Saturday, November 21, 2009

तेरी है ज़मीन तेरा आसमां...तू बड़ा मेहरबान....कहते हैं बच्चों की दुआएं खुदा अवश्य सुनता है...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 269

बी. आर. चोपड़ा कैम्प के गीत संगीत के मुख्य रूप से कर्णधार हुआ करते थे साहिर लुधियानवी और रवि। लेकिन १९८० में इस कैम्प की एक फ़िल्म आई जिसमें गानें तो लिखे साहिर साहब ने, लेकिन संगीत के लिए चुना गया राहुल देव बर्मन को। शायद एक बहुत ही अलग सबजेक्ट की फ़िल्म और फ़िल्म में नई पीढ़ियों के किरदारों की भरमार होने की वजह से बी. आर. चोपड़ा (निर्माता) और रवि चोपड़ा (निर्देशक) ने यह निर्णय लिया होगा। जिस फ़िल्म की हम बात कर रहे हैं वह है 'दि बर्निंग् ट्रेन'। जब यह फ़िल्म बनी थी तो लोगों में बहुत ज़्यादा कौतुहल था क्योंकि फ़िल्म का शीर्षक ही बता रहा था कि फ़िल्म की कहानी बहुत अलग होगी, और थी भी। एक बहुत बड़ी स्टार कास्ट नज़र आई इस फ़िल्म में। धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, जीतेन्द्र, नीतू सिंह, परवीन बाबी, विनोद खन्ना और विनोद मेहरा जैसे स्टार्स तो थे ही, साथ में बहुत से बड़े बड़े चरित्र अभिनेता भी इस फ़िल्म के तमाम किरदारों में नज़र आए। फ़िल्म की कहानी बताने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि यह एक ऐसी फ़िल्म है जिसे लगभग सभी ने देखी है और अब भी अक्सर टी.वी. पर दिखाई जाती है। इस फ़िल्म में बच्चों का एक बहुत ही ख़ूबसूरत 'प्रेयर सॊंग्' है जो बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हुआ था। उस जलते हुए ट्रेन में स्कूल टीचर बनी सिम्मी गरेवाल भी थीं जो स्कूली बच्चों की पूरे टीम को लेकर सफ़र कर रहीं थीं। ट्रेन में आग लग जाने और ब्रेक फ़ेल हो जाने के बाद जब दूसरे लोग ट्रेन को किसी भी तरीके से रुकवाने की कोशिश में जुटे हैं, वहीं उन बच्चों के साथ उनकी टीचर ईश्वर की प्रार्थना में जुटी हैं और तभी फ़िल्म में आता है यह गीत "तेरी है ज़मीं तेरा आसमाँ तू बड़ा मेहरबान तू बख़शीष कर, सभी का है तू सभी तेरे ख़ुदा मेरे तू बख़शीष कर"। आज सुनिए इसी प्रार्थना को।

इस गीत को गाया था सुषमा श्रेष्ठ, पद्मिनी कोल्हापुरी और साथियों ने। बाल गायिकाओं में सुषमा और पद्मिनी बहुत सक्रीय रहीं हैं। एक ज़माना था जब सुषमा श्रेष्ठ ने बहुत सारे बच्चों वाले गीत गाए थे। किशोर कुमार के साथ 'आ गले लग जा' फ़िल्म में "तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई", लता जी के साथ 'ज़ख़्मी' फ़िल्म में "आओ तुम्हे चाँद पे ले जाएँ", और रफ़ी साहब के साथ 'हम किसी से कम नहीं' फ़िल्म में "क्या हुआ तेरा वादा" और 'अंदाज़' में "है ना बोलो बोलो" जैसे हिट गानें सुषमा ने जब गाए तब उनकी उम्र बहुत कम थी। यह तो आप जानते ही हैं कि आगे चलकर पूर्णिमा के नाम से वो प्लेबैक सिंगर बनीं ताकि बाल-गायिका का टैग हट जाए। लेकिन फिर भी चंद गीतों को छोड़कर उन्हे बहुत ज़्यादा कामयाबी हासिल नहीं हुई। और दूसरी गायिका पद्मिनी कोल्हापुरी, जो आगे चलकर एक हीरोइन बनीं, इन्होने भी कई बच्चों वाले गीत गाए थे। एक तो इसी शृंखला में आप सुन चुके हैं। याद है ना "मास्टर जी की आ गई चिट्ठी"? लता जी के साथ फ़िल्म 'यादों की बारात' में पद्मिनी और उनकी बहन शिवांगी ने ही तो आवाज़ मिलाई थी "यादों की बारात निकली है आज दिल के द्वारे" गीत में, जिसमें पर्दे पर एक बच्चा आमिर ख़ान भी था। ख़ैर, देखिए ना हम कहाँ से किस बात पर आ गए! ज़िक्र हो रहा है "तेरी है ज़मीं" गीत का। एक क्रीश्चन मिशनरी स्कूल के बच्चे जिस तरह का भक्ति गीत गाएँगे, बिल्कुल वैसा ही मिज़ाज बरकरार रखा है साहिर साहब ने। दोस्तों, मै बचपन से रेडियो सुनता आया हूँ, तो शायद ही कोई ऐसा साल रहा होगा जिस बार २५ दिसंबर के दिन इस गीत को क्रिस्मस के विशेष कार्यक्रम में ना बजाया गया हो! पंचम ने जिस तरह का मीटर इस गीत में रखा है, सुन कर बिल्कुल ऐसा लगता है कि जैसे हम कोई 'क्रिस्मस कैरल' सुन रहें हों। तो दोस्तों, आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम ईश्वर की आराधना में लीन हो जाते हैं और सुनते हैं इस पाक़ और मासूम गीत को!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस फिल्म में जिस नन्हें बालक ने प्रमुख भूमिका की थी, वह आगे चलकर एक एक्टर/निर्दशक बना.
२. एक चर्चित अभिनेत्री ने भी इसी फिल्म से बतौर बाल कलाकार शुरुआत की.
३. पार्श्व गायन करने वाली एक नन्ही गायिका ने भी आगे चलकर सेलिना जेठ्ली के लिए पार्श्वगायन किया.

पिछली पहेली का परिणाम -

रोहित जी, आपका जवाब हमने बाद में देखा पर आपके २ अंक सुरक्षित हैं और कल के जवाब को मिला कर आपका स्कोर हुआ ४१. बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

तोते की कहानी- रबिन्द्र नाथ टैगोर



सुनो कहानी: रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "तोते की कहानी"
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की हृदयस्पर्शी कहानी "पक्षी और दीमक" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं रबीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी "तोते की कहानी", जिसको स्वर दिया है शरद तैलंग ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 20 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




पक्षी समझते हैं कि मछलियों को पानी से ऊपर उठाकर वे उनपर उपकार करते हैं।
~ रबीन्द्र नाथ ठाकुर (1861-1941)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

सुनार बुलाया गया। वह सोने का पिंजरा तैयार करने में जुट गया।
(रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "तोते की कहानी" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Fourty Seventh Story, Tote Ki Kahani: Rabindra Nath Tagore/Hindi Audio Book/2009/41. Voice: Sharad Tailang

Friday, November 20, 2009

है न बोलो बोलो....पापा मम्मी की मीठी सुलह भी कराते हैं बच्चे गीत गाकर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 268

दोस्तों, बच्चों वाले गीतों की शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हम एक बार फिर से शम्मी कपूर और शंकर जयकिशन के कॊम्बिनेशन का एक गीत लेकर उपस्थित हुए हैं। लेकिन इस बार गीतकार शैलेन्द्र नहीं बल्कि हसरत जयपुरी साहब हैं। यह है १९७१ की फ़िल्म 'अंदाज़' का एक गीत जिसे मोहम्मद रफ़ी, सुमन कल्याणपुर, सुषमा श्रेष्ठ और प्रतिभा ने गाया है। बच्चों वाले गीतों की श्रेणी में यह गीत भी लोकप्रियता की कसौटी पर खरा उतरा था अपने ज़माने में। जी. पी. सिप्पी निर्मित, रमेश सिप्पी निर्देशित, और शम्मी कपूर, राजेश खन्ना व हेमा मालिनी अभिनीत इस फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि राजु (राजेश खन्ना) और शीतल (हेमा मालिनी) एक दूसरे से प्यार करते हैं। राजु अपने पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ एक मंदिर में शीतल से शादी कर लेता है, जिसे राजु का पिता स्वीकार नहीं करता। जल्द ही राजु एक रोड-ऐक्सिडेंट में मर जाता है और उधर शीतल माँ बनने वाली है। वो एक लड़के दीपु (मास्टर अलंकार) को जन्म देती है। शीतल को एक स्कूल टीचर की नौकरी मिल जाती है। उसका एक स्टुडेंट एक छोटी सी प्यारी सी बिन माँ की बच्ची मुन्नी है जिसके पिता हैं रवि (शम्मी कपूर)। इधर शीतल और राजु तथा उधर रवि और मुन्नी। एक ही तरह के हालातों की वजह से दोनों परिवारों में संबंध बढ़ने लगते हैं। बच्चों को लेकर रवि और शीतल अक्सर बाहर जाते हैं, पिक्निक पर जाते हैं। इन्ही सिचुयशन्स के लिए "रे मामा रे मामा रे" और "है ना बोलो बोलो" जैसे गानें लिखे गए थे। आज सुनिए "है ना बोलो बोलो"। इस फ़िल्म का एक ख़ासा लोकप्रिय गीत है किशोर दा का गाया हुआ "ज़िंदगी एक सफ़र है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना", जिसके लिए हसरत साहब को उस साल के सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला था। 'अंदाज़' शंकर जयकिशन के करीयर के आख़िरी हिट फ़िल्मों में से एक है। जिस समय यह फ़िल्म बनी थी, उस समय ना तो शैलेन्द्र जीवित थे और ना ही जयकिशन। लेकिन अपने दोस्त को और अपनी अमर जोड़ी को सम्मान देते हुए शंकर ने अपने जोड़ीदार जयकिशन के नाम को अपने नाम से अलग नहीं होने दिया।

