Saturday, July 16, 2011

अदभुत प्रतिभा की धनी गायिका मिलन सिंह से बातचीत



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 50

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, यूं तो यह साप्ताहिक विशेषांक है, पर इस बार का यह अंक वाक़ई बहुत बहुत विशेष है। इसके दो कारण हैं - पहला यह कि आज यह स्तंभ अपना स्वर्ण जयंती मना रहा है, और दूसरा यह कि आज हम जिस कलाकार से आपको मिलवाने जा रहे हैं, वो एक अदभुत प्रतिभा की धनी हैं। इससे पहले कि हम आपका परिचय उनसे करवायें, हम चाहते हैं कि आप नीचे दी गई ऑडिओ को सुनें।

मेडली गीत


कभी मोहम्मद रफ़ी, कभी किशोर कुमार, कभी गीता दत्त, कभी शम्शाद बेगम, कभी तलत महमूद और कभी मन्ना डे के गाये हुए इन गीतों की झलकियों को सुन कर शायद आपको लगा हो कि चंद कवर वर्ज़न गायक गायिकाओं के गाये ये संसकरण हैं। अगर ऐसा ही सोच रहे हैं तो ज़रा ठहरिए। हाँ, यह ज़रूर है कि ये सब कवर वर्ज़न गीतों की ही झलकियाँ थीं, लेकिन ख़ास बात यह कि इन्हें गाने "वालीं" एक ही गायिका हैं। जी हाँ, यह सचमुच चौंकाने वाली ही बात है कि इस गायिका को पुरुष और स्त्री कंठों में बख़ूबी गा सकने की अदभुत शक्ति प्राप्त है। अपनी इस अनोखी प्रतिभा के माध्यम से देश-विदेश में प्रसिद्ध होने वालीं इस गायिका का नाम है मिलन सिंह।

पिछले दिनों जब मेरी मिलन जी से फ़ेसबूक पर मुलाक़ात हुई तो मैंने उनसे एक इंटरव्यू की गुज़ारिश कर बैठा। और मिलन जी बिना कोई सवाल पूछे साक्षात्कार के लिए तैयार भी हो गईं, लेकिन उस वक़्त वो बीमार थीं और उनका ऑपरेशन होने वाला था। इसलिए उन्होंने यह वादा किया कि ऑपरेशन के बाद वो ज़रूर मेरे सवालों के जवाब देंगी। मैंने इंतज़ार किया, और उनके ऑपरेशन के कुछ दिन बाद जब मैंने उनके वादे का उन्हें याद दिलाया तो वादे को अंजाम देते हुए उन्होंने मेरे सवालों का जवाब दिया, हालाँकि बातचीत बहुत लम्बी नहीं हो सकी उनकी अस्वस्थता के कारण। तो आइए 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आज आपका परिचय करवाएँ दो आवाज़ों में गाने वाली गायिका मिलन सिंह से।

सुजॉय - मिलन जी, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युम' के 'आवाज़' मंच पर। हमें ख़ुशी है कि अब आप स्वस्थ हो रही हैं।

मिलन सिंह - बहुत बहुत शुक्रिया आपका।

सुजॉय - मिलन जी, आप कहाँ की रहनेवाली हैं? और आपने गाना कब से शुरु किया था?

मिलन सिंह - मैं यू.पी से हूँ, ईटावा करके एक जगह है, वहाँ की मैं हूँ।

सुजॉय - आप जिस वजह से मशहूर हुईं हैं, वह है नर और नारी, दोनो कंठों में गा पाने की प्रतिभा की वजह से। तो यह बताइए कि किस उम्र में आपनें यह मह्सूस किया था कि आपके गले से दो तरह की आवाज़ें निकलती हैं?

मिलन सिंह - जब मैं ११ साल की थी, तब हालाँकि उम्र के हिसाब से बहुत छोटी थी और आवाज़ उतनी मच्योर नहीं हुई थी, पर कोई भी मेरी दोनो तरह की आवाज़ों में अंतर को स्पष्ट रूप से महसूस कर लेता था।

सुजॉय - आपके गाये गीतों को सुनते हैं तो सचमुच हैरानी होती है कि यह कैसे संभव है। हाल ही में आपके वेबसाइट पर आपके दो आवाज़ों में गाया हुआ लता-रफ़ी डुएट "यूंही तुम मुझसे बात करती हो" सुना और अपनी पत्नी को भी सुनवाया। वो तो मानने के लिए तैयार ही नहीं कि इसे किसी "एक गायिका" नें गाया है। तो बताइए कि किस तरह से आप इस असंभव को संभव करती हैं?

मिलन सिंह - इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है, यह ईश्वर की देन है बस! It is 100% God's gift to me.

सुजॉय - मुझे पता चला कि रफ़ी साहब आपकी पसंदीदा गायक रहे हैं, और आप उनके गीत ही ज़्यादा गाती आईं हैं और वो भी उनके अंदाज़ में। इस बारे में कुछ कहना चाहेंगी? सिर्फ़ रफ़ी साहब ही क्यों, आपनें सहगल, तलत महमूद, किशोर कुमार, हेमन्त कुमार आदि गायकों के स्टाइल को भी अपनाया है इनके गीतों को गाते वक़्त।

मिलन सिंह - इन कालजयी कलाकारों की नकल करने की जुर्रत कोई नहीं कर सकता, तो मैं क्या चीज़ हूँ? बस इतना है कि मैंने इन कलाकारों को गुरु समान माना है; इसलिए जब कभी इनके गीत गाती हूँ तो इन्हें ध्यान में रखते हुए इनके स्टाइल में गाने की कोशिश करती हूँ। मैं फिर से कहूंगी कि यह भी ईश्वर की देन है। ईश्वर मुझ पर काफ़ी महरबान रहे हैं।

सुजॉय - दो आवाज़ों में आपनें बहुत सारे लता जी और रफ़ी साहब के युगल गीतों को गाया है। आपका पसंदीदा लता-रफ़ी डुएट कौन सा है?

मिलन सिंह - लिस्ट इतनी लम्बी है कि उनमें से किसी एक गीत को चुनना बहुत मुश्किल है। फिर भी मैं चुनूंगी "कुहू कुहू बोले कोयलिया", "ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं", "पत्ता पत्ता बूटा बूटा", "वो हैं ज़रा ख़फ़ा ख़फ़ा" को।

सुजॉय - आप कभी लता जी और रफ़ी साहब से मिली हैं?

मिलन सिंह - जी हाँ, रफ़ी साहब से मैं मिली हूँ पर लता जी से मिलने का सौभाग्य अभी तक नहीं हुआ। पर मैं उन्हें लाइव कन्सर्ट में सुन चुकी हूँ।

सुजॉय - यहाँ पर हम अपने श्रोताओं को आपकी आवाज़ में रफ़ी साहब के लिए श्रद्धांजली स्वरूप एक गीत सुनवाना चाहेंगे।

गीत - रफ़ी साहब को मिलन सिंह की श्रद्धांजली


सुजॉय - मुझे याद है ८० के दशक में रेडियो में एक गीत आता था "रात के अंधेरे में, बाहों के घेरे में", और उस गीत के साथ गायिका का नाम मिलन सिंह बताया जाता था। क्या यह आप ही का गाया हुआ गीत है?

