Saturday, May 21, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 42 - बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी



अब तक आपने पढ़ा
भाग १
भाग २


नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, शनिवार की इस ख़ास प्रस्तुति को पिछले दो हफ़्तों से हम ख़ास बना रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार आनंद बक्शी के बेटे राकेश बक्शी के साथ बातचीत कर। पिछली दो कड़ियों में आपनें जाना कि किस तरह का माहौल हुआ करता था बक्शी साहब के घर का, कैसी शिक्षा/अनुशासन उन्होंने अपने बच्चों को दी, उनकी जीवन-संगिनी नें किस तरह का साथ निभाया, और भी कई दिल को छू लेने वाली बातें। आइए बातचीत के उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हैं। प्रस्तुत है शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' की तीसरी कड़ी।

सुजॉय - राकेश जी, नमस्कार! मैं, हिंद-युग्म की तरफ़ से आपका फिर एक बार स्वागत करता हूँ।

राकेश जी - नमस्कार!

सुजॉय - राकेश जी, आज सबसे पहले तो मैं आपको यह बता दूँ कि यह जो हमारी और आपकी बातचीत चल रही है, यह हमारे पाठकों को बहुत पसंद आ रही है। और यही नहीं, इसकी इंटरव्यु की चर्चा मीडिया तक पहुँच चुकी है। पिछले सोमवार को 'हिंदुस्तान' अखबार में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए थे। यह हमारी उपलब्धि नहीं, बल्कि आनंद बक्शी साहब की महिमा है।

राकेश जी - बहुत बहुत शुक्रिया।

सुजॉय - पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी बटाटे वडे पर। आपनें यह बताया कि आपनें कभी बक्शी साहब को किसी गीत के लिये सुझाव नहीं दिया। लेकिन क्या आप कभी अपने पिताजी के साथ रेकॉर्डिंग् पर जाते थे?

राकेश जी - जी हाँ, मैं रेकॉर्डिंग् पर जाता था। और बहुत ही अच्छा अनुभव होता था और मुझे बहुत गर्व होता था। लेकिन साथ ही साथ अंतर्मुखी होने की वजह से मैं म्युज़िशियन्स, कम्पोज़र्स और सिंगर्स से शर्माता था और वो लोग मुझे प्यार करते थे। कुछ लोग तो बिना यह जाने कि मैं किनका बेटा हूँ, मुझे प्यार करते।

सुजॉय - राकेश जी, आनंद बक्शी वो गीतकार हैं जिन्होंने फ़िल्मों में सब से ज़्यादा गीत लिखे हैं। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि वो बहुत ज़्यादा व्यस्त भी रहते होंगे। तो किस तरह से वो 'वर्क-लाइफ़ बैलेन्स' को मेण्टेन करते थे? परिवार के लिये समय निकाल पाना क्या मुश्किल नहीं होता था?

राकेश जी - वो सुबह ७ बजे से सुबह ११ बजे तक, और फिर शाम ४ बजे से रात ९ बजे तक लिखते थे। रात ९ बजे के बाद उनका समय हमारे लिये होता था। रात १०:३० बजे वो खाना खाते थे, और ९ से १०:३० तक का समय वो हमें देते थे। वो हमें ढेर सारी कहानियाँ सुनाते थे अपनी ज़िंदगी के तमाम तजुर्बों की, और तमाम उर्दू के उपन्यासों की, अंग्रेज़ी उपन्यासों की। वो रोज़ाना Readers' Digest पढ़ते थे। वो कहा करते थे कि हर किसी को हर रोज़ कोई न कोई नई चीज़ पढ़नी चाहिये। जिसनें यह काम किसी रोज़ नहीं किया, तो उसने जीना छोड़ दिया। वो हर रोज़ एक नई कहानी पढ़ते थे। और शायद यही वजह है कि उन्हें फ़िल्मी कहानियों और दृश्यों की इतनी अच्छी समझ थी। बहुत से निर्माता और निर्देशक अपनी फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले पिताजी को अपनी फ़िल्म दिखाते थे ताकि वो अपने विचार और सुझाव उनके सामने रख सकें।

सुजॉय - आपनें बताया कि बक्शी साहब को पढ़ने का बेहद शौक था और रोज़ नई कहानी पढ़ते थे। किन किन लेखकों की किताबें उन्हें ज़्यादा पसंद थी?

राकेश जी - सिडनी शेल्डन और डैनियल स्टील। वो कुछ उर्दू मासिक पत्रिकाएँ भी पढ़ते थे, ख़ास कर दिल्ली के शमा ग्रूप के। Readers' Digest उनकी पहली पसंद थी। He believed any person who has not read anything new in 24 hours, has nothing to contribute to society, to life.

सुजॉय - अब मैं एक सवाल मैं आपसे पूछना चाहूँगा अगर आप उसे अन्यथा न लें तो।

राकेश जी - पूछिये।

सुजॉय - क्या आपको लगता है कि बक्शी साहब के इतने ज़्यादा गीत लिखने की वजह से उनके लेखन के स्तर में उसका असर पड़ा है? क्या आपको लगता है कि अगर वो क्वाण्टिटी के बदले क्वालिटी पर ज़्यादा ध्यान देते तो और उम्दा काम हुआ होता?

राकेश जी - हाँ, कभी कभी मैं इस बात को मानता हूँ। मैं उन्हें पूछता भी था कि वो कुछ निर्देशकों के लिये हमेशा अच्छे गीत लिखते और कुछ निर्देशकों के लिये हमेशा बुरे गीत लिखते, ऐसा क्यों? और उनका जवाब होता कि कुछ निर्देशक उनके पास अच्छी कहानी और सिचुएशन लेकर आते थे, अच्छे किरदार लेकर आते थे, और उससे उनको प्रेरणा मिलती थी अच्छा गीत लिखने की। यानी वो यह कहना चाहते थे कि वो सिर्फ़ आइने का काम करते थे, जो जैसी चीज़ लेकर उनके पास आते थे, वो वैसी ही चीज़ उन्हें वापस करते।

सुजॉय - अच्छा राकेश जी, पहले अंक में आपनें बताया था कि आपका इम्पोर्ट का बिज़नेस था। क्या आपके परिवार के किसी और सदस्य नें बक्शी साहब के नक्श-ए-क़दम पर चलने का प्रयास किया है?

राकेश जी - मैं ख़ुद एक राइटर-डिरेक्टर हूँ, और कोशिश कर रहा हूँ मेरी पहली हिंदी फ़ीचर फ़िल्म बनाने की। और कोई इस लाइन में नहीं है। मेरा भाई फ़ाइनन्शियल मार्केट में है, मेरी दो बहनों की शादी हो चुकी है वो अपना अपना घर सम्भालती है।

सुजॉय - यह तो बहुत अच्छी बात है कि आप फ़िल्म-निर्माण में क़दम रख रहे हैं। लेकिन इस राह में आपने कुछ अनुभव भी हासिल किये हैं?

राकेश जी - जी हाँ, इस लाइन में मैने अपना करीयर १९९९ में शुरु किया था। इस वर्ष मैंने दो स्क्रिप्ट्स लिखे - सिनेविस्टा कम्युनिकेशन्स के लिये टीवी धारावाहिक 'सबूत', और धारावाहिक 'हिंदुस्तानी' में मैंने बतौर प्रथम सहायक निर्देशक काम किया। इसी साल फ़रवरी और अगस्त के दरमीयाँ मैं 'मुक्ता आर्ट्स' में बतौर सहायक निर्देशक काम किया, उनकी फ़िल्म 'ताल' में।

सुजॉय - 'मुक्ता आर्ट्स' यानी कि सुभाष घई की बैनर?

राकेश जी - जी हाँ। 'ताल' में मैं 'शॉट कण्टिन्युइटी' के लिये ज़िम्मेदार था, और एडिटिंग्‍ के वक़्त डिरेक्टर के साथ तथा 'प्रीमिक्स' व 'फ़ाइनल मिक्स' में ऐसोसिएट डिरेक्टर के साथ था। फिर 'मुक्ता आर्ट्स' की ही अगली फ़िल्म 'यादें' में कास्टिंग्‍ और शेड्युलिंग्‍ से जुड़ा था, और तमाम तकनीकी पक्ष संभाला था।

सुजॉय - यह तो थी फ़िल्म-निर्माण के तकनीकी पक्षों में आपका अनुभव। आपने यह भी बताया कि आप लिखते भी हैं। तो इस ओर आपने अब तक क्या काम किया है?