दोस्तों, अभी दो दिन पहले 'ब्रह्मचारी' का गीत सुनवाते हुए हमने आपको शम्मी कपूर द्वारा शंकर जयकिशन के बारे में कहे गए बातें बताए थे विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम से उठाकर। आइए आज एक बार फिर से उसी इंटरव्य की तरफ़ रुख़ करते हैं और कुछ और बातें, ख़ास कर जयकिशन के बारे में, जो शम्मी साहब ने कहे थे, आपको बताते हैं। "... और हमारी आदत थी कि जिस दिन शूटिंग् ना हो, उन दिनों इतनी पिक्चरें होती नहीं थीं, तो काफ़ी वक़्त भी अपने पास होता था, क्रीकेट मैच भी देखते थे, क्रीकेट के सही या फ़ूटबॊल के, और शाम को चर्च गेट में 'बॊम्बेलीज़' हुआ करता था, फिर 'गेलॊर्ड' आ गया, तो जयकिशन की एक जगह हो गई, एक टेबल था जहाँ पर वो ११ बजे जाकर हमेशा बैठता था, वो टेबल उसके लिए रिज़र्व्ड रहती थी। यहाँ तक कि उसके गुज़र जाने के बाद भी एक काफ़ी अरसे तक उन लोगों ने वो टेबल ख़ाली रखी। किसी को बैठने नहीं देते थे वहाँ पर कि वो जयकिशन की टेबल थी। तो हम लोग मिलते थे, शाम को मिल कर के, जय, एक सिचुयशन है, तू किस किस्म का गाना मुझे दे सकता है? 'Next day he would come up and say' कि ये कैसा रहेगा? और वो ले आया "याहू, चाहे कोई मुझे जंगली कहे"। 'And the songs were created like this, by interracting with each other, by talking to each other'. ऐसा नहीं कि किसी ने गाना लिख दिया, फिर उसको फ़िल्माया, और डांस मास्टर ने डांस करवा दिया। नहीं, मेरी 'involvement' बड़ी 'total' हुआ करती थी।" दोस्तों, उन सुनहरे दिनों को शम्मी कपूर जी ने बड़े शिद्दत के साथ याद किया था उस कार्यक्रम में और तमाम संगीतकारों के बारे में बहुत सी बातें बताई थी। इन दोनों कड़ियों में हमने शंकर जयकिशन से जुड़ी बातें आपको बताई, और आइए अब सुनते हैं आज का गीत जिसमें बच्चे अपने मम्मी पापा को छेड़ते हुए गाते हैं कि "है ना बोलो बोलो, पापा को मम्मी से, मम्मी को पापा से, प्यार है प्यार है"!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. बच्चों की सामूहिक आवाज़ में ये एक प्रार्थना है.
२. जिन दो गायिकाओं की प्रमुख आवाजें थी इस गीत में उनमें से एक आगे चलकर गायिका बनी और एक मशहूर नायिका..
३. मुखड़े में शब्द है -"खुदा".

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी भूल माफ़ लिखने में गलती हुई, श्याम जी को आवाज़ पर देख कर बहुत ख़ुशी हुई....जवाब भी कोई देता तो और मज़ा आता....

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, November 19, 2009

दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ...जब तुतलाती आवाजों में ऐसे बच्चे मनाएं तो कौन भला रूठा रह पाए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 267

'ब्रच्चों का एक गहरा लगाव होता है अपने दादा-दादी और नाना-नानी के साथ। कहते हैं कि बूढ़ों और बच्चों में ख़ूब अच्छी बनती है। कभी दादी-नानी बच्चों को परियों की कहानी सुनाते हुए रूपकथाओं के देश में ले जाते हैं तो कभी सर्दी की किसी सूनसान रात में बच्चों के ज़िद पर भूतों की ऐसी कहानी सुनाते हैं कि फिर उसके बाद बच्चे बिस्तर से नीचे उतरने में भी डरते हैं। कहानी चाहे कोई भी हो, नानी-दादी से कहानी सुनने का मज़ा ही कुछ और है। ठीक इसी तरह से बच्चे भी अपने इन बड़े बुज़ुर्गों का ख़याल रखते हैं। उनके साथ सैर पे जाना, उनकी छोटी मोटी ज़रूरतों को पूरा करना, चश्मा या लाठी खोजने में मदद करना जैसे काम नाती पोती ही तो करते आए हैं। घर में जब तक बड़े बूढ़े और बच्चे हों, घर की रौनक ही कुछ और होती है। अफ़सोस की बात है कि आज की पीढ़ी के बहुत से लोग अपने बूढ़े माँ बाप से अलग हो जाते हैं। ऐसे में आज के बच्चे भी अपने दादा-दादी से अलग हो जाते हैं। यह एक ऐसी हानि हो रही है बच्चों की जिसकी किसी भी और तरीके से भरपाई होना असंभव है। जो संस्कृति और शिक्षा दादा-दादी और नाना-नानी से मिलती है, वो किसी और सूत्र से मिल पाना संभव नहीं। ख़ैर, अब हम आते हैं आज के गीत पर जिसमें अपनी दादी अम्मा को मनाया जा रहा है। कभी ना कभी हर घर में ऐसा होता है कि जब बच्चे बहुत ज़्यादा शरारत करते हैं, बात नहीं सुनते, तो दादी उनसे रूठ जाती हैं भले ही झूठ मूठ का क्यों ना हो! तो कुछ ऐसी ही रूठने मनाने की बात चल रही है आज के प्रस्तुत गीत में जो है फ़िल्म 'घराना' का। आशा भोसले और कमल बारोट की युगल आवाज़ों में यह गीत है "दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ, छोड़ो भी यह गुस्सा ज़रा हँस के दिखाओ"।

'घराना' १९६१ की फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे राजेन्द्र कुमार, राज कुमार, आशा पारेख और शोभा खोटे। लेकिन एस. एस. वासन निर्देशित इस फ़िल्म के इस गीत में जिस दादी और जिन बच्चों का ज़िक्र हो रहा है वो हैं दादी की भूमिका में ललिता पवार और बच्चे थे डेज़ी इरानी और मास्टर रणदीप। मुखराम शर्मा लिखित इस कहानी के तमाम किरदार इस तरह से थे - शांता (ललिता पवार) एक बहुत ही ग़ुस्सैल औरत जो पूरे परिवार को अपने इशारों पर चलाती है। उनका पति एक धार्मिक और शांत स्वभाव का इंसान जो अपनी पत्नी के रास्ते नहीं आते। परिवार में हैं उनकी बड़ी विधवा बहू और उसके दो छोटे छोटे बच्चे। शांता का मझला बेटा कैलाश (राज कुमार) और छोटा बेटा कमल (राजेन्द्र कुमार) जो एक कॊलेज स्टुडेंट है जिसे उषा (आशा पारेख) नाम की लड़की से प्यार है। अचानक शांता की बिगड़ी हुई लड़की अपना ससुराल छोड़कर मायके चली आती है और घर में फूट डालने की कोशिश करती है। हम फ़िल्म की कहानी पर नहीं जाएँगे क्योंकि फ़िल्म की मूल कहानी से बच्चों का कोई लेना देना नहीं है, हम तो भई आज अपनी दादी अम्मा को मनाने के मूड में हैं। तो इससे पहले कि हम अपना प्रयास शुरु करें, आपको बता दें कि इस फ़िल्म ने उस साल कई पुरस्कार बटोरे थे फ़िल्मफ़ेयर में, जैसे कि सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के रूप में रवि, सर्वश्रेष्ठ गीतकार शक़ील बदायूनी ("हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं" गीत के लिए)। शोभा खोटे को सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री के लिए और रफ़ी साहब को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक ("हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं") के लिए नामांकित किया गया था। तो चलिए अब सुना जाए आशा भोसले और कमल बारोट की आवाज़ों में शक़ील - रवि की यह बाल-रचना। ज़रा सुनिए तो सही कि शक़ील के क़लम से कैसे लगते हैं "खाली पीली" जैसे शब्द, और ज़रा याद कीजिए कि कभी आप ने भी अपनी दादी नानी को इसी तरह से मनाया होगा!!!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. बच्चों की आवाजें है इस गीत में सुषमा सेठ और प्रतिभा की.
२. फिल्म में राजेश खन्ना एक यादगार अतिथि भूमिका में दिखे थे.
३. फिल्म के एक अन्य गीत के लिए गीतकार को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्म फेयर प्राप्त हुआ था.

