Saturday, October 10, 2009

तू चंदा मैं चांदनी.....शब्द संगीत और आवाज़ का अद्भुत संगम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 228

"जब मेरे देश की जनता युद्ध में जाते थे लड़ने के लिए अपने उस राजा की ख़ातिर जिसे शायद उन लोगों ने कभी देखा भी नहीं होगा, तब मैने उनके कुशलता की कामना की और युद्ध जीत कर जब वे वापस आए तो मैने ही उनका स्वागत किया। जब सावन की पहली बौछार इस सूखी धरती पर पड़ी और गन्ने की कोमल कोपलें मिट्टी से बाहर झाँकने लगीं सूरज को ढ़ूढते हुए, उस समय भी मैं ही वहाँ मौजूद था। मेरा नाम है मांड।" जी हाँ दोस्तों, मांड ही वह राग है जो शास्त्रीय होते हुए भी लोक धुनों में अपना परिचय खोजता है। यह मिट्टी से जुड़ा हुआ राग है, ख़ास कर के राजस्थान की मिट्टी से जुड़ा हुआ है मांड। तभी तो जब भी कभी राजस्थान के पार्श्व पर किसी फ़िल्म का निर्माण हुआ है, उन फ़िल्मों के संगीतकारों ने इस राग का भरपूर फ़ायदा उठाया है। मांड का सब से सुपरिचित उदाहरण है "केसरिया बालमा ओ जी", जिसे अलग अलग अंदाज़ में कई संगीतकारों ने अपने फ़िल्मों में जगह दी है। हृदयनाथ मंगेशकर ने फ़िल्म 'लेकिन' में लता जी से इसे गवाया था "केसरिया बालमा ओ जी, के तुमसे लागे नैन", और हाल ही में 'नन्हा जयसल्मेर' फ़िल्म में हिमेश रेशम्मिया के संगीत में जयेश गांधी और सोनू निगम ने गाया था "केसरिया बालमा ओ जी, पधारो म्हारे देस" जिसमें मांड और पाश्चात्य रीदम का फ़्युज़न किया गया था। राजस्थान की मिट्टी की ख़ुशबू है इस राग में, जिसे सुनते ही मन जैसे पंख लगाकर उड़ जाता है उस रंगीले सरज़मीन पर, मरुभूमी पर ऊँटों की चलती कतारें, रंग बिरंगी पगड़ियाँ सर पर बांधे वहाँ के सजीले लोग, बंजारों का सुरीला संगीत, मुँह में पानी लाता वहाँ का स्वादिष्ट खानपान, कुल मिलाकर इन सभी चीज़ों की एक झलक दिखा जाती है राग मांड। युं तो इस राग का प्रयोग ज़्यादातर राजस्थानी लोक संगीत पर बने गीतों में किया गया है, लेकिन सचिन देव बर्मन ने इस राग का इस्तेमाल फ़िल्म 'अभिमान' के उस हिट गीत में भी किया था, याद है ना आपको, "अब तो है तुमसे हर ख़ुशी अपनी"? लेकिन आज हम जिस गीत को सुनने जा रहे हैं वह है जयदेव की धुन पर बालकवि बैरागी के बोल, लता जी का गाया फ़िल्म 'रेशमा और शेरा' का गीत "तू चंदा मैं चाँदनी तू तरुवर मै शाख रे, तू बादल मैं बिजली, तु पंछी मैं प्यास रे"। यह बिल्कुल सच बात है कि जब भी साहित्य जगत के कवियों ने फ़िल्मों में गानें लिखे हैं, हर बार एक अलग ही मुकाम तक पहुँचाया है उन गीतों को। बैरागी जी का लिखा यह गीत फ़िल्मी गीतकारों के लिए किसी बाइबल से कम नहीं। शब्दों की ख़ूबसूरती किसे कहते हैं बैरागी जी ने इस गीत में दिखाया है। और लता जी की आवाज़ की क्या तारीफ़ भला, ख़ुद तारीफ़ ही शर्मा जाए ऐसी आवाज़-ओ-अंदाज़ को सुनकर!

दोस्तों, इससे पहले कि आप यह गीत सुनें, आइए आज कुछ बातें हो जाए संगीतकार जयदेव के बारे में। जयदेव एक ऐसे संगीतकार रहे जिनका हर एक गीत अपने आप में एक अनमोल मोती के बराबर है। उन्हे बहुत ज़्यादा फ़िल्मों में काम करने का मौका नहीं मिला, लेकिन 'क्वांटिटी' का उन्होने 'क्वालिटी' से भरपाई ज़रूर की। आज के दौर के संगीतकार और उनके समकालीन संगीतकार उनका नाम बड़े ही सम्मान के साथ लेते हैं। पार्श्व गायक सुरेश वाडेकर जयदेव जी को पापाजी कह कर बुलाते थे। सुरेश जी के शब्दों में - "पापाजी ने बहुत मेलडियस काम किया है, ख़ूबसूरत ख़ूबसूरत गानें दिए श्रोताओं के लिए। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैने उनको ऐसिस्ट किया ६/८ महीने। 'सुर सिंगार' प्रतियोगिता जीतने के बाद मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। वो मेरे गुरुजी के क्लोज़ फ़्रेंड्स में थे। मेरे गुरुजी थे पंडित जियालाल बसंत। लाहौर से वो उनके करीबी दोस्त थे। पापाजी ने मेरे गुरुजी से कहा कि इसे मेरे पास भेजो, एक्स्पिरीयन्स हो जाएगा कि गाना कैसे बनता है, एक अच्छा अनुभव हो जाएगा। मैं गया उनके पास, वहीं पे मेरी लता जी से जान पहचान हो गई, उस समय वो फ़िल्म 'तुम्हारे लिए' का गाना "तुम्हे देखती हूँ तो लगता है ऐसे" के लिए आया करती थीं। मुझे वहाँ मज़ा आता था। कभी रीदम सेक्शन, कभी सिटिंग्स में जाया करता था, तबला लेकर उनके साथ बैठता, कैसे गाना बनता है, शायर भी होते थे वहाँ, फिर गाना बनने के बाद 'ऐरेंजमेंट' कैसे किया जाता है, ये सब मैने देखा और सीखा। जयदेव जी के गीतों में फ़ोक का एक रंग होता था मीठा मीठा सा, गीत क्लासीक़ी और मेलडी भरा होता था, गाने में चैलेंज हमेशा होता था। पापाजी की साँस थोड़ी कम थी, इसको ध्यान में रख कर गाना बनाते थे कमाल का। "मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया" में छोटे छोटे टुकड़ों में इतना अच्छा लगता है। गाना शुरु होते ही लगता है कि ये तो पापाजी का गाना है। उनकी पहचान, उनका स्टैम्प उनके गानों में होता था। मैं बहुत भाग्यशाली रहा, उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।" वैसे दोस्तों, भाग्यशाली तो हम सभी हैं कि जयदेव जी की ऐसी मीठी, सुरीली रचनाएँ आज हमारे पास सुरक्षित हैं जो युगों युगों तक उनकी याद हमें दिलाती रहेंगी। चाहे शास्त्रीय संगीत हो या लोक संगीत, जयदेव के गीतों में कुछ भी अनावश्यक नहीं लगता। गीत के अनुरूप धुन की पूर्णता का अहसास कराता है उनका संगीत, ना कुछ कम ना कुछ ज़्यादा, बिल्कुल आज के इस प्रस्तुत गीत की तरह, सुनिए...



तू चन्दा मैं चाँदनी, तू तरुवर मैं शाख रे
तू बादल मैं बिजुरी, तू पंछी मैं पाख रे ।
न सरवर ना बावडी़ ना कोई ठ्ण्डी छांव
ना कोयल ना पपीहरा ऐसा मेरा गांव री
कहाँ बुझे तन की तपन
ओ सैयां सिरमोर
चन्द्र किरन को छोड़कर
जाए कहाँ चितचोर
जाग उठी है सावंरे
मेरी कुआंरी प्यास रे
अंगारे भी लगने लगे पिया
आज मुझे मधुमास रे ।
तुझे आँचल में रक्खूंगी ओ सांवरे
काळी अलकों से बाधूंगी ये पांव रे
गलबहियां वो डालूं कि छूटे नहीं
मेरा सपना सजन अब टूटे नहीं
मेंह्दी रची हथेलियां मेरे काजर वारे नैन रे
पल पल तोहे पुकारते पिया
हो हो कर बैचेन रे ।
ओ मेरे सावन सजन, ओ मेरे सिन्दूर
साजन संग सजनी भली मौसम संग मयूर
चार पहर की चाँदनी
मेरे संग बिता
अपने हाथों से पिया मुझे लाल चुनर उढ़ा
केसरिया धरती लगे, अम्बर लालम लाल रे
अंग लगा कर सायबा
कर दे मुझे निहाल रे..
.

और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. अभी हाल में प्रर्दशित "स्लम डॉग करोड़पति" में इस भजन के मूल रचेता का नाम पूछा गया था.
२. राग है - "केदार".
३. इस समूह गीत में महिला स्वर सुधा मल्होत्रा का है.

पिछली पहेली का परिणाम -

चलिए शरद जी ने राह छोडी और पूर्वी जी पहुँच गयी ४६ के निजी स्कोर पर, बधाई, दिलीप जी आपको एक मेल किया है देखिएगा.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

चौथी का जोड़ा - इस्मत चुगताई



सुनो कहानी: इस्मत चुगताई की "चौथी का जोड़ा"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने शरद तैलंग की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार पद्मश्री फणीश्वर नाथ "रेणु" की प्रसिद्ध आंचलिक कहानी "पंचलाइट" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं इस्मत चुगताई की मार्मिक कहानी "चौथी का जोड़ा", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 32 मिनट 14 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है।
~ इस्मत चुगताई (1911-1991)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुंह गिरे और उन्हें उठाने के लिये किसी हकीम या डाक्टर का नुस्खा न आ सका।
(इस्मत चुगताई की "चौथी का जोड़ा" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3; Ogg Vorbis

#Fourty First Story, Chauthi Ka Joda: Ismat Chugtai/Hindi Audio Book/2009/35. Voice: Anurag Sharma

Friday, October 9, 2009

बोले रे पपिहरा, नित मन तरसे....वाणी जयराम की मधुर तान



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 227

हालाँकि शास्त्रीय राग संख्या में अजस्र हैं, लेकिन फिर भी शास्त्रीय संगीत के दक्ष कलाकार समय समय पर नए नए रागों का इजाद करते रहे हैं। संगीत सम्राट तानसेन ने कई रागों की रचना की है जो उनके नाम से जाने जाते हैं। उदाहरण के तौर पर मिया की सारंग, मिया की तोड़ी और मिया की मल्हार। यानी कि सारंग, तोड़ी और मल्हार रागों में कुछ नई चीज़ें डाल कर उन्होने बनाए ये तीन राग। तानसेन के प्रतिद्वंदी बैजु बावरा ने भी कुछ रागों का विकास किया था, जैसे कि सारंग से उन्होने बनाया गौर सारंग, और इसी तरह से गौर मल्हार। आधुनिक काल में पंडित रविशंकर ने कई रागों का आविश्कार किया है, इसी शृंखला में आगे चलकर उन पर भी चर्चा करेंगे। दोस्तों, आज 'दस राग दस रंग' में बारी है राग मिया की मल्हार की। इस राग पर बने फ़िल्मी गीतों की जहाँ तक बात है, मेरे ज़हन में बस दो ही गीत आ रहे हैं, एक तो १९५६ की फ़िल्म 'बसंत बहार' में शंकर जयकिशन के संगीत में मन्ना डे का गाया हुआ "भय भंजना वंदना सुन हमारी, दरस तेरे माँगे ये तेरा पुजारी", और दूसरा गीत है आज का प्रस्तुत गीत, वाणी जयराम का गाया "बोल रे पपीहरा, नित घन बरसे, नित मन प्यासा, नित मन तरसे"।

