Saturday, July 25, 2009

दीवाना मुझसा नहीं इस अम्बर के नीचे...रफी साहब के किया दावा शम्मी कपूर के लिए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 151

"मस्ती में छेड़ के तराना कोई दिल का, आज लुटायेगा ख़ज़ाना कोई दिल का"। जी हाँ दोस्तों, तैयार हो जाइए उस ख़ज़ाने से निकलने वाले तरानों के साथ बहने के लिए जिस ख़ज़ाने को हम और आप मोहम्मद रफ़ी के नाम से जानते हैं। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रहा है रफ़ी साहब को समर्पित दस विशेषांकों की एक ख़ासम-ख़ास पेशकश - "दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी"। जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत हो रहा है कि ये दस गानें दस अलग अलग नायकों पर फ़िल्माये हुए होंगे। रफ़ी साहब के अलग अलग अंदाज़-ए-बयाँ को इस शृंखला में क़ैद करने के लिए हमने नायकों के तराजू को इसलिए चुना क्योंकि रफ़ी साहब अपनी आवाज़ से अभिनय ही तो करते थे। हर नायक के स्टाइल और मैनरिज़्म को अच्छी तरह से जज्ब कर उनका पार्श्व गायन किया करते थे, और यही वजह है कि चाहे परदे पर दिलीप कुमार हो या धर्मेन्द्र, भारत भूषण हो या जीतेन्द्र, रफ़ी साहब की आवाज़ हर एक नायक को उसकी आवाज़ बना लेती थी। तो दोस्तों, आज से लेकर अगले दस दिनों तक हर रोज़ सुनिये रफ़ी साहब की आवाज़ लेकिन अलग अलग नायकों को दी हुई। यूं तो रफ़ी साहब ने अपने समय के लगभग सभी छोटे बड़े नायकों के लिए प्लेबैक किया है, लेकिन जिस नायक का नाम सब से पहले ज़हन में आता है वो हैं हमारे शम्मी कपूर साहब। जिस तरह से मुकेश और राज कपूर की आवाज़ें एक दूसरे का पर्याय बन गये थे, ठीक उसी तरह रफ़ी साहब और शम्मी कपूर की आवाज़ें भी आपस में इस क़दर जुड़ी हुई हैं कि इन्हे एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। चंद गीतों को छोड़कर शम्मी साहब के लगभग सभी गीतों को रफ़ी साहब ने ही गाया है और इसलिए दस चेहरों में से पहला चेहरा हमने चुना है शम्मी कपूर का। सब से पहले रफ़ी साहब को शम्मी कपूर के लिए गवाने का श्रेय मेरे ख़याल से संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद को जानी चाहिए क्योंकि उन्होने रफ़ी साहब और शमशाद बेग़म से १९५३ की फ़िल्म 'रेल का डिब्बा' में एक युगल गीत गवाया था "ला दे मोहे बालमा आसमानी चूड़ियाँ", जो शम्मी कपूर और मधुबाला पर फ़िल्माया गया था। उसके बाद शम्मी कपूर और रफ़ी साहब की जोड़ी को सही मायने में आज़माया संगीतकार ओ. पी. नय्यर और शंकर जयकिशन ने। लेकिन आज हम शम्मी-रफ़ी के जोड़ी के जिस गीत को लेकर उपस्थित हुए हैं वो इनमें से किसी संगीतकार का नहीं, बल्कि राहुल देव बर्मन का स्वरबद्ध किया हुआ है। १९६५ की फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' पंचम की पहली कामयाब फ़िल्म मानी जाती है, जिसमे रफ़ी साहब और आशा भोंसले ने कुछ ऐसे धमाकेदार गानें गाये हैं कि आज ये गानें सदाबहार गीतों की फ़ेहरिस्त में अपना नाम दर्ज करवा चुकी है।

'तीसरी मंज़िल' नासिर हुसैन की फ़िल्म थी जिसमें शम्मी कपूर की नायिका थीं आशा पारेख। नासिर हुसैन की हर फ़िल्म का संगीत ख़ास हुआ करता था और यह फ़िल्म भी उन्ही में से एक थी। इस फ़िल्म के जिस गीत को हम आज यहाँ पेश कर रहे हैं उसे सुनने से पहले इस गीत से जुड़ी वो बातें जान लीजिये जो ख़ुद राहुल देव बर्मन ने विविध भारती के विशेष जयमाला कार्यक्रम के तहत कहा था - "मेरी दूसरी बड़ी पिक्चर थी 'तीसरी मंज़िल', उसके प्रोड्युसर डिरेक्टर ने जब हमको साइन किया तो उन्होने कहा कि 'देखो भाई, हमारे साथ एक और आदमी है जिनका नाम है शम्मी कपूर, उनको तुमको गाना सुनाना पड़ेगा और उनको 'फ़्लोर' भी करना पड़ेगा'। तो एक दिन मैं उनके पास गाने की 'सिटिंग' में बैठा, और मैने बोला कि 'देखिये, एक लोक गीत बनाया है, जिसके बोल हैं "ए कांछा मलई सुनको तारा खासई देयोना", इतना गाया तो उन्होने कहा कि, दूसरा लाइन, मुझे गाने नहीं दिया, और उन्होने कहा गा कर "जो तारा मात्र....."। जी हाँ दोस्तों, नेपाली लोक गीत की धुन पर आधारित यह गीत है "दीवाना मुझसा नहीं इस अम्बर के नीचे", जिसे आप ने कई कई बार सुना होगा और आज फिर एक बार सुनने जा रहे हैं हमारे साथ। अरे अरे अरे, इससे पहले कि आप गाने की लिंक पर क्लिक करें, क्या आप नहीं जानना चाहेंगे शम्मी कपूर के उद्‍गार अपने चहेते गायक के बारे में। शम्मी कपूर की ये बातें हमे प्राप्त हुई विविध भारती पर प्रसारित रफ़ी साहब को समर्पित 'विशेष मनचाहे गीत' कार्यक्रम के सौजन्य से जो प्रसारित हुआ था ३१ जुलाई २००५ को। शम्मी जी कहते हैं, "रफ़ी साहब का 'रेंज' बहुत बढ़िया और 'वास्ट' था। अलग अलग 'हीरोज़' के लिए अलग अलग 'स्टाइल' में गाते थे। मेरे लिए भी एक अलग 'स्टाइल' था। मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई 'तुमसा नहीं देखा' के एक गाने की 'रिकॉर्डिंग' पर। वो मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं पहुँचा तो मुझसे पूछने लगे कि गाने में कैसी हरकत करनी है?' मैं उनसे कहता था कि 'यहाँ पे मैं ऐसा हरकत करूँगा, अगर आप इस जगह ऐसा गायेंगे तो अच्छा रहेगा', और वो वैसा ही कर देते। एक गाना था फ़िल्म 'कश्मीर की कली' में "तारीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हे बनाया", मैं चाहता था कि इस गाने के एंड में लाइन रिपीट होती रहे, और मैं गाते गाते अंत में पानी में गिर पड़ूँ। जब मैने यह बात बतायी तो रफ़ी साहब को तो पसंद आयी पर नय्यर साहब ने इंकार कर दिया यह कहकर कि गाना ख़ामख़ा लम्बा हो जायेगा। अंत में रफ़ी साहब ने कहा कि 'गाना मैं गाऊँगा, आप लोगों को तक़लीफ़ क्यों हो रही है?' और इस तरह से रफ़ी साहब की वजह से मेरी वो ख़्वाहिश पूरी हुई थी। हम लोग कभी कभी रात को एक साथ बैठकर गाना गाते। शंकर, जयकिशन, रोशन, रफ़ी साहब, और मैं, रात ११/१२ बजे बैठ जाते और हम सब क्लासिकल म्युज़िक गाते, मैं भी गाता, बहुत ही हसीन घड़ियाँ थे वो सब!" तो दोस्तों, उन हसीन लम्हों और उस सुरीले ज़माने को याद और सलाम करते हुए अब आप को सुनवाते हैं 'तीसरी मंज़िल' फ़िल्म से "दीवाना मुझसा नहीं...", सुनिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा दूसरा (पहले गेस्ट होस्ट हमें मिल चुके हैं शरद तैलंग जी के रूप में)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. रफी साहब का गाया एक संजीदा प्रेम गीत.
2. कलाकार हैं -"दिलीप कुमार".
3. मुखड़े की अंतिम पंक्ति में शब्द है -"पसीना".

