Saturday, December 11, 2010

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (२०) - जब के सुजॉय से सवालों का जवाब दिया महान लता जी ने



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस साप्ताहिक विशेषांक में। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का यह साताफिक स्तंभ पूरा कर रहा है अपना बीसवाँ हफ़्ता। इसी ख़ुशी में आज कुछ बेहद बेहद ख़ास पेश हो रहा है आपकी ख़िदमत में। दोस्तों, आपको मैं बता नहीं सकता कि आज का यह अंक प्रस्तुत करते हुए मैं किस रोमांच से गुज़र रहा हूँ। वो एक आवाज़, जो पिछले ६० सालों से दुनिया की फ़िज़ाओं में अमृत घोल रही है, जिसे इस सदी की आवाज़ होने का गौरव प्राप्त है, जिस आवाज़ में स्वयं माँ सरस्वती निवास करती है, जो आवाज़ इस देश की सुरीली धड़कन है, उस कोकिल-कंठी, स्वर साम्राज्ञी, भारत रत्न, लता मंगेशकर से बातचीत करना किस स्तर के सौभाग्य की बात है, उसका अंदाज़ा आप भली भाँति लगा सकते हैं। जी हाँ, मेरी यह परम ख़ुशनसीबी है कि ट्विटर के माध्यम से मुझे भी लता जी से चंद सवालात करने के मौके नसीब हुए, और उससे भी बड़ी बात यह कि लता जी ने किस सरलता से मेरे उन चंद सवालों के जवाब भी दिए। जितनी मेरी ख़ुशकिस्मती है, उससे कई गुना ज़्यादा बड़प्पन है लता जी का कि इतनी महान कलाकार होते हुए भी वो अपने चाहने वालों के सवालों के जवाब इस सादगी, सरलता और विनम्रता से देती हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि फलदार पेड़ हमेशा झुके हुए ही होते हैं। तो आइए, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में मेरे सवाल और लता जी के जवाब प्रस्तुत करते हैं।

सुजॊय - लता जी, बहुत बहुत नमस्कार, ट्विटर पर आपको देख कर हमें कितनी ख़ुशी हो रही है कि क्या बताऊँ! लता जी, आप ने शांता आप्टे के साथ मिलकर सन्‍ १९४६ की फ़िल्म 'सुभद्रा' में एक गीत गाया था, "मैं खिली खिली फुलवारी"। तो फिर आपका पहला गीत १९४७ की फ़िल्म 'आपकी सेवा में' का "पा लागूँ कर जोरी रे" को क्यों कहा जाता है?

लता जी - नमस्कार! मैंने १९४२ से लेकर १९४६ तक कुछ फ़िल्मों में अभिनय किया था जिनमें मैंने गानें भी गाये थे, जो मेरे उपर ही पिक्चराइज़ हुए थे। १९४७ में 'आपकी सेवा में' में मैंने पहली बार प्लेबैक किया था।

सुजॊय - लता जी, पहले के ज़माने में लाइव रेकॊर्डिंग् हुआ करती थी और आज ज़माना है ट्रैक रेकॊर्डिंग् का। क्या आपको याद कि वह कौन सा आपका पहला गाना था जिसकी लाइव नहीं बल्कि ट्रैक रेकॊर्डिंग् हुई थी?

लता जी - वह गाना था फ़िल्म 'दुर्गेश नंदिनी' का, "कहाँ ले चले हो बता दो मुसाफ़िर, सितारों से आगे ये कैसा जहाँ है", जिसे मैंने हेमन्त कुमार के लिए गाया था।

सुजॊय - लता जी, "ऐ मेरे वतन के लोगों" गीत से पंडित नेहरु की यादें जुड़ी हुई हैं। क्या आपको कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी से भी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है?

लता जी - आदरणीय बापू को मैं मिल ना सकी, लेकिन उन्हें दूर से दर्शन दो बार हुए। आदरणीय पंडित जी और आदरणीया इंदिरा जी को प्रत्यक्ष मिलने का सौभाग्य मुझे कई बार प्राप्त हुआ है।

सुजॊय - लता जी, क्या इनके अलावा किसी विदेशी नेता से भी आप मिली हैं कभी?

लता जी - कई विदेशी लीडर्स से भी मिलना हुआ है जैसे कि प्रेसिडेण्ट क्लिण्टन और क्वीन एलिज़ाबेथ। क्वीन एलिज़ाबेथ ने मुझे चाय पे बुलाया था और मैं बकिंघम पैलेस गई थी उनसे मिलने, श्री गोरे जी के साथ मे, जो उस समय भारत के राजदूत थे।

सुजॊय - लता जी, विदेशी लीडर्स से याद आया कि अगर विदेशी भाषाओं की बात करें तो श्रीलंका के सिंहली भाषा में आपने कम से कम एक गीत गाया है, फ़िल्म 'सदा सुलग' में। कौन सा गाना था वह और क्या आप श्रीलंका गईं थीं इस गीत को रेकॊर्ड करने के लिए?

लता जी - मैंने वह गीत मद्रास (चेन्नई) में रेकॊर्ड किया था और इसके संगीतकार थे श्री दक्षिणामूर्ती। गीत के बोल थे "श्रीलंका त्यागमयी"।

सुजॊय - लता जी, आपने अपनी बहन आशा भोसले और उषा मंगेशकर के साथ तो बहुत सारे युगल गीत गाए हैं। लेकिन मीना जी के साथ बहुत कम गीत हैं। मीना मंगेशकर जी के साथ फ़िल्म 'मदर इण्डिया' फ़िल्म में एक गीत गाया था "दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा"। क्या किसी और हिंदी फ़िल्म में आपने मीना जी के साथ कोई गीत गाया है?

लता जी - मैं और मीना ने 'चांदनी चौक' फ़िल्म में एक गीत गाया था, रोशन साहब का संगीत था, और उषा भी साथ थी।

तो दोस्तों, ये थे चंद सवाल जो मैंने पूछे थे लता जी से, और जिनका लता जी ने बड़े ही प्यार से जवाब दिया था। आगे भी मैं कोशिश करूँगा कि लता जी से कुछ और भी ऐसे सवाल पूछूँ जो आज तक किसी इंटरव्यु में सुनने को नहीं मिला। लेकिन फिलहाल आपको सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'दुर्गेश नंदिनी' का वह प्यारा सा गीत "कहाँ ले चले हो बता दो मुसाफ़िर"। यह लता जी का गाया पहला ट्रैक पे रेकॊर्ड किया हुआ गीत है जैसा कि उपर इन्होंने कहा है। यह १९५६ की फ़िल्म है और इस गीत को लिखा है राजेन्द्र कृष्ण नें।

गीत - कहाँ ले चले हो बता दो मुसाफ़िर (दुर्गेश नंदिनी)


तो ये थी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक बेहद ख़ास प्रस्तुति जब हमने बातें की सुर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर से ट्विटर पर। आज बस इतना ही, रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमित कड़ी के साथ फिर हाज़िर होंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिए, नमस्कार!