वाणी जयराम दक्षिण की एक बेहद प्रतिभाशाली गायिका रहीं हैं। तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम और मराठी में तो उन्होने गाए ही हैं, हिंदी में भी उनके गीत हैं। पार्श्व गायन में उनके योगदान के लिए तीन बार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से उन्हे सम्मानित किया गया है। वाणी को कुद्रत की देन थी, उनका कहना है कि जब वो केवल ५ बरस की थीं तभी से वो शास्त्रीय रागों को अलग अलग पहचान लेती थीं। ८ वर्ष की आयु में उन्होने पहली बार रेडियो पर गीत गाया। कर्नाटक और हिंदुस्तानी शैली, दोनों को उन्होने केवल सीखा ही नहीं, बल्कि दोनों में समान रूप से महारथ भी हासिल की। शादी के बाद वे बम्बई आ गईं और सन् १९७१ में किसी हिंदी फ़िल्म में उनके गाने का सपना तब साकार हो गया जब संगीतकार वसंत देसाई ने उन्हे बुलाया फ़िल्म 'गुड्डी' में तीन गानें गाने के लिए। फ़िल्म की कहानी के हिसाब से एक ऐसी गायिका की ज़रूरत थी जिसे लोगों ने पहले फ़िल्म में सुना ना हो, ताकि फ़िल्म में गुड्डी के किरदार को पूरा पूरा न्याय मिल सके। तो साहब, वाणी जयराम का गाया "बोल रे पपीहरा" गीत ने रातों रात उनका नाम देश भर में फैला दिया। इस गीत के लिए उन्हे शास्त्रीय संगीत पर आधारित सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मी गीत के तानसेन सम्मान से सम्मानित किया गया था। इस गीत ने उन्हे कई और पुरस्कारो से नवाज़ा, जैसे कि 'The Lions International Best Promising Singer', 'The All India Cine Goers Association', और 'The All-India Film Goers Association awards for Best Playback Singer'. इस गीत ने उन्हे उस साल का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार ज़रूर नहीं जितवाया, लेकिन उन्हे यह पुरस्कार मिला सन् १९८० में फ़िल्म 'मीरा' के लिए उनके गाए भजन "मेरे तो गिरिधर गोपाल" के लिए। तो दोस्तो, आइए आज का यह गीत सुनते हैं आपको यह बताते हुए कि 'गुड्डी' फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया था ऋषिकेश मुखर्जी ने। यह कहानी थी एक स्कूल में पढ़ने वाली लड़की गुड्डी (जया बच्चन) की जिसे फ़िल्मी नायक धर्मेन्द्र से प्यार हो जाता है। गुलज़ार साहब के गीत और वसंत देसाई का संगीत सुनाई दिया था इस फ़िल्म में।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. राजस्थान की मिटटी से जुदा एक राग है ये जिस पर आधारित है ये अगला गीत.
२. लता की आवाज़ में है ये अमर गीत.
३. सुंदर कविताई का उत्कृष्ट उदहारण है ये गीत जिसमें एक अंतरे में शब्द है -"मधुमास".

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी २ और अंक जुड़े आपके खाते में, पूर्वी जी और रोहित जी काफी करीब थे, दिलीप जी लिंक के लिए धन्येवाद.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे...कबीर से बुनकरी सिखना चाहते हैं गुलज़ार और भुपि



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५२

की महफ़िल कुछ खास है। सबब तो समझ हीं गए होंगे। नहीं समझे?... अरे भाई, भुपि(भुपिन्दर सिंह) और गुलज़ार साहब की जोड़ी पहली बार आज महफ़िल में नज़र आने जा रही है। अब जहाँ गुलज़ार का नाम हो, वहाँ सारे बने बनाए ढर्रे नेस्तनाबूत हो जाते हैं। और इसी कारण से हम भी आज अपने ढर्रे से बाहर आकर महफ़िल-ए-गज़ल को गुलज़ार साहब की कविताओं के सुपूर्द करने जा रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि हमारा यह बदलाव आपको अटपटा नहीं लगेगा। तो शुरू करते हैं कविताओं का दौर... उससे पहले एक विशेष सूचना: हमें सीमा जी की पसंद की गज़लों की फ़ेहरिश्त मिल गई है और हम इस सोमवार को उन्हीं की पसंद की एक गज़ल सुनवाने जा रहे हैं। शामिख साहब ने २-३ दिनों की मोहलत माँगी है, हमें कोई ऐतराज नहीं है...लेकिन जितना जल्द आप यह काम करेंगे, हमें उतनी हीं ज्यादा सुहूलियत हासिल होगी। शरद जी, कृपया फूर्त्ति दिखाएँ, आप तो पहले भी इस प्रक्रिया से गुजर चुकें हैं।

भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के पिछले अंक(जून २००८) में गुलज़ार साहब की कलम ने पांच शहरों की तस्वीरें उकेरी हैं, कविताओं के माध्यम से शहरों के चरित्र को पेश किया है..

प्रस्तुत हैं शहरनामे के कुछ अंश..
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बम्बई

बड़ी लम्‍बी-सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पाँव जमीं पर हैं
समन्‍दर छोड़ती है, न समन्‍दर में उतरती है
ये नगरी बम्‍बई की...
जुराबें लम्‍बे-लम्‍बे साह‍िलों की, पिंडलियों तक खींच रक्‍खी है
समन्‍दर खेलता रहता है पैरों से लिपट कर
हमेशा छींकता है, शाम होती है तो 'टाईड' में।

यहीं देखा है साहिल पर
समन्‍दर ओक में भर के
'जोशान्‍दे' की तरह हर रोज पी जाता है सूरज को
बड़ा तन्‍दरुस्‍त रहता है
कभी दुबला नहीं होता!
कभी लगता है ये कोई तिलिस्‍मी-सा जजीरा है
जजीरा बम्‍बई का...

किसी गिरगिट की चमड़ी से बना है आसमाँ इसका
जो वादों की तरह रंगत बदलता है
'कसीनो' में रखे रोले (Roulette) की सूरत चलता रहता है!
कभी इस शहर की गर्दिश नहीं रुकती
बसे 'बियेरिंग' लगे हैं
किसी 'एक्‍सेल' पे रक्‍खा है।

तिलिस्‍मी शहर के मंजर अजब है
अकेले रात को निकलो, सिया साटिन की सड़कों पर
तिलिस्‍मी चेहरे ऊपर जगमगाते 'होर्डिंग' पर झूलते हैं
सितारे झाँकते हैं, नीचे सड़कों पर
वहाँ चढ़ने के जीने ढूँढने पड़ते हैं
पातालों में गुम होकर।

यहाँ जीना भी जादू है...
यहाँ पर ख्‍वाब भी टाँगों पे चलते है
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी में रक्‍खे मूंग के दाने
चटखते है तो जीभें उगने लगती हैं
यहाँ दिल खर्च हो जाते हैं अक्‍सर...कुछ नहीं बचता
सभी चाटे हुए पत्‍तल हवा में उड़ते रहते हैं
समन्‍दर रात को जब आँख बन्‍द करता है, ये नगरी
पहन कर सारे जेवर आसमाँ पर अक्‍स अपना देखा करती है

कभी सिन्‍दबाद भी आया तो होगा इस जजीरे पर
ये आधी पानी और आधी जमीं पर जिन्‍दा मछली
देखकर हैराँ हुआ होगा!!

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मद्रास (चेन्नई)

शहर ये बुजुर्ग लगता है
फ़ैलने लगा है अब
जैसे बूढ़े लोगों का पेट बढ़ने लगता है

ज़बां के ज़ायके वही
लिबास के सलीके भी....
.....

ख़ुशकी बढ़ गयी है जिस्म पर, ’कावेरी’ सूखी रहती है

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कोलकता

कभी देखा है बिल्डिंग में,
किसी सीढ़ी के नीचे
जहां मीटर लगे रहते हैं बिजली के
पुराने जंग आलूदा...
खुले ढक्कन के नीचे पान खाये मैले दांतों की तरह
कुछ फ़्यूज़ रक्खे हैं
...
बेहया बदमाश लड़के की तरह वो
खिलखिला के हंसता रहता है!

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दिल्ली - पुरानी दिल्ली की दोपहर

सन्‍नाटों में लिपटी वो दोपहर कहां अब
धूप में आधी रात का सन्‍नाटा रहता था।

लू से झुलसी दिल्‍ली की दोपहर में अक्‍सर...
‘चारपाई’ बुनने वाला जब,
घंटा घर वाले नुक्‍कड़ से, कान पे रख के हाथ,
इस हांक लगाता था- ‘चार... पई... बनवा लो...!’
ख़सख़स की टट्यों में सोये लोग अंदाज़ा कर लेते थे... डेढ़ बजा है!
दो बजते-बजते जामुन वाला गुज़रेगा
‘जामुन... ठंडे... काले... जामुन...!’
टोकरी में बड़ के पत्तों पर पानी छिड़क के रखता था
बंद कमरों में...
बच्‍चे कानी आंख से लेटे लेटे मां को देखते थे,
वो करवट लेकर सो जाती थी

तीन बजे तक लू का सन्‍नाटा रहता था
चार बजे तक ‘लंगरी सोटा’ पीसने लगता था ठंडाई
चार बजे के पास पास ही ‘हापड़ के पापड़!’ आते थे
‘लो... हापड़... के... पापड़...’
लू की कन्‍नी टूटने पर छिड़काव होता था
आंगन और दुकानों पर!

बर्फ़ की सिल पर सजने लगती थीं गंडेरियां
केवड़ा छिड़का जाता था
और छतों पर बिस्‍तर लग जाते थे जब
ठंडे ठंडे आसमान पर...
तारे छटकने लगते थे!

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न्यूयार्क

तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूं कर च्युंटियों के घर नहीं हैं
कहीं भी चीटियां नहीं देखी मैने

अगरचे फ़र्श पे चीनी भी डाली
पर कोइ चीटीं नज़र नहीं आयी
हमारे गांव के घर में तो आटा डालते हैं, गर
कोइ क़तार उनकी नज़र आये

तुम्हारे शहर में गरचे..
बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड़ हैं
पौधे हैं, फूलों से भरे हैं

कोई भंवरा मगर देखा नहीं भंवराये उन पर

मेरा गांव बहुत पिछड़ा हुआ है
मेरे आंगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वे नालायक, वहीं खाते हैं दाना
और वहीं पर बीट करते हैं

तुम्हारे शहर में लेकिन
हर इक बिल्डिंग, इमारत खूबसूरत है, बुलन्द है
बहुत ही खूबसूरत लोग मिलते हैं

मगर ए दोस्त जाने क्यों..
सभी तन्हा से लगते हैं
तुम्हारे शहर में कुछ रोज़ रह लूं
तो बड़ा सुनसान लगता है..

