Saturday, April 10, 2010

मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को....जब ४०० एपिसोड पूरे किये ओल्ड इस गोल्ड ने...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 400/2010/100

र आज वह दिन आ ही गया दोस्तों कि जब आपका यह मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पहुँच चुका है अपनी ४००-वीं कड़ी पर। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के सुमधुर गीतों की सुरधारा में बहते हुए तथा हम और आप आपस में एक सुरीला रिश्ता कायम करते हुए इस मंज़िल तक आ पहुँचे हैं जिसके लिए आप सभी बधाई व धन्यवाद के पात्र हैं। आप सब की रचनात्मक टिप्पणियों ने हमें हर रोज़ हौसला दिया आगे बढ़ते रहने का, जिसका परिणाम आज हम सब के सामने है। तो दोस्तों, आज इस ख़ास अंक को कैसे और भी ख़ास बनाया जाए? क्योंकि इन दिनों जारी है पार्श्वगायिकाओं की गाई युगल गीतों की शृंखला 'सखी सहेली', तो क्यों ना आज के अंक में ऐसी दो आवाज़ों को शामिल किया जाए जिन्हे फ़िल्म संगीत के गायिकाओं के आकाश के सूरज और चांद कहें तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा! जिस तरह से सूरज और चांद अपनी अपनी जगह अद्वितीय है, उसी प्रकार ये दो गायिकाएँ भी अपनी अपनी जगह अद्वितीय हैं। लता मंगेशकर और आशा भोसले। इन दो बहनों ने फ़िल्मी पार्श्व गायन की धारा ही बदल कर रख दी और जिन्होने दशकों तक इस फ़िल्म जगत में राज किया। तो दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ४००-वीं कड़ी इन दो सुरीली महारानियों के नाम। लेकिन इनकी गाई हुई कौन सी रचना सुनवाएँ आपको, इन दोनों ने तो साथ में बहुत से गीत गाए हैं। चलिए वही गीत सुनवा देते हैं तो मुझे बहुत पसंद है, शायद आपको भी हो! फ़िल्म 'उत्सव' से "मन क्यों बहक री बहका आधी रात को, बेला महका री महका आधी रात को"। हाल ही में इस फ़िल्म से सुरेश वाडकर का गाया "सांझ ढले गगन तले" आपने सुना था और उस दिन इस फ़िल्म की भी चर्चा हमने की थी। आज बस यही कहेंगे कि लता और आशा जी का गाया यह गीत फ़िल्माया गया था रेखा और अनुराधा पटेल पर। यानी लता जी ने प्लेबैक दिया रेखा का, और आशा जी ने अनुराधा पटेल का।

दोस्तों, लता जी और आशा जी के बारे में और क्या बताएँ आपको? उनके जीवन और संगीत की कहानी तो जैसे खुली किताब है। तो चलिए आज हम फिर एक बार रुख़ करते हैं प्यारेलाल जी के उस 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम की तरफ़ जिसमें उन्होने इस गीत का ज़िक्र किया था।

कमल शर्मा: 'उत्सव' में ख़ास तौर से एक गाना जो दोनों बहनों ने गाया है, जिनकी आवाजें बहुत डिवाइन हैं, आशा जी और लता जी, "मन क्यों बहका री बहका आधी रात को", उसमें जो ख़ास तौर से, अगर हम ताल की बात करें, बहुत ही अलग तरह की, बहुत इण्डियानाइज़्ड तो है ही वह, वैसे भी पीरियड फ़िल्म थी वह, लेकिन यह जो गाना ख़ास तौर से है आपका, एक बहुत ही अलग तरह का, बहुत ही प्यारा गाना है। इसके बारे में कुछ कहना चाहेंगे?

प्यारेलाल: देखिए, सब से मज़े की बात क्या थी इसमें कि एक तो वह गाना जो लिखा गया, वह बहुत ही अच्छा, वसंत देव जी। उसके बाद जब उसकी ट्युन बनी, सब से जो मैंने उसमें एंजॊय किया, वो लता जी और आशा जी। मेरे ख़याल से उसके बाद उन्होने साथ में गाया है कि नहीं, मुझे मालूम नहीं, लेकिन जो दोनों गा रहे थे, उसका हम आनंद ले रहे थे। एक ज़रा बोले ऐसे, फिर दूसरी बोलती थीं, इतना ख़ूबसूरत लगा औत मतलब, मैं तो बोलूँगा कि, नेक टू नेक आप बोलेंगे, जैसा लता जी ने गाया है, वैसा ही आशा जी ने गाया है।


दोस्तों, प्यारेलाल जी ने लता जी और आशा जी के साथ में गाए हुए अंतिम गीत का ज़िक्र किया था और उन्हे ऐसा लगा कि शायद इस गीत के बाद इन दोनों ने साथ में कोई गीत नहीं गाया। लेकिन हम आपको यह बताना चाहेंगे कि 'उत्सव' १९८४ की फ़िल्म थी और १९८६ में एक फ़िल्म बनी थी 'स्वर्ग से सुंदर' जिसमें इन दोनों बहनों ने साथ में एक गीत गाया था "सुन री मेरी बहना सुन री मेरी सहेली, मुन्ना फूल गुलाब का, तू चम्पा मैं चमेली", जो फ़िल्माया गया था जया प्रदा और पद्मिनी कोल्हापुरी पर। तो इसी जानकारी के साथ हम अब सुनेंगे यह सुरीला गीत। सुनिए और मज़ा लीजिए इन दो महान गायिका बहनों की गायकी का। 'सखी सहेली' शृंखला इसी के साथ समाप्त होती है, कल से हम लेकर आएँगे आप ही पसंद के गानें जिनकी फ़रमाइश आप ने हमारे नए ई-मेल पते पर लिख कर हमें भेजी है पिछले दिनों। तो बने रहिए 'आवाज़' के साथ और आनंद उठाते रहिए सुमधुर गीत संगीत का। नमस्ते!



क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर और आशा भोसले का साथ में गाया हुआ पहला युगल गीत था १९५१ की फ़िल्म 'दामन' में "ये रुकी रुकी हवाएँ, ये बुझे बुझे सितारे", जिसके संगीतकार थे के. दत्ता।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"तमन्ना" गायक बताएं-३ अंक.
2. इस दर्द भरे गीत को किस शायर ने लिखा है - २ अंक.
3. संगीतकार का नाम बताएं-२ अंक.
4. जी पी सिप्पी की इस फिल्म का नाम बताएं-२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
दोस्तों सबसे पहले कुछ त्रुटि सुधार

१. रुना लैला का गाया फ़िल्म 'घरोंदा' का गीत "तुम्हे हो ना हो मुझको तो" नक्श ल्यालपुरी ने लिखा था, ना कि गुलज़ार ने।

२. रुना लैला का गाया "दे दे प्यार दे" फ़िल्म 'शराबी' के साउम्ड ट्रैक का हिस्सा नहीं था, बल्कि यह एक ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम 'सुपरुना' का गीत था।
२. फ़िल्म 'बातों बातों में' का गीत "न बोले तुम ना मैंने कुछ कहा" को लिखा था योगेश, ना कि अमित खन्ना ने।
३. 'ओल्ड इज़ गोल्ड' कड़ी नं-२०२ में फ़िल्म 'नाइट इन लंदन' के गीत के आलेख में फ़िल्म के नायक का नाम जय मुखर्जी बताया गया था, दरसल फ़िल्म के नायक थे विश्वजीत।

पाठकों से अनुरोध है कि अगर हमारे आलेखों में कोई भी ग़लत जानकारी नज़र आए तो हमें ज़रूर सूचित करें, टिपण्णी में लिख कर या oig@hindyugm.com पर ई-मेल लिख कर।


अब आते हैं परिणाम पर, दोस्तों हर बार होता है कि जिसके सबसे अधिक अंक आते हैं हम उनकी पसदं के ५ या १० गीत सुनते हैं, अगर आपने कभी ताश में तीन पत्ती का खेल खेला हो तो उसमें आप जानते होंगें कि एक बाज़ी होती है मुफलिस की यानी जो सबसे कम अंकों पर होता है बाज़ी उसी की होती है, तो आज ४०० वें एपिसोड में समापन पर हम ये घोषणा करते हैं कि अगले १० दिनों तक आप उन की पसंद के गीत सुनेंगें जो ओल्ड इस गोल्ड में शामिल तो हमेशा से रहे हैं पर दुर्भाग्यवश कभी विजेता नहीं बन पाए, हमें यकीं है कि हमरे विजेता शरद जी और इंदु जी हमारी इस सोच से नाराज़ हरगिज़ नहीं होंगें. इन १० एपिसोड में बाद हम ओल्ड इस गोल्ड शृंखला में अगले ४८ दिनों के लिए एक नया आयोजन जोड़ेगें. तब तक पहेलियों का जवाब देते रहिये अंक गणित को भूल कर. वैसे जानकारी के लिए बता दें कि नए अंदाज़ की इस प्रतियोगिता में शरद जी विजेता बने शतक लगा कर, इंदु जी ९० अंकों पर शानदार पारी खेल कर डटी रहीं तो पदम जी और अवध जी ने भी अर्ध शतक पूरा किया. ओल्ड इस गोल्ड की अगली इनिंग्स में हम पदम जी, अवध जी और अनीता जी की पसंद भी जरूर सुनेंगें. आप सब का एक बार फिर शुक्रिया और आभार

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुलीवाला"



रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुलीवाला"
सुनो कहानी: रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "काबुलीवाला"
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई की हृदयस्पर्शी कहानी "चार बेटे" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं रबीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी "काबुलीवाला", जिसको स्वर दिया है नीलम मिश्रा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 54 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



पक्षी समझते हैं कि मछलियों को पानी से ऊपर उठाकर वे उनपर उपकार करते हैं।
~ रबीन्द्र नाथ ठाकुर (1861-1941)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है।
(रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "काबुलीवाला" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#68th Story, Kabuliwala: Rabindra Nath Tagore/Hindi Audio Book/2010/13. Voice: Neelam Mishra

Friday, April 9, 2010

पीतल की मेरी गागरी....लोक संगीत और गाँव की मिटटी की महक से चहकता एक 'सखी सहेली' गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 399/2010/99

कुछ आवाज़ें ऐसी होती हैं जिनमें इस मिट्टी की महक मौजूद होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी आवाज़ें इस मिट्टी से जुड़ी हुई लगती है, जिन्हे सुनते हुए हम जैसे किसी सुदूर गाँव की तरफ़ चल देते हैं और वहाँ का नज़ारा आँखों के सामने तैरने लगता है। जैसे दूर किसी पनघट से पानी भर कर सखी सहेलियाँ कतार बना कर चली आ रही हों गाँव की पगडंडियों पर। आज हमने जिस गीत को चुना है उसे सुनते हुए शायद आपके ज़हन में भी कुछ इसी तरह के ख्यालात उमड़ पड़े। जी हाँ, 'सखी सहेली' शृंखला की आज की कड़ी में प्रस्तुत है मिनू पुरुषोत्तम और परवीन सुल्ताना की आवाज़ों में फ़िल्म 'दो बूंद पानी' का एक बड़ा ही प्यारा गीत "पीतल की मेरी गागरी"। इसमें वैसे मिनू जी और परवीन जी के साथ साथ उनकी सखी सहेलियों की भी आवाज़ें मौजूद हैं, लेकिन मुख्य आवाज़ें इन दो गायिकाओं की ही हैं। संगीतकार जयदेव की इस रचना में इस देश की मिट्टी का सुरीलापन कूट कूट कर समाया हुआ है। लोक गीत के अंदाज़ में बना यह गीत कैफ़ी आज़मी साहब के कलम से निकला था। आपको याद होगा कि सन्‍ १९७१ में ख़्वाजा अहमद अब्बास ने यह फ़िल्म बनाई थी 'दो बूंद पानी' जिसमें राजस्थान में पानी की समस्या को केन्द्रबिंदु में रखा गया था। एक तरफ़ पानी की समस्या पर बना फ़िल्म और दूसरी तरफ़ यह गीत जिसमें पानी भर कर लाने का दृश्य, क्या कॊन्ट्रस्ट है! यह एक बड़ा ही दुर्लभ गीत है जो आज कहीं से सुनाई नहीं देता। आख़िरी बार मैंने इसे विविध भारती पर कई महीने पहले सुना था, शायद यूनुस ख़ान द्वारा प्रस्तुत 'छाया गीत' कार्यक्रम में। आज यह दुर्लभ गीत ख़ास आप के लिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर।