गिरिजेश राव की कहानी गेट



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने मृणाल पाण्डेय की संस्मरणात्मक कहानी "लड़कियाँ"" का पॉडकास्ट प्रीति सागर की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं गिरिजेश राव की कहानी "गेट", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी "गेट" का कुल प्रसारण समय 5 मिनट 2 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट एक आलसी का चिठ्ठा पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

"पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं। तफसील पूछोगे तो कह दूँगा,मुझे कुछ नहीं पता "
~ गिरिजेश राव

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"...उसे अपने पर फिर गर्व हो आया था।"
(गिरिजेश राव की कहानी 'गेट' से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#115th Story, Gate: Girijesh Rao/Hindi Audio Book/2010/47. Voice: Anurag Sharma

Thursday, December 9, 2010

मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे...कौन लिख सकता है ऐसा गीत कवि शैलेन्द्र के अलावा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 545/2010/245

हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभों में एक स्तंभ बिमल रॊय पर केन्द्रित लघु शृंखला की पाँचवी और अंतिम कड़ी लेकर हम हाज़िर हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। ६० के दशक की शुरुआत भी बिमल दा ने ज़रबरदस्त तरीक़े से की १९६० में बनी फ़िल्म 'परख' के ज़रिए। एक बार फिर सलिल चौधरी के संगीत ने रसवर्षा की। इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत "ओ सजना बरखा बहार आई" हम सुनवा चुके हैं। इस फ़िल्म की विशेषता यह है कि इसके गीतकार और संगीतकार ने गीत लेखन और संगीत निर्देशन के अलावा भी एक एक और महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जी हाँ, गीतकार शैलेन्द्र ने इस फ़िल्म में गानें लिखने के साथ साथ संवाद भी लिखे, तथा सलिल चौधरी ने संगीत देने के साथ साथ फ़िल्म की कहानी भी लिखी। बिमल दा ने ५० और ६० के दशकों में बारी बारी से सलिल दा और बर्मन दादा के धुनों का सहारा लिया। बिमल दा पर आधारित इस शृंखला का पहला गीत हमने सलिल दा का सुनवाया था, दूसरा गीत अरुण कुमार के संगीत में, और बाक़ी के तीन गीत सचिन दा के संगीत में। 'परख' के बाद १९६२ में आई फ़िल्म 'प्रेमपत्र'। इसमें भी सलिल दा का संगीत था और गीत लिखे थे राजेन्द्र कृष्ण नें। फ़िल्म नहीं चली और फ़िल्म के गानें भी कुछ ख़ास प्रसिद्ध नहीं हो सके। १९६३ में बिमल दा की अंतिम महत्वपूर्ण फ़िल्म आई 'बंदिनी', जिसके बारे में हम अंक- १७७ और १९० में चर्चा कर चुके हैं। १९६४ में 'बेनज़ीर' और 'लाइफ़ ऐण्ड मेसेज ऒफ़ स्वामी विवेकानंद', तथा १९६७ में 'गौतम - दि बुद्ध' जैसी फ़िल्में उन्होंने निर्देशित की। ७ जनवरी १९६६ में बम्बई में उनका निधन हो गया।

पुरस्कारों की बात करें तो बिमल रॊय को बेशुमार पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। आइए मुख्य मुख्य पुरस्कारों पर एक नज़र डालें। उन्होंने सात बार फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार अपने नाम किया, जिसके बारे में हम कल 'क्या आप जानते हैं?' में बता चुके हैं। इनके अलावा फ़िल्मफ़ेयर के ही तहत सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार इन्हें 'दो बीघा ज़मीन', 'मधुमती', 'सुजाता' और 'बंदिनी' के लिए मिला था। 'दो बीघा ज़मीन' को राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था और कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म का पुरस्कार भी इसी फ़िल्म को प्राप्त हुआ। कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में नामांकन पाने वाली बिमल दा की दो और फ़िल्में थीं 'बिराज बहू' और 'सुजाता'। आइए आज बिमल को समर्पित इस अंक में सुनें फ़िल्म 'बंदिनी' से मन्ना डे की आवाज़ में "मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे"। इस गीत को सुनते हुए आज भी जैसे कलेजा छलनी हो जाता है, और आँखें नम हुए बिना नहीं रहतीं। वैसे तो शैलेन्द्र का लिखा यह गीत समर्पित है इस देश के अमर शहीदों को, लेकिन इस गीत के ज़रिए हम बिमल दा के बारे में भी यह कह सकते हैं कि "कल मैं नहीं रहूँगा लेकिन जब होगा अंधियारा, तारों में तू देखेगी हँसता एक नया सितारा"। बिमल रॊय जैसे कलाकार इस दुनिया से जाकर भी कहीं नहीं जाते। भारतीय सिनेमा में उनका योअगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा जा चुका है। फ़िल्मकारों की आज की और आने वाली पीढ़ियों के लिए बिमल दा की फ़िल्में गीता-बाइबिल-क़ुरान से कम नहीं है। बिमल रॊय को 'आवाज़' परिवार का नमन। इसी के साथ बिमल रॊय पर केन्द्रित 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' शृंखला का यह तीसरा खण्ड हुआ पूरा। रविवार से हम शुरु करेंगे इस शृंखला का चौथा और अंतिम खण्ड। अंदाज़ा लगाइए कि उसमें हम किस फ़िल्मकार को याद करेंगे, और फिलहाल आइए सुनते हैं फ़िल्म 'बंदिनी' का यह गीत। इस गीत के बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, बस सुनिए और महसूस कीजिए।



क्या आप जानते हैं...
कि बिमल रॊय की मृत्यु के समय वो दो फ़िल्मों पे काम कर रहे थे - 'अमृत कुंभ' और 'दि महाभारता'। ये दोनों फ़िल्में अधूरी ही रह गयीं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०६ /शृंखला ०५
गीत का प्रील्यूड सुनिए-


अतिरिक्त सूत्र - इससे आसान कुछ हो ही नहीं सकता :).

सवाल १ - किस फिल्मकार का हम करेंगें जिक्र अब - १ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - गायिका न नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
३ अंक आगे हैं अभी भी श्याम जी शृंखला मध्यातर तक आ चुकी है, देखते हैं कौन बनेगा विजेता....प्रतिभा जी बहुत दिनों में दिखी, कहाँ गायब हो जाते हैं आप :) इंदु जी हाजिरी नहीं लगी है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, December 8, 2010

काली घटा छाये मोरा जिया तरसाए.....पर्दे पर नूतन का अभिनय और आशा ताई के स्वर जैसे एक कसक भरी चुभन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 544/2010/244

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस महफ़िल में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है। 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' शृंखला के अंतर्गत इन दिनों आप इसके तीसरे खण्ड में सुन रहे हैं महान फ़िल्मकार बिमल रॊय निर्देशित फ़िल्मों के गानें, और इनके साथ साथ बिमल दा के फ़िल्मी सफ़र पर भी हम अपनी नज़र दौड़ा रहे हैं। कल हमारी बातचीत आकर रुकी थी १९५५ की फ़िल्म 'देवदास' पर। १९५६ में बिमल दा ने एक फ़िल्म तो बनाई, लेकिन उन्होंने ख़ुद इसको निर्देशित नहीं किया। असित सेन निर्देशित यह फ़िल्म थी 'परिवार'। सलिल चौधरी के धुनों से सजी इस फ़िल्म के गानें बेहद मधुर थे, जैसे कि लता-मन्ना का "जा तोसे नहीं बोलूँ कन्हैया" और लता-हेमन्त का "झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे" (इस गीत को हम सुनवा चुके हैं)। बिमल रॊय और सलिल चौधरी की जोड़ी १९५७ में नज़र आई फ़िल्म 'अपराधी कौन' में, और इसके भी निर्देशक थे असित सेन। बिमल दा ने एक बार फिर निर्देशन की कमान सम्भाली बॊम्बे फ़िल्म्स के बैनर तले बनी १९५८ की फ़िल्म 'यहूदी' में। मुकेश के गाये "ये मेरा दीवानापन है" गीत लोकप्रियता के शिखर पर पहूँचा और इसके गीतकार शैलेन्द्र को मिला किसी गीतकार को मिलने वाला पहला फ़िल्म्फ़ेयर पुरस्कार। लेकिन बिमल रॊय की १९५८ की जो सब से उल्लेखनीय फ़िल्म थी, वह थी 'मधुमती'। अब तक बिमल दा सामाजिक मुद्दों पर फ़िल्में बनाते आये थे जिनमें कोई सम्देश हुआ करते थे। लेकिन 'मधुमती' की कहानी बिल्कुल अलग थी। ऋत्विक घटक लिखित पुनर्जनम की एक कहानी को लेकर जब उन्होंने यह फ़िल्म बनाने की सोची तो उनकी बहुत समालोचना हुई। लेकिन जब यह फ़िल्म बनकर प्रदर्शित हुई, वोही समालोचक बिमल दा के लिए तारीफ़ों के पुल बांधते नज़र आए। 'मधुमती' के बारे में हम बहुत कुछ पहले ही आपको बता चुके हैं, क्योंकि इस फ़िल्म के एक नहीं, बल्कि तीन तीन गीत हम सुनवा चुके हैं ("आजा रे परदेसी", "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" और "दिल तड़प तड़प के")। इसलिए आज हम ना तो 'मधुमती' की और चर्चा करेंगे और ना ही इस फ़िल्म का गीत आपको सुनवाएँगे।

साल १९५९। इस साल बिमल रॊय प्रोडक्शन्स के बैनर तले आई फ़िल्म 'सुजाता', जिसका निर्देशन भी बिमल दा ने ही किया। सुनिल दत्त और नूतन अभिनीत इस फ़िल्म की कहानी दुखभरी थी। नवेन्दु घोष की यह कहानी जातिवाद के विषय पर केन्द्रित था, जो आज के समाज में भी उतना ही दृश्यमान है। जहाँ तक फ़िल्म के गीत संगीत का सवाल है, तो सचिन देव बर्मन का संगीत और मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों ने एक बार फिर अपना कमाल दिखाया। यह दौर था लताजी और सचिन दा के बीच चल रही ग़लतफ़हमी का, इसलिए फ़िल्म के गाने आशा भोसले और गीता दत्त ने ही गाये। गायकों में शामिल थे मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद, और एक गीत "सुन मेरे बंधु रे" तो सचिन दा ने ही गाया था। आज हम आपको सुनवा रहे हैं आशा भोसले की आवाज़ में इस फ़िल्म से एक बहुत ही सुंदर रचना "काली घटा छाये मोरा जिया तरसाये, ऐसे में कोई कहीं मिल जाए, बोलो किसी का क्या जाए"। बारिश और बादलों के जौनर के गीतों में यह एक बहुत ही उत्कृष्ट गीत है। बारिश और सावन के आने के साथ साथ नायिका का अकेलापन और उसके दिल से निकलती आह को क्या ख़ूब शब्दों में पिरोया है मजरूह साहब ने! "बोलो किसी का क्या जाये" ने तो गाने में चार चाँद लगा दी है। सूनेपन और ख़ालीपन को दर्शाने के लिए साज़ों का भी कम से कम प्रयोग बर्मन दादा ने इस गीत में किया है। इंटरल्युड संगीत में सितार और बांसुरी का सुंदर तालमेल सुनने को मिलता है, जैसे पहले बारिश की फुहारें धरती पर पड़ रही हों। आशा भोसले की नटखट नाज़ भरी अदायगी के पीछे राग पीलू के सुरों का सुंदर प्रयोग हो तो गीत तो कालजयी बनेगा ही! लीजिए, अब आप भी इस गीत को सुनिए और दिल से महसूस कीजिए।



क्या आप जानते हैं...
कि बिमल का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार कुल सात बार मिला था। ये फ़िल्में थीं - 'दो बीघा ज़मीन', 'परिणीता', 'बिराज बहू', 'मधुमती', 'सुजाता', 'परख' और 'बंदिनी'।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०५ /शृंखला ०५
गीत का इंटर ल्यूड सुनिए-


अतिरिक्त सूत्र - बिमल रॉय की इस फिल्म को एक क्लास्सिक कहा जा सकता है.

सवाल १ - गायक कौन हैं इस देशभक्ति गीत के - १ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी लौटे तो हैं पर क्या अब वो श्याम जी को पीछे छोड़ पायेंगें....ये एक बड़ा सवाल है...जिसका जवाब आने वाले एपिसोड देंगें....एक गुज़ारिश है हम एक बहुत बड़े निर्देशक बिमल दा की यहाँ बात कर रहे हैं.....उनके बारे में भी आप लोग कुछ टिप्पणियां दें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में, खुदा वही है.. कविता सेठ ने सूफ़ियाना कलाम की रंगत हीं बदल दी है



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०५

ससे पहले कि हम आज की महफ़िल की शुरूआत करें, मैं अश्विनी जी (अश्विनी कुमार रॉय) का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा। आपने हमें पूरी की पूरी नज़्म समझा दी। नज़्म समझकर हीं यह पता चला कि "और" कितना दर्द छुपा है "छल्ला" में जो हम भाषा न जानने के कारण महसूस नहीं कर पा रहे थे। आभार प्रकट करने के साथ-साथ हम आपसे दरख्वास्त करना चाहेंगे कि महफ़िल को अपना समझें और नियमित हो जाएँ यानि कि ग़ज़ल और शेर लेकर महफ़िल की शामों (एवं सुबहों) को रौशन करने आ जाएँ। आपसे हमें और भी बहुत कुछ सीखना है, जानना है, इसलिए उम्मीद है कि आप हमारी अपील पर गौर करेंगे। धन्यवाद!

आज हम अपनी महफ़िल को उस गायिका की नज़र करने वाले हैं, जो यूँ तो अपनी सूफ़ियाना गायकी के लिए मक़बूल है, लेकिन लोगों ने उन्हें तब जाना, तब पहचाना जब उनका "इकतारा" सिद्दार्थ (सिड) को जगाने के लिए फिल्मी गानों के गलियारे में गूंज उठा। एकबारगी "इकतारा" क्या बजा, फिल्मी गानों और "पुरस्कारों" का रूख हीं मुड़ गया इनकी ओर। २००९ का ऐसा कौन-सा पुरस्कार है, ऐसा कौन-सा सम्मान है, जो इन्हें न मिला हो!

इन्हें सुनकर एक अलग तरह की अनुभूति होती है.. ऐसा लगता है मानो आप खुद "ट्रांस" में चले गए हों और आपके आस-पास की दुनिया स्वर-विहीन हो गई हो.. शांति का वातावरण-सा बुन गया हो कोई... ।

आत्मा में कलम डुबोकर लिखी गई किसी कविता की तरह हीं हैं ये, जिनका नाम है "कविता सेठ"। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली में हुआ, वहीं इनका पालन-पोषण हुआ और वहीं पर स्नातक तक की शिक्षा इन्होंने ग्रहण की। शादी के बाद ये दिल्ली चली आई और फिर ऑल इंडिया रेडिया एवं दूरदर्शन के लिए गाना शुरू कर दिया। इसी दौरान इन्होंने दिल्ली के हीं "गंधर्व महाविद्याल" से "संगीत अलंकार" (संगीत के क्षेत्र में स्नातकोत्तर) की उपाधि प्राप्त की .. साथ हीं साथ दिल्ली विश्वविद्यालय से "हिन्दी साहित्य" में परा-स्नातक की डिग्री भी ग्रहण की। इन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्वालियर घराने के "एन डी शर्मा", गंधर्व महाविद्यालय के विनोद एवं दिल्ली घराने के उस्ताद इक़बाल अहमद खान से प्राप्त की है।

इन्होंने बरेली के "खान-कहे नियाज़िया दरगाह" से अपनी हुनर का प्रदर्शन प्रारंभ किया, फिर आगे चलकर ये पब्लिक शोज़ एवं म्युज़िकल कंसर्ट्स में गाने लगीं। कविता मुख्यत: सूफ़ी गाने गाती हैं, अगरचे गीत, ग़ज़ल एवं लोकगीतों में भी महारत हासिल है। इन्होंने देश-विदेश में कई सारी जगहों पर शोज़ किए हैं। ऐसे हीं एक बार मुज़फ़्फ़र अली के अंतरराष्ट्रीय सूफ़ी महोत्सव इंटरनेशल सूफ़ी फ़ेस्टिवल) में इनके प्रदर्शन को देखकर/सुनकर सतीश कौशिक ने इन्हें अपनी फिल्म "वादा" में "ज़िंदगी को मौला" गाने का न्यौता दिया था। आगे चलकर जब ये मुंबई आ गईं तो इन्हें २००६ में अनुराग बसु की फिल्म "गैंगस्टर" में "मुझे मत रोको" गाने का मौका मिला। इस गाने में इनकी गायकी को काफी सराहा गया, लेकिन अभी भी इनका फिल्मों में सही से आना नहीं हुआ था। ये अपने आप को प्राइवेट एलबम्स तक हीं सीमित रखी हुई थीं। इन्होंने "वो एक लम्हा" और "दिल-ए-नादान" नाम के दो सूफ़ी एलबम रीलिज किए। फिर आगे चलकर एक इंडी-पॉप एलबम "हाँ यही प्यार है" और दो सूफ़ी अलबम्स "सूफ़ियाना (२००८)" (जिससे हमने आज की नज़्म ली है) एवं "हज़रत" भी इनकी नाम के साथ जुड़ गए। "सूफ़ियाना" सूफ़ी कवि "रूमी" की रूबाईयों और कलामों पर आधारित है.. कविता ने इन्हें लखनऊ के ८०० साल पुराने "खमन पीर के दरगाह" पर रीलिज किया था।