राकेश जी - साल २००३ में मैंने निर्माता वाशु भगनानी के लिये अंग्रेज़ी में एक ऑरिजिनल फ़िल्म-स्क्रिप्ट लिखी, जिसका शीर्षक था 'दि इमिग्रैण्ट'। इसी के हिंदी ऐडप्टेशन पर बनी हिंदी फ़िल्म 'आउट ऑफ़ कण्ट्रोल'। मेरी खुद की लिखी और मेरे ही द्वारा बनाई और निर्देशित जो लघु फ़िल्में हैं, उनके नाम हैं - 'कीमत - दि वैल्यु', 'एनफ़ - वी आर नेवर टू पूओर टू शेयर', 'आइ विल बी देयर फ़ॉर यू - कीपिंग्‍ लव अलाइव' और 'सीकिंग्‍ - इन सर्च ऑफ़ ब्यूटी'। २००३ में ही मैं एक हिंदी लघु फ़िल्म में निर्देशक अभय रवि चोपड़ा के साथ मिलकर उसकी स्क्रिप्ट लिखी, जिसका शीर्षक था 'इण्डिया, १९६४'। अभय की यह फ़िल्म 'दि न्यु यॉर्क स्कूल ऑफ़ विज़ुअल आर्ट्स' में उनके ग्रैजुएशन यीअर की फ़िल्म थी। इस फ़िल्म को 'स्टुडेण्ट्स ऑस्कर' के लिये नामांकन मिला था। फ़िल्म में अभिनय है रणबीर ऋषी कपूर और शरद सक्सेना का।

सुजॉय - वाह! अच्छा सुभाष घई के साथ और किन किन फ़िल्मों में आपनें काम किया था?

राकेश जी - स्क्रिप्ट-रीडिंग् और स्क्रिप्ट-एडिटिंग् में मैंने उन्हें ऐसिस्ट किया 'एक और एक ग्यारह', 'जॉगर्स पार्क', 'ऐतराज़', 'इक़बाल' और '३६ चायना टाउन' में। 'किस्ना' में मैं स्क्रिप्ट-ऐसिस्टैण्ट था जिसमें मैंने सचिन भौमिक, फ़ारुख़ धोंडी और सुभाष घई के साथ स्क्रिप्ट-कूओर्डिनेशन का काम किया।

सुजॉय - बहुत ख़ूब! आपने ज़िक्र किया था कि आप अपनी पहली हिंदी फ़ीचर फ़िल्म की राह पर बढ़ रहे हैं। इसके बारे में कुछ बताइये।

राकेश जी - फ़िल्म का नाम है 'फ़ितरत', जिसका मैं राइटर-डिरेक्टर हूँ। कास्ट की तलाश कर रहा हूँ। इसके अलावा एक ऐडवेंचर थ्रिलर 'एवरेस्ट' भी प्लान कर रहा हूँ। मैंने एक ऐनिमेशन फ़िल्म 'लिबर्टी टेकेन' को लिखा व निर्देशित भी किया है।

सुजॉय - बहुत सही है! और हमारी आपके लिये यह शुभकामना है कि आप एक बहुत बड़े फ़िल्म-मेकर बनें और अपने पिता से भी ज़्यादा आपका नाम हो, और आप उनके नाम के मशाल को और आगे लेकर जा सकें।

राकेश जी - बहुत शुक्रिया!

सुजॉय - अच्छा राकेश जी, अब वापस आते हैं बक्शी साहब पर। आज जो गीत हम सुनेंगे, वह उन्हीं का गाया हुआ गीत है फ़िल्म 'मोम की गुड़िया' का। आप समझ गये होंगे, लता जी के साथ गाया हुआ डुएट "बाग़ों में बहार आयी"। आइए सुनते हैं।

गीत - बाग़ों में बहार आयी (मोम की गुड़िया)


सुजॉय - राकेश जी, आज हम अपनी बातचीत को यहीं अर्धविराम देना चाहेंगे। अगले हफ़्ते हम आप से चर्चा करेंगे बक्शी साहब के लिखे कुछ चुनिंदा गीतों की। आज के लिये हम आप से और अपने श्रोता-पाठकों से अनुमति लेना चाहेंगे। अपने पाठकों से आग्रह करेंगे कि यह आख़िरी मौका है, अगर आप आनंद बक्शी साहब के बारे में कुछ जानना चाहते हैं जो इस बातचीत में नहीं बतायी गयी है, तो आप जल्द से जल्द अपना सवाल oig@hindyugm.com पर लिख भेजिये। हम आपके सवालों को पहुँचायेंगे राकेश बक्शी जी तक, और अगले अंक में आपको मिल जायेंगे अपने सवालों के जवाब। इसी के साथ आज अब अनुमति दीजिये, नमस्कार!

चित्र में - बक्शी साहब अपने फ़ौज के दिनों में

गिरिजेश राव की कहानी "सुजान साँप"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की कहानी "घर और बाहर" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं गिरिजेश राव की कहानी "सुजान साँप", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "सुजान साँप" का कुल प्रसारण समय 13 मिनट 55 सेकंड है।

सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट एक आलसी का चिठ्ठा पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

"पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं। तफसील पूछोगे तो कह दूँगा,मुझे कुछ नहीं पता "
~ गिरिजेश राव

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

"यहाँ के लोग सीधे साधे हरगिज नहीं थे। उन्हें मजबूरी की नब्ज़ से खून सोखना बखूबी आता था।"
(गिरिजेश राव की कहानी "सुजान साँप" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#130th Story, Sujan Saanp: Girijesh Rao/Hindi Audio Book/2010/47. Voice: Anurag Sharma

Friday, May 20, 2011

दबंग सलमान खान "रेड्डी" हैं प्रीतम के साथ एक और संगीत धमाके के लिए



Taaza Sur Taal (TST) - 13/2011 - REDDY

दोस्तों एक बार फिर से मैं हाज़िर हूँ एक और नयी फिल्म के संगीत पर अपनी राय लेकर. आज हम बात करेंगें "दबंग" सलमान खान की आने वाली फिल्म – रेड्डी की. टी सिर्रिस के भूषण कुमार ने इस फिल्म के लिए विश्वास जताया है अपने दोस्त प्रीतम पर. और जाहिर प्रीतम ने उन्हें निराश नहीं किया है एक बार फिर, बल्कि अपने पेट्ट गायकों को लेकर शायद इस साल की सबसे बड़ी हिट अल्बम देने में भी कामियाब हुए हैं. चलिए बात करते हैं इस अल्बम के गीतों की.

कैरक्टर ढीला अल्बम का पहला गीत है, नीरज श्रीधर और अमृता काक की आवाजों में. अभी हाल ही में अनु मालिक ने इस फूट टेप्पिंग गीत के अंतरे की धुन अपने एक पुराने गीत से मिलता जुलता बताया था. खैर वो ९० का दशक था अनु मालिक का और अब जब प्रीतम की तूती बोल रही हो तो अनु की आवाज़ कौन सुने. खैर गीत का फिल्माकन देख कर लगता है कि सलमान इस गीत के माध्यम से राज कपूर, दिलीप कुमार और धमेन्द्र को टारगेट कर रहे हैं. पर यही तीन कलाकार ही क्यों कोई समझे तो कृपया बताएं. अमिताभ भट्टाचार्य के शब्द कुछ बहत प्रभावी नहीं लगे मुझे पर संगीत बीट्स और संयोजन इतना जबरदस्त है कि आपके कदम खुद बा खुद थिरकने लगेंगें.

अगला गीत अल्बम का सबसे मधुर गीत है, के के और तुलसी कुमार की युगल आवाजों के इस गीत में गजब का सुकून है. एक ट्रेंड की तरह अंग्रेजी पंक्तियाँ का इस्तेमाल यहाँ भी है, जिसे शायद नीरज ने निभाया है. टिपिकल बोलीवुड रोमांटिक गीत है ये, जिसे मेलोडी के कद्रदान अवश्य पसंद करेंगें. अगला गीत "धिन का चिका" जबरदस्त है और जब से इसके प्रोमो छोटे परदे पर दिख रहे हैं इस गीत ने करेक्टर ढीला से भी अधिक लोकप्रियता हासिल कर ली है. और क्यों न हो, इतना जबरदस्त फिल्मांकन किसी भी गीत का बहुत दिनों बाद देखने को मिला है. पूरी तरह से भारतीय अंदाज़ के इस गीत में मिका ने जैसे जान डाल दी है. अमृता काक के लिए उनकी बराबरी करना मुश्किल तो था ही पर फिर भी उन्होंने अच्छा साथ दिया है. ९० के दशक की एक और फिल्म "ख़ामोशी द म्युसिकल" के एक गीत "बाजा" से प्रेरित है ये गीत पर इसमें इसकी अपनी ओरिजेनलिटी भी है और इसके मूल संगीतकार देवी श्री प्रसाद निश्चित ही इस गीत पर फक्र महसूस कर सकते हैं. वैसे मेरी बधाई गीत के कोरियोग्राफ़र को भी जिन्होंने इस गीत इतना शानदार फिल्मांकन दिया. यहाँ बोल लिखे हैं आशीष पंडित ने.

अल्बम का चौथा और अंतिम ओरिजिनल गीत एक पंजाबी शादी वाला है जिसमें राहत साहब की आवाज़ सुनियी देती है, साथ है तुलसी कुमार. गीत एक और टिपिकल बोलीवुड सरीखा पंजाबी गीत है जिसमें बेशक कुछ नयापन नहीं है पर एनर्जी खूब है. कुल मिलकर रेड्डी के संगीत में पकड़ है, मसाला है और एक हिट अल्बम होने के सभी गुण मौजूद हैं. ऊपर से सलमान का एक्स फेक्टर जो किसी भी फिल्म के लिए एक बूस्ट है, आपको याद होगा कि दबंग के गीत भी (मुन्नी के आलावा) फिल्म के प्रदर्शन के बाद अधिक लोकप्रिय हुए थे, और यहाँ भी अगर ऐसा हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

श्रेष्ठ गीत – "हमको प्यार हुआ", "धिनका चिका"
आवाज़ रेटिंग – ७.५/१०

फिल्म के गीत आप यहाँ सुन सकते हैं



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Thursday, May 19, 2011

भँवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुंवर....एक क्लास्सिक गीत जिसका कोई सानी नहीं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 660/2011/100

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! गायक गायिकाओं की हँसी का मज़ा लेते हुए 'गान और मुस्कान' लघु शृंखला की अंतिम कड़ी में आज हम आ पहुँचे हैं। इस आख़िरी कड़ी के लिए हमने वह गीत चुना है जिसमें लता जी सब से ज़्यादा हँसती हुई सुनाई देती हैं, यानी कि सबसे ज़्यादा अवधि के लिए उनकी हँसी सुनाई दी है इस गीत में। सुरेश वाडकर के साथ उनका गाया यह है १९८२ की फ़िल्म 'प्रेम-रोग' का गीत "भँवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुंवर"। फ़िल्म में सिचुएशन कुछ ऐसा था कि नायिका (पद्मिनी कोल्हापुरी) विवाह की पहली ही रात में विधवा हो जाती है और कुछ ही दिनों में ससुराल को छोड़ कर मायके वापस आने के लिए मजबूर हो जाती है। मायके में भी उसका आदर-सम्मान नहीं होता और एक दुखभरी जीवन गुज़ारने लगती है। ऐसे में उसके चेहरे पर मुस्कान वापस लाता है उसका बचपन का साथी (ऋषी कपूर)। किसी बहाने से जब पद्मिनी ऋषी के साथ घर से बाहर निकलती है, एक अरसे के बाद जब खुली हवा में सांस लेती है, हरे लहलहाते खेतों में दौड़ती-भागती है, ऐसे में किसका मन ख़ुशी के मारे मुस्कुराएगा नहीं। जो एक खुले दिल से हँसने वाली बात होती है, उस हँसी की ज़रूरत थी इस गीत में, और लता जी नें उसे पूरा पूरा निभाया है इस गीत में। गीत तो आपने कई कई बार सुना होगा, आज इस शृंखला में एक बार फिर से इस गीत को सुन कर देखिए, मज़ा कुछ बढ़के ही आयेगा।

राज कपूर की फ़िल्म 'प्रेम रोग' में संगीत था लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का। प्रस्तुत गीत के गीतकार हैं पंडित नरेंद्र शर्मा। जो सिचुएशन अभी उपर हमनें उपर बताया, उस पर कितना सुंदर गीत पंडित जी नें लिखा है। मुखड़ा तो है ही कमाल का, अंतरों में भी कितना सुंदर वर्णन है। इस तरह की अभिव्यक्ति को हिंदी व्याकारण में अन्योक्ति अलंकार कहते हैं। यानी कि शब्द कुछ कहे जा रहे हैं, लेकिन इशारा किसी और बात पर है। हिंदी के शुद्ध शब्दों के प्रयोग से गीत में और भी मधुरता आ गई है। और बाकी की मधुरता लता और सुरेश की आवाज़ों नें ला दी है। कुल मिलाकर एक सदाबहार गीत है "भँवरे ने खिलाया फूल"। पंडित जी की सुपुत्री लावण्या शाह इंटरनेट पर सक्रीय हैं। उनका साक्षात्कार आप 'हिंद-युग्म' पर पहले भी पढ़ चुके हैं, और बहुत जल्द 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में भी एक अलग अंदाज़ में पढ़ने वाले हैं। लेकिन आज यहाँ पर हम पंडित जी का वह इंट्रोडक्शन पढ़ेंगे जो इंट्रो विविध भारती नें पंडित जी द्वारा प्रस्तुत 'जयमाला' कार्यक्रम की शुरुआत में दिया था - "आज की 'जयमाला गोल्ड' में हम आपको उस शख़्स की रेकॉर्डिंग् सुनवा रहे हैं जिन्हें श्रेय है भारत के सब से लोकप्रिय रेडियो चैनल विविध भारती को शुरु करने का। इस सेवा को 'विविध भारती' नाम इन्होंने ही दिया था। इनको हम सब जानते हैं पंडित नरेन्द्र शर्मा के नाम से। २ अक्तुबर १९५७ को जब विविध भारती के प्रसारण की शुरुआत हुई तो पंडित नरेन्द्र शर्मा नियुक्त हुए विविध भारती के चीफ़ प्रोड्युसर। १९१३ में २८ फ़रवरी को उत्तर प्रदेश के एक गाँव जहांगीरपुर में जन्मे नरेन्द्र शर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे - कविता, फ़िल्मी गीत लेखन, दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, सब में उनकी गहन रुचि थी। पंडित नरेन्द्र शर्मा हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेज़ी के विद्वान थे। सन् १९३३ मे साहित्यकार भगवती चरण वर्मा पंडित नरेन्द्र शर्मा को अपने साथ मुंबई लवा लाये। मुंबई में ही पंडित शर्मा जुड़े फ़िल्मों से एक गीतकार के रूप में। गीतकार के रूप में उनकी पहली फ़िल्म थी बॉम्बे टॉकीज़ की 'हमारी बात'। आपनें फ़िल्म 'मालती माधव' की पटकथा भी लिखी थी। 'ज्वार भाटा', 'सती अहल्या', 'अन्याय', 'श्री कृष्ण दर्शन', 'वीणा', 'बनवासी', 'सजनी', 'चार आँखें', 'भाभी की चूड़ियाँ', 'अदालत', 'प्रेम रोग' और 'सत्यम शिवम सुंदरम' आदि फ़िल्मों में उन्होंने गीत लिखे।" दोस्तों, यह तो था एक छोटा सा परिचय पंडित जी का। जैसा कि हमनें बताया, बहुत जल्द उन पर एक विस्तारित साक्षात्कार हम आप तक पहुँचाएंगे, इसी वादे के साथ आप आज का यह गीत सुनिये और मुझे अनुमति दीजिए 'गान और मुस्कान' शृंखला को समाप्त करने की। शनिवार की शाम विशेषांक के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के महफ़िल की शमा जलाने हाज़िर हो जाउँगा, पधारिएगा ज़रूर, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि राज कपूर और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का जो नाता 'बॉबी' से शुरु हुआ था, वह 'प्रेम रोग' पर आकर टूट गया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 1/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक मशहूर गीतकार के आरंभिक गीतों (संभवतः पहला गीत) में से एक.
सवाल १ - किस गायिका की आवाज़ में है ये - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म की नायिका कौन है - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
बहुत दिनों बाद किसी शृंखला में टाई हुआ है, वैसे अनजाना जी जीत सकते थे आसानी से, पर खैर हम अमित जी और अनजाना जी को सयुंक्त रूप से बधाई देते हुए अगली शृंखला के लिए शुभकामनाएँ भी दिए देते हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, May 18, 2011

