Saturday, May 28, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 43 - बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले तीन हफ़्तों से इसमें हम आप तक पहुँचा रहे हैं फ़िल्म जगत के सफलतम गीतकारों में से एक, आनन्द बक्शी साहब के सुपुत्र राकेश बक्शी से की हुई बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बक्शी'। इस शृंखला की पिछली तीन कड़ियाँ आप नीचे लिंक्स पर क्लिक करके पड्ज़ सकते हैं।
भाग-१
भाग-२
भाग-३

आइए आज प्रस्तुत है इस ख़ास बातचीत की चौथी व अंतिम कड़ी।

सुजॉय - नमस्कार राकेश जी, और फिर एक बार स्वागत है 'हिंद-युग्म' के 'आवाज़' मंच पर।

राकेश जी - नमस्कार!

सुजॉय - पिछले सप्ताह हमारी बातचीत आकर रुकी थी बक्शी साहब के गाये गीत पर, "बाग़ों में बहार आई"। बात यहीं से आगे बढ़ाते हैं, क्या कहना चाहेंगे बक्शी साहब के गायन प्रतिभा के बारे में?

राकेश जी - बक्शी जी को गायन से प्यार था और अपने आर्मी और नेवी के दिनों में अपने साथियों को गाने सुना कर उनका मनोरंजन करते थे। और आर्मी में रहते हुए ही उनके साथियों नें उनको गायन के लिये प्रोत्साहित किया। उन साथियों नें उन्हें बताया कि वो अच्छा गाते हैं और बहुत अच्छा लिखते हैं, इसलिए उन्हें फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आज़मानी चाहिये। मेरा ख़याल है कि वहीं पे उनके सपनों का बीजारोपण हो गया था। आर्मी के थिएटर व नाटकों में वो अभिनय भी करते थे और गीत भी गाते थे। फ़िल्मी पार्टियों में नियमित रूप से वो अपनी लिखी हुई कविताओं और गीतों को गा कर सुनाते थे।

सुजॉय - वाह! अच्छा, ये तो आपने बताया कि किस तरह से वो सेना में रहते समय साथियों के लिये गाते थे। लेकिन फ़िल्मों में उन्हें बतौर गायक कैसे मौका मिला?

राकेश जी - दरअसल क्या हुआ कि पिताजी अक्सर अपने गीतों को प्रोड्युसर-डिरेक्टर्स को गा कर सुनाया करते थे। ऐसे में एक दिन मोहन कुमार साहब नें उन्हें गाते हुए सुन लिया और उन्हें ज़बरदस्ती अपनी फ़िल्म 'मोम की गुड़िया' में दो गीत गाने के लिये राज़ी करवा लिया। इनमें से एक सोलो था और एक लता जी के साथ डुएट, जिसे आपने पिछली कड़ी में सुनवाया था।

सुजॉय - जी हाँ, और क्या ग़ज़ब का गीत था वह। उनकी आवाज़ भले ही हिंदी फ़िल्मी नायक की आवाज़ न हो, लेकिन कुछ ऐसी बात है उनकी आवाज़ में कि सुनते हुए दिल को अपने मोहपाश में बांध लेती है।

राकेश जी - पता है "बाग़ों में बहार आयी" गीत की रेकॉर्डिंग् पर वो बहुत सज-संवरकर गये थे। जब उनसे यह पूछा गया कि इतने बन-ठन के क्यों आये हैं, तो उन्होंने कहा कि पहली बार लता जी के साथ गाने का मौका मिला है, इसलिये यह उनके लिये बहुत ख़ास मौका है ज़िंदगी का।

सुजॉय - बहुत सही है!

राकेश जी - लेकिन वो लोगों के सामने गाने से कतराते थे। पार्टियों में वो तब तक नहीं गाते जब तक उनके दोस्त उन्हें गाने पर मजबूर न कर देते। पर एक बार गाना शुरु कर दिया तो लम्बे समय तक गाते रहते।

सुजॉय - राकेश जी, बक्शी साहब नें हज़ारों गीत लिखे हैं, इसलिये अगर मैं आपसे आपका पसंदीदा गीत पूछूँ तो शायद बेवकूफ़ी वाली बात होगी। बताइये कि कौन कौन से गीत आपको बहुत ज़्यादा पसंद है आपके पिताजी के लिखे हुए?

राकेश जी - "मैं शायर तो नहीं" (बॉबी), "गाड़ी बुला रही है" (दोस्त), "एक बंजारा गाये" (जीने की राह), "अच्छा तो हम चलते हैं" (आन मिलो सजना), "आदमी जो कहता है" (मजबूर), "ज़िंदगी हर क़दम एक नई जंग है" (मेरी जंग), "ये रेश्मी ज़ुल्फ़ें" (दो रास्ते), "हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें" (अमर अकबर ऐन्थनी), "भोली सी सूरत आँखों में मस्ती" (दिल तो पागल है), और इसके अलवा और ३०० गीत होंगे जहाँ तक मेरा अनुमान है।

सुजॉय - इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं!

राकेश जी - उनके गीतों में गहरा दर्शन छुपा होता था। उनके बहुत से चाहनेवालों और निर्माता-निर्देशकों नें मुझे बताया और अहसास दिलाया कि सरल से सरल शब्दों के द्वारा भी वो गहरी से गहरी बात कह जाते थे। उनके लिखे तमाम गीत ले लीजिये, जैसे कि "चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये", "यहाँ मैं अजनबी हूँ", "रोते रोते हँसना सीखो, हँसते हँसते रोना", "ज़िंदगी हर कदम एक नई जंग है", "तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो", "गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है", "कैसे जीते हैं भला हम से सीखो ये अदा", "दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है", "ज़िंदगी क्या है एक लतीफ़ा है", "आदमी मुसाफ़िर है" (जिसके लिये उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था), "दुनिया में रहना है तो काम कर प्यारे", "शीशा हो या दिल हो टूट जाता है", "ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते", "माझी चल, ओ माझी चल", "हाथों की चंद लकीरों का, ये खेल है सब तकदीरों का", "चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वो कौन सा देस, जहाँ तुम चले गये", "इक रुत आये इक रुत जाये, मौसम बदले, ना बदले नसीब", "जगत मुसाफ़िरखाना है", "आदमी जो कहता है", "दुनिया में ऐसा कहाँ सबका नसीब है", और भी न जाने कितने कितने उनके दार्शनिक गीत हैं जो कुछ न कुछ संदेश दे जाते हैं ज़िंदगी के लिये।

सुजॉय - बिलकुल बिलकुल! अच्छा राकेश जी, आपने बहुत सारे गीतों का ज़िक्र किया। अब हम आपसे कुछ चुने हुए गीतों के बारे में जानना चाहेंगे जिनके साथ कुछ न कुछ ख़ास बात जुड़ी हुई है। इस तरह के कुछ गीतों के बारे में बताना चाहेंगे?

