Saturday, August 7, 2010

ओल्ड इस गोल्ड - ई मेल के बहाने यादों के खजाने - ०२



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस साप्ताहिक विशेषांक में आज दूसरी बार हमारी और आपकी मुलाक़ात हो रही है। आज की कड़ी के लिए हमने चुना है हमारी अतिपरिचित और प्यारी दोस्त इंदु पुरी गोस्वामी जी की फ़रमाइश का एक गीत। जी हाँ, वो ही इंदु जी जिनकी बातें हमारे होठों पर हमेशा मुस्कुराहट ले आती है। क्या ख़ूब तरीका है उनका 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पहेलियों का पहेली के ही रूप में जवाब देने का! लेकिन आज वो ईमेल के बहाने जो गीत हमें सुनवा रही हैं और इस गीत से जुड़ी जो यादें हमारे साथ बांट रही हैं, वो थोड़ा सा संजीदा भी है और ग़मज़दा भी। दरअसल बात ऐसी थी कि बहुत दिनों से ही इंदु जी ने हमसे इस गीत को सुनवाने का अनुरोध एकाधिक बार किया था। लेकिन किसी ना किसी वजह से हम इसे सुनवा नहीं सके। कोई ऐसी शृंखला भी नहीं हुई जिसमें यह गीत फ़िट बैठता। और शायद इसलिए भी क्योंकि अब तक हमें यह नहीं मालूम था कि इंदु जी को यह गीत पसंद किसलिए है। अगर पता होता तो शायद अब तक हम इसे बजा चुके होते। ख़ैर, देर से ही सही, हम तो अब जान गए इस गीत को इतना ज़्यादा पसंद करने के पीछे क्या राज़ छुपा है, आप भी थोड़ी देर में जान जाएँगे। तो लीजिए, अब आगे की बातें पढ़िए इंदु जी के शब्दों में जो उन्होंने हमें लिख भेजा है हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर।

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प्रिय सुजोय जी,

नमस्ते!

कोई गाना हमे क्यों अच्छा लगने लगता है कई बार उसके पीछे कोई और कई कारण होते हैं, कई बार कोई भी कारण नही होता। बस अच्छे लगते हैं अपने खूबसूरत शब्दों के कारण, अपने मधुर संगीत के कारण। यह जो गाना है "युंही दिल ने चाहा था रोना रुलाना", इस गाने में ये दोनों चीजें तो है ही, दो कारण और भी हैं -

१. मेरा एक भतीजा था अविनाश- अविनाश पुरी गोस्वामी- २६ साल का। सुन्दर, स्मार्ट, कोंफ़िडेंट। प्यारा सा एक बच्चा भी है उसके, उस समय डेढ़-दो साल का ही था बच्चा। अविनाश को पुराने गानों में से ये गाना बहुत पसंद था। अविनाश अचानक चल बसा। इकलौता बेटा था...... जब भी ये गाना सुनती हूँ, जैसे वो पास आ बैठता है। लगता है यहीं कहीं है और मुझसे बोलेगा 'एक बार और लगाओ ना यही गाना बुआ!'

२. मैं समाजसेवी नही हूँ। किन्तु, कुछ करती रहती हूँ। ऐसा कुछ जो मुझे सुकून दे। अक्सर कहती भी रहती हूँ ना बहुत स्वार्थी औरत हूँ मैं। बस .....इसी कारण.....जिन बच्चों की किसी को जरूरत नही, जिन्हें मरने के लिए फेंक दिया जाता है, उन्हें लोगो को मोटिवेट कर के परिवार, माता-पिता मिल जाये ऐसा कुछ करती रहती हूँ। इन बच्चों को हॉस्पिटल से ही परिवार तक पहुँचाने में परिवार और प्रशासन के बीच जो भी रोल प्ले करना होता है करती हूँ। पिछले दिनों एक बच्चे को परिस्थितिवश घर लाना पड़ गया। 'वे' उसे मार देते या फेंक देते। चार महीने 'वो' नन्हा एंजिल मेरे पास रहा। मेरे पेट पर सोता, करवट लेने पर कमर पर लटका कर सुलाने की आदत डाल दी उसकी। इन सब की उससे ज्यादा मेरी आदत पड़ गई। पहचानने लगा था मुझे। हम सब उसे बहुत प्यार करने लगे थे। किन्तु..... उसके जवान होने और पैरों पर खड़े होने तक मुझे कम से कम जिन्दगी के बाईस पच्चीस साल चाहिए। परिवार की ख़ुशी के लिए भी कई बार...... और वो चला गया, एक बहुत अच्छे घर में जहाँ उसे सब पागलपन की हद तक कर प्यार करते हैं। किन्तु इसी जन्म में मुझे राधे, मीरा और यशोदा का जीवन दे गया। सुजॊय! ये सब तुम्हे मेरा पागलपन लगे किन्तु......हर बार कृष्ण ऩे मुझे और मेरी गोद को ही क्यों चुना या चुनते हैं और छोड़ कर चले जाते हैं कभी वापस ना लौटने के लिए? उसे याद करके रो भी नही सकती। मेरा ये सब काम करना बंद करवा देंगे सब मिल कर। इसलिए ये गाना एक बहाना बन जाता है मेरे लिए उसे याद करने का या फूट फूट कर रोने का। क्या कहूँ? नही मालूम ईश्वर क्या चाहता है मुझसे पर सोचती हूँ कैसे जी होगी यशोदा या राधा अपने कृष्ण के जाने के बाद? मैं तो जी रही हूँ....कि फिर ईश्वर किसी कृष्ण को मेरी गोद में भेजेगा और रोने के लिए यही गीत फिर एक बहाना बन जायेगा मेरे लिए कि "यूँही दिल ऩे चाहा था रोना रुलाना, तेरी याद तो बन गई एक बहाना"।

चाहो तो मेरी पसंद के ये कारण बता देना और चाहो तो एडिट कर कोई खूबसूरत बहाना बना देना, पर..........सच तो यही है.

प्यार,

तुम्हारी दोस्त,

इंदु



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इंदु जी, मेरे पास कोई शब्द नहीं है, मेरी उंगलियाँ की-बोर्ड पर नहीं चल पा रहे हैं। शायद ही कोई होगा जिसकी आँखें इस वक़्त आपकी इन बातों को पढ़कर नम नहीं हुई होंगी! हम आपके जिस इमेज से वाक़ीफ़ हैं, आपकी शख़्सीयत का यह दूसरा पहलू जानकर जितन आश्चर्य हुआ, उससे कई गुणा ज़्यादा हमारे दिल में आपकी इज़्ज़त और बढ़ गई। क्या कहूँ, यह गीत मुझे भी बेहद बेहद बेहद पसंद है (मैंने आपसे पहले भी ज़िक्र किया था इस बारे में), और हर बार इस गीत को सुनते हुए मेरी आँखें नम हो जाती रही हैं। लेकिन आज तो गीत सुने बग़ैर ही आँखें छलक रही हैं। अब तो इस गीत के साथ आपका नाम भी इस तरह से जुड़ गया है कि अब आगे से जब भी इस गीत को सुनूँगा, आपका ख़याल ज़रूर आएगा। आपके इन अनमोल बच्चों के लिए कुछ करने के प्रयास में अगर मैं आपकी कोई सहायता हर सकूँ तो मुझे अत्यन्त ख़ुशी होगी। लीजिए आप भी सुनिए और हमारे सभी श्रोताओं, आप सब भी सुनिए इंदु जी की पसंद पर फ़िल्म 'दिल ही तो है' से सुमन कल्याणपुर का गाया साहिर की रचना, संगीत रोशन का है। हम सभी की तरफ़ से अविनाश को स्मृति-सुमन और उस "नन्हे एंजिल" को एक उज्ज्वल भविष्य के लिए ढेरों शुभकामनाएँ। और हाँ इंदु जी, एक और बात, आप जैसे लोग ही इस दुनिया में रहने के क़ाबिल भी हैं और हक़दार भी, यकीन मानिए.....

गीत - युंही दिल ने चाहा था रोना रुलाना


तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। हमारे पास इंदु जी को शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं है जिन्होंने अपने जीवन की ये महत्वपूर्ण अनुभव हम सभी के साथ बांटी।

दोस्तों, इंदु जी की तरह अगर आपके जीवन में भी इस तरह के ख़ास अनुभव है, जिन्हें अब तक आपने अपने दिल में ही छुपाए रखा, शायद अब वक़्त आ गया है कि आप पूरी दुनिया के साथ उन्हें बांटे और अपना जी हल्का करें। तो देर किस बात की, जल्द से जल्द हमें लिख भेजिए अपने जीवन के यादगार अनुभव, खट्टे-मीठे अनुभव, जो कभी आपको हँसाते भी हैं और कभी वो यादें आपको रुला भी जाती हैं। ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम, वो फिर नहीं आते, लेकिन उनकी यादें तो हमेशा हमेशा के लिए हमारे साथ रह जाती हैं जिन्हे हम बार बार याद करके उन पलों को, उन लम्हों को, उन अनुभवों को जीते हैं। और इन्ही यादों के ख़ज़ाने को ईमेल के बहाने समृद्ध करने के लिए हमारा यह एक छोटा सा प्रयास है आपके मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के टीम की तरफ़ से। हमें ईमेल कीजिए oig@hindyugm.com के पते पर। और याद रहे, हम आपके ईमेल का बेसबरी से इंतेज़ार कर रहे हैं। अब आज के लिए इजाज़त दीजिए, कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमीत अंक के साथ पुन: हाज़िर होंगे, नमस्कार!