क्या गजब करते हो जी, प्यार से डरते हो जी....मगर जनाब हँसना कभी नहीं छोडना रोने के डर से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 659/2011/99

'गान और मुस्कान' शृंखला में अब तक आपने आठ गीत सुनें जिनके भाव अलग अलग थे, लेकिन जो एक बात उनमें समान थी, वह यह कि हर गीत में किसी न किसी बात पर गायक की हँसी सुनाई दी। आज के अंक के लिए हमने जिस गीत को चुना है, उसमें भी हँसी तो है ही, लेकिन यह हँसी थोड़ी मादकता लिये हुए है। एक सेनशुअस नंबर, एक सिड्युसिंग् नंबर, और इस तरह के गीतों को आशा जी किस तरह का अंजाम देती हैं, इससे आप भली-भाँति वाकिफ़ होंगे। जी हाँ, आज आशा भोसले की मादक आवाज़ में सुनिए १९८१ की फ़िल्म 'लव स्टोरी' से "क्या ग़ज़ब करते हो जी, प्यार से डरते हो जी, डर के तुम और हसीन लगते हो जी"। युं तो फ़िल्म के नायक-नायिका हैं कुमार गौरव और विजेता पंडित, लेकिन यह गीत फ़िल्माया गया है अरुणा इरानी पर, जो नायक कुमार गौरव को अपनी तरफ़ आकर्षित करना चाह रही है, लेकिन नायक साहब कुछ ज़्यादा इंटरेस्टेड नहीं लगते। उस पर नायिका विजेता भी तो पर्दे के पीछे से यह सब कुछ देख रही है, और कुमार गौरव भी उसे देखते हुए देखता है, लेकिन अरुणा इरानी इससे बेख़बर है। इस गीत में आशा जी की शरारती हँसी गीत की शुरुआत में ही सुनाई दे जाती है। हँसी के अलावा गीत में आगे चलकर आशा जी अंगड़ाई भी लेती है, जिसका भी अपना अलग मादक अंदाज़ है। आनंद बख्शी और राहुल देव बर्मन इस फ़िल्म के गीतकार-संगीतकार रहे, और इस फ़िल्म का "कैसा तेरा प्यार कैसा ग़ुस्सा है तेरा" हम 'गीत अपना धुन पराई' शृंखला में सुनवा चुके हैं।

१९८१ का साल राहुल देव बर्मन के लिए एक महत्वपूर्ण साल था। इस साल उनके संगीत से सजी फ़िल्मों में शामिल थे 'धुआँ', 'मंगलसूत्र', 'दौलत', 'जेल-यात्रा', 'कालिया', 'शौक़ीन', 'रक्षा', 'क़ुदरत', 'कच्चे हीरे', 'ज़माने को दिखाना है', 'सत्ते पे सत्ता', 'बीवी ओ बीवी', 'गहरा ज़ख़्म'। साल ८१-८२ में तीन और फ़िल्में आईं पंचम के संगीत से सजी जिसनें न केवल पंचम के करीयर को चार चांद लगाये, बल्कि तीन नये नायकों को भी जन्म दिया। ये तीन नायक हैं संजय दत्त (रॉकी), कुमार गौरव (लव स्टोरी) और सनी देओल (बेताब)। बिल्कुल नई पीढ़ी के लिए रचा संगीत ज़बरदस्त कामयाब रही, जिसने यह साबित किया कि इस नये दशक और नई पीढ़ी में भी उनका संगीत कितना जवान है! लेकिन आधुनिक शैली के ऒर्केस्ट्रेशन और नये नायकों के लिए धुन बनाने का मतलब कतई यह नहीं था कि मेलडी के साथ कोई समझौता किया जाये जो उस दौर के एक अन्य संगीतकार नें डिस्को के नाम पर किया था। पंचम नें इन फ़िल्मों में गीतों की कर्णप्रियता के साथ भी कोई समझौता नहीं किया। अब आज के प्रस्तुत गीत को ही ले लीजिये, अगर यह गीत आज के दौर में बना होता तो यकीनन इसको अश्लीलता से भर दिया गया होता, गायकी में भी अश्लील शैली अपनायी गई होती, लेकिन इस गीत को सुनते हुए कभी भी ऐसा नहीं लगता कि कहीं पे कोई ग़लत बात है। गीत मादक और सिड्युसिव ज़रूर है लेकिन अश्लील कदापि नहीं। लीजिए आप भी इसी बात को महसूस कीजिए आशा जी की चंचल, शोख़ और शरारती अंदाज़ में।



क्या आप जानते हैं...
कि एक साक्षात्कार में राहुल देव बर्मन नें यह स्वीकार किया था कि ८० के दशक में एक के बाद एक २३ लगातार फ़िल्मों के लिए उनका संगीत फ़्लॉप रहा।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 10/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म की नायिका कौन है - २ अंक
सवाल ३ - निर्देशक बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अरे अरे ये क्या हुआ, अनजाना जी कहाँ गायब हो गए. अमित जी ३ अंक ले उड़े हैं सर यानी आप दोनों को स्कोर अब बराबर है...यानी फैसला आज अंतिम गेंद पर ही होगा. अविनाश जी और दीप जी को भी बधाई. हिन्दुस्तानी जी आप आये यही बहुत है, अमित जी छूटी हुई फिल्म का नाम बताने के लिए धन्येवाद

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, May 17, 2011

मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा.....एक अनूठा गीत जिसे लिखना वाकई बेहद मुश्किल रहा होगा आनंद बख्शी साहब के लिए भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 658/2011/98

लिफ़्ट के अंदर का सीन है। नायक और नायिका अंदर हैं। बीच राह पर ही नायक लिफ़्ट की बटन दबा कर लिफ़्ट रोक देता है। नायिका कहती है कि उसे हिंदी की कक्षा में जाना है, हिंदी की क्लास है। लेकिन नायक कहता है कि हिंदी की क्लास वो ख़ुद लेगा और वो ही उसे हिंदी सिखायेगा। लेकिन मज़े की बात तो यह है कि नायक दक्षिण भारतीय है जिसे हिंदी बिल्कुल भी नहीं आती। तो साहब यह था सीन और इसमे एक गीत लिखना था गीतकार आनंद बख्शी साहब को। अब आप ही बताइए कि इस सिचुएशन पर किस तरह का गीत लिखे कोई? नायक को हिंदी नही आती और उसे हिंदी में ही गीत गाना है। इस मज़ेदार सिचुएशन पर बख्शी साहब नें एक कमाल का गाना लिखा है जिसे सुनते हुए आप भी मुस्कुरा उठेंगे, और गीत में नायिका तो हँस हँस कर लोट पोट हो रही हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, आज 'गान और मुस्कान' की आठवीं कड़ी में प्रस्तुत है कमाल हासन और रति अग्निहोत्री पर फ़िल्माये १९८१ की फ़िल्म 'एक दूजे के लिए' से एस. पी. बालसुब्रह्मण्यम और अनुराधा पौडवाल का गाया "मेरे जीवन साथी प्यार किये जा"। जी हाँ, बक्शी साहब नें केवल फ़िल्मों के शीर्षकों को बेहद बुद्धिमत्ता और ख़ूबसूरती के साथ एक दूसरे से जोड़ते हुए पूरा गीत लिख डाला है और क्या कमाल का लिखा है! एक शीर्षक से दूसरे शीर्षक, दूसरे से तीसरे पर, कितनी सुंदरता से अवतरण हुआ है। और इस शृंखला के मुताबिक इस गीत में हँसी आप सुनेंगे अनुराधा पौडवाल की। वैसे तो पूरा गीत एस.पी साहब नें ही गाया है, लेकिन बीच बीच में कुछ शीर्षक अनुराधा नें भी कही हैं और मुख्यत: उनकी हँसी ही गीत में उनका योगदान है। इस फ़िल्म के बाकी गीतों में गायिका के तौर पर लता जी की आवाज़ ली गई है, बस एक इस गीत मे अनुराधा की आवाज़ ली गई है। इसके पीछे कारण तो यही लगता है कि इसमें एक कम उम्र की चुलबुली लड़की की आवाज़ चाहिए होगी, और गीत का अंदाज़ ज़रा मॉडर्ण भी है, इसलिए शायद लता जी नें परहेज़ किया होगा। ख़ैर, ये सब अनुमान मात्र ही है। हक़ीक़त यह है कि फ़िल्म के अन्य गीतों की तरह इस गीत की भी अपनी अलग पहचान है, अपना अलग वजूद है।