राकेश जी - उनका लिखा गीत है 'बॉबी' का "मैं शायर तो नहीं"। वो मुझे कहते थे और बहुत से लेखों में भी मैंने उन्हें कहते पढ़ा है कि वो अपने आप को एक शायर नहीं, बल्कि एक गीतकार मानते थे, साहिर साहब को वो शायर मानते थे। 'अमर प्रेम' के गीत "कुछ तो लोग कहेंगे" को ही ले लीजिये; जावेद साहब इस कश्मकश में थे कि क्या उन्हें अपनी शादी को तोड़ कर एक नया रिश्ता कायम कर लेना चाहिये, और इस गीत नें उन्हें परिणाम की परवाह किये बिना सही निर्णय लेने में मददगार साबित हुई। जावेद साहब से ही जुड़ा एक और क़िस्सा है, "ज़िंदगी के सफ़र में" गीत को सुनने के बाद जावेद साहब नें पिताजी से वह कलम माँगी जिससे उन्होंने इस गीत को लिखा था। पिताजी नें अगले दिन उन्हें दूसरा कलम भेंट किया। जावेद साहब नें ऐसा कहा था कि अगर यह दुनिया उन्हें एक सूनसान द्वीप में अकेला छोड़ दे, तो केवल इस गीत के सहारे वो अपनी ज़िंदगी के बाक़ी दिन काट सकते हैं।

सुजॉय - वाक़ई एक लाजवाब गीत है, और मैं समझता हूँ कि यह गीत एक यूनिवर्सल गीत है, और हर इंसान को अपने जीवन की छाया इस गीत में नज़र आती होगी। "कुछ लोग जो सफ़र में बिछड़ जाते हैं, वो हज़ारों के आने से मिलते नहीं, बाद में चाहे लेके पुकारा करो उनका नाम, वो फिर नहीं आते", कमाल है!!! राकेश जी, बहुत अच्छा लग रहा है जो आप एक एक गीत के बारे में बता रहे हैं, और भी कुछ इसी तरह के क़िस्सों के बारे में बताइये न!

राकेश जी - "नफ़रत की दुनिया को छोड़ के प्यार की दुनिया में", इस गीत में एक अंतरा है "जब जानवर कोई इंसान को मारे.... एक जानवर की जान आज इंसानो ने ली है, चुप क्यों है संसार", पिताजी कभी भी मुझे किसी पंछी को पिंजरे में क़ैद करने नहीं दिया, कभी मछली को अक्वेरियम में सीमाबद्ध नहीं करने दिया। वो कहते थे कि क्योंकि वो ब्रिटिश शासन में रहे हैं और उन्हें इस बात का अहसास है कि ग़ुलामी क्या होती है, इसलिये वो कभी नहीं चाहते कि किसी भी जीव को हम अपना ग़ुलाम बनायें।

सुजॉय - वाह! राकेश जी, चलते चलते अब हम आपसे जानना चाहेंगे बक्शी साहब के लिखे उन गीतों के बारे में जो उन्हें बेहद पसंद थे।

राकेश जी - यहाँ भी एक लम्बी लिस्ट है, कुछ के नाम गिना देता हूँ - "मैंने पूछा चांद से" (अब्दुल्ला), "परदेसियों से न अखियाँ मिलाना" (जब जब फूल खिले), "चिंगारी कोई भड़के" (अमर प्रेम), "मेरे दोस्त क़िस्सा ये क्या हो गया" (दोस्ताना), "डोली ओ डोली", "खिलौना जान कर तुम तो", "जब हम जवाँ होंगे", "बाग़ों में बहार आयी", "मैं ढूंढ़ रहा था सपनों में", "सुन बंटो बात मेरी", "जिंद ले गया वो दिल का जानी", "वो तेरे प्यार का ग़म", "सावन का महीना पवन करे सोर", "राम करे ऐसा हो जाये", "जिस गली में तेरा घर न हो बालमा", "ज़िंदगी के सफ़र में", "मेरे नसीब में ऐ दोस्त तेरा प्यार नहीं", "प्रेम से क्या एक आँसू", "दीवाने तेरे नाम के खड़े हैं दिल थाम के", "क्या कोई सूरत इतनी ख़ूबसूरत हो सकती है", "तेरे नाम के सिवा कुछ याद नहीं", "दुनिया में कितना ग़म है", "आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं", "चिट्ठी आयी है", "पनघट पे परदेसी आया", "मैं आत्मा तू परमात्मा", "घर आजा परदेसी तेरा देस बुलाये रे", "जब जब बहार आयी", "कुछ कहता यह सावन", "वो क्या है, एक मंदिर है", "हर एक मुस्कुराहट मुस्कान नहीं होती", "यहाँ मैं अजनबी हूँ", "मैं तेरी मोहब्बत को रुसवा करूँ तो", आदि।

सुजॉय - राकेश जी, क्या बताऊँ, किन शब्दों से आपका शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा। इतने विस्तार से आपनें बक्शी जी के बारे में हमें बताया कि उनकी ज़िंदगी के कई अनछुये पहलुओं से हमें अवगत कराया। चलते चलते कुछ कहना चाहेंगे?

राकेश जी - "मैं बर्फ़ नहीं हूँ जो पिघल जाऊँगा", यह कविता उन्होंने अपने लिये लिखी थी। बहुत अरसे बाद इसे फ़िल्मी गीत का रूप दिया सुभाष घई साहब नें। यह कविता उन्हें निरंतर अच्छे अच्छे गीत लिखने के लिये प्रेरीत करती रही। It is the essence of his life, his attitude to his profession, his soul.

सुजॉय - वाह! अच्छा तो राकेश जी, बहुत अच्छा लगा आपसे लम्बी बातचीत कर, आपको एक उज्वल भविष्य के लिये हमारी तरफ़ से ढेरों शुभकामनाएँ, आप फ़िल्मनिर्माण के जिस राह पर चल पड़े हैं, ईश्वर आपको कामयाबी दे, और आनन्द बक्शी साहब के नाम को आप चार-चांद लगायें यही हमारी कामना है आपके लिये, बहुत बहुत शुक्रिया।

राकेश जी - बहुत बहुत शुक्रिया आपका।

गीत - ज़िंदगी के सफ़र में (आपकी क़सम)


तो ये था 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की ख़ास लघु शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बक्शी' का चौथा और अंतिम भाग। इस पूरी शृंखला के बारे में आप अपनी राय टिप्पणी के अलावा oig@hindyugm.com के ईमेल आइडी पर भेज सकते हैं। अब आज के लिये इजाज़त दीजिये, फिर मुलाक़ात होगी, नमस्कार!