सुनिए/ सुनाईये अपनी पसंद दुनिया को आवाज़ के संग -
गीतों से हमारे रिश्ते गहरे हैं, गीत हमारे संग हंसते हैं, रोते हैं, सुख दुःख के सब मौसम इन्हीं गीतों में बसते हैं. क्या कभी आपके साथ ऐसा नहीं होता कि किसी गीत को सुन याद आ जाए कोई भूला साथी, कुछ बीती बातें, कुछ खट्टे मीठे किस्से, या कोई ख़ास पल फिर से जिन्दा हो जाए आपकी यादों में. बाँटिये हम सब के साथ उन सुरीले पलों की यादों को. आप टिपण्णी के माध्यम से अपनी पसंद के गीत और उससे जुडी अपनी किसी ख़ास याद का ब्यौरा (कम से कम ५० शब्दों में) हम सब के साथ बाँट सकते हैं वैसे बेहतर होगा यदि आप अपने आलेख और गीत की फरमाईश को hindyugm@gmail.com पर भेजें. चुने हुए आलेख और गीत आपके नाम से प्रसारित होंगें हर माह के पहले और तीसरे रविवार को "रविवार सुबह की कॉफी" शृंखला के तहत. आलेख हिंदी या फिर रोमन में टंकित होने चाहिए. हिंदी में लिखना बेहद सरल है मदद के लिए यहाँ जाएँ. अधिक जानकारी ये लिए ये आलेख पढें.


पिछली पहेली का परिणाम -
दिशा जी मुबारक हो आखिरकार आपने खाता खोल ही लिया...२ अंकों के लिए बधाई...दिलीप जी वाह कायल होना पड़ेगा आपकी कवितामयी अभिव्यक्ति के लिए, और तहे दिल से शुक्रिया इतना मान देने के लिए. स्वप्न जी, पराग जी, मनु जी, शमिख फ़राज़ जी, शरद जी, सुमित जी, मंजू जी, संगीता जी, तनहा जी आप सब से ही तो रोशन है महफिलें. बहुत से नियमित श्रोता भी हैं जो अक्सर टिपण्णी के माध्यम से कभी सामने नहीं आते जैसे अर्चना जी. शैलेश जी और अनुराग जी आप सब के सहयोग के तारीफ करना शब्दों के परे है. दिलीप जी और स्वप्न मंजूषा जी आप दोनों ने इतने मधुर गीत सुनाये कि बस मज़ा आ गया. पराग जी आपके सवाल का जवाब उसी आलेख में है, एक बार फिर साफ़ कर दें -
१. ओल्ड इस गोल्ड को फरमाईशी नहीं बनाया गया है. चूँकि ओल्ड इस गोल्ड रोज प्रसारित होता है तो इसके माध्यम से हमारे श्रोता अपनी फरमाईश यहाँ रख सकते हैं. पर आलेख आपने hindyugm@gmail.com पर भेजना है. चुने हुए आलेख और गीत "रविवार सुबह की कॉफी" कार्यक्रम में सुनवाये जायेंगे न कि ओल्ड इस गोल्ड में. तो यहाँ कोई सीमा नहीं है किसी भी दशक के गीत की. ओल्ड इस गोल्ड के लिए आप निश्चिंत रहिये यहाँ हम ७० के दशक से आगे कभी नहीं बढ़ेंगे. :)
२. आपने सही कहा १९४० से १९५० के बहुत से अच्छे गीत हैं पर हमने ५० से इसलिए शुरू किया कि यदि इतने पुराने गीत हमारे संकलन में उपलब्ध न हों तो हमारे श्रोता निराश हो सकते हैं पर इसे कोई पत्थर की लकीर न मानें यदि आप ५०-१०० शब्दों में अपनी कोई ख़ास बात किसी ४० के दशक के गीत के विषय में लिख कर भेज सकें तो हमारी पूरी कोशिश रहेगी कि हम कहीं से भी उस गीत गीत को ढूंढकर आपकी नज़र करें. वैसे मूल आलेख में भी हमने सुधार कर दिया है.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: आँखें - स'आदत हसन 'मंटो'



