Saturday, September 25, 2010

ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने - लता विशेषांक



'ओल्ड इज़ गोल्ड' शनिवार विशेष में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। इन दिनों इस साप्ताहिक स्तंभ में हम लेकर आ रहे हैं आप ही के ईमेलों पर आधारित 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। जैसा कि आप सब जानते ही हैं कि २८ सितंबर को सुर कोकिला लता मंगेशकर का जन्मदिन है। लता जी को जनमदिन की बधाई और शुभकामना स्वरूप आज के इस अंक के लिए हम लेकर आये हैं एक विशेष प्रस्तुति जिसे हमने तैयार किया है हमारे दो साथियों के ईमेलों के आधार पर। और ये दो साथी हैं हमारी प्यारी गुड्डो दादी, और हमारी एक नई दोस्त अनीता निहालानी, जो ईमेल के माध्यम से कुछ ही दिन पहले हमसे जुड़ी हैं।

तो आइए सब से पहले पढ़ें कि गुड्डो दादी का क्या कहना है लता जी के बारे में।

सुजॉय बेटा

चिरंजीव भवः

सुर-साम्राज्ञी, भारत की बगिया की कोकिला, लता जी को जन्मदिवस की शुभ मंगल कामनाएँ। १९४७ में संगीतकार पंडित हुस्नलाल जी के घर मिली थी परिवार के साथ। फिर लता जी को शायद १९९० में शिकागो में मिली थी, दो मिनट ही बात हो सकी। सफ़ेद साड़ी लाल बोर्डर के सादे परिधान में बहुत ही सुंदर लग रही थी। स्वर साधना की देवी से मैंने यही पूछा की आप जूते पहन के स्टेज पर क्यों नहीं जातीं, तो यही बोली कि संगीत को नमस्कार मान सम्मान है और मेरे मुख से यही निकला की आपके गीतों का जादू सर पर चढ़ कर गूंजता है, बोलता है, तो मुस्करा दीं। दादी को इतना ही याद है। लता जी का एक गीत फ़िल्म 'महल' का "आएगा आनेवाला" प्रतिदिन सुनती हूँ।

आशीर्वाद के साथ
आपकी गुड्डोदादी
चिकागो से

तो दादी, क्योंकि फ़िल्म 'महल' का यह गीत अभी तक हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शामिल नहीं किया है, तो आइए आज आप की इस मनपसंद गीत को यहाँ सुना जाए। जे. नक्शब के बोल और खेमचंद प्रकाश का संगीत।

गीत - आयेगा आनेवाला (महल)


और अब हम आते हैं अनीता निहालानी जी के ईमेलों पर। जी हाँ, इनके दो ईमेल हमें मिले हैं। एक में इन्होंने लता जी पर एक बहुत ही सुंदर कविता लिख कर भेजी हैं, और दूसरे में लता जी के गाये एक गीत से जुड़ी अपनी यादों को लिख भेज है। तो आइए पहले अनीता जी की लिखी कविता का आनंद लिया जाए।


अनीता जी के साथ साथ हम सभी लता जी को जनमदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं। और आइए अब पढ़ें अनीता जी का दूसरा ईमेल।

सुजोय जी,

लता जी के गीत सुनकर हम बड़े हुए, उन दिनों रेडियो पर दिन-रात उनके गीत बजा करते थे, उन्हें जन्म दिन पर बधाई दे सकूं यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। २५ सितम्बर का मुझे इंतजार रहेगा।

अब रही यादों की बात....तो बात लगभग २६-२७ साल पुरानी है। उस दिन आकाश में मेघ छाए थे, अत्यंत शीतल पवन बह रहा था। मेरे विवाह की बात चल रही थी, खबर आयी भावी पतिदेव को एक साल की ट्रेनिंग के लिये असम जाना है, उससे पहले वे लोग मंगनी की रस्म कर लेना चाहते हैं। जुलाई का महीना था, उन्हें सुबह किसी वक्त पहुंचना था, मैंने हल्के पीले रंग की साड़ी पहनी थी, घर के बांयी और छोटी सी बगीची थी, पुष्प सज्जा के लिये फूल लेने गयीं तभी हवा और तेज हो गयीं, साड़ी का आंचल लहराता हुआ पेड़ की टहनी में अटक गया, हाथ में एक बांस की टोकरी थी, नीचे पानी था, वर्षा बस थमी भर थी। मन में उत्सुकता थी, सब का असर यह हुआ की मैं गिरने ही वाली थी, यह सब कुछ ही पलों में घटा था, तभी भीतर ट्रांजिस्टर पर यह गीत बज उठा "पल भर में यह क्या हो गया...", मैं खुद को सम्भालूँ, इसके पूर्व ही देखा कि मेरे भावी पतिदेव अपने माता-पिता के साथ प्रवेश कर रहे हैं, मैंने घबराते हुए साड़ी का पल्लू छुडाने का प्रयास किया कि टोकरी से फूल नीचे गिर गए, तभी उन्होंने आकर फूल उठाये और मुझे अंदर ले गए, गीत बज रहा था... मैं वह गयीं वह दिल गया....प्यार से तुम बुलाना....आज इतने वर्षों बाद भी जब यह गीत बजता है वह बारिश, हवा और फूल मुझे सिहरा जाते हैं...

अनिता


वाह अनीता जी, सचमुच कुछ गीत हमारे जीवन के साथ ऐसे जुड़ जाते हैं कि फिर जब भी ये गीत कहीं से सुनाई दे जाए तो जैसे एक सिहरन सी दौड़ जाती है तन मन में। आइए आप के इस पसंदीदा गीत का आनंद लें लता जी की आवाज़ में, फ़िल्म 'स्वामी', गीतकार अमित खन्ना और संगीतकार राजेश रोशन।

गीत - पल भर में यह क्या हो गया (स्वामी)


तो ये था इस सप्ताह का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' जिसे हमने प्रस्तुत किया लता जी को उनके जनमदिन की बधाई स्वरूप। इस अंक के लिए हम ख़ास तौर से गुड्डो दादी और अनीता निहालानी जी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं जिन्होंने िस अंक के लिए हमें अपना सहयोग दिया। तो अब आज के लिए इजाज़त दीजिए, कल फिर मुलाक़ात होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमीत अंक में। ज़रूर पधारिएगा, नमस्कार!