दोस्तों, आइए इस गीत के पूरे बोल यहाँ पर लिखें, और ज़रा हिसाब लगा कर देखें कि कुल कितने फ़िल्मों के नाम इस गीत में आये हैं। चलिए शुरु करते हैं - मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा, जवानी-दीवानी, ख़ूबसूरत, ज़िद्दी, पड़ोसन, सत्यम शिवम सुंदरम। झूठा कहीं का, हरे रामा हरे कृष्णा, ४२० (श्री ४२०), आवारा, दिल ही तो है, आशिक़ हूँ बहारों का, तेरे मेरे सपने, तेरे घर के सामने, आमने-सामने, शादी के बाद, ओ बाप रे (बाप रे बाप), हमारे-तुम्हारे, मुन्ना (मेरा मुन्ना), गुड्डी, टीकू, मिली, शिन शिना की बबला बू, खेल खेल में, शोर, जॉनी मेरा नाम, चोरी मेरा काम, राम और श्याम, बंडलबाज़, लड़की, मिलन, गीत गाता चल, प्यार का मौसम, बेशरम। नॉटी बॉय, इश्क़ इश्क़ इश्क़, ब्लफ़ मास्टर, ये रास्ते हैं प्यार के, चलते चलते, मेरे हमसफ़र, दिल तेरा दीवाना, दीवाना-मस्ताना, छलिया, अंजाना, आशिक़, बेगाना, लोफ़र, अनाड़ी, बढ़ती का नाम दाढ़ी, चलती का नाम गाड़ी, जब प्यार किसी से होता है, सनम, जब याद किसी की आती है, जानेमन, बंधन, कंगन, चंदन, झूला, दिल दिया दर्द लिया, झनक झनक पायल बाजे, छम छमा छम, गीत गाया पत्थरों नें, सरगम। हाँ तो दोस्तों, कितने नाम हुए। कहीं मुझसे कोई नाम छूट तो नहीं गया? या कोई ग़लत नाम तो नहीं लिख गया? चलिए इसकी गिनती तो मैं आप पर ही छोड़ता हूँ, मैं तो लगा इस गीत को सुनने। फ़िल्म में संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का है।



क्या आप जानते हैं...
कि गायक एस. पी. बाल्सुब्रह्मण्यम को 'एक दूजे के लिये' फ़िल्म में गायन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 09/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - किस गायिका की हँसी है इस गीत में - २ अंक
सवाल २ - फिल्म की नायिका कौन है - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अविनाश जी आपने शुक्रवार को जो जवाब दिया उसके जवाब सब पहले से आ चुके थे आपको नहीं दिखे क्योंकि ब्लोग्गर में कुछ गडबड के चलते वो सब डिलीट हो गए थे, खैर स्वागत है आपका, बात तो तब बने जब आप अमित जी और अनजाना जी को कुछ टक्कर दे सकें, हम कब से चाह रहे हैं कि इनके मुकाबले में कोई तो आये :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सजीव सारथी के काव्य संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" का ऑनलाइन विमोचन और लघु फिल्म "नौ महीने" का प्रीमियर



सजीव सारथी हिंद युग्म से २००७ में जुड़े थे बतौर कवि. युग्म की स्थायी सदस्यता मिलने के बाद वो लगातार १ साल तक निरंतर कविताओं के माध्यम से पाठकों से जुड़े रहे. २००७ के अंतिम महीनों में अल्बम "पहला सुर" पर उन्होंने काम शुरू किया जो इन्टरनेट पर संगीत को नए सिरे से प्रस्तुत करने की दिशा में एक अहम कदम साबित हुआ. २००८ में रीलिस हुई अल्बम "पहला सुर" संगीत के एक नए युग की शुरुआत लेकर आया. बहुत से नए संगीत कर्मियों ने हिंद युग्म से जुड़ने की इच्छा जाहिर की और यहीं जरुरत महसूस हुई एक नए घटक "आवाज़" के शुभारंभ की. जुलाई २००८ में शुरू हुए आवाज़ ने कुछ ऐसे काम कर दिखाए जिन्हें बड़ी बड़ी संगीत कम्पनियाँ भी अपने बैनर पर करते हिचकते हैं. सजीव ने सुजॉय, अनुराग शर्मा, विश्व दीपक तन्हा, सुमित और रश्मि प्रभा जैसे कार्यकर्ताओं के दम पर आवाज़ का एक बड़ा कुनबा तैयार किया. इसी बीच सजीव का रचना कर्म भी निरंतर जारी रहा. एक गीतकार के रूप में भी और कविता के माध्यम से भी. उनके रेडियो साक्षात्कारों को सुनने के बाद केरल के एक प्रकाशक ने उनकी कविताओं का संग्रह निकालने की पेशकश की. २०११ अप्रैल में इस संग्रह की पहली प्रति उनके हाथ आई. प्रथम संस्करण में इस पुस्तक की ५००० प्रतियाँ छपी जा रही है, आवाज़ पर आज इसी पुस्तक का ऑनलाइन विमोचन है. आपने नीचे दिए गए चित्र जहाँ "फीता काटें" लिखा है वहाँ खटका लगाना है और करना है इस कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" का विधिवत विमोचन.



धन्येवाद

इस संग्रह की अधिकतर कविताओं में सजीव का शहर दिल्ली एक अहम किरदार के रूप में मौजूद दिखाई देता है. तो विचार हुआ कि क्यों न जन साधारण को समर्पित ये कवितायें दिल्ली के कुछ एतिहासिक स्थानों पर आम लोगों के हाथों भी विमोचित की जाए. नीचे के स्लाईड शो में इसी विमोचन की कुछ तस्वीरें हैं, देखिये...



आम तौर पर आवाज़ पर हुए सभी पुस्तक विमोचनों में हम प्रस्तुत पुस्तक की कविताओं को विभिन्न आवाजों में पेश करते आये हैं. पर चूँकि सजीव विविधता में विश्वास रखते हैं तो हमने सोचा कि क्यों न यहाँ भी कुछ नया किया जाए. इसलिए हमने पुस्तक की कुछ कविताओं को एक लघु फिल्म के माध्यम से पेश करने की योजना बनायीं जिसे नाम दिया है "द अवेकनिंग सीरिस" का, इस शृंखला की पहली कड़ी के रूप में एक लघु फिल्म "दोहराव" हम पेश कर चुके हैं. आज पुस्तक के इस विधिवत विमोचन के साथ हम पेश कर रहे हैं इस कड़ी की दूसरी पेशकश - "नौ महीने". सजीव की इस कविता को स्वर दिया है जाने माने आर जे प्रदीप शर्मा जी ने, वीडियो को सम्पादित किया है आधारशिला फिल्म्स के लिए जॉय कुमार ने, संगीत है ऋषि एस का और पब्लिशिंग पार्टनर हैं हेवन्ली बेबी बुक्स, कोच्ची, जिनके माध्यम से ये पुस्तक बाज़ार में आज उपलब्ध हो पायी है.



आपकी राय और सुझावों का हमें इंतज़ार रहेगा. इस ऑनलाइन विमोचन में शामिल होने के लिए धन्येवाद.

