तो आपने दिल खोलकर महफ़िल की ज़र्रानवाज़ी की। आपने अपने शेरों के साथ जानेमाने शायरों के भी शेर शामिल किए। और एक शेर में जब आप शायर का नाम भूल गए तो अवध जी ने वह कमी भी पूरी कर दी। आप दोनों की लख़नवी बातचीत हमें खूब भाई। अब आप दोनों मिलकर मीर से निपटें, जिन्हें लख़नऊ में बस उल्लू हीं नज़र आते थे :) अवध जी, प्रकाश पंडित जी की पुस्तकों से मैं जो भी जानकारी हासिल कर पाता हूँ, वे सब अंतर्जाल पर उपलब्ध हैं। मेरे पास उनकी बस एक कि़ताब है "मज़ाज और उनकी शायरी"। अगर और भी कुछ मालूम हुआ, तो आपको ज़रूर इत्तला करूँगा। मंजु जी, इस बार तो छोटे बहर के एक शेर से आपने बड़ी बाज़ी मार ली है। यही सोच रहा हूँ कि फूल और काँटों का यह अंतर मेरे लिए अब तक अनजाना कैसे था? सुमित जी, आपको "फूल खिले हैं.." वाले शेर के शायर का नाम पता न था, इसका मतलब यही हुआ कि आप "जिगर मुरादाबादी" वाली महफ़िल से नदारद थे :) शन्नो जी, ये हुई ना बात। इसी तरह खुलकर शेरों का मज़ा लेती रहें और लफ़्ज़ों की बौछार से हमें भी भिंगोती रहें। <br />
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चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
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<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
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<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-2297221803933172662010-08-04T10:14:00.002+05:302010-08-04T11:13:28.340+05:30आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई .. अली सरदार जाफ़री के दिल का गुबार फूटा जगजीत सिंह के सामने<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९५</span><br />
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<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">"शा</span>यर न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है और न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी से प्याले बना सकता है। वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली (अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल (वातावरण) और समाज को तबदील करता है।" <br />
<br />
शायर की परिभाषा देती हुई ये पंक्तियाँ उन शायर की हैं, जिनकी पिछले १ अगस्त को पुण्यतिथि थी। जी हाँ, इस १ अगस्त को उनको सुपूर्द-ए-खाक हुए पूरे १० साल हो गए। २९ नवंबर १९१३ को जन्मे "सरदार" ७७ साल की उम्र में इस जहां-ए-फ़ानी से रूखसत हुए। मैं ये तो नहीं कह सकता कि आज की महफ़िल सजाने से पहले मुझे इस बात की जानकारी थी, लेकिन कहते हैं ना कि कुछ बातें बिन जाने हीं सही हो जाती हैं। तो ये देखिए. हमें यह सौभाग्य हासिल हो गया कि हम अपनी महफ़िल के माध्यम से इस महान शायर को श्रद्धंजलि अर्पित कर सकें।<br />
<br />
सरदार यानि कि अली सरदार जाफ़री.. हमने इनका ज़िक्र पिछली कई सारी महफ़िलों में किया है। दर-असल हमारी पिछली ४-५ महफ़िलें इन्हीं के बदौलत मुमकिन हो पाईं थीं। नहीं समझे? आपको याद होगा कि हमने "मजाज़ लखनवी", "फ़िराक़ गोरखपुरी", "जोश मलीहाबादी", "मखदूम मोहिउद्दीन" और "जिगर मुरादाबादी" पर महफ़िलें सजाई थीं, तो इन सारे शायरों पर लिखने की प्रेरणा और इनके बारे में जानकारी हमें सरदार के हीं धारावाहिक "कहकशां" से हासिल हुई थीं। इन शायरों पर बड़े-बड़े आलेख लिख देने के बाद हमने सोचा कि क्यों न अब उनको नमन किया जाए, जो औरों को नमन करने में मशरूफ़ हैं। आज की महफ़िल उसी सोच की देन है। <br />
<br />
हमारी कुछ महफ़िलों के लिए जिस तरह सरदार अहम हिस्सा साबित हुए हैं, उसी तरह एक और रचनाकार हैं, जिनके बिना हमारी कुछ महफ़िलों की कल्पना नहीं की जा सकती। उन लेखक, उन रचनाकार का नाम है "प्रकाश पंडित"। इन्होंने "अमूक शायर" (यहाँ पर आप किसी भी बड़े शायर का नाम बैठा लीजिए) और उनकी शायरी" नाम से कई सारी पुस्तकों का संकलन किया है। हमारे हिसाब से यह बड़ी हीं मेहनत और लगन का काम है। इसलिए हम उनको सलाम करते हुए उनसे "सरदार" के कुछ किस्से सुनते हैं:<br />
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<blockquote>आधुनिक उर्दू शायरी का यह साहसी शायर शान्ति और भाईचारे के प्रचार और परतंत्रता, युद्ध और साम्राजी हथकंडों पर कुठाराघात करने के अपराध में परतंत्र भारत में भी कई बार जेल जा चुका है और स्वतंत्र भारत में भी। यह शायर बलरामपुर ज़िला गोंडा (अवध) में पैदा हुआ। घर का वातावरण उत्तर-प्रदेश के मध्यवर्गीय मुस्लिम घरानों की तरह ख़ालिस मज़हबी था, और चूकिं ऐसे घरानों में ‘अनीस’ के मर्सियों को वही महत्व प्राप्त है जो हिन्दू घरानों में गीता के श्लोकों और रामायण की चौपाइयों को, अतएव अली सरदार जाफ़री पर भी घर के मज़हबी और इस नाते अदबी (साहित्यिक) वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ा और अपनी छोटी-सी आयु में ही उसने मर्सिये (शोक-काव्य) कहने शुरू कर दिये और १९३३ ई. तक बराबर मर्सिये कहता रहा। उसका उन दिनों का एक शेर देखिये :<br />
<br />
अर्श तक ओस के क़तरों की चमक जाने लगी।<br />
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी।। <br />
<br />
लेकिन बलरामपुर से हाई स्कूल की परीक्षा पास करके जब वह उच्च शिक्षा के लिए मुस्लिम युनिवर्सिटी अलीगढ़ पहुँचा तो वहाँ उसे अख्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्वी, मजाज, जां निसार ‘अख्तर’ और ख्वाजा अहमद अब्बास ऐसे लेखक साथी मिले और वह विद्यार्थियों के आन्दोलनों में भाग लेने लगा। फिर विद्यार्थी की एक हड़ताल (वायसराय की एग्जै़क्टिव कौंसल के सदस्यों के विरुद्ध जो अलीगढ़ आया करते थे) कराने के सम्बन्ध में युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया तो उस की शायरी का रुख़ आप-ही-आप मर्सियों से राजनैतिक नज़्मों की ओर मुड़ गया। ऐंग्लो-एरेबिक कालेज देहली से बी.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद जब वह बम्बई पहुँचा और कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य बना और फिर उसे बार-बार जेल-यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो उसकी शायरी ने ऐसे पर-पुर्ज़े निकाले और उसकी ख्याति का वह युग प्रारंभ हुआ कि प्रतिक्रियावादियों को कौन कहे स्वयं प्रगतिशील लेखक भी दंग रह गये।<br />
<br />
उसके समस्त कविता-संग्रहों परवाज़ नई दुनिया को सलाम’, ‘खून की लकीर’, ‘अमन का सितारा’, ‘एशिया जाग उठा’ और ‘पत्थर की दीवार’ का अध्ययन करने से जो चीज़ बड़े स्पष्ट रूप में हमारे सामने आती है और जिसमें हमें सरदार की कलात्मक महानता का पता चलता है, वह यह है कि उसे मानवता के भव्य भविष्य का पूरा-पूरा भरोसा है। यही कारण है कि हमें सरदार जाफ़री के यहाँ किसी प्रकार की निराशा, थकन, अविश्वास और करुणा का चित्रण नहीं मिलता, बल्कि उसकी शायरी हमारे मन में नई-नई उमंगें जगाती है और हम शायर की सूझ-बूझ और उसके आशावाद से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।<br />
<br />
जाफ़री की शायरी की आयु लगभग वही है जो भारत में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की। सरदार जाफ़री ने प्रत्येक अवसर पर न केवल अपनी मानव-मित्रता की मशाल जलाई बल्कि मानव-शत्रुओं के विरुद्ध अपनी पवित्र घृणा भी प्रकट की। उसने केवल परिस्थितियों की नब्ज़ सुनने तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा बल्कि उन धड़कनों के साथ-साथ उसका अपना दिल भी धड़कता रहा है। लेकिन इन्हीं कारणों से कुछ आलोचकों की राय यह भी है कि अधिकतर सामायिक विषयों पर शेर कहने के कारण सरदार जाफ़री की शायरी भी सामयिक है और नई परिस्थितियां उत्पन्न होते ही उसका महत्व कम हो जाएगा। एक हद तक मैं भी उन साहित्यकारों से सहमत हूं लेकिन सरदार जाफ़री के इस कथन को एकदम झुठलाने का भी मैं साहस नहीं कर पाता जिसमें वह स्वयं अपनी शायरी को सामयिक स्वीकार करते हुए कहता है कि "<b>हर शायर की शायरी वक़्ती (सामयिक) होती है। मुमकिन है कि कोई और इसे न माने लेकिन मैं अपनी जगह यही समझता हूँ। अगर हम अगले वक़्तों के राग अलापेंगे तो बेसुरे हो जायेंगे। आने वाले ज़माने का राग जो भी होगा, वह आने वाली नस्ल गायेंगी। हम तो आज ही का राग छेड़ सकते हैं।</b>"<br />
<br />
जाफ़री के आलोचक भी कम नहीं रहे। प्रगतिशील शक्तियों से अपना सीधा सम्बन्ध स्थापित करने और अपनी कलात्मक ज़िम्मेदारी का पूरी तरह अनुभव कर लेने के बाद जब सरदार ने शायरी के मैदान में क़दम रखा और जो कुछ उसे कहना था बड़े स्पष्ट स्वर में कहने लगा तो शायरी की रूढ़िगत परम्पराओं के उपासकों का बौखला उठना ठीक उसी प्रकार आवश्यक था जिस प्रकार की १९वीं शताब्दी के प्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ को अठारहवीं शताब्दी के उर्दू के सर्वप्रथम जन-कवि ‘नज़ीर’ अकबराबादी के यहां बाज़ारूपन और अश्लीलता नज़र आई थी। लेकिन जिस तरह अंग्रेजी के प्रख्यात आलोचक डाक्टर फ़ेलन ने नज़ीर के बारे में कहा कि "<b> ’नज़ीर’ ही उर्दू का वह एकमात्र शायर है (अपने काल का) जिसकी शायरी योरुप वालों के काव्य-स्तर के अनुसार सच्ची शायरी है।</b>" उसी तरह २०वीं और २१वीं शताब्दी के आलोचकों को यह यकीन होने लगा है कि जिन विचारों को सरदार नज़्म करता है वे सीधे हमारे मस्तिष्क को छूते हैं और हमारे भीतर स्थायी चुभन और तड़प, वेग और प्रेरणा उत्पन्न करते हैं।</blockquote><br />
सरदार अपनी प्रकाशित कृतियों के कारण जाने जाते हैं। ये कृतियाँ हैं: ‘परवाज़’ (१९४४), ‘जम्हूर’ (१९४६), ‘नई दुनिया को सलाम’ (१९४७), ‘ख़ूब की लकीर’ (१९४९), ‘अम्मन का सितारा’ (१९५०), ‘एशिया जाग उठा’ (१९५०), ‘पत्थर की दीवार’ (१९५३), ‘एक ख़्वाब और (१९६५) पैराहने शरर (१९६६), ‘लहु पुकारता है’ (१९७८)<br />
<br />
अपने जीवनकाल में उन्हें कई सारे सम्मान हासिल हुए, जिनमें प्रमुख हैं: ज्ञानपीठ पुरस्कार, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, कुमारन आशान पुरस्कार , इक़बाल सम्मान, पद्मश्री और रूसी सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार<br />
<br />
अली सरदार ज़ाफ़री की शायरी क्या थी? वे कैसा लिखते थे.. इतना कुछ कह देने के बाद प्रमाण देना तो जरूरी है। यह प्रमाण खुद सरदार अपनी पुस्तक "पत्थर की दीवार" की भूमिका में देते हैं:<br />
<br />
<b>मैं हूँ सदियों का तफ़क्कुर, मैं हूं क़र्नों का ख़्याल, <br />
मैं हूं हमआग़ोश अज़ल से मैं अबद से हमकिनार।</b> <br />
<br />
यानि कि मैं सदियों का मनन हूँ, मैं सदियों का ख़्याल हूँ। मैं आदिकाल को अपने आगोश में लिए हुए हूँ और मैं अन्तकाल के गले मिला हुआ भी हूँ। इस तरह से सरदार ने अपना काव्यात्मक परिचय दिया है।<br />
<br />
चलिए इन परिचयों और जानकारियों के बाद आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। अब चूँकि हमने पिछली महफ़िल में जगजीत सिंह जी की ग़ज़ल सुनाई थी, इसलिए कायदे से आज किसी और गुलुकार की ग़ज़ल होनी चाहिए थी। लेकिन चूँकि सरदार को बहुत कम हीं फ़नकारों ने गाया है, इसलिए हमें फिर से जगजीत सिंह जी को हीं न्योता देना पड़ा। तो आज की ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल करने हमारी महफ़िल में फिर से हाज़िर हैं ग़ज़लजीत जगजीत सिंह जी। इस ग़ज़ल को हमने उनके एल्बम "रवायत" से लिया है। तो लुत्फ़ उठाई उनकी दर्दभरी मखमली आवाज़ का:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई<br />
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुस्वाई<br />
<br />
ये फूल से चेहरे हैं हँसते हुए गुलदस्ते<br />
कोई भी नहीं अपना बेग़ाने हैं सब रस्ते<br />
राहें हैं तमाशाई राही भी तमाशाई<br />
मैं और मेरी तन्हाई<br />
<br />
अरमान सुलगते हैं सीने में चिता जैसे<br />
क़ातिल नज़र आती है दुनिया की हवा जैसे<br />