Thursday, May 26, 2011

मेरा तो जो भी कदम है.....इतना भावपूर्ण है ये गीत कि सुनकर किसी की भी ऑंखें नम हो जाए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103

'...और कारवाँ बनता गया'... मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों का कारवाँ इन दिनों चल रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। पिछली चार कड़ियों में हमनें ४० और ५० के दशकों से चुन कर चार गानें हमनें आपको सुनवाये, आज क़दम रखेंगे ६० के दशक में। साल १९६४ में एक फ़िल्म आयी थी 'दोस्ती' जिसनें न केवल मजरूह को उनका एकमात्र फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलवाया, बल्कि संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को भी उनका पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलवाया था। वैसे विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला में प्यारेलाल जी नें स्वीकार किया था कि इस पुरस्कार को पाने के लिये उन्होंने बहुत सारे फ़िल्मफ़ेयर मैगज़ीन की प्रतियाँ ख़रीद कर उनमें प्रकाशित नामांकन फ़ॉर्म में ख़ुद ही अपने लिये वोट कर ख़ुद को जितवाया था। पंकज राग नें भी इस बारे में अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखा था - "फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों पर शंकर-जयकिशन के कुछ जायज़ और कुछ नाजायज़ तरीके के वर्चस्व को उनसे बढ़कर नाजायज़ी से तोड़ना और 'संगम' को पछाड़ कर 'दोस्ती' के लिये तिकड़मबाज़ी से फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार प्राप्त करना सफलता के लिये इनके हदों को तोड़नेवाली महत्वाकांक्षा दर्शाता है।" ख़ैर, वापस आते हैं मजरूह सुल्तानपुरी पर। एल.पी के साथ भी मजरूह साहब नें काफ़ी अच्छा काम किया है, इसलिए दस संगीतकारों के साथ उनके लिखे गीतों की इस शृंखला में एल.पी का स्वरबद्ध एक गीत सुनवाना अत्यावश्यक हो जाता है। और ऐसे में फ़िल्म 'दोस्ती' के एक गीत की गुंजाइश तो बनती है। इस फ़िल्म से सुनिये रफ़ी साहब की आवाज़ में "मेरा तो जो भी क़दम है, वो तेरी राह में है, कि तू कहीं भी रहे तू मेरी निगाह में है"। वैसे जिस गीत के लिये मजरूह साहब को यह पुरस्कार मिला था, वह था "चाहूँगा मैं तुझे सांझ सवेरे"।

मजरूह सुल्तानपुरी नें उस दौर के सभी दिग्गज संगीतकारों की धुनों पर गानें लिखे हैं। वो किसी भी सिचुएशन पर बड़ी ही सहजता से गीत लिख सकते थे, जो अलग से सुनने पर भी एक अलग ही जज़्बात की गहराई महसूस होती है। वक़्त के साथ साथ किसी भी गीतकार की लेखनी में गहराई आती चली जाती है। मजरूह साहब के गीतों में भी ऐसी गहराई देखने को मिलती है, चाहे वो उस दौर में लिखे गीत हों, या इस ज़माने का। उनके गीतों में कुछ न कुछ ज़रूर है जो हमारे ख़यालों को महका जाते हैं। मजरूह साहब चाहे कम्युनिस्ट विचारधारा के क्रांतिकारी लेखकों में से एक थे, लेकिन उन्होंने अपनी इस विचारधारा का प्रचार करने के लिये फ़िल्मी गीतों का सहारा नहीं लिया। और न ही उन्होंने फ़िल्मी गीतों में अपनी अदबी और भारी-भरकम शायरी के जोहर दिखाने की कभी कोशिश की। लेकिन उन्होंने पूरी दक्षता के साथ फ़िल्मी गीत लेखन का कार्य पूरा किया और पूरी सफलता के साथ पूरा किया, और स्थान-काल-चरित्र को ध्यान में रखते हुए अच्छे से अच्छा गीत लिखने का निरंतर प्रयास किया पाँच दशकों तक। और आज का प्रस्तुत गीत भी उन्हीं में से एक है। तो आइए सुनते हैं मजरूह-एल.पी-रफ़ी की तिकड़ी का यह यादगार गीत।



क्या आप जानते हैं...
कि मजरूह सुल्तानपुरी की लिखी एकमात्र किताब 'ग़ज़ल' प्रकाशित हुई थी १९५६ में। इसके बाद इस किताब के कई एडिशन प्रकाशित हुए, जिनमें से एक का शीर्षक था 'मशाल-ए-जान'।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 6/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - इस फिल्म क वो कौन सा गीत है जिसे हम पहले ओल्ड इस गोल्ड में सुनवा चुके हैं - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के नायक कौन है - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- 2 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी बधाई, लगता है अब आप अविनाश जी को टक्कर दे सकेंगीं...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, May 25, 2011

जा जा जा रे बेवफा...मजरूह साहब ने इस गीत के जरिये दर्शाये जीवन के मुक्तलिफ़ रूप



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103

'...और कारवाँ बनता गया', गीतकार व शायर मजरूह सुल्तानपुरी को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की चौथी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर से स्वागत है। मजरूह साहब पर एक किताब प्रकाशित हुई है जिसे उनके दो चाहनेवालों नें लिखे हैं। ये दो शख़्स हैं अमेरीका निवासी भारतीय मूल के बैदर बख़्त और उनकी अमरीकी सहयोगी मारीएन एर्की। इन दो मजरूह प्रशंसकों नें उनकी ग़ज़लों को संकलित कर एक किताब के रूप में प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'Never Mind Your Chains'। यह शीर्षक मजरूह साहब के ही लिखे एक शेर से आया है - "देख ज़िदान के परे, रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार, रक्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख"। अर्थात् चमन खिला हुआ है पिंजरे के ठीक उस पार, अगर नाच उठना है तो फिर पांव की बेड़ियों की तरफ़ न देख, never mind your chains। थोड़ा और क़रीब से देखा जाये तो उनकी यह ख़ूबसूरत ग़ज़ल उनके करीयर पर भी लागू होती है। उनका कभी न रुकने, कभी न हार स्वीकारने की अदा, लाख पाबंदियों के बावजूद उन्हें न रोक सकी, और आज उन्होंने एक अमर शायर व गीतकार के रूप में इतिहास में अपनी जगह बना ली है। दोस्तों, इन दिनों चर्चा जारी है मजरूह साहब के लिखे ५० के दशक के गीतों की। यह सच है कि इस दशक में मजरूह नें 'आर पार', 'दिल्ली का ठग', 'चलती का नाम गाड़ी', 'नौ दो ग्यारह', 'सी.आइ.डी', 'पेयिंग् गेस्ट' और 'तुमसा नहीं देखा' जैसे फ़िल्मों में गीत लिखकर एक व्यावसायिक हल्के फुल्के गीतकार के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया, जहाँ दूसरी तरफ़ उनके समकालीनों में साहिर, प्रदीप, कैफ़ी आज़्मी, भरत व्यास और शैलेन्द्र जैसे गीतकार स्तरीय काम कर रहे थे। बावजूद इसके, मजरूह नें अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और इसका नतीजा है कि गीतकारों में वो पहले व अकेले गीतकार हुए जिन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

