Saturday, May 29, 2010

कुदरत के नज़रों की खूबसूरती का बयां करते हुए भी बने कई नायाब गीत



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३९

दिलीप कुमार के पार्श्वगायन की अगर बात करें तो सब से पहले उनके लिए गाया था अरुण कुमार ने उनकी पहली फ़िल्म 'ज्वार भाटा' में। उसके बाद कुछ वर्षों के लिए तलत महमूद बने थे दिलीप साहब की आवाज़। बाद में रफ़ी साहब की आवाज़ ही ज़्यादा सुनाई दी थी दिलीप साहब के होठों से। लेकिन ५० के दशक में कुछ ऐसे गीत बनें हैं जिनमें दिलीप कुमार का प्लेबैक दिया था मुकेश ने, और ख़ास बात यह कि मुकेश की आवाज़ भी उन पर बहुत जचीं और ये तमाम गानें ख़ूब चले भी, फ़िल्म 'यहूदी' का 'ये मेरा दीवानापन है" कह लीजिए या फिर फ़िल्म 'अंदाज़' का "झूम झूम के नाचो आज, गायो ख़ुशी के गीत", या फिर 'मधुमती' का "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" और "दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा"। लेकिन कहा जाता है कि दिलीप साहब नहीं चाहते थे कि मुकेश उनके लिए गाए क्योंकि उनका ख़याल था कि मुकेश की आवाज़ उन पर फ़िट नहीं बैठती। यह बात है १९४८ की जब 'अंदाज़' बन रही थी। फ़िल्म के संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हे समझाया कि ऐसे गीतों के लिए मुकेश की आवाज़ ही सब से ज़्यादा सही है, दिलीप साहब मान गए और गीत के सफल होने के बाद मुकेश जी को भी मान गए। आज हम दिलीप साहब और मुकेश जी की जोड़ी को सलाम करते हुए जिस गीत को आप तक पहुँचा रहे हैं वह है फ़िल्म 'मधुमती' का "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं"। शैलेन्द्र के बोल और सलिल चौधरी का संगीत। यह अपने ज़माने का एक ब्लौकबस्टर फ़िल्म है। कहानी, अभिनय, संगीत, सब चीज़ों में एक नयापन लेकर आये थे बिमल राय। इस फ़िल्म का हर एक गीत हिट हुआ, और यह बताना मुश्किल है कि कौन सा गीत ज़्यादा बेहतर है।

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत -सुहाना सफर...
कवर गायन -दिलीप कवठेकर




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दिलीप कवठेकर
पेशे से इंजिनियर दिलीप कवठेकर मन से एक सहज कलाकार हैं, ब्लॉग्गिंग की दुनिया में अपने संगीत ज्ञान और आवाज़ के लिए खासे जाने जाते हैं, ओल्ड इस गोल्ड निरंतर पढते हैं, गुजरे जमाने के लगभग हर गायक को ये अपनी स्वरांजलि दे चुके हैं


विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें

सुनो कहानी: माय नेम इज खान



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में शरद जोशी की व्यंग्य कहानी "एक बंगला फिल्म" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक लघुकथा "माय नेम इज खान", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 45 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

ये पत्ते किसलिए लाये हैं? क्या देसी बकरी पाली है?
(अनुराग शर्मा की "माय नेम इज खान" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#74th Story, My name is Khan: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2009/19. Voice: Anurag Sharma

Friday, May 28, 2010

ये वो दौर था जब फ़िल्में एक खास उद्देश्य से बनती थी, जाहिर है संगीत पर भी खूब मेहनत होती थी



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३८

बी. आर चोपड़ा हिंदी सिनेमा के एक महत्वपूर्ण स्तंभ रहे हैं। उनकी हर फ़िल्म हमें कुछ ना कुछ ज़रूर संदेश देती है। आज उन्ही की फ़िल्म 'धूल का फूल' से एक युगल गीत, जिसे फ़िल्म के लिए लता मंगेशकर और महेन्द्र कपूर ने गाया था। साहिर लुधियानवी के बोल और एन. दत्ता का संगीत। जब बी. आर. चोपड़ा साहब का नाम आ ही गया है तो क्यों ना उन्ही के द्वारा प्रस्तुत विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम से एक अंश यहाँ पर पेश कर दिया जाए। "मेरा नाम बी. आर. चोपड़ा, पूरा नाम बलदेव राज चोपड़ा, पूरी फ़िल्म लाइन में एक ही शख़्स है जो मुझे बलदेव के नाम से पुअकारता है, और वो हैं दादामुनि अशोक कुमार। एक दिन बलदेव ने एक बदमाशी की, और एक अंग्रेज़ी फ़िल्म देखी। आर्य समाज के जलसे में जाने का बहाना कर के गया था। वापस लौटे तो देर हो चुकी थी। पिताजी ने पूछा कि कहाँ से आ रहे हो भाई? आर्य समाज के उसूलों पर चलनेवाले बलदेव से झूठ ना बोला गया। पिताजी सच से ख़ुश हो गए, मगर आइंदा फ़िल्में देखने पर पाबंदी लगा दी। कॊलेज में लिखने का शौक पैदा हो गया। पढ़ाई के साथ साथ मैगज़िन्स में ख़ूब लिखे। कभी कहानी, कभी अफ़साना, कभी फ़िल्म रिव्यू, कभी आर्टिकल। अर बाद में ख़्वाबों को पूरा करने के लिए आइ.सी.एस के इम्तिहान में बैठा। बदक़िस्मती से कामयाब ना हो सका। बहुत दुख हुआ। दुनिया से किनाराकशी कर ली, और ज़िंदगी को ख़त्म करने का इरादा कर लिया। उस वक़्त पिताजी ने कहा कि बलदेव, यह सरासर बुज़दिली है, ज़िंदगी का मुक़ाबला ना मुंह छुपाकर होता है और ना सर झुकाकर।" और दोस्तों, शायद यही शब्द चोपड़ा साहब की फ़िल्म 'हमराज़' के एक गीत का मुखड़ा बन गया आगे चलकर। लेकिन फ़िल्हाल हम सुनने जा रहे हैं ;धूल का फूल' का गीत।