रोती है मेरे दिल पर बजती हुई शहनाई<br />
मैं और मेरी तन्हाई<br />
<br />
आकाश के माथे पर तारों का चराग़ां है<br />
पहलू में मगर मेरे ज़ख़्मों का गुलिस्तां है<br />
आँखों से लहू टपका ____ में बहार आई<br />
मैं और मेरी तन्हाई</span><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/07/sarakati-jaaye-hai-rookh-se-ameer.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "शबाब" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा <br />
हया यकलख़्त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता <br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
मेरे ख़त का जवाब आया है <br />
उसमें पिछला हिसाब आया है<br />
अब चमन को भी जरूरत उनकी<br />
ऐसा उन पर शवाब आया है। (शरद जी)<br />
<br />
यकसां है मेरे हुज़ूर और चाँद का वजूद <br />
दिमाग-औ-दिल पे छाया हुआ रुआब सी है वो <br />
तल्खी- ऐ- शबाब यार की किस लफ्ज़ में कहूं <br />
शराब मैं भीगा हुआ एक गुलाब सी है वो (अवनींद्र जी) वाह! क्या बात है! माशा-अल्लाह!<br />
<br />
शोखियों में घोला जाय फूलों का शबाब<br />
उसमे फिर मिलायी जाए थोड़ी सी शराब ,<br />
होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है (गोपाल दास "नीरज")<br />
<br />
बहार बन मौसम आया है ,कलियों पे शबाब आया है <br />
चमन की गलियों में गाते ,हुजूम भंवरों का आया है. (शन्नो जी)<br />
<br />
उनके आने पर मौसम में शवाब आया ,<br />
उनके जाने पर वियोग का खुमार छाया (मंजु जी)<br />
<br />
पिछली दफ़ा मित्रों की उपस्थिति कम थी। कहीं आप-सब मित्र मेरी बातों का बुरा तो नहीं मान गए। अगर ऐसी बात है तो लीजिए मैं कान पकड़ता हूँ। चलिए गाल भी आगे कर दिया.... लगा दीजिए एक-दो थप्पड़। मेरी गलतियों की सज़ा मुझे देकर अपने अंदर की सारी भंड़ास निकाल लीजिए, लेकिन अपनी इस महफ़िल से दूर मत जाईये। नहीं जाएँगे ना? तो उम्मीद है कि आप आज की इस महफ़िल से नदारद नहीं होंगे। हाँ तो पिछली महफ़िल की कुछ बातें करते हैं। अपनी भूल मानते हुए आशीष जी महफ़िल में सबसे पहले दाखिल हुए। आपने बड़े हीं प्यार से अपना पक्ष रखा। यकीन मानिए, मुझे आपसे ज्यादा बाकी प्रियजनों से शिकायत थी। आप कतई भी बुरा न मानें। वैसे आपने तो सबसे पहली टिप्पणी डालकर महफ़िल की शुरू की थी और की है। इसलिए आप तो बधाई के पात्र हैं। ये अलग बात है कि शरद जी ने आपसे पहले शेर सुनाकर शान-ए-महफ़िल की गद्दी हथिया ली :) अवनींद्र जी, आपने अपनी गलती मानी, यही बहुत है मेरे लिए। और आपने जो शेर डाला... उसके बारे में क्या कहूँ। दिल खुश हो गया.. शन्नो जी, आपको मेरा झटका देना अच्छा लगा, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं है कि आप सिकुड़-सिकुड़ कर महफ़िल में आओ और अनमने ढंग से कुछ कह कर निकल जाओ। महफ़िल को आपके बेबाकपन की जरूरत है.. बिल्कुल नीलम जी जैसा। इस बार से आपका यह सहमा-सा बर्ताव नहीं चलेगा। समझीं ना? :) <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
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<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
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<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-12780121187797295032010-07-28T10:16:00.004+05:302010-07-29T09:53:14.722+05:30सरकती जाये है रुख से नक़ाब .. अमीर मीनाई की दिलफ़रेब सोच को आवाज़ से निखारा जगजीत सिंह ने<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९४</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">वो</span> बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूँ उन से, <br />
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता।<br />
<br />
आज की महफ़िल इसी शायर के नाम है, जो मौत की माँग भी अपने अलहदा अंदाज़ में कर रहा है। इस शायर के क्या कहने जो औरों के दर्द को खुद का दर्द समझता है और परेशान हो जाता है। तभी तो उसे कहना पड़ा है कि:<br />
<br />
खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर' <br />
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है<br />
<br />
इन दो शेरों के बाद आप समझ तो गए हीं होंगे कि मैं किन शायर कि बात कर रहा हूँ। अरे भाई, ये दोनों शेर दो अलग-अलग गज़लों के मक़ते हैं और नियमानुसार मक़ते में शायर का तखल्लुस भी शामिल होता है। तो इन दो शेरों में तखल्लुस है "अमीर"। यानि कि शायर का नाम है "अमीर" और पूरा नाम... "अमीर मीनाई"।<br />
<br />
अमीर मीनाई के बारे में बहुत कुछ तो नहीं है अंतर्जाल पर. जितना कि इनके समकालीन "दाग़ दहलवी" के बारे में है। और इसकी वज़ह जानकारों के हिसाब से यह है कि दाग़ उस जमाने के "हिन्दी और उर्दू" के सबसे बड़े शायर थे और उन्होंने हीं "हिन्दी-उर्दू" शायरी को "फ़ारसी" के फ़ंदे से बाहर निकाला था, वहीं अमीर की मक़बूलियत बस कुछ ग़ज़लों और "पैगम्बर-ए-इस्लाम" के लिए लिखे हुए उनके कुछ क़सीदों के कारण थी। चाहे जो भी सबब हो और भले हीं अमीर की प्रसिद्धि दाग़ से कम हो, लेकिन सादगी के मामले में अमीर का कोई सानी न था। यह जानते हुए भी कि लोग दाग को ज्यादा सराहते थे, अमीर उन लोगों में हीं शामिल हो जाते थे और खुलकर दाग का पक्ष लेते थे। इस बारे में एक वाक्या बड़ा हीं प्रसिद्ध है:<br />
<br />
<b>एक बार मुंशी ‘मुनीर’ शिकोहाबादी ने सरे-दरबार हजरत ‘दाग़’ का दामन थामकर कहा कि-‘क्या तुम्हारे शेर लोगोंकी ज़वानों पर रह जाते हैं और मेरे शेरों पर लोंगों की न ख़ास तवज्जह होती है, न कोई याद रखता है।’ इसपर जनाब ‘अमीर मीनाई’ ने फ़र्माया- "यह खुदादाद मक़बूलियत है, इसपर किसीका बस नहीं।"</b><br />
<br />
तो ऐसा खुला-दिल और साफ़-दिल थे अमीर मीनाई। चलिए इनके बारे में थोड़ा और जानते हैं:<br />
<br />
<blockquote>अमीर अहमद अमीर मीनाई का जन्म १८२८ में लखनऊ में हुआ था। उन्होंने बहुत हीं कम उम्र (१५ साल) में जनाब मुज़फ़्फ़र अली असीर की शागिर्दगी में शायरी लिखनी शुरू कर दी थी और इस कारण लड़कपन में हीं अपनी शायरी के कारण खासे मक़बूल भी हो गए। महज़ २४ साल की उम्र में उन्हें राज-दरबार में सम्मानित किया गया। १८५७ में जब लखनऊ अपने पतन की ओर अग्रसर हो उठा तो अमीर मीनाई की माली हालत भी धीरे-धीरे खराब होने लगी। अपनी इस हालत को सुधारने के लिए उन्हें रामपुर के नवाब का आग्रह मानना पड़ा। और वे लखनऊ छोडने को विवश हो उठे। रामपुर जाने के बाद वे वहाँ ३४ साल रहे। वहाँ वे पहले नवाब युसूफ़ अली खाँ और फिर कलब अली खाँ के दरबार में रहे। रामपुर के नवाबों के इंतक़ाल के बाद अमीर हैदराबाद की ओर कूच कर गए। वहाँ वे निज़ामों के लिए शायरी करने लगे। लेकिन उन्हें यह बंदगी रास न आई और सिर्फ़ ९ साल के बाद हीं वे जहां-ए-फ़ानी को छोड़ने पर आमादा हो उठे। इस तरह १९०० ईस्वी में शायरी और ग़ज़लों ने उन्हें अंतिम विदाई दी।<br />
<br />
अमीर मीनाई न सिर्फ़ साहित्य के अनमोल रत्न थे(हैं), बल्कि वे एक जाने-माने दार्शनिक और शब्द-कोषकर्त्ता (lexicographer) भी थे। उन्होंने एक शांत और संयम से भरी आध्यात्मिक ज़िंदगी व्यतीत की। वे घमंड और ईर्ष्या से दूर एक बड़े हीं नेक इंसान थे। उनकी यह खासियत उनकी शायरी में बःई दिखती है, जो बिना किसी लाग-लपेट के लिखी हुई मालूम पड़ती है। <br />
<br />
अमीर मीनाई ने पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों की प्रशंसा में बहुत से कसीदे लिखे हैं। उनकी कुल २२ पुस्तकें हैं, जिनमें "मसनविए नूरे तजल्ली" , "मसनविए अब्रे तजल्ली" और "शामे अबद" का नाम सबसे आगे आता है। जहाँ तक शायरी के संकलन का सवाल है तो इस मामले में उनके दो संकलन खासे मक़बूल हुए - "मराफ़ उल गज़ब" और "सनम खान ए इश्क़"।</blockquote><br />
हमने अमीर के उस्ताद के बारे में तो जान लिया। अब बारी है इनके शागिर्दों की। यूँ तो अमीर के कई शागिर्द थे, लेकिन जिन दो का नाम बड़ी इज़्ज़त से लिया जाता है - उनमें से एक थे "जां निसार अख़्तर" के अब्बा मुज़तर ख़ैराबादी और दूसरे मुमताज़ अली ’आह’। ’आह’ ने अमीर मीनाई पर एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम है -"सीरत-ए-अमीर अहमद अमीर मीनाई"। इस कि़ताब में अमीर मीनाई से जुड़े ढेर सारे वाक़यात हैं। उन्हीं में से एक है "अमीर मीनाई" द्वारा "ग़ालिब" की जमीन पर दो-दो गज़लों का लिखा जाना। नहीं समझे? अच्छा तो आपने ग़ालिब की वो ग़ज़ल तो पढी हीं होगी जिसका मतला है:<br />
<br />
यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता<br />
अगर और जीते रहते यही इन्तिज़ार होता !<br />
<br />
जिस दौरान (लगभग १८६० में) ग़ालिब ने यह ग़ज़ल लिखी थी, उस समय अमीर नवाब युसुफ़ अली ख़ान ’नाज़िम’ वाली-ए-रामपुर के दरबार से मुन्सलिक थे। नवाब साहब की फ़रमाईश पर अमीर ने इसी जमीन पर ग़ज़ल लिखी थी। ये तो सभी जानते हैं कि अमीर बहुत बिसयार-गो (लंबी-लंबी ग़ज़लें लिखने वाले) थे, तो उन्होंने इसी जमीन पर दूसरी भी ग़ज़ल लिख डाली। मैं दोनों ग़ज़लें पूरी की पूरी यहाँ पेश तो नहीं कर सकता, लेकिन हाँ उन ग़ज़लों के दो-दो शेर आपको उपलब्ध करवाए देता हूँ। पूरी ग़ज़ल पढनी हो तो <a href="http://urdu-se-hindi.blogspot.com/2010/01/blog-post_05.html">यहाँ</a> जाएँ:<br />
<br />
ग़ज़ल १:<br />
<br />
<b>मिरे बस में या तो यारब ! वो सितम-शि’आर होता<br />
ये न था तो काश दिल पर मुझे इख़्तियार होता !<br />
<br />
मिरी ख़ाक भी लहद में न रही ’अमीर’ बाक़ी<br />
उन्हें मरने ही का अब तक नहीं ऐतिबार होता !</b><br />
<br />
ग़ज़ल २:<br />
<br />
<b>नयी चोटें चलतीं क़ातिल जो कभी दो-चार होता<br />
जो उधर से वार होता तो इधर से वार होता<br />
<br />
शब-ए-वस्ल तू जो बेख़ुद नो हुआ ’अमीर’ चूका<br />
तिरे आने का कभी तो उसे इन्तिज़ार होता !</b><br />
<br />
इन दो ग़ज़लों से रूबरू कराने के बाद चलिए अब आपके सामने अमीर साहब के दो-तीन फुटकर शेर भी पेश किए देता हूँ:<br />
<br />
<b>मेहरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त<br />
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ<br />
<br />
तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के, <br />
हमारे मयकदे में रात-दिन रहमत बरसती है।<br />
<br />
गर्द उड़ी आशिक़ की तुरबत से तो झूंझलाकर कहा,<br />
वाह! सिर पे चढने लगी पाँव की ठुकराई हुई।</b><br />
<br />
इतनी बातचीत के बाद अब हमें आज की ग़ज़ल की ओर रूख करना चाहिए। क्या कहते हैं आप? है ना। तो आज हम जो ग़ज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं, उसे गाया है ग़ज़ल गायकी के उस्ताद और अपने चहेतों के बीच "जग्गू दादा" के नाम से जाने जाने वाले "जगजीत सिंह" जी ने। जग्गू दादा यह ग़ज़ल जितनी दफ़ा गाते हैं, उतनी दफ़ा वे इसमें अलग-अलग तरह का तड़का डालते हैं, क्योंकि उनके हिसाब से इसी ग़ज़ल से उन्हें मक़बूलियत हासिल हुई थी। मैं यह ग़ज़ल आपको सुनवाऊँ, उससे पहले यह बताना चाहूँगा कि किस तरह इसी जमीन का इस्तेमाल कर दो अलग-अलग शायरों/गीतकारों ने दो अलग-अलग गानों को तैयार किया है। हसरत जयपुरी ने लिखा "<a href="http://my-utterances.sulekha.com/blog/post/2009/07/mohabbat-rang-layegi-janaab-aahista-aahista-my.htm">मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता-आहिस्ता</a>" तो निदा फ़ाज़ली साहब ने इसी तर्ज़ पर "<a href="http://www.musicindiaonline.com/#/album/7-Hindi_Movie_Songs/2130-Ahista_Ahista/">नज़र से फूल चुनती है नज़र आहिस्ता-आहिस्ता</a>" को जन्म दिया। है ना ये कमाल की बात। ऐसे कमाल तो रोज हीं हिन्दी फिल्मों में होते रहे हैं। जनाब हसरत जयपुरी ने ऐसा तो मोमिन खाँ मोमिन के शेर "तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता" के साथ भी किया था, जब उन्होंने इसी शेर को एक-दो शब्द काँट-छाँटकर अपने गाने "ओ मेरे शाहे-खुबाँ" में जोड़ लिया था। अरे भाई, अगर किसी का शेर पसंद आ जाए तो उसे जस-का-तस अपने गाने/गज़ल में रखो, लेकिन हाँ उसे क्रेडिट भी दो। ओह्ह.. क्रेडिट की बात अगर हमने शुरू कर दी तो फिर "बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी।" इसलिए इस बहस को यही विश्राम देते हैं और सुनते हैं जग्गू दादा की मखमली आवाज़ में आज की ग़ज़ल:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता <br />
निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता-आहिस्ता <br />
<br />
जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा <br />
हया यकलख़्त आई और ____ आहिस्ता-आहिस्ता <br />
<br />
शब-ए-फ़ुर्कत का जागा हूँ फ़रिश्तों अब तो सोने दो <br />
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता <br />
<br />
सवाल-ए-वस्ल पर उन को उदू का ख़ौफ़ है इतना <br />
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता <br />
<br />
हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क़ है इतना <br />
इधर तो जल्दी जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता</span><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/07/ye-kaun-aata-hai-makhdoom-aabidaa.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "सबा" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
किसी खयाल की खुशबू, किसी बदन की महक,<br />
दर-ए-क़फ़स पे खड़ी है सबा पयाम लिए। <br />
<br />
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:<br />
<br />
सबा से ये कह दो कि कलियाँ बिछाए, वो देखो वो जानेबहार आ रहा है,<br />
चुरा ले गया है जो इन आँखों की नींदें, वोही ले के दिल का करार आ रहा है. - जलील "मलीहाबादी"<br />
<br />
जो आके रुके दामन पे ’सबा’, वो अश्क नहीं है पानी है<br />
जो अश्क न छलके आँखों से,उस अश्क की कीमत होती है - सबा अफ़गानी (नीलम जी, ये तो बड़ा गज़ब किया आपने। शेर ऐसा डालना था जिसमें ’सबा’ का कोई मतलब निकले, लेकिन यहाँ तो "सबा" रचनाकार का हीं नाम है.. चलिए इस बार मुआफ़ किया :) अगली बार से ध्यान रखिएगा।)<br />
<br />
उसकी बातों से बेरुखाई की सबा आती है <br />
पर यादों ने दम तोड़ना न सीखा अब तक. (शन्नो जी)<br />
<br />
किसी की शाम ए सादगी सहर का रंग पा गयी<br />
सबा के पाव थक गये मगर बहार आ गयी। (’अनाम’ शायर)<br />
<br />
बस चार शेरों को देखकर आप सब सकते में तो आ हीं गए होंगे। क्योंकि जहाँ पिछली महफ़िल में २९ टिप्पणियाँ (यह पोस्ट लिखने तक) आईं, उनमें काम के बस ४ हीं शेर निकले। तो दर-असल बात ये है कि आपकी "ग़ज़ल" बिना सुने टिप्पणी देने की आदत ने हीं आप सबों का लुटिया डुबोया है। आशीष जी ने जैसे हीं यह लिख दिया कि सही शब्द "हवा" है, आप सब "हवा" के पीछे पड़ गए और शेर पर शेर उड़ेलने लगे। अरे भाईयों, कम से कम एक बार ग़ज़ल को सुन तो लिया होता। उसके बाद आराम से शेर लिखते, किस चीज की जल्दीबाजी थी। अब मैं यह नहीं समझ पा रहा कि जब आपके पास ग़ज़ल सुनने को वक़्त नहीं तो मैं इतना बड़ा पोस्ट जो लिखता हूँ, उसे पढने की जहमत आप उठाते होंगे भी या नहीं। क्योंकि ग़ज़ल सुनने में तो कोई मेहनत भी नहीं करनी पड़ती, जबकि पढने में आँखों और दिमाग को कष्ट देना होता है। फिर जब आप सुनने की हीं मेहनत नहीं करना चाहते (अब आप यह नहीं कहिएगा कि ग़ज़ल सुने थे, और वह गायब शब्द हवा हीं था.... यह संभव हीं नहीं है क्योंकि आबिदा परवीन की आवाज़ इतनी भी उलझाऊ/कन्फ़्यूज करने वाली नहीं) तो और किसी चीज की उम्मीद तो बेबुनियाद हीं है। मैं यह सब क्यों कह रहा हूँ? पता नहीं... मुझे बस इतना पता है कि मैं आप सबको अपने परिवार का एक अंग, एक सदस्य मानता हूँ और इसीलिए महफ़िल में पूरी तरह से रम जाता हूँ। अब अगर आप इतना भी सहयोग नहीं करेंगे कि कम से कम ग़ज़ल सुन लें तो फिर मेरा हौसला तो जाता हीं रहेगा.. ना? शायद मैं हद से ज्यादा भावुक हो रहा हूँ। अगर यह बात है तो भी मैं शांत नहीं रहने वाला। फिर आप चाहे इसे मेरा बाल-हठ समझें या कुछ और.. लेकिन अगली बार से आपने ऐसी गलती की तो मैं इससे भी बड़ा "सेंटी"(दू:ख से जन्मा, दु:ख से भरा और दु:खी कर देने वाला) नोट लिखूँगा। ठीक है? :) हाँ तो, "हवा" और "सबा" की इस रस्सा-कस्सी में ’सबा’ की जीत हुई और इस नाते "अवध" जी पिछली महफ़िल के "सरताज़" घोषित किए जाते हैं। <br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-44690922500587384212010-07-21T09:20:00.001+05:302010-07-21T09:21:05.689+05:30ये कौन आता है तन्हाईयों में जाम लिए.. मख़्दूम मोहिउद्दीन के लफ़्ज़ औ' आबिदा की पुकार..वाह जी वाह!<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९३</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">दि</span>न से महीने और फिर बरस बीत गये<br />
फिर क्यूं हर शब तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती है<br />
फिर क्यूं हर शब तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती है<br />
फजाओं में आसमानों में<br />
मुझे यूं महसूस होता है<br />
जैसे तू हयात बन गया है<br />
और मैं मर गया हूं। <br />
<br />
अपने पिता "मख़्दूम मोहिउद्दीन" को याद करते हुए उनके जन्म-शताब्दी के मौके पर उनके पुत्र "नुसरत मोहिउद्दीन" की ये पंक्तियाँ मख़्दूम की शायरी के दीवानों को अश्कों और जज़्बातों से लबरेज कर जाती हैं। मैंने "मख़्दूम की शायरी के दीवाने" इसलिए कहा क्योंकि आज भी हममें से कई सारे लोग "मख़्दूम" से अनजाने हैं, लेकिन जो भी "मख्दूम" को जानते हैं उनके लिए मख़्दूम "शायर-ए-इंक़लाब" से कम कुछ भी नहीं। जिसने भी "मख़्दूम" की शायरी पढी या सुनी है, वह उनका दीवाना हुए बिना रह नहीं सकता। हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाला यह शायर "अंग्रेजों" और "निज़ाम" की मुखालफ़त करने के कारण हमेशा हीं लोगों के दिलों में रहा है। उर्दू अदब में कई सारे ऐसे शायर हुए हैं, जिन्हें बस लिखने से काम था, तो कई ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने जहाँ अपनी लेखनी से आग लगाई, वहीं अपनी हरक़तों से "शासन" की नाक में दम तक कर दिया। "मख़्दूम" इसी दूसरी तरह के शायर थे। "तेलंगना" की माँग (यह माँग अभी तक चल हीं रही है) और "हैदराबाद" को "निज़ाम" से मुक्त कराने का जुनून इनकी आँखों में और इनके जज़्बो में बखूबी नज़र आता था। "तेलंगना" की स्त्रियों (जिन्हें तेलंगन कहा जाता है) को जगाने के लिए इनकी लिखी हुई यह नज़्म आज भी वही पुरजोर असर रखती है:<br />
<br />
<blockquote>फिरने वाली खेत की मेड़ों पर बलखाती हुई,<br />
नर्मो-शीरीं क़हक़हों के फूल बरसाती हुई,<br />
कंगनों से खेलती, औरों से शरमाती हुई,<br />
<br />
अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा,<br />
हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा।<br />
<br />
देखने आते हैं तारे शब में सुनकर तेरा नाम,<br />
जलवे सुबह-ओ-शाम के होते हैं तुझसे हमकलाम,<br />
देख फितरत कर रही है, तुझको झुक-झुककर सलाम,<br />
<br />
अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा,<br />
हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा।<br />
<br />
ले चला जाता हूँ आँखों में लिए तस्वीर को,<br />
ले चला जाता हूँ पहलू में छुपाए तीर को,<br />
ले चला जाता हूँ फैला राग की तनवीर को,<br />
<br />
अजनबी को देखकर खामोश मत हो, गाए जा,<br />
हाँ तेलंगन गाए जा, बाँकी तेलंगन गाए जा।</blockquote><br />
मख़्दूम ऐसी आज़ादी का सपना देखते थे, जिसमें मज़दूरों का राज हो, जहाँ सही मायने में "स्वराज" हो। इस मुद्दे पर लिखी मख़्दूम की यह नज़्म "आजादी के मतवालों" के बीच बेहद मक़बूल थी, भले हीं गाने वालों को इसके "नगमानिगार" की जानकारी न हो:<br />
<br />
<blockquote>वह जंग ही क्या वह अमन ही क्या<br />
दुश्मन जिसमें ताराज़ न हो<br />
वह दुनिया दुनिया क्या होगी<br />
जिस दुनिया में स्वराज न हो<br />
वह आज़ादी आज़ादी क्या<br />
मज़दूर का जिसमें राज न हो <br />
<br />
लो सुर्ख़ सवेरा आता है आज़ादी का आज़ादी का<br />
गुलनार तराना गाता है आज़ादी का आज़ादी का<br />
देखो परचम लहराता है आज़ादी का आज़ादी का</blockquote><br />
मख़्दूम का "बागी तेवर" देखकर आप सबको यह यकीन हो चला होगा कि ये बस इंक़लाब की हीं बोली जानते हैं.. इश्क़-मोहब्बत से इनका दूर-दूर का नाता नहीं। लेकिन ऐसा कतई नहीं है। दर-असल इश्क़े-मजाज़ी में इनका कोई सानी नहीं। प्यार-मोहब्बत की भाषा इनसे बढकर किसी ने नही पढी। कहने वाले यहाँ तक कहते हैं कि "मजाज़ लखनवी" "उर्दू अदब के कीट्स" न कहे जाते, अगर "मख्दूम" ने "मजाज़" के लिए "जमीन" न तैयार की होती। मजाज़ ने इश्क़िया शायरी के जलवे इन्हीं से सीखे हैं। इश्क़ में कोई कहाँ तक लिख सकता है, इसकी मिसाल मख़्दूम साहब का यह शेर है:<br />
<br />
<b>न माथे पर शिकन होती, न जब तेवर बदलते थे<br />
खुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे</b><br />
<br />
मख़्दूम की इसी अनोखी अदा पर रीझ कर "ग़ालिब" के शागिर्द "मौलाना हाली" के नाती "ख्वाज़ा अहमद अब्बास" कहते हैं: ”मख्दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूंदे भी। वे क्रांतिकारी छापामार की बंदूख थे और संगीतकार का सितार भी। वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी।”<br />
<br />
मख़्दूम साहब की जन्म-शताब्दी के मौके पर नुसरत मोहिउद्दीन और "हिन्दी साहित्य संवाद" के संपादक शशिनारायण स्वाधीन के द्वारा संपादित की हुई पुस्तक "सरमाया - मख़्दूम समग्र" का विमोचन किया गया। इस पुस्तक में "बक़लम-मख़्दूम" नाम से एक अध्याय है,जिसमें मख़्दूम साहब ने "शेरो-शायरी" पर खुलकर चर्चा की है। खैर.. इस किताब की बात कभी बाद में करेंगे। वैसे क्या आपको पता है कि मख्दूम ने तेलंगाना में किसानों के साथ जो संघर्ष किया उसे लेकर उर्दू के महान उपन्यासकार कृषन चंदर ने ‘जब खेत जागे’ नाम का उपन्यास लिखा था, जिस पर गौतम घोष ने तेलुगू में ‘मां भूमि’ फिल्म बनाई। मख्दूम की प्रमुख कृतियों में सुर्ख सवेरा, गुल-ए-तर और बिसात-ए-रक्स हैं। इतना हीं नहीं, मख्दूम ने जार्ज बर्नाड शा के नाटक ‘विडोवर्स हाउस’ का उर्दू में ‘होष के नाखून’ नाम से और एंटन चेखव के नाटक ‘चेरी आर्चर्ड’ का ‘फूल बन’ नाम से रूपांतर किया। मख्दूम ने रवींद्रनाथ टैगोर और उनकी शायरी पर एक लंबा लेख भी लिखा। इसके अलावा मख़्दूम ने तीन कविताओं के अनुवाद किए, जिनमें एक कविता "तातरी शायर" जम्बूल जावर की है, तो दो कविताएँ अंग्रेजी कवयित्री इंदिरा देवी धनराजगीर की हैं। अगर जगह की कमी न होती, तो मैं आपका परिचय इन तीन कविताओं से जरूर करवाता।<br />
<br />
बातें बहुत हो गईं, फिर भी कहने को कई सारी चीजें बची हैं। सब कुछ तो एक महफ़िल में समेटा नहीं जा सकता, इसलिए अगर आपकी जिज्ञासा शांत न हुई हो तो कृपया <a href="http://www.hinduonnet.com/thehindu/mp/2003/01/29/stories/2003012900380200.htm">यहाँ</a> और <a href="http://en.academic.ru/dic.nsf/enwiki/4319214">यहाँ</a> हो आएँ। चलिए, अब आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की ग़ज़ल एक तरह से बड़ी हीं खास है। एक तरह से क्यों. दोनों हीं तरह से खास है. और वो इसलिए क्योंकि इस ग़ज़ल में आवाज़ें हैं "मुज़फ़्फ़र अली" और "आबिदा परवीन" की। आवाज़ों का ये संगम इससे पहले और इसके अलावा कहीं और सुनने को नहीं मिलता। मुज़फ़्फ़र साहब के आवाज़ की शोखी और आबिदा की आवाज़ का मर्दानापन "ग़ज़ल" को किसी और हीं दुनिया में ले जाता है। तो तैयार हो जाईये, इस अनूठी ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाने को:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