नौशाद, अनिल बिस्वास और मदन मोहन के बाद आज हम जिस संगीतकार की रचना लेकर आये हैं, उस संगीतकार के साथ भी मजरूह साहब नें लम्बी पारी खेली, और सिर्फ़ लम्बी ही नहीं, बेहद सफल भी। ये थे ओ. पी. नय्यर साहब। जैसा कि कल की कड़ी में हमनें आपको बताया कि १९५३ में नय्यर साहब और मजरूह साहब के जोड़ी की पहली फ़िल्म 'बाज़' प्रदर्शित हुई थी। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर पिट गई थी, लेकिन अगले ही साल, १९५४ में, इस जोड़ी की फ़िल्म 'आर-पार' नें जैसे चारों तरफ़ तहल्का मचा दिया। गायिका गीता दत्त, जो उन दिनों ज़्यादातर भक्तिमूलक और दर्दीले गीत ही गाती चली आ रहीं थीं, उनकी गायन क्षमता को एक नया आयाम मिला इस फ़िल्म से। "ए लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे", "बाबूजी धीरे चलना", "मोहब्बत कर लो जी भर लो", "हूँ अभी मैं जवान ऐ दिल", "अरे न न न तौबा तौबा", और "सुन सुन सुन सुन ज़ालिमा" जैसे गीतों में गीता जी की मादकता आज भी दिल में हलचल पैदा कर देती है। लेकिन इस फ़िल्म में एक और गीत भी है, जिसमें गीता जी का अंदाज़ कुछ ग़मगीन सा है। "सुन सुन ज़ालिमा" गीत का ही एक संस्करण हम इसे कह सकते हैं, जिसके बोल हैं "जा जा जा जा बेवफ़ा, कैसा प्यार कैसी प्रीत रे, तू ना किसी का मीत रे, झूठे तेरे प्यार की क़सम"। वैसे यही पंक्ति "सुन सुन ज़ालिमा" में भी गीता दत्त गाती हैं, लेकिन एक नोक-झोक टकरार वाली अंदाज़ में, और इसी को धीमी लय में और सैड मूड में परिवर्तित कर इसका गीता जी का एकल संस्करण बनाया गया है। तो आइए आज की कड़ी करें मजरूह और नय्यर की अमर जोड़ी के नाम, साथ ही गीता जी का भी स्मरण।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'फागुन' के निर्माता शुरु शुरु में इस फ़िल्म के गीत मजरूह से लिखवाना चाहते थे, लेकिन ओ.पी. नय्यर के सुझाव पर क़मर जलालाबादी से गीत लिखवाये गये क्योंकि फ़िल्म की पटकथा व संवाद क़मर साहब नें ही लिखे थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 5/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - फिल्म में किन दो कलाकारों की प्रमुख भूमिकाएं है - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतीक जी एकदम सही जवाब है, २ अंक अविनाश जी के खाते में भी आये, क्षिति जी आपका जवाब स्वीकार्य न हो ऐसा कैसे संभव है, इंदु जी कभी कभार आ जाया कीजिये दिल खुश हो जाता है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, May 24, 2011

हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे....संगीत प्रेमी ढूँढेगें मजरूह साहब को वो जहाँ भी होंगें



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103

स अलग अलग संगीतकारों के लिये मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों की इस लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज है २४ मई। आज ही के दिन साल २००० में मजरूह साहब इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिये छोड़ गये थे। नीमोनिआ का दौरा पड़ने पर मजरूह साहब को १६ मई २००० को मुंबई के लीलावती हस्पताल में भर्ती करवाया गया था और वहीं पर उन्होंने अपनी अंतिम सांसें ली। आज मजरूह साहब को गये १२ वर्ष, याने एक युग बीत चुका है, लेकिन जब भी मई का यह महीना आता है, और ख़ास कर आज के दिन, बार बार उनका लिखा और मदन मोहन का स्वरबद्ध किया वही गीत याद आता है कि "हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे, बहारें हमको ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे"। लेखक राजीव विजयकर नें बहुत ही अच्छी तरह से मजरूह साहब की शख्सियत को बयान किया था अपने एक लेख में, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मजरूह साहब एक सिक्के की तरह है जिसके दोनों पहलुओं की एक समान ज़रूरत होती है। अगर आप इस सिक्के से टॉस भी अगर करें तो चित हो या पुट, दोनों में ही आपकी जीत निश्चित है। इस सिक्के के एक पहलु में है एक लाजवाब शायर, वह शायर जिनका शुमार २०-वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ अदबी शायरों में होता है। ये वो शायर हैं जिन्होंने लिखा था "मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया"। सिक्के के दूसरे पहलु में है फ़िल्म संगीत में दीर्घतम पारी खेलने वाले अज़ीम व लोकप्रिय गीतकार, जिन्होंने नौशाद से शुरु कर आनंद-मिलिंद, जतीन-ललित, अनु मलिक से होते हुए लेज़्ली ले लीविस और ए. आर. रहमान की धुनों पर अपने अमर बोल बिठा गये।

कल हम बात कर रहे थे १९५३ की उन फ़िल्मों का जिनमें मजरूह साहब नें अनिल बिस्वास के साथ काम किया था। इसी साल तीन और संगीतकारों के साथ किये उनके काम चर्चित हुए। ये थे जमाल सेन, जिनका संगीत गूंजा था फ़िल्म 'दायरा' में। ओ. पी. नय्यर के साथ मजरूह नें लम्बी पारी खेली जिसकी शुरुआत इस साल फ़िल्म 'बाज़' से हुई। और तीसरे संगीतकार थे मदन मोहन, जिनकी धुनों पर इन्होंने इस साल लिखे थे फ़िल्म 'बाग़ी' के गानें। दिलीप कुमार के अच्छे मित्र आयुब ख़ान नें 'ट्युन फ़िल्म्स' के बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण किया था, जिसका निर्देशन अनंत ठाकुर नें किया और जिसमें मुख्य कलाकार थे रंजन और नसीम बानो। इस फ़िल्म में लता जी के गाये "बहारें हमको ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे" को सुनकर वाक़ई यह अहसास होता है कि इस गीत के गीतकार-संगीतकार को बहारें बड़ी शिद्दत से याद करती हैं। आज इस गीत के बने ६० साल होने जा रही है, लेकिन जब भी इस गीत को हम सुनते हैं इससे जुड़े कलाकारों के लिए जैसे नतमस्तक होने को जी चाहता है। आज मजरूह साहब की पुण्यतिथि पर हम उन्हें इसी गीत से श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। मजरूह साहब, बहारें आपको क्यों ढूंढ़े? आप चाहे जहाँ कहीं भी हों, आपके सदाबहार गीत हमेशा बहार बन कर छाते रहे हैं, और हमेशा छाते रहेंगे!