कृश्न चन्दर - एक गधा नेफा में



सुनो कहानी: एक गधा नेफा में - कृश्न चन्दर

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में भीष्म साहनी की एक कथा गुलेलबाज़ लड़का का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी" का अंतिम भाग, जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 56 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

एक गधे की वापसी के अंश पढने के लिये कृपया नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करें
एक गधे की वापसी - प्रथम भाग
एक गधे की वापसी - द्वितीय भाग
एक गधे की वापसी - तृतीय भाग

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं
~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

रुस्तम सेठ मुझसे बहुत खुश हुए और खुश होकर मुझे जान से मारने की सोचने लगे।
( "एक गधा नेफा में" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#One hundred fourth Story, Ek Gadhe Ki Vapasi: Folklore/Hindi Audio Book/2010/36. Voice: Anurag Sharma

Thursday, September 23, 2010

हुए हैं मजबूर होके अपनों से दूर....लता के दस दुर्लभ गीतों की लड़ी का अंतिम नजराना



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 490/2010/190

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस सप्ताह की यह आख़िरी नियमित महफ़िल है और आज समापन भी है इन दिनों चल रही लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस' का। इस शृंखला में पिछले नौ दिनों से आपने कुल नौ बेहद दुर्लभ गानें सुनें लता जी के गायन करीयर के शुरुआती सालों के। हमने सफ़र शुरु किया था १९४८ के फ़िल्म के गीत से और आज हब यह शृंखला ख़त्म हो रही है तो हम केवल १९५१ तक ही पहुँच सके हैं। इसी से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लता जी के गाए असंख्य लोकप्रिय गीतों के अलावा भी न जाने कितने ऐसे भूले बिसरे गानें हैं जिनका भी कोई अंत नहीं। शायद इस तरह की कई शृंखलाएँ हमें आगे भी चलानी पड़ेगी, तब भी शायद उतने ही गानें शेष बचे रहेंगे। आज इस शृंखला का समापन हम करने जा रहे हैं १९५१ की फ़िल्म 'प्यार की बातें' के गीत से जिसके बोल हैं "हुए हैं मजबूर होके अपनों से दूर"। तड़पती हुई नरगिस अपने नायक के लिए गाती हैं यह बेमिसाल गीत। आपको बता दें कि 'नरगिस आर्ट कंसर्न' के बैनर तले बनी इस फ़िल्म के निर्देशक थे अख़्तर हुसैन और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे त्रिलोक कपूर, नरगिस, मारुती, ख़ुर्शीद, कुक्कू, नीलम, नासिर, रशीद और नज़ीर। फ़िल्म में संगीत दिया बुलो सी. रानी ने, लेकिन उपलब्ध जानकारी के अनुसार चोला शामजी का भी नाम है बुलो सी. रानी के साथ में। 'प्यार की बातें' का सिर्फ़ यही गीत नहीं, बल्कि इस फ़िल्म के सभी गीत बेहद अनमोल हैं। आशा भोसले, जी. एम. दुर्रानी, चुन्नीलाल परदेसी, गीता रॊय, मुकेश, और शम्शाद बेग़म जैसी आवाज़ें भी शामिल हैं इस फ़िल्म के साउण्डट्रैक में, और इस फ़िल्म के तमाम गीतों को लिखा है ख़वर जमा, मुनव्वर खन्ना, बेहज़ाद लख़नवी, और मजरूह सुल्तानपुरी ने। आज का प्रस्तुत गीत ख़वर जमा का लिखा हुआ है।

दोस्तों, क्या आपने इससे पहले कभी गीतकार ख़वर जमा का नाम सुना है? ये एक बेहद कमचर्चित गीतकार रहे हैं जिन्हें छोटी बजट की फ़िल्मों में ही गीत लिखने के मौक़े नसीब हुए। उपलब्ध जानकारी के अनुसार जिन फ़िल्मों में इन्होंने गीत लिखे, उनमें शामिल हैं 'प्यार की बातें', 'ख़ूनी ख़ज़ाना', 'फ़रमाइश', '10'O Clock', 'दरोगा जी', 'मेहरबानी', 'पठान' आदि। ख़वर जमा ने कई ग़ैर फ़िल्मी रचनाएँ भी लिखी। बुलो सी. रानी के अलावा जिस संगीतकार के साथ उनकी अच्छी ट्युनिंग् जमी थी, कम वक़्त के लिए ही सही, वो थे हाफ़िज़ ख़ान, यानी कि ख़ान मस्ताना। हाफ़िज़ ख़ान ने शेवन रिज़्वी, ख़ुमार बाराबंकवी, अंजुम पीलीभीती, शेवन दमन के साथ साथ ख़वर जमा के साथ भी अच्छा काम किया। 'फ़रमाइश' में इन्होंने पंडित हुस्नलाल भगतराम के साथ काम किया। फ़िल्म 'पठान' में जिम्मी का संगीत था जिसमें तलत महमूद साहब के गाए गानें मशहूर हुए थे। तो दोस्तों, आइए सुना जाए आज का गीत। और इसी के साथ 'लता के दुर्लभ दस' शृंखला समाप्त होती है। और इस शृंखला को समाप्त करते हुए हम कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं श्री अजय देशपाण्डेय का जिन्होंने अपने ख़ज़ाने से इन दस मोतियों को चुन कर हमें भेजा जिससे हम इस ख़ास पेशकश की योजना बना सके। आपको यह शृंखला कैसी लगी हमें ज़रूर लिखिएगा और भविष्य में भी क्या आप इस तरह के दुर्लभ गानें सुनना पसंद करेंगे, इस बारे में भी अपने विचार और सुझाव हमें लिखिएगा। शनिवार 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में फ़िल्म हाज़िर होंगे। तो पधारिएगा ज़रूर शनिवार की शाम भारतीय समयानुसार ठीक ६:३० बजे। तब तक के लिए दीजिए इजाज़त। टिप्पणी और ईमेल पते oig@hindyugm.com के माध्यम से अपने विचार हम तक युंही पहूँचाते रहिएगा। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि बुलो सी. रानी ने २४ मई १९९३ को आत्महत्या के द्वारा अपनी जीवल लीला समाप्त कर दी थी।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. शृंगार रस से लवरेज़ इस गीत में प्यार से शृंगार करने की बात कही गई है। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।
२. मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा गीत है, संगीतकार बताएँ। ३ अंक।
३. गायिका वोही हैं जिनकी आवाज़ एक आदर्श भारतीय नारी की आवाज़ है और ऐसे में शृंगार रस के गानें भला और किनकी आवाज़ में इससे बेहतर लग सकते हैं? गायिका बताएँ। १ अंक।
४. फ़िल्म का शीर्षक वही है जिस नाम से बाद में भी एक फ़िल्म बनीं है और उस फ़िल्म में कुमार सानू की आवाज़ में एक गीत था जिसके मुखड़े में "ज़िंदगी" और "मौत" शब्दों का इस्तेमाल हुआ है। आपको बताना है शृंगार रस वाले गीत के बोल। २ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी मात्र एक अंक दूर हैं अब आप. प्रतिभा जी, किशोर जी और नवीन जी बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, September 22, 2010

श्याम मुरली मनोहर बजाओ....लता के स्वरों में पंडित नरेंद्र शर्मा का लिखा ये भजन आज लगभग भुला सा दिया गया है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 489/2010/189