Monday, May 16, 2011

अलबेला मौसम कहता है स्वागतम....ताकि आप रहें खुश और तंदरुस्त



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 657/2011/97

फ़िल्म संगीत में हँसी मज़ाक की बात हो, और किशोर कुमार का नाम ही न आये, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। इन दिनों इसमें जारी है शृंखला 'गान और मुस्कान' और जैसा कि आपको पता है इसमें हम ऐसे गानें शामिल कर रहे हैं जिनमें गायक गायिका की हँसी सुनाई देती है। किशोर कुमार नें बेहिसाब मज़ाइया और हास्य रस के गीत गाये हैं। उनके गाये हास्य गीतों को सुनते हुए कई बार हम हँसते हँसते पेट पकड़ लेते हैं। लेकिन अगर आपसे यह पूछें कि उनकी हँसी किस गीत में सुनाई पड़ी है, तो शायद आपको कुछ समय लग जाये याद करने में। सबसे पहले जो गीत ज़हन में आता है वह है फ़िल्म 'पड़ोसन' का "एक चतुर नार", जिसे हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजा चुके हैं। आज के अंक के लिए हमने किशोर दा का जो गीत चुना है, वह कोई हास्य गीत नहीं है, बल्कि यह एक फ़मिली सॉंग् है, एक पारिवारिक गीत। एक आदर्श छोटा परिवार, जिसमें है माँ-बाप और एक छोटा सा प्यारा सा बच्चा। कुछ इसी पार्श्व पर ८० के दशक का एक गीत है किशोर कुमार, लता मंगेशकर और बेबी कविता की आवाज़ों में फ़िल्म 'तोहफ़ा' में, "अलबेला मौसम, कहता है स्वागतम"। बप्पी लाहिड़ी का संगीत और इंदीवर के बोल। गाना फ़िल्माया गया है जीतेन्द्र और जया प्रदा पर। गीत के अंतरों से पहले बेबी कविता नर्सरी राइम बोलती है जिसके बाद किशोर दा और लता जी ज़ोर से हँसते हैं।

'तोहफ़ा' १९८४ की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म थी जिसके निर्देशक थे के. राघवेन्द्र राव। यह वह दौर था ८० के दशक का जब जीतेन्द्र, श्रीदेवी और जया प्रदा की तिकड़ी फ़िल्म जगत में ख़ूब शोर मचा रही थी। दक्षिण के बैनर तले निर्मित इस तरह की फ़िल्में ख़ूब चले थे। 'तोहफ़ा' के बाद 'मवाली', 'हिम्मतवाला', 'जस्टिस चौधरी', 'धर्माधिकारी', 'संजोग', 'सुहागन' आदि फ़िल्मों के नाम आज भी याद आते हैं। 'तोहफ़ा' एक तमिल ब्लॉकबस्टर फ़िल्म का रीमेक है जिसमे भी श्रीदेवी और जया प्रदा नें ही अभिनय किया था। 'तोहफ़ा' १९८५ के फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड फ़ंक्शन में नामांकनों में छायी रही, शक्ति कपूर को सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता के लिए नामांकन मिला तो बप्पी लाहिड़ी को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के लिए। गीतकार इंदीवर को भी "प्यार का तोहफ़ा तेरा" गीत के लिए नामांकन मिला था। इस फ़िल्म के अंत में जया प्रदा द्वारा निभाये किरदार की मौत हो जाती है, तभी प्रस्तुत गीत के अंतरे में बोल डाले गये हैं "क्यों पूजा के बाद ही बोलो माँग भरा करते हैं, लम्बी उमर सिंदूर की हो हम यह माँगा करते हैं, ये तो कहो जीवन के सफ़र की आखिरी आरज़ू क्या है, तुझसे पहले मैं उठ जाऊँ मैंने यह सोचा है, अगले जनम में दोनों मिलेंगे, अपना यह वादा है"। ८० के दशक के मध्य भाग में फ़िल्म संगीत सब से करुण स्थिति से गुज़र रही थी। ऐसे में यह गीत एक ख़ूशबूदार झोंके की तरह आया और मन को सुवासित कर गया। मुझे यह गीत बचपन में बहुत पसंद था और आज भी है। तो आइए इस गीत को सुनें और लता जी और किशोर दा की हँसी का एक साथ आनंद लें। क्या इस तरह का कोई और गीत है जिसमें लता और किशोर की हँसी सुनाई पड़ती है? मुझे लिख भेजिएगा ज़रूर!



क्या आप जानते हैं...
कि बप्पी लाहिड़ी नें केवल १६ वर्ष की आयु में एक बंगला फ़िल्म 'दादू' में संगीत दिया था जिसमें लता, आशा और उषा, तीनों मंगेशकर बहनों से गवाया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 08/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.

सवाल १ - प्रमुख गायक का साथ किस गायिका ने दिया है - २ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन हैं - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी और अनजाना जी एक बार फिर प्रमुख भूमिका में रहे, क्षिति जी ने हमेशा की तरह गेस्ट भूमिका अदा की और अविनाश जी ने कल डेब्यू किया.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

आ बदल डाले रस्में सभी इसी बात पे.....कुछ तो बात है अमित त्रिवेदी के "आई एम्" में



Taaza Sur Taal (TST) - 12/2011 - I AM

आज सोमवार की इस सुबह मुझे यानी सजीव सारथी को यहाँ देख कर हैरान न होईये, दरअसल कई कारणों से पिछले कुछ दिनों से हम ताज़ा सुर ताल नहीं पेश कर पाए और इस बीच बहुत सा संगीत ऐसा आ गया जिस पर चर्चा जरूरी थी, तो कुछ बैक लोग निकालने के इरादे से मैं आज यहाँ हूँ, आज हम बात करेंगें ओनिर की नयी फिल्म "आई ऍम" के संगीत की. दरअसल फिल्म संगीत में एक जबरदस्त बदलाव आया है. अब फिल्मों में अधिक वास्तविकता आ गयी है, तो संगीत का इस्तेमाल आम तौर पर पार्श्व संगीत के रूप में हो रहा है. यानी लिपसिंग अब लगभग खतम सी हो गयी है. और एक ट्रेंड चल पड़ा है रोक् शैली का. व्यक्तिगत तौर पर मुझे रोक् जेनर बेहद पसंद है पर अति सबकी बुरी है. खैर आई ऍम का संगीत भी यही उपरोक्त दोनों गुण मौजूद हैं.

पहला गाना "बांगुर", बेहद सुन्दर विचार, समाज के बदलते आयामों का चित्रण है, एक तुलनात्मक अध्ययन है बोलों में इस गीत के और इस कारुण अवस्था से बाहर आने की दुआ भी है. आवाजें है मामे खान और कविता सेठ की. अमित त्रिवेदी के चिर परिचित अंदाज़ का है गीत जिसे सुनते हुए भीड़ भाड भरे शहर उलझनों की जिन्दा तस्वीरें आँखों के आगे झूलने लगती हैं. मामे खान भी उभरते हुए गायक मोहन की तरह बेहद सशक्त है. इससे पहले आपने इन्हें "नो वन किल्ल्ड जसिका" के बेहद प्रभावशाली गीत "ऐतबार" में सुना था. पर यहाँ अंदाज़ अपेक्षाकृत बेहद माईल्ड है. कविता अपने फॉर्म में है, यक़ीनन गीत कई कई बार सुने जाने लायक है.

इसके बाद जो गीत है वो अल्बम का सबसे शानदार गीत है, पहले गीत की तमाम निराशाओं को दरकिनार कर एक नयी आशा का सन्देश है यहाँ. गीत के बोल उत्कृष्ट हैं, "बोझ बनके रहे सुबह क्यों किसी रात पे....", "जीत दम तोड़ दे न कभी किसी मात पे" जैसी पक्तियां स्वतः ही आपका ध्यान आकर्षित करेंगीं. आवाज़ है मेरे बेहद पसंदीदा गायक के के की. मैं अभी कुछ दिनों पहले ये फिल्म देखी थी, जिसके बाद ही मुझे इसके संगीत के चर्चा लायक होने का अहसास हुआ. एक और बार बार सुने जाने लायक गीत.