प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी

सुनो कहानी: सुधा अरोड़ा की अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी



सुधा अरोड़ा की कहानी अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ।
पिछले सप्ताह आपने कविता वर्मा की आवाज़ में कन्नड साहियत्यकार रामचन्द्र भावे की कहानी 'वारिस' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं सुधा अरोड़ा की कहानी "अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी", जिसको स्वर दिया है प्रीति सागर ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 14 मिनट 24 सेकंड।

इस कहानी का टेक्स्ट हिन्दीनेस्ट पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



आत्माएं कभी नहीं मरतीं। इस विराट व्योम में, शून्य में, वे तैरती रहती हैं - परम शान्त होकर।
~ सुधा अरोड़ा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

कहीं मेरे पति घर में घुसते ही इन सब पर चप्पलों की चटाख-चटाख बौछार न कर दें या मेरी सास इन पर केतली का खौलता हुआ पानी न डाल दें।
(सुधा अरोड़ा की "अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी" से एक अंश)


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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#Eighty Sixth Story, annpoorna mandal ki akhiri chitthi: Sudha Arora/Hindi Audio Book/2010/30. Voice: Preeti Sagar

Thursday, August 5, 2010

बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा....जब इकबाल सिद्धिकी ने सुर छेड़े पंचम के निर्देशन में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 455/2010/155

"सेहरा में रात फूलों की", आज इस शृंखला में जो ग़ज़ल गूंज रही है, वह है पंचम, यानी राहुल देव बर्मन का कॊम्पोज़िशन। एक फ़िल्म आई थी १९८८ में 'रामा ओ रामा'। फ़िल्म तो नहीं चली, लेकिन इस फ़िल्म के कम से कम तीन गानें उस समय रेडियो पर ख़ूब बजे थे। एक तो था अमित कुमार और जयश्री श्रीराम का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "रामा ओ रामा, तूने ये कैसी दुनिया बनाई"; दूसरा गीत था मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में "ऐ हसीं नाज़नीं गुलबदन महजवीं"; और तीसरी थी गज़ल इक़बाल सिद्दिक़ी की गायी हुई यह ग़ज़ल "बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा"। बिलकुल ग़ुलाम अली स्टाइल की गायकी को अपनाया गया है इस ग़ज़ल में, जिसके शायर हैं आरिफ़ ख़ान। वैसे इस फ़िल्म के बाक़ी गीतों को आनंद बक्शी ने लिखा था। दोस्तों, अस्सी का यह दौर राहुल देव बर्मन के लिए बहुत अच्छा नहीं रहा। उस समय कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्त्यारेलाल की तरह उनका संगीत भी पिट रहा था, फ़िल्में भी पिट रही थीं। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भले ही व्यावसायिक रूप से उनका यह दौर असफल रहा हो, लेकिन 'इजाज़त' और 'लिबास' जैसा अभूतपूर्व संगीत भी उन्होंने इसी दौर में दिया था। पंचम के ज़िंदगी के अंतिम कुछ वर्ष तो ऐसे भी हुए कि उनसे कहीं कमज़ोर स्तर की रचनाएँ देनेवाले संगीतकार लोकप्रिय हो रहे थे, और उनके पास निर्माताओं की भीड़ रहती थी जब कि राहुल देव बर्मन की यह हालत थी कि आशा भोसले को एक साक्षात्कार में यह कहना पड़ा कि उनके जैसे क़ाबिल कॊम्पोज़र की फ़िल्म जगत द्वारा की जा रही उपेक्षा दुर्भाग्यपूर्ण है। इस दौर में पंचम के कई उत्कृष्ट रचनाएँ रहीं। और फ़िल्म 'रामा ओ रामा' की यह ग़ज़ल भी उन्ही उत्कृष्ट रचनाओं में शामिल है। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इसी ख़ूबसूरत ग़ज़ल की बारी। राग दरबारी की छाया लिए और संतूर से सुशोभित इस ग़ज़ल को सुनना आज भी एक सुखद अनुभूति ही होती है। दोस्तों, हमें यकीन है इस ग़ज़ल को आपने बरसों से नहीं सुना होगा और आज इसे यहाँ सुन कर आपकी उस ज़माने की कई यादें ताज़ा हो गई होंगी। क्यों है न?

'रामा ओ रामा' १९८८ में बनी थी और प्रदर्शित हुई थी २४ नवंबर के दिन। इसका निर्देशन किया था हुमायूं मिर्ज़ा और महरुख़ मिर्ज़ा ने। मिर्ज़ा ब्रदर्स कंपनी की बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण हुआ था जिसके मुख्य कलाकार थे राज बब्बर, किमि काटकर और आसिफ़ शेख़। वैसे आपको बता दें इस मिर्ज़ा ब्रदर्स बैनर में हूमायूं मिर्ज़ा और महरुख़ मिर्ज़ा के अलावा एक नाम शाहरुख़ मिर्ज़ा का भी आता है। इस कंपनी ने कई फ़िल्मों का निर्माण किया है समय समय पर जिनमें शामिल है 'मिसाल' (१९८५), 'रामा ओ रामा' (१९८८), 'यारा दिलदारा' (१९९१) और 'माशूक़' (१९९२)। इन सभी फ़िल्मों में एक समानता यह है कि ये फ़िल्में बॊक्स ऒफ़िस पर बहुत ज़्यादा नहीं चली, लेकिन इन सब का गीत संगीत पसंद किया गया, लेकिन फ़िल्म के ना चलने से लोगों ने इन्हे बहुत ज़्यादा दिनों तक याद नहीं रखा। ९० के शुरुआती सालों में 'यारा दिलदारा' और 'माशूक़' के गीतों ने तो ख़ूब धूम मचाई थी, 'यारा दिलदारा' का "बिन तेरे सनम" उस समय जितना लोकप्रिय हुआ था, उससे कई गुणा ज़्यादा लोकप्रिय उस वक़्त हुआ जब २००० के दशक में उसका रीमिक्स बना। यह वाक़ई दुर्भाग्यपूर्ण बात है। ख़ैर, आइए सुनते हैं आज की यह ग़ज़ल.

बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा,
हुस्नो-शबाब उसका क्या है सजा सजा सा

ये जिदगी सफर है, मंजिल भी है ये लेकिन,
तुझसा हसीन अगर हो, जीने का आसरा सा

मेरे लिए न जाने, क्यों बन गया क़यामत,
सूरत से लग रहा है, मासूम सा भला सा

परियों के जमघटें में कितना हसीन मंजर,
इतने हुजूम में भी लगता है जुदा सा

चाहत से कितनी हमने, एक दूसरे को देखा,
मैं भी जैसे प्यासा, वो भी था जैसे प्यासा



क्या आप जानते हैं...
कि राहुल देव बर्मन ने एक साक्षात्कार में स्वयं यह कबूल किया था कि उनकी संगीतबद्ध ८० के दशक की २३ फ़िल्में एक के बाद एक फ़्लॊप हुई हैं।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. गज़ल किंग कहा जाता है इन्हें जिनकी आवाज़ में ये गज़ल है, नाम बताएं - २ अंक.
२. शायर आज के बेहद सफल गीत कार हैं यहाँ, नाम बताएं - ३ अंक.
३. फारूख शेख अभिनीत फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
४. संगीतकार कौन है इस गीत के - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पवन कुमार जी आप लगता है शरद जी को सही टक्कर देने वाले हैं. प्रतिभा जी और किशोर जी एकदम सही जवाब के साथ हाज़िर हुए और नवीन जी भी, काफी नए नाम आ रहे हैं, अच्छा लगा रहा है. इंदु जी फिल्म और नायिका के विषय में तो कुछ नहीं कह सकते पर गज़ल बेहद खूबसूरत है सुनने में, और पंचम के संगीत में सितार का जो इस्तेमाल हुआ है वो गजब ही है. पता नहीं आपको क्यों नहीं लगती ये गज़ल अच्छी. और मनु जी सिर्फ बहर में होने ही तो किसी गज़ल के अच्छे होने का पैमाना नहीं है, जो चीज़ सुनने के लिए बनी है, उसे सुनकर आनंद उठाईये बिना सुने ही आप मुंसिफ बन फैसला काहे करते हैं :). इस मामले में हमें अवध जी ठीक लगे, जो कानों को भाये वही अच्छा....शरद जी आपकी कमी खलेगी, वैसे अब हम रविवार शाम ही उपस्तिथ होंगें. चलते चलते स्कोर हो जाए - शरद जी ७७, अवध जी ६६, इंदु जी 29 और तेज़ी से बढ़कर ११ पर आ गए पवन कुमार जी, बाकी सब अभी १० से नीचे हैं. बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, August 4, 2010

वो एक दोस्त मुझको खुदा सा लगता है.....सुनेंगे इस गज़ल को तो और भी याद आयेंगें किशोर दा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 454/2010/154

मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, और लता मंगेशकर के बाद आज बारी है किशोर दा, यानी किशोर कुमार की। और क्यों ना हो, आज ४ अगस्त जो है। ४ अगस्त यानी किशोर दा का जन्मदिन। पिछले साल आज ही के दिन से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आपको सुनवाया था किशोर दा के गाए दस अलग अलग मूड के गीतों पर आधारित शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़ - किशोर कुमार'। और इस साल, यानी कि आज के दिन जब ८० के दशक के कुछ बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़लों की शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की' चल ही रही है, तो क्यों ना किशोर दा की गाई एक बहुत ही कम सुनी लेकिन बेहद सुंदर ग़ज़ल को याद किया जाए। यह फ़िल्म थी 'सुर्ख़ियाँ' जो आयी थी सन् १९८५ में। यह एक समानांतर फ़िल्म थी जिसका निर्माण अनिल नागरथ ने किया था और निर्देशक थे अशोक त्यागी। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दिन शाह, मुनमुन सेन, सुरेश ओबेरॊय, रामेश्वरी, अरुण बक्शी, ब्रह्म भारद्वाज, कृष्ण धवन, गुलशन ग्रोवर, एक. के. हंगल, पद्मिनी कपिला, भरत कपूर, पिंचू कपूर, कुलभूषण खरबंदा, विनोद पाण्डेय, सुधीर पाण्डेय, आशा शर्मा और दिनेश ठाकुर। इन तमाम कलाकारों के नामों को पढ़कर आपको उस ८० के दशक के दूरदर्शन का ज़माना ज़रूर याद आ गया होगा क्योंकि इनमें से अधिकतर कलाकार उस समय दूरदर्शन के धारावाहिकों में काफ़ी प्रचलित थे। ख़ैर, बात करते हैं किशोर कुमार की गायी इस फ़िल्म की उस ग़ज़ल की जो आज हम आपको सुनवाने जा रहे हैं। "वो एक दोस्त जो मुझको ख़ुदा सा लगता है, बहुत क़रीब है फिर भी जुदा सा लगता है"। क्या ख़ूब लिखा है इंदीवर साहब ने और संगीत तैयार किया है समानांतर सिनेमा के जाने माने संगीतकार वनराज भाटिया। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पहली बार उनका संगीत गूंज रहा है।

दोस्तों, जैसा कि हमने कहा कि वनराज भाटिया समानांतर सिनेमा के स्तंभ संगीतकार रहे और ऐसे संजीदे फ़िल्मों को अपने पुर-असर संगीत के द्वारा और भी प्रभावशाली बनाते रहे। उनके संगीत से सजी कुछ ऐसी ही यादगार समानांतर फ़िल्मों के नाम हैं 'भूमिका', 'मोहरे', 'मंथन', 'निशांत', 'जुनून', 'सरदारी बेग़म', 'मण्डी', 'मम्मो', 'तरंग', 'हिप हिप हुर्रे', 'सुर्ख़ियाँ, आदि। फ़िल्म 'सुर्ख़ियाँ' में उन्होने किशोर कुमार से यह ग़ज़ल गवाया था, इसके अलावा वनराज भाटिया के संगीत में किशोर कुमार ने इसी फ़िल्म में आशा भोसले के साथ एक युगल गीत गाया था "दिल ज़िंदा रखने के लिए" तथा एक और एकल गीत "एक लम्हा तो बिना दर्द के गुज़र जाए"। यह फ़िल्म किशोर दा के जीवन के आख़िर के सालों की फ़िल्म थी, लेकिन उनकी आवाज़ में कितनी जान थी इस ग़ज़ल को सुनते हुए आप महसूस कर पाएँगे। क्योंकि आज वनराज भाटिया पहली बार 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शान बने हैं, तो क्यों ना थोड़ी सी जानकारी उनके बारे में भी दे दी जाए। एम.ए की डिग्री पूरी करने के बाद वनराज भाटिया यूरोप चले गए थे। उनके पिताजी उन्हे एक वकील बनाना चाहते थे, लेकिन संगीत में उनकी रुचि को देखते हुए उन्हे ६ महीने का समय दिया ताकि वो यूरोप जाकर स्कॊलरशिप की खोज बीन कर सके। यदि ना मिला तो वापस लौट कर वकालती के लिए कोशिश करे। लेकिन वनराज साहब ने ६ महीनों के अंदर एक नहीं बल्कि दो दो स्कॊलरशिप अपने नाम कर ली। पहले वो रॊयल अकाडेमी में गए और फिर उसके बाद फ़्रान्स के रॊशर फ़ेलो फ़ाउण्डेशन में। बताने की ज़रूरत नहीं कि ये दोनो संस्थान संगीत सीखने के लिए विश्व प्रसिद्ध माने जाते हैं। यूरोप में ११ साल तक संगीत साधना में रह कर और संगीत की उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त कर सन् १९५९ में वो भारत लौट। यहाँ वापस आकर वो दिल्ली के 'सर शंकरलाल इन्स्टिट्युट ऒफ़ म्युज़िक' में रीडर की नौकरी कर ली। और उसके बाद उनकी मुलाक़ात हुई श्याम बेनेगल से जिनके साथ मिलकर उन्होने विज्ञापन की दुनिया में क़दम रखा। और इस तरह से उनकी एंट्री हुई विज्ञापनों की दुनिया में, और उसके बाद फ़िल्मों की दुनिया में। आगे की दास्तान फिर कभी सुनाएँगे, इस वक़्त आइए आनंद लेते हैं किशोर दा की गम्भीर लेकिन मधुर आवाज़ का। उनके साथ साथ आप भी गुनगुना सकें, इसलिए इस ग़ज़ल के तमाम शेर यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

