नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, स्वागत है इस साप्ताहिक विशेषांक 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में। पिछले दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमनें लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले' पेश की थी। इसी संदर्भ में शरद तैलंग जी ने हमें एक ईमेल भेजा। तो आइए आज शरद जी के उसी ईमेल को यहाँ प्रस्तुत करते हैं.... *******************************************
सुजॊय जी,
पिछले दिनों मैनें जयपुर के संस्कृत के विद्वान देवर्षि कलानाथ शास्त्री जी का एक लेख पढा था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि सहगल साहब का प्रसिद्ध गीत "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए" में मूल पंक्ति थी "चार कहार मिल मोरी डोलिया उठावै", लेकिन उन्होंने गा दिया "डोलिया सजावै", जबकि डोली सजाने का काम दुल्हन की सखियां करती हैं, कहार तो उठाते हैं। इसी तरह आगे की पंक्तियों में भी मूल गीत है "देहरी तो पर्वत हुई और अंगना भया बिदेस", जब कि उन्होंने गाया "अंगना तो परबत भया और देहरी भयी बिदेस", क्यों कि देहरी तो पर्बत समान हो सकती है जिसे लांघना मुश्किल हो जाएगा और पीहर का आंगन इतना दूर हो जाएगा जैसे बिदेस हो। लेकिन जो प्रचलित हो गया सभी उसी को गाए जा रहे है । शरद तैलंग
****************************************** दोस्तों, शरद जी ने जिस लेख का ज़िक्र किया, वह मघुमती पत्रिका के अक्टूबर २००९ अंक में प्रकाशित हुआ था। आइए उसी लेख का एक अंश यहाँ प्रस्तुत करते हैं, जिसमें इन गड़बड़ियों का ज़िक्र हुआ है। सहगल साहब के साथ साथ जगमोहन के गाये एक गीत का भी उल्लेख है। आइए पढ़ा जाए...
"पिछले दिनों लेखिकाओं की आपबीती बयान करने वाली तथा नारी की निष्ठुर नियति का सृजनात्मक चित्रण करने वाली आत्मकथाओं के अंशों का संकलन कर सुविख्यात कथाकार, सम्पादक और चिन्तक राजेन्द्र यादव के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक 'देहरी भई बिदेस' की चर्चा चली तो हमारे मानस में वह दिलचस्प और रोमांचक तथ्य फिर उभर आया कि बहुधा कुछ उक्तियाँ, फिकरे या उद्धरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता, कभी यह ध्यान में नहीं आता कि वह उद्धरण ही गलत है, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं जो उस फिकरे में लोककंठ में आ बसी है। देहरी भई बिदेस भी ऐसा ही उद्धरण है जो कभी था नहीं, किन्तु सुप्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये।
पुरानी पीढी के वयोवृद्ध गायकों को तो शायद मालूम ही होगा कि वाजिद अली शाह की सुप्रसिद्ध शरीर और आत्मा के प्रतीकों को लेकर लिखी रूपकात्मक ठुमरी बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय सदियों से प्रचलित है जिसके बोल लोककंठ में समा गये हैं - चार कहार मिलि डोलिया उठावै मोरा अपना पराया टूटो जाय आदि। उसमें यह भी रूपकात्मक उक्ति है - देहरी तो परबत भई, अँगना भयो बिदेस, लै बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस। जैसे परबत उलाँघना दूभर हो जाता है वैसे ही विदेश में ब्याही बेटी से फिर देहरी नहीं उलाँघी जाएगी, बाबुल का आँगन बिदेस बन जाएगा। यही सही भी है, बिदेस होना आँगन के साथ ही फबता है, देहरी के साथ नहीं, वह तो उलाँघी जाती है, परबत उलाँघा नहीं जा सकता, अतः उसकी उपमा देहरी को दी गई। हुआ यह कि गायक शिरोमणि कुन्दनलाल सहगल किसी कारणवश बिना स्क्रिप्ट के अपनी धुन में इसे यूँ गा गये अँगना तो परबत भया देहरी भई बिदेस और उनकी गाई यह ठुमरी कालजयी हो गई। सब उसे ही उद्धृत करेंगे। बेचारे वाजिद अली शाह को कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि बीसवीं सदी में उसकी उक्ति का पाठान्तर ऐसा चल पडेगा कि उसे ही मूल समझ लिया जाएगा। सहगल साहब तो चार कहार मिल मोरी डोलियो सजावैं भी गा गये जबकि कहार डोली उठाने के लिए लगाये जाते हैं, सजाती तो सखियाँ हैं। हो गया होगा यह संयोगवश ही अन्यथा हम कालजयी गायक सहगल के परम प्रशंसक हैं।
नई पीढी को उस गीत की तो शायद याद भी नहीं होगी जो सुप्रसिद्ध सुगम संगीत गायक जगमोहन ने गाया था और गैर-फिल्मी सुगम संगीत में सिरमौर हो गया था - ये चाँद नहीं, तेरी आरसी है। उसमें गाते-गाते एक बार उनके मुँह से निकल गया ये चाँद नहीं तेरी आरती है। बरसों तक यह बहस चलती रही कि मूल पाठ में आरसी शब्द है या आरती ?
तो लीजिए दोस्तों, आज सुनिए कुंदन लाल सहगल और कानन देवी की युगल आवाज़ों में १९३८ की फ़िल्म 'स्ट्रीट सिंगर' का मशहूर गीत, या युं कहिए कि ठुमरी, "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए"। आर. सी. बोराल का संगीत है और यह न्यु थिएटर्स की फ़िल्म थी।
तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने', जिसके लिए हम आभार व्यक्त करना चाहेंगे शरद तैलंग जी का। अगले हफ़्ते 'ओल्द इज़ गोल्ड' शनिवार विशेषांक लेकर हम पुन: उपस्थित होंगे, और कल से ज़रूर शामिल होइएगा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमीत महफ़िल में, क्योंकि कल से इसमें एक और बेहद ख़ास लघु शृंखला शुरु होने जा रही है। अब दीजिए इजाज़त, नमस्कार!
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में विष्णु प्रभाकर की कहानी "पानी की जाति" का पॉडकास्ट सुना था।
आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध लेखिका सुधा अरोड़ा की कहानी "एक कवि पत्नी का संलाप: सत्ता संवाद", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 10 मिनट 24 सेकंड।
सुधा अरोड़ा की कथा अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी को आप पहले ही प्रीति सागर की आवाज़ में सुन चुके हैं। उन्हीं की लिखित "रहोगी तुम वही" को आपने सुना था रंगमंच, दूरदर्शन और सार्थक सिनेमा के प्रसिद्ध कलाकार राजेन्द्र गुप्ता की आवाज़ में।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
आत्माएं कभी नहीं मरतीं। इस विराट व्योम में, शून्य में, वे तैरती रहती हैं - परम शान्त होकर।
~ सुधा अरोड़ा परिचय: चार अक्तूबर १९४६ को लाहौर में जन्मी सुधा जी की शिक्षा-दीक्षा कोलकाता में हुई जहां उन्होंने अध्यापन भी किया। एकदम विशिष्ट पहचान वाली अपनी कहानियों के लिए जानी गयी सुधा जी की जहां अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं वहीं वे सम्पादन और स्तम्भ लेखन से भी जुडी हैं। वे आजकल मुम्बई में रहती हैं। "पर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?"