फिल्म में चार छोटी छोटी कहानियों को जोड़ा गया है. अगला गीत इसकी तीसरी कहानी पर है जहाँ नायक का बचपन में शारीरिक शोषण हुआ है और बड़े होने के बाद भी कैसे उन बुरे लम्हों को वो खुद से जुदा नहीं कर पा रहा है, इसी कशमकश का बयां है गीत "बोझिल से...". बेहद दर्द भरा गीत है, एक बार फिर शब्द शानदार हैं,..."बिना पूछे ढेर सारी यादें जब आती है.....ख़ाक सा धुवां सा रहता है इन आँखों में...." वाह. यहाँ संगीत है राजीव भल्ला का. आवाज़ निसंदेह के के की है, जिनकी आवाज में ऐसे गीत अक्सर एक मिसाल बन जाते हैं. यहाँ भी कोई अपवाद नहीं.

अगला गीत 'ऑंखें" शायद हिंदी फिल्म इतिहास का पहला गीत होगा जो एक प्रेम गीत है और जहाँ दोनों प्रेमी समलिंगी है. बस यही इस गीत की खूबी है पर इसके आलावा गीत में कोई नयापन नहीं है. विवेक फिलिप के संगीत में ये गीत अल्बम के बाकी गीतों से कुछ कमजोर ही है.

अमित त्रिवेदी वापस आते हैं एक और नए तजुर्बे के साथ. एक आज़ान से शुरू होता है ये गीत, क्योंकि फिल्म में इसका इस्तेमाल एक कश्मीरी पंडित परिवार के पलायन की दास्ताँ बयां करने के लिए होता है. "साये साये" जिस तरह से बोला गया है वही काफी है आपकी तव्वजो चुराने के लिए. देखिये ऊपर मैंने मोहन का नाम लिया और मोहन मौजूद है यहाँ, साथ में जबरदस्त फॉर्म में रेखा भारद्वाज. जन्नत से दूर होकर खोये हुए जन्नत का दर्द है बोलों में, कहीं कहीं अमित रहमान के "दिल से" वाले अंदाज़ को फोल्लो करते नज़र आते हैं जैसे जैसे गीत आगे बढ़ता है, मुझे यही बात खटकी इस गीत में वैसे गीत शानदार है पर जिन लोगों इस दर्द को जिया है केवल उन्हीं को ये लंबे समय तक याद रहेगा.

राजीव भल्ला का "येंदु वंडू मेरी समझ से बाहर, इसलिए इसका जिक्र छोड़ रहा हूँ, वैसे बांगुर, बोझिल और इसी बात पे जैसे गीत काफी हैं इस अल्बम के लिए आपके द्वारा चुकाई गयी कीमत की वसूली के लिए. वैसे कभी मौका लगे तो ये फिल्म भी देखिएगा, ओनिर एक बेहद सशक्त निर्देशक हैं और फिल्म में आज के दौर के परेल्लल सिनेमा के सभी कलाकार मौजूद हैं. मुझे लगता है जिस स्तर के संगीतकार हैं अमित त्रिवेदी उन्हें रोक् जेनर से कुछ अलग भी ट्राई करना चाहिए अपने संगीत में विवधता लाने के लिए.

श्रेष्ठ गीत – "इसी बात पे", "बांगुर", "साये साये", और "बोझिल"
आवाज़ रेटिंग – ७.५/१०

फिल्म के गीत आप यहाँ सुन सकते हैं



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Sunday, May 15, 2011

बोलिए सुरीली बोलियाँ...और पिरोते रहिये हँसी की लड़ियाँ हर पल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 656/2011/96

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! आज रविवार, यानी छुट्टी का दिन, आप सभी नें अपने अपने परिवार के साथ हँसी-ख़ुशी बिताया होगा। हँसी-ख़ुशी से याद आया कि इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'गान और मुस्कान', जिसमें हम कुछ ऐसे गीत सुनवा रहे हैं जिनमें गायक/गायिका की हँसी सुनाई देती है। आज आप सुनेंगे गायिका-अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित की हँसी। सिंगिंग् सुपरस्टार्स की श्रेणी में सुलक्षणा पंडित और सलमा आग़ा दो ऐसे नाम हैं जिनके बाद इस श्रेणी को पूर्णविराम सा लग गया है। ख़ैर, आज जिस गीत को लेकर हम उपस्थित हुए हैं वह है फ़िल्म 'गृहप्रवेश' का - "बोलिये सुरीली बोलियाँ"। भूपेन्द्र और सुलक्षणा पंडित की आवाज़ों में यह शास्त्रीय संगीत पर आधारित रचना है राग बिहाग पर आधारित, लेकिन इसमें हास्य का भी पुट है। अब जिस गीत के मुखड़े के ही बोल हैं "नमकीन आँखों की रसीली गोलियाँ", उसमें हास्य तो होगा ही न! और "नमकीन आँखों की रसीली गोलियाँ" कहने वाले गीतकार गुलज़ार साहब के अलावा भला और कौन हो सकता है! बासु भट्टाचार्य निर्देशित १९७९ की इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं संजीव कुमार, शर्मीला टैगोर और सारिका। 'अनुभव' और 'आविष्कार' के बाद 'गृह-प्रवेश', इस तरह से वैवाहिक संबंधों पर बनी फ़िल्मों की तिकड़ी की यह तीसरी व अंतिम फ़िल्म थी बासु साहब की। फ़िल्म में संगीत था कानू रॉय का जिन्होंने 'अनुभव' और 'आविष्कार' में भी संगीत दिया था। और इस फ़िल्म के गीतों को आवाज़ दी चन्द्राणी मुखर्जी, सुलक्षणा पंडित, भुपेन्द्र, येसुदास और पंकज मित्र नें।

सुलक्षणा पंडित एक अच्छी अभिनेत्री रही हैं। वो जितनी सुंदर दिखती हैं, उतनी ही सुंदर उनकी शख्सियत है, और उनकी आवाज़ भी उतनी ही ख़ूबसूरत है। कुछ वर्ष पहले सुलक्षणा जी विविध भारती पर तशरीफ़ लायी थीं। कमल शर्मा से की हुई उनकी लम्बी बातचीत में से एक अंश निकालकर आज यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें सुंदरता की बात कही गयी है, लीजिये पढ़िये-

कमल शर्मा: हम अभी कुछ देर पहले ब्युटी की बात कर रहे थे, सही मायने में जब तक आदमी अंदर से ख़ूबसूरत नहीं है, "इनर ब्युटी" जिसे हम कहते हैं, मेरे ख़याल से वो ज़्यादा सुंदर होती है। बहुत लम्बे समय तक लोग उसे ही याद रखते हैं और ऐसा भोलापन आपके मन में गहरा असर छोड़ता है, और स्क्रीन पर भी ज़्यादा अपना भी लगता है। आपका क्या ख़याल है इस बारे में?

सुलक्षणा पंडित: बहुत बड़ी बात कही आपनें। और बहुत सही बात है। देखिये मैं, एक बात कहती हूँ, आप जिस तरह से सौंदर्य की बात कर रहे हैं, तो वह सौंदर्य भगवान बनाता है। मैं यही कहूँगी कि जब मैं रास्ते पर चलती थी, १६/१७ साल, एक चर्च है, वहाँ मैं मोमबत्ती जलाती थी। मैं भजन गाती थी कि "भगवान मेरा अच्छा हो", सब जगह जाती थी, तो 'without my knowledge' के लोग मुझे पीछे मुड़ मुड़ के देखते थे, कि ये कौन है, ये कौन है, इतनी ख़ूबसूरत लगती थी। फिर एक बार मैं मन्ना दा के साथ कोई गाना गा रही थी, मुझे देखते ही बोले, "अरे सुलक्षणा, तू हीरोइन क्यों नहीं बनती?" मैंने कहा कि मैं गाना गाने आयी हूँ। तो बोले, "नूरजहाँ की तरह गा, और सुरैया भी गाती थीं, उनके जैसा काम भी करो"। तो मैंने कहा, "अच्छा, जैसे मिलेगा मैं करूँगी"। तो इस तरह से मन्ना दा नें, और फिर किशोर दा को जब पता चला कि सुलक्षणा इतनी टैलेण्टेड है, "इसको भी उसी तरह ईफ़ोर्ट आ रहे हैं जैसे मुझे आते थे, तो क्यों न इसको फ़िल्मों में काम कराया जाये!" उन्ही के साथ हेमन्त दा आये, उन्हीं का जो प्रोडक्शन है उसमें काम करो। अब दोनों में कहाँ हाँ कहाँ ना मुझे पता नहीं। तो अल्टिमेटली यही प्लान हुआ कि ना वो काम देंगे ना मैं काम करूँगी, और दोनों को अपनी अपनी जगह जैसे हैं वैसे ही रखेंगे।

दोस्तों, सुलक्षणा पंडित फिर अभिनेत्री कैसे बनीं, इसकी चर्चा हम फिर किसी दिन के लिए सुरक्षित रखते हुए आइए आपको सुनवाते हैं फ़िल्म 'गृहप्रवेश' का गीत और मज़ा लेते हैं सुलक्षणा जी की हँसी का भी।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'गृह प्रवेश' में गुलज़ार साहब अतिथि कलाकार के रूप में पर्दे पर नज़र आये थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 07/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.