मिलन सिंह - जी हाँ, मैंने ही वह गीत गाया था।

सुजॉय - कैसे मिला था यह मौका फ़िल्म के लिए गाने का?

मिलन सिंह - दरअसल उस गीत को किसी और गायिका से गवाया जाना था, एक नामी गायिका जिनका नाम मैं नहीं लूंगी, पर फ़िल्म के निर्माता और उस गायिका के बीच में कुछ अनबन हो गई। तब फ़िल्म के संगीतकार सुरिंदर कोहली जी, जो मुझे पहले सुन चुके थे, उन्होंने मुझे इस गीत को गाने का मौका दिया।

सुजॉय - मिलन जी, 'रात के अंधेरे में' फ़िल्म के इस गीत को बहुत ज़्यादा नहीं सुना गया, इसलिए बहुत से लोगों नें इसे सुना नहीं होगा, तो क्यों न आगे बढ़ने से पहले आपके गाये इस फ़िल्मी गीत को सुन लिया जाए?

मिलन सिंह - जी ज़रूर!

गीत - रात के अंधेरे में (फ़िल्म- रात के अंधेरे में, १९८६)


सुजॉय - मिलन जी, 'रात के अंधेरे में' फ़िल्म का यह गीत तो रेडियो पर ख़ूब बजा था, पर इसके बाद फिर आपकी आवाज़ फ़िल्मी गीतों में सुनाई नहीं दी। इसका क्या कारण था?

मिलन सिंह - उसके बाद मैंने कुछ प्रादेशिक और कम बजट की हिंदी फ़िल्मों के लिए गानें गाए ज़रूर थे, लेकिन मेरे अंदर "कैम्प-कल्चर" का हुनर नहीं था, जिसकी वजह से मुझे कभी बड़ी बजट की फ़िल्मों में गाने का अवसर नहीं मिला। यह मेरी ख़ुशनसीबी थी कि टिप्स म्युज़िक कंपनी नें मेरे गीतों के कई ऐल्बम्स निकाले जो सुपर-हिट हुए और मुझे ख़ूब लोकप्रियता मिली। मेरा जितना नाम हुआ, मुझे जितनी शोहरत और सफलता मिली, वो इन सुपरहिट ऐल्बम की वजह से ही मिली।

सुजॉय - इन दिनों आप क्या कर रही हैं? क्या अब भी स्टेज शोज़ करती हैं?

मिलन सिंह - मैंने स्टेज शोज़ कभी नहीं छोड़ा, हाँ, एक ब्रेक ज़रूर लिया है अस्वस्थता के कारण। अभी अभी मैं संभली हूँ, तो इस साल बहुत कुछ करने का इरादा है, देश में भी और विदेश में भी।

सुजॉय - बहुत बहुत शुक्रिया मिलन जी! अस्वस्थता के बावजूद आपनें हमें समय दिया, बहुत अच्छा लगा। आपको हम सब की तरफ़ से एक उत्तम स्वास्थ्य की शुभकामनाएँ देते हुए आपसे विदा लेता हूँ, नमस्कार!

मिलन सिंह - बहुत बहुत शुक्रिया!

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तो दोस्तों, यह था नर और नारी, दोनों कंठों में गाने वाली प्रसिद्ध गायिका मिलन सिंह से बातचीत। मिलन जी के बारे में विस्तार से जानने के लिए आप उनकी वेबसाइट www.milansingh.com पर पधार सकते हैं।

और अब एक विशेष सूचना:

२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

तो इसी के साथ अब आज का यह अंक समाप्त करने की अनुमति दीजिये। कल से शुरु होने वाली 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला में आपके साथी होंगे कृष्णमोहन मिश्र, और मैं आपसे फिर मिलूंगा अगले शनिवार के विशेषांक में। अब दीजिये अनुमति, नमस्कार!

अनुराग शर्मा की कहानी "टोड"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की कहानी "लागले बोलबेन" का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "टोड", उन्हीं की आवाज़ में। कहानी "टोड" का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 4 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!"
(अनुराग शर्मा की "टोड" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#137th Story, Toad: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/18. Voice: Anurag Sharma

Thursday, July 14, 2011

रस के भरे तोरे नैन....हिंदी फ़िल्मी गीतों में ठुमरी परंपरा पर आधारित इस शृंखला को देते हैं विराम इस गीत के साथ



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 700/2011/140

भारतीय फिल्मों में ठुमरियों के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के समापन अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| पिछली 19 कड़ियों में हमने आपको फिल्मों में 40 के दशक से लेकर 80 के दशक तक शामिल की गईं ठुमरियों से न केवल आपका परिचय कराने का प्रयत्न किया, बल्कि ठुमरी शैली की विकास-यात्रा के कुछ पड़ावों को रेखांकित करने का प्रयत्न भी किया| आज के इस समापन अंक में हम आपको 1978 में प्रदर्शित फिल्म "गमन" की एक मनमोहक ठुमरी का रसास्वादन कराएँगे; परन्तु इससे पहले वर्तमान में ठुमरी गायन के सशक्त हस्ताक्षर पण्डित छन्नूलाल मिश्र से आपका परिचय भी कराना चाहते हैं|

एक संगीतकार परिवार में 3 अगस्त,1936 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद में जन्में छन्नूलाल मिश्र की प्रारम्भिक संगीत-शिक्षा अपने पिता बद्रीप्रसाद मिश्र से प्राप्त हुई| बाद में उन्होंने किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खान से घरानेदार गायकी की बारीकियाँ सीखीं| जाने-माने संगीतविद ठाकुर जयदेव सिंह का मार्गदर्शन भी श्री मिश्र को मिला| निरन्तर शोधपूर्ण प्रवृत्ति के कारण उनकी ख्याल गायकी में कई घरानों की विशेषताओं के दर्शन होते हैं| पूरब अंग की उपशास्त्रीय गायकी के वह एक सिद्ध कलासाधक हैं| उनकी ठुमरी गायकी में जहाँ पूरब अंग की चैनदारी और ठहराव होता है वहीं पंजाब अंग की लयकारी का आनन्द भी मिलता है| संगीत के साथ-साथ छन्नूलाल जी ने साहित्य का भी गहन अध्ययन किया है| तुलसी और कबीर के साहित्य का जब वह स्वरों में निबद्ध कर गायन करते है, तब साहित्य का पूरा दर्शन स्वरों से परिभाषित होने लगता है| पण्डित छन्नूलाल मिश्र को वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2001 में तानसेन सम्मान तथा 2010 में पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया|