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत -तेरे प्यार का...
कवर गायन -पारसमणी आचार्य और प्रदीप सोम सुन्दरन




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डाक्टर पारसमणी आचार्य
मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं

प्रदीप सोमसुन्दरन
जो लोग टीवी पर म्यूजिकल शो देखने के शौक़ीन हैं, उन्होंने भारतीय टेलीविजन पर पहले सांगैतिक आयोजन 'मेरी आवाज़ सुनो' को ज़रूर देखा होगा। प्रदीप सोमसुंदरन को इसी कार्यक्रम में सन 1996 में सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक चुना गया था और लता मंगेशकर सम्मान से सम्मानित किया गया था। 26 जनवरी 1967 को नेल्लूवया, नेल्लूर, केरल में जन्मे प्रदीप पेशे से इलेक्ट्रानिक के प्राध्यापक हैं। त्रिचुर की श्रीमती गीता रानी से 12 वर्ष की अवस्था में ही प्रदीप ने कर्नाटक-संगीत की शिक्षा लेना शुरू कर दी थी और 16 वर्ष की अवस्था में स्टेज-परफॉर्मेन्स देने लेगे थे। प्रदीप कनार्टक शास्त्रीय गायन के अतिरिक्त हिन्दी, मलयालम, तमिल, तेलगू, अंग्रेज़ी और जापानी आदि भाषाओं में ग़ज़लें और भजन गाते हैं। इन्होंने कई मलयालम फिल्मी गीतों में अपनी आवाज़ दी है। और गैर मलयालम फिल्मी तथा गैर हिन्दी फिल्मी गीतों में ये काफी चर्चित रहे हैं।


विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

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Thursday, May 27, 2010

पार्श्वगायकों और अभिनेताओं की भी जोडियाँ बनी इंडस्ट्री में, जो अभिनय और आवाज़ में एकरूप हो गए



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३७

मोहम्मद रफ़ी शम्मी कपूर की आवाज़ हुआ करते थे। इस जोड़ी ने ६० के दशक में फ़िल्म जगत में वो हंगामा किया कि अब वो इतिहास बन चुका है। आज पेश है रफ़ी और शम्मी साहब की जोड़ी का एक सदाबहार गीत फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' से। पंचम की धुन पर मजरूह साहब के बोल। लेकिन गीत सुनवाने से पहले आज शम्मी कपूर के कुछ शब्द रफ़ी साहब के बारे में। सौजन्य विविध भारती पर प्रसारित रफ़ी साहब को समर्पित 'विशेष मनचाहे गीत' कार्यक्रम जो प्रसारित हुआ था ३१ जुलाई २००५ को। शम्मी जी कहते हैं, "रफ़ी साहब का 'रेंज' बहुत बढ़िया और 'वास्ट' था। अलग अलग 'हीरोज़' के लिए अलग अलग 'स्टाइल' में गाते थे। मेरे लिए भी एक अलग 'स्टाइल' था। मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई 'तुमसा नहीं देखा' के एक गाने की 'रिकार्डिंग्' पर। वो मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं पहुँचा तो मुझसे पूछने लगे कि गाने में कैसी हरकत करनी है?' मैं उनसे कहता था कि 'यहाँ पे मैं ऐसा हरकत करूँगा, अगर आप इस जगह ऐसा गायेंगे तो अच्छा रहेगा', और वो वैसा ही कर देते। एक गाना था फ़िल्म 'कश्मीर की कली' में "तारीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हे बनाया", मैं चाहता था कि इस गाने के एंड में लाइन रिपीट होती रहे, और मैं गाते गाते अंत में पानी में गिर पड़ूँ। जब मैने यह बात बतायी तो रफ़ी साहब को तो पसंद आयी पर नय्यर साहब ने इंकार कर दिया यह कहकर कि गाना ख़ामख़ा लम्बा हो जायेगा। अंत में रफ़ी साहब ने कहा कि 'गाना मैं गाऊंगा, आप लोगों को तक़लीफ़ क्यों हो रही है?' और इस तरह से रफ़ी साहब की वजह से मेरी वो ख़्वाहिश पूरी हुई थी। हम लोग कभी कभी रात को एक साथ बैठकर गाना गाते। शंकर, जयकिशन, रोशन, रफ़ी साहब, और मैं, रात ११/१२ बजे बैठ जाते और हम सब क्लासिकल म्युज़िक गाते, मैं भी गाता, बहुत ही हसीन घड़ियाँ थे वो सब!"

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गीत -तुमने मुझे देखा...
कवर गायन -रफीक शेख




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रफीक शेख
रफ़ीक़ शेख आवाज़ टीम की ओर से पिछले वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गायक-संगीतकार घोषित किये जा चुके हैं। रफ़ीक ने दूसरे सत्र के संगीत मुकाबले में अपने कुल 3 गीत (सच बोलता है, आखिरी बार, जो शजर सूख गया है) दिये और तीनों के तीनों गीतों ने शीर्ष 10 में स्थान बनाया। रफ़ीक ने पिछले वर्ष अहमद फ़राज़ के मृत्यु के बाद श्रद्धाँजलि स्वरूप उनकी दो ग़ज़लें (तेरी बातें, ज़िदंगी से यही गिला है मुझे) को संगीतबद्ध किया था। बम्पर हिट एल्बम 'काव्यनाद' में इनके 2 कम्पोजिशन संकलित हैं।


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Wednesday, May 26, 2010

फिल्म में गीत लिखना एक अलग ही किस्म की चुनौती है जिसे बेहद सफलता पूर्वक निभाया बीते दौर के गीतकारों ने



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३६

१९५५ में निर्माता निर्देशक ए. आर. कारदार ने किशोर कुमार और चांद उसमानी को लेकर बनायी फ़िल्म 'बाप रे बाप'। १९५२ तक नौशाद साहब ही कारदार साहब की फ़िल्मों में संगीत दे रहे थे। उसके बाद ग़ुलाम मोहम्मद, मदन मोहन और रोशन जैसे संगीतकार उनके साथ जुड़े। और 'बाप रे बाप' के लिए कारदार साहब ने चुना ओ.पी. नय्यर साहब को। और गीतकार चुना गया जाँनिसार अख़्तर को। जाँनिसार अख़्तर, जो जावेद अख़्तर साहब के पिता हैं, उन्होने नय्यर साहब के साथ कई फ़िल्मों में काम किया। जाँनिसार साहब ने भले ही बहुत सारी फ़िल्मों के लिए गानें लिखे, लेकिन उन्हे दूसरे गीतकारों की तुलना में कुछ कम ही याद किया जाता है। जाने क्यों! दोस्तों, अभी हाल में आइ.बी.एन-७ चैनल पर लता जी का एक इंटरव्यू लिया गया था और जावेद अख़्तर साहब उसमें लता जी से बातचीत कर रहे थे। तो जब जावेद साहब ने लता जी से पूछा कि कोई एक ऐसा गाना वो बताएँ जो सब से ज़्यादा उन्हे पसंद रहा है, तो पहले तो लता जी हिचकिचाई यह कहते हुए कि किसी एक गीत को चुनना नामुमकिन है। फिर भी जावेद साहब के ज़िद करने पर उन्होने युंही कह दिया कि फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' का गीत "ऐ दिल-ए-नादान" उन्हे बहुत पसंद है। लता जी उस वक़्त यह भूल गईं थीं कि इस गीत के गीतकार जाँनिसार अख़्तर हैं। लेकिन जब जावेद साहब ने कहा कि 'लता जी, मैंने आपको अपने पसंद का एक गीत चुनने को कहा, तो मैं बड़े फ़क्र के साथ यह कहता हूँ कि यह गीत मेरे वालिद साहब ने लिखा था'। यह सुनते ही लता जी चौंक उठीं और तालियों की गड़गड़ाहट से स्टुडियो गूंज उठा। दोस्तों, जाँनिसार साहब के स्तर का अहसास बस यही घटना करा देती है कि लता जी ने अपनी पसंद का केवल एक गीत चुना और वह उनका लिखा हुअ था। ख़ैर, अब हम आते हैं 'बाप रे बाप' पर। यह एक रोमांटिक कॊमेडी फ़िल्म थी। फ़िल्म में तमाम हास्य रस के गानें थे, लेकिन जो गीत सब से ज़्यादा लोकप्रिय हुआ, वह था "पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे, हम भी चलेंगे स‍इंया संग तुम्हारे"। इस गीत की लोकप्रियता इसकी गायकी, बोल, धुन और रीदम की वजह से तो है ही, लेकिन उससे भी ज़्यादा यह गीत इसलिए यादगार बन गया क्योंकि इस गीत में आशा जी से एक भूल हुई है। जी हाँ, एक ऐसी भूल जिसे सुधारा नहीं गया, बल्कि उस भूल को बड़ी ही चतुराई के साथ फ़िल्माया गया। लीजिए अपनी इस भूल के बारे में आशा जे से ही जानिए। "मैं किशोर दा के साथ एक गीत गा रही थी। ये वह गीत था "पिया पिया पिया"। रिहर्सल ख़त्म होने के बाद फ़ाइनल रोकोर्डिंग शुरू हुई। और मैंने ग़लती से किशोर दा के लाइन के उपर गा उठी। मैं बस 'हं' ऐसे गा उठी और तुरंत अपनी ग़लती का अहसास हो गया। किशोर मेरी तरफ़ देख कर अपने हाथ से मुझे इशारा किया कि मैं गाना जारी रखूँ। जैसे ही रिकार्डिंग् ख़त्म हुई, मैं नय्यर साहब से माफ़ी मांगी और गाना दोबारा रिकार्ड करने का अनुरोध भी किया क्योंकि वह एक बहुत बड़ी ग़लती मुझसे हो गई थी। मैं बीच में ही ग़लत जगह पर गाना शुरु कर दिया था। लेकिन किशोर दा ने मुझे आश्वस्त किया और कहा कि 'आप थोड़ा भी परेशान ना हों, मैं हूँ ना उस फ़िल्म में हीरो, मैं उस सीन में हीरोइन के मुंह पे हाथ रख दूँगा जब वो उस जगह पे गाने लगेगी।" और वाक़ई इसी तरह से इस गीत का फ़िल्मांकन हुआ। दोस्तों, आप में से बहुतों को यह मालूम होगा। जिन्हे पता नहीं था, वो अब बेक़रार हो रहे होंगे आशा जी की इस ग़लती को ढूंढ निकालने का। तो उन सब के लिए हम यह बता दें कि इसे आप गीत के दूसरे अंतरे में महसूस कर सकते हैं। और रही बात इस गीत के प्रस्तुत रिवाइव्ड वर्ज़न की, तो आप ख़ुद ही सुनिए कि क्या इसमें भी वही ग़लती, जो ग़लती हो कर भी फ़िल्मांकन की वजह से ग़लती नहीं रही, दोहराई गई है!

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गीत -पिया पिया...
कवर गायन -पारसमणी आचार्य और आज़म खान




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पारसमणी आचार्य
मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं
आज़म खान
रफ़ी साहब, किशोर कुमार, येसुदास, हरिहरन, सुरेश वाडेकर, सोनू निगम और उदित नारायण इनके पसंदीदा गायक हैं. आज़म फर्मवेयर इंजिनियर है अमेरिका में और गायन का विशेष शौक रखते हैं. इन्टरनेट पर बहुत से संगीत मंचों पर इनकी महफिलें सजती रहती हैं


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ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, वहशत-ए-दिल क्या करूँ...मजाज़ के मिजाज को समझने की कोशिश की तलत महमूद ने



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८५

कुछ शायर ऐसे होते है, जो पहली मर्तबा में हीं आपके दिल-औ-दिमाग को झंकझोर कर रख देते हैं। इन्हें पढना या सुनना किसी रोमांच से कम नहीं होता। आज हम जिन शायर की नज़्म लेकर इस महफ़िल में दाखिल हुए है, उनका असर भी कुछ ऐसा हीं है। मैंने जब इनको पहली बार सुना, तब हीं समझ गया था कि ये मेरे दिमाग से जल्द नहीं उतरने वाले। दर-असल हुआ यूँ कि एक-दिन मैं यू-ट्युब पर ऐसे हीं घूमते-घूमते अली सरदार ज़ाफ़री साहब के "कहकशां" तक पहुँच गया। वहाँ पर कुछ नामीगिरामी शायरों की गज़लें "जगजीत सिंह" जी की आवाज़ में सुनने को मिलीं। फिर मालूम चला कि "कहकशां" बस गज़लों का एक एलबम या जमावड़ा नहीं है, बल्कि यह तो एक धारावाहिक है जिसमें छह जानेमाने शायरों की ज़िंदगियाँ समेटी गई हैं। इन शायरों में से जिनपर मेरी सबसे पहले नज़र गई, वो थे "मजाज़ लखनवी"। इनपर सात या आठ कड़ियाँ मौजूद थीं(हैं)..मैं एक हीं बार में सब के सब देख गया.. और फिर आगे जो हुआ.... आज का आलेख, आज की महफ़िल-ए-गज़ल उसी का एक प्रमाण-मात्र है। मजाज़ के बारे में मैं खुद कुछ कहूँ, इससे अच्छा मैं यह समझता हूँ कि प्रकाश पंडित जी(जो कि मजाज़ को निजी तौर पे जानते थे) के शब्दों का सहारा ले लिया जाए (अब तक मजाज़ के बारे में मैं इतना कुछ जान चुका हूँ कि मैं खुद हीं कुछ कहना चाहता हूँ, लेकिन यह छोटी मुँह बड़ी बात होगी):

" ‘मजाज़’ उर्दू शायरी का कीट्स है।"
" ‘मजाज़’ शराबी है।"
" ‘मजाज़’ बड़ा रसिक और चुटकुलेबाज़ है।"
" ‘मजाज़’ के नाम पर गर्ल्स कालिज अलीगढ़ में लाटरियां डाली जाती थीं कि ‘मजाज़’ किसके हिस्से में पड़ता है। उसकी कविताएं तकियों के नीचे छुपाकर आंसुओं से सींची जाती थीं और कुंवारियां अपने भावी बेटों का नाम उसके नाम पर रखने की क़समें खाती थीं।" (उर्दू की मशहूर अफ़साना निगार इस्मत चुगताई ने भी अपनी आत्मकथा में इस बात का ज़िक्र किया है)

" ‘मजाज़’ के जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजिडी औरत है।"

‘मजाज़’ से मिलने से पूर्व मैं ‘मजाज़’ के बारे में तरह-तरह की बातें सुना और पढ़ा करता था और उसका रंगारंग चित्र मैंने उसकी रचनाओं में भी देखा था, विशेष रूप से उसकी नज़्म ‘आवारा’ (आज की नज़्म) में तो मैंने उसे साक्षात् रूप से देख लिया था। लेकिन उससे मिलने का मुझे मौका तब मिला जब मैं और साहिर लाहौर छोड़ने के बाद दिल्ली में घर लेने की जुगत में थे। तो एक रात की बात है। मैं और साहिर रात के १०-११ बजे एक गली से गुजर रहे थे तभी एक दुबला-पतला व्यक्ति अपने शरीर की हड्डियों के ढांचे पर शेरवानी मढ़े बुरी तरह लड़खड़ाता और बड़बड़ाता मेरे सामने आ खड़ा हुआ।

"अख़्तर शीरानी मर गया-हाय अख़्तर! तू उर्दू का बहुत बड़ा शायर था-बहुत बड़ा !"

वह बार-बार यही वाक्य दोहरा रहा था। हाथों से शून्य में उल्टी-सीधी रेखाएं बना रहा था और साथ-साथ अपने मेज़बान को कोसे जा रहा था जिसने घर में शराब होने पर भी से और शराब पीने को न दी थी और अपनी मोटर में बिठाकर रेलवे पुल के पास छोड़ दिया था। ज़ाहिर है कि इस ऊटपटांग-सी मुसीबत से मैं एकदम बौखला गया। मैं नहीं कह सकता कि उस समय उस व्यक्ति से मैं किस तरह पेश आता कि ठीक उसी समय कहीं से ‘जोश’ मलीहाबादी निकल आए और मुझे पहचानकर बोले, "इसे संभालो, प्रकाश ! ‘मजाज़’ है।"

‘मजाज़’ को संभालने की बजाय उस समय आवश्यकता यद्यपि अपने-आपको संभालने की थी लेकिन ‘मजाज़’ का नाम सुनते ही मैं एकदम चौंक पड़ा और दूसरे ही क्षण सब कुछ भुलाते हुए मैं इस प्रकार उससे लिपट गया मानो वर्षों पुरानी मुलाक़ात हो। उस समय तो मेरी ’मजाज़’ से पहचान न थी, लेकिन आगे चलकर हमारी अच्छी दोस्ती हो गई। उन दिनों ’मजाज़’ लगभग एक महीने हमारे साथ रहा। शराब छुड़ाने की हमने बहुत कोशिश की, लेकिन उसके शराबी दोस्तों ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। ’मजाज़’ को खाने की कोई चिंता न थी, कपड़े फट गए हैं या मटमैले हैं, इसकी भी उसे कोई परवाह न थी। यदि कोई धुन थी तो बस यही कि कहां से, कब और कितनी मात्रा में शराब मिल सकती है ! दिन-रात निरन्तर शराबनोशी का परिणाम नर्वस ब्रेकडाउन के सिवा और क्या हो सकता था जो हुआ। किसी प्रकार पकड़-धकड़ कर रांची मैण्टल हस्पताल में पहुंचाया, लेकिन स्वस्थ होते ही यह सिलसिला फिर से शुरू हो गया; और यह सिलसिला ६ दिसम्बर, १९५५ ई. को बलरामपुर हस्पताल, लखनऊ में उस समय समाप्त हुआ जब कुछ मित्रों के साथ ‘मजाज़’ ने नियमानुसार बुरी तरह शराब पी। मित्र तो अपने-अपने घरों को सिधार गए लेकिन ‘मजाज़’ रात-भर की नस फट गई।

‘मजाज़’ की ज़िन्दगी के हालात बड़े दुःखद थे। कभी पूरी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी, जहां से उसने बी.ए. किया था, उस पर जान देती थी। गर्ल्स कालिज में हर ज़बान पर उसका नाम था। लेकिन लड़कियों का वही चहेता शायर जब १९३६ ई. में रेडियो की ओर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ’आवाज़’ का सम्पादक बनकर दिल्ली आया तो एक लड़की (मजाज़ जिस लड़की को चाहते थे वो शादीशुदा थी) के ही कारण उसने दिल पर ऐसा घाव खाया जो जीवन-भर अच्छा न हो सका। एक वर्ष बाद ही नौकरी छोड़कर जब वह अपने शहर लखनऊ को लौटा तो उसके सम्बन्धियों के कथनानुसार वह प्रेम की ज्वाला में बुरी तरह फुंक रहा था और उसने बेतहाशा, पीनी शुरू कर कर दी थी। इसी सिलसिले में १९४० ई. में उस पर नर्वस ब्रेकडाउन का पहला आक्रमण हुआ। १९५४ ई. में उस पर पागलपन का दूसरा हमला हुआ। अब वह स्वयं ही अपनी महानता के राग अलापता था। शायरों के नामों की सूची तैयार करता था और ‘ग़ालिब’ और इक़बाल’ के नाम के बाद अपना नाम लिखकर सूची समाप्त कर देता था।

आधुनिक उर्दू शायरी का यह प्रिय दयनीय शायर सन् १९०९ ई. में अवध के एक प्रसिद्ध क़सबे रदौली में पैदा हुआ। पिता सिराजुलहक़ रदौली के पहले व्यक्ति थे ‘जिन्होंने ज़मींदार होते हुए भी उच्च शिक्षा प्राप्त की और ज़मींदारी पर सरकारी नौकरी को प्राथमिकता दी। यों असरारुल हक़ ’मजाज़’ का पालन-पोषण उस उभरते हुए घराने में हुआ जो एक ओर जीवन के पुराने मूल्यों को छाती से लगाए हुए था और दूसरी ओर नए मूल्यों को भी अपना रहा था। बचपन में, जैसाकि उसकी बहन ‘हमीदा’ ने एक जगह लिखा है, ‘मजाज़’ बड़े सरल स्वभाव तथा विमल हृदय का व्यक्ति था। जागीरी वातावरण में स्वामित्व की भावना बच्चे को मां के दूध के साथ मिलती है लेकिन वह हमेशा निर्लिप्त तथा निःस्वार्थ रहा। दूसरों की चीज़ को अपने प्रयोग में लाना और अपनी चीज़ दूसरों को दे देना उसकी आदत रही। इसके अतिरिक्त वह शुरू से ही सौन्दर्य-प्रिय भी था। कुटुम्ब में कोई सुन्दर स्त्री देख लेता तो घंटों उसके पास बैठा रहता। खेल-कूद, खाने-पीने किसी चींज़ की सुध न रहती। प्रारम्भिक शिक्षा लखनऊ के अमीनाबाद हाई स्कूल में प्राप्त कर जब वह आगरा के सेंट जोन्स कालिज में दाखिल हुआ तो कालिज में मुईन अहसन ‘जज़्बी’ और पड़ोस में ‘फ़ानी’ ऐसे शायरों की संगत मिली और यहीं से ‘मजाज़’ की उस ज्योतिर्मय शायरी का प्रादुर्भाव हुआ जिसकी चमक आगरा, अलीगढ़ और दिल्ली से होती हुई समस्त भारत में फैल गई। ‘मजाज़’ की शायरी का आरम्भ बिलकुल परम्परागत ढंग से हुआ और उसने उर्दू शायरी के मिजाज़ का सदैव ख़याल रखा।

"मजाज़ को शामिल किए बग़ैर पिछले ६० सालों का उर्दू शायरी का कोई भी संचयन पूरा नहीं हो सकता। उर्दू साहित्य में योगदान के लिए २०वीं सदी में जिन दो शायरों को सबसे ज़्यादा शोहरत मिली उनमें भारत से मजाज़ हैं और पाकिस्तान से फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हैं।" - ये कथन हैं श्री गोपीचंद नारंग के.... तो उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर स्वर्गीय "असर" लखनवी ने एक बार लिखा था: "उर्दू में एक कीट्स पैदा हुआ था लेकिन इन्क़िलाबी भेड़िए उसे उठा ले गए।" जानकारी के लिए बता दूँ कि मजाज़ का एक हीं कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ है - "आहंग" और बस इसी संग्रह के दम पर मजाज़ को उर्दू का कीट्स कहा जाता है। इस बात से जान पड़ता है कि मजाज़ की लेखनी में कितना दम था। प्रमाण के लिए यह शेर मौजूद है:

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं
क्या समझती हो कि तुमको भी भुला सकता हूँ मैं


मजाज़ के बारे में कहने को अभी बहुत कुछ बाकी है, लेकिन एक हीं आलेख में सब कुछ समेटा नहीं जा सकता। इसलिए आज बस इतना हीं। वैसे क्या आपको यह मालूम है कि मजाज़ की बहन का निकाह जांनिसार अख्तर से हुआ था, यानि कि मजाज़ "जावेद अख्तर" के मामा थे। नहीं मालूम था ना आपको? खैर कोई बात नहीं.. हम किस मर्ज़ की दवा हैं। चलिए तो अब आज की नज़्म की ओर रूख करते हैं। आज की नज़्म "ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ"/"आवारा" को अपनी आवाज़ से सजाया है तलत महमूद साहब ने। हम नज़्म तो आपको सुनवा हीं देंगे, लेकिन आपके लिए दो प्रश्न हैं:
१) तलत साहब की आवाज़ में यह नज़्म हमने किस फिल्म से ली है?
२) आज से सात साल पहले आई एक फिल्म में पूरा का पूरा एक गाना मजाज़ को समर्पित था। उस गाने में "आवारा" नज़्म की ये पंक्तियाँ थीं: "जी में आता है मुर्दा सितारे नोंच लूँ.."। हम किस गाने की बात कर रहे हैं और वह फिल्म कौन-सी थी?
सही जवाब देने वा्लों को भविष्य में जरूर फायदा होगा, मैं इसका विश्वास दिलाता हूँ। खैर, अभी तो यह नज़्म पेश-ए-खिदमत है:

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे ___ का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "जुगनू" और शेर कुछ यूँ था-

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

जुगनू की चमक के साथ महफ़िल में सबसे पहले हाज़िर हुईं सीमा जी। आपने इन शेरों से महफ़िल को रौशन कर दिया:

यही अंदाज़ है मेरा समन्दर फ़तह करने का
मेरी काग़ज़ की कश्ती में कई जुगनू भी होते हैं (बशीर बद्र)

बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है (क़तील शिफ़ाई)

शाहनवाज़ जी! वाह.. क्या बात कही आपने। अपनी आमद महफ़िल में ऐसे हीं बनाए रखिएगा:

देख के मेरे घर का रस्ता "जुगनू" भी छुप जाता है.
आसमान का हर तारा घर झांक के तेरे आता है.

शन्नो जी, आप हमेशा हीं यही सोच बैठती हैं कि कोई न कोई(ज्यादातर मैं हीं) आपसे नाराज़ हैं। जबकि ऐसा कभी नहीं होता। अंतर्जाल की इस दुनिया में लोग पल भर को मिलते हैं और अगर इस दौरान कोई नाराज़ हीं हो जाए, तो फिर मिलने-मिलाने का मज़ा तो जाता रहेगा। इसलिए आगे से अपने दिमाग में यह वहम पैदा मत होने दीजिएगा। और खुलकर शेर शेयर करते रहिएगा, जैसे कि आज किया है:

फूलों और पातों में आकर छिप जाते हैं
ये जुगनू रोशनी देकर खुद जल जाते हैं.

शरद जी, इस बार आपका शेर कुछ ढीला रह गया। मुझे आपसे एक जबर्दस्त शेर की उम्मीद थी। खैर फिर कभी:

अंधेरा जब भी गहराता है जुगनू याद आते है
चमक दिखला के वो हमको पता अपना बताते हैं । (स्वरचित)

हमें शौक जुगनू पकड़ने का था,
अंधेरों के यूँ हीं सफ़र कट गए। (शकूर अनवर)

अवध जी, आपका किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ। दर-असल गलती मेरी हीं थी, मुझे कुछ और शोध कर लेना चाहिए था, फिर मैं "चचा-जान" की जगह "रिश्तेदार" नहीं लिखता। आप जैसे सुधि-पाठक हों तो लिखने का मज़ा दूना हो जाता है।

अवनींद्र जी, आपने तो पूरी की पूरी गज़ल हीं लिख डालीं। अब मैं तो उस गज़ल से अपने काम का हीं शेर लूँगा :)

ये चांदनी पत्तों पे ढल रही है या
तेरी याद का जुगनू चमक रहा है !

सुमित जी, फिर से वही जल्दी-बाजी। शायर का नाम तो डालते जाते:

मैं ना जुगनू हूँ, दिया हूँ , ना कोई तारा हूँ,
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यूँ हैं।

मस्त-कलंदर जी, महफ़िल में खाली हाथ नहीं आते :) अगली बार, आपसे एक शेर की उम्मीद रहेगी।

नीलम जी, वल्लाह! आपके इस शेर के क्या कहने। वैसे शायर कौन है? :)

मेरी झोली में जुगनुओं कि वो सौगात लाता
यूँ ही नहीं उसकी किस्मत में अहबाब आता

मंजु जी, यादों के जुगनू आपने भी पकड़े हैं शायद.... तभी तो ये खयाल हैं:

तेरे यादों के जुगनू ने रूला दिया,
बिन सावन के बरसात को बुला लिया।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, May 25, 2010

कविहृदय शैलेन्द्र ने जब फ़िल्मी गीत लिखे तो उनके कलम स्पर्श से सैकड़ों गीत अमरत्व पा गए



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३५

फ़िल्म 'तीसरी कसम' से जुड़ी बहुत सी बातें हमने समय समय पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में की है। आज इसी फ़िल्म का गीत "सजनवा बैरी हो गए हमार" हम सुनने जा रहे हैं। तो आइए आज शैलेन्द्र के जीवन से जुड़ी कुछ बातें की जाए। हम आप तक फिर एक बार पहुँचा रहे हैं शैलेन्द्र जी की सुपुत्री आमला मजुमदार के उद्‍गार जो उन्होने कहे थे दुबई स्थित १०४.४ आवाज़ एफ़.एम रेडियो पर और जिसका प्रसारण हुआ था ३० अगस्त २००६ के दिन, यानी कि शैलेन्द्र जी के जन्मदिन के अवसर पर। आमला जी कहती हैं, "हम बहुत छोटे थे जब बाबा गुज़र गए और अचानक एक, जैसे overnight एक void सा, एक ख़ालीपन सा जैसे छा गया था हमारी ज़िंदगी के उपर। बाबा के गुज़र जाने के बाद we were determined that not to let that void eat us up और I think it was also in a way we realised that baba never left us. Through his songs, उनके गानों के ज़रिए उन्होने हमें एक राह दिखाई और उस राह पर चलते हम आज यहाँ तक पहुँच गए हैं। और हम बहुत ही proud होके, बहुत ही फक्र के साथ कह सकते हैं कि बाबा ने हमें छोड़ा नहीं, बाबा हमारे साथ थे, हैं, और उनके गानों के ज़रिए उनके जो message जो हमारे साथ हैं उससे हमारा character shape हुआ है और आज हम जो भी हैं I thank baba and ofcourse my mother, that we are what we are today because of them and because of his songs definitely।"