सवाल १ - फिल्म की दो नायिकाओं में से किस पर फिल्माया गया है ये गीत - २ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन हैं - ३ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
ब्लोग्गर बाबा कुछ नाराज़ रहे तो हुआ ये कि पुराने सभी कमेंट्स गायब हो गए. लेकिन हमने उससे पहले उन अंकों को जोड़ लिया, अभी भी अनजाना और अमित जी के बीच ३ अंकों का फासला है देखते हैं किसके हाथ आएगी ये बाज़ी

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

'सुर संगम' में आज - 'तूती' की शोर में गुम हुआ 'नक्कारा'



सुर संगम - 20 - संकट में है ये शुद्ध भारतीय वाध्य

प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख 'दुन्दुभी' नाम से किया गया है| देवालयों में इस घन वाद्य का अन्य वाद्यों- शंख, घण्टा, घड़ियाल आदि के बीच प्रमुख स्थान रहा है| परन्तु मंदिरों में नक्कारा की भूमिका ताल वाद्य के रूप में नहीं, बल्कि प्रातःकाल मन्दिर के कपाट दर्शनार्थ खुलने की अथवा आरती आदि की सूचना भक्तों अथवा दर्शनार्थियों को देने के रूप में ही रही है|

'सुर संगम' के साप्ताहिक स्तम्भ में आज मैं कृष्णमोहन मिश्र, सभी संगीतप्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ| आज के अंक में हम आपके साथ एक ऐसे लोक ताल वाद्य के बारे में चर्चा करेंगे जो भारतीय ताल वाद्यों में सबसे प्राचीन है, किन्तु आज इस वाद्य के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं| "नक्कारखाने में तूती की आवाज़"; दोस्तों, यह मुहावरा हम बचपन से सुनते आ रहे हैं और समय-समय पर इसका प्रयोग भी करते रहते हैं| ऐसे माहौल में जहाँ अपनी कोई सुनवाई न हो या बहुत अधिक शोर-गुल में अपनी आवाज़ दब जाए, वहाँ हम इसी मुहावरे का प्रयोग करते हैं| परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आने वाले समय में यह मुहावरा ही अर्थहीन हो जाएगा| क्योंकि ऊँचे सुर वाला तालवाद्य नक्कारा या नगाड़ा ही नहीं बचेगा तो तूती (एक छोटे आकार का सुषिर वाद्य) की आवाज़ भला क्यों दबेगी?

'नक्कारा' अथवा 'नगाड़ा' अतिप्राचीन घन वाद्य है| प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख 'दुन्दुभी' नाम से किया गया है| देवालयों में इस घन वाद्य का अन्य वाद्यों- शंख, घण्टा, घड़ियाल आदि के बीच प्रमुख स्थान रहा है| परन्तु मंदिरों में नक्कारा की भूमिका ताल वाद्य के रूप में नहीं, बल्कि प्रातःकाल मन्दिर के कपाट दर्शनार्थ खुलने की अथवा आरती आदि की सूचना भक्तों अथवा दर्शनार्थियों को देने के रूप में ही रही है| अधिकांश मंदिरों में यह परम्परा आज भी कायम है| मन्दिरों के अलावा नक्कारे का प्रयोग प्रचीनकाल में युद्धभूमि में भी किया जाता था| परन्तु यहाँ भी नक्कारा तालवाद्य नहीं, बल्कि सैनिकों के उत्साहवर्धन के लिए प्रयोग किया जाने वाला वाद्य ही था|

ताल वाद्य के रूप में नक्कारा अथवा नगाड़ा लोक संगीत और लोक नाट्य का अभिन्न अंग रहा है| हिमांचल प्रदेश से लेकर बिहार और राजस्थान तक के विस्तृत क्षेत्र के लोक संगीत में इस ताल वाद्य का प्रयोग किया जाता रहा है| अठारहवीं शताब्दी से उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में अत्यन्त लोकप्रिय लोकनाट्य शैली "नौटंकी" में नक्कारा का कोई विकल्प ही नहीं है| यह लोकनाट्य शैली विभिन्न क्षेत्रों में सांगीत, स्वांग, रहस, भगत आदि नामों से भी जानी जाती है| नौटंकी का कथानक पौराणिक, ऐतिहासिक अथवा लोकगाथाओं पर आधारित होते हैं| अधिकतर संवाद गेय और छन्दबद्ध होते हैं| नौटंकी के छन्द दोहा, चौबोला, दौड़, बहरेतबील, लावनी के रूप में होते हैं| आइए सुनते हैं स्वतंत्र नक्कारा वादन,
वादक हैं- राजस्थान के नक्कारा वादक नाथूलाल सोलंकी -



लोकगीतों के साथ तालवाद्य के रूप में आमतौर पर ढोलक और नक्कारा का प्रयोग होता रहा है, परन्तु अब तो लोक संगीत की मंच- प्रस्तुतियों से नक्कारा गायब हो चुका है| उसका स्थान अब 'आक्टोपैड' ने ले लिया है| गाँव के चौपालों पर और अन्य मांगलिक अवसरों पर भी 'सिंथसाइज़र' और 'आक्टोपैड' परम्परागत लोक वाद्यों का स्थान लेता जा रहा है| लोक वाद्य नक्कारा तो अब लुप्त होने के कगार पर है| 1962-63 में भोजपुरी की एक फिल्म बनी थी- 'बिदेशिया'| इस फिल्म के संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी ने पूर्वांचल के लोक संगीत शैलियों का मौलिक प्रयोग फिल्म में किया था| इस फिल्म के एक नृत्य गीत में नक्कारे का अत्यन्त आकर्षक उपयोग किया गया है| इस गीत पर चर्चित नृत्यांगना हेलेन ने नृत्य किया है| आइए पहले इस गीत में नक्कारे का आनन्द लिया जाए-

भोजपुरी फिल्म - बिदेशिया : गीत - 'हमें दुनिया करेला बदनाम...'


लोक नाट्य 'नौटंकी' में तो नक्कारा अनिवार्य होता है| नौटंकी का ढाँचा पूरी तरह छन्दबद्ध होता है| इसीलिए ऊँचे स्वर वाला नक्कारा ही इन छन्दों के लिए अनुकूल संगति वाद्य है| आइए अब हम नौटंकी "लैला मजनू" में "नक्कारा" की संगति के कुछ अंश सुनवाते हैं| इन प्रसंगों को हमने 1966 की फिल्म "तीसरी कसम" से लिया है| गीतकार शैलेन्द्र की यह महत्वाकांक्षी फिल्म थी जिसमें संगीतकार शंकर जयकिशन ने लोकगीतों की मौलिकता को बरक़रार रखा| इसी फिल्म से पहले हम आपको नौटंकी "लैला मजनूँ" के प्रारम्भिक दोहा, चौबोला के साथ और उसके बाद इसी नौटंकी में बहरेतबील के साथ नक्कारा की संगति सुनवाते हैं| नौटंकी के इन छन्दों को अपने समय के चर्चित कव्वाली गायक शंकर-शम्भू ने अपना स्वर दिया है|

फिल्म - तीसरी कसम : नौटंकी के दोहा-चौबोला के साथ नक्कारा संगति


फिल्म - तीसरी कसम : नौटंकी के बहरेतबील के साथ नक्कारा संगति


खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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