दोस्तों, संगीत की विविधताओं से भरे इस देश में ये दुर्भाग्य ही है कि आज कल हमें संगीत के नाम पर केवल फिल्म संगीत ही सुनने को मिल रहा है. और बहुत से कारणों के चलते इसमें भी कोई विविधता नज़र नहीं आ रही है. यहाँ तक कि फिल्म संगीत के सबसे बुरे माने जाने वाले ८० के दशक में भी गैर फ़िल्मी ग़ज़लों की अल्बम्स एक अलग तरह के श्रोताओं की जरूरतें पूरी कर रहीं थी, और उस दौर के युवा श्रोताओं के लिए भी बहुत सी गैर फ़िल्मी अल्बम्स जो रोक्क्, पॉप, डिस्को, आदि जोनर का प्रतिनिधित्व कर रहीं थी, उपलब्ध थी. पर आज के इस दौर में तो लगता है, गैर फ़िल्मी संगीत लगभग गायब हो चुका है क्योंकि सबपर फिल्म संगीत हावी हो चुका है. ढेरों टेलंट की खोजों के नाम पर बहुत से नए कलाकारों को एक मंच तो दिया जा रहा है पर कितने इंडियन आइडल्स को हम आज सुन पा रहे हैं कुछ नया करते हुए. संगीत के इस सूखे दौर में फिल्मों से इतर जो संगीत की कोशिशें हो रही है उनको पर्याप्त प्रोत्साहन मिलना चाहिए, ताकि सचमुच ये तथाकथित नया टेलंट वाकई में कुछ नया करने की गुन्जायिश पैदा कर सके और श्रोताओं को भी कुछ अलग, कुछ नया सुनने को मिल सके.
पिछले दिनों मैंने दो अल्बम्स का जिक्र किया था. आमिर खान प्रोडक्शन की "डेल्ही बेल्ली" जिसमें राम संपंथ ने बहुत ही अनूठा संगीत रचा है, पर विडम्बना देखिये कि अमिताभ भट्टाचार्य जैसे अच्छे गीतकार को भी इसमें "डी के बॉस" जैसे गीत लिखने पड़े (नाम डी के बॉस ही क्यों चुना गया इसे समझने के लिए आपको बहुत अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी). कहने का तात्पर्य ये है फिल्म संगीत में हमेशा ही कलाकारों को बंध कर ही काम करना पड़ता रहा है, इसी बंदिश को तोड़ने का एक प्रयास का जिक्र हमने किया था पिछले हफ्ते निलेश मिश्रा और उनके "बैंड कोल्ल्ड नाईन" की पेशकश "रिवाईंड" का जिक्र करते हुए. आज भी हम एक ऐसी ही अल्बम का जिक्र कर रहे हैं जो फ़िल्मी धारा की लीक को तोड़ने का ही एक प्रयास है. आज कि अल्बम का जिक्र करते हुए हमें इसलिए भी अधिक खुशी हो रही है, कि इसके सभी कलाकार यहीं अपने आवाज़ मंच से जुड़े हुए हैं और इस अल्बम को आवाज़ समर्थित संगीत लेबल "सोनोरे यूनिसन" ने जारी किया है. अल्बम का नाम है "मन जाने", आईये जरा तफ्तीश करें इस अल्बम में शामिल गीतों की.
अल्बम का पहला और शीर्षक गीत "मन जाने", आवाज़ के तीसरे संगीत सत्र का दूसरा गीत था, जिसे आपार लोकप्रियता मिली थी. आवाज़ पर गायिका कुहू का भी ये दूसरा गीत था, इससे पहले वो "काव्यनाद' अल्बम के लिए श्रीनिवास द्वारा स्वरबद्ध महादेवी वर्मा रचित "जो तुम आ जाते एक बार" गा चुकी थी. "मन जाने" में आवाज़ के सबसे पुराने और चर्चित संगीतकार ऋषि एस एकदम नए रूप में दिखे थे. ऋषि की अपनी आवाज़ में कुछ बोल हैं जो इस गीत को एक नया अंदाज़ देते हैं. कुहू की मधुर आवाज़ ने विश्व दीपक के सरल बोलों को बेहद अच्छे से उभारा है खास कर इन शब्दों में –
आगे जाके साँसें उसकी पी लूँ, मन बता
बैठे बैठे मर लूँ या कि जी लूँ, मन बता
"मन जाने" का एक "अनप्लग्ड" संस्करण भी है अल्बम में. जिसमें मुझे लगता है कि यदि ऋषि की आवाज़ वाला हिस्सा हटा दिया जाता तो और शानदार बन सकता था.
