Saturday, February 13, 2010

मेरा बुलबुल सो रहा है शोर तू न मचा...कवि प्रदीप और अनिल दा का रचा एक अनमोल गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 344/2010/44

१९४३। इस वर्ष ने ३ प्रमुख फ़िल्में देखी - क़िस्मत, तानसेन, और शकुंतला। 'तानसेन' रणजीत मूवीटोन की फ़िल्म थी जिसमें संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने सहगल और ख़ुर्शीद से कुछ ऐसे गानें गवाए कि फ़िल्म तो सुपर डुपर हिट साबित हुआ ही, खेमचंद जी और सहगल साहब के करीयर का एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म भी साबित हुआ। प्रभात से निकल कर और अपनी निजी बैनर 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना कर वी. शांताराम ने इस साल बनाई फ़िल्म 'शकुंतला', जिसके गीत संगीत ने भी काफ़ी धूम मचाया। संगीतकार वसंत देसाई की इसी फ़िल्म से सही अर्थ में करीयर शुरु हुआ था। और १९४३ में बॊम्बे टॊकीज़ की सफलतम फ़िल्म आई 'क़िस्मत'। 'क़िस्मत' को लिखा व निर्देशित किया था ज्ञान मुखर्जी ने। हिमांशु राय की मृत्यु के बाद बॊम्बे टॊकीज़ में राजनीति चल पड़ी थी। देवीका रानी और शशधर मुखर्जी के बीच चल रही उत्तराधिकार की लड़ाई के बीच ही यह फ़िल्म बनी। अशोक कुमार और मुम्ताज़ शांति अभिनीत इस फ़िल्म ने बॊक्स ऒफ़िस के सारे रिकार्ड्स तोड़ दिए। देश भर में कई कई जुबिलीज़ मनाने के अलावा यह फ़िल्म कलकत्ता के 'चित्र प्लाज़ा' थिएटर में लगातार १९६ हफ़्तों (३ साल) तक प्रदर्शित होती रही। इस रिकार्ड को तोड़ा था रमेश सिप्पी की फ़िल्म 'शोले' ने। 'क़िस्मत' एक ट्रेंडसेटर फ़िल्म रही क्योंकि इस फ़िल्म में बचपन में बिछड़ने और अंत में फिर मिल जाने की कहानी थी। संगीत की दृष्टि से 'क़िस्मत' अनिल बिस्वास की बॊम्बे टॊकीज़ में सब से उल्लेखनीय फ़िल्म रही। धीरे धीरे पार्श्वगायन की तकनीक को संगीतकार अपनाने लगे थे, और अच्छे गायक गायिकाएँ इस क्षेत्र में क़दम रख रहे थे। ऐसे में संगीतकार भी गीतों में नए प्रयोग ला रहे थे। इस फ़िल्म के तमाम गीत गली गली गूंजने लगे थे। ख़ास कर कवि प्रदीप के लिखे "दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है" ने तो जैसे पराधीन भारत के लोगों के रग रग में वतन परस्ती के जस्बे का संचार कर दिया था। इसी फ़िल्म में एक नर्मो नाज़ुक लोरी भी थी जिसे शायद आज भी फ़िल्म संगीत के सर्वश्रेष्ठ लोरियों में गिना जाता है! "धीरे धीरे आ रे बादल धीरे धीरे आ, मेरा बुलबुल सो रहा है, शोरगुल ना मचा"। कवि प्रदीप की गीत रचना, अनिल दा का संगीत। इसी गीत को हमने चुना है १९४३ का प्रतिनिधित्व करने के लिए।

फ़िल्म 'क़िस्मत' के गीतों की बात करें तो उन दिनों अमीरबाई कर्नाटकी अनिल दा की पहली पसंद हुआ करती थीं। फ़िल्म के कुल ८ गीतों में से ६ गीतों में ही अमीरबाई की आवाज़ शामिल थी। उपर ज़िक्र किए गए दो गीतों के अलावा इस फ़िल्म में अमीरबाई ने दो दुख भरे गीत गाए - "ऐ दिल यह बता हमने बिगाड़ा है क्या तेरा, घर घर में दिवाली है मेरे घर में अंधेरा", और "अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया"। जहाँ तक आज के प्रस्तुत गीत का सवाल है, इसके दो वर्ज़न है, एक में अमीरबाई के साथ आवाज़ है अशोक कुमार की, और दूसरे में अरुण कुमार की। दरसल अरुण कुमार अशोक कुमार के मौसेरे भाई थे जो अच्छा भी गाते थे और जिनकी आवाज़ अशोक कुमार से कुछ कुछ मिलती थी। इसलिए बॊम्बे टॊकीज़ के कुछ फ़िल्मों में अशोक कुमार का प्लेबैक उन्होने किया था। लेकिन इस गीत को दोनों से ही अलग अलग गवाया गया और दोनों वर्ज़न ही उपलब्ध हैं। आज हम आपको इस गीत के दोनों वर्ज़न सुनवाएँगे। कहा जाता है कि अनिल बिस्वास ने मज़ाक मज़ाक में कहा था कि यही एकमात्र ऐसा गीत है जिसे अशोक कुमार ने सुर में गाया था। यह भी कहा जाता है कि अनिल दा अशोक कुमार के गायन से कुछ ज़्यादा संतुष्ट नहीं होते थे, इसलिए वो अरुण कुमार से ही उनके गानें गवाने में विश्वास रखते थे। इस फ़िल्म में अरुण कुमार ने अमीरबाई के साथ एक और युगल गीत गाया था जो फ़िल्म का शीर्षक गीत भी था, "हम ऐसी क़िस्मत को क्या करें हाए, ये जो एक दिन हँसाए एक दिन रुलाए"। अरुण कुमार का गाया "तेरे दुख के दिन फिरेंगे ले दुआ मेरी लिए जा" भी एक दार्शनिक गीत है इस फ़िल्म का। अनिल दा की बहन और गायिका पारुल घोष का "पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए" शास्त्रीय रंग में ढला हुआ इसी फ़िल्म का एक सुरीला नग़मा था। इससे पहले कि आज का गीत आप सुनें, उस दौर का दादामुनि अशोक कुमार ने सन्‍ १९६८ में विविध भारती पर किस तरह से वर्णन किया था, आइए जानें उन्ही के कहे हुए शब्दों में। "दरअसल जब मैं फ़िल्मों में आया था सन् १९३४-३५ के आसपास, उस समय गायक अभिनेता सहगल ज़िंदा थे। उन्होने फ़िल्मी गानों को एक शक्ल दी और मेरा ख़याल है उनकी वजह से फ़िल्मों में गानों को एक महत्वपूर्ण जगह मिली। आज उन्ही की बुनियाद पर यहाँ की फ़िल्में बनाई जाती हैं, यानी बॊक्स ऒफ़िस सक्सेस के लिए गानों को सब से ऊंची जगह दी जाती है। मेरे वक़्त में प्लेबैक के तकनीक की तैयारियां हो रही थी। तलत, रफ़ी, मुकेश फ़िल्मी दुनिया में आए नहीं थे, लता तो पैदा भी नहीं हुई होगी। अभिनेताओं को गाना पड़ता था चाहे उनके गले में सुर हो या नहीं। इसलिए ज़्यादातर गानें सीधे सीधे और सरल बंदिश में बनाए जाते थे ताक़ी हम जैसे गानेवाले आसानी से गा सके। मैं अपनी पुरानी फ़िल्मों से कुछ मुखड़े सुना सकता हूँ, (गाते हुए) "मैं बन की चिड़िया बन के बन बन बोलूँ रे", "चल चल रे नौजवान", "चली रे चली रे मेरी नाव चली रे", "धीरे धीरे आ रे बादल धीरे धीरे आ, मेरा बुलबुल सो रहा है...", "पीर पीर क्या करता रे तेरी पीर ना जाने कोई"। ये पहले पहले बॊम्बे टॊकीज़ के गीतों में "रे" का इस्तेमाल बहुत किया जाता था।" तो आइए दोस्तों, अब इस गीत को सुनें, पहले अशोक कुमार और अमीरबाई की आवाज़ों में, और फिर अरुण कुमार और अमीरबाई की आवाज़ों में।



दूसरा संस्करण


चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. साथ ही जवाब देना है उन सवालों का जो नीचे दिए गए हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

देख रही तेरा रस्ता कब से
अब तो आजा बेदर्दी सैयां,
रो रो अखियाँ तरसे संगदिल,
मन से पडूं मैं तेरे पैयां..

1. बताईये इस गीत की पहली पंक्ति कौन सी है - सही जवाब को मिलेंगें ३ अंक.
2. ये फिल्म इस बेहद कामियाब संगीतकार के लिए बेहद महत्वपूर्ण रही, हम किस संगीतकार की बात कर रहे हैं- सही जवाब के होंगें २ अंक.
3. इस गीत की गायिका का नाम बताएं जिसका हाल के सालों में एक रीमिक्स संस्करण भी आया-सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
4. इस गीत के गीतकार उस दौर के सफल गीतकारों में थे उनका नाम बताएं- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
पहेली में नए प्रयोगों के चलते खूब मज़ा आ रहा है. रोहित जी अब तक ७ अंकों के साथ आगे चल रहे हैं, शरद जी हैं ५ अंकों पर, इंदु जी नाराज़ हो गयी क्या ? अरे व्यस्तता के चलते आपका स्वागत नहीं कर पाए, वैसे स्वागत तो मेहमानों का होता है न, आप तो ओल्ड इस गोल्ड की सरताज सदस्या ठहरीं. वैसे पहेली के सुझावों के लिए हम शरद जी का धन्येवाद देते हैं. ताज्जब इस बात का है कि सही गीत पता लग जाने के बाद भी कोई अन्य सवालों के जवाब लेकर हाज़िर नहीं हो रहा. शायद इस शृंखला के मुश्किल गीतों के कारण ऐसा हो...अवध जी हमें मेल किया और सभी सवालों के जवाब दे डाले. नियमानुसार एक से अधिक सही जवाब देने पर कोई अंक नहीं दिए जाने हैं, पर अवध जी का जवाब अन्य लोगों तक नहीं पहुंचा और उनका कंप्यूटर खराब होने के करण हो सकता है उन्हें नियमों की सही जानकारी न हो, तो इस पहली गलती को नज़र अंदाज़ कर हम उन्हें २ अंक देते हैं, ताकि उनका भी खाता खुले...सभी विजेताओं को बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

झूठ बराबर तप नहीं - गोपाल प्रसाद व्यास



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उनका ही व्यंग्य संस्कृति के रखवाले सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं गोपाल प्रसाद व्यास का व्यंग्य "झूठ बराबर तप नहीं", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

"झूठ बराबर तप नहीं" का कुल प्रसारण समय 9 मिनट 36 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



जब मैं सात वर्ष का हुआ तो भगवान् कृष्ण की तरह गोवर्धन पर्वत की तलहटी छोड़कर मथुरा आ गया।
~ गोपाल प्रसाद व्यास

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

जिस आदमी को अपनी नाक का ख्याल नहीं वह भी भला कोई आदमी है?
(गोपाल प्रसाद व्यास की "झूठ बराबर तप नहीं" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Sixtieh Story, Jhooth Barabar Tap Nahin: Gopal Prasad Vyas/Hindi Audio Book/2010/7. Voice: Anurag Sharma

Friday, February 12, 2010

दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल....दौड़ती भागती जिंदगी को तूफ़ान मेल से जोड़ती कानन देवी की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 343/2010/43

