Saturday, December 19, 2009

नज़र फेरो ना हम से, हम है तुम पर मरने वालों में...जी एम् दुर्रानी साहब लौटे हैं एक बार फिर महफ़िल में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 295

र आज बारी है पराग सांकला जी के पसंद के पाँचवे और फिलहाल अंतिम गीत को सुनने की। अब तक आप ने चार अलग अलग गायक, गीतकार और संगीतकारों के गानें सुने। पराग जी ने अपने इसी विविधता को बरक़रार रखते हुए आज के लिए चुना है दो और नई आवाजों और एक और नए गीतकार - संगीतकार जोड़ी को। सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'दीदार' से जी. एम. दुर्रानी और शम्शाद बेग़म की आवाज़ों में शक़ील बदायूनी की गीत रचना, जिसे सुरों में ढाला है नौशाद साहब ने। और गीत है "नज़र फेरो ना हम से, हम है तुम पर मरने वालों में, हमारा नाम भी लिख लो मोहब्बत करने वालों में"। पाश्चात्य संगीत संयोजन सुनाई देती है इस गीत में। लेकिन गीत को कुछ इस तरह से लिखा गया है और बोल कुछ ऐसे हैं कि इस पर एक बढ़िया क़व्वाली भी बनाई जा सकती थी। लेकिन शायद कहानी की सिचुयशन और स्थान-काल-पात्र क़व्वाली के फ़ेवर में नहीं रहे होंगे। फ़िल्म 'दीदार' १९५१ की नितिन बोस की फ़िल्म थी जिसमें अशोक कुमार और दिलीप कुमार पहली बार आमने सामने आए थे। फ़िल्म की नायिकाएँ थीं नरगिस और निम्मी। इस फ़िल्म के युं तो सभी गानें हिट हुए थे लेकिन लता और शम्शाद की आवाज़ों में "बचपन के दिन भुला ना देना" ख़ासा लोकप्रिय हुआ था और आज भी लोग इसे चाव से सुनते हैं। इन दो गायिकाओं के गाए युगल गीतों में यह गीत एक बहुत ऊँचा मुकाम रखता है।

आज दूसरी बार हम इस महफ़िल पर दुर्रानी साहब की आवाज़ सुन रहे हैं। इससे पहले फ़िल्म 'दिलरुबा' में हमने उनकी आवाज़ सुनी थी गीता दत्त के साथ "हमने खाई है जवानी में मोहब्बत की क़सम" गीत में। आइए आज दुर्रानी साहब से जुड़ी कुछ बातें आपको बताएँ। जी. एम दुर्रानी साहब का जन्म सन् १९१९ में पेशावर में हुआ था। १६ साल की उम्र में ही वो अपनी क़िस्मत आज़माने बम्बई चले आए। दो चार फ़िल्मों में उन्होने अभिनय किया लेकिन अभिनय का काम उन्हे अच्छा नहीं लगा। वापस घर नहीं लौटना चाहते थे, इसलिए बम्बई में ही हाथ पैर मार कर रेडियो में ड्रामा आर्टिस्ट बन गए। उन्होने फ़िल्म संगीत में क़दम रखना शुरु किया जाने पहचाने निर्माता निर्देशक और अभिनेता सोहराब मोदी के मिनर्वा कंपनी में। लेकिन यह कंपनी भी बंद हो गई और वो वापस रेडियो से जुड़े रहे। क़िस्मत एक बार फिर उन्हे फ़िल्म संगीत में खींच लाई जब नौशाद साहब ने उन्हे अपनी फ़िल्म 'दर्शन' में गीत गाने का मौका दिया। 'दर्शन' की हीरोइन थीं ज्योति जिनका असली नाम था सितारा बेग़म। और सितारा जी इस मधूर आवाज़ वाले हैंडसम पठान पर मर मिटीं और दोनों की हो गई शादी। और फिर कुछ ही बरसों में शुरु हुआ जी. एम. दुर्रानी साहब के गाए गीतों का वह ज़बरदस्त कामयाब दौर जिसमें उनका नाम चमकता ही गया। उनकी आवाज़ कई फ़िल्मों में सुनाई देने लगी। मगर उनके गाए हुए गीतों की कामयाबी का यह दौर करीब ६-७ साल ही चला, यानी कि १९४३ से लेकर १९५१ तक। और फिर न जाने क्या हुआ कि फ़िल्मी दुनिया उनसे दूर होती चली गई। बरसों बरस पहले १९७८ में दुर्रानी साहब ने अमीन सायानी को एक इंटरव्यू दिया था। उसी इंटरव्यू के अंश संजो कर अमीन भाई ने 'संगीत के सितारों की महफ़िल' में दुर्रानी साहब के गीतों की महफ़िल सजाई थी। कार्यक्रम शुरु करते हुए अमीन भाई ने कुछ इस तरह से कहा था - "दुर्रानी साहब सितारे थे एक नहीं तीन तीन दायरों के थे। जी हाँ, गायन भी, ऐक्टिंग् भी और ब्रॊडकास्टिंग् भी। जी हाँ, आप ही का जो वह रेडियो है ना, उसके भी वो बादशाह हुआ करते थे किसी ज़माने में। मुझे याद है बहनों और भाइयों कि १९७८ में जब वो हमारे स्टुडियो में आए थे तब उनके शोहरत का ज़माना बीत चुका था, और दुर्रानी साहब ने एक आह सी भर के अपने बारे में यह शेर मुझे सुनाया था - "जला है जिस्म मगर दिल भी जल गया होगा, क़ुरेदते हो जब राख़ जुस्तजु क्या है?" मैने दुर्रानी साहब को यक़ीन दिलाया था कि उनके गीतों की गूँज शायद कम हो गई हो, मगर जनता के दिलों में उनकी आवाज़ अभी तक बसी हुई है।" तो दोस्तों, आइए आज का यह गीत सुनते हैं जो दुर्रानी साहब के करीयर के अंतिम गीतों में से एक है। शम्शाद बेग़म से जुड़ी बातें हम फिर किसी दिन करेंगे।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. दक्षिण के एक मशहूर संगीतकार का रचा एक अमर गीत.
२. फिल्म की नायिका भी संगीतकार की पत्नी थी.
३. भारत व्यास के लिखे इस युगल गीत में चार अलग अलग रागों का अद्भुत संगम है.

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह इंदु जी आपको तो मानना पड़ेगा...सही जवाब भी देते हो और उस पर ये भोला पन :), सवाल में हमने ज़रा घुमा कर पुछा था, जो अब तक आप समझ चुकी होंगी. मात्र ५ जवाब दूर हैं अब आप.....बहुत बधाई....दिलीप जी आपका इनपुट बहुत बढ़िया लगा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: हरिशंकर परसाई की "ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने मुंशी प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य "ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय मात्र 5 मिनट 3 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। ।
~ हरिशंकर परसाई (1922-1995)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

हम एक मरे हुए आदमी के नाम से जाली राशन कार्ड बनवाकर भेज रहे हैं।
(हरिशंकर परसाई के व्यंग्य "ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड" से एक अंश)


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(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
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#Fifty First Story, Greeting Card Aur Ration Card: Harishankar Parsai/Hindi Audio Book/2009/45. Voice: Anurag Sharma

Friday, December 18, 2009

मोहब्बत तर्क की मैने...तलत की कांपती आवाज़ का जादू



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 294

ज पराग सांकला जी की पसंद पर बारी है तलत महमूद साहब के मख़मली आवाज़ की। १९५१ में 'आराम' और 'तराना' जैसी हिट म्युज़िकल फ़िल्में देने के बाद अनिल बिस्वास के संगीत में १९५२ में प्रदर्शित हुए दो फ़िल्में - 'आकाश' और 'दोराहा'। हालाँकि ये दोनों फ़िल्में ही बॊक्स ऒफ़िस पर असफल रही, लेकिन इनके गीतों को, ख़ास कर फ़िल्म 'दोराहा' के गीतों को लोगों ने पसंद किया। दिलीप कुमार के बाद 'दोराहा' में अनिल दा ने तलत साहब की मख़मली अंदाज़ का इस्तेमाल किया अभिनेता शेखर के लिए। दिल को छू लेनेवाली और पैथोस वाले गानें जैसे कि "दिल में बसा के मीत बना के भूल ना जाना प्रीत पुरानी", "तेरा ख़याल दिल से मिटाया नहीं कभी, बेदर्द मैने तुझको भुलाया नही अभी", और "मोहब्बत तर्क की मैने गरेबाँ चीर लिया मैने, ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैने" इस फ़िल्म के सुपरहिट गानें रहे हैं। दोस्तों, आज है इसी तीसरे गीत की बारी। अनिल दा फ़िल्मों के लिए हल्के फुल्के अदाज़ में ग़ज़लें बनाने के लिए जाने जाते थे जिन्हे आम जनता आसानी से गुनगुना सके। इस फ़िल्म के गानें उनके इसी खासियत को उजागर करते हैं। शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी ने ये ख़ूबसूरत बोल लिखे हैं। युं तो सचिन देव बर्मन के संगीत में साहिर साहब के पहले पहले गानें फ़िल्म 'नौजवान' और 'बाज़ी' जैसी फ़िल्मों में सुने गए थे सन् १९५१ मे। लेकिन साहिर साहब ने पहली दफ़ा अनिल दा के साथ ही काम किया था सन् १९५० में इसी 'दोराहा' फ़िल्म में। लेकिन फ़िल्म बनते बनते दो साल निकल गए और १९५२ में जाकर यह फ़िल्म और इसके गानें प्रदर्शित हुए।