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तो कैसी लगी आपको ये कविताएँ? अच्छी हीं लगी होंगी, इसमें किसी शक की गुंजाईश नहीं है। तो इन कविताओं के बाद अगर हम सीधे आज की नज़्म की ओर रूख कर लें तो महफ़िल-ए-गज़ल का उद्देश्य सफ़ल नहीं होगा। हमारी यही कोशिश रहती है कि हम फ़नकारों की ज़िंदगी के कुछ अनछुए हिस्से आपके सम्मुख प्रस्तुत करते रहें। तो उसी लहज़े में पेश हैं गुलज़ार साहब के बारे में खुद उनके और उनके साथ काम कर चुके या कर रहे फ़नकारों के ख्याल (सौजन्य:बी०बी०सी०) जब मैंने पहला गाना लिखा, उस वक़्त मैं बहुत इच्छुक नहीं था. बस एक के बाद दूसरा कदम लिया. फिर मैं शामिल हो गया बिमल रॉय के साथ असिस्टेंट के तौर पर. उन्हीं के यहां 'प्रेम पत्र' बन रही थी. उसमें मैंने सावन की रातों में ऐसा भी होता है’ लिखा. फिर 'काबुलीवाला' बन रही थी. उसमें मैंने लिखा - गंगा आए कहां से गंगा जाए कहां से – बस यही करते करते में फ़िल्म इंडस्ट्री में शामिल हो गया। शायरी का शौक़ था शेर कहने का शौक था. शायरी अच्छी लगती है. जैसे अंग्रेज़ी में कहते हैं – इट इज़ फर्स्ट लव. शायरी मेरा पहला इश्क़ है.

"क्या नुस्ख़ा है किसी गानें को हिट करने का"- इस प्रश्न के जवाब में गुलज़ार साहब ने कहा "मुझे यूं लगता है और बड़ी निजी-सी राय है ये मेरी. इसे अगर जांच-भाल के भी देखें...कि जो किसी गाने के पॉपुलर होने का सबसे अहम अंग है - वो मेरे ख़याल में धुन है. उसके बाद फिर दूसरी चीज़ें आतीं हैं – आवाज़ भी शामिल हो जाती है औऱ अल्फ़ाज़ भी शामिल हो जाते हैं. लेकिन मूलत धुन बहुत अहम है."

गुलज़ार निर्देशित 'अंगूर' की अभिनेत्री मौसमी चटर्जी बताती हैं कि "गुलज़ार एक बेहतरीन गीतकार हैं। मुझे उनका 'ख़ामोशी' के लिए लिखा गाना "प्यार को प्यार ही रहने दो" बेहद पसंद है। गुलज़ार मेरी सास को उर्दू सिखाते थे और उनसे बांग्ला सीखते थे।

गुलज़ार के साथ 'बंटी और बबली', 'झूम बराबर झूम' फ़िल्में करने वाले शंकर महादेवन ने बीबीसी को बताया- कजरारे कंपोज़ करने के बाद हम गुलज़ार साहब से मिले. उन्होंने गाना सुनने के बाद कहा कि उन्हें इसमें ख़तरा दिख रहा है. मैंने पूछा – क्या? उन्होंने कहा कि इस गाने के बहुत बड़ा हिट होने का ख़तरा है. जो उन्होंने कहा वो एकदम सही हुआ.’ महादेवन कहते हैं कि गुलज़ार से मिलना एक सुखद अनुभव है और उनके साथ काम करना का तजुर्बा ज़िंदगी भर उनके साथ रहेगा
गुलज़ार साहब के बारे में जितना भी लिखा जाए कम है। कभी मौका मिलेगा(और मिलेगा हीं) तो हम उनके बारे में और भी बातें करेंगे। अभी बस इतना हीं...

अब वक्त है आज की नज़्म का लुत्फ़ उठाने का। यूँ तो यह नज़्म बड़ी हीं सीधी मालूम पड़ती है, जिसमें गुलज़ार साहब एक जुलाहे से वह तरकीब सीखना चाहते हैं, जिससे वो भी टूटे हुए रिश्तों को बुन सकें। लेकिन अगर आप गौर करेंगे तो महसूस होगा कि गुलज़ार किसी साधारण-से जुलाहे से बात नहीं कर रहे, बल्कि "कबीर" से मुखातिब हैं। वही कबीर जिन्होंने परमात्मा से अपना रिश्ता जोड़ लिया है। है ना बड़ी अजीब-सी बात? आप खुद देखिए:

मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे!

अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो

तेरे उस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनकर की
देख नहीं सकता है कोई

मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं
मेरे यार जुलाहे




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-___ लेकर
और हम टूट गये काँच के प्यालों की तरह


आपके विकल्प हैं -
a) सनम, b) इलाही, c) मसीहा, d) खुदा

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "गुनाह" और शेर कुछ यूं था -

इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के...

"फ़ैज़" साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचानकर बाजी मारी सीमा जी ने। उसके बाद आपने कुछ शेर भी पेश किए:

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम (शहरयार)

अब ना माँगेंगे ज़िन्दगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया (गुलज़ार)

दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं (जिगर मुरादाबादी)

सीमा जी के बाद महफ़िल को खुशगवार किया शरद जी और शन्नो जी। ये रहे आप दोनों के स्वरचित शेर(क्रम से):

तेरी जिस पर निगाह होती है
उसे जीने की चाह होती है
दिल दुखा कर किसी को हासिल हो
कामयाबी गुनाह होती है।

निगाह भर के उन्हें देखने का गुनाह कर बैठे
सरे आम ज़माने ने फिर मचाई फजीहत ऐसी।

वैसे आप दोनों ने एक काम कमाल का किया है, अपने-अपने शेर में "निगाह" का इस्तेमाल करके आपने ५०-५० का गेम खेल लिया...मतलब कि या निगाह हो या गुनाह जवाब तो सही रहेगा :)

इनके बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। महफ़िल की शम्मा बुझने तक आपने महफ़िल को आबाद रखा। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है,
मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है (मुनव्वर राणा)

चलना अगर गुनाह है अपने उसूल पर
सारी उमर सज़ाओं का ही सिल सिला चले (अनाम)

उम्र जिन की गुनाह में गुज़री
उन के दामन से दाग़ ग़ाइब है (राजेन्द्र रहबर)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Thursday, October 8, 2009

आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं....एस एन त्रिपाठी का अमर संगीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 226

'दस राग दस रंग' शृंखला इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के तहत, जिसमें हम आप को शास्त्रीय रागों पर आधारित फ़िल्मी गानें सुनवा रहे हैं। युं तो रागों पर आधारित बहुत सारे गानें हैं, उनमें से हमने कुछ ऐसे गीतों को शामिल किया है जिनमें संबंधित राग की झलक बहुत ही साफ़ साफ़ मिले। आज का राग है सारंग। ऐसी मान्यता है कि राग सारंग का नाम १४-वीं शताब्दी के संगीतज्ञ सारंगदेव के नाम से पड़ा था। राग सारंग के भी कई रूप हैं। अगर हम सिर्फ़ सारंग कहें तो उसका अर्थ होता है वृंदावनी सारंग, जो काफ़ी ठाट का एक सदस्य है। दिन के मध्य भाग में गाया जानेवाला यह राग बहुत ही शांत और कर्णप्रिय है। रागमाला में सारंग को सिरि राग का पुत्र माना जाता है। सारंग राग गुरु ग्रंथ साहिब में बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखता है और इसका उपयोग गुरु अर्जन में विस्तृत होता है। गुरु नानक, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु तेग बहादुर ने इस राग के साथ शब्दों का भी प्रयोग किया और गुरु अंगद ने श्लोकों के पाठ के लिए इस राग का इस्तेमाल किया। जैसा कि हमने कहा यह राग दोपहर के समय गाया जाने वाला राग है और इसलिए ज़ाहिर है कि यह राग श्रोताओं को एक सुकून और ठंडक प्रदान करता होगा। सपेरे लोग इसी राग का प्रयोग कर ज़हरीले साँपों को वश में किया करते हैं। राग सारंग के कई विविध रूप हैं, जो इस प्रकार हैं।

सध सारंग
मधमात सारंग
वृंदावनी सारंग
लंकादहन सारंग
मिया की सारंग
गौर सारंग
जलधर सारंग
सूरदासी सारंग
नूर सारंग
वधंस सारंग

राग सारंग पर आधारित जिस गीत को आज हमने चुना है वह दरअसल आधारित है राग मधमात सारंग पर, जिसे मधुमाधवी सारंग भी कहा जाता है। संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी का शुमार उन प्रतिभाशाली संगीतकारों में होता है जिन्होने राग रागिनियों का व्यापक इस्तेमाल अपने गीत संगीत में किया है। पौराणिक, ऐतिहासिक और धार्मिक फ़िल्मों में असरदार संगीत दे कर ऐसी फ़िल्मों को एक अलग ही मुकाम तक पहुँचाने के लिए त्रिपाठी जी का नाम फ़िल्म जगत में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकी संगीत यात्रा की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही है 'रानी रूपमती'। मुकेश की आवाज़ में "आ लौट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं" ना केवल इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत रहा है, बल्कि त्रिपाठी जी के करीयर के सब से कामयाब गीतों में से एक है और मुकेश के गाए हुए गीतों में भी इस गीत को एक ऊँची जगह दी जाती है। गीतकार भरत व्यास के लिखे इस गीत में अपने प्रेमिका से दूरी के दर्द का बयान हुआ है। एक तरफ़ मधमात सारंग की छटा, तो दूसरी तरफ़ मुकेश की दर्दभरी पुरसर अंदाज़, कुल मिलाकर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने का एक अनमोल नगीना है यह गीत। गीत सुनवाने से पहले आपको यह बता दें कि 'रानी रूपमती' फ़िल्म एस. एन त्रिपाठी ने ही बनाई थी जो प्रदर्शित हुई सन् १९५९ में 'रविकला चित्र' के बैनर तले। त्रिपाठी जी के ही निर्देशन में इस फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएँ निभाई भारत भूषण और निरुपा राय ने।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. दक्षिण की एक मशहूर गायिका जिन्हें 3 बार पार्श्व गायन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, उनकी आवाज़ है उस गीत में.
२. गुलज़ार साहब ने लिखा इस गीत को.
३. ये गीत आधारित है राग मिया मल्हार पर.

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी के अब १२ अंक हो चुके हैं...बधाई जनाब, पूर्वी जी फुर्ती दिखाईये, वर्ना शरद जी किसी को टिकने नहीं देंगें :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मन को अति भावे सैयां....ताजा सुर ताल पर शंकर, हरिहरण, अलीशा और मर्दानी सुनिधि का धमाल



ताजा सुर ताल TST (28)

दोस्तों, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 ओक्टुबर के एपिसोडस से लगभग अगले 20 एपिसोडस तक, जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के ६० गीतों में से पहली १० पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर"

TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक -

पिछले एपिसोड में सबसे पहले पहुंची सीमा जी, तीनों जवाब उन्होंने दिए पर दो सही एक गलत, दो सही जवाबों के लिए सीमा जी ने जीते ४ अंक, और अंतिम जवाब का सही जवाब देकर दिशा जी ने कमाए २ अंक, तो अभी तक है दो महिलाओं में टक्कर, मजहर कामरान ने सुजॉय घोष और राम गोपाल वर्मा के लिए छायांकन किया है, और ब्लू के अन्य गीतों में अब्बास टायरवाला है पर थीम गीत के बोल रकीब आलम और सुखविंदर ने ही लिखे हैं जैसा कि दिशा जी जवाब में लिखा है, बधाई आप दोनों को. मंजू जी का धन्येवाद जिन्होंने अपनी रेटिंग दी गीतों को

सजीव - सुजॉय, सब से पहले तो तुम्हे 'वेल्कम बैक' कहता हूँ। उम्मीद है तुमने दुर्गा पूजा बड़ी धूम धाम से मनाई होगी!

सुजॉय - बिल्कुल सजीव, कैसे ये १० दिन निकल गए पता ही नहीं चला, और अब एक बार फिर से, पूरे जोश के साथ वापस आ गया हूँ 'आवाज़' की महफिल में। तो बताइए, आज 'ताज़ा सुर ताल' में सब से पहले कौन सा गीत आप बजाने जा रहे हैं?