वो एक दोस्त जो मुझको ख़ुदा सा लगता है,
बहुत क़रीब है फिर भी जुदा सा लगता है।

ज़माने भर की जफ़ाओं का जब हिसाब किया,
बेवफ़ा दोस्त मुझे बावफ़ा सा लगता है।

नाख़ुदा साथ है फिर भी हमें साहिल ना मिला,
नसीब हम से हमारा ख़फ़ा सा लगता है।

ज़िंदगी डूबी हो जब ग़म के सियाख़ानों में,
एक दुश्मन भी हमें रहनुमा सा लगता है।



क्या आप जानते हैं...
कि वनराज भाटिया मुम्बई के नेपिएन्सी रोड के जिस रोंग्टा हाउस में रहते हैं, वह इमारत ना केवल ३०० साल पुरानी है, बल्कि उसमें किसी ज़माने में 'सागर मूवीटोन' हुआ करता था। बाद में अभिनेता मोतीलाल, अभिनेत्री सबिता देवी और जाने माने रेकॊर्डिस्ट कौशिक साहब भी यहीं पर रह चुके हैं।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. मतले में शब्द है -"महबूब", शायर बताएं - ३ अंक.
२. हुमायूं मिर्ज़ा और महरुख़ मिर्ज़ा निर्देशित इस फिल्म का नाम क्या है - १ अंक.
३. पंचम के संगीत निर्देशन में किस गायक की आवाज़ है इसमें - २ अंक.
४. ८० के दशक की इस फ्लॉप फिल्म में नायिका कौन थी - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतिभा जी और शरद जी २-२ अंक आप दोनों के खाते में हैं, किश जी आप चूक गए ३ अंकों के सवाल में, इंदु जी वाकई "ओ बेकरार दिल" बहुत ही प्यारा गीत है.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई .. अली सरदार जाफ़री के दिल का गुबार फूटा जगजीत सिंह के सामने



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९५

"शायर न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है और न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी से प्याले बना सकता है। वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली (अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल (वातावरण) और समाज को तबदील करता है।"

शायर की परिभाषा देती हुई ये पंक्तियाँ उन शायर की हैं, जिनकी पिछले १ अगस्त को पुण्यतिथि थी। जी हाँ, इस १ अगस्त को उनको सुपूर्द-ए-खाक हुए पूरे १० साल हो गए। २९ नवंबर १९१३ को जन्मे "सरदार" ७७ साल की उम्र में इस जहां-ए-फ़ानी से रूखसत हुए। मैं ये तो नहीं कह सकता कि आज की महफ़िल सजाने से पहले मुझे इस बात की जानकारी थी, लेकिन कहते हैं ना कि कुछ बातें बिन जाने हीं सही हो जाती हैं। तो ये देखिए. हमें यह सौभाग्य हासिल हो गया कि हम अपनी महफ़िल के माध्यम से इस महान शायर को श्रद्धंजलि अर्पित कर सकें।

सरदार यानि कि अली सरदार जाफ़री.. हमने इनका ज़िक्र पिछली कई सारी महफ़िलों में किया है। दर-असल हमारी पिछली ४-५ महफ़िलें इन्हीं के बदौलत मुमकिन हो पाईं थीं। नहीं समझे? आपको याद होगा कि हमने "मजाज़ लखनवी", "फ़िराक़ गोरखपुरी", "जोश मलीहाबादी", "मखदूम मोहिउद्दीन" और "जिगर मुरादाबादी" पर महफ़िलें सजाई थीं, तो इन सारे शायरों पर लिखने की प्रेरणा और इनके बारे में जानकारी हमें सरदार के हीं धारावाहिक "कहकशां" से हासिल हुई थीं। इन शायरों पर बड़े-बड़े आलेख लिख देने के बाद हमने सोचा कि क्यों न अब उनको नमन किया जाए, जो औरों को नमन करने में मशरूफ़ हैं। आज की महफ़िल उसी सोच की देन है।

हमारी कुछ महफ़िलों के लिए जिस तरह सरदार अहम हिस्सा साबित हुए हैं, उसी तरह एक और रचनाकार हैं, जिनके बिना हमारी कुछ महफ़िलों की कल्पना नहीं की जा सकती। उन लेखक, उन रचनाकार का नाम है "प्रकाश पंडित"। इन्होंने "अमूक शायर" (यहाँ पर आप किसी भी बड़े शायर का नाम बैठा लीजिए) और उनकी शायरी" नाम से कई सारी पुस्तकों का संकलन किया है। हमारे हिसाब से यह बड़ी हीं मेहनत और लगन का काम है। इसलिए हम उनको सलाम करते हुए उनसे "सरदार" के कुछ किस्से सुनते हैं:

आधुनिक उर्दू शायरी का यह साहसी शायर शान्ति और भाईचारे के प्रचार और परतंत्रता, युद्ध और साम्राजी हथकंडों पर कुठाराघात करने के अपराध में परतंत्र भारत में भी कई बार जेल जा चुका है और स्वतंत्र भारत में भी। यह शायर बलरामपुर ज़िला गोंडा (अवध) में पैदा हुआ। घर का वातावरण उत्तर-प्रदेश के मध्यवर्गीय मुस्लिम घरानों की तरह ख़ालिस मज़हबी था, और चूकिं ऐसे घरानों में ‘अनीस’ के मर्सियों को वही महत्व प्राप्त है जो हिन्दू घरानों में गीता के श्लोकों और रामायण की चौपाइयों को, अतएव अली सरदार जाफ़री पर भी घर के मज़हबी और इस नाते अदबी (साहित्यिक) वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ा और अपनी छोटी-सी आयु में ही उसने मर्सिये (शोक-काव्य) कहने शुरू कर दिये और १९३३ ई. तक बराबर मर्सिये कहता रहा। उसका उन दिनों का एक शेर देखिये :

अर्श तक ओस के क़तरों की चमक जाने लगी।
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी।।

लेकिन बलरामपुर से हाई स्कूल की परीक्षा पास करके जब वह उच्च शिक्षा के लिए मुस्लिम युनिवर्सिटी अलीगढ़ पहुँचा तो वहाँ उसे अख्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्वी, मजाज, जां निसार ‘अख्तर’ और ख्वाजा अहमद अब्बास ऐसे लेखक साथी मिले और वह विद्यार्थियों के आन्दोलनों में भाग लेने लगा। फिर विद्यार्थी की एक हड़ताल (वायसराय की एग्जै़क्टिव कौंसल के सदस्यों के विरुद्ध जो अलीगढ़ आया करते थे) कराने के सम्बन्ध में युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया तो उस की शायरी का रुख़ आप-ही-आप मर्सियों से राजनैतिक नज़्मों की ओर मुड़ गया। ऐंग्लो-एरेबिक कालेज देहली से बी.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद जब वह बम्बई पहुँचा और कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य बना और फिर उसे बार-बार जेल-यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो उसकी शायरी ने ऐसे पर-पुर्ज़े निकाले और उसकी ख्याति का वह युग प्रारंभ हुआ कि प्रतिक्रियावादियों को कौन कहे स्वयं प्रगतिशील लेखक भी दंग रह गये।

उसके समस्त कविता-संग्रहों परवाज़ नई दुनिया को सलाम’, ‘खून की लकीर’, ‘अमन का सितारा’, ‘एशिया जाग उठा’ और ‘पत्थर की दीवार’ का अध्ययन करने से जो चीज़ बड़े स्पष्ट रूप में हमारे सामने आती है और जिसमें हमें सरदार की कलात्मक महानता का पता चलता है, वह यह है कि उसे मानवता के भव्य भविष्य का पूरा-पूरा भरोसा है। यही कारण है कि हमें सरदार जाफ़री के यहाँ किसी प्रकार की निराशा, थकन, अविश्वास और करुणा का चित्रण नहीं मिलता, बल्कि उसकी शायरी हमारे मन में नई-नई उमंगें जगाती है और हम शायर की सूझ-बूझ और उसके आशावाद से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।

जाफ़री की शायरी की आयु लगभग वही है जो भारत में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की। सरदार जाफ़री ने प्रत्येक अवसर पर न केवल अपनी मानव-मित्रता की मशाल जलाई बल्कि मानव-शत्रुओं के विरुद्ध अपनी पवित्र घृणा भी प्रकट की। उसने केवल परिस्थितियों की नब्ज़ सुनने तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा बल्कि उन धड़कनों के साथ-साथ उसका अपना दिल भी धड़कता रहा है। लेकिन इन्हीं कारणों से कुछ आलोचकों की राय यह भी है कि अधिकतर सामायिक विषयों पर शेर कहने के कारण सरदार जाफ़री की शायरी भी सामयिक है और नई परिस्थितियां उत्पन्न होते ही उसका महत्व कम हो जाएगा। एक हद तक मैं भी उन साहित्यकारों से सहमत हूं लेकिन सरदार जाफ़री के इस कथन को एकदम झुठलाने का भी मैं साहस नहीं कर पाता जिसमें वह स्वयं अपनी शायरी को सामयिक स्वीकार करते हुए कहता है कि "हर शायर की शायरी वक़्ती (सामयिक) होती है। मुमकिन है कि कोई और इसे न माने लेकिन मैं अपनी जगह यही समझता हूँ। अगर हम अगले वक़्तों के राग अलापेंगे तो बेसुरे हो जायेंगे। आने वाले ज़माने का राग जो भी होगा, वह आने वाली नस्ल गायेंगी। हम तो आज ही का राग छेड़ सकते हैं।"