'दो बूंद पानी' के मुख्य कलाकार थे घनश्याम, जलाल आग़ा, सिमि गरेवाल और किरण कुमार। दोस्तों, यह ज़रूरी नहीं कि अच्छे गानें केवल कामयाब फ़िल्मों में ही मौजूद हों। ऐसे असंख्य फ़िल्में हैं जिसने बॊक्स ऒफ़िस पर भले ही झंडे ना गाढ़ें हों, लेकिन संगीत के मामले में उत्कृष्ट रहे हैं। "पीतल की मेरी गागरी" एक ऐसा कर्णप्रिय गीत है जिसे बार बार सुन कर भी जैसे मन नहीं भरता और इसे बार बार पूरे चाव से सुना जा सकता है। पीतल के गगरी की धुने, सखी सहेलियों की खिलखिलाती हँसी, राजस्थानी लोक धुन, कुल मिलाकर एक ऐसा ग्रामीण समां बांध देता है कि शहर के सारे तनाव और परेशानियाँ भूल कर दिल जैसे कुछ पल के लिए एक सुकूनदायक ज़मीन की ओर निकल पड़ता है। वैसे आपको बता दें कि इस गीत में कुल तीन अंतरे हैं, लेकिन रिकार्ड पर केवल दो ही अंतरों को रखा गया है। फ़िल्म के पर्दे पर जो तीसरा अंतरा है इस गीत का, उसे हम नीचे लिख रहे हैं:

इक दिन ऐसा भी था पानी था गाँव में,
लाते थे गागरी भर के तारों की छाँव में,
कहाँ से पानी लाएँ कहाँ ये प्यार बुझाएँ,
जल जल के बैरी धूप में कम ना आया रंग दुहाई रे,
पीतल की मेरी गागरी दिलदी से मोल मंगाई रे।

तो आइए इस गीत को सुनें और हमें पूरा विश्वास है कि इस गीत को सिर्फ़ एक बार सुन कर आपका दिल नहीं भरेगा, आप बार बार इसे सुनेंगे। और ख़ास कर आप में से जो भाई बहन राजस्थान के निवासी हैं और इन दिनों विदेश में हैं, उनकी तो यह गीत सुन कर आँखें ज़रूर नम हो जाएँगी! आइए सुनते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि 'दो बूंद पानी' फ़िल्म के लिए ख़्वाजा अहमद अब्बास को १९७२ में 'नरगिस दत्त अवार्ड' से सम्मानित किया गया था। अब्बास साहब को यही पुरस्कार १९७० में भी मिला था 'सात हिंदुस्तानी' फ़िल्म के लिए।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. शृंखला का ये अंतिम गीत है हिंदी फिल्म संगीत जगत की दो सबसे सफल गायिकाओं की आवाजों में इनके नाम बताएं-३ अंक.
2. इस मधुर गीत के गीतकार बताएं - २ अंक.
3. फिल्म की प्रमुख अभिनेत्री के साथ अनुराधा पटेल ने इसे परदे पर निभाया है, किस प्रमुख अभिनेत्री ने इस फिल्म में काम कर खूब वाह वाही लूटी है -२ अंक.
4. एल पी का है संगीत, फिल्म के निर्देशक कौन हैं -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
मुबारकबाद शरद जी, बस अब आप शतक से मात्र २ अंक पीछे हैं, पदम जी ने भी बहुत कम समय में अर्ध शतक पूरा किया है, इंदु जी और अवध जी को भी बधाई...पुरस्कार ?....इस बार ये एक सरप्रायिस है :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मन बता मैं क्या करूँ...उलझे मन की बरसों पुरानी गुत्थियों को संगीत के नए अंदाज़ का तड़का



Season 3 of new Music, Song # 02

ए संगीत के तीसरे सत्र की दूसरी कड़ी में हम हाज़िर हैं एक और ओरिजिनल गीत के साथ. एक बार फिर इन्टरनेट के माध्यम से पुणे और हैदराबाद के तार जुड़े और बना "मन बता" का ताना बाना. जी हाँ आज के इस नए और ताज़ा गीत का शीर्षक है - मन बता. ऋषि एस की संगीत प्रतिभा से आवाज़ के नए पुराने सभी श्रोता बखूबी परिचित हैं. जहाँ पहले सत्र में ऋषि के संगीतबद्ध ३ गीत थे तो दूसरे सत्र में भी उनके ६ गीत सजे. गीतकार विश्व दीपक "तन्हा" के साथ उनकी पैठ जमी, दूसरे सत्र के बाद प्रकाशित विशेष गीत जो खासकर "माँ" दिवस के लिए तैयार किया गया था, "माँ तो माँ है" को आवाज़ पर ख़ासा सराहा गया. तीसरी फनकारा जो इस गीत से जुडी हैं वो हैं, कुहू गुप्ता. कुहू ने "काव्यनाद" अल्बम में महादेवी वर्मा रचित "जो तुम आ जाते एक बार" को आवाज़ क्या दी. युग्म और इंटनेट से जुड़े सभी संगीतकारों को यकीं हो गया कि जिस गायिका की उन्हें तलाश थी वो कुहू के रूप में उन्हें मिल गयी हैं. ऋषि जो अक्सर महिला गायिका के अभाव में दोगाना या फीमेल सोलो रचने से कतराते थे, अब ऐसे ही गीतों के निर्माण में लग गए, और इसी कोशिश का एक नमूना है आज का ये गीत. इस गीत को एक फ्यूज़न गीत भी कहा जा सकता है, जिसमें टेक्नो साउंड (बोलों के साथ) और मेलोडी का बेहद सुन्दर मिश्रण किया गया है. टेक्नो पार्ट को आवाज़ दी है खुद ऋषि ने, तो दोस्तों आज सुनिए ये अनूठा गीत, और अपने स्नेह सुझावों से इन कलाकारों का मार्गदर्शन करें.

गीत के बोल -

male:

मन जाने ये अनजाने-से अफ़साने जो हैं,
समझाने को बहलाने को बहकाने को हैं..
मन तो है मुस्तफ़ा,
मन का ये फ़लसफ़ा,
मन को है बस पता..
मन होके मनचला,
करने को है चला,
उसपे ये सब फिदा..

female:

मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?

अंतरा

male:

जाने कब से चाहा लब से कह दूँ,
पूरे दम से जाके थम से कह दूँ,
आके अब कहीं,
माने मन नहीं,
मन का शुक्रिया....

female:

ओठों को मैं सी लूँ या कि खोलूँ, मन बता
आँखों से हीं सारी बातें बोलूँ, मन बता
आगे जाके साँसें उसकी पी लूँ, मन बता
बैठे बैठे मर लूँ या कि जी लूँ, मन बता..

बस कह दे तू तेरा फ़ैसला,
बस भर दे तू जो है फ़ासला..

मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?
मन बता मैं क्या करूँ क्या कहूँ मैं और किस.. अदा से?


गीत अब यहाँ उपलब्ध है


मेकिंग ऑफ़ "मन बता..." - गीत की टीम द्वारा
ऋषि एस - ये एक कोशिश है एक समकालीन ढंग के गीत को रचने की बिना मेलोडी के मूल्यों को खोये. गीतकार विशेष तारीफ़ के हक़दार हैं यहाँ, क्योंकि मुखड़े की धुन अपेक्षाकृत बेहद कठिन थी जिस पर शब्द बिठाना काफी मुश्किल काम था. गायिका के बारे में क्या कहूँ, वो अंतर्जालीय संगीत घरानों की सबसे लोकप्रिय गायिकाओं में से एक हैं. उनकी तारीफ़ में कुछ भी कहना कही बातों को दोहराना होगा. अब कुछ रोचक तथ्य सुनिए...मुझे खुद गाना पड़ा क्योंकि कोई पुरुष आवाज़ उपलब्ध नहीं थी, गीतकार के पास समय नहीं था इसलिए गीत रातों रात लिखवाना पड़ा...हा हा हा...पर उनके शब्दों की ताकत को सलाम करना पड़ेगा, कि 'मन बता मन बता' गाते गाते जिंदगी में भी दुविधा का माहौल बन गया था, मेरी भी और कुहू की भी....बाकी आप खुद कुहू से जानिये...
कुहू गुप्ता - ऋषि के साथ मैं इससे पहले २ गाने कर चुकी हूँ और इनकी रचनाओं की बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ. यह गाना मुझे पहली बार सुनने में ही बहुत पसंद आया. ख़ासकर इसमें जो टेक्नो और मेलोडी का मेल है वो एक ही बार में श्रोता का ध्यान आकर्षित करता है. विश्व ने हर बार की तरह बहुत ही सुन्दर शब्द लिख कर इस रचना को और सशक्त बनाया. अब बारी मेरी थी कि मैं इस गाने में अपनी पूरी क्षमता से स्वर भरूँ. स्वरों को अंतिम रूप देने में हमें काफी टेक और रिटेक लगे जिसमें ऋषि ने अपने धैर्य का भरपूर परिचय दिया. अंत में यही कहूँगी कि इस गाने को साथ करने में मुझे बहुत मज़ा आया.
विश्व दीपक "तन्हा"- यह गाना किन हालातों में बना.... यही बताना है ना? तो बात उस दौर की है, जब ऋषि जी मेरी एक कविता "मोहे पागल कर दे" को संगीतबद्ध करते-करते पागल-से हो गए थे.. कविता में कुछ बदलाव भी किए, धुन भी कई बार बदले लेकिन ऋषि जी थे कि संतुष्ट होने का नाम हीं नहीं ले रहे थे। फिर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि यार.. "मोहे पागल कर दे" मैं बना तो दूँ, हमारे पास गायिका भी हैं (तब तक उन्होंने कुहू जी से बात भी कर ली थी) लेकिन मुझे मज़ा नहीं आ रहा। इसलिए सोचता हूँ कि इसे कुछ दिनों के लिए रोक दिया जाए, जब मूड बनेगा तो इसे फिर से शुरू करूँगा। फिर उन्होंने एक नई धुन पर काम करना शुरू किया। इस दौरान उनसे बातें होती रहीं.. और एक दफ़ा बातों-बातों में इस नए गाने की बात निकल पड़ी। उन्होंने तब तक यह निश्चय नहीं किया था कि गाना कौन लिखेगा...... तो मैंने मौके को दोनों हाथों से लपक लिया :) लेकिन मेरी यह मज़बूरी थी कि मैं अगले हीं हफ़्ते घर जाने वाला था..होली के लिए.. और वो भी एक हफ़्ते के लिए और ऋषि जी चाहते थे कि यह गाना होली वाले सप्ताह में बनकर तैयार हो जाए, वो इस गाने के लिए ज्यादा वक्त लेना नहीं चाहते थे। बात अटक गई... और उन्होंने मुझसे कह दिया (सोफ़्ट्ली एक धमकी-सी दी :) ) कि आप अगर इसे होली के पहले लिख पाओगे (क्योंकि गाने में मुखड़े की धुन दूसरे गानों जैसी सीधी-सीधी नहीं है) तो लिखो नहीं तो मैं इसे "सजीव" जी को दे देता हूँ। मैंने कहा कि अगर ऐसी बात है तो आपको यह गाना मैं दो दिनों में दो दूँगा.. और अगले दिन मैं आफ़िस में इसी गाने पर माथापच्ची करता रहा. कुछ पंक्तियाँ भी लिखीं और उन पंक्तियों को ऋषि जी को मेल कर दिया.. अच्छी बात है कि उन्हें ये पंक्तियाँ पसंद आईं लेकिन उन्हें लगा कि शब्द धुन पर सही से आ नहीं रहे। इसलिए रात को हम साथ-साथ बैठें (गूगल चैट एवं वोईस.. के सहारे) और हमने गाने का मुखड़ा तैयार कर लिया.. फिर अगली रात गाने का अंतरा. और इस तरह दो रातों की मेहनत के बाद गाने की धुन और गाने के बोल हमारे पास थे। ऋषि जी खुश...क्योंकि गाना बन चुका था... मैं खुश.. क्योंकि मैंने अपना वादा निभाया था.... और हम सब खुश.....क्योंकि कुहू जी इसे गाने जा रही थीं। इस गाने के बन जाने के बाद हमें यह भी यकीन हो गया कि साथ बैठकर गाना जल्दी और सही बनता है। इस गाने की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जिसे आज कल के जमाने का "ढिनचक ढिनचक" चाहिए...तो गाने में वो भी है (टेक्नो पार्ट) और जिसे पिछले जमाने की कोयल जैसी आवाज़ चाहिए तो उसके लिए कुहू जी है हीं। और हाँ... ऋषि जी ... आपकी आवाज़ भी कुछ कम नहीं है.. हा हा.... बस इस गाने में वो टेक्नो के पीछे छुप गया है. अगली बार सामने ले आईयेगा...... क्या कहते हैं? :)