उसी अदा से, उसी बांकपन के साथ आओ,<br />
फिर एक बार उसी अंजुमन के साथ आओ,<br />
हम अपने एक दिल-ए-बेखता के साथ आएँ,<br />
तुम अपने महशर-ए-दार-ओ-रसन के साथ आओ।<br />
<br />
ये कौन आता है तन्हाईयों में जाम लिए,<br />
दिलों में चाँदनी रातों का एहतमाम लिए।<br />
<br />
चटक रही है किसी याद की कली दिल में,<br />
नज़र में रक़्स-ए-बहारां की सुबहो-शाम लिए।<br />
<br />
महक-महक के जगाती रही नसीम-ए-सहर,<br />
लबों पे यार-ए-मसीहा नफ़स का नाम लिए।<br />
<br />
किसी खयाल की खुशबू, किसी बदन की महक,<br />
दर-ए-क़फ़स पे खड़ी है ____ पयाम लिए।<br />
<br />
बजा रहा था कहीं दूर कोई शहनाई,<br />
उठा हूँ आँखों में इक ख्वाब-ए-नातमाम लिए।</span><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300" height="30"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/mehfil-e-ghazalBadeShayar/yeKaunAataHaiAbidaMakhdoom.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/07/koo-ba-koo-phail-gai-parveen-mehdi.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "क़यामत" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे <br />
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की <br />
<br />
कई हफ़्तों के बाद महफ़िल में पहली हाज़िरी लगाई शरद जी ने और इसलिए उन्हें "शान-ए-महफ़िल" से नवाज़ा जा रहा है। शरद जी के बाद महफ़िल में चहल-कदमी करती हुई शन्नो जी नज़र आईं.. आपने अपने शेर कहने शुरू हीं किए थे कि "जाने-अनजाने" नीलम जी की कही एक बात आपको चुभ गई.. फिर आगे चलकर अवनींद्र जी ने कुछ कहा और उनके कहे पर आपने अपना एक शेर डाल दिया जिससे अवनींद्र जी कुछ उदास हुए और आप परेशान हो गईं। अरे भाईयों, दोस्तों.. ये हो क्या रहा है? हम फिर से वही गलतियाँ क्यों कर रहे हैं, जिनसे सब के सब तौबा कर चुके हैं। यहाँ पर मैं किसी एक पर दोष नहीं डाल रहा, लेकिन इतना तो कहना हीं चाहूँगा कि ये "बचकानी" हरकतें "महफ़िल" में सही नहीं लगती। मेरे अग्रजों एवं मेरी अग्रजाओं(चूँकि आप सब मुझसे बड़े हैं.. उम्र में) ज़रा मेरा भी तो ध्यान करो.. मैं महफ़िल सजाऊँ या फिर महफ़िल पर निगरानी रखूँ। मैं पहले हीं कह चुका हूँ कि महफ़िल आपकी है, इसलिए लड़ना-झगड़ना या महफ़िल छोड़कर जाना (या फिर जाने की सोचना) तो अच्छा नहीं। आपको किसी की बात बुरी लगे तो नज़र-अंदाज़ कर दीजिए... लेकिन उससे बड़ा मसला तो ये है कि ऐसी बात कहीं हीं क्यों जाए। कभी-कभी कहने वाले की मंशा बुरी नहीं होती, लेकिन चूँकि वो खुलकर कह नहीं पाता या फिर "बात" को "आधे" पर हीं रोक देता है, ऐसी स्थिति में अन्य लोग उसका कुछ भी मतलब निकाल सकते हैं.. और अगर मतलब "अहितकारी" हुआ तो "बुरा" भी मान सकते हैं। इसलिए ऐसी बातें करने से बचें। मैंने अभी तक जो भी कहा, वो कोई आदेश नहीं, बल्कि "एक छोटे भाई" का आग्रह-मात्र है। अगर आप मानेंगे तो आपका अनुज "सही से" महफ़िल का संचालन कर पाएगा। चँकि आज इतना कुछ कह दिया, इसलिए दूसरे मित्रों, अग्रजों एवं अग्रजाओं का जिक्र नहीं कर पा रहा हूँ। इस गुस्ताखी के लिए मुझे मुआफ़ कीजिएगा। मैं यकीन दिलाता हूँ कि अगली महफ़िल में सारी "टिप्पणियाँ" सम्मिलित की जाएँगी... बशर्ते ऐसी हीं कोई विकट समस्या उत्पन्न न हो जाए। और हाँ, मेरी तबियत अब ठीक है, आप सबने मेरा ख्याल रखा, इसके लिए आपका तहे-दिल से आभार! <br />
<br />
और अब पेश हैं आप सबके शेर:<br />
<br />
ग़र खुदा मुझसे कहे कुछ माँग अय बन्दे मेरे<br />
मैं ये माँगू महफ़िलों के दौर यूँ चलते रहें ।<br />
हमनिवाला, हमपियाला, हमसफ़र, हमराज़ हों,<br />
ता कयामत जो चिरागों की तरह जलते रहें ॥ (शरद जी)<br />
<br />
माना के तबाही में कुछ हाथ है दुश्मन का<br />
कुछ चाल कयामत की अपने भी तो चलते हैं (नीलम जी)<br />
<br />
सुमन जो सेज पर सजे थे .<br />
उन्ही से कयामत की अर्थी सजाई गई . (मंजु जी)<br />
<br />
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,<br />
क्या ख़ूब ? क़यामत का है गोया कोई दिन और. (ग़ालिब)<br />
<br />
ज़िंदगी की राहों में रंजो-ग़म के मेले हैं,<br />
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं।<br />
<br />
चेहरे पर झुर्रियों ने कयामत बना दिया<br />
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रहीं (ख़ुमार बाराबंकवी)<br />
<br />
जो दिल को ख़ुशी की आदत न होती<br />
रूह में भी इतनी सदाक़त न होती !<br />
ज़माने की लय पे जिए जाते होते<br />
तेरी बेरुखी भी क़यामत न होती !! (अवनींद्र जी)<br />
<br />
मेरी गुस्ताखियों को खुदा माफ़ करना<br />
कि इसके पहले कोई क़यामत आ जाये. (शन्नो जी)<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com30tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-4124407465950744682010-07-14T10:03:00.003+05:302010-07-14T11:55:22.102+05:30बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की.. नारी-मन में मचलते दर्द को दिल से उभारा है परवीन और मेहदी हसन ने<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९२</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">"ना</span>री-मन की व्यथा को अपनी मर्मस्पर्शी शैली के माध्यम से अभिव्यक्त करने वाली पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर उर्दू-काव्य की अमूल्य निधि हैं।" - यह कहना है सुरेश कुमार का, जिन्होंने "परवीन शाकिर" पर "खुली आँखों में सपना" नाम की पुस्तक लिखी है। सुरेश कुमार आगे लिखते हैं:<br />
<br />
<blockquote>बीसवीं सदी के आठवें दशक में प्रकाशित परवीन शाकिर के मजमुआ-ए-कलाम ‘खुशबू’ की खुशबू पाकिस्तान की सरहदों को पार करती हुई, न सिर्फ़ भारत पहुँची, बल्कि दुनिया भर के उर्दू-हिन्दी काव्य-प्रेमियों के मन-मस्तिष्क को सुगंधित कर गयी। सरस्वती की इस बेटी को भारतीय काव्य-प्रेमियों ने सर-आँखों पर बिठाया। उसकी शायरी में भारतीय परिवेश और संस्कृति की खुशबू को महसूस किया:<br />
<br />
<b>ये हवा कैसे उड़ा ले गयी आँचल मेरा<br />
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी</b><br />
<br />
परवीन शाकिर की शायरी, खुशबू के सफ़र की शायरी है। प्रेम की उत्कट चाह में भटकती हुई, वह तमाम नाकामियों से गुज़रती है, फिर भी जीवन के प्रति उसकी आस्था समाप्त नहीं होती। जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए, वह अपने धैर्य का परीक्षण भी करती है।<br />
<br />
<b>कमाल-ए-ज़ब्त को खुद भी तो आजमाऊँगी<br />
मैं अपने हाथ से उसकी दुलहन सजाऊँगी</b><br />
<br />
प्रेम और सौंदर्य के विभिन्न पक्षों से सुगन्धित परवीन शाकिर की शायरी हमारे दौर की इमारत में बने हुए बेबसी और विसंगतियों के दरीचों में भी अक्सर प्रवेश कर जाती है-<br />
<br />
<b>ये दुख नहीं कि अँधेरों से सुलह की हमने<br />
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं</b><br />
<br />
पाकिस्तान की इस भावप्रवण कवयित्री और ख़्वाब-ओ-ख़याल के चाँद-नगर की शहज़ादी को बीसवीं सदी की आखिरी दहाई रास नहीं आयी। एक सड़क दुर्घटना में उसका निधन हो गया। युवावस्था में ही वह अपनी महायात्रा पर निकल गयी।<br />
<br />
<b>कोई सैफो हो, कि मीरा हो, कि परवीन उसे<br />
रास आता ही नहीं चाँद-नगर में रहना</b></blockquote><br />
परवीन शाकिर के मौत की बरसी पर "स्टार न्युज़ एजेंसी" ने यह खबर छापी थी:<br />
<br />
<blockquote>आज परवीन शाकिर की बरसी है...परवीन शाकिर ने बहुत कम अरसे में शायरी में वो मुकाम हासिल किया, जो बहुत कम लोगों को ही मिल पाता है. कराची (पाकिस्तान) में २४ नवंबर १९५२ को जन्म लेने वाली परवीन शाकिर की ज़िन्दगी २६ दिसंबर १९९४ को इस्लामाबाद के कब्रस्तान की होने तक किस-किस दौर से गुज़री...ये सब उनकी चार किताबों खुशबू, खुद कलामी, इनकार और माह तमाम की सूरत में हमारे सामने है...माह तमाम उनकी आखिरी यादगार है...<br />
<br />
२६ दिसंबर १९९४ को इस्लामाबाद में एक सड़क हादसे में उनकी मौत हो गई थी. जिस दिन परवीन शाकिर को कब्रस्तान में दफ़नाया गया, उस रात बारिश भी बहुत हुई, लगा आसमान भी रो पड़ा हो...सैयद शाकिर के घराने का ये रौशन चराग इस्लामाबाद के कब्रस्तान की ख़ाक में मिल गया हो, लेकिन उसकी रौशनी और खुशबू अदब की दुनिया में रहती दुनिया तक कायम रहेगी..</blockquote><br />
परवीन की मौत के बाद उनकी याद में एक "क़िता-ए-तारीख" की तख्लीक की गई थी:<br />
<br />
<b>सुर्ख फूलों से ढकी तुरबत-ए-परवीन है आज<br />
जिसके लहजे से हर इक सिम्त है फैली खुशबू<br />
फ़िक्र-ए-तारीख-ए-अजल पर यह कहा हातिफ़ ने<br />
फूल! कह दो "है यही बाग-ए-अदब की खुशबू</b><br />
<br />
उपरोक्त पंक्तियाँ "तनवीर फूल" की पुस्तक "धुआँ धुआँ चेहरे" में दर्ज हैं।<br />
<br />
<blockquote>परवीन शाकिर अच्छी-खासी पढी-लिखी थीं। अच्छी-खासी कहने से अच्छा है कि कहूँ अव्वल दर्जे की शिक्षित महिला थीं क्योंकि उनके पास एक नहीं तीन-तीन "स्नातकोत्तर" की डिग्रियाँ थीं.. वे तीन विषय थे - अंग्रेजी साहित्य, लिग्विंसटिक्स एवं बैंक एडमिनिस्ट्रेशन। वे नौ वर्ष तक शिक्षक रहीं, उसके बाद वे प्रशासनिक सेवा का हिस्सा बन गईं। १९८६ में उन्हें CBR का सेकेंड सेक्रेटरी नियुक्त किया गया। उन्होंने कई सारी किताबें लिखीं। उनकी पहली किताब "खुशबू" ने उन्हें "अदमजी" पुरस्कार दिलवाया। आगे जाकर उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च पुरस्कार "प्राईड ऑफ परफ़ोरमेंश" से भी नवाज़ा गया। पहले-पहल परवीन "बीना" के छद्म नाम से लिखा करती थीं। वे "अहमद नदीम क़ासमी" को अपना उस्ताद मानती थीं और उन्हें "अम्मुजान" कहकर पुकारती थीं। परवीन का निकाह डाक्टर नसिर अहमद से हुआ था लेकिन परवीन की दुखद मौत से कुछ दिनों पहले हीं उन दोनों का तलाक हो गया। </blockquote><br />
यह था परवीन का संक्षिप्त परिचय। इनके बारे में अगर ज्यादा जान हो तो <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Parveen_Shakir">यहाँ</a> जाएँ। मैं अगर सही हूँ और जहाँ तक मुझे याद है, हमारी इस महफ़िल में आज से पहले किसी शायरा की आमद नहीं हुई थी यानि कि परवीन पहली शायरा हैं, जिनके नाम पर पूरी की पूरी महफ़िल सजी है। हमें इस बात का गर्व है कि देर से हीं सही लेकिन हमें किसी शायरा की इज़्ज़त-आफ़जाई करने का मौका तो मिला। हम आगे भी ऐसी कोशिश करते रहेंगे क्योंकि ग़़ज़ल की दुनिया में शायराओं की कमी नहीं।<br />
<br />
परवीन की शायरी अपने-आप में एक मिसाल है। इनकी गज़लों के एक-एक शेर मुखर हैं। मन तो हुआ कि सारी गज़लें यहाँ डाल दूँ लेकिन जगह अनुमति नहीं देती। इसलिए बगिया से कुछ फूल चुनकर लाया हूँ। खुशबू कैसी है, कितनी मनभावन है यह जानने के लिए आपको इन फूलों को चुमना होगा, गुनना होगा:<br />
<br />
<b>आज तो उस पे ठहरती ही न थी आंख ज़रा<br />
उसके जाते ही नज़र मैंने उतारी उसकी<br />
<br />
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर<br />
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे<br />
<br />
मेरे बदन को नमी खा गई अश्कों की <br />
भरी बहार में जैसे मकान ढहता है <br />
<br />
सर छुपाएँ तो बदन खुलता है <br />
ज़ीस्त मुफ़लिस की रिदा हो जैसे<br />
<br />
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले<br />
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये</b><br />
<br />
परवीन शाकिर के बारे में ज्यादा कुछ न कह सका क्योंकि मेरी "तबियत" आज मेरा साथ नहीं दे रही। पहले तो लगा कि आज महफ़िल-ए-ग़ज़ल सजेगी हीं नहीं, लेकिन "मामूल" से पीछे हटना मुझे नहीं आता, इसलिए जितना कुछ हो पाया है, वही लेकर आपके बीच आज हाज़िर हूँ। उम्मीद करता हूँ कि आप मेरी मजबूरी समझेंगे और बाकी दिनों की तरह आज भी महफ़िल को ढेर सारा प्यार नसीब होगा। चलिए तो अब आज की ग़ज़ल की ओर रूख कर लेते हैं। इस ग़ज़ल को अपनी मखमली आवाज़ से मुकम्मल किया है ग़ज़लगायकी के बादशाह मेहदी हसन साहब ने। यूँ तो मेहदी साहब ने बस ३ हीं शेर गाए हैं, लेकिन मैंने पूरी ग़ज़ल यहाँ उपलब्ध करा दी है, ताकि बचे हुए शेरों की ज़ीनत भी खुलकर सामने आए। तो पेश-ए-खिदमत है आज की ग़ज़ल:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की <br />
