Saturday, June 19, 2010

सुनो कहानी: सात ठगों का किस्सा - अनुराग शर्मा के स्वर में



सुनो कहानी: सात ठगों का किस्सा

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में विष्णु प्रभाकर की एक कहानी चोरी का अर्थ का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं "सात ठगों का किस्सा", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।
कहानी का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 56 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

जब और इंतज़ार न हो सका तो ठग रसोई में घुसे।
(हिन्दी लोक कथा "सात ठगों का किस्सा" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#Seventy Ninth Story, Sat thagon ka kissa: Folklore/Hindi Audio Book/2010/23. Voice: Anurag Sharma

Friday, June 18, 2010

खुदा के अक्स और आवारगी के रक्स के बीच कुछ दर्द भी हैं मैले मैले से



Season 3 of new Music, Song # 10

12 जून को बाल श्रम निषेध दिवस मनाया गया, पर क्या इतने भर से हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है ? श्रम करते, सड़कों पे पलते, अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित बच्चे रोज हमारी आँखों के आगे से गुजरते हैं, और हम चुपचाप किनारा कर आगे बढ़ जाते हैं. हिंद युग्म आज एक कोशिश कर रहा है, इन उपेक्षित बच्चों के दर्द को कहीं न कहीं अपने श्रोताओं के ह्रदय में उतारने की, आवाज़ संगीत महोत्सव के तीसरे सत्र के दसवें गीत के माध्यम से. इस आयोजन में हमारे साथी बने हैं संगीतकार ऋषि एस, और गीतकार सजीव सारथी. साथ ही इस गीत के माध्यम से दो गायिकाओं की भी आमद हो रही है युग्म के मंच पर. ये गायिकाएं है श्रीविध्या कस्तूरी और तारा बालाकृष्णन. हम आपको याद दिला दें कि आवाज़ के इतिहास में ये पहला महिला युगल गीत है.

गीत के बोल -



उन नन्हीं आँखों में,
देखो तो देखो न,
उन हंसीं चेहरों को,
देखो तो देखो न,
शायद खुदा का अक्स है,
आवारगी का रक्स है,
सारे जहाँ का हुस्न है,
या जिंदगी का जश्न है...
उन नन्हीं....

बेपरवाह, बेगरज,
उडती तितलियों जैसी,
हर परवाज़ आसमां को,
छूती सी उनकी,

पथरीले रास्तों पे,
लेकर कांच के सपने,
आँधियों से, पल पल,
लड़ती लौ, जिंदगी उनकी,

हँसी ठहाकों में, छुपी गीतों में,
दबी आहें भी है, कौन देखे उन्हें,
जगी रातों में, घुटी बातों में,
रुंधी सांसें भी है, कौन समझे उन्हें...

उन सूनी आँखों में,
झांको तो, झांको न,
उन नंगे पैरों तले,
देखो तो देखो न,
कुछ अनकही सी बातें हैं,
सहमी सहमी सी रातें हैं,
सारे शहर का गर्द है,
मैले मैले से दर्द हैं....
.



"आवारगी का रक्स" है मुजिबू पर भी, जहाँ श्रोताओं ने इसे खूब पसंद किया है

मेकिंग ऑफ़ "आवारगी का रक्स" - गीत की टीम द्वारा

श्रीविध्या कस्तूरी: मुझे इस गीत के बोल सबसे अधिक पसदं आये. ऐसे में इस शब्दों को गायन में व्यक्त करना मेरे हिसाब से इस प्रोजेक्ट का सबसे मुश्किल हिस्सा था मेरे लिए. पर ऋषि ने मुझे पूरे गीत का अर्थ, महत्त्व, और कहाँ मुझे कैसे गाना है आदि बहुत विस्तार से बताया, मैं उनकी शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने मुझे इस गीत का हिस्सा बनाया, मुझे आगे भी इस टीम के साथ काम करने में खुशी होगी.

तारा बालाकृष्णन: ऋषि, विध्या और सजीव के साथ इस प्रोजेक्ट में काम करना एक बेहद सुखद अनुभव रहा. ये एक बेहद खूबसूरत धुन है और उसी अनुरूप सटीक शब्द भी दिए है सजीव ने. मुझे भी सबसे अधिक इस गीत के थीम ने ही प्रभावित किया. ये अनाथ बच्चों के जीवन पर है और गीत में बहुत सी मिली जुली भावनाओं का समावेश है, मेरे लिए ये एक सीखने लायक अनुभव था, शुक्रिया ऋषि, आपने इस गीत के लिए मुझे चुना.

ऋषि एस: ये गीत लिखा गया था २००८ में, और ठीक १ साल बाद यानी २००९ में उसकी धुन बनी, और आज उसके १ साल बाद युग्म में शामिल हो रहा है ये गीत. रोमांटिक गीतों की भीड़ में कुछ अलग थीम पर काम करना बेहद उत्साहवर्धक होता है. शुक्रिया विध्या और तारा का जिन्होंने इस गीत में जान फूंकी, और शुक्रिया सजीव का जो हमेशा ही नए थीमों पर काम करने के लिए तत्पर रहते हैं.

सजीव सारथी:अपने खुद के लिखे गीतों में मेरे लिए ये गीत बेहद खास है. ये मूल रूप से एक कविता है, जिसे अपने मूल स्वरुप में स्वरबद्ध करने की कोशिश की पहले ऋषि ने, मगर नतीजा संतोषजनक न मिलने के करण हम सब दूसरे कामों में लग गए, मैं लगभग इसके बारे में भूल ही चुका था कि ऋषि ने एक दिन कविता में पंक्तियों के क्रमों में हल्की फेर बदल के साथ ये धुन पेश की, बस फिर तो ये नगमा हम सब की पहली पसंद बन गया. इसे एक महिला युगल रखने का विचार भी ऋषि का था और तारा -विध्या भी उन्हीं की खोज है, ये गीत मेरे दिल के बहुत करीब है और यदि संभव हुआ तो किसी दिन इसका एक विडियो संस्करण भी बनाऊंगा


तारा बालाकृष्णन
शास्त्रीय गायन में निपुण तारा के लिए गायन जूनून है. पिछले दस सालों से की बोर्ड भी सीख और बजा रही हैं. इन्टरनेट पर ख़ासा सक्रिय है विशेषकर मुजीबु पर, हिंद युग्म पर ये इनका पहला गीत है.

विध्या
कर्णाटक संगीत की शिक्षा बचपन में ले चुकी विध्या को पुराने हिंदी फ़िल्मी गीतों का खास शौक है, ये भी मुजीबु पे सक्रिय सदस्या हैं. ये इनका पहला मूल हिंदी गीत है, और युग्म पर भी आज इसी गीत के माध्यम से इनकी ये पहली दस्तक है

सजीव सारथी
हिन्द-युग्म के 'आवाज़' मंच के प्रधान संपादक सजीव सारथी हिन्द-युग्म के वरिष्ठतम गीतकार हैं। हिन्द-युग्म पर इंटरनेटीय जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीत निर्माण का बीज सजीव ने ही डाला है, जो इन्हीं के बागवानी में लगातार फल-फूल रहा है। कविहृदयी सजीव की कविताएँ हिन्द-युग्म के बहुचर्चित कविता-संग्रह 'सम्भावना डॉट कॉम' में संकलित है। सजीव के निर्देशन में ही हिन्द-युग्म ने 3 फरवरी 2008 को अपना पहला संगीतमय एल्बम 'पहला सुर' ज़ारी किया जिसमें 6 गीत सजीव सारथी द्वारा लिखित थे। पूरी प्रोफाइल यहाँ देखें।

ऋषि एस
ऋषि एस॰ ने हिन्द-युग्म पर इंटरनेट की जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीतों के निर्माण की नींव डाली है। पेशे से इंजीनियर ऋषि ने सजीव सारथी के बोलों (सुबह की ताज़गी) को अक्टूबर 2007 में संगीतबद्ध किया जो हिन्द-युग्म का पहला संगीतबद्ध गीत बना। हिन्द-युग्म के पहले एल्बम 'पहला सुर' में ऋषि के 3 गीत संकलित थे। ऋषि ने हिन्द-युग्म के दूसरे संगीतबद्ध सत्र में भी 5 गीतों में संगीत दिया। हिन्द-युग्म के थीम-गीत को भी संगीतबद्ध करने का श्रेय ऋषि एस॰ को जाता है। इसके अतिरिक्त ऋषि ने भारत-रूस मित्रता गीत 'द्रुजबा' को संगीत किया। मातृ दिवस के उपलक्ष्य में भी एक गीत का निर्माण किया। भारतीय फिल्म संगीत को कुछ नया देने का इरादा रखते हैं।

Song - Awargi ka raks
Voice - Tara Balakrishnan, Srividya Kasturi and Rishi S
Music - Rishi S
Lyrics - Sajeev Sarathie
Photograph - Manuj Mehta


Song # 10, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए

Thursday, June 17, 2010

"धड़क धड़क तेरे बिन मेरा जियरा" - दो नामी गायिकाएँ लेकिन उनकी दुर्लभ जोड़ी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 420/2010/120