सजीव - आज का पहला गीत है फ़िल्म 'दिल बोले हड़िप्पा' का, जिसका शीर्षक गीत हमने पहले सुनवाया था। आज सुनवा रहे हैं एक और वैसी ही पंजाबी रंग का "भंगड़ा बिस्तर"। इसे गाया है अलिशा चिनॉय, सुनिधि चौहान और हार्ड कौर ने।

सुजॉय - सजीव, आपको नहीं लगता कि जितनी जल्दी इस फ़िल्म का शीर्षक गीत लोगो की ज़ुबान पर चढ़ा था, उसी रफ़्तार से फ़िल्म सिनेमा घरों से उतर भी गई?

सजीव - हाँ, फ़िल्म तो फ़्लॊप रही, लगता है शाहीद और रानी की जोड़ी को लोग हज़म नहीं कर पाए। उपर से कहानी बहुत ही अवास्तविक थी, जिसकी वजह से लोगों को बहुत ज़्यादा पसंद नहीं आई। सोचिये किसी टीम के यदि ९ खिलाडी ५० रनों पर आउट हो जाए तो क्या वो टीम २३२ का लक्ष्य पार कर सकती है....:)

सुजॉय - ये जो गीत है आज का, गायक कलाकारों के नाम से मुझे ऐसा लग रहा है कि अलिशा और सुनिधि का एक साथ गाया हुआ यह पहला गीत होना चाहिए, वैसे मैं बहुत ज़्यादा श्योर नहीं। यह गीत फ़िल्माया गया है रानी और राखी सावंत पर। रानी का प्लेबैक किया सुनिधि ने और राखी का अलिशा ने। सुनिधि ने कुछ हद तक लड़के की आवाज़ में गाने की कोशिश की है क्योंकि सरदार बनी रानी के किरदार के लिए एक ऐसी आवाज़ की ज़रूरत थी कि जो लड़की की भी हो, लेकिन कुछ मर्दाना अंदाज़ के साथ।

सजीव - सुजॉय, तुम्हारी इन बातों को सुनकर मुझे तो फ़िल्म 'क़िस्मत' का वो हिट गीत याद आ रही है "कजरा मोहब्बतवाला", जिसमें शमशाद बेग़म ने बिश्वजीत का प्लेबैक किया था।

सुजॉय - हाँ, 'रफ़ू चक्कर' में भी आशा भोसले ने ऋषी कपूर का और उष मंगेशकर ने पेंटल का पार्श्वगायन किया था "छक छक छुक छुक बॉम्बे से बरोडा तक" गीत में। तो चलिए सुनते हैं यह गीत। गीतकार जयदीप साहनी और संगीत प्रीतम का। एक बात और इस गीत का फिल्मांकन बहुत शानदार हुआ है, जयदीप ने शुद्ध पंजाबी शबों से गीत को गढा है, मुझे आश्चर्य है भंगडा बिस्तर बीयर बटेर में बटेर शब्द के इस्तेमाल पर किसी ने आपत्ति नहीं उठायी, वर्ना हमारे देश लोग बस इंतज़ार करते हैं कि ऐसा कुछ मिले :)

भांगडा बिस्तर बीयर बटेर (दिल बोले हडिप्पा)
आवाज़ रेटिंग - ***1/2.



TST ट्रिविया # 04 - "दिल बोले हडिप्पा" की कहानी किस शेक्सपियर के उपन्यास पर आधारित अंग्रेजी फिल्म से प्रेरित है?


सुजॉय - थिरकता हुआ गीत हमने सुना। अब किस गीत की बारी है सजीव?

सजीव - अब बारी है 'लंदन ड्रीम्स' फ़िल्म के एक गीत की। शंकर महादेवन और साथियों की आवाज़ों में है यह गीत "मन को अति भावे स‍इयाँ"। शंकर अहसान लॊय के संगीत से लोगों को हमेशा ही उम्मीदें रहती हैं, और वे हर बार उन्हे निराश नहीं करते, भले ही फ़िल्म ज़्यादा चले या ना चले। 'लंदन ड्रीम्स' भी ऐसी ही एक फ़िल्म है।

सुजॉय - स्टार कास्ट तो ज़बरदस्त है इस फ़िल्म की, देखना है कि फ़िल्म कैसी चलती है। इस फ़िल्म में कुल ८ गानें हैं और ३ रिमिक्स वर्ज़न भी हैं। इस फ़िल्म के भी दो गीत हम बजा चुके हैं। इस गीत की क्या ख़ास बात है?

सजीव - इस गीत की ख़ासीयत हम यही कह सकते हैं कि यह एक तरह का फ़्युज़न है। शास्त्रीय गायन भी है, लोक संगीत का एक अंग भी है, और रीदम पाश्चात्य है। गीत के बोल में भी शुद्ध भाषा का प्रयोग हुआ है। आजकल इस तरह की शुद्ध भाषा का प्रयोग फ़िल्मी गीतों में सुनाई नहीं देता है। फ़िल्म में किस सिचुयशन में इस गीत को शामिल किया गया है यह तो नहीं मालूम, लेकिन जो भी है गीतकार प्रसून जोशी ने अच्छा ही लिखा है गीत को।

सुजॉय - शुद्ध भाषा से याद आया, फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग में कुछ गिने चुने गीतकार ऐसे थे जिन्होने शुद्ध हिंदी का बेहद ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया है, जैसे कि कवि प्रदीप, जी एस. नेपाली, भरत व्यास, पंडित नरेन्द्र शर्मा प्रमुख। अगर किसी और उल्लेखनीय गीतकार का नाम मैं भूल रहा हूँ तो मुझे माफ़ कीजिएगा। चलिए सुनते हैं 'लंदन ड्रीम्स' का यह गीत।

सजीव - शंकर की आवाज़ है इस गीत में, और शुद्ध हिंदी भाषा के शब्दों का इस्तेमाल इस गीत को एक अलग मुकाम देता है, सुनिए -

मन को अति भाये (लन्दन ड्रीम्स)
आवाज़ रेटिंग - ****



TST ट्रिविया # 05 - वो पहला गीत कौन सा है जो प्रसून ने किसी फिल्म के लिए लिखा..?

सुजॉय - शास्त्रीय, लोक, और पाश्चात्य संगीत का अच्छा फ़्युज़न सुना हम सब ने। और अब आज का आखिरी गीत कौन सा है?

सजीव - यह एक बड़ा ही नर्मोनाज़ुक गीत है फ़िल्म 'व्हाट्स योर राशी' का। इस फ़िल्म का गुजराती रंग में रंगा गीत "सु छे" हमने सुना था। इस फ़िल्म के कुल १३ गीतों में से आज जो गीत हमने चुना है वह है "बिखरी बिखरी सी ज़ुल्फ़ें हैं क्यों"।

सुजॉय - बड़ा ही सुंदर गीत है हरिहरण की आवाज़ में। और सब से अच्छा लगता है गीत में तबले के प्रयोग का। बहुत लम्बे अरसे के बाद किसी गीत में इस तरह से तबले की ध्वनियों का प्रॊमिनेन्ट इस्तेमाल हुआ है। अच्छा, इस फ़िल्म के १२ गीत तो १२ अलग अलग राशी के किरदारों से जुड़ा हुआ है ना, तो फिर यह भी बताइए कि यह गीत किस राशी के नाम समर्पित है?

सजीव - यह है कैन्सर, यानी कि कर्कट राशी के किरदार के नाम। सोहैल सेन का इस गीत के लिए हरिहरण की आवाज़ को चुनना सार्थक रहा। हरिहरण की मखमली आवाज़ को बहुत सूट किया है यह गीत। तो सुनते हैं।

बिखरी बिखरी (व्हाट्स यूर राशि)
आवाज़ रेटिंग -****



TST ट्रिविया # 06 -आशुतोष की ये फिल्म "व्हाट्स यूर राशि" किस उपन्यास पर आधारित है और उसकी लेखिका कौन है ?

आवाज़ की टीम ने इन गीतों को दी है अपनी रेटिंग. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसे लगे? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीतों को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

शुभकामनाएँ....



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Wednesday, October 7, 2009

मेघा छाए आधी रात बैरन बन गयी निंदिया....गीतकार नीरज का रचा एक बेहतरीन गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 225

संगीत चाहे कोई भी हो, यह बना है सात स्वरों से। जी हाँ, सा रे गा मा पा धा नि। ये तो केवल अब्रीवियशन्स हैं जिनके पूरे नाम हैं शदज, रिशभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निशाद। एक साथ मिलकर इन्हे कहा जाता है सप्तक। सप्तक तीन प्रकार के होते हैं - मंद्र (धीमी ध्वनि), मध्यम (साधारण ध्वनि), और तार (उच्च ध्वनि)। जब हम राग की बात करते हैं तो किसी भी राग के तीन dimensions होते हैं। पहला यह कि सात स्वरों में से कितने स्वरों का इस्तेमाल किया जाना है। जो राग पाँच स्वरों पर आधारित है उसे ओडव राग कहते हैं, छह स्वरों के साथ उसे शडव कहते हैं, और अगर सभी सात स्वर उसमें शामिल हैं तो उसे सम्पूर्ण राग कहते हैं। किसी राग में जिस स्वर पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है उसे वादी कहते हैं और उसके अगले ज़ोरदार स्वर को कहते हैं सम्वादी। जिस स्वर का इस्तेमाल नहीं हो सकता, उसे विवादी कहते हैं। तो दोस्तों, ये तो थीं रागदारी की कुछ मौलिक बातें, आइए अब आपको बताएँ कि आज हम किस राग पर आधारित गीत आपको सुनवाने के लिए लाए हैं। आज का राग है पटदीप। कुछ राग ऐसे हैं जिनका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल संगीतकारों ने किया है, और कुछ राग ऐसे रह गए जिनकी तरफ़ फ़िल्मी संगीतकारों ने बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। पटदीप ऐसा ही एक राग है। संगीतकार शंकर जयकिशन और सचिन देव बर्मन उन गिने चुने संगीतकारों में से थे जिन्होने सब से ज़्यादा रागों के साथ खेला है। तभी तो इन दोनों संगीतकारों का रेज़ल्ट हमेशा १००% हुआ करता था। राग पटदीप पर शंकर जयकिशन ने फ़िल्म 'साज़ और आवाज़' के लिए एक गीत की रचना की थी "साज़ हो तुम आवाज़ हूँ मैं", और बर्मन दादा ने फ़िल्म 'शर्मिली' में लता जी से गवाया था "मेघा छाए आधी रात बैरन बन गई निंदिया"। आज इसी दूसरे गीत की बारी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। इन दो गीतों के अलावा अगर आप के ज़हन में कोई और गीत है राग पटदीप पर आधारित तो हमारे साथ ज़रूर बाँटिएगा।

'शर्मिली' १९७१ की फ़िल्म थी शशि कपूर और राखी के अभिनय से सजी हुई। राखी का इस फ़िल्म में डबल रोल था। कंचन और कामिनी दो जुड़वां बहनें हैं, लेकिन स्वभाव में एक दूसरे के विपरीत। जहाँ कंचन बहुत ही शर्मिली, प्रकृति प्रेमी, घरेलु और बड़ी ही सीधी सादी सी, साड़ी पहनने वाली लड़की है, वहीं दूसरी ओर कामिनी पाश्चात्य रंग ढंग वाली एक खुले मिज़ाज की लड़की। दोनों को एक ही पुरुष से प्यार हो जाता है। कई पड़ावों से गुज़रते हुए अंत में कंचन को मिलता है अपना प्यार और कामिनी मर जाती है। कामिनी के अंदाज़ में हमने आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर ही आशा भोसले का गाया "रेश्मी उजाला है मख़मली अंधेरा" सुनवा चुके हैं। आज है कंचन की बारी। जैसा कि हमने बताया कंचन को प्रकृति से लगाव है, वो बाग़ बगीचों में समय बिताती है, तो उनके किरदार को और ज़्यादा सशक्त करते हुए गीतकार नीरज और संगीतकार सचिन देव बर्मन ने राग पटदीप पर एक गाना तैयार किया "मेघा छाए आधी रात बैरन बन गई निंदिया"। गीत का संगीत संयोजन बड़ा ही कमाल का है, गाने का प्रील्युड पाश्चात्य है, फिर धीरे धीरे सितार के तानों और तबले के थापों के साथ साथ शास्त्रीय संगीत में परिणत हो जाता है। और इंटर्ल्युड म्युज़िक में फिर वही पाश्चात्य रंग। फ़्युज़न किसे कहते हैं बर्मन दादा ने सन्'७१ के इस गीत में ही दुनिया को दिखा दिया था, आज इसी फ़्युज़न का हम एक बार फिर से आनंद उठाएँ, सुनते हैं "मेघा छाए आधी रात"।



मेघा छाए आधी रात बैरन बन गई निदिया
बता दे मैं क्या करूं ।

सबके आँगन दिया जले रे मोरे आँगन जिया
हवा लागे शूल जैसी ताना मारे चुनरिया
कैसे कहूँ मैं मन की बात बैरन बन गई निदिया
बता दे मैं क्या करूं ।

टूट गए रे सपने सारे छूट गई रे आशा
नैन बह रे गंगा मोरे फिर भी मन है प्यासा
आई है आँसू की बारात बैरन बन गई निदिया


और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. अगला गीत जिस राग पर आधारित है वो है राग सारंग.
२. भारत व्यास ने लिखा इस गीत को इस एतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी मशहूर फिल्म के लिए.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"बरसे".