(सुधा अरोड़ा की "सत्ता संवाद" से एक अंश)
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आवाज़ महोत्सव ओरिजिनल संगीत में गीत # २१ दोस्तों, क्या आपने कभी महसूस किया है कि दीपावली के आते ही कैसे अपने आप ही हमारे अंदर एक नयी सी खुशी, नयी सी आशा का संचार हो जाता है. यही इन त्योहारों की खासियत है कि ये वातावरण में एक ऐसी सकरात्मक ऊर्जा को घोल देते हैं कि हर कोई खुश और मुस्कुराता नज़र आता है. दोस्तों यूँ तो आज आपका मोबाइल, ई मेल इन्बोक्स आदि शुभ संदेशों से भरे हुए होंगें, पर जिस अंदाज़ में आज आपको "आवाज़" शुभकामना सन्देश देने जा रहा है, वो सबसे अनूठा अनोखा है. हमने अपने पुराने साथी संगीतकार/गायक रफीक शेख के साथ मिलकर एक गीत खास आपके लिए बनाया है, दिवाली की बधाईयों वाला. शब्द पारंपरिक है और संगीत संयोजन खुद रफीक का है. तो इस गीत को सुनिए और मुस्कुरा कर इस पवन त्यौहार का आनंद लीजिए. इस बार जन्मी ये सकारात्मकता अब यूँहीं हम सब के अंग संग रहें. सुख समृधि और खुशियों से हम सबके जीवन सजे. एक बार फिर आप सबको सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
'आवाज़' के सभी सुननेवालों और पाठकों को हमारी तरफ़ से ज्योति-पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकानाएँ। यह पर्व आप सब के जीवन में अपार शोहरत और ख़ुशियाँ लेकर आए, आपके जीवन के सारे अंधकार मिट जाएँ, पूरा समाज अंधकार मुक्त हो, यही हमारी ईश्वर से कामना है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले'। आज इस शृंखला की अंतिम कड़ी के लिए हमने चुना है फ़िल्म 'मिस्टर इण्डिया' का सुपरहिट गीत "हवा हवाई"। जी हाँ, इस गीत में भी एक गड़बड़ी हुई है, और इस बार कठघड़े में लाया जा रहा है गायिका कविता कृष्णमूर्ती को। दोस्तों, आपको बता दें कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कविता जी की आवाज़ आज पहली बार बज रही है। नए दौर की गायिकाओं में कविता जी मेरी फ़ेवरीट गायिका रही हैं। मुझे ऐसा लगता है कि कविता जी की जो प्रतिभा है, उसका सही सही मूल्यांकन फ़िल्मी दुनिया नहीं कर सकीं, नहीं तो उनसे बहुत से अच्छे गानें गवाये जा सकते थे। ख़ैर, आज बातें "हवा हवाई" की। गड़बड़ी पर आने से पहले आपको इस गीत के निर्माण से जुड़ी एक दिलचस्प जानकारी देना चाहेंगे। इस गीत के शुरुआती जो बोल हैं, जिसमें "होनोलुलु, हॊंगकॊंग, किंगकॊंग, मोमबासा" जैसे अर्थहीन शब्द बोले जाते हैं, दरअसल ये शब्द डमी के तौर पर लिखे गये थे गीत को कम्पोज़ करने के लिए। लेकिन ये शब्द आपस में इस तरह से जुड़ गये और गीत में हास्य रस के भाव को देखते हुए सभी को ये शब्द इतने भा गये कि इन्हें गीत में रख लेने का तय हो गया। जावेद अख़्तर ने यह गीत लिखा और संगीतकार थे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। जावेद साहब के साथ ऐसा ही एक और वाक्या हुआ था कि जब डमी के तौर पर लिखे शब्द गीत का मुखड़ा बन गया। जी हाँ, माधुरी दीक्षित को रातों रात स्तार बनाने वाला गीत "एक दो तीन"। फ़िल्म 'तेज़ाब' के इस गीत में "एक दो तीन चार..." डमी के तौर पर रखे गये थे, लेकिन बाद में इसी को कण्टिन्यु करके गीत का पूरा मुखड़ा बना दिया गया। है ना मज़ेदार ये दोनों क़िस्से!
अब आते हैं इस गीत में हुई ग़लती पर। दोस्तों, इस गीत का एक अंतरा कुछ इस तरह का है -
"समझे क्या हो नादानों, मुझको भोली ना जानो, मैं हूँ सपनों की रानी, काटा माँगे ना पानी, सागर से मोती छीनूँ, दीपक से ज्योति छीनूँ, पत्थर से आग लगा दूँ, सीने से राज़ चुरा लूँ, जीना जो तुमने बात छुपाई, जानू जो तुमने बात छुपाई, कहते हैं मुझको हवा हवाई"।
इस अंतरे में सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था, लेकिन "जीना जो तुमने बात छुपाई" कुछ अजीब सा नहीं लग रहा आपको? हमारे ख़याल से तो "जीना" के बदले "जानूँ" होना चाहिए था। कविता जी शायद ग़लती से पहली बार "जीना" गा गईं, लेकिन क्योंकि यह लाइन रिपीट होती है, तो अगली बार उन्होंने इसे "जानूँ" ही गाया। हो सकता है इस तरफ़ आपने भी कभी ग़ौर किया होगा, या नहीं किया होगा। तो दोस्तों, इस तरह से १० गड़बड़ी वाले गीतों से सजी यह लघु शृंखला यहीं पे समाप्त होती है। हमें आशा है कि शृंखला का आपने भरपूर आनंद उठाया होगा। हम एक बार फिर से उन सभी महान कलाकारों से माफ़ी चाहते हैं जिनकी ग़लतियों की हमने चर्चा की। आप सब महान कलाकारों का फ़िल्म संगीत के धरोहर को समृद्ध करने में जो योगदान है, उसकी तुलना में ये ग़लतियाँ नगण्य है। आप सुनिए 'मिस्टर इण्डिया' फ़िल्म का यह मचलता गीत और याद कीजिए हवा हवाई गर्ल श्रीदेवी की उन चुलबुली अदाओं को। मैं तो चला पटाख़े फोड़ने। आप सभी को एक बार फिर 'हैप्पी दिवाली'। नमस्कार!
क्या आप जानते हैं... कि गायिका कविता कृष्णमूर्ती का पहला गीत लता मंगेशकर के साथ गाया हुआ एक बंगला गीत था।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ०१ /शृंखला ०३ लीजिए गीत का इंटरल्यूड और पहले अंतरे के दो शब्द भी है इस झलक में-
अतिरिक्त सूत्र - लता की आवाज़ में है ये गीत.