ऋषि एस॰
ऋषि एस॰ ने हिन्द-युग्म पर इंटरनेट की जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीतों के निर्माण की नींव डाली है। पेशे से इंजीनियर ऋषि ने सजीव सारथी के बोलों (सुबह की ताज़गी) को अक्टूबर 2007 में संगीतबद्ध किया जो हिन्द-युग्म का पहला संगीतबद्ध गीत बना। हिन्द-युग्म के पहले एल्बम 'पहला सुर' में ऋषि के 3 गीत संकलित थे। ऋषि ने हिन्द-युग्म के दूसरे संगीतबद्ध सत्र में भी 5 गीतों में संगीत दिया। हिन्द-युग्म के थीम-गीत को भी संगीतबद्ध करने का श्रेय ऋषि एस॰ को जाता है। इसके अतिरिक्त ऋषि ने भारत-रूस मित्रता गीत 'द्रुजबा' को संगीत किया। मातृ दिवस के उपलक्ष्य में भी एक गीत का निर्माण किया। भारतीय फिल्म संगीत को कुछ नया देने का इरादा रखते हैं।

कुहू गुप्ता
पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 6 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं। वैसे ये अपनी संतुष्टि के लिए गाना ही अधिक पसंद करती हैं। इंटरनेट पर नये संगीत में रुचि रखने वाले श्रोताओं के बीच कुहू काफी चर्चित हैं। कुहू ने हिन्द-युग्म ताजातरीन एल्बम 'काव्यनाद' में महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' को गाया है, जो इस एल्बम का सबसे अधिक सराहा गया गीत है।

विश्व दीपक 'तन्हा'
विश्व दीपक हिन्द-युग्म की शुरूआत से ही हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। आई आई टी, खड़गपुर से कम्प्यूटर साइंस में बी॰टेक॰ विश्व दीपक इन दिनों पुणे स्थित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अपनी विशेष कहन शैली के लिए हिन्द-युग्म के कविताप्रेमियों के बीच लोकप्रिय विश्व दीपक आवाज़ का चर्चित स्तम्भ 'महफिल-ए-ग़ज़ल' के स्तम्भकार हैं। विश्व दीपक ने दूसरे संगीतबद्ध सत्र में दो गीतों की रचना की। इसके अलावा दुनिया भर की माँओं के लिए एक गीत को लिखा जो काफी पसंद किया गया।

Song - Man Bata
Voices - Kuhoo Gupta, Rishi S
Music - Rishi S
Lyrics - Vishwa Deepak "tanha"
Graphics - Samarth Garg


Song # 02, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए

Thursday, April 8, 2010

गलियों में घूमो, सड़कों पे झूमो, दुनिया की खूब करो सैर....आशा और उषा का है ये सुरीला पैगाम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 398/2010/98

'सखी सहेली' शृंखला की आज की कड़ी में एक ज़बरदस्त हंगामा होने जा रहा है, क्योंकि आज के अंक के लिए हमने दो ऐसी गायिकाओं को चुना है जो अपनी हंगामाख़ेज़ आवाज़ के लिए जानी जाती रहीं हैं। इनमें से एक तो और कोई नहीं बल्कि आशा भोसले हैं, जो हर तरह के गीत गा सकने में माहिर हैं, और दूसरी आवाज़ है उषा अय्यर की। जी हाँ, वही उषा अय्यर, जो बाद में उषा उथुप के नाम से मशहूर हुईं। उषा जी पाश्चात्य और डिस्को शैली के गीतों के लिए जानी जाती हैं और उनका स्टेज परफ़ॊर्मैन्स इतना ज़रबदस्त होता है कि श्रोतागण सब कुछ भूल कर उनके साथ थिरक उठते हैं, मचल उठते हैं। तो ज़रा सोचिए, अगर आशा जी की मज़बूत लेकिन पतली आवाज़ और उषा जी मज़बूत और वज़नदार आवाज़ एक साथ मिल जाएँ एक ही गीत में तो किस तरह का हंगामा पैदा हो जाए! इसी प्रयोग को आज़माया था राहुल देव बर्मन ने १९७० की फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' के दो गीतों में। वैसे पहले गीत "दम मारो दम" में आशा जी की ही आवाज़ मुख्य रूप से सुनाई देती है, लेकिन जो दूसरा गीत है उसमें दोनों गायिकाओं को एक दूसरे के साथ बराबर का टक्कर लेने का मौका मिला था। एक तरफ़ आशा भोसले ज़ीनत अमान के लिए हिंदी मे गा रही हैं, और दूसरी तरफ़ उषा अय्यर अंग्रेज़ी में एक फ़िरंगी हिप्पी लड़की के लिए गा रही हैं। हिप्पियों पर बने गीतों में शायद यह सब से लोकप्रिय फ़िल्मी गीत रहा है। राम और कृष्ण के नाम का सहारा लेकर नशे में डूबे रहने वाले हिप्पे समुदाय का सजीव चित्रण इस गीत के माध्यम से आनंद बक्शी, पंचम और इन दोनो गायिकाओं ने किया है। कुल मिलाकर एक बेहद ज़बरदस्त पाश्चात्य जुगलबंदी की मिसाल है यह गीत और गीत के बोल हैं, जी नहीं, ऐसे नहीं, बल्कि इस गीत के पूरे बोल हम नीचे लिख रहे हैं। क्या है कि अंग्रेज़ी के बोलों पर म्युज़िक इस तरह से हावी है कि बहुत से लोगों को सही शब्दों का पता नहीं चल पाता है। इसलिए ये रहे इस गीत के बोल, इनके सहारे आप भी इस गीत को सुनते हुए मन ही मन गुनगुनाइए।

"I love you,
Can't you see my blue eyes I really do
Oh please give me another, another little chance
Ha dum daba daba dam daba daba daba daba daba dab.....

क्या ख़ुशी क्या ग़म, जब तक है दम में दम,
अरे ओ कश पे कश लगाते जाओ,
हे.. गलियों में झूमूँ, सड़कों पे घूमूँ,
दुनिया की ख़ूब करूँ सैर।
हरे रामा करे कृष्णा हरे रामा हरे कृष्णा।

I love you
Can't you see my blue eyes I really do
Oh please give me another, another little chance
Ha dum daba daba dam daba daba daba daba daba dab.....

आ दीवाने हम, जब तक है दम में दम,
अरे ओ कश पे कश लगाते जाओ,
गोरे हो या काले, अपने है सारे,
दुनिया में कोई नहीं ग़ैर।
हरे रामा करे कृष्णा हरे रामा हरे कृष्णा।"

इस गीत में उषा जी जिस तरह से "हरे रामा करे कृष्णा" के बीच बीच में 'everybody' कहती हैं, यह उन्होने अपने स्टेज शोज़ में हमेशा बरकरार रखा है और यह उनका यूनिक स्टाइल भी बन गया था। आज उषा उथुप का गीत पंचम के संगीत में बज रहा है, तो आपको यह बता दें कि उषा जी और पंचम बहुत अच्छे दोस्त थे। विविध भारती पर उषा जी बताती हैं कि "मैं क्या बताऊँ, कुछ लोग समझते हैं कि only they have the authority to talk about R D Burman। ख़ैर, जो भी है, he and I shared a lot of music, we were really यार, real यारी थी हमारी।" तो चलिए, उसी यारी दोस्ती के नाम हो जाए यह तड़कता भड़कता गाना।



क्या आप जानते हैं...
कि उषा उथुप ने रिकार्ड कायम किया जब एच.एम.वी ने उनके गाए गीतों के ६ ग्रामोफ़ोन रिकार्ड्स निकाले, जो उस समय अपने आप में एक रिकार्ड था। उषा जी की आवाज़ और गायन शैली की तारीफ़ इंदिरा गांधी और नेल्सन मंडेला जैसे शख़्स भी कर चुके हैं।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. पनघट पर पानी भरती सखी सहेलियों का है ये मधुर गीत, गीत बताएं-३ अंक.
2. राजस्थान में पानी की समस्या पर आधारित इस फिल्म के शीर्षक में भी "पानी" शब्द है, निर्देशक बताएं- २ अंक.
3. मीनू पुरुषोत्तम के साथ किस गायिका ने आवाज़ मिलायी है इस गीत में -२ अंक.
4. जयदेव की है धुन, गीतकार बताएं -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह... चार जवाब, चारों सही, लगता है बहुत आसान पहेली रही ये. बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, April 7, 2010