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत -सजनवा बैरी हो गए हमार...
कवर गायन -शरद तैलंग




ये कवर संस्करण आपको कैसा लगा ? अपनी राय टिप्पणियों के माध्यम से हम तक और इस युवा कलाकार तक अवश्य पहुंचाएं


शरद तैलंग
शरद तैलंग सुगम संगीत के आकाशवाणी कलाकार, कवि, रंगकर्मी और राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के कार्यकारिणी सदस्य हैं। वे भारत विकास परिषद के अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय सम्मेलन के सांस्कृतिक सचिव भी रह चुके हैं। आप अनेक साहित्यिक व संगीत संस्थाओँ के सदस्य अथवा पदाधिकारी रह चुके है, अनेकों संगीत एवं नाट्य प्रतियोगिताओँ में निर्णायक रह चुके हैं तथा देश के केरल, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र प्रदेशों के अनेक शहरों में अपनी संगीत प्रस्तुतियाँ दे चुके हैं। आपकी रचनाएँ देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओँ जैसे धर्मयुग, हंस, मरु गुलशन, मरु चक्र, सौगात, राजस्थान पत्रिका, राष्ट्रदूत, माधुरी, दैनिक भास्कर आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। ऑल इण्डिया आर्टिस्ट एसोसिएशन शिमला, जिला प्रशासन कोटा आई. एल. क्लब तथा अनेक संस्थानों द्वारा उन्हें सम्मानित किया जा चुका हैं। आप आवाज़ पर बहुचर्चित स्तम्भ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अतिथि-होस्ट रह चुके हैं।


विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें

Monday, May 24, 2010

बर्मन दा, आपके रचे गीत भारतीय फिल्म संगीत के आसमान पर सदैव टिमटिमाते रहेंगें, आपको सलाम



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३४

क्योंकि आज हम आपको सुनवा रहे हैं सचिन देव बर्मन की संगीत रचना फ़िल्म 'गाइड' से, तो आज हम दोहरा रहे हैं दो 'जयमाला' कार्यक्रमों से चुन कर कुछ अंश। पहला 'जयमाला' जिसे प्रस्तुत किया था ख़ुद दादा बर्मन ने और दूसरा 'जयमाला' जिसे प्रस्तुत किया था उनके सुपुत्र पंचम ने। पहले ये हैं दादा बर्मन - "फ़ौजी भाइयों, आप सभी को सचिन देव बर्मन का नमस्कार! मैं जब बहुत छोटा था तब त्रिपुरा के गाँव में एक बूढ़े किसान को गाते हुए सुनता था, "रोंगीला रोंगीला रोंगीला रे, रोंगीला"। जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ यह गीत भी मेरे साथ जवान होता गया। मेरी जो संगीत में रुचि है वह इसी गाने को सुनकर पैदा हुई थी।" दोस्तों, ये जो "रोंगीला रोंगीला" की धुन थी, वही धुन बनी "आन मिलो आन मिलो" की। और अब जान लीजिए कि बर्मन दादा ने उस कार्यक्रम का समापन कैसे किया था - "मेरी गीतों में जो लोक संगीत झलकती है, उसे मैने अपने गाँव के बूढ़े किसानों से सीखा है और शास्त्रीय संगीत अल्लाउद्दिन ख़ान साहब से सीखा है। मैं सब से ज़्यादा प्यार अपनी मिट्टी को करता हूँ, और संगीत मेरा शौक है। अब मैं फिर से उस गाँव को लौट जाता हूँ जहाँ पर वह बूढ़ा किसान गा रहा था "रोंगीला रोंगीला रोगीला रे, रोंगीला"।" उधर पंचम अपने कार्यक्रम में अपने पिता कसे संबंधित एक घटना का ज़िक्र करते हुए कहते हैं "वो कभी मेरी तारीफ़ नहीं करते थे। मैं कितना भी अच्छा धुन क्यों ना बनाऊँ, वो यही कहते थे कि इससे भी अच्छा बन सकता था, और कोशिश करो। एक बार वो मॊर्निंग् वाक्' से वापस आकर बेहद ख़ुशी के साथ बोले कि आज एक बड़े मज़े की बात हो गई है। वो बोले कि आज तक जब भी मैं वाक् पर निकलता था, लोग कहते थे कि देखो एस. डी. बर्मन जा रहे हैं, पर आज वो ही लोगों ने कहा कि देखो, आर. डी. बर्मन का बाप जा रहा है! यह सुनकर मैं हँस पड़ा, हम सब बहुत ख़ुश हुए।"

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत -तेरे मेरे सपने...
कवर गायन -हेमंत बदया




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हेमंत बदया
हेमंत एक संगीतमय परिवार से हैं. बैंगलोर के श्री लक्ष्मी केशवा से इन्होने ललित संगीत और पंडित परमेश्वर हेगड़े से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गुर सीखे. टोरोंटो में रहने वाले हेमंत जी टीवी के अन्ताक्षरी और मस्त मस्त शोस में शान के साथ नज़र आये और कन्नडा संघ आईडल भी बने


विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें

Sunday, May 23, 2010

संगीतकारों के अग्रणी नामों के पीछे कुछ ऐसे दिग्गज भी थे जिन्हें वो सब नहीं मिल पाया जिसके वो हक़दार थे



ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३३

ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और दुर्लभ गीत। दुर्लभ इसलिए कि इस गीत के संगीतकार ने अपने करीयर में केवल १४ फ़िल्मों में संगीत दिया। जी हाँ, सज्जाद हुसैन। आज सुनिए उनकी धुन में फ़िल्म 'रुस्तम सोहराब' का गीत "ऐ दिलरुबा नज़रें मिला"। सज्जाद साहब अपने उसूलों पर चलने वाले इंसान थे। उन्होने कभी किसी से कोई समझौता नहीं किया और इस वजह से उन्हे भी बहुत ज़्यादा फ़िल्में नहीं मिली। लेकिन जितने भी फ़िल्मों में उन्होने संगीत दिया वो सभी उच्च कोटी के थे जो उस ज़माने के सभी संगीतकार मानते थे। मैंडोलीन को फ़िल्म संगीत मे लाने का श्रेय भी सज्जाद साहब को ही जाता है। इस साज़ पर उन्होने बहुत शोध किये और उनके बजाये इस साज़ के कई रिकार्ड्स भी निकले और आज उनके तीनों बेटे इस क्षेत्र में अपने पिता के काम को आगे बढ़ा रहे हैं। अपने अलग स्वभाव, अलग 'मूड' और कम काम करने के बावजूद सज्जाद साहब एक बेहतरीन संगीतकार माने गये। अपनी ७९ वर्ष की आयु मे उन्होने अपनी संगीत यात्रा के दौरान अनेक बेशकीमती गीतों की धरोहर तैयार किये हैं जिसे आनेवाली पीढ़ी को सम्भालकर रखना है और उनसे यह शिक्षा भी लेनी है कि मौलिकता ही किसी कलाकार की राह होनी चाहिए। सज्जाद साहब ने अपने पूरे जीवन में केवल १४ फ़िल्मों में संगीत दिया है, लेकिन इन १४ फ़िल्मों में उन्होने कुछ ऐसा काम कर दिखाया है कि आज ५० साल बाद भी वो ज़िंदा हैं अपने रचे उन तमाम कालजयी संगीत की वजह से। आज सज्जाद साहब के बारे में बता रहे हैं उनके प्रिय दोस्त और अभिनेता जगदीप (सौजन्य: अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत 'संगीत के सितारों की महफ़िल') - "बहुत ख़ुद्दार आदमी थी। क्या है कि कभी अगर कोई उनकी धुन पर उंगली उठाता था तो वो कहते थे 'ये उंगली क्या उठाई आपने, आप क्या जानते हैं मौसिक़ी के बारे में? उठके चले जाते थे, फ़िल्म छोड़ देते थे। तो नए नए जो म्युज़िक डिरेक्टर्स आए थे उन दिनों में, उनमें बहुत कॊम्प्लेक्स था, तो उनको बदनाम भी बहुत किया गया, कि ये ग़ुस्सेवाले हैं, ये है वो है। बिल्कुल ऐसे नहीं थे, इबादतवाले थे, इबादतवाला आदमी ग़ुस्सेवाला कैसे हो सकता है! तो उनको बदनाम किया गया और वो पीछे हटते चले गए, हटते चले गए।"

ओल्ड इस गोल्ड एक ऐसी शृंखला जिसने अंतरजाल पर ४०० शानदार एपिसोड पूरे कर एक नया रिकॉर्ड बनाया. हिंदी फिल्मों के ये सदाबहार ओल्ड गोल्ड नगमें जब भी रेडियो/ टेलीविज़न या फिर ओल्ड इस गोल्ड जैसे मंचों से आपके कानों तक पहुँचते हैं तो इनका जादू आपके दिलो जेहन पर चढ कर बोलने लगता है. आपका भी मन कर उठता है न कुछ गुनगुनाने को ?, कुछ लोग बाथरूम तक सीमित रह जाते हैं तो कुछ माईक उठा कर गाने की हिम्मत जुटा लेते हैं, गुजरे दिनों के उन महान फनकारों की कलात्मक ऊर्जा को स्वरांजली दे रहे हैं, आज के युग के कुछ अमेच्युर तो कुछ सधे हुए कलाकार. तो सुनिए आज का कवर संस्करण

गीत -ओ दिलरुबा...
कवर गायन -डाक्टर पारसमणी आचार्य




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डाक्टर पारसमणी आचार्य
मैं पारसमणी राजकोट गुजरात से हूँ, पापा पुलिस में थे और बहुत से वाध्य बजा लेते थे, उनमें से सितार मेरा पसंदीदा था. माँ भी HMV और AIR के लिए क्षेत्रीय भाषा में पार्श्वगायन करती थी, रेडियो पर मेरा गायन काफी छोटी उम्र से शुरू हो गया था. मैं खुशकिस्मत हूँ कि उस्ताद सुलतान खान साहब, बेगम अख्तर, रफ़ी साहब और पंडित रवि शंकर जी जैसे दिग्गजों को मैंने करीब से देखा और उनका आशीर्वाद पाया. गायन मेरा शौक तब भी था और अब भी है, रफ़ी साहब, लता मंगेशकर, सहगल साहब, बड़े गुलाम अली खान साहब और आशा भोसले मेरी सबसे पसंदीदा हैं


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खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड के ४०० शानदार एपिसोड आप सब के सहयोग और निरंतर मिलती प्रेरणा से संभव हुए. इस लंबे सफर में कुछ साथी व्यस्तता के चलते कभी साथ नहीं चल पाए तो कुछ हमसे जुड़े बहुत आगे चलकर. इन दिनों हम इन्हीं बीते ४०० एपिसोडों के कुछ चर्चित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं इस रीवायिवल सीरीस में, ताकि आप सब जो किन्हीं कारणों वश इस आयोजन के कुछ अंश मिस कर गए वो इस मिनी केप्सूल में उनका आनंद उठा सकें. नयी कड़ियों के साथ हम जल्द ही वापस लौटेंगें

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