पिछली पहेली का परिणाम -

अरे ये हम क्या देख रहे हैं..नीलम जी का खाता खुल ही गया..बधाई....जमे रहिये....शरद जी, पराग जी....और आप सब पुराने श्रोताओं से गुजारिश है कि कुछ सुझाव दें जिसे हम ३०१ वें एपिसोड से इस फोर्मेट में कुछ सकारात्मक बदलाव करसकें

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, November 18, 2009

चक्के पे चक्का, चक्के पे गाडी....बच्चों के संग एक मस्ती भरी यात्रा पे चलिए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 266

'ब्रह्मचारी' गीतकार शैलेन्द्र की अंतिम फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के गीत "मैं गाऊँ तुम सो जाओ" के लिये उन्हे मरणोपरांत सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। बच्चों पर केन्द्रित फ़िल्मों की फ़हरिस्त में १९६८ की इस फ़िल्म का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस फ़िल्म में कई कालजयी गीत हैं, और कुछ तो लोकप्रियता की कसौटी पर ऐसे खरे उतरे हैं कि आज भी अक्सर कहीं ना कहीं से "आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे" या "दिल के झरोखे में तुझको बिठा के" सुनाई दे जाता है। अनाथ बच्चों पर आधारित इस फ़िल्म में दो बच्चों वाले गीत थे, एक जिसका उल्लेख हमने शुरु में ही किया ("मैं गाऊँ तुम सो जाओ"), और दूसरा गीत था बड़ा ही मस्ती भरा "चक्के पे चक्का, चक्के पे गाड़ी, गाड़ी में निकली अपनी सवारी", जिसे रफ़ी साहब और बच्चों ने बड़े ही बच्चों वाले अंदाज़ में गाया था। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर है इसी गीत की बारी। इस गीत के बोल साफ़ साफ़ इसी बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि यह गीत किसी ख़ास मक़सद या सिचुएशन के लिए नहीं रखा जाना था। बस बच्चों की टोली निकली है मोटर गाड़ी की सैर पर। इस साधारण सिचुएशन के लिए एक गाना चाहिए था। शैलेन्द्र ने भी बहुत ही आम भाषा में गीत लिख दिया, लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि इस 'टाइम-पास' गीत ने भी वही कमाल कर दिखाया जो शैलेन्द्र के दूसरे सीरीयस गीत करते रहे हैं। यही है निशानी एक जीनीयस गीतकार की। आज भी इस गीत को सुनते हुए वही मज़ा आता है जो शम्मी कपूर और उन तमाम बच्चों को आया होगा शूटिंग् के दौरान! सर्वश्रेष्ठ गीतकार के अलावा 'ब्रह्मचारी' ने तमाम फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते, जैसे कि शम्मी कपूर (सर्वश्रेष्ठ अभिनेता), जी. पी. सिप्पी (सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म), शंकर जयकिशन (सर्वश्रेष्ठ संगीतकार), मोहम्मद रफ़ी (सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक - "दिल के झरोखे में"), और सचिन भौमिक (सर्वश्रेष्ठ कहानी)। बस‍ इस फ़िल्म के निर्देशक बप्पी सोनी पुरस्कार से वंचित रह गए क्योंकि उस साल सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिला था रामानंद सागर को फ़िल्म 'आँखें' के लिए।

शम्मी कपूर के अलावा 'ब्रह्मचारी' के मुख्य कलाकार थे राजश्री, मुमताज़, प्राण, मोहन चोटी, असीत सेन, तथा बाल कलाकारों में प्रमुख नाम थे बेबी फ़रीदा, मास्टर शाहीद, मास्टर सचिन, महमूद जुनियर, बबी सकीना, मास्टर योनिन, बेबी मीना, बेबी फ़ाओज़िया, मास्टर अनिल, मास्टर विजय, मास्टर वसीम, मास्टर सर्जु और बबी गुड्डी। दोस्तों, क्योंकि आज का गीत शंकर जयकिशन का है और अभिनेता हैं शम्मी कपूर, और अभी हाल ही में शम्मी कपूर से एक मुलाक़ात विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में प्रसारित हुआ था जिसमें शम्मी साहब ने तमाम संगीतकारों से जुड़ी अपनी यादें बताई थी। तो क्यों ना आज शम्मी कपूर की बातें हो जाए जो उन्होने कहे थे शंकर जयकिशन के लिए उस मुलाक़ात में! "जयकिशन और मैं साथ में बड़े हुए। हम लोग हम-उम्र थे। शंकर जी भी थे थियटर में। मेरी पहली पिक्चर जिसमें शंकर जयकिशन ने संगीत दिया, वह थी 'उजाला'। बहुत अच्छी दोस्ती थी, और जैसा म्युज़िक मैने उनसे चाहा, हर बार वैसा मिलता रहा। आप यकीन कीजिएगा, मैं समझता हूँ कि शंकर जयकिशन ना ही केवल काबिल और होनहार, 'they are magicians'। आप उनसे कहिए कि मुझे इस तरह का गाना चाहिए, इस तरह का सिचुएशन है, और अब चाहिए, 'they will immediately make something and give it to you'। मैने ऐसा देखा है होते हुए। मेरे लिए भी हुआ है। मुझे बहुत जल्दी थी, और आउटडोर जा रहा था, कशमीर जा रहा था, या पैरिस जा रहा था, और मैं बाहर चला गया था, और मेरी ग़ैर हाज़िरी में गानें रिकार्ड हुए। सिलेक्शन्स हो चुका था 'ट्युन्स्' का, लेकिन रिकार्डिंग् के वक़्त मैं वहाँ नहीं था। आम तौर पर मेरी आदत थी कि 'I am present in the recordings', कि किस तरह से रफ़ी साहब ने कहाँ कहाँ किस तरह की हरकत लेनी है, जिसपे मैं जो सोचा हुआ है वो करूँगा, ये शंकर जयकिशन के साथ देखा कि जैसा आपने चाहा हो गया वैसे काम!" शम्मी जी ने उस मुलाक़ात में और भी कई बातें कहे शंकर जयकिशन के बारे में जिन्हे हम आगे चलकर आप के साथ बाँटेंगे, फ़िल्हाल वक़्त हो चला है गीत सुनने का, तो चलिए हम सब एक साथ निकल पड़ते हैं इस मस्ती भरे सैर पर!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस गीत में बच्चे किसी रूठे को मना रहे हैं.
२. फिल्म में मुख्य अभिनेत्री हैं आशा पारेख.
३. एक गायिका है कमल बारोट.

पिछली पहेली का परिणाम -

दिलीप जी डबल फिगर यानी १० अंकों पर आ चुके हैं अब आप, कोशिश कीजिये आप भी विजेता का ताज़ अवश्य पहन सकते हैं, हाँ आपकी जिज्ञासा का जवाब तो अवध जी ने दे ही दिया है. जी शरद जी आपने एकदम सहीफरमाया

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

हाय हम क्या से क्या हो गए....लज्जत-ए-इश्क़ महसूस करें जावेद अख़्तर और अल्का याज्ञनिक के साथ



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६०

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की तीसरी और अंतिम नज़्म लेकर। गायकी के दो पुराने उस्तादों(मन्ना डे और मुकेश) को सुनने-सुनाने के बाद आज हमने रूख किया है १९९० और २००० के दशक की ओर और इस सफ़र में हमारा साथ वह दे रही हैं जो आज भी उसी शिद्दत से सुनी जाती हैं जिस शिद्दत से ३० साल पहले सुनी जाती थीं। नए दौर में कई सारी नई गायिकाएँ आईं, लेकिन इनके जादू को दुहरा न सकीं। इन्होंने अपना पहला गाना १९७९ की फिल्म "पायल की झनकार" में गाया था, वह गाना ज्यादा मशहूर तो नहीं हुआ, लेकिन हाँ उस गाने ने यह घोषणा तो कर दी कि एक लम्बे दौर का घोड़ा मैदान में उतर चुका है। फिर १९८१ में आई "लावारिस" जिसमें अमिताभ बच्चन का गाया "मेरे अंगने में" बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ गया। लेकिन हाँ अमित जी के गाए इस गाने का एक रूप और था, जिसे परदे पर "राखी" गाती हैं और परदे के पीछे हमारी आज की फ़नकारा। यह गाना भी खूब चला, लेकिन अगर कोई यह पूछे कि इन्हें सही मायने में सफ़लता कब मिली, तो निर्विरोध एक हीं जवाब होगा और वह जवाब है १९८८ में रीलिज हुई फिल्म "तेजाब" का बहुचर्चित गाना "एक दो तीन"...है कोई जिसे वह गाना याद नहीं या फिर जिसे वह गाना पसंद नहीं? इन्हें इस गाने के लिए "फिल्मफ़ेयर फीमेल बेस्ट सिंगर" के अवार्ड से नवाज़ा गया। फिर उसी साल आए "क़यामत से क़यामत" तक के गानों ने तो इन्हें घर-घर की पहचान दे दी। उदित नारायण के साथ इनकी जुगलबंदी इतनी मशहूर हुई कि इस जोड़ी को न जाने कितनी हीं फिल्मों में दुहराया गया और हर बार नतीजा जबरदस्त हीं आया। १९९४ में "हम है राही प्यार के" के गाने "घूंघट की आड़ से दिलवर का" और १९९९ में "कुछ कुछ होता है" के टाईटल ट्रैक के लिए इन्हें "रजत कमल पुरस्कार" से सुशोभित किया गया। अगर फिल्मफ़ेयर पुरस्कारों की बात करें तो आशा ताई के साथ ये सबसे ज्यादा बार यह पुरस्कार (७ बार) पाने का रिकार्ड रखती हैं। हमने इनके बारे में इतनी जानकारी दी तो आप अब तक समझ हीं गए होंगे कि ये और कोई नहीं "अल्का याज्ञनिक" जी हैं। ये तो थी अलका जी, अब हम बात करने जा रहे हैं उस फ़नकार, उस लेखक, उस कवि, उस शायर की, जिनके बारे में खुद से कुछ कहना हमारे लिए संभव नहीं है। इसलिए आगे आप जो भी पढेंगे वे उनके हीं शब्द होंगे। हाँ, आगे बढने से पहले हम आपसे उनका परिचय तो करा हीं सकते हैं। तो आज की नज़्म की रचना की है उस शख्स ने, जिनका नाम उनके अब्बाजान "जांनिसार अख़्तर" ने "जादू" रखा था(यह नाम उन्होंने अपने हीं एक शेर के मिसरे "लंबा-लंबा किसी जादू का फसाना होगा" से लिया था) और आगे चलकर जो "जावेद अख़्तर" कहलाए...इन साहब का नाम आते हीं "आफ़रीन आफ़रीन" की आवाज़ कानों में घुलने लगती है। क्या कहते हैं आप?