क्या आप जानते हैं...
कि 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' के अलावा मजरूह सुल्तानपुरी को मध्य प्रदेश शासन प्रदत्त 'इक़बाल सम्मान', महाराष्ट्र शासन प्रदत्त 'संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार', तथा उनके ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल" के लिये 'महाराष्ट्र राज्य उर्दू ग़ज़ल अकादमी' प्रदत्त पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 4/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - इस गीत क एक अन्य संस्करण भी है, उस युगल गीत में किनकी आवाजें है - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पेपर लीक ????? शरद जी हम पर ऐसा इलज़ाम न लगाईये, आप खुद कितनी प्रतियोगिताओं में जीते हैं, क्या कभी ऐसा कोई संकेत मिला आपको हमारी तरफ से. सच तो ये है कि अनजाना जी से हम लोग (यानी मैं सजीव और सुजॉय) कभी परिचित भी नहीं हुए, अमित जी जरूर अब हमारे मित्रों में है, पर अनजाना जी शायद अनजाने ही बने रहना चाहते हैं, वैसे हैरानगी जितनी आपको होती है उससे कई ज्यादा हमें होती है, हम पहेली को मुश्किल बनाने की लाख कोशिश करते हैं पर ये दोनों तो जैसे सभी गाने सुने बैठे हैं, पता नहीं कैसे सुन भी लेते हैं और बूझ भी लेते हैं मात्र एक मिनट में. खैर कल एक बार फिर अविनाश जी ने सही जवाब देकर ३ अंक कमाए, अरे कोई तो उन्हें टक्कर दें भाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

लव यू मिस्टर कलाकार है सुरीले प्रेम गीतों से सजी अल्बम



Taaza Sur Taal (TST) - 14/2011 - Love U Mr Kalakaar

राजश्री प्रोडक्शन ने हमेशा ही साफ़ सुथरी संगीतमयी फिल्मों की परंपरा को निभाया है. पर मुझे लगता है कि वो अपनी फिल्मों के संगीत को सही रूप से प्रोमोट नहीं करते यही वजह है कि उनकी फिल्मों का संगीत अच्छा होने के बावजूद बहुत अधिक लोगों तक नहीं पहुँच पाता, हमेशा माउथ टू माउथ पब्लिसिटी काम नहीं करती है ये बात अब उन्हें समझनी चाहिए. तुषार कपूर और अमृता राव अभिनीत उनकी नयी फिल्म "लव यू मिस्टर कलाकार" एक और प्रेम कहानी है, जाहिर है संगीत में माधुर्य जरूरी है, संगीतकार के रूप में चुने गए हैं बेहद प्रतिभाशाली सन्देश शान्दलिया और गीत लिखे हैं नवोदित गीतकार मनोज मुन्तशिर ने. चलिए जरा सी चर्चा करें इस अल्बम में सजे गीतों की आज.

अंग्रेजी शब्दों क इस्तेमाल अब राजश्री वालों को भी रास आ रहा है. "सरफिरा सा है दिल" में श्रेया की अधुर आवाज़ है, खूबसूरत बोल हैं और मधुर धुन है सन्देश की, पर मैं समझ नहीं पाता हूँ, नीरज श्रीधर से ये गीत क्यों गवाया गया. आज जब इंडस्ट्री में इतने नए पुराने गायक मौजूद हैं संगीतकार नीरज से ऐसे गीत गवाते हैं जो उनका फोर्टे नहीं है ये अजीब लगता है. मुझे लगता है कि ये गीत और भी बढ़िया बन सकता था अगर सही गायक से इसे गवाया जाता.

विजय प्रकाश और गायत्री गांजावाला की आवाजों में अगला गीत "तेरा इंतज़ार", यहाँ भी एक बार फिर अंग्रेजी शब्दों से शुरुआत है. गाने का पेस बहुत बढ़िया है, विजय की आवाज़ में कशिश है, मनोज के शब्द परफेक्ट हैं. कुल मिलाकर एक खूबसूरत गीत है. गायत्री की आवाज़ दूसरे अंतरे से शुरू होती है जिसके बाद गीत और भी दिलचस्प हो जाता है. हमारी तरफ से पूरे अंक इस गीत को

"भूरे भूरे बादल, भीगा भीगा जंगल, नीला नीला पानी, शामें हैं सुहानी"....मुझे ये अगला गीत बेहद पसंद आया. श्रेया ने गायिकी में जो अदाएं उठायी है उसे मैच किया है बहुत अच्छे से कुणाल गांजावाला ने. बांसुरी की सुन्दर तानें पहाड़ों में वादियों में ले जाती है. एक बोन फायर में कैम्पिंग करते जोड़े की फीलिंग्स को बहुत अच्छे से मनोज ने अपने शब्दों से उभारा है और सन्देश ने जान फूंक दी है इस गीत में, अंत तक बांसुरी साथ चलती है और मन को मोहे रखती हैं.

शीर्षक गीत कुणाल और गायत्री की युगल आवाजों में है. कुणाल के स्वाभाविक अंदाज़ के अनुरूप है ये गीत. एक कलाकार जो अपने रंगों में दुनिया को रंगता है उसको समर्पित है ये गीत. अच्छा फिल्मांकन इस गीत को परदे पर बढ़िया बना देगा इसमें कोई शक नहीं. याद आया मुझे कि जीतेन्द्र ने एक मूर्तिकार की भूमिका की थी "गीत गया पत्थरों ने" में और अब एक तुषार पेंटर बने हैं इस सदी के. वेल वी टू लव ऑल अवर कलाकार.

अब बारी उस गायक की जिसकी आवाज़ का टिम्बर कहीं दूर ही उड़ा ले जाता है, जी हाँ मेरे पसंदीदा मोहित चौहान जिनके साथ है शिवांगी कश्यप (क्या शिवांगी, शिबानी कश्यप से सम्बंधित है, अगर आपको पता हो तो बताएं) जिनकी आवाज़ में ताजगी है. "वक्त ये रूठ के हाथ से छूट के जाने फिर आये न आये, कहीं से चली आ...", सबसे अच्छी बात है कि गीत सामान्य अंतरा मुखडा फोर्मेट में नहीं है. एक बहाव है जहाँ दोनों गायक आपको बहा ले जाते हैं. बहुत बढ़िया गीत है और हम दे रहे हैं एक और थम्प्स अप.