'प्योर गोल्ड' की तीसरी कड़ी मे आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, १९४२ का साल सिर्फ़ भारत का ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के इतिहास का एक बेहद महत्वपूर्ण पन्ना रहा है। एक तरफ़ द्वितीय विश्व युद्ध पूरे शबाब पर थी, और दूसरी तरफ़ भारत का स्वाधीनता संग्राम पूरी तरह से ज़ोर पकड़ चुका था। 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' के नारे गली गली में गूंज रहे थे। उस तरफ़ पर्ल हार्बर कांड को भी इसी साल अंजाम दिया गया था। इधर फ़िल्म इंडस्ट्री में ब्रिटिश सरकार ने फ़िल्मों की लंबाई पर ११,००० फ़ीट का मापदंड निर्धारित कर दिया ताकि 'वार प्रोपागंडा' फ़िल्मों के लिए फ़िल्मों की कोई कमी न हो। दूसरी तरफ़ फ़िल्म सेंसर बोर्ड ने सख़्ती दिखाते हुए फ़िल्मों में 'गांधी', 'नेहरु', 'आज़ादी' जैसे शब्दों का इस्तेमाल बंद करवा दिया। 'प्योर गोल्ड' में आज बारी है सन्‍ १९४२ के एक सुपरहिट गीत की। दोस्तों, पहली कड़ी में हमने आपको बताया था कि १९४० की फ़िल्म 'ज़िंदगी' निर्देशक प्रमथेश बरुआ की न्यु थिएटर्स में अंतिम फ़िल्म थी। उस ज़माने में कलाकार फ़िल्म कंपनी के कर्मचारी हुआ करते थे जिन्हे मासिक वेतन मिलती थी आम नौकरी की तरह। ४० के दशक के आते आते फ़्रीलैन्सिंग्‍ शुरु होने लगी थी। इसी के तहत कई नामचीन कलाकार अपनी पुरानी कंपनी को छोड़ कर फ़्रीलान्स करने लगे। प्रमथेश बरुआ भी इन्ही में से एक थे। उन्होने १९४२ में एम. आर. प्रोडक्शन्स के बैनर तले फ़िल्म 'जवाब' का निर्देशन किया। कानन बाला या कानन देवी, जो न्यु थिएटर्स की एक मज़बूत स्तंभ थीं, उन्होने भी न्यु थिएटर्स को अपना इस्तिफ़ा सौंप दिया, और इसी फ़िल्म 'जवाब' में अपना सब से लोकप्रिय अभिनय और गायन प्रस्तुत किया। कमल दासगुप्ता के संगीत निर्देशन में कानन देवी का गाया गीत "दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल" इतना मशहूर हुआ कि जैसे पूरे देश भर में एक तूफ़ान सा खड़ा कर दिया। १९४२ की साल को सलाम करने के लिए यह एक सार्थक गीत है जो आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुनने जा रहे हैं। "तूफ़ान मेल" गीत के अलावा इस फ़िल्म में उनके गाए दो और गीत "ऐ चांद छुप ना जाना" और "कुछ याद रहे तो सुन कर जा" हिट हुए थे। पंकज मल्लिक के साथ उन्होने इस फ़िल्म में एक डुएट गाया था "दूर देश का रहनेवाला आया देश पराये"। कानन बाला एक 'सो कॊल्ड' निम्न वर्गीय परिवार से ताल्लुख़ रखती थी और उनके पिता रतन चन्द्र दास की मृत्यु के बाद उन्हे और उनकी माँ को जीवन यापन करने के लिए और भारी कर्ज़ को चुकाने के लिए कर्मक्षेत्र में उतरना पड़ा। १० वर्ष की आयु में कानन ज्योति स्टुडियो में भर्ती हो गईं और एक बंगला फ़िल्म 'जयदेव' में एक छोटी सी भूमिका अदा की बतौर बाल कलाकार। यह साल था १९२६। उन्हे इस फ़िल्म के लिए कुल ५ रुपय मिले थे। उसके बाद उन्होने ज्योतिष बैनर्जी के साथ काम किया उनकी बैनर राधा फ़िल्म्स के तले बनने वाली फ़िल्मों में। 'चार दरवेश ('३३), 'हरिभक्ति' ('३४), 'ख़ूनी कौन' ('३६) और 'माँ' ('३६) जैसी फ़िल्मों में काम करने के बाद प्रमथेश चन्द्र बरुआ ने उन्हे नोटिस किया और इस तरह से न्यु थिएटर्स का दरवाज़ा उनके लिए खुल गया। आर. सी. बोराल ने कानन बाला को सही हिंदी उच्चारण से परिचित करवाया, लखनऊ के उस्ताद अल्लाह रखा से उन्हे विधिवत शास्त्रीय संगीत की तालीम दिलवाई। लय और ताल को समझने के लिए कानन बाला ने तबला भी सीखा (तबला बजाना उन दिनों लड़कियों के लिए दृष्टिकटु समझा जाता था)। उसके बाद कानन बाला को मेगाफ़ोन ग्रामोफ़ोन कंपनी मे गायिका की नौकरी मिल गई और वहाँ पर भीष्मदेव चटर्जी से आगे की संगीत शिक्षा मिली। अनादि दस्तिदार ने उन्हे रबीन्द्र संगीत की बारीकियों से अवगत करवाया। इस तरह से पूरी तरह से तैयारी के बाद पी. सी. बरुआ ने कानन बाला को १९३७ में अपनी फ़िल्म 'मुक्ति' में लौंच किया, जिसके बाद कानन बाला ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एक नए सिंगिंग्‍ सुपरस्टार का जन्म हो चुका था और गायिकाओं में उनकी जगह वही बन गई जो गायकों में कुंदन लाल सहगल का था। 'मुक्ति' के संगीतकार थे पंकज मल्लिक। इस फ़िल्म में कानन के गाए गीत ख़ूब पसंद किए गए। बरुआ साहब कानन को 'देवदास' में लेना चाहते थे लेकिन किन्ही कारणों से यह संभव ना हो सका। 'मुक्ति' और उसके बाद उसी साल 'विद्यापति' के गीतों ने कानन देवी को न्यु थिएटर्स का टॊप स्टार बना दिया।

दोस्तों, कानन देवी की बातें हमने की, अगर इस गीत के संगीतकार कमल दासगुप्ता की बातें ना करें तो यह आलेख अधूरा ही रह जाएगा। ४० के दशक में जब फ़िल्म संगीत लोकप्रियता के पायदान चढ़ता जा रहा था , तो परिवर्तन के इस दौर में ग़ैर फ़िल्मी हिंदी गीतों का सर्जन करके कमल दासगुप्ता ने एक नई दिशा खोल दी। उस दौर के जगमोहन 'सुरसागर' और जुथिका रॊय के गाए ग़ैर फ़िल्मी गीतों का उतना ही महत्व है जो हिंदी फ़िल्मों के लिए लता मंगेशकर के गाए गीतों का है। फ़िल्मों में कमल दासगुप्ता बहुत ज़्यादा सक्रीय नहीं हुए, उपलब्ध जानकारी के अनुसार (सौजन्य: 'लिस्नर्स बुलेटिन' पत्रिका) हिंदी की कुल १६ फ़िल्मों में उन्होने संगीत दिया, जिनकी फ़ेहरिस्त इस प्रकार है: १९४२ - जवाब, १९४३ - हॊस्पिटल, रानी, १९४५ - मेघदूत, १९४६ - अरेबीयन नाइट्स, बिन्दिया, कृष्ण लीला, पहचान, ज़मीन आसमान, १९४७ - फ़ैसला (अनुपम घटक के साथ), गिरिबाला, मनमानी, १९४८ - चन्द्रशेखर, विजय यात्रा, १९४९ - ईरान की एक रात, १९५१ - फुलवारी। यह बहुत ही दुखद बात है कि बोराल और मल्लिक जैसे महान संगीतकारों के स्तर वाले कमल दासगुप्ता को आज बिल्कुल ही भुला दिया गया है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' आज श्रद्धांजली अर्पित कर रहा है कमल दासगुप्ता, कानन देवी और इस गीत के गीतकार पंडित मधुर को। १९४२ के समय के हिसाब से यह गीत काफ़ी मोडर्न रहा होगा। यह गीत कानन देवी पर ही फ़िल्माया गया था। फ़िल्मांकन में एक स्टीम ईंजन वाली रेलगाड़ी दिखाई जाती है जिसका नाम है 'तूफ़ान मेल'। सही में उन दिनों 'तूफ़ान मेल' के नाम से एक ट्रेन हुआ करती थी, और ८० के दशक में 'तूफ़ान एक्स्प्रेस' नाम से भी हावड़ा - दिल्ली के बीच एक ट्रेन दौड़ा करती थी। प्रस्तुत गीत शायद रेल पर बने गीतों में सब से पुराना गीत होगा! आइए सुना जाए...



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. साथ ही जवाब देना है उन सवालों का जो नीचे दिए गए हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

चुपके से आ इन नैनों की गलियों में,
सपना बन बस जा मेरी अखियों में,
मंजिल है तेरी ये दिल का फूल मेरा,
मत जा मुसाफिर बेपरवा कलियों में...

1. बताईये इस गीत की पहली पंक्ति कौन सी है - सही जवाब को मिलेंगें ३ अंक.
2. ये एक ट्रेंडसेटर फिल्म थी जिसकी नायिका थी मुमताज़ शांति, बताईये इस फिल्म के नायक का नाम- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
3. इस गीत के गीतकार ने इसी फिल्म में एक ऐसा गीत लिखा था जो आजादी के मतवालों में नया जोश भर गया था, कौन सा था वो गीत, और कौन थे वो गीतकार -सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
4. इस गीत के संगीतकार का नाम - सही जवाब के मिलेंगें १ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी जवाब सही नहीं है....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, February 11, 2010

एक कली नाजों की पली..आन्दोलनकारी संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर की एक उत्कृष्ट रचना



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 342/2010/42

'प्योर गोल्ड' की दूसरी कड़ी में आज बातें १९४१ की। इस साल की कुछ प्रमुख फ़िल्मी बातों से अवगत करवाएँ आपको? मुकेश ने इस साल क़दम रखा बतौर अभिनेता व गायक फ़िल्म 'निर्दोष' में, जिसमें अभिनय के साथ साथ संगीतकार अशोक घोष के निर्देशन में उन्होने अपना पहला गीत गाया। गायक तलत महमूद ने कमल दासगुप्ता के संगीत निर्देशन में फ़य्याज़ हाशमी का लिखा अपना पहला ग़ैर फ़िल्मी गीत गाया "सब दिन एक समान नहीं था"। सहगल साहब भी दूसरे कई कलाकारों की तरह कलकत्ता छोड़ बम्बई आ गए और रणजीत मूवीटोन से जुड़ गए। इससे न्यु थिएटर्स को एक ज़बरदस्त झटका लगा। वैसे इस साल न्यु थिएटर्स ने पंकज मल्लिक के संगीत और अभिनय से सजी फ़िल्म 'डॉक्टर' रिलीज़ की जो सुपरहिट रही। इस साल अंग्रेज़ फ़ौज ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को उनके घर में नज़रबन्द कर रखा था। लेकिन सब की आँखों में धूल झोंक कर पेशावर के रास्ते वो अफ़ग़ानिस्तान चले गए। मिनर्वा मूवीटोन के सोहराब मोदी ने द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर फ़िल्म बनाई 'सिकंदर', जिसमें सिकन्दर और पोरस की भूमिकाएँ निभाए पृथ्वीराज कपूर और सोहराब मोदी ने। १९४१ में गीतकार किदार शर्मा फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में भी क़दम रखते हुए अपना पहला फ़िल्म निर्देशित किया 'चित्रलेखा'। वी. शान्ताराम, जो पुणे के प्रभात फ़िल्म कंपनी के एक मज़बूत स्तंभ हुआ करते थे, इस साल इस कंपनी के लिए अंतिम फ़िल्म निर्देशित किया 'पड़ोसी'। इसके बाद वो प्रभात छोड़ कर अपनी निजी फ़िल्म कंपनी 'राजकमल कलामंदिर' का निर्माण किया। प्रभात की फ़िल्मों का टैग लाइन "Remember, its a Prabhat Film" धीरे धीरे अपना अर्थ खो बैठा। १९४१ में मास्टर ग़ुलाम हैदर के संगीत में फ़िल्म आयी 'ख़ज़ांची' जिसमें उनके पंजाबी लोक संगीत के इस्तेमाल ने जैसे पूरे देश भर में धूम मचा दी। और फ़िल्मी गीतों में जैसे एक नई क्रांति ला दी। तभी तो हैदर साहब फ़िल्म संगीत के ५ क्रांतिकारी संगीतकारों में से एक हैं। ऐसे में आज की कड़ी में इसी फ़िल्म 'ख़ज़ांची' का कोई गीत सुनवाना बड़ा ही आवश्यक हो जाता है। दोस्तों, इसी फ़िल्म से शमशाद बेग़म के फ़िल्मी गायन की शुरुआत हुई थी। तो क्यों ना मास्टर ग़ुलाम हैदर और शमशाद बेग़म की जोड़ी को सलाम करते हुए आज इसी फ़िल्म का वही गीत सुना जाए जो शमशाद जी का गाया पहला हिंदी फ़िल्मी गीत है। यह गीत है "एक कली नाज़ों की पली"।