मंटो की "आँखें"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उर्दू और हिंदी प्रसिद्ध के साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क की एक छोटी कहानी "ज्ञानी" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं सआदत हसन मंटो की "आँखें", जिसको स्वर दिया है "किस से कहें" वाले अमिताभ मीत ने। इससे पहले आप अमिताभ मीत की आवाज़ में सआदत हसन मंटो की "कसौटी" और अनुराग शर्मा की आवाज़ में मंटो की अमर कहानी टोबा टेक सिंह और एक लघुकथा सुन चुके हैं।

"आँखें" का कुल प्रसारण समय ११ मिनट और २३ सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था।
~ सआदत हसन मंटो (१९१२-१९५५)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

मुझे उसकी आँखें बहुत पसंद थीं
(मंटो की "आँखें" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
VBR MP3Ogg Vorbis


पाठकों की सुविधा के लिए इस कहानी में प्रयुक्त कुछ अल्प-प्रचलित शब्दों का अर्थ नीचे दिया जा रहा है:
तीमारदारी = रोगी की सेवा
पैहम = निरंतर, लगातार
इसरार = (यहाँ) कहने पे
मानिन्द = तरह
बेहिस = जिसमें एहसास न हो
इन्फ़िरादी = अद्वितीय
रद्दे-अमल = प्रतिक्रिया
मुतवज्जेह = आकर्षित
क़रीबुल्मर्ग = मरणासन्न
तुन्द = तेज़, तीव्र
निशस्त = (यहाँ) सीट
बायस /बाइस = कारण
क़त'अन = कदापि, हरगिज़
जसारत = हिम्मत
मज़ामहत = हस्तक्षेप, रोकटोक

#Thirty first Story, Aankhen: Sa'adat Hasan Manto/Hindi Audio Book/2009/24. Voice: Amitabh Meet

Friday, July 24, 2009

जब ओल्ड इस गोल्ड के श्रोताओं ने सुनाये सुजॉय को अपनी पसंद के गीत- 150 वें एपिसोड का जश्न है आज की शाम



२० फरवरी २००९ को आवाज़ पर शुरू हुई एक शृंखला, जिसका नाम रखा गया ओल्ड इस गोल्ड. सुजॉय चट्टर्जी विविध भारती ग्रुप के सबसे सक्रिय सदस्य थे, यही माध्यम था उनसे परिचय का. फिर एक बार वो दिल्ली आये उन्होंने अपने ग्रुप के सभी मित्रों को मिलने के लिए बुलाया. उस दिन युग्म के नियंत्रक शैलेश भारतवासी जी उनसे मिले. उसके अगले दिन मैं सुजॉय से व्यक्तिगत रूप से मिला, उनके पास रेडियो प्रोग्राम्स का एक ऐसा खजाना मौजूद था जिस पर किसी की भी नज़र ललचा जाए, तब से यही जेहन में दौड़ता रहा कि किस तरह सुजोय के इस खजाने को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जाए, तभी अचानक ओल्ड इस गोल्ड का आईडिया क्लिक किया. २० फरवरी का दिन क्यों चुना गया इसकी भी एक ख़ास वजह थी, यहाँ थोडा सा व्यक्तिगत हो गया था मैं....यही वो दिन था जब मेरी सबसे प्रिय पूजनीय नानी माँ दुनिया को विदा कह गयी थी, मुझे लगा क्यों ना इस शृंखला को उन्हीं की यादों को समर्पित किया जाए. खैर जब सुजॉय से पहले पहल इस बारे में बात की तो सुजॉय तो क्या मैं और आवाज़ की टीम भी इसकी सफलता को लेकर संशय में थे, और फिर रोज एक नया गीत डालना, क्या हम ये सब नियमित रूप से कर पायेंगें ? पर जब सुजॉय ने मेरे चुने पहले १० गीतों का आलेख भेजा तो कम से कम मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि हाँ ये संभव है और शुरू हो गया सफ़र पुराने सदाबहार गीतों को सुनने और उनके बारे में विस्तार से चर्चा करने का.

धीरे धीरे कारवाँ बढता गया, नए नए प्रयोग हुए और इस पूरी प्रक्रिया का श्रोताओं ने और आवाज़ की संचालन टीम ने जम कर आनंद लिया. १०० एपिसोड पूरे करने के बाद हमने की ख़ास मुलाकात सुजॉय से. लीजिये आगे बढ़ने से पहले एक बार फिर इस बातचीत का आनंद लें आप भी (पढिये एक मुलाकात सुजॉय से). पिछले १५० दिनों से सुजॉय बिने रुके हमें एक से बढ़कर एक गीत सुनवा रहे हैं तो हमने सोचा कि क्यों आज हम श्रोताओं के साथ मिलकर सुजॉय जी को कुछ सुनाएँ. ओल्ड इस गोल्ड के दो नियमित श्रोताओं ने जो खुद गायन भी करते रहे हैं पिछले कई सालों से, चुने हैं सुजॉय द्वारा अब तक प्रस्तुत १५० गीतों में से दो गीत और उन्हें खुद अपनी आवाज़ से सजा कर ये कलाकार रोशन करने वाले हैं आज की महफिल. सुजॉय की अद्भुत प्रतिभा और मेहनत के नाम आज के शाम की पहली शमा रोशन कर रही हैं ओल्ड इस गोल्ड की बेहद नियमित श्रोता जिन्हें हम प्रोग्राम का "लाइव वायर" भी कह सकते हैं, जी हाँ आपने सही पहचाना स्वप्न मंजूषा शैल "अदा" जी....जो पेश कर रही है ओल्ड इस गोल्ड की १२६ वीं महफिल में बजा गीत "बेकरार दिल तू गाये जा...". सुनिए और आवाज़ की इस मधुरता में डूब जाईये -



और अब सुनिए आवाज़ के एक अहम् घटक दिलीप कवठेकर साहब की आवाज़ में ओल्ड इस गोल्ड की १४८ वीं महफिल से एक ऐसा नगमा जो आज कई दशकों बाद भी उतना ही जवाँ, उतना ही तारो-ताजा है. दिलीप जी की खासियत ये है कि स्टेज में ये किसी ख़ास गायक के गीत ही नहीं गाते, बल्कि अपनी खुद की आवाज़ में मुक्तलिफ़ गायकों के गीत चुन कर प्रस्तुत करते हैं. प्रस्तुत गीत में भी आप दिलीप जी की आवाज़ के मूल तत्वों को महसूस कर पायेंगें. तो सुजॉय, पूरी ओल्ड इस गोल्ड टीम और सभी श्रोताओं के नाम पेश है दिलीप जी का गाया ये तराना -