सवाल १ - गीतकार हिंदी साहित्य में भी बहुत बड़ा नाम रखते हैं, (इनकी सुपुत्री अंतरजाल पर हिंदी लेखन में काफी सक्रिय हैं) गीतकार का नाम बताएं- १ अंक सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक सवाल ३ - फिल्म का नाम क्या है - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - अरे दूसरी शृंखला में अमित जी और शरद जी के बीच टाई हो गया है. ऐसे में हमें दोनों को ही एक एक बार विजेता घोषित करना पड़ेगा. यानी कि अब तक श्याम कान्त जी, अमित जी और शरद जी एक एक बाज़ी जीत चुके हैं. चलिए अब नयी चुनौती का सामना कीजिये. वैसे कल अमित जी अगर १ अंक के सवाल का भी जवाब दे देते तो सोलो विजेता बन जाते पर कल वो आये ही नहीं. हमारे श्याम कान्त जी नदारद हैं. प्रतिभा जी इस बार नए सिरे से झुझिये इन धुरंधरों से. अवध और नीरज जी आपका आभार इतनी दिलचस्प जानकारियाँ बांटने के लिए
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
हाँ तो दोस्तों, कैसी लग रही है आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले'? अब तक हमने इसमें जिन जिन ग़लतियों पर नज़र डाले हैं, वो हैं गायक का ग़लत जगह पे गा देना, गायक का ग़लत शब्द उच्चारण, गीत में ग़लत शब्द का व्यवहार, फ़िल्मांकन में त्रुटि, और गीत के अंतरे की पंक्तियाँ दो अंतरों के बीच आपस में बदल जाना। इन सब ग़लतियों से शायद आपको लग रहा होगा कि इनमें संगीतकार की तो कोई ग़लती नहीं है। है न? लेकिन आज हम जिस गीत का ज़िक्र करने वाले हैं, उसके लिए तो मेरे ख़याल से संगीतकार ही ज़िम्मेदार हैं। यह है फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' का बेहद लोकप्रिय युगल गीत "कांची रे कांची रे, प्रीत मेरी सांची, रुक जा न जा दिल तोड़ के"। नेपाली लोक धुन को आधार बना कर राहुल देव बर्मन कैसा ख़ूबसूरत कम्पोज़िशन बनाई है इस गीत के लिए। आनंद बक्शी के बोल तथा किशोर कुमार व लता मंगेशकर की युगल आवाज़ें। इस गीत में कोई शाब्दिक ग़लती तो नहीं है, लेकिन कम्पोज़िशन में एक त्रुटि ज़रूर सुनाई देती है। इस त्रुटि पर नज़र डालने से पहले हम आपको यह बताना चाहेंगे कि 'हरे रामा हरे कृष्णा' ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला की एक ऐसी फ़िल्म बन गई है जिसके सब से ज़्यादा गानें इस स्तंभ में शामिल हुए हैं। आज चौथी बार हम इस फ़िल्म का गाना सुन रहे हैं। इससे पहले हमने "फूलों का तारों का", "देखो ओ दीवानों" और "आइ लव यू" जैसे गीत बजा चुके हैं। तो यह भी एक रेकॊर्ड बना आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का। अब देखना यह है कि इस रेकॊर्ड की बराबरी या इस रेकॊर्ड को पार कौन सी फ़िल्म कर पाती है। क्योंकि हमने इस फ़िल्म के तीन गीत सुनवा चुके हैं, इसलिए ज़ाहिर सी बात है कि फ़िल्म के तमाम डीटेल्स भी बता ही चुके होंगे। और वैसे भी यह इतनी मशहूर फ़िल्म है कि शायद ही कोई होगा जिसे इस फ़िल्म और इसके गीतों के बारे में मालूम ना होगा। इसलिए उस तरफ़ ना जाते हुए हम सीधे आ जाते हैं मुद्दे पर।
मुद्दा यह है कि किसी भी संगीतकार को कम्पोज़िशन करते वक़्त यह ध्यान में ज़रूर रखना चाहिए कि जिस गायक या गायिका के लिए वो गीत कम्पोज़ कर रहे हैं, वो गायक या गायिका उसे गा पाएँगे या नहीं। यानी उनके रेंज का वह गीत है भी कि नहीं। साधारणत: हर संगीतकार इस बात का पूरा पूरा ध्यान रखते हैं। लेकिन हमारे पंचम दा ने एक गाना ऐसा कम्पोज़ कर दिया कि जिसे गाते हुए लता जी की आवाज़ भी परेशान हो उठीं। जी हाँ, हम आज के प्रस्तुत गीत की ही बात कर रहे हैं। आपको याद होगा कि इस गीत में कुल तीन अंतरे हैं, पहले दो अंतरे किशोर दा गाते हैं और अंतिम अंतरा लता जी का है। अंतरा और मुखड़ा का जो कनेक्टिंग् लाइन होता है, उसका गाने की लोकप्रियता में बड़ा हाथ होता है। तो पहले अंतरे में यह लाइन किशोर दा गाते हैं "मुश्किल है जीना, दे दे ओ हसीना, वापस मेरा दिल मोड़ के", और दूसरे अंतरे में "वापस ना आऊँगा, मैं जो चला जाऊँगा ये तेरी गलियाँ छोड़ के", और क्या ख़ूब गाते हैं। लेकिन तीसरे अंतरे में जब लता जी वैसी ही ऊँची पट्टी पर "बस चुप ही रहना, अब फिर ना कहना, रुक जा न जा दिल तोड़ के" गाती हैं तो "रहना" शब्द पर जाकर उन्हें काफ़ी तकलीफ़ होती है, जो साफ़ महसूस की जा सकती है। अब यह सोचने वाली बात है कि किशोर दा ने "मुश्किल है जीना" या "वापस ना आऊँगा" गाया था, तब उन्हें तो इस तरह की तक़लीफ़ नहीं हुई। तो क्या इसका मतलब यह कि नारी कंठ में इस रेंज तक पहुँचना मुश्किल है? अगर लता जी इसे नहीं ठीक से गा सकीं तो हमें नहीं लगता कि आशा जी के अलावा कोई और गायिका इसे गा पातीं। अब गीत का सिचुएशन ही ऐसा था कि इस लाइन को नायिका से ही गवाना था, इसलिए इसमें किसी तरह के फेर बदल की गुंजाइश नहीं बची< और यह गाना रेकोर्ड हो गया और इसी तरह से आज तक ब-दस्तूर बजता चला आ रहा है। पता नहीं आपने कभी इस बात पर ग़ौर किया होगा कि नहीं, लेकिन हमें ऐसा लगा कि इसे भी इस गड़बड़ी वाले गीतों में शामिल कर लें, इसलिए कर लिया। तो चलिए गीत सुना जाए, और सैर की जाए नेपाल की तंग लेकिन ख़ूबसूरत गलियों की।
क्या आप जानते हैं... कि गुरुदत्त अपनी पत्नी गीता दत्त को नायिका लेकर 'गौरी' नामक फ़िल्म बनाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने पंचम को अनुबंधित कर दो गीत भी रेकॊर्ड कर लिए थे। पर यह फ़िल्म ना बन सकी।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली १० /शृंखला ०२ चलिए एक और आसान पहेली दिए दिते हैं -
अतिरिक्त सूत्र - जरुरत नहीं है किसी अतिरिक्त सूत्र की.