ता मंगेशकर के गाए दुर्लभ गीतों की इस शृंखला में आज के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह है १९५१ की फ़िल्म 'नंदकिशोर' का। यह एक धार्मिक फ़िल्म थी और धार्मिक फ़िल्मों के गानें अगर भूले बिसरे बन जाएँ तो उसमें बहुत ज़्यादा हैरत की बात नहीं है। कुछ गिने चुने धार्मिक फ़िल्मों को अगर अलग रखें तो ज़्यादातर इस जौनर की फ़िल्में ही बॊक्स ऒफ़िस पर ठण्डी ही रही और इन फ़िल्मों के गानें भी ज़्यादा सुनाई नहीं दिए। 'नंद किशोर' भी एक ऐसी ही फ़िल्म है जिसमें युं तो बेहद सुरीली मीठे गानें थे, लेकिन अफ़सोस कि ये गानें सही तरीक़े से लोगों तक पहुँच ना सके। नलिनी जयवन्त, दुर्गा खोटे और सुमती गुप्ते अभिनीत इस फ़िल्म में संगीत था स्नेहल भाटकर का तथा शुद्ध हिंदी में ये गानें लिखे पंडित नरेन्द्र शर्मा ने। इस फ़िल्म से जो कृष्ण भजन आपको आज हम सुनवा रहे हैं, उसके बोल हैं "श्याम मुरली मनोहर बजाओ"। युं तो ४० के दशक में स्नेहल भाटकर को सामाजिक फ़िल्मों में संगीत देने का अवसर मिला था, लेकिन ५० के दशक के शुरुआत से ही माइथोलॊजिकल फ़िल्मों के लिए वो अनुबन्धित होते गए और सामाजिक कामयाब फ़िल्मों से वो दूर होते गए। 'नंदकिशोर' का सब से मशहूर गीत था लता का गाया हुआ "राधा के मन की मुरली का पुजारी"। "कल भोर भए हरि जाएँगे" और आज का प्रस्तुत गीत भी मधुर गीत रहे लेकिन इन्हें इतनी प्रसिद्धी नहीं मिली। लेकिन कभी कभी किसी कलाकार को याद रखने के लिए एक ही गीत काफ़ी होता है। और स्नेहल के करीयर में भी एक ऐसा गीत बना जिसने उन्हें अमर कर दिया। "कभी तन्हाइयों में युं हमारी याद आएगी" आज भी जब हम सुनते हैं तो इस विस्मृत संगीतकार की यादें ताज़ा हो जाती हैं, बल्कि इस गीत को सुनते हुए आज भी जैसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

दोस्तो, आइए आज पंडित नरेन्द्र शर्मा की बातें की जाए। डॊ. रामविलास वर्मा ने अपना एक लेख प्रकाशित किया था 'पंडित नरेन्द्र शर्मा स्मृति ग्रंथ' में, जिसमें उन्होंने शर्मा जी से अपनी एक भेंट का संस्मरण पेश किया था। उनसे उनकी फ़िल्मी यात्रा की शुरुआत के बारे में पूछने पर उन्होंने जवाब दिया था - "१९४३ के फ़रवरी माह में भगवती बाबू अचानक घर आए और बोले, 'देखो, हम तुमको बम्बई ले चलते हैं, फ़िल्मवालों ने बुलाया है गीत लेखन के लिए'। मैंने कहा 'भगवती बाबू, फ़िल्म के लिए गीत लेखन का अभ्यास तो हमें हैं नहीं, बिल्कुल भी नहीं और फिर फ़िल्म वालों से परिचय भी तो नहीं है। भगवती बाबू ने उत्तर दिया - हम भी तो वहाँ हैं, चिन्ता क्यों करते हो, चलो। उनके साथ बम्बई रवाना हुआ। इलाहाबाद से बम्बई की यात्रा में मैंने पूर्वाभ्यास के रोप में एक गीत लिखने की कोशिश की। यह सुन रखा था यहाँ गीत उर्दू में भी लिखना होता है। उर्दू का अभ्यास तो मुझे था ही क्योंकि उ.प्र. में उन दिनों उर्दू दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जाती थी। जो गीत मैंने यात्रा के दौरान रचा, उसका मुखड़ा था - "ऐ बादे सबा, इठलाती न आ, मेरा गुंचा-ए-दिल तो सूख गया"। ख़ैर, बम्बई पहुँचे। बॊम्बे टाकीज़ संस्था की निर्देशिका थीं उस समय की विख्यात अभिनेत्री देविकारानी। मुझे याद है कि १७ फ़रवरी के अपरान्ह अर्थात् दोपहर बाद हम उनसे मिलने पहुँचे थे। भगवती बाबू साथ में थे। देविका जी से दो घण्टे चर्चा हुई। अन्त में उन्होंने पूछा - आप हमारे बुलावे पर इलाहाबाद से कब रवाना हुए? मैंने उत्तर दिया - १५ फ़रवरी को। इस पर उन्होंने यह कहकर मुझे आश्चर्यचकित कर दिया, 'तो १५ फ़रवरी से आपको बॊम्बे टाकीज़ में नियुक्ति पक्की'। तीन वर्ष हम वहाँ रहे।" तो दोस्तों, पंडित नरेन्द्र शर्मा के इन शब्दों के बाद आइए अब उन्ही का लिखा आज का गीत सुनते हैं फ़िल्म 'नंदकिशोर' से।



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार स्नेहल भाटकर के संगीत से सजी जो अंतिम हिंदी की दो फ़िल्में आई थीं, उनमें एक था १९८९ की फ़िल्म 'प्यासे नैन' और १९९४ की फ़िल्म 'सहमे हुए सिताए'।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस फ़िल्म के नायक वो हैं जिनकी जोड़ी निरुपा रॊय के साथ बहुत सारी माइथोलोजिकल फ़िल्मों में ख़ूब जमी थी। नायक का नाम बताएँ। २ अंक।
२. जिस बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण हुआ था, वह इस फ़िल्म की नायिका के नाम से ही है। नायिका का नाम बताएँ। २ अंक।
३. फ़िल्मी के शीर्षक में "प्यार" शब्द का इस्तेमाल है। फ़िल्म के संगीतकार का नाम बताएँ। ३ अंक।
४. गीत के मुखड़े में वह शब्द मौजूद है जो शीर्षक था उस फ़िल्म का जिसमें मास्टर ग़ुलाम हैदर ने लता से कुछ बेहद लोकप्रिय गीत गवाए थे। गीत का मुखड़ा बताइए। ३ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी अब बेहद करीब हैं, शायद एक जवाब दूर बस....अन्य सभी को भी बधाई, बेहद मुश्किल सवालों के भी तुरंत जवाब देकर आप सब ने साबित किया है कि आप लोग सच्चे संगीत प्रेमी हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, September 21, 2010

कहाँ तक हम उठाएँ ग़म....जब दर्द को नयी सदा दी लता जी ने अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 488/2010/188

गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के शैदाईयों और क़द्रदानों, इन दिनों आपकी ख़िदमत में हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पेश कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस'। अब तक आपने इस शृंखला में जितने भी गानें सुनें, उनकी फ़िल्में भी कमचर्चित रही, यानी कि बॊक्स ऒफ़िस पर असफल। लेकिन आज हम जिस फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं, वह एक मशहूर फ़िल्म है और इसके कुछ गानें तो बहुत लोकप्रिय भी हुए थे। १९५० की यह फ़िल्म थी 'आरज़ू'। जी हाँ, वही 'आरज़ू' जिसमें तलत महमूद साहब ने पहली पहली बार "ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल" गीत गा कर एक धमाकेदार पदार्पण किया था हिंदी फ़िल्म संगीत संसार में। लेखिका इस्मत चुगताई के पति शाहीद लतीफ़ ने इस फ़िल्म का निर्माण किया था जिसमें मुख्य भूमिकाओं में थे दिलीप कुमार और कामिनी कौशल। इस जोड़ी की यह अंतिम फ़िल्म थी। इस जोड़ी ने ४० के दशक में 'शहीद' और 'नदिया के पार' जैसी फ़िल्मों में कामयाब अभिनय किया था। 'आरज़ू' में संगीत अनिल बिस्वास का था, जिन्होंने इस फ़िल्म में ना केवल तलत महमूद को लौंच किया, बल्कि गायिका सुधा मल्होत्रा से भी उनका पहला पहला फ़िल्मी गीत गवाया था जिसके बोल थे "मिला गए नैन"। इस फ़िल्म में अनिल दा ने अपनी दूसरी फ़िल्मों की तरह ही लता मंगेशकर से बहुत से एकल गीत गवाए। इनमें शामिल हैं लोक धुनों पर आधारित "आई बहार जिया डोले मोरा जिया डोले रे" और "मेरा नरम करेजवा डोल गया"; इन हल्के फुल्के गीतों के अलावा कुछ संजीदे गानें भी थे जैसे "उन्हें हम तो दिल से भुलाने लगे, वो कुछ और भी याद आने लगे", "जाना ना दिल से दूर आँखों से दूर जाके" और "कहाँ तक हम उठाएँ ग़म, जिए अब या कि मर जाएँ"। इनमें से आज के लिए हमने चुना है "कहाँ तक हम उठाएँ ग़म"। क्या दर्द-ए-मौसिक़ी है, क्या अदायगी है, क्या पुर-असर बोल हैं! इस गीत की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। अब तक जितने भी गीत हमने सुनवाए हैं, हो सकता है कि उन्हें आपने पहले कभी नहीं सुना हो, लेकिन कम से कम इस गीत को तो आप में से बहुतों ने सुना होगा। हाँ, यह बात ज़रूर है कि आज यह गीत कहीं से सुनाई नहीं देता।

प्रेम धवन और मजरूह सुल्तानपुरी ने इस फ़िल्म के गानें लिखे थे, प्रस्तुत गीत मजरूह साहब का लिखा हुआ है। मजरूह साहब की यह तीसरी फ़िल्म थी। इस गीत की चर्चा में यह याद दिलाना ज़रूरी है कि साल १९४९ में, यानी इस 'आरज़ू' के ठीक एक साल पहले एक फ़िल्म 'अंदाज़' आई थी, उसमें लता जी के गाए कई गानें मशहूर हुए थे, और उनमें एक गीत था "उठाए जा उनके सितम और जिये जा"। और 'आरज़ू' के इस गीत में भी ग़म उठाने की ही बात की गई है। और इन दोनों गीतों के गीतकार मजरूह साहब ही थे। इसका मतलब यह है कि "उठाए जा उनके सितम" की अपार कामयाबी की वजह से ही हो सकता है कि फ़िल्म के निर्माता ने कुछ इसी तरह के एक और गीत की माँग की होगी मजरूह साहब और अनिल दा से। क्योंकि आज का गीत मजरूह साहब ने १९५० के आसपास लिखा होगा, इसलिए यहाँ पर हम आपको उनके विविध भारती पर कहे हुए वो बातें पेश कर रहे हैं जिसका नाता १९४५ से १९५२ के समय से है। आप ख़ुद ही पढ़िए मजरूह साहब के शब्दों में। "१९४५ से १९५२ के दरमियाँ की बात है। उस समय मैंने तरक्की पसंद अशार की शुरुआत की थी। मेरे उम्र के जानकार लोगों को यह मालूम होगा कि आज ऐसे अशार जो किसी और के नाम से लोग जानते हैं, वो तरक्की पसंद शायरी मैंने ही शुरुआत की थी। मैं एक बार अमेरिका और कनाडा गया था। वहाँ के कई युनिवर्सिटीज़ में मैं गया, मुझे इस बात की हैरानी हुई कि वहाँ के शायरी पसंद लोगों को मेरे अशार तो याद हैं, पर कोई फ़ैज़ के नाम से, तो कोई फ़रहाद के नाम से, मजरूह के नाम से नहीं।" तो लीजिए दोस्तों, सुनिए लता जी की आवाज़ में यह दर्द भरा गीत और महसूस कीजिए उनकी आवाज़ की मिठास को। वैसे भी दर्दीले गीत ज़्यादा मीठे लगते हैं!



क्या आप जानते हैं...
कि मजरूह सुल्तानपुरी को सन १९९४ में 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. फ़िल्म के नाम में दो शब्द हैं जिनमें से एक शब्द एक राग का नाम भी है और दूसरा शब्द एक मशहूर पार्श्व गायक का नाम। तो इन दोनों शब्दों को जोड़िए और बताइए फ़िल्म का नाम। ३ अंक।
२. यह एक कृष्ण भजन है। गीतकार बताएँ। ३ अंक।
३. संगीतकार वो हैं जिनके संगीत में एक गीत अभी हाल ही में आपने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुना है 'गीत अपना धुन पराई' शृंखला के अंतर्गत। कौन हैं ये संगीतकार? २ अंक।
४. गीत के मुखड़े का पहला शब्द है "श्याम"। फ़िल्म की नायिका का नाम बताएँ। २ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -


खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

खासी तिंग्या का खास अंदाज़ लिए तन्हा राहों में कुछ ढूँढने निकले हैं गुमशुदा बिक्रम घोष और राकेश तिवारी



ताज़ा सुर ताल ३६/२०१०


विश्व दीपक - 'ताज़ा सुर ताल' में आप सभी का फिर एक बार बहुत बहुत स्वागत है! पिछले हफ़्ते हमने एक ऒफ़बीट फ़िल्म 'माधोलाल कीप वाकिंग्‍' के गानें सुने थे, और आज भी हम एक ऒफ़बीट फ़िल्म लेकर हाज़िर हुए हैं। इस फ़िल्म के भी प्रोमो टीवी पर दिखाई नहीं दिए और कहीं से इसकी चर्चा सुनाई नहीं दी। यह फ़िल्म है 'गुमशुदा'।

सुजॊय - अपने शीर्षक की तरह ही यह फ़िल्म गुमशुदा-सी ही लगती है। सुना है कि यह एक मर्डर मिस्ट्री की कहानी पर बनी फ़िल्म है जिसका निर्माण किया है सुधीर डी. आहुजा ने और निर्देशक हैं अशोक विश्वनाथन। फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं रजत कपूर, विक्टर बनर्जी, सिमोन सिंह, राज ज़ुत्शी और प्रियांशु चटर्जी। फ़िल्म में संगीत है बिक्रम घोष का और गानें लिखे हैं राकेश त्रिपाठी ने।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, ये बिक्रम घोष कहीं वही बिक्रम घोष तो नहीं हैं जो एक नामचीन तबला वादक हैं और जिनका फ़्युज़न संगीत में भी दबदबा रहा है?