आज जो ठुमरी हम आपको सुनवाने जा रहे हैं, वह राग भैरवी में निबद्ध पूरब अंग की बेहद आकर्षक ठुमरी है| इस परम्परागत ठुमरी को उपशास्त्रीय गायिका हीरादेवी मिश्र ने अपने स्वरों से एक अलग रंग में ढाल दिया है| 1978 में प्रदर्शित मुज़फ्फर अली की फिल्म "गमन" में शामिल होने से पूर्व यह परम्परागत ठुमरी अनेक प्रसिद्ध गायक-गायिकाओं के स्वरों में बेहद लोकप्रिय थी| मूलतः श्रृंगार-प्रधान ठुमरी अपने समय की सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान के स्वर में अत्यन्त चर्चित हुई थी| इसके अलावा उस्ताद बरकत अली खान ने सटीक पूरब अंग शैली में दीपचन्दी ताल में गाया है| गायिका रसूलन बाई ने इसी ठुमरी को जत ताल में गाया है| विदुषी गिरिजा देवी ने स्थायी के बोल -"रस के भरे तोरे नैन..." के स्थान पर -"मद से भरे तोरे नैन..." परिवर्तित कर श्रृंगार भाव को अधिक मुखर कर दिया है| परन्तु फिल्म गमन में हीरादेवी मिश्र ने इसी ठुमरी में श्रृंगार के साथ-साथ भक्ति रस का समावेश अत्यन्त कुशलता से करके ठुमरी को एक अलग रंग दे दिया है|

गायिका हीरादेवी मिश्र जाने-माने संगीतज्ञ पण्डित कमल मिश्र की पत्नी थीं और पूरब अंग में ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती आदि की अप्रतिम गायिका थीं| फिल्म "गमन" के लिए उन्होंने इस ठुमरी के प्रारम्भ में एक पद -"अरे पथिक गिरिधारी सूँ इतनी कहियो टेर..." जोड़ कर और अन्तरे के शब्दों को बोल-बनाव के माध्यम से भक्ति रस का समावेश जिस सुगढ़ता से किया है, वह अनूठा है| फिल्म के संगीतकार हैं जयदेव, जिन्होंने ठुमरी के मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं किया किन्तु सारंगी, बाँसुरी और स्वरमण्डल के प्रयोग से ठुमरी की रसानुभूति में वृद्धि कर दी| आइए सुनते हैं; श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की यह समापन प्रस्तुति-

राग भैरवी : आजा साँवरिया तोहें गरवा लगा लूँ , रस के भरे तोरे नैन..." : फिल्म - गमन



आपको यह श्रृंखला कैसी लगी, हमें अवगत अवश्य कराएँ| इस श्रृंखला को विराम देने से पहले इस श्रृंखला में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए मैं कानपुर के संगीत-प्रेमी और संगीत-पारखी डा. रमेश चन्द्र मिश्र और लखनऊ के भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर विदुषी कमला श्रीवास्तव का कृतज्ञ हूँ| डा. मिश्र के फ़िल्मी ठुमरियों के संग्रह ने इस श्रृंखला के लिए ठुमरी-चयन में मेरा बहुत सहयोग किया| इसके अलावा बोल-बनाव की ठुमरियों के चयन में भी उनके सहयोग के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ| प्रोफ़ेसर कमला श्रीवास्तव जी ने ठुमरियों के रागों के बारे में मेरा मार्गदर्शन किया| इस आभार प्रदर्शन के साथ ही मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सभी पाठकों-श्रोताओं से श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" को यहीं विराम देने की अनुमति चाहता हूँ|

क्या आप जानते हैं...
कि आज १४ जुलाई, संगीतकार मदन मोहन की पुण्यतिथि है। १९७५ में स्वल्पायु में ही उनकी मृत्यु हुई थी। निराशा में घिर कर अपने आप को शराब में डूबोने की उनकी आदत उनके जीवन के लिए घातक सिद्ध हुई।

आज पहेली को देते हैं एक दिन का विराम, क्योंकि आज हम जानना चाहते हैं कि ७०० एपिसोडों की इस महायात्रा को हमारे नियमित श्रोता किस रूप में देखते हैं, हम आपको सुनना चाहते हैं आज, कृपया अपने विचार रखें, हमें खुशी होगी

पिछली पहेली का परिणाम -
एक और शृंखला अमित जी के नाम रही, बहुत बहुत बधाई जनाब.
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, July 13, 2011

"सैयाँ रूठ गए, मैं मनाती रही..." रूठने और मनाने के बीच विरहिणी नायिका का अन्तर्द्वन्द्व



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 699/2011/139

पशास्त्रीय संगीत की अत्यन्त लोकप्रिय शैली -ठुमरी के फिल्मों में प्रयोग विषयक श्रृंखला "रस के भरे तोते नैन" की उन्नीसवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ| दोस्तों; आज का अंक आरम्भ करने से पहले आपसे दो बातें करने की इच्छा हो रही है| इस श्रृंखला को प्रस्तुत करने की योजना जब सुजॉय जी ने बनाई तब से सैकड़ों फ़िल्मी ठुमरियाँ मैंने सुनी, किन्तु इनमे से भक्तिरस का प्रतिनिधित्व करने वाली एक भी ठुमरी नहीं मिली| जबकि आज मुख्यतः श्रृंगार, भक्ति, आध्यात्म और श्रृंगार मिश्रित भक्ति रस की ठुमरियाँ प्रचलन में है| पिछली कड़ियों में हमने -कुँवरश्याम, ललनपिया, बिन्दादीन महाराज आदि रचनाकारों का उल्लेख किया था, जिन्होंने भक्तिरस की पर्याप्त ठुमरियाँ रची हैं| परन्तु फिल्मों में सम्भवतः ऐसी ठुमरियों का अभाव है| पिछले अंकों में हम यह भी चर्चा कर चुके हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों से तवायफों के कोठे से हट कर जनसामान्य के बीच ठुमरी का प्रचलन आरम्भ हो चुका था| देश के स्वतंत्र होने तक ठुमरी अनेक राष्ट्रीय और प्रादेशिक महत्त्व के संगीत समारोहों के प्रतिष्ठित मंच पर शोभा पा चुकी थी| परन्तु फिल्मों में पाँचवें से लेकर आठवें दशक तक ठुमरी का चित्रण तवायफों के कोठों तक ही सीमित रहा|