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक सवाल २ - गायिका पहचाने - २ अंक सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - अमित जी आखिरकार आगे निकल ही गए, बधाई...और शंकर लाल जी देखिये कल का दिन आपका था आपको और प्रतिभा जी को भी बधाई
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
'गीत गड़बड़ी वाले' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस अनोखी शृंखला की आठवीं कड़ी में आप सभी का एक बार फिर स्वागत है। जैसा कि कल हमने आपको बताया था, आज भी हम एक ऐसा गीत सुनेंगे जिसमें गायक ने उर्दू उच्चारण में गड़बड़ी की है। कल आशा जी की बारी थी, आज कठघड़े में हैं उनकी बड़ी बहन लता जी। एक फ़िल्म आयी थी साल १९५१ में - 'सगाई'। इसमें एक बड़ा ही चंचल गीत था "झुकती है दुनिया झुकाने वाला चाहिए"। उस ज़माने में सी. रामचन्द्र के इस अंदाज़ के गानें ख़ूब चले थे। हास्य रस पर आधारित इस गीत को गाया था लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, चितलकर और साथियों ने। गीत के एक अंतरे की पंक्तियाँ हैं "श्रीमती हो या बेगम, एक जान और सौ सौ ग़म, औरत को कमज़ोर ना समझो मर्दों से किस बात पे कम"। इस पंक्ति में लता जी ने "बेगम" शब्द में "ग" को उर्दू गाफ की जगह ग़ैन का उपयोग कर "बेगम" को "बेग़म" गाया है। कुछ इसी तरह की ग़लती लता जी ने बरसों बरस बाद १९९५ की सुपर डुपर हिट फ़िल्म 'दिल तो पागल है' के एक गीत में भी किया है। लेकिन उसमें उन्होंने "ख़" को "ख" गाया है। "चाँद ने कुछ कहा, रात ने कुछ सुना, तू भी सुन बेख़बर प्यार कर"।
'सगाई' वर्मा फ़िल्म्स की प्रस्तुति थी जिसे निर्देशित किया था एच. एस. रवैल ने। प्रेम नाथ, रेहाना, याकूब, गोप, विजयलक्ष्मी अभिनीत इस फ़िल्म के गानें लिखे थे राजेन्द्र कृष्ण ने। आज के प्रस्तुत गीत के अलावा इस फ़िल्म में एक और हास्य गीत था लता जी की एकल आवाज़ में, जिसके बोल थे "डैडी जी मेरी मम्मी को सताना नहीं अच्छा"। इसके अलावा लता और तलत के गाये "मोहब्बत में ऐसे ज़माने भी आए, कभी रो दिए हम कभी मुस्कुराये" के क्या कहने! और लता की गाई "दिल की कहानी कहना तो चाहे हाये री क़िस्मत कह ना सके" भी ख़ूब मशहूर हुई थी उस ज़माने में। इसी साल लता - सी. रामचन्द्र - राजेन्द्र कृष्ण की टीम ने फ़िल्म 'ख़ज़ाना' में एक गाना दिया था, "ऐ चाँद प्यार मेरा मुझसे कह रहा है, युं बेवफ़ा ना होना दुनिया तो बेवफ़ा है", जो लेखन, संगीत और गायकी के लिहाज़ से बेहद उत्कृष्ट गीत है, लेकिन अफ़सोस कि आज ऐसे गीतों को भुला दिया जा चुका है। 'सगाई' में रफ़ी, चितलकर और शम्शाद बेगम का गाया हुआ भी एक दुर्लभ गीत है "एक दिन लाहौर की ठंडी सड़क... तबीयत साफ़ हो गई साफ़", यह गीत भी निस्संदेह हास्य व्यंग का गीत है। तो आइए इसी हास्य व्यंग के मूड को बरकरार रखते हुए सुनते हैं लता-रफ़ी-चितलकर की त्रिवेणी संगम से उत्पन्न फ़िल्म 'सगाई' का यह समूह गीत।
क्या आप जानते हैं... कि सी. रामचन्द्र को १९३९ की तमिल फ़िल्म 'जयकोडी' में संगीत देने का मौका मिला था। पर फ़िल्म की नायिका से वो इश्क़ कर बैठे। और क्योंकि फ़िल्म के निर्माता भी उसी नायिका पर आशिक़ थे, इसलिए बात बिगड़ गई और सी. रामचन्द्र के हाथ से फ़िल्म निकल गई।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ०९ /शृंखला ०२ बहुत आसान है इस प्रिल्यूड को सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - इस युगल गीत में पुरुष आवाज़ है किशोर दा की.
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक सवाल २ - गीतकार बताएं - २ अंक सवाल ३ - संगीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - अमित जी आपने पूरे प्रश्न का जवाब सही नहीं दिया, इसलिए हमें अंक शरद जी को देने पड़ेंगें. प्रतिभा जी और किशोर जी अरसे बाद लौटे कल, स्वागत और मनु जी ने आकर तो नुक्ते पर पूरी नुक्ताचीनी ही कर दी. अवध जी सुनना पड़ेगा फिर आपके वाला गीत भी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
सुजॊय - 'ताज़ा सुर ताल' की एक और कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं, और आप सभी का हार्दिक स्वागत है इस साप्ताहिक स्तंभ में! विश्व दीपक जी, पता है जब भी मैं इस स्तंभ के लिए आप से बातचीत का सिलसिला शुरु करता हूँ तो मुझे क्या याद आता है?
विश्व दीपक - अरे पहले मुझे सभी को नमस्ते तो कह लेने दो! सभी पाठकों व श्रोताओं को मेरा नमस्कार और सुजॊय, आप को भी! हाँ, अब बताइए आप को किस बात की याद आती है।
सुजॊय - जब मैं छोटा था, और गुवाहाटी में रहता था, तो उस ज़माने में तो फ़िल्मी गानें केवल रेडियो पर ही सुनाई देते थे, तभी से मुझे रेडियो सुनने में और ख़ास कर फ़िल्म संगीत में दिलचस्पी हुई। तो आकाशवाणी के गुवाहाटी केन्द्र से द्पहर के वक़्त दो घंटे के लिए सैनिक भाइयों का कार्यक्रम हुआ करता था (आज भी होता है) , जिसके अंतर्गत कई दैनिक, साप्ताहिक और मासिक कार्यक्रम प्रस्तुत होते थे फ़िल्मी गीतों के, कुछ कुछ विविध भारती अंदाज़ के। तो हर शुक्रवार के दिन एक कार्यक्रम आता था 'एक ही फ़िल्म के गीत', जिसमें किसी नए फ़िल्म के सभी गीत बजाए जाते थे। तो गर्मी की छुट्टियों में या कभी भी जब शुक्रवार को स्कूल की छुट्टी हो, उस 'एक ही फ़िल्म के गीत' कार्यक्रम को सुनने के लिए मैं और मेरा बड़े भाई बेसबरी से इंतज़ार करते थे। और कार्यक्रम शुरु होने पर जब उद्घोषक कहते कि "आज की फ़िल्म है...", उस वक़्त तो जैसे उत्तेजना चरम सीमा तक पहूँच जाया करती थी कि कौन सी फ़िल्म के गानें बजने वाले हैं। मुझे अब भी याद है कि हम किस तरह से ख़ुश हुए थे जिस दिन 'हीरो' फ़िल्म के गानें हमने पहली बार सुने थे उसी कार्यक्रम में।