जाफ़री के आलोचक भी कम नहीं रहे। प्रगतिशील शक्तियों से अपना सीधा सम्बन्ध स्थापित करने और अपनी कलात्मक ज़िम्मेदारी का पूरी तरह अनुभव कर लेने के बाद जब सरदार ने शायरी के मैदान में क़दम रखा और जो कुछ उसे कहना था बड़े स्पष्ट स्वर में कहने लगा तो शायरी की रूढ़िगत परम्पराओं के उपासकों का बौखला उठना ठीक उसी प्रकार आवश्यक था जिस प्रकार की १९वीं शताब्दी के प्रसिद्ध उर्दू साहित्यकार मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ को अठारहवीं शताब्दी के उर्दू के सर्वप्रथम जन-कवि ‘नज़ीर’ अकबराबादी के यहां बाज़ारूपन और अश्लीलता नज़र आई थी। लेकिन जिस तरह अंग्रेजी के प्रख्यात आलोचक डाक्टर फ़ेलन ने नज़ीर के बारे में कहा कि " ’नज़ीर’ ही उर्दू का वह एकमात्र शायर है (अपने काल का) जिसकी शायरी योरुप वालों के काव्य-स्तर के अनुसार सच्ची शायरी है।" उसी तरह २०वीं और २१वीं शताब्दी के आलोचकों को यह यकीन होने लगा है कि जिन विचारों को सरदार नज़्म करता है वे सीधे हमारे मस्तिष्क को छूते हैं और हमारे भीतर स्थायी चुभन और तड़प, वेग और प्रेरणा उत्पन्न करते हैं।

सरदार अपनी प्रकाशित कृतियों के कारण जाने जाते हैं। ये कृतियाँ हैं: ‘परवाज़’ (१९४४), ‘जम्हूर’ (१९४६), ‘नई दुनिया को सलाम’ (१९४७), ‘ख़ूब की लकीर’ (१९४९), ‘अम्मन का सितारा’ (१९५०), ‘एशिया जाग उठा’ (१९५०), ‘पत्थर की दीवार’ (१९५३), ‘एक ख़्वाब और (१९६५) पैराहने शरर (१९६६), ‘लहु पुकारता है’ (१९७८)

अपने जीवनकाल में उन्हें कई सारे सम्मान हासिल हुए, जिनमें प्रमुख हैं: ज्ञानपीठ पुरस्कार, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, कुमारन आशान पुरस्कार , इक़बाल सम्मान, पद्मश्री और रूसी सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार

अली सरदार ज़ाफ़री की शायरी क्या थी? वे कैसा लिखते थे.. इतना कुछ कह देने के बाद प्रमाण देना तो जरूरी है। यह प्रमाण खुद सरदार अपनी पुस्तक "पत्थर की दीवार" की भूमिका में देते हैं:

मैं हूँ सदियों का तफ़क्कुर, मैं हूं क़र्नों का ख़्याल,
मैं हूं हमआग़ोश अज़ल से मैं अबद से हमकिनार।


यानि कि मैं सदियों का मनन हूँ, मैं सदियों का ख़्याल हूँ। मैं आदिकाल को अपने आगोश में लिए हुए हूँ और मैं अन्तकाल के गले मिला हुआ भी हूँ। इस तरह से सरदार ने अपना काव्यात्मक परिचय दिया है।

चलिए इन परिचयों और जानकारियों के बाद आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। अब चूँकि हमने पिछली महफ़िल में जगजीत सिंह जी की ग़ज़ल सुनाई थी, इसलिए कायदे से आज किसी और गुलुकार की ग़ज़ल होनी चाहिए थी। लेकिन चूँकि सरदार को बहुत कम हीं फ़नकारों ने गाया है, इसलिए हमें फिर से जगजीत सिंह जी को हीं न्योता देना पड़ा। तो आज की ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल करने हमारी महफ़िल में फिर से हाज़िर हैं ग़ज़लजीत जगजीत सिंह जी। इस ग़ज़ल को हमने उनके एल्बम "रवायत" से लिया है। तो लुत्फ़ उठाई उनकी दर्दभरी मखमली आवाज़ का:

आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुस्वाई

ये फूल से चेहरे हैं हँसते हुए गुलदस्ते
कोई भी नहीं अपना बेग़ाने हैं सब रस्ते
राहें हैं तमाशाई राही भी तमाशाई
मैं और मेरी तन्हाई

अरमान सुलगते हैं सीने में चिता जैसे
क़ातिल नज़र आती है दुनिया की हवा जैसे
रोती है मेरे दिल पर बजती हुई शहनाई
मैं और मेरी तन्हाई

आकाश के माथे पर तारों का चराग़ां है
पहलू में मगर मेरे ज़ख़्मों का गुलिस्तां है
आँखों से लहू टपका ____ में बहार आई
मैं और मेरी तन्हाई




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "शबाब" और शेर कुछ यूँ था-

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़्त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

मेरे ख़त का जवाब आया है
उसमें पिछला हिसाब आया है
अब चमन को भी जरूरत उनकी
ऐसा उन पर शवाब आया है। (शरद जी)

यकसां है मेरे हुज़ूर और चाँद का वजूद
दिमाग-औ-दिल पे छाया हुआ रुआब सी है वो
तल्खी- ऐ- शबाब यार की किस लफ्ज़ में कहूं
शराब मैं भीगा हुआ एक गुलाब सी है वो (अवनींद्र जी) वाह! क्या बात है! माशा-अल्लाह!

शोखियों में घोला जाय फूलों का शबाब
उसमे फिर मिलायी जाए थोड़ी सी शराब ,
होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है (गोपाल दास "नीरज")

बहार बन मौसम आया है ,कलियों पे शबाब आया है
चमन की गलियों में गाते ,हुजूम भंवरों का आया है. (शन्नो जी)

उनके आने पर मौसम में शवाब आया ,
उनके जाने पर वियोग का खुमार छाया (मंजु जी)

पिछली दफ़ा मित्रों की उपस्थिति कम थी। कहीं आप-सब मित्र मेरी बातों का बुरा तो नहीं मान गए। अगर ऐसी बात है तो लीजिए मैं कान पकड़ता हूँ। चलिए गाल भी आगे कर दिया.... लगा दीजिए एक-दो थप्पड़। मेरी गलतियों की सज़ा मुझे देकर अपने अंदर की सारी भंड़ास निकाल लीजिए, लेकिन अपनी इस महफ़िल से दूर मत जाईये। नहीं जाएँगे ना? तो उम्मीद है कि आप आज की इस महफ़िल से नदारद नहीं होंगे। हाँ तो पिछली महफ़िल की कुछ बातें करते हैं। अपनी भूल मानते हुए आशीष जी महफ़िल में सबसे पहले दाखिल हुए। आपने बड़े हीं प्यार से अपना पक्ष रखा। यकीन मानिए, मुझे आपसे ज्यादा बाकी प्रियजनों से शिकायत थी। आप कतई भी बुरा न मानें। वैसे आपने तो सबसे पहली टिप्पणी डालकर महफ़िल की शुरू की थी और की है। इसलिए आप तो बधाई के पात्र हैं। ये अलग बात है कि शरद जी ने आपसे पहले शेर सुनाकर शान-ए-महफ़िल की गद्दी हथिया ली :) अवनींद्र जी, आपने अपनी गलती मानी, यही बहुत है मेरे लिए। और आपने जो शेर डाला... उसके बारे में क्या कहूँ। दिल खुश हो गया.. शन्नो जी, आपको मेरा झटका देना अच्छा लगा, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं है कि आप सिकुड़-सिकुड़ कर महफ़िल में आओ और अनमने ढंग से कुछ कह कर निकल जाओ। महफ़िल को आपके बेबाकपन की जरूरत है.. बिल्कुल नीलम जी जैसा। इस बार से आपका यह सहमा-सा बर्ताव नहीं चलेगा। समझीं ना? :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, August 3, 2010

अहले दिल यूँ भी निभा लेते हैं....नक्श साहब का कलाम और लता की पुरकशिश आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 453/2010/153

ख़य्याम साहब एक ऐसे संगीतकार रहे जिन्होने ना केवल अपने संगीत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया, बल्कि उन्होनें कभी सस्ते बोल वाले गीतों को स्वरबद्ध करना भी नहीं स्वीकारा। नतीजा यह कि ख़य्याम साहब का हर एक गीत उत्कृष्ट है, क्लासिक है। ख़्य्याम साहब ८० के दशक के उन गिने चुने संगीतकारों में से हैं जिन्होने फ़िल्म संगीत के बदलते तेवर के बावजूद अपने स्तर को बनाए रखते हुए एक से एक नायाब गानें हमें दिए। इसलिए आश्चर्य की बात बिलकुल नहीं है कि हमारी इस शृंखला में कुल १० ग़ज़लों में से ४ ग़ज़लें ख़य्याम साहब की कॊम्पोज़ की हुई हैं। इन चार ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल फ़िल्म 'उमरावजान' से कल आपने सुनी, आज दूसरी ग़ज़ल की बारी। और इस बार आवाज़ आशा जी की बड़ी बहन लता जी की। नक्श ल्यालपुरी साहब का कलाम है और क्या ख़ूब उन्होने लिखा है कि "अहल-ए-दिल यूँ भी निभा लेते हैं, दर्द सीने में छुपा लेते हैं"। आज 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में इसी ग़ज़ल की बारी। १९८१ की फ़िल्म 'दर्द' की यह ग़ज़ल है। इस फ़िल्म के गीतों की अगर बात करें तो इसमें दो शीर्षक गीत शामिल हैं; एक तो आशा-किशोर का गाया "प्यार का दर्द है, मीठा मीठा प्यारा प्यारा", और दूसरा है यह प्रस्तुत ग़ज़ल। इस ग़ज़ल के भी दो वर्ज़न हैं, पहला लता जी का गाया हुआ और दूसरा भूपेन्द्र की आवाज़ में। ख़य्याम साहब के हिसाब से पहला गीत यंग जेनरेशन के लिहाज़ से बना था, और दूसरा गीत, यानी कि यह ग़ज़ल सीनियर जेनरेशन के लिए बनाया गया था। फ़िल्म 'दर्द' का निर्माण किया था श्याम सुंदर शिवदासानी ने और निर्देशक थे अम्ब्रीश संगल। फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी ३१ जुलाई १९८१ के दिन, जिसके मुख्य कलाकार थे राजेश खन्ना, हेमा मालिनी, पूनम ढिल्लों, कृषण धवन प्रमुख।

नक्श ल्यालपुरी ने ख़य्याम के साथ बहुत सी फ़िल्मों में काम किया है, जैसे कि 'दर्द', 'आहिस्ता आहिस्ता', 'ख़ानदान', 'नूरी', आदि। जब नक्श साहब को विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में ख़य्याम साहब के बारे में पूछा गया, तो और बातों ही बातों में फ़िल्म 'दर्द' का भी ज़िक्र आया था। आइए उसी मुलाक़ात का एक अंश यहाँ पढ़ते हैं -

प्र: ख़य्याम साहब से जुड़ी कोई यादगार घटना याद है आपको?