चौथे दशक की फ़िल्मी ठुमरियों से आरम्भ हमारी यह श्रृंखला अब आठवें दशक में पहुँच चुकी है| आज हम जो ठुमरी प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह 1978 में प्रदर्शित फिल्म "मैं तुलसी तेरे आँगन की" से लिया गया है| परन्तु इससे पहले आपका परिचय वर्तमान ठुमरी-कलासाधक पण्डित अजय चक्रवर्ती से कराना आवश्यक है| श्री चक्रवर्ती वर्तमान में ठुमरी ही नहीं, एक श्रेष्ठ ख़याल गायक के रूप में लोकप्रिय हैं| 1953 में जन्में अजय चक्रवर्ती को प्रारम्भिक संगीत शिक्षा अपने पिता अजीत चक्रवर्ती, पन्नालाल सामन्त और कन्हाईदास बैरागी से प्राप्त हुई| संगीत की उच्चशिक्षा उन्हें (पद्मभूषण) ज्ञानप्रकाश घोष से मिली| अजय चक्रवर्ती को घरानेदार गायकी की दीक्षा, पटियाला (कसूर) घराने के संवाहक उस्ताद मुनव्वर अली खाँ (उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ के सुपुत्र) ने दी| आज वह पटियाला गायकी के सिद्ध गायक हैं| रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी स्नातकोत्तर अजय चक्रवर्ती, पहले ऐसे शास्त्रीय गायक हैं, जिन्हें फिल्म-पार्श्वगायन के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हो चुका है| 1990 की बाँग्ला फिल्म "छन्दोंनीर" के गीत -"डोलूँ ओ चम्पाबोनेर..." को 1990 का सर्वश्रेष्ठ पुरुष स्वर का गीत चुना गया था| इस गीत के गायक अजय चक्रवर्ती को रास्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के अन्तर्गत "रजत कमल" से सम्मानित किया गया था| वर्तमान में श्री चक्रवर्ती देश के जाने-माने शास्त्रीय-उपशास्त्रीय गायक हैं|

आइए अब हम आज की ठुमरी और उसकी गायिका (पद्मभूषण) शोभा गुर्टू के बारे में कुछ चर्चा करते हैं| सुप्रसिद्ध उपशास्त्रीय गायिका शोभा गुर्टू का जन्म 8 फरवरी,1925 को बेलगाम, कर्नाटक में हुआ था| उनकी प्रारम्भिक संगीत-शिक्षा अपनी माँ मेनका बाई शिरोडकर से हुई जो जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया खाँ की शिष्या थीं| उस्ताद अल्लादिया खाँ के सुपुत्र भुर्जी खाँ ने शोभा गुर्टू को प्रशिक्षित किया| इसके अलावा उस्ताद नत्थन खाँ से शास्त्रीय और उस्ताद गम्मन खाँ से उपशास्त्रीय संगीत का विशेष प्रशिक्षण भी शोभा जी को प्राप्त हुआ| शोभा गुर्टू को उपशास्त्रीय गायन में बहुत प्रसिद्धि मिली, जबकि वो ख़याल गायकी में भी समान रूप से दक्ष थीं| उनकी गायकी पर आश्चर्यजनक रूप से उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और बेगम अख्तर की शैली का प्रभाव था| उनकी श्रृंगार पक्ष की गायकी श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित होती थी तथा अध्यात्मिक गायकी पर कबीर का प्रभाव था| कबीर की पुत्री कमाली के नाम से जिन पदों को चिह्नित किया जाता है, ऐसे पदों के गायन में वो अत्यन्त कुशल थीं| उनका विवाह से पूर्व नाम भानुमती शिरोडकर था जो श्री विश्वनाथ गुर्टू से विवाह कर लेमे के बाद बदल कर शोभा गुर्टू हो गया था| 1987 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और २००२ में पद्मभूषण सम्मान सहित अन्य अनेक सम्मानों से अलंकृत किया गया था| शोभा गुर्टू के व्यक्तित्व और कृतित्व की अधिक जानकारी के लिए आप हमारे साप्ताहिक स्तम्भ "सुर संगम" के 22 वें अंक का अवलोकन कर सकते हैं|

आइए अब सुनते हैं 1978 की फिल्म "मैं तुलसी तेरे आँगन की" से ली गई राग "पीलू" की श्रृंगार रस प्रधान ठुमरी -"सैयाँ रूठ गए मैं मनाती रही..."| शोभा गुर्टू के स्वरों में गायी इस परम्परागत ठुमरी पर फिल्म में अभनेत्री आशा पारेख ने आकर्षक नृत्य प्रस्तुत किया है| यह ठुमरी श्रृंगार के विरह पक्ष को रेखांकित करता है| ठुमरी के दूसरे अन्तरे में हल्का सा प्रकृति-चित्रण भी किया गया है, जो नायिका की विरह-वेदना को बढाता है| इस श्रृंखला में शामिल अन्य कई ठुमरियों की तरह इस ठुमरी का फिल्मांकन भी मुजरे के रूप में ही हुआ है| संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के गीतों को संगीतप्रेमी गीतों में प्रयुक्त ताल वाद्यों के ठेके से पहचान लेते हैं, इस ठुमरी में संगीतकार-द्वय को पहचानने का आप भी प्रयास करें| आप इस रसभरी ठुमरी का आनन्द लीजिए और मैं कृष्णमोहन मिश्र आज आपसे अनुमति लेता हूँ, कल इस श्रृंखला के समापन अंक में आपसे पुनः भेंट होगी, नमस्कार|



क्या आप जानते हैं...
कि 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' और 'बदलते रिश्ते' फ़िल्मों के कुछ गीतों को छोड़कर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साल १९७८ के अधिकांश गीत चलताउ किस्म के ही रहे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 18/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी है
सवाल १ - गायिका पहचाने - 3 अंक
सवाल २ - संगीत संयोजन किसका है - 2 अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - 1 अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित, अवनीश और क्षितिजी को बधाई, इस श्रृंखला में आप सब ने जम कर स्कोर किया है
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, July 12, 2011

कान्हा मैं तोसे हारी...कृष्णलीला से जुड़ी श्रृंगारपूर्ण ठुमरी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 698/2011/138

स श्रृंखला की आरम्भिक कड़ियों में ठुमरी शैली के विकास के प्रसंग में हमने अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार की चर्चा की थी| कथक नृत्य और ठुमरी का विकास नवाब के संरक्षण में ही हुआ था| श्रृंखला की चौथी कड़ी में हमने नवाब के दरबार में सुप्रसिद्ध पखावजी कुदऊ सिंह और नौ वर्षीय बालक बिन्दादीन के बीच अनोखे मुकाबले का प्रसंग प्रस्तुत किया था| यही बालक आगे चल कर कथक नृत्य के लखनऊ घराने का संस्थापक बना| मात्र नौ वर्ष की आयु में दिग्गज पखावजी कुदऊ सिंह से मुकाबला करने वाला बिन्दादीन 12 वर्ष की आयु तक तालों का ऐसा ज्ञाता हो गया, जिससे बड़े-बड़े तबला और पखावज वादक घबराते थे| बिन्दादीन के भाई थे कालिका प्रसाद| ये भी एक कुशल तबला वादक थे| आगे चल कर बिंदादीन कथक नृत्य को शास्त्रोक्त परिभाषित करने में संलग्न हो गए और तालपक्ष कालिका प्रसाद सँभालते थे| विन्ददीन द्वारा विकसित कथक नृत्य में ताल पक्ष का अनोखा चमत्कार भी था और भाव अभिनय की गरिमा भी थी| उन्होंने लगभग 1500 ठुमरियों की रचना भी की, जिनका प्रयोग परम्परागत रूप में आज भी किया जाता है|