अपनी पुस्तक "तरकश" में अपना परिचय वे कुछ इस तरह देते हैं: लोग जब अपने बारे में लिखते हैं तो सबसे पहले यह बताते हैं कि वो किस शहर के रहने वाले हैं–मैं किस शहर को अपना शहर कहूँ ?... पैदा होने का जुर्म ग्वालियर में किया लेकिन होश सँभाला लखनऊ में, पहली बार होश खोया अलीगढ़ में, फिर भोपाल में रहकर कुछ होशियार हुआ लेकिन बम्बई आकर काफ़ी दिनों तक होश ठिकाने रहे। जावेद साहब अपनी कहानी लखनऊ से शुरू करते हैं और कहते हैं: शहर लखनऊ... किरदार मेरे नाना-नानी, दूसरे घरवाले और मैं... मेरी उम्र आठ बरस है। बाप बम्बई में है, मां कब्र में। इस पंक्ति में अपने पिता के प्रति जावेद साहब की नाराज़गी बखूबी नज़र आ रही है। इसी क्रम में वो १८ जून १९५३ के उस दिन को याद करने लगते हैं, जिस दिन उनकी माँ की मौत हुई थी। जगह, लखनऊ, मेरे नाना का घर रोती हुई मेरी खाला, मेरे छोटे भाई सलमान को, जिसकी उम्र साढ़े छह बरस है और मुझे हाथ पकड़ के घर के उस बड़े कमरे में ले जाती हैं जहां फर्श पर बहुत-सी औरतें बैठी हैं। तख्त पर सफेद कफन में लेटी मेरी मां का चेहरा खुला है। सिरहाने बैठी मेरी बूढी नानी थकी-थकी सी हौले-हौले रो रही हैं। दो औरतें उन्हें संभाल रही हैं। मेरी खाला हम दोनों बच्चों को उस तख्त के पास ले जाती हैं और कहती है, अपनी माँ को आखिरी बार देख लो। मैं कल ही आठ बरस का हुआ था। समझदार हूं। जानता हूं मौत क्या होती है। मैं अपनी मां के चेहरे को बहुत गौर से देखता हूं कि अच्छी तरह याद हो जाए। मेरी खाला कह रही हैं इनसे वादा करो कि तुम जिंदगी में कुछ बनोगे, इनसे वादा करो कि तुम जिंदगी में कुछ करोगे। मैं कुछ कह नहीं पाता, बस देखता रहता हूं और फिर कोई औरत मेरी मां के चेहरे पर कफन ओढ़ा देती है। ऐसा तो नहीं है कि मैंने जिंदगी में कुछ किया ही नहीं है लेकिन फिर ये ख्याल आता है कि मैं जितना कर सकता हूं, उसका तो एक चौथाई भी अब तक नहीं किया और इस ख्याल को दी हुई बेचैनी जाती नहीं। अपने पिता के प्रति नाराज़गी का अफ़सोस उन्हें तब होता है, जब उनके पिता अपनी ज़िंदगी की अंतिम घड़ियाँ गिन रहे होते हैं। १८ अगस्त १९७६ को मेरे बाप की मृत्यु होती है (मरने से नौ दिन पहले उन्होंने मुझे अपनी आखिरी किताब ऑटोग्राफ करके दी थी। उस पर लिखा था 'जब हम न रहेंगे तो बहुत याद करोगे’। (उन्होंने ठीक लिखा था)। अब मेरा दिल उन बातों में ज्यादा लगता है जिनसे दुनिया की जबान में कहा जाए तो, कोई फायदा नहीं। शायरी से मेरा रिश्ता पैदाइशी और दिलचस्पी हमेशा से है। लड़कपन से जानता हूं कि चाहूँ तो शायरी कर सकता हूं मगर आज तक की नहीं है। ये मेरी नाराजगी और बगावत का एक प्रतीक है(क्योंकि मेरे पिताजी एक मक़बूल शायर थे)। १९७९ में पहली बार शेर कहता हूं और ये शेर लिखकर मैंने अपनी विरासत और अपने बाप से सुलह कर ली है।

मुंबई (तब की बंबई) में आने के बाद उनके साथ क्या-क्या हुआ, इसे याद करते हुए वे कहते हैं: ४ अक्टूबर १९६४, मैं बंबई सेंट्रल स्टेशन पर उतरा हूं। अब इस अदालत में मेरी जिंदगी का फैसला होना है। बंबई आने के छह दिन बाद बाप का घर छोड़ना पड़ता है। जेब में सत्ताईस नए पैसे हैं। मैं खुश हूं कि जिंदगी में कभी अट्ठाईस नए पैसे भी जेब में आ गए तो मैं फ़ायदे में रंगा और दुनिया घाटे में। बंबई में दो बरस होने को आए, न रहने का ठिकाना है न खाने का। यूं तो एक छोटी सी फिल्म में सौ रुपए महीने पर डायलॉग लिख चुका हूं। कभी कहीं असिस्टेंट हो जाता हूं, कभी एक आध छोटा मोटा काम मिल जाता है, अकसर वो भी नहीं मिलता। दादर एक प्रोडयूसर के ऑफिस अपने पैसे मांगने आया हूं, जिसने मुझसे अपनी पिक्चर के कॉमेडी सीन लिखवाए थे। ये सीन उस मशहूर राइटर के नाम से ही फिल्म में आएंगे जो ये फिल्म लिख रहा है। ऑफिस बंद है। एक फिल्म में डायलॉग लिखने का काम मिला है। कुछ सीन लिखकर डायरेक्टर के घर जाता हूं। वो बैठा नाश्ते में अनानास खा रहा है, सीन लेकर पढ़ता है और सारे कागज मेरे मुंह पर फेंक देता है और फिल्म से निकालते हुए मुझे बताता है कि मैं जिंदगी में कभी राइटर नहीं बन सकता। वापस बांदरा जाना है जो काफी दूर है। पैसे बस इतने हैं कि या तो बस का टिकट ले लूं या कुछ खा लूं, मगर फिर पैदल वापस जाना पड़ेगा। चने खरीदकर जेब में भरता हूं और पैदल सफर शुरू करता हूं। कोहेनूर मिल्स के गेट के सामने से गुजरते हुए सोचता हूं कि शायद सब बदल जाए लेकिन ये गेट तो रहेगा। एक दिन इसी के सामने से अपनी कार से गुजरूंगा। तपती धूप में एक सड़क पर चलते हुए मैं अपनी आंख के कोने में आया एक आंसू पोंछता हूं और सोचता हूं कि मैं एक दिन इस डायरेक्टर को दिखाऊँगा कि मैं... फिर जाने क्यों ख्याल आता है कि क्या ये डायरेक्टर नाश्ते में रोज अनानास खाता होगा? बड़ी हीं आसानी से जावेद साहब ने ग़म में भी खुशी और मस्ती का पुट डाल दिया है। यही है उनकी खासियत। चलते-चलते शबाना आज़मी और हनी इरानी से इनके रिश्ते पर भी एक नज़र डाल लेते हैं। मेरी मुलाकात शबाना से होती है। कैफी आजमी की बेटी शबाना भी शायद अपनी जड़ों की तरफ लौट रही है। उसे भी ऐसे हज़ारों सवाल सताने लगे हैं जिनके बारे में उसने पहले कभी नहीं सोचा था। कोई हैरत नहीं कि हम करीब आने लगते हैं। धीरे-धीरे मेरे अंदर बहुत कुछ बदल रहा है। १९८३ में मैं और हनी अलग हो जाते हैं। हनी से मेरी शादी जरूर टूट गई मगर तलाक भी हमारी दोस्ती का कुछ नहीं बिगाड़ सका। और अगर मां-बाप के अलग होने से रिश्तों में कोई ऐसी कड़वाहट नहीं आई तो इसमें मेरा कमाल बहुत कम और हनी की तारीफ बहुत ज्यादा है। हनी आज एक बहुत कामयाब फिल्म राइटर है और मेरी बहुत अच्छी दोस्त। मैं दुनिया में कम लोगों को इतनी इज्जत करता हूं जितनी इज्जत मेरे दिल में हनी के लिए है। जावेद साहब के बारे में हमने उन्हीं के शब्दों में बहुत कुछ जाना। इनके बारे में कहने को अभी और भी बहुत कुछ है, लेकिन वो सब फिर कभी बाद में। अभी तो उनके इस शेर का आनंद लेना ज्यादा मुनासिब लगता है:

कह गए हम किससे दिल की बात
शहर में एक सनसनी सी है...


इस शेर के बाद चलिए हम अब १९९७ में रीलिज हुए एलबम "तुम याद आए" से इस नज़्म को सुनते हैं, जिसमें जावेद साहब का वही चिरपरिचित अंदाज़ है तो अलका जी की वही मखमली आवाज़:

मोहब्बत पलकों पे कितने हसीन ख्वाब सजाती है..
फूलों-से महकते ख्वाब..
सितारों-से जगमगाते ख्वाब..
शबनम-से बरसते ख्वाब..
फिर कभी यूँ भी होता है कि
पलकों की डालियों से ख्वाबों
के सारे परिंदे उड़ जाते
हैं..और आँखें हैरान-सी रह जाती हैं

सारे सपने कहीं खो गए..
हाय हम क्या से क्या हो गए..
दिल से तन्हाई का दर्द जीता
क्या कहें हम पे क्या क्या न बीता..
तुम न आए मगर, जो गए..
हाय हम क्या से क्या हो गए॥

सारे सपने कहीं खो गए..
हाय हम क्या से क्या हो गए..

तुमने हमसे कहीं थी जो बातें..
उनको दोहराती हैं गम की रातें..
तुमसे मिलने के दिन तो गए..
हाय हम क्या से क्या हो गए..

सारे सपने कहीं खो गए..
हाय हम क्या से क्या हो गए..

कोई शिकवा न कोई गिला है..
तुमसे कब हमको ये गम मिला है...
हाँ _____ अपने ही सो गए..
हाय हम क्या से क्या हो गए..

सारे सपने कहीं खो गए..
हाय हम क्या से क्या हो गए..