उ: फ़िल्म 'दर्द' में एक गाना था "न जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया", इस गीत के लिए जब मैंने मुखड़ा फ़ाइनलाइज़ किया तो ख़य्याम साहब बोले कि यह तो अंतरे का मीटर है, आपने इसे मुखड़ा बना दिया! मैंने कहा कि सभी को पसंद आ गया और यह भी अच्छा बन सकता है। जब यह गाना बना तो राजेश खन्ना हर एक को यह गाना पूरे एक महीने तक सुनवाते रहे।

प्र: ख़य्याम साहब का कौन सा गीत आपको सब से ज़्यादा पसंद है?

उ: "बहारों मेरा जीवन भी संवारो", 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का यह गीत मेरा फ़ेवरीट है। फिर 'शगुन', 'फिर सुबह होगी' और 'उमरावजान' के गानें भी मुझे बेहद पसंद है।

प्र: ख़य्याम साहब आज भी ऐक्टिव हैं फ़िल्म जगत में।

उ: जी हाँ, भगवान उन्हे लम्बी उम्र दे!

तो दोस्तों, यह तो रही नक्श ल्यालपुरी से कमल शर्मा की बातचीत का एक छोटा सा अंश जिसमें ज़िक्र छिड़ा था ख़य्याम साहब का। आइए अब इस प्यारी सी ग़ज़ल को सुना जाए लता जी की शहद घोलती आवाज़ में, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के कुल ७ शेर ...

लता वर्ज़न:

अहल-ए-दिल युं भी निभा लेते हैं,
दर्द सीने में छुपा लेते हैं।

दिल की महफ़िल में उजालों के लिए,
याद की शम्मा जला लेते हैं।

जलते मौसम में भी ये दीवाने,
कुछ हसीं फूल खिला लेते हैं।

अपनी आँखों को बनाकर ये ज़ुबाँ,
कितने अफ़सानें सुना लेते हैं।

जिनको जीना है मोहब्बत के लिए,
अपनी हस्ती को मिटा लेते हैं।

भूपेन्द्र वर्ज़न:

अहल-ए-दिल युं भी निभा लेते हैं,
दर्द सीने में छुपा लेते हैं।

ज़ख़्म जैसे भी मिले ज़ख़्मों से,
दिल के दामन को सजा लेते हैं।

अपने क़दमों पे मुहब्बत वाले,
आसमानों को झुका लेते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि नक्श ल्यालपुरी ने फ़िल्मों के लिए करीब करीब ६० मुजरे लिखे हैं और हर एक का अंदाज़ एक दूसरे से अलग रहा। यह बात उन्होने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में कहा था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. मतले की पहली पंक्ति में शब्द है "खुदा", शायर बताएं - ३ अंक.
२. कल इस महान गायक की जयंती है, नाम बताये - १ अंक.
३. १९८५ में प्रदर्शित इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
४. इस संगीतकार को भी कल हम पहली बात ओल्ड इस गोल्ड में सुनेंगे, जिन्हें सामानांतर फिल्मों के संगीतकार के रूप में अधिक जाना जाता है, कौन हैं ये कमाल के संगीतकार - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी आपने ओ सवालों के जवाब दे डाले, इसलिए आपको नक् नहीं मिल पायेंगें, पर आपने एक खूबसूरत याद को हमारे साथ शेयर किया, वाकई वो दिन भी कुछ खास थे, शरद जी, और पवन जी सही जवाबों के लिए बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"इश्क़ महंगा पड़े फिर भी सौदा करे".. ऐसा हीं एक सौदा करने आ पहुँचें हैं कभी साफ़, कभी गंदे, "लफ़ंगे परिंदे"



ताज़ा सुर ताल २९/२०१०

विश्व दीपक - नमस्कार दोस्तों! जैसा कि हाल के सालों में हम देखते आ रहे हैं.. आज के फ़िल्मकार नई नई कहानियाँ हिंदी फ़िल्मों में ला रहे हैं। वैसे तो ज़्यादातर फ़िल्मों की कहानियों का आधार नायक-नायिका-खलनायक ही होते रहे हैं और आज भी है, लेकिन बदलते समाज और दौर के साथ साथ फ़िल्म के पार्श्व में काफ़ी परिवर्तन आ गए हैं। अब आप ही बताइए मुंबई के 'बाइक गैंग्स' पर किसी फ़िल्म की कल्पना क्या ७० के दशक में की जा सकती थी?

सुजॊय - क्योंकि फ़िल्म समाज का आईना कहलाता है, तो बदलते दौर के साथ साथ, बदलते समाज के साथ साथ फ़िल्में भी बदल रही है। और यही बात लागू होती है फ़िल्म संगीत पर भी। जब जब फ़िल्मी गीतों के गिरते हुए स्तर पर लोग चर्चा शुरु कर देते हैं, तब भी उन्हें इसी बात को ध्यान में रखना होगा कि अब वक़्त बदल गया है। आज की नायिका अगर "चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है" जैसे गीत गाये, तो वह बहुत ज़्यादा नाटकीय और बेमानी लगेगी। इसलिए बदलते दौर के साथ साथ बदलते संगीत को भी खुले दिल से स्वीकारें, इसी में शायद सब की भलाई है। हाँ, यह ज़रूर है कि गीतों का स्तर नहीं गिरना चाहिए। अच्छा फ़नकार वही है जो लाख पाबंदियों के बावजूद भी अच्छा काम कर निकल जाए। और पिछले कुछ दिनों से हम देख भी रहे हैं कि कुछ कलाकार इस ओर ध्यान दे भी रहे हैं।

विश्व दीपक - तो अब आज की फ़िल्म की चर्चा शुरु की जाए! जैसा कि हमने पिछले हफ़्ते हीं इशारा कर दिया था, आज हम लेकर आए हैं फ़िल्म 'लफ़ंगे परिंदे' के गीतों को। यह फ़िल्म मुंबई के बाइक गैंग्स की कहानी है जिसका निर्माण किया है आदित्य चोपड़ा ने और निर्देशन है प्रदीप सरकार का। नील नितिन मुकेश फ़िल्म के नायक हैं जो नंदु की भूमिका में नज़र आएँगे, जो एक फ़ाइटर है और जो आँखों में पट्टी लगाकर रिंग में लड़ेंगे। उधर फ़िल्म की नायिका बनीं हैं दीपिका पडुकोण जो निभा रही है पिंकी का किरदार, जो एक नृत्यांगना है और जो नेत्रहीन है। नंदु पिंकी को अपनी आँखों से दुनिया दिखाता है तो पिंकी उसे प्यार करना सिखाती है। लेकिन इन दोनों को अपने प्यार के लिए किस तरह की कीमत चुकानी होगी, यह आप ख़ुद देख लीजिएगा २० अगस्त के बाद, यानी जब यह फ़िल्म प्रदर्शित हो जाएगी।

सुजॊय - तो दोस्तों, यश राज के बैनर तले बनने वाली इस फ़िल्म का पहला गीत सुनते हैं नवोदित गायक रोनित सरकार की आवाज़ में। फ़िल्म के गीतकार हैं प्रदीप सरकार के चहेते गीतकार स्वानंद किरकिरे, और संगीत के लिए चुना गया है आर. आनंद को।

गीत - लफ़ंगे परिंदे


विश्व दीपक - आजकल रॊक शैली का लगभग सभी फ़िल्मों में इस्तेमाल हो रहा है। पिछले कुछ हफ़्तों में हमने जिन जिन फ़िल्मों के गानें इस स्तंभ में सुने हैं, उन सब में एक ना एक रॊक अंदाज़ का गीत ज़रूर रहा है। "लफ़ंगे परिंदे" गीत भी उसी रॊक स्टाइल का है। हेवी मेटल, गीटार की भरमार और उस पर रोनित सरकार की वज़नदार आवाज़ धुन और इन हेवी मेटल्स के साथ पूरा पूरा न्याय करती है। यह गीत किसी रॊक ऐल्बम में होती तो इसे ज़्यादा कामयाबी मिलती, फ़िल्मी गीत के रूप में इस तरह के गीत का लोगों की ज़ुबान पर चढ़ना ज़रा मुश्किल सा हो जाता है। गीत अच्छा है इसमें कोई शक़ नहीं है, और इस गीत से इस ऐल्बम की धमाकेदार शुरुआत हुई है।

सुजॊय - इस बात पर अगर हम ग़ौर करें कि यह एक यशराज फ़िल्म है, तो हमेशा से यशराज के फ़िल्म का शीर्षक गीत बड़ा ही रोमांटिक और नर्मोनाज़ुक हुआ करता है। उस दृष्टि से यह एक उल्लंघन है उनके हीं नियमों का है और ऐसा यशराज की फ़िल्म से उम्मीद नहीं किया करते हैं लोग। तो सब को चौंका कर ही कह सकते हैं कि यशराज बैनर अब अपना इमेज बदल रहा है। अच्छा, अगले गीत की तरफ़ बढ़ने से पहले आप को यह बता दें कि इस फ़िल्म के संगीतकार आर. आनंद का दुबारा पदार्पण हुआ है फ़िल्म जगत में। इससे पहले आर. आनंद ने आग़ोश बैण्ड के ज़रिए 'पैसा' नामक ऐल्बम का निर्माण किया था। फिर उसके बाद इन्होंने दक्षिण के कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया और आनंद की आख़िरी फ़िल्म थी 'ज़ोर'। अब देखते हैं हिंदी फ़िल्मों में वो क्या कुछ कर दिखाते हैं।

विश्व दीपक - और अब "लफ़ंगे परिंदे" के बाद "मन लफ़ंगा"।

गीत - मन लफ़ंगा


सुजॊय - पिछले गीत से जो एक ख़ास मूड बन गया था, उसी मूड को आगे बढ़ाता हुआ यह गीत हमने सुना मोहित चौहान की आवाज़ में। गोवानीज़ कोरल गायन का इस्तेमाल सुना जा सकता है इस गीत में। ऒरकेस्ट्रेशन भी गोवा के संगीत जैसा लगता है। मोहित की आवाज़ ने एक बार फिर गीत के साथ पूरा पूरा न्याय किया और कहने की ज़रूरत नहीं कि मोहित चौहान एक के बाद एक सफलता की सीढ़ी चढ़ते जा रहे हैं। उनके गाये ज़्यादातर गानें ही हिट हो रहे हैं। इन दिनों 'वन्स अपन ए टाइम' का "पी लूँ" गीत हर चैनल पर सुनने को मिल रहा है जो चार्टबस्टर भी बन चुका है। "मन लफ़ंगा" गीत का एक रीमिक्स भी है फ़िल्म के ऐल्बम में लेकिन ऒरिजिनल के साथ इसकी तुलना अर्थहीन है।

विश्व दीपक - अकोस्टिक गीटार का जो इस्तेमाल हुआ है, वह कई दृष्टि से नवीन लगता है। एक सादा सरल बीट और रीदम गीत के प्रवाह को कर्णप्रिय बनाता है और लगता है कि यह गीत भी एक मक़बूल रोमांटिक गीत के रूप में उभर कर आएगा। स्वानंद के बोल भी कमाल के हैं कि नायक कह रहा है कि उसे अपने मन पर कोई बस नहीं है, मन तो लफ़ंगा है, जब प्यार की बात आती है तो वो किसी की नहीं सुनता, वह मनमानी करता है। "इश्क़ महंगा लगे.. फिर भी सौदा करे".. यह पंक्ति अपने आप में हीं सारी बात कह देती है। इस गीत को पहली बार सुनने के बाद एक बार और सुनने को दिल करता है। दोस्तों, आप लोग अगला गीत सुनिए, मैं ज़रा इस गीत को दोबारा सुन कर फिर अगला गीत सुनता हूँ।