दोस्तों, सन् २००५ में विविध भारती की टीम शमशाद बेग़म जी के घर जाकर उनसे मुलाक़ात रिकार्ड कर लाए थे। उस मुलाक़ात में शमशाद जी ने अपने शुरुआती दिनों के बारे में बताया था, मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब का भी ज़िक्र आया था। आइए आज जब इस जोड़ी की बात चल ही रही है तो उस मुलाक़ात के उसी अंश को यहाँ पर प्रस्तुत किया जाए। विविध भारती के तरफ़ से शमशाद जी से बातचीत कर रहे हैं कमल शर्मा।

प्र: आप जिस स्कूल में पढ़ती थीं, वहाँ आप के म्युज़िक टीचर ने आपका हौसला बढ़ाया होगा?

उ: उन्होने कहा कि आवाज़ अच्छी है, पर घरवालों ने इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया। मै जिस स्कूल में पढ़ती थी वह ब्रिटिश ने बनाया था, उर्दू ज़बान में, मैंने ५-वीं स्टैण्डर्ड तक पढ़ाई की। हम चार बहन और तीन भाई थे। एक मेरा चाचा था, एक उनको गाने का शौक था। वो कहते थे कि हमारे घर में यह लड़की आगे चलकर अच्छा गाएगी। वो मेरे बाबा के सगे भाई थे। वो उर्दू इतना अच्छा बोलते थे कि तबीयत ख़ुश हो जाती, लगता ही नहीं कि वो पंजाब के रहने वाले थे। मेरे वालिद ग़ज़लों के शौकीन थे और वो मुशायरों में जाया करते थे। कभी कभी वे मुझसे ग़ज़लें गाने को भी कहते थे। लेकिन वो मेरे गाने से डरते थे। वो कहते कि चार चार लड़कियाँ हैं घर में, तू गाएगी तो इन सबकी शादी करवानी मुश्किल हो जाएगी।

प्र: शमशाद जी, आपकी गायकी की फिर शुरुआत कैसे और कब हुई?

उ: मेरे उस चाचा ने मुझे जेनोफ़ोन कंपनी में ले गए, वह एक नई ग्रामोफ़ोन कंपनी आई हुई थी। उस समय मैं १२ साल की थी। वहाँ पहुँचकर पता चला कि ऒडिशन होगा। उन लोगों ने तख़्तपोश बिछाया, हम चढ़ गए, उस पर बैठ गए। वहीं पर मौजूद थे संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब। इतने कमाल के आदमी मैंने देखा ही नहीं था। वो मेरे वालिद साहब को पहचानते थे। वो कमाल के पखावज बजाते थे। उन्होने मुझसे पूछा कि आपके साथ कौन बजाएगा? मैंने कहा मैं ख़ुद ही गाती हूँ, मेरे साथ कोई बजाने वाला नहीं है। फिर उन्होने कहा कि थोड़ा गा के सुनाओ। मैंने ज़फ़र की ग़ज़ल शुर की "मेरे यार मुझसे मिले तो...", एक अस्थाई, एक अंतरा, बस! उन्होने मुझे रोक दिया, मैंने सोचा गए काम से, ये तो गाने ही नहीं देते! यह मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि मैं प्लेबैक सिंगर बन जाउँगी, मेरा इतना नाम होगा। मैं सिर्फ़ चाहती थी कि मैं खुलकर गाऊँ। मैंने मास्टर जी से फिर कहा कि दूसरा गाना सुनाऊँ? उन्होने कहा की नहीं, इतना ठीक है। फिर १२ गानों का अग्रीमेण्ट हो गया, हर गाने के लिए १२ रुपय। मास्टर जी उन लोगों से कहा कि इस लड़की को वो सब फ़ैसिलिटीज़ दो जो सब बड़े आर्टिस्ट्स को देते हो। उस ज़माने में ६ महीनों का कॊन्ट्रैक्ट हुआ करता था, ६ महीने बाद फिर रिकार्डिंग् वाले आ जाते थे। १० से ५ बजे तक हम रिहर्सल किया करते म्युज़िशियन्स के साथ, मास्टर जी भी रहते थे। आप हैरान होंगे कि उन्ही के गानें गा गा कर मैं आर्टिस्ट बनी हूँ।

प्र: आप में भी लगन रही होगी?

उ: मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब कहा करते थे कि इस लड़की में गट्स है, आवाज़ भी प्यारी है। शुरु में हर गीत के लिए १२ रुपय देते थे। पूरा सेशन ख़तम होने पर मुझे ५००० रुपय मिले। जब रब महरबान तो सब महरबान। जब रेज़ल्ट निकलता है तो फिर क्या कहना!


दोस्तों, आगे की बातचीत हम फिर किसी दिन के लिए सुरक्षित रखते हुए अब जल्दी से आपको सुनवाते हैं १९४१ की साल को सलाम करता हुआ यह गाना।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. साथ ही जवाब देना है उन सवालों का जो नीचे दिए गए हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

ये रस्ता बेहद मुश्किल ही सही,
इस पथ में साथ दो पहिये हैं हम,
दुआ में सौपेंगें हर काम अपना,
ये खेल जीवन का यूं खेलेंगे हम...

1. बताईये इस गीत की पहली पंक्ति कौन सी है - सही जवाब को मिलेंगें ३ अंक.
2. इस गीत को गाकर इस गायिका ने पूरे देश में जैसे एक तूफ़ान सा मचा दिया था, कौन थी ये गायिका जो एक कामियाब अभिनेत्री भी थी- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
3. इस गीत के संगीतकार को आज लगभग भुला ही दिया गया है, इनका नाम बताएं-सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
4. इस गीत के गीतकार कौन हैं - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी जवाब सही नहीं है....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, February 10, 2010

मैं क्या जानूँ क्या जादू है- सहगल साहब की आवाज़ का जादू



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 341/2010/41

दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने देखते ही देखते लगभग एक साल का सफ़र पूरा कर लिया है। पिछले साल २० फ़रवरी की शाम से शुरु हुई थी यह शृंखला। गुज़रे ज़माने के सदाबहार नग़मों को सुनते हुए हम साथ साथ जो सुरीला सफ़र तय किया है, उसको हमने समय समय पर १० गीतों की विशेष लघु शृंखलाओं में बाँटा है, ताकि फ़िल्म संगीत के अलग अलग पहलुओं और कलाकारों को और भी ज़्यादा नज़दीक से और विस्तार से जानने और सुनने का मौका मिल सके। आज १० फ़रवरी है और आज से जो लघु शृंखला शुरु होगी वह जाकर समाप्त होगी १९ फ़रवरी को, यानी कि उस दिन जिस दिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पूरा करेगा अपना पहला साल। इसलिए यह लघु शृंखला बेहद ख़ास बन पड़ी है, और इसे और भी ज़्यादा ख़ास बनाने के लिए हम इसमें लेकर आए हैं ४० के दशक के १० सदाबहार सुपर डुपर हिट गीत, जो ४० के दशक के १० अलग अलग सालों में बने हैं। यानी कि १९४० से लेकर १९४९ तक, दस गीत दस अलग अलग सालों के। हम यह दावा तो नहीं करते कि ये गीत उन सालों के सर्वोत्तम गीत रहे, लेकिन इतना आपको विश्वास ज़रूर दिला सकते हैं कि इन गीतों को आप ज़रूर पसंद करेंगे और उस पूरे दशक को, उस ज़माने के फ़नकारों को एक बार फिर सलाम करेंगे। तो पेश-ए-ख़िदमत है आज से लेकर अगले दस दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पहले वर्ष की आख़िरी लघु शृंखला 'प्योर गोल्ड'। फ़िल्म संगीत के दशकों का अगर हम मानवीकरण करें तो मेरे ख़याल से ३० का दशक इसका शैशव है, ४० का दशक इसका बचपन, ५० और ६० के दशक इसका यौवन। क्यों सही कहा ना? यानी कि इस शृंखला में फ़िल्म संगीत के बचपन की बातें। १९३१ में 'आलम आरा' से जो यात्रा फ़िल्मों ने और फ़िल्म संगीत ने शुरु की थी, जिन कलाकारों की उंगलियाँ थामे संगीत की इस विधा ने चलना सीखा था, उनमें से कई कलाकार ४० के दशक में भी सक्रीय रहे। उस ज़माने में कलकत्ता हिंदी फ़िल्म निर्माण का एक मुख्य केन्द्र हुआ करता था। युं तो कई छोटी बड़ी कपनियाँ थीं वहाँ पर, पर उन सब में अग्रणी हुआ करता था 'न्यु थिएटर्स'। और अग्रणी क्यों ना हो, राय चंद बोराल, पंकज मल्लिक, कुंदन लाल सहगल, तिमिर बरन, कानन देवी, के. सी. डे जैसे कलाकार जिस कंपनी के पास हो, वो तो सब से आगे ही रहेगी ना! इस पूरी टीम ने ३० के दशक के मध्य भाग में फ़िल्म संगीत के घोड़े को विशुद्ध शास्त्रीय संगीत और नाट्य संगीत की भीड़ से बाहर खींच निकाला, और सुगम संगीत, लोक संगीत और पाश्चात्य ऒर्केस्ट्रेशन के संगम से फ़िल्म संगीत को एक निर्दिष्ट स्वरूप दिया, एक अलग पहचान दी। और फिर उसके बाद साल दर साल नये नये कलाकार जुड़ते गये, नये नये प्रयोग होते गये, और फ़िल्म संगीत एक विशाल वटवृक्ष की तरह फैल गया। आज यह वृक्ष इतना व्यापक हो गया है कि यह ना केवल मनोरंजन का सब से लोकप्रिय साधन है, बल्कि फ़िल्मों से भी ज़्यादा उनके गीत संगीत की तरफ़ लोग आकर्षित होते हैं।