जेनिस सोबित और विन्नी हट्टन की आवाजों में एक अंग्रेजी गीत भी है "रीचिंग फॉर थे द रेनबो" और कुछ रीमिक्स भी हैं. कुल मिलाकर मुझे उम्मीद से अधिक मिला इस अल्बम से, संगीत के ऐसे दौर में जहाँ मेलोडी लगभग गायब सी हो चली है, फिल्म का संगीत एक ताज़ा झोंके जैसा है पर आपकी संगीत पिपासा को पूरी तरह से संतुष्ट कर पाता हो ऐसा भी नहीं है. इस दौर में लगता है कि एक झोंका नहीं आंधी चाहिए. बहरहाल सन्देश और मनोज मुन्तशिर की ये जोड़ी उम्मीद जगाती है. और आने वाले समय में हम इनसे और भी अच्छे संगीत प्रयासों की निश्चित ही उम्मीद रख सकते हैं.

श्रेष्ठ गीत – कहीं से चली आ, भूरे भूरे बादल, तेरा इन्तेज़ार
आवाज़ रेटिंग – ८/१०


और अब सुनिए इन गीतों को - सौजन्य रागा डॉट कॉम



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Monday, May 23, 2011

छेड़ी मौत नें शहनाई, आजा आनेवाले....लिखा मजरूह साहब ने ये गीत अनिल दा के लिए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 662/2011/102

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार व उर्दू के जानेमाने शायर मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की दूसरी कड़ी में आप सब का हार्दिक स्वागत है। मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम था असरार उल हसन ख़ान, और उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर नामक स्थान पर १९१९ या १९२० में हुआ था। कहीं कहीं पे १९२२ भी कहा गया है। 'लिस्नर्स बुलेटिन' में उनकी जन्म तारीख़ १ अक्तुबर १९१९ दी गई है। उनके पिता एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर थे। पिता का आय इतना नहीं था कि अपने बेटे को अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िल करवा पाते। इसलिए मजरूह को अरबी और फ़ारसी में सात साल 'दर्स-ए-निज़ामी' की तालीम मिली, और उसके बाद आलिम की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद मजरूह नें लखनऊ के तकमील-उत-तिब कॉलेज में यूनानी चिकित्सा की तालीम ली। इसमें उन्होंने पारदर्शिता हासिल की और एक नामचीन हकीम के रूप में नाम कमाया। सुल्तानपुर में मुशायरे में भाग लेते समय वो एक स्थापित हकीम भी थे। लेकिन लोगों नें उनकी शायरी को इतना पसंद किया कि उन्होंने हकीमी को छोड़ कर लेखन को ही पेशे के तौर पर अपना लिया। जल्द ही वो मुशायरों की जान बन गये और उर्दू के नामी शायर जिगर मोरादाबादी के दोस्त भी।

कल पहली कड़ी में आपनें सुना था मजरूह साहब का लिखा पहला फ़िल्मी गीत और हमने बताया कि किस तरह से उन्हें इसका मौका मिला था। १९४६ की फ़िल्म 'शाहजहाँ' के गीतों नें इतिहास रच दिया। लेकिन इससे मजरूह सुल्तानपुरी को ज़्यादा फ़ायदा नहीं पहुँचा। देश बटवारे की आग में जल रही थी। देश विभाजन के बाद जब महबूब साहब नें मजरूह साहब को फ़िल्म 'अंदाज़' में गीत लिखने का अवसर दिया तो उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में एक बार फिर धूम मचा दी। इस फ़िल्म के "झूम झूम के नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत" को सुनकर लोगों नें झूम झूम कर मजरूह के गीतों को गुनगुनाना जो शुरु किया, बस गुनगुनाते चले गये, और मजरूह साहब को फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। नौशाद साहब के बाद ५० के दशक के पहले ही साल में जिस संगीतकार के लिये मजरूह को गीत लिखने का मौका मिला, वो थे अनिल बिस्वास। १९५० की फ़िल्म 'आरज़ू' के गानें बेहद लोकप्रिय हुए हालाँकि इस फ़िल्म में प्रेम धवन और जाँनिसार अख़्तर नें भी कुछ गीत लिखे थे। १९५३ में अनिल बिस्वास और मजरूह नें साथ में काम किया फ़िल्म 'फ़रेब' में जिसके गीत भी कामयाब रहे। इसी बीच मजरूह नें कुछ और संगीतकारों के साथ भी काम किया, जैसे कि ग़ुलाम मोहम्मद (हँसते आँसू, १९५०) और बुलो सी. रानी (प्यार की बातें, १९५१)। मजरूह साहब और अनिल दा के संगम से १९५३ में दो और फ़िल्मों का संगीत उत्पन्न हुआ - 'जलियाँवाला बाग़ की ज्योति' और 'हमदर्द'। आज के अंक के लिये अनिल दा के जिस कम्पोज़िशन को हम सुनवाने के लिये लाये हैं, वह है १९५६ की फ़िल्म 'हीर' का। प्रदीप कुमार और नूतन अभिनीत फ़िल्मिस्तान की इस फ़िल्म के सुमधुर गीतों में लता मंगेशकर का गाया "आ मेरे रांझना रुख़सत की है शाम", हेमन्त कुमार का गाया "बिन देखे फिरूँमस्ताना, मैं तो हीर का हूँ दीवाना" और गीता दत्त का गाया "बुलबुल मेरे चमन के तक़दीर बनके जागो" भी शामिल है, लेकिन हमनें जिस गीत को चुना है, वह है आशा भोसले की आवाज़ में "छेड़ी मौत नें शहनाई, आजा आनेवाले"। नूतन पर फ़िल्माये गये इस गीत को आज हम भुला चुके हैं, लेकिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के माध्यम से आइए आज, हम और आप, सब एक साथ मिलकर इस भूले बिसरे गीत को सुनें और इन दोनों लाजवाब फ़नकारों - मजरूह सुल्तानपुरी और अनिल बिस्वास - के फ़न को सलाम करें।



क्या आप जानते हैं...
कि राज कपूर नें फ़िल्म 'धरम करम' में एक गीत लिखने के लिये मजरूह सुल्तानपुरी को नियुक्त किया था, और मजरूह साहब नें लिखा था "इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल", जिसके लिये उन्हें १००० रूपए का पारिश्रमिक मिला

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 3/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - फिल्म के नायक और नायिका दोनों के नाम बताएं - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अविनाश राज जी ने खता खोला ३ शानदार अंकों के साथ. मगर हिन्दुस्तानी जी आप चूक गए, भाई अमित और अनजाना जी गायब तो न रहें कम से कम