आज जब एक साथ अनिल दा और तलत महमूद साहब की बात चली है तो आपको यह याद दिला दें, हालाँकि आपको मालूम ही होगा, कि तलत साहब को पहली बार किसी फ़िल्म में गवाने का श्रेय अनिल दा को ही जाता है। फ़िल्म 'आरज़ू' में "ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल" गीत गा कर ही तलत साहब रातों रात मशहूर हो गए थे। तलत साहब जब बम्बई में जमने लगे थे तब एक अफ़वाह फ़ैल गई कि वो गाते वक़्त नर्वस हो जाते हैं। उनके गले की लर्जिश को नर्वसनेस का नाम दिया गया, जिससे उनके करीयर पर विपरीत असर होने लगा था। तब अनिल बिस्वास ने यह बताया कि उनके गले की यह कंपन ही उनकी आवाज़ की खासियत है। जब अनिल दा के पास तलत गाना रिकार्ड करने पहुँचे तो जान बूझ कर उन्होने बिना कंपन के गाना गाया। इससे अनिल दा बहुत नाराज़ हुए और कहा कि उनकी उस कंपन के लिए ही वो उनसे वह गाना गवाना चाहते हैं और उनको उनके गले की वही लर्जिश चाहिए। इससे तलत साहब का हौसला बढ़ा और एक के बाद एक बेहतरीन गीत गाते चले गए, और यह फ़ेहरिस्त लम्बी, और लम्बी होती चली गई। दोस्तों, आज हम उस फ़ेहरिस्त पर नहीं जाएँगे, बल्कि अब जल्दी से आपको सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'दोराहा' में तलत साहब की मख़मली आवाज़।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. शकील नौशाद की जोड़ी का है ये नग्मा जिसे चुना है पराग जी ने.
२. इसी फिल्म में लता और शमशाद का गाया एक मशहूर युगल गीत भी था.
३. मुखड़ा शुरू होता है इस शब्द से -"नज़र".

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी एक कदम और मंजिल की तरफ आपका...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, December 17, 2009

बहाए चाँद ने आँसू ज़माना चांदनी समझा...हेमंत दा का गाया एक बेमिसाल गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 293

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है पराग सांकला जी के चुने हुए गीतों को सुनवाने का सिलसिला। गीता दत्त और राजकुमारी के बाद आज जिस गायक की एकल आवाज़ इस महफ़िल में गूँज रही है, उस आवाज़ को हम सब जानते हैं हेमंत कुमर के नाम से। हेमंत दा की एकल आवाज़ में इस महफ़िल में आप ने कई गानें सुनें हैं जैसे कि कोहरा, बीस साल बाद, सोलवाँ साल, काबुलीवाला, हरीशचन्द्र, अंजाम, और जाल फ़िल्मों के गानें। आज पराग जी ने हेमंत दा की आवाज़ में जिस गीत को चुना है, वह है १९५५ की फ़िल्म 'लगन' का - "बहाए चाँद ने आँसू ज़माना चांदनी समझा, किसी की दिल से हूक उठी तो कोई रागिनी समझा"। इस गीत के बोल जितने सुंदर है, जिसका श्रेय जाता है गीतकार राजेन्द्र कृष्ण को, उतना ही सुंदर है इसकी धुन। हेमन्त दा ही इस फ़िल्म के संगीतकार भी हैं। हेमन्त कुमार और राजेन्द्र कृष्ण ने एक साथ बहुत सारी फ़िल्मों में काम किया है और हर बार इन दोनों के संगम से उत्पन्न हुए हैं बेमिसाल नग़में। आज का प्रस्तुत गीत भी उन्ही में से एक है। चाँद और चांदनी पर असंख्य गीत और कविताएँ लिखी जा चुकी हैं और आज भी लिखे जा रहे हैं। लेकिन शायद ही किसी और ने चांदनी को चाँद के आँसू के रूप में प्रस्तुत किया होगा। बहुत ही मौलिक और रचनात्मक लेखन का उदाहरण प्रस्तुत किया है राजेन्द्र जी ने इस गीत में। गीत का मूल भाव तो यही है कि किसी की मुस्कुराहटों के पीछे भी कई दुख तक़लीफ़ें छुपी हो सकती हैं जिसे दुनिया नहीं देख पाती। अगर इस गीत को 'छाया गीत' में शामिल किया जाए तो शायद उसमें जो अगला गीत बजेगा वह होगा "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो"। ख़ैर, ये तो बात की बात थी, आज हम बात करते हैं फ़िल्म 'लगन' की।

सन् १९५५ में हेमंत कुमार ने कुल चार फ़िल्मों में संगीत दिया था। ये फ़िल्में हैं 'बहू', 'बंदिश', 'भागवत महिमा', और 'लगन'। 'लगन' 'ओपी फ़िल्म्स' के बैनर तले बनी थी, जिसका निर्माण व निर्देशन किया था ओ. पी. दत्ता ने। सज्जन, नलिनी जयवंत और रणधीर इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार रहे। आइए आज कुछ बातें करें राजेन्द्र कृष्ण साहब के बारे में। पिछली बार जब हमने उनका ज़िक्र किया था तो उनके शुरुआती दिनों के बारे में आपको बताया था कि किस तरह से वे फ़िल्म जगत में शामिल हुए थे और १९४९ में संगीतकार श्यामसुंदर के लिए उन्होने लिखे थे 'लाहोर' फ़िल्म के गानें जो बेहद मक़बूल हुए थे। लगभग उसी समय फ़िल्म 'बड़ी बहन' आयी जिसमें संगीतकार थे हुस्नलाल भगतराम। एक बार फिर राजेन्द्र जी के गीत संगीत रसिकों के होठों पर चढ़ गये। राजेन्द्र साहब तमिल भाषा के भी अच्छे जानकार थे। इसलिए मद्रास की नामचीन कंपनी 'एवीएम' के वे पहली पसंद बन गए, और 'एवीएम' के साथ साथ और भी कई तमिल फ़िल्म कंपनियों के साथ जुड़ गए। उस समय इन कंपनियों की लगभग सभी फ़िल्मों की पटकथा के अलावा इन फ़िल्मों में उन्होने गीत भी लिखे। राजेन्द्र कृष्ण ने कुछ १०० फ़िल्मों के पटकथा लिखे, और ३०० से अधिक फ़िल्मों में गानें लिखे। अपने समय के लगभग सभी नामचीन संगीतकारों के साथ उन्होने काम किया है। लेकिन सी. रामचन्द्र, मदन मोहन और हेमन्त कुमार के साथ उनकी ट्युनिंग् सब से बढ़िया जमी और इन संगीतकारों के लिये उन्होने लिखे अपने करीयर के बेहतरीन गानें। राजेन्द्र कृष्ण कुछ हद तक 'अंडर-रेटेड' ही रह गए। उनकी उतनी ज़्यादा चर्चा नहीं हुई जितनी कि साहिर, शैलेन्द्र, मजरूह जैसे गीतकारों की हुई, लेकिन अगर उनकी फ़िल्मोग्राफ़ी और म्युज़िकोग्राफी पर ध्यान दिया जाए तो पाएँगे कि एक से एक उत्कृष्ट गानें वो छोड़ गए हैं, जो किसी भी दृष्टि से इन दूसरे 'नामी' गीतकारों के मुक़ाबले कुछ कम नहीं थे। ख़ैर, आइए अब गीत सुना जाए...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. अभिनेता शेखर के लिए तलत ने गाया है इसे.
२. संगीतकार वो हैं जिन्होंने तलत से उनका पहला गीत गवाया था.
३. मुखड़े में शब्द है -"जहर".