सुजॊय - अगला गीत है शैल हाडा और अनुष्का मनचंदा की अवाज़ों में, आइए सुनते हैं।

गीत - धतड़ ततड़


विश्व दीपक - इस ऐल्बम का रॊक फ़ील बरकरार रखा है इस "धतड़ ततड़" ने। शैल हाडा सांवरिया का शीर्षक गीत गाने के बाद जैसे ग़ायब हो गए थे, उन्हे वापस लौटा देख कर ख़ुशी हो रही है, क्योंकि वो बेहद गुणी कलाकार हैं। उनके इंटरव्यु से पता चलता है कि शास्त्रीय संगीत सीखे हुए कलाकार है, जिन्होंने कई सालों तक मुंबई के किसी स्कूल में बच्चों को संगीत सिखाया भी है। और इस गीत में उनके साथ अनुष्का मनचंदा की आवाज़ ने अच्छा साथ दिया है। रॊक और लोक संगीत का फ़्युज़न है इस गीत में, स्ट्रिंग्स के साथ साथ ढोल का इस्तेमाल हुआ है जो क़दमों को थिरकाने लगते हैं।

सुजॊय - सुनिधि चौहान और श्रेया घोषाल के बाद अब ऐसा लगने लगा है कि जो दो गायिका दूसरों के मुक़ाबले कुछ आगे निकल रही हैं वो हैं अनुष्का मनचंदा और शिल्पा राव। धीरे धीरे संगीतकारों की निगाहें इन्ही दो गायिकाओं पर टिक-सी रही है ऐसा प्रतीत होता है। पूरी तरह से मुंब‍इया डान्स नंबर है और लगता है और इस बार गणपति में तो शायद इसी गीत की धूम रहेगी। लोग ख़ूब झूमने वाले हैं इस गीत के साथ जैसे पिचले साल सलमान ख़ान की फ़िल्म 'वाण्टेड' का गीत "तेरा ही जल्वा" छाया हुआ था। ख़ैर, इस धतड़ ततड़ के बाद अब एक सुकूनदायक गीत की बारी शिल्पा राव की आवाज़ में हो जाए!

गीत - नैन परिंदे


विश्व दीपक - एक ख़ूबसूरत पियानो पीस के साथ शुरु होकर यह गीत बेहद सुरीला आकार ले लेता है। शिल्पा राव इस तरह के गानें एक के बाद एक गा रही हैं और उनकी आवाज़ में इस तरह के गानें ख़ूब जँचते भी हैं। "सजदे में युंही" (बचना ऐ हसीनों), "उड़ी उड़ी मुड़ी मुड़ी" (पा), "रंग दे" (लाहौर), जैसे गीत शिल्पा राव के हाल के सफल गीतों में शुमार होते हैं। इस गीत की बात करें तो स्वानंद किरकिरे के शब्द बड़े ही काव्यात्मक और अर्थपूर्ण लगते हैं।

सुजॊय - शिल्पा राव की आवाज़ दीपिका के उपर अच्छी बैठी है, जिनके लिए "सजदे में युंही" भी शिल्पा ने गाया था। देखते हैं कि क्या शिल्पा भविष्य में दीपिका का स्क्रीन वॉयस बन पाती हैं या नहीं। और अब एक और रॉक सॉंग आज के समय के सब से कामयाब रॉकस्टार सूरज जगन की आवाज़ में। सूरज जगन एक रॉक सिंगर हैं जो फ़िल्म 'रॉक ऒन' में परदे पर नज़र भी आए थे। उन्होंने उस फ़िल्म में दूसरे बैंड के लीड सिंगर का किरदार निभाया था। उनकी आवाज़ में वह जोश है, वह वज़न है, जो इन हार्ड मेटल संगीत में साफ़ साफ़ सुनाई भी दे और अपना असर भी करे।

विश्व दीपक - बेस गीटार और ईलेक्ट्रिक गीटार का ख़ूब इस्तेमाल हुआ है इस गीत में, और सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि कोरस में ढोलकी और स्कॉटिश पाइप का भी इस्तेमाल हुआ है। तो चलिए इस थिरकन भरे गीत को सुन लिया जाये। वैसे भी यह फ़िल्म का एक और शीर्षक गीत है जिसके बोल हैं "रंग डालें लफ़गे परिंदे"।

गीत - रंग डालें लफ़ंगे परिंदे


सुजॊय - हाँ तो दोस्तों, कैसा लगा 'लफ़ंगे परिंदे'? मुझे तो एक और 'रॉक ऒन' लगा। फ़िल्म की कहानी के अनुसार ये गीत बने हैं जो सिचुएशनल हैं। मोहित चौहान और शिल्पा राव वाले दो गीत एक श्रेणी में रख सकते हैं और बाक़ी के तीन गीत रॉक श्रेणी में। यकीनन हीं यह ऐल्बम ऐवरेज से ऊपर है... बल्कि मैं तो कहता हूँ कि यह ऐल्बम भी इन्हीं दिनों आए बाकी ऐल्बमों-सा मक़बूल होने का माद्दा रखता है। वैसे भी यहाँ उन परिंदों की बात हो रही है जो कभी साफ तो कभी गंदे हैं लेकिन खुलेआम उड़ते हैं.. संगीत की दुनिया में भी इन्होंने लम्बी उड़ान भरी है... है ना? "ये कभी साफ़, ये कभी गंदे, लफ़ंगे परिंदे" :-)

विश्व दीपक - सुजॉय जी, सही कहा आपने। यहाँ पर मैं संगीतकार और गीतकार दोनों की तारीफ़ करना चाहूँगा। गीतकार के बारे में क्या कुछ नया कहूँ। स्वानंद साहब हर तरह के गीत लिखने में उस्ताद हो चुके हैं। भला कोई यकीन कर सकता हूँ कि इन्होंने हीं "आल इज़ वेल" लिखा था। और यहाँ पर वही "लफ़ंगे परिंदे" लिख रहे हैं.. पिछली फिल्म "राजनीति" में इन्होंने हीं कहा था "इश्क़ बरसे बूंदन बूंदन" तो वेलडन अब्बा में इन्हीं की कलम से ये बोल निकले थे "साबुन लेकर हाथ में निकले, सिस्टम को है धोना रे"। "खोया खोया चाँद" के शीर्षक गीत को भला कोई भूल सकता है... और कितने गाने गिनवाऊँ! मैं तो भाई इनका कायल हो गया हूँ। "देसी शब्दों" की बौछार इनसे अच्छा कोई और नहीं कर सकता.. यह तो मानना हीं पड़ेगा। गीतकार के बाद संगीतकार की भी बात कर लें। तो यहाँ पर प्रदीप सरकार की समझ-बूझ और विश्वास की दाद देनी होगी जो उन्होंने अपने नियमित संगीतकार "शांतनु मोइत्रा" की बजाय एक गुमनाम संगीतकार (आर आनंद) को चुना.. मैं सच कहता हूँ, मैंने इस फिल्म से पहले इनका नाम नहीं सुना था, लेकिन इस फिल्म के गानों को सुनने के बाद अब सोच रहा हूँ कि ढूँढ-ढूँढकर इनके गाने सुनूँ। इन्होंने इस फिल्म के नब्ज़ को जैसे पकड़-सा लिया है.. गानों को सुनते हीं दृश्य सामने आने लगते हैं। निस्संदेह संगीतकार की जीत हुई है। मेरी उम्मीदें इनसे अब बढ गई हैं.. देखते हैं आगे क्या होता है। चलिए तो इस सुखद बातचीत के बाद आज की समीक्षा को विराम देते हैं। अगली बार एक नई फिल्म (शायद आशाएँ या वी आर फैमिली या फिर कोई और) के साथ हम फिर हाज़िर होंगे। तब तक के लिए खुदा हाफ़िज़!

आवाज़ रेटिंग्स: लफ़ंगे परिंदे: ***१/२

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ८५- 'लफ़ंगे परिंदे' फ़िल्म के गीत "धतड़ ततड़" को आप किशोर कुमार से कैसे जोड़ सकते हैं?

TST ट्रिविया # ८६- "मेरे उपर भी आइ.आइ.टी या पी.एम.टी की परीक्षा देने का प्रेशर था घर से। लेकिन एक बार युवा वाणी कार्यक्रम के लिए आकाशवाणी केन्द्र जाते वक़्त मेरा ऐक्सिडेन्ट हो गया। तब मम्मी ने कहा कि अब ज़िंदगी में जो करना है करो। क्योंकि उस ऐक्सिडेन्ट से बच कर निकलना मेरे लिए दूसरा जन्म था। मैं कैसे बचा मुझी कुछ नहीं पता। तो मम्मी ने कहा कि जो अब ज़िंदगी में बनना है बनो"। बताइए हम किस फ़नकार की बात कर रहे हैं।

TST ट्रिविया # ८७- प्रदीप सरकार और स्वानंद किरकिरे का साथ कई फ़िल्मों में हुआ है। बताइए इन दोनों के उस फ़िल्म के उस गीत का मुखड़ा जिसके एक अंतरे में पंक्ति है "होश लेके उड़ गया उसकी कैसी है जादूगरी"।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. प्रियदर्शन, प्रीतम, अक्षय कुमार।
२. नगीन तनवीर।
३. फ़िल्म - बिल्लू, गीत - बिल्लू भयंकर, सहगायक - अजय झिंग्रन और कल्पना.

सीमा जी आपने दो सवालों के सही जवाब दिए। अवध जी, ताजा सुर ताल पर आपको देखकर बेहद खुशी हुई। आगे भी इसी तरह अपनी उपस्थिति से हमें कृतार्थ करते रहिएगा। यही आग्रह है आपसे। आपने एक सवाल का सही जवाब दिया। बधाई स्वीकारें!