विश्व दीपक - बहुत ही ख़ूबसूरत यादें हैं, और मैं भी महसूस कर सकता हूँ। उन दिनों मनोरंजन के साधन केवल रेडियो ही हुआ करता था, जिसकी वजह से रेडियो की लोकप्रियता बहुत ज़्यादा थी। अब बस यही कह सकते हैं कि विज्ञान ने हमें दिया है वेग, पर हमसे छीन लिया है आवेग।
सुजॊय - वाह! क्या बात कही है आपने! हाँ, तो मैं यही कह रहा था कि आज 'ताज़ा सुर ताल' प्रस्तुत करते हुए मुझे ऐसा लगता है कि मैं भी उन्हीं उद्घोषकों की तरह किसी नए फ़िल्म के गानें लेकर आता हूँ, कार्यक्रम वही एक ही फ़िल्म का है, लेकिन श्रोता से अब मैं एक प्रस्तुतकर्ता बन गया हूँ। चलिए अब बताया जाये कि आज हम कौन सी नई फ़िल्म के गीत लेकर उपस्थित हुए हैं।
विश्व दीपक - दरअसल, आज हम ज़रा हल्के फुल्के मूड में हैं। इसलिए ना तो आज किसी क़िस्म का सूफ़ी गीत बजेगा, और ना ही कोई दर्शन का गीत। आज तो बस मस्ती भरे अंदाज़ में सुनिए अक्षय कुमार और ऐश्वर्या राय बच्चन की नई नवेली फ़िल्म 'ऐक्शन रीप्ले' के गीत। विपुल शाह निर्देशित इस फ़िल्म में गीतकार - सगीतकार जोड़ी के रूप में हैं इरशाद कामिल और प्रीतम। अन्य मुख्य कलाकारों में शामिल हैं रणधीर कपूर, किरण खेर, ओम पुरी, नेहा धुपिया और आदित्य रॊय कपूर।
सुजॊय - इससे पहले कि गीतों का सिलसिला शुरु करें, मैं यह याद दिलाना चाहूँगा कि विपुल शाह की थोड़ी कम ही चर्चा होती है, लेकिन इन्होंने बहुत सी कामियाब और म्युज़िकल फ़िल्में दी हैं और अपने लिए एक सम्माननीय स्थान इस इण्डस्ट्री में बना लिया है। विपुल शाह और अक्षय कुमार की जोड़ी भी ख़ूब रंग लायी है, जैसे कि 'वक़्त', 'नमस्ते लंदन', 'सिंह इज़ किंग्' और 'लंदन ड्रीम्स' जैसी फ़िल्मों में। विपुल शाह निर्मित और अनीज़ बाज़्मी निर्देशित रोमांटिक कॊमेडी 'सिंह इज़ किंग्' में प्रीतम के सुपरहिट संगीत से ख़ुश होकर विपुल ने अपनी इस अगली रोमांटिक कॊमेडी के संगीत के लिए प्रीतम को चुना है।
विश्व दीपक - फ़िल्म की कहानी के हिसाब से फ़िल्म में ७० के दशक के संगीत की छाया होनी थी। दरअसल इस फ़िल्म की कहानी भी बेहद अजीब-ओ-ग़रीब है। इस फ़िल्म में आदित्य रॊय कपूर अपने माता पिता (ऐश्वर्या और अक्षय), जिनकी एक दूसरे से शादी नहीं हो पायी थी, टाइम मशीन में बैठ कर ७० के दशक में पहूँच जाता है और अपने माता पिता का मिलन करवाता है। तो इतनी जानकारी के बाद आइए अब पहला गीत सुन ही लिया जाए।
गीत - ज़ोर का झटका
सुजॊय - वाक़ई ज़ोर का झटका था! फ़ुल एनर्जी के साथ दलेर मेहंदी और रीचा शर्मा ने इस गीत को गाया है और आजकल यह गीत लोकप्रियता की सीढियाँ चढ़ता जा रहा है। शादी के नुकसानों को लेकर कई हास्य गीत बनें हैं, यह गीत उसी श्रेणी में आता है, और पूरी टीम ने ही अच्छा अंजाम दिया है गीत को।
विश्व दीपक - बड़ा ही संक्रामक रीदम है गीत का। कुछ कुछ "चोर बाज़ारी" गीत की तरह लगता है शुरु शुरु में, लेकिन बाद में प्रीतम ने गीत का रुख़ दूसरी ओर ही मोड़ दिया है। दलेर मेहंदी की गायकी के तो क्या कहने, और रीचा शर्मा के गले की हरकतों से तो सभी वाक़ीफ़ ही हैं। इन दोनों के अलावा मास्टर सलीम ने भी अपनी आवाज़ दी है इस गीत में कुछ और मसाला डालने के लिए।
सुजॊय - इस मस्ती भरे गीत के बाद अब एक रोमांटिक गीत, उस ७० के दशक के स्टाइल का हो जाए! गायिका हैं श्रेया घोषाल।
गीत - ओ बेख़बर
विश्व दीपक - बड़ा ही मीठा, सुरीला गीत था श्रेया की आवाज़ में। प्रीतम के संगीत की विशेषता यही है कि वो पूरी तरह से व्यावसायिक हैं, जिसे कहते हैं 'ट्रुली प्रोफ़ेशनल'। जिस तरह का संगीत आप उनसे माँगेंगे, वो बिलकुल उसी तरह का गीत आपको बनाकर दे देंगे। पीछले साल प्रीतम का ट्रैक रेकॊर्ड सब से उपर था, इस साल भी शायद उनका ही नाम सब से उपर रहेगा। ख़ैर, इस गीत की बात करें तो एक टिपिकल यश चोपड़ा फ़िल्म के गीत की तरह सुनाई देता है, बस लता जी की जगह अब श्रेया घोषाल है।
सुजॊय - मुझे तो इस गीत को सुनते हुए लग रहा था जैसे फूलों भरी वादियों, बर्फ़ीली पहाड़ियों, हरे भरे खेतों और झीलों में यह फ़िल्माया गया होगा। गानें का रंग रूप तो आधुनिक ही है, लेकिन एक उस ज़माने की बात भी कहीं ना कहीं छुपी हुई है। ऐश्वर्या के सौंदर्य को कॊम्प्लीमेण्ट करता यह गीत लोगों के दिलों को छू सकेगा, हम तो ऐसी ही उम्मीद करेंगे। ऐश्वर्या - श्रेया कम्बिनेशन में फ़िल्म 'गुरु' का गीत "बरसो रे मेघा मेघा" जिस तरह से लोकप्रिय हुआ था, इस गीत से भी वह उम्मीद रखी जा सकती है।
विश्व दीपक - चलिए अब बढ़ते हैं तीसरे गीत की ओर। इस बार सेवेंटीज़ के रेट्रो शैली का एक गीत "नखरे", जिसे आप एक कैम्पस छेड़-छाड़ सॊंग् भी कह सकते हैं।
गीत - नखरे
सुजॊय - "लड़की जो बनती प्रेमिका, बैण्ड बजाये चैन का, उड़ जाता सर्कीट ब्रेन का, पटरी पे बैठा आदमी, देखे रास्ता ट्रेन का"। कमाल के ख़यालात हैं इरशाद साहब के, जिनके लेखनी की दाद देनी ही पड़ेगी! और संगीत में प्रीतम ने कमाल तो किया ही है। गाने में आवाज़ फ़्रण्कोयस कास्तलीनो का था, जिन्हें आजकल हिंदी के एल्विस प्रेस्ली कहा जा रहा है। एक फ़ुल्टू रॊक-एन-रोल पार्टी सॊंग जिसे सुन कर झूमने को दिल करता है।
विश्व दीपक - अक्षय कुमार के मशहूर संवाद "आवाज़ नीचे" को गीत के शुरुवाती हिस्से में सुना जा सकता है। गीत के ऒरकेस्ट्रेशन की बात करें तो गीटार और पर्क्युशन का ज़बरदस्त इस्तेमाल प्रीतम ने किया है, और गीत के मूड और स्थान-काल-पात्र के साथ पूरा पोरा न्याय किया है।
सुजॊय - अच्छा विश्व दीपक जी, पिछली बार आपने किसी हिंदी फ़िल्म में होली गीत कब देखी थी याद है कुछ आपको?