सुजॊय - जी हाँ, आपने बिल्कुल ठीक पहचाना, और आपको यह भी बता दूँ कि बिक्रम के पिता हैं पंडित शंकर घोष जो एक जानेमाने तबला वादक रहे हैं जिन्होंने उस्ताद अली अक़बर ख़ान और पंडित रविशंकर जैसे मैस्ट्रोस का संगत किया है।

विश्व दीपक - जहाँ तक फ़िल्मी करीयर का सवाल है, बिक्रम घोष का हिंदी फ़िल्मों में यह पदार्पण है, जबकि बांगला फ़िल्मों में वो संगीत दे चुके हैं।

सुजॊय - हाँ, उनके संगीत से सजी कुछ बांगला फ़िल्में हैं इति श्रीकांत (२००४), देवकी (२००५), नील राजार देशे (२००८), और पियालीर पासवर्ड (२००९)। साल २००९ में एक फ़िल्म बनी थी अंग्रेज़ी, हिंदी और गुजराती में 'लिटल ज़िज़ू' के नाम से जिसमें बिक्रम घोष ने गिउलियानो मोदारेली के साथ मिलकर संगीत दिया था। और आइए अब बातों को देते हैं विराम और सुनते हैं 'गुमशुदा' का पहला गीत सुनिधि चौहान की आवाज़ में।

गीत - तन्हा राहें


विश्व दीपक - "तन्हा राहें मेरी उलझी सी क्यों लगे, एक नया अरमाँ फिर भी दिल में जगे, ढूंढे नज़रें मेरी अंजानी मंज़िलें, साया भी क्यों मेरा अब फ़साना लगे"; क्योंकि यह एक मर्डर मिस्ट्री फ़िल्म है, इसलिए इस फ़िल्म के गीतों से हमें उसी तरह की उम्मीदें रखनी चाहिए। और इस पहले गीत में भी एक क़िस्म का सस्पेन्स छुपा सा लगता है, जैसे कोई राज़, कोई डर छुपा हुआ हो। सुनिधि की आवाज़ में यह गीत सुन कर फ़िल्म 'दीवानगी' के शीर्षक गीत की याद आ गई। "सपनों से कह दो अब मुझे ना ठगे", गीतकार राकेश तिवारी के इन बोलों में नई बात नज़र आई है।

सुजॊय - और गीत के संगीत संयोजन से भी सस्पेन्स टपक रहा है। साज़ों के इस्तेमाल में भी विविधता अपनाई गई है। परक्युशन से लेकर लातिनो कार्निवल म्युज़िक के नमूने सुने जा सकते हैं इस गीत में। गायकी के बारे में यही कह सकते हैं कि यह स्टाइल सुनिधि का मनचाहा स्टाइल है और इसलिए शायद इस गीत को गाना उनके लिए बायें हाथ का खेल रहा होगा। इस तरह के गानें उन्होंने शुरु से ही बहुत से गाए हैं, इसलिए गायकी के लिहाज़ से कोई नई बात नहीं है इसमें।

विश्व दीपक - आइए अब बढ़ते हैं दूसरे गीत की ओर, इस बार आवाज़ है सोनू निगम की। जब फ़िल्म का शीर्षक ही है 'गुमशुदा' तो इस फ़िल्म के किसी गीत में अगर ढूंढने की बात हो तो इसमें हैरत वाली कोई बात नहीं, है न? इस गीत के बोल हैं "ढूंढो, गली गली डगर डगर नगर नगर शहर शहर अरे ढूंढो, हर सफ़र दर बदर आठों पहर शाम-ओ-सहर अरे ढूंढो"।

गीत - ढूंढो


सुजॊय - इस गीत में अगर ढूंढ़ने जाएँ तो बिक्रम घोष का ज़बरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन मिलता है। वैसे गीत का जो बेसिक ट्युन है वह सीधा सादा सा है, एल्किन अरेंजमेण्ट में हेवी ऒरकेस्ट्रेशन का प्रयोग हुआ है। भारतीय और विदेशी साज़ों का अच्छा फ़्युज़न हुआ है। कुछ कुछ क़व्वली शैली का भी सहारा लिया गया है। कहीं कहीं हार्ड रॊक शैली का भी असर मिलता है।

विश्व दीपक - गीतकार राकेश तिवारी की बात करें तो वो एक कोलकाता बेस्ड स्क्रीनप्ले राइटर, संवाद लेखक, गीतकार और निर्देशक हैं। १४ नवंबर १९७० को कोलकाता में जन्में राकेश ने मुंबई मायानगरी की तरफ़ रूख किया साल २००० में। निम्बस टेलीविज़न के साथ उन्होंने काम करना शुरु किया और एशियन स्काइशॊप के लिए बहुत से विज्ञापन लिखे। लेकिन २००२ में वो कोलकाता वापस आ गए और यहीं पर काम करना शुरु कर दिया। राकेश तिवारी करीब १० टीवी धारावाहिक लिख चुके हैं और फ़िल्मों के लिए १६० से उपर गीत लिख चुके हैं। उन्होंने एक बंगला फ़िल्म 'बोनोभूमि' में एक हिंदी गीत भी लिखा है जो फ़िल्म का एकमात्र ऒरिजिनल गीत है।

सुजॊय - 'गुमशुदा' फ़िल्म में कुल ६ गीत हैं और हर गीत एक एकल गीत है और हर गीत में अलग आवाज़ है। सुनिधि चौहान और सोनू निगम के बाद अब इस गीत में आवाज़ जून बनर्जी की है।

गीत - किसने पहचाना


विश्व दीपक - स्पैनिश प्रभाव का एक और उदाहरण था यह गीत, जिसमें अकोस्टिक स्पैनिश लूप पूरे गीत में छाया हुआ है। "किसने पहचाना खेल मन का अंजाना", इस गीत में भी वही सस्पेन्स, वही अद्‍भुत रस! अब तो भई एक जैसा लगने लगा है। "तन्हा राहें" गीत का ही एक्स्टेंशन लगा यह गीत। बस ऒरकेस्ट्र्शन में थोड़ा हेर फेर है।

सुजॊय - इस गीत की गायिका जून बनर्जी एक उभरती गायिका हैं। बांगला फ़िल्मों में उन्होंने कई गीत गाए हैं। हिंदी फ़िल्मों की बात करें तो जून ने २००९ में 'रात गई बात गई' में अनुराग शर्मा के साथ एक युगल गीत गाया था, उससे पहले 'गांधी माइ फ़ादर' में भी उनकी आवाज़ सुनाई दी थी। २००७ में शंकर अहसान लॊय के संगीत में जून बनर्जी ने शंकर महादेवन और विशाल दादलानी के साथ मिलकर 'हाइ स्कूल म्युज़िकल-२' में "उड़ चले" गीत गाया था।

विश्व दीपक - और अब चौथा गीत और चौथी आवाज़, रोनिता डे की, बोल "चुप था पानी चुप थी लहर, एक हवा का झोंका, उठ गया है भँवर"।

गीत - चुप था पानी


सुजॊय - इस गीत में भी वही सपेन्स और डर छुपा है, "गहरा घना दलदल, धंस गया है कमल, कौन किसको रोके, कहदे रुक जा संभल, आनेवाले कल में बीता कल क्यों मिले, ख़्वाबों के रंगों में क्यों ख्वाहिशें घुले"। इस गीत में कोरस का गाया "उंगली पकड़ के मीर मौला रस्ता बता दे मेरे मौला" सुनने में अच्छा लगता है।