उस ने ख़ुश्बू की तरह मेरी पज़ीराई की <br />
<br />
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने <br />
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की <br />
<br />
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया <br />
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की <br />
<br />
तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे <br />
तुझ पे गुज़रे न ____ शब-ए-तन्हाई की <br />
<br />
उस ने जलती हुई पेशानी पे जो हाथ रखा <br />
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की</span><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="hhttp://podcast.hindyugm.com/2010/07/kabhi-yoon-bhi-aa-basheer-hussain.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "पालकी" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब है चांदनी<br />
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शोभा बनीं नीलम जी। आपने अपने खास अंदाज में हमें धमका भी दिया.. आपकी यह अदा हमें बेहद पसंद आई। नीलम जी के बाद महफ़िल की शम्मा शरद जी के सामने ले जाई गई। इस बार शरद जी का अंदाज़ अलहदा-सा था और उन्होंने स्वरचित शेरों के बजाय नीरज के शेरों से महफ़िल को रौशन किया। भले हीं शरद जी दूसरे रास्ते पर निकल गए हों लेकिन मंजु जी ने अपनी लीक नहीं छोड़ी.. उन्होंने तो स्वरचित शेर हीं पेश करना सही समझा। इंदु जी, आपने सही कहा.. बशीर बद्र साहब और हुसैन बंधु ये तीनॊं ऐसी हस्तियाँ हैं, जिन्हें उनके हक़ की मक़बूलियत हासिल नहीं हुई। मनु जी, कुछ और भी कह देते.. खैर आप ठहरे "रमता जोगी".. आप किसकी सुनने वाले :) अवध जी, आपने "नीरज" की नज़्म याद दिलाकर महफ़िल में चार चाँद लगा दिए। शन्नो जी, ग़ज़ल और आलेख आपके पसंद आए, हमें इससे ज्यादा और क्या चाहिए। अमित जी, हमारी महफ़िल तो इसी कोशिश में है कि फ़नकार चाहे जो भी हो, अगर अच्छा है तो उसे अंधकार से प्रकाश में आना चाहिए। सीमा जी, इस बार एक हीं शेर.. ऐसा क्यों? और इस बार आपने देर भी कर दी है। अगली बार से ऐसा नहीं चलेगा :) अवनींद्र जी, आप आए नहीं थे तो मुझे लगा कि कहीं फिर से नाराज़ तो नहीं हो गएँ.. अच्छा हुआ कि नीलम जी ने पुकार लगाई और आप खुद को रोक न सके। अगली बार से यही उपाय चाहिए होगा क्या? :) <br />
<br />
बातों के बाद अब बारी है पिछली महफ़िल के शेरों की:<br />
<br />
सोचता था कैसे दम दूं इन बेदम काँधों को अपने<br />
पिता ने काँधे से लगाया जब ,मेरी पालकी को अपने (नीलम जी)<br />
<br />
जैसे कहार लूट लें दुल्हन की पालकी<br />
हालत वही है आजकल हिन्दोस्तान की (नीरज) <br />
<br />
अल्लाउदीन से मिलने गई जब रानी पदमनी ,<br />
उसे हर पालकी में नजर आई रानी पदमनी (मंजु जी)<br />
<br />
पर तभी ज़हर भरी गाज एक वोह गिरी <br />
पुंछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी <br />
और हम अजान से, दूर के मकान से<br />
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे<br />
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे (नीरज)<br />
<br />
उसे लेकर गयी पालकी जहाँ उसकी कोई कदर न थी<br />
जो जहान था उसके लिये उसकी नजर कहीं और थी. (शन्नो जी)<br />
<br />
शब्द की नित पालकी उतरी सितारों की गली में<br />
हो अलंकॄत गंध के टाँके लगाती हर कली में (राकेश खंडेलवाल )<br />
<br />
मन की पालकी मैं वेदना निढाल सी <br />
अश्क मैं डूबी हुई भावना निहाल सी (अवनींद्र जी)<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-3390542839832937482010-07-07T09:59:00.003+05:302010-07-07T10:07:13.531+05:30तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो.. बशीर और हुसैन बंधुओं ने माँगी बड़ी हीं अनोखी दुआ<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९१</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">"ज</span>गजीत सिंह ने आठ गज़लें गाईं और उनसे एक लाख रुपए मिले, अपने जमाने में गालिब ने कभी एक लाख रुपए देखे भी नहीं होंगे।" - शाइरी की बदलती दुनिया पर बशीर बद्र साहब कुछ इस तरह अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे खुद का मुकाबला ग़ालिब से नहीं करते, लेकिन हाँ इतना तो ज़रूर कहते हैं कि उनकी शायरी भी खासी मक़बूल है। तभी तो उनसे पूछे बिना उनकी शायरी प्रकाशित भी की जा रही है और गाई भी जा रही है। बशीर साहब कहते हैं- "पाकिस्तान में मेरी शाइरी ऊर्दू में छपी है, खूब बिक रही है, वह भी मुझे रायल्टी दिए बिना। वहां किसी प्रकाशक ने कुलयार बशीर बद्र किताब छापी है। जिसे हिंदी में तीन अलग अलग पुस्तक "फूलों की छतरीयां", "सात जमीनें एक सितारा" और "मोहब्बत खुशबू हैं" नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। अभी हरिहरन ने तीस हजार रुपए भेजे हैं, मेरी दो गजलें गाईं हैं। मुझसे पूछे बगैर पहले गा लिया और फिर मेरे हिस्से के पैसे भेज दिए। मेरे साथ तो सभी अच्छे हैं। अल्लामा इकबाल, फैज अहमद फैज, सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी ये सब इंकलाबी शायरी करते थे, लेकिन मैं तो मोहब्बत की शाइरी करता हूं, मोहब्बत की बात करता हूं। आज मेरी शाइरी हिन्दी, ऊर्दू, अंग्रेजी सभी भाषाओं में दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में मिल जाएगी। इंकलाबी शाइरी करने वालों के शेर आज कहां पढ़े जा रहे हैं? कई लोग मेरे शेरों को चुराकर छपवा कर लाखों कमा रहे हैं, जब कहता हूं, तो मुझे भी हिस्सा दे देते हैं।"<br />
<br />
शायरी क्या है? शायरी की जुबान क्या है? इस सवाल पर बशीर बद्र कहते हैं - "शायरी की जुबान दिल की जुबान होती है। जज्बात शायरी है। जिंदगी शायरी है। उर्दू और हिंदी का सवाल नहीं। यह तो महज लिखने का तरीका है। जो नीरज हिंदी में लिखते हैं । और जो बशीर उर्दू में रचते हैँ। वहीं शायरी है। वहीं मुक्कमल कविता है। शायरी के लिए उर्दू आनी चाहिए। शायरी के लिए हिंदी की जानकारी चाहिए। शायरी वह है इल्म है जिसके लिए जिंदगी आनी चाहिए। मेरी शाइरी लेटेस्ट संस्कृत भाषा में है। ऊर्दू और हिन्दी दोनों ही संस्कृत भाषा की देन है।" <br />
<br />
शायरी की जुबान किस तरह बदलती है या फिर किस तरह उस जुबान का हुलिया बदल जाता है, इस मुद्दे पर बशीर कहते हैं - " एक ज़बान दो तीन शाइर पैदा कर सकती है और उस वक्त तक कोई दूसरा काबिले जिक्र शाइर पैदा नहीं हो सकता जब तक वो ज़बान अपनी दूसरी शख़सियत (personality) में न जाहिर हो। हम देखते हैं कि अंग्रेज़ी जैसी ज़बान में रोमेंटिक पीरियड के बाद आलमगीर सतह की दस लाइनें भी नहीं लिखी जा सकीं और दो-तीन सदियों से इंग्लिश पोएट्री ऑपरेशन टेबल पर पड़ी हुई है। यही हाल फ़ारसी ज़बान का भी था कि वो हाफ़िज़, सादी, बेदिल, उर्फ़ी और नज़ीरी के बाद आज तक नींद से नहीं जागी और मीर और ग़ालिब जो इन फ़ारसी के शाइरों की हमसरी के आरज़ूमंद रहे वह बाज़ारी उर्दू ज़बान के तकदुस, तहारत और मोहब्बत के वसीले से उनसे भी बड़े शाइर हो गए। उसी फ़ारसी तहजीबयाफता उर्दू का सिलसिला फ़ैज़ और मजरूह तक सर बलंद होकर अपनी विरासत उस नई आलसी उर्दू के हवाले करके खुश है कि इसकी तमाजत में सैकड़ों अंग्रेजी और दूसरी मग़रिबी ज़बानों के लफ़्ज़ (words) हिंदुस्तानी आत्मा और तमाज़त में कुछ-कुछ तहलील होकर हमारी ग़ज़ल में नई बशारतों के दरवाजे़ खोल रही है।" बशीर यह भी मानते हैं कि वही शायरी ज्यादा मक़बूल होती है, जो लोगों को आसानी से समझ आए। तभी १८०००० से ज्यादा ग़ज़ल लिख चुके मीर कम जाने जाते हैं बनिस्पत महज़ १५०० शेरों के मालिक "ग़ालिब" से।<br />
<br />
बशीर बद्र पर यह बात मुकम्मल तरीके से लागू होती है कि जो शायरी जानता है, समझता है, वह बशीर की इज्जत करता है। जो नहीं जानता वह बशीर को पूजता है। अपने बारे में बशीर खुद कहते हैं -"मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ। ग़जल से मेरा जनम-जनम का साथ है। ग़ज़ल का फ़न मेरा फ़न है। मेरा तजुर्बा ग़ज़ल का तजुर्बा है। मैं कौन हूँ ? मेरी तारीख़ हिन्दुस्तान की तारीख़ के आसपास है।" बशीर कौन हैं? अगर यह सवाल अभी भी आपके मन में घूम रहा है तो हम उनका छोटा-सा परिचय दिए देते हैं-<br />
<br />
<blockquote>भोपाल से ताल्लुकात रखने वाले बशीर बद्र का जन्म कानपुर में हुआ था। किस दिन हुआ था, यह ठीक-ठीक बताया नहीं जा सकता क्योंकि कहीं यह दिन <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Bashir_Badr">३० अप्रैल १९४५</a> के रूप में दर्ज है तो कहीं <a href="http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0">१५ फरवरी १९३६</a> के। इनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। साहित्य और नाटक आकेदमी में किए गये योगदानो के लिए इन्हें १९९९ में पद्मश्री में सम्मानित किया गया था। अपनी पुस्तक "आस" के लिए उसी साल इन्हें "साहित्य अकादमी पुरस्कार" से भी नवाज़ा गया। आज के मशहूर शायर और गीतकार नुसरत बद्र इनके सुपुत्र हैं।</blockquote><br />
बशीर के शेर दुनिया के हर कोने में पहुँचे हैं। कई बार तो लोगों को यह नहीं मालूम होता कि यह शेर बशीर बद्र साहब का लिखा हुआ है मगर उसे लोग उद्धत करते पाए जाते हैं। मसलन इसी शेर को देख लीजिए:<br />
<br />
<b>उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो<br />
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए</b><br />
<br />
सियासी ज़िम्मेदारियों और अजमतों की शख़सियत इंदिरा गांधी ने अपनी एक राज़दार सहेली ऋता शुक्ला, टैगोर शिखर पथ, रांची-4 को अपने दिल का कोई अहसास इसी शे’र के वसीले से वाबस्ता किया था। यही वो शे’र है जो मशहूर फिल्म एक्ट्रेस मीना कुमारी ने (अंग्रेजी रिसाला) स्टार एण्ड स्टाइल (English magazine star & style) में अपने हाथ से उर्दू में लिखकर छपवाया था और हिंदुस्तान के सद्र ज्ञानी ज़ैल सिंह ने अपनी आख़री तकरीर को इसी पर समाप्त किया था। (सौजन्य: आस - बशीर बद्र)<br />
<br />
बशीर के और भी ऐसे कई शेर हैं, जो लोगों की जुबान पर हैं। इनमें तजुर्बे से निकली नसीहत भी है, एक आत्मीय संवाद भी। कुछ शेर यहाँ पेश किए दे रहा हूँ:<br />
<br />
<b>कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से <br />
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो<br />
<br />
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे<br />
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों<br />
<br />
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी<br />
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी<br />
<br />
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी<br />
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता<br />
<br />
बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना<br />
जहाँ दरया समन्दर से मिला, दरया नहीं रहता<br />
<br />
हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है<br />
हम जहाँ से जाएँगे, वो रास्ता हो जाएगा<br />
<br />
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो<br />
मेरी तरह तुम भी झूठे हो<br />
<br />
बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी<br />
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है<br />
<br />
सब कुछ खाक हुआ है लेकिन चेहरा क्या नूरानी है<br />
पत्थर नीचे बैठ गया है, ऊपर बहता पानी है<br />
