जब रंजना भाटिया "रंजू" ,रूबरू हुई गुलज़ार की कलम के तिलिस्म से ...
मैं जब छांव छांव चला था अपना बदन बचा कर
कि रूह को एक खूबसूरत जिस्म दे दूँ
न कोई सिलवट .न दाग कोई
न धूप झुलसे, न चोट खाएं
न जख्म छुए, न दर्द पहुंचे
बस एक कोरी कंवारी सुबह का जिस्म पहना दूँ, रूह को मैं
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से
जो गुजरा
तो रूह को छांव मिल गई है .
अजीब है दर्द और तस्कीं [शान्ति ] का साँझा रिश्ता
मिलेगी छांव तो बस कहीं धूप में मिलेगी ...
जिस शख्स को शान्ति तुष्टि भी धूप में नज़र आती है उसकी लिखी एक एक पंक्ति, एक एक लफ्ज़ के, साए से हो कर जब दिल गुजरता है, तो यकीनन् इस शख्स से प्यार करने लगता है सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्जों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है। मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रचबस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी की बात चलती है तो बीहड़ों में उतर जाते हैं, बर्फीली पहाडियों में रम जाते हैं। रिश्तों की बात हो वे जुलाहे से भी साझा हो जाते हैं। दिल में उठने वाले तूफान, आवेग, सुख, दुख, इच्छाएं, अनुभूतियां सब उनकी लेखनी से चल कर ऐसे आ जाते हैं जैसे कि वे हमारे पास की ही बातें हो।
तुम्हारे गम की डली उठा कर
जुबान पर रख ली हैं मैंने
वह कतरा कतरा पिघल रही है
मैं कतरा कतरा ही जी रहा हूँ
पिघल पिघल कर गले से उतरेगी ,आखरी बूंद दर्द की जब
मैं साँस की आखरी गिरह को भी खोल दूंगा ----
जब हम गुलजार साहब के गाने सुनते हैं तो .एहसास होता है की यह तो हमारे आस पास के लफ्ज़ हैं पर अक्सर कई गीतों में गुलज़ार साब ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो श्रोता को चकित कर देते हैं.जैसे की उन्होने कोई जाल बुना हो और हम उसमें बहुत आसानी से फँस जाते हैं. दो अलग अलग शब्द जिनका साउंड बिल्कुल एक तरह होता है और वो प्रयोग भी इस तरह किए जा सकते हैं की कुछ अच्छा ही अर्थ निकले गीत का...गुलज़ार साब ने अक्सर ही ऐसा किया है.इसे हम गुलज़ार का तिलिस्म भी कह सकते हैं.
मरासिम एलबम की एक ग़ज़ल है -
“हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते.....”
इस ग़ज़ल में एक शेर है-
“शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिए दिल नहीं थोड़ा करते”
कितना आसान है दूसरे मिसरे में थोड़ा को तोड़ा सुन लेना.और उसका मतलब भी बिल्कुल सटीक बैठता है. मगर यही जादू है गुलज़ार साब की कलम का. साउंड का कमाल.
आर डी बर्मन और गुलजार की जोड़ी के कमाल को कौन नही जानता..."मेरा कुछ सामान..." गाना जब गुलज़ार ने RD के सामने रखा तो पढ़कर बोले - अच्छे संवाद हैं...पर गुलज़ार जानते थे कि RD को किस तरह समझाना है कि ये संवाद नही बल्कि गीत है जिसे वो स्वरबद्ध करना चाहता थे अपनी नई फ़िल्म "इजाज़त" के लिए, लगभग दो महीने बाद मौका देखकर उन्होंने इसी गीत को फ़िर रखा RD के सामने और इस बार आशा जी भी साथ थी, बर्मन साब कहने लगे "भाई एक दिन तुम अखबार की ख़बर उठा लाओगे और कहोगे कि लो इसे कम्पोज करो..." पर तभी आशा जी ने गीत के बोल पढ़े और कुछ गुनगुनाने लगी, बस RD को गाने का मर्म मिल गया और एक कालजयी गीत बना. गुलज़ार और आशा दोनों ने इस गीत के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीता. (जाने पंचम दा कैसे पीछे छूट गए)..एक सौ सोलह चाँद की रातें...एक तुम्हारे कांधे का तिल....वाह क्या बात है....गुलज़ार साब की.
जरा याद कीजिये घर का वह गाना ..."आप की आँखों में" ..इस से ज्यादा रोमांटिक गाना मेरे ख्याल से कोई नही हो सकता है इस में गाये किशोर दा की वह पंक्ति जैसे दिल की तारों को हिला देती है .."लब खिले तो मोंगरे के फूल खिलते हैं कहीं ..." और फ़िर लो पिच पर यह "आपकी आंखों में क्या साहिल भी मिलते हैं कहीं .....आपकी खामोशियाँ भी आपकी आवाज़ है ..." और लता जी की एक मधुर सी हलकी हँसी के साथ "आपकी बदमाशियों के यह नए अंदाज़ है ...".का कहना जो जादू जगा देता है वह कमाल सिर्फ़ गुलजार ही कर सकते हैं अपने लफ्जों से .....
ज़िंदगी के हर रंग को छुआ है उन्होंने अपनी कही नज्मों में, गीतों में ...कुदरत के दिए हर रंग को उन्होंने इस तरह अपनी कलम से कागज में उतारा है, जो हर किसी को अपना और दिल के करीब लगता है, इतना कुदरत से जुडाव बहुत कम रचना कार कर पाये हैं, फिल्मों में भी, और साहित्य में भी .
मैं कायनात में ,सय्यारों में भटकता था
धुएँ में धूल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कट कर जो लम्हा .उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ
लबों से चूम लो आंखो से थाम लो मुझको
तुम्हारी कोख से जनमू तो फ़िर पनाह मिले ..
फ़िर मिलूंगी आपसे दोस्तों, गुलज़ार साहब के कुछ और अहसास लेकर तब तक आनंद लें उनके लिखे इस लाजवाब गीत का, संगीत इलयाराजा का है.
- रंजना भाटिया
( हिंद युग्म )
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16 श्रोताओं का कहना है :
ranjana ji bahut khoob likha hai...badhia
धूप में छाँव की
मौजूदगी का एहसास
करा दिया आपने.
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शुक्रिया
डा.चन्द्रकुमार जैन
रंजना जी,
आपकी लेखनी भी गुलज़ार के गीतों और बोलों की तरह ही एक तिलिस्म बुन रही है, जिसमें कम से कम मैं तो फँस गया था, अभी भी निकल नहीं पाया हूँ। बहुत सुंदर आलेख है।
bahut acchha likha hai aapney ranju di, par jahan tak mujhey yaad pad rahaa hai is pankti meतुम्हारे गम की डाली उठा कर me daali n hokar dali hai...shayad type gadbad ho gaya ho.. agar mai galat huun to maafi chahungi..
Shukriya mere pasandeeda geetkaar ke bare mein itne pyare andaaz mein likhne ke liye.
ranjana ji ! is ehsaas ko banaaye rakhiye. gulzaar sahab ki kalam anmool hai.
VINAY Chaturvedy
आपका प्रयास निस्सन्देह प्रशंसात्मक है
पारुल जी, शुक्रिया...भूल सूधार दी गई है ....
रंजना जी, बहुत खूब जितने खूबसूरत गुलजा़र जी के गीत उतनी ही खूबसूरत आपकी कलम. वैसे डली से मतलब बढिया निकलता है ।
लाजवाब है गुलजार साहब और बहुत बढीया है आपका लेख |
-- अवनीश तिवारी
Ranjana ji
gulzar sahab ke bare mein padhe sabhi uttam lakhon mein se ek hai. agar main is lekh ko faviourte bana pata to zaroor bana pata, aapki lakhni mein bhi jadoo hai. Gulaza sahab ko aapne apni lekhni mein bakhoobi piroya hai.
regards
Manuj Mehta
रंजू जी ,
गुलज़ार साहब की कलम का जादू तो सभी पर चला हुआ है , किंतु आज आपकी कलम का जादू भी कुछ कम नहीं है , बहुत ही सुंदर शब्दों में आपने गुलज़ार जी के बारे में लिखा है , सचमुच पढ़ कर बहुत अच्छा लगा . बधाई
guljar sahab apne kalm ke jariye
sabdo ka to char chand lagahi dete hai lekin ---- unke tarif ke bakha ne aap ke bhi sabdo ke char chand lag gaye hai-- wakay main baut hi khubsurat andaz main aap ni saddoo ko dala hai--- jai .kumar
EK WAQT THA JAB MERE AANSOO RUK NAHI PAAYE THE JAB MAINE PAHLI BAAR YEH PANKTIYAAN PADHI...TUMHI SE JANMOO TOH SHAYAD MUJHE PANAAH MILE..PREM KEE INTEHAA HAI YEH
बेहतरीन, निःशब्द करती प्रस्तुति
बेहतरीन प्रस्तुति ...
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