ये मूह और मसूर की दाल....मुहावरों ने छेड़ी दिल की बात और बना एक और फिमेल डूईट



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 397/2010/97

भाषा की सजावट के लिए पौराणिक समय से जो अलग अलग तरह के माध्यम चले आ रहे हैं, उनमें से एक बेहद लोकप्रिय माध्यम है मुहावरे। मुहावरों की खासियत यह होती है कि इन्हे बोलने के लिए साहित्यिक होने की या फिर शुद्ध भाषा बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ये मुहावरे पीढ़ी दर पीढ़ी ज़बानी आगे बढ़ती चली जाती है। क्या आप ने कभी ग़ौर किया है कि हिंदी फ़िल्मी गीतों में किसी मुहावरे का इस्तेमाल हुआ है या नहीं। हमें तो भई कम से कम एक ऐसा मुहवरा मिला है जो एक नहीं बल्कि दो दो गीतों में मुखड़े के तौर पर इस्तेमाल हुए हैं। इनमें से एक है लता मंगेशकर का गाया १९५७ की फ़िल्म 'बारिश' का गीत "ये मुंह और दाल मसूर की, ज़रा देखो तो सूरत हुज़ूर की"। और दूसरा गीत है फ़िल्म 'अराउंड दि वर्ल्ड' फ़िल्म का "ये मुंह और मसूर की दाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल, हुस्न जो देखा हाल बेहाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल"। जी हाँ, मुहावरा है 'ये मुंह और मसूर की दाल', और 'अराउंड दि वर्ल्ड' के इस गीत को गाया था जो गायिकाओं ने - शारदा और मुबारक़ बेग़म। आज 'सखी सहेली' शृंखला की सातवीं कड़ी में प्रस्तुत है इन्ही दो गायिकाओं की आवाज़ों में यह यादगार गीत। शैलेन्द्र का गीत, शंकर जयकिशन का संगीत। 'अराउंड दि वर्ल्ड' १९६७ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन पछी ने किया था और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज कपूर, राजश्री और अमीता। मेरी थोड़ी बहुत हिंदी की जो जानकारी है, उसके अनुसार यह मुहावरा उस आदमी के लिए कहा जाना चाहिए जिसे कुछ हासिल हुआ है लेकिन जिसका वो लायक नहीं है। अगर मैं ग़लत हूँ तो इसका सुधार ज़रूर कीजिएगा और यह मुहावरा कैसे बना, उसके पीछे की कहानी भी लिखिएगा टिप्पणी में। हर मुहावरे के पीछे कोई ना कोई पौराणिक कहानी ज़रूर होती है और इस मुहावरे के पीछे भी यकीनन होगी।

पाश्चात्य शैली में स्वरबद्ध इस गीत के साथ शारदा की यादें जुड़ी हुईं हैं जो उन्होने विविध भारती पर हाल ही में 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में व्यक्त किए थे।

प्र: कोई घटना या कोई गाना आपको याद आ रहा है जो बहुत दिलचस्प तरीके से बना था?

उ: "ये मुंह और मसूर की दाल"! ऐसे ही किसी ने बात करते करते कहा था कि ये मुंह और मसूर की दाल। शंकर साहब ने बोला कि इसको रखो मेरे लिए किसी गाने में, और तुरंत वह गाना ऐसे बन गया। और बहुत मशहूर हुआ था यह गाना।

प्र: वाह! तो शंकर जयकिशन का जो क्रीएटिव प्रोसेस है, किस तरह से वो काम करते थे और किस तरह से एक पूरा गाना कम्प्लीटे करते थे?

उ: इसके लिए तो एक किताब लिख सकते थे, क्योंकि मेरा तो लास्ट के कुछ दिन ही उनके साथ उठना बैठना रहा और I used to go to the studio 2-3 times a week। जब वो शाम को सिटिंग्‍ करते थे, शाम ४ से ८ बजे, तो वो फ़्लोर सिटिंग्‍ करते थे और हर दिन कुछ ना कुछ कॊम्पोज़िंग्‍ का काम चलता था। शैलेन्द्र जी और हसरत जी, दोनों बैठे रहते थे, कुछ ना कुछ मुखड़ा, शकर जी ट्युन बजाते थे, और वो मुखड़ा कह देते थे तो उसको बिठा देते थे। इस तरह से कॊम्पोज़िंग् का काम चलता था।


दोस्तों, शारदा ने शंकर जयकिशन के बारे में और भी बहुत सी बातें बताई थीं उस मुलाक़ात में जिन्हे हम धीरे धीरे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शामिल करते चलेंगे। लेकिन फिलहाल वक़्त हो चला है आज के गीत को सुनने का, सुनते हैं दो कमचर्चित गायिकाएँ, शारदा व मुबारक़ बेग़म की अनूठी आवाज़ों में यह सदाबहार गीत।



क्या आप जानते हैं...
कि कई जगहों पर यह सुनने व पढ़ने को मिलता है कि गायिका शारदा शंकर जयकिशन की खोज है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि शारदा राज कपूर की खोज है। राज कपूर ने शारदा को तेहरान में पहली बार सुना था और उसी वक़्त उन्हे बम्बई आकर ऒडिशन देने का सुझाव दिया था।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. फिल्म का शीर्षक भी इस गाने में आता है, गीतकार बताएं-३ अंक.
2. आशा भोसले का साथ इस जबरदस्त गाने में एक शानदार गायिका ने दिया है, नाम बताएं- २ अंक.
3. उस संगीतकार का नाम बताएं जिसने इस तदाकते फडकते गीत को रचा -२ अंक.
4. जीनत अमान इस फिल्म में एक अहम भूमिका में थी, फिल्म का नाम बताएं-२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी ३ अंक, शरद जी, पदम जी और अनीता जी २-२ अंकों का इजाफा हुआ आपके भी स्कोर में, उम्मीद है अब आप शारदा जी के बारे में थोडा बहुत जाँ गयी होंगीं.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल.. अपने शोख कातिल से ग़ालिब की इस गुहार के क्या कहने!!



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७८

देखते -देखते हम चचा ग़ालिब को समर्पित आठवीं कड़ी के दर पर आ चुके हैं। हमने पहली कड़ी में आपसे जो वादा किया था कि हम इस पूरी श्रृंखला में उन बातों का ज़िक्र नहीं करेंगे जो अमूमन हर किसी आलेख में दिख जाता है, जैसे कि ग़ालिब कहाँ के रहने वाले थे, उनका पालन-पोषण कैसे हुआ.. वगैरह-वगैरह.. तो हमें इस बात की खुशी है कि पिछली सात कड़ियों में हम उस वादे पर अडिग रहे। यकीन मानिए.. आज की कड़ी में भी आपको उन बातों का नामो-निशान नहीं मिलेगा। ऐसा कतई नहीं है कि हम ग़ालिब की जीवनी नहीं देना चाह्ते... जीवनी देने में हमें बेहद खुशी महसूस होगी, लेकिन आप सब जानते हैं कि हमारी महफ़िल का वसूल रहा है- महफ़िल में आए कद्रदानों को नई जानकारियों से मालामाल करना, ना कि उन बातों को दुहराना जो हर गली-नुक्कड़ पर लोगों की बातचीत का हिस्सा होती है। और यही वज़ह है कि हम ग़ालिब का "बायोडाटा" आपके सामने रखने से कतराते हैं।

चलिए..बहुत हुआ "अपने मुँह मियाँ-मिट्ठु" बनना.. अब थोड़ी काम की बातें कर ली जाएँ!! तो आज की कड़ी में हम ग़ालिब पर निदा फ़ाज़ली साहब के मन्त्वय और ग़ालिब की हीं किताब "दस्तंबू" से १८५७ के दौरान की घटनाओं के बारे में जानेंगे।

ग़ालिब के बारे में निदा साहब कहते हैं:

ग़ालिब अपने युग में आने वाले कई युगों के शायर थे, अपने युग में उन्हें इतना नहीं समझा गया जितना बाद के युगों में पहचाना गया. हर बड़े दिमाग़ की तरह वह भी अपने समकालीनों की आँखों से ओझल रहे.

भारतीय इतिहास में वह पहले शायर थे, जिन्हें सुनी-सुनाई की जगह अपनी देखी-दिखाई को शायरी का मैयार बनाया, देखी-दिखाई से संत कवि कबीर दास का नाम ज़हन में आता है- तू लिखता है कागद लेखी, मैं आँखन की देखी. लेकिन कबीर की आँखन देखी और ग़ालिब की देखी-दिखाई में थोड़ा अंतर भी है. कबीर सर पर आसमान रखकर धरती वालों से लड़ते थे और आखिरी मुगल के दौर के मिर्ज़ा ग़ालिब दोनों से झगड़ते थे, इसी लिए सुनने और पढ़ने वाले उनसे नाराज़ रहते थे. लालकिले के एक मुशायरे में, ख़ुद उनके सामने उनपर व्यंग किया गया.

कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे

मीर और मीरज़ा से व्यंगकार की मुशद ग़ालिब से पहले के शायर मीर तकीमीर और मीरज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा थी. ग़ालिब को इस व्यंग्य ने परेशान नहीं किया. उन्होंने इसके जवाब में ऐलान किया:

न सताइश (प्रशंसा) की तमन्ना, न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी (अर्थ) न सही
(हमारे हिसाब से यह शेर इस महफ़िल में अब तक तीन बार उद्धृत किया जा चुका है.. लेकिन क्या करें, शेर है हीं कुछ ऐसा कि हर कोई इसे याद कर जाता है)

मिर्ज़ा ग़ालिब का यह आत्मविश्वास उनकी महानता की पहचान है.

ग़ालिब शब्दों और भावों से खेलना बखूबी जानते हैं, तभी तो जहाँ एक ओर यह कहे जाने पर कि उनके शेरों में कोई अर्थ नहीं होता, उन्हें अपने बचाव में जवाब देना पड़ता है वहीं दूसरी ओर वे खुलेआम इस बात को कुबूल करते हैं कि उनके खत (जो उन्होंने अपनी माशूका को लिखे है) बे-मायने होते हैं। यह ग़ालिब की कला नहीं तो और क्या है:

ख़त लिखेंगे, गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के


ये तो सभी जानते हैं कि १८५७ के गदर ने ग़ालिब पर खासा असर किया था। कुछ लोग इस गलतफ़हमी के शिकार हैं कि ग़ालिब ने उस दौरान अंग्रेजों का पक्ष लिया था। इसी बात को गलत साबित करने के लिए मशहूर शायर मख़मूर सईदी ने ग़ालिब की किताब ‘दस्तंबू’ और उनके खतों के हवाले से १८५७ की कहानी को ब्यान किया है. इस किताब की भूमिका में उन्होंने ‘दस्तंबू’ के हवाले से ग़ालिब पर की जाने वाली आलोचनाओं का जवाब और जवाज़ (औचित्य) पेश किया है। (सौजन्य: मिर्ज़ा बेग़.. अहदनामा ब्लाग से):

दस्तंबू में लिखी कुछ घटनाओं के आधार पर कुछ लोगों ने ग़ालिब पर अंग्रेज़-दोस्ती का इल्ज़ाम लगाया है लेकिन जिस चीज़ को लोगों ने अंग्रेज़-दोस्ती का नाम दिया है वह दरअसल मिरज़ा ग़ालिब की इंसान-दोस्ती थी. बाग़ी भड़के हुए थे इस लिए बहुत से बेगुनाह अंग्रेज़ मर्द औरतें भी उनके ग़ुस्से का निशाना बने. मिर्ज़ा ग़ालिब ने उन बेगुनाहों के मारे जाने पर दुख प्रकट किया लेकिन उन्होंने उस दुख पर भी परदा नहीं डाला जो अंग्रेज़ों की तरफ़ से बेक़सूर हिंदुस्तानी नागरिकों पर ढ़ाए गए.

११ मई १८५७ से ३१ जुलाई १८५८ की घटनाओं पर आधारित "दस्तंबू" में ग़ालिब ने अपने गद्य का झंडा गाड़ने का दावा भी किया है और कहा है कि यह किताब पुरानी फ़ारसी में लिखी गई है और इसमें एक शब्द भी अरबी भाषा का नहीं आने दिया गया है सिवाए लोगों के नामों के क्योंकि उन को बदला नहीं जा सकता था. उन्होंने इसका नाम ‘दस्तंबू’ इस लिए रखा है कि यह लोगों में हाथों हाथ ली जाएगी जैसा कि उस ज़माने में बड़े लोग ताज़गी और ख़ुशबू के लिए दस्तंबू अपने हाथों में रखा करते थे.