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी एक और सही जवाब, बधाई....आप यात्रा का आनंद लें और सकुशल लौटें....हम राह देखेंगें, ऐसा अपनों के साथ ही होता है न ?:)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, December 16, 2009

घबरा के जो हम सर को टकराएँ तो अच्छा है...दर्द भरा बेहद मशहूर गीत राजकुमारी का गाया



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 292

राग सांकला जी के पसंद का दूसरा गाना है १९४९ की फ़िल्म 'महल' का। जहाँ एक तरफ़ इस फ़िल्म में "आयेगा आनेवाला" गीत गा कर लता मंगेशकर को अपना पहला पहला बड़ा ब्रेक मिला था, वहीं गायिका राजकुमारी ने भी इस फ़िल्म में अपने करीयर का एक बड़ा ही कामयाब गीत गाया था। यह गीत है "घबरा के जो हम सर को टकराएँ तो अच्छा है", जिसे आज हम पराग जी की फ़रमाइश पर सुनने जा रहे हैं। 'महल' बॊम्बे टॊकीज़ की फ़िल्म थी, जिसमें संगीत दिया खेमचंद प्रकाश ने और गानें लिखे नकशब जराचवी ने, जिन्हे हम जे. नकशब के नाम से भी जानते हैं। 'महल' एक सस्पेन्स थ्रिलर फ़िल्म थी, जो एक ट्रेंडसेटर फ़िल्म साबित हुई। हुआ युं था कि बॊम्बे टॊकीज़ मलाड का एक विस्तृत इलाका संजोय हुए था। उस कैम्पस में बहुत से लोग रहते थे, बॊम्बे टॊकीज़ के कर्मचारियों के बच्चों के लिए स्कूल भी उसी कैम्पस के अंदर मौजूद था। एक बार एक ऐसी अफ़वाह उड़ी कि उस कैम्पस में भूत प्रेत बसते हैं, और यहाँ तक भी कहा गया कि स्वर्गीय हिमांशु राय का जो बंगला था, उसमें भी भूत हैं। यह बात जब दादामुनि अशोक कुमार ने कमाल अमरोही साहब से कहे तो कमाल साहब को पुनर्जनम पर एक कहानी सूझी और आख़िरकार फ़िल्म 'महल' के रूप में वह पर्दे पर आ ही गई। अशोक कुमार, मधुबाला और विजयलक्ष्मी ने इस फ़िल्म में मुख्य किरदार निभाए। एक सुपर डुपर हिट म्युज़िकल फ़िल्म है 'महल', जिसे हिंदी सिनेमा का एक लैंडमार्क फ़िल्म माना जाता है।

'महल' में लता जी ने मधुबाला का पार्श्वगायन किया था और राजकुमारी ने गाए विजयलक्ष्मी के लिए। अमीन सायानी को दिए गए एक पुराने इंटरव्यू में राजकुमारी जी ने ख़ास कर इस फ़िल्म के गीतों के बारे में कहा था - "महल में मेरे चार गानें थे, और चारों गानें काफ़ी अच्छे थे और लोगों ने काफ़ी पसंद भी किए। दो अब भी याद है लोगों को। और अभी भी कभी कभी वो महल पिक्चर रिलीज़ होती रहती है। "मैं वह दुल्हन हूँ रास ना आया जिसे सुबह", इसे विजयलक्ष्मी के लिए गाया था।" लेकिन जिस गीत के लिए वो जानी गईं, वह गीत है "घबरा के जो सर को टकराएँ तो अच्छा हो"। यह गीत इतना ज़्यादा हिट हुआ कि उसके बाद राजकुमारी जिस किसी भी पार्टी या जलसे में जातीं, उन्हे इस गीत के लिए फ़रमाइशें ज़रूर आतीं। हक़ीक़त भी यही है कि यह गीत उनके आख़िर के दिनों में उनका आर्थिक सहारा भी बना। राजकुमारी ने सब से ज़्यादा गानें ४० के दशक में गाए, और ५० के दशक के शुरुआती सालों में भी उनके गानें रिकार्ड हुए। जिन फ़िल्मों में उनके हिट गानें रहे, उनके नाम हैं - बाबला, भक्त सूरदास, बाज़ार, नर्स, पन्ना, अनहोनी, महल, बावरे नैन, आसमान, और नौबहार। दोस्तों, अमीन सायानी के उसी इंटरव्यू में जब अमीन भाई ने उनसे पूछा कि उन्होने फ़िल्मों के लिए गाना क्यों छोड़ दिया, तो उसके जवाब में राजकुमारी जी ने अफ़सोस व्यक्त हुए कहा कि "मैनें फ़िल्मों के लिए गाना कब छोड़ा, मैने छोड़ा नहीं, मैने कुछ छोड़ा नहीं, वैसे लोगों ने बुलाना बंद कर दिया। अब यह तो मैं नहीं बता पाउँगी कि क्यों बुलाना बंद कर दिया"। बहुत ही तक़लीफ़ होती है किसी अच्छे कलाकार के मुख से ऐसे शब्द सुनते हुए। ऐसे बहुत से कलाकार हैं जिन्हे बदलते वक़्त ने अपने चपेट में ले लिया और लोगों ने भी उन्हे धीरे धीरे भुला दिया। राजकुमारी एक ऐसी ही गायिका हैं जिन्होने बहुत से सुरीले और कर्णप्रिय गानें गाए हैं, और आज का यह अंक हम उन्ही को समर्पित कर रहे हैं। सुनते हैं फ़िल्म 'महल' का गीत और शुक्रिया पराग जी का इस गीत को चुनने के लिए। सुनिए...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस गीत को गाया है हेमंत कुमार ने.
२. ओ पी दत्ता निर्देशित इस फिल्म में नलनी जयवंत भी थी.
३. मुखड़े में शब्द है "आंसू".

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी अब आप मात्र ७ जवाब दूर हैं ५० के आंकडे से....पर आपके पास एपिसोड भी केवल ८ हैं इस लक्ष्य को पाने के लिए, यदि आप ऐसा कर पायीं तो ये ओल्ड इस गोल्ड के इतिहास में एक रिकॉर्ड होगा, सबसे तेज़ अर्धशतक ज़माने का.....हमारी तरफ से अग्रिम बधाई स्वीकार करें, अनुराग जी आपको इस महफ़िल में देख अच्छा लगा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

नशे में था तो मैं अपने ही घर गया कैसे...रहबर पर चाँदपुरी का यकीन, साथ है मेहदी हसन की आवाज़



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६२

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की दूसरी गज़ल लेकर। शामिख जी की इस बार की फरमाईश हमारे लिए थोड़ी मुश्किल खड़ी कर गई। ऐसा नहीं है कि हमें गज़ल ढूँढने में मशक्कत करनी पड़ी...गज़ल तो बड़े हीं आराम से हमें हासिल हो गई, लेकिन इस गज़ल से जुड़ी जानकारी ढूँढने में हमें बड़े हीं पापड़ बेलने पड़े। हमें इतना मालूम था कि इस गज़ल में आवाज़ मेहदी हसन साहब की है और संगीत भी उन्हीं का है। हमारे पास उनसे जुड़े कई सारे वाकये हैं, जो हम वैसे भी आपके सामने पेश करने वाले थे। लेकिन हम चाहते थे कि हमारी यह पेशकश बस गायक/संगीतकार तक हीं सीमित न हों बल्कि गज़लगो को भी वही मान-सम्मान और स्थान मिले जो किसी गायक/संगीतकार को नसीब होता है और इसीलिए गज़लगो का जिक्र करना लाजिमी था। अब हम अगर इस गज़ल की बात करें तो लगभग हर जगह इस गज़ल के गज़लगो का नाम "कलीम चाँदपुरी" दर्ज है, लेकिन इस गज़ल के मक़ते में तखल्लुस के तौर पर "क़ामिल" सुनकर हमें उन सारे स्रोतों पर शक़ करना पड़ा। अब हम इस पशोपेश में हैं कि भाई साहब "चाँदपुरी" तो ठीक है, लेकिन आपका असल नाम क्या है..."कलीम" (जो थोड़ा अजीब लगता है) या फिर "क़ामिल"। अंतर्जाल को खंगालने से हमें इस बात का पता लगा कि "क़ामिल चाँदपुरी" नाम के एक शख्स थे तो जरूर..जिन्होंने १९६१ की फिल्म "सारा जहां हमारा" के लिए "है ये जमीन हमारी वो आसमां हमारा" लिखा था(इस गाने में आवाज़ थी मुकेश की)। लेकिन हद तो यह है कि इनके बारे में जोड़-घटाव करके बस इतनी हीं जानकारी मौजूद है। अब अगर बात करें "कलीम चाँदपुरी" की तो "मेहदी हसन" साहब के इस एलबम में एक और गज़ल(आज की गज़ल के अलावे) के सामने इन महाशय का नाम दर्ज है और वह गज़ल है "जब भी मैखाने से"। आप खुद देखिए कि चाँदपुरी साहब अपने इस शेर के माध्यम से मैकशों का हाल-ए-दिल किस तरह बयां कर गए हैं:

जब भी मैखाने से पीकर हम चले,
साथ लेकर सैकड़ों आलम चले।


यकीन मानिए इनके बारे में भी इससे ज्यादा जानकारी कहीं नहीं। तो हम आपसे दरख्वास्त करेंगे कि आपको अगर इनके(अव्वल तो यह मालूम करें कि शायर का सही नाम क्या है) बारें में कुछ भी पता चले तो हमें जरूर बताएँ...हमें इन जानकारियों की सख्त जरूरत है। शायराना चर्चा के बाद अब हम रूख करते हैं जानेमाने फ़नकार मेहदी हसन साहब की ओर। अभी हाल में हीं २० अक्टूबर २००९ को खां साहब पर पहली पुस्तक प्रकाशित की गई है। (रिपोर्ट:मीडिया खबर)गजल के आसमान के ध्रुवतारे मेहदी हसन पर लिखी गई पहली किताब ‘मेरे मेहदी हसन’ (हिंदी और उर्दू दोनों में) का विमोचन नई दिल्‍ली के दीन दयाल उपाध्‍याय मार्ग स्थित राजेंद भवन में राष्‍ट्रीय योजना आयोग की सदस्‍या डॉ. सईदा हमीद द्वारा 20 अक्‍तूबर को हुआ। मूल रूप से हिंदी में लिखी गई ‘मेरे मेहदी हसन’ पुस्‍तक के लेखक हैं भारतीय विदेश मंत्रालय के वरिष्‍ठ अधिकारी अखिलेश झा। इस अवसर पर मेहदी हसन साहब के बेटे शहजाद हसन ने कहा कि उनके पास अखिलेश झा का आभार व्‍यक्‍त करने के लिए शब्‍द नहीं हैं क्‍योंकि जो काम आजतक किसी ने पाकिस्‍तान में भी नहीं हुआ, (मेहदी हसन पर किताब के संदर्भ में) उसे अखिलेश ने करके दिखा दिया। इन पंक्तियों से यह जाहिर होता है कि खां साहब भले हों पाकिस्तान के लेकिन उन्हें चाहने वाले हिन्दुस्तान में कहीं ज्यादा हैं। कुछ दिनों पहले "अमर उजाला" में "केसरिया बालम आओनी पधारो म्हारे देस रे" शीर्षक से एक आलेख प्रकाशित हुआ था, जिसके लेखक यही अखिलेश जी थे। इस आलेख में अखिलेश जी ने मेहदी हसन साहब से जुड़ी कई सारी बातों का जिक्र किया था। अखिलेश जी लिखते हैं:

मेहदी हसन! गज़ल की तरह हीं एक मखमली रूमानी नाम और दिलकश्तों के लिए एक रूहानी नाम। पहले गज़ल एक साहित्य की विधा थी, उसे संगीत की विधा बनाया मेहदी साहब ने। मेहदी हसन साहब ने गज़लों और फिल्मी गीतों के साथ-साथ खयाल, सूफी कलाम, ठुमरी, दादरा, राजस्थानी-पंजाबी लोकगीतों के साथ हीं हिन्दी गीत भी उतनी हीं शिद्दत से गाए। दुर्भाग्य से उनकी इस तरह की गायकी की रिकार्डिंग बहुत कम हीं उपलब्ध है। ...मेहदी साहब ने बुल्ले शाह के "जाणा मैं कौन बुल्लया, की जाणा मैं कौन" को अपनी रूहानी आवाज़ में इस तरह गाया है कि उनको सुनने के बाद आमतौर पर गाए जाने वाले सूफी कलामों में कुछ कमी-सी महसूस होने लगती है।...वैसे तो हीर की पहचान पंजाबी से है, पर मेहदी साहब ने राग भैरवी में उर्दू में लिखी हीर "तेरे बज़्म में आने से ऐ साकी" गाकर एक मिसाल कायम कर दी। इस हीर को सूफ़ी गुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम ने लिखा था। मेहदी साहब ने वारिस शाह के लिखे हीर भी गाए।...मेहदी साहब ठुमरी गायन में उस्ताद अब्दुल करीम खां, फैयाज खां, बड़े गुलाम अली खां और बरकत अली खां जैसे गायकों की श्रेणी में आते हैं। मेहदी साहब ने बोल-बांट और बोल-बनाव, दोनों तरह की ठुमरियाँ गाईं। ठुमरी के साथ-साथ मेहदी साहब के गाए दादर भी काफी लोकप्रिय हुए। इसका एक कारण यह था कि बड़े भाई पंडित गुलाम कादिर साहब के सान्निध्य में उन्हें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की इन विधाओं की प्रामाणिक शिक्षा मिली। इस तरह की शिक्षा पाकिस्तान के अन्य गायकों को नहीं मिली।...मेहदी हसन विभाजन के बाद भले हीं पाकिस्तान में जा बसे हों, लेकिन उनकी आत्मा हमेशा मारवाड़ में हीं रही। जब भी उन्हें मौका मिला, वे अपनी पैतृक गाँव लूना की धूल ले हीं जाते। वह जब भी लूना आते, उनके गाँव वाले उनसे "केसरिया बालम..." जरूर सुनते। वह कहा करते हैं कि "मारवाड़ी तो अपनी जबान में है, उसमें गाने का सुख अलग है।"...मेहदी साहब ने जिस भी जुबान में गाया, चाहे वह पंजाबी हो, उर्दू, हिंदी, सिंधी, बांग्ला, पश्तो, फारसी, अरबी या नेपाली, सबमें उन्हें खूब यश मिला। यही नहीं, एक बार उन्होंने अफ़्रीकी जुबान में भी गाना रिकार्ड किया। इस बारे में वह बताते हैं- "किसी ने मेरा नाम उन्हें बताया होगा। उन्होंने धुन सुनाई, बोल दिए, मैंने गा दिया।"

बातें तो होती हीं रहती हैं...कभी कम तो कभी ज्यादा। जैसे आज कहने को कुछ खास नहीं था, इसलिए आलेख छोटा रह गया। लेकिन कोई बात नहीं..हमारा मक़सद बस जानकारियाँ इकट्ठा करना नहीं है, बल्कि गज़ल की एक ऐसी महफ़िल सजाना है, जिसका हर कोई लुत्फ़ उठा सके। तो अब वक्त है आज की गज़ल से मुखातिब होने का। "मेहदी हसन - द लीजेंड" एलबम में शामिल आठ गज़लों में से हम आपके लिए वह गज़ल चुनकर लाए हैं जिसमें हर आशिक की कोई न कोई दास्तां गुम है। आप खुद सुनिए और गुनिए कि क्या यह आपके साथ नहीं हुआ है:

मैं होश में था तो फिर उसपे मर गया कैसे
ये जहर मेरे लहू में उतर गया कैसे

कुछ उसके दिल में ____ जरूर थी वरना
वो मेरा हाथ दबाकर गुजर गया कैसे

जरूर उसके तवज्जो की रहबरी होगी
नशे में था तो मैं अपने ही घर गया कैसे

जिसे भुलाये कई साल हो गये ’क़ामिल’
मैं आज उसकी गली से गुजर गया कैसे




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "सराबों" और शेर कुछ यूं था -

अब न वो मैं हूँ न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो साये तमन्ना के सराबों में मिलें

चूँकि इस गज़ल की फ़रमाईश शामिख जी ने हीं की थी, इसलिए उन्हें सही शब्द का पता होना हीं था। तो इस तरह सही शब्द पहचान कर महफ़िल की शोभा बने शामिख जी। यह बात अच्छी लगी कि आप औरों से पहले महफ़िल में हाज़िर हुए...जो पिछली तीन महफ़िलों से शरद जी नहीं कर पा रहे थे। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:

वो सराबों के समंदर में उतर जाता है
गाँव को छोड़ के जब कोई शहर जाता है (परवेज़)

किस मुंह से कहें तुझसे समन्दर के हैं हक़दार
सेराब सराबों से भी हम हो गये होते (शहरयार)

रात को साया समझते हैं सभी,
दिन को सराबों का सफ़र! (गुलज़ार)

शामिख जी के बाद महफ़िल को रौशन किया सीमा जी ने। ये रही आपकी पेशकश:

सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं,
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं (हमारे अपने "प्रेमचंद सहजवाला")

सरों पे सायाफ़िग़न अब्र-ए-आरज़ू न सही
हमारे पास सराबों का सायबान तो है (अज्ञात)

मंजु जी, शुरू-शुरू में "सराब" का अर्थ न जानने से सकपकाई तो जरूर थीं, लेकिन एकबारगी जब उन्हें इसके मायने मालूम हुए तो फिर वो कहाँ थमने वाली थीं..यह रहा आपका शेर:

तमन्ना थी कि तुम्हारे करीब आ जाऊं
सराबों-सा ख्वाब दिल को बहला न सका

हमें लगता है कि दो सप्ताह का जो ब्रेक हो गया, इस कारण से बहुत सारे साथी अपनी महफ़िल में सही समय पर हाज़िर नहीं हो पाए। कोई बात नहीं..इस बार ऐसा नहीं होगा...यह यकीन है हमें।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, December 15, 2009

कैसे कोई जिये, ज़हर है ज़िंदगी... कुछ और ही रंग होता है गीता दत्त की आवाज़ में छुपे दर्द का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 291

गीता दत्त और शैलेन्द्र को समर्पित दो लघु शृंखलाओं के बाद आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को चौथी बार के लिए दे रहे हैं फ़रमाइशी रंग। यानी कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के चौथे विजेयता पराग सांकला जी के फ़रमाइशी गीतों को सुनने का वक़्त आख़िर आ ही गया है। तो आज से अगले पाँच दिनों तक इस महफ़िल को रोशन करेंगे पराग जी के पाँच मनचाहे गीत। हम सभी जानते हैं कि पराग जी गीता दत्त जी के परम भक्त हैं, और गीता जी के गीतों और उनसे जुड़ी बातों के प्रचार प्रसार में उन्होने एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और लगातार उस ओर उनका प्रयास जारी है। तो ऐसे में अगर हम उनके पसंद का पहला गाना गीता जी की आवाज़ में न सुनवाएँ तो ग़लत बात हो जाएगी। तो चलिए आज सुना जाए गीता जी की आवाज़ में एक और दर्द भरा नग़मा। पता नहीं क्यों जब भी हम गीता जी के गाए ये दर्द भरे और ग़मगीन गानें सुनते हैं तो अक्सर उन गीतों के साथ हम उनकी निजी ज़िंदगी को भी जोड़ देते हैं। उनकी व्यक्तिगत जीवन में जो ग़मों और तक़लीफ़ों के तूफ़ान आए थे, वो उनके गाए तमाम गीतों में भी झलकते हैं। और सब से ज़्यादा दुखद बात यह है कि जब उन्होने इन गीतों को गाया था, उस वक़्त उनकी ज़िंदगी में ग़म का कोई साया भी नहीं था। लेकिन बाद में ऐसा लगा कि जैसे ज़िंदगी एक एक कर उनके गाए तमाम दुख भरे गीतों को उन्ही के उपर लागू करने के लिए जी जान कोशिश में जुटी हुई है। गीता जी के जीवन में जो ज़हर घुला, उसी ज़हर की करवाहट है आज के प्रस्तुत गीत में जो है "कैसे कोई जिये, ज़हर है ज़िंदगी"। १९५५ की फ़िल्म 'बादबान' का यह गीत लिखा था इंदीवर ने और संगीतकार थे तिमिर बरन और एस. के. पाल।

बॊम्बे टॊकीज़, जिसकी छत्रछाया में ३० और ४० के दशकों में एक से एक लाजवाब फ़िल्मों का निर्माण हुआ, फ़िल्म 'बादबान' से इसने अपनी अंतिम सांस ली। यानी कि 'बादबान' बॊम्बे टॊकीज़ की अंतिम फ़िल्म थी। दादामुनि अशोक कुमार ने बहुत कोशिशें की इस कंपनी को आर्थिक संकट से बचाने की, लेकिन उनकी सारी कोशिशें नाकामयाब रही कंपनी में चल रही अंदरुनी राजनीतियों की वजह से। जहाँ किसी समय बॊम्बे टॊकीज़ हुआ करती थी, मलाड का वह इलाका आज एक औद्योगिक इलाका बन गया है। ख़ैर, 'बादबान' का निर्देशन किया था फणी मजुमदार ने और मुख्य भूमिकाओं में थे अशोक कुमार, लीला चिटनिस और देव आनंद। इस फ़िल्म के संगीतकार तिमिर बरन और एस. के. पाल, दोनों ही फ़िल्म संगीत के पहली पीढ़ी के संगीतकार के रूप में जाने जाते हैं। तिमिर बरन के संगीत में सहगल साहब की आवाज़ में फ़िल्म 'देवदास' के गानों के तो क्या कहने! आज के इस प्रस्तुत गीत का एक और वर्ज़न है जिसे हेमन्त कुमार ने गाया है। फ़िल्मकार शक्ति सामंत, जिनके लिए फ़िल्म 'अमानुष' में इंदीवर साहब ने गानें लिखे थे, शक्ति दा ने एक बार बताया था कि इंदीवर साहब का लिखा हुआ जो गीत उन्हे सब से ज़्यादा पसंद है, वह है फ़िल्म 'बादबान' का यह गीत। और क्यों ना हो, इस गीत में है ही कुछ ऐसी ख़ास बात जो बिल्कुल दिल को छू कर जाता है। गीता जी वाले इस वर्ज़न में साज़ों की अगर बात करें तो पियानो ही मुख्य रूप से सुनाई देता है। जितना दर्दीला है सुर, उतना ही मीठा भी। और उस पर गीता जी की कलेजे को चीर कर रख देने वाली गायकी। कुल मिला कर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने की एक बेशकीमती मोती है यह गीत। तो आइए हम और आप, सभी मिलकर सुनते हैं पराग जी के पसंद का यह पहला गीत!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. एक सस्पेंस थ्रिल्लर फिल्म का है ये गीत.
२. इस फिल्म में नायिका के लिए लता ने पार्श्वगायन किया तो अभिनेत्री विजयलक्ष्मी के लिए गीत की गायिका ने.
३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"सर".

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह इंदु जी एकदम सही जवाब....अवध जी पाबला जी और निर्मला जी....आभार

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

इस बार नर हो न निराश करो मन को संगीतबद्ध हुआ



गीतकास्ट प्रतियोगिता- परिणाम-6: नर हो न निराश करो मन को

आज हम हाज़िर हैं 6वीं गीतकास्ट प्रतियोगिता के परिणामों को लेकर और साथ में है एक खुशख़बरी। हिन्द-युग्म अब तक इस प्रतियोगिता के माध्यम से जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त की एक-एक कविता संगीतबद्ध करा चुका है। इस प्रतियोगिता के आयोजित करने में हमें पूरी तरह से मदद मिली है अप्रवासी हिन्दी प्रेमियों की। खुशख़बरी यह कि ऐसे ही अप्रवासी हिन्दी प्रेमियों की मदद से हम इन 6 कविताओं की बेहतर रिकॉर्डिंगों को ऑडियो एल्बम की शक्ल दे रहे हैं और उसे लेकर आ रहे हैं 30 जनवरी 2010 से 7 फरवरी 2010 के मध्य नई दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले 19वें विश्व पुस्तक मेला में। इस माध्यम से हम इस कवियों की अमर कविताओं को कई लाख लोगों तक पहुँचा ही पायेंगे साथ ही साथ नव गायकों और संगीतकारों को भी एक वैश्विक मंच दे पायेंगे।

6वीं गीतकास्ट प्रतियोगिता में हमने मैथिली शरण गुप्त की प्रतिनिधि कविता 'नर हो न निराश करो मन को' को संगीतबद्ध करने की प्रतियोगिता रखी थी। इसमें हमें कुल 9 प्रविष्टियाँ प्राप्त हुई। लेकिन इस बार हमारे निर्णायकों ने अलग-अलग प्रविष्टियों पर अपनी मुहर लगाई। तो निश्चित रूप से नियंत्रक के लिए मुश्किल होनी थी। अतः हमने तीन प्रविष्टियों को संयुक्त रूप से विजेता घोषित करने का निश्चय है। आइए मिलते हैं विजेताओं से और उनके हुनर से भी।


कृष्ण राज कुमार

कृष्ण राज कुमार ने इस प्रतियोगिता की हर कड़ी में भाग लिया है। जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' के लिए प्रथम पुरस्कार, सुमित्रा नंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' के लिए द्वितीय पुरस्कार, महादेवी वर्मा के लिए भी प्रथम पुरस्कार। निराला की कविता 'स्नेह निर्झर बह गया है' के लिए भी इनकी प्रविष्टि उल्लेखनीय थी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'कलम! आज उनकी जय बोल' के लिए द्वितीय पुरस्कार प्राप्त किया। और इस बार भी इन्होंने पहला स्थान बनाया है। कृष्ण राज कुमार जो मात्र 22 वर्ष के हैं, और जिन्होंने अभी-अभी अपने B.Tech की पढ़ाई पूरी की है, पिछले 14 सालों से कर्नाटक गायन की दीक्षा ले रहे हैं। इन्होंने हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र के संगीतबद्धों गीतों में से एक गीत 'राहतें सारी' को संगीतबद्ध भी किया है। ये कोच्चि (केरल) के रहने वाले हैं। जब ये दसवीं में पढ़ रहे थे तभी से इनमें संगीतबद्ध करने का शौक जगा।

पुरस्कार- प्रथम पुरस्कार, रु 2000 का नग़द पुरस्कार

गीत सुनें-




रफ़ीक़ शेख़

रफ़ीक़ शेख आवाज़ टीम की ओर से पिछले वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गायक-संगीतकार घोषित किये जा चुके हैं। रफ़ीक ने दूसरे सत्र के संगीत मुकाबले में अपने कुल 3 गीत (सच बोलता है, आखिरी बार, जो शजर सूख गया है) दिये और तीनों के तीनों गीतों ने शीर्ष 10 में स्थान बनाया। रफ़ीक ने पिछले वर्ष अहमद फ़राज़ के मृत्यु के बाद श्रद्धाँजलि स्वरूप उनकी दो ग़ज़लें (तेरी बातें, ज़िदंगी से यही गिला है मुझे) को संगीतबद्ध किया था। गीतकास्ट प्रतियोगिता में ही रफ़ीक़ शेख़ ने निराला की कविता 'स्नेह निर्झर बह गया है' को संगीतबद्ध करके दूसरा स्थान बनाया था।

पुरस्कार- प्रथम पुरस्कार, रु 2000 का नग़द पुरस्कार

गीत सुनें-


(संगीत संयोजन, मिक्सिंग और और रिकॉर्डिंग- अनिमेश श्रीवास्तव)



श्रीनिवास / शम्पक चक्रवर्ती

श्रीनिवास

शम्पक
संगीतकार श्रीनिवास पांडा बहुत ही मेहनती संगीतकार हैं। हर बार किसी नये गायक को अपने कम्पोजिशन से जोड़ते हैं और उसे एक बड़ा मंच देते हैं। इस बार भी इन्होंने शम्पक चक्रवर्ती नामक युवा गायक को हिन्द-युग्म से जोड़ा है। शम्पक कोलकाता से ताल्लुक रखते हैं। 24 वर्षीय शम्पक के संगीत का शौक रखते हैं। बचपन से ही गा रहे हैं और मानते हैं कि यह कला उन्हें ईश्वरीय वरदान के रूप में मिली है।

मूलरूप से तेलगू और उड़िया गीतों में संगीत देने वाले श्रीनिवास पांडा का एक उड़िया एल्बम 'नुआ पीढ़ी' रीलिज हो चुका है। इन दिनों हैदराबाद में हैं और अमेरिकन बैंक में कार्यरत हैं। गीतकास्ट में लगातार चार बार विजेता रह चुके हैं।

पुरस्कार- प्रथम पुरस्कार, रु 2000 का नग़द पुरस्कार

गीत सुनें-


इनके अतिरिक्त हम प्रतीक खरे, प्रो॰ (डॉ॰) एन॰ पाण्डेय, मधुबाला श्रीवास्तव, शरद तैलंग, सुषमा श्रीवास्तव, ब्रजेश दाधीच इत्यादि के भी आभारी है, जिन्होंने इसमें भाग लेकर हमारा प्रोत्साहन किया और इस प्रतियोगिता को सफल बनाया। हमारा मानना है कि यदि आप इन महाकवियों की कविताओं को यथाशक्ति गाते हैं, पढ़ते हैं या संगीतबद्ध करते हैं तो आपका यह छोटा प्रयास एक सच्ची श्रद्धाँजलि बन जाता है और एक महाप्रयास के द्वार खोलता है।


इस कड़ी के प्रायोजक आयरलैंड के क्विन्स विश्वविद्यालय के शोधछात्र दीपक मशाल और उनके कुछ साथी हैं। यह हिन्द-युग्म का सौभाग्य है कि इस प्रतियोगिता के आयोजन में ऐसे ही हिन्दी प्रेमियों की वजह से इस प्रतियोगिता के आयोजन में कभी कोई बाधा नहीं आई।

Monday, December 14, 2009

सजनवा बैरी हो गए हमार....शैलेन्द्र का दर्द पी गयी मुकेश की आवाज़, और चेहरा था राज कपूर का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 290

दोस्तों, यह शृंखला जो इन दिनों आप सुन रहे हैं वह है "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी"। यानी कि राज कपूर फ़िल्म्स के बाहर बनी फ़िल्मों में शैलेन्द्र जी के लिखे हुए गानें। लेकिन दोस्तों, जो हक़ीक़त है वह तो हक़ीक़त है, उसे ना हम झुटला सकते हैं और ना ही आप बदल सकते हैं। और हक़ीक़त यही है कि राज कपूर और शैलेन्द्र दो ऐसे नाम हैं जिन्हे एक दूसरे से जुदा नहीं किया जा सकता। सिर्फ़ कर्मक्षेत्र में ही नहीं, बल्कि यह आश्चर्य की ही बात है कि एक की पुण्यतिथि ही दूसरे का जन्म दिवस है। आज १४ दिसंबर, यानी कि शैलेन्द्र जी की पुण्य तिथि। १४ दिसंबर १९६६ के दिन शैलेन्द्र जी इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिए अलविदा कह गए थे, और १४ दिसंबर ही है राज कपूर साहब का जनमदिन। इसलिए आज इस विशेष शृंखला का समापन हम एक ऐसे गीत से कर रहे हैं जो आर.के.फ़िल्म्स की तो नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म के साथ शैलेन्द्र और राज कपूर दोनों ही इस क़दर जुड़े हैं कि आज के दिन के लिए इससे बेहतर गीत नहीं हो सकता। और ख़ास कर इस फ़िल्म के जिस गीत को हमने चुना है वह तो बिल्कुल सटीक है आज के लिए। "सजनवा बैरी हो गए हमार, चिठिया हो तो हर कोई बाँचे, भाग न बाँचे कोई, करमवा बैरी हो गए हमार"। 'तीसरी क़सम' शैलेन्द्र का एक सपना था, जिसे वो जीते थे। इस फ़िल्म को सेलुलॊयड पर लिखी हुई कविता कहा जाता है। इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें हम अपको पहले बता ही चुके हैं। ऐसा कहा जाता है कि शैलेन्द्र राज कपूर को एक अच्छे अभिनेता के रूप में ज़्यादा सम्मान करते थे, ना कि निर्देशक के रूप में। शायद इसीलिए उन्होने अपनी फ़िल्म 'तीसरी क़सम' के निर्देशन का भार बासु भट्टाचार्य को सौंपा। वैसे यह भी कहा जाता है कि बासु दा तो बस नाम के वास्ते निर्देशक रहे, यह फ़िल्म पूरी तरह से शैलेन्द्र की ही फ़िल्म थी। इस फ़िल्म ने अव्यवसायिक चरित्र वाले शैलेन्द्र को माली नुकसान करवाया, और राज कपूर के प्रस्ताव को भी उन्होने नहीं स्वीकारा कि फ़िल्म को आर.के.फ़िल्म्स के बैनर तले रिलीज़ की जाए। लेकिन कुछ तो ऐसी बात थी कि यहाँ तक कि विविध भारती के एक कार्यक्रम में भी यह कहा गया था कि "कुछ ऐसे लोग जिन पर उन्हे बहुत भरोसा था, उनको पहुँचाया भारी नुकसान"। अब ये किनके संदर्भ में कहा गया है इसकी पुष्टि तो मैं नहीं कर सकता। लेकिन इस वजह से यह गीत आज के इस अंक के लिए बहुत ही सार्थक बन पड़ा है। शंकर जयकिशन के संगीत में मुकेश की दर्दभरी आवाज़। सरोद और सितार की ध्वनियों से गीत और भी ज़्यादा मर्मस्पर्शी बन पड़ा है।

आज शैलेन्द्र की पुण्यथिथि पर हम आप तक पहुँचा रहे हैं उन्ही की सुपुत्री आमला मजुमदार के उद्‍गार जो उन्होने कहे थे दुबई स्थित १०४.४ आवाज़ एफ़.एम रेडियो पर और जिसका प्रसारण हुआ था ३० अगस्त २००६ के दिन, यानी कि शैलेन्द्र जी के जनमदिन के अवसर पर। आमला जी कहती हैं, "हम बहुत छोटे थे जब बाबा गुज़र गए और अचानक एक, जैसे overnight एक void सा, एक ख़ालीपन सा जैसे छा गया था हमारी ज़िंदगी के उपर। बाबा के गुज़र जाने के बाद we were determined that not to let that void eat us up और I think it was also in a way we realised that baba never left us. Through his songs, उनके गानों के ज़रिए उन्होने हमें एक राह दिखाई और उस राह पर चलते हम आज यहाँ तक पहुँच गए हैं। और हम बहुत ही proud होके, बहुत ही फ़क्र के साथ कह सकते हैं कि बाबा ने हमें छोड़ा नहीं, बाबा हमारे साथ थे, हैं, और उनके गानों के ज़रिए उनके जो message जो हमारे साथ हैं उससे हमारा character shape हुआ है और आज हम जो भी हैं I thank baba and ofcourse my mother, that we are what we are today because of them and because of his songs definitely।" दोस्तों, अब इससे आगे शायद कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं, बस शैलेन्द जी और राज कपूर साहब को स्मृति सुमन अर्पित करते हुए आज का यह गीत सुनते हैं, और इस विशेष शृंखला को समाप्त करने की दीजिए हमें इजाज़त, कल फिर मुलाक़ात होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की फ़रमाइशी महफ़िल में। शुभ रात्री!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१.कल हम सुनेंगे हमारे विजेता पराग सांकला की पसंद का पहला गीत, जाहिर है ये उनकी सबसे पसंदीदा गायिका का गाया हुआ है.
२. इन्दीवर की कलम से निकला है ये गीत.
३. मुखड़े में शब्द है -"जहर".