<br />
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं<br />
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे</b><br />
<br />
बशीर के शेरों के बारे में कन्हैयालाल नंदन कहते हैं: ("आज के प्रसिद्ध शायर - बशीर बद्र" पुस्तक से)<br />
<br />
<blockquote>किसी भी शेर को लोकप्रिय होने के लिए जिन बातों की ज़रूरत होती है, वे सब इन अशआर में हैं। ज़बान की सहजता, जिन्दगी में रचा-बसा मानी, दिल को छू सकने वाली संवेदना, बन्दिश की चुस्ती, कहन की लयात्मकता—ये कुछ तत्व हैं जो उद्धरणीयता और लोकप्रियता का रसायन माने जाते हैं। बोलचाल की सुगम-सरल भाषा उनके अशआर की लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार है। वे मानते हैं कि ग़ज़ल की भाषा उन्हीं शब्दों से बनती है जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुल-मिल जाते हैं। ‘बशीर बद्र समग्र’ के सम्पादक बसन्त प्रतापसिंह ने इस बात को सिद्धान्त की सतह पर रखकर कहा कि ‘श्रेष्ठ साहित्य की इमारत समाज में अप्रचलित शब्दों की नींव पर खड़ी नहीं की जा सकती। कविता की भाषा शब्दकोषों या पुस्तकों-पत्रिकाओं में दफ़्न न होकर, करोड़ों लोगों की बोलचाल को संगठित करके और उनके साधारण शब्दों को जीवित और स्पंदनशील रगों को स्पर्श करके ही बन पाती है। यही कारण है कि आजकल बोलचाल और साहित्य दोनों में ही संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के क्लिष्ट और बोझिल शब्दों का चलन कम हो रहा है। बशीर बद्र ने ग़ज़ल को पारम्परिक क्लिष्टता और अपरिचित अरबी-फ़ारसी के बोझ से मुक्त करके जनभाषा में जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया है। बशीर बद्र इस ज़बान के जादूगर हैं।’</blockquote><br />
बशीर के बारे में उनके हमसुखन और समकालीन अदीब "निदा फ़ाज़ली" कहते हैं: "वे जहाँ भी मिलते हैं, अपने नए शेर सुनाते हैं। सुनाने से पहले यही कहते हैं कि भाई, नए शेर हैं, कोई भूल-चूक हो गई हो तो बता दो, इस्लाह कर दो। लेकिन सुनाने का अन्दाज़ ऐसा होता है जैसे कह रहे हों: क्यों झक मारते हो—ग़ज़ल कहना हो तो इस तरह कहा करो। मिज़ाज से रुमानी हैं लेकिन उनके साथ अभी तक किसी इश्क़ की कहानी मंसूब नहीं हुई। जिस उम्र में इश्क के लिए शरीर ज्यादा जाग्रत होता है, वह शौहर बन कर घर-बार के हो जाते हैं। अब जो भी अच्छा लगता है, उसे बहन बना कर रिश्तों की तहज़ीब निभाते हैं।" इस तरह निदा ने उनके रूमानी अंदाज़ पर भी चिकोटी काटी है।<br />
<br />
जिन शायर के बारे में अबुल फ़ैज़ सहर ने यहाँ तक कहा है कि "आलमी सतह पर बशीर बद्र से पहले किसी भी ग़ज़ल को यह मक़बूलियत नहीं मिली। मीरो, ग़ालिब के शेर भी मशहूर हैं लेकिन मैं पूरे एतमाद से कह सकता हूँ कि आलमी पैमाने पर बशीर बद्र की ग़ज़लों के अश्आर से ज़्यादा किसी के शेर मशहूर नहीं हैं। वो इस वक़्त दुनिया में ग़ज़ल के सबसे मशहूर शायर हैं।" - उनकी लिखी गज़ल को महफ़िल में पेश करने का सौभाग्य मिलना कोई छोटी बात नहीं। सोने पर सुहागा यह कि आज की गज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया अहमद और मुहम्मद हुसैन यानि कि हुसैन बंधुओं ने। बशीर साहब के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है, इसलिए बाकी बातों को अगली महफ़िल के लिए बचा कर रखते हैं और अभी इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो<br />
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो<br />
<br />
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे<br />
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो<br />
<br />
मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब है चांदनी<br />
न उठे सितारों की ______, अभी आहटों का गुज़र न हो<br />
<br />
कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के<br />
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो<br />
<br />
मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ<br />
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो</span><br />
<br />
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<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/06/blog-post_30.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "तसल्ली" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता<br />
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शोभा बनीं सीमा जी। आपने तसल्ली से "तसल्ली" पर शेर कहे, जिन्हें पढकर हमारे दिल को काफ़ी सुकून, काफ़ी तसल्ली मिली। शन्नो जी, आपने हमारी मेहनत का ज़िक्र किया, हमारी हौसला-आफ़जाई की... इसके लिए आपका तहे-दिल से आभार! आपने "घोस्ट राईटर" का मतलब पूछा... तो "घोस्ट" शब्द न सिर्फ़ राईटर के लिए इस्तेमाल होता है, बल्कि "डायरेक्टर", "म्युजिक डायरेक्टर" यहाँ तक कि "प्राईम मिनिस्टर" (मनमोहन जी या सोनिया जी... असल प्राईम मिनिस्टर है कौन? :) ) तक पर लागू होता है। अगर कोई इंसान नाम तो अपना रखे लेकिन उसके लिए काम कोई और करे.. तो दूसरे इंसान को "घोस्ट" कहते हैं यानि कि भूत यानि कि आत्मा... अब समझ गईं ना आप? अनुराग जी, शायद आपकी बात सच हो.. क्योंकि और किसी के मुँह से मैंने जांनिसार और साहिर के बारे में ऐसी बातें नहीं सुनीं। अवनींद्र जी, शरद जी और मंजु जी ने अपनी-अपनी झोली से शेरों के फूल निकालकर उन्हें महफ़िल के नाम किए। महफ़िल में सुमित जी का भी आना हुआ.. लेकिन वही ना-नुकुर वाला स्वभाव.... अब इन्हें कौन समझाए कि अपना शेर ना हो तो किसी और का शेर लाकर हीं महफ़िल के हवाले कर दें। शेर याद होना जरूरी नहीं.. गूगल किस मर्ज़ की दवा है। महफ़िल खत्म होते-होते नीलम जी की आमद हुई और उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में नियम लागू किए जाने का कारण पूछा। अवनींद्र जी और शन्नो जी की कोशिशों के बाद उन्होंने भी नियम स्वीकार कर लिए। अवनींद्र जी और नीलम जी... आप दोनों में से किसी को महफ़िल छोड़ने की जरूरत नहीं। हाँ.. अगर आप लोगों से किसी ने भी ऐसी बात की तो मैं हीं महफ़िल छोड़ दूँगा... ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी... लेकिन मुझे यकीन है कि आप लोग ऐसा होने नहीं देंगे... ऐसी नौबत नहीं आएगी.. है ना? <br />
<br />
चलिए अब महफ़िल में पेश किए शेरों पर भी नज़र दौड़ा लते हैं:<br />
<br />
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही <br />
इम्तिहां और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही (ग़ालिब)<br />
<br />
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब <br />
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब (जावेद अख़्तर)<br />
<br />
देखा था उसे इक बार बड़ी तसल्ली से <br />
उस से बेहतर कोई दूसरा नहीं देखा (अवनींद्र जी)<br />
<br />
आ गया अखबार वाला हादिसे होने के बाद<br />
कुछ तसल्ली दे के वो मेरी कहानी ले गया। (शरद जी)<br />
<br />
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो वक़्त कुछ मेरे मरने का टल जायेगा<br />
क्या ये कम है मसीहा के होने से ही मौत का भी इरादा बदल जायेगा (गुलज़ार)<br />
<br />
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए<br />
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक (नवाज़ देवबंदी)<br />
<br />
सारे जमाने का दर्द है जिसके सीने में<br />
वो तसल्ली भी दे किसी को तो कैसे. (शन्नो जी)<br />
<br />
मेरे ख्वाबों का जनाजा उनकी गली से गुजरा ,<br />
बेवफा !तसल्ली के दो शब्द भी न बोल सका . (मंजु जी)<br />
<br />
तसल्ली नहीं थी ,आंसू भी न थे<br />
किस्मत थी किसकी ,किसकी वफ़ा थी (नीलम जी या कोई और? )<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-1935018291825612532010-06-30T09:30:00.005+05:302010-06-30T09:30:01.463+05:30हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर.. यादें गढने और चेहरे पढने में उलझे हैं रूप कुमार और जाँ निसार<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९०</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">"जाँ</span> निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ." <br />
<br />
पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे में ऐसा कुछ पढने को मिलेगा.. मुझे ऐसी उम्मीद न थी। लेकिन क्या कीजिएगा.. कई दफ़ा कई चीजें उम्मीद के उलट चली जाती हैं, जिनपर आपका तनिक भी बस नहीं होता। और वैसे भी शायरों की(या किसी भी फ़नकार की) ज़िन्दगी कितनी जमीन के ऊपर होती हैं और कितनी जमीन के अंदर.. इसका पता आराम से नहीं लग पाता। जैसे कि साहिर सच में क्या थे.. कौन जाने? हम तो उतना हीं जान पाते हैं, जितना हमें मुहय्या कराया जाता है। और यह सही भी है.. हमें शायरों के इल्म से मतलब होना चाहिए, न कि उनकी जाती अच्छाईयों और खराबियों से। खैर........ हम भी कहाँ उलझ गए। महफ़िल जाँ निसार साहब को समर्पित है तो बात भी उन्हीं की होनी चाहिए।<br />
<br />
निदा फ़ाज़ली जब उन शायरों का ज़िक्र करते हैं जो लिखते तो "माशा-अल्लाह" कमाल के हैं, लेकिन अपनी रचना सुनाने की कला से नावाकिफ़ होते हैं... तो वैसे शायरों में "जाँ निसार" साहब का नाम काफ़ी ऊपर आता है। निदा कहते हैं:<br />
<br />
<blockquote>जाँ निसार नर्म लहज़े के अच्छे रूमानी शायर थे... उनके अक्सर शेर उन दिनों नौजवानों को काफ़ी पसंद आते थे। कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ अपने प्रेम-पत्रों में उनका इस्तेमाल भी करते थे– जैसे,<br />
<br />
<b>दूर कोई रात भर गाता रहा<br />
तेरा मिलना मुझको याद आता रहा<br />
<br />
छुप गया बादलों में आधा चाँद, <br />
रौशनी छन रही है शाखों से<br />
जैसे खिड़की का एक पट खोले, <br />
झाँकता है कोई सलाखों से<br />
</b><br />
लेकिन अपनी मिमियाती आवाज़ में, शब्दों को इलास्टिक की तरह खेंच-खेंचकर जब वह सुनाते थे, तो सुनने वाले ऊब कर तालियाँ बजाने लगाते थे। जाँ निसार आखें बंद किए अपनी धुन में पढ़े जाते थे, और श्रोता उठ उठकर चले जाते थे.</blockquote><br />
अभी भी ऐसे कई शायर हैं जिनकी रचनाएँ कागज़ पर तो खुब रीझाती है, लेकिन उन्हें अपनी रचनाओं को मंच पर परोसना नहीं आता। वहीं कुछ शायर ऐसे होते हैं जो दोनों विधाओं में माहिर होते हैं.. जैसे कि "कैफ़ी आज़मी"। कैफ़ी आज़मी का उदाहरण देते हुए "निदा" कहते हैं:<br />
<br />
<blockquote>कैफ़ी आज़मी, बड़े-बड़े तरन्नुमबाज़ शायरों के होते हुए अपने पढ़ने के अंदाज़ से मुशायरों पर छा जाते थे. एक बार ग्वालियर के मेलामंच से कैफी साहब अपनी नज़्म सुना रहे थे.<br />
<br />
तुझको पहचान लिया<br />
दूर से आने वाले,<br />
जाल बिछाने वाले<br />
<br />
दूसरी पंक्तियों में ‘जाल बिछाने वाले’ को पढ़ते हुए उनके एक हाथ का इशारा गेट पर खड़े पुलिस वाले की तरफ था. वह बेचारा सहम गया. उसी समय गेट क्रैश हुआ और बाहर की जनता झटके से अंदर घुस आई और पुलिसवाला डरा हुआ खामोश खड़ा रहा </blockquote><br />
मंच से कहने की कला आए ना आए, लेकिन लिखने की कला में माहिर होना एक शायर की बुनियादी जरूरत है। वैसे आजकल कई ऐसे कवि और शायर हो आए हैं, जो बस "मज़ाक" के दम पर मंच की शोभा बने रहते हैं। ऐसे शायरों की जमात बढती जा रही है। जहाँ पहले कैफ़ी आज़मी जैसे शायर मिनटों में अपनी गज़लें सुना दिया करते थे, वहीं आजकल ज्यादातर मंचीय कवि घंटों माईक के सामने रहते हुए भी चार पंक्तियाँ भी नहीं कह पाते, क्योंकि उन्हें बीच में कई सारी "फूहड़" कहानियाँ जो सुनानी होती हैं। पहले के शायर मंच पर अगर उलझते भी थे तो उसका एक अलग मज़ा होता था.. आजकल की तरह नहीं कि व्यक्तिगत आक्षेप किए जा रहे हैं। निदा ऐसे हीं दो महान शायरों की उलझनों का जिक्र करते हैं - <br />
<br />