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "तराने" और शेर कुछ यूं था -

लबों पे तराने अब आ ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है

इस शब्द की सबसे पहले शिनाख्त की "शामिख" साहब ने। आपने इस शब्द पर कुछ शेर भी कहे:

मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है
कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है (साहिर लुधियानवी)

एक मैं क्या अभी आयेंगे दीवाने कितने
अभी गूंजेगे मुहब्बत के तराने कितने
ज़िन्दगी तुमको सुनायेगी फ़साने कितने
क्यूं समझती हो मुझे भूल नही पाओगी (जावेद अख्तर)

गूँजे तराने सुबह के इक शोर हो गया
आलम तमाम रस में सराबोर हो गया (कैफ़ी आज़मी)

पिछली बार तो शरद जी का कोई अता-पता नहीं था, लेकिन चलिए इस बार उन्होंने निराश नहीं किया। आप अपने हीं एक स्वरचित शेर के साथ महफ़िल में तशरीफ़ लाए:

तराने हों खुशी के या हों ग़म के इतना तो तय है
उन्हें जब भी मैं सुनता हूँ सुकूं तब दिल को मिलता है।

इनके बाद महफ़िल में हाज़िरी लगी सीमा जी की। यह रही आपकी पेशकश:

अब तुमसे रुख़सत होता हूँ आओ सँभालो साजे़-गजल,
नये तराने छेडो़,मेरे नग्‍़मों को नींद आती है। (फ़िराक़ गोरखपुरी)

शुद्ध हिन्दी के शब्दों के साथ उर्दू के "तराने" का अच्छा मिश्रण किया मंजु जी ने। ये रहीं आपकी स्वरचित पंक्तियाँ:

सूर्योदय की अरुणिम बेला में ,
स्वागत में खगकुल झूम -झूम तराने गाए .

सुमित जी, शामिख साहब की बातों से मैं भी इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ। आखिर कौन है यहाँ जिसे सारे शेर याद हैं। आपको अंतर्जाल का सहारा तो लेना हीं होगा और अगर ऐसा नहीं करना चाहते तो अपना हीं लिखा कुछ सुना दिया करें। बिना शेर की महफ़िल अधूरी-सी लगती है। आगे से ध्यान रखिएगा।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, November 17, 2009

इचक दाना बिचक दाना....पहेलियों में गुंथा एक अनूठा गाना



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 265

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप लगातार सुन रहे हैं बच्चों वाले गानें एक के बाद एक। दोस्तों, हर रोज़ गीत के आख़िर में हम आप से एक पहेली पूछते हैं, आज भी पूछेंगे, लेकिन आज का जो गीत है ना वो भरा हुआ है पहेलियों से। पहेली बूझना बच्चों का एक मनपसंद खेल रहा है हर युग में। हिंदी फ़िल्मों में कई गीत ऐसे हैं जो पहेलियों पर आधारित हैं, जैसे कि उदाहरण के तौर पर फ़िल्म 'ससुराल' का गीत "एक सवाल मैं करूँ एक सवाल तुम करो", 'मिलन' फ़िल्म का गीत "बोल गोरी बोल तेरा कौन पिया"। और भी कई गीत हैं इस तरह के, लेकिन इन सब में जो सब से ज़्यादा प्रोमिनेंट है वह है राज कपूर की फ़िल्म 'श्री ४२०' का "ईचक दाना बीचक दाना दाने उपर दाना"। इस गीत का मुखड़ा और सारे के सारे अंतरे पहेलियों पर आधारित है। लता मंगेशकर, मुकेश और बच्चों के गाए इस गीत का फ़िल्मांकन कुछ इस तरह से हुआ है कि नरगिस एक स्कूल टीचर बच्चों को पहेलियों के माध्यम से पाठ पढ़ा रही हैं, और छत पर खड़े दूर दूर से राज कपूर ख़ुद भी उन पहेलियों को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। हर पहेली में उन्हे ऐसा अहसास होने लगता है कि पहेली में उन्ही का ज़िक्र हो रहा है, लेकिन हर बार उनका दिल टूट जाता है जब कि उत्तर कुछ और ही होता है जो बच्चे दे देते हैं। गीत के आख़िरी अंतरे में राज साहब एक पहेली पूछते हैं, जिसका ना तो बच्चे सही जवाब दे पाते हैं और ना ही नरगिस। और इस बार पहेली का जवाब वो ख़ुद होते हैं। बहुत ही जानदार और शानदार गीत है, जिसे बहुत ही चतुराई के साथ लिखा है हसरत जयपुरी साहब ने। और शंकर जयकिशन का संगीत सोने पे सुहागा। लता और बच्चों वाले हिस्से का रीदम थोड़ा सा तेज़ है जब कि जब मुकेश गाने लगते हैं तो रीदम थोड़ा सा धीमा हो जाता है। इस चीज़ से गाना और भी ज़्यादा अनूठा बना है। इसी तरह का रीदम चेंज इसी फ़िल्म के एक अन्य गीत "मुड़ मुड़ के ना देख" में भी किया गया है जहाँ पे रीदम पहले स्लो रहता है और बाद में तेज़ हो जाती है, प्रस्तुत गीत से ठीक विपरीत।

दोस्तों, १९५५ की फ़िल्म 'श्री ४२०' की बातें तो हम पहले भी कर चुके हैं जब हमने आपको 'राज कपूर स्पेशल' के अंतर्गत "मुड़ मुड़ के ना देख" गीत सुनवाया था। और आज बजने वाले गीत का ज़िक्र भी उपर हमने किया। चलिए गीत सुनने से पहले आज हसरत जयपुरी साहब की कुछ बातें हो जाए! बातें बता रहे हैं हसरत साहब लेकिन अपने साथियों के बारे में यानी कि शंकर, जयकिशन और शैलेन्द्र के बारे में अमीन सायानी साहब के एक इंटरव्यू में। "दो तन और एक जान की तरह शंकर जयकिशन भी थे, और मेरा, मैं भी ऐसा ही था, शैलेन्द्र और मैं भी वही दो तन और एक जान। लेकिन ज़्यादा काम होने की वजह से तुम कुछ कर लो और हम कुछ कर लेते हैं वाली बात थी। जयकिशन जी मेरे साथ बैठ जाया करते थे और शैलेन्द्र जी उनके साथ। लेकिन पहले ना ऐसी इत्तेफ़ाक़ थी या ऐसी कोई बात नहीं थी। वो एक ही समझ लीजिए उन्होने किया तो उन्होने किया और इन्होने किया तो इन्होने किया। एक ही बात थी। दोनों के नाम साथ आते थे। लेकिन तर्ज़ें वो अलग अलग बनाते थे, हाँ ये हो सकता था वो एक दूसरे से पूछ लिया करते थे, के भई देखो ये है, अगर इसमें कमी है कोई तो बताओ। इसी तरह से हम दोनों, 'भई देखो ये इस तरीके से है शैलेन्द्र जी'। शैलेन्द्र जी कहते थे 'हसरत मियाँ, देखो मैने ये ग़ज़ल लिखी है पहली मर्तबा, इसमें कुछ ग़लती तो नहीं है?' तो मैने कहा 'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है!' अगर मेरे ज़हन में कोई बात ऐसी आती है के जो फ़न के ख़िलाफ़ है तो मैं बता देता। इसी तरीक़े से हिंदी गीतों के अंदर मैं उनसे पूछ लेता था, तो इस तरीक़े से मिलजुल के हम बड़े प्रेम और प्यार से काम किया करते थे।" तो ये तो थी हसरत साहब की बातें अपनी जोड़ीदार शैलेन्द्र जी और शंकर जयकिशन के बारे में। क्योंकि यह पहेलियों से भरा हुआ गीत है, हम भी गीत के अंतरे के ही मीटर पर आप से एक पहेली पूछते हैं। जी नहीं, इसे हसरत साहब ने नहीं, बल्कि मैने ही लिखा है। आप इस पहेली को हल कीजिए, लेकिन उससे पहले इसे उसी धुन में गाइए जिस धुन में इस गीत के बाक़ी के अंतरे हैं, बड़ा मज़ा आएगा! और अगर आपने मेरे इस पहेली का सही सही जवाब दे दिया तो आपको मिल सकता है एक इनाम मेरी तरफ़ से। लेकिन याद रहे कि आपको जवाब 'टिप्पणी' में नहीं बल्कि email id hindyugm@gmail.com पर लिख भेजनी है। तो ये है वह पहेली -

"है सुपारियों वाली एक अजीब सी थाली,
उल्टा भी जो कर दो गिरने नहीं ये वाली,
इनको तुम पूरे गिन नहीं सकते कैसा है घोटाला इचक दाना
।"
अब आप गीत सुनिए और मुझे आज्ञा दीजिए, नमस्ते!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस फिल्म के एक गीत के लिए गीतकार को मरणोपरांत सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर मिला था.
२. फिल्म की प्रमुख अभिनेत्री थी राजश्री.
३. इस फिल्म में बच्चों पर दो गीत थे, ये मस्ती भरा गीत है जो हमने चुना है.

पिछली पहेली का परिणाम -
रोहित जी ३७ अंकों पर आ गए हैं आप.....और कोई न सही पर कम से कम आप 50 के आंकडे को अवश्य छू सकते हैं....नियमित रहिये....और शरद जी आपके लिए क्या कहें....कोई पहेली आपके लिए मुश्किल भला कैसे हो :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, November 16, 2009

मास्टरजी की आ गयी चिट्टी, चिट्टी में से निकली बिल्ली....गुलज़ार और आर डी बर्मन का "मास्टर" पीस



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 264

च्चों पर जब फ़िल्म बनाने या गीत लिखने की बात आती है तो गुलज़ार साहब का नाम बहुत उपर आता है। बच्चों के किरदारों या गीतों को वो इस तरह का ट्रीटमेंट देते हैं कि वो फ़िल्में और वो गानें कालजयी बन कर रह जाते हैं। फिर चाहे वह 'परिचय' हो या 'किताब', या फिर १९८३ की फ़िल्म 'मासूम'। हर फ़िल्म में उन्होने बच्चों के किरदारों को बहुत ही समझकर, बहुत ही नैचरल तरीके से प्रस्तुत किया है। बड़े फ़िल्मकार की यही तो निशानी है कि किस तरह से छोटे से छोटे बच्चो से उनका बेस्ट निकाल लिया जाए! आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम ज़िक्र करेंगे एक ऐसी ही फ़िल्म का जिसका निर्माण किया था प्राणलाल मेहता और गुलज़ार ने। पटकथा, निर्देशन और गीत गुलज़ार साहब के थे और संगीत था राहुल देव बर्मन का। जी हाँ, यह फ़िल्म थी 'किताब'। मुख्य भुमिकाओं में थे उत्तम कुमार, विद्या सिंहा, श्रीराम लागू, केष्टो मुखर्जी, असीत सेन, और दो नन्हे किरदार - मास्टर राजू और मास्टर टीटो। 'किताब' की कहानी एक बच्चे के मनोभाव पर केन्द्रित थी। बाबला (मास्टर राजू) अपनी माँ (दीना पाठक) के साथ गाँव में रहता है। उसकी माँ उसे अपनी बड़ी बहन (विद्या सिंहा) के पास शहर भेज देती है ताकी वो अच्छे से स्कूल में पढ़ सके। स्कूल में उसकी दोस्ती पप्पू (मास्टर टीटो) से होती है और दोनों साथ मिल कर ख़ूब मस्ती करते हैं, बदमाशियाँ करते हैं। लेकिन जल्द ही उसके जीजाजी उस पर बहुत नाराज़ रहने लगते हैं क्योंकि उसका ध्यान पढ़ाई के अलावा बाकी सभी चीज़ों में होता है। स्कूल से भी जब शिकायतें आने लगती है तो घर में हालात और बिगड़ जाते हैं। एक दिन वो अपने गाँव वापस जाने की ठान लेता है और भाग कर स्टेशन पहुँच जाता है। टिकट ना होने की वजह से टीटी उसे अगले स्टेशन पर उतार देता है। रात का वक़्त था, ठंड से बचने के लिए वो एक बूढ़ी भिखारन के कंबल के अंदर घुस जाता है और उसी के साथ सुबह तक लेटा रहता है। सुबह सुबह वो उस भिखारन के कटोरे से एक सिक्का लेकर पानी की तलाश में निकलता है। पानी पीते हुए वो देखता है कि उस भिखारन की चारों तरफ़ लोगों की भीड़ जमा हो गई है। वापस आकर उसे अहसास होता है कि रात भर वो उस भिखारन के साथ नहीं बल्कि उसकी लाश के साथ लेटा हुआ था। यह सोच कर वो डर जाता है, सिक्का वापस कटोरे में डाल देता है और भाग कर गाँव अपनी माँ के पास चला जाता है। वहाँ जाकर वो कसम खाता है कि वो मन लगाकर पढ़ाई करेगा और कभी किसी को शिकायत का मौका नहीं देगा।

१९७७ की फ़िल्म 'किताब' की कहानी तो हमने आपको बता दी। और अब इस फ़िल्म के जिस गीत को हम आप तक आज पहुँचा रहे हैं वो भरी हुई है बाबला और पप्पू की शैतानियों से। क्लासरूम में मास्टर जी का मज़ाक उड़ाते हुए यह गीत है "अ आ इ ई अ आ इ ई मास्टर जी की आ गई चिट्ठी...."। दोस्तों, इसे गीत न कहकर अगर बच्चों के लिए लिखा हुआ कोई कविता कहें तो बेहतर होगा। इस तरह का गीत तो गुलज़ार साहब ही लिख सकते हैं। क्या नहीं है इस गीत में। कभी चिट्ठी से बिल्ली निकलती है, कभी कछुआ छाप अगरबत्ती का ज़िक्र है तो कभी वी.आइ.पी अंडरवीयर बनीयान। इस तरह का यह एकमात्र गीत है। पद्मिनी कोल्हापुरी और शिवांगी कोल्हापुरी ने यह गीत गाया था। क्योंकि यह गीत स्कूल की कक्षा में छात्र लोग गाते हैं, तो उसे रीयलिस्टिक बनाने के लिए आर. डी. बर्मन ने हक़ीकत में एक टेबल का इस्तेमाल किया था। तो दोस्तों, सुनिए यह गीत और सलाम कीजिए गुलज़ार साहब की क्रीयटिविटी को! :-)



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. पहेलियों की भरमार है इस गीत में.
२. हसरत साहब हैं गीतकार.
३. इस मशहूर फिल्म का एक गीत जो नादिरा पर फिल्माया गया थे पहले ही ओल्ड इस गोल्ड में बज चुका है.

पिछली पहेली का परिणाम -

दूसरी बार विजेता बनने का गौरव पाया है हमारे प्रिय शरद जी ने ....ढोल नगाडे बजाने का समय है.....जोरदार तालियाँ शरद जी के जबरदस्त संगीत ज्ञान और तुंरत उत्तर देने की क्षमता के लिए......बधाई... बधाई...दिलीप जी अब समय कम रह गया है आप भी जरा कमर कस लीजिये....

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"ऑल इज वेल" है शांतनु-स्वानंद की जोड़ी के रचे "३ इडियट्स" के संगीत में



ताजा सुर ताल TST (35)

दोस्तो, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर"

TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक-

पिछले एपिसोड में, अब तो लगता है सीमा जी अकेली रनर रह गयी हैं, अब उन्हें चुनौती देना तो असंभव सा ही लग रहा है...


सजीव - सुजॉय, 'ताज़ा सुर ताल' में इस हफ़्ते हम चर्चा करेंगे विधु विनोद चोपड़ा की आनेवाली फ़िल्म '3 Idiots' का, और इस फ़िल्म के कुछ गीत भी सुनेंगे।

सुजॉय - मैने सुना है कि यह फ़िल्म चेतन भगत के उपन्यास Five Point Someone पर आधारित है, क्या यह सच है?

सजीव - मैने भी पहले पहले यही सुना था, लेकिन औपचारिक तौर पर शायद ऐसा नहीं है। हाल में जब इस फ़िल्म के निर्देशक राजकुमार हिरानी से यह सवाल किया गया था तो उन्होने साफ़ इंकार कर दिया था कि '3 Idiots' का Five Point Someone से कोई संबंध नहीं है। और जब यह सवाल चेतन भगत से किया गया तो उन्होने भी कहा कि वो इस फ़िल्म में किसी भी तरह से नहीं जुड़े, हालाँकि निर्माता ने उन्हे यह बताया है कि भले ही इस फ़िल्म की कहानी उनकी उपन्यास के प्लॊट से मिलती जुलती है लेकिन उनके उपन्यास से इस फ़िल्म का कोई संबध नहीं है।

सुजॉय - अच्छा तभी मैं कहूँ कि फ़िल्म की नामावली में कहानी के लिए राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी को क्यों क्रेडिट किया गया है। यह बात तो सच है कि चेतन भगत का नाम नामावली में कहीं नहीं आता।

सजीव - पता नहीं आमिर ख़ान, माधवन और शरमन जोशी के किरदारों के साथ हम Five Point Someone के आलोक गुप्ता, रियान ओबेरॊय और लेखक के किरदारों में कोई मेल ढ़ूंढ पाएँगे या नहीं, लेकिन मेरे ख़्याल से जिन लोगों ने भी Five Point Someone पढ़ी है, वो बार बार उन्ही चरित्रों को ढ़ूँढने की कोशिश करेंगे।

सुजॉय - इससे पहले भी चेतन भगत की एक और बेहद कामयाब उपन्यास One Night @ the Call Center को आधार बनाकर 'Hello' फ़िल्म बनाई गई थी, लेकिन फ़िल्म उतनी बुरी तरह से पिट गई जितनी उस उपन्यास को कामयाबी मिली थी। अब देखना है कि '3 Idiots' कुछ कमाल दिखाती है या उसकी भी 'Hello' जैसी हालत होती है।

सजीव - नहीं सुजॉय, मुझे लगता है कि यह फ़िल्म चलेगी, एक तो विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी की जोड़ी, उपर से आमिर ख़ान भी जुड़े हैं इस फ़िल्म में। बोमन इरानी भी हैं, नायिका हैं करीना कपूर, गीत और संगीत स्वानंद किरकिरे और शांतनु मोइत्रा का, यानी कि लगभग पूरी की पूरी मुन्ना भाई वाली टीम, कुछ तो कमाल ज़रूर करेगी यह फ़िल्म!

सुजॉय - मैं भी चाहता हूँ कि यह एक अच्छी फ़िल्म के रूप में सामने आए, वैसे भी कोई अच्छी फ़िल्म देखे हुए एक अरसा सा हो गया है। और बताइए कि और क्या जानकारी है इस फ़िल्म के बारे में आपके पास?

सजीव - दो एक बातें और है, लेकिन उससे पहले इस फ़िल्म का एक गीत सुन लेते हैं, फिर आगे बातें करेंगे।

गीत: All is well



सुजॉय - सोनू निगम और शान की आवाज़ें बहुत दिनों के बाद किसी गीत में सुन कर अच्छा लगा, क्यों सजीव?

सजीव - हाँ, और साथ में स्वानंद किरकिरे की आवाज़ भी थी। क्योंकि फ़िल्म के तीनों किरदार कॊलेज स्टुडेंट्स हैं तो ज़ाहिर है कि गानों में भी आज की पीढ़ी को लुभाने वाली यूथ अपील होगी। एक और ख़ास बात देखिये इस गीत में....शांतनु ने सभी वाध्य "ट्रेश" सामानों से उठाये हैं, सुनकर आर डी बर्मन की याद आ गयी.