ख़ैर, ४० के दशक का पहला साल १९४०, और इस साल के एक बेहतरीन गीत से इस शृंखला की शुरुआत हम कर रहे हैं। न्यु थिएटर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म 'ज़िंदगी' का गीत कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में, संगीतकार हैं पंकज मल्लिक और गीतकार हैं किदार शर्मा। फ़िल्म 'देवदास' के बाद सहगल साहब और जमुना इसी फ़िल्म में फिर एक बार एक ही पर्दे पर नज़र आये थे। और यह फ़िल्म भी प्रमथेश बरुआ के निर्देशन में ही बनी थी। इस गीत को अगर एक ट्रेंडसेटर गीत भी कहा जाए तो ग़लत ना होगा, क्योंकि इसमें मल्लिक जी ने जो पाश्चात्य ऒर्केस्ट्रेशन के नमूने पेश किए हैं, वह उस ज़माने के हिसाब से नये थे। दोस्तों, हम इस शृंखला में पंकज मल्लिक का गाया फ़िल्म 'कपालकुण्डला' का गीत "पिया मिलन को जाना" भी सुनवाना चाहते थे, लेकिन जैसे कि इस शृंखला की रवायत है कि एक साल का एक ही गीत सुनवा रहे हैं, इसलिए इस गीत को हम फिर कभी आपको ज़रूर सुनवाएँगे। लेकिन मल्लिक साहब के बारे में कुछ बातें यहाँ पर हम ज़रूर आपको बताना चाहेंगे। १० मई १९०५ को कलकत्ता में जन्मे पंकज मल्लिक ने कई फ़िल्मों में अभिनय किया था। संगीत के प्रति उनमें गहरा रुझान था। संगीत की बारीकियाँ सीखी दुर्गादास बैनर्जी और दीनेन्द्रनाथ टैगोर से। पंकज मल्लिक भारतीय सिनेमा संगीत आकाश के ध्रुव नक्षत्र हैं। महात्मा का मन और राजर्षी का हृदय, दोनों विधाता ने उन्हे दिए थे। सन् १९२६ में पंकज दा का पहला ग्रामोफ़ोन रिकार्ड रिलीज़ हुआ विडियोफ़ोन कंपनी से। १९२७ में इंडियन ब्रॊडकास्टिंग् कंपनी से जुड़े जहाँ उन्होने लम्बे अरसे तक प्रस्तुतकर्ता, संगीतकार और संगीत शिक्षक के रूप में काम किया। १९२९ से रेडियो पर संगीत शिक्षा पर केन्द्रित उनका कार्यक्रम प्रसारित होना शुरु हुआ। १९२९ में ही उनका एक और कार्यक्रम हर वर्ष दुर्गा पूजा के उपलक्ष्य पर रेडियो पर प्रसारित होता रहा, जिसका शीर्षक था 'महीषासुरमर्दिनी'। दोस्तों, यह रेडियो कार्यक्रम तब से लेकर आज तक प्रति वर्ष आकाशवाणी कोलकाता, अगरतला और पोर्ट ब्लेयर जैसे केन्द्रों से महालया (जिस दिन दुर्गा पूजा का देवी पक्ष शुरु होता है) की सुबह ४:३० बजे से ६ बजे तक प्रसारित होता है। एक साल ऐसा हुआ कि आकाशवाणी कोलकाता ने सोचा कि इस कार्यक्रम का एक नया संस्करण निकाला जाए और उस साल महालया की सुबह 'महीषासुरमर्दिनी' का नया संस्करण प्रसारित कर दिया गया। इसके चलते अगले दिन आकाशवाणी के कोलकाता केन्द्र में जनता ने इस क़दर विरोध प्रदर्शन किया और इस तरह इसकी समालोचना हुई कि अगले वर्ष से फिर से वही पंकज मल्लिक वाला संस्करण ही बजने लगा और आज तक बज रहा है। और आइए अब वापस आते हैं आज के गीत की फ़िल्म 'ज़िंदगी' पर। 'ज़िंदगी प्रमथेश बरुआ की न्यु थिएटर्स के लिए अंतिम फ़िल्म थी। इसी साल, यानी कि १९४० में एक भयंकर अग्निकांड ने न्यु थिएटर्स को भारी नुकसान पहुँचाया। बेहद अफ़सोस इस बात का रहा कि इस कंपनी की सारी फ़िल्मों के नेगेटिव्स उस आग की चपेट में आ गए। चलिए दोस्तों, अब आज का गीत सुना जाए, ४० के दशक की और भी कई रोचक जानकारी हम इस शृंखला में आपको देते रहेंगे, फ़िल्हाल १९४० को सलाम करता हुआ सहगल साहब की आवाज़, "मैं क्या जानू क्या जादू है"। भई हम तो यही कहेंगे कि यह जादू है सहगल साहब की आवाज़ का, मल्लिक साहब की धुनों का, और शर्मा जी के बोलों का।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. साथ ही जवाब देना है उन सवालों का जो नीचे दिए गए हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

भंवरे मंडलाये क्यों,
तू फूल फूल हरजाई,
नैन तेरे बतियाते हैं,
किस भाषा में सौदाई...

1. बताईये इस गीत की पहली पंक्ति कौन सी है - सही जवाब को मिलेंगें ३ अंक.
2. ये गायिका का पहला हिंदी फ़िल्मी गीत है, कौन है ये गायिका - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
3. इस संगीतकार के नाम से पहले "मास्टर" लगता है, इनका पूरा नाम बताईये -सही जवाब के मिलेंगें १ अंक.
4. १९४१ में आई इस फिल्म का नाम क्या है जिसका ये गीत है - सही जवाब के मिलेंगें १ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी आपके सुझाव पर आज से हम पहेली का रूप रंग बदल रहे हैं. आज से एक बार फिर नए सिरे से मार्किंग करेंगे. शरद जी आप अब तक आगे चल रहे थे, पर मुझे लगता है इस नए प्रारूप में आपको भी मज़ा आएगा.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

खुशबू उड़ाके लाई है गेशु-ए-यार की.. अपने मियाँ आग़ा कश्मीरी के बोलों में रंग भरा मुख्तार बेग़म ने



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७०

मने अपनी महफ़िल में इस मुद्दे को कई बार उठाया है कि ज्यादातर शायर अपनी काबिलियत के बावजूद पर्दे के पीछे हीं रह जाते हैं। सारी की सारी मक़बूलियत इन नगमानिगारों के शेरों को, उनकी गज़लों को अपनी आवाज़ से मक़बूल करने वाले फ़नकारों के हिस्से में जाती है। लेकिन आज की महफ़िल में स्थिति कुछ अलग है। हम आज एक ऐसी फ़नकारा की बात करने जा रहे हैं जिनकी बदौलत एक अव्वल दर्ज़े की गायिका और एक अव्वल दर्ज़े की नायिका हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी अवाम को नसीब हुई। इस अव्वल दर्ज़े की गायिका से हम सारे परिचित हैं। हमने कुछ महिनों पहले इनकी दो नज़्में आपके सामने पेश की थीं। ये नज़्में थीं- जनाब अतर नफ़ीस की लिखी "वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया" और जनाब फ़ैयाज हाशमी की "आज जाने की जिद्द न करो"। आप अब तक समझ हीं गए होंगे कि हम किन फ़नकारा की बातें कर रहे हैं। वह फ़नकारा जिनकी गज़ल से आज की महफ़िल सजी है,वो इन्हीं जानीमानी फ़नकारा की बड़ी बहन हैं। तो दोस्तों छोटी बहन का नाम है- "फ़रीदा खानुम" और बड़ी बहन यानि की आज की फ़नकारा का नाम है "मुख्तार बेग़म"। मुख्तार बेग़म यूँ तो उतना नाम नहीं कमा सकीं, जितना नाम फ़रीदा का हुआ, लेकिन फ़रीदा को फ़रीदा बनाने में इनका बड़ा हीं हाथ था। फ़रीदा जब महज सात साल की थीं तभी उन्होंने अपनी बड़ी बहन मुख्तार बेग़म से "खयाल" सीखना शुरू कर दिया था। अब यह तो सभी जानते हैं कि फ़रीदा के गायन में "खयाल" का क्या स्थान है। इतना हीं नहीं.. ऐसी कई सारी गज़लें(जैसे कि आज की गज़ल हीं) और नज़्में हैं जिन्हें पहले मुख्तार बेग़म ने गाकर एक रास्ते की तामीर की और बाद में उसी रास्ते पर और उस रास्ते पर बने इनके पद-चिह्नों पर चलकर फ़रीदा खानुम ने गायिकी के नए आयाम स्थापित किए। यह अलग बात है कि आज के संगीत-रसिकों को इनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं ,लेकिन एक दौर था(१९३० और ४० के दशक में) जब इनकी गिनती चोटी के फ़नकारों में की जाती थी। मेहदी हसन साहब ने जिस वक्त गाना शुरू किया था, उस वक्त बेग़म अख्तर, उस्ताद बरकत अली खान और मुख़्तार बेग़म गज़ल-गायिकी के तीन स्तंभ माने जाते थे। इस बात से आप मुख्तार बेग़म की प्रतिभा का अंदाजा लगा सकते हैं। चलिए लगे हाथों हम मुख्तार बेग़म का एक छोटा-सा परिचय दिए देते हैं।

लोग इन्हें बस एक गायिका के तौर पर जानते हैं, लेकिन ये बँटवारे के पहले हिन्दुस्तानी फिल्मों की एक जानीमानी अभिनेत्री हुआ करती थीं। इन्होंने ३० और ४० के दशक में कई सारी फिल्मों में काम किया था, जिनमें "हठीली दुल्हन", "इन्द्र सभा", "हिन्दुस्तान" , "कृष्णकांत की वसीयत", "मुफ़लिस आशिक़", "आँख का नशा", "औरत का प्यार", "रामायण", "दिल की प्यास" और "मतवाली मीरा" प्रमुख हैं। १९४७ में पाकिस्तान चले जाने के बाद इन्होंने किसी भी फिल्म में काम नहीं किया, लेकिन ये गज़ल-गायिकी करती रहीं।

अभी हमने गायिका(फ़रीदा खानुम) की बात की, अब वक्त है उस नायिका की, जिसे लोग "रानी मुख्तार" के नाम से जानते हैं और वो इसलिए क्योंकि उस नायिका को नासिरा से रानी इन्होंने हीं बनाया था। नासिरा का जन्म इक़बाल बेग़म की कोख से ८ दिसम्बर १९४६ को लाहौर में हुआ था। नासिरा के अब्बाजान मुख्तार बेग़म के यहाँ ड्राईवर थे। अब चूँकि नासिरा के घर वाले उसका लालन-पालन करने में सक्षम नहीं थे इसलिए मुख्तार बेग़म ने उसे गोद ले लिया। मुख्तार बेग़म चाहती थीं कि नासिरा उन्हीं की तरह एक गायिका बने लेकिन नासिरा गायन से ज्यादा नृत्य की शौकीन थी। और इसलिए इन्होंने नासिरा को उस्ताद गु़लाम हुसैन और उस्ताद खुर्शीद से नृत्य की शिक्षा दिलवाई। एक दिन जब जानेमाने निर्देशक "अनवर कमाल पाशा" मुख्तार बेग़म के घर अपनी अगली फिल्म "सूरजमुखी" के फिल्मांकन के सिलसिले में आए तो उनकी नज़र नासिरा पर पड़ी और उन्होंने अपनी फिल्म में नासिरा से काम करवाने का निर्णय ले लिया। और इस तरह नासिरा फिल्मों में आ गईं। इस फिल्म में मुख्तार बेग़म ने गाने भी गाए थे। नासिरा को चूँकि मुख्तार बेग़म रानी बेटी कहकर पुकारती थीं, इसलिए नासिरा को रानी मुख्तार का नाम मिल गया। वैसे आपको शायद हीं यह पता हो कि जानीमानी अभिनेत्री और गायिका "नूर जहां" को यह नाम मुख्तार बेग़म ने हीं दिया था, जो कभी "अल्लाह वसई" हुआ करती थीं।