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम पिछले नौ दिनों से सुन रहे हैं दुर्लभ गीतों से सजी लघु शृंखला 'दुर्लभ दस'। इन गीतों को सुनते हुए आपने महसूस किया होगा कि ये सभी बेहद कमचर्चित फ़िल्मों के गानें हैं। बस 'बिलवा मंगल' को छोड़ कर बाकी सभी फ़िल्में बॊक्स ऒफ़िस पर असफल रहीं, जिनमें अधिकतर धार्मिक और स्टण्ट फ़िल्में हैं। आपने यह भी महसूस किया होगा कि इन गीतों के गायक भी कमचर्चित गायकों में से ही थे। लेकिन आज इस शृंखला की दसवीं और अंतिम कड़ी के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह गीत है तो दुर्लभ और भूला बिसरा, लेकिन इसमें दो ऐसी आवाज़ें शामिल हैं जिन्होने अपार शोहरत व सफलता हासिल की है अपने अपने करीयर में। इन दोनों गायिकाओं ने असंख्य लोकप्रिय गीत हमें दिए हैं, जिनकी फ़ेहरिस्त इतनी लम्बी है कि अगर हिसाब लगाने बैठें तो न जाने कितने दिन गुज़र जाएँगे। लेकिन अगर आपसे हम यह कहें कि इन दोनों गायिकाओं के साथ में गाए हुए गीतों के बारे में बताइए, तो शायद आप झट से कोई गीत याद ही न कर पाएँ। तभी तो यह जोड़ी एक दुर्लभ जोड़ी है और आज के कड़ी की शान है यह जोड़ी। यह जोड़ी है फ़िल्म संगीत संसार के दो बेहद महत्वपूर्ण आवाज़ों की - सुरैय्या और आशा भोसले की। जी हाँ, इन दोनों ने बहुत ही कम गीत साथ में गाए हैं, और हमने जिस गीत को खोज निकाला है, वह है १९४९ की फ़िल्म 'सिंगार' का - "धड़क धड़क तेरे बिन मेरा जियरा...तेरे बिन चैन न आए रे"। फ़िल्म मे संगीत दिया था ख़ुरशीद अनवर ने, और गानें लिखे थे डी. एन. मधोक, नक्शब जराचवी और शक़ील बदायूनी ने। प्रस्तुत गीत मधोक साहब का लिखा हुआ है। जयराज, मधुबाला व सुरैय्या अभिनीत 'सिंगार' में सुरैय्या की आवाज़ में एकल गीत "नया नैनों में रंग नई ऊँची उमंग जिया बोले मीठी बानी, एक तुम हो साथ दूजे हाथ में हाथ तीजे शाम सुहानी" गीत लोकप्रिय हुआ था। सुरिंदर कौर ने भी इस फ़िल्म में पाँच गीत गाए थे।

संगीतकार ख़ुरशीद अनवर पर 'लिस्नर्स बुलेटिन' पत्रिका में सन् १९८५ के अगस्त महीने के अंक में एक लेख प्रकाशित हुआ था कैयुम अज़ीज़ का लिखा हुआ। उसी लेख का एक अंश आज यहाँ पेश कर रहे हैं। "भारत विभाजन के बाद विशुद्ध व्यावसायिकता को दृष्टिगत रखते हुए पाकिस्तान जा बसने वाले, अपने समय के प्रसिद्ध संगीतकार ख़ुरशीद अनवर का ३० अक्तुबर १९८४ को लाहौर में दुखद निधन हो गया। वे लगभग ७० वर्ष के थे। ख़ुरशीद अनवर ने अपने संगीत जीवन की शुरुआत आल इण्डिया रेडियो के संगीत विभाग में प्रोड्युसर-इन-चार्ज की हैसियत से की थी। फ़िल्मों में संगीत निर्देशक के रूप में पहली बार उन्हें पंजाबी फ़िल्म 'कुड़माई' में सन् १९४१ में संगीत देने का अवसर मिला जिसमें वास्ती, जगदीश, राधारानी, जीवन आदि कलाकारों ने अभिनय किया था। निर्देशक थे जे. के. नन्दा। उनके मधुर संगीत से सजी पहली हिंदी फ़िल्म थी 'इशारा' जो सन् १९४३ में प्रदर्शित हुई थी। फ़िल्म के डी. एन. मधोक लिखित सभी ९ गीतों को सुरैय्या के गाए "पनघट पे मुरलिया बाजे" तथा गौहर सुल्ताना के गाए "शबनम क्यों नीर बहाए" विशेष लोकप्रिय हुए थे। अभिनेत्री वत्सला कुमठेकर ने भी फ़िल्म में दो गीत गाए थे - "दिल लेके दगा नहीं देना" तथा "इश्क़ का दर्द सुहाना"।" ख़ुरशीद अनवर के शुरुआती फ़िल्मों के बारे में हमने आपको जानकारी दी, उनसे जुड़ी कुछ और बातें हम आगे चलकर फिर कभी देंगे जब भी कभी उनका स्वरब्द्ध किया हुआ गीत इस महफ़िल में पेश होगा। फिलहाल वक़्त हो चला है सुरैय्या, आशा भोसले और साथियों के गाए फ़िल्म 'सिंगार' के इस गीत को सुनने का। और इसके साथ ही 'दुर्लभ दस' शृंखला को समाप्त करने की दीजिए हमें इजाज़त, अपनी राय व वि़चारों का हम oig@hindyugm के पते पर इंतज़ार करेंगे। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि पाकिस्तान में ख़ुरशीद अनवर की जो फ़िल्में मशहूर हुईं थीं उनमें शामिल हैं 'ज़हरे-इश्क़', 'घुंघट', 'चिंगारी', 'इंतज़ार', 'कोयल', 'शौहर', 'चमेली', 'हीर रांझा' इत्यादि।।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस संगीतकार जोड़ी के एक पार्टनर का जन्मदिन ३० जून को आता है, कौन सी है ये जोड़ी -३ अंक.
२. १९५९ में आई इस फिल्म के इस मशहूर गीत में इन्होने उस वाध्य का प्रमुखता से इस्तेमाल किया था, जिसे बजा कर वो कभी संगीत की दुनिया पे छा गए थे, फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
३. इस युगल गीत में एक आवाज़ मुकेश की है, गीतकार का नाम बताएं - २ अंक.
४. मुखड़े में शब्द है "नज़रें" - गीत के बोल बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
बहुत अच्छे, इंदु जी और शरद जी ने तीन -तीन अंक बाँट लिए, बहुत बढ़िया

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, June 16, 2010

"मौसम है बड़ा मस्ताना" - एक और दुर्लभ गीत, एक और दुर्लभ आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 419/2010/119

दोस्तों, दुर्लभ गीत उसे कहा जाता है जिसे आसानी से प्राप्त न किया जा सके। या फिर उस गीत की कुछ ऐसी विशेषताएँ होंगी जो बहुत रेयर हैं, जैसे कि मान लीजिए किसी गीत को ऐसे दो गायकों ने गाए हैं जिनका गाया वह एकमात्र गीत है। उस गीत को भी दुर्लभ माना जा सकता है जिसे किसी ग़ैर पारम्परिक गायक ने गाया हो, या बहुत ही कमचर्चित किसी गायक, संगीतकार या गीतकार की वह कृति हो। फ़िल्म के ना चलने से फ़िल्म के गानें भी कहीं खो जाते हैं और बन जाते हैं दुर्लभ। दुर्लभ गीत की परिभाषा अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग हो सकती है। हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस शृंखला में कोशिश की है कि इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए गीतों का चयन करें। अब इसमें हम कितने सफल हुए हैं और कितने असफल यह तो आप की राय से ही हमें पता चल सकता है। ख़ैर, आज हम एक बेहद कमचर्चित गायिका का गाया हुआ एक गीत लेकर इस महफ़िल में उपस्थित हुए हैं। ये गायिका हैं कृष्णा कल्ले। आप सभी ने इस गायिका का नाम सुना है, लेकिन अगर मैं आपको इनका गाया हुआ कोई गीत याद करने को कहूँ तो आप में से कई लोगों को थोड़ा वक़्त लेने की ज़रूर नौबत आ जाएगी। कम से कम रफ़ी साहब के साथ उनका गाया वह गीत तो आपको याद ही होगा - "गाल गुलाबी नैन शराबी"! जी हाँ, १९७४ की फ़िल्म 'गाल गुलाबी नैन शराबी' का यह शीर्षक गीत था। चलिए हम कुछ और फ़िल्मों के नाम आपको बता देते हैं जिनमें कृष्णा कल्ले ने गानें गाए हैं । ये फ़िल्में हैं - जंगल की हूर, दानवीर कर्ण, गुनेहगार, रास्ते और मंज़िल, ज़माने से पूछो, स्पाई इन गोवा, ज़हरीली, रौनक़, प्रेम की गंगा, सुनहरा जाल, श्री कृष्ण अर्जुन युद्ध, एक गुनाह और सही, बच्चे मेरे साथी, प्रोफ़ेसर और जादूगर, अल्बेला मस्ताना, टारज़न और जादूई चिराग़, टारज़न ऐण्ड हरक्युलिस, मितवा (भोजपुरी), शान-ए-ख़ुदा, आदि। इन नामों को पढ़कर आप ने यह ज़रूर अंदाज़ा लगा लिया होगा कि कृष्णा कल्ले को अपने करीयर में कम बजट की फ़िल्मों में ही गाने के अवसर प्राप्त हुए। ये फ़िल्में मुख्यतः धार्मिक, फ़ैनटसी और स्टंट फ़िल्में हैं और ऐसी फ़िल्मों और उनके गीतों का क्या अंजाम होता है यह शायद बताने की ज़रूरत नहीं। ख़ैर, आज के लिए हमने इस सुरीली गायिका की आवाज़ में जिस गीत को चुना है वह है फ़िल्म 'टारज़न ऐण्ड हरक्युलिस' का "मौसम है बड़ा मस्ताना, हर फूल बना पैमाना, फिर धरती क्यों शरमाए, झूमे है सारा ज़माना"।