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, May 22, 2011

जब उसने गेसु बिखराये...एक अदबी शायर जो दशक दर दशक रचता गया फ़िल्मी गीतों का कारवाँ भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 661/2011/101

"वो तो है अलबेला, हज़ारों में अकेला"। फ़िल्म 'कभी हाँ कभी ना" के गीत के ये शब्द ख़ुद उन पर भी लागू होते हैं जिन्होंने इसे लिखा है। १९४६ से लेकर अगले पाँच दशकों तक एक से एक कामयाब, लाजवाब, सदाबहार गीत देने वाले इस फ़िल्मी गीतकार का शुमार अदबी शायरों में भी होता है। और केवल लेखन ही नहीं, हकीम शास्त्र में भी पारंगत इस लाजवाब शख़्स को हम सब जानते हैं मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से। आगामी २४ मई को मजरूह साहब की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य पर आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है उनके लिखे दस अलग अलग संगीतकारों की स्वरबद्ध फ़िल्मी रचनाओं पर आधारित हमारी नई लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया'। १९४५ में साबू सिद्दिक़ी इंस्टिट्युट में आयोजित एक मुशायरे में भाग लेने के लिये मजरूह साहब बम्बई तशरीफ़ लाये थे। वहाँ उनकी ग़ज़लों और नज़्मों का श्रोताओं पर गहरा असर हुआ और इन श्रोताओं में फ़िल्मकार ए. आर. कारदार भी शामिल थे। कारदार साहब नें फिर जिगर मोरादाबादी को सम्पर्क किया जिन्होंने उनकी मुलाक़ात मजरूह से करवा दी। लेकिन मजरूह साहब नें फ़िल्मों के लिये लिखने से मना कर दिया क्योंकि फ़िल्म में लिखने को वो ऊँचा काम नहीं मानते थे। लेकिन जिगर साहब के अनुरोध और यह समझाने पर कि फ़िल्मों के लिये गीत लिखने से उन्हें अच्छे पैसे मिल सकते हैं जिससे वो अपने परिवार का अच्छा भरन-पोषण कर सकते हैं, मजरूह साहब मान गये। कारदार साहब मजरूह को लेकर सीधे नौशाद साहब के पास गये जो उन दिनों 'शाहजहाँ' फ़िल्म के गीत रच रहे थे। नौशाद नें मजरूह को एक धुन सुनाई और उनसे कहा कि उस मीटर पर कुछ लिखे। और मजरूह साहब की क़लम से निकले "जब उसने गेसु बिखराये, बादल आये झूम के"। नौशाद साहब को पसंद आई और इस तरह से ख़ुमार बाराबंकवी के साथ मजरूह भी बन गये फ़िल्म 'शाहजहाँ' का हिस्सा।

तो दोस्तों, आइए मजरूह साहब के लिखे इस पहले पहले गीत से ही इस शृंखला का शुभारंभ किया जाये। शम्शाद बेगम की आवाज़ में है यह गीत "जब उसने गेसु बिखराये"। इसी फ़िल्म के सहगल साहब के गाये तीन गीत हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं, इसलिए आज के इस अंक में हम सहगल साहब के गाये गीतों की चर्चा नहीं करेंगे। बस इतना ही कहेंगे कि नौशाद साहब की तरह मजरूह साहब को भी बस इसी एक फ़िल्म में सहगल साहब से अपने गीत गवाने का मौका मिला था। लेकिन कुंदनलाल सहगल से लेकर कुमार सानू तक, लगभग सभी गायकों नें उनके लिखे गीत गाये और अपार शोहरत हासिल की। आज क्योंकि नौशाद साहब की रचना हम आप तक पहूँचा रहे हैं, तो गीत सुनने से पहले ये रहे चंद शब्द जो नौशाद साहब नें कहे थे मजरूह साहब की शान में - "मजरूह सिर्फ़ उर्दू के शायर ही नहीं थे, वो तो हाफ़िज़-ए-क़ुरान थे साहब! कोई मसला पूछना हो तो वो अरबी-फ़ारसी से रेफ़्रेन्स दिया करते थे। जहाँ तक उनकी शायरी का सवाल है, वो एक मुकम्मल शायर थे। उनकी शायरी में कोई झोल नहीं था। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के साथी थे, तरक्की पसंद शायरी की शुरुआत भी उन्होंने ही की थी, उस वक़्त वे जैल में थे। उनकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। मुझे इस बात का फ़क्र है कि मैंने ही उनको मुशायरे से उठाकर फ़िल्म लाइन में ले आया। भिंडी बाज़ार की पंजाबी शायरी में मैं उनसे मिला था। शक़ील, ख़ुमार और मजरूह, इन तीनों को मैंने ही मुशायरे से कारदार स्टुडिओज़ ले गया था। फ़नकार कभी मरता नहीं है, अपने फ़न से वो हमेशा ज़िंदा रहता है और मजरूह अपने गीतों के ज़रिये अमर रहेंगे।" आइए मजरूह साहब के लिखे गीतों का कारवाँ शुरु करते हैं शमशाद बेगम के गाये इस गीत के साथ।



क्या आप जानते हैं...
कि शक़ील बदायूनी और नौशाद साहब का साथ शुरु होने से लेकर शक़ील साहब की मृत्यु तक केवल एक ऐसी फ़िल्म बनी जिसमें नौशाद साहब नें मजरूह के लिखे गीतों को स्वरबद्ध किया था, और यह फ़िल्म थी 'अंदाज़' (१९४९)।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 2/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - प्रदीप कुमार नायक थे फिल्म के.
सवाल १ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - फिल्म की नायिका कौन है - ३ अंक
सवाल ३ - गायिका बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी और अनजाना जी आप दोनों के फैसले के हम सम्मान करते हैं, इसलिए आज पहली काफी आसान दे रखी है देखते हैं कौन कौन आगे आते हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - गुरूदेव रबिंद्रनाथ ठाकुर और रबिंद्रसंगीत



सुर संगम - 21 - रविन्द्र संगीत में बसती है बंगाल की आत्मा

इस शैली ने बंगाल की संगीत अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। गुरूदेव ने लगभग २३०० गीत रचे जिनका संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित है। ये गीत प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव और मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं।

तुम इस बार मुझे अपना ही लो हे नाथ, अपना लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ
हृदय चुराकर ही मानो।


उपरोक्त पंक्तियों में समर्पण का भाव घुला हुआ है| समर्पण किसी प्रेमिका का प्रेमी के प्रति, समर्पण किसी भक्त का अपने ईश्वर के प्रति| और यह जानकर भी शायद आश्चर्य नहीं होगा की ये पंक्तियाँ एक ऐसे महकवि की रचना के हिन्दी अनुवाद में से ली गई हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन अपनी रचनाओं के माध्यम से देश व समाज में जागृति लाने में समर्पित कर दिया था| जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ 'गुरुदेव' श्री रबिंद्रनाथ ठाकुर की| सुर-संगम के सभी श्रोता-पाठकों का मैं, सुमित चक्रवर्ती हार्दिक अभिनंदन करता हूँ हमारी २१वीं कड़ी में जो समर्पित है महान कविगुरू श्री रबिंद्रनाथ ठाकुर को जिनका १५०वाँ जन्मदिवस वैसाख महीने की २५वीं तिथि यानि ९ मई २०११ को मनाया गया|

रबिंद्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेंद्रनाथ ठाकुर और शारदा देवी की संतान के रूप में वर्ष १८६१ में कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट्‍ ज़ेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में १९७८ में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन १८८० में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। उनका १८८३ में मृणालिनी देवी के साथ विवाह हुआ। बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र लिखी थी और १८७७ में केवल सोलह वर्ष की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। वे बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगद्रष्टा थे तथा एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति बने। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्र-गान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान "जन गण मन" और बांग्लादेश का राष्ट्र-गान "आमार सोनार बांग्ला" गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। आइये गुरूदेव व उनकी रचनाओं के बारे में और जानने से पहले सुनते हैं उनके द्वारा रचित एक मधुर गीत उन्हीं की आवाज़ में।

गीत - तबे मोने रेखो (तुम याद रखना)


गुरूदेव ने अपने द्वारा रची कविताओं को गीतों का रूप दे दिया, इस प्रकार रचना हुई एक नई संगीत विधा की जिसे हम रबिंद्र संगीत के नाम से जानते हैं। इस शैली ने बंगाल की संगीत अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। गुरूदेव ने लगभग २३०० गीत रचे जिनका संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित है। ये गीत प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव और मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं। रबिंद्र संगीत ने बंगाली संस्कृति पर एक गहरा प्रभाव डाला है तथा इसे बांग्लादेश तथा पश्चिम बंगाल दोनों की सांस्कृतिक निधि माना गया है। सामजिक जन चेतना तथा भारतीय स्वाधीनता में उनके गीतों ने महत्त्व्पूर्ण भूमिका निभाई।

रबिंद्रसंगीत एक विशिष्ट संगीत पद्धति के रूप में विकसित हुआ है। इस शैली के कलाकार पारंपरिक पद्धति में ही इन गीतों को प्रस्तुत करते हैं। बीथोवेन की संगीत रचनाओं(सिम्फनीज़) या विलायत ख़ाँ के सितार की तरह रबिंद्रसंगीत अपनी रचनाओं के गीतात्मक सौन्दर्य की सराहना के लिए एक शिक्षित, बुद्धिमान और सुसंस्कृत दर्शक वर्ग की मांग करता है। १९४१ में गुरूदेव की मृत्यु हो गई परन्तु उनका गौरव और उनके गीतों का प्रभाव अनन्त है। उन्होंने अपने गीतों में शुद्ध कविता को सृष्टिकर्त्ता, प्रकृति और प्रेम से एकीकृत किया है। मानवीय प्रेम प्रकृति के दृश्यों में मिलकर सृष्टिकर्त्ता के लिए समर्पण (भक्ति) में बदल जाता है। उनके 2000 अतुल्य गीतों का संग्रह गीतबितान(गीतों का बागीचा) के रूप में जाना जाता है। इस पुस्तक के चार प्रमुख हिस्से हैं- पूजा (भक्ति), प्रेम (प्यार), प्रकृति (प्रकृति) और बिचित्रा (विविध)। लीजिए प्रस्तुत है गुरूदेव द्वारा रचित एक गीत "ग्राम छाड़ा ओई रांगा माटीर पौथ" का हिन्दी अनुवाद जिसे गाया है आगरा घराने की प्रसिद्घ गायिका श्रीमति दिपाली नाग ने। इस गीत में कवि अपने देश की धरती को याद कर रहा है।

गाँव से दूर - दीपली नाग - रबिंद्र संगीत (हिन्दी अनुवाद)


यह एक स्वीकृत तथ्य है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के तत्वों को रबिन्द्र-संगीत में एक बहुत ही बुद्धिमान और प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया गया है। इसे इन गीतों में कथित भावों व मनोदशा को व्यक्त करने हेतु एक इकाई के रूप में ही सीमित रखा गया है ताकि शात्रीय संगीत के तत्व गीत के मुख्य भाव के साथ प्रतिद्वन्द्वित न हों। इसीलिए कई गीतों में शास्त्रीय संगीत का आंशिक अनुरूप पाया जाता है। परन्तु यह भी पाया गया है कि कुछ गीतों में न केवल रागों व तालों को उनके शुद्ध रूप में अपनाकर बल्कि कुछ अवसरों में तो गुरूदेव ने रागों को बहुत ही रोचक रूप में मिश्रित कर अपनी सबसे सुंदर व बौद्धिक रूप से चुनौतिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आइए सुनते हैं राग मेघ और राग देश के ऐसे ही एक मिश्रण पर आधारित एक गीत को प्रसिद्ध रबिंद्रसंगीत गायिका श्रीराधा बन्धोपाध्याय की आवाज़ में तथा उसके बाद सुनिए इसी गीत का इन्स्ट्रुमेंटल वर्ज़न जिसे प्रस्तुत किया गया है सरोद पर। इस गीत में वर्षा के प्रति तड़प को प्रमि से विरह की तड़प से जोड़कर दर्शाया गया है।

एशो श्यामोलो सुन्दोरो - श्रीराधा बन्धोपाध्याय - राग मेघ व राग देश


एशो श्यामोलो सुन्दोरो - सरोद


और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुनिए और पहचानिए इस आवाज़ को।


पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी आपने थोडी सी देर कर दी, पिछ्ली बार क्षिति जी ने बता दिया कि वे खेल में बनी हुई हैं, बधाई!

इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के इस अंक को यहीं पर विराम देते हैं| गुरूदेव टैगोर की रचनाएँ और रबिंद्र संगीत एक ऐसा अनन्त सागर हैं जिनको एक अध्याय में समेटना नामुम्किन है, इसलिए इनसे जु़डे कई अन्य तथ्यों व रचनाओं को आपके समक्ष हम प्रस्तुत करेंगे सुर-संगम की सावन माह की किसी कड़ी में जब मनाई जाएगी कविगुरू की पुण्यतिथि| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे हमारे प्रिय सुजॉय दा प्रस्तुत करेंगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ग़ुलदस्ता, पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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