<b>नारायण प्रसाद मेहर और मुज़्तर ख़ैराबादी, ग्वालियर के दो उस्ताद शायर थे.<br />
<br />
मेहर साहब दाग़ के शिष्य और उनके जाँनशीन थे, मुज़्तर साहब दाग़ के समकालीन अमीर मीनाई के शागिर्द थे. दोनों उस्तादों में अपने उस्तादों को लेकर मनमुटाव रहता था, दोनों शागिर्दों के साथ मुशायरों में आते थे और एक दूसरे की प्रशंसा नहीं करते.</b><br />
<br />
अब आप सोच रहे होंगे कि ये आज मुझे क्या हो गया है.. जाँ निसार अख्तर की बात करते-करते मैं ये कहाँ आ गया। घबराईये मत... "मेहर" साहब और "खैराबादी" साहब का जिक्र बेसबब नहीं। <br />
<br />
दर-असल "खैराबदी" साहब कोई और नहीं जाँ निसार अख्तर के अब्बा थे और "मेहर" साहब "जाँ निसार" के उस्ताद.. <br />
<br />
जाँ निसार अख्तर किस परिवार से ताल्लुकात रखते थे- इस बारे में "विजय अकेला" ने "निगाहों के साये" किताब में लिखा है:<br />
<br />
<blockquote>जाँ निसार अख्तर उस मशहूर-ओ-मारुफ़ शायर मुज़्तर खै़राबादी के बेटे थे जिसका नाम सुनकर शायरी किसी शोख़ नाज़नीं की तरह इठलाती है। जाँ निसार उस शायरी के सर्वगुण सम्पन्न और मशहूर शायर सय्यद अहमद हुसैन के पोते थे जिनके कलाम पढ़ने भर ही से आप बुद्धिजीवी कहलाते हैं। हिरमाँ जो उर्दू अदब की तवारीख़ में अपना स्थान बना चुकी हैं वे जाँ निसार अख़्तर की दादी ही तो थीं जिनका असल नाम सईदुन-निसा था। अब यह जान लीजिए कि हिरमाँ के वालिद कौन थे। वे थे अल्लामा फ़ज़ल-ए-हक़ खै़राबादी जिन्होंनें दीवान-ए-ग़ालिब का सम्पादन किया था और जिन्हें १८५७ के सिपाही-विद्रोह में शामिल होने और नेतृत्व करने के जुर्म में अंडमान भेजा गया था। कालापानी की सजा सुनाई गयी थी।<br />
<br />
शायर की बेगम का नाम साफ़िया सिराज-उल-हक़ था, जिसका नाम भी उर्दू अदब में उनकी किताब ‘ज़ेर-ए-नज़र’ की वजह से बड़ी इज़्ज़त के साथ लिया जाता है। और साफ़िया के भाई थे मजाज़। उर्दू शायरी के सबसे अनोखे शायर। आज के मशहूर विचारक डॉ. गोपीचन्द्र नारंग ने तो इस ख़ानदान के बारें में यहाँ तक लिख दिया है कि इस खा़नदान के योगदान के बग़ैर उर्दू अदब की तवारीख़ अधूरी है।</blockquote><br />
जाँ निसार अख्तर न सिर्फ़ गज़लें लिखते थे, बल्कि नज़्में ,रूबाईयाँ और फिल्मी गीत भी उसी जोश-ओ-जुनून के साथ लिखा करते थे। फिल्मी गीतों के बारे में तो आपने "ओल्ड इज गोल्ड" पर पढा हीं होगा, इसलिए मैं यहाँ उनकी बातें न करूँगा। एक रूबाई तो हम पहले हीं पेश कर चुके हैं, इसलिए अब नज़्म की बारी है। मुझे पूरा यकीन है कि आपने यह नज़्म जरूर सुनी होगी, लेकिन यह न जानते होंगे कि इसे "जां निसार" साहब ने हीं लिखा था:<br />
<br />
<b>एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन<br />
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं<br />
आवाज़ दो हम एक हैं.</b><br />
<br />
इस शायर के बारे में क्या कहूँ और क्या अगली कड़ी के लिए रख लूँ कुछ भी समझ नहीं आ रहा। फिर भी चलते-चलते ये दो शेर तो सुना हीं जाऊँगा:<br />
<br />
<b>अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं<br />
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं<br />
<br />
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की<br />
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं</b><br />
<br />
"जाँ निसार" साहब के बारे में और भी कुछ जानना हो तो <a href="http://ek-shayar-tha.blogspot.com/2010/06/blog-post_5944.html">यहाँ</a> जाएँ। वैसे इतना तो आपको पता हीं होगा कि "जाँ निसार अख्तर" आज के सुविख्यात शायर और गीतकार "जावेद अख्तर" के पिता थे।<br />
<br />
आज के लिए इतना हीं काफ़ी है। तो अब रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। आज जो गज़ल लेकर हम आप सब के बीच हाज़िर हुए हैं उसे तरन्नुम में सजाया है "रूप कुमार राठौड़" ने। लीजिए पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल, जिसमें यादें गढने और चेहरे पढने की बातें हो रही हैं:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर<br />
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर<br />
<br />
और तो कौन है जो मुझको ______ देता<br />
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर<br />
<br />
हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई<br />
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर<br />
<br />
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने<br />
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर</span><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300" height="30"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/mehfil-e-ghazalBadeShayar/hamneKaatiHaiRoopJaanNishar.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/06/blog-post_23.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
बस अब तो मेरा दामन छोड़ दो बेकार उम्मीदो<br />
बहुत दुख सह लिये मैंने बहुत दिन जी लिया मैंने<br />
<br />
पिछली बार की महफ़िल-ए-गज़ल की शोभा बनीं शन्नो जी। महफ़िल में शन्नो जी और सुमित जी के बीच "गज़लों में दर्द की प्रधानता" पर की गई बातचीत अच्छी लगी। इसी वाद-विवाद में अवनींद्र जी भी शामिल हुए और अंतत: निष्कर्ष यह निकला कि बिना दर्द के शायरों का कोई अस्तित्व नहीं होता। शायर तभी लिखने को बाध्य होता है, जब उसके अंदर पड़ा दर्द उबलने की चरम सीमा तक पहुँच जाता है या फिर वह दर्द उबलकर "ज्वालामुखी" का रूप ले चुका होता है। "खुशियों" में तो नज़्में लिखी जाती हैं, गज़लें नहीं। महफ़िल में आप तीनों के बाद अवध जी के कदम पकड़े। अवध जी, आपने सही पकड़ा है... वह इंसान जो ज़िंदगी भर प्यार का मुहताज रहा, वह जीने के लिए दर्द के नगमें न लिखेगा तो और क्या करेगा। फिर भी ये हालत थी कि "दिल के दर्द को दूना कर गया जो गमखार मिला "। आप सबों के बाद अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल में मंजु जी और शरद जी आएँ जिन्होंने श्रोताओं का दामन दर्द और खलिश से भर दिया। आशीष जी का इस महफ़िल में पहली बार आना हमारे लिए सुखदायी रहा और उनकी झोली से शेरों की बारिश देखकर मन बाग-बाग हो गया। और अंत में महफ़िल का शमा बुझाने के लिए "नीलम" जी का आना हुआ, जो अभी-अभी आए नियमों से अनभिज्ञ मालूम हुईं। कोई बात-बात नहीं धीरे-धीरे इन नियमों की आदत पड़ जाएगी :)<br />
<br />
ये रहे महफ़िल में पेश किए गए शेर:<br />
<br />
जुल्म सहने की भी कोई इन्तहां होती है<br />
शिकायतों से अपनी कोई दामन भर गया. (शन्नो जी)<br />
<br />
आसुओ से ही सही भर गया दामन मेरा,<br />
हाथ तो मैने उठाये थे दुआ किसकी थी (अनाम)<br />
<br />
मेरे दामन तेरे प्यार की सौगात नहीं<br />
तो कोई बात नही,तो कोई बात नही । (शरद जी)<br />
<br />
काँटों में खिले हैं फूल हमारे रंग भरे अरमानों के<br />
नादान हैं जो इन काँटों से दामन को बचाए जाते हैं. (शैलेन्द्र)<br />
<br />
अपने ही दामन मैं लिपटा सोचता हूँ<br />
आसमाँ पे कुछ नए गम खोजता हूँ (अवनींद्र जी)<br />
<br />
तेरे आने से खुशियों का दामन चहक रहा ,<br />
जाने की बात से दिल का आंगन छलक रहा . (मंजु जी)<br />
<br />
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,<br />
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,<br />
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,<br />
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला || (हरिवंश राय बच्चन)<br />
<br />
दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह<br />
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह (क़तील शिफ़ाई)<br />
<br />
शफ़क़,धनुक ,महताब ,घटाएं ,तारें ,नगमे बिजली फूल<br />
उस दामन में क्या -क्या कुछ है,वो दामन हाथ में आये तो (अनाम)<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-2806191542948835941.post-19142767408701086902010-06-23T09:30:00.002+05:302010-06-23T09:30:03.156+05:30मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबाँ सी लिया मैंने.. दिल पर पत्थर रखकर खुद को तोड़ रहे हैं साहिर और तलत<span style="font-weight:bold;">महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८९</span><br />
<br />
<span style="float:left;background:#fff;line-height:60px; padding-top:1px; padding-right:5px; font-family:times;font-size:70px;color:#000; font-weight:bold;">"स</span>ना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं?" - मुमकिन है कि आपने यह पंक्ति पढी या सुनी ना हो, लेकिन इस पंक्ति के इर्द-गिर्द जो नज़्म बुनी गई थी, उससे नावाकिफ़ होने का तो कोई प्रश्न हीं नहीं उठता। यह वही नज़्म है, जिसने लोगों को गुरूदत्त की अदायगी के दर्शन करवाएँ, जिसने बर्मन दा के संगीत को अमर कर दिया, जिसने एक शायर की मजबूरियों का हवाला देकर लोगों की आँखों में आँसू तक उतरवा दिए और जिसने बड़े हीं सीधे-सपाट शब्दों में "चकला-घरों" की हक़ीकत बयान कर मुल्क की सच्चाई पर पड़े लाखों पर्दों को नेस्तनाबूत कर दिया... अभी तक अगर आपको इस नज़्म की याद न आई हो तो जरा इस पंक्ति पर गौर फरमा लें- "जिसे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?" पूरी की पूरी नज़्म वही है, बस एक पंक्ति बदली गई है और वो भी इसलिए क्योंकि फिल्म और साहित्य में थोड़ा फर्क होता है.. फिल्म में हमें अपनी बात खुलकर रखनी होती है। जहाँ तक मतलब का सवाल है तो "सना-ख़्वाने..." में पूरे पूरब का जिक्र है, वहीं "जिसे नाज़ है..." में अपने "हिन्दुस्तान" का बस। लेकिन इससे लफ़्ज़ों में छुपा दर्द घट नहीं जाता.... और इस दर्द को उकेरने वाला शायर तब भी घावों की उतनी हीं गहरी कालकोठरी में जब्त रहता है। इस शायर के बारे में और क्या कहना जबकि इसने खुद कहा है कि "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?" ... जिसे दुनिया का मोह नहीं ,उससे ज़ीस्त और मौत के सवाल-जवाब करने से क्या लाभ! इस शायर को तो अपने होने का भी कोई दंभ, कोई घमंड, कोई अना नहीं है.. वो तो सरे-आम कहता है "मैं पल-दो पल का शायर हूँ..... मुझसे पहले कितने शायर आए और आ कर चले गए.... <br />
<br />
<b>कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,<br />
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ।<br />
कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे<br />
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे ॥</b><br />
<br />
इस शायर से मेरा लगाव क्या है, यह मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। मुझे लिखने का शौक़ है और आज-कल थोड़े गाने भी लिख लेता हूँ... गाना लिखने वालों के बारे में लोग यही ख्याल पालते हैं (लोग क्या... खुद गीतकार भी यही मानते हैं) कि गानों में मतलब का कुछ लिखने के लिए ज्यादा स्कोप, ज्यादा मौके नहीं होते.. लेकिन जब भी मैं इन शायर को पढता हूँ तो मुझे ये सारे ख्याल बस बहाने हीं लगते हैं... लगता है कि कोई अपनी लेखनी से बोझ हटाने के लिए दूसरों के सर पर झूठ का पुलिंदा डाल रहा है। अब अगर कोई शायर अपने गाने में यह तक लिख दे कि<br />
<br />
<b>कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है<br />
<br />
कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में <br />
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी <br />
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है <br />
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी </b><br />
<br />
और लोग उसके कहे हरेक लफ़्ज़ को तहे-दिल से स्वीकार कर लें तो इससे यह साबित हो जाता है कि मतलब का लिखने के लिए मौकों की जरूरत नहीं होती बल्कि यह कहिए कि बेमतलब लिखने के लिए मौके निकालने होते हैं। यह शायर मौके नहीं ढूँढता, बल्कि आपको मौके देता है अपनी अलसाई-सी दुनिया में ताकने का.. उसे निखरने का, उसे निखारने का। आप पशेमान होते हो तो आपसे कहता है <br />