'टारज़न ऐण्ड हरक्युलिस' सन् १९६६ की फ़िल्म थी। इस स्टण्ट फ़िल्म के लिए गीत लिखे अज़ीज़ ग़ाज़ी ने तथा फ़िल्म में संगीत दिया मोमिन ने। एक दौर ऐसा था जब टारज़न की कहानियाँ बेहद लोकप्रिय हुआ करती थी। आजकल टारज़न के चर्चे ना के बराबर हो गए हैं, लेकिन उस ज़माने में बच्चों के लिए टारज़न एक सुपर हीरो हुआ करता था। इसलिए उस ज़माने के स्टण्ट फ़िल्मकारों ने टारज़न पर बहुत सारी फ़िल्में बनाईं। चलिए हम आपको एक पूरी सूची ही दे देते हैं टारज़न वाली फ़िल्मों की। ये फ़िल्में हैं - तूफ़ानी टारज़न (१९३७- मास्टर मोहम्मद), टारज़न की बेटी (१९३८- अनुपम घटक), तूफ़ानी टारज़न (१९६२), टारज़न गोज़ टू इंडिया (१९६२), रॊकेट टारज़न (१९६३- रॊबिन बनर्जी), टारज़न और गोरिला (१९६३- जिम्मी), टारज़न और जादूगर (१९६३- सुरेश तलवार), टारज़न ऐण्ड कैप्टन किशोर (१९६४- मनोहर, एस. कृष्णन), टारज़न ऐण्ड डेलिला (१९६४- रॊबिन बनर्जी), टारज़न और जलपरी ९१९६४- सुरेश कुमार), टारज़न ऐण्ड क्लिओपैट्रा ९१९६५), टारज़न ऐण्ड दि सर्कस (१९६५- हुस्नलाल भगतराम), टारज़न ऐण्ड किंग कॊंग् (१९६५- रॊबिन बनर्जी), टारज़न कम्स टू डेल्हि (१९६५- दत्ताराम), टारज़न की महबूबा (१९६६- सुरेश कुमार), टारज़न ऐण्ड हरक्युलिस (१९६६- मोमिन), टारज़न और जादूई चिराग़ (१९६६- शफ़ी, शौकत), टारज़न इन फ़ेयरी लैण्ड (१९६८- जिम्मी), टारज़न ऐण्ड कोब्रा, टारज़न ३०३ (१९७०- हरीश धवन), टारज़न मेरा साथी (१९७४- शंकर जयकिशन), ऐडवेन्चर्स ऒफ़ टारज़न (१९८५), टारज़न (१९८५- बप्पी लाहिड़ी), टारज़न ऐण्ड कोब्रा (१९८८- सोनिक ओमी), टारज़न की बेटी (१९८८- सपन जगमोहन), लेडी टारज़न (१९९०), जंगली टारज़न (२००१)। तो दोस्तों, टारज़न वाली फ़िल्मों की सूची हमने आपको बता दी, और अब बारी है आज का गीत सुनने की। मस्ताने मौसम में फूलों पर किस तरह का ख़ुमार छा रहा है, सुनते हैं इस गीत में कृष्णा कल्ले और सखियों के साथ।



क्या आप जानते हैं...
कि टारज़न पर समय समय पर बहुत सारी फ़िल्में बनीं हैं, लेकिन जिस फ़िल्म के संगीत ने सब से ज़्यादा सफलता प्राप्त की, वह थी बप्पी लाहिड़ी के संगीत में बनी फ़िल्म 'टारज़न' (१९८६)।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत में दो गायिकाओं की आवाज़ें शामिल हैं। एक है सुरैय्या, आपको बताना है दूसरी गायिका का नाम। ३ अंक।

२. इस फ़िल्म के संगीतकार वो हैं जो डी. एन. मधोक के तीन घनिष्ठ मित्रों में से एक थे। अभी हाल ही में हमने इस बात का ज़िक्र किया था। लगाइए अंदाज़ा संगीतकार के नाम का। ३ अंक।

३. इस गीत के गीतकार हैं डी. एन. मधोक। गीत के मुखड़े की पहली पंक्ति में ऐसे शब्द मौजूद हैं जिनसे मिलता जुलता एक गीत राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ में है। गीत के बोल बताएँ। ३ अंक।

४. यह १९४९ की फ़िल्म का गीत है जिसमें मुख्य कलाकार हैं जयराज, मधुबाला और सुरैय्या। फ़िल्म का नाम बताएँ। ३ अंक।


पिछली पहेली का परिणाम -

सवाल सब बेहद मुश्किल थे इस बार, पर शरद जी, मान गए उस्ताद आपको, क्या शानदार चौका लगाया है आपने....बहुत बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

दिल मगर कम किसी से मिलता है... बड़े हीं पेंचो-खम हैं इश्क़ की राहो में, यही बता रहे हैं जिगर आबिदा



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८८

"को"कोई अच्छा इनसान ही अच्छा शायर हो सकता है।" ’जिगर’ मुरादाबादी का यह कथन किसी दूसरे शायर पर लागू हो या न हो, स्वयं उन पर बिलकुल ठीक बैठता है। यों ऊपरी नज़र डालने पर इस कथन में मतभेद की गुंजाइश कम ही नज़र आती है लेकिन इसको क्या किया जाए कि स्वयं ‘जिगर’ के बारे में कुछ समालोचकों का मत यह है कि जब वह अच्छे इनसान नहीं थे, तब बहुत अच्छे शायर थे।

’जिगर’ के बारे में खुद कुछ कहूँ (इंसान खुद कुछ कहने की हालत में तभी आता है, जब उसने उस शख्सियत पर गहरा शोध कर लिया हो और मैं यह मानता हूँ कि मैने जिगर साहब की बस कुछ गज़लें पढी हैं, उनपर आधारित अली सरदार ज़ाफ़री का "कहकशां" देखा है और उनके बारे में कुछ बड़े लेखकों के आलेख पढे हैं.... इससे ज्यादा कुछ नहीं किया...... इसलिए मुझे नहीं लगता कि मैं इस काबिल हूँ कि अपनी लेखनी से दो शब्द या दो बोल निकाल सकूँ) इससे बेहतर मैंने यही समझा कि हर बार की तरह "प्रकाश पंडित" जी की पुस्तक का सहारा लिया जाए। तो अभी ऊपर मैंने ’जिगर’ की जो हल्की-सी झांकी दिखाई, वो "प्रकाश पंडित" जी की मेहरबानी से हीं संभव हो पाई थी। मेरे हिसाब से जिगर उन शायरों में आते हैं, जिन्हें अपनी हैसियत का एक शतांश भी न मिला। इनका लिखा यह शेर

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।


अभी भी ग़ालिब के नाम से पढा और सराहा जाता है (जी हाँ ,हमने भी यह गलती की थी..... "कमीने" फिल्म के "फ़टाक" गाने पर चर्चा के दौरान हमने यही कहा था कि गुलज़ार की यह पंक्ति "ये इश्क़ नहीं आसाँ..अजी एड्स का खतरा है" ग़ालिब के शेर से प्रेरित है)। भला कितनों को यह मालूम है कि "चोरी-चोरी चुपके-चुपके" फिल्म के शीर्षक गीत की शुरूआती पंक्तियाँ सीधे-सीधे इस शेर से उठाई हुई हैं:

रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये


भले हीं हमें "जिगर" की जानकारी न हो, लेकिन इनके शेर हर तबके के लोगों की जुबान पर चढे हुए हैं। है कोई ऐसा जो यह दावा करे कि कभी न कभी, कही न कहीं उसने इस शेर को सुना या फिर कहा नहीं है:

हमको मिटा सके, यह ज़माने में दम नहीं,
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं।


फिल्मों के नाम तक इनके शेरों ने मुहैया कराए हैं। इस शेर को पढकर खुद अंदाजा लगाईये कि हम किस फिल्म की बात कर रहे हैं:

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन


'जिगर’ ने भले हीं हिन्दी फिल्मों में न लिखा हो, लेकिन उन्होंने हिन्दी फिल्मों को वह हीरा दिया, जिसे संगीत-जगत कभी भी भूल नहीं सकता। "मजरूह सुल्तानपुरी" की मानें तो "जिगर" ने हीं उन्हें फिल्मों के लिए लिखने की सलाह दी थी। दर-असल जिगर मजरूह के गुरू थे।

जिगर को याद करते हुए उर्दू के जानेमाने शायर निदा फ़ाज़ली कहते हैं:

जिगर अपने युग में सबसे ज़्यादा मशहूर और लोकप्रिय रहे हैं। वह जिस मुशायरे में शरीक होते, उनके सामने किसी और का चिराग नहीं जलता, वह भारत, और पाकिस्तान दोनों जगह पूजे जाते थे। लेकिन इस शोहरत ने न उनके तौर तरीके बदले न उनके ख़ानदानी मूल्यों में कोई परिवर्तन किया। पाकिस्तान ने उन्हें दौलत की बड़ी-बड़ी लालचें देकर हिंदुस्तान छोड़ने को कहा, लेकिन उन्होंने शाह अब्दुलग़नी (जिनके वह मुरीद थे) और असग़र के मज़ारों के देश को त्यागने से इनकार कर दिया।

जिगर की शायरी की दुनिया, और इसके ज़मीन-आसमान उनके अपने थे। इसमें न गालिब की दार्शनिक सूझबूझ हैं, न नजीर जैसा इन्सानी फैलाव है। लेकिन इसके बावजूद वह ग़ज़ल की तारीख में अपने अंदाजेबयान की नग़मगी और हुस्नोइश्क़ के सांस्कृतिक रिश्ते की वजह से हमेशा याद किये जाते रहेंगे। वह दाग़ की तरह बाज़ारे हुस्न के सैलानी होते हुए भी, रिश्तों की बाजारियत से कोसों दूर हैं। उन्होंने अपनी विरासती तहजीब से ग़ज़ल के बाज़ारी किरदारों में सामाजिकता का जादू जगाया है। वस्लों-फ़िराक़ के परंपरागत बयानों को अपने अनुभवों की रोशनी से सजाया है। उनके अनुभवों ने शब्दों को लयात्मक बनाया है।

जिगर ऐसे थे, जिगर वैसे थे, जिगर ने ये लिखा, जिगर ने वो लिखा... ये सब बातें तो होती रहेंगी, लेकिन जो इंसान यह कह गया

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क ने जाना है,
हम ख़ाकनशीनों की ठोकर में ज़माना है।


वह असल में था कौन.. उसकी निजी ज़िंदगी क्या थी... आईये अब हम यह भी जान लेते हैं (साभार: प्रकाश पंडित):

अली सिकन्दर ‘जिगर’ मुरादाबादी १८९० ई. में मौलवी अली ‘नज़र’ के यहां, जो स्वयं एक अच्छे शायर और ख़्वाजा वज़ीर देहलवी के शिष्य थे, पैदा हुए। एक पूर्वज मौलवी ‘समीअ़’ दिल्ली के निवासी और बादशाह शाहजहान के उस्ताद थे। लेकिन शाही प्रकोप के कारण दिल्ली छोड़कर मुरादाबाद में जा बसे थे। यों ‘जिगर’ को शायरी उत्तराधिकार के रूप में मिली। तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही उन्होंने शे’र कहने शुरू कर दिए। शुरू-शुरू में अपने पिता से संशोधन लेते उसके बाद उस्ताद ‘दाग़’ देहलवी को अपनी ग़ज़लें दिखाईं और ‘दाग’ के बाद मुंशी अमीर-उल्ला ‘तसलीम’ और ‘रसा’ रामपुरी को ग़ज़लें दिखाते रहे। शायरी में सूफ़ियाना रंग ‘असग़र’ गौंडवी की संगत का फल था। शिक्षा बहुत साधारण। अंग्रेज़ी बस नाम-मात्र जानते थे। आजीविका जुटाने के लिए कभी स्टेशन-स्टेशन चश्मे भी बेचा करते थे। और शक्ल-सूरत के लिहाज़ से तो अच्छे-खासे बदसूरत व्यक्ति गिने जाते थे। लेकिन ये सब ख़ामियां अच्छे शे’र कहने की क्षमता तले दब कर रह गई थीं।

‘जिगर’ साहब की शादी उर्दू के प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय ‘असग़र’ गौंडवी की छोटी साली से हुई थी लेकिन ‘जिगर’ साहब की शराबनोशी ने बना घर बिगाड़ दिया और ‘असग़र’ साहब ने ‘जिगर’ साहब से तलाक़ दिलाकर उनकी पत्नी को अपनी पत्नी बना लिया। ‘असग़र’ साहब के देहांत पर ‘जिगर’ साहब ने फिर उसी महिला से दोबारा शादी कर ली और कुछ मित्रों का कहना है कि उनकी इस पत्नी ने ही उनकी शराब की लत छुड़ावाई। यह उनके अच्छे आदमी बनने की धुन थी , पत्नी का जोर था या फिर न जाने क्या था कि एक दिन उन्होंने हमेशा के लिए शराब से तौबा कर ली और फिर मरते दम तक शराब को हाथ नहीं लगाया। शराब से तौबा के बाद वह बेतहाशा सिगरेट पीने लगे, लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने सिगरेट भी छोड़ दी।

‘जिगर’ साहब बड़े हंसमुख और विशाल हृदय के व्यक्ति थे। धर्म पर उनका गहरा विश्वास था लेकिन धर्मनिष्ठा ने उनमें उद्दंडता और घमंड नहीं, विनय और नम्रता उत्पन्न की। वह हर उस सिद्धांत का सम्मान करने को तैयार रहते थे जिसमें सच्चाई और शुद्धता हो। यही कारण है कि साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन का भरसक विरोध करने पर भी उन्होंने ‘मजाज़’, ‘जज़्बी’, मसऊद अख़्तर ‘जमाल’, मजरूह सुलतानपुरी इत्यादि बहुत से प्रगतिशील शायरों को प्रोत्साहन दिया और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के निमंत्रण पर अपनी जेब से किराया ख़र्च करके वह उनके सम्मेलनों में योग देते रहे। (यों ‘जिगर’ साहब किसी मुशायरे में आने के लिए हज़ार-बारह सौ रुपये से कम मुआवज़ा नहीं लेते थे।)

‘जिगर’ साहब का पहला दीवान (कविता-संग्रह) ‘दाग़े-जिगर’ १९२१ ई. में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद १९२३ ई. में ‘शोला-ए-तूर’ के नाम से एक संकलन मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ से छपा। एक नया कविता-संग्रह ‘आतिशे-गुल’ के नाम से सन् १९५८ में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक को साहित्य अकादमी ने उर्दू भाषा की सन् १९५९ की सर्वश्रेष्ठ कृति मानकर उस पर पाँच हज़ार रुपये का पुस्कार देकर ‘जिगर’ साहब को सम्मानित किया। ९ सितम्बर, १९६० को उर्दू ग़ज़ल के इस शती के बादशाह ‘जिगर’ का गोंडा में स्वर्गवास हो गया।

बातों-बातों में हम गज़ल सुनवाना तो भूल हीं गए। अरे-अरे उदास मत होईये... ऐसा कैसे हो सकता है कि महफ़िल सजे और कोई गज़ल साज़ पर चढे हीं नहीं। आज की गज़ल वैसे भी कुछ खास है... क्योंकि "जिगर" की इस गज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है अनोखी अदाओं की धनी बेगम आबिदा परवीन ने। हमने यह गज़ल उनकी एलबम "खज़ाना" से ली है। तो लीजिए.. लुत्फ़ उठाईये आज की पेशकश का:

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

भूल जाता हूँ मैं ____ उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है

आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है

रूह को भी मज़ा मोहब्बत का
दिल की हमसायगी से मिलता है

मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है

कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "सियाह" और शेर कुछ यूँ था-

कहें न तुमसे तो फ़िर और किससे जाके कहें
सियाह ज़ुल्फ़ के सायों बड़ी उदास है रात

पिछली महफ़िल की शोभा बनीं सीमा जी। आपके अलावा महफ़िल में नीरज जी (नीरज रोहिल्ला), शन्नो जी, मंजु जी, सुमित जी, नीलम जी, अवनींद्र जी और शरद जी भी शामिल हुए। माहौल बड़ा हीं खुशगवार था। शन्नो जी, अवनींद्र जी और नीलम जी की शरारतें जोरों पर थीं। नीलम जी जहाँ शेर को बकरी करार देने पर (जो कि हमने कतई नहीं किया था, हमने तो बस गलती बताई थी ताकि अगली बार उनमें सुधार हो सके :) ) थोड़ी नाराज़ दिखीं तो वहीं शन्नो जी डूबते माहौल को उबारने में लगी थीं। अवनींद्र जी गज़ल के रंग से सराबोर नज़र आए, वहीं शरद जी बड़े दिनों बाद महफ़िल में शेर पढते दिखे। नीरज जी का बहुत दिनों बाद (या शायद पहली बार) महफ़िल में आना हुआ, हम उनका स्वागत करते हैं। महफ़िल में सभी मित्रों (रसिकों) ने सियाह शब्द पर कई सारे शेर पढे (कुछ अपने तो कुछ जानेमाने शायरों के... हम दोनों को बराबर का दर्जा देते हैं) ..