आज की फ़नकारा के बारे में ढेर सारी बातें हो गईं। अब क्यों न हम आज की गज़ल के गज़लगो से भी रूबरू हो लें। तो आज की गज़ल के गज़लगो कोई और नहीं "मुख्तार बेग़म" के पति जनाब "आग़ा हश्र कश्मीरी" हैं। "आग़ा" साहब का शुमार पारसी थियेटर के स्थापकों में किया जाता है। इन्होंने शेक्सपियर के "मर्चेंट आफ़ वेनीस" का जो उर्दू रूपांतरण किया था, वह आज भी उर्दू की एक अमूल्य कॄति के तौर पर गिनी जाती है.. और उस पुस्तक का नाम है "यहूदी की बेटी"। हमें इस बात का पक्का यकीन है कि आप इस पुस्तक से जरूर वाकिफ़ होंगे, भले हीं आप यह न जानते हों कि इसकी रचना "आग़ा" साहब ने हीं की थी। आग़ा साहब के बारे में बाकी बातें कभी अगली कड़ी में कड़ेंगे, अभी हम उनका लिखा एक शेर देख लते हैं:

वो मुक़द्दर न रहा और वो ज़माना न रहा
तुम जो बेगाने हुए, कोई यगाना न रहा।


इस शेर के बाद अब पेश है कि आज की वह गज़ल जिसके लिए हमने यह महफ़िल सजाई है। इस गज़ल को हमने "औरत का प्यार" फिल्म से लिया है, जिसका निर्देशन श्री ए० आर० करदर साहब ने किया था। यह गज़ल राग दरबारी में संगीतबद्ध की गई है। तो चलिए गज़ल की मासूमियत, गज़ल की रूमानियत के साथ-साथ इस राग की बारीकियों से भी रूबरू हो लिया जाए:

चोरी कहीं खुले ना नसीम-ए-बहार की,
खुशबू उड़ाके लाई है गेशु-ए-यार की।

गुलशन में देखकर मेरे मस्त-ए-शबाब को,
शरमाई जा रही है जवानी बहार की।

ऐ मेरे दिल के चैन मेरे दिल की रोशनी,
और सुबह कई दे शब-ए-इंतज़ार की।

जुर्रत तो देखिएगा नसीम-ए-बहार की,
ये भी बलाएँ लेने लगी जुल्फ़-ए-यार की।

ऐ ’हश्र’ देखना तो ये है चौदहवीं का चाँद,
या आसमां के हाथ में _____ यार की।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "मिज़ाज" और पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं -

मेरी ज़िन्दगी के चिराग का, ये मिज़ाज कुछ नया नहीं
अभी रोशनी अभी तीरगी, ना जला हुआ ना बुझा हुआ

बड़े हीं मिज़ाज से "मिज़ाज" शब्द की सबसे पहले शिनाख्त शरद जी ने की। शरद जी इस बार आपके अंदाज बदले-बदले से हैं। हर बार की तरह आपका खुद का लिखा शेर किधर है। चलिए कोई बात नहीं.. मुदस्सर हुसैन साहब का यह शेर भी किसी मामले में कम नहीं है:

गए दिनों में मुहब्बत मिज़ाज उसका था
मगर कुछ और ही अन्दाज़ आज उसका था।

निर्मला जी, हौसला-आफ़जाई के लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया। आप अपनी ये दुआएँ इसी तरह हमपे बनाए रखिएगा।

मंजु जी, क्या बात है! भला ऐसा कौन-सा हुजूर है, जिसका मिज़ाज इतनी खुशामदों के बाद भी नहीं बन रहा। अब और कितनी मिन्नतें चाहिए उसे:

मौहब्बत का मिजाज उनका अब तक ना बन सका ,
मेरे हजूर!क्या खता है हम से कुछ तो अर्ज कर . (स्वरचित)

सुमित जी, यह क्या... बस इसी कारण से आप हमारी महफ़िल से लौट जाते थे क्योंकि आपको दिए गए शब्द पर शेर नहीं आता था। आपको पता है ना कि यहाँ पर किनका लिखा शेर डालना है, ऐसी कोई पाबंदी नहीं है। जब आप खुद कुछ लिख न पाएँ तो दूसरे का शेर हीं पेश कर दिया करें। जैसा कि आपने इस बार किया है:

कोइ हाथ भी ना मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो।

ये रहे आपके पूछे हुए शब्दों के अर्थ:
पुख़्ताकार: निपुण
तीर ख़ता होना: तीर निशाने से चूक जाना

शन्नो जी, ऐसी क्या नाराज़गी थी कि आपने हमारी महफ़िल से मुँह हीं मोड़ लिया था। अब हम यह कितनी बार कितनों से कहें कि इस महफ़िल का जो संचालन कर रहा है (यानि कि मैं) वो खुद हीं इस लायक नहीं कि धुरंधरों के सामने टिक पाए.. फिर भी उसमें इतनी जिद्द है कि वो महफ़िल लेकर हर बार हाज़िर होता है। जब आपको किसी महफ़िल में शरीक होना हो तो इसमें कोई हानि नहीं कि आप खुद को भी एक धुरंधर मान बैठें, हाँ अगर आप किसी गज़ल की कक्षा में हैं तब आप एक शागिर्द बन सकती हैं। उम्मीद करता हूँ कि आप मेरी बात समझ गई होंगी। तो इसी खुशी में पेश है आपका यह ताज़ा-तरीन शेर:

जिन्दगी के मिजाज़ अक्सर बदलते रहते हैं
और हम उसे खुश करने में ही लगे रहते हैं.

लगता है कि पिछली महफ़िल में कही गई मेरी कुछ बातों से सीमा जी और शामिख साहब नाराज़ हो गएँ। अगर ऐसी बात है तो मैं मुआफ़ी चाहता हूँ। लौट आईये.. आप दोनों। आपके बिना यह महफ़िल अधूरी है।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, February 9, 2010

कभी तन्हाईयों में यूं हमारी याद आएगी....मुबारक बेगम की दर्द भरी सदा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 340/2010/40

फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को सलाम करते हुए आज हम आ पहुँचे हैं इस ख़ास शृंखला की अंतिम कड़ी पर। अब तक हमने इस शृंखला में क्रम से सुलोचना कदम, उमा देवी, मीना कपूर, सुधा मल्होत्रा, जगजीत कौर, कमल बारोट, मधुबाला ज़वेरी, मुनू पुरुषोत्तम और शारदा का ज़िक्र कर चुके हैं। आज बारी है उस गयिका की जिनके गाए सब से मशहूर गीत के मुखड़े को ही हमने इस शृंखला का नाम दिया है। जी हाँ, "कभी तन्हाइयों में युं हमारी याद आएगी" गीत की गयिका मुबारक़ बेग़म आज 'ओल्ड इस गोल्ड' की केन्द्रबिंदु हैं। मुबारक़ बेग़म के गाए फ़िल्म 'हमारी याद आएगी' के इस शीर्षक गीत को सुनते हुए जैसे महसूस होने लगता है इस गीत में छुपा हुआ दर्द। जिस अंदाज़ में मुबारक़ जी ने "याद आएगी" वाले हिस्से को गाया है, इसे सुनते हुए सचमुच ही किसी ख़ास बिछड़े हुए की याद आ ही जाती है और कलेजा जैसे कांप उठता है। इस गीत में, इसकी धुन में, इसकी गायकी में कुछ ऐसी शक्ति है कि सीधे आत्मा को कुछ देर के लिए जैसे अपनी ओर सम्मोहित कर लेती है और गीत ख़त्म होने के बाद ही हमारा होश वापस आता है। किदार शर्मा का लिखा हुआ यह गीत है जिसकी तर्ज़ बनाई है स्नेहल भाटकर ने। किदार शर्मा ने कई नए कलाकारों को समय समय पर मौका दिया है जिनमें शामिल हैं कई अभिनेता अभिनेत्री, संगीतकार, गायक और गायिकाएँ। 'हमारी याद आएगी' फ़िल्म जितना मुबारक़ बेग़म के लिए यादगार फ़िल्म है, उतनी ही यादगार साबित हुई संगीतकार स्नेहल भाटकर के लिए भी। स्नेहल भी एक कमचर्चित फ़नकार हैं। भविष्य में जब हम कमचर्चित संगीतकारों पर किसी शृंखला का आयोजन करेंगे तो स्नेहल भाटकर से सबंधित जानकारी आपको ज़रूर देंगे। आज करते हैं मुबारक़ बेग़म की बातें। लेकिन उससे पहले आपको बता दें कि आज हम इसी कालजयी गीत को सुनेंगे।

कई साल पहले मुबारक़ बेग़म विविध भारती पर तशरीफ़ लाई थीं और वरिष्ठ उद्‍घोषक कमल शर्मा ने उनसे मुलाक़ात की थी। उसी मुलाक़ात में मुबारक़ जी ने इस गीत के पीछे की कहानी का ज़िक्र किया था। पेश है उसी बातचीत का वह अंश। दोस्तों, आप सोचते होंगे कि मैं लगभग सभी आलेख में विविध भारती के कार्यक्रमों का ही ज़िक्र करता रहता हूँ। दरअसल बात ही ऐसी है कि उस गुज़रे ज़माने के कलाकारों से संबंधित सब सर्वाधिक सटीक जानकारी केवल विविध भारती के पास ही उपलब्ध है। फ़िल्म संगीत के इतिहास को आने वाली पीढ़ियों के लिए सहज कर रखने में विविध भारती के योगदान को अगर हम सिर्फ़ उल्लेखनीय कहें तो कम होगा। ख़ैर, आइए मुबारक़ बेग़म के उस इंटरव्यू को पढ़ा जाए।

प्र: यह गीत (कभी तन्हाइयों में युं) किदार शर्मा की फ़िल्म 'हमारी याद आएगी' का है, संगीतकार स्नेहल भाटकर।

उ: पहले पहले यह गीत रिकार्ड पर नहीं था। इस गीत के बस कुछ लाइनें बैकग्राउंड के लिए लिया गया था।

प्र: किदर शर्मा की और कौन कौन सी फ़िल्मों में आपने गीत गाए?

उ: 'शोख़ियाँ', 'फ़रीयाद'।

प्र: किदार शर्मा के लिए आप की पहली फ़िल्म कौन सी थी?

उ: 'शोख़ियाँ'। संगीत जमाल सेन का था। मैं जो बात बता रही थी कि "हमारी याद आएगी" गाना रिकार्ड पर नहीं था। इसे पार्ट्स मे बैकग्राउंड म्युज़िक के तौर पर फ़िल्म में इस्तेमाल किया जाना था। मुझे याद है बी. एन. शर्मा गीतकार थे, स्नेहल और किदार शर्मा बैठे हुए थे। रिकार्डिंग् के बाद किदार शर्मा ने मुझे ४ आने दिए। मैंने किदार शर्मा की तरफ़ देखा। उन्होने मुझसे उसे रखने को कहा और कहा कि यह 'गुड-लक' के लिए है। सच में वह मेरे लिए लकी साबित हुई।

प्र: आप बता रहीं थीं कि शुरु शुरु में यह गीत रिकार्ड पर नहीं था?

उ: हाँ, लेकिन बाद में उन लोगों को गीत इतना पसंद आया कि उन्होने सारे पार्ट्स जोड़कर गीत की शक्ल में रिकार्ड पर डालने का फ़ैसला किया। मैं अभी आपको बता नहीं सकती, लेकिन अगर आप गाना बजाओ तो मैं ज़रूर बता सकती हूँ कि कहाँ कहाँ गीत को जोड़ा गया है।

प्र: आपको यह पता था कि ऐसा हो रहा है?

उ: पहले मुझे मालूम नहीं था, लेकिन रिकार्ड रिलीज़ होने के बाद पता चला।

प्र: आपने अपना शेयर नहीं माँगा?

उ: दरअसल मैं तब बहुत नई थी, इसलिए मैंने अपना मुंह बंद ही रखा, वरना मुझे जो कुछ भी मिल रहा था वो भी बंद हो जाता। आगे भी कई बार ऐसे मौके हुए कि जब मुझसे कुछ कुछ लाइनें गवा ली गई और बाद में उन लोगों ने उसे एक गीत के शक्ल में रिकार्ड पर उतार दिया।


दोस्तों, इस अंश को पढ़कर आप समझ सकते हैं कि मुबारक़ बेग़म जैसी कमचर्चित गायिकाओं को किस किस तरह का संघर्ष करना पड़ता होगा! ये सब जानकर दिल उदास हो जाता है कि इतनी सुरीले कलाकारों को उन्हे अपना हिस्सा नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। 'आवाज़' की तरफ़ से हमारी ये छोटी सी कोशिश थी इन कमचर्चित गायिकाओं को याद करने की, आशा है आपको पसंद आई होगी। अपनी राय आप टिपण्णी के अलावा hindyugm@gmail.com के पते पर भी लिख भेज सकते हैं। आप से हमारा बस यही गुज़ारिश है कि इन कमचर्चित कलाकारों को कभी भुला ना दीजिएगा, अपनी दिल की वादियों में इन सुरीली आवाज़ों को हमेशा गूंजते रहने दीजिए, क्योंकि ये आवाज़ें आज भी बार बार हमसे यही कहती है कि कभी तन्हाइयों में युं हमारी याद आएगी।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

नैनों में छुपे,
कुछ ख्वाब मिले,
मन झूम उठा,
कुछ कहा होगा, भूले ख्वाबों ने...

अतिरिक्त सूत्र- शुद्ध सोने से सजे गीतों की शृंखला में कल फिर गूंजेगी कुंदन लाल सहगल की आवाज़

पिछली पहेली का परिणाम-
बिलकुल सही शरद जी, एक अंक और आपके खाते में, एक गुजारिश है आपसे, आप अपने ऐसे शोस् जिनमे आपको ऐसे गजब के फनकारों की संगती मिली हो, उनके अनुभव अन्य श्रोताओं के साथ भी अवश्य बाँटें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, February 8, 2010

तितली उडी, उड़ जो चली...याद कीजिये कितने संस्करण बनाये थे शारदा के गाये इस गीत के आपने बचपन में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 339/2010/39

फ़िल्म जगत के श्रेष्ठतम फ़िल्मकारों में से एक थे राज कपूर, जिनकी फ़िल्मों का संगीत फ़िल्म का एक बहुत ही अहम पक्ष हुआ करती थी। क्योंकि राज कपूर को संगीत का अच्छा ज्ञान था, इसलिए वो अपनी फ़िल्म के संगीत में भी अपना मत ज़ाहिर करना नहीं भूलते थे। राज कपूर कैम्प की अगर पार्श्वगायिका का उल्लेख करें तो कुछ फ़िल्मों में आशा भोसले के गाए गीतों के अलावा उस कैम्प की प्रमुख गायिका लता जी ही हुआ करती थीं। ऐसे मे अगर राज कपूर किसी तीसरी गायिका को नायिका के प्लेबैक के लिए चुनें तो उस गायिका के लिए यह बहुत अहम बात थी। और अगर वो गायिका बिल्कुल नयी नवेली हो तो यह और भी ज़्यादा उल्लेखनीय हो जाती है। जी हाँ, राज साहब ने ऐसा किया था। ६० के दशक में एक बार राज कपूर तेहरान गए थे। वहाँ पर उनके सम्मान में एक पार्टी का आयोजन किया गया था। उन्ही दिनों तेहरान में एक तमिल लड़की थी जो पार्टियों में गानें गाया करती थी। संयोग से राज साहब की उस पार्टी में इस गायिका को गाना गाने क मौका मिला। राज साहब को उस गायिका की आवाज़ इतनी पसंद आई कि उन्होने उसे अपनी फ़िल्म में गवाने का वादा किया और बम्बई आ कर ऒडिशन देने को कहा। बस फिर क्या था, ऒडिशन भी हो गया और उस गायिका को भेज दिया गया शंकर जयकिशन के पास फ़िल्मी गायन की विधिवत तालीम हासिल करने के लिए। और आगे चलकर राज कपूर की तमाम फ़िल्मों में इस गायिका ने कई मशहूर गीत गाए, और राज साहब के बैनर के बाहर भी शंकर जयकिशन ने समय समय पर इनसे गीत गवाए। अब तक अप समझ ही गए होंगे कि ये गायिका और कोई नहीं, बल्कि शारदा हैं। कई सुपरहिट गीत गाने के बावजूद शारदा को फ़िल्म जगत ने कभी वो मुक़ाम हासिल करने नहीं दिया जिसकी वो सही मायने में हक़दार थीं। उन्ही के शब्दों में (सौजन्य: जयमाला, विविध भारती): "जब शुरु शुरु में मेरे गीत फ़िल्मों में आए तो आप सभी ने सराहा, सारे देश से मुझे प्रेरणा मिली। मेरे बहुत से गीत लोकप्रियता की चोटी पे गए, लेकिन न जाने क्यों फ़िल्मी दुनिया के कुछ लोगों ने मुझे पसंद नहीं किया। यही नहीं, उन्होने मेरी करीयर को ख़त्म करने की भी कोशिश की, कुछ हद तक शायद सफल भी हुए होंगे। पर इससे भला उन्हे क्या फ़ायदा हुआ होगा! मैं तो अलग ही ढंग से गाती थी, गाती हूँ। मेरी आवाज़ भी किसी से नहीं मिलती। और सब से बड़ी बात यह कि जब सभी लोगों ने मेरे गीतों को पसंद भी किया तो यह बात क्यों? मैं तो समझती हूँ कि ज़माने की रफ़तार के साथ साथ कला की दुनिया में भी नया रंग, नया मोड़, नया दौर आना ही चाहिए और नई दिशाएँ भी खुलनी ही चाहिए।"

दोस्तों, आज शारदा जी की आवाज़ में हम सुनने जा रहे हैं फ़िल्म 'सूरज' का बड़ा ही कामयाब गीत "तितली उड़ी, उड़ जो चली"। अभी हाल ही में शारदा जी फिर एक बार विविध भारती में पधारीं थीं और 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम के लिए एक लम्बा सा इंटरव्यू रिकार्ड करवाया था। उसमें उन्होने इस गीत के बारे में विस्तार से जो बातें बताईं, आइए उन्ही पर एक नज़र डालें। "इसको generation song भी बोल सकते हैं। इसको अभी के लोग भी पसंद करते हैं। जब भी मैं प्रोग्राम्स में जाती हूँ तो लोग कहते हैं कि मेरी बच्ची ने इस गाने पे डांस किया, किसी ने मुझसे पूरा लिरिक्स मंगवाया कि मेरी बच्ची के प्रोग्राम के लिए चाहिए, so it is going on like this. Its really surprising because this is a very simple song. इसके पीछे ना ऐसा कोई डांस है, ना कोई romantic scene है, बहुत simple song है, एक घोड़ा गाड़ी में जा रही है राजकुमारी और वो गा रही है। और इस गाने में क्या है कि वो अब तक लोगों को attract कर रहा है। मैंने इस गाने के लिए बहुत research किया और पिछले कुछ सालों में मेरे दिमाग़ में आया कि शैलेन्द्र जी कुछ ना कुछ दर्शन रखते थे हर गीत में। आत्मा को हम पक्षी या तितली कहते हैं। आत्मा wants to go to source, आत्मा भगवान की तरफ़ जाना चाहती है, आकाश में जाना चाहती है। लेकिन फूल और पत्ते जो हैं माया की तरह उसको ज़मीन पर खींचना चाहते हैं। लेकिन तितली कहती है कि मुझे जाना है अपने source। "तितली उड़ी, उड़ जो चली, फूल ने कहा आजा मेरे पास, तितली कहे मैं चली आकाश"। देखा दोस्तो, शारदा जी ने इस गीत में छुपे हुए दार्शनिक पक्ष को किस तरह से ख़ुद ढ़ूंढ निकाला है। ऐसे न जाने शैलेन्द्र के लिखे और कितने गीत होंगे जिन्हे हम रोज़ गुनगुनाते हैं लेकिन उनमें छुपे दर्शन को शायद ही महसूस करते होंगे! ख़ैर, आइए सुनते हैं "तितली उड़ी" और शुभकामनाएँ देते हैं शारदा जी को एक ख़ुशनुमा ज़िंदगी के लिए।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

मौत का अँधेरा छाया है,
फिर से घनी परछाईयों जैसे,
दुनिया की गर्द और हम हैं,
राख में दबी चिंगारियों जैसे...

अतिरिक्त सूत्र- जितनी कमचर्चित रहीं ये गायिका उतने ही कम चर्चिते रहे इस अमर गीत के संगीतकार भी

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी, एकदम सही गीत है....आपका स्कोर हुआ २४. बधाई...इंदु जी ये तटस्थ रहने का निर्णय क्यों ? आप रहेंगीं तो शरद जी को जरा तक्दी टक्कर मिल सकेगी...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"स्ट्राईकर" का संगीत निशाना है एक दम सटीक



ताज़ा सुर ताल 06/ 2010

सजीव - सुजॊय, यह बताओ तुम्हे कैरम खेलने का शौक है?
सुजॊय - अरे सजीव, यह अचानक 'ताज़ा सुर ताल' के मंच पर कैरम की बात कहाँ से आ गई। वैसे, हाँ, बचपन में काफ़ी खेला करता था गर्मियों की छुट्टियों में, लेकिन अब बिल्कुल ही बंद हो गया है।
सजीव - दरअसल, आज हम जिस फ़िल्म की बातें करेंगे और गानें सुनेंगे वो कैरम से जुड़ी हुई है।
सुजॊय - मैं समझ गया, जिस फ़िल्म के प्रोमोज़ ख़ूब आ रहे हैं इन दिनों, 'स्ट्राइकर' फ़िल्म की बात हम आज कर रहे हैं ना?
सजीव - हाँ, जिस तरह से कैरम बोर्ड में स्ट्राइकर ही खेल को शुरु से लेकर अंजाम तक लेके जाती है, यही भाव इस फ़िल्म की कहानी का अंडरकरण्ट है। 'स्ट्राइकर' कहानी है झोपड़पट्टी (स्लम) में रहने वाले एक नौजवान की जो कैरम खिलाड़ी है और जो घिरा हुआ है जुर्म और असामाजिक तत्वों से। इस फ़िल्म के शीर्षक से या इसकी कहानी को सुन कर या पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि इसके संगीत से हमें कुछ ज़्यादा उम्मीदें लगानी चाहिए, क्योंकि अंडरवर्ल्ड की कहानी में भला अच्छे संगीत की गुंजाइश कहाँ होती है! लेकिन नहीं, इस फ़िल्म के संगीत में कुछ ख़ास बातें तो ज़रूर हैं, जिन्हे आप आज सुनते हुए महसूस करेंगे।
सुजॊय - सजीव, पहली ख़ास बात तो शायद यही है कि इस फ़िल्म में ६ संगीतकारों ने संगीत दिया है और ६ गीतकारों ने गीत लिखे हैं। शायद यह पहली फ़िल्म है जिसमें इतने सारे गीतकार संगीतकार हैं। चलिए एक एक करके गीत सुनते हैं और हर गीतकार - संगीतकार जोड़ी का तुलनात्मक विश्लेषण करते हैं।
सजीव - अच्छा विचार है, शुरुआत करते हैं एक सुफ़ियाना अंदाज़ वाले गीत से जिसे सोनू निगम ने गाया है। गीतकार जीतेन्द्र जोशी और संगीतकार शैलेन्द्र बरवे। यह गीत है "छम छम जानी रातें, ये सितारों वाली रात"। एक लाइन में अगर कहा जाए तो सोनू निगम ने यह साबित किया है कि चाहे गायकों की कितनी भी बड़ी नई फ़ौज आ गया हो, लेकिन अब भी वर्सेटाइलिटी में वो अब भी नंबर-१ हैं। कुल ७ मिनट १२ सेकण्ड्स के इस गीत के शुरु के १ मिनट १० सेकण्ड्स में सोनू के बिल्कुल नए अंदाज़ के आलाप सुनने को मिलते हैं। बरवे साहब ने सोनू की आवाज़ का ऐसा नया अंदाज़ उभारा है कि अगर ना बताया जाए तो लगता ही नहीं कि सोनू गा रहे हैं। बहुत ही अच्छा व नवीन प्रयोग! और उस पर पार्श्व में धीमी लय में बजती हुई वोइलिन की तानें और तालियों की थापें। ऐसा सूफ़ियाना समां बंधा है इस गाने ने कि इसे सुनते हुए दिल मदहोश सा हो जाता है।
सुजॊय - और गीत के बोल भी उतने ही आकर्षक! कुछ कुछ 'ताल' फ़िल्म के "इश्क़ बिना क्या जीना यारों" (उसे भी सोनू ने ही गाया था), और 'सांवरिया' फ़िल्म के "युं शबनमी", या फिर 'अनवर' फ़िल्म की "मौला मेरे मौला" गीत से कुछ कुछ समानता मिलती है, लेकिन जीतेन्द्र जोशी रुमानीयत से भरे बोलों ने और रोमांटिसिज़्म के नए अंदाज़ ने गीत को एक अलग ही नज़रिया दिया है। प्रेम और एक दैवीय शक्ति की बातें हैं इस गीत में। सूफ़ी संगीत जो इस दौर की खासियत चल रही है, उसमें जीतेन्द्र और शैलेन्द्र ने प्रेम रस और आध्यात्म का ऐसा संमिश्रण तैयार किया है कि बार बार सुनने को दिल करता है। इस नए उभरते गीतकार-संगीतकार जोड़ी को हमारा तह-ए-दिल से शुभकामनाएँ। ऐसा लगता है जैसे इस साल 'बेस्ट न्युकमर' के पुरस्कार के लिए कांटे की टक्कर होने वाली है। आइए सुनते हैं इस गीत को!

गीत - छम छम जानी रातें...cham cham (striker)


सजीव - अब दूसरा गीत किसी गीतकार - संगीतकार जोड़ी का नहीं है, बल्कि गीतकार - संगीतकार - गायक की तिकड़ी का है। गीतकार हैं स्वानंद किरकिरे, संगीतकार हैं स्वानंद किरकिरे, और गायक हैं स्वानंद किरकिरे। गायक और गीतकार तो पहले से ही थे, अब संगीतकार भी बन गए हैं स्वानंद इस गीत से। फ़िल्म संगीत के इतिहास में बहुत गिने चुने ऐसे कलाकार हैं जिन्होने ये तीनों भूमिकाएँ निभाए हैं। किशोर कुमार, रवीन्द्र जैन और आनंद राज आनंद तीन अलग अलग दौर को रिप्रेज़ेंट करते हैं, और इस श्रेणी में आज के दौर का यक़ीनन प्रतिनिधित्व करना शुरु कर दिया है स्वानंद ने। यह गीत है "मौला मौला" और यह भी सुफ़ी क़व्वाली रंग लिए हुए है।
सुजॊय - गीत का प्रिल्युड म्युज़िक भी अलग अलग साज़ों के इस्तेमाल से काफ़ी रंगीन बन पड़ा है, और कुल मिलाकर यह गीत भी पहले गीत की तरह सुकूनदायक है। स्वानंद ने गायकी में भी लोहा मनवाया है। गायन और संगीत तो वो कभी कभार ही करते होंगे, लेकिन जिस चीज़ के लिए वो जाने जाते हैं, यानी कि गीतकारिता, उसमें तो जैसे कमाल ही कर दिया है जब वो लिखते हैं कि "मन के चांद पे बदरी ख़यालों की, नंगे ज़हन पे बरखा सवालों की"। इन दोनों गीतों को सुनते हुए आप यह महसूस करेंगे कि इनमें साज़ों की अनर्थक भरमार नहीं है जैसा कि आज कल के गीतों में हुआ करता है। और कोई भी पीस, कोई भी साज़ अनावश्यक नहीं लगता। बहुत ही सही म्युज़िक अरेंजमेण्ट हुआ है इन दोनों गीतों में। आइए अब यह गीत सुनते हैं।

गीत - मौला मौला...maula (striker)


सुजॊय - और अब एक ऐसे गीतकार - संगीतकार की जोड़ी का नग़मा जिस जोड़ी ने हाल के कुछ सालों में कम ही सही लेकिन जब भी साथ साथ काम किया, कुछ अव्वल दर्जे के गानें हमें दिए। यह जोड़ी है गुलज़ार साहब और विशाल भारद्वाज की। 'कमीने' के शीर्षक गीत के बाद एक उसी तरह का गीत 'स्ट्राइकर' के लिए भी इस जोड़ी ने बनाया है, जिसे विशाल ने ही गाया है। "और फिर युं हुआ, रात एक ख़्वाब ने जगा दिया" एक बार फिर गुलज़ार साहब के ग़ैर पारम्परिक बोलों से सजी है।
सजीव - जहाँ तक संगीत की बात है, है तो यह एक इंडियन टाइप का नर्मोनाज़ुक गाना, लेकिन वेस्टर्ण क्लासिकल टच है इसकी धुन में भी और ऒकेस्ट्रेशन में भी। 'कमीने' का शीर्षक गीत गाने के बाद विशाल ने अपनी आवाज़ का फिर एक बार जलवा दिखाया है और अब तो ऐसा लगने लगा है कि आगे भी उनकी गायकी जारी रहेगी। एक पैशनेट रोमांटिक गीत है यह, जिसमें विशाल के कीज़ और परकुशन्स साज़ों का बहुत ही बढ़िया इस्तेमाल किया है। अच्छा सुजॊय, इससे पहले कि हम यह गीत सुनें, ज़रा इस फ़िल्म के मुख्य कलाकारों के बारे में थोड़ी सी जानकारी देना चाहोगे?
सुजॊय - बिल्कुल! चंदन अरोड़ा के निर्देशन में बनीं यह फ़िल्म है, जिसके मुख्य किरदारों में हैं आर. सिद्धार्थ, आदित्य पंचोली, अनुपम खेर, पद्मप्रिया, निकोलेट बर्ड, अंकुर विकल और सीमा बिस्वास।
सजीव - आप सभी को याद होगा कि सिद्धार्थ ने 'रंग दे बसंती' में यादगार भूमिका अदा की थी। उसके बाद उन्हे बहुत सारी हिंदी फ़िल्मों में अभिनय के ऒफ़र मिले लेकिन उन्होने किसी में भी उन्होने दिलचस्पी नहीं दिखाई, और दक्षिण के फ़िल्मों से ही जुड़े रहे। ऐसे में लगता है कि 'स्ट्राइकर' में वो नये और एक असरदार भूमिका में नज़र आएँगे। चलिए अब सुना जाए विशाल भारद्वाज की आवाज़ में यह गीत।

गीत - और फिर युं हुआ....yun hua (stiker)


सजीव - इन तीनों गीतों को सुनने के बाद एक बात तो तय है, कि इस फ़िल्म का सम्गीत लीग से हट के है, जो हो सकता है कि डिस्कोथेक्स पर न बजें लेकिन लोगों के दिलों में एक लम्बे समय तक गूंजती रहेगी। आज के दौर के अच्छे संगीत के जो रसिक लोग हैं, उनके लिए एक म्युज़िकल सौगात है इस फ़िल्म का संगीत।
सुजॊय - सहमत हूँ आप से। अब चौथे गीत के रूप में बारी है गीतकार नितिन रायकवाड़ और नवोदित संगीतकार युवन शंकर राजा की। शंकर राजा भले ही हिंदी फ़िल्म संगीत में नवोदित हो, लेकिन दक्षिण में वो लगभग ७५ फ़िल्मों में संगीत दे चुके हैं। इस गीत को युवन शंकर राजा और फ़िल्म के हीरो सिद्धार्थ ने मिल कर गाया है। यह गीत है "हक़ से, ले हक़ से, जो चाहे तू रब से", इस गीत की खासियत यह है कि दो ऐसी आवाज़ें सुनने को मिलती है जो आज तक किसी हिंदी फ़िल्मी गीत में सुनने को नहीं मिला है, और गीत है भी अलग अंदाज़ का। इन दोनों कारणों से इस गीत को सुन कर एक ताज़ेपन का अहसास होता है।
सजीव - सुजॊय, इस गीत को सुन कर क्या तुम्हे फ़िल्म 'गजनी' का वह गीत याद नहीं आता, "बहका मैं बहका"?
सुजॊय - सही कहा आपने, गायकी का अंदाज़ कुछ कुछ वैसा ही है। और सजीव, नितिन रायकवाड़ की अगर बात करें, तो उन्होने ज़्यादातर अंडरवर्ल्ड की फ़िल्मों के लिए उन्होने कई गानें लिखे हैं जिनमें उस जगत की बोली और भाषा का इस्तेमाल उन्होने किए हैं। बहुत अच्छा नाम तो उनका नहीं है क्योंकि उनके ज़्यादातर गानें उसी श्रेणी के चरित्रों के लिए लिखे गए हैं, और ऐसे गानें सामयिक तौर पर चर्चित होते हैं, फिर कहीं खो जाते हैं। लेकिन इस गीत में थोड़ी अलग हट के बात है और उनके लिखे पहले के तमाम गीतों से काफ़ी बेहतर है।
सजीव - और युवन का म्युज़िक भी तुरंत ग्रहण करने लायक तो है ही, ख़ास कर शुरूआती संगीत में एक अजीब सा आकर्षण महसूस किया जा सकता है। सच है कि युवन और सिद्धार्थ अच्छे गायक नहीं हैं, लेकिन इस गीत को जिस तरह का रफ़ फ़ील चाहिए था, वो ऐसे गायकों की गायकी से ही आ सकती थी। कहानी के नायक के चरित्र के सपनों और ख़्वाहिशों का ज़िक्र है इस गीत में। कुल मिलाकर बोल, संगीत और गायकी के लिहाज़ से इस गीत में नई बात है, और इस गीत को भी कामयाबी मिलने के अच्छी चांसेस हैं। आइए सुनते हैं।

गीत - हक़ से, ले हक़ से....haq se (striker)


सुजॊय - अब जो गीत हम आपको सुनवाने जा रहे हैं, उसे एक बार फिर से जीतेन्द्र जोशी ने लिखा है और शैलेन्द्र बरवे ने स्वरबद्ध किया है। सुनिधि चौहान की आवाज़ में यह है "पिया सांवरा तरसा रहा"। हम सुनिधि के आम तौर पर जिस तरह के जोशीले और दमदार आवाज़ को सुना करते हैं, यह गीत उस अंदाज़ के बिल्कुल विपरीत है। सुकून से भरा एक नर्म अंदाज़ का गाना है, कुछ कुछ सेमी-क्लासिकल रंग का। इस तरह के गानें वैसे सुनिधि ने पहले भी गाए हैं जैसे कि फ़िल्म 'सुर' में "आ भी जा आ भी जा ऐ सुबह", 'चमेली' में "भागे रे मन कहीं", वगेरह।
सजीव - फ़िल्म 'चलते चलते' का गीत "प्यार हमको भी है, प्यार तुमको भी है" की ट्युन को भी महसूस किया जा सकता है प्रील्युड व इंटर्ल्युड म्युज़िक में। ऒर्केस्ट्रेशन में हारमोनियम, ड्रम, बांसुरी और तबले का प्रयोग सुनाई देता है। यह फ़िल्म का एकमात्र गीत है किसी गायिका का गाया हुआ। इस गीत में एक नारी के जज़्बातों का वर्णन मिलता है कि किस तरह से वो अपने प्यार को फिर एक बार अपने पास चाहती है। शैलेन्द्र और जीतेन्द्र ने जिस तरह से पहले गीत में सोनू निगम के आवाज़ को एक नये तरीके से पेश किया था, वैसे ही इस गीत में भी सुनिधि की आवाज़ को एक अलग ही ट्रीटमेंट दिया है।
सुजॊय - हाँ, और सुनिधि ने जिस तरह से नीचे सुरों में गाते हुए एक ख़ास रोमांटिसिज़्म का परिचय दिया है, वह वाक़ई कर्णप्रिय है। और क्या मोडुलेशन है उनकी गले में। इन दोनों गीतों के लिए इस गीतकार-संगीतकार जोड़ी को सराहना ज़रूर मिलनी चाहिए और मिलेगी भी। लेकिन फ़िल्हाल हम इनकी प्रतिभा को सराहते हुए सुनते हैं यह गीत।