विश्व दीपक - अगर आपको इससे पहले के दो गीत ज़्यादा नहीं भाये हों तो इस गीत में बिक्रम घोष ने पूरी कोशिश की है कि उन गीतों की ख़ामियों को पूरा कर दे। अच्छा कॊम्पोज़िशन है और रोनिता डे ने अच्छा निभाया है इसको। और इस गीत में भी परक्युशन का इस्तेमाल सुनाई देता है।

सुजॊय - अब एक रॊक नंबर रुपंकर की आवाज़ में। जी हाँ, वही रुपंकर जो आज बंगाल के एक जाने माने और कामयाब गायक हैं। इनका पूरा नाम है रुपंकर बागची। बंगाल में इनके गाए बांगला गीतों के हज़ारों लाखों चाहने वाले हैं। उनके गाए ग़ैर-फ़िल्मी ऐल्बम्स, फ़िल्मी गीत और विज्ञापन जिंगल्स घर घर गूंज रहे हैं बंगाल में। उन्हें कई पुरस्कारों से भी नवाज़ा जा चुका है। टीवी धारावाहिक 'शोनार होरिन' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ टाइटल गीत का 'टेलीसम्मान' ख़िताब मिला, तो फ़िल्म 'अंदरमहल' के लिए सर्बश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार मिला मशहूर मीडिया ग्रूप 'आनंद बज़ार पत्रिका' से।उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का भी पुरस्कार मिल चुका है और कई बार सर्वश्रेष्ठ ऐल्बम के पुरस्कार से भी नवाज़े जा चुके हैं। उनके गाये रोमांटिक गानें तो जैसे आज के बांगला युवाओं के दिलों की धड़कन बन गये है।

विश्व दीपक - आज के दौर के रॊक शैली के गायकों में सूरज जगन का नाम इन दिनों सब से उपर चल रहा है। और इस गीत में भी रुपंकर का अंदाज़ सूरज जगन से मिलता जुलता सुनाई दे रहा है। लीजिए आप भी सुनिए।

गीत - इसमे है चमक इसमें है नशा


विश्व दीपक - और अब फ़िल्म का छठा और अंतिम गीत, जिसे गाया है दोहर ने। यह शायद इस ऐल्बम का सब से अनोखा गीत है क्योंकि इसके बोल हिंदी के नहीं बल्कि उत्तरी-पूर्वी भारत के किसी राज्य का है। गीत के बोल हैं "खासी तिंग्या"। भले ही गीत के बोल समझ में ना आते हों लेकिन इस लोक धुन में वही पहाड़ों वाला आकर्षण है जो अपनी तरह खींचता है और इस गीत को सुनते हुए जैसे हम उत्तर-पूर्व में पहुँच जाते हैं।

सुजॊय - वाक़ई इस तरह का संगीत किसी हिंदी फ़िल्म में पहले कभी सुनने को नहीं मिला है। क्योंकि मैं ख़ुद उत्तरपूर्वी भारत में एक लम्बे अरसे तक रह चुका हूँ, शायद इसीलिए यह भाषा बहुत ही जानी-पहचानी-सी लग रही है। लेकिन बात ऐसी है कि उत्तरपूर्व भारत में इतनी सारी जनजातियाँ हैं और सबकी अलग अलग भाषाएँ हैं कि किसी एक भाषा को अलग से पहचान पाना आसान नहीं। मुझे जितना लग रहा है कि यह खासी भाषा है जो मेघालय की एक जनजाति है। लेकिन मैं पक्का कह नहीं सकता। गीत कुछ इस तरह का है "ahai klimnoe khasi tingya, ahai klimnoe khasi tingya, kilma savay kilm thungya, kilma savay kilm thungya"। आइए सुनते हैं, बड़ा मीठा सा गाना है, और क्यों ना हो, लोक गीत होते ही मीठे हैं चाहे किसी भी अंचल के क्यों ना हों!

गीत - खासी तिंग्या


सुजॊय - 'गुमशुदा' फ़िल्म के गानों के बारे में यही कहूँगा कि सभी गानें सिचुएशनल है, फ़िल्म को देखते हुए शायद इनका असर पता चलेगा। सिर्फ़ अगर बोल और संगीत की बात है तो "चुप था पानी" और "खासी तिंग्या" मुझे अच्छे लगे। मेरी तरफ़ से ३ की रेटिंग।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, इस एलबम पर कोई भी टिप्पणी करने से पहले मैं आपको धन्यवाद देना चाहूँगा क्योंकि आपकी बदौलत हीं हम इन ऑफबीट फिल्मों के गीतों से रूबरू हो पा रहे हैं, नहीं तो आज के समय में कोई भी समीक्षक इन फिल्मों पर अपनी नज़र या अपनी कलम नहीं दौड़ाता या फिर अगर दौड़ाता भी है तो इन फिल्मों (और इनके गीतों) को सिरे से निरस्थ कर देता है। हम बस यही मानकर चलते हैं कि अच्छा संगीत तो बड़े संगीतकारों की झोली से हीं निकल सकता है और इस गलत सोच के कारण बिक्रम घोष जैसे संगीतकार नेपथ्य में हीं रह जाते हैं। मैं आवाज़ के सारे श्रोताओं से यह दरख्वास्त करता हूँ कि अगर आप "गुमशुदा" के गाने सुनने के मूड में नहीं हैं(थे), फिर भी आज के "ताज़ा सुर ताल" में शामिल किए गए इन गानों को एक मर्तबा जरूर सुन लें, उसके बाद निर्णय पूर्णत: आपका होगा कि आगे इन गानों को सुनना है भी या नहीं। जैसा कि सुजॉय जी ने कहा कि संगीतकार ने हिन्दी फिल्मों में अच्छा पदार्पण करने की पूरी कोशिश की है, अब भले हीं इस कोशिश में थोड़ा दुहराव आ गया है, लेकिन इस कोशिश को सराहा जाना चाहिए। सुजॉय जी की रेटिंग को सम्मान देते हुए मैं आज की समीक्षा के समापन की घोषणा करता हूँ। अगली बार एक बड़ा हीं खास एलबम होगा, मेरे सबसे पसंदीदा संगीतकार का... इंतज़ार कीजिएगा।

आवाज़ रेटिंग्स: गुमशुदा: ***

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # १०६- फ़िल्म 'लिटल ज़िज़ू' को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की किस श्रेणी के तहत पुरस्कृत किया गया था?

TST ट्रिविया # १०७- आज जब मेघालय के खासी लोक संगीत का ज़िक चला है तो बताइए कि वह कौन सी लोरी थी अनिल बिस्वास की स्वरबद्ध की हुई जिसमें उन्होंने खासी लोक धुन का इस्तमाल किया था?

TST ट्रिविया # १०८- निर्देशक अशोक विश्वनाथन को कितनी बार नैशनल अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है?