जिसे नसीब हो रोज़-ए-सियाह मेरा सा
वो शख़्स दिन न कहे रात को तो क्यों कर हो ( ग़ालिब )

फ़र्द-ए-अमल सियाह किये जा रहा हूँ मैं
रहमत को बेपनाह किये जा रहा हूँ मैं (जिगर मुरादाबादी )

स्याह को सफ़ेद और सफ़ेद को स्याह करते हैं
यहाँ दिन को रात कहने से लोग नहीं डरते हैं (शन्नो जी)

जलने वालों के दिल जल के सियाह हुए
जलाने वाले जलाकर अपनी राह हुए (शन्नो जी) बढिया है!

सियाह रातों में मिलन की ऋतु आई ,
हर दिशा में फूलों ने भी खुशबु है लुटाई . (मंजु जी)

स्याह अँधेरे दिल में थे
और बेवफा महफ़िल में थे (नीलम जी ) वाह-वाह! इशारा किधर है? :)

ये चाँद भी स्याह हो जाये
सारे तारे भी तबाह हो जायें
तेरे होठों पे ठहरी ख़ामोशी
गर खुले तो शराब हो जाये (अवनींद्र जी)

ग़र रात है सियाह तो उसकी है ये फ़ितरत
पर दिन का उजाला भी अंधेरा तेरे बगैर। (शरद जी) क्या बात है!!

मैने चाँद और सितारो की तमन्ना की थी,
मुझको रातो की सियाही के सिवा कछ ना मिला

हमने इस बार से अपनी टिप्पणियों का तरीका बदल दिया है। हमें लगता है कि सारे रसिकों, सारे पाठकों से एक साथ की गई बात ज्यादा असरकारी होती है। आप क्या कहते है? अपने विचारों से हमें अवगत जरूर कराईयेगा।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, June 15, 2010

"अखियाँ मिलाके अखियाँ" - गायिका सुरिंदर कौर की पुण्यतिथि पर 'आवाज़' की श्रद्धांजली



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 418/2010/118

भी कल यानी १४ तारीख़ को पुण्यतिथि थी इस गायिका की. ५ साल पहले, आज ही के दिन, सन् २००६ को पंजाब की कोकिला सुरिंदर कौर की आवाज़ हमेशा के लिए ख़ामोश हो गई थी। गायिका सुरिंदर कौर के गाए अनगिनत पंजाबी लोक गीतों को पंजाबी संगीत प्रेमी आज भी बड़े चाव से सुनते हैं और उनको याद करते हैं। सन् १९४७-४८ से लेकर १९५२-५३ के मध्य उन्होने हिंदी फ़िल्मों में पार्श्व गायन करके काफ़ी ख्याति प्राप्त की थी। ४० के दशक का वह ज़माना पंजाबी गायिकाओं का ज़माना था। ज़ोहराबाई, नूरजहाँ, शम्शाद बेग़म जैसी वज़नदार आवाज़ों के बीच सुरिंदर कौर ने भी अपनी पारी शुरु की। लेकिन जल्द ही पतली आवाज़ वाली गायिकाओं का दौर शुरु हो गया और ५० के दशक के शुरुआती सालों से ही इन वज़नदार और नैज़ल गायिकाएँ पीछे होती चली गईं। आज 'दुर्लभ दस' शृंखला के अंतर्गत हम लेकर आए हैं सुरिंदर कौर की आवाज़ में १९४८ की फ़िल्म 'नदिया के पार' का गीत "अखियाँ मिलाके अखियाँ"। यह 'आवाज़' की तरफ़ से इस सुरीली गायिका को श्रद्धांजली है उनके स्मृति दिवस पर। दोस्तों, इस आलेख के लिए खोज बीन करते वक़्त मुझे पता चला कि सुरिंदर कौर जी की बेटी डॊली गुलेरिया, जो ख़ुद भी एक गायिका हैं, पंचकुला (हरियाणा) में रहती हैं। और संयोग की बात देखिए कि मैं भी आजकल पंचकुला में ही स्थित हूँ। दोस्तों, मैं ज़रूर कोशिश करूँगा कि डॊली जी का पता लगा सकूँ और संभव हुआ तो उनसे मिलकर सुरिंदर कौर जी के बारे में और क़रीब से जान सकूँ, उनके जीवन के अनछुए पहलुओं से आपका परिचय करवा सकूँ।

सुरिंदर कौर का जन्म २९ नवंबर १९२९ को लाहौर में एक सिख परिवार में हुआ था। लाहौर में रहते हुए उन्होने पढ़ाई के साथ साथ संगीत की शिक्षा भी ग्रहण की। कई दशक पूर्व अपनी बड़ी बहन प्रकाश कौर के साथ मिलकर गाया था एक पंजाबी युगल गीत - "मावां ते धीयां रल बैठियां नी माय", जो बहुत मशहूर हो गया था। भारत विभाजन के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया। अपनी बहन से मिलने जब वे बम्बई गईं तो संगीतकार ग़ुलाम हैदर, जो उनके परिवार को लाहौर के दिनों से जानते थे, ने उन्हे अपनी फ़िल्म 'शहीद' में गाने का निमंत्रण दिया। फ़िल्म 'शहीद' के प्रदर्शित होते ही उनके गीतों ने धूम मचा दी और वो एक गायिका के रूप में प्रसिद्ध हो गईं। 'शहीद' १९४८ की फ़िल्म थी। इस साल उन्होने जिन अन्य फ़िल्मों के लिए पार्श्वगायन किया, वे थीं - 'लाल दुपट्टा', 'नदिया के पार', 'नाव', एवं 'रूपरेखा'। तत्कालीन प्रतिष्ठित संगीतकार ज्ञान दत्त ने गायिका सुरिंदर कौर की आवाज़ से आकर्षित होकर उनसे अपनी दो फ़िल्मों 'लाल दुपट्टा' (५ गीत) और 'नाव' (६ गीत) में गीत गवाए। फ़िल्म 'रूपरेखा' में पं अमरनाथ ने भी उनके स्वर का उपयोग किया था "नैन मिलन की बात" गीत में, जिसमें सुरिंदर जी का साथ मुनव्वर सुल्ताना और विद्यानाथ सेठ ने भी दिया था। संगीतकार सी. रामचन्द्र ने सुरिंदर कौर से 'नदिया के पार' में एक एकल गीत गवाया था जिसे आज हम आपको सुनवा रहे हैं। दोस्तों, सुरिंदर कौर से संबंधित ये तमाम जानकारियाँ हमने बटोरी है हरमंदिर सिंह 'हमराज़' द्वारा प्रकाशित 'लिस्नर्स बुलेटिन' के अंक क्रमांक १३२ से जो कानपुर से प्रकाशित हुई थी अक्तुबर २००६ को। तो आइए कामिनी कौशल पर फ़िल्माया हुआ फ़िल्म 'नदिया के पार' का यह गीत सुनें और श्रद्धा सुमन अर्पित करें सुरिंदर कौर की संगीत साधना को।



क्या आप जानते हैं...
कि गायिका सुरिंदर कौर की बेटी डॊली गुलेरिया आज के दौर की एक मशहूर पंजाबी लोक गायिका हैं जिनके स्टेज शोज़ काफ़ी लोकप्रिय हुआ करते हैं।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत की जो गायिका हैं उन्होने रफ़ी साहब के साथ १९७४ में एक फ़िल्म का शीर्षक गीत गाया था, जिस फ़िल्म के शीर्षक में चार शब्द हैं और जिसके दूसरे शब्द में किसी रंग का ज़िक्र है। गायिका का नाम बताएँ। ३ अंक।

२. इस फ़िल्म के शीर्षक में उस जंगली हीरो का नाम आता है जिन पर समय समय पर बहुत सी फ़िल्में बनीं हैं, और जिनमें से एक फ़िल्म में उनका किरदार हेमन्त बिरजे ने निभाया था। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।

३. इस गीत के मुखड़े की पहली पंक्ति में ही दो ऐसे महत्वपूर्ण शब्द आते हैं जो शब्द आशा भोसले और दिलराज कौर की गाई राहुल देव बर्मन द्वारा स्वरबद्ध एक बेहद सुपर हिट फ़िल्म के सुपर हिट गीत में आते हैं। गीत के बोल बताएँ। ३ अंक।

४. इस गीत को लिखा है अज़ीज़ ग़ाज़ी ने। आप बताइए संगीतकार का नाम। ४ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम -

वाह भाई मान गए आप तीनों को, इतने मुश्किल सवालों के जवाब दिए हैं कि क्या कहने....शरद जी, इंदु जी और अवध जी को बहुत बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

कहीं "मादनो" की मिठास से तो कहीं "मैं कौन हूँ" के मर्मभेदी सवालों से भरा है "मिथुन" के "लम्हा" का संगीत



ताज़ा सुर ताल २२/२०१०

विश्व दीपक - ’ताज़ा सुर ताल' में हम सभी का स्वागत करते हैं। तो सुजॊय जी, पिछले हफ़्ते कोई फ़िल्म देखी आपने?