विश्व दीपक - मेरा ख़याल है कि विपुल शाह की ही फ़िल्म 'वक़्त' में "डू मी एक फ़ेवर लेट्स प्ले होली" और 'बाग़बान' में "होली खेले रघुवीरा अवध में" ही होने चाहिए। वैसे आप के सवाल से ख़याल आया कि ७० के दशक में जिस तरह से होली गीत फ़िल्मों के लिए बनते थे, और जिस तरह से फ़िल्माये जाते थे, उनमें कुछ और ही बात होती थी। फ़िल्मी गीतों से धीरे धीरे विविधता ख़त्म होती जा रही है, ख़ास कर त्योहारों के गीत को बंद ही हो गये हैं। ख़ैर, होली गीत की बात चली है तो 'ऐक्शन रीप्ले' में भी एक होली गीत की गुंजाइश रखी गई है, आइए उसी गीत को सुन लिया जाए।
गीत - छान के मोहल्ला
सुजॊय - ऐश्वर्या और नेहा धुपिया पर फ़िल्माया गया यह गीत सुनिधि चौहान और ऋतु पाठक की आवाज़ों में था। पूर्णत: देसी फ़्लेवर का गाना था, लेकिन प्रीतम ने इस बात का पूरा पूरा ध्यान रखा कि यह एक आइटम सॊंग् होते हुए भी ऐश्वर्या पर फ़िल्माया जा रहा है, इसलिए एक तरह ही शालीनता भी बरक़रार रखी है।
विश्व दीपक - इरशाद कामिल लगता है गुलज़ार साहब के नक्श-ए-क़दम पर चल निकले हैं इस गीत में, जब वो लिखते हैं कि "जली तो, बुझी ना, क़सम से कोयला हो गई मैं"। इस तरह की उपमाएँ गुलज़ार साहब ही देते आये हैं। देखना यह है कि क्या यह गीत भी "डू मी एक फ़ेवर" की तरह चार्टबस्टर बन पाता है या नहीं।
सुजॊय - चार गानें हमने सुन लिए, और एक बात आपने ग़ौर की होगी कि इनमें ७० के दशक के रंग को लाने की कोशिश तो की गई है, लेकिन हर गीत एक दूसरे से अलग है। हम इस ऐल्बम के करीब करीब बीचो बीच आ पहुँचे हैं, यानी कि ९ गीतों में से ४ गीत सुन चुके हैं। तो आइए बिना कोई कमर्शियल ब्रेक लिए सुनते हैं 'ऐक्शन रीप्ले' का पाँचवाँ गीत।
गीत - तेरा मेरा प्यार
विश्व दीपक - कुल्लू मनाली की स्वर्गीक सुंदरता इस गीत के फ़िल्मांकन की ख़ासीयत है, और इस गीत को सुनने के बाद समझ में आता है कि विपुल शाह ने करीब करीब एक साल तक क्यों इंतेज़ार किया वहाँ के मौसम में सुधार का। पहाड़ी लोक गीत की छाया लिए इस गीत में अगर प्रीतम के भट्ट कैम्प की शैली सुनाई देती है तो कुछ कुछ रहमान का अंदाज़ भी महसूस होता है।
सुजॊय - बिलकुल मुझे भी यह गीत ईमरान हाश्मी टाइप का गीत लगा। कार्तिक, महालक्ष्मी और अंतरा मित्र की आवाज़ों में यह रोमांटिक गीत का भी अपना मज़ा है। और आपने कुल्लू मनाली का ज़िक्र छेड़ कर तो जैसे मुझे रोहतांग पास की पहाड़ियों में वापस ले गए जहाँ पर मैं अपने मम्मी डैडी के साथ दो साल पहले दशहरे के समय गया था। रोहतांग पास के समिट पर ऐसी बर्फ़ीली हवाएँ कि एक मिनट आप खड़े नहीं रह सकते। वहाँ से वापस आने के बाद ऐसा लगा कि जैसे किसी सपनो की दुनिया से घूम कर वापस आ रहे हों। मेरी मम्मी का एक्स्प्रेशन कुछ युं था कि "अब मुझे कहीं और घूमने जाने की चाहत ही नहीं रही"। ऐसा है कुल्लू मनाली।
विश्व दीपक - चलिए अब कुल्लू मनाली से पंजाब की धरती पर आ उतरते हैं, और सुनते हैं मीका की आवाज़ में "धक धक धक"।
गीत - धक धक धक
सुजॊय - प्रीतम के गायक चयन के बारे में हम कुछ दिन पहले ही बात कर चुके हैं। आज फिर से दोहरा रहे हैं कि प्रीतम यह भली भाँति जानते हैं कि कौन सा गीत किस गायक से गवाना है। और जब गीत बनकर बाहर आता है तो हमें यह मानना ही पड़ता है कि इस गीत के लिए चुना हुआ गायक ही सार्थक हैं उस गीत के लिए।
विश्व दीपक - इकतारा की धुनें, उसके बाद फिर धिनचक रीदम, कुल मिलाकर एक मस्ती भरा गीत। इस गीत के लिए भी थम्प्स अप ही देंगे। चलिए अब लुका छुपी का खेल भी खेल लिया जाए। अगर आपको याद हो तो फ़िल्म 'ड्रीम गर्ल' में एक गाना था "छुपा छुपी खेलें आओ", और अमिताभ बच्चन की फ़िल्म 'दो अंजाने' में भी "लुक छुप लुक छुप जाओ ना" गीत था। ये दोनों ही गानें बच्चों को केन्द्र में रख कर लिखे और फ़िल्माये गये थे। लेकिन 'ऐक्शन रीप्ले' का "लुक छुप" एक मस्ती और धमाल से लवरेज़ गीत है जिसे के. के और तुल्सी कुमार ने गाया है, जो आजकल अपने अपने करीयर में पूरे फ़ॊर्म में हैं।
सुजॊय - ७० के दशक के संगीत की बात है तो कुछ हद तक ऋषी कपूर के नृत्य गीतों की छाया इस गीत में पड़ती हुई सी लगती है। चलिए सुनते हैं।
गीत - लुक छुप जाना
विश्व दीपक - आपने ग़ौर किया कि मुखड़े का इस्तेमाल अंतरे में भी हुआ है, और यही चीज़ शायद गीत को भीड़ से अलग करती है। तालियों, सिन्थेसाइज़र, ग्रुंजे गीटार और स्टेडियम रॊक के रम्ग इस गीत में भरे गये हैं। ७० के नहीं, बल्कि मैं यह कहूँगा कि अर्ली से लेके मिड एइटीज़ का प्रभाव है इस गीत के संगीत में।
सुजॊय - रॊक मूड को बरकरार रखते हुए अब बारी है सूरज जगन के आवाज़ की, गीत है "आइ ऐम डॊग गॊन क्रेज़ी"। सूरज जगन आज के अग्रणी रॊक गायकों में से एक हैं, लेकिन इस गीत में ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने आवाज़ को दबाया हुआ है। इस ऐल्बम के हिसाब से मुझे तो यह गीत थोड़ा ढीला लगा, देखते हैं हमारे श्रोताओं के क्या विचार हैं।
विश्व दीपक - ६० और ७० के दशकों में बनने वाले रॊक गीतों का अंदाज़ लाने की कोशिश है इस गीत में। यहाँ पे यह बताना ज़रूरी है कि प्रीतम ही वो संगीतकार हैं जिन्होंने हार्ड रॊक को बैण्ड शोज़ से निकालकर हिंदी फ़िल्म संगीत की मुख्य धारा में शामिल करवाया 'गैंगस्टर' और 'लाइफ़ इन ए मेट्रो' जैसी फ़िल्मों के ज़रिये। आइए सुनते हैं...