ग़ालिब के नज़दीक पीर यानी सोमवार का दिन बड़ा मनहूस है, बाग़ी सोमवार को ही दिल्ली में दाख़िल हुए थे, सोमवार के दिन ही उनकी हार शुरू हुई थी, जब गोरे सिपाही ग़ालिब को पकड़ कर ले गए वह भी सोमवार था और फिर जिस दिन ग़ालिब के भाई का देहांत हुआ वह भी सोमवार था. ग़ालिब ने इस बारे में लिखा है : “१९ अक्तूबर को वही सोमवार का दिन जिसका नाम सपताह के दिनों कि सूचि में से काट देना चाहिए एक सांस में आग उगलने वाले सांप की तरह दुनिया को निगल गया”

ग़ालिब ने अंग्रेज़ अफ़्सरों और फ़ौजियों की रक्तपाति प्रतिक्रिया पर पर्दा नहीं डाला और साफ़ साफ़ लिख गए:

“शाहज़ादों के बारे में इससे अधिक नहीं कहा जा सकता कि कुछ बंदूक़ की गोली का ज़ख़्म खा कर मौत के मुंह में चले गए और कुछ की आत्मा फांसी के फंदे में ठिठुर कर रह गई. कुछ क़ैदख़ानों में हैं और कुछ दर-बदर भटक रहे हैं. बूढ़े कमज़ोर बादशाह पर जो क़िले में नज़र बंद हैं मुक़दमा चल रहा है. झझ्झर और बल्लभगढ़ के ज़मीनदारों और फ़र्रुख़ाबाद के हाकिमों को अलग-अलग विभिन्न दिनों में फांसी पर लटका दिया गया. इस प्रकार हलाक किया गया कि कोई नहीं कह सकता कि ख़ून बहाया गया.... जानना चाहिए कि इस शहर में क़ैदख़ाना शहर से बाहर है और हवालात शहर के अंदर, उन दोनों जगहों में इस क़दर आदमियों को जमा कर दिया गया कि मालूम पड़ता है कि एक दूसरे में समाए हुए हैं. उन दोनों क़ैदख़ानों के उन क़ैदियों की संख्या को जिन्हें विभिन्न समय में फांसी दी गई यमराज ही जानता है...”

मीर मेहदी के नाम लिखे ख़त में ग़ालिब लिखते हैं. “क़ारी का कुआं बंद हो गया. लाल डुगी के कुएं एक साथ खारे हो गए. ख़ैर खारा पानी ही पीते, गर्म पानी निकलता है. परसों मैं सवार होकर कुएं का हाल मालूम करने गया था. जामा मस्जिद से राज घाट के दरवाज़े तक बे-मुबालग़ा (बिना अतिश्योक्ति) एक ब्याबान रेगिस्तान है... याद करो मिर्ज़ा गौहर के बाग़ीचे के उस तरफ़ को बांस गड़ा था अब वह बाग़ीचे के सेहन के बराबर हो गया है.... पंजाबी कटरा, धोबी कटरा, रामजी गंज, सआदत ख़ां का कटरा, जरनैल की बीबी की हवेली, रामजी दास गोदाम वाले के मकानात, साहब राम का बाग़ और हवेली उनमें से किसी का पता नहीं चलता. संक्षेप में शहर रेगिस्तान हो गया.... ऐ बन्दा-ए-ख़ुदा उर्दू बाज़ार न रहा, उर्दू कहां, दिल्ली कहां? वल्लाह अब शहर नहीं है, कैम्प है, छावनी है. न क़िला, न शहर, न बाज़ार, न नहर.”

एक और ख़त में लिखते हैं. “भाई क्या पूछते हो, क्या लिखूं ? दिल्ली की हस्ती कई जश्नों पर थी. क़िले, चांदनी चौक, हर रोज़ का बाज़ार जामा मस्जिद, हर हफ़्ते सैर जमना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का, ये पांचों बातें अब नहीं. फिर कहो दिल्ली कहां....?”

कुछ खुशियाँ, कुछ मज़ाक, कुछ हँसी-ठिठोली और बहुत सारी ग़म की बातों के बाद अब वक्त है आज की गज़ल से रूबरू होने का। आज हम जो गज़ल आपके सामने लेकर आए हैं, उसमें भी ग़ालिब के ज़ख्मों का ज़िक्र है, इसलिए यह कह नहीं सकता कि लुत्फ़ उठाईये। हाँ इस बात की दरख्वास्त कर सकता हूँ कि "निघत अक़बर" जी ने अपनी आवाज़ के माध्यम से जिस दर्द को जीने की कोशिश की है, उस दर्द का एक छोटा-सा हिस्सा आप भी अपनी नसों में उतार लीजिये। दर्द उतरेगा तो सीसे की तरफ़ चुभेगा ज़रूर लेकिन आपको इस बात का फ़ख्र होगा कि आपने ग़ालिब के ग़मों पे अपनी गलबहियाँ डाली हैं। (कुछ ज्यादा हीं हो गया ना :) क्या कीजियेगा ..मेरी बोलने की आदत नहीं जाती, इसलिए आप अगर मुझसे छुटकारा चाहते हैं तो तुरंत हीं गज़ल सुनने में तल्लीन हो जाएँ) तो आपके सामने पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल:

तस्कीं को हम न रोएं, जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हूरान-ए-ख़ुल्द में तेरी सूरत मगर मिले

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले

तुमसे तो कुछ कलाम नहीं, लेकिन ऐ ___
मेरा सलाम कहियो, अगर नामाबर मिले

ऐ साकिनान-ए-कुचा-ए-दिलदार देखना
तुमको कहीं जो ग़ालिब-ए-आशुफ़्ता-सर मिले




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "तबाही" और शेर कुछ यूँ था-

तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
इसमें कुछ शाइबा-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था

सही शब्द पहचान कर महफ़िल में पहला कदम रखा "सीमा" जी ने। सीमा जी.. ये रहे आपके तुनीर के तीर:

ज़िक्र जब होगा मुहब्बत में तबाही का कहीं
याद हम आयेंगे दुनिया को हवालों की तरह (सुदर्शन फ़ाकिर)

जो हमने दास्‍तां अपनी सुनाई आप क्‍यूं रोए
तबाही तो हमारे दिल पे आई आप क्‍यूं रोए (राजा मेहंदी अली खान)

सजीव जी, मनीष जी का आशीर्वाद मुझ तक पहुचाने के लिए आपका तहे-दिल से आभार। अब आप मेरे भी नामाबर हो जाईये और मेरी तरफ़ से धन्यवाद-ज्ञापन कर आईये... क्या कहते हैं? :)

शरद जी, क्या बात कह दी आपने! दिल में एक टीस-सी उभर आई...

मुझे तो अपनी तबाही की कोई फ़िक्र नहीं
यही ख्वाहिश है ये इल्ज़ाम तुम पे आए नहीं। (स्वरचित)

मंजु जी, इन आतंकियों के सामने हर चेतावनी छोटी पड़ जाती है, फिर भी इन्हें इनकी औकात तो बताई जानी चाहिए। शब्द अच्छे हैं, आपने अगर इन्हें सही से संवारा होता तो हमारे सामने एक मुकम्मल शेर होता। इसलिए शेर के बजाय मैं इसे छंद हीं कहूँगा:

अरे आतंकी !मत दिखा मेरे मुल्क में तबाही का मंजर ,
तेरे को खत्म करने के लिए आएगा कोई राम -कृष्ण -गाँधी बन कर .(स्वरचित )

नीलम जी, एक शेर तो आपने पेश किया. आपसे हमें और भी शेरों की दरकार है। खैर तब तक के लिए यही सही:

जब से हम तबाह हो गए ,
तुम जहाँपनाह हो गए

एक और बात...आपको अगर शायरी सीखनी हो तो "सुबीर संवाद सेवा" पर हमारे गुरू जी "पंकज सुबीर" की कक्षा में दाखिला ले लें। बहुत फ़ायदा होगा।

शन्नो जी, किस बात का दु:ख है आपको... हँसिए, मुस्कुराईये और महफ़िल में माहौल बनाईये। वैसे ये शेर तो बड़ा हीं वज़नदार रहा:

किसी रकीब ने भी कुछ कहा अगर तो उसे वाह-वाही मिली
हमने जो जहमत उठाई कुछ कहने की तो हमें तबाही मिली

सुमित जी, ऐसे नहीं चलेगा। आप कुछ देर के लिए आते हैं और वही शेर कह जाते हैं जो सीमा जी ने कहा है। शेर कहने से पहले बाकी की टिप्पणियों पर भी तो नज़र दौड़ा लिया करें। :)

अवनींद्र जी, हमारी महफ़िल अच्छे शेरों और गुणी शायरों का कद्र करना जानती है। और इस नाते हमारी नज़रों में आपका कद बेहद ऊँचा है। आपको पढकर लगता है कि लिखने से पहले आप दिल को मथ डालते हैं। हैं ना? ये रहे प्रमाण:

एहसास जब सीने मैं तबाह होता हैं
अश्क तेरी चाहत का गवाह होता है

उसने अपनी तबाही मैं मुझे शामिल ना किया
क्या ये सबब कम हे मेरी तबाही के लिए?

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, April 6, 2010

आ दो दो पंख लगा के पंछी बनेंगे...आईये लौट चलें बचपन में इस गीत के साथ



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 396/2010/96

पार्श्वगायिकाओं के गाए युगल गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'सखी सहेली' की आज की कड़ी में हमने जिन दो आवाज़ों को चुना है, वो दोनों आवाज़ें ही हिंदी फ़िल्म संगीत के लिए थोड़े से हट के हैं। इनमें से एक आवाज़ है गायिका आरती मुखर्जी की, जो बंगला संगीत में तो बहुत ही मशहूर रही हैं, लेकिन हिंदी फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा सुनाई नहीं दीं हैं। और दूसरी आवाज़ है गायिका हेमलता की, जिन्होने वैसे तो हिंदी फ़िल्मों के लिए बहुत सारे गीत गाईं हैं, लेकिन ज़्यादातर गीत संगीतकार रवीन्द्र जैन के लिए थे, और उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में कम बजट की होने की वजह से उन्हे वो प्रसिद्धी नहीं मिली जिनकी वो सही मायने में हक़दार थीं। ख़ैर, आज हम इन दोनों गायिकाओं के गाए जिस गीत को सुनवाने के लिए लाए हैं, वह गीत इन दोनों के करीयर के शुरूआती दिनों के थे। यह फ़िल्म थी १९६९ की फ़िल्म 'राहगीर', जिसका निर्माण गीतांजली चित्रदीप ने किया था। बिस्वजीत और संध्या अभिनीत इस फ़िल्म में हेमन्त कुमार का संगीत था और गीत लिखे गुलज़ार साहब ने। इसमें आरती मुखर्जी और हेमलता ने साथ में एक बच्चों वाला गीत गाया था "आ दो दो पंख लगा के पंछी बनेंगे"। बड़ा ही प्यारा सा गीत है और आजकल यह गीत ना के बराबर सुनाई देता है। बहुत ही दुर्लभ गीत है, और इस गीत को हमें उपलब्ध करवाया मेरे एक ऐसे दोस्त ने जो समय समय पर हमें दुर्लभ से दुर्लभ गीत खोज कर भेजती रहती हैं लेकिन अपना नाम दुनिया के सामने आए ये वो यह नहीं चाहतीं। आज जहाँ छोटे से छोटे काम के लिए इंसान चाहता है कि उसका नाम आगे आए, वहीं मेरी यह दोस्त गुमनाम रह कर हमारे प्रयासों में अद्वितीय सहयोग दे रही हैं। मैं उनका नाम बता कर उन्हे चोट नहीं पहुँचाउँगा, लेकिन उनका तह-ए-दिल से शुक्रिया ज़रूर अदा करूँगा। उनके सहयोग के बिना हम बहुत से ऐसे गीतों को बजाने की कल्पना भी नहीं कर पाते, और आज का गीत भी उन्ही दुर्लभ गीतों में से एक है।