सुजॊय - हाँ, 'राजनीति' देखी, लेकिन सच पूछिए तो निराशा ही हाथ लगी। कुछ लोगों को यह फ़िल्म पसंद आई, लेकिन मुझे तो फ़िल्म बहुत ही अवास्तविक लगी। सिर्फ़ बड़ी स्टारकास्ट के अलावा कुछ भी ख़ास बात नहीं थी। कहानी भी बेहद साधारण। ख़ैर, पसंद अपनी अपनी, ख़याल अपना अपना।

विश्व दीपक - पसंद की अगर बात है तो आज हम 'टी.एस.टी' में जिस फ़िल्म के गानें लेकर हाज़िर हुए हैं, मुझे ऐसा लगता है कि इस फ़िल्म के गानें लोगों को पसंद आने वाले हैं। आज ज़िक्र फ़िल्म 'लम्हा' के गीतों का।

सुजॊय - 'लम्हा' बण्टी वालिया व जसप्रीत सिंह वालिया की फ़िल्म है जिसमें मुख्य भूमिकाएँ निभाई हैं संजय दत्त, बिपाशा बासु, कुणाल कपूर, अनुपम खेर ने। निर्देशक हैं राहुल ढोलकिया। संगीत दिया है मिथुन ने, और यह फ़िल्म परदर्शित होने वाली है १६ जुलाई के दिन, यानी कि ठीक एक महीने बाद। जैसा समझ में आ रहा है कि कश्मीर के पार्श्व पर यह फ़िल्म आधारित है। इस फ़िल्म का म्युज़िक लौम्च किया गया है मुंबई के ओबेरॊय मॊल में।

विश्व दीपक - तो चलिए पहला गीत सुना जाए, और शायद यही गीत फ़िल्म का सब से पसंदीदा गीत बनने वाला है, "मादनो", यह गीत जिसे क्षितिज तारे और चिनमयी ने गाया है। बहुत ही ख़ूबसूरत गीत है, सुनते हैं। और हाँ, इस गीत की अवधि है ८ मिनट २६ सेकण्ड्स। वैसे आजकल गीतों की अवधि ५ मिनट से कम ही हो गई है, लेकिन इस फ़िल्म के अधिकतर गीत ६ मिनट से उपर की अवधि के हैं।

गीत: मादनो


सुजॊय - सच में, बेहद सुकूनदायक गीत था, जिसे दूसरे शब्दों में सॊफ़्ट रोमांटिक गीत कहते हैं। कम शब्दों में बस इतना ही कहेंगे कि ऐल्बम की एक अच्छी शुरुआत हुई है इस गीत से। मिथुन सच में एक रिफ़्रेशिंग अंदाज़ में वापस आए हैं। आपको यह भी बता दूँ कि "मादनो" एक कश्मीरी लफ़्ज़ है, जिसका अर्थ होता है "प्रिय"/"प्रेयसी"। इस शब्द को सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली थी महजूर के लिखे गाने "रोज़ रोज़ बोज़ में ज़ार मादनो" से , जिसे गाया था "ग़ुलाम हसन सोफ़ी" ने।

विश्व दीपक - क्योंकि मिथुन ने बहुत ज़्यादा काम नहीं किया है, इसलिए ज़ाहिर है कि लोगों को उनके बनाए गीतों की याद कम ही रहती है। तो जिन लोगों को मिथुन के गानें इस वक़्त याद नहीं आ रहे हैं, उनके लिए हम बता दे कि मिथुन की शुरुआत महेश भट्ट कैम्प में हुई थी फ़िल्म 'ज़हर' में जिसमें उन्होने "वो लम्हे, वो बातें कोई ना जाने" गीत आतिफ़ असलम से गवाया था। उसके बाद महेश भट्ट की ही एक और चर्चित फ़िल्म 'कलयुग' में भी उन्होने आतिफ़ की आवाज़ का इस्तेमाल किया था "अब तो आदत सी है मुझको जीने में" गीत में। इस तरह से 'बस एक पल' और 'अनवर' जैसी फ़िल्मों में भी उन्होने अतिथि संगीतकार की हैसीयत से एक आध गानें काम्पोज़ किए। इन फ़िल्मों ने भले हीं बहुत ज़्यादा व्यापार ना किया हो, लेकिन मिथुन का स्वरबद्ध हर एक गीत लोगों को पसंद आया, और मिथुन की प्रतिभा को हर किसी ने सराहा।

सुजॊय - और यकीनन 'लम्हा' का संगीत भी लोग खुले दिल से स्वीकार करेंगे। बहरहाल हम आगे बढ़ते हैं और सुनते हैं इस फ़िल्म का दूसरा गीत जिसे गाया है अरुण दागा और मोहम्मद इरफ़ान ने। इस गीत की अवधि है ६ मिनट ५५ सेकण्ड्स।

गीत: सलाम ज़िंदगी


विश्व दीपक - पहले गीत से एक ख़ूबसूरत शुरुआत होने के बाद इस दूसरे गीत में भी एक नयापन है। बच्चों द्वारा गाए कश्मीरी बोलों को सुन कर एक तरफ़ फ़िल्म 'यहाँ' की याद आ जाती है तो कभी 'परिनीता' का "कस्तो मजा है" की भी झलक दिख जाती है।

सुजॊय - "जिस चीज़ को पाने की थी उम्मीद खो चुकी, उस चीज़ को पाकर बहुत दिल को ख़ुशी हुई, सलाम ज़िंदगी सलाम ज़िंदगी" - ये हैं गीत के बोल, और जैसा कि हम देख रहे है यह एक आशावादी गीत है और इस तरह के गानें बहुत बनें हैं, लेकिन इस गीत के अंदाज़ में नयापन है। पार्श्व में मोहम्मद इरफ़ान के शास्त्रीय अंदाज़ में गायन ने गीत को और ज़्यादा असरदार बनाया है। पहले गीत की तरफ़ हो सकता है कि यह गीत उतना अपील ना करे, लेकिन जो भी है, अच्छा गीत है।

विश्व दीपक - अब तीसरे गीत की बारी, और इस बार स्वर पलाश सेन का। बहुत दिनों से उनकी आवाज़ सुनाई नहीं दी थी। इस गीत के साथ वो वापस लौट रहे हैं। अमिताभ वर्मा के ख़ूबसूरत बोलों को पलाश ने असरदार तरीके से ही निभाया है। संगीत में सॊफ़्ट रॊक का इस्तेमाल हुआ है। यह गीत है "मैं कौन हूँ" और इस गीत का म्युज़िक भी रिफ़्रेशिंग है। इसमें कोई शक़ नहीं कि मिथुन अपनी अलग पहचान बनाने की राह पर चल पड़े हैं। अवधि ७ मिनट ११ सेकण्ड्स।

गीत: मैं कौन हूँ


सुजॊय - आजकल गायक मिका को कई हिट गीत गाने के मौके मिल रहे हैं। या फिर युं कहिए कि मिका के गाए गानें हिट हो रहे हैं। भले ही कुछ लोग उन्हे पसंद ना करें और विवादों से भी घिरे रहे कुछ समय के लिए, लेकिन यह ध्यान देने योग्य बात है कि मिका के गाए गानें हिट हो जाते हैं। "दिल में बजी गिटार", "गणपत चल दारू ला", "मौजा ही मौजा", "इबन-ए-बतुता", और भी कई गानें हैं मिका के जो ख़ूब चले। फ़िल्म 'लम्हा' में भी मिथुन ने मिका से एक गीत गवाया है। दरसल यह पहले गीत "मादनो" का ही दूसरा वर्ज़न है, और मिका के साथ चिनमयी की आवाज़ भी शामिल है।

विश्व दीपक - ऐल्बम में इस गीत को "साजना" का शीर्षक दिया गया है। गीत को सुनने से पहले मिका का नाम देख कर मुझे लगा था कि कोई डान्स नंबर होगा, लेकिन काफ़ी आश्चर्य हुआ यह सुन कर कि मिका ने इस तरह का नर्मोनाज़ुक गीत गाया है। साधारणत: लोग मिका के जिस गायन शैली से वाक़ीफ़ हैं, उससे बिलकुल अलग हट के मिका लोगों को हैरत में डालने वाले हैं इस गीत के ज़रिए। यह तो भई वैसी ही बात है जैसी कि हाल ही में दलेर मेहन्दी ने फ़िल्म 'लाहौर' में "मुसाफ़िर" वाला गीत गाकर सब को चकित कर दिया था।

सुजॊय - इस पीढ़ी की अच्छी बात ही यह है कि वह प्रचलित धारा का रुख़ बदलने में विश्वास रखता है। पहले के ज़माने में जो गायक जिस तरह के गीत गाते थे, उनसे लगातार उसी तरह के गीत गवाए जाते थे। लेकिन आजकल कोशिश यही होती है हर कलाकार की कि कुछ नया किया जाए, नए प्रयोग किए जाएँ। चलिए यह गीत सुन लेते हैं। कुल ८ मिनट २५ सेकण्ड्स।