बिन्दादीन निःसन्तान थे, किन्तु उनके भाई कालिका प्रसाद के तीन पुत्र- अच्छन महाराज, शम्भू महाराज और लच्छू महाराज थे| इन तीनों को बिन्दादीन महाराज ने प्रशिक्षित किया था| तीनों भाइयों ने आगे चल कर कथक के तीन अलग-अलग दिशाओं में कालिका-बिन्दादीन घराने की कीर्ति-पताका को फहराया| बड़े भाई अच्छन महाराज को बिन्दादीन महाराज का ताल-ज्ञान मिला और उन्होंने कथक के शुद्ध "नृत्त" पक्ष को समृद्ध किया, जबकि शम्भू महाराज को कथक के भाव-अभिनय की कुशलता प्राप्त हुई और उन्होंने इसी अंग को विस्तार दिया| कथक नृत्य में "बैठकी" का अन्दाज अर्थात मंच पर बैठ कर ठुमरी या भजन पर भाव दिखाने में शम्भू महाराज अद्वितीय थे| तीसरे भाई लच्छू महराज की नृत्य-शिक्षा अपने पिता और चाचा से अधिक अग्रज अच्छन महाराज से प्राप्त हुई| वह आरम्भ से ही कथक में प्रयोगवाद के पक्षधर थे| युवावस्था में ही लच्छू महाराज ने फिल्म जगत की ओर रुख किया और फिल्मों के माध्यम से कथक के नये-सरल मुहावरों को घर-घर में पहुँचाया| लच्छू महाराज भारतीय फिल्मों के सबसे सफल नृत्य-निर्देशक हुए हैं| 1959 में प्रदर्शित महत्वाकांक्षी फिल्म "मुग़ल-ए-आज़म" के नृत्य-निर्देशक लच्छू महाराज ही थे, जिन्होंने फिल्म में एक से एक आकर्षक नृत्य-संरचनाएँ तैयार की थी| इसी फिल्म में लच्छू जी ने बिन्दादीन महाराज की एक ठुमरी को भी शामिल किया था| इस ठुमरी की चर्चा से पहले आइए लखनऊ कथक घराने के वर्तमान संवाहक पण्डित बिरजू महाराज के व्यक्तित्व और कृतित्व पर थोड़ी चर्चा करते हैं| बिरजू महाराज (बृजमोहन मिश्र) अच्छन महाराज के सुयोग्य पुत्र हैं| नौ वर्ष की आयु में इनके सिर से पिता का साया हट गया था| अपनी माँ की प्रेरणा, अपने चाचाओं के मार्गदर्शन और इन सबसे बढ़ कर स्वयं अपनी प्रतिभा के बल पर बिरजू महाराज ने अपने पूर्वजों की धरोहर को न केवल सँभाला बल्कि अपने प्रयोगधर्मी वृत्ति से कथक को चहुँमुखी विस्तार दिया| बिरजू महाराज ने अपने पितामह बिन्दादीन महाराज की ठुमरियों को संरक्षित भी किया और उसका विस्तार भी|

बिरजू महाराज ने इन ठुमरियों का कथक नृत्य में भाव प्रदर्शन के लिए तो प्रयोग किया ही, अपने चाचा शम्भू महाराज की तरह बैठकी के अन्दाज़ में भी पारंगत हुए| अपने चाचा लच्छू महाराज की तरह बिरजू महाराज का फिल्मों में योगदान बहुत अधिक तो नहीं है, परन्तु जितना है, वह अविस्मरणीय है| ऊपर की पंक्तियों में फिल्म "मुग़ल-ए-आज़म" में शामिल बिन्दादीन महाराज की ठुमरी का जिक्र हुआ था| राग गारा में निबद्ध यह ठुमरी थी -"मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे...", जिसे लच्छू महाराज ने थोड़ा परिष्कृत कर नृत्य में ढाला था| इसी प्रकार बिरजू महाराज ने 1977 में प्रदर्शित फिल्म "शतरंज के खिलाड़ी" में बिन्दादीन महाराज की ठुमरी -"कान्हा मैं तोसे हारी..." का भाव सहित स्वयं गायन किया था| हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचन्द की कहानी पर विश्वविख्यात फिल्म-शिल्पी सत्यजीत रे ने इस फिल्म का निर्माण किया था| कथानक के अनुरूप 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से पहले ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा अवध की सत्ता हड़पने के प्रसंग फिल्म में यथार्थ रूप से चित्रित किये गए हैं| बिन्दादीन महाराज की यह ठुमरी नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में कथक नृत्य के साथ प्रस्तुत की गई है| वाद्य संगतकारों के साथ स्वयं बिरजू महाराज अभिनेता और गायक के रूप में उपस्थित हैं| राग खमाज की इस ठुमरी को महाराज जी ने भावपूर्ण अन्दाज़ में प्रस्तुत किया है| नृत्यांगना हैं बिरजू महाराज की प्रमुख शिष्या शाश्वती सेन| आइए रसास्वादन करते हैं बिन्दादीन महाराज की कृष्णलीला से जुड़ी श्रृंगारपूर्ण ठुमरी पण्डित बिरजू महाराज के स्वरों में-



क्या आप जानते हैं...
कि बिन्दादीन महाराज की एक और ठुमरी -"काहे छेड़ छेड़ मोहें गरवा लगाए...." 2002 की फिल्म "देवदास" में भी शामिल थी, जिसे बिरजू महाराज, कविता कृष्णमूर्ति और माधुरी दीक्षित ने स्वर दिया है|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 18/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी है
सवाल १ - राग बताएं - ४ अंक
सवाल २ - किस अभिनेत्री पर फिल्मांकित है ये गीत - ३ अंक
सवाल ३ - गायिका बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी और क्षिति जी एक बार फिर हमारी उम्मीदों पर खरे उतरे हैं, पर यहाँ भी अमित ४ अंक बटोर के ले गए बधाई

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, July 11, 2011

ठाढ़े रहियो ओ बाँके यार...लोक-रस से अभिसिंचित ठुमरी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 697/2011/137

'ओल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला 'रस के भरे तोरे नैन' की सत्रहवीं कड़ी में समस्त ठुमरी-रसिकों का स्वागत है| श्रृंखला के समापन सप्ताह में हम 70 के दशक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों से और वर्तमान में सक्रिय कुछ वरिष्ठ ठुमरी गायक-गायिकाओं से आपका परिचय करा रहे हैं| कल के अंक में हमने पूरब अंग की ठुमरियों की सुप्रसिद्ध गायिका सविता देवी और उनकी माँ सिद्धेश्वरी देवी से आपका परिचय कराया था| आज के अंक में हम विदुषी गिरिजा देवी से आपका परिचय करा रहे हैं|