Monday, August 2, 2010

ये क्या जगह है दोस्तों.....शहरयार, खय्याम और आशा की तिकड़ी और उस पर रेखा की अदाकारी - बेमिसाल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 452/2010/152

'सेहरा में रात फूलों की' - ८० के दशक की कुछ यादगार ग़ज़लों की इस लघु शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। जैसा कि कल हमने कहा था कि इस शृंखला में हम दस अलग अलग शायरों के क़लाम पेश करेंगे। कल हसरत साहब की लिखी ग़ज़ल आपने सुनी, आज हम एक बार फिर से सन् १९८१ की ही एक बेहद मक़बूल और कालजयी फ़िल्म की ग़ज़ल सुनने जा रहे हैं। यह वह फ़िल्म है दोस्तों जो अभिनेत्री रेखा के करीयर की सब से महत्वपूर्ण फ़िल्म साबित हुई। और सिर्फ़ रेखा ही क्यों, इस फ़िल्म से जुड़े सभी कलाकारों के लिए यह एक माइलस्टोन फ़िल्म रही। अब आपको फ़िल्म 'उमरावजान' के बारे में नई बात और क्या बताएँ! इस फ़िल्म के सभी पक्षों से आप भली भाँति वाक़ीफ़ हैं। और इस फ़िल्म में शामिल होने वाले मुजरों और ग़ज़लों के तो कहने ही क्या! आशा भोसले की गाई हुई ग़ज़लों में किसे किससे उपर रखें समझ नहीं आता। "दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए" या फिर "इन आँखों की मस्ती के", या "जुस्तजू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने" या फिर "ये क्या जगह है दोस्तों"। एक से एक लाजवाब! उधर तलत अज़ीज़ के गाए "ज़िंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें" भी तो हमें एक अलग ही दुनिया में लिए जाते हैं जिसे सुन कर यह ज़मीं चांद से बेहतर हमें भी नज़र आने लगती हैं। मौसीकार ख़य्याम साहब ने इस फ़िल्म के लिए १९८२ का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता था और राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित हुए थे। निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली को भी सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। आशा भोसले फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से अपना नाम वापस ले चुकीं थीं, इसलिए उनका नाम नॊमिनेशन में नहीं आया, और इस साल यह पुरस्कार चला गया परवीन सुल्ताना की झोली में फ़िल्म 'कुद्रत' के गीत "हमें तुम से प्यार कितना" के लिए। लेकिन आशा जी को इस फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से ज़रूर सम्मानित किया गया। दोस्तों, यह इतनी महत्वपूर्ण फ़िल्म रही ग़ज़लों की दृष्टि से कि इस शृंखला में इस फ़िल्म को नज़रंदाज़ करना बेहद ग़लत बात होती। तभी तो आज के लिए हमने चुना है "ये क्या जगह है दोस्तों"।

फ़िल्म 'उमरावजान' की कहानी और इस फ़िल्म के बारे में तो लगभग सभी कुछ आपको मालूम होगा, तो आइए आज ख़ास इस ग़ज़ल की ही चर्चा की जाए। चर्चा क्या साहब, ख़ुद ख़य्याम साहब से ही पूछ लेते हैं इसके बारे में, क्या ख़याल है? विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम के सौजन्य से ये अंश हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं - "एक और नग़मा आपने सुना होगा, फ़िल्म में ऒलमोस्ट क्लाइमैक्स है, लड़की, शरीफ़ज़ादी अपने घर में, अपने मोहल्ले में, अपने शहर में, किस तरह से एडुकेशन लेती थी, रहते थे सब, उसके माँ-बाप, और वो लड़की किसी कारण बहुत बड़ी तवायफ़ बन गई। उस मकाम पर, अपने ही घर के सामने उसे मुजरा करना है। और मुजरे का मतलब है लोगों की दिलजोयी। जो तवायफ़ है वो लोगों का दिल लुभाए, दिलजोयी करे, और अब यह सिचुएशन है कि जब मुजरा शुरु हुआ, उसने देखा कि मैं तो वहीं हूँ, घर सामने है, और मेरी बूढ़ी माँ, उस चिलमन के पीछे, इसका डबल मीनिंग् हो गया कि लोगों को, जिनके सामने मुजरा कर रही है वो, उनका दिल लुभा रही है, और उसके इनर में एक तूफ़ान चल रहा है, जो उसकी माँ, कि मैं अपनी माँ को मिल सकूँगी या नहीं, और मैं मुजरा कर रही हूँ। मुजरे वाली वो थी नहीं, लेकिन हालात ने बना दिया। तो वो इस नग़मे में, 'ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है", तो इसमें देखिए आशा जी ने किस अंदाज़ में, उसी अंदाज़ को पकड़ा, जो मैंने कहा, उसी तरह से गाया है, और शहरयार साहब ने उम्दा, बहुत अच्छा लिखा है। मुज़फ़्फ़र अली साहब ने भी हक़ अदा किया। उसका पिक्चराइज़ेशन इतना अच्छा किया है कि लोगों को बाक़ायदा रोते हुए सुना है।" सचमुच दोस्तों, यह ग़ज़ल इतना दिल को छू जाती है कि जितनी भी बार सुनी जाए, जैसे दिल ही नहीं भरता। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहली बार 'उमरावजान' की ग़ज़ल, सुनिए, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के तमाम शेर...

ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है,
हद-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है।

ये किस मक़ाम पर हयात मुझको लेके आ गई,
ना बस ख़ुशी पे है जहाँ, ना ग़म पे इख़्तियार है।

तमाम उम्र का हिसाब माँगती है ज़िंदगी,
ये मेरा दिल कहे तो क्या, के ख़ुद से शर्मसार है।

बुला रहा है कौन मुझको चिलमनों के उस तरफ़,
मेरे लिए भी क्या कोई उदासो बेक़रार है।

दोस्तों, यह जो अंतिम शेर है, उसमें उमरावजान की माँ को चिलमन की ओट से अपनी बेटी को देखती हुई दिखाई जाती है। इतना मर्मस्पर्शी सीन था कि शायद ही ऐसा कोई होगा जिसकी आँखें नम ना हुईं होंगी। जैसे अल्फ़ाज़, वैसा संगीत, वैसी ही गायकी, और रेखा की वैसी ही अदायगी। अभी हाल में ख़य्याम साहब को जब 'लाइफ़टाइम अचीवमेण्ट अवार्ड' से नवाज़ा गया था और उन्हे पुरस्कार प्रदान किया था आशा जी ने, और सामने की पंक्ति पर रेखा बैठी हुईं थीं। ख़य्याम साहब ने तब कहा था कि 'उमरावजान' के लिए सब से ज़्यादा श्रेय आशा जी और रेखा को ही जाता है। अकस्मात इतनी बड़ी ऒडिएन्स में इस तरह से ख़य्याम साहब की ज़ुबान से अपनी तारीफ़ सुन कर रेखा अपने जज्बात पर क़ाबू न रख सकीं और उनकी आँखों से टप टप आँसू बहने लग पड़े। ठीक वैसे ही जैसे इस ग़ज़ल को सुनते हुए हम सब के बहते हैं। तो आइए फिर एक बार इस क्लासिक ग़ज़ल को सुने और फिर एक बार अपनी आँखें नम करें। पता नहीं क्यों इस ग़ज़ल के बहाने आँखें नम करने को जी चाहता है!



क्या आप जानते हैं...
'उमरावजान' में ख़य्याम साहब ने लता जी के बजाय आशा जी से गानें इसलिए गवाए क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि 'पाक़ीज़ा' के हैंग्-ओवर से 'उमरावजान' ज़रा सा भी प्रभावित हो। उस पर उन्हे यह भी लगा कि रेखा के लिए आशा जी की कशिश भरी आवाज़ ही ज़्यादा मेल खाती है।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. ग़ज़ल के मतले में फिल्म का शीर्षक है, शायर बताएं - ३ अंक.
२. खय्याम साहब का है संगीत, गायिका बताएं - २ अंक.
३. इस गज़ल का एक पुरुष संस्करण भी है उसमें किसकी आवाज़ है बताएं - २ अंक.
४. अम्ब्रीश संगल निर्देशित फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी ने ३ अंकों के सवाल का सही जवाब दिया, तो शरद जी, अवध जी और इंदु जी भी कमर कसे मिले, बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, August 1, 2010

मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता....इसी विश्वास पे तो कायम है न दुनिया के तमाम रिश्ते



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 451/2010/151

फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर ४० के दशक के आख़िर से लेकर ५० और ६० के दशकों में पूरे शबाब पर रहने के बाद ७० के दशक के आख़िर से धीरे धीरे ख़त्म होता जाता है। और इस बारे में यही आम धारणा भी है। ८० के दशक में फ़िल्मों की कहानी ही कहिए, फ़िल्म और संगीत के बदलते रूप ही कहिए, या लोगों की रुचि ही कहिए, जो भी है, हक़ीक़त तो यही है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत एक बहुत ही बुरे वक़्त से गुज़रा। कुछ फ़िल्मों, कुछ गीतों और कुछ गिने चुने गीतकारों और संगीतकारों को छोड़ कर ज़्यादातर गानें ही चलताऊ क़िस्म के बने। लेकिन जैसा कि हमने "कुछ' शब्द का प्रयोग किया, तो कुछ गानें ऐसे भी बनें उस दशक में दोस्तों जो उतने ही सुनहरे हैं जितने कि फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गीत। दोस्तों, कुछ ऐसे ही सुनहरी ग़ज़लों को चुन कर आज से अगले दस कड़ियों में पिरो कर हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। चारों तरफ़ वीरानी हो, और ऐसे में कहीं से फूलों की ख़ुशबू आ कर हमारी सांसों को महका जाए, कुछ ऐसी ही बात थी इन ग़ज़लों में जो उस वीरान दौर को महका गई। महका क्या गई, आज भी वो महक फ़िज़ाओं में अपनी ख़ुशबू लुटा रही है। 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में हमने जिन १० ग़ज़लों को चुना है वो दस अलग अलग शायरों के क़लम से निकली हुई हैं। तो आइए शुरुआत की जाए इस शृंखला की। दोस्तों, कल यानी कि ३१ जुलाई को मोहम्मद रफ़ी साहब की पुण्यतिथि थी। तो क्यों ना इस महकती शृंखला की शुरुआत रफ़ी साहब की गायी हुई ८० के दशक के एक ग़ज़ल से ही कर दी जाए! ऐसे में बस एक ही यादगार ग़ज़ल ज़हन में आती है। चन्द्राणी मुखर्जी के साथ उनकी गायी हुई फ़िल्म 'पूनम' की ग़ज़ल "मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता"। पहली बार 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर गूंज रहा है अनु मलिक का संगीत, और वह भी उनका पहला पहला गीत। इस ग़ज़ल को लिखा था अनु मलिक के मामा, यानी गीतकार और शायर हसरत जयपुरी साहब ने। 'पूनम' १९८१ की फ़िल्म थी जिसके मुख्य कलाकार थे राज बब्बर और पूनम ढिल्लों। फ़िल्म तो नहीं चली, लेकिन यह ग़ज़ल सदाबहार बन कर रह गया।

बरसों पहले अनु मलिक साहब विविध भारती में तशरीफ़ लाए थे फ़ौजी जवानों के लिए 'जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत करने हेतु। उसमें उन्होने इस ग़ज़ल का भी ज़िक्र किया था, और इसकी रिकार्डिंग् से जुड़ी और ख़ास तौर से रफ़ी साहब से जुड़ी संस्मरणों का भी तफ़सील से ख़ुलासा लिया था। आइए उसी हिस्से को यहाँ पेश करते हैं। "फ़िल्मी दुनिया में जगह बनाने के लिए मुझे बेहद संघर्ष करना पड़ा। रोशनी की किरण बन कर आए श्री हरमेश मल्होत्रा जी। सब से पहले चांस मुझे फ़िल्म 'पूनम' में हरमेश मल्होत्रा जी ने दिया। उसका एक गीत बहुत ही ज़्यादा मशहूर हुआ, गीत के बोल मैं कुछ कहने के बाद सुनाना चाहता हूँ क्योंकि पहले मैं इस गाने के साथ मोहम्मद रफ़ी साहब का नाम जोड़ना चाहता हूँ जिन्होने मेरा पहला गाना गाया। रफ़ी साहब से मेरी बात हुई कि रफ़ी साहब, मुझे इतनी बड़ी पिक्चर मिली है, संगीतकार बनने का मौका मिला है, और मेरी ज़िंदगी का पहला गाना आप गाएँगे। मुस्कुराये, और बोले कि बेटा, कल सुबह मेरे घर आ जाना। ९ बजे का रिहर्सल का वक़्त हमने फ़िक्स किया। ९ बजे के बजाए मैं इतना एक्साइटेड था कि मैं ८ बजे ही पहुँच गया। वहाँ जाके देखा कि रफ़ी साहब अपने बाग़ में, अपने गार्डन में चुप चाप बैठे हुए हैं। उन्होने मुझे देखा, बोले, अरे, ९ बजे का वक़्त था, तुम ८ बजे ही आ गये! मैं डर गया, कहीं मुझे डांट ना दें। मुस्कुराये, बोले, चलो, मेरे रिहर्सल रूम में चलो। रफ़ी साहब पाँच वक़्त के नमाज़ी थे। इतना नूर मैंने किसी के चहरे पर नहीं देखा। सब से अच्छी बात मुझे रफ़ी साहब के बारे में यह लगी कि उन्होने कभी मुझे छोटा संगीतकार नहीं समझा। मेरा नाम ही क्या था, मुझे कौन जानता था, मुझे ऊँचा दर्जा दिया, प्यार से मेरा गीत सुना। अपने सजेशन्स मुझे दिए। रिकार्डिंग् होने के बाद रफ़ी साहब ने मेरे कंधे पे हाथ रखा और कहा कि बेटा, इस गाने के साथ तुमने मेरी २० साल की ज़िंदगी बढ़ा दी। अजीब इत्तेफ़ाक़ की बात है, कहाँ वो कह रहे थे कि तुम्हारे गीत से २० साल की ज़िंदगी बढ़ गई, बड़े अफ़सोस से कहना पड़ता है कि मेरे इस गाने को गाने के कुछ ही दिनों बाद वो इस दुनिया से चल बसे। जी हाँ, यह भी सुन कर आप लोग हैरान होंगे कि उनकी ज़िंदगी का आख़िरी गाना उन्होने मेरे लिए गाया। फ़िल्म 'पूनम' का गीत। २७ जुलाई को उन्होने यह गीत रिकार्ड किया, ३० जुलाई की रात वो गुज़र गए।" अब इसके बाद और क्या कहें दोस्तों, बस इस ग़ज़ल के तमाम शेर नीचे लिख रहे हैं। क्या ख़ूबसूरत शेर कहें हैं हसरत साहब ने। नायक के तमाम शरारत भरे इल्ज़ामों का नायिका किस ख़ूबसूरती से जवाब देती है, इस ग़ज़ल को सुन कर दिल से बस एक ही आवाज़ निकलती है, "वाह"!

मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता,
के जैसे रंग लाती है शराब आहिस्ता आहिस्ता।

अभी तो तुम झिझकते हो, अभी तो तुम सिमटते हो,
के जाते जाते जाएगा हिजाब आहिस्ता आहिस्ता।

हिजाब अपनों से होता है, नहीं होता है ग़ैरों से,
कोई भी बात बनती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता।

अभी कमसीन हो क्या जानो, मोहब्बत किसको कहते हैं,
बहारें तुमपे लाएंगी शबाब आहिस्ता आहिस्ता।

बहारें आ चुकी हम पर ज़रूरत बाग़बाँ की है,
तुम्हारे प्यार का दूँगी जवाब आहिस्ता आहिस्ता।



क्या आप जानते हैं...
कि "आहिस्ता आहिस्ता" से कई ग़ज़लें लिखी गई हैं। मूल ग़ज़ल है "सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता" जिसे लिखा था १९-वीं सदी के शायर अमीर मीनाई ने। इस ग़ज़ल को फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' में लता-किशोर ने गाया था। इसी ग़ज़ल से प्रेरणा लेकर हसरत जयपुरी ने फ़िल्म 'पूनम' में ग़ज़ल लिखी और निदा फ़ाज़ली ने लिखे फ़िल्म 'आहिस्ता आहिस्ता' की ग़ज़ल "नज़र से फूल चुनती है नज़र आहिस्ता आहिस्ता"।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस मास्टर पीस फिल्म में एक से बढ़कर एक ग़ज़लें थी, शायर बताएं - ३ अंक.
२. इस फिल्म की एक रिमेक भी बनी जिसमें जावेद अख्तर साहब ने बोल लिखे, फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
३. अभिनय और गायन का उत्कृष्ट मिलन है ये गीत, अभिनेत्री और गायिका बताएं - २ अंक.
४. फिल्म के निर्देशक का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
आलेख पढ़ कर आप लोग समझ गए होंगें कि क्यों हम 'पूनम' को अनु की पहली फिल्म मान रहे हैं. हो सकता है हंटरवाली को खुद अनु मिल्क भूलना चाह रहे हों...खैर हमें सही जवाब मिले, शरद जी, पवन जी, इंदु जी और किश जी के, सभी को बधाई.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और रफ़ी साहब के अंतिम सफर की दास्ताँ....दिल का सूना साज़



३१ जुलाई को सभी रफ़ी के चाहने वाले काले दिवस के रूप मानते आये हैं और मनाते रहेंगे क्यूंकि इस दिन ३१ जुलाई १९८० को रफ़ी साब हम सब को छोड़ कर चले गए थे लेकिन इस पूरे दिन का वाकया बहुत कम लोग जानते हैं आज उस दिन क्या क्या हुआ था आपको उसी दिन कि सुबह के साथ ले चलता हूँ.

३१ जुलाई १९८० को रफ़ी साब जल्दी उठ गए और तक़रीबन सुबह ९:०० बजे उन्होंने नाश्ता लिया. उस दिन श्यामल मित्रा के संगीत निर्देशन तले वे कुछ बंगाली गीत रिकॉर्ड करने वाले थे इसलिए नाश्ते के बाद उसी के रियाज़ में लग गए. कुछ देर के बाद श्यामल मित्रा उनके घर आये और उन्हें रियाज़ करवाया. जैसे ही मित्रा गए रफ़ी साब को अपने सीने में दर्द महसूस हुआ. ज़हीर बारी जो उनके सचिव थे उनको दवाई दी वहीँ दूसरी तरफ ये बताता चलूँ के इससे पहले भी रफ़ी साब को दो दिल के दौरे पड़ चुके थे लेकिन रफ़ी साब ने उनको कभी गंभीरता से नहीं लिया. मगर हाँ नियमित रूप से वो एक टीका शुगर के लिए ज़रूर लेते थे और अपने अधिक वज़न से खासे परेशान थे. सुबह ११:०० बजे डॉक्टर की सलाह से उनको अस्पताल ले जाया गया जहाँ एक तरफ रफ़ी साब ने अपनी मर्ज़ी से माहेम नेशनल अस्पताल जाना मंज़ूर किया वहीँ से बदकिस्मती ने उनका दामन थाम लिया क्योंकि उस अस्पताल में कदम से चलने की बजाय सीडी थीं जो एक दिल के मरीज़ के लिए घातक सिद्ध होती हैं और रफ़ी साब को सीढियों से ही जाना पड़ा. शाम ४:०० बजे के आसपास उनको बॉम्बे अस्पताल में दाखिल किया गया लेकिन संगीत की दुनिया की बदकिस्मती यहाँ भी साथ रही और यहाँ भी रफ़ी साब को सीढियों का सहारा ही मिला. अस्पताल में इस मशीन का इंतज़ाम रात ९:०० बजे तक हो पाया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. रात ९:०० बजे के आसपास डॉक्टर के. ऍम. मोदी और डॉक्टर दागा ने उनका मुआयना किया और डॉक्टर के. ऍम. मोदी ने बताया के अब रफ़ी साब के बचने की उम्मीद बहुत कम है.

गीत : तू कहीं आस पास है दोस्त


और आखिर वो घडी आ ही गयी जो न आती तो अच्छा होता काश के वक़्त थम जाता उस वक़्त को निकालकर आगे निकल जाता :

देखकर ये कामयाबी एक दिन मुस्कुरा उठी अज़ल
सारे राग फीके पड़ गए हो गया फनकार शल
चश्मे फलक से गिर पड़ा फिर एक सितारा टूटकर
सब कलेजा थामकर रोने लगे फूट फूटकर
लो बुझ गयी समां महफ़िल में अँधेरा हो गया
जिंदगी का तार टूटा और और तराना सो गया

गीत : कोई चल दिया अकेले


मजरूह सुल्तानपुरी ने तकरीबन शाम ८:०० बजे नौशाद अली को टेलीफ़ोन करके बताया कि रफ़ी साब कि तबियत बहुत ख़राब है. नौशाद अली ने इस बात ज्यादा गौर नहीं दिया क्योंकि सुबह ही तो उन्होंने रफ़ी साब से टेलीफ़ोन पर बात की थी. लेकिन रात ११:०० बजे एक पत्रकार ने नौशाद अली को टेलीफ़ोन करके बताया के रफ़ी साब चले गए. नौशाद अली को फिर भी यकीन नहीं आया और उन्होंने रफ़ी साब के घर पर टेलीफ़ोन किया जिसपर इस खबर की पुष्टि उनकी बेटी ने की. नौशाद अली जब अपनी पत्नी के साथ रफ़ी साब के घर गए तो उनका बड़ा बेटा शहीद रफ़ी बेतहाशा रो रहा है.

नौशाद अली ने दिलीप कुमार के घर टेलीफ़ोन किया जो उनकी पत्नी सायरा बानो ने उठाया लेकिन दिलीप कुमार की तबियत का ख़याल करते हुए उन्होंने इस बारे में अगली सुबह बताया.

गीत : जाने कहाँ गए तुम


तकरीबन १०:१० बजे उनके इस दुनिया से कूच करने के वक़्त उनकी बीवी, बेटी और दामाद बिस्तर के पास थे.

अस्पताल के नियमानुसार उनके शरीर को उस रात उनको परिवार वालों को नहीं सौंपा गया तथा पूरी रात उनका शरीर अस्पताल के बर्फ गोदाम में रहा.

अगले दिन १ अगस्त १९८० सुबह ९:३० बजे रफ़ी साब का शरीर उनको परिवार को मिल सका उस वक़्त साहेब बिजनोर, जोहनी विस्की और ज़हीर बारी भी मौजूद थे. दोपहर १२:३० बजे तक किसी ट्रक का इंतज़ाम न होने की वजह से कन्धों पर ही उनको बांद्रा जामा मस्जिद तक लाया गया वहां पर जनाज़े की नमाज़ के बाद उनको ट्रक द्वारा शंताक्रूज़ के कब्रिस्तान तक लाया गया. शाम ६:१५ बजे कब्रिस्तान पहुंचकर ६:३० बजे तक वहीँ दफना दिया गया.

गीत : दिल का सूना साज़


प्रस्तुति- मुवीन



"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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