गीत: साजना


विश्व दीपक - अगला गीत क्षितिज तारे की आवाज़ मे है। कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हुआ है। के.के के अंदाज़ का गाना है। वैसे क्षितिज ने कमाल का गाया है, लेकिन इसे के.के. की आवाज़ में सुन कर भी उतना ही अच्छा लगता ऐसा मेरा ख़याल है।

सुजॊय - विश्व दीपक जी, शायद आपने ध्यान न दिया हो कि क्षितिज मिथुन के पसंदीदा गायक हैं। मिथुन ने इनसे इस फिल्म से पहले भी कई सारे गीत गवाए हैं। मुझे "अनवर" का "तोसे नैना लागे" अभी भी याद है। क्या खूब गाया था "क्षितिज" और "शिल्पा राव" ने। जहाँ तक आज के इस गीत की बात है तो यह गीत पार्श्व संगीत की तरह प्रतीत होता है। सिचुएशनल गीत है और फ़िल्म को देखते हुए ही इस गीत का महत्व पता चल सकता है। ऒरकेस्ट्रेशन से एम.एम. क्रीम की याद भी आ जाती है, क्योंकि ग्रूप वायलिन्स का इस्तेमाल हुआ है।

गीत: ज़मीन-ओ-आसमान


विश्व दीपक - और अंतिम गीत में मिथुन ने अपनी गायकी का भी लोहा मनवाया है। आजकल 'पाक़ी-पॊप' संगीत का भी चलन है, और इस गीत में उसी की झलक है। याद है ना आपको मिथुन का गाया फ़िल्म 'दि ट्रेन' का गीत "वो अजनबी देखे जो दूर से"?

सुजॊय - अच्छा इसी फ़िल्म 'दि ट्रेन' में एक और गीत है "मौसम" जिसे लिखा है आतिफ़ असलम ने। तो ज़्यादातर लोग समझते हैं कि इस गीत को आतिफ़ ने ही गाया है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि इसे स्वरबद्ध किया और गाया मिथुन ने है। मिथुन ने फ़िल्म 'अगर' में गाया था "के बिन तेरे जीना नहीं" जिसे भी लोगों ने पसंद किया था। तो लीजिए आज एक लम्बे समय के बाद सुनिए मिथुन की आवाज़ और उनके साथ हैं मोहम्मद इरफ़ान।

गीत: रहमत ज़रा


"लम्हा" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****

मिथुन से हमेशा हीं उम्मीदें रहती है, और इस बार मिथुन उम्मीद पर खड़े उतरे हैं। चूँकि फिल्म कश्मीर पर आधारित है, इसलिए मिथुन को कहानी से भी सहायता मिली... अपनी तरह का संगीत देने में। फिल्म चाहे सफल या हो असफल , लेकिन हम लोगों से यही दरख्वास्त करेंगे कि गानों को नज़र-अंदाज़ न करें। एक बार जरूर सुनें, हमें यकीन है कि एक बार सुनने के बाद आप खुद-बखुद इन गानों से खुद को जुड़ा महसूस करेंगे। इन्हीं बातों के साथ अगली समीक्षा तक के लिए हम आपसे अलविदा कहते हैं।

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ६४- संगीतकार व गायक मिथुन के पिता एक जाने माने बैकग्राउण्ड स्कोरर थे जिन्होने २०० से उपर फ़िल्मों का पार्श संगीत तय्यार किया है। बताइए उनका नाम।

TST ट्रिविया # ६५- २००८ में मिथुन ने एक ऐसी फ़िल्म में संगीत दिया था जिस शीर्षक से एक हास्य फ़िल्म बनी थी जिसमें फ़ारूख़ शेख़ नायक थे और जिसमें येसुदास और हेमन्ती शुक्ला का गाया एक लोकप्रिय युगल गीत था।

TST ट्रिविया # ६६- आप एक मेडिकल डॊकटर हैं, और एक उम्दा गायक भी हैं, एक अभिनेता भी हैं। आपका जन्म बनारस में हुआ और पले बढ़े दिल्ली में। "फ़िल्हाल" दोस्तों, आप यह बताएँ कि हम किस शख़्स की बात कर र्हे हैं?


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. हिमेश रेशम्मिया के पिता विपिन रेशम्मिया ने ख़य्याम साहब के ऒर्केस्ट्रा में काम करते हुए इस गीत की रिकार्डिंग में रीदम बॊक्स साज़ बजाया था।
२. 'दुल्हन हम ले जाएँगे' फ़िल्म का गीत "रात को आऊँगा मैं.... मुझसे शादी करोगी"।
३. सुधाकर शर्मा।

सीमा जी, इस बार आपने दो सवालों के जवाब दिए, जिनमें से एक हीं सही है। खैर.. इस बार के सवाल आपके सामने हैं।

Monday, June 14, 2010

"मोहन प्यारे अब और साज़ पर गा रे" - सी. एच. आत्मा की आवाज़, पर सहगल साहब का अंदाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 417/2010/117

कुंदन लाल सहगल साहब की गायकी के नक्ष-ए-क़दम पर चलने वाले गायकों में एक नाम सी. एच. आत्मा का भी है। सी. एच. आत्मा बहुत ज़्यादा कामयाब तो नहीं हो सके, लेकिन उनके गाए बहुत से गीत और भजन उस ज़माने में बेहद मशहूर हुए थे। उनके गाए हुए ग़ैर फ़िल्मी गीतों और भजनों की संख्या भी कम नहीं है। आज हम आपको 'दुर्लभ दस' शृंखला के तहत सुनवा रहे हैं सी. एच. आत्मा की आवाज़ में १९५४ की फ़िल्म 'बिलवामंगल' की एक भजन "मोहन प्यारे, अब और साज़ पर गा रे"। डी. एन. मधोक निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सी. एच. आत्मा और सुरैय्या। संगीत बुलो. सी. रानी का था और फ़िल्म के गानें लिखे मधोक साहब ने ही। सन्‍ १९७० में सी. एच. आत्मा तशरीफ़ लाए थे विविध भारती के स्टुडिओज़ में, जहाँ उन्होने फ़ौजी भाइयों के लिए 'जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत किया था। उस कार्यक्रम में इस भजन को पेश करते हुए कहा था - "दोस्तों, अफ़्रीका की एक पार्टी में मैंने फ़िल्म 'बिलवामंगल' का एक भजन गाया था। वह सुनकर एक देवी ने कहा था कि काश ये कलाकार मुझे मिल जाता! ख़ैर, मुलाक़ात तो हुई ही बिछड़ने के लिए। मगर यह भजन मेरा जीवन साथी रहा है।"

दोस्तों, आज जब मौका लगा है डी. एन. मधोक साहब का लिखा हुआ गीत बजाने का, तो क्यों ना लगे हाथ उनके जीवन के बारे में कुछ बातें भी आप को बताई जाए! लेकिन उनके जीवन के जिस पहलु का हम ज़िक्र करेंगे वह संगीत से जुड़ा हुआ नहीं है। जी हाँ, बात दरअसल ऐसी है कि अमीन सायानी साहब ने एक बार 'संगीत के सितारों की महफ़िल' सीरीज़ में मधोक साहब पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए उनके बेटे डॊ. पृथ्वी मधोक से मुलाक़ात की थी। उस मुलाक़ात में मधोक साहब के बेटे ने बताया था कि उनके पिता एक फ़िल्मकार और गीतकार होने के साथ साथ एक अच्छे ज्योतिषी भी रहे। तो चलिए दीना नाथ मधोक जी के इस प्रतिभा पर ज़रा और प्रकाश डालें ख़ुद उन्ही के बेटे की ज़बान से। "बाद में इन्होने (मधोक साहब ने) 'ऐस्ट्रोलोजी' अपनी हॊबी बना ली और वहाँ से इनको यह पता लगा कि वही सितारे जो मुझे उपर ले गए थे, वही सितारे अब मुझे नीचे ला रहे हैं। तो इन्होने कहा कि अभी हमको ये काम (फ़िल्म निर्माण) नहीं करने का है। तो फिर ये रीटायर हो गए, तकरीबन '५६/५७ में। और वैसे भी इन्होने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाए, ना किसी को फँसाया है, मदद बहुत लोगों की की है। अंतिम दस सालों में, उनकी ज़िंदगी के आख़िर के जो दस साल थे, उन्होने 'ऐस्ट्रोलोजी' में बहुत इन्ट्रेस्ट लिया। 'ऐस्ट्रोलोजी' का मतलब काफ़ी गहराई से समझते थे। पर इन्होने उसको ज़्यादा हवा नहीं लगने दी, क्योंकि लोग पहुँच जाते थे इनके पास कि महुरत कब करें! शादी कब करें लड़की की! तो इसलिए इन्होने इसको ज़रा 'लोवर लेवल' पे रखा। पर जानकारी इनकी बहुत अच्छी थी, और काफ़ी 'ईवेंट्स', जैसे बाढ़ बिहार में आए, किसी का विलायत जाना, किसी का आना, काफ़ी इन्होने सही सही अनुमान लगाया था। जगदीश सेठी के बारे में कहा था कि ये इस दिन के बाद नहीं मिलेगा। पृथ्वीराज जी जब बीमार हुए, उनको ख़ून का कैन्सर हुआ, ये अक्सर इनको मिला करते थे, तो अवॊयड ही करते थे क्योंकि उनका जीना मुश्किल था और वो पूछते थे कि भाई दीना नाथ, मैं कब तक हूँ? तो ये आ जाते थे वहाँ से कुछ ना कुछ बहाना लगाके। इनको अपने बारे में पता था कि मेरी उमर कब तक है। पर इन्होने कभी कोई कहानी या लम्बी डायलॊग नहीं बनाई कि देखो बेटा, मेरे बाद ऐसा करना, वैसा करना, कुछ नहीं कहा।" तो दोस्तों, ये था डी. एन. मधोक साहब के जीवन का एक रूप जो बयान कर रहे थे उन्ही के बेटे डॊ. पृथ्वी मधोक। और आइए अब सी. एच. आत्मा की गाई हुई यह मधुर भजन सुनते हैं फ़िल्म 'बिलवामंगल' से।



क्या आप जानते हैं...
कि डी. एन. मधोक साहब अक्सर कहा करते थे कि तीन लोग जो उन्हे बहुत ज़्यादा पसंद थे, वो हैं नौशाद, ख़ुरशीद अनवर, और मास्टर ग़ुलाम हैदर।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत की गायिका का १४ जून २००६ को अमेरिका में निधन हो गया था। गायिका का नाम बताएँ। ३ अंक।

२. इस फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी ने संगीतकार सुधीर फड़के की पत्नी के साथ मिलकर फ़िल्म का शीर्षक गीत गाया था। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।

३. इस फ़िल्म के नायक नायिका इसी साल इस फ़िल्म के अलावा एक और फ़िल्म में नज़र आए जिसमें मास्टर ग़ुलाम हैदर का संगीत था और जिस फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी और ख़ान मस्ताना का गाया हुआ एक बेहद मशहूर देश भक्ति गीत मौजूद है। बताइए नायक-नायिका के नाम। २ अंक।

४. इस गीत के मुखड़े के शुरुआती दो शब्दों से एक और गीत शुरु होता है जो आई थी सन् १९४४ में और जिसमे नौशाद साहब का पहला पहला ब्लॊकबस्टर संगीत था। बताइए गीत के बोल। २ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम -

इंदु जी कल आपने सही दिमाग लगाया और ३ अंक कमाए, वहीँ शरद जी ने सेफ गेम खेला और २ अंक चुरा ले गए...बहुत बधाई, और बहुत अच्छे अवध जी, एकदम सही जवाब, इस बार आप बहुत बढ़िया जा रहे हैं. अनाम टिप्पणीकार से अनुरोध है कि अपना नाम भी लिखें ताकि बाकी श्रोता भी उनसे परिचित हो सकें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, June 13, 2010

"कहीं भी अपना नहीं ठिकाना" - ऐसे भूले बिसरे गीत का ठिकाना केवल 'आवाज़' ही है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 416/2010/116

'दिल-ए-नादान' सन् १९५३ की एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें तलत महमूद के गाए कुछ गानें बेहद लोकप्रिय हुए थे, जैसे कि "ज़िंदगी देनेवाले सुन तेरी दुनिया से जी भर गया", "जो ख़ुशी से चोट खाए, वो जिगर कहाँ से लाऊँ", "ये रात सुहानी रात नहीं, ऐ चांद सितारों सो जाओ" आदि। दरअसल 'दिल-ए-नादान' वह फ़िल्म थी जिसमें ए. आर. कारदार ने तलत साहब को बतौर नायक लौंच किया था। तलत साहब की नायिका बनीं श्यामा। उन दिनों कारदार साहब अपनी फ़िल्मों के लिए नौशाद साहब को संगीतकार लिया करते थे। लेकिन इस फ़िल्म में नौशाद साहब के उस ज़माने के सहायक ग़ुलाम मोहम्मद ने संगीत दिया। 'आन' और 'बैजु बावरा' के निर्माण के दौरान नौशाद साहब मानसिक रूप से बीमार हो गए थे। शायद यही वजह रही होगी उनके इस फ़िल्म में अनुपस्थिति की। ख़ैर, यह फ़िल्म तो पिट गई थी, लेकिन फ़िल्म का संगीत चल पड़ा था। तलत साहब के गाए कुछ महत्वपूर्ण गीतों का ज़िक्र हमने उपर किया। लेकिन ऐसे चर्चित गीतों के बीच इस फ़िल्म में एक ऐसा गीत भी है जिसे लोगों ने बहुत कम सुना है, और आज तो यह गीत कहीं से भी सुनाई नहीं देता। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हम किस गीत की बात कर रहे हैं? हम बात कर रहे हैं उस गीत की जिसे सुधा मल्होत्रा ने गाया था - "कहीं भी अपना नहीं ठिकाना"। आपने यह गीत एक लम्बे अरसे से नहीं सुना न? चलिए आज 'दुर्लभ दस' में याद करते हैं इसी गीत को!

'दिल-ए-नादान' के गानें लिखे थे शक़ील बदायूनी ने। उनके कलम का जादू सर चढ़ कर बोला इस फ़िल्म के गीतों में भी। तलत साहब के गाए हिट गीतों के अलावा तीन गायिकाओं ने इस फ़िल्म में अपनी आवाज़ें दीं, जिनमें एक सुधा मल्होत्रा के गीत का ज़िक्र तो हम कर ही चुके हैं; दूसरी हैं आशा भोसले जिन्होने गाया "लीजो बाबुल मेरा सलाम रे", तथा जगजीत कौर की आवाज़ में "ख़ामोश ज़िंदगी को एक अफ़साना मिल गया" और "चंदा गाए रागिनी छम छम बरसे चांदनी" गीत भी उस ज़माने में चले थे। इसी फ़िल्म में एक अनोखा गीत भी है "मोहब्बत की धुन बेक़रारों से पूछो"। हमने अनोखा इसलिए कहा क्योंकि शायद यह एकमात्र ऐसा गीत है जिसे तलत महमूद, सुधा मल्होत्रा और जगजीत कौर ने साथ में मिल कर गाया है। सुधा मल्होत्रा और जगजीत कौर, दोनों ही फ़िल्म जगत की कमचर्चित गायिकाएँ रहीं हैं, और इन दोनों गायिकाओं का ज़िक्र हमने अपनी लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' में की थी। आज वही बात हम दोहरा रहे हैं कि सुधा जी ने जिस वक़्त फ़िल्म जगत में क़दम रखा था, उस वक़्त लता, आशा, गीता, शम्शाद जैसे नाम चोटी पर विराजमान थे। ऐसे में किसी भी नई गायिका को मौका मिल पाना आसाम काम नहीं था। फिर अपनी प्रतिभा, लगन और कोशिश के बलबूते पर कुछ गायिकाएँ फ़िल्म जगत में दाख़िल हुईं और कुछ ऐसे यादगार गीत गा कर चली गईं जो भुलाए नहीं भूलते। सुधा मल्होत्रा भी उन्ही में से एक हैं। कोई कैसे भुला सकता है उनका गाया और उन्ही का संगीतबद्ध किया हुआ "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको"! सुधा जी के गाए गीतों में कुछ उल्लेखनीय फ़िल्मों के नाम हैं - आरज़ू, अब दिल्ली दूर नहीं, धूल का फूल, गर्ल फ़्रेंड, बरसात की रात, दीदी, काला पानी, देख कबीरा रोया, गौहर, दिल-ए-नादान, बाबर, और प्रेम रोग। तो दोस्तों, आइए सुधा जी की आवाज़ में फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' का नग़मा पेश हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि ग़ुलाम मोहम्मद १९३२ में सरोज मूवीटोन में शामिल हो गए थे और इस बैनर की फ़िल्म 'राजा भारथरी' में उनके बजाए तबले की बहुत तारीफ़ें हुईं थीं।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत को एक ऐसे गायक ने गाया है जिनकी आवाज़ कुंदन लाल सहगल से दूसरों के मुकाबले सब से ज़्यादा मिलती जुलती थी। गायक का नाम बताएँ। २ अंक।

२. यह एक श्रीकृष्ण भजन है जिसे कीर्तन शैली में स्वरबद्ध किया गया है। मुखड़े मे शब्द आता है "प्यारे"। भजन के बोल बताएँ। ३ अंक।

३. इस फ़िल्म की नायिका हैं सुरैय्या और यह १९५४ की फ़िल्म है। क्या आप फ़िल्म के नाम का अंदाज़ा लगा सकते हैं? २ अंक।

४. इस फ़िल्म के निर्देशक और गीतकार एक ही हैं, और ये वो शख़्स हैं जिन्होने पहला फ़िल्मी समूह गीत लिखा था १९४० में - "घर आजा बलमवा रुत बसंत की आई"। कौन हैं ये निर्देशक व गीतकार? ३ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम -

अवध जी और शरद जी के खाते में २-२ अंक और जुड़े हैं. इंदु जी जल्दी से भारमुक्त होकर लौटिये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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