Friday, January 28, 2011

'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' - २७ 'अनिल बिस्वास पर केन्द्रित विविध भारती की यादगार शृंखला 'रसिकेशु' के बनने की कहानी संगीतकार तुषार भाटिया की ज़बानी'



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में एक बार फिर आप सभी का हम स्वागत करते हैं। आज का यह अंक बहुत ही ख़ास है क्योंकि आज आप इसमें एक महान संगीतकार के बारे में कुछ बातें जानने जा रहे हैं जो शायद अब तक आपको मालूम ना होंगी, और ये सब बातें आपको बताएँगे एक और बेहद गुणी फ़नकार। दोस्तों, अगर आप विविध भारती के श्रोता हैं और सुबह सवेरे 'संगीत सरिता' सुनते हैं तो आपने इसमें एक शृंखला ज़रूर सुनी होगी 'रसिकेशु', जिसमें संगीतकार अनिल बिस्वास से युवा संगीतकार तुषार भाटिया की बहुत अच्छी और लम्बी बातचीत सुनवाई गई थी। विविध भारती ने बड़े प्यार से इस रेकोडिंग् को अपने संग्रहालय में सहेज कर रखा है और इस शृंखला का दोहराव भी हर वर्ष होता रहता है श्रोताओं की फ़रमाइश पर। पिछले दिनों मेरी तुषार जी से फ़ेसबूक पर मुलाक़ात हुई, उनका बड़प्पन ही कहूँगा कि मुझे अपने फ़्रेण्ड्स-लिस्ट में शामिल किया, और इतना ही नहीं, एक इंटरव्यु के लिए भी तुरंत राज़ी हो गए। मुझे बहुत रोमांच हो आया क्योंकि यह मेरा पहला इंटरव्यु था। इससे पहले जितने भी इंटरव्युज़ मैंने किये हैं, सब ईमेल के माध्यम से हुए हैं। टेलीफ़ोन पर यह पहला इंटरव्यु था। ख़ैर, मैंने पूरी तैयारी की और सवालों की सूची तैयार की जो मैं तुषार जी से पूछना चाहता था। लेकिन जब हमारी बातचीत शुरु हुई तो अनिल दा और 'रसिकेशु' के बारे में इतने विस्तार और प्यार से तुषार जी ने बताना शुरु किया कि केवल 'रसिकेशु' और अनिल दा पर ही हमारी बातचीत घंटों तक चल पड़ी। इसलिए मैंने सोचा कि क्यों ना अनिल दा की 'रसिकेशु' के बनने की कहानी से ही आज की इस प्रस्तुति को सजाया जाये। तुषार जी के सब से पसंदीदा संगीतकारों में अनिल दा का नाम आता है, और अनिल दा के लिए तुषार जी के मन में किस तरह का सम्मान है, किस तरह का प्यार है, वो आपको इस इंटरव्यु को पढ़ने के बाद पता चल जाएगा। तो आइए, आपको मिलवाते हैं बहुमुखी प्रतिभा के धनी, जानेमाने सितार-वादक, संगीतकार, ऐड-फ़िल्म-मेकर, व लेखक श्री तुषार भाटिया से।
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सुजॊय - तुषार जी, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में।

तुषार जी - नमस्कार!

सुजॊय - तुषार जी, सब से पहले तो आपका आभार व्यक्त करूँगा जो आप इस इंटरव्यु के लिए तैयार हुए; मैंने आपकी अनिल दा से की हुई बातचीत पर आधारित विविध भारती की शृंखला 'रसिकेशु' ना केवल सुनी है, उसे रेकॊर्ड करके ट्रान्स्क्राइब भी कर रखा है।

तुषार जी - 'रसिकेशु' के बनने की भी एक लम्बी कहानी है, अगर बताने लगूँ तो बहुत समय निकल जाएगा आपका।

सुजॊय- कोई बात नहीं, मैं जानना चाहूँगा, बहुत अच्छा लगेगा मुझे अनिलदा के बारे में और जानकर। और सिर्फ़ मुझे ही क्यों, हमें पूरा यकीन है कि गुज़रे ज़माने के सभी संगीत रसिकों को अनिल दा के बारे में जानकर बेहद ख़ुशी होगी। क्या वो आपके फ़ेवरीट संगीतकार रहे हैं?

तुषार जी - फ़ेवरीट अनिल दा थे और होने ही चाहिए। वो सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरी संगीतकार थे। ऐसा एक बार पंडित नरेन्द्र शर्मा जी ने ही कहा था। और परम आदरणीय आर. सी. बोराल साहब व पंकज मल्लिक साहब के बाद अनिल दा ही तो थे। ऐसी विलक्षण बुद्धि कभी कभार ही पैदा होती है।

सुजॊय - अमीन सायानी साहब ने अनिल दा पर केन्द्रित एक रेडियो कार्यक्रम में उन्हें फ़िल्म संगीतकारों के भीष्म-पितामह कह कर संबोधित किया था।

तुषार जी - जी, लेकिन अनिल दा अपने आप को 'अंकल ऒफ़ फ़िल्म म्युज़िक' कहते थे; 'फ़ादर ऒफ़ फ़िल्म म्युज़िक' का ख़िताब उन्होंने आर. सी. बोराल साहब तथा पंकज मल्लिक साहब को दे रखा था।

सुजॊय - अच्छा तुषार जी, बताइए कि आप रेडियो से पहली बार कब जुड़े थे?

तुषार जी - ऐसा हुआ था कि पंडित पन्नालाल घोष पर 'संगीत सरिता' में एक सीरीज़ हुया था एक हफ़्ते का, जिसके आख़िर के दो एपिसोड्स मैंने किए थे। इस कार्यक्रम की प्रोड्युसर छाया गांगुली जी थीं जिन्होंने मुझे इस सीरीज़ को करने की दरख्वास्त की। इस सीरीज़ का विषय था 'पंडित पन्नालाल घोष का फ़िल्म संगीत में योगदान'। उस समय मुझे रेडियो का कोई एक्स्पिरिएन्स नहीं था, रेडियो में कैसे बोलते हैं, किस तरह की भाषा होती है, कुछ पता नहीं था। फिर भी ज़्यादा परेशानी नहीं हुई क्योंकि पढ़के बोलना था| उस सीरीज़ का बहुत अच्छा रेस्पॊन्स मिला, बहुत सारे श्रोताओं के पत्र भी मिले।

सुजॊय - तुषार जी, 'रसिकेशु' किस तरह से प्लान हुई और इस सीरीज़ के लिए आपको कैसे चुना गया, इसकी कहानी हम बाद में आप से पूछेंगे, पहले बताइए कि आपका ने अनिल दा से, मेरा मतलब है उनके गीतों से रु-ब-रु किस उम्र में और किस तरह से हुए थे, और किस तरह से आप अनिल दा के गीतों को सुनने लगे?

तुषार जी - 'बसंत', 'क़िस्मत', और 'तराना' के गानें मुझे आते थे, और मुझे ये गानें बहुत पसंद थे। लेकिन ज़्यादा गानें सुनने का मौक़ा नहीं मिलता था, इसलिए मै उनके काम से ज़्यादा वाक़िफ़ नहीं था। लेकिन जितना भी सुना था, वो बेहद पसंद था। मेरे मामाजी के घर में दो रेकॊर्ड्स थे, और मैं छुट्टियों में एक बार जब उनके घर गया तव उन रेकॉर्ड्स को अपने साथ ले कर आया था. कैसेट में रेकॊर्ड करने के लिए। एक रेकॊर्ड में "बलमा जा जा जा" गीत था जिसमें खयाल और दादरे का क्या सुंदर मिश्रण था। दूसरे रेकॊर्ड में 'तराना' के दो गीत थे, एक तरफ़ "सीने में सुलगते हैं अरमान" और दूसरी तरफ़ "नैन मिले नैन हुए बावरे", और यह दूसरा गीत मुझे बेहद पसंद था। उन दिनों गानें रेडियो पर ही सुन सकते थे, विविध भारती या रेडियो सीलोन, दूसरा कोई ज़रिया नहीं था। या फिर टीवी पर जो पुरानी फ़िल्में आती थीं, उनमें गानें सुन सकते थे। 'छोटी छोटी बातें', 'तराना, 'आराम', 'परदेसी', 'स्वयमसिद्धा' जैसी फ़िल्मों के गानें मैं टी.वी से रेकॊर्ड कर लिया करता था। फिर १९७८ में एक एल.पी रेकॊर्ड निकला 'Songs to Remember' जिसमें अनिल दा के कुल १२ गानें थे। १९७४-७५ तक मैं नौशाद साहब, ओ.पी.नय्यर साहब, रोशन साहब और सलिल दा का बहुत बड़ा भक्त बन चुका था। लेकिन जब मैंने उस एल.पी रेकॊर्ड में शामिल "ऋतू आये ऋतू जाए" सुना जो राग गौड सारंग पर आधारित था, तो मैं चमत्कृत हो गया। फिर और भी गानें जैसे कि "रूठ के तुम तो चल दिए", "ज़माने का दस्तूर है ये पुराना", "आ मोहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम", "मोहब्बत तर्क की मैंने" जैसे गानें सुना, तो जैसे वो इंद्रासन डोल गया जिसमें मैंने बाक़ी सब दिग्गज संगीतकारों को बिठा रखा था। इसलिए मैंने उस रेकॊर्ड को कहीं छुपा दिया।

सुजॊय - यानी कि आपके दिल को यह गवारा न था कि नौशाद साहब, नय्यर साहब, सलिल दा, इनसे भी ज़्यादा कोई पसंद आ रहा है!

तुषार जी - बिल्कुल! फिर एक दिन मेरी माताजी ने मुझसे कहा कि तुम उस रेकॊर्ड को क्यों नहीं बजाते? "दूर पपीहा बोला", "बरस बरस बदली" वगेरह? तब मैंने उस रेकॊर्ड को दुबारा बजाना शुरु किया। और उसका आनंद दुगुना हो गया। और वह रेकॊर्ड मेरे जीवन की बहुत ही आनंदायक एक सम्पत्ति बन गई। मैं रोक नहीं पाता था अपने आप को उसे बजाने से। मैं घण्टों उस रेकॊर्ड की मुख्यपृष्ठ पर अनिल दा की तस्वीर को तकता रहता था, कि एक आदमी इतना दिव्य संगीत कैसे दे सकता है, इतना पर्फ़ेक्ट कैसे हो सकता है। हर गाना कमाल का और पंकज बाबू की तरह कोई फ़िल्मीपन नहीं था उनके संगीत में, ऐसा मुझे लगता था।

सुजॊय - वाह!

तुषार जी - कभी कभी मुझे ऐसा लगता है कि अनिल दा के कम्पोज़िशन्स सुनके दूसरे संगीतकारों ने सारे हथियार डाल दिये होंगे। और उनका संगीत भी क्या है! "बेइमान तोरे नैनवा", "रसिया रे मनबसिया रे", और 'अनोखा प्यार' के गानें, 'गजरे' के गानें।

सुजॊय - जी हाँ, जी हाँ।

तुषार जी - ये सब जो मैं अपनी बातें बता रहा हूँ ये उस दौर की हैं जब आर.डी. बर्मन का ज़माना था। और मैं कॊलेज में था उस वक़्त। यह वह दौर था जब हम लोग राजेश खन्ना, आर. डी. बर्मन और किशोर दा की तिकड़ी का, यानी इनके गानों का मज़ा लेते थे। लेकिन मैं साथ ही साथ पुराने गानों का भी मज़ा लेता था, और ऐसा मुझे फ़ील होता था कि पुराने गानों में जो गहराई थी, वो नये गानों में कम थी। मैंने एक कैसेट में अनिल दा के कई गानें रेकॊर्ड किए टीवी से, रेडियो से। उसमें 'फ़रेब' के लता जी के गाए दो गीत थे। उनमें एक था "जाओगे ठेस लगाके" और दूसरा था एक लोरी, "रात गुनगुनाती है लोरियाँ सुनाती है"। मेरी मौसी के घर पे यह रेकॊर्ड मुझे मिला, और मैं उसे रेकॊर्ड करने के लिए ले आया था। वह कैसेट कोई ले गया और वापस नहीं किया। और १९८२ के बाद मैंने ये गानें फिर कभी नहीं सुनें।

सुजॊय - तुषार जी, हम ख़ास आपके लिए फ़िल्म 'फ़रेब' के इन दोनों दुर्लभ गीतों को खोज लाये हैं, आइए आगे बढ़ने से पहले इन दोनों गीतों का आनंद लिया जाए।

तुषार जी - ज़रूर!

गीत - जाओगे ठेस लगाके (फ़रेब)


गीत - रात गुनगुनाती है (फ़रेब)


तुषार जी - वाह! फिर अनिल दा का 'हमलोग' सीरियल का म्युज़िक आया, आपने सुना होगा, जिसमें मीना कपूर जी ने टाइटल सॊंग् गाया था, "आइए हाथ उठाएँ हम भी"।

सुजॊय - जी! मीना जी भी कमाल की गायिका रही हैं।

तुषार जी - मेरे भाई श्यामल के अनुसार "कुछ और ज़माना कहता है" अब तक का बेस्ट फ़िल्म सॊंग् है।

सुजॊय - वाह!

तुषार जी - फिर एक दिन फ़िल्म 'सौतेला भाई' टीवी पे दिखाई गई जिसका "जा मैं तोसे नाही बोलूँ" मैंने रेकॊर्ड कर लिया। 'सौतेला भाई' के दूसरे या तीसरे हफ़्ते ही 'छोटी छोटी बातें' भी दिखाई गई, जिसका वह गाना था "कुछ और ज़माना कहता है"। इसी फ़िल्म का एक अन्य गीत "मोरी बाली री उमरिया, अब कैसे बीते राम" मैंने पहली बार सुना और सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। यह गीत राग पीलू पर आधारित होते हुए भी जिस तरह से अनिल दा ने इसमें कोमल निशाद का प्रयोग किया है, वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पीलू राग में आमतौर से शुद्ध निशाद बहुत प्रबल होता है, जैसे फ़िल्मी गीतों में आपने सुना होगा। कानन देवी का "प्रभुजी प्रभुजी तुम राखो लाज हमारी" (हॊस्पिटल), सहगल साहब का "काहे गुमान करे" (तानसेन), नौशाद साहब का बनाया हुआ "ओ चंदन का पलना" (शबाब), और "मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार हो नदिया धीरे बहो" (उडन खटोला), इत्यादि इसके उदाहरण हैं। लेकिन अनिल दा के इस गीत में, "अब कैसे बीते राम, रो रो के बोली राधा मोहे तज के गयो श्याम", यह सांगीतिक वाक्य कोमल निशाद पे रुकता है। अनिल दा ने कैसे सोचा होगा इसको। मैं चाहता हूँ कि आप इस गीत को यहाँ पर ज़रूर सुनवाएँ।

सुजॊय - ज़रूर! हम दो गीत सुनेंगे यहाँ पर, एक तो नौशाद साहब के संगीत में फ़िल्म 'उड़न खटोला' का "मोरे सैंया जी उतरेंगे पार" तथा दूसरा अनिल दा का रचा फ़िल्म 'छोटी छोटी बातें' का उपर्युक्त गीत।

गीत - मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार (उडन खटोला)


गीत - मोरी बाली री उमरिया (छोटी छोटी बातें)


तुषार जी - और भी बहुत से संगीतकार हुए जिन्होंने शास्त्रीय संगीत पर गानें बनाये, लेकिन अनिल दा की बात ही अलग थी। उनके काम में एक नया दृष्टिकोण मुझे नज़र आता था। तो मैं एक एकलव्य की तरह अनिल दा को मन ही मन पूजता था। संगीत सृजन की रुचि होने की वजह से मेरा दृष्टिकोण एक विद्यार्थी की तरह होता था और मैं सोचता रहता था उनके बारे में। फिर १९८४ में जब मैंने सुना "लूटा है ज़माने ने क़िस्मत ने रुलाया है" (दोराहा), वहाँ भी पाया कि कोमल धैवत का प्रयोग अनोखा है। मुझे अनिल दा और नौशाद साहब के कम्पोज़िशन्स के हर पहलू में सिर्फ़ पर्फ़ेक्शन ही नज़र आता। क्या ग़ज़ब की पकड़ थी इनकी अपने फ़न पर!

सुजॊय - वाह! बहुत ही अच्छी तरह से आपने बताया कि किस तरह से आप अनिल दा के भक्त बनें। ये तो थी कि किस तरह से आपने अनिल दा के गीतों को सुनना शुरु किया, सुनते गये, उन्हें और उनके संगीत को खोजते गये, लेकिन उनसे आपकी पहली मुलाक़ात कब और कहाँ हुई थी? किस तरह की बातचीत होती थी आप में?

तुषार जी - मैं उस वक़्त HMV में था और अनिल दा दिल्ली से बम्बई आये थे किसी भजन के रेकॊर्डिंग् के लिए। और तब मैंने पहली बार उनसे मिला। यह बात १९८६ की है। उस समय मैं HMV में उन्हीं के गीतों का एक ऐल्बम कम्पाइल कर रहा था, जिसका शीर्षक था 'Vintage Favourites - Anil Biswas'। मैं चाहूँगा कि इस कैसेट/ सीडी का कवर आप अपने पाठकों को ज़रूर दिखाएँ।

सुजॊय - ज़रूर!

चित्र-१: 'Vintage Favourites - Anil Biswas' (Front Page) (सौजन्य: तुषार भाटिया)


चित्र-२: 'Vintage Favourites - Anil Biswas' (Back Page) (सौजन्य: तुषार भाटिया)


तुषार जी - बाद में भी जब भी वो बम्बई आते थे, तब भी मिलता था, लेकिन मैं उनका लिहाज़ करता था, इसलिए उनसे ज़्यादा बात़चीत या सवाल नहीं पूछता था। मैं सोचता रहता था कि कैसे रहे होंगे अनिल बिस्वास! ये कैसे संभव है कि संगीत की कोई विधा ऐसी नहीं जिसे उन्होंने छोड़ा हो, अनिल दा का तो मामला ही कुछ अलग है! वो जो कुछ भी बोलते थे, वो बड़ा मार्मिक होता था, और उनके बोलने की छटा भी कमाल की थी। पाँचों भाषाओं में पे उनकी ज़बरदस्त पकड़ थी - हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी, बांगला और बृज भाषा। और इन भाषाओं में अच्छा काव्य लिखते भी थे। और ज़बान भी इतनी साफ़ कि सामने वाला दंग रह जाए! बहुत ही गहरा अध्ययन था काव्य का। और हिंदी से लेके उर्दू के बड़े बड़े कवियों, शायरों के साथ हुए उनके काम से मैं अच्छी तरह वाक़ीफ़ था, जैसे कि आरज़ू लखनवी, सफ़दार आह, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, पंडित नरेन्द्र शर्मा, कवि प्रदीप। साथ ही कबीर, मीरा, तुल्सीदास के काव्य की भी उतनी ही गहरी जानकारी थी उनको। 'रसिकेशु' में भी उन्होंने एक दोहा कहा था अगर आपको याद है तो, "खरी बात कबीरा कहीगा, अंधाउ कहे अनूठी, बची खुची सो गुसैया कहीगा, बाकी सब बाता झूठी"।

सुजॉय - बहुत ख़ूब। यानी कबीरदास, सूरदास और तुल्सीदास, बाकी सब बकवास! अच्छा, 'रसिकेशु' के लिए अनिल दा से आपकी किस साल मुलाक़ात हुई थी और किस तरह से 'रसिकेशु' प्लान हुई थी?

तुषार जी - 'रसिकेशु' के लिए अनिल दा से हमारी मुलाक़ात हुई १९९६ में। पंडित पन्नालाल घोष के उस प्रोग्राम का इतना अच्छा रेस्पॊन्स मिला कि उसके बाद छाया जी ने मुझसे कहा कि वो अनिल दा पर भी प्रोग्राम करने की इच्छुक हैं। छाया जी जानती थीं कि अनिल दा से मेरी मुलाक़ातें होती थीं, और उन्होंने मुझसे उनसे मिलवाने को कहा। तो अगली बार जब अनिल दा बम्बई आये और हर साल की तरह उस बार भी उनके सम्मान में एक लंच का आयोजन हुआ था डॊ. जोशी के घर पे, तो मैं छाया जी को लेकर वहाँ गया।

सुजॊय - तुषार जी, माफ़ी चाहूँगा टोकने के लिए, आगे बढ़ने से पहले यह बताइए कि छाया गांगुली जी को आप पहले से ही जानते थे?

तुषार जी - जी हाँ, महादेवी वर्मा जी और पंडित नरेन्द्र शर्मा के कुछ गानें मैंने कम्पोज़ किए थे जिन्हें छाया जी गा चुकी थीं। हमारा एक दूसरे के घर के घर आना जाना था। और पन्ना बाबू पर उस प्रोग्राम के लिए भी छाया जी ने ही मुझसे आग्रह किया था।

सुजॊय - अच्छा अच्छा! अब बताइए आगे उस लंच में फिर क्या हुआ।

तुषार जी - उस लंच में तो फिर कुछ बात नहीं हुई, बस एक अपॊयण्टमेण्ट फ़िक्स हुआ मेरा और छाया जी का अनिल दा के साथ। फिर हम अगले दिन शाम को उनसे मिलने गए और छाया जी ने उनसे इंटरव्यु की बात छेड़ी। अनिल दा ने पूछा कि इंटरव्यु कौन करेगा? तुषार, तुम सुझाओ। मैंने ब्रॊडकास्टिंग् की दुनिया के दो बहुत मशहूर नाम सुझाये। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मेरे मन में कहीं न कहीं एक ऐसी इच्छा भी थी कि काश नौशाद साहब यह इंतरव्यु। यह बात तो जगविदित है कि नौशाद साहब अनिल दा को अपना गुरु समझते थे। अगर ये दो दिग्गजों की बातचीत रेडियो पर लोग सुनेंगे तो इससे बेहतर तो कोई बात हो ही नहीं सकती थी। वैसे भी आर. सी. बोराल, पंकज मल्लिक और अनिल बिस्वास के बाद नौशाद साहब का ही तो नाम आता है, जिन्हें हम फ़िल्म संगीत के प्रचलित धारा के पायनीयर या युग-प्रवर्तक संगीतकार कह सकते हैं। तो मैं ये सब सोच ही रहा ही था कि काश ऐसा कुछ हो सके कि अचानक फ़ोन बजा। मैंने फ़ोन उठाया। उधर से आवाज़ आई, "क्या वहाँ अनिल बाबू तशरीफ़ रखे हुए हैं? मैंने पूछा कि आप कौन साहब बोल रहे हैं? दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई, "जी मुझ नाचीज़ को नौशाद अली कहते हैं"। उस वक़्त मेरी क्या हालत हुई होगी इसका आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। मेरे लिए तो वर्णन के बाहर है। मैंने फ़ोन पे हाथ रख अनिल दा से कहा कि नौशाद साहब का फ़ोन है। तो अनिल दा ने मुझसे सवाल किया कि वो क्या कह रहे हैं? अब मैं नौशाद साहब से ये बात कैसे पूछता? अर्जुन को विश्वरूप दर्शन जो हुए थे, उनके सामने एक भगवान श्री कृष्ण थे, मेरे सामने दो थे। तो मैंने बहुत ही संकोच के साथ यह बात नौशाद साहब से पूछी। उन्होंने अपनी लखनवी तहज़ीब में अर्ज़ किया, "अगर अनिल बाबू फ़ारिक़ हों तो मैं आदाब-ओ-सलाम के लिए हाज़िर हो जाऊँ|" न जाने ये कैसी ग्रहदशा थी! दिल में उस इंटरव्यु की बात थी थी, और अगर इस वक़्त नौशाद साहब यहाँ आ जाएँ तो कोई बात बन भी जाए क्या पता! जब मैंने अनिल दा से कहा कि नौशाद साहब आकर मिलना चाहते हैं, तो अनिल दा बोले कि "फ़ोन ला"। फिर फ़ोन पर बात करने लगे, मुझे उस तरफ़ की बातें तो सुनाई नहीं दी, इस तरफ़ से दादा कहने लगे 'जीते रहो... आज रहने दो, बच्चे आये हैं, रेडियो पर इंटरव्यु की बात कर रहे हैं....."। छाया जी ने फिर पूछा कि इंतरव्यु किससे करवाना है? अनिल दा ने देर तक मेरी तरफ़ देखा और अचानक बोल उठे कि यह इंटरव्यु तुषार करेगा। मैं चौंक पड़ा। मैंने कहा, "दादा, मुझे तो कोई तजुर्बा नहीं"। तो अनिल दा भड़क उठे, कहने लगे, "तेरी यह मजाल, तू मुझे ना कह रहा है?" मैंने कहा, "दादा, आपको सवालात करने की मेरी क्या औक़ात है।" तो कहने लगे कि तूने जो पंडित पन्नालाल घोष पे प्रोग्राम किया था वो मैंने सुना था, I have heard it, I know about it'। उन्होंने छाया जी से कहा कि अगर तुषार करेगा तो ही मैं इंटरव्यु दूँगा। इसके बाद मेरे पास कोई चारा न था। मैं तो केवल छाया जी को उनसे मिलवाने ले गया था और उन्होंने पूरी ज़िम्मेदारी ही मेरे सर डाल दी।

सुजॊय - कैसा लग रहा था आपको उस वक़्त जब इतना बड़ा मौका आपको मिला?

तुषार - क्या बताऊँ मैं कि कितना टेन्शन दिया दादा ने मुझे! मेरे सामने तीन मसले थे। एक तो संगीत का महासागर मेरे सामने लहरा रहा था जिसे मुझे दुनिया के सामने पेश करना था। दूसरा मसला था समय का। मेरे पास प्रिपेयर्ड होने का टाइम नहीं था, क्योंकि इंटरव्यु दूसरे-तीसरे दिन ही था। और तीसरा मसला यह था कि दादा न अपने बारे में बोलना चाहते थे और ना मैं उनकी तारीफ़ कर सकता था। अनिल दा को अपनी तारीफ़ से नफ़रत थी। यह उनका तजुर्बा था कि उन्होंने मुझमें कुछ देख लिया था जिसकी वजह से उन्होंने मुझे इस महान कार्य के लिए चुना। अब मेरे लिए मुश्किल की घड़ी थी। दूसरे दिन मेरे घर में शादी थी और उसी दिन शाम को मुझे और छाया जी को उनसे जाकर मिलना था। मुझे यह सोचकर बुखार आ गया था कि दादा का इंटरव्यु कैसे करूँगा, क्योंकि वो कोई ऐसे वैसे कलाकार नहीं थे, वो भारत के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार थे। और उनसे वो सब सवाल नहीं पूछ सकते थे जो किसी भी आम इंटरव्यु में एक जर्नलिस्ट कलाकार को पूछते हैं। मुझे ऐसे सवाल पूछने थे जो उनके बारे में भी ना हो लेकिन उनका साहित्य और संगीत पे जो आधिपत्य है, जो महारथ उन्हें हासिल है, वो सब दुनिया के सामने रख सकूँ। जो विराट दर्शन मुझे हो रहा था, मैं चाहता था कि वही दर्शन लोगों को भी इस कार्यक्रम के ज़रिए हो। और एक बात यह भी थी कि अनिल दा बहुत सालों के बाद रेडियो में आ रहे थे। न जाने उनको मुझ पर इतना भरोसा कैसे हो गया था, यह बात मुझे समझ में नहीं आ रही थी। ख़ैर, छाया जी का प्लान था कि यह शृंखला तीन से सात एपिसोड्स में पूरी हो जाए।

सुजॊय - लेकिन यह शृंखला तो २६ एपिसोड्स की थी न?

तुषार - हाँ। तो मैं सोच में पड़ गया कि किस तरह से इंटरव्यु के मामले को आगे बढ़ाया जाये। कौन कौन से विषय चुने जायें, मैंने अनिल दा से पूछा। उन्होंने कहा कि कल आ जाओ। शाम को जब मैं और छाया जी उनके घर गये, तो दादा बहुत ही एक्साइटेड थे। उन्होंने एक लिस्ट बनाई थी संगीतकारों की। बड़े उत्साह से वो कहने लगे कि मैं आर. सी. बोराल साहब से शुरु करूँगा, फिर पंकज मल्लिक साहब से आगे बढ़ाऊँगा, वगेरह वगेरह। मैं और छाया जी एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे कि तीन कड़ियों की यह शृंखला तो दादा पर है, पर वो तो दूसरे संगीतकारों की बातें किए जा रहे हैं। आप देखिए, उस वक़्त उनकी उम्र ८५ वर्ष थी, फिर भी कितना जोश था उनमें। फिर पूछने लगे, और लिखते गये, सहगल साहब, कानन देवी....। पूछा कि हम पंकज बाबू के कौन से गानें बजाएँगे? शुरुआत तो "मैं जानू क्या जादू है" से ही करूँगा, फिर 'डॊक्टर' फ़िल्म का "गुज़र गया वो ज़माना" आएगा, और फिर मुझसे पूछा कि पंकज दा का और कौन सा गीत रखें। मैंने कहा कि कविगुरु रबीन्द्रनाथ की कविता, पंकज दा की बनाई हुई धुन पे, "दिनेर शेषे घूमेर देशे"। मैं क्या बताऊँ, काश उस वक़्त मेरे पास कैमरा होता, उनके चेहरे पर जो एक्स्प्रेशन आया! बोल पड़े, "लाजवाब! इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता"। दादा "दिनेर शेषे घूमेर देशे" को गुनगुनाना शुरु किया और धीरे धीरे उनकी आँखें भरने लगीं, और आँसू बहने लगे। मैं और छाया जी बहुत चिंतित हो गये कि इतने भावावेश में कहीं उनकी तबीयत ख़राब ना हो जाये। शाम के ६:३० बज रहे थे, जाड़े का मौसम था। वो रोते गये और गाते गये। मीना दीदी ने दादा को आगे गाने से मना किया। लेकिन अनिल दा ने कहा कि नहीं मैं गाऊँगा, ज़रूर गाऊँगा। वो कहाँ सुनने वाले थे। मीना दी के रोकने के बावजूद अनिल दा ने गाना बंद नहीं किया और मुझसे अंतरे के शब्द पूछे। मैंने कहा, "दादा, रहने दीजिए आज।" कहने लगे, "तू अंतरा बता"। मैंने कहा, "घौरे जारा जाबार तारा कौखोन गैछे घौर पाने...." कहने लगे, "ये तो मेरी ज़िंदगी की कहानी है; क्या अनिल बिस्वास नाम का प्राणी ऐसी धुन बना पाएगा? कदापि नहीं।" उन्होंने इतना ईमोशनल होकर गाया कि क्या बताऊँ। ज़रा सोचिये कि क्या आलम होगा वह, रबीन्द्रनाथ की कविता, पंकज बाबू की धुन, गाने वाले अनिल दा, और शब्द पूछे जा रहे थे तुषार भाटिया से, और सुनने वालों में मीना दी और छाया जी, यानी दो सशक्त गायिकाएँ। यह सोच कर ही जैसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ख़ैर, आधा घंटा लगा उनको स्वस्थ होने में। छाया जी और मैं सोचने लगे कि यह सीरीज़ दादा पर है लेकिन वो तो अपने बारे में कुछ कह ही नहीं रहे हैं, ना ही अपने गीतों के बारे में। मैंने हिम्मत करके दादा से पूछा, "दादा, आपके कौन से गानें लें? तो कहने लगे, "मेरे गानों के बारे में मैं क्या बोलूँ, तू ही बोल, तू ही सोच"। तभी मैंने सोच लिया कि मुझे ऐसे सवाल पूछने पड़ेंगे कि जिनमें अनिल बिस्वास नाम के महासागर में छिपा हुआ सर्वश्रेष्ठ संगीतकार, विद्वान, काव्यरसिक तथा संगीत-गुरु लोगों को नज़र आ सके।

सुजॊय - वाह!

तुषार जी - आर. सी. बोराल साहब से लेकर आर. डी. बर्मन तक उन्होंने एक लिस्ट बनाई थी जिन पर वो बोलना चाहते थे; लेकिन गीतो के चयन की ज़िम्मेदारी उन्होंने मेरे सर पे डाल दी। और उसी शाम को हम बैठ कर गानें सीलेक्ट किए। ये तो थे पहले के १३ एपिसोड्स जो दूसरे संगीतकारों के बारे में थे। ये तो तैयार हो गए। उसी दिन मैंने सोच लिया था कि आर. सी. बोराल, पंकज मल्लिक, कमल दासगुप्ता, खेमचंद प्रकाश और नौशाद पे पूरा पूरा एपिसोड होगा, बाक़ी सब के दो दो कम्बाइन करेंगे, और कम्बिनेशन भी ठीक ठीक बन रहे थे। ये तो थी दूसरों की बातें, मैं तो सोचने लगा कि अब दादा का संगीत कैसे पेश किया जाए! ये सोचते रात बीत गई कि सीरीज़ का स्ट्रक्चर कैसा रखूँ!यह एक बहुत बड़ी चैलेंज थी। आप शायद यकीन नहीं करेंगे कि कुछ भी प्री-प्लैन्ड नहीं था, सबकुछ बिलकुल स्पॊण्टेनियसली हुआ। अलग अलग विषयों पर उनसे सवाल पूछा; संगीत के अलग अलग प्रकार, शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, जिनके माध्यम से दादा की सोच को बाहर निकालने की कोशिश करता रहा। हर विधा की चर्चा के बाद उसी विधा में दादा का बनाया हुआ गीत पेश करता था। कुछ बातें ज़रूर रह गईं जैसे कि बंदिश की ठुमरी के बारे में चर्चा। मैंने छाया जी से यह कहा भी था कि दादा से पूरी बातचीत रेकॊर्ड कर लेते हैं क्योंकि ऐसा मौक़ा बार बार नहीं आयेगा, बाद में एडिटिंग में बैठेंगे तो सबकुछ देखा जाएगा। और छाया जी भी इसी मत से सहमत थीं।

सुजॊय - अच्छा तुषार जी, कितने दिनों में रेकॊडिंग् पूरी हुई थी?

तुषार जी - बस दो ही दिनों में, एक दिन चार घण्टे और एक दिन ६-७ घण्टे। लेकिन पूरी एडिटिंग् में ४ महीने लग गये। कई जगहों पर बाद में मैंने डब भी किया, जैसे कि सॊंग् डिटैल्स, और कुछ कुछ चीज़ें जो इंटरव्यु के दौरान बतानी रह गयी थी। संगीत और साहित्य विषयक चरचाएँ काफ़ी हमें काट देनी पड़ी क्योंकि समय की पाबंदी थी। रेकॊर्डिंग् के दौरान दादा में इतना जोश था कि वो रुकते ही नहीं थे, हमने बस एक आध ब्रेक ही लिया चाय पीने के लिए। इस इंटरव्यू में मैंने पन्ना बाबू वाले प्रोग्राम जैसी भाषा का इस्तमाल नहीं किया जो पढ़के बोलना था। इसमें तो कुछ भी तय नहीं था। और दादा ने मुझसे कुछ भी नहीं पूछा कि तुम क्या क्या पूछोगे। दादा इंटरव्यु के दौरान ख़ुद तो गाते ही थे, मुझे भी गाने को कहते थे।

चित्र-३: विविध भारती के स्टुडियो में 'रसिकेशु' की रेकॊर्डिंग् करते हुए अनिल बिस्वास, मीना कपूर और तुषार भाटिया (सौजन्य: तुषार भाटिया)

सुजॊय - अच्छा एक बात बताइए तुषार जी, यह जो शीर्षक है 'रसिकेशु', क्या यह छाया जी या आप का सोचा हुआ था?

तुषार जी - बिल्कुल नहीं, यह शीर्षक भी दादा का ही दिया हुआ था, जिसका अर्थ भी उन्होंने बताया था; 'रसिकेशु' यानी रसिकों को समर्पित।

सुजॊय - वाह, क्या बात है! अच्छा, इस शृंखला में कुछ एपिसोड्स के बाद से मीना कपूर जी को भी शामिल किया गया था। यह किस तरह से हुआ? क्या यह प्री-प्लैन्ड था या यह भी अकस्मात? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन दो दिनों में रेकॊर्डिंग् हुई थी, उनमें दूसरे दिन मीना जी भी साथ आईं होंगी?

तुषार जी - नहीं, मीना दी हमेशा दादा के साथ ही रहती थीं और दोनों दिन वो भी स्टुडियो में तशरीफ़ लायी थीं। मीना दी बहुत ही इंट्रोवर्ट हैं, शाइ हैं। हम लोगों ने उनसे निवेदन किया कि आप भी बातचीत में शामिल हो जाइए। आपने देखा होगा कि उनके इस बातचीत में शामिल हो जाने से पूरी शृंखला में एक अलग रंग आ गया।

सुजॊय - जी हाँ!

तुषार जी - दीदी के आने से ऐसी बहुत सारी बातें थीं जो मैं ईज़ीली कर सकता था क्योंकि दादा और दीदी, दोनों ही गा गा के, जो भी विषय होता था, उदाहरण देते थे। दोनों के कुशाग्रता की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। किसी भी विषय पर उनसे दिलचस्प चर्चा हो सकती थी। और हर विषय में उनके पास उदाहरण देने के लिए गानें मौजूद होते थे। दादा के साथ इतने वर्षों की जो औपचारिकता थी, उन्होंने ख़त्म कर दी। इस शृंखला के ज़रिए मैं उनके और भी बहुत करीब आ गया। इस तरह से 'रसिकेशु' पूरी हुई और जब इसका ब्रॊडकास्ट शुरु होने ही वाला था, उसके पिछले दिन मेरा बहुत बड़ा ऒपरेशन था। और दूसरे दिन से मैं रोज़ सुबह अस्पताल में पड़े पड़े 'रसिकेशु' सुना करता था।

सुजॊय - इस शृंखला के प्रसारण को अनिल दा और मीना दी ने भी रेडियो पर सुना होगा। क्या उन्होंने अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की?

तुषार जी - मुझे उनका लिखा हुआ एक लेटर आया, जिसमें लिखा हुआ था - "MY DEAR PAGLA, YOUR DIDI SAYS THAT THE EDITING IS PERFECT."

सुजॊय - वाह! मीना जी के नाम से उन्होंने ही आपकी तारीफ़ की।

तुषार जी - जी हाँ, यही तो उनकी खासियत थी जो दूसरों में मैंने नहीं देखा। और जब 'रसिकेशु' ब्रॊडकास्ट हुई, तब मुझे भी और रेडियो स्टेशन को भी बहुत सारे लेटर्स आये दुनिया भर से, अमेरिका से, कनाडा से, कई लोगों ने लिखा कि उन्होंने इसे रेकॊर्ड कर अपने पास रखा हुआ है। मुझे इस बात की ख़ुशी हुई कि सब जगह अनिल दा की इस शृंखला के चर्चे होने लगे। और इसके बाद दादा टीवी पर भी आना शुरु हो गए। लोगों को उनके बारे में जानकारी हो गई कि वो कहाँ हैं। गजेन्द्र सिंह जी ने मुझसे दादा का फ़ोन नंबर लेकर उन्हें 'सा रे गा मा' में निमंत्रण दिया। इस बात का गर्व है मुझे कि 'रसिकेशु' करने का मौका मिला और मेरे जीवन की एक बहुत ही अविस्मरणीय घटना है। इसके लिए मैं छाया गांगुली जी को और विविध भारती को जितना धन्यवाद दूँ, कम है। लोगों को यह शृंखला पसंद आई और हर साल यह ब्रॊडकास्ट होती चली आ रही है पिछले १३ सालों से, और यह हमारी सफलता का ही चिन्ह है, इसका मुझे आनंद है।

सुजॊय - तुषार जी, आपका मैं किन शब्दों में शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा है; जिस विस्तार से और प्यार से आपने अनिल दा के बारे में हमें बताया, 'रसिकेशु' के बारे में बताया, हमें यकीन है कि हमारे पाठकों को यह बातचीत बहुत पसंद आई होगी। वैसे आप से अभी और भी बहुत सारी बातें करनी है, राय बाबू के बारे में, पंकज बाबू के बारे में, नौशाद साहब के बारे में, नय्यर साहब के बारे में, रोशन साहब, सलिल दा, इन सभी के बारे में, और आपकी फ़िल्म 'अंदाज़ अपना अपना' के बारे में भी। हम फिर किसी दिन आपसे एक और लम्बी बातचीत करेंगे। एक बार फिर आपका बहुत बहुत धन्यवाद!

तुषार जी - बहुत बहुत धन्यवाद!

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तो दोस्तों, यह था इस सप्ताह का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष', अगले सप्ताह फिर किसी ख़ास प्रस्तुति के साथ हम वापस आयेंगे। और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में फिर आपसे मुलाक़ात होगी कल शाम ६:३० बजे, जिसमें एक नई लघु शृंखला का आग़ाज़ होगा गुज़रे ज़माने की एक बेहद मशहूर सिंगिंग् स्टार को स्मार्पित। आज की इस प्रस्तुति के बारे में आप अपनी राय हमें नीचे टिप्पणी में या ईमेल के द्वारा oig@hindyugm.com के पते पर ज़रूर लिख भेजिएगा, हमें इंतज़ार रहेगा। तो अब आज के लिए अनुमति दीजिए, नमस्कार!

नोट- अंतिम चित्र में तुषार जी अनिल दा और मीना जी के साथ रसिकेशु की रिकॉर्डिंग करते हुए दिख रहे हैं

Thursday, January 27, 2011

भूली बिसरी एक कहानी....इच्छाधारी नागिन का बदला भी बना संगीत से सना



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 580/2010/280

मस्कार! दोस्तों, आज हम आ पहुँचे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इन दिनों चल रही लघु शृंखला 'मानो या ना मानो' की अंतिम कड़ी पर। अब तक इस शृंखला में हमने भूत-प्रेत, आत्मा और पुनर्जनम की बातें की, जो थोड़े सीरियस भी थे, थोड़े मज़ाकिया भी, थोड़े वैज्ञानिक भी थे, और थोड़े बकवास भी। आज का अंक हम समर्पित करते हैं एक और रहस्यमय विषय पर, जिसे विज्ञान में 'Cryptozoology' कहा जाता है, यानी कि ऐसा जीव विज्ञान जो ऐसे जीवों पर शोध करता है जिनके वजूद को लेकर भी संशय है। 'क्रिप्टिड' उस जीव को कहते हैं जिसका अस्तित्व अभी प्रमाणित नहीं हुआ है। सदियों से बहुत सारे क्रिप्टिड्स के देखे जाने की कहानियाँ मशहूर है, जिनकी अभी तक वैज्ञानिक प्रामाणिकता नहीं मिल पायी है। तीन जो सब से प्रचलित क्रिप्टिड्स हैं, उनके नाम हैं बिगफ़ूट (Bigfoot), लोचनेस मॊन्स्टर (Lochness Monster), और वीयरवूल्व्स (Werewolves)। बिगफ़ूट को पहली बार १९-वीं शताब्दी में देखे जाने की बात सुनी जाती है। इस जीव की उच्चता और चौड़ाई ८ फ़ीट की होती है और पूरे शरीर पर मिट्टी के रंग वाले बाल होते हैं। इसे पैसिफ़िक उत्तर-पश्चिमी अमेरिका में देखे जाने की बात कही जाती है। बिगफ़ूट को लेकर कई धारणाएँ प्रचलित है, जिनमें से एक धारणा यह मानती है कि बिगफ़ूट एक जानवर और नीयण्डर्थल युग के मानव के बीच यौन संबंध से पैदा हुआ है आज से करीब २८००० साल पहले। बहुत से शोधार्थी अपनी पूरी पूरी ज़िंदगी लगा देते हैं बिगफ़ूट की खोज में। संसार के रहस्यों में बिगफ़ूट एक महत्वपूर्ण रहस्य है आज भी। लोचनेस मॊन्स्टर भी एक मशहूर क्रिप्टिड है जिसे पहली बार १९३० के दशक में स्कॊटलैण्ड में देखे जाने की बात कही जाती है। इसे नेसी भी कहते हैं जिसका शरीर पतला, रबर की तरह है, चमड़े का रंग काले और ग्रे के बीच का है, लम्बाई करीब २० फ़ीट की है। नेसी का शरीर सर्पीला है, एक सामुद्रिक दैत्य की तरह, और जिसका सर घोड़े के सर की तरह है। नेसी का स्कॊटलैण्ड के ताज़े-पानी के झीलों में पाये जाने की बात कही जाती है। नेसी के अस्तित्व को लेकर अभी विवाद है, लेकिन क्रिप्टोज़ूलोगिस्ट्स इसकी खोज में अब भी उतने ही उत्सुक रहते हैं जितने आज से ९० साल पहले रहते थे। वीयरवूल्व्स एक तरह का भेड़िया है जो आदमी से परिवर्तित होकर बना है। दूसरे शब्दों में, वीयरवूल्व्स वो इंसान हैं जिनमें शक्ति होती है अपने आप को भेड़िये में बदल डालने की। हालाँकि इस तरह की बातें पौराणिक कहानियों को ही शोभा देती है, लेकिन यह भी सच है कि वीयरवूल्व्स क्रिप्टोज़ूलोजी का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है लम्बे अरसे से।

जहाँ तक भारत और क्रिप्टोपिड्स का सम्बम्ध है, हिमालय की बर्फ़ीली पहाड़ियों में येती नामक जानवर के देखे जाने की बात सुनी जाती है। यह एक विशालकाय जीव है सफ़ेद रंग और बालों वाला, जिसकी उच्चता ६ फ़ीट के आसपास बतायी जाती है। कई पर्बत आरोही येती को देखने का दावा भी करते हैं, लेकिन वैज्ञानिकों का यह मानना है कि बर्फ़ीली पहाड़ियों में सूरज की रोशनी से इतनी चमक पैदा होती है कि कभी कभी आँखें भी धोखा खा जाती है। बर्फ़ से पहाड़ों पर ऐसी आकृतियाँ बन जाती हैं जो किसी विशालकाय दैत्य का आभास कराती हैं। अर्थात! येती बस इंसानी दिमाग का भ्रम है और कुछ नहीं। एक और देसी क्रिप्टिड है इच्छाधारी नागिन, जिसको लेकर हमारे देश में कहानियों की कोई कमी नहीं है। सदियों से इच्छाधारी नाग नागिनों की कथाएँ प्रचलित हैं जो हमारी फ़िल्मों में भी प्रवेश कर चुका है बहुत पहले से ही। सांपों पर बहुत सारे फ़िल्म बने हैं, जिनमें से कुछ इच्छाधारी नागिन के भी हैं। रीना रॊय - जीतेन्द्र अभिनीत मल्टिस्टरर फ़िल्म 'नागिन' तो आपको याद ही होगी जिसमें मशहूर गाना था "तेरे संग प्यार मैं नहीं तोड़ना"। ८० के दशक में श्रीदेवी - ऋषी कपूर अभिनीत फ़िल्म 'नगीना' तो जैसे एक ट्रेण्डसेटर फ़िल्म साबित हुई थी। इस फ़िल्म ने पहले के सभी सांपों पर बनने वाली फ़िल्मों का रेकॊर्ड तोड़ दिया था। इसलिए आज के इस अंक को हम समर्पित करते हैं इच्छाधारी नागिन के नाम, और सुनवाते हैं अनुराधा पौडवाल की आवाज़ में आनंद बक्शी का लिखा और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का स्वरबद्ध किया गीत "भूली बिसरी एक कहानी, फिर आयी एक याद पुरानी"। और इसी के साथ हमें इजाज़त दीजिए 'मानो या ना मानो' लघु शृंखला को समाप्त करने की। चलते चलते बस इतना ही कहेंगे कि आप किसी भी बात पर यकीन तो कीजिए, लेकिन अपनी बुद्धि और विज्ञान से पूरी तरह विवेचना करने के बाद ही। इस शृंखला के बारे में अपने विचार oig@hindyugm.com के पते पर हमें अवश्य लिख भेजिएगा, हम आपके ईमेल को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' में शामिल करने की कोशिश करेंगे। तो बस अब इजाज़त दीजिए, मिलते हैं शनिवार की शाम 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' में, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'नगीना' का शीर्षक गीत "मैं तेरी दुश्मन" पहले अनुराधा पौडवाल से ही रेकॊर्ड करवाया गया था, लेकिन बाद में लता मंगेशकर से डब करवा लिया गया। इस बात को लेकर अनुराधा पौडवाल ने एक इंटरव्यु में अफ़सोस भी जताया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 01/शृंखला 09
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - गायिका हैं सुर्रैया.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी दो बैक तो बैक शृंखला में विजयी हुए हैं, बधाई जनाब....नयी शृंखला के लिए शुभकामनाएँ

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, January 26, 2011

सुनसान रातों में जब तू नहीं आता.....जानिए कमल शर्मा से कि क्या क्या हैं हिंदी होर्रर फिल्मों के भूतों की पसंद



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 579/2010/279

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ! 'मानो या ना मानो' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला का इन दिनों आप आनंद ले रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से इस स्तंभ का माहौल थोड़ा भारी सा हो रहा था, इसलिए हमने सोचा कि आज माहौल कुछ हल्का किया जाए। अब आप यह भी सोच रहे होंगे कि भूत-प्रेत और आत्माओं की बातें हो रही है, सस्पेन्स फ़िल्मों के शीर्षक गानें बज रहे हैं, तो माहौल हल्का कैसे हो सकता है भला! दोस्तों, एक बार विविध भारती के 'छाया गीत' कार्यक्रम में वरिष्ठ उद्घोषक कमल शर्मा ने कार्यक्रम पेश किया था जिसका शीर्षक था 'फ़िल्मी आत्माएँ'। हमारी फ़िल्मों में जब भी भूत-प्रेत या आत्मा या सस्पेन्स को दिखाने की बात चलती है तो सभी निर्देशक कुछ फ़ॊर्मुला चीज़ें इख़्तियार करते हैं। इन्हीं फ़ॊर्मुला बातों की हास्यास्पद खिंचाई करते हुए कमल जी ने उस कार्यक्रम का आलेख लिखा था। आइए आज उसी आलेख को यहाँ प्रस्तुत कर आपको ज़रा गुदगुदाया जाये। "छाया गीत सुनने वाले सभी श्रोताओं को कमल शर्मा का नमस्कार! एक हवेली... कोहरा..... पूरा चाँद..... जंगल-झाड़ियाँ..... सूखे पत्ते..... एक बग्गी आकर रुकी..... एक बूढ़ा चौकीदार जिसके उम्र का अंदाज़ा लगाना नामुमकिन..... ये सब हॊरर फ़िल्मों के पर्मनेण्ट फ़ीचर्स हैं। हालाँकि अभी १० बजे हैं, पुरानी फ़िल्मी आत्माएँ रात के ठीक १२ बजे वाक करने निकलती थीं। आजकल उन्हें टेलीविज़न पर भी बहुत काम मिलने लगा है। वैसे फ़िल्मी आत्मा नई हो या पुरानी, दोनों में कुछ चीज़ें बड़ी कॊमन है। आत्मा होने के बावजूद वो बाल शैम्पू से धोकर सिल्की बनाती थीं। उन्हे बालों में रबर-बैण्ड या क्लिप लगाना पसंद नहीं, बाल खुली रखती थी। एक बात और, सभी फ़ीमेल आत्माएँ बड़ी ग्लैमरस होती हैं, और उन्हें किसी ना किसी का इंतज़ार रहता है। फ़िल्मी आत्माओं की सब से अच्छी बात यह है कि उन्हें संगीत में गहरी रुचि होती है। वो अच्छा गाती हैं, दिन भर गाने का रियाज़ करती हैं और फिर रात १२ बजे ओपेन एयर में गाने निकल पड़ती हैं। फ़िल्मी आत्माओं का फ़ेवरीट कलर है व्हाइट, जॊर्जेट उनकी पसंदीदा साड़ी है। बल्कि युं कहें कि उनके पास ऐसी कई साड़ियाँ होती हैं, क्योंकि उन्हें कई सालों तक भटकना होता है ना! और ऐसे में एक ही साड़ी से थोड़े ना काम चलेगा! और हाँ, १२ बजे वो इसलिए निकलती हैं क्योंकि १० बजे से वो मेक-अप करती हैं, इसमें दो घण्टे तो लग ही जाते हैं! बस इधर १२ बजे, उधर गाना शुरु!" और दोस्तों, गाने वही जो इन दिनों आप इस स्तंभ में सुन रहे हैं, जैसे कि "कहीं दीप जले कही दिल", "आयेगा आनेवाला", "तुझ बिन जिया उदास रे", "गुमनाम है कोई", वगेरह वगेरह।

कमल शर्मा आगे कहते हैं, "ज़्यादातर फ़िल्मी आत्माओं के पास मोमबत्ती होती है, या फिर दूसरा ऒप्शन है दीया। टॊर्च में वो बिलीव नहीं करती। रिमोट एरीयाज़ में तेल और मोमबत्ती तो फिर भी मिल सकती है लेकिन टॊर्च नहीं। उसमें सेल भी डाउन होते हैं। दीया और मोमबत्ती फ़िल्मी आत्माओं के ज़रूरी गैजेट्स की तरह हैं जो उसकी पहचान से भी जुड़े हैं। उसे रास्ता खोजने के लिए इनकी ज़रूरत नहीं पड़ती, सालों भटकते रहने से तो रास्ते याद भी हो जाते हैं, है न! फ़िल्मी आत्माएँ जब चलती हैं तो पीछे पीछे अण्डरकवर एजेण्ट की तरह कोहरा भी चलता है। धुंध या कोहरे से माहौल बनता है, ऐम्बिएन्स बनता है। फिर इनके पीछे पीछे हवा चलती है, और हवा के साथ साथ मैरथन के धावकों की तरह सूखे पत्ते चलते हैं। फ़िल्मी आत्माएँ ना तो कोई सॊलिड फ़ूड लेती हैं और ना ही कोई लिक्वीड, क्योंकि इसका अभी तक कोई रेकॊर्ड भी नहीं मिला है किसी फ़िल्म में। यह ज़रूर है कि उन्हें छोटे छोटे फ़्लैट्स या चाल पसंद नहीं, उन्हें ऐण्टिक का शौक़ है, विंटेज चीज़ों में उनकी गहरी दिलचस्पी है, उन्हें पुरानी हवेलियाँ पसंद है, जंगल और वीरानों में इनका मेण्टेनेन्स कौन करता है यह अभी तक नहीं मालूम!" कहिए दोस्तों, कैसा लगा? मज़ेदार था ना! और आइए अब आते हैं आज के गीत पर। एक बार फिर लता जी की आवाज़, इस बार गीत फ़िल्माया गया है सारिका पर और इस सस्पेन्स थ्रिलर फ़िल्म का नाम है 'सन्नाटा'। लता जी ने अपने एक इण्टरव्यु में मज़ाक मज़ाक में बताया था कि उन्हें भूतों से गहरा लगाव है, तभी तो उन्हें इतने सारे भूतों के गीत गाने को मिले। फ़िल्म 'सन्नाटा' १९८१ की फ़िल्म थी जिसके संगीतकार थे राजेश रोशन। 'सन्नाटा' निर्देशित की थी श्याम रामसे और तुल्सी रामसे ने। जी हाँ दोस्तों, वही रामसे ब्रदर्स, जो ८० के दशक में हॊरर फ़िल्मों के निर्माण के लिए जाने गये। उस दशक में इस बैनर ने एक से एक हॊरर फ़िल्म बनाई जिन्हें लोगों ने सफल भी बनाया। अगले दौर में इस ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर लिया रामगोपाल वर्मा ने, जिनकी 'कौन', 'भूत', 'डरना मना है', 'डरना ज़रूरी है', 'जंगल' और 'फूँक' जैसी फ़िल्मों का निर्माण किया और हॊरर फ़िल्मों को एक नयी दिशा दी। ख़ैर, 'सन्नाटा' पर वापस आते हैं, इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे विजय अरोड़ा, बिंदिया गोस्वामी, सारिका, हेलेन, महमूद प्रमुख। इस फ़िल्म का जो हौण्टिंग् नंबर आपको सुनवा रहे हैं, उसके बोल हैं "सुनसान रातों में, जब तू नहीं आता, तेरे बिना मुझे लगता है, गहरा ये सन्नाटा"। लता जी ने ४० के दशक के आख़िर में "आयेगा आनेवाला" गाकर इस जौनर के गानों की नीव रखी थी, और ८० के दशक के इस शुरुआती फ़िल्म में भी उन्होंने उस सिल्सिले को जारी रखते हुये अपनी रूहानी आवाज़ में इस गीत को गाया। तो आइए सुनते हैं फ़िल्म 'सन्नाटा' के इस शीर्षक गीत को।



क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर और उदित नारायण ने १९८१ की फ़िल्म 'बड़े दिलवाले' में पहली बार साथ में गाया था "जीवन के दिन छोटे सही", जो फ़िल्माया गया थ सारिका और प्राण साहब पर।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 10/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - आनंद बक्षी साहब ने लिखा था इस गीत को.

सवाल १ - फिल्म के निर्देशक बताएं - 2 अंक
सवाल २ - प्रमुख अभिनेत्री बताएं - 1 अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अनजान जी दो अंकों की बधाई....पर इस बार तो अमित जी अजय बढ़त बना ही चुके हैं, उन्हें डबल बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

अपने पडो़सी दिल से भीनी-भीनी भोर की माँग कर बैठे गोटेदार गुलज़ार साहब, आशा जी एवं राग तोड़ी वाले पंचम दा



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०९

गुलज़ार और पंचम - ये दो नाम दो होते हुए भी एक से लगते हैं और जब भी इन दोनों का नाम साथ में आता है तो सुनने वालों को मालूम हो जाता है कि कुछ नया कुछ अलबेला पक के आने वाला है बाहर.. अभी-अभी पतीला खुलेगा और कोई मीठी-सी नज़्म छलकते हुए हमारे कानों तक पहुँच जाएगी। ये दोनों फ़नकार एक-दूसरे के पूरक-से हो चले थे। कैसी भी घुमावदार सोच हो, किसी भी मोड़ पर बिन कहे मुड़ने वाले मिसरे हों या फिर किसी अखबार की सुर्खियाँ हीं क्यों न हो.. गुलज़ार के हरेक शब्द-नुमा ईंट का जवाब पंचम अपने सुरों के पत्थर (अजीब उपमा है.. यूँ होना तो फूल चाहिए, लेकिन मुहावरा बनाने वाले ने हमारे पास कम हीं विकल्प छोड़े हैं) से दिया करते थे... और जवाब ऐसा कि "साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे".. गुलज़ार के शब्द जहाँ शिखर पर हीं मौजूद रहें, वहीं उसी के इर्द-गिर्द पंचम अपनी पताका भी लहरा आएँ... तभी तो दोनों की जोड़ी आजतक प्यार और गुमान से याद की जाती है।

लेकिन यह जोड़ी ज्यादा दिनों तक रह नहीं पाई। गुलज़ार को राह में अकेले छोड़कर पंचम दुसरी दुनिया में निकल लिए। पंचम के गुजरने का असर गुलज़ार पर किस हद तक पड़ा, इसका अंदाजा पंचम की याद में लिखे गुलज़ार के इस नज़्म से लगाया जा सकता है:

याद है बारिशों का दिन, पंचम

याद है जब पहाड़ी के नीचे वादी में
धुंध से झांककर निकलती हुई
रेल की पटरियां गुज़रती थीं
धुंध में ऐसे लग रहे थे हम
जैसे दो पौधे पास बैठे हों
हम बहुत देर तक वहां बैठे
उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे
जिसको आना था पिछली शब, लेकिन
उसकी आमद का वक्‍त टलता रहा
देर तक पटरियों पर बैठे हुए
रेल का इंतज़ार करते रहे
रेल आई ना उसका वक्‍त हुआ
और तुम, यूं ही दो क़दम चलकर
धुंध पर पांव रखके चल भी दिए

मैं अकेला हूं धुंध में 'पंचम'...


पंचम की क्षति अपूर्णीय है.. जितना गुलज़ार के लिए उतना हीं संगीत के अन्य साधकों के लिए भी... पंचम के गए पूरे सत्रह बरस हो गए, गए ४ जनवरी को उनकी पुण्य-तिथि थी। मैंने जब यह "आलेख" लिखना शुरू किया था तो यह सोचा नहीं था कि मेरी लेखनी पंचम को याद करने में डूब जाएगी, लेकिन भावनाओं का वह सैलाब बह निकला कि न मैं खुद को रोक पाया, न अपनी लेखनी को। बात जब गुलज़ार और पंचम की हो रही है तो क्यों न आज अपनी महफ़िल को इन्हीं दोनों की एक नज़्म से सजाया जाए।

हम आज की नज़्म तक पहुँचें, इससे पहले एक और फ़नकार से आपका परिचय कराना लाजिमी हो जाता है... मुआफ़ कीजिएगा, फ़नकार नहीं.. फ़नकारा। इन फ़नकारा के बिना गुलज़ार-पंचम की जोड़ी में उतनी जान नहीं, जोकि इनकी तिकड़ी में है। यह फ़नकारा कोई और नहीं, बल्कि पंचम दा की अर्धांगिनी आशा भोसले जी हैं, जिन्हें सारी दुनिया आशा ताई के नाम से पुकारती है। गुलज़ार साहब, पंचम दा और आशा ताई की तिकड़ी ने फिल्मों में एक से बढकर एक गीत दिए है। चंद नाम यहाँ पेश किए देता हूँ: --'क़तरा क़तरा‍ मिलती है', 'मेरा कुछ सामान', 'आंकी चली बांकी चली', 'आऊंगी एक दिन आज जाऊं' 'बड़ी देर से मेघा बरसा', 'बेचारा दिल क्‍या करे', 'छोटी सी कहानी से'... यह फेहरिश्त और भी बहुत लंबी है, लेकिन मेरे हिसाब से इतने उदाहरण हीं काफी हैं।

न सिर्फ़ फिल्मों में बल्कि इनकी तिकड़ी का कमाल "एलबमों" में भी नज़र आता है। "एलबमों" की बात करने पर जिस एलबम की याद सबसे पहले आती है, वह है "दिल पड़ोसी है"। इस एलबम को आशा ताई के जन्मदिन पर यानि कि ८ सितम्बर को १९८७ में रीलिज किया गया था। इसमें में कुल चौदह गाने थे(हैं)। आज आपको हम इस एलबम से "भीनी भीनी भोर आई" सुनवाने जा रहे हैं। अगली कड़ी में हम एलबम के बाकी गानों से रूबरू होंगे। इस गाने के बारे में हम कुछ कहें, इससे अच्छा होगा कि क्यों न इसके कारीगरों से हीं इसके बनने की कहानी सुन लें। "संगीत सरिता" कार्यक्रम के अंतर्गत "मेरी संगीत यात्रा" लेकर आ रहे हैं "गुलज़ार साहब, पंचम दा एवं आशा ताई" (सौजन्य: सजीव जी, सुजॉय जी)

पंचम दा: आशा जी, आपको याद है कोई गीत जो आपने काफ़ी मेहनत से गाया होगा?

आशा जी: हाँ, एक गीत आपने राग तोड़ी में बनाया था। वैसे तोड़ी में "धा" से पंचम लगाना चाहिए, पर फिल्मी गीत में अगर पूरा का पूरा राग वैसे हीं रख दिया जाए तो उस राग पर आधारित सभी गीत एक जैसे हीं लगेंगे। थोड़ी-बहुत चेंज करके अगर गीतों को ढाला जाए तो एक नयापन भी आता है और सुनने में भी अच्छा लगता है।

गुलज़ार साहब: हाँ सही बात है, अगर "क्लासिकल म्युज़िक" को मिसाल बनाकर कोई फिल्म बन रही है तब अलग बात है।

पंचम दा: गुलज़ार, आप को याद है "भीनी भीनी भोर".. "दिल पड़ोसी है" एलबम का ये पहला गाना रखा था हमने?

आशा जी: गुलज़ार भाई, आपने इस गाने में "गोटा" शब्द का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल किया था।

गुलज़ार साहब: सोने की चमक की "उपमा" हमारे फिल्मी गीतों में काफ़ी पाई जाती है, कभी आग से, कभी धूप से। लेकिन हर चीज़ जो चमकती है वह सोना नहीं होती (तीनों हँसते हैं), हमारे यहाँ शादी में गोटेदार चुनरी देखने को मिलती है, तो उसी से मैंने यह लिया था।

आशा जी: लेकिन आपने तो बादल को गोटा लगाया था ना?

गुलज़ार साहब: मुझे लगता था कि गोटे की जो चुनरी है वो बहुत हीं खूबसूरत है। आशा जी, आपने कहा कि पंचम ने तोड़ी का "चलन" बदला, मुझे तो हमेशा हीं इसके चाल-चलने पर शक़ रहा है (तीनों ठहाका लगाते हैं), आपने कहा कि इन्होंने अपना चलन बदला! (हँसी ज़ारी है)

पंचम दा: यह सुबह का गाना था, इसमें हमने मुर्गियों की आवाज़ डाली थी, बहुत सारे "साउंड इफ़ेक्ट्स" थे कि जिससे सुबह का "वातावरण" सामने आए, एक आदत हो चुकी थी, अब आप इसे चलन कहिये, ऐसे कोई राग बन जाता हओ, "मूड" बन जाता है।

तो आपने देखा कि माहौल कितना खुशगवार हो जाता था, जब ये तीनों एक जगह आ जुटते थे। जब बातचीत इतनी सुरीली है तो संगीत के बारे में क्या कहा जाए! चलिए तो फिर हम भी राग तोड़ी में मुर्गिर्यों की बांग के बीच गुलज़ार साहब के "गोटे" का मज़ा लेते हैं और इस तिकड़ी को फिर से याद करते हैं (वैसे अगली कड़ी भी इसी तिकड़ी और इसी एलबम को समर्पित है):

भिनी भिनी भोर आई
भिनी भिनी भोर आई
रूप रूप पर छिडके सोना
स्वर्ण कलश चमकाती आई
भिनी भिनी भोर भोर आई ...

माथे सुनहरी टीका लगाये
पात पात पर गोटा लगाये
गोटा लगाई
सात रंग की जाई आई
भिनी भिनी भोर आई...

ओस धुले मुख पोछे सारे
_____ लेप गई उजियारे
उजियारे उजियारे
सा रे ग मा धा नि
जागो जगर की बेला आई
भिनी भिनी भोर आई...

भिनी भिनी भोर आई
रूप रूप पर छिडके सोना
रूप रूप पर छिडके सोना
स्वर्ण कलश चमकाती आई
भिनी भिनी भोर आई
भिनी भिनी भोर आई.....




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "ऊँगली" और मिसरे कुछ यूँ थे-

नज़र नीची किए दाँतों में ऊँगली को दबाती हो,
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

उँगली उठाना बड़ा आसां होता है किसी पे
लोग अपनी कमियों की बात करते नहीं हैं. - शन्नो जी ( इशारा किसकी तरफ़ है? :) )

उसका अँगुली पकडना गजब ढा गया ,
उसका प्रेम का इजहार गजब ढा गया - मंजु जी (ये पंक्तियाँ शेर बनते-बनते रह गई.. कुछ कमी है कहीं न कहीं)

वो चीरता रहा मेरे हृदय को,
मैं देखता रहा फिर भी समय को
ऊँगली उठा रहा था वो मेरी तरफ मगर,
छुपा रहा था शायद वो अपने भय को - अवनींद्र जी (इस बार आपका चिरपरिचित जादू कहीं गायब मालूम पड़ता है)

उँगलिया उठेगी सुखे हुए बालो की तरफ,
एक नजर डालेंगें बीते हुए सालो की तरफ - कफ़ील आज़र.. हमने इनपर पूरी की पूरी एक कड़ी लिख डाली थी (जगजीत सिंह जी तो बस गुलुकार हैं, हमें तो ग़ज़लगो के नाम की दरकार है)

डूब गयी जब कलम हमारी प्यार के गहरे सागर मे..
दर्द की उंगली थामे थामे, उसे उबरते देखा है -दिलीप तिवारी (पूजा जी, इनके बारे में कुछ और जानकारी कहीं से हासिल होगी? )

पिछली महफ़िल में सबसे पहले हाज़िरी लगाई अवध जी ने, लेकिन कोई भी शब्द गायब न पाकर आप फिर से आने का वादा करके रवाना हो लिए, लेकिन यह क्या, एक बार फिर आपने वादाखिलाफ़ी की.. ये अच्छी बात नहीं :) आपके बाद आकर शन्नो जी ने न सिर्फ़ गायब शब्द पहचाना बल्कि उसपर एक-दो शेर भी कहे। इसलिए नियम से शन्नो जी हीं "शान-ए-महफ़िल" बनीं। प्रतीक जी, आपने हमारे प्रयास को सराहा, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार! मंजु जी एवं अवनींद्र जी, महफ़िल में स्वरचित शेरों के दौर को आप दोनों ने आगे बढाया। शुक्रिया! सुमित जी, अगली बार से शायर का नाम भूल मत आईयेगा कहीं :) नीलम जी, आपके आने को आना समझूँ या नहीं, आपने शेर कहने की बजाय शन्नो जी को शांत कराना हीं जरूरी समझा.. ऐसा क्यों? :) पूजा जी, दिलीप जी का शेर है तो काबिल-ए-तारीफ़, लेकिन हम इनकी तारीफ़ भी जानना चाहेंगे। इस बार याद रखिएगा :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, January 25, 2011

साथी रे...तुझ बिन जिया उदास रे....मानो या न मानो व्यावसायिक दृष्टि से ये होर्रर फ़िल्में दर्शकों को लुभाने में सदा कामियाब रहीं हैं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 578/2010/278

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहनेवालों का इस सुरीली महफ़िल में बहुत बहुत स्वागत है। यह निस्संदेह सुरीली महफ़िल है, लेकिन कुछ दिनों से इस महफ़िल में एक और रंग भी छाया हुआ है, सस्पेन्स का रंग, रहस्य का रंग। 'मानो या ना मानो' लघु शृंखला में अब तक हमने अलग अलग जगहों के प्रचलित भूत-प्रेत, आत्मा, और पुनर्जनम के किस्सों के बारे में जाना, और पिछली कड़ी में हमने वैज्ञानिक दृष्टि से इन सब चीज़ों की व्याख्यान पर भी नज़र डाला। आज इस शृंखला की आठवीं कड़ी में मैं, आपका दोस्त सुजॊय, दो ऐसे किस्से आपको सुनवाना चाहूँगा जो मैंने मेरे दो बहुत ही करीब के लोगों से सुना है। इन दो व्यक्तियों मे एक है मेरे स्वर्गीय नानाजी, और दूसरा है मेरा इंजिनीयरिंग कॊलेज का एक बहुत ही क्लोज़ फ़्रेण्ड। पहले बताता हूँ अपने नाना जी की अपनी एक निजी भौतिक अभिज्ञता। उस रात बिजली गई हुई थी। मेरी नानी कहीं गई हुईं थी, इसलिए ऒफ़िस से लौट कर मेरे नाना जी ने लालटेन जलाया और मुंह हाथ धोने बाथरूम चले गये। वापस लौट कर जैसे ही ड्रॊविंग् रूम में प्रवेश किया तो देखा कि कुर्सी पर कोई बैठा हुआ है। नाना जी के शरीर में जैसे एक ठण्डी लहर दौड़ गई। सर्दी की उस अंधेरी सुनसान रात में अगर आप ताला खोल कर घर में घुसें और पाये कि कोई पहले से ही हाज़िर है तो सोचिए ज़रा क्या हालत होगी आपकी। वही हालत उस वक़्त मेरे नानाजी की थी। ख़ैर, नाना जी कुछ देर तक सुन्न ख़ड़े रहे, उनका दिमाग़ ख़ाली हो चुका था। थोड़ी देर बाद वो कह उठे, "कौन है वहाँ?" कोई उत्तर नहीं। फिर नाना जी ने थोड़ा साहस जुटा कर, आँखें फाड़ कर देखने की कोशिश की। धीरे धीरे उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने ऒफ़िस से आकर अपनी कमीज़ उतारकर कुर्सी पर टांग दिया था। और दूसरी तरफ़ टेबल पर रखा हुआ था एक गोलाकार शील्ड, जिसकी परछाई दीवार पर ऐसे पड़ी थी कि बिल्कुल कुर्सी पर बैठे किसी आदमी के सर की तरह प्रतीत हो रहा था। अंधेरे में वह परछाई और कुर्सी पर टंगी कमीज़, दोनों मिलकर किसी आदमी के कुर्सी पर बैठे होने का आभास करवा रहा था। नाना जी की जान में जान आई। मान लीजिए उस रात उस वक़्त बिजली वापस आ गई होती तो शायद उन्हें हक़ीकत पता नहीं चलता और वो लोगों को यही बताते रहते कि उन्होंने भूत देखा है। दोस्तों, इसी तरह के भ्रम भूत-प्रेत की कहानियों को जन्म देते हैं। इसलिए हम सब को यही चाहिए कि अगर कुछ अजीब बात हमें दिख भी जाये तो हम डरने से पहले अपनी बुद्धि और तर्क के ज़रिए उसे जाँच लें, फिर उस पर यकीन करें।

और अब मेरे इंजिनीयरिंग कॊलेज के दोस्त से सुना हुआ क़िस्सा आपको बताता हूँ। पिछले क़िस्से का तो समाधान हो गया था, लेकिन अब जो क़िस्सा मैं बताने जा रहा हूँ वो कुछ और ही तरह का है। 'आसाम इंजिनीयरिंग् कॊलेज' गुवाहाटी के एक कोने में स्थित है जो पहाड़ियों, छोटे झीलों और तालाबों से घिरा हुआ है। बहुत ही प्रकृति के करीब है और बहुत ही अच्छा लगता है वहाँ पर रहना और पढ़ना। लेकिन कभी कभी दूर-दराज़ के जगहों पर कुछ रहस्यमय घटनाएँ भी घट जाया करती हैं जो पैदा करती है डर, भय, रहस्य। यह क़िस्सा है होस्टल नंबर-६ का, जो कैपस के सब से अंत में है और दूसरे होस्टल्स के साथ जुड़ा हुआ भी नहीं है, एक अलग थलग जगह पर है। तो मेरे दोस्त उसी होस्टल का सदस्य था। उस होस्टल में बहुत साल पहले एक छात्र ने आत्महत्या कर ली थी। तभी से उस होस्टल में भूत होने की बातें चालू हुई हैं। लेकिन अगर ये बातें कानों सुनी होती तो शायद मैं यकीन नहीं करता, लेकिन क्योंकि इसे मेरे दोस्त ने ख़ुद महसूस किया है, इसलिए सोचने पर विवश हो रहा हूँ। उसने मुझे बताया कि उस होस्टल के बरामदे में आधी रात के बाद घोड़े के टापों जैसी आवाज़ें कभी कभार सुनाई देती है। और यही नहीं, अभी आवाज़ें यहाँ सुनाई दी तो अगले ही क्षण वो आवाज़ों एकदम से दूसरी तरफ़ सुनाई देती है। कई कई छात्रों ने इस आवाज़ को सुना है, लेकिन किसी की कभी हिम्मत नहीं हुई कि दरवाज़ा खोलकर बाहर जाए और देखे कि माजरा क्या है! हो सकता है घोड़े की टापें ना हो, बल्कि कुछ और हो जो विज्ञान-सम्मत हो, लेकिन डर एक ऐसी चीज़ है जो इंसान को सच्चाई तक पहूँचने में बाधित करती है। घोड़ों के टापों का वह रहस्य अभी तक रहस्य ही बना हुआ है। तो दोस्तों, ये दो ऐसे किस्से थे जिन्हें मैंने ख़ुद अपने निकट के लोगों से सुने। बातें तो बहुत हुईं दोस्तों, आइए अब ज़रा गीत-संगीत की तरफ़ मुड़ा जाये। आज आपको सुनवा रहे हैं किशोर साहू निर्देशित सस्पेन्स थ्रिलर 'पूनम की रात' फ़िल्म का गीत, एक बार फिर लता मंगेशकर की रूहानी आवाज़ में। मनोज कुमार और नंदिनी अभिनीत इस फ़िल्म के गानें लिखे थे शैलेन्द्र ने और संगीत था सलिल चौधरी का। फ़िल्म में लता जी के अलावा आशा भोसले, उषा मंगेशकर, मुकेश और मोहम्मद रफ़ी ने गानें गाये। आज के गीत के बोल हैं "साथी रे, तुझ बिन जिया उदास रे, ये कैसी अनमिट प्यास रे, आजा"।



क्या आप जानते हैं...
कि शैलेन्द्र और सलिल चौधरी का साथ सलिल दा की पहली ही फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' से ही शुरु हो गया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 09/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - इस फिल्म के मेकर वो हैं जो ८० के दशक में भूत प्रेतों की फिल्मों के लिए ही जाने जाते थे.

सवाल १ - संगीतकार बताएं - 2 अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - 1 अंक
सवाल ३ - फिल्म की नायिकाएं कौन थी - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी बहुत बढ़िया खेले एक बार फिर, शरद जी और अनजान जी को सही जवाब की बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

संगीत समीक्षा - ये साली जिंदगी : मशहूर सितार वादक निशात खान साहब के सुरों से मिली स्वानंद की दार्शनिकता तो उठे कई सवाल जिंदगी के नाम



Taaza Sur Taal (TST) - 03/2011 - YE SAALI ZINDAGI

जिंदगी को कभी किसी ने नाम दिया पहेली का तो कभी इसे एक खूबसूरत सपना कहा गया. समय बदला और नयी सदी के सामने जब जिंदगी के पेचो-ख़म खुले तो इस पीढ़ी ने जिंदगी को ही कठघरे में खड़ा कर दिया और सवाल किया “तुझसे करूँ वफ़ा या खुद से करूँ....”. मगर शायद चुप ही रही होगी ये "साली" जिंदगी या फिर संभव है कि नयी सदी की जिंदगी भी अब तेवर बदल नए जवाब ढूंढ चुकी हो...पर ये तो तय है कि इस नए संबोधन से जिंदगी कुछ सकपका तो जरूर गयी होगी....बहरहाल हम बात कर रहे हैं निशात खान और स्वानंद किरकिरे के संगम से बने नए अल्बम “ये साली जिंदगी” के बारे में. अल्बम का ये पहला गीत सुनिधि और कुणाल की युगल आवाजों में है. ये फ़िल्मी गीत कम और एक सोफ्ट रौक् नंबर ज्यादा लगता है जहाँ गायकों ने फ़िल्मी परिधियों से हटकर खुल कर अपनी आवाजों का इस्तेमाल किया है. सुनिधि की एकल आवाज़ में भी है एक संस्करण जो अधिक सशक्त है. स्वानंद के बोंल शानदार हैं.

“सारा रारा...” सुनने में एक मस्ती भरा गीत लगता है, पर इसमें भी वही सब है -जिंदगी से शिकवे गिले और कुछ छेड छाड भी, स्वानंद के शब्दों से गीत में जान है, “तू कोई हूर तो नहीं थोड़ी नरमी तो ला...”. निशात खान साहब एक जाने माने सितार वादक है, और बॉलीवुड में ये उनकी पहली कोशिश है. गीत के दो संस्करण है, एक जावेद अली की आवाज़ में तो एक है सुखविंदर की आवाज़ में. जहाँ तक सुखविंदर का सवाल है ये उनका कम्फर्ट ज़ोन है, पर अब जब भी वो इस तरह का कोई गीत गाते हैं, नयेपन की कमी साफ़ झलकती है.

जावेद अली और शिल्प राव की आवाजों में तीसरा गीत “दिल दर बदर” एक एक्सपेरिमेंटल गीत है सूफी रौक् अंदाज़ का. पहले फिल्म का नाम भी यही था – दिल दर ब दर. मुझे व्यक्तिगत रूप से ये गीत पसंद आया खास कर जावेद जब ‘दर ब दर..” कहता है....एक बार फिर गाने का थीम है जिंदगी....वही सवालों में डूबे जवाब, और जवाबों से फिसले कुछ नए सवाल.

चौथा गीत है “इश्क तेरे जलवे” जो कि मेरी नज़र में अल्बम का सबसे बढ़िया गीत है. निशात साहब ने हार्ड रोक अंदाज़ जबरदस्त है, कुछ कुछ प्रीतम के “भीगी भीगी (गैंगस्टर)” से मिलता जुलता सा है, पर फिर भी स्वानंद के शब्द और शिल्पा राव की आवाज़ इस गीत को एक नया मुकाम दे देते है. शिल्पा जिस तेज़ी से कमियाबी की सीढियां चढ़ रहीं हैं, यक़ीनन कबीले तारीफ़ है. निशात साहब ने इस गीत में संगीत संयोजन भी जबरदस्त किया है.

पांचवा और अंतिम ऑरिजिनल गीत "कैसे कहें अलविदा" एक खूबसूरत ग़ज़ल नुमा गीत जिसे गाया है अभिषेक राय ने...उन्दा गायिकी, अच्छे शब्द और सुन्दर सजींदगी की बदौलत ये गीत मन को मोह जाता है. हाँ पर दर्द उतनी शिद्दत से उभर नहीं पाता कभी, पर फिर भी निशात साहब का असली फन इसी गीत में जम कर उभर पाया है.

कुल मिलाकर इस अल्बम की सबसे अच्छी बात ये है कि इसमें रोमांटिक गीतों की अधिकता से बचा गया है और कुछ सोच समझ वाली आधुनिक दार्शनिकता को तरजीह दी गयी है, जहाँ जिंदगी खुद प्रमुख किरदार के रूप में मौजूद है जिसके आस पास गीतों को बुना गया है. कह सकते हैं कि निशात खान और स्वानंद की इस नयी टीम ने अच्छी कोशिश जरूर की है पर दुभाग्य ये है कि यहाँ कोई भी गीत “बावरा मन” जैसी संवेदना वाला नहीं बन पाया है जो लंबे समय तक श्रोताओं के दिलों में बसा रह सके.

आवाज़ रेटिंग - 5/10

सुनने लायक गीत - इश्क तेरे जलवे, कैसे कहें अलविदा, ये साली जिंदगी (सुनिधि सोलो)




अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Monday, January 24, 2011

नैना बरसे रिमझिम रिमझिम.....मदन मोहन साहब का रूहानी संगीत और लता की दिव्य आवाज़ ...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 577/2010/277

हालाँकि हमने या आपने कभी भूत नहीं देखा है न महसूस किया है, लेकिन आये दिन अख़बारों में या किसी और सूत्र से सुनाई दे जाती है लोगों के भूत देखने की कहानियाँ। भूत-प्रेत की कहानियाँ सैंकड़ों सालों से चली आ रही है, लेकिन विज्ञान अभी तक इसके अस्तित्व की व्याख्या नहीं कर सका है। कई लोग अपने कैमरों में कुछ ऐसी तस्वीरें क़ैद कर ले आते हैं जिनमें कुछ अजीब बात होती है। वो लाख कोशिश करे उन तस्वीरों को भूत-प्रेत के साथ जोडने की, लेकिन हर बार यह साबित हुआ है कि उन तस्वीरों के साथ छेड़-छाड़ हुई है। अभिषेक अगरवाल एक ऐसे शोधकर्ता हैं जिन्होंने भूत-प्रेत के अस्तित्व संबंधी विषयों पर ना केवल शोध किया है, बल्कि एक पुस्तक भी प्रकाशित की है 'Astral Projection Underground' के शीर्षक से। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस अजीब-ओ-ग़रीब लघु शृंखला में जिसका नाम है 'मानो या ना मानो'। आज के अंक में हम अभिषेक अगरवाल के उसी शोध में से छाँट कर कुछ बातें आपके सम्मुख रखना चाहते हैं। अभिषेक के अनुसार अगर हम 'Law of Thermodynamics' को एक अन्य नज़रिये से देखें, तो शायद कुछ हद तक इस निश्कर्ष तक पहूँच सकें कि आत्मा का अस्तित्व संभव है। अगर पूरी तरह से निश्कर्ष ना भी निकाल सके, लेकिन कुछ नये प्रश्न ज़रूर सामने आ सकते हैं। और इन प्रश्नों के जवाबों को ढ़ूंढते हुए शायद हम यह साबित कर सकें कि आत्मा का अस्तित्व असंभव नहीं। अब पहला सवाल तो यही है कि आख़िर यह 'Law of Thermodynamics' है क्या चीज़? मध्याकर्षण के नियमों में यह सब से महत्वपूर्ण नियम है, और इस नियम को ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाये तो यह साबित हो जाता है कि आदमी के मरने के बाद उसकी आत्मा नहीं मरती। यह नियम कहती है कि ऊर्जा को ना तो पैदा की जा सकती है, और ना ही नष्ट किया जा सकता है, उसे बस एक स्थिति से दूसरी स्थिति में परिवर्तित किया जा सकता है (Energy can neither be created nor destroyed; it can only change form.) तो हमारी जो सांसें चलती हैं, हमारी जो आत्मा है, वह भी तो एक तरह का ऊर्जा ही है; तो फिर वो कैसे नष्ट हो सकती है! जीव-विज्ञान कहती है कि मृत्यु के बाद जीव देह सड़ जाती है क्योंकि अलग अलग तरह के जीवाणु उस देह को अपना भोजन बनाते है। और इस तरह से जीव-ऊर्जा एक स्थिति से दूसरी स्थिति में आ पहुँचता है। लेकिन उस मस्तिष्क की बुद्धि का क्या जो हमें हमारा परिचय देती है? क्या हर जीव के अंदर शारीरिक शक्ति के अलावा भी एक और शक्ति नहीं है? हमारी बुद्धि, हमारी आत्मा? क्या ये भी जीवाणुओं के पेट में चली जाती है या इनका कुछ और हश्र होता है? इस पैरनॊर्मल जगत को हम तभी गले लगा सकते हैं जब हम खुले दिमाग और मन से इस बारे में सोच विचार और मंथन करेंगे। दोस्तों, अभिषेक पिछले १५ सालों से पैरनॊर्मल गतिविधियों पर शोध कर रहे हैं। कुछ अन्य शोधकर्ताओं का यह कहना है कि वो लोग जो भूत देखने का दावा करते हैं, वो दरअसल मानसिक रूप से कमज़ोर होते हैं। वो बहुत ज़्यादा उस बारे में सोचते हैं जिसकी वजह से उन्हें कई बार भ्रम हो जाता है और उन्हें उनकी सोच हक़ीक़त में दिखाई देने लगती है। यानी कि भूत दिखाई देना एक तरह की मानसिक विकृति है। एक और दृष्टिकोण के अनुसार इस बिमारी को 'Sleep Paralysis' कहते हैं जिसमें आदमी नींद से जग तो जाता है लेकिन हिल नहीं सकता। तब उन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें कोई ज़ोर से पकड़े हुए है या नीचे की तरफ़ खींच रहे हैं। और अगले दिन यह अफ़वाह उड़ाते हैं कि उसके घर में भूत है। ऐसे में हम इसी निश्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अगर भूत-प्रेत संबंधी कहानियों का वैज्ञानिक वर्णन कोई दे सकता है, तो वह है चिकित्सा विज्ञान।

और दोस्तों, आज की ससपेन्स फ़िल्म जिसका सस्पेन्स भरा गीत हम सुनने जा रहे हैं, वह है मशहूर फ़िल्म 'वो कौन थी'। १९६४ में प्रदर्शित इस फ़िल्म ने काफ़ी लोकप्रियता हासिल की थी। इस फ़िल्म में लता जी ने वह हौन्टिंग नंबर गाया था "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम, पिया तोरे आवन की आस"। मदन मोहन का संगीत और राजा मेहंदी अली ख़ान के बोल। लता जी के सुपरहिट हौंटिंग्मेलोडीज़ में इस गीत का शुमार होता है। दिलचस्प बात यह है कि लता जी इस गाने की रेकॊर्डिंग पर पहुँच नहीं पायी थीं और यह गाना अगले ही दिन फ़िल्माया जाना था। ऐसे में मदन मोहन ने ख़ुद इस गीत को अपनी आवाज़ में रेकॊर्ड करवाया और उसी पर साधना ने अपने होंठ हिलाकर फ़िल्मांकन पूरा किया। बाद में लता ने गीत को रेकॊर्ड किया। मदन मोहन का गाया वर्ज़न एच. एम. वी की सी.डी 'Legends' में शामिल किया गया है। और अब आपको बतायी जाये 'वो कौन थी' की रहस्यमय कहानी। एक तूफ़ानी रात में डॊ. आनंद (मनोज कुमार) घर लौट रहे होते हैं जब उन्हें सड़क पर सफ़ेद साड़ी पहने एक लड़की (साधना) दिखायी देता है, जो बहुत परेशानी में लग रही है। आनंद उसे अपनी गाड़ी में लिफ़्ट देने का न्योता देता है और वो गाड़ी में बैठ जाती है और अपना नाम संध्या बताती है। जैसे ही वो गाड़ी में बैठती है, सामने शीशे के वाइपर्स चलने बंद हो जाते हैं, और आनंद को आगे रास्ता दिखाई नहीं देता। आनंद कुछ डर सा जाता है यह देख कर कि संध्या उसे रास्ता बता रही है उस अंधेरे में भी। वो उसे एक कब्रिस्तान की तरफ़ ले जाती है। आनंद देखता है कि संध्या की एक हाथ से ख़ून बह रहा है। पूछने पर संध्या मुस्कुराती है और कहती है कि उसे ख़ून अच्छा लगता है। जल्द ही संध्या गायब हो जाती है। कुछ ही समय बाद एक परेशान पिता आनंद की गाड़ी को रोकता है और उसकी बेटी की ज़िंदगी को बचा लेने की प्रार्थना करता है। आनंद उस आदमी के पीछे जाता है और एक पुराने घर में प्रवेश करता है, लेकिन बदक़िस्मती से जिस लड़की को बचाने की बात हो रही थी, वह मर चुकी होती है। आनंद चौंक उठता है यह देख कर कि जिस लड़की का शव वहाँ पड़ा हुआ है, वह वही लड़की संध्या है जिसे उसने अभी थोड़ी देर पहले लिफ़्ट दी थी। वापस लौटते वक्त आनंद को कुछ पुलिसमेन मिलते हैं जो उन्हें बताते हैं कि उस जगह पर बहुत दिनों से कोई नहीं रहता। आनंद डर तो जाता है लेकिन इस रहस्य की तह तक जाने का साहस भी जुटा ही लेता है। जैसे जैसे वो रहस्य के करीब पहूँचने लगता है, उसे पता चलता है कि वो झूठ और फ़रेब के जालों में उलझता चला जा रहा है। हालात ऐसी हो जाती है कि आनंद की माँ उसकी शादी जिस लड़की से तय करती है, वह और कोई नहीं संध्या है। क्या है संध्या की सच्चाई? क्या है इस कहानी का अंजाम? यह तो आप ख़ुद ही कभी मौका मिले तो देख लीजिएगा अगर आपने यह फ़िल्म अभी तक नहीं देखी है तो! इस फ़िल्म का हर गीत सुपरडुपर हिट हुआ था। तो चलिए सुनते हैं लता जी की आवाज़ में यह हौंटिंग्नंबर, जिसमें रहस्य के साथ साथ जुदाई का दर्द भी समाया हुआ है।



क्या आप जानते हैं...
'वो कौन थी' फ़िल्म का १९६६ में तमिल में रेमेक हुआ था 'यार नी' शीर्षक से जिसका निर्माण किया था सत्यम ने। जयशंकर और जयललिता (जो बाद में तमिल नाडु की मुख्यमंत्री बनीं) ने इसमें मुख्य भूमिकाएँ निभाईं। तेलुगु फ़िल्म 'आमे एवरु' भी 'वो कौन थी' का ही रीमेक था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 08/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान है.

सवाल १ - गीतकार बताएं - 2 अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - 1 अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी की बढ़त जारी है, शरद जी आपको बहुत हम मिस करेंगें पर आपकी यात्रा सफल हो, यही कामना रहेगी...अंजना जी कब तक अनजान रहेंगें....वैसे अमित जी इस गीत से जुडी एक और खास बात आप यहाँ पढ़ा सकते है http://podcast.hindyugm.com/2008/07/blog-post_14.html

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, January 23, 2011

ए मेरे दिले नादाँ तू गम से न घबराना....एक एक बढ़कर एक गीत हुए हैं इन सस्पेंस थ्रिल्लर फिल्मों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 576/2010/276

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस नई सप्ताह में आप सभी का फिर एक बार हम हार्दिक स्वागत करते हैं। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है लघु शृंखला 'मानो या ना मानो', जिसमें हम चर्चा कर रहे हैं अजीब-ओ-ग़रीब घटनाओं की जिनका ताल्लुख़ आत्मा, भूत-प्रेत और पुनर्जनम से है। हालाँकि विज्ञान कुछ और ही कहता है, लेकिन कभी कभी कुछ ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं जिसकी व्याख्या विज्ञान भी नहीं कर पाता। पिछली दो कड़ियों में ऐसे ही कुछ पुनर्जनम के किस्से हमने पढ़े। आइए आज वापस लौटते हैं 'हौण्टिंग् हाउसेस' पर। हमने आपसे वादा किया था कि एक कड़ी हम ऐसी रखेंगे जिसमें हम आपको इंगलैण्ड के कुछ भौतिक जगहों के बारे में बताएँगे, क्योंकि पूरे विश्व के अंदर इंगलैण्ड में भूत-प्रेत की कहानियाँ सब से ज़्यादा मात्रा में पायी जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध में बहुत से वायुसैनिक मारे गये थे। कहा जाता है कि कई एयरफ़ील्ड्स में आज भी अजीब-ओ-गरीब चीज़ें महसूस की जा सकती हैं। इन एयरफ़ील्ड्स में शामिल हैं RAF Bircham Newton Norfolk, RAF East Kirkby Lincolnshire, और RAF East Elsham Wolds North Lincolnshire। इंगलैण्ड कैसेल्स (castles) के लिए प्रसिद्ध है, और बहुत से पुराने कैसेल्स ऐसे हैं जिन्हें आत्माओं के निवास-स्थान होने का गौरव प्राप्त है। ससेक्स का अरुण्डेल कैसेल एक विख्यात कैसेल है जिसमें एक नहीं बल्कि चार चार आत्माओं के मौजूदगी मानी जाती है। इनमें पहला नाम है इस कैसेल के निर्माता का (the spirit of the first Earl of Arundel); दूसरे नंबर पे है उस औरत की आत्मा जिसने प्यार में असफल होने के बाद इस कैसेल की एक टावर से कूद कर अपनी जान दे दी थी। कुछ लोग कहते हैं कि आज भी चांदनी रातों में सफ़ेद लिबास में उस औरत को कैसेल के इर्द-गिर्द घूमते हुए देखा जा सकता है। तीसरी आत्मा है उस 'Blue Man' का जिसे इस कैसेल की लाइब्रेरी में १६३० से लेकर अब तक घूमते हुए देखा जाता है। अनुमान लगाया जाता है इसका ताल्लुख़ King Charles-I के ज़माने से है। और चौथे नंबर पे है उल्लू की तरह दिखने वाला एक पक्षी की आत्मा; ऐसी मान्यता है कि अगर इस पक्षी को इस कैसेल की खिड़की पर पंख फड़फड़ाते हुए देखा जाये तो कैसेल के किसी सदस्य की मौत निश्चित है। आगे बढते हैं और पहुँचते हैं लेइसेस्टर के बेल्ग्रेव हॊल में जो सुर्ख़ियों में आ गया था १९९९ में जब वहाँ के CCTV के कैमरे में एक सफ़ेद आकृति कैद हुई थी। कुछ लोगों ने कहा कि यह इस स्थान के पूर्व-मालिक के बेटी की आत्मा है। लंदन की बात करें तो 50 Berkeley Square यहाँ का सब से विख्यात हौण्टेड हाउस है। एसेक्स के बोर्ले नामक गाँव के बोर्ले रेक्टरी में १८८५ से लेकर बहुत से भौतिक नज़ारे लोगों ने देखे हैं। १९३९ में इस घर को आग लग गई और आज तक यह एक वितर्कित जगह है। ब्रिस्लिंगटन, जो किसी समय ब्रिस्टोल के नज़दीक एक आकर्षक समरसेट विलेज हुआ करता था, आज जाना जाता है भूत-प्रेतों के उपद्रवों की वजह से। पब, होटल और घरों में आये दिन अजीब-ओ-गरीब घटनाओं के घटने के किस्से सुने जाते हैं। उत्तरी लंदन के टोटेन्हैम के ब्रुस कैसेल में एक औरत की आत्मा रहती है जो हर साल ३ नवंबर के दिन दिखाई देती है। कहा जाता है कि यह लेडी कोलरैन की आत्मा है जिसे उस कैसेल के एक चेम्बर में उसके पति ने क़ैद कर रखा था और वहीं उसकी मौत हो गयी थी। इस तरह से हौण्टेड कैसेल्स की फ़ेहरिस्त बहुत बहुत लम्बी है और अगर उन सब का ज़िक्र करने बैठे तो शायद एक किताब लिखनी पड़ जाये।

आज के अंक के लिए हमने जिस सस्पेन्स थ्रिलर फ़िल्म को चुना है, वह है 'टावर हाउस'। १९६२ में बनी इस फ़िल्म में संगीत दिया था रवि ने और गीत लिखे थे असद भोपाली ने। निसार अहमद अंसारी निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अजीत और शकीला। फ़िल्म की कहानी एक पुरानी परित्यक्त टावर हाउस के इर्द-गिर्द घूमती है, जहाँ पर निश्चित रातों में एक औरत गीत गाती हुई घूमती दिखाई देती है और उन्ही रातों में कोई ना कोई उस टावर पर से कूद कर आत्महत्या कर लेता है। पुलिस जाँचपड़ताल करती है लेकिन उन्हें कुछ नहीं सूझता और यह रहस्य एक रहस्य ही बना रहता है। और रहस्य यह भी है कि वह औरत सेठ दुर्गादास की स्वर्गीय पत्नी है। पुलिस दुर्गादास को पूछताछ करते हैं लेकिन किसी निश्कर्ष तक नहीं पहूँच पाते। ऐसे में एक बार रणजीत (एन. ए. अंसारी) सबीता (शकीला) को शेर के पंजों से बचाता है। सबिता सेठ दुर्गादास की ही बेटी है। शेर से बचाते हुए रणजीत ख़ुद बुरी तरह ज़ख्मी हो जाता है और उसके चेहरे पर हमेशा के लिए गंदे निशान बैठ जाते हैं। सहानुभूतिपूर्वक दुर्गादास रणजीत को अपनी कंपनी में मैनेजर रख लेते हैं, लेकिन जल्द ही रणजीत लालच का शिकार होने लगता है और वह अपने असली रंग दिखाने पर उतर आता है, जिसका अंजाम होता है दुर्गादास की मौत। मुख्य आरोपी के रूप में सुरेश कुमार (अजीत) निश्चित होता है जो सबीता का प्रेमी था। सबीता भी सुरेश को ख़ूनी समझ बैठती है और उसे ठुकरा देती है। सुरेश भी उन सब की ज़िंदगी से दूर चला जाता है, जिसकी पुलिस को तलाश है। रणजीत अब कोशिश करता है कि किसी तरह से सबीता को पागल बना दिया जाये ताकि पूरे जायदाद का वो अकेला मालिक बन सके। एक तरफ़ टावर हाउस में घूमती वो लड़की और दूसरी तरफ़ दुर्गादास की मर्डर मिस्ट्री; क्या कोई समानता है इन दोनों में? यही थी 'टावर हाउस' की कहानी। और दोस्तों, उपर जो हमने लिखा है कि उस टावर हाउस में जो लड़की गीत गाती हुई घूमती है, तो आपको बता दें कि वह गीत कौन सा था। जी हाँ, आज का प्रस्तुत गीत, लता जी की हौण्टिग् वॊयस में, "ऐ मेरे दिल-ए-नादाँ, तू ग़म से ना घबराना, एक दिन तो समझ लेगी दुनिया तेरा अफ़साना..."। एक और रूहानी गीत, एक और सस्पेन्स थ्रिलर, आइए सुनते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि असद भोपाली ने पहली बार फ़ज़ली ब्रदर्स की फ़िल्म 'दुनिया' में गीत लिखने के लिए भोपाल से बम्बई आये थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 07/शृंखला 08
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक और शानदार सस्पेंस थ्रिल्लर.

सवाल १ - गीतकार बताएं - 2 अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक बताएं - 1 अंक
सवाल ३ - फिल्म की प्रमुख अभिनेत्री का नाम बताएं - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी आपको बेनिफिट ऑफ डाउट देते हुए २ अंक देते हैं. शरद जी और विजय दुआ जी भी सही जवाब लाये हैं...शृंखला आधी बीत चुकी है, एक बार फिर अमित जी ५ अंकों की बढ़त ले कर चल रहे हैं....क्या शरद जी उन्हें मात दे पायेंगें....पिछली शृंखला में हमें देखा था अमित जी ने कैसे दूसरी पारी में शरद जी को पराजित कर दिया था....क्या इतिहास खुद को दोहराएगा.....लगता है कुछ कुछ न्यूस चैनल वालों जसी बातें कर रहा हूँ मैं :) चलिए देखते हैं. एक बात और अच्छा लगा कि आप सब ने अंसारी साहब के बारे में इतनी बातें शेयर की. ऐसे ही करते रहिएगा.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - पंडित बृज नारायण का सरोद वादन - राग श्री



सुर संगम - 04

राग श्री, एक प्राचीन उत्तर भारतीय राग है पूर्वी ठाट का। इसे भगवान शिव से जोड़ा जाता है। यह राग सिख धर्म में गाया जाता है गुरु ग्रंथ साहिब के तहत। गुरु ग्रंथ साहिब में कुल ३१ राग हैं और उसमें राग श्री सब से पहले आता है। गुरु ग्रंथ साहिब के १४ से लेकर ९४ पृष्ठों में जो कम्पोज़िशन है, वो इसी राग में है।


सुप्रभात! सुर-संगम स्तंभ के सभी पाठकों व श्रोताओं का स्वागत है आज के इस अंक में। आज इसमें हम चर्चा करेंगे सुप्रसिद्ध सरोद वादक पंडित बृज नारायण की, जिनका बजाया हुआ राग श्री आपको सुनवाएँगे। साथ ही एक ऐसी फ़िल्मी रचना भी सुनवाएँगे जिसमें पंडित जी ने सरोद बजाया है और उस गीत में सरोद का बड़ा ही प्रॊमिनेण्ट प्रयोग हुआ है। बृज नारायण सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पंडित राम नारायण के बड़े बेटे हैं। उनका जन्म २५ अप्रैल १९५२ को राजस्थान के उदयपुर में हुआ था। वैसे तो पिता के ज़रिये वो सारंगी भी बजा लेते थे, लेकिन धीरे धीरे उनकी रुचि सरोद में हो गई। बहुत ही कम उम्र से सीखने की वजह से उन्होंने इस विधा में महारथ हासिल की और एक नामचीन सरोद वादक के रूप में जाने गये। बृज नारायण कुछ समय तक अपने चाचा चतुर लाल, जो एक प्रसिद्ध तबला नवाज़ थे, से संगीत सीखा, और फिर सरोद नवाज़ उस्ताद अली अकबर ख़ान साहब से भी उन्हें दिल्ली में सीखने का मौका मिला। लेकिन १९६५ में चतुर लाल के निधन हो जाने की वजह से वो अपने पिता के पास वापस चले गये और उनसे सीखने लगे। इसके दो साल बाद, यानी १९६७ में ही बृज नारायण ने राष्ट्रपति द्वारा पदत्त स्वर्णपदक अपने नाम कर लिया आकाशवाणी के सर्वश्रेषठ वादक प्रतियोगिता के ज़रिये। ६० के दशक के ही आख़िर में वो एक फ़िल्म के विषय भी बने, १९६९ में अपने पिता के साथ अफ़ग़ानिस्तान में एक सांस्कृतिक सम्मेलन में हिस्सा लेने गये, और भारत संगीत सभा के स्कॊलर भी बनें। १९७२ में नारायण बम्बई विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसी साल म्युनिक ऒलीम्पिक्स में उन्होंने अपना वादन प्रस्तुत किया। ७० और ८० के दशकों में उन्होंने अफ़्रीका, यूरोप और अमेरिका के बहुत सारे टूर किए और उनके कई ऐल्बम्स भी रेकॊर्ड हुए। तबला नवाज़ उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के साथ भी उनका एक ऐल्बम बना है।

और अब थोड़ी बातें आज के राग की। जैसा कि हमने बताया आज हम पंडित बृज नारायण से सुनेंगे राग श्री, यह राग एक प्राचीन उत्तर भारतीय राग है पूर्वी ठाट का। इसे भगवान शिव से जोड़ा जाता है। यह राग सिख धर्म में गाया जाता है गुरु ग्रंथ साहिब के तहत। गुरु ग्रंथ साहिब में कुल ३१ राग हैं और उसमें राग श्री सब से पहले आता है। गुरु ग्रंथ साहिब के १४ से लेकर ९४ पृष्ठों में जो कम्पोज़िशन है, वो इसी राग में है। राग श्री को मुख्यत: धार्मिक अनुष्ठानों के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है और संगीत के प्राचीन लेखों में इस राग का उल्लेख हमें मिलता है। श्री एक दुर्लभ राग है और रोज़ मर्रा की ज़िंदगी में इस राग का ज़िक्र सुनने को नहीं मिलता। लेकिन उत्तरी भारत के शास्त्रीय संगीत का यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण राग है। पारम्परिक तौर पर इस राग को सूर्यास्त के समय गाया जाना चाहिए। राग श्री का मूड तेजस्वी अंदाज़ और प्रार्थना का मिश्रण है। गुरु नानक, गुरु अमर दास, गुरु राम दास और गुरु अर्जन ने इसी राग को आधार बनाकर कई शबद कम्पोज़ किये हैं। लगभग १४२ शबद इस राग पर गाये जाते हैं। यह अफ़सोस की ही बात है कि हमारे फ़िल्मी संगीतकारों ने इस राग पर गानें कम्पोज़ नहीं किए। तो लीजिए प्रस्तुत है सरोद पर पंडित बृज नारायण का बजाया राग श्री।

सरोद वादन - राग श्री - पंडित बृज नारायण


पंडित बृज नारायण ने १९७८ की फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' में सरोद बजाया था और १९८८ की फ़िल्म 'दि बेंगॊली नाइट' में संगीत भी दिया था जिसका निर्माण किया था निकोलास क्लोट्ज़ ने और जिसमें मुख्य भूमिका ह्यु ग्राण्ट ने निभाया था। फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' का जो शीर्षक गीत है लता जी की आवाज़ में, उसकी शुरुआत ही बृज नारायण के बजाये सरोद से होती है और इंटरल्युड्स में भी सरोद के ख़ूबसूरत पीसेस सुनने को मिलते हैं। आज जब हम बृज जी पर सुर संगम का यह अंक प्रस्तुत कर रहे हैं, ऐसे में इस गीत को सुनवाये बग़ैर अगर हम यह अंक समाप्त कर देंगे तो शायद यह अधूरा ही रह जायेगा। इस गीत को सुनवाने से पहले आपको बता दें कि इस फ़िल्म में संगीत है लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का और गीतकार हैं आनंद बक्शी। जब यह फ़िल्म बन रही थी तो इसका शीर्षक 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' फ़ाइनल हो चुका था, और संगीतकार जोड़ी एल.पी एक बहुत प्यारे धुन पर इस शीर्षक को बिठा भी चुके थे। लेकिन "मैं तुलसी तेरे आंगन की', इस शीर्षक के लिए दूसरी पंक्ति नहीं मिल रही थी। इस समस्या के निदान के लिए फ़िल्म के निर्देशक राज खोसला और एल.पी पहुँच गये आनंद बक्शी साहब के पास और उन्हें अपनी समस्या बतायी। पहली पंक्ति सुनते ही बक्शी साहब ने झट से दूसरी पंक्ति कह दी "कोई नहीं मैं तेरे साजन की"; और खोसला तथा एल.पी, चमत्कृत हो गये। तो आइए इस ख़ूबसूरत गीत को सुनते हैं, जिसमें सरोद के साथ साथ आपको शहनाई और सितार के भी सुरीली तानें सुनने को मिलेंगी। फ़िल्म में यह गीत अलग अलग भागों में आता है। तो आइए सुनते हैं राग पहाड़ी पर आधारित इस गीत को।

गीत - मैं तुलसी तेरे आंगन की


तो ये था आज का सुर-संगम जिसमें हमने आपको सरोद नवाज़ पंडित बृज नारायण का बजाया राग श्री सुनवाया, और साथ ही फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' का शीर्षक गीत भी सुनवाया जिसमें पंडित जी ने सरोद बजाया था। अगले सप्ताह फिर किसी नामचीन शास्त्रीय कलाकार के साथ हम उपस्थित होंगे, अब आज्ञा दीजिए, और शाम को ठीक ६:३० बजे वापस आइएगा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। नमस्कार!

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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