सुजॉय - स्वानंद और शांतनु बहुत चुनिंदा काम करते हैं और दूसरों से बहुत अलग हट कर काम करते हैं। और स्वानंद तो ख़ुद भी एक उम्दा गायक भी हैं। "बावरा मन देखने चला एक सपना" गीत को भला कौन भूल सकता है! अच्छा सजीव, आप '3 Idiots' से संबंधित कुछ और जानकारी देने वाले थे न?

सजीव - हाँ, यह फ़िल्म रिलीज़ होगी क्रीस्मस के दिन, यानी कि २५ दिसंबर को। और इस फ़िल्म में काजोल नज़र आएँगी एक स्पेशल अपीयरेंस में। अच्छा, अब एक और गीत सुनते हैं सोनू निगम और श्रेया घोषाल की आवाज़ों में। बोल हैं "ज़ूबी डूबी"। पहले गीत को सुनो और फिर बताओ कि इस गीत में तुम्हे कौन सी बात अच्छी लगी।

गीत: Zoobi Doobi



सुजॉय - शांतनु मोइत्र के संगीत की ख़ासीयत है कि पाश्चात्य संगीत और रीदम को भी बहुत ही सुरीले तरीके से वो पेश करते हैं। तुम्हे याद है कि नहीं मुझे नहीं मालूम लेकिन एक फ़िल्म आई थी 'खोया खोया चाँद'। उस फ़िल्म में शांतनु ने ५० और ६० के दशकों को जीवित कर दिया था। ख़ास कर सोनू निगम की आवाज़ में "ये निगाहें निगाहें झुकी झुकी" गीत की मुझे याद आ गई इस गीत को सुनते हुए। यह कोई साधारण युगल गीत नहीं है, बल्कि एक बहुत ही नए किस्म का रोमांस है इस गीत में। स्वानंद की पंच लाइन "जैसा फिल्मों में होता है..." कमाल है.

सजीव - हाँ, और कुछ कुछ 'लगे रहो मुन्ना भाई' के "पल पल पल हर पल" गीत से भी थोड़ा बहुत मिलता जुलता है। रीदम light western music पर आधारित है। सोनू और श्रेया ने जब भी युगल गीत गाए हैं वो हर बार मक़बूल हुए हैं, चाहे 'परिणिता' में "पिहू बोले" हो या "पल पल हर पल" हो, 'ख़ाकी' में "तेरी बाहों में हम जीते मरते रहे" हो या फिर 'फिर मिलेंगे' का "बेताब दिल है धड़कनों की क़सम", और 'क्रिश' फ़िल्म में तो कई गानें हैं इस जोड़ी के जिन्हे ख़ूब ख़ूब बजाया और सुना गया है।

सुजॉय - बिल्कुल सही बात कही आपने! चलिए जब सोनू निगम की बात चल ही रही है तो उनकी एकल आवाज़ में इस फ़िल्म का एक और गीत सुन लिया जाए, "जाने नहीं देंगे"।

गीत: जाने नहीं देंगे



सजीव - क्या गाया है सोनू ने इस गीत को। हाल के दिनों में जितने भी नए नए गायक उभरे हैं और उभर रहे हैं, उन सब से अभी भी बहुत आगे हैं पिछली पीढ़ी के गायक, और उन सब में सोनू निगम सब से आगे हैं। उनकी आवाज़ की जो रेंज है ना, कमाल है। इस गीत को सुन कर इसका भली भाँति अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

सुजॉय - सही में, चाहे बहुत लो स्केल में ठहराव वाली जगह हो या फिर बहुत ऊँचा सुर लगाने की बात, सोनू को दोनों में महारथ हासिल है। और ख़ास कर इस गीत में तो उन्होने सही में अपना लोहा मनवाया है। और सजीव, इस फ़िल्म में मैने सुना है कि कुछ नई आवाज़ें भी सुनाई देंगी, क्या ख़याल है इस बारे में आपका?

सजीव - ठीक ही सुना है तुमने। अब हम ऐसे दो गीत सुनेंगे। पहला गीत जिसे गाया है सूरज जगन और शरमन जोशी ने, और दूसरा गीत है शान और शांतनु मोइत्र का गाया हुआ। ये दोनों गीत फ़िल्म की कहानी के अनुसार सिचुएशनल होंगे, जिनका मज़ा फ़िल्म को देखते हुए ही उठाया जा सकेगा।

सुजॉय - लेकिन कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि शांतनु मोइत्र और स्वानंद किरकिरे की तरफ़ से कुछ अलग और रिफ़्रेशिंग् गीत संगीत सुनने को मिलेगा, नहीं तो हम बस एक ही तरह के गानें सुन सुन कर ऊब गए हैं।

सजीव - ज़रूर! तो चलो, अब एक के बाद एक दो गीत सुनते हैं और इस चर्चा को यहीं समाप्त करते हैं।

गीत: Give me some sunshine



गीत: बहती हवा सा



और अब बारी है ट्रिविया की

TST ट्रिविया # 28- '3 Idiots' की शूटिंग्‍ कौन से IIM (Indian Institute of Management) में हुआ है और Five Point Someone उपन्यास किस शैक्षिक संस्थान से संबम्धित है?

TST ट्रिविया # 29- 'मैं हूँ ना', 'कौन है जो सपनों में आया', 'चेहरा' और 'मुस्कान' फ़िल्मों के साथ आप '3 Idiots' को किस तरीके से जोड़ सकते हैं?

TST ट्रिविया # 30- स्वानंद किरकिरे को आकाशवाणी के किस केन्द्र में 'युवावाणी' कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला था?


३ इडियट्स अल्बम को आवाज़ रेटिंग ***1/2
फिल्म के अधिकतर गीत सिचुएशनल हैं. फिल्म के प्रदर्शन के बाद यदि फिल्म दर्शकों को पसंद आती है तो ये सभी गीत भी खूब सराहे जायेंगे, "आल इस वेल" और "जूबी डूबी" जल्दी ही लोगों को जुबान पर होंगें. "गीव मी सम सनसाईन" और "बहती हवा" बार बार सुने जाने पर और इनके प्रोमोस रीलिस होने पर अधिक पसंद किये जायेंगें, "जाने नहीं दूंगा तुझे..." लम्बे समय तक सोनू निगम की गायिकी के लिए याद किया जायेगा, और संगीत प्रतियोगिताओं ने नए गायक इसे गाकर खूब तालियाँ बटोरेंगें.

आवाज़ की टीम ने इस अल्बम को दी है अपनी रेटिंग. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसे लगे? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत अल्बम को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

शुभकामनाएँ....



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, November 15, 2009

बच्चे मन के सच्चे....साहिर साहब के बोलों में झलकता निष्पाप बचपन का प्रतिबिम्ब



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 263

न दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुन रहे हैं बच्चों वाले गीतों की एक ख़ास लघु शृंखला 'बचपन के दिन भुला ना देना'। आज एक गीत लता मंगेशकर की आवाज़ में हो जाए? इसमें इन्होने प्लेबैक दिया है बाल कलाकार बेबी सोनिया का। बेबी सोनिया का नाम शायद आपने कभी नहीं सुना होगा लेकिन अगर हम यह कहें कि यही बेबी सोनिया आगे चलकर नीतू सिंह के नाम से जानी गई तो फिर कोई और तारुफ़ की मोहताज नही रह जाएँगी बेबी सोनिया। जी हाँ, १९६८ की फ़िल्म 'दो कलियाँ' में बेबी सोनिया के नाम से नीतू सिंह नज़र आईँ थीं एक नहीं बल्कि दो किरदारों में - गंगा और जमुना। यानी कि दो जुड़वा बहनों के लिए उनका डबल रोल था। इस फ़िल्म में युं तो बिस्वजीत और माला सिंहा नायक-नायिका के रोल में थे, लेकिन कहानी में नीतू सिंह की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही। अजी साहब, फ़िल्म का शीर्षक ही तो बता रही है कि दोनों जुड़वा बहनों को दो कलियाँ कहा गया है। नीतू पर फ़िल्म में कम से कम दो गानें फ़िल्माए गए जिन्हे लता जी ने ही गाए। युं तो फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत एक लता-रफ़ी डुएट है "तुम्हारी नज़र क्यों ख़फ़ा हो गई", लेकिन बेबी सोनिया पर फ़िल्माया दोनो गीत उस ज़माने में काफ़ी मशहूर हुए थे। इनमें से एक गीत है "मुर्गा मुर्गी प्यार से देखे, नन्हा चूज़ा खेल करे", और दूसरा गीत था वह जो आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं और वह गीत है "बच्चे मन के सच्चे सारी जग की आँख के तारे, ये वो नन्हे फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे"। इस गीत को लिखा था साहिर लुधियानवी ने और तर्ज़ बनाई रवि ने। साहिर साहब को याद करते हुए ख़ास इस गीत के बारे में रवि जी ने विविध भारती को बताया था - "साहिर साहब का यह स्वभाव था कि गाने का सिचुयशन लेकर ग़ायब हो जाते थे। रिकार्डिंग् के चंद रोज़ पहले गाना लेकर वापस आते और गाना भी ऐसा कि एक शब्द इधर से उधर करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती थी। फ़िल्म 'दो कलियाँ' में "बच्चे मन के सच्चे", इस गाने में उन्होने ऐसे ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है कि इससे बेहतर और कुछ हो ही नहीं सकता!"