गीत - आइ ऐम डॉग गॊन क्रेज़ी
सुजॊय - और अब हम पहूँच गये हैं 'ऐक्शन रीप्ले' फ़िल्म के नौवें और अंतिम गीत पर। श्रेया घोषाल की आवाज़ में नृत्य गीत "बाकी मैं भूल गई" प्यार का इज़हार करने वाले गीतों की श्रेणी में आता है, जिसमें नायिका अपनी दीवानगी ज़ाहिर करती है और उसका इक़रार करती है। प्रीतम विविधता का परिचय देते हुए मुखड़े और अंतरे की रीदम को बिलकुल अलग रखा है।
विश्व दीपक - वैसे इस गीत का प्रेरणा स्रोत हैं एक मिडल-ईस्टर्ण नंबर है, और फ़ीरोज़ ख़ान की फ़िल्मों में इस तरह के संगीत का इस्तेमाल सुना गया है। कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि इस ऐल्बम का एक सुखांत हुआ है। चलिए यह गीत सुन लेते हैं।
गीत - बाकी मैं भूल गई
सुजॊय - इन तमाम गीतों को सुनने के बाद मेरी अदालत यह फ़ैसला देती है कि 'ऐक्शन रीप्ले' के गीतों को बार बार रीप्ले किया जाए और सुना जाए। मेलडी और मस्ती का संगम है 'ऐक्शन रीप्ले' का ऐल्बम। प्रीतम, इरशाद कामिल और तमाम गायक गायिकाओं को मेरी तरफ़ से थम्प अप! 'चुस्त-दुरुस्त गीत' और 'लुंज पुंज गीत' तो विश्व दीपक जी अभी बताएँगे, लेकिन मुझसे अगर पूछा जाए कि वह एक गीत कौन सा है जो इस ऐल्बम का सर्वोत्तम है, तो मेरा वोट "ओ बेख़बर" को ही जाएगा।
विश्व दीपक - आपकी पसंद से हमारी पसंद जुदा कैसे हो सकती है सुजॉय जी। आपने "ओ बेखबर" को वोट दिया है तो मैं उसे हीं आज का "चुस्त-दुरुस्त" गीत घोषित करता हूँ। वैसे इस फिल्म के सभी गाने अच्छे हैं। मज़ेदार बात तो ये है कि इस दिवाली को जिन दो बड़ी फिल्मों में टक्कर है वे हैं "ऐक्शन रिप्ले" और "गोलमाल ३" और दोनों में हीं संगीत प्रीतम दा का है। अगर आप दोनों फिल्मों के गानें सुनें तो आपको लगेगा कि प्रीतम दा ने अपना ज्यादा प्यार "ऐक्शन रिप्ले" को दिया है और "गोलमाल ३" को जल्दी में निपटा-सा दिया है। खैर ये तो निर्माता-निर्देशक पर निर्भर करता है कि वे किसी संगीतकार या गीतकार से किस तरह का काम लेते हैं। मैं तो बस इतना हीं कह सकता हूँ कि विपुल शाह इस काम में सफल साबित हुए हैं। चलिए तो इन्हीं बातों के साथ आज की बैठक समाप्त करते हैं। जाते-जाते सुजॉय जी आपको और सभी मित्रों को दिपावली की अग्रिम शुभकामनाएँ।
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! एक दोहे मे कहा गया है कि "दोस (दोष) पराये देख के चला हसन्त हसन्त, अपनी याद ना आवे जिनका आदि ना अंत"। यानी कि हम दूसरों की ग़लतियों को देख कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं, लेकिन अपनी ग़लतियों का कोई अहसास नहीं होता। अब आप अगर यह सोच रहे होंगे कि हमें दूसरों की ग़लतियाँ नहीं निकालनी चाहिए, तो ज़रा ठहरिए, क्योंकि कबीरदास के एक अन्य दोहे में यह भी कहा गया है कि "निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटि चवाय, बिना पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय"। यानि कि हमें उन लोगों को अपने आस पास ही रखने चाहिए जो हमारी निंदा करते हैं, ताकि इसी बहाने हमें अपनी ख़ामियों और ग़लतियों के बारे में पता चलता रहेगा, जिससे कि हम अपने आप को सुधार सकते हैं। आप समझ रहे होंगे कि हम ये सब बातें किस संदर्भ में कर रहे हैं। जी हाँ, 'गीत गड़बड़ी वले' शृंखला के संदर्भ में। क्या है कि हमें भी अच्छा तो नहीं लग रहा है कि इन महान कलाकारों की ग़लतियों को बार बार उजागर करें, लेकिन अब जब शृंखला शुरु हो ही चुकी है, तो इसे अंजाम भी तो देना पड़ेगा। तो चलिए सिलसिले को आगे बढ़ाते हैं। आज और कल के लिए हमने दो ऐसे गीत चुने हैं जिनमें किसी शब्द में नुक्ता लगा देने की वजह से ग़लत उच्चारण हो गया है। इस तरह की ग़लतियाँ उस समय होती है जब गीतकार रिहर्सल या रेकॊर्डिंग् पर मौजूद ना हों। आज का गीत है फ़िल्म 'धर्मपुत्र' का, जिसे आशा भोसले ने गाया है। गीत के बोल हैं "मैं जब भी अकेली होती हूँ, तुम चुपके से आ जाते हो, और झाँक के मेरी आँखों में, बीते दिन याद दिलाते हो"। इस गीत के अंतिम अंतरे के बोल हैं - "रो रो के तुम्हे ख़त लिखती हूँ, और ख़ुद पढ़ कर रो लेती हूँ, हालात के तपते तूफान में जज़्बात की कश्ती खेती हूँ"। आशा जी ने "ख़त" और "ख़ुद" शब्दों को तो नुक्ता के साथ सही सही गाया, लेकिन उन्होंने ग़लती से "खेती" शब्द में भी नुक्ता लगा कर उसे "ख़ेती" कर दिया। यह ग़लती ज़रूर "ख़त" और "ख़ुद" शब्दों की वजह से ही हुई होगी, जिनकी वजह से यकायक उनके मुख से "खेती" के बजाय "ख़ेती" निकल गया होगा। ख़ैर, कोई बात नहीं, इतने सुंदर गीत के लिए ऐसी छोटी सी ग़लती तो माफ़ की ही जा सकती है, है न?