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. फ़िल्म - सूरजमुखी, गायिका - अर्पिता साहा
२. अल्ताफ़ राजा
३. फ़िल्म 'हिना' की क़व्वाली "देर ना हो जाए कहीं"

Monday, September 20, 2010

रसिया पवन झकोरे आये....लीजिए सुनिए एक और दुर्लभ गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 487/2010/187

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और सुहानी शाम में हम आप सभी का स्वागत करते हैं। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीतों से सजी लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस', जिसके लिए इन गीतों को चुन कर हमें भेजा है नागपुर के श्री अजय देशपाण्डेय ने। हम एक के बाद एक कुल पाँच ऐसे गानें इन दिनों आपको सुनवा रहे हैं जो साल १९५० में जारी हुए थे। तीन गीत हम सुनवा चुके हैं, आज है चौथे गीत की बारी। १९५० में एक फ़िल्म आई थी 'चोर'। सिंह आर्ट्स के बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण हुआ था, और जिसका निर्देशन किया था ए. पी. कपूर ने। यह एक लो बजट फ़िल्म थी जिसमें मुख्य भूमिकाएँ अदा किए मीरा मिश्रा, कृष्णकांत, अल्कारानी, संकटप्रसाद और सोना चटर्जी ने। फ़िल्म में संगीत दिया पंडित गोबिन्दराम ने। इस फ़िल्म से जिस गीत को हम सुनवा रहे हैं उसके बोल हैं "रसिया पवन झकोरे आएँ, जल थल झूमे, नाचे गाएँ, मन है ख़ुशी मनाएँ"। इस गीत को लिखा है गीतकार विनोद कपूर ने। १९४७ से लेकर १९५१ के बीच, यानी कि लता जी के करीयर के शुरुआती सालों में जिन संगीतकारों की मुख्य भूमिका रही, उनमें अक्सर हम अनिल बिस्वास, मास्टर ग़ुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, नौशाद और शंकर जयकिशन के नाम लेते हैं। लेकिन पंडित गोबिंदराम को लोगों ने भुला दिया है जिन्होंने इसी दौरान लता जी से कुछ बेहद मीठी सुरीली रचनाएँ गवाए हैं। यह बेहद अफ़सोस की बात है कि आज ये तमाम अनमोल गानें कहीं से भी सुनने को नहीं मिलते।

दोस्तों, आज के इस अंक के लिए शोध करते हुए जब मैं अपनी लाइब्रेरी में कुछ बहुत पुराने प्रकाशनों पर नज़र दौड़ा रहा था कि इस फ़िल्म के बारे में या पंडित गोबिंदराम के बारे में, या इसके गीतकार विनोद कपूर के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर के आपके साथ बाँट सकूँ, तभी मेरी नज़र पड़ी 'लिस्नर्स बुलेटिन' की १९७९ के नवंबर में प्रकाशित अंक पर जिसमें ना केवल गोबिन्दराम जी पर लेख प्रकाशित हुआ था, बल्कि उस लेख का विषय ही था संगीतकार पंडित गोबिन्दराम द्वारा कोकिल कंठी लत्ता मंगेशकर से गवाए गीतों की चर्चा। दोस्तों, इससे बेहतर भला और क्या हो सकता है कि आज लता जी पर केन्द्रित शृंखला में गोबिन्दराम जी के स्वरबद्ध गीत सुनते हुए हम उसी लेख का भी आनंद लें। उस लेख को लिखा था श्री राकेश प्रताप सिंह ने। राकेश जी लिखते हैं - १९४९ में पं गोबिन्दराम ने ४ फ़िल्मों में संगीत दिया - भोली, दिल की दुनिया, माँ का प्यार, निस्बत - जिसमें 'भोली' तथा 'माँ का प्यार' में लता ने गीत गाए थे। बहुत सम्भव है कि 'माँ का प्यार' में ही गोबिन्दराम के संगीत में लता ने सर्वप्रथम यह गीत गाया था - "तूने जहाँ बनाकर अहसान क्या किया है"। इस फ़िल्म में ईश्वर चन्द्र कपूर ने गीत लिखे थे। फ़िल्म 'भोली' में लता ने जो गीत गाए, उनमें उपलब्ध जानकारी के अनुसार एक गीत था "इतना भी बेक़सों को न आसमाँ सताए"। (दोस्तों, अगर आपको याद हो तो यह गीत पिछले साल हमने लता जी के गाए दुर्लभ गीतों की शृंखला में सुनवाया था)। सन् '५० में गोबिन्दराम के संगीत में ३ फ़िल्में - चोर, राजमुकुट, शादी की रात - रिलीज़ हुईं। फ़िल्म 'चोर' में लता के गाए ४ गीतों में एक मनमोहक गीत था "तू चंदा क्यों मुस्काए", अन्य दो गीत थे "रसिया पवन झकोरे आए" तथा "बन गई प्रेम दीवानी मैं तो"। एक और गीत मीना कपूर व सखियों के साथ था "ओ जमुना किनारे मोरे बालम का देस"; फ़िल्म 'राजमुकुट' में लता के गाए दो एकक गीत थे - "मैं तड़पूँ तेरी याद में" तथा "एक रूप नगर का राजा था"; दो अन्य गीत थे "पनघट पे ना जैयो" (शम्शाद, सखियों के साथ) तथा "मिठाई ले लो बाबू" (राजा गुल के साथ)। फ़िल्म 'शादी की रात' में पं गोबिन्दराम के साथ एस. मोहिंदर तथा अज़ीज़ हिंदी ने भी गीतों की रचना की थी। फ़िल्म के १२ गीतों में से उपलब्ध जानकारी के अनुसार २ गीत लता के थे - "कहो भाभी मेरी कब आएगी" और "हम दिल की कहानी"। तो दोस्तो, इतनी जानकारी के बाद आइए अब आज के गीत का आनंद लिया जाए।



क्या आप जानते हैं...
कि आज भुला दिए गए संगीतकार गोबिन्दराम उस ज़माने के इतने महत्वपूर्ण संगीतकार थे कि जब के. आसिफ़ ने 'मुग़ल-ए-आज़म' की योजना बनाई थी तो संगीतकार के रूप में पहले गोबिन्दराम को ही चुना था।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. किसी का नाम लेकर अपनी ज़िंदगी काटने की बात हो रही है गीत के पहले अंतरे में। गीत का मुखड़ा बताएँ। २ अंक।
२. फ़िल्म का शीर्षक वह है जिस शीर्षक से ६० के दशक में एक बेहद कामयाब म्युज़िकल फ़िल्म बनी थी जिसमें संगीतकार थे शंकर जयकिशन और जिसके एक गीत के प्रील्युड म्युज़िक में मनोहारी दा का बहुत ही सैक्सोफ़ोन पीस था। बताइए कल के गीत के फ़िल्म का नाम। २ अंक।
३. इस फ़िल्म में तलत महमूद और सुधा मल्होत्रा ने भी गीत गाए थे। संगीतकार बताएँ। ३ अंक।
४. इस फ़िल्म में दो गीतकारों ने गीत लिखे थे। इनमें से एक थे प्रेम धवन, आपको बताना है कल बजने वाले इस गीत के गीतकार का नाम। ३ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी ने दिमाग चलाया और कामियाब रही, अवध जी सही जवाब देकर नर्वस ९० में प्रवेश कर चुके हैं, बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, September 19, 2010

जुल्मी नैना बलम के मार गए....फिल्म असफल रही तो भुला दिया गया लता के ये दुर्लभ गीत भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 486/2010/186

ता मंगेशकर के गाए हुए १० बेहद दुर्लभ गीतों की इस शृंखला 'लता के दुर्लभ दस' में इन दिनों एक के बाद एक हम आपको साल १९५० के पाँच गीत सुनवा रहे हैं। पिछले हफ़्ते आपने 'छोटी भाभी' और 'अनमोल रतन' फ़िल्मों के गानें सुने थे। आइए इसी लड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज सुनते हैं १९५० की फ़िल्म 'बावरा' का एक बड़ा ही दुर्लभ गीत। इस ख़ुशरंग गीत के बोल हैं "जुल्मी नैना बलम के मार गए, तुम जीते सजन हम हार गए"। श्री दुर्गा पिक्चर्स के बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण हुआ था जिसका निर्देशन किया था जी. राकेश ने। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज कपूर, निम्मी, ललिता पवार, के. एन. सिंह, हीरालाल, सुंदर और रतन कुमार। १९४९ में 'बरसात' की सफलता के बाद १९५० में राज कपूर ने आर. के फ़िल्म्स के बैनर तले तो कोई फ़िल्म नहीं बनाई लेकिन दूसरे फ़िल्मकारों की कई फ़िल्मों में नायक की भूमिका अदा की। 'बावरा' का ज़िक्र तो कर चुके हैं, बाक़ी की फ़िल्में थीं - किदार शर्मा की फ़िल्म 'बावरे नैन', जिसमें उनकी नायिका बनी गीता बाली; ए. आर. कारदार की फ़िल्म 'दास्तान' (सुरैया के साथ); फ़ाली मिस्त्री की फ़िल्म 'जान पहचान' (नरगिस के साथ); वी. एम. व्यास निर्देशित 'प्यार' जिसमें एक बार फिर नरगिस के साथ उनकी जोड़ी बनीं; तथा फ़िल्मिस्तान की पी. एल. संतोषी निर्देशित फ़िल्म 'सरगम' जिसमें राज साहब की नायिका थीं रेहाना। इन तमाम फ़िल्मों में शायद 'बावरा' ही सब से बुरी तरह से पिटने वाली फ़िल्म साबित हुई थी और शायद यही वजह रही होगी कि इस फ़िल्म के गानें नज़रंदाज़ हो गए, कहीं खो गए, जो आज कहीं से भी सुनाई नहीं देते। लेकिन लता जी के पुराने गानों के अनन्य भक्त अजय देशपाण्डेय जी के सहयोग से इस फ़िल्म का यह दुर्लभ गीत हम आप के साथ आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बाँट पा रहे हैं। सही में अजय जी के प्रयासों ने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को चार चाँद लगा दिया है, जिसके लिए हम उनके तहे दिल से आभारी हैं।

'बावरा' के संगीतकार थे कृष्ण दयाल। फ़िल्म जगत के एक और कमचर्चित संगीतकार। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कृष्ण दयाल के संगीत में एक गीत हमने आपको सुनवाया था आशा भोसले के गाए युगल गीतों की शृंखला 'दस गायक और एक आपकी आशा' के तहत कड़ी नं-१९८ में। यह गीत था फ़िल्म 'लेख' का "ये काफ़िला है प्यार का चलता ही रहेगा"। 'लेख' १९४८-४९ की फ़िल्म थी, लेकिन यह कृष्ण दयाल की पहली फ़िल्म नहीं थी। सन् १९४७ में उन्होंने फ़िल्म 'ज़ंजीर' में संगीत दिया था जो नहीं चली। लेकिन 'लेख' के गानें चल पड़े थे। कुल १५ मधुर गीतों से सजी 'लेख' कृष्ण दयाल के करीयर की शायद सब से उल्लेखनीय फ़िल्म रही। ऐसा बहुत से संगीतकारों के साथ हुआ है कि किसी फ़िल्म की अपार कामयाबी के बावजूद उन्हें फिर कभी उस शानदार कामयाबी का नज़ारा देखने को नहीं मिला। कृष्ण दयाल भी एक ऐसे ही कमचर्चित संगीतकार थे। 'लेख' के बाद अगली फ़िल्म 'बावरा' में भी उन्होंने कुछ बहुत ही सुंदर कॊम्पोज़िशन्स हमें दिए। लता जी के गाए प्रस्तुत लोक शैली के अंदाज़ के गीत के अलावा इस फ़िल्म में एक और बेहद दुर्लभ गीत था, दुर्लभ इसलिए कि इसमें आवाज़ें थीं मोहम्मद रफ़ी, गीता रॊय और लता मंगेशकर की, और यह गीत था "शमा जलती है तो परवाने चले आते हैं"। गीता रॊय की आवाज़ में राग भैरवी पर आधारित गीत "मेरी दुनिया की शायद हर ख़ुशी कम होती जाती है" भी बड़ा ख़ूबसूरत गीत था; लेकिन अफ़सोस कि ये गानें व्यवसायिक रूप से नहीं चल पाए। चार साल बाद, १९५४ में कृष्ण दयाल के संगीत से सजी दो फ़िल्में आई थीं - 'मलिका सलोनी' और 'विजयगढ़'। इन फ़िल्मों के गानें भी नहीं चले और कृष्ण दयाल ने फ़िल्म संगीत संसार से किनारा कर लिया, और इस तरह से एक और कमचर्चित लेकिन अत्यंत प्रतिभाशाली संगीतकार का अस्त हो गया। तो लीजिए कृष्ण दयाल की सुरीली स्मृति में सुनिए लता मंगेशकर की कमसिन आवाज़ में फ़िल्म 'बावरा' का गीत। इस गीत को लिखा है रघुपत राय ने। इस गीत की तरह और इसके संगीतकार की तरह ही ये गीतकार भी आज भूले बिसरे बन चुके हैं। तो आइए इस विस्मृत गीतकार-संगीतकार जोड़ी की यह दुर्लभ रचना सुनते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि ६० के दशक में लता मंगेशकर के घर का कोई नौकर उनके खाने में कुछ मिलावट कर रहा था, जिसकी वजह से लता जी की तबीयत बहुत खराब हो गई थी और लम्बे समय तक वो नहीं गा सकीं। जैसे ही इस बात का पता चला कि उन्हे खाने के ज़रिए ज़हर दिया जा रहा है, उस दिन के बाद से उस नौकर का कहीं नामो निशान नहीं मिला।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. यह उस फ़िल्म का गीत है जिसके फ़िल्म के नाम के आगे अगर "दो" लगा दिया जाए तो उस फ़िल्म का नाम बनता है जिसमें एक गीत था जिसमें यार से यारी होने की बात कही गई है। कल के गीत की फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।
२. इस गीत को लिखा है विनोद कपूर ने, संगीतकार बताएँ। ४ अंक।
३. फ़िल्म के निर्देशक बताएँ। ३ अंक।
४. गीत के मुखड़े में शब्द है "पवन"। मुखड़ा बताएँ। १ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
अंक सिर्फ प्रतिभा जी और किशोर जी को मिलेंगें...यानी की कनाडा टीम फिर बाज़ी मर गयी है....बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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