कुछ महिनों पहले हीं कविता "कारवां" नाम के सूफ़ी बैंड का हिस्सा बनीं हैं, जब एक अंतर्राष्ट्रीय सूफ़ी महोत्सव में इनका ईरान और राजस्थान के सूफ़ी संगीतकारों से मिलना हुआ था। तब से यह समूह सूफ़ी संगीत के प्रचार-प्रसार में पुरज़ोर तरीके से लगा हुआ है। आजकल ये अपने बेटे को भी संगीत की दुनिया में ले आई हैं।

कविता से जब उनके पसंदीदा गायक, संगीतकार, गीतकार के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब कुछ यूँ था: (साभार: प्लैनेट बॉलीवुड)

पसंदीदा गायक: एल्टन जॉन, ए आर रहमान, सुखविंदर, शंकर महादेवन, आबिदा परवीन
पसंदीदा संगीतकार: ए आर रहमान, अमित त्रिवेदी, शंकर-एहसान-लॉय
पसंदीदा गीतकार/शायर: वसीम बरेलवी, ज़िया अल्वी, जावेद अख़्तर, गुलज़ार साहब
पसंदीदा वाद्य-यंत्र: रबाब, डफ़्फ़, बांसुरी, ईरानी डफ़्फ़
पसंदीदा सूफ़ी कवि: कबीरदास, मौलाना रूमी, हज़रत अमिर खुसरो, बाबा बुल्लेशाह
पसंदीदा गीत: ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा (जोधा-अकबर)

उनसे जब यह पूछा गया कि नए गायकों को "रियालिटी शोज़" में हिस्सा लेना चाहिए या नहीं, तो उनका जवाब था: "रियालिटी शोज़ के बारे में कभी न सोचें, बल्कि यह सोचें कि "रियालिटी" में उनकी गायकी कितनी अच्छी है। जितना हो सके शास्त्रीय संगीत सीखने की कोशिश करें। कहा भी गया है कि - नगमों से जब फूल खिलेंगे, चुनने वाले चुन लेंगे, सुनने वाले सुन लेंगे, तू अपनी धुन में गाए जा।" वाह! क्या खूब कहा है आपने!

चलिए तो अब आज की नज़्म की ओर रूख करते हैं। कविता को यह नज़्म बेहद पसंद है और उन्हें इस बात का दु:ख भी है कि यह नज़्म बहुत हीं कम लोगों ने सुनी है, लेकिन इस बात की खुशी है कि जिसने भी सुनी है, वह अपने आँसूओं को रोक नहीं पाया है। आखिर नज़्म है हीं कुछ ऐसी! आप यह तो मानेंगे हीं कि सूफ़ियाना कलामों में ख़ुदा को जिस नज़रिये से देखा जाता है, वह नज़रिया बाकी कलामों में शायद हीं नज़र आता है। कविता इसी नज़रिये को अपनी इस नज़्म के माध्यम से हम सबके बीच लेकर आई हैं। "शब को सहर" मे बदलने वाला वह ख़ुदा आखिरकार कैसा लगता है, आप खुद सुनिए:

बदल रहा है जो शब सहर में,
ख़ुदा वही है..

है जिसका जलवा नज़र-नज़र में,
ख़ुदा वही है..

जो फूल खुशबू गुलाब में है,
ज़मीं, ______, आफ़ताब में है,
है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में,
खुदा वही है..




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "सांवला" और शेर कुछ यूँ था-

हो छल्ला पाया ये गहने, दुख ज़िंदरी ने सहने,
छल्ला मापे ने रहने, गल सुन सांवला
ढोला,
ओए सार के कित्ते कोला

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

मेरा हर लफ़्ज़ लकीर, अहसास स्याही है "आजाद"
चेहरा एक सांवला-सा ग़ज़ल में दिख रहा होगा. -आजाद

सांवले की आमद से हर चीज़ खिल गयी है.
मौसम हुआ है खुशनुमा दुनिया बदल गयी है. -अवध लाल जी

सांवला सभी को मेरा लगे है सजन
मगर मुझे ऐसा लागे जैसे किशन । - शरद तैलंग जी

कोई सांवला यहाँ कोई सफेद है
कोई खुश तो किसी को खेद है
एक खुदा ने बनाया हम सबको
फिर सबके रंगों में क्यों भेद है? - शन्नो जी (जबरदस्त....... )

सांवला सा मन और उजली सी धूप,
बस इसके सिवा कुछ नहीं,कैसा भी हो रूप - नीलम जी

चितचोर सांवला सजन , करता है नित शोर .
नदी पर करे इशारा , आजा मेरी ओर . - मंजु जी

मन के वीरान कोने मैं एक सांवला सा गम
मन के अँधेरे मैं कुछ घुल मिल सा गया है !!
सिसकियों की स्याह गोद मैं
सहमी सहमी सी यादों के
शूल भरे फूलों से कुछ छिल सा गया है !! - अवनींद्र जी

पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई सजीव जी के प्रोत्साहन के साथ। आपके बाद शन्नो जी की आमद हुई। अपने बहुचर्चित मज़ाकिया लहजे में शन्नो जी ने फिर से हमें डाँट की खुराक पिलाई, लेकिन हमारे आग्रह करने के बाद उन्होंने गीत को फिर से सुना और अंतत: गायब शब्द की शिनाख्त करने में सफ़ल हुईं। तो इस तरह से कुछ कोशिशों के बाद महफ़िल का गायब शब्द सब के सामने प्रस्तुत हुआ। शन्नो जी, आपने शब्द तो पहचान लिया, लेकिन आपसे एक गलती हो गई। अगर आप उस शब्द पर कोई शेर कह देतीं तो हम "शान-ए-महफ़िल" के खिताब से आप हीं को नवाज़ते। अब चूँकि "साँवला" शब्द पर शेर लेकर पूजा जी सबसे पहले हाज़िर हुईं, इसलिए हम उन्हें हीं "शान-ए-महफ़िल" घोषित करते हैं। पूजा जी के बाद अवध जी, शरद जी , नीलम जी, मंजु जी एवं अवनींद्र जी का महफ़िल में आना हुआ। आप सभी के स्वरचित शेर एवं नज़्म कमाल के हैं। बधाई स्वीकारें! इन सबके बाद शन्नो जी फिर से महफ़िल में आईं, लेकिन इस बार वो खाली हाथ न थीं.. आपकी झोली में तीन-तीन रूबाईयाँ थीं और तीनों एक से बढकर एक। हमारी पिछली महफ़िल की सबसे बड़ी उपलब्धि रही अश्विनी जी का महफ़िल में आना। यूँ तो आपका शुक्रिया हम शुरूआत में हीं कर चुके हैं, लेकिन आपका जितना भी आभार प्रकट किया जाए कम होगा। उम्मीद करता हूँ कि हमारे बाकी मित्र भी भविष्य में इसी तरह हमारी सहायता करेंगे।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, December 7, 2010

वो न आयेंगें पलट के, उन्हें लाख हम बुलाएं....मुबारक बेगम की आवाज़ में चंद्रमुखी के जज़्बात



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 543/2010/243

'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला के तीसरे खण्ड में इन दिनों आप सुन रहे हैं बिमल रॊय निर्देशित फ़िल्मों के गीत और बिमल दा के फ़िल्मी यात्रा का विवरण। कल बात आकर रुकी थी 'परिणीता' में। १९५४ से अब बात को आगे बढ़ाते हैं। इस साल बिमल दा के निर्देशन में तीन फ़िल्में आईं - 'नौकरी', 'बिराज बहू' और 'बाप-बेटी'। 'नौकरी' 'दो बीघा ज़मीन' का ही शहरीकरण था। फ़िल्म में किशोर कुमार को नायक बनाया गया था, लेकिन यह फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' जैसा कमाल नहीं दिखा सकी, हालाँकि "छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में" गीत ख़ूब लोकप्रिय हुआ। 'बिराज बहू' भी शरतचन्द्र की इसी नाम की उपन्यास पर बनी थी जिसका निर्माण किया था हितेन चौधरी ने। 'नौकरी' और 'बिराज बहू' में सलिल दा का संगीत था, लेकिन 'बाप-बेटी' में संगीत दिया रोशन ने। फिर आया साल १९५५ और एक बार फिर शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की लोकप्रिय उपन्यास 'देवदास' पर बिमल रॊय ने फ़िल्म बनाई। १९३५ में प्रमथेश चन्द्र बरुआ ने पहली बार न्यु थिएटर्स में 'देवदास' का निर्माण किया था और उस समय बिमल दा उनके सहायक थे। इसके २० साल बाद, १९५५ में बिमल दा ने अपने तरीक़े से 'देवदास' को फ़िल्मी पर्दे पर उतारा। सहगल साहब की छवि देवदास की भूमिका में सब के दिल में बैठ चुकी थी। ऐसे में फिर से 'देवदास' बनाना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। लेकिन बिमल दा ने यह रिस्क लिया और दिलीप कुमार को देवदास के रूप में उतारा। वैसे भी दिलीप साहब के अलावा किसी और की कल्पना उस वक़्त देवदास के रूप में नहीं की जा सकती थी। सबकी उम्मीदों पर खरा उतरकर दिलीप साहब को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। सुचित्रा सेन और वैजयंतीमाला ने क्रम से पारो और चन्द्रमुखी की भूमिकाएँ निभाईं।

बिमल रॊय की शान में 'देवदास' के नायक दिलीप कुमार ने कहा है - "Nobody has ever mentioned that while shooting in the suburbs of Bombay – behind his own Mohan studio, in Andheri or other selected exteriors, Bimal Roy captured the very ethos of rural Bengal. He did not need to go there. To me it was an education to work with him. In my formative year it was important to work with a director who lead you gently under the skin of the character. Today we have institutions, they teach cinema, acting etc. We did not have these in our times. We had instead directors like Bimal Roy. Add to this my own application as an actor. Take making Devdas. The question often while doing my role was ‘not to do’ than do anything." फ़िल्म 'देवदास' के दो गीत हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं - "जिसे तू क़ुबूल कर ले" और "आन मिलो श्याम सांवरे"। आज हम आपको सुनवा रहे हैं मुबारक़ बेगम की आवाज़ में "वो ना आएँगे पलटकर, उन्हें लाख हम बुलाएँ, मेरी हसरतों से यह कहदो मेरे ख़्वाब भूल जाए"। यह गीत मुबारक़ बेगम की सब से लोकप्रिय गीतों में से एक है, हालाँकि यह गीत भी मुबारक़ बेगम के कई फ़िल्मों के कईगीतों की तरह इस फ़िल्म में भी पूरा नहीं लिया गया। राग खमाज पर आधारित इस मुजरे में सारंगी का सुंदर इस्तेमाल सुनने को मिलता है। यकीनन इस गीत को चंद्रमुखी (वैजयंतीमाला) पर फ़िल्माया गया होगा। फ़िल्म 'देवदास' में बिमल दा ने अपने साथी सलिल चौधरी को ना लेकर संगीतकार के रूप में चुना सचिन देव बर्मन को और गीतकार के रूप में शैलेन्द्र की जगह ले ली साहिर लुधियानवी ने। तो लीजिए इस ख़ूबसूरत मुजरे को सुनिए मुबारक़ जी की मिट्टी की सौंधी सौंधी ख़ुशबूदार आवाज़ में।



क्या आप जानते हैं...
कि गायिका मुबारक़ बेगम को पढ़ना लिखना नहीं आता था, रेकॊर्डिंग् में उनकी बेटी उनके साथ जाती थी और गीत लिख लेती थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०४ /शृंखला ०५
गीत का इंटर ल्यूड सुनिए-


अतिरिक्त सूत्र - बिमल रॉय की एक और नायाब फिल्म.

सवाल १ - गायिका कौन हैं इस गीत की - १ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी ने एक बार फिर बढ़त बना ली है, रोमेंद्र जी सही कहा आपने, वाकई इस देवदास का जवाब नहीं...इंदु जी आप पर इल्जाम लगाएं....इतनी हिम्मत कहाँ हमने...और वैसे भी आप है ही इतनी प्यारी कि एक दिन भी न दिखें तो हमें कमी खलती है :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर्खियों से बुनती है मकड़ी की जाली रे.. "नो वन किल्ड जेसिका" के संगीत की कमान संभाली अमित-अमिताभ ने



सुजॉय जी की अनुपस्थिति में एक बार फिर ताज़ा-सुर-ताल की बागडोर संभालने हम आ पहुँचे हैं। जैसा कि मैंने दो हफ़्ते पहले कहा था कि गानों की समीक्षा कभी मैं करूँगा तो कभी सजीव जी। मुझे "बैंड बाजा बारात" के गाने पसंद आए थे तो मैंने उनकी समीक्षा कर दी, वहीं सजीव जी को "तीस मार खां" ने अपने माया-जाल में फांस लिया तो सजीव जी उधर हो लिए। अब प्रश्न था कि इस बार किस फिल्म के गानों को अपने श्रोताओं को सुनाया जाए और ये सुनने-सुनाने का जिम्मा किसे सौंपा जाए। अच्छी बात थी कि मेरी और सजीव जी.. दोनों की राय एक हीं फिल्म के बारे में बनी और सजीव जी ने "बैटन" मुझे थमा दिया। वैसे भी क्रम के हिसाब से बारी मेरी हीं थी और "मन" के हिसाब से मैं हीं इस पर लिखना चाहता था। अब जहाँ "देव-डी" और "उड़ान" की संगीतकार-गीतकार-जोड़ी मैदान में हो, तो उन्हें निहारने और उनका सान्निध्य पाने की किसकी लालसा न होगी।

आज के दौर में "अमित त्रिवेदी" एक ऐसा नाम, एक ऐसा ब्रांड बन चुके हैं, जिन्हें परिचय की कोई आवश्यकता नहीं। अगर यह कहा जाए कि इनकी सफ़लता का दर (सक्सेस-रेट), सफ़लता का प्रतिशत... शत-प्रतिशत है, तो कोई बड़बोलापन न होगा। "आमिर" से हिन्दी-फिल्म-संगीत में अपना पदार्पण करने वाले इस शख्स ने हर बार उम्मीद से बढकर (और उम्मीद से हटकर) गाने दिए हैं। इनके संगीत से सजी अमूमन सारी हीं फिल्में चली हैं, लेकिन अगर फिल्म फ़्लॉप हो तब भी इनके गानों पर कोई उंगली नहीं उठती, गाने तब भी उतने हीं पसंद किए जाते हैं। मुझे नहीं पता कि कितने लोगों ने "एडमिशन्स ओपन" नाम की फिल्म देखी है... मैंने नहीं देखी, लेकिन इसके गाने ज़रूर सुने हैं और ये मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस फिल्म के गाने कई सारी बड़ी (और सफ़ल) फिल्मों के गानों से बढकर हैं। ऐसा कमाल है इस इंसान के सुर-ताल में... इसके वाद्य-यंत्रों में..

जहाँ लोग "अमित त्रिवेदी" के नाम से इस कदर परिचित हैं, वहीं एक शख्स है (अमिताभ भट्टाचार्य), जो हर बार अमित के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता रहा है, अब भी चल रहा है, लेकिन उसे बहुत हीं कम लोग जानते हैं। इतना कम कि अंतर्जाल पर इनके बारे में कहीं भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है (विकिपीडिया भी मौन है)। यह वो इंसान है, जिसने देव-डी का "नयन तरसे" लिखा, "इमोसनल अत्याचार" के रूप में युवा-पीढी को उनका ऐंथम दिया, जिसने उड़ान के सारे गाने लिखे ("आज़ादियाँ", "उड़ान", "नया कुछ नया तो ज़रूर है", "कहानी खत्म है"), जिसने अमित के साथ मिलकर "आमिर" में उम्मीदों की "एक लौ" जलाई, जिसने "वेक अप सिड" में रणबीर का दर्द अपने शब्दों और अपनी आवाज़ के जरिये "इकतारा" से कहवाये... (ऐसे और भी कई उदाहरण हैं)। बुरा लगता है यह जानकर कि इस इंसान को कुछ गिने-चुने लोग हीं पहचानते हैं। कहीं इसकी वज़ह ये तो नहीं कि "यह इंसान" एक गीतकार है.. संगीतकार या गायक होता तो लोग इसे हाथों-हाथ लेते... गाने में एक गीतकार का महत्व जाने कब जानेंगे लोग!!

अमित और अमिताभ की बातें हो गईं.. अब सीधे चला जाए आज की फिल्म और आज के गानों की ओर। मुझे उम्मीद है कि हमारे सभी पाठक और श्रोता "जेसिका लाल हत्याकांड" से वाकिफ़ होंगे, किस तरह उनकी हत्या की गई थी, किस तरह उनकी बहन शबरीना ने मीडिया का सहयोग लेकर न्याय पाने के लिए एंड़ी-चोटी एक कर दी और किस तरह आखिरकार न्यायपालिका ने हत्याकांड के मुख्य आरोपी "मनु शर्मा" को अंतत: दोषी मानते हुए कठिनतम सज़ा का हक़दार घोषित किया। ये सब हुआ तो ज़रूर, लेकिन इसमें दसियों साल लगे.. इस दौरान कई बार शबरीन टूटी तो कई बार मीडिया। "केस" के शुरूआती दिनों में जब सारे गवाह एक के बाद एक मुकर रखे थे, तब खुन्नस और रोष में "टाईम्स ऑफ़ इंडिया" ने यह सुर्खी डाली थी- "नो वन किल्ड जेसिका"। राजकुमार गुप्ता" ने यही नाम चुना है अपनी अगली फिल्म के लिए।

चलिए तो इस फिल्म का पहला गाना सुनते हैं। अदिति सिंह शर्मा, श्रीराम अय्यर और तोची रैना की अवाज़ों में "दिल्ली, दिल्ली"। "परदेशी" के बाद तोची रैना अमित के लिए नियमित हो गए हैं। अदिति सिंह शर्मा भी देव-डी से हीं फिल्मों में नज़र आनी शुरू हुईं। अमित की "दिल्ली-दिल्ली" रहमान की "ये दिल्ली है मेरे यार" से काफी अलग है। "मेरा काट कलेजा दिल्ली.. अब जान भी ले जा दिल्ली" जहाँ दिल्ली में रह रहे एक इंसान का दर्द बयान करती है (भले हीं तेवर थोड़े मज़ाकिया हैं), वहीं "ये दिल्ली है मेरे यार" में दिल्ली (विशेषकर दिल्ली-६) की खूबियों के पुल बाँधे गए थे। संगीत के मामले में मुझे दोनों गाने एक जैसे हीं लगे.. "पेप्पी".. जिसे आप गुनगुनाए बिना नहीं रह सकते। "दिल्ली.. दिल्ली" आप ज्यादा गुनगुनाएँगे क्योंकि इसके शब्द जमीन से अधिक जुड़े हैं.. दिल्ली की हीं भाषा में "दिल्ली-दिल्ली" के शब्द गढे गए हैं (दिल्ली-६ में प्रसून जोशी दिल्ली का अंदाज़ नहीं ला पाए थे)। इस गाने का एक "हार्डकोर वर्सन" भी है, जिसमें संगीत को कुछ और झनकदार (चटकदार) कर दिया गया है। मुझे इसके दोनों रूप पसंद आए। आप भी सुनिए:

दिल्ली


दिल्ली हार्डकोर


अमिताभ भट्टाचार्य जब भी लिखते हैं, उनकी पूरी कोशिश रहती है कि वे मुख्यधारा के गीतकारों-सा न लिखें। वे हर बार अपना अलग मुकाम बनाने की फिराक में रहते हैं और इसी कारण "अन-कन्वेशनल" शब्दों की एक पूरी फौज़ उनके गानों में नज़र आती है। "बैंड बाजा बारात" के सभी गाने उनकी इसी छाप के सबूत हैं। मुमकिन है कि दूसरे संगीतकारों के साथ काम करते वक़्त उन्हें इतनी आज़ादी न मिलती हो, लेकिन जब अमित त्रिवेदी की बात आती है तो लगता है कि उनकी सोच की सीमा हीं समाप्त हो गई है। "जहाँ तक और जिस कदर सोच को उड़ान दे सकते हो, दे दो" - शायद यही कहना होता है अमित का, तभी तो "आली रे.. साली रे", जैसे गाने हमें सुनने को नसीब हो रहे हैं। "भेजे में कचूंबर लेकिन मुँह खोले तो गाली रे", "राहु और केतु की आधी घरवाली रे".. और ऐसे कितने उदाहरण दूँ, जो मुझे अमिताभ का मुरीद बनने पर बाध्य कर रहे हैं। यहाँ अमित की भी दाद देनी होगी, जिस तरह से उन्होंने गाने को "ढिंचक ढिंचक" से शुरू किया है और कई मोड़ लेते हुए "पेपर में छपेगी" पर खत्म किया है.. एक साथ एक हीं गाने में इतना कुछ करना आसान नहीं होता। मुझे इस गाने में "सुर्खियों से बुनती है मकड़ी की जाली रे" ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। चूँकि यह गाना रानी मुखर्जी पर फिल्माया गया है जो एक "न्यूज़ रिपोर्टर" का किरदार निभा रही हैं तो वह रिपोर्टर "सुर्खियों" (सुर्खियों में...) से हीं अपने आस-पास की दुनिया बुनेगी। है ना?

आली रे


चलिए अब तीसरे गाने की ओर चलते हैं। इस गाने को अपनी आवाज़ें दी हैं जानेमाने लोकगायक "मामे खान" और जानेमाने रॉकस्टार "विशाल दादालनी" ने। इन दोनों का साथ दिया है रॉबर्ट ओमुलो (बॉब) ने। लोकगायक और रॉकस्टार एक साथ..कुछ अजीब लगता है ना? इसी को तो कहते हैं प्रयोग.. मैं पक्के यकीन के साथ कह सकता हूँ कि अमित इस प्रयोग में सफ़ल हुए हैं। अंग्रेजी बोलों के साथ रॉबर्ट गाने की शुरूआत करते हैं, फिर विशाल "पसली के पार हुआ ऐतबार", "चूसे है खून बड़ा खूंखार बन के" जैसे जोशीले और दर्दीले शब्दों को गाते हुए गाने की कमान संभाल लेते हैं और अंत में "दिल ऐतबार करके रो रहा है.. " कहते-कहते मामे खान गाने को "फ़ोक" का रंग दे देते हैं। गाने में वो सब कुछ है, जो आपको इसे एकाधिक बार सुनने पर मजबूर कर सकता है। तो आईये शुरूआत करते हैं:

ऐतबार


फिल्म का चौथा गाना है अमिताभ भट्टाचार्य, जॉय बरुआ, मीनल जैन (इंडियन आईडल फेम) और रमन महादेवन की आवाज़ों में "दुआ"। ये अलग किस्म की बेहतरीन दुआ है। "खोलो दिल की चोटों को भी" .. "खुदा के घर से, उजालें न क्यों बरसे" जैसे बेहद उम्दा शब्दों के सहारे "अमित-अमिताभ" ने लोगों से ये अपील की है कि रास्ते रौशन हैं, तुम्हें बस आगे बढने की ज़रूरत है, अपने दिल के दर्द को समझो, हरा करो और आगे बढो। और अंत में "मीनल जैन" की आवाज़ में "दुआ करो - आवाज़ दो" की गुहार "सोने पे सुहागा" की तरह काम करती है। आईये हम सब मिलकर यह दुआ करते हैं:

दुआ


देखते-देखते हम अंतिम गाने तक पहुँच गए हैं। "आमिर" के "एक लौ" की तरह हीं शिल्पा राव "ये पल" लेकर आई हैं। "एकल गानों" में शिल्पा राव का कोई जवाब नहीं होता। यह बात ये पहले भी कई बार साबित कर चुकी हैं। इसलिए मेरे पास नया कुछ कहने को नहीं है। अमित और अमिताभ का कमाल यहाँ भी नज़र आता है। "मृगतृष्णा" जैसे शब्दों का इस्तेमाल लोग विरले हीं गानों में करते हैं। "रेंगते केंचुओं से तो नहीं थे".. अमिताभ इस गाने में भी अपनी छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं। अमित का "हूँ हूँ" गाने को एक अलग हीं लेवल पर ले जाता है। इस तरह से, एक पल क्या... हर पल में उसी शांति, उसी चैन का माहौल तैयार करने में ये तीनों कामयाब हुए हैं।

ये पल


तो इस तरह से मुझे "अमित-अमिताभ" की यह पेशकश बेहद अच्छी लगी। आप इस समीक्षा से कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं, यह ज़रूर बताईयेगा। अगली बार मिलने के वादे के साथ आपका यह दोस्त आपसे विदा लेता है। नमस्कार!

Monday, December 6, 2010

चली राधे रानी, आँखों में पानी....भक्ति और प्रेम का समावेश है ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 542/2010/242

"With his very first film Udayer Pathe (Hamrahi in Hindi), Bimal Roy was able to sweep aside the cobwebs of the old tradition and introduce a realism and subtely that was wholly suited to the cinema. He was undoubtedly a pioneer. He reached his peak with a film that still reverberates in the minds of those who saw it when it was first made. I refer to Do Bigha Zamin, which remains one of the landmarks of Indian Cinema."~ Satyajit Ray

सत्यजीत रे के इन उद्गारों के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की आज की महफ़िल की हम शमा जला रहे हैं। बिमल रॊय के फ़िल्मी सफ़र की कहनी कल आकर रुकी थी न्यु थिएटर्स में उनके द्वारा किए गये छायांकन वाले फ़िल्मों तक। इस तरह से तक़नीकी सहायक के रूप में कार्य करने के बद बिमल दा को पहली बार फ़िल्म निर्देशन का मौका मिला सन् १९४४ में, और वह बंगला फ़िल्म थी 'उदयेर पौथे' (उदय के पथ पर)। इसी फ़िल्म का हिंदी में अगले ही साल निर्माण हुआ जिसका शीर्षक रखा गया था 'हमराही'। यह फ़िल्म श्रेणी विभाजन (class discrimination) के मुद्दे को लेकर बनाई गई थी। 'उदयेर पौथे' बंगाल में बहुत ज़्यादा चर्चित हुई थी क्योंकि उस समय इतनी ज़्यादा तकनीकी रूप से विकसीत फ़िल्म नहीं बनी थी बंगला में। बिमल दा निर्देशित ४० के दशक की दो और बंगला फ़िल्में हैं - अंजानगढ़ (१९४८) और 'मंत्रमुग्ध' (१९४९)। 'अंजानगढ़' को हिंदी में भी उसी साल बनाया गया था। १९५० में न्यु थिएटर्स ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनके 'आज़ाद हिंद फ़ोर्स' को लेकर एक फ़िल्म निर्देशित की 'पहला आदमी', जिसके संगीतकार थे आर. सी. बोराल। इसी विषय को लेकर इसी साल बम्बई में फ़िल्मिस्तान ने बनाई 'समाधि'। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बंगाल का राजनैतिक दृश्य कुछ ऐसा हो गया था कि वहाँ कि फ़िल्म कंपनियाँ बंद होने के कगार पर आ गई थी। ऐसे में बहुत से बड़े कलाकार बम्बई स्थानांतरित हो गए। बिमल रॊय भी उन्हीं में से एक थे। बम्बई आकर बिमल दा बॊम्बे टॊकीज़ से जुड़ गए और १९५२ में उन्होंने दो फ़िल्में निर्देशित कीं - 'मोरध्वज' और 'माँ'। इन दोनों फ़िल्मों में संगीत एस. के. पाल का था। वह बॊम्बे टॊकीज़ का अंतिम समय था। इसलिए बिमल दा ने यह निर्णय लिया कि ख़ुद की एक फ़िल्म कंपनी खोली जाए। और इस तरह से स्थापना हुई 'बिमल रॊय प्रोडक्शन्स' की। इस बैनर की पहली फ़िल्म हेतु बिमल दा ने एक कम बजट की फ़िल्म बनाने की सोची। इसलिए अपने कलकत्ते के तीन और दोस्त - सलिल चौधरी, नवेन्दु घोष और असित सेन, इन सबों को लेकर सलिल चौधरी की उपन्यास 'रिक्शावाला' पर आधारित 'दो बीघा ज़मीन' बनाने की योजना बनाई। उसके बाद क्या हुआ, यह इतिहास बन चुका है। १९५३ में बनी 'दो बिघा ज़मीन' के बारे में एक बार बताया था सलिलदा की बेटी अंतरा चौधरी ने जिसे हमने आप तक पहुँचाया था 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ९१-वीं कड़ी में। इसलिए आज उसे यहाँ नही दोहरा रहे हैं। बल्कि सीधे बढ़ जाते हैं उनकी अगली फ़िल्म 'परिणीता' पर।

इसी साल १९५३ में बिमल दा ने 'परिणीता' का निर्देशन किया था, लेकिन यह 'बिमल रॊय प्रोडक्शन्स' की प्रस्तुति नहीं थी। अभिनेता अशोक कुमार, जिनका हिमांशु राय और देविका रानी के साथ बहुत अच्छा संबंध था, हमेशा चाहा कि बॊम्बे टॊकीज़ अपनी आर्थिक समस्याओं से बाहर निकले, और इस मकसद से उन्होंने कुछ फ़िल्में प्रोड्युस की। हालाँकि इन फ़िल्मों को सफलता ज़रूर मिली, लेकिन बॊम्बे टॊकीज़ में चल रहे अस्थिरता को ख़त्म नहीं कर सके और १९५२ में बॊम्बे टॊकीज़ में हमेशा के ताला लग गया। अशोक कुमार ने फिर अपनी निजी कंपनी 'अशोक कुमार प्रोडक्शन्स' की नींव रखी और इस बैनर तले पहली फ़िल्म 'परिणीता' का निर्माण किया। शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की मशहूर उपन्यास पर आधारित इस फ़िल्म में मीना कुमारी शीर्षक भूमिका में नज़र आईं थीं और साथ में थे अशोक कुमार और नासिर हुसैन। इस फ़िल्म का एक मुख्य आकर्षण बिमल रॊय का निर्देशन भी था। दादामुनि अशोक कुमार ने बाद में बिमल दा की शान में ये शब्द कहे थे - "In my long experience in this industry I really have not come across another director like Bimal Roy… such commitment to cinema, to perfection. I regret we have few like him today." गायक अरुण कुमार मुखर्जी, जो अशोक कुमार के मौसेरे भाई थे, और अशोक कुमार का प्लेबैक करने के लिए जाने जाते थे ('बंधन', 'झूला', 'क़िस्मत' जैसी फ़िल्मों में इन्होंने दादामुनि के लिए गाया था), तो दादामुनि ने अरुण कुमार को 'परिणीता' में सगीत देने का मौका दिया। भरत व्यास का लिखा और मन्ना डे का गाया इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत था "चले राधे रानी अखियों में पानी, अपने मोहन से मुखड़ा मोड़ के"। इसके अलावा इस फ़िल्म में आशा भोसले ने "गोरे गोरे हाथों में मेहंदी", "कौन मेरी प्रीत के पहले जो तुम" तथा किशोर दा के साथ एक युगल गीत "ऐ बंदी तुम बेगम बनो" गाया था। गीता रॊय की आवाज़ में "चांद है वही सितारें वो ही, गगन फिर भी क्यों उदास है" भी एक सुंदर रचना है। लेकिन फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत "चले राधे रानी" ही है, और इसीलिए आज हम आपको यही गीत सुनवा रहे है, सुनिए...



क्या आप जानते हैं...
कि अरुण कुमार का ६ दिसम्बर १९५५ को दिल का दौरा पड़ने से असामयिक निधन हो गया था जब वे अशोक कुमार के साथ फ़िल्म 'बंदिश' का ट्रायल शो देख कर कार में वापस लौट रहे थे। यह भी अजीब इत्तेफ़ाक़ की बात है कि जिस अशोक कुमार ने उन्हें फ़िल्मों में अवसर दिलाया, उन्हीं की गोद में सिर रख कर उनका निधन हुआ।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०३ /शृंखला ०५
गीत की एक झलक सुनिए-


अतिरिक्त सूत्र - बिमल रॉय की एक और नायाब फिल्म.

सवाल १ - गायिका पहचानें - २ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी को २ अंक और इंदु-रोमेंद्र जी को १-१ अंक की बधाई, इंदु जी और रोमेंद्र जी दोनों ही नियमित नहीं रह पाते और अगर अवध जी भी सही समय पर पहुँच पायें तो मुकाबला और दिलचस्प बन जायेगा.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, December 5, 2010

आजा री आ, निंदिया तू आ......कहाँ सुनने को मिल सकती है ऐसी मीठी लोरी आज के दौर में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 541/2010/241

मस्कार! दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस नई सप्ताह में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इसके पहले और दूसरे खण्डों में आपने क्रम से वी. शांताराम और महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र की कहानी जानी और साथ ही इनके पाँच पाँच फ़िल्मों के गानें सुनें। आज से हम शुरु कर रहे हैं इस शृंखला का तीसरा खण्ड, और इस खण्ड के लिए हमने चुना है एक और महान फ़िल्मकार को, जिन्हें हम बिमल रॊय के नाम से जानते हैं। बिमल रॊय हिंदी सिनेमा के बेहतरीन निर्देशकों में से एक हैं जिनकी फ़िल्में कालजयी बन गईं हैं। उनकी सामाजिक और सार्थक फ़िल्मों, जैसे कि 'दो बिघा ज़मीन, परिणीता', 'बिराज बहू', 'मधुमती', 'सुजाता' और 'बंदिनी' ने उन्हें शीर्ष फ़िल्मकारों में दर्ज कर लिया। आइए बिमल दा क्ली कहानी शुरु करें शुरु से। बिमल रॊय का जन्म १२ जुलाई १९०९ के दिन ढाका के एक बंगाली परिवार में हुआ था। उस समय ढाका ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करता था, और जो अब बांगलादेश की राजधानी है। भारत की आज़ादी और देश विभाजन के बाद यह हिस्सा पाक़िस्तान में चली गई थी, और तभी बिमल दा का परिवार भारत स्थानांतरित हो गया। दरसल हुआ युं था कि बिमल दा एक ज़मीनदार घराने के पुत्र थे। उनके पिता की मृत्यु के बाद ज़मीनदारी की देख रेख कर रहे एस्टेट मैनेजर ने बिमल दा के परिवार का सर्वस्व बेदखल कर लिया। अपना सर्वस्य हार कर बिमल दा अपनी विधवा माँ और छोटे छोटे भाइयों के साथ कलकता आ गए। और यहाँ आकर उन्होंने काम पाने की तलाश शुरु कर दी। ऐसे में न्यु थिएटर्स के प्रमथेश बरुआ ने बिमल दा को एक पब्लिसिटि फ़ोटोग्राफ़र की हैसीयत से काम पर रख लिया। लेकिन जल्द ही बिमल रॊय को नितिन बोस के ऐसिस्टैण्ट कैमरामैन बना दिया गया। उनकी रचनात्मक्ता, और छाया व रोशनी के तालमेल को समझने की उनकी क्षमता से हर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया, और जल्द ही उनका नाम हो गया। उनकी इस रचनात्मक्ता की मिसालें हैं ३० के दशक की 'मुक्ति' और 'देवदास' जैसी फ़िल्में। बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि बिमल रॊय ने ब्रिटिश सरकार के लिए दो बेहतरीन वृत्तचित्र (डॊकुमेण्टरी) बनाये थे - 'रेडियो गर्ल' (१९२९) और 'बेंगॊल फ़ैमीन' (१९४३), लेकिन दुर्भाग्यवश इन दोनों फ़िल्मों के चिन्ह आज कहीं नहीं मिलते। उनकी १९५६ में बनाई हुई वृत्तचित्र 'गौतम - दि बुद्ध' को बहुत तारीफ़ें मिली थीं कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में।

दोस्तों, बिमल दा के शुरुआती दिनों का हाल आज हमने प्रस्तुत किया। आगे की कहानी कल फिर आगे बढ़ाएँगे, अब वक़्त हो चला है आज के गीत के बारे में आपको बताने का। सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'दो बिघा ज़मीन' से लता मंगेशकर की आवाज़ में एक मीठी सी, प्यारी सी लोरी, "आजा री आ, निंदिया तू आ"। सलिल चौधरी का सुमधुर संगीत और शैलेन्द्र के बोल। वैसे तो कोई भी यही अपेक्षा रखेगा कि बिमल दा पर केन्द्रित इस शृंखला में 'दो बिघा ज़मीन' के "धरती कहे पुकार के" या फिर "हरियाला सावन ढोल बजाता आया" गीत ही शामिल हों, लेकिन क्या करें, ये दोनों ही गीत हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बजा चुके हैं। और इस फ़िल्म के किसी गीत को सुनवाये बग़ैर भी नहीं रह सकते। 'दो बिघा ज़मीन' १९५३ की फ़िल्म थी, और उससे दो साल पहले फ़िल्म 'अल्बेला' में ही सी. रामच्न्द्र ने एक बेहद लोकप्रिय लोरी बनाई थी "धीरे से आजा री अखियन में"। इस लोरी की अपार शोहरत के बाद किसी और लोरी का इससे भी ज़्यादा मशहूर हो पाना आसान काम नहीं था। फिर भी शैलेन्द्र और सलिल दा ने पूरी मेहनत और लगन से इस लोरी की रचना की। भले ही यह लोरी बहुत ज़्यादा नहीं सुनी गई, और 'अलबेला' की लोरी की तरह मक़बूल भी नहीं हुई, लेकिन गुणवत्ता में किसी तरह की कोई ख़ामी नज़र नहीं आती। शैलेन्द्र ने भी कितने ख़ूबसूरत शब्दों से इस लोरी को सजाया है। गीत सुनने से पहले लीजिए इस लोरी के बोलों पर एक नज़र दौड़ा लीजिए...

आ जा री आ, निंदिया तू आ,
झिलमिल सितारों से उतर आँखों में आ, सपने सजा।

सयी कली, सोया चमन, पीपल तले सोयी हवा,
सब रंगा इक रंग में, तूने ने ये क्या जादू किया, आ जा।

संसार की रानी है तू, राजा है मेरा लादला,
दुनिया है मेरी गोद में, सोया हुआ सपना मेरा, आ जा।



क्या आप जानते हैं...
कि ख़्वाजा अहमद अब्बास ने बिमल रॊय के लिए कैसे उद्गार व्यक्त किए थे, ये रहे - "Bimal Roy was Bengal’s gift to Bombay. His first film, Udayer Pathey (Hamrahi) had already established him in this region as a filmmaker of rare perfection. But the film which left a permanent impact on the Indian cinema was his Do Bigha Zamin. That was not merely an outstanding Indian film but received International recognition."

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०२ /शृंखला ०५
गीत की एक झलक सुनिए-


अतिरिक्त सूत्र - बिमल रॉय की एक और नायाब फिल्म.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - आवाज़ पहचानें - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
इस बार शरद जी निकले हैं कमर कस कर....इंदु जी अगर गीत सुनने में अब भी कोई समस्या आये तो बात कीजियेगा http://get.adobe.com/flashplayer/ ये लिंक खोलियेगा....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

ताजा कहानी-पॉडकास्ट

ताज़ा पॉडकास्ट कवि सम्मेलन