<br />
<b>तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले<br />
अपने पे भरोसा है तो ये दाँव लगा ले</b><br />
<br />
<b>ना मुंह छिपा के जियो और ना सर झुका के जियो<br />
गमों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो ।</b><br />
<br />
फिर आप संभल जाते हो... लेकिन अगले हीं पल आप इस बात का रोना रोते हो कि आपको वह प्यार नहीं मिला जिसके आप हक़दार थे। यह आपको समझाता है, आप फिर भी नहीं समझते तो ये आपके हीं सुर में सुर मिला लेता है ताकि आपके ग़मों को मलहम मिल सके<br />
<br />
<b>जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला ?<br />
हमने तो जब कलियाँ मांगीं, काँटों का हार मिला ॥</b><br />
<br />
आपको प्यार हासिल होता है, लेकिन आप "बेवफ़ाईयो" का शिकार हो जाते हैं। आपको उदासियों के गर्त्त में धँसता देख यह आपको ज़िंदगी के पाठ पढा जाता है:<br />
<br />
<b>तारुफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर,<br />
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा ।<br />
वो अफ़साना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन,<br />
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ॥</b><br />
<br />
इतना सब करने के बावजूद यह आपसे अपना हक़ नहीं माँगता.. यह नहीं कहता कि मैंने तुम्हें अपनी शायरी के हज़ार शेर दिए, तुम्हें तुम्हारी ज़िंदगी के लाखों लम्हें नसीब कराए... यह तो उल्टे सारा श्रेय आपको हीं दे डालता है:<br />
<br />
<b>दुनिया ने तजुर्बातो हवादिस की शक्ल में<br />
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं</b><br />
<br />
यह शायर, जिसके एक-एक हर्फ़ में <a href="http://www.manaskriti.com/kaavyaalaya/parchhaaiyaan.stm"> तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं</a>.. अपने चाहने वालों के बीच "साहिर" के नाम से जाना जाता है। इनके बारे में और कुछ जानने के लिए चलिए हम "विकिपीडिया" और "प्रकाश पंडित" के दरवाजे खटखटाते हैं।<br />
<br />
<blockquote>साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी साहिर है। उनका जन्म ८ मार्च १९२१ में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। माता के अतिरिक्त उनके पिता की कई पत्नियाँ और भी थीं। किन्तु एकमात्र सन्तान होने के कारण उसका पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार में हुआ। मगर अभी वे बच्चा हीं थे कि पति की ऐय्याशियों से तंग आकर उनकी माता पति से अलग हो गई और चूँकि ‘साहिर’ ने कचहरी में पिता पर माता को प्रधानता दी थी, इसलिए उनके बाद पिता से और उसकी जागीर से उनका कोई सम्बन्ध न रहा और उन्हें गरीबी में गुजर करना पड़ा। साहिर की शिक्षा लुधियाना के खालसा हाई स्कूल में हुई। सन् १९३९ में जब वे गव्हर्नमेंट कालेज के विद्यार्थी थे <b>अमृता प्रीतम</b> से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा । कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए ख्यात हो गए थे और अमृता उनकी प्रशंसक । लेकिन अमृता के घरवालों को ये रास नहीं आया क्योंकि एक तो साहिर मुस्लिम थे और दूसरे गरीब । बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कालेज से निकाल दिया गया।<br />
<br />
सन् १९४३ में साहिर लाहौर आ गये और उसी वर्ष उन्होंने अपनी पहली कविता संग्रह ’तल्खियाँ’ छपवायी। सन् १९४५ में वे प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार (लाहौर) के सम्पादक बने। बाद में वे द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी सम्पादक बने और इस पत्रिका में उनकी किसी रचना को सरकार के विरुद्ध समझे जाने के कारण पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारण्ट जारी कर दिया। १९४९ में वे दिल्ली आ गये। कुछ दिनों दिल्ली में रहकर वे बंबई आ गये जहाँ पर व उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के सम्पादक बने। फिल्म आजादी की राह पर (१९४९) के लिये उन्होंने पहली बार गीत लिखे किन्तु प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, जिसके संगीतकार सचिनदेव बर्मन थे, के लिये लिखे गीतों से मिली। <br />
<br />
शायर की हैसियत से ‘साहिर’ ने उस समय आँख खोली जब ‘इक़बाल’ और ‘जोश’ के बाद ‘फ़िराक़’, ‘फ़ैज़’, ‘मज़ाज़’ आदि के नग़्मों से न केवल लोग परिचित हो चुके थे बल्कि शायरी के मैदान में उनकी तूती बोलती थी। कोई भी नया शायर अपने इन सिद्धहस्त समकालीनों से प्रभावित हुए बिना न रह सकता था। अतएव ‘साहिर’ पर भी ‘मजाज़’ और ’फ़ैंज़’ का ख़ासा प्रभाव पड़ा। लेकिन उनका व्यक्तिगत अनुभव जो कि उनके पिता और उनकी प्रेमिका के पिता के प्रति घृणा और विद्रोह की भावनाओं से ओत-प्रोत था, उनके लिए कामगर साबित हुआ। लोगों ने देखा कि फ़ैज़’ या ‘मजाज़’ का अनुकरण करने के बजाय ‘साहिर’ की रचनाओं पर उसके व्यक्तिगत अनुभवों की छाप है और उसका अपना एक अलग रंग भी है। <br />
<br />
‘साहिर’ मौलिक रूप से रोमाण्टिक शायर है। प्रेम की असफलता ने उसके दिलो-दिमाग़ पर इतनी कड़ी चोट लगाई कि जीवन की अन्य चिन्ताएँ पीछे जा पड़ी। बस एक प्रेम की बात हो तो कोई सह भी ले, लेकिन उन्हें तो जीवन में दो प्रेम असफलता मिली - पहला कॉलेज के दिनों में अमृता प्रीतम के साथ और दूसरी <b>सुधा मल्होत्रा</b> से। वे आजीवन अविवाहित रहे तथा उनसठ वर्ष की उम्र में २५ अक्टूबर १९८० को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया ।</blockquote><br />
’साहिर’ की ग़ज़लें बहुत कुछ ऐसा कह जाती हैं, जिसे आप अपनी आँखों में रोककर रखे होते हैं.. न चाहते हुए भी, मन मसोसकर आप उन जज्बातों को पीते रहते हैं। आपको बस एक ऐसे आधार की जरूरत होती है, जहाँ आप अपने मनोभावों को टिका सकें। यकीन मानिए.. बस इसी कारण से, बस यही उद्देश्य लेकर हम आज की गज़ल के साथ हाज़िर हुए हैं। ’साहिर’ के लफ़्ज़ और क्या करने में सक्षम हैं, यह तो आपको गज़ल सुनने के बाद हीं मालूम पड़ेगा.... सोने पे सुहागा यह है कि आपके अंदर घर कर बैठी कड़वाहटों को मिटाने के लिए "तलत महमूद" साहब की आवाज़ की "मिश्री" भी मौजूद है। तो देर किस बात की... पेश-ए-खिदमत है आज की गज़ल:<br />
<span style="font-weight: bold;"><br />
मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबाँ सी लिया मैंने <br />
ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैंने<br />
<br />
अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ये दिल में<br />
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैंने<br />
<br />
तुझे अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है<br />
कि कुछ घड़ियाँ तेरे ख़्वाबों में खो कर जी लिया मैंने<br />
<br />
बस अब तो मेरा _____ छोड़ दो बेकार उम्मीदो<br />
बहुत दुख सह लिये मैंने बहुत दिन जी लिया मैंने</span><br />
<br />
<script language="JavaScript" src="http://www.hindyugm.com/podcast/audio-player.js"></script><object data="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="300" height="30"> <param name="movie" value="http://www.hindyugm.com/podcast/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile= http://www.podtrac.com/pts/redirect.mp3?http://www.archive.org/download/mehfil-e-ghazalBadeShayar/mohabbatTarkKiMaineTalatSahir.mp3"><paramname="quality" value="high"></paramname="quality"></object><br />
<br />
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!<br />
<br />
इरशाद ....<br />
<br />
<a href="http://podcast.hindyugm.com/2010/06/aadmi-aadmi-se-milta-jigar-aabida.html">पिछली महफिल</a> के साथी -<br />
<br />
पिछली महफिल का सही शब्द था "सितम" और शेर कुछ यूँ था-<br />
<br />
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के<br />
वो कुछ इस सादगी से मिलता है<br />
<br />
पिछली महफ़िल की शान बने "नीरज रोहिल्ला" जी। एक-एक करके महफ़िल में और भी कई सारे मेहमान (मेरे हिसाब से तो आप स्ब घर के हीं है.. मेहमान कहकर मैं महफ़िल की रस्म-अदायगी कर रहा हूँ..बस) शामिल हुए। जहाँ शन्नो जी ने हमारी गलती सुधारी वहीं सुमित जी हर बार की तरह बाद में आऊँगा कहकर निकल लिए। जहाँ सीमा जी ने पहली मर्तबा अपने शेरों के अलावा कुछ शब्द कहे (भले हीं उन शेरों का मतलब बताने के लिए उन्हें अतिरिक्त शब्द महफ़िल पर डालने पड़े, लेकिन उनकी तरफ़ से कुछ अलग पढकर सुखद आश्चर्य हुआ :) ) ,वहीं अवनींद्र जी के शेर अबाध गति से दौड़ते रहें। मंजु जी और नीलम जी ने महफ़िल के अंतिम दो शेर कहे... इन दोनों में एक समानता यह थी कि जहाँ मंजु जी अपनी हीं धुन में मग्न थीं तो वहीं नीलम जी शन्नो जी की धुन में।<br />
<br />
इस तरह से एक सप्ताह तक हमारी महफ़िल रंग-बिरंगे लोगों से सजती-संवरती रही। इस दरम्यान ये सारे शेर पेश किए गए:<br />
<br />
दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद<br />
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद । (जिगर मुरादाबादी)<br />
<br />
तकदीर के सितम सहते जिन्दगी गुजर जाती है<br />
ना हम उसे रास आते हैं ना वो हमें रास आती है. (शन्नो जी)<br />
<br />
तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश, जानते हैं हम क्या है<br />
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़, तो सितम क्या है? (ग़ालिब)<br />
<br />
भरम तेरे सितम का खुल चुका है<br />
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ (फ़िराक़ गोरखपुरी)<br />
<br />
कितनी शिद्दत से ढाये थे सितम उसने <br />
अब मैं रोया तो ये इश्क मैं रुसवाई है (अवनींद्र जी)<br />
<br />
फूल से दिल पे उसका ये सितम देखो<br />
तोड़ के अपनी किताबों मैं सजाया उसने (अवनींद्र जी)<br />
<br />
शफा देता है ज़ख्मो को तुम्हारा मरहमी लहजा , <br />
मगर दिल को सताते हैं वो सितम भी तुम्हारे हैं (अवनींद्र जी)<br />
<br />
जिंदगी को याद आ रहे तेरे सितम ,<br />
धड़कने भुलाने की दे रही हैं कसम . (मंजु जी)<br />
<br />
सितम ये है कि उनके ग़म नहीं,<br />
ग़म ये है कि उनके हम नहीं (नीलम जी)<br />
<br />
<b>और अब एक महत्वपूर्ण सूचना:</b><br />
<br />
हम टिप्पणियों पे नियंत्रण (टिप्पणियों का "मोडरेशन") नहीं करना चाहते, इसलिए हम आपसे अपील करते हैं कि महफ़िल-ए-ग़ज़ल पर शायराना माहौल बनाए रखने में हमारी मदद करें। दर-असल कुछ कड़ियों से महफ़िल पे ऐसी भी टिप्पणियाँ आ रही हैं, जिनका इस आलेख से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें पढकर लगता है कि लिखने वाले ने बिना ग़ज़ल सुने, बिना आलेख पढे हीं अपनी बातें कह दी हैं। हमारे कुछ मित्रों ने महफ़िल की इस बिगड़ी स्थिति पर आपत्ति व्यक्त की है। <b>इसलिए हम आप सबसे यह दरख्वास्त करते हैं कि अपनी टिप्पणियों को यथा-संभव इस आलेख/गज़ल/शायर/संगीतकार/गुलूकार/शेर तक हीं सीमित रखें</b>। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप टिप्पणी देना या फिर महफ़िल में आना हीं बंद कर दें.. तब तो दूसरे मित्र आराम से जान जाएँगे कि हम किनकी बात कर रहे थे :)<br />
<br />
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!<br />
<br />
<span style="font-weight:bold;">प्रस्तुति - <a href="http://podcast.hindyugm.com/2008/09/vishwa-deepak-tanha-thoughts.html">विश्व दीपक</a></span><br />
<br />
<hr /><span style="font-weight:bold;">ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.</span>विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com19