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी बहुत जल्दी आप डबल फिगर यानी १० अंकों पर पहुँच गए हैं, आश्चर्य है इस बार स्वप्न जी ने खाता भी नहीं खोला है अब तक....:) शरद जी को बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, October 6, 2009

ओ दुनिया के रखवाले....रफी साहब के गले से निकली ऐसी सदा जिसे खुदा भी अनसुनी न कर पाए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 224

सुनहरे दौर में बहुत सारी ऐसी फ़िल्में बनी हैं जिनका हर एक गीत कामयाब रहा है। ५० के दशक की ऐसी ही एक फ़िल्म रही है 'बैजु बावरा'। अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हमने आप को इस फ़िल्म के दो गीत सुनवा चुके हैं, "तू गंगा की मौज" और "मोहे भूल गए साँवरिया"। फ़िल्म के सभी गानें राग प्रधान हैं और नौशाद साहब ने शास्त्रीय संगीत की ऐसी छटा बिखेरी है कि ये गानें आज अमर हो गए हैं। नौशाद साहब की काबिलियत तो है ही, साथ ही यह असर है हमारे शास्त्रीय संगीत का। हमने पहले भी यह कहा है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ ऐसी ख़ास बात है कि यह हमारे कानों को ही नहीं बल्कि आत्मा पर भी असर करती है। और शायद यही वजह है कि रागों पर आधारित गानें कालजयी बन जाते हैं। 'बैजु बावरा' के उपर्युक्त गानें क्रम से राग भैरवी और भैरव पर आधारित हैं। इस फ़िल्म के लगभग सभी गीत किसी ना किसी शास्त्रीय राग पर आधारित है। और क्यों ना हो, फ़िल्म की कहानी ही है तानसेन और बैजु बावरा की, जो शास्त्रीय संगीत के दो स्तंभ माने जाते हैं। इसलिए 'दस राग दस रंग' शृंखला में इस फ़िल्म के किसी एक गीत को शामिल करना हमारे लिए अनिवार्य हो जाता है। आज के लिए हम ने इस फ़िल्म के जिस गीत को चुना है वह है रफ़ी साहब का गाया एक भक्ति रचना "ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले"। यह गीत आधारित है राग दरबारी कानडा पर, जिसमें नायक ईश्वर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है और साथ ही उसे कोस भी रहा है। गीतकार शक़ील बदायूनी एक अंतरे में लिखते हैं कि "आग बनी सावन की बरखा फूल बने अंगारे, नागन बन गई रात सुहानी पत्थर बन गए तारे, सब टूट चुके हैं सहारे, जीवन अपना वापस ले ले जीवन देनेवाले, ओ दुनिया के रखवाले"। बाद में 'फूल बने अंगारे' शीर्षक से कम से कम दो फ़िल्में बनी हैं, क्या पता शायद इसी से प्रेरीत हुए हों वे फ़िल्मकार! ख़ैर, 'बैजु बावरा' की तमाम बातें तो आप जान ही गए थे पिछले गीतों में, आइए आज इस राग की बातें करें।

इसमें कोई संदेह नहीं कि दरबारी कानडा एक बहुत ही लोकप्रिय राग रहा है समूचे उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत में। माना जाता है कि संगीत सम्राट तानसेन ने इस राग का आविश्कार किया था, जो शहंशाह अक़बर के शाही दरबार में गायक हुआ करते थे। और इसीलिए इसका नाम पड़ा दरबारी कनाडा। यह रात्री कालीन राग है और इसे विकृत (वक्र) तरीके से गाया जाना चाहिए ताक़ी जौनपुरी, असावरी और अडाणा जैसे समगोष्ठी रागों से भिन्न सुनाई दे। ख़ास कर के अडाणा से इसे अलग रखने के लिए यह ज़रूरी है कि मन्द्र सप्तक और पुर्वांग पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाए। इस राग पर अजस्र फ़िल्मी गीत बने हैं जिनकी एक सूची हम यहाँ आप को दे रहे हैं। इन गीतों के मुखड़ों को आप एक के बाद एक गुनगुनाइए ताक़ी इस राग का मूल स्वरूप आप के ज़हन मे आ जाए। ये हैं वो गीत...

१. आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे
२. अगर मुझसे मोहब्बत है मुझे सब अपने ग़म दे दो
३. ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहाँ कोई न हो
४. भूल जा, जो चला गया उसे भूल जा
५. चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया
६. दिल जलता है तो जलने दे
७. हम तुझसे मोहब्बत करके सनम
८. हम तुमसे जुदा होके मर जाएँगे रो रो के
९. झनक झनक तोरी बाजे पायलिया
१०. कितना हसीं है मौसम कितना हसीं सफ़र है
११. कोई मतवाला आया मेरे द्वारे
१२. मैं निगाहें तेरे चेहरे से हटाऊँ कैसे
१३. मेरे महबूब न जा आज की रात न जा
१४. मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए
१५. नैनहीन को राह दिखा प्रभु
१६. रहा गरदिशों में हमदम मेरे इश्क़ का सितारा
१७. सत्यम शिवम सुंदरम
१८. सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देते
१९. तोरा मन दर्पण कहलाए
२०. टूटे हुए ख़्वाबों ने हम को ये सिखाया है

उम्मीद है, इन सब गीतों को गुनगुनाते हुए आप ने राग दरबारी कनाडा से एक रिश्ता बना लिया होगा, और आइए अब सुनते हैं फ़िल्म 'बैजु बावरा' से आज का गीत। बैजु बावरा का ज़िक्र इस शृंखला में आगे भी आएगा, जिसमें हम आपको ऐसी रागों के बारे में बताएँगे जिनका इजाद बैजु बावरा ने किया था। फ़िल्हाल सुनिए आज का गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस फिल्म में उस अभिनेत्री ने दोहरी भूमिका निभाई थी जो एक मशहूर गीतकार की जीवन संगिनी भी बनी आगे चलकर
२. नीरज के लिखा ये गीत आधारित है राग पटदीप की.
३. अंतरे में शब्द है -"गंगा".

पिछली पहेली का परिणाम -

पूर्वी जी बहुत बधाई अब आप मंजिल के बेहद करीब हैं, दिशा जी ने बहुत दिनों में दर्शन दिए पर यदि बोल हिंदी में देते तो अधिक बेहतर होता. दिलीप जी अपनी पोस्ट का भी लिंक दे दिया होता....

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रौशन दिल, बेदार नज़र दे या अल्लाह...इसी दुआ के साथ लता दीदी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५१

पाँच हफ़्तों और दस कड़ियों की माथापच्ची के बाद हम हाज़िर हैं प्रश्न-पहेली के अंकों का हिसाब लेकर। इन प्रश्न-पहेलियों में मुख्यत: ३ लोगों ने हीं भाग लिया(पिछली कड़ी में मंजु जी ने बस एक सवाल का जवाब दिया..इसलिए उन्हें हम मुख्य प्रतिभागियों में नहीं गिनते)। तो ये तीन लोग थे- सीमा जी, शरद जी और शामिख जी। अगर हम ५०वीं कड़ी के अंकों को छोड़ दें तो अंकों का गणित कुछ यूँ बनता था: सीमा जी: २९.५, शरद जी: १८, शामिख जी: १० अंक। तब तक यह ज़ाहिर हो चुका था कि सीमा जी हार नहीं सकतीं और पहली विजेता वहीं हैं। शरद जी और शामिख जी के बीच ८ अंकों का फ़र्क था। और इतनी दूरी को पाटने के लिए कोई चमत्कार की हीं जरूरत थी। ५०वीं कड़ी में हमने जब बोनस प्रश्न और बोनस अंक(५ अंक) जोड़ा तब भी हमें यह ख्याल नहीं था कि इसके सहारे कोई कमाल हो सकता है। लेकिन शामिख जी छुपे रूस्तम साबित हुए। उन्होंने अपना तुरूप का इक्का तभी इस्तेमाल किया जब उसकी जरूरत थी। हर बारे दूसरे या तीसरे स्थान पर आने वाले शामिख साहब इस बार महफ़िल में सबसे पहले हाज़िर हुए। उन्होंने न सिर्फ़ नियमित प्रश्नों के सही जवाब दिये बल्कि बोनस प्रश्न का सही जवाब देकर छक्का मार दिया और एक हीं बार में ९ अंक(४+५) हासिल कर लिए। शाबाश शामिख जी... और इस तरह से आपके कुल १९ अंक हो गए। इस कमाल के बाद एक कमाल यह हुआ कि सीमा जी भले हीं एक दिन देर से हाज़िर हुईं लेकिन शरद जी उनसे भी पीछे आए। शरद जी अगर दूसरे नंबर पर आते तो उन्हें २ अंक मिलते और २० अंकों के साथ जीत उन्हीं की होती। लेकिन तीसरे नंबर पर आने के कारण उन्हें बस १ अंक हीं मिले और उनका कुल जोड़ हुआ १९. तो इस तरह अंततोगत्वा हिसाब ये बनता है: प्रथम: सीमा जी(३१.५..निर्विवाद..निर्विरोध), द्वितीय: शरद जी, शामिख जी(१९ अंक)। संयोग देखिए कि पिछली बार की तरह इस बार भी तीनों के तीनों विजयी हुए। अब बात करते हैं गज़लों की। सीमा जी अपनी पसंद की ५ गज़लें और शरद जी एवं शामिख जी ३-३ गज़लें सुन सकते हैं। आप तीनों से आग्रह है कि शुक्रवार तक इन गज़लों/नज़्मों की फ़ेहरिश्त sajeevsarathie@gmail.com पर भेज दें। ध्यान यह रखें कि गज़लें अलग-अलग फ़नकारों की हों(ताकि ज्यादा से ज्यादा जानकारी हम आपसे शेयर कर पाएँ) और हाँ अगर किसी गज़ल/नज़्म को ढूँढने में हमें मुश्किल आई तो हम आपसे उन गज़लों को बदलने का आग्रह भी कर सकते हैं।

आज हम जो गज़ल लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं,उसके साथ एक ऐसी फ़नकारा का नाम जुड़ा है, जिन्होंने ३६ भाषाओं(जिनमें रूसी, फ़िजीयन और डच भी शामिल है) में २०००० से भी अधिक गाने गाए हैं और जिनका नाम दुनिया भर में सबसे अधिक रिकार्ड की गई गायिका होने के नाते गिनीज बुक आफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज है। मजे की बात यह है कि आप हीं ऐसी एकमात्र जीवित व्यक्ति हैं जिनके नाम से पुरस्कार दिए जाते हैं। आपके बारे में और भी कुछ कहने से पहले हम आपको गत २८ सितंबर को मनाए गए आपके जन्मदिन की बधाई देना चाहेंगे। ८० साल की हो चलीं लता जी के बारे में अपने मुख से कुछ भी कहना संभव न होगा, इसलिए हमने निर्णय लिया है कि आज की कड़ी में हम आपसे लता जी की हीं कही गई बातें शेयर करेंगे। उससे पहले हम आपको यह बता दें कि लता जी ने पहली बार वसंत जोगलेकर द्वारा निर्देशित एक मराठी फिल्म 'किती हसाल'(कितना हसोगे?)(१९४२) में गाया था। उनके पिता नहीं चाहते थे कि लता फ़िल्मों के लिये गाये इसलिये इस गाने को फ़िल्म से निकाल दिया गया। लेकिन उनकी प्रतिभा से वसंत जोगलेकर काफी प्रभावित हुये। इसके पाँच साल बाद भारत आज़ाद हुआ और लता मंगेशकर ने हिंदी फ़िल्मों में गायन की शुरूआत की, "आपकी सेवा में" पहली फ़िल्म थी जिसे उन्होंने अपने गायन से सजाया लेकिन उनके गाने ने कोई ख़ास चर्चा नहीं हुई। लता जी को पहली सफ़लता कमाल अमरोही की फिल्म "महल" के "आएगा आने वाला" गीत से मिली जिसे उस दौर की शीर्ष की हिरोईन मधुबाला पर फिल्माया गया था। उस घटना को याद करते हुए लता जी कहती हैं: जब महल फ़िल्म का गाना रिकॉर्ड हो रहा था तो खेम चंद्र प्रकाश जी जो मुझे अपनी बेटी की तरह प्यार करते थे, उन्होंने कहा था कि देखना महल के गाने खूब चलेंगे। फ़िल्म आई और गाने भी खूब बजे, लेकिन खेम चंद्र प्रकाश जी का देहांत हो गया। वो देख ही नहीं पाए कि आएगा आने वाला....इतना चला। उस गाने की शूटिंग तो बहुत ही मज़ेदार रही है। मलाड में बॉम्बे टाकीज़ का बहुत बड़ा स्टूडियो था। स्टूडियो पूरा खाली था। मैंने गाना शुरू किया, लेकिन उनका कहना था कि वो प्रभाव नहीं आ रहा है कि जैसे आवाज़ दूर से आ रही हो। उन्होंने मुझे स्टूडियो के एक कोने में खड़ा करके माइक बीच में रख दिया गया। माइक मुझसे क़रीब 20 फुट दूर रखा था। जो गाने से पहले का शेर था ख़ामोश है जमाना...वो शेर कहते हुए मैं एक-एक कदम आगे बढ़ती थी और गाना शुरू होने तक मैं माइक के पास पहुँच जाती थी। इस गाने पर बहुत मेहनत की मैंने। यकीनन इसी हौसले और इसी मेहनत का फ़ल है कि लता जी ने वह मुकाम हासिल कर लिया,जहाँ पहुँचना आम इंसानों के लिए मुमकिन नहीं है।

लंदन की वृत्तचित्र निर्माता नसरीन मुन्नी कबीर से बातचीत पर आधारित किताब "लता मंगेशकर इन हर ऑन वाइस" में लता जी से जुड़ी कई सारी बातों का खुलासा हुआ है। उनमें से हम दो बातें आपके सामने पेश कर रहे हैं। एक तो यह कि लता जी छद्म नाम से संगीत देती थीं। इस बारे में वे कहती हैं(सौजन्य:बीबीसी): मैं पुरुष छद्म नाम आनंदघन से फिल्मों में संगीत देती थीं। कोई नहीं जानता था कि मैं संगीतकार हूँ, लेकिन जब 'साधी मानस’ ने १९६६ में महाराष्ट्र सरकार के सर्वश्रेष्ठ संगीत समेत आठ पुरस्कार जीते तब समारोह के आयोजकों ने इस बात का खुलासा कर दिया कि आनंदघन कोई और नहीं बल्कि लता मंगेशकर ही हैं। इसके बाद मुझे सार्वजनिक रूप से सामने आकर पुरस्कार लेना पड़ा था। दूसरी घटना दिलीप साहब से जुड़ी है। इस बारे में लता जी का कहना था कि(सौजन्य:खास खबर): यह कोई १९४७ या ४८ की बात है, एक दिन अनिल विश्वास, युसूफ भाई(दिलीप कुमार) और मैं ट्रेन में सफर कर रहे थे। हम एक कंपार्टमेंट में बैठे थे, और युशूफ भाई ने मेरे बारे में पूछा कि ये कौन हूं। अनिल दा ने जवाब दिया यह एक नई गायिका है, जब आप इसे सुनेंगे तो आप भी इसकी आवाज को पसंद करेंगे। जब अनिल दा ने दिलीप साहब को बताया कि लता महाराष्ट्रीयन है, तो उन्होंने कहा कि इसकी उर्दू अच्छी नहीं है, इसका गाया गाना दाल भात जैसा होता होगा। यह सुनकर मैं बहुत दु:खी हुई। मैंने अनिल दा और नौशाद साहब के सहायक शफ़ी मोहम्मद से कहा कि मैं उर्दू का उच्चारण सुधारना चाहती हूँ। उन्होंने मेरी मुलाकात मौलाना महबूब से कराई, जिन्होंने कुछ समय मुझे उर्दू पढाई। बाद में नर्गिस की मां जद्दनबाई ने भी मेरी उर्दू की तारीफ की। मैं इसके लिए दिलीप साहब का शुक्रिया अदा करती हूँ। उन्होंने न टोका होता तो मेरी उर्दू वैसी हीं रहती। सभी जानते हैं कि लता जी और रफ़ी साहब ने तीन साल तक एक-दूसरे के साथ नहीं गाया था। इस बाबत पूछने पर वे कहती हैं(सौजन्य:पुणे/मुंबई मिरर):१९६० में हमारा एक म्युजिसियन्स’ एसोशिएशन था। उसमें मुकेश भैया, तलत महमूद साहब ने फ़नकारों के लिए रोयाल्टी की माँग रखी थी। मैं पहले से हीं रोयाल्टी लेती आ रही थी,इसलिए मैं चाहती थी कि सबको मिले। रफ़ी साहब इसके खिलाफ़ थे। उनका कहना था कि हम जो गाते हैं, उसका पैसा हमें मिल जाता है और बात वहीं खत्म हो जाती है। ऐसे हीं एक मीटिंग में जब उनसे उनकी राय पूछ गई तो उनका कहना था कि "यह महारानी जो कहेगी वही होगा"। मुझे बुरा लगा। मैंने कहा कि "हाँ, मैं महारानी हूँ, लेकिन आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?" इसपर उन्होंने सबके सामने कह दिया कि मैं तुम्हारे साथ अब नहीं गाऊँगा। मैंने कहा कि "ये कष्ट आप क्यों कर रहे हैं? मैं हीं नहीं गाऊँगी आपके साथ।" मैंने वहाँ मौजूद सारे संगीतकारों को भी बता दिया कि अब हमारे लिए कोई साथ में गाना न बनाएँ। उस घटना के बाद लगभग तीन सालॊं तक हमने साथ नहीं गाया। फ़नकारों के साथ ऐसा होता रहता है, वैसे भी फ़नकार तो नाजुक मिजाज के होते हैं। लता जी की फ़नकारी के और भी कई सारे किस्से हमारे पास हैं,लेकिन समय(पढें:जगह) इज़ाज़त नहीं दे रहा। इसलिए अभी आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की गज़ल के शायर "क़तील शिफ़ाई" साहब को हमने एक पूरी की पूरी कड़ी नज़र की थी, इसलिए अभी हम उनके इस शेर से हीं काम चला लेते हैं:

मेरे बाद वफ़ा का धोखा और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझको, सर मेरा झुक जायेगा।


"क़तील" साहब के इस शेर के बाद लीजिए अब पेश है जगजीत सिंह जी के संगीत से सजी यह गज़ल जिसे हमने "सजदा" एलबम से लिया है:

दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह

मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे
रौशन दिल, बेदार नज़र दे या अल्लाह

सूरज-सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह

या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

एक फ़ुर्सते-___ मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के


आपके विकल्प हैं -
a) गुनाह, b) निगाह, c) पनाह, d) फिराक़

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "मानूस" और शेर कुछ यूं था -

इतना मानूस न हो ख़िलवतेग़म से अपनी
तू कभी खुद को भी देखेगा तो ड़र जायेगा

कहते हैं ना कि "अपने तो अपने होते हैं"। तो शायद इसी कारण से अहमद फ़राज़ साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "शामिख फ़राज़" ने.. फ़राज़-फ़राज़...समझ गए ना :) । आपने मानूस शब्द पर कुछ शेर भी कहे:

तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो (साहिर लुध्यान्वी)

इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
कोई बोले तो बुरा लगता है (अहमद नदीम कासमी)

गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो (नसिर क़ाज़मी)

शामिख जी के बाद महफ़िल में तशरीफ़ लाए सुमित जी। सुमित जी, चलिए कोई बात नहीं...शेर याद आए न आए, महफ़िल में आते रहिएगा....बीच में न जाने कहाँ गायब थे आप।

मंजु जी, जब कोई गज़ल/नज़्म या फिर हमारे आलेख की तारीफ़ करता है तो एक हौसला मिलता है, आगे बढते रहने का। धन्यवाद आपका। आपने "फ़राज़" साहब के शेर को एक अलग हीं रंग दे दिया है। कमाल है:

ये पेड़,फूल,सागर ही तो मेरे मानूस हैं ,
खिलवत ए गम की दवा जो है।

शन्नो जी, आपका शेर और मायूस :).. वैसे बड़ा हीं खुबसूरत है ये शेर:

देर हो चुकी है बहुत ये मानूस दिल
अपनी कलम से हम दुश्मन बना बैठे.

सीमा जी, महफ़िल की शम्मा बुझे, उससे पहले आप आ गईं। देर से आईं,लेकिन शुक्र है कि आप आईं तो सही। ये रही आपकी पेशकश:

इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से
पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला (दुष्यंत कुमार)

मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में
एक लहर झूमती है मेरे अंग-अंग में (आलम खुर्शीद)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Monday, October 5, 2009

आवाज़ देकर हमें तुम बुलालो...लता रफी से स्वरों में एक बेमिसाल युगल गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 223

'दस राग दस रंग' शृंखला के अंतर्गत आज हम ने जिस राग को चुना है वह है शिवरंजनी। बहुत ही सुरीला राग है दोस्तों जिसे संध्या और रात्री के बीच गाया जाता है (लेट ईवनिंग)। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है यह राग भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए गाया जाता है। जहाँ एक तरफ़ यह राग रुमानीयत की अभिव्यक्ति कर सकता है, वहीं दूसरी तरफ़ दर्द में डूबे हुए किसी दिल की सदा बन कर भी बाहर आ सकती है। मूल रूप से शिवरंजनी का जन्म दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत में हुआ था, जो बाद में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत मे भी घुल मिल गया। दोस्तों, आप मे से कई लोगों को यह सवाल सताता होगा कि जब एक ही राग पर कई गीत बनते हैं तो फिर वो सब गानें अलग अलग क्यों सुनाई देते हैं? वो एक जैसे क्यों नहीं लगते? दोस्तों, इसका कारण यह है कि किसी एक राग पर कोई गीत तीन सप्तक (ऒक्टेव्ज़) के किसी भी एक सप्तक पर कॊम्पोज़ किया जा सकता है। और यही कारण भी है कि जिन्हे संगीत की तकनीक़ी जानकारी नहीं है, वो सिर्फ़ गीत को सुन कर यह नहीं आसानी से बता पाते कि गीत किस राग पर आधारित है। कुछ गीतों में राग को आसानी से पहचाना जा सकता है और कुछ गीतों में रागों को पहचानने के लिए अच्छे अच्छे जानकारों को भी पसीना बहाना पड़ता है। दूसरी तरफ़ कभी कभी दो गानें जो एक ही राग पर आधारित हैं, वे एक जैसे सुनाई देते हैं, इसके पीछे भी कारण है। जब कोई संगीतकार किसी राग पर आधारित गीत बनाता है तो वो उस राग की बंदिश को भी इस्तेमाल करने की कोशिश करता है। बंदिश ही वह 'कॊमॊन फ़ैक्टर' है जो किसी राग के सभी धुनों में एक जैसा रहता है। और इसी वजह से कभी कभी एक राग पर आधारित दो गीत एक जैसे सुनाई दे जाते हैं।

जैसा कि हमने आपको बताया राग शिवरंजनी रोमांस और दर्द, दोनों के लिए प्रयोग में लाए जा सकते हैं। रोमांस की अगर बात करें तो इस राग पर आधारित कुछ हिट गानें हैं "बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है", "ओ मेरे सनम दो जिस्म मगर एक जान हैं हम", "रिमझिम के गीत सावन गाए", "तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अंजाना", "तुम्हे देखती हूँ तो लगता है ऐसे", "तुम से मिल कर ना जाने क्यों और भी कुछ याद आता है", इत्यादि। है ना इन सभी गीतों की धुनों में एक समानता! और अब एक नज़र उन गीतों पर भी जो हैं दर्द में डूबे हुए। "बनाके क्यों बिगाड़ा रे नसीबा", "दिल के झरोखे मे तुझको बिठाकर", "जाने कहाँ गए वो दिन", "कहीं दीप जले कहीं दिल", "कई सदियों से कई जनमों से", "मेरे नैना सावन भादों फिर भी मेरा मन प्यासा", "ना किसी की आँख का नूर हूँ", आदि। संगीतकार शंकर जयकिशन ने राग शिवरंजनी का विस्तृत सदुपयोग किया है। जितना उन्हे यह राग पसंद था, उतना ही राज कपूर को भी। आज हम ने इस राग पर आधारित जिस दर्द भरे गीत को चुना है वह भी शंकर जयकिशन की ही धुन है फ़िल्म 'प्रोफ़ेसर' से। मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर के गाए इस सदाबहार युगलगीत को लिखा है हसरत जयपुरी साहब ने। "आवाज़ देके हमें तुम बुलाओ, मोहब्बत में ना हमको इतना सताओ"। शम्मी कपूर और कल्पना अभिनीत यह फ़िल्म आयी थी सन् १९६२ में, जिसका निर्देशन किया था लेख टंडन ने। संगीत संयोजन में तबले का असरदार प्रयोग सुनाई देता है और इंटर्ल्युड संगीत में किस साज़ का इस्तेमाल हुआ है, यह आपको बताना है। सैक्सोफ़ोन या मेटल फ़्ल्युट या फिर कुछ और? हमें आपके जवाब का इंतज़ार रहेगा। तो दोस्तों पहचानिए यह साज़ और नियमीत सुनते रहिए आवाज़!



लता :
आवाज़ दे के हमें तुम बुलाओ
मुहोब्बत में इतना न हमको सताओ
अभी तो मेरी ज़िन्दगी है परेशां
कहीं मर के हो खाक भी न परेशां
दिये की तरह से न हमको जलाओ - मुहोब्ब्त में
रफ़ी :
मैं सांसों के हर तार में छुप रहा हूँ
मैं धडकन के हर राग में बस रहा हूँ
ज़रा दिल की जानिब निगाहे झुकाओ - मुहोब्बत में
लता :
न होंगे अगर हम तो रोते रहोगे
सदा दिल का दामन भिगोते रहोगे
जो तुम पर मिटा हो उसे न मिटाओ - मुहोब्बत में


और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. अगला राग है दरबारी कानडा.
२. इस कालजयी गीत को रफी साहब ने अपनी आवाज़ से अमर कर दिया है.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"आग".

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी लौट आये हैं, और ये अन्य सभी प्रतिभागियों के खतरे की घंटी है. २ अंकों के साथ शरद जी पहुंचे ८ अंकों पर, दिलीप जी बहुत अच्छा लगा आपका ये इनपुट पाकर. स्वप्न जी कहाँ व्यस्त हैं आजकल...अनिल चड्डा जी नियमित रहिये....आनंद आएगा

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

आ ज़माने आ, आजमाले आ...गायक मोहन की आवाज़ में है सपनों को सच करने का हौंसला



ताजा सुर ताल TST (27)

दोस्तों, आज से ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. आज से TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें १ की जगह तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी आज से अगले २० एपिसोडस तक, जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के ६० गीतों में से पहली १० पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर"

तो चलिए आज के इस नए एपिसोड की शुरुआत करें, दोस्तों सुजॉय अभी भी छुट्टियों से नहीं लौटे हैं, तो उनकी अनुपस्तिथि में मैं सजीव सारथी एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ. इस वर्ष लगभग ४ महीनों तक सिनेमा घरों के मालिकों और फिल्म निर्माताओं के बीच ठनी रही और ढेरों फिल्मों का प्रदर्शन टल गया. यही वजह है कि आजकल एक के बाद एक फिल्में आती जा रही हैं और रोज ही किसी नयी फिल्म का संगीत भी बाज़ार में आ रहा है. "लन्दन ड्रीम्स" एक ऐसी फिल्म है जिसका सिनेमाप्रेमियों को बेसब्री से इंतज़ार होगा. इसकी एक वजह इस फिल्म का संगीत भी है, शंकर एहसान और लॉय की तिकडी ने बहुत दिनों बाद ऐसा जलवा बिखेरा है. ढेरों नए गायकों को भी इस फिल्म में उन्होंने मौका दिया है. अभिजित घोषाल से तो हम आपको मिलवा ही चुके हैं इस कार्यक्रम में. आज सुनिए एक और नए गायक मोहन और साथियों का गाया एक और जबरदस्त गीत -"खानाबदोश". इस गीत में एक बहुत ख़ास रेट्रो फील है. शुरुआत में चुटकी और कोरस का ऐसा सुन्दर इस्तेमाल बहुत दिनों बाद किसी गीत में सुनने को मिला है, मोहन की आवाज़ में जबरदस्त संभावनाएं हैं, बहुत कोशिशों के बावजूद भी मैं उनके बारे में अधिक जानकारी नहीं ढूंढ पाया. 'आ ज़माने आ..." से गीत कुछ ऐसे उठता है जिसके बाद आप उसके सम्मोहन में ऐसे बंध जाते हैं कि स्वाभाविक रूप से ही आप गीत को दुबारा सुनना चाहेंगे. मेरी नज़र में तो ये इस साल के श्रेष्ठतम गीतों में से एक है, संगीत संयोजन भी एक दम नापा तुला, और प्रसून के बोल भी कुछ कम नहीं...इससे बेहतर कि मैं कुछ और कहूं आप खुद ही सुनकर देखिये, हो सकता है पहली झलक में आपको इतना न भाए पर धीरे धीरे इसका नशा आप भी भी चढ़ जायेगा ये तय है

खानाबदोश (लन्दन ड्रीम्स)
आवाज़ रेटिंग - ****१/२.



TST ट्रिविया # ०१ - शंकर महादेवन ने शिवमणि और लुईस बैंकस के साथ मिलकर एक संगीत टीम बनायीं थी, क्या आप जानते हैं उस ग्रुप का नाम ?

चलिए आगे बढ़ते हैं. अगला गीत है एक ऑफ बीट फिल्म का. मशहूर साहित्यकार उदय प्रकाश की कहानी पर आधारित "मोहनदास" को शहरों के मल्टीप्लेक्स में काफी सराहना मिली है. संगीतकार हैं विवेक प्रियदर्शन और गीतकार हैं यश मालविय. सीमित प्रचार के बावजूद फिल्म को अच्छे सिनेमा के कद्रदानों ने पसंद किया है, जो कि ख़ुशी की बात है, फिल्म में सभी गीत पार्श्व में हैं....और ये गीत बहुत ही मधुर है, मेलोडी लौटी है विवेक के इस गीत में, शब्द भी अच्छे हैं सुनिए, और आनंद लीजिये -

नदी में ये चंदा (मोहनदास)
आवाज़ रेटिंग - ****



TST ट्रिविया # ०२ - फिल्म मोहनदास के निर्देशक मजहर कामरान ने एक मशहूर निर्देशक की फिल्म के लिए बतौर सिनेमेटोग्राफर भी काम किया है, क्या आप जानते हैं कौन है वो निर्देशक ?

आज का अंतिम गीत हिन्दुस्तान की सबसे महँगी फिल्म का थीम है, अमूमन थीम संगीत में शब्द नहीं होते पर यहाँ बोल भी है और मज़े की बात ये है कि इस थीम के बोल फिल्म के अन्य गीतों के मुकाबले अधिक अच्छे भी हैं. संगीत है ऑस्कर विजेता ऐ आर रहमान का. रहमान साहब की सबसे बड़ी खासियत ये है कि उनका संगीत अपने आप में बहुत होता है एक पूरी कहानी के लिए, उनके वाध्य बोलते हुए से प्रतीत होते हैं, थीम संगीत की अगर बात की जाए तो इसकी परंपरा भी रहमान साहब ने ही डाली थी, फिल्म बॉम्बे का थीम संगीत आज भी रोंगटे खड़े कर देता है, सत्या में विशाल भारद्वाज का थीम संगीत फिल्म के गीतों से भी अधिक लोकप्रिय हुआ था. "ब्लू" का ये थीम संगीत भी जबरदस्त ऊर्जा से भरपूर है. संगीत प्रेमियों के लिए ट्रीट है ये. गायकों कि एक बड़ी फौज है इस थीम में. नेहा कक्कड़ की आवाज़ आपने सुनी होगी इंडियन आइडल में में, दिल्ली की इस गायिका की बड़ी बहन सोनू कक्कड़ भी बेहद मशहूर गायिका हैं दिल्ली की. दोनों बहनों की आवाजें हैं इस गीत में.साथ में हैं रकीब आलम, जसप्रीत, ब्लाज़ और दिलशाद भी. इस मस्त संगीत का आनंद लें -

ब्लू थीम (ब्लू)
आवाज़ रेटिंग -****



TST ट्रिविया # ०३ - ब्लू के इस थीम ट्रैक में बोल किसने लिखे हैं, क्या आप जानते हैं ?

आवाज़ की टीम ने इन गीतों को दी है अपनी रेटिंग. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसे लगे? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीतों को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

शुभकामनाएँ....



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, October 4, 2009

छुपालो यूं दिल में प्यार मेरे कि जैसे मंदिर में लौ दिए की...हर सुर पवित्र हर शब्द पाक



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 222

राग यमन एक ऐसा राग है जिसकी उंगली थाम हर संगीत विद्यार्थी शास्त्रीय संगीत सीखने के मैदान में उतरता है। इसके पीछे भी कारण है। राग यमन के असंख्य रूप हैं, कई नज़रिए हैं। यमन के मूल रूप को आधार बना कर बहुत से राग रागिनियाँ बनाई जा सकती है। यह राग मौका देती है संगीतज्ञों को नए नए प्रयोग करने के लिए, संगीत के नए नए आविष्कार करने के लिए। आज भी शास्त्रीय संगीत के गुरु अपने छात्रों को सब से पहले राग यमन पर दक्षता हासिल करने की सलाह दिया करते हैं क्योंकि एक बार यमन सिद्धहस्थ हो जाए तो बाक़ी के राग बड़ी आसानी से रप्त हो जाएँगे। वो कहते हैं ना कि "एक साधे सब साधे", बस वही बात है, एक बार यमन को मुट्ठी में कर लिया तो आप इस सुर संसार पर राज कर सकते हैं। जैसा कि अभी हमने आपको बताया कि राग यमन के बहुत सारे रूप हैं, तो उनमें एक महत्वपूर्ण है राग यमन कल्याण। आज 'दस राग दस रंग' में इसी राग की बारी। इस राग पर फ़िल्मों में असंख्य गीत बने हैं, जिनमें से एक बेहद सुरीला और उत्कृष्ट गीत हम चुन कर लाए हैं। यह गीत फ़िल्म 'ममता' का है, जिसे रोशन के संगीत में और मजरूह साहब के बोलों पर हेमन्त कुमार और लता मंगेशकर ने गाया है। "छुपा लो युं दिल में प्यार मेरा, के जैसे मंदिर में लौ दीये की"। संगीत जितना मधुर है, उतने ही मीठे हैं इस गीत के शब्द, और वैसा ही न्याय लता जी और हेमन्त दा ने किया है इस गीत के साथ। इस गीत को सुनते हुए जैसे हम किसी और ही दैविय दुनिया में पहुँच जाते हैं, एक पवित्र वातावरण हमारे आसपास पैदा हो जाता है। "ये सच है जीना था पाप तुम बिन, ये पाप मैने किया है अब तक, मगर है मन में छवि तुम्हारी के जैसे मंदिर में लौ दीए की"।

विविध भारती द्वारा रिकार्ड किए हेमन्त कुमार के 'जयमाला' कार्यक्रम में इस गीत को प्रस्तुत करते वक़्त हेमन्त दा ने कहा था - "अब एक गाना संगीतकार रोशन का भी सुन लीजिए। रोशन मेरे बहुत बहुत पुराने दोस्तों में से थे। बम्बई आने के बाद उनसे बहुत मेलजोल बढ़ा। वो मेलडी पर मरता था, पागल पागल सा, मेलडी जहाँ पर होता था वो पागल हो जाता था। फ़िल्म 'ममता' बन रही थी, उसमें मेरा कोई गाना नहीं था। रोशन ने मुझे बुलाया और कहा कि इस फ़िल्म का एक गीत आपको गाना है। राग यमन और भक्ति रस को मिलाकर यह गाना बनाया था उन्होने। मैने जब वह गाना उनसे सुना तो मुझे इतना अच्छा लगा कि मैने उसमें पूरी जान डाल दी। और लता की बात तो छोड़ ही दीजिए, वो तो अच्छा गाएगी ही!" तो दोस्तों, रोशन के इस कालजयी रचना को सुनने से पहले आइए उनके द्वारा बनाए हुए कुछ और ऐसे गीतों पर एक नज़र दौड़ाएँ जिन्हे उन्होने इसी राग को आधार बना कर तैयार किया था। फ़िल्म 'दिल ही तो है' का "निगाहें मिलाने को जी चाहता है", फ़िल्म 'भीगी रात' में "दिल जो ना कह सका वही राज़-ए-दिल कहने की रात आयी", फ़िल्म 'चित्रलेखा' में "मन रे तू काहे ना धीर धरे" और "संसार से भागे फिरते हो", फ़िल्म 'बरसात की रात' में "ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात", इत्यादि। तो आइए सुनते हैं फ़िल्म 'ममता' में राग यमन और भक्ति रस का संगम, जिन पर उतने ही असरदार बोल लिखे हैं शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने। हाँ, आपको यह भी बता दें कि १९६६ की इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार और सुचित्रा सेन। इस फ़िल्म में लता जी के गाए तीन एकल गीत "रहें ना रहें हम", "हम गवन्वा ना ज‍इबे हो" तथा "रहते थे कभी जिनके दिल में" ख़ासा लोकप्रिय हुआ था, लेकिन आज का प्रस्तुत गीत भी उनके मुक़ाबले कुछ कम नहीं। सुनिए...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. अगला गीत है राग शिवरंजनी पर आधारित.
२. संगीतकार हैं शंकर जयकिशन इस युगल गीत के.
३. हसरत के लिखे इस गीत में आपके इस प्रिय जालस्थल के नाम से मुखडा खुलता है.

पिछली पहेली का परिणाम -

पराग जी ३८ अंक लेकर आप पूर्वी जी को टक्कर दे रहे हैं, पर अभी भी फासला है ४ अंकों का, शरद जी और स्वप्न जी आप दोनों भी मैदान में हैं, बेझिझक जवाब दिया कीजिये...इन्द्र नील जी आपकी बात से १०० फीसदी सहमत हैं हम भी...राज भाटिया जी आर के पुरम के किस थियटर में देखी थी आपने फिल्म ये भी तो बताईये...:) दिलीप जी प्रस्तुत शृंखला में आपसे बहुत सी जानकारियों की अपेक्षा रहेगी हम सभी श्रोताओं को....नियमित रहिएगा

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (17)



दोस्तों कुछ चीजें ऐसी होती है जो हमारी जिन्दगी में धीरे-धीरे कब शामिल हो जाती है हमें पता ही नहीं चलता. एक तरह से इन चीजों का न होना हमें बेचैन कर देता है. जैसे सुबह एक प्याली चाय हो पर इन चाय की चुसकियों के साथ अखबार न मिले, फिर देखिए हम कितना असहज महसूस करते है. देखिए ना, आपका और हमारा रिश्ता भी तो रविवार सुबह की काँफी के साथ ऐसा ही बन गया है. अगर रविवार की सुबह हो लेकिन हमें हिन्दयुग्म पर काँफी के साथ गीत-संगीत सुनने को न मिले तो पूरा दिन अधूरा सा रहता है पता ही नहीं लगता कि आज रविवार है. यही नहीं काँफी का जिक्र भर ही हमारे दिल के तार हिन्दयुग्म से जोड़ देता है. इसीलिये हम भी अपने पाठकों और श्रोताओं के प्यार में बँधकर खिंचे चले आते हैं कुछ ना कुछ नया लेकर. आज मै आपके साथ अपनी कुछ यादें बाँटती हूँ. मेरी इन यादों में गीत-संगीत के प्रति मेरा लगाव भी छिपा है और गीतों को गुनगुनाने का एक अनोखा तरीका भी. अक्सर मै और मेरी बहनें रात के खाने के बाद छ्त पर टहलते थे. हम कभी पुराने गीतों की टोकरी उड़ेलते तो कभी एक ही शब्द को पकड़कर उससे शुरु होने वाले गानों की झड़ी लगा देते थे. बहुत दिनों बाद आज फिर मेरा मन वही खेल खेलने का कर रहा है इसलिए मै आपके साथ अपनी जिन्दगी के उन पलों को फिर से जीना चाहती हूँ. तो शुरु करें? चलिए अब तो आपकी इजाजत भी मिल गयी है. क्योंकि मैं आपसे अपनी जिन्दगी के पल बाँट रही हूँ तो "जिन्दगी" से बेहतर कोई और शब्द हो ही नहीं सकता. जिन्दगी के ऊपर फिल्मों में बहुत सारे गाने लिखे गये है. इन सभी गानों में जिन्दगी को बहुत ही खूबसूरती से दर्शाया गया है. गीतों के जरिए जिन्दगी के इतने रंगों को बिखेरा गया है कि हर किसी को कोई न कोई रंग अपना सा लगता है.

कहीं जिन्दगी प्यार का गीत बन जाती है तो कहीं एक पहेली. किसी के लिये यह एक खेल है, जुआ है तो किसी के लिये एक सुहाना सफर. ऐसे लोगों की भी कमी नही है जो जिन्दगी को एक लतीफे की तरह मानते हैं और कहते है कि सुख-दुख जिन्दगी के ही दो पहलू हैं. देखा आपने, इस एक जिन्दगी के कितने रुप है. हर शायर ने अपने-अपने नजरिये से जिन्दगी को उकेरा है. आइये हम मिलकर जिन्दगी के संगीत को अपनी साँसों में भर लें.

चलिए शुरुआत करते हैं एक कव्वाली से जहाँ आदमी और औरत के नज़रिए से जिदगी पर चर्चा हो रही है, बहुत दुर्लभ है ये गीत. इस गीत में जो विचार रखे गए हैं आदमी और औरत की सोच पर, वो शायद आज के दौर में तो किसी को कबूल नहीं होगी, पर शायद कुछ शाश्वत सत्यों पर आधारित मूल्यों पर इसकी बुनियाद रखी गयी होगी...सुनिए -

आदमी की जिंदगी का औरत नशा है ...


दोस्तों वैसे तो ये जिंदगी बहुत ही खूबसूरत है, और जो मेरी इस बात से इनकार करें उनके लिए बस इतना ही कहूंगी कि यदि इसमें किसी ख़ास शख्स की अगर कमी है तो उस कमी को दूर कर देखिये....फिर आप भी हेमंत दा की तरह यही गीत गुनगुनायेंगें.

जिंदगी कितनी खूबसूरत है ....


कुछ गम जिंदगी से ऐसे जुड़ जाते हैं, कि वो बस जिंदगी के साथ ही जाते हैं, धीरे धीरे हमें इस गम की कुछ ऐसी आदत हो जाती है, कि ये गम न जीनें देता है न मरने...दोस्तों यही तो इस जिंदगी की खासियत है कि ये हर हाल में जीना सिखा ही देती है, किशोर दा ने अपनी सहमी सहमी आवाज़ में कुछ ऐसे ही उदगार व्यक्त किये थे फिल्म "दो और दो पांच" के इस भुला से दिए गए गीत में, बहुत खूबसूरत है, सुनिए -

मेरी जिंदगी ने मुझपर....


कई गीत ऐसे बने हैं जहाँ फिल्म के अलग अलग किरदार एक ही गीत में अपने अपने विचार रखते हैं, संगम का "हर दिल जो प्यार करेगा..." आपको याद होगा, दिल ने फिर याद किया का शीर्षक गीत भी कुछ ऐसा ही था, फिल्म नसीब ने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने अपने संगीत निर्देशन में एक बार फिर वही करिश्मा किया जो अमर अकबर अन्थोनी में रफी लता किशोर और मुकेश को लेकर उन्होंने किया था, बस इस बार गायक कलाकार सभी ज़रा अलग थे. कमलेश अवस्थी, अनवर, और सुमन कल्यानपुर की आवाजों में जिंदगी के इम्तेहान पर एक लम्बी चर्चा है ये गीत, सुनिए -

जिंदगी इम्तेहान लेती है....


और चलते चलते एक ऐसा गीत जिसमें छुपी है जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई, दोस्तों प्यार बिना जिंदगी कुछ भी नहीं, तभी तो कहा गया है, "सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं प्यार के दो चार दिन.....". तो बस प्यार बाँटिये, और प्यार पाईये, मधुर मधुर गीतों को सुनिए और झूमते जाईये -

सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं....



प्रस्तुति - दीपाली तिवारी "दिशा"


"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

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