आरती मुखर्जी ने फ़िल्म 'राहगीर' का यह गीत १९६९ में गाया था। उसके बाद जिन हिंदी फ़िल्मों में उनके हिट गीत आए उनमें शामिल हैं 'गीत गाता चल' (१९७५), 'तपस्या' ('१९७६), 'मनोकामना' (१९८३) और 'मासूम' (१९८३)। फ़िल्म 'मासूम' में उनके गाए गीत "दो नैना और एक कहानी" के लिए उन्हे उस साल सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। दूसरी तरफ़ हेमलता के गाए हिंदी गेतों की फ़ेहरिस्त तो काफ़ी लम्बी चौड़ी है, इसलिए उस तरफ़ ना जाते हुए हम सीधे उन्ही की ज़ुबानी कुछ जानकारी देना चाहेंगे जो उन्होने विविध भारती के श्रोताओं के साथ बाँटे थे एक मुलाक़ात में। दोस्तों, क्योंकि आज हम हेमलता जी के गाए एक बच्चों वाले गीत को सुनने जा रहे हैं हेमन्त दा के संगीत में, तो क्यों ना हम उस मुलाक़ात के उस अंश को पढ़ें जिसमें वो बता रहीं हैं उनके पहले पहले स्टेज गायन के बारे में जिसमें हेमन्त दा, जी हाँ हेमन्त दा भी मौजूद थे। "कलकत्ता के रवीन्द्र सरोवर स्टेडियम में एक बहुत बड़ा प्रोग्राम हुआ था। डॊ. बिधान चन्द्र रॊय आए थे उसमें, दो लाख की ऒडियन्स थी। उस शो के चीफ़ कोर्डिनेटर गोपाल लाल मल्लिक ने मुझे एक गाना गाने का मौका दिया। उस शो में लता जी, रफ़ी साहब, उषा जी, हृदयनाथ जी, किशोर दा, सुबीर सेन, संध्या मुखर्जी, आरती मुखर्जी, हेमन्त दादा, सब गाने वाले थे। मुझे इंटर्वल में गाना था, ऐज़ बेबी लता (हेमलता का असली नाम लता ही था उन दिनों) ताकि लोग चाय वाय पी के आ सके। मेरे गुरु भाई चाहते थे कि इस प्रोग्राम के ज़रिए मेरे पिताजी को बताया जाए कि उनकी बेटी कितना अच्छा गाती है (हेमलता के पिता को यह मालूम नहीं था कि उनकी बेटी छुप छुप के गाती है)। तो वो जब जाकर मेरे पिताजी को इस फ़ंक्शन में आने के लिए कहा तो वो बोले कि मैं वहाँ फ़िल्मी गीतों के फ़ंक्शन में जाकर क्या करूँगा! बड़ी मुश्किल से मनाकर उन्हे लाया गया। तो ज़रा सोचिए, बिधान चन्द्र रॊय, सारे मिनिस्टेरिएल लेवेल के लोग, दो लाख ऒडियन्स, इन सब के बीच मेरे पिताजी बैठे हैं और उनकी बेटी गाने वाली है और यह उनको पता ही नहीं। उस समय मेरा आठवाँ साल लगा था। मैंने "जागो मोहन प्यारे", फ़िल्म 'जागते रहो', यह गाना गाया। जैसे ही मैंने वह आलाप लिया, पब्लिक ज़ोर से शोर करने लगी। मैंने सोचा कि क्या हो गया, फिर पता चला कि वो "आर्टिस्ट को ऊँचा करो" कह रहे हैं। फिर टेबल लाया गया और मैंने फिर से गाया, वन्स मोर भी हुआ। कलकत्ता की ऒडियन्स, दुनिया में ऐसी ऒडियन्स आपको कहीं नहीं मिलेगी, वाक़ई! फिर उस दिन मैंने एक एक करके १२ गीत गाए, सभी बंगला में, हिंदी में, जो आता था सब गा दिया। फिर शोर हुआ कि दीदी (लता जी) आ गईं हैं। बी. सी. रॊय ने बेबी लता के लिए गोल्ड मेडल अनाउन्स किया। पिता जी भी मान गए, उनको भी लगा कि उसकी प्रतिभा को रोकने का मुझे कोई अधिकार नहीं है, फिर राशी देख कर 'ह' से हेमलता नाम रखा गया और मैं लता से हेमलता बन गई।" तो दोस्तों, यह थी हेमलता से जुड़ी एक दिलचस्प जानकारी। और अब वक़्त है दो दो पंख लगा के पंछी बनने की, सुनते हैं दो सखियों आरती मुखर्जी और हेमलता की आवाज़ें फ़िल्म 'राहगीर' के इस मासूम गीत में।



क्या आप जानते हैं...
कि हेमलता कुल ३८ भाषाएँ पढीं हैं, और १२ देशों की मुख्य भाषा को बाकायदा सीखा है। उन्होने ख़ुद यह विविध भारती पर कहा था।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. एक मुहावरे से शुरू होता है ये गीत, फिल्म का नाम बताएं -३ अंक.
2. शैलेन्द्र के लिखे इस गीत की संगीतकार जोड़ी कौन सी है - २ अंक.
3. मुबारक बेगम के साथ किस गायिका ने इस गीत में आवाज़ मिलायी है -२ अंक.
4. राज कपूर अभिनीत इस फिल्म की नायिका कौन हैं -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी, पदम जी, इंदु जी और अवध जी बधाई, इंदु जी लगता है आपको बच्चों वाले गीत पसंद नहीं...भाई जिस गीत के साथ हेमंत दा, गुलज़ार, आरती मुखर्जी और हेमलता जुडी हों उसे गोल्ड मानने से हम तो इनकार नहीं कर सकते :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

केरल में हिंदी गीत




Monday, April 5, 2010

गरजत बरसात सावन आयो री....सुन कर इस गीत को जैसे बिन बादल बारिश में भीग जाता है मन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 395/2010/95

भारतीय शास्त्रीय संगीत की यह विशिष्टता रही है कि हर मौसम, हर ऋतु के हिसाब से इसे गाया जा सकता है। तो ज़ाहिर है कि सावन पर भी कई राग प्रचलित होंगे। मल्हार, मेघ, मेघ मल्हार, मियाँ की मल्हार, गौर मल्हार इन्ही रागों में से एक है। आज 'सखी सहेली' शृंखला के अंतरगत हमने जिस युगल गीत को चुना है, वह आधारित है राग गौर मल्हार पर। "गरजत बरसत सावन आयो रे", फ़िल्म 'बरसात की रात' का यह गीत है जिसे सुमन कल्याणपुर और कमल बारोट ने गाया है। साहिर लुधियानवी के बोल और रोशन साहब की तर्ज़। इसी राग पर वसंत देसाई ने भी फ़िल्म 'आशीर्वाद' में एक गाना बनाया था "झिर झिर बरसे सावनी अखियाँ, सांवरिया घर आ"। 'बरसात की रात' रोशन साहब के करीयर की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म के हर एक गीत में कुछ ना कुछ अलग बात थी। और क्यों ना हो जब फ़िल्म की कहानी ही एक क़व्वाली प्रतियोगिता के इर्द गिर्द घूम रही हो। ज़ाहिर है कि इस फ़िल्म में कई क़व्वालियाँ थीं जैसे कि "ना तो कारवाँ की तलाश है", "निगाह-ए-नाज़ के मारों का हाल क्या होगा" और "पहचानता हूँ ख़ूब तुम्हारी नज़र को मैं"। फ़िल्मों में क़व्वालियों को लोकप्रिय बनाने में रोशन साहब के योगदान को सभी स्वीकारते हैं। लेकिन यह फ़िल्म क़व्वाली से नहीं शुरु होती बल्कि आज के प्रस्तुत शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत के साथ। एक तरफ़ रोशन साहब की क़व्वालियाँ, और दूसरी तरफ़ शास्त्रीय संगीत में इस तरह की दक्षता। और दक्षता क्यों ना हो जब उन्हे उस्ताद अल्लाउद्दिन ख़ान साहब से संगीत सीखने का मौका मिला था! सुमन और कमल जी के गाए इस गीत का जो शुरुआती संगीत है, उसे किसी ज़माने में विविध भारती के शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम 'संगीत सरिता' के शीर्षक धुन के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इस गीत के बहाने क्यों ना आपको कुछ और ऐसी सावनी गीतों की याद दिलाई जाए जो शास्रीय संगीत पर आधारित है! "कहाँ से आए बदरा घुलता जाए कजरा" (चश्म-ए-बद्दूर), कारे कारे बदरा सूनी सूनी रतिया" (मेरा नाम जोकर), डर लागे गरजे बदरिया (राम राज्य), "सावन आए या ना आए" (मेरी सूरत तेरी आँखें), "जा रे बदरा बैरी जा" (बहाना), "ओ सजना बरखा बहार आई" (परख), "घर आजा घिर आए बदरा सांवरिया" (छोटे नवाब), "अजहूँ ना आए साजना सावन बीता जाए" (सांझ और सवेरा), आदि।

दोस्तों, आज हम थोड़ी बातें करते हैं गायिका कमल बारोट की। कमल बारोट ने दूसरी गायिका के रूप में असंख्य युगल गीत और क़व्वालियाँ गाईं हैं, जिनमें से कई बेहद कामयाब भी रहे हैं। क्योंकि इन दिनों ज़िक्र छिड़ा हुआ है फ़ीमेल डुएट्स की, तो चलिए इसी बहाने हम याद करें कमल बारोट के गाए कुछ फ़ीमेल डुएट्स की। १९६१ में आशा भोसले के साथ उनका गाया हुआ फ़िल्म 'घराना' का यह बच्चों वाला गाना "दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ" उस साल अमीन सायानी के वार्षिक गीत माला के २६-वे पायदान पर रहा। लता मंगेशकर के साथ "हँसता हुआ नूरानी चेहरा" और "अकेली मोहे छोड़ ना जाना", ये दोनों गीत बेहद लोकप्रिय रहे। कमल बारोट के कुछ और फ़ीमेल डुएट्स इस प्रकार हैं -शमशाद बेग़म के साथ "अल्लाह तेरी आहों में इतना असर दे" (एक दिन का बादशाह), मुबारक़ बेग़म के साथ "मतवारे सांवरिया के नैना" (हम एक हैं), मिनू पुरुषोत्तम के साथ "आँखों में कोई यादों में कोई" (काला चश्मा), कृष्णा कल्ले के साथ "छुट्टी आ गई ढोल बजाएँगे" (नौनिहाल), उषा मंगेशकर के साथ "हमें ये दुनिया वाले प्यार का इल्ज़ाम दें" (बड़ा आदमी), उषा तिमोथी के साथ "ज‍इयो ना जमना पे अकेली तुम राधा" (सती नारी), आशा भोसले व उषा मंगेशकर के साथ "लुट जा लुट जा ये ही दिन है लुट जा" (आँखें), और भी तमाम गानें हैं इस तरह के। दोस्तों, सावन का महीना तो अभी बहुत दूर है, उससे पहले हमें चिलचिलाती गरमी का सामना भी करना है, लेकिन कम से कम इस गीत के माध्यम से हम सावन का मन ही मन आनंद तो ले ही सकते हैं। 'सखी सहेली' में आज सुमन कल्याणपुर और कमल बारोट की युगल आवाज़ें, प्रस्तुत है।