'धर्मपुत्र' साल १९६१ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था बी. आर. चोपड़ा ने और उनके छोटे भाई यश चोपड़ा इस फ़िल्म के निर्देशक थे। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शशि कपूर, माला सिंहा, रहमान, । आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास पर बनी इस फ़िल्म को लिखा था अख़्तर-उल-रहमान ने। फ़िल्म के गानें लिखे साहिर लुधियानवी ने और संगीत था एन. दत्ता का। साहिर और एन. दत्ता की जोड़ी इससे पहले बी. आर. फ़िल्म्स की ही 'धूल का फूल' में काम कर चुकी थी। आपको यह भी बता दें कि यश चोपड़ा ने 'धूल का फूल' निर्देशित कर अपने आप को बतौर निर्देशक स्थापित किया था, और 'धर्मपुत्र' उनकी निर्देशित दूसरी फ़िल्म थी। इन दोनों फ़िल्मों को देख कर लोगों को पता चल चुका था कि यश चोपड़ा फ़िल्मी दुनिया में लम्बी पारी खेलने के लिए ही उतरे हैं। 'धर्मपुत्र' के सिनेमाटोग्राफ़र थे धरम चोपड़ा और सहायक संगीत निर्देशक के रूप में फ़िल्म के संगीत सृजन में महत्वपूर्ण योगदान दिया यूसुफ़ आज़ाद ने। 'धुनों की यात्रा' किताब के लेखक पंकज राग के शब्दों में, "विभाजन की ख़ूनी पृष्ठभूमि में पनपते प्यार के क्षणों को पूरी फ़िल्म में संजोकर रखने में साहिर के गीतों और एन. दत्ता की धुनों ने बड़ा योअगदान दिया। बागेश्वरी का पुट देकर काफ़ी हाट में "मैं जब भी अकेली होती हूँ" में आशा की गायकी के द्वारा किस ख़ूबी से प्यार के लम्हों को जीवन्त करने में एन. दत्ता सफल रहे थे, यह इस गीत को सुन कर ही पता चलता है।" तो लीजिए दोस्तों, हम सब मिलकर सुनें फ़िल्म 'धर्मपुत्र' का यह ख़ूबसूरत गीत।
क्या आप जानते हैं... कि एन. दत्ता का पूरा नाम है दत्ता नाइक, और उनकी पहली दो फ़िल्में थीं 'मिलाप' और 'मैरीन ड्राइव', ये दोनों ही फ़िल्में १९५५ में प्रदर्शित हुई थीं।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ०८ /शृंखला ०२ लीजिए गीत का प्रिल्यूड और शुरूआती शेर भी सुन लीजिए-
अतिरिक्त सूत्र - ये आवाज़ थी लता मंगेशकर की.
सवाल १ - फिल्म का नाम और निर्देशक बताएं - २ अंक सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक सवाल ३ - संगीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - इस दूसरी शृंखला में श्याम कान्त जी और अमित जी अब ७-७ अंकों पर साथ साथ हैं, शरद जी ५ और बिट्टू जी ४ अंकों पर हैं, मुकाबल दिलचस्प है....आज के जवाब पर बहुत निर्भर करेगा
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के एक और नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं और इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले'। इस शृंखला का दूसरा हिस्सा आज से पेश हो रहा है। आज जिस गीत को हमने चुना है उसमे है शाब्दिक गड़बड़ी। यानी कि ग़लत शब्द का इस्तेमाल। इससे पहले हमने जिन अलग अलग प्रकारों की गड़बड़ियों पर नज़र डाला है, वो हैं गायक का ग़लत जगह पे गा देना, गायक का किसी शब्द का ग़लत उच्चारण करना, गीत के अंतरों में पंक्तियों का आपस में बदल जाना, तथा फ़िल्मांकन में गड़बड़ी। आज हम बात करेंगे ग़लत शब्द के इस्तेमाल के बारे में। सन् १९७७ में एक फ़िल्म आई थी 'चांदी सोना', जिसमें आशा भोसले, किशोर कुमार और मन्ना डे का गाया एक गाना था "उलझन हज़ार कोई डाले, रुकते कहाँ हैं दिलवाले, देखो ना आ गये, मस्ताने छा गए, बाहों में बाहें डाले"। इस गीत के आख़िरी अंतरे में किशोर कुमार गाते हैं -
"जैसे बहार लिए खड़ी हाथों के हार, दीवानों देखो ना सदियों से तेरा मेरा था इंतज़ार।"
दोस्तों, आपने कभी सुना है "हाथों के हार" के बारे में? "बाहों के हार" आपने सुना होगा पर "हाथों के हार" कुछ हज़म नहीं होता। उर्दू साहित्य में "हाथों के हार" नाम की कोई चीज़ नहीं है। तो फिर इस गीत में "बाहों" का इस्तमाल क्यों नहीं किया गया? "हाथों के हार" कुछ अटपटा सा नहीं लगता?
फ़िल्म 'चांदी सोना' का निर्माण किया था संजय ख़ान ने और वो ख़ुद इस फ़िल्म के निर्देशक और नायक भी थे। इस फ़िल्म की नायिका थीं परवीन बाबी, और उल्लेखनीय बात यह कि इस फ़िल्म में हिंदी सिनेमा के तीन मशहूर विलेन ने अभिनय किया - प्राण, रणजीत, और डैनी। फ़िल्म में संगीत था राहुल देव बर्मन का और गानें लिखे मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने। दोस्तों, यह जो ग़लती इस गीत में हुई है, इसके लिए कौन ज़िम्मीदार है इस बात को आज सही सही कोई नहीं बता सकता। क्या किशोर दा के ही गाते वक़्त ग़लत शब्द उनके मुंह से निकल गया होगा? या फिर जिस किसी ने भी उन्हें काग़ज़ पर यह गीत लिख कर दिया होगा, उनसे ग़लती हुई होगी? और शायद इस गीत के रेकॊर्डिंग् के दौरान भी माजरूह साहब स्टुडियो में मौजूद नहीं रहे होंगे, वरना वो इस ग़लती की तरफ़ इशारा ज़रूर कर देते। ख़ैर, जो भी हुआ होगा, सच्चाई यही है कि इस गीत में यह गड़बड़ी हो गई। माफ़ी चाहूँगा दोस्तों, कि यह गीत कोई ख़ास ऐसा गीत नहीं है जो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बजना ही चाहिए। लेकिन क्योंकि हम गड़बड़ी वाले गानें आपको बता रहे हैं, इसलिए इस गीत को हमने शामिल कर लिया। तो आइए सुना जाए ८ मिनट अवधि का यह गीत आशा, किशोर और मन्ना डे की आवाज़ों में।
क्या आप जानते हैं... कि 'चांदी सोना' फ़िल्म में राज कपूर ने एक जिप्सी सिंगर की भूमिका अदा की थी।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ०७ /शृंखला ०२ ये धुन गीत के इंटरल्यूड और पंच ट्यून की है-
अतिरिक्त सूत्र - निर्देशक यश चोपड़ा की कामियाब फिल्म है ये.
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक सवाल २ - नायिका कौन है - १ अंक सवाल ३ - संगीतकार बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम - श्याम कान्त जी अभी भी आगे हैं. शरद जी देखकर सुखद लगा. रोमेंद्र जी का भी खाता खुला है दूसरी शृंखला में.
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
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आप चाहें गीतकार हों, संगीतकार हों, गायक हों, संगीत सुनने में रुचि रखते हों, संगीत के बारे में दुनिया को बताना चाहते हों, फिल्मी गानों में रुचि हो या फिर गैर फिल्मी गानों में। कविता पढ़ने का शौक हो, या फिर कहानी सुनने का, लोकगीत गाते हों या फिर कविता सुनना अच्छा लगता है। मतलब आवाज़ का पूरा तज़र्बा। जुड़ें हमसे, अपनी बातें podcast.hindyugm@gmail.com पर शेयर करें।
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
आवाज़ निर्माण
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