(पहले अंक से आगे..)
अख्तर बेगम जितनी अच्छी फ़नकार थीं उतनी ही खूबसूरत भी थीं। कई राजे महाराजे उनका साथ पाने के लिए उनके आगे पीछे घूमते थे लेकिन वो टस से मस न होतीं।
अकेलेपन के साथी थे- कोकीन,सिगरेट, शराब और गायकी। इन सब के बावजूद उनकी आवाज पर कभी कोई असर नहीं दीखा। अल्लाह की नेमत कौन छीन सकता था।
1945 में जब उनकी शौहरत अपनी चरम सीमा पर थी उन्हें शायद सच्चा प्यार मिला और उन्हों ने इश्तिआक अहमद अब्बासी, जो पेशे से वकील थे, से निकाह कर लिया और अख्तरी बाई फ़ैजाबादी से बेगम अख्तर बन गयीं। गायकी छोड़ दी और पर्दानशीं हो गयीं। बहुत से लोगों ने उनके गायकी छोड़ देने पर छींटाकशी की,"सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली" लेकिन उन्हों ने अपना घर ऐसे बसाया मानों यही उनकी इबादत हो। पांच साल तक उन्हों ने बाहर की दुनिया में झांक कर भी न देखा। लेकिन जो तकदीर वो लिखा कर लायी थीं उससे कैसे लड़ सकती थीं। वो बिमार रहने लगीं और डाक्टरों ने बताया कि उनकी बिमारी की एक ही वजह है कि वो अपने पहले प्यार, यानी की गायकी से दूर हैं।
मानो कहती हों -
इतना तो ज़िन्दगी में किसी के खलल पड़े...
उनके शौहर की शह पर 1949 में वो एक बार फ़िर अपने पहले प्यार की तरफ़ लौट पड़ीं और ऑल इंडिया रेडियो की लखनऊ शाखा से जुड़ गयीं और मरते दम तक जुड़ी रहीं। उन्हों ने न सिर्फ़ संगीत की दुनिया में वापस कदम रखा बल्कि हिन्दी फ़िल्मों में भी गायकी के साथ साथ अभिनय के क्षेत्र में भी अपना परचम फ़हराया। उनका हिन्दी फ़िल्मों का सफ़र 1933 में शुरु हुआ फ़िल्म 'एक दिन का बादशाह' और 'नल दमयंती' से। फ़िर तो सिलसिला चलता ही रहा, 1934 में मुमताज बेगम, अमीना 1935 में जवानी का नशा, नसीब का चक्कर, 1942 में रोटी। फ़िल्मों से कभी अदाकारा के रूप में तो कभी गायक के रूप में उनका रिश्ता बना ही रहा। सुनते हैं एक ठुमरी उनकी आवाज़ में - जब से श्याम सिधारे...
अब तक दिल में बसा हुआ है। अदाकारा के रूप में उनकी आखरी पेशकश थी सत्यजीत रे की बंगाली फ़िल्म 'जलसा घर' जिसमें उन्हों ने शास्त्रीय गायिका का किरदार निभाया था।
फ़िल्मों के अलावा वो ऑल इंडिया रेडियो पर,और मंच से गाती ही रहती थीं ।सब मिला के उनकी गायी करीब 400 गजलें, दादरा और ठुमरी मिलती हैं। संगीत पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि ज्यादातर वो शायरी को संगीत का जामा खुद पहनाती थी। ढेरों इनामों से नवाजे जाने के बावजूद लेशमात्र भी दंभ न था और ता उम्र वो मशहूर उस्तादों से सीखती रहीं । एक जज्बा था कि न सिर्फ़ अच्छा गाना है बल्कि वो बेहतर से बेहतर होना चाहिए- परफ़ेक्ट।
यही कारण था कि 1974 में जब अहमदाबाद में वो (अपनी खराब तबियत के बावजूद) मंच पर गा रही थीं वो खुद अपनी गायकी से संतुष्ट नहीं थी और उसे बेहतर बनाने के लिए उन्हों ने अपने ऊपर इतना जोर डाला कि उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा और वो चल पड़ी उस पड़ाव की ओर जहां से कोई लौट कर नहीं आता, जहां कोई साथ नहीं जाता, फ़िर भी अकेलेपन से निजाद मिल ही जाता है। वो गाती गयीं -
मेरे हमसफ़र मेरे हमनवाज मुझे दोस्त बन के दगा न दे...
खूने दिल का जो कुछ....
दीवाना बनाना है तो .....(उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब की सबसे पसंदीदा ग़ज़ल)
खुशी ने मुझको ठुकराया....
हमार कहा मानो राजाजी (दादरा)
अब छलकते हुए...
खुश हूँ कि मेरा हुस्ने तलब काम तो आया...
और उनके चाहने वालों का दिल कह रहा है-
किस से पूछें हमने कहाँ वो चेहरा-ऐ-रोशन देखा है.....
कहने को बहुत कुछ है,आखिरकार पदमविभूषण से सम्मानित ऐसी नूरी शख्सियत को चंद शब्दों में कैसे बांधा जा सकता है, बस यही कहेगें -
डबडबा आई वो ऑंखें, जो मेरा नाम आया.
इश्क नाकाम सही, फ़िर भी बहुत काम आया.....
प्रस्तुति - अनीता कुमार
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8 श्रोताओं का कहना है :
बेग़म अख्त़र उन चंद नामों मे शुमार होतीं है, जिनकी गायकी और नूरी शख्सि़यत भुलाये नही भूलते.
अनिता जी नें वाकई दोनों कडि़यों में हम पाठकों और श्रोताओं पर करम फ़रमाया, और इतने अच्छे लेख और उतने ही लाजवाब उनके गीत सुनाकर हम पर एहसान ही कर दिया.
बेग़म साहिबा की मूसिकी पर लिख पाना या टिप्पणी करना दोनों मेरे बस के बाहर है, क्योंकि वे, और सहगल सुगम संगीत के धरोहर है.
दिलीप जी धन्यवाद
अनीता जी आपकी कलम में सचमुच बहुत दम है.....मैं कई बार पढ़ चुका हूँ....दो अंकों में प्रकाशित इस जीवनी को...हर बार वही ताजगी मिलती है.....आप निरंतर लिखे और बहुत लिखें....शुभकामनाओं सहित
मेरे पास पूरा एलबम है ओरिजन 2 सीडी पैक,
बहुत सुन्दर, बधाई
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
अनिता जी,
आपने इतना बढ़िया लिखा है कि मैंने पहली कड़ी दुबारा जाकर पढ़ी। ग़ज़लों का चयन भी बहुत बढ़िया किया है। महान कलाकारों पर इसी तरह से अपनी कलम चलाती रहें।
bahut achche
very good
bahut badhia
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