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह पाबला जी एक और सही जवाब...बधाई....आज के गीत का एक कवर वर्ज़न हमें शरद जी भी गाकर भेजा था. पर हमने सोचा कि उसे हम अपने ३०० वें एपिसोड में शामिल करेंगें जैसा कि हम अपने हर लैंड मार्क एपिसोड में करते हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

पंखों को हवा जरा सी लगने दो....जयदीप सहानी जगाते हैं एक उम्मीद अपनी हर फिल्म, हर रचना से



ताजा सुर ताल TST (39)

दोस्तो, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर"

TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक-

पिछले एपिसोड में,वैसे तो आज की कड़ी में भी ३ सवाल हैं आपके जेहन की कसरत के लिए. पर फैसला तो आ ही चुका है. सीमा जी अपने सबसे नजदीकी प्रतिद्वंदी से भी कोसों आगे हैं, बहुत बहुत बधाई आपको...आपके सर है TST ट्रिविया के सिकंदर का ताज. सीमा जी अपनी पसंद के १० गीत लेकर आपके लिए हाज़िर होंगी, इस वर्ष यानी २००९ की सबसे अंतिम पेशकश के रूप में....श्रोताओं तैयार रहिये....

सजीव - आज 'ताज़ा सुर ताल' में हम पाँच के बदले सिर्फ़ तीन गीत सुनेंगे।

सुजॉय - वह क्यों भला? ऐसी ज्यादती क्यों?

सजीव - दरअसल बात ऐसी है कि आज हम जिस फ़िल्म की बातें करने जा रहे हैं उस फ़िल्म में हैं ही केवल तीन गीत।

सुजॉय - मैं समझ गया, आप Rocket Singh - Salesman of the Year फ़िल्म की बात कर रहे हैं ना?

सजीव - बिल्कुल ठीक समझे। आज हम इसी फ़िल्म के तीनों गानें सुनेंगे।

सुजॉय - लेकिन सजीव, इस फ़िल्म में भले ही तीन गानें हों, लेकिन इस फ़िल्म के साउड ट्रैक में यश राज बैनर की पुरानी फ़िल्मों के कुछ गीतों को भी शामिल किया गया है। तो क्यों ना हम उनमें से दो गानें सुन लें।

सजीव - आइडिया तो अच्छा है, इससे पाँच के पाँच गानें भी हो जाएँगे और दो हिट गानें भी अपने श्रोताओं को एक बार फिर से सुनने का मौका मिल जाएगा! उन दो गीतों की बात हम बाद में करेंगे, चलो जल्दी से सुनते हैं इस फ़िल्म का पहला गीत, उसके बाद बातचीत आगे बढ़ाएँगे।

गीत - पॉकेट में रॉकेट...pocket men rocket


सुजॉय - फ़िल्म का शीर्षक गीत हमने सुना, बेनी दयाल और साथियों की आवाज़ें थीं। इन दिनों इसी गीत के ज़रिए इस फ़िल्म के प्रोमोज़ चलाए जा रहे हैं हर टीवी चैनल पर। सजीव, क्या ख़याल है इस गीत के बारे में आपका?

सजीव - देखो इस फ़िल्म के तीनों गीतों की अच्छी बात यह है कि बहुत ही अलग हट के है और ताज़े सुनाई देते हैं। इन दिनों सलीम सुलेमान अपना एक स्टाइल डेवलोप करने की कोशिश कर रहे हैं। क़ुर्बान के गानें भी पसंद किए गए और इस फ़िल्म के गानें भी अच्छे हैं।

सुजॉय - इस फ़िल्म में गानें लिखे हैं जयदीप साहनी ने और जयदीप ने इस फ़िल्म की कहानी भी लिखी है। पिछले साल अक्षय कुमार 'सिंह इज़ किंग्' में तथा सलमान ख़ान 'हीरोज़' फ़िल्म में सरदार की भूमिका निभाने के बाद बॊलीवुड में सरदार हीरो की एक ट्रेंड चल पड़ी है, और इस बार रणबीर कपूर बने हैं सरदार रॊकेट सिंह। और उनकी नायिका बनी हैं शज़ान पदमसी।

सजीव - इस फ़िल्म का दूसरा गीत अब सुना जाए विशाल दादलानी की आवाज़ में, जिसके बोल हैं "गड़बड़ी हड़बड़ी"। विशाल दादलानी जहाँ एक तरफ़ विशाल-शेखर की जोड़ी में हिट म्युज़िक देते है, वहीं वो दूसरे संगीतकारों के लिए बहुत से गानें भी गाते हैं। यह एक बहुत ही हेल्दी ऐप्रोच है आज के कलाकारों में, वर्ना एक समय ऐसा भी था कि अगर कोई संगीतकार बन जाए तो फिर दूसरे संगीतकार उससे अपने गानें नहीं गवाया करते थे।

सुजॉय - सही कहा आप ने कुछ हद तक। चलिए अब गीत सुनते हैं।

गीत - गड़बड़ी हड़बड़ी...hadbadi gadbadi


सजीव - तीसरा गीत इन दोनों गीतों से बिल्कुल अलग है, बड़ा ही नर्मोनाज़ुक है और जयदीप साहनी ने अच्छे गीतकारी का मिसाल पेश किया है। यह गीत है "पंखों को हवा ज़रा सी लगने दो"।

सुजॉय - हाँ, सलीम मर्चैंट की आवाज़ है इस गीत में और सलीम भी आजकल कई गानों में अपनी आवाज़ मिला रहे हैं। 'कुर्बान' के मशहूर गीत "अली मौला" में भी उन्ही की आवाज़ थी।

गीत - पंखों को हवा ज़रा सी...pankhon ko


सजीव - यश चोपड़ा और आदित्य चोपड़ा ने इस फ़िल्म को प्रोड्युस किया है और निर्देशक हैं शिमित अमीन। शिमित ने बहुत ज़्यादा फ़िल्में तो नहीं की हैं लेकिन उनका निर्देशन ज़रा हट के होता है। 'चक दे इडिया' उन्होंने हीं निर्देशित की थी और वह क्या फ़िल्म थी!’अब तक छप्पन’ उनकी पहली फिल्म थी और उसमें भी उनके काम को काफी सराहा गया था। 'भूत' और 'अब तक छप्पन' में उन्होने एडिटर की भूमिका निभाई।

सुजॉय - और सजीव, जैसा कि हमने शुरु में कहा था कि इस फ़िल्म के तीन ऒरिजिनल गीतों के बाद हम यश राज की पुरानी फ़िल्मों के दो ऐसे गानें सुनवाएँगे जिन्हे 'रॊकेट सिह' के साउंड ट्रैक में शामिल किया गया है, तो सब से पहले तो मैं उन सभी गीतों के नाम बताना चाहूँगा जिन्हे फ़िल्म में शामिल किया गया है। ये गानें हैं "चक दे चक दे इंडिया" (चक दे इंडिया), "छलिया छलिया" और "दिल हारा" (टशन), "डैन्स पे चांस मार ले" और "हौले हौले से" (रब ने बना दी जोड़ी), "ख़ुदा जाने के", "जोगी माही" और "लकी बॊय" (बचना ऐ हसीनों)।

सजीव - तो इनमें से कौन से दो गीत सुनवाना चाहोगे?

सुजॉय - एक तो निस्संदेह "ख़ुदा जाने के मैं फ़िदा हूँ" और दूसरा आप बताइए अपनी पसंद का।

सजीव - चलो "चक दे इंडिया" यादें भी ताज़ा कर लिया जाए। वैसे भी भारत हॊकी में ना सही पर क्रिकेट में इन दिनों चर्चा में है ICC Ranking में नंबर-१ आने के लिए। चलो ये दोनों गानें सुनते हैं एक के बाद एक बैक टू बैक, वैसे ये गीत सुनवाने का मौका भी एकदम सटीक है. दोस्तों ये TST की अंतिम कड़ी है २००९ के लिए. जाहिर है नए गीतों की महफ़िल हम नए साल में फिर से सजायेंगें. इस साल के गीतों पर हमारा पूरा का पूरा पैनल अपनी अपनी राय लेकर उपस्थित होगा २५ दिसंबर से ३० दिसम्बर तक, और ३१ तारीख़ को हम सुनेंगें हमारी विजेता सीमा जी की पसंद के १० सुपर हिट गीत, तो एक बार फिर TST की तरफ से नव वर्ष की शुभकामनाएं, आईये २००९ को विदा कहें एक अच्छी सोच के साथ. नए साल में हम अपने देश को हर स्तर पर और अधिक समृद्ध करने में अपना योगदान दे सके, तो एक बार फिर जयदीप सहानी के साथ हम सब भी मिल कर कहें -"चक दे इंडिया..."

गीत - ख़ुदा जाने के मैं फ़िदा हूँ (बचना ऐ हसीनों)


गीत - चक दे इंडिया (चक दे इंडिया)


और अब बारी साल के अंतिम ट्रिविया की

TST ट्रिविया 39- निर्देशक शिमित अमीन का जन्म अफ़्रीका महाद्वीप के किस देश में हुआ था?

TST ट्रिविया 40- आज ज़िक्र हो रही है यश राज के फ़िल्म की। तो बताइए यश चोपड़ा के किस फ़िल्म का निर्देशन अर्जुन सबलोक ने किया था?

TST ट्रिविया 41- इस फ़िल्म के किसी एक अभिनेता/अभिनेत्री को आप किस तरह से १९८५ की फ़िल्म 'भवानी जंकशन' के गीत "आए बाहों में" से जोड़ सकते हैं?

"रॉकेट सिंह" एल्बम को आवाज़ रेटिंग ***

चूँकि फिल्म एक अच्छी सोच के साथ बनायीं गयी है और कहानी को अधिक अहमियत दी गयी है, व्यवहारिक दृष्टि से गीतों की संख्या कम रखी गयी है. पर शीर्षक गीत देखने में और "पंखों को" सुनने में बहुत अच्छा है. इस के आलावा एल्बम में यश राज बैनर के कुछ सुपर डुपर हिट गीतों को एक साथ सुनने का मौका भी है....तो ऑल इन ऑल इस अल्बम पर पैसा लगाया जा सकता है, वैसे भी नववर्ष करीब है और भारतीय क्रिकेट टीम भी पूरे जोश में है तो झूमने और नाचने के पर्याप्त मौके हैं आपकेपास.

आवाज़ की टीम ने इस अल्बम को दी है अपनी रेटिंग. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसे लगे? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत अल्बम को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

शुभकामनाएँ....


अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, December 13, 2009

वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जायेगा कहाँ....और "राम राम" कहा गया वो मुसाफिर कवि शैलेन्द्र



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 289

शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" में आज एक बार फिर से हम रुख़ कर रहे हैं शैलेन्द्र के दार्शनिक पक्ष की ओर। हमने अक्सर यह देखा है कि फ़िल्मी गीतकार मुसाफ़िर का सहारा लेकर अक्सर कुछ ना कुछ जीवन दर्शन की बातें हमें समय समय पर सिखा गये हैं। कुछ गानें याद दिलाएँ आपको? "मंज़िलें अपनी जगह है रास्ते अपनी जगह, जब क़दम ही साथ ना दे तो मुसाफ़िर क्या करे", "कहीं तो मिलेगी मोहब्बत की मंज़िल, कि दिल का मुसाफ़िर चला जा रहा है", "आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है", "मुसाफ़िर हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना", "मुसाफ़िर जानेवाले कभी ना आनेवाले", और इसी तरह के बहुत से दूसरे गानें हैं जिनमें मुसाफ़िर के साथ जीवन के किसी ना किसी फ़ल्सफ़े को जोड़ा गया है। इसी तरह से फ़िल्म 'गाइड' में शैलेन्द्र ने एक कालजयी गीत लिखा था जो बर्मन दा की आवाज़ पा कर ऐसा जीवित हुआ कि बस अमर हो गया। "वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहाँ, दम ले ले घड़ी भर, ये छैयाँ पाएगा कहाँ"। भावार्थ यही है कि ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते। जी हाँ, जो ज़माना एक बार गुज़र जाता है, उसे फिर वापस पाना नामुमकिन है। कड़वी ही सही, लेकिन हक़ीक़त यही है कि किसी के होने ना होने से इस गतिशील ज़िंदगी को कुछ फ़र्क नहीं पड़ता। एक बार जो चला जाता है, उसके प्रिय जन भी धीरे धीरे उसका ग़म भूल जाते है और शायद यह ज़रूरी भी है जीवन को निरंतर आगे बढ़ाते रहने को। इस पूरे गीत में बस यही कहा गया है कि हे मुसाफ़िर, तू क्यों वापस उस संसार में जा रहा है जिसे एक बार तू छोड़ चुका है। वहाँ कोई नहीं है जिसे तेरा इंतेज़ार है। इसलिए, तू जहाँ है उसी को अपना जहान समझ और हँसी ख़ुशी जी। इस गीत को सुनते हुए हम किसी और ही जगत में खो जाते हैं। शैलेन्द्र ने इस गीत को कुछ इस तरह से लिखा है कि हर एक आदमी इस गीत से अपने आप को जोड़ सकता है, अपनी ज़िंदगी को जोड़ सकता है। न जाने क्यों, शायद बोलों का ही असर होगा, या संगीत का, या दादा की अनूठी गायकी का, या फिर इन सभी के संगम का कि इस गीत को सुनते हुए आँखें भर आती हैं। ज़िंदगी की बहुत निष्ठुर सच्चाई से अवगत कराता है यह गीत।

फ़िल्म 'गाइड' हिंदी सिनेमा की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही है। इस फ़िल्म के बारे में फ़िल्म अध्यन कोर्स मे भी पढ़ाया जाता है। आप सभी ने यह फ़िल्म देख रही है, इसलिए इस फ़िल्म से जुड़ी साधारण बातें बताकर वक़्त बरबाद नहीं करूँगा। बस इतना याद दिला दूँ कि यह फ़िल्म आर. के. नारायण की मशहूर उपन्यास 'दि गाइड' पर आधारित थी जिसे फ़िल्म के रूप में लिखा व निर्देशित किया विजय आनंद ने। देव आनंद ने प्रोड्युस किया, देव साहब और वहीदा रहमान के अभिनय से सजी यह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी ६ फ़रवरी १९६५ के दिन। उस साल फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में यह फ़िल्म छाई रही। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (देव आनंद), सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (विजय आनंद), सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (देव आनंद), सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (वहीदा रहमान), सर्वश्रेष्ठ कहानी (आर. के. नारायण), सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़ी (फ़ाली मिस्त्री), और सर्वश्रेष्ठ संवाद (विजय आनंद)। इसके अलावा सचिन देव बर्मन और लता मंगेशकर के नाम सर्वश्रेष्ठ संगीत और सर्वश्रेष्ठ पार्श्वागायक के लिए नामांकित हुए थे। लेकिन ये दो पुरस्कार चले गए शंकर जयकिशन और मोहम्मद रफ़ी को फ़िल्म 'सूरज' के लिए। ख़ैर, 'गाइड' फ़िल्म का एक अमरीकी वर्ज़न भी तैयार किया गया था जिसका निर्माण टैड डैनियलेविस्की ने किया था। ४२ साल बाद फ़िल्म 'गाइड' को हाल ही में, सन् २००७ में कान फ़िल्म महोत्सव में शामिल किया गया था। तो चलिए सुनते हैं, फ़िल्म 'गाइड' से सचिन देव बर्मन के संगीत और आवाज़ में शैलेन्द्र की यह दार्शनिक रचना। इस गीत को सुनते हुए आप अपनी आँखें मूंद लीजिए और बह जाइए इस गीत के अमर बोलों के साथ। गीत ख़त्म होने के बाद जब आप अपनी आँखें खोलेंगे तो वे यक़ीनन नम हो गयी होंगीं!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. कल शैलेद्र की पुण्यतिथि है और ये गीत फिल्माया गया है उनके मित्र पर जिनकी जयंती भी हम कल ही के दिन मनाते हैं.
२. इस फिल्म को रुपहले परदे पर लिखी एक कविता कहा जा सकता है, खुद शैलेद्र के जीवन में इस फिल्म का बहुत बड़ा योगदान है.
३. एक अंतरे में शब्द है -"सौतन".

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी एक और सही जवाब, बधाई....पाबला जी कहाँ जायेंगें रूठ कर, आप बेफिक्र रहें इंदु जी.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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