गिरिजा देवी का जन्म 8 मई 1929 को कला और संस्कृति की नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था| पिता रामदेव राय जमींदार थे और संगीत-प्रेमी थे| उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के संगीत-शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी| गिरिजा देवी के प्रारम्भिक संगीत-गुरु पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र थे| नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त करना आरम्भ किया| नौ वर्ष की आयु में ही एक हिन्दी फिल्म "याद रहे" में गिरिजा देवी ने अभिनय भी किया था| गिरिजा देवी का विवाह 1946 में एक व्यवसायी परिवार में हुआ था| उन दिनों कुलीन विवाहिता स्त्रियों द्वारा मंच प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जाता था| परन्तु सृजनात्मक प्रतिभा का प्रवाह भला कोई रोक पाया है| 1949 में गिरिजा देवी ने अपना पहला प्रदर्शन इलाहाबाद के आकाशवाणी केन्द्र से दिया| यह देश की स्वतंत्रता के तत्काल बाद का उन्मुक्त परिवेश था, जिसमें अनेक रूढ़ियाँ टूटी थीं| संगीत के क्षेत्र में पण्डित विष्णु नारायण भातखंडे और पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने स्वतंत्रता से पहले ही भारतीय संगीत को जन-जन में प्रतिष्ठित करने का जो आन्दोलन छेड़ रखा था, उसका सार्थक परिणाम स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद तेजी से नज़र आने लगा था|

गिरिजा देवी को भी अपने युग की रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा होगा| 1949 में आकाशवाणी से अपने गायन का प्रदर्शन करने के बाद गिरिजा देवी ने 1951 में बिहार के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में अपना गायन प्रस्तुत किया| इसके बाद गिरिजा देवी की अनवरत संगीत-यात्रा जो आरम्भ हुई वह आज तक जारी है| गिरिजा देवी ने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि संगीत के शैक्षणिक और शोध कार्यों में भी अपना योगदान किया| 80 के दशक में उन्हें कोलकाता स्थित आई.टी.सी. संगीत रिसर्च एकेडमी ने आमंत्रित किया| यहाँ रह कर उन्होंने न केवल कई योग्य शिष्य तैयार किये बल्कि शोध कार्य भी कराए| इसी प्रकार 90 के दशक में गिरिजा देवी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से जुड़ीं और अनेक छात्र-छात्राओं को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी| आज भी 82 वर्ष की आयु में वे सक्रिय हैं| गिरिजा देवी को 1972 में "पद्मश्री", 1977 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1989 में "पद्मभूषण" और 2010 में संगीत नाटक अकादमी का फेलोशिप जैसे प्रतिष्ठित सम्मान प्रदान किये गए| गिरिजा देवी आधुनिक और स्वतंत्रता-पूर्व काल की पूरब अंग की बोल-बनाव ठुमरियों की विशेषज्ञ और संवाहिका हैं| आधुनिक उपशास्त्रीय संगीत के भण्डार को उन्होंने समृद्ध किया है|

विदुषी गिरिजा देवी का अभिनन्दन और उनके स्वस्थ-शतायु जीवन की कामना करते हुए अब हम आते हैं आज सुनाई जाने वाली ठुमरी की चर्चा पर| जिस प्रकार विदुषी गिरिजा देवी संगीत के दो युगों का प्रतिनिधित्व करतीं हैं उसी प्रकार आज की ठुमरी फिल्म-संगीत-इतिहास के दो दशकों का प्रतिनिधित्व कर रही है| 60 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में फिल्म "पाकीजा" के निर्माण की योजना बनी थी| फिल्म-निर्माण प्रक्रिया में इतना अधिक समय लग गया कि दो संगीतकारों को फिल्म का संगीत तैयार करना पड़ा| 1972 में प्रदर्शित "पाकीजा" के संगीत के लिए संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने शास्त्रीय रागों का आधार लेकर एक से एक गीतों की रचना की थी| इन्हीं में से एक राग "माँड" में निबद्ध ठुमरी -"ठाढ़े रहियो ओ बाँके यार रे..." थी| आज की शाम हम इसी ठुमरी का उपहार आपको दे रहे हैं| यह परम्परागत ठुमरी नहीं है, इसकी रचना मजरुह सुल्तानपुरी ने की है| परन्तु भावों की चाशनी से पगे शब्दों का कसाव इतना आकर्षक है कि परम्परागत ठुमरी का भ्रम होने लगता है| राजस्थान की प्रचलित लोकधुन से विकसित होकर एक मुकम्मल राग का दर्जा पाने वाले राग "माँड" में निबद्ध होने के कारण नायिका के मन की तड़प का भाव मुखर होता है| ठुमरी में तबले पर दादरा और तीनताल का अत्यन्त आकर्षक प्रयोग किया गया है| गुलाम मोहम्मद ने इस ठुमरी के साथ-साथ चार-पाँच अन्य गीत अपने जीवनकाल में ही रिकार्ड करा लिया था| इसी दौरान वह ह्रदय रोग से पीड़ित हो गए थे| उनके अनुरोध पर फिल्म के दो गीत -"यूँही कोई मिल गया था..." और -"चलो दिलदार चलो..." संगीतकार नौशाद ने रिकार्ड किया| फिल्म "पाकीज़ा" के निर्माण के दौरान ही गुलाम मोहम्मद ने 18 मार्च, 1968 को इस दुनिया से विदा ले लिया| उनके निधन के बाद फिल्म का पार्श्वसंगीत तथा परवीन सुल्ताना, राजकुमारी और वाणी जयराम कि आवाज़ में कुछ गीत नौशाद ने फिल्म में जोड़े| इस कारण गुलाम मोहम्मद के स्वरबद्ध किये कई आकर्षक गीत फिल्म में शामिल नहीं किये जा सके| फिल्म में शामिल नहीं किये गए गीतों को रिकार्ड कम्पनी एच.एम्.वी. ने बाद में "पाकीज़ा रंग विरंगी" शीर्षक से जारी किया था| अन्ततः यह महत्वाकांक्षी फिल्म गुलाम मोहम्मद के निधन के लगभग चार वर्ष बाद प्रदर्शित हुई थी| संगीत इस फिल्म का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष सिद्ध हुआ, किन्तु इसके सर्जक इस सफलता को देखने के लिए हमारे बीच नहीं थे| आइए फिल्म "पाकीज़ा" की ठुमरी -"ठाढ़े रहियो ओ बाँके यार..." में गुलाम मोहम्मद द्वारा की गई सुरों और तालों की नक्काशी की सराहना हम सब करते हैं|



