भारतीय संगीत की अत्यन्त लोकप्रिय उपशास्त्रीय शैली "ठुमरी" का फिल्मों में प्रयोग विषयक जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के इस नए अंक में आपका स्वागत है| कल हमने "पछाहीं ठुमरी" के बेमिसाल रचनाकार और गायक ललनपिया का आपसे परिचय कराया था| मध्यलय और द्रुतलय में गायी जाने वाली बोल-बाँट या बन्दिश की पछाहीं ठुमरियों में लय का चमत्कार और चपलता का गुण होता है| आज की कड़ी में पछाहीं ठुमरियों पर चर्चा को आगे बढाते हैं| पछाहीं ठुमरियाँ अधिकतर ब्रज भाषा में होती हैं| पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ब्रज और बुन्देलखण्ड क्षेत्र के लोक संगीत का इन ठुमरियों पर विशेष प्रभाव पड़ा| दूसरी ओर इनकी रचना करने में घरानेदार गायकों, सितारवादकों और कथक-नर्तकों का विशेष योगदान होने के कारण इन पर परम्परागत राग-संगीत का भी प्रभाव पड़ा| इसलिए बोल-बाँट की ठुमरी रचनाओं में विविधता दिखाई देती है| कुछ ठुमरियों में ध्रुवपद की तरह आड़ और दुगुन आदि लयकारियों का प्रयोग भी मिलता है|
पूरब की ठुमरियाँ लोकधुनों और चंचल-हलकी प्रकृति के रागों तक सीमित हैं, वहीं पछांह की ठुमरियाँ कुछ गम्भीर प्रकृति के रागों को छोड़ कर प्रायः सभी रागों में मिलती हैं| अपने समय के श्रेष्ठ संगीतज्ञ रामकृष्ण बुआ बझे ने अपने ठुमरी-गुरु सादिक अली खाँ की ठुमरियों के सम्बन्ध में बताते हुए उल्लेख किया है कि बोल-बाँट की पछाहीं ठुमरियाँ स्थायी-अन्तरा वाले मध्यलय के ख़याल के सामान और प्रायः सभी रागों में पायी जाती है| बोल-बाँट की ठुमरी के रचनाकारों और गायकों में लखनऊ के वजीर मिर्ज़ा 'कदरपिया', महाराज बिन्दादीन बेगम आलमआरा तथा 'चाँदपिया', बरेली के तवक्कुल हुसैन 'सनदपिया', फर्रुखाबाद के 'ललनपिया', मथुरा के 'सरसपिया', दिल्ली के श्रीलाल गोस्वामी 'कुँवरश्याम', गोपाल, 'सुघरछैल', ग्वालियर के नज़र अली 'नज़रपिया' आदि संगीतज्ञ मुख्यरूप से उल्लेखनीय हैं| ये सभी संगीतज्ञ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर बीसवीं शताब्दी के पहले दो दशकों के बीच सक्रिय थे| बरेली के तवक्कुल हुसैन 'सनदपिया' रामपुर के सुप्रसिद्ध सितारवादक बहादुर हुसैन के शिष्य थे| उन्होंने अधिकतर ठुमरी रचनाएँ अपनी गुरु-परम्परा में प्रचलित तंत्रवाद्य की मध्य और द्रुतलयबद्ध गतों के अनुसार कीं|
ठुमरी एकल रूप में ही गाये जाने की परम्परा है| युगल ठुमरी गायन का उदाहरण कभी-कभी नृत्य में ही मिलता है| 1964 की एक फिल्म है- "मैं सुहागन हूँ", जिसमें युगल ठुमरी गायन का प्रयोग किया गया है| फिल्म के संगीत निर्देशक लच्छीराम ने इस परम्परागत ठुमरी को आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी के स्वरों में प्रस्तुत किया है| यह फिल्म संगीतकार लच्छीराम तँवर की सफलतम फिल्मों में से एक थी| फिल्म के नायक-नायिका अजीत और माला सिन्हा हैं परन्तु इस ठुमरी को फिल्म के सह कलाकारों- सम्भवतः केवल कुमार और निशि पर फिल्माया गया है| ठुमरी के अन्त में अभिनेत्री द्वारा तीनताल में तत्कार और टुकड़े भी प्रस्तुत किये गए हैं| मूलतः यह राग "देश" में निबद्ध बोल-बाँट की ठुमरी है| इसी ठुमरी को पकिस्तान की गायिका इकबाल बानो ने मध्यलय में बोल-बनाव के साथ गाया है| फिल्म "मैं सुहागन हूँ" में बन्दिश की ठुमरी के रूप में गाया गया है| आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी ने गायन में राग देश के स्वरों को बड़े आकर्षक ढंग से निखारा है| मोहम्मद रफ़ी ने इस गीत को सपाट स्वरों में गाया है किन्तु आशा भोसले ने स्वरों में मुरकियाँ देकर और बोलों में भाव उत्पन्न कर ठुमरी को आकर्षक रूप दे दिया है| आइए सुनते हैं, श्रृंगार रस से ओतप्रोत राग देश की यह ठुमरी -
क्या आप जानते हैं...
कि सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री माला सिन्हा अभिनय के साथ-साथ गायन में भी कुशल थीं| 50 के दशक में वह रेडियो कलाकार रहीं, किन्तु फिल्मों में उन्होंने कभी नहीं गाया| यहाँ तक कि उन्हें स्वयं की अभिनीत भूमिकाओं में भी अन्य पार्श्वगायिकाओं के स्वरों का सहारा लेना पड़ा|
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 13/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - एक बेहद सफल फिल्म की ठुमरी.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है रचना - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी लगातार अच्छा कर रहीं हैं, हालाँकि अभी भी वो अमित से पीछे हैं, पर हो सकता है कि ये बाज़ी उनके हाथ रहे, अवध जी आपने क्यों नहीं जवाब दिया वैसे :)
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
पीलू
ReplyDeleteMajrooh Sultanpuri
ReplyDeleteनही मालूम समय पर जवाब दे रही हूँ या देर से किन्तु 'चाहे तो मोरा जिया लईले 'मुझे बहुत पसंद है इसके संगीतकार जब रोशन जी जैसे व्यक्ति हो तो बेहतरीन ठुमरी,मुजरा गीत तो बनना ही था भाई.
ReplyDeleteअमितजी,क्षितिजी और इंदु बहिन को बधाई.
ReplyDelete'हमने उनके सामने पहले तो खंजर रख दिया, फिर कलेजा रख दिया और कहा...'
वाह! क्या बात है? इस ठुमरी का भी जवाब नहीं.
अवध लाल
संगीतकार लच्छीराम ने बहुत फ़िल्में तो नहीं की लेकिन संगीत प्रेमी उनके संगीत से सजी २ फ़िल्में यथा - मैं सुहागन हूँ जिसमें प्रस्तुत गीत के अलावा 'तू शोख कली मैं मस्त पवन','सब जवान सब हसीं' और रज़िया सुल्ताना का बेहतरीन नग़मा 'ढलती जाये रात कह लें दिल की बात' - के लिए हमेशा याद रखेंगे.
ReplyDeleteअवध लाल
अपने आलेख में मैं यह उल्लेख करना भूल गया कि फिल्म "मैं सुहागन हूँ" संगीतकार लच्छीराम की संगीत-यात्रा का अन्तिम पड़ाव था| क्षमाप्रार्थी हूँ|
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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