गीत - पिया सांवरा तरसा रहा...piya sanwara (striker)


सुजॊय - और अब आज का अंतिम गीत। अब की बार इस फ़िल्म की शीर्षक गीत की बारी। इस गीत को कॊम्पोज़ किया है और गाया भी है ब्लाज़ ने। और उनके साथ मिलकर गीत को लिखा है नितिन रायकवाड़ और अनुश्का ने। रैप शैली में बना हुआ यह गीत है "एइम लगा उंगली चला"। कुछ बहुत ख़ास गीत तो नहीं लगा इसे सुनकर, बस यही कह सकते हैं कि एक ऐटिट्युड वाला गाना है, जिसमें बोलों से ज़्यादा बीट्स पर ज़ोर डाला गया है।
सजीव - सुजॊय, अगर रैप शैली में गाना बन रहा है तो इसी तरह का अरेंजमेण्ट ज़रूरी हो जाता है। अब ऐसे गीत में तो हम दूसरे पारंपरिक साज़ों का इस्तेमाल नहीं कर सकते ना?
सुजॊय - बिल्कुल सहमत हूँ आपकी बात से। और इस गीत में 'स्ट्राइकर' शब्द का प्रयोग बार बार होता है। जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि कैरम बोर्ड में जिस तरह से एक स्ट्राइकर की मदद से एक के बाद एक मोहरों को अपने काबू में किया जाता है, वैसे ही शायद फ़िल्म का नायक ज़िंदगी के कैरम बोर्ड पर भी कुछ इसी तरह का रवैया अपनाया होगा, यह तो फ़िल्म देखने पर ही पता लगेगी!
सजीव - मेरा ख़याल इस गीत के बारे में तो यही है कि इसकी तरफ़ लोगों का बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं जाएगा, लेकिन पूरे फ़िल्म में पार्श्वसंगीत की तरह इसका इस्तेमाल बार बार होता रहेगा। इस तरह के थीम सॊंग्‍ बनाई ही इसीलिए जाती है। तो अब यह गीत सुनते हैं, लेकिन उससे पहले हम अपने पाठकों से और अपने श्रोताओं से कुछ कहना चाहते हैं। अगर आपको इस शृंखला से किसी भी तरह की कोई शिकायत है, या इसके स्वरूप से कोई ऐतराज़ है, या फिर आप किसी तरह का बदलाव चाहते हैं, तो हमें अपने सुझाव बेझिझक बताएँ। हम कोशिश करेंगे अपने आलेखों में सुधार लाने की।
सुजॊय - अपने विचार टिप्पणी के अलावा हिंद युग्म के ई-मेल पते पर आप भेज सकते हैं। और आइए अब सुना जाए 'स्ट्राइकर' का शीर्षक गीत।

गीत - एइम लगा उंगली चला...aim laga (striker)


"स्ट्राईकर" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****
अलग अलग संगीतकारों का ये प्रयोग बहुत बढ़िया बन पड़ा है. इससे प्रेरित होकर अन्य निर्माता निर्देशकों को भी यह राह अपनानी चाहिए, इससे प्रतिभाओं से भरे इस देश में बहुत से उभरते हुए फनकारों को अपना हुनर दिखाने का एक बड़ा माध्यम मिल सकेगा. और जब पूरी फिल्म में आपके खाते में यदि एक गीत होगा तो जाहिर है आप उस एक गीत में अपना सब कुछ झोंक देना चाहेंगें, और वही काफी हद तक इस फिल्म के संगीत के साथ हुआ है, स्वानंद का गीत तो ऑल टाइम हिट गीत होने का दम रखता है. ये संगीत प्रयोगात्मक है मगर इसका निशाना एकदम सटीक है. संगीत प्रेमियों के लिए एक सुरीला तोहफा....जरूर खरीदें.

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # १६- 'स्ट्राइकर' फ़िल्म में जिन ६ गीतकारों और ६ संगीतकारों ने काम किया है, उनमें से किन किन को हमने आज शामिल नहीं किया है?
TST ट्रिविया # १७ "कोई लाख करे चतुराई", "कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो", "के आजा तेरी याद आई" जैसे गीतों का ज़िक्र 'स्ट्राइकर' के किसी गीत के साथ कैसे की जा सकती है?
TST ट्रिविया # १८ सोनू निगम ने स्वानंद किरकिरे का लिखा और शांतनु मोइत्र का स्वरबद्ध किया एक गीत गाया था जिसमें कोई छंद नहीं था। बिना छंद का गाना था वह। बताइए वह कौन सा गाना था?


TST ट्रिविया में अब तक -
सभी जवाब आ गए, सीमा जी को बधाई, अनाम जी आप अपने सुझाव सकारात्मक रूप से भी हमें बता सकते हैं, वैसे इस शृंखला का उद्देश्य नए गीतों को सुनना और उन पर समीक्षात्मक चर्चा करना है.

Sunday, February 7, 2010

नि मैं यार मानना नि चाहें लोग बोलियां बोले...जब मिलाये मीनू पुरषोत्तम ने लता के साथ ताल से ताल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 338/2010/38

फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' की आठवीं कड़ी में आज एक ऐसी गायिका का ज़िक्र जिन्होने कमल बारोट की तरह दूसरी गायिका के रूप में लता मंगेशकर और आशा भोसले के साथ कई हिट गीत गाईं हैं। मिट्टी की सौंधी सौंधी महक वाली आवाज़ की धनी मीनू पुरुषोत्तम का ज़िक्र आज की कड़ी में। युं तो मीनू पुरुषोत्तम ने बहुत सारे कम बजट की फ़िल्मों में एकल गीत गाईं हैं, लेकिन उनके जो चर्चित गानें हैं वह दूसरी गायिकाओं के साथ गाए उनके युगल गीत ही हैं। जैसे कि लता जी के साथ फ़िल्म 'दाग़' का थिरकता गीत "नि मैं यार मनाना नी, चाहे लोग बोलियाँ बोले", आशा जी के साथ 'ये रात फिर ना आएगी' का "हुज़ूर-ए-वाला जो हो इजाज़त", सुमन कल्य़ाणपुर के साथ गाया फ़िल्म 'ताजमहल' का गीत "ना ना ना रे ना ना, हाथ ना लगाना" (जिसे हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बजा चुके हैं), परवीन सुल्ताना के साथ गाया फ़िल्म 'दो बूंद पानी' का गीत "पीतल की मेरी गागरी" आदि। मीनू जी के गाए ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लें भी काफ़ी मशहूर हैं। मीनू पुरुषोत्तम का जन्म २४ नवंबर १९४४ को पंजाब के पटियाला में एक कृषक परिवार में हुआ था। बचपन से ही संगीत में दिलचस्पी होने के कारण उन्होने शास्त्रीय संगीत की तालीम हासिल की सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक और गुरु पंडित लक्ष्मण प्रसाद जयपुरवाले से। मीनू जी बम्बई आकर संगीत में विशारद, यानी की स्नातक की उपाधी प्राप्त की। जहाँ तक फ़िल्मी दुनिया में क़दम रखने की बात है, तो उन्हे केवल १६ वर्ष की आयु में ही इस क्षेत्र में क़दम रखने का मौका मिला, जब संगीतकार रवि ने पहली बार उन्हे अपनी फ़िल्म 'चायना टाउन' में रफ़ी साहब के साथ एक डुएट गाने का मौका दिया। १९६२ की इस फ़िल्म का वह गीत था "देखो जी एक बाला जोगी मतवाला"। यहीं से शुरुआत हुई मीनू पुरुषोत्तम के फ़िल्मी गायन की। फिर उसके बाद तो कई संगीतकारों ने उनसे गानें गवाए जिनमें कई बड़े नाम शामिल हैं जैसे कि रोशन, मदन मोहन, ओ. पी. नय्यर, जयदेव, और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल प्रमुख।

मीनू पुरुषोत्तम स्टेज पर बेहद सक्रीय रहीं हैं। देश और विदेश में बराबर उन्होने शोज़ किए हैं नामी गायकों के साथ, जिनमें शामिल हैं मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत महमूद और महेन्द्र कपूर। ग़ज़ल और भजन गायकी में अपना एक अलग मुक़ाम हासिल करते हुए उनके कई एल. पी रिकार्ड्स बनें हैं जिनमें शामिल हैं, 'रंज में राहत', 'रहगुज़र', 'ओ सलौने सांवरिया', 'भक्ति रस', 'कृष्ण रास', 'दशावतार', 'गुजराती वैष्णव भजन', 'मनमन्दिर में साईं', और 'जागो जागो माँ जवालपा'। हिंदी और अपनी मातृभाषा पंजाबी के अलावा मीनू जी ने मराठी, बंगला, भोजपुरी, सिंधी जैसी भाषाओं में भी बहुत से गानें गाएं हैं। आज के लिए हमने चुना है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में १९७० की फ़िल्म 'दाग़' का वही सुपरहिट पंजाबी लोक रंग में रंगा गीत जिसे मीनू जी ने लता जी के साथ मिलकर गाया था, "नि मैं यार मनाना नी"। पंजाब की धरती में जन्मीं मीनू जी ने इस गीत में भी वही पंजाबी ख़ास लोक शैली का रंग भरा है अपनी आवाज़ से कि इसे सुनते हुए हम उसी रंगीले पंजाब के किसी गाँव में पहुँच जाते हैं। अगर आप इसे मेरी छोटी मुंह और बड़ी बात ना समझें तो मैं यह कहना चाहूँगा कि इस गीत में मीनू पुरुषोत्तम ने लता जी के साथ बराबर की टक्कर ली थी। एक तरफ़ लता जी की पतली मधुर आवाज़ और दूसरी तरफ़ मीनू जी की इस मिट्टी से जुड़ी लोक संगीत वाली आवाज़, कुल मिलाकर ऐसा कॊन्ट्रस्ट पैदा हुआ कि गीत में एक अलग ही चमक आ गई है। इस गीत को सुनते हुए आपके क़दम थिरके बग़ैर नहीं रह पाएँगे। तो आइए अब इस गीत का आनंद उठाते हैं, फ़िल्म 'दाग़' के बारे में हम आपको फिर किसी दिन तफ़सील से बताएँगे!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

लिए हाथ में एक फूल गुलाब,
आएगा वो सपनों का राजकुमार,
कौन नहीं यहाँ उसका तलबगार,
बेकार नहीं दिल इतना बेकरार...

अतिरिक्त सूत्र- शैलेन्द्र ने लिखा है इस सरल मगर खूबसूरत गीत को

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी "सेज" की जगह पर "सूनी" बोल्ड हो गया :), पर एकदम सही जवाब...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

ताजा कहानी-पॉडकास्ट

ताज़ा पॉडकास्ट कवि सम्मेलन