'दो कलियाँ' का निर्माण किया था एम. कुमारम, एम. सर्वनन और एम. मुरुगन ने और फ़िल्म को निर्देशित किया आर. कृष्णन और एस. पन्जु ने। एन. सितारमण की कहानी पर संवाद लिखे मुखराम शर्मा ने। क्योंकि फ़िल्म की कहानी दो छोटी बच्चियों का अपने माँ बाप के बीच पनपी दूरी को मिटाने का था, तो क्यों ना फ़िल्म की कहानी थोड़ी विस्तार में आपको बताई जाए। अमीर और अहंकारी किरण (माला सिंहा) की मुलाक़ात कॊलेज में होती है एक सीधे सादे साधारण घर के लड़के शेखर (बिस्वजीत) से। कई मतभेदों और ग़लतफ़हमियों के बाद जाकर दोनों में आख़िरकार प्यार हो ही जाता है। जब वे शादी करने का फ़ैसला करते हैं तो किरण की सख़्त मम्मी यह शर्त रख देती है कि शादी के बाद शेखर घर जमाई बन कर रहेगा। अपने प्यार के ख़ातिर शेखर मान तो जाता है लेकिन शादी के बाद ही उसे पता चल जाता है कि उस घर में उसकी हैसियत एक दामाद की नहीं बल्कि एक नौकर की है। वो किरण को लेकर कहीं और जाकर घर बसाने की सोचता है लेकिन किरण उसे धीरज धरने को कहती है। किरण और शेखर के घर दो जुड़वा बेटियों (गंगा और जमुना) का जन्म होता है लेकिन शेखर को घर के हालात में कोई सुधार नहीं दिखाई देता। आख़िर वो तंग आकर गंगा को लेकर घर छोड़ के चला जाता है। गंगा और जमुना अलग अलग बड़ी होने लगती है। क़िस्मत से दोनों बहनों की मुलाक़ात हो जाती है, एक की माँ और एक के पिता ना होने से दोनों समझ जाते हैं कि वे बहने हैं। दोनों एक खेल रचते हैं। गंगा जमुना की जगह चली जाती है अपनी माँ के पास और जमुना अपने पिता के पास। फिर दोनों अपनी कोशिशों से अपने माता पिता को फिर से एक कर देते हैं और फ़िल्म का सुखांत होता है। गंगा और जमुना के डबल रोल में नीतू सिंह का काम बेहद सराहा गया था। इस फ़िल्म के बाद लोग समझ गये थे कि बड़ी होकर यह लड़की नामचीन अदाकारा बनेगी और वैसा ही हुआ। तो आइए अब सुनते हैं यह गीत और याद कीजिए अपने स्कूल के दिनों को जब प्रेयर के वक़्त आप कतार में खड़े होकर कोई भक्ति गीत गाया करते थे!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. बच्चों को समर्पित इस बेहद प्यारी फिल्म में मास्टर राजू और मास्टर तितो के साथ थे उत्तम कुमार और विध्या सिन्हा.
२. बेहद कमाल के शब्द, और संगीतकार ने इस गीत को जो ट्रीटमेंट दिया है वो बेमिसाल है.
३. दो गायिकाओं ने इसे गाया है जिनमे से एक है पद्मिनी कोल्हापुरी.

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी मात्र एक जवाब दूर हैं दूसरी बार विजेता का ताज पहनने से बहुत बहुत बधाई. नीलम जी धन्येवाद....अपने बच्चों की (बाल उधान के) हजारी लगाईये अब यहाँ अगले दस दिनों तक....निर्मला जी आभार.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और अमिताभ की पसंद के गीत (२१)



अभी हाल ही ही में अमिताभ बच्चन की नयी फिल्म "पा" का ट्रेलर जारी हुआ, और जिसने भी देखा वो दंग रह गया...जानते हैं इस फिल्म में उनका जो मेक अप है उसे पहनने में अमिताभ को चार घंटे का समय लगता था और उतारने में दो घंटे, और प्रतिदिन ४ घंटे का शूट होता था क्योंकि इससे अधिक समय तक उस मेक अप को पहना नहीं जा सकता था. इस उम्र में भी अपने काम के प्रति इतनी तन्मयता अद्भुत ही है. आज से ठीक ४० साल पहले प्रर्दशित "सात हिन्दुस्तानी" जिसमें अमिताभ सबसे पहले परदे पर नज़र आये थे, उसका जिक्र हमने पिछले रविवार को किया था....चलिए अब इसी सफ़र को आगे बढाते हैं एक बार फिर दीपाली जी के साथ, सदी के सबसे बड़े महानायक की पसंद के ३ और गीत और उनके बनने से जुडी उनकी यादों को लेकर....


दोस्तों हमने आपसे वादा किया था कि अगले अंक में भी हम अपना सफर जारी रखेंगे. तो लीजिये हम हाजिर हैं फिर से अपना यादों का काफिला लेकर जिसके मुखिया अमिताभ बच्चन सफर को यादगार बनाने के लिये कुछ अनोखे पल बयाँ कर रहे हैं. आइये इन यादों में से हम भी अपने लिये कुछ पल चुरा लें.

नदिया किनारे....(अभिमान)बेलगाम

यह फ़िल्म मेरे और जया के लिये बहुत खास है क्योंकि हमने इसे प्रोड्यूस किया था. ह्रिशीदा हमारे गाडफादर थे. इस फिल्म में एस.डी. बर्मन ने संगीत दिया और इस संगीत की महफिलों के दौरान हमने जो समय उनके साथ बिताया वो कभी भूलने वाला नहीं है. जिस तरह से वह गाते थे उस तरह का प्रयास हमारी गायिकी में नहीं आ पाता था. मुझे हमेशा लगता थी कि कहीं कुछ कमी है. वो बहुत ही सुन्दरता से गाते थे. यह गाना बेलगाम के पास एक गाँव में फिल्माया गया था. ह्रिशीदा एक ऐसे गाँव का माहौल चाहते थे जिसमें एक छोटा सा मंदिर, नदी और एक छोटा सा तालाब हो जो दो प्रेमियों के लिये प्यार का वातावरण तैयार करे. हमें ऐसा ही तालाब मिला. तब तक मेरी और जया के शादी नहीं हुई थी और यह समय हम दोनों के लियी ही स्पेशल था. उस समय जया के लम्बे बाल थे.



देखा ना हाय रे...(बाम्बे टू गोआ), मद्रास

मुझे याद है कि इस गाने पर बहुत मेहनत के गयी थी और यह गाना बस के अन्दर फिल्माया गया था. पी. एल. राजमास्टर हमारे कोरियोग्राफर थे और बड़े ही कड़क थे. अगर आप अपने स्टेप्स सही से नही करते तो वह बहुत डाँटते और मारते भी थे. हमें एक बस को मुम्बई से गोआ ले जाना था और गाने को बीच में ही शूट करना था. पर जैसे ही हम अंधेरी पहुँचे बस खराब हो गयी. तब मद्रास में हमने नागी रेड्डी स्टूडियो में सेट लगाया और गाना शूट किया. क्योंकि मैं इन्डस्ट्री में नया था इसलिये महमूद भाईजान के साथ समय बिताता था जो शूटिंग के समय "कमाआन टाईगर, यू कैन डू इट" कहकर बहुत ही ज्यादा प्रोत्साहित करते थे. चालीस मेम्बरों की पूरी स्टार कास्ट बस के बाहर खड़ी रहती और मुझे प्रोत्साहित करती थी. प्रत्येक शाट के बाद महमूद भाई मेरे लिये जूस बनाते और कहते जाओ नाचो.



माई नेम इज एन्थनी....(अमर अकबर एन्थनी), मुम्बई

मनमोहन देसाई अजब गाने और अजब सिचुएसन सोचते थे. जब वह गाने को बताते थे तब हमारा पहला रियेक्शन उस पर हँसना होता था. वे पहले गाने को सोचते थे फिर उसके चारों और के सीन पर काम करते थे. किसी को भी उन पर विश्वास नहीं था. हम सोचते थे कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक आदमी सोला टोपी पहने अंडे से निकले और गाये कि "माई नेम इस एन्थनी गान्साल्वेस".यह गाना जुहू के ’होलीडे इन लोबी’ में फिल्माया गया था. इस गाने की रिकार्डिंग के लिये वो चाहते थे कि मैं कुछ "अगड़म बगड़म" जैसे शब्द डाँलू. मैने सोचा कि जब हम पागल हो ही गये हैं तो क्यों ना इसमें कुछ पागलपन डाला जाये. जब मैं रिकार्डिंग में था तो लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल जी ने मुझसे पूछा कि मैं क्या गाने वाला हूँ. मैने कहा कि मुझे याद नहीं है कुछ कर लेंगे. यह गाना फेमस स्टूडियो ’तारादेव’ में रिकार्ड किया गया जहाँ सभी बड़े-बड़े संगीतकार आये थे. जब मैं इन्डस्ट्री में नया था तब मुझे कहा गया था कि यहाँ हर दिन गाने रिकार्ड होते है और मुझे किसी बड़े आदमी से मिलने की कोशिश करनी चाहिये. मैं सड़क पर रफीसाहब, लताजी और दूसरे लोगों का अन्दर जाने के लिये इंतजार करता था लेकिन मेरी कभी भी उन तक पहुँचने की हिम्मत नही हुई. खैर गाना एक ही बार में रिकार्ड हो गया. अगर कोइ भी एक गलती करता तो पूरा गाना दुबारा से गाना पड़ता. मुझे बड़े-बड़े गायकों के बीच में बैठना था मैने किसी तरह गाने को एक टेक में किया और सोचा कि ’बच गये’.



उम्मींद है कि आपको इस यादों के सफर में आनंद आया होगा. तो दोस्तों देखा आपने जो दिखता है जरूरी नहीं कि सच्चाई भी वही हो. परदे के पीछे बहुत कुछ अलग होता है. किसी काम को सफल बनाने व पूरा करने में तरह-तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. लेकिन कहते हैं कि ’अंत भला तो सब भला’. हमारा अमिताभ जी के साथ यहीं तक का सफर था. तो चलिए आपसे और अमिताभ जी से अब हम विदा लेते है. अगली मुलाकात तक खुश रहिये, स्वस्थ रहिये और हाँ हिन्दयुग्म पर हमसे मिलते रहिये.

साभार -टाईम्स ऑफ़ इंडिया
प्रस्तुति-दीपाली तिवारी "दिशा"


"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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