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म "पाकीज़ा" में गुलाम मोहम्मद ने लता मंगेशकर की आवाज़ में राग पहाडी पर आधारित एकल गीत -"चलो दिलदार चलो..." रिकार्ड किया था, परन्तु फिल्म में इसी गीत को लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के युगल स्वरों में नौशाद ने रिकार्ड कर शामिल किया था| एकल गीत में जो प्रवाह और स्वाभाविकता है, वह युगल गीत में नहीं है|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 18/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी है (ध्यान दीजियेगा आज हर सवाल पर एक बोनस अंक है)
सवाल १ - इस ठुमरी पर किस नृत्यांगना के कदम थिरके हैं - ४ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - राग बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी अवनीश जी और क्षिति जी को बहुत बधाई, इंदु जी अवध जी का भी आभार

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, July 10, 2011

"बैयाँ ना धरो.." श्रृंगार का ऐसा रूप जिसमें बाँह पकड़ने की मनाही भी है और आग्रह भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 696/2011/136

श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के तीसरे और समापन सप्ताह के प्रवेश द्वार पर खड़ा मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीतानुरागियों का अभिनन्दन करता हूँ| पिछले तीन सप्ताह की 15 कड़ियों में हमने आपको बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से लेकर सातवें दशक तक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों का रसास्वादन कराया है| श्रृंखला के इस समापन सप्ताह की कड़ियों में हम आठवें दशक की फिल्मों से चुनी हुई ठुमरियाँ लेकर उपस्थित हुए हैं| श्रृंखला के पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक भारतीय संगीत शैलियों को समुचित राजाश्रय न मिलने और तवायफों के कोठों पर फलने-फूलने के कारण सुसंस्कृत समाज में यह उपेक्षित रहा| ऐसे कठिन समय में भारतीय संगीत के दो उद्धारकों ने जन्म लिया| आम आदमी को संगीत सुलभ कराने और इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में पं. विष्णु नारायण भातखंडे (1860) तथा पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872) ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया| इन दोनों 'विष्णु' को भारतीय संगीत का उद्धारक मानने में कोई मतभेद नहीं| भातखंडे जी ने पूरे देश में विस्तृत संगीत को एकत्र कर नई पीढी के सगीत शिक्षण का मार्ग प्रशस्त किया| दूसरी ओर पलुस्कर जी ने पूरे देश का भ्रमण कर संगीत की शुचिता को जन-जन तक पहुँचाया| दोनों विभूतियों के प्रयत्नों का प्रभाव ठुमरी शैली पर भी पड़ा|

भक्ति और आध्यात्मिक भाव की ठुमरियों के रचनाकारों में कुँवरश्याम, ललनपिया और बिन्दादीन महाराज के नाम प्रमुख हैं| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक ठुमरियों सहित चैती, कजरी आदि की रचनाएँ की हैं| सुप्रसिद्ध गायिका गिरिजा देवी भारतेन्दु की रचनाओं को बड़े सम्मान के साथ गातीं हैं| आज हम विदुषी सिद्धेश्वरी देवी और उनकी सुपुत्री सविता देवी की बात करेंगे| उपशास्त्रीय ही नहीं बल्कि शास्त्रीय गायकी के वर्तमान हस्ताक्षरों में एक नाम विदुषी सविता देवी का है| पूरब अंग की ठुमरियों के लिए विख्यात बनारस (वाराणसी) के कलासाधकों में सिद्धेश्वरी देवी का नाम आदर से लिया जाता है| सविता देवी इन्हीं सिद्धेश्वरी देवी की सुपुत्री हैं| संगीत-प्रेमियों के बीच "ठुमरी क्वीन" के नाम से विख्यात सिद्धेश्वरी देवी की संगीत-शिक्षा बचपन में ही गुरु सियाजी महाराज से प्रारम्भ हो गई थी| निःसन्तान होने के कारण सियाजी दम्पति ने सिद्धेश्वरी को गोद ले लिया और संगीत शिक्षा के साथ-साथ लालन-पालन भी किया| बाद में उनकी संगीत-शिक्षा बड़े रामदास जी से भी हुई| बनारस की गायिकाओं में सिद्धेश्वरी देवी, काशी बाई और रसूलन बाई समकालीन थीं| 1966 में उन्हें "पद्मश्री" सम्मान से अलंकृत किया गया| नई पीढी को गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत-शिक्षा को आगे बढाने के लिए 1965 में उन्हें दिल्ली के श्रीराम भारतीय कला केन्द्र आमंत्रित किया गया| लगभग बारह वर्षों तक कला केन्द्र में कार्य करते हुए 1977 में सिद्धेश्वरी देवी का निधन हुआ| 1989 में फिल्मकार मणि कौल ने सिद्धेश्वरी देवी के जीवन और संगीत-दर्शन पर एक वृत्तचित्र "सिद्धेश्वरी" का निर्माण किया था|

सिद्धेश्वरी देवी की सुपुत्री और सुप्रसिद्ध गायिका सविता देवी, दिल्ली में अपनी माँ की स्मृति में "श्रीमती सिद्धेश्वरी देवी भारतीय संगीत अकादमी" की स्थापना कर परम्परागत संगीत को विस्तार दे रही हैं| सविता जी बहुआयामी गायिका हैं| पूरब अंग की उपशास्त्रीय गायकी उन्हें विरासत में प्राप्त है| इसके अलावा किराना घराना की ख़याल गायकी में वह सिद्ध गायिका हैं| सविता देवी ने ख़याल गायकी की शिक्षा पण्डित मणिप्रसाद और पण्डित दिलीपचन्द्र वेदी से प्राप्त की| दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कालेज में संगीत की विभागाध्यक्ष रह चुकीं सविता देवी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातकोत्तर शिक्षा ग्रहण की थी| बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि सविता देवी शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन में जितनी सिद्ध हैं, उतनी ही दक्ष सितार वादन में भी हैं| सविता देवी की गायकी में एक प्रमुख गुण यह है कि जब वे गीत के शब्दों में छिपी वेदना और अध्यात्मिक भावों को परत-दर-परत खोलना शुरू करत्तीं हैं तो श्रोता पूरी तरह उन्ही भावों में डूब जाता है| मुझे आज भी स्मरण है, लगभग ढाई दशक पूर्व बदरीनाथ धाम के पवित्र परिवेश में उनका गायन जारी था| अचानक उन्होंने पूरब अंग में दादरा -"लग गइलें नैहरवा में दाग, धूमिल भईलें चुनरिया..." का गायन प्रारम्भ किया| गीत के शब्दों की जब उन्होंने बोल-बनाव के माध्यम से व्याख्या करना आरम्भ किया तो सभी श्रोताओं की आँखें भींग गईं थी| यहाँ तक कि गायन की समाप्ति पर लोगों को तालियाँ बजाना भी याद नहीं रहा| पता नहीं सविता जी के स्वरों में कैसा जादू है कि वह श्रृंगार रस के गीतों के गायन में भी अध्यात्म के दर्शन करा देतीं हैं|