क्या आप जानते हैं...
कि सुमन कल्याणपुर का गाया पहला हिंदी फ़िल्मी गीत है 'मंगू' फ़िल्म का "कोई पुकारे धीरे से", जिसके संगीतकार थे मोहम्मद शफ़ी।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. "पंख" और "पंछी" शब्द हैं मुखड़े में में, फिल्म का नाम बताएं -३ अंक.
2. हेमलता के साथ किस गायिका ने इस गीत में आवाज़ मिलायी है - २ अंक.
3. हेमंत कुमार के संगीत निर्देशन में किस गीतकार ने लिखा था इस गीत को-२ अंक.
4. कौन थे फिल्म के प्रमुख अदाकार बताएं -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी बहुत बधाई, साथ में इंदु जी, पदम जी और अवध जी को बधाई, मनु जी बहुत दिनों बाद लौटे, वंदना जी सभी जवाब आपने नहीं देने हैं, कृपया नियमों को पढ़ें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

पी से पाठशाला और पी से प्रिंस....दो युवा संगीतकारों ने धाक जमाई इन बड़ी फिल्मों से



ताज़ा सुर ताल १४/२०१०

सुजॊय - सजीव, साल २०१० का एक चौथाई पूरा हो चुका है, यानी कि तीन महीने। इन तीन महीनों में हमने जिन जिन फ़िल्मों के संगीत की चर्चा यहाँ की, अपने नए साथियों के लिए बता दें उन फ़िल्मों के नाम।

सजीव - बिल्कुल बताओ, इससे इस बरस अब तक बनी फ़िल्मों का एक छोटा सा रीकैप भी हो जाएगा।

सुजॊय - ये फ़िल्में हैं दुल्हा मिल गया, वीर, रण, इश्क़िया, माइ नेम इज़ ख़ान, स्टाइकर, रोड टू संगम, लाहौर, सदियाँ, एल.एस.डी, शिवाजी दि बॊस, कार्तिक कॊलिंग् कार्तिक, वेल डन अब्बा।

सजीव - और हमने दो ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम्स की भी चर्चा की - अमन की आशा, और अपना होम प्रोडक्शन काव्यनाद। तो अब हम आगे बढ़ते हैं और आज हम लेकर आए हैं दो फ़िल्मों के गानें। पहली फ़िल्म है 'पाठशाला'। इस फ़िल्म की चर्चा और प्रचार काफ़ी पहले से शुरु हो गई थी, लेकिन फ़िल्म के बनने में बहुत लम्बा समय लग गया।

सुजॊय - लेकिन इस फ़िल्म का संगीत बिल्कुल फ़्रेश है। फ़िल्म में गीत संगीत हनीफ़ शेख़ का है। फ़िल्म के गीतों को गाया है लकी अली, कैलाश खेर, विशाल दादलानी, तुलसी कुमार और सलीम मरचेंट ने। गीतों में विविधता है, मेलोडी भी है और कुछ गानें आपके क़दमों को थिरकाने वाले भी हैं। और क्यों ना हो जब फ़िल्म का नायक शाहिद कपूर हैं।

सजीव - तो इस फ़िल्म के दो गीत हम यहाँ सुनेंगे, पहला गाना है लकी अली का गाया हुआ। गीटार के ख़ूबसूरत और प्रॊमिनेन्ट प्रयोग से सजा यह गीत है "बेक़रार"। बहुत दिनों के बाद लकी अली की आवाज़ सुनाई दी है। एक यूथ अपील है इस गीत में और बोल भी तो कितने ख़ूबसूरत हैं, "सूनी सूनी राहों में है तेरा ही इंतेज़ार, जली बूझी साँसों से अब तेरा ही है ख़ुमार, न जाने मैंने क्या खोया क्या पाया कुछ भी ना समझे यहाँ, भुला के सारी बातों को जी आया फिर भी ना आए क़रार, बेक़रार"। कहीं पर बहुत ऊँचे सुर हैं तो कहीं पर नाज़ुकी। लकी अली ने बड़ा ही ख़ूबसूरत अंजाम दिया है इस गीत को। और हनीफ़ की प्रतिभा को भी सलाम जिन्होने इस गीत को लिखा भी है और सुरों में ढाला है।

गीत - बेक़रार


सुजॊय - 'पाठशाला' में कुल पाँच गानें हैं। "बेक़रार" के बाद जो गीत हमें सुनना चाहिए वह बेशक़ कैलाश खेर का गाया "ऐ ख़ुदा" है। कैलाश खेर की आवाज़ में वह देसी महक है कि जिससे उनकी अवाज़ कभी बासी नहीं लगती। भले ही वो अपनी एक ही शैली व अंदाज़ में गाते हैं, लेकिन हर बार हमें सुन कर अच्छा ही लगता है।

सजीव - वैसे इस गीत को सुनते हुए कैलाश का गाया "या रब्बा" गीत की याद आ ही जाती है, जिसमें संगीत था शंकर अहसान लॊय का।

सुजॊय - तो फिर इस गीत को सुनते हैं और हम भी इसी बात को महसूस करने की कोशिश करते हैं।

गीत - ऐ ख़ुदा


सजीव - और अब आ रहे हैं प्रिन्स। जब म्युज़िक कंपनी 'टिप्स' हो, और गीतकार समीर हो, तो अगर श्रोता ९० के दशक के मेलडी की उम्मीद करें तो उन्हे ज़्यादा दोष नहीं दिया जा सकता।

सुजॊय - वैसे फ़िल्म 'प्रिन्स' के संगीतकार हैं सचिन गुप्ता, जिन्होने इससे पहले कुछ कम बजट की फ़िल्मों में संगीत दिया है। शायद यही उनकी पहली बड़ी फ़िल्म है। 'प्रिन्स' के कुछ गानें वैसे तो इन दिनों काफ़ी बज रहे हैं, और जो गीत सब से ज़्यादा सुनाई दे रहा है आजकल, उसी को सब से पहले सुना जाए!

सजीव - तुम्हारा इशारा "ओ मेरे ख़ुदा" की तरफ़ ही होगा। आतिफ़ असलम और श्रेया घोषाल की आवाज़ों में इस गीत से इतनी उम्मीदें लगाई गई कि इस गीत के कुल चार वर्ज़न साउंड ट्रैक में रखे गए हैं। लेकिन वाक़ई इस गीत में कुच ऐसी बात है कि जो आज के दौर के किसी कामयाब गीत में होनी चाहिए। भले ही गीत अंदाज़ पाश्चात्य है, लेकिन मेलडी बहुत सुरीला है, और श्रेया और आतिफ़ ने जैसे बिल्कुल इस गीत को जो मूड चाहिए था, वह बना दिया है।

सुजॊय - इस तरह के रोमांटिक गीतों में आतिफ़ की आवाज़ बहुत जचती है। हालाँकि बहुत से गायक और संगीतकार आतिफ़ को गायक मानने से ही इंकार कर देते हैं, लेकिन जो हक़ीक़त है उससे कोई मुंह नहीं मोड़ सकता। और हक़ीक़त यही है कि जो भी गीत आतिफ़ गाते हैं, वह युवा दिलों की धड़कर बन जाते हैं। अच्छा सजीव, यह गीत जिस तरह से शुरु होता है कि "जागी जागी सोयी ना मैं सारी रात तेरे लिए, भीगी भीगी पलकें मेरी उदास तेरे लिए, अखियाँ बिछाई मैंने तेरे लिए, दुनिया भुलाई मैंने तेरे लिए, जन्नतें सजाई मैंने तेरे लिए, छोड़ दी ख़ुदाई मैंने तेरे लिए"; तो इसमें "जागी जागी सोयी ना मैं सारी रात", इतना जो हिस्सा है, इसकी धुन आपको किसी पुराने गीत से मिलती जुलती लगती है?

सजीव - याद तो नहीं आ रहा, चलो तुम ही बताओ।

सुजॊय - दरसल यह मेरी खोज नहीं है, इंटरनेट पर ही मैंने यह बात पढ़ी और जब ख़ुद उस गीत को अपने पी.सी पर सुना तो यक़ीन हो गया। वह गीत है ९० के दशक की फ़िल्म 'यलगार' का, "हो जाता है कैसे प्यार न जाने कोई"। इस गीत के अंतरे का जो धुन है, जिसमें कुमार सानू गाते हैं "षोख़ हसीना से मिलने के बाद..." या फिर जब सपना मुखर्जी गाती हैं "लाख कोई सोचे सारे सारी रात..."। आप भी सुनिए इस गीत को और हमारे तमाम श्रोताओं को भी 'यलगार' के इस गीत को सुनने का सुझाव हम देंगे। लेकिन फिलहाल हम आपको सुनवा रहे हैं आतिफ़ और श्रेया का गाया "तेरे लिए"।

गीत - तेरे लिए


सजीव - अच्छा इस गीत से पहले तुम बता रहे थे कि इस गीत के चार वर्ज़न हैं, तो उनके बारे में भी बताते चलें।

सुजॊय - बाक़ी के तीन वर्ज़न रीमिक्स वर्ज़न हैं जिनका कुछ इस तरह से नामकरण किया किया गया है - 'डान्स मिक्स' जिसे शायद डिस्कोज़ के लिए बनाया गया होगा; दूसरा है 'हिप हॊप मिक्स' जो पहले के मुक़ाबले थोड़ा और सेन्सुयस भी। आतिफ़ की आवाज़ में एक सेन्सुयस फ़ील है जो इस तरह के गीतों में थोड़ा और जान डाल देता है। और जो तीसरा वर्ज़न है उसका नाम है 'अनप्लग्ड वर्ज़न' जिसमें अनर्थक साज़ों की भीड़ नहीं है, बल्कि केवल गीटार की पार्श्व में सुनाई देता है और इस वर्ज़न में आवाज़ ख़ुद सचिन गुप्ता की ही है। वेल डन सचिन!

सजीव - और दूसरे गीत की बारी। आतिफ़ असलम की आवाज़ और फिर से ईलेक्ट्रिक गीटार का इस्तेमाल। इसे फ़िल्म का थीम सॊंग् भी कहा जा सकता है जो नायक की शख्सियत का बयाँ करती है। "कौन हूँ मैं किसकी मुझे तलाश ", इस गीत में एक रॊक फ़ील है, केवल एक बार सुन कर शायद यह गीत आप के ज़हन में ना बैठ पाए, क्योंकि इस तरह के गीतों को 'सिचुयशनल सॊंग्' कहते हैं, जिसका अर्थ है कि फ़िल्म के कहानी के साथ ही इस गीत को जोड़ा जा सकता है। लेकिन बार बार सुन कर अच्छा लगने लगता है। और हो सकता है कि इसे सुनते हुए आपको 'शहंशाह' फ़िल्म का "अंधेरी रातों में सुनसान राहों पर" गीत याद आ जाए! सुनते हैं...

गीत - कौन हूँ मैं


सुजॊय - और अब आज का अंतिम गीत, और एक बार फिर आतिफ़ असलम की आवाज़। यह गीत है "आ भी जा सनम"। दरअसल इस फ़िल्म में एक गीत है "ओ मेरे ख़ुदा"। करीब करीब उसी धुन पर इस गीत को बनाया गया है, बस रीदम थोड़ी धीमी है। यह एक टिपिकल आतिफ़ असलम नंबर है और पहले भी इस तरह के गानें वो कई बार गा चुके हैं। इसलिए शायद बहुत ज़्यादा नयापन आपको इस गीत में ना लगे, लेकिन गाना अच्छा है, ठीक ठाक बना है।

सजीव - सुजॊय, इसे इत्तेफ़ाक़ ही कहो या कुछ और, हमने आज 'पाठशाला' और 'प्रिन्स' के गानें बजाए, और देखो इन दोनों फ़िल्मों को मैं शंकर अहसान लॊय के साथ जोड़ सकता हूँ, जब कि इन दोनों फ़िल्मों से शंकर अहसान लॊय का कुछ लेना देना नहीं है।

सुजॊय - वह कैसे?

सजीव - अब देखो, याद है मैंने कुछ देर पहले कहा था कैलाश खेर का गाया गीत "ऐ ख़ुद" शंकर अहसान लॊय के बनाए "ओ रब्बा" से मिलता जुलता है; अब देखो 'प्रिन्स' का यह गीत "ओ मेरे ख़ुदा" या "आ भी जा सनम" भी तो शंकर अहसान लॊय की फ़िल्म 'लंदन ड्रीम्स' के एक गीत से बहुत मिलता जुलता है। याद है 'लंदन ड्रीम्स' में एक गाना था "शोला शोला", उस गीत की पंक्ति "और चल तू पिघल हवा है तू बह निकल, राहें बना रस्ते बना चल रे" की धुन "ओ मेरे सनम" के बहुत करीब है।

सुजॊय - वाह! सही है! तो चलिए अब यह गीत सुनते हैं।

गीत - आ भी जा सनम


"पाठशाला" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***
कुछ खास गायक गायिकाओं की आवाजें, संगीत में नयापन इस अल्बम को कुछ हद तक खास बनाता है. हालांकि शेल्फ वेल्यु नहीं है बहुत फिर भी लकी अली को बहुत दिनों बाद फिर से सुनना सुखद ही है

"प्रिंस" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***
रेस की टीम ने आपको याद होगा जम कर धूम मचाई थी भले ही धुनें चुराई हुई थी, वही टीम यहाँ फिर है बस संगीतकार प्रीतम को बदल दिया गया है, जब धुनें चुरानी ही हों तो नामी संगीतकार को लेकर क्या करना :) खैर टिप्स की फिल्मों का फार्मूला साफ़ सपाट होता है, धूम धड़ाके वाला संगीत जिसकी आयु फिल्म के सिनेमाघरों पर टिकने तक ही होती है. आतिफ की आवाज़ में "खुदा" शब्द का उच्चारण कानों को चुभता है, बहरहाल नाचने झूमने का मन हो तो इस फुट टैप्पिंग अल्बम को सुना जा सकता है.

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ४०- हनीफ़ शेख़ ने अहमद ख़ान की फ़िल्म 'पाठशाला' में संगीत दिया और गानें भी लिखे हैं। बताइए कि इससे पहले अहमद ख़ान की कौन सी फ़िल्म में हनीफ़ ने गीत गाया था और वह गीत कौन सा था?

TST ट्रिविया # ४१- इनका असली नाम है मकसूद महमूद अली। इनका जन्म १९ सितंबर १९५८ को हुआ था। इनकी माँ मशहूर अदाकारा मीना कुमारी की बहन थीं। बताइए इस शख़्स को दुनिया किस नाम से जानती है?

TST ट्रिविया # ४२- आतिफ़ असलम बहुत जल्दी फ़िल्म के पर्दे पर नज़र आएँगे बतौर हीरो। बताइए किस पाक़िस्तानी निर्देशक की यह फ़िल्म है और फ़िल्म का नाम क्या है?


TST ट्रिविया में अब तक -
सीमा जी एक बार फिर बुलंदी पर हैं, बधाई

Sunday, April 4, 2010

न मैं धन चाहूँ, न रतन चहुँ....मन को पावन धारा में बहा ले जाता एक मधुर भजन....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 394/2010/94

दोस्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुन रहे हैं पार्श्वगायिकाओं के गाए युगल गीतों पर आधारित हमारी लघु शृंखला 'सखी सहेली'। आज इस शृंखला की चौथी कड़ी में प्रस्तुत है गीता दत्त और सुधा मल्होत्रा की आवाज़ों में एक भक्ति रचना - "ना मैं धन चाहूँ ना रतन चाहूँ, तेरे चरणों की धूल मिल जाए"। फ़िल्म 'काला बाज़ार' की इस भजन को लिखा है शैलेन्द्र ने और सगीतबद्ध किया है सचिन देव बर्मन ने। जैसा कि हम पहले भी ज़िक्र कर चुके हैं और सब को मालूम भी है कि गीता जी की आवाज़ में कुछ ऐसी खासियत थी कि जब भी उनके गाए भक्ति गीतों को हम सुनते हैं, ऐसा लगता है कि जैसे भगवान से गिड़गिड़ाकर विनती की जा रही है बहुत ही सच्चाई व इमानदारी के साथ। और ऐसी रचनाओं को सुनते हुए जैसे मन पावन हो जाता है, ईश्वर की आराधना में लीन हो जाता है। फ़िल्म 'काला बाज़ार' के इस भजन में भी वही अंदाज़ गीता जी का रहा है। और साथ में सुधा मल्होत्रा जी की आवाज़ भी क्या ख़ूब प्यारी लगती है। इन दोनों की आवाज़ों से जो कॊन्ट्रस्ट पैदा हुआ है गीत में, वही गीत को और भी ज़्यादा कर्णप्रिय बना देता है। इस भजन में वह शक्ति है कि आज ५० साल बाद भी इसका शुमार कालजयी फ़िल्मी भक्ति रचनाओं में होता है और अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में इसे बजाया या गाया जाता है। फ़िल्म में यह भजन फ़िल्माया गया था लीला चिटनिस और नंदा पर। गीता दत्त ने लीला जी का प्लेबैक दिया जब कि सुधा मल्होत्रा ने नंदा का। वैसे सुधा मल्होत्रा के साथ अक्सर ऐसा हुआ कि उन्हे बहुत ज़्यादा बड़े बैनर की फ़िल्मों में नायिका के लिए गाने के अवसर नहीं मिले। अगर मिले तो बच्चों पर या वयस्क भूमिकाओं पर उनके गाए गीत फ़िल्माए गए। इससे वो जल्दी ही टाइप कास्ट हो गईं, लेकिन जो भी मौके उन्हे मिले, उन्होने हर बार यह साबित किया कि वो एक वर्सेटाइल सिंगर हैं और हर तरह के गीत वो गा सकती हैं अगर मौका दिया जाए तो। आज का यह गीत इसी बात का प्रमाण है।

'काला बाज़ार' १९५९-६० की फ़िल्म थी जिसका निर्माण देव आनंद ने किया था। फ़िल्म की कहानी व निर्देशन विजय आनंद का था। देव आनंद, वहीदा रहमान, नंदा, विजय आनंद, चेतन आनंद, लीला चिटनिस अभिनीत इस फ़िल्म के गीत संगीत का पक्ष भी काफ़ी मज़बूत था। रफ़ी साहब का गाया "खोया खोया चांद खुला आसमान", "अपनी तो हर आह एक तूफ़ान है", "तेरी धूम हर कहीं"; रफ़ी-गीता का गाया "रिमझिम के तराने लेके आई बरसात"; आशा-मन्ना का गाया "सांझ ढली दिल की लगी थक चली पुकार के"; आशा भोसले का गाया "सच हुए सपने तेरे", तथा आज का प्रस्तुत गीत, सभी गानें बेहद कामयाब रहे और आज भी उतने ही प्यार से सुने जाते हैं। दोस्तों, क्योंकि आज का गीत अभिनेत्री व गायिका लीला चिटनिस पर फ़िल्माया गया है, तो क्यों ना आज उनके बारे में थोड़ी सी बातें की जाए! सन् २००३ के १५ जुलाई को लीला जी का देहांत हो जाने के बाद 'लिस्नर्स बुलेटिन' में उन पर एक छोटा सा लेख प्रकाशित हुआ था, उसी लेख से कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। ३० सितंबर १९१२ को धारवाड़ (कर्नाटक) में जन्मीं लीला नागरकर ने डॊ जी. पी. चिटनिस से बी.ए की पढ़ाई के दौरान ही विवाह कर लिया। ४-५ वर्षों बाद ही उनसे तलाक़ हो गया और जीवोकोपार्जन के लिए उन्होने फ़िल्म क्षेत्र में प्रवेश किया। सागर मूवीटोन निर्मित फ़िल्मों में एक्स्ट्रा के रूप में अभिनय के बाद सन् १९३५ में निर्मित 'धुआंधार' में नायिका बनीं। उन्होने कुल ११० हिंदी एवं १० मराठी फ़िल्मों में अभिनय किया। ३० और ४० के दशकों में प्लेबैक तकनीक के अभाव या कम प्रचलन के समय ख़ुद ही अपने पर फ़िल्माए बहुत से गीत गाए। उन्होने अन्तिम बार 'दिल तुझको दिया' (१९८५) में अभिनय किया हालाँकि उनके अभिनय की अन्तिम फ़िल्म 'रामू तो दीवाना है' २००१ में प्रदर्शित हुई थी। छठे दशक में उन्होने ममता मयी मां का अभिनय करना शुरु कर दिया था। उनकी अत्मकथा 'चन्देरी दुनियेत' १९८१ में प्रकाशित हुई थी। तो ये थी कुछ बातें लीला चिटनिस के बारे में जो हमने प्राप्त की 'लिस्नर्स बुलेटिन' अंक १२३ से जो सितंबर २००३ में प्रकाशित हुई थी। और आइए अब मन को पावन कर देने वाली इस भजन का आनंद उठाया जाए गीता दत्त व सुधा मल्होत्रा की आवाज़ों के साथ।



क्या आप जानते हैं...
कि लीला चिटनिस ने ३ फ़िल्मों ('कंचन' (१९४१), 'किसी से ना कहना' (१९४२), 'आज की बात' (१९५५)) का निर्माण भी किया था।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. इस गीत की जो आरंभिक धुन है वो विविध भारती पर प्रसारित होने वाले शास्त्रीय संगीत आधारित एक कार्यक्रम की सिग्नेचर धुन हुआ करती थी, गीत बताएं -३ अंक.
2. कमल बारोट और ______ ने इस गीत को गाया है, कौन है ये दूसरी गायिका- २ अंक.
3. गीत के संगीतकार बताएं-२ अंक.
4. गीतकार भी उस्ताद शायर हैं इस सवानी गीत के, नाम बताएं -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी, आप जल्दबाजी बहुत करती हैं, ३ अंक गँवा दिए न ?, शरद जी चतुर निकले, और पाबला जी भी आये और जो पुछा नहीं गया उसका जवाब दे गए...दोनों भाई बहिन एक जैसे....क्या बात है. पदम और अनीता जी की जोड़ी बढ़िया रही. दिलीप जी ने प्रस्तुत गीत पर टिपण्णी कर जो जानकारी दी वो कमाल की लगी

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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