चलिए अब बारी है एक जरूरी घोषणा की. हर शाम हम ओल्ड इस गोल्ड पर गीत के साथ साथ अगले गीत से जुडी एक पहेली भी पूछते हैं ऐसा इसलिए रखा गया ताकि हम इसे "इंटरएक्टिव" बना सकें. पर हमारे कुछ श्रोताओं ने सुझाव दिया कि अक्सर लोग पहेली की धुन में मूल गीत पर चर्चा करने से चूक जाते हैं और ऐसे श्रोता जिनकी जानकारी पुराने गीतों को लेकर उतनी अच्छी नहीं है उनके लिए जुड़ने का कोई माध्यम नहीं रह जाता. इसी समस्या के समाधान के लिए आज हम जरूरी घोषणा करने जा रहे है. अब से आप पहेली सुलझाने के साथ साथ अपनी फरमाईश का कोई गीत भी हमसे बजवाने को कह सकते हैं.

जी हाँ, किसी भी एपिसोड में टिप्पणी के रूप में आप अपनी पसंद के किसी गीत की फरमाईश रख सकते हैं. आप अपने किसी मित्र /साथी से भी अपनी फरमाईश रखने को कह सकते हैं. आपकी फरमाईश पूरी हो इसके लिए कुछ शर्तें होंगीं जो इस प्रकार हैं -

१. आप वही गीत अपनी पसदं के लिए चुन सकते हैं जिनके साथ आपके जीवन का कोई पल, कोई मोड़, कुछ यादें जुडी हों, गीत के साथ साथ आपको अपनी उन ख़ास यादों और पलों को हम सब के साथ बाँटना पड़ेगा ५०-१०० शब्दों में. आपको अपना ये अनुभव हिंदी में लिख कर hindyugm@gmail.com पर भेजना होगा. हिंदी में लिखने के लिए आप यहाँ से मदद ले सकते हैं. फिर भी यदि समस्या हो तो आप रोमन में लिख कर भेज सकते हैं.

२. आपकी पसदं का गीत आपके अनुभव के साथ "रविवार सुबह की कॉफी" शृंखला में सुनवाये जायेंगें. यूं तो हमारी पूरी कोशिश रहेगी कि आपकी पसदं का वो ख़ास गीत हम दुनिया को सुनाएँ पर किसी कारणवश यदि तमाम कोशिशों के बावजूद वो गीत हमें उपलब्ध नहीं हो पाता तो आप निराश हुए बिना दुबारा कोशिश अवश्य कीजिएगा.

३. आप अपने किसी "ख़ास" के लिए भी कोई गीत समर्पित कर सकते हैं पर यहाँ भी यह जरूरी होगा कि उस ख़ास व्यक्ति के साथ जो आपके अनुभव रहे हैं उससे किसी न किसी रूप में वो गीत जुडा हुआ होना चाहिए.

४. आप ४० के दशक से सन् २००० तक आये किसी भी गीत की फरमाईश कर सकते हैं, अर्थात जरूरी नहीं कि आप किसी पुराने गीत को ही चुनें हाँ पर गीत मधुर हो तो अच्छा.

तो दोस्तों, आने वाली ४ तारिख को भाई बहन रिश्ते का पवित्र त्यौहार रक्षा बंधन है. क्यों न हम अपने इस आयोजन की शुरुआत इसी शुभ त्यौहार पर बने गीतों से करें. अपने भाई या बहन के साथ के आपके अनुभव और उससे जुडा कोई ख़ास गीत की फरमाईश आज ही लिख भेजिए हमें.

ओल्ड इस गोल्ड की अगली कड़ी लेकर एक बार फिर से सुजॉय जी उपस्थित होंगें कल शाम ६ से ७ के बीच. तब तक मैं सजीव सारथी लेता हूँ आपसे इजाज़त. नमस्कार.

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी..... एक फ़रमाईश जो पहुँची कफ़ील आज़र तक



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३२

ज महफ़िल-ए-गज़ल की ३२वीं कड़ी है और वादे के अनुसार हम फ़रमाईश की पहली गज़ल/नज़्म लेकर हाज़िर हैं। जिन लोगों को फ़रमाईश वाली बात पता नहीं, उनके लिए हम पिछली बार के पोस्ट पर की गई टिप्पणी वापस यहाँ पेस्ट किए दे रहे हैं। पिछली बार "शामिख" जी ने यह सवाल उठाया था तो हमारा जवाब कुछ यूँ था: हमने २५वें से २९वें एपिसोड के बीच प्रश्नों का एक सिलसिला चलाया था। उन पहेलियों/प्रश्नों का जिन्होंने भी सही जवाब दिया, उन्हें हमने अंकों से नवाज़ा। इस तरह पाँच एपिसोडों के अंकों को मिलाने से हमें दो विजेता मिले - शरद साहब और दिशा जी। हमने वादा किया था कि जो भी विजेता होगा वो हमसे ५ गज़लों की फ़रमाईश कर सकता है, जिनमें से हम किन्हीं भी ३ गज़लों की फ़रमाईश पूरी करेंगे। इस तरह चूँकि दो विजेता हैं इसलिए हम फ़रमाईश की ६ गज़लों/नज़्मों को ३२वें से ४२वें एपिसोड के बीच पेश करेंगे। तो लीजिए हम हाज़िर हैं अपनी पहली पेशकश के साथ....अहा! अपनी नहीं, "शरद" जी की पहली पेशकश के साथ। आज की नज़्म की फ़रमाईश शरद जी ने हीं की थी। वैसे "दिशा" जी को हम याद दिलाना चाहेंगे कि उनकी फ़रमाईशों की फ़ेहरिश्त अभी तक हम तक पहुँची नहीं है। इसलिए कृप्या वे शीघ्रता दिखाएँ। चलिए अब बढते हैं नज़्म की ओर। इस नज़्म की खासियत यह है कि इसे अमूमन सभी लोग सुन चुके हैं और लगभग सभी को यह पता है कि इसे "जगजीत सिंह" जी ने गाया है। लेकिन चूँकि आप "महफ़िल-ए-गज़ल" के मुखातिब हैं तो आपको यह भी मालूम होगा कि हम आसानी से हासिल होने वाली चीज तो आपके सामने लाते नहीं। जी हाँ! हम आज अपनी इस महफ़िल में "जगजीत सिंह" की बात नहीं करेंगे। यह इसलिए नहीं है कि हमारी उनसे कुछ ठनी हुई है, बल्कि इस लिए हैं क्योंकि हमने पुरानी लगभग तीन कड़ियों में इनकी बातें की थी। यूँ तो जगजीत सिंह एक ऐसे शख्सियत हैं, जिन पर बिना रूके कई सारे आलेख लिखे जा सकते हैं, लेकिन कभी-कभार उन्हें भी याद कर लेना चाहिए जिन्हें दुनिया उतना भाव नहीं देती जितने के वे हक़दार होते हैं। यहाँ हमारा इशारा उन शायरों की तरफ़ है, जो खुद तो गुमनामी के अंधेरों में कहीं गुम हो गए लेकिन उनकी गज़लों/नज़्मों को गाकर कई सारे फ़नकार बुलंदियों के सातवें आसमान तक पहुँच गए। यही सोचकर हमने यह फ़ैसला लिया कि क्यों न आज की महफ़िल को हम नज़्मकार के हवाले कर दें।