आज की संध्या में आपको सुनवाने के लिए हमने जो फ़िल्मी ठुमरी चुनी है वह 1970 की फिल्म "दस्तक" से है| श्रृंगार रस से ओतप्रोत इस ठुमरी गीत को लता मंगेशकर ने अपने स्वरों से सँवारा है और इसे अभिनेता संजीव कुमार तथा अभिनेत्री रेहाना सुलतान पर फिल्माया गया है| ठुमरी के बोल हैं -"बैयाँ ना धरो ओ बलमा..."| यद्यपि यह पारम्परिक ठुमरी नहीं है, इसके बावजूद गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी ने ऐसी शब्द-रचना की है कि यह किसी परम्परागत ठुमरी जैसी ही प्रतीत होती है| ग़ज़लों को संगीतबद्ध करने में अत्यन्त कुशल संगीतकार मदनमोहन ने इस ठुमरी को राग "चारुकेशी" में निबद्ध कर श्रृंगार पक्ष को हल्का सा वेदना की ओर मोड़ दिया है, किन्तु सितारखानी और कहरवा तालों के लोच के कारण वेदना का भाव अधिक उभरता नहीं है| आइए, सुनते हैं, श्रृंगार रस से भींगी यह ठुमरी -



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार मदन मोहन को फ़िल्म 'दस्तक' की इसी ठुमरी के लिए उन्हें उनका पहला राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 17/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी नहीं है
सवाल १ - राग बताएं - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी क्या कहने, आप तो वाकई दिग्गज हैं, लगता है हिंदी फिल्म संगीत आप घोंट के पी चुके हैं. क्षिति जी आप भी निरंतर बढ़िया खेल रही हैं बधाई. इंदु जी नाम नहीं लेंगें तो वो नाराज़ हो जाएँगी :) आपको भी बधाई पहुंचे

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

उर्जा से भरी तान और ठेके "टप्पे" के



सुर संगम - 28 - पारंपरिक संगीत शैली - टप्पा

टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है|

सुर-संगम के सभी श्रोता-पाठकों को सुमित चक्रवर्ती का स्नेह भरा नमस्कार! तो कहिए कैसे बीते गर्मियों के दिन? जैसे किसी किसी मुसाफ़िर का मंज़िल पाने पर संघर्ष समाप्त हो जाता है, मानो ठीक उसी प्रकार गर्मियों के ये झुलसा देने वाले दिन भी अब बीत चुके हैं| और आ गयी है वर्षा ऋतु सबके जीवन में हर्ष की नई फुहार लिए| तो हम ने भी सोचा की क्यों न इस बार के अंक में कुछ अलग प्रकार का संगीत चर्चा में लाया जाए| आज का सुर-संगम आधारित है पंजाब व सिंध प्रांतों की प्रसिद्ध उप-शास्त्रीय गायन शैली 'टप्पा' पर|

टप्पा भारत की प्रमुख पारंपरिक संगीत शैलियों में से एक है| यह माना जाता है की इस शैली की उत्पत्ति पंजाब व सिंध प्रांतों के ऊँट चलाने वालों द्वारा की गई थी| इन गीतों में मूल रूप से हीर और रांझा के प्रेम व विरह प्रसंगो को दर्शाया जाता है| खमाज, भैरवी, काफ़ी, तिलांग, झिन्झोटि, सिंधुरा और देश जैसे रागों तथा पंजाबी, पश्तो जैसे तालों द्वारा प्रेम-प्रसंग अथवा करुणा भाव व्यक्त किए जाते हैं| टप्पा की विशेषता हैं इसमें लिए जाने वाले ऊर्जावान तान और असमान लयबद्ध लहज़े| टप्पा गायन को एक लोक-शैली से ऊपर उठाकर एक शास्त्रीय शैली का रूप दिया था मियाँ ग़ुलाम नबी शोरी नें जो अवध के नवाब असफ़-उद्-दौलह के दरबारी गायक थे| इस शैली के बारे में और जानने से पहले क्यों न एक अल्प-विराम ले कर प्रसिद्ध टप्पा गायिका विदुषी मालिनी राजुर्कर द्वारा राग भैरवी में प्रस्तुत इस टप्पे का आनंद लें!

टप्पा - राग भैरवी - विदुषी मालिनी राजुर्कर


टप्पा गायन शैली में ठेठ 'टप्पे के तान' प्रयोग में लाए जाते हैं| पंजाबी ताल, जिसे 'टप्पे का ठेका' भी कहा जाता है, में ताल के प्रत्येक चक्र में तान के खिंचाव और रिहाई का प्रयोग आवश्यक होता है| टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है| टप्पा गायकी में जमजमा, गीतकारी, खटका, मुड़की व हरकत जैसे कई अलंकार प्रयोग में लाए जाते हैं| यह शैली मूलतः ग्वालियर घराने तथा बनारस घराने की विशेषता है| दोनो घरानों के टपपों में ताल और आशुरचना की शैली का उपयोग जैसे कुछ संरचनात्मक मतभेद हैं, लेकिन मौलिक सिद्धांत एक जैसे ही हैं| आइए सुनते हैं ग्वालियर घराने की प्रसिद्ध गायिका श्रीमती शाश्वती मंडल पाल द्वारा राग खमाज में गाए इस टप्पे को|

टप्पा - राग खमाज - शाश्वती मंडल पाल


आज के दौर में टप्पा प्रदर्शन के परिदृश्य में जब कलाकारों की बात आती है तो निस्संदेह सबसे शानदार माना जाता है विदुषी मालिनी राजुर्कर को| ७० के दशक से इन्होंने इस शैली को जनप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है| अपने स्पष्ट व उज्ज्वल तानों से न कावेल इन्होंने कई उत्कृष्ट प्रस्तुतियां दी हैं बल्कि टपपों में मूर्छना जैसी तकनीकों का प्रयोग करा इस शैली को एक नया रूप दिया है| इनके अलावा ग्वालियर घराने से आरती अंकालिकर, आशा खादिलकर, शाश्वती मंडल पाल जैसी गायिकाओं नें इस गायन शैली को लोकप्रिय किया| बनारस घराने से बड़े रामदासजी, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, पंडित गणेश प्रसाद मिश्र तथा राजन व साजन मिश्र जैसे दिग्गजों ने भी इस शैली में उल्लेखनीय प्रस्तुतियाँ दी हैं| आइए आज की चर्चा को समाप्त करते हुए सुनें पंडित गणेश प्रसाद मिश्र द्वारा राग काफ़ी में गाए इस टप्पे को|

टप्पा - राग काफ़ी - पंडित गणेश प्रसाद मिश्र


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: यह सितार से मिलता जुलता वाद्य है जिसमें सितार की तुलना में नीचे के नोट्स का प्रयोग किया जाता है|

पिछ्ली पहेली का परिणाम: क्षिति जी ने एक बार फिर सही उत्तर दिया, अमित जी कहाँ ग़ायब हो गये?

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे सुजॉय के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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