"चम्बल का दंगल" बताते हैं विश्व दीपक अगले गीत में इश्क को. "सैयां" एक पंजाबी अंदाज़ का गीत है जिसका नाम पहले "ढोल फॉर पीस" रखा गया था, बाद में जब इसी विरोधाभास को वी डी ने शब्द दिए तो नाम बदल कर "सैयां" रखा गया. कुहू की तरह एक और बहुत ही प्रतिभाशाली गायक हैं श्रीराम ईमनी, जिन्होंने इसे गाया है, खासकर इस गीत में जिस अंदाज़ से "इशक" बोला गया है कमाल है. ढोल का एफ्फेक्ट देकर एक अलग ही कलेवर रचा है ऋषि ने, जो हर बार कुछ नया करने में विश्वास रखते हैं. "सैयां" अपने बोल-संगीत और आवाज़ से आपको झुमा देगा निश्चित ही.
अगला गीत है "सुपारी" जिसकी शुरुआत बेहद शानदार सुनाई पड़ती है, कुहू एक गायिका के रूप में एक बिलकुल अलग रंग में मिलती है यहाँ. इस गीत में भी एक बार फिर वी डी इश्क को परिभाषित करते मिलते हैं. बैक अप आवाज़ देते हुए ऋषि कुछ कमाल सा कर जाते हैं जो गीत में समां सा बांध देते हैं. बोल देखिये –
अब मैं
छिल-छिल मरूँ…
या घट-घट जिऊँ
तिल-तिल मरूँ
या कट-कट जिऊँ
जिद्दी आँखें….
आँके है कम जो इसे,
फाँके बिन तोड़े पिसे,
काहे फिर रोए, रिसे…
वाह....ठेठ देसी शब्दों का इस्तेमाल गीत को और मुखरित करता है, एक और उदाहरण देखिये –
होठों के कोठों पे
जूठे इन खोटों पे
हर लम्हा सजती है
हर लम्हा रजती है…
टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है
…… नींदें उड़ीं!!
मैं हमेशा वी डी से कहता हूँ कि ये मुझे उनके लिखे गीतों में सबसे पसंद है, और जाहिर है इस अल्बम में भी ये मेरा सबसे पसंदीदा गीत है. हाँ गीत का नाम "कड़वी सुपारी" अधिक सटीक होता.
उभरते हुए गायक "पियूष कुमार" की आवाज़ में एक बहुत संक्षित गीत है –'दिल की दराजें". मर्ज़ हर ले मेरी.. रख ले मेरी मर्जी….इस गीत में ऋषि की आवाज़ उतनी प्रभावी नहीं हो पायी है. पियूष से यदि बोले गए शब्द कहलाये जाते तो शायद बेहतर परिणाम मिल सकते थे. एलबम का अंतिम गीत है "इलाही" जिसमें श्रीराम का साथ दिया है गायिका श्रीविध्या कस्तूरी ने, यहाँ वी डी ने जिगर मुरादाबादी के शेर को आगे बढाते हुए गीत की रचना की है –
हम कहीं जाने वाले हैं दामन-ए-इश्क़ छोड़कर,
ज़ीस्त तेरे हुज़ूर में, मौत तेरे दयार में.....
आगे वी डी लिखते हैं – "हमने जिगर की बातें सुनी है, मीलों आखें रखके रातें सुनी है....", गुलज़ार साहब याद आ गए न. खैर वी डी के आदर्श हैं गुलज़ार साहब तो कहीं न कहीं उनका प्रभाव आना लाजमी भी है. हालांकि इस शांत प्रार्थना सरीखे सूफी गीत में वी डी कुछ नए तो कुछ बेहद कम इस्तेमाल होने वाले शब्दों से भी खेलते हैं जैसे शाहे-खुबां, कासा-कलगी, सूफ़ी- साकी, हर्फ़े-हस्ती आदि. ऋषि को सूफी में डुबो देने वाली कशिश पैदा करने के लिए शायद अभी थोड़ी और मेहनत करनी पड़ेगी. श्रीविध्या की आवाज़ में ताजगी है वहीँ श्रीराम कुछ छोटी छोटी कमियों के बावजूद गीत को अच्छा निभा पाए हैं. अल्बम के अंत में वी डी का ये शेर आपको अवश्य प्रभावित कर पायेगा –
एक तेरे इश्क़ में डूबकर हमें मौत की कमी न थी,
पर जी गए तुझे देखकर, हमें ज़िंदगी अच्छी लगी।
तो दोस्तों जिंदगी यक़ीनन अच्छी लगेगी अगर आप भी नए नए संगीत का यूहीं आनंद लेते रहें, और जो वाकई अच्छा है उसे न सिर्फ सुनें सराहें बल्कि अपने मित्रों को भी सुझाएँ, सुनाएँ. फिलहाल हम आपको छोड़ते हैं सोनोरे यूनिसन की इस पहली अल्बम "मन जाने" के गीतों के साथ.
आवाज़ रेटिंग - 8.5/10
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
is album se juDe sabhi kalaakaaron ko badhaai
ReplyDeleteSujoy
बहुत बहुत बधाइयाँ
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