बात कुछ संजीदा है, लेकिन मेरे अनुसार इस बात को कभी न कभी तो उठाया हीं जाना चाहिए। बहुत दिनों से मेरे जहन में यह बात थी, लेकिन ढूँढते-ढूँढते मुझे "पवन झा" (गुलज़ार साहब के शायद सबसे बड़े प्रशंसक) का एक आलेख मिला जिसमें उन्होंने "निदा फ़ाज़ली" के कुछ अल्फ़ाज़ पेश किए थे। निदा फ़ाज़ली कहते हैं: एक शायर मुझे अक्सर बांद्रा में एक ईरानी होटल के बाहर फुटपाथ पर, शंभू पान वाले की दुकान के पास खड़े नज़र आते थे। पहली मुलाकात में ख़ूबसूरत चेहरे के जवान इंसान थे। कुछ दिन बाद मिले, तो बिखरे-बिखरे परेशान थे। तीसरी बार कई महीनों के बाद नज़र आए, तो वह जानदार होते हुए बेजान थे; उनके शहर लखनऊ की शान थी न शरीर और आंखों में पहले जैसी पहचान थी। उस वक्त वह अनूप जलोटा के लिए भजनों का एक कामयाब एलबम लिख चुके थे। उस एलबम से आवाज़ ने लाखों कमाए, लेकिन शब्दों ने उनकी बेवक्त मृत्यु तक, फुटपाथ पर ही बिस्तर बिछाए, ज़रूरतों में आते-जाते लोगों के सामने हाथ फैलाए--

गीत बहुत सुंदर है लेकिन सच-सच कहना यार
पिछले हफ्ते बिन भोजन के सोए कितनी बार।

शास्त्रीनगर के एक क़ब्रिस्तान में साहिर, जांनिसार और राही के साथ, अपने युग की हसीन हीरोइन मधुबाला और ख़ूबसूरत आवाज़ के गायक मुहम्मद रफ़ी भी आराम कर रहे हैं। लेकिन दुनिया की भागदौड़ से दूर इस आराम के स्थान में बाज़ार अपने तराजू-बाट लेकर घुस आया है। बाज़ार ने मधुबाला के चेहरे की कीमत ज्यादा लगाई और उसकी क़ब्र संगमरमर की बनाई। मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ का भाव भी अच्छा लगाया, और उनकी क़ब्र को ग्रेनाइट से सजाया। साहिर, जांनिसार और राही के पास न चेहरा था, न आवांज वे सिर्फ अल्फ़ाज़ थे और अल्फ़ाज़ की कीमत सबसे कम लगाई गई, इसीलिए उनको गहरी नींद से जगाकर उन्हीं के अंतिम घरों में दूसरों के लिए जगह बनाई गई। अब साहिर के साथ और भी कई दूसरे उनके तंग मकान में रहते हैं। जांनिसार भी ग़ैरज़रूरी मेहमानों की मौजूदगी का अज़ाब सहते हैं और आधा गांव वाले राही भी बाज़ार के बहाव में इधर-उधर बहते हैं। शायद बाज़ार की इसी हठधर्मी को देखकर लेखिका इस्मत चुग़ताई और शायर नून मीम राशिद ने, अपनी वसीयत में खुद को दफ़नाने के बजाए, जलाए जाने की ख़्वाहिश की थी। पंडित नेहरू के जमाने में, इलाहाबाद में एक कवि था। कई वर्षों से उसके सर पर आसमान की छत थी और उसका नाम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला था। निराला जी की लाइनें हैं-

दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज जो नहीं कही।


इसी कड़ी में वे आज के नज़्मकार का ज़िक्र ले आते हैं: जगजीत सिंह और पंकज उधास विश्व भर में आदर से सुने जाने वाले ग़ज़ल गायकों में हैं। जगजीत सिंह ग़ज़ल गायन से लाखों कमाते हैं और रेस कोर्स में आज घोड़े दौड़ाते हैं। मशहूर नज़्म 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी' के शायर कफ़ील आज़र, ग़रीबी में मज़ार बन कर दिल्ली के एक क़ब्रिस्तान में भूले-भटके परिचितों को रूलाते हैं। पंकज उधास जिनकी ग़ज़लें गा कर, मुंबई के सबसे पॉश इलाके में अपनी किस्मत को आईना दिखाते हैं, उनके लिए ग़ज़लें लिखने वाले मुमताज़ राशिद को माहिम दरगाह में एक कमरे के मकान से लोखंडवाला के डेढ़ कमरे वाले मकान तक आते-आते 35 साल लग जाते हैं। इस तरह "निदा फ़ाज़ली" साहब ने शायरों के दर्द को अपनी आवाज़ दी है। शायरों की अजनबियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमें जगजीत सिंह के बारे में सब कुछ पता है,लेकिन "कफ़ील आज़र" के बारे में कुछ भी जानकारी ढूँढने से भी नहीं मिलती। इनका कब जन्म हुआ,इनकी परवरिश कहाँ हुई, इन्होंने कितनी सारी गज़लें/नज़्में लिखीं, इसका ब्योरा शायद हीं किसी के पास हो। बमुश्किल मुझे इतना पता चल सका है कि दिनांक २७ नवंबर २००३ को अमरोहा में इन्होंने अपनी अंतिम साँसें लीं। इतिहास के पन्नों को कुरेदने इस बात का ज़िक्र मिलता है कि "कमाल अमरोही" की सदाबहार प्रस्तुति "पाकीज़ा" के ये "असिसटेंट डायरेक्टर" रह चुके हैं। इन्होंने कुछ फिल्मों और एलबमों के लिए गाने भी लिखे, जिनमें प्रमुख हैं: फिल्म "कर्त्तव्य" में "मेरा दिल लेके चल दिये", "दूरी ना रहे कोई", "छैला बाबू तू कैसा दिलदार", फिल्म "एक हसीना दो दीवाने" से "दो क़दम तुम भी चलो", फिल्म "काँच की दीवार" से "अईयो ना मारो", "ना इधर के रहे", "बिछड़ गए हैं", "अरी ओ सखी", "जलवों की हमारे", एलबम "चोर दरवाज़ा" से "तुम जहाँ जाएगो मुझको भी वहीं", एलबम "द जीनियस आफ़ तलत महमूद" से "बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी"। जी हाँ, जगजीत सिंह से पहले तलत महमूद ने भी इस नज़्म को अपनी आवाज़ दी थी। अब चूँकि इससे ज्यादा इनके बारे में कहीं कुछ दर्ज नहीं है, इसलिए अच्छा है कि इनका लिखा एक शेर हीं देख लिया जाए:

मोम के रिश्ते हैं गर्मी से पिघल जायेंगे
धूप के शहर में 'आज़र' ये तमाशा न करो|


रिश्ते तो नहीं पिघले,लेकिन ’आज़र’ साहब वो तमाशा करके चले गए जिससे आए दिनों सुनने वालों के दिल पिघलते रहते हैं। हम तो यही दुआ करेंगे कि वह बात जो हमने आज यहाँ निकाली है, ज़रूर हीं दूर तलक जाए और आने वाले दिनों में शायरों को भी वही रूतबा हासिल हो जो गायकों और संगीतकारों को है। आमीन! चलिए अब आज की नज़्म का नज़ारा करते हैं। सुनिए और महसूस कीजिए कि ’आज़र’ साहब ने अपनी "प्रेमिका" के बहाने से कितनी गूढ बात कही है:

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी
लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे
ये भी पूछेंगे कि तुम इतनी परेशां क्यूं हो
उगलियां उठेंगी सुखे हुए बालों की तरफ
इक नज़र देखेंगे गुज़रे हुए सालों की तरफ
चूड़ियों पर भी कई तन्ज़ किये जायेंगे
कांपते हाथों पे भी फिकरे कसे जायेंगे

लोग ज़ालिम हैं हर इक बात का ताना देंगे
बातों बातों मे मेरा ज़िक्र भी ले आयेंगे
उनकी बातों का ज़रा सा भी असर मत लेना
वर्ना चेहरे के तासुर से समझ जायेंगे
चाहे कुछ भी हो सवालात न करना उनसे
मेरे बारे में कोई बात न करना उनसे
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

ऊंची इमारतों से ___ मेरा घिर गया,
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए...

आपके विकल्प हैं -
a) समान, b) मकान, c) मचान, d) जहान

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था -"परेशां" और शेर कुछ यूं था -

फ़ल्सफ़े इश्क़ में पेश आये सवालों की तरह
हम परेशां ही रहे अपने ख़यालों की तरह...

इस शब्द को सबसे पहले पकड़ा दिशा जी ने। दिशा जी का शेर गौर फरमाएं -

हर कोइ है परेशाँ हर कोइ है हैरान
कौन लाया है यह नफरत का तूफान
किसने बदल दी आबोहवा वतन की
टुकड़ों में बाँट दिया सारा हिन्दुस्तान।

बड़ी हीं गूढ बात कही है आपने। सच में आखिर कौन है जो हमारे इस अमन-पसंद वतन को खुश नहीं देख सकता।

शामिख फ़राज़ साहब कुछ देर तक "परेशां" और "पशेमां" के बीच पशोपेश में दिखे। लेकिन आखिरकार उन्होंने सही शब्द का हीं चुनाव किया। फ़राज़ साहब ने ना सिर्फ़ "परेशां" पर एक शेर पेश किया बल्कि हमें वो गज़ल भी सुनाई जिससे पिछली बार का शेर लिया गया था। फ़राज़ साहब का बहुत-बहुत शुक्रिया। तो पेश है वो शेर जिसे फ़राज़ साहब ने जनाब क़तील शिफ़ाई की एक गज़ल से लिया है:

परेशा रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
सुक़ूत-ए-मर्ग ता'री है, सितारो तुम तो सो जाओ।

मंजु जी भी स्वरचित शेर के साथ महफ़िल में तशरीफ़ लाईं। उनका शेर कुछ यूँ था:

परेशाँ रहती हूं उससे सवालों की तरह
इंतजार रहता है उसका जवाबों की तरह।

क्या मंजू जी, यहाँ भी सवालों का हीं ज़िक्र। लगता है कि सवालों और महफ़िल-ए-गज़ल में कोई गहरा नाता है :)

सुमित जी की अदा भी काबिल-ए-तारीफ़ है। शेर की जगह पर रफ़ी साहब के एक गाने की याद दिला दी और शेर सुनाया भी तो तबाही और हवालों वाला। अब तो आप हवालों का मतलब जान गए होंगे।

और सबसे ज्यादा जिनकी अदा हमें चकित करती है, उन महानुभाव का नाम है "मनु जी"। इन्हें सही जवाब से कोई लेना-देना हीं नहीं है, जवाब में भी सवाल दाग के चल दिए और शेर सुनाया भी तो "सवालों" वाला हीं। भाई साहब अगर परेशां जवाब सही लगा तो ये क्यों लिखा की "परेशा/पशेमान जो भी हो".... कहीं आपके लिए हीं तो ये पंक्ति नहीं लिखी गई थी - "अपनी धुन में रहता हूँ।" :)

चलिए इन्हीं बातों के साथ आज की महफ़िल की शम्मा बुझाई जाए। अगली महफ़िल तक के लिए खुदा हाफ़िज़!!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Thursday, July 23, 2009

ये हवा ये रात ये चांदनी...सज्जाद हुसैन का संगीतबद्ध एक नायाब गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 150

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल दिन-ब-दिन, कड़ी दर कड़ी आगे बढ़ती चली जा रही है दोस्तों। यह आप सब का प्यार और पुराने फ़िल्म संगीत में आप की दिलचस्पी ही है कि इस शृंखला की रोचकता में ज़रा सी भी कमी नहीं आयी है। आज इस शृंखला ने पूरे किए पूरे १५० दिन! आप सब का प्यार युंही बना रहे, तो हम आगे भी आप के पसंदीदा गीतों के इस महफ़िल को युंही रोशन करते रहेंगे। दरअसल यह महफ़िल रोशन है गुज़रे ज़माने के उन लाजवाब कलाकारों की अपार मेहनत और लगन की वजह से जिन्होने फ़िल्म संगीत के धरोहर को समृद्ध किया, उसमें बेशुमार मोतियाँ जड़ें। आज यह धरोहर एक विशाल अनमोल ख़ज़ाने का रूप ले चुकी है, और इसी ख़ज़ाने से चुन चुन कर हम मोतियाँ निकाल कर ला रहे हैं हर रोज़ आप के लिए। आज इस शृंखला की १५० वीं कड़ी के लिए हमने जो गीत चुना है वो फ़िल्म संगीत का एक सदाबहार नग़मा है। इसके संगीतकार ने अपने पूरे जीवन में केवल १४ फ़िल्मों में संगीत दिया है, लेकिन इन १४ फ़िल्मों में उन्होने कुछ ऐसा काम कर दिखाया है कि आज ५० साल बाद भी वो ज़िंदा हैं अपने रचे उन तमाम कालजयी संगीत की वजह से। हम बात कर रहे हैं संगीतकार सज्जाद हुसैन की, और आज आप को सुनवा रहे हैं उन्ही के संगीत निर्देशन में तलत महमूद का गाया १९५२ की फ़िल्म 'संगदिल' का गाना "ये हवा ये रात ये चांदनी, तेरी इक अदा पे निसार है, मुझे क्यों न हो तेरी आरज़ू तेरी जुस्तजू में बहार है"। फ़िल्म 'संगदिल' के इस गीत को सज्जाद साहब के सब से ज़्यादा लोकप्रिय गीतों में से माना जाता है। आज कोई फ़िल्म 'संगदिल' की बात करे, या फिर सज्जाद साहब की बात करें, एक ही बात है।

दिलीप कुमार और मधुबाला अभिनीत फ़िल्म 'संगदिल' एक अद्‍भुत प्रेम कहानी थी, जिसका निर्माण और निर्देशन आर. सी. तलवार ने किया था। आज के इस प्रस्तुत गीत को याद करते हुए सज्जाद साहब के दोस्त और हास्य अभिनेता जगदीप ने अमीन सायानी को दिये एक साक्षात्कार में कहा था - "सज्जाद साहब का यह मानना था कि ये अंग्रेज़ी साज़ जो है ना, बहुत ज़्यादा ज़रूरी नहीं है, उनको अपने साज़ों पर बड़ा ऐतबार था, हिंदुस्तानी साज़ों पर, मैंडोलीन को उन्होने वीणा बना दिया था। तो उन्होने 'संगदिल' फ़िल्म में, कहा, "बेटा मैने क्या किया, दो सारंगियाँ ली और दो 'माइक्स' रखे, और दोनों को उनके सामने बजा दिया, ऐसी धमक पैदा हुई जो हज़ारों वायलीन में भी नहीं पैदा हो सकती"।" दोस्तों, यह गीत तलत साहब का भी पसंदीदा नग़मा है। इस गीत को गाये बग़ैर वो अपना कोई भी शो ख़तम नहीं कर सकते थे। सज्जाद साहब के बारे में यह बात मशहूर थी कि वो किसी गीत की रिकॉर्डिंग में तब तक री-टेक करते रहते थे जब तक कि हर एक साज़िंदा या गायक पूरे 'पर्फ़ेक्शन' से साथ बजा या गा न लें। 'संगदिल' फ़िल्म के प्रस्तुत गीत के लिए कुल १७ री-टेक हुए थे। इस गीत के साथ सज्जाद साहब की बातें कुछ इस क़दर जुड़ी हुई हैं कि हम अक्सर इसके गीतकार को याद करना भूल जाते हैं। गीतकार राजेन्द्र कृष्ण ने इस गीत को लिखा था और क्या ख़ूब लिखा था साहब! इसमें कोई दोराय नहीं होनी चाहिये कि सज्जाद और तलत साहब के साथ साथ राजेन्द्र जी का भी इस गीत की कामयाबी में पूरा पूरा हक़ बनता है। तो सुनिये यह गीत और एक बार फिर से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की १५०-वीं कड़ी के मौके पर इस शृंखला से जुड़े सभी श्रोताओं और पाठकों को हमारी तरफ़ से हार्दिक धन्यवाद!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा दूसरा (पहले गेस्ट होस्ट हमें मिल चुके हैं शरद तैलंग जी के रूप में)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. ओल्ड इस गोल्ड के १५१ वें एपिसोड से शुरू हो रही है रफी साहब पर विशेष शृंखला जो आधारित होगी अलग अलग अदाकारों के लिए किये उनके पार्श्वगायन पर.
2. इस कड़ी में हमारे पहले अदाकार होंगे - "शम्मी कपूर".
3. इस गीत के पहले चार शब्दों से प्रेरित होकर एक नयी फिल्म का नाम रखा गया था, जिसमें आमिर और माधुरी दिक्षित ने काम किया था.

इससे पहले कि हम कल के परिणाम बताएं एक ज़रूरी सूचना देना चाहेंगे, इस पहेली के जवाब वाला गीत कल के स्थान पर परसों यानी २५ तारिख को पेश होगा. कल के लिए हमें कुछ विशेष योजना बनायीं है, सुजोय जी हमें १५० शामों से लगातार गीत सुनवा रहे हैं, तो खुश होकर हमारे कुछ श्रोताओं ने सोचा कि १५० एपिसोड पूरे होने की ख़ुशी में कल सुजोय जी को कुछ ख़ास सुनाया जाए. अब ये कौन से श्रोता हैं और वो क्या सुनाएगें ये तो हम कल ही बतायेंगें. सुजोय जी को दी जा रही इस "सरप्राईस" पार्टी में आप सब भी सादर आमंत्रित हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
स्वप्न जी ४० का आंकडा छू लिया है आपने, निर्विरोध एकदम, बधाई...दिलीप जी, शरद जी, मनु जी, पराग जी, राज जी, दिशा जी, सुमित जी और अन्य सभी श्रोताओं से अनुरोध है कि आप सब कल की ख़ास महफिल में जरूर आयें.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

एक दिल से दोस्ती थी ये हुज़ूर भी कमीने...विशाल भारद्वाज का इकरारनामा



ताजा सुर ताल (12)

त्मावलोकन यानी खुद के रूबरू होकर बीती जिंदगी का हिसाब किताब करना, हम सभी करते हैं ये कभी न कभी अपने जीवन में और जब हमारे फ़िल्मी किरदार भी किसी ऐसी अवस्था से दोचार होते हैं तो उनके ज़ज्बात बयां करते कुछ गीत भी बने हैं हमारी फिल्मों में, अक्सर नतीजा ये निकलता है कि कभी किस्मत को दगाबाज़ कहा जाता है तो कभी हालतों पर दोष मढ़ दिया जाता है कभी दूसरों को कटघरे में खडा किया जाता है तो कभी खुद को ही जिम्मेदार मान कर इमानदारी बरती जाती है. रेट्रोस्पेक्शन या कन्फेशन का ही एक ताजा उदाहरण है फिल्म "कमीने" का शीर्षक गीत. फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ जिंदगी को तो बा-इज्ज़त बरी कर दिया है और दोष सारा बेचारे दिल पर डाल दिया गया है, देखिये इन शब्दों को -

क्या करें जिंदगी, इसको हम जो मिले,
इसकी जाँ खा गए रात दिन के गिले....
रात दिन गिले....
मेरी आरजू कामिनी, मेरे ख्वाब भी कमीने,
एक दिल से दोस्ती थी, ये हुज़ूर भी कमीने...


शुरू में ये इजहार सुनकर लगता है कि नहीं ये हमारी दास्तान नहीं हो सकती, पर जैसे जैसे गीत आगे बढता है सच आइना लिए सामने आ खडा हो जाता है और कहीं न कहीं हम सब इस "कमीनेपन" के फलसफे में खुद को घिरा हुआ पाते हैं -

कभी जिंदगी से माँगा,
पिंजरे में चाँद ला दो,
कभी लालटेन देकर,
कहा आसमान पे टांगों.
जीने के सब करीने,
थे हमेशा से कमीने,
कमीने...कमीने....
मेरी दास्ताँ कमीनी,
मेरे रास्ते कमीने,
एक दिल से दोस्ती थी, ये हुज़ूर भी कमीने...

शायद ही किसी हिंदी गीत में "कमीने" शब्द इस तरह से प्रयोग हुआ हो, शायद ही किसी ने कभी गीत जिंदगी का इतना बोल्ड अवलोकन किया हो. इस डार्क टेक्सचर के गीत में तीन बातें है जो गीत को सफल बनाते है. विशाल ने इस गीत के जो पार्श्व बीट्स का इस्तेमाल किया है वो एकदम परफेक्ट है गीत के मूड पर, अक्सर स्वावलोकन में जिंदगी बेक गिअर में भागती है, कई किरदार कई, किस्से और संगीत संयोजन शब्दों के साथ साथ एक अनूठा सफ़र तय करता है, दूसरा प्लस है विशाल की खुद अपनी ही आवाज़ जो एक दम तटस्थ रहती है भावों के हर उतार चढावों में भी इस आवाज़ में दर्द भी है और गीत के "पन्च" शब्द 'कमीने' को गरिमापूर्ण रूप से उभारने का माद्दा भी और तीसरा जाहिर है गुलज़ार साहब के बोल, जो दूसरे अंतरे तक आते आते अधिक व्यक्तिगत से हो जाते हैं -

जिसका भी चेहरा छीला,
अन्दर से और निकला,
मासूम सा कबूतर,
नाचा तो मोर निकला,
कभी हम कमीने निकले,
कभी दूसरे कमीने,
मेरी दोस्ती कमीनी,
मेरे यार भी कमीने...
एक दिल से दोस्ती थी,
ये हुज़ूर भी कमीने....

अब हमारा अवलोकन किस हद तक सही है ये तो आप गीत सुनकर ही बता पायेंगें.चलिए अब बिना देर किये सुन डालिए ताजा सुर ताल में फिल्म "कमीने" का ये गीत -



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. फिल्म "ओमकारा" में भी संगीतकार विशाल ने एक युगल गीत को आवाज़ दी थी, कौन सा था वो गीत, बताईये और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.

पिछले सवाल का सही जवाब था अध्ययन सुमन जो कि टेलीविजन ऐक्टर शेखर सुमन के बेटे हैं. दिशा जी ने एकदम सही जवाब दिया जी हाँ उन्होंने फिल्म राज़ (द मिस्ट्री) में भी काम किया था, और तभी से महेश भट्ट कैम्प के स्थायी सदस्य बन चुके हैं. तनहा जी ने फिल्म "हाले-ए- दिल" का भी जिक्र किया. त्रुटि सुधार के लिए आप दोनों का धन्येवाद. मंजू जी, मनीष जी, निर्मला जी, प्रज्ञा जी ने भी गीत को पसंद किया. मनु जी रेटिंग आपने लिख कर बतानी है जैसे 5 में से 3, २ या १ इस तरह.:) वर्ना हम कैसे जान पायेंगें कि आपकी रेटिंग क्या है.


अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Wednesday, July 22, 2009

सूरज रे जलते रहना... सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण के एतिहासिक अवसर पर सूर्य देव को नमन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 149

दोस्तों, आज सुबह सुबह आप ने बहुत दिनों के बाद सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण का नज़ारा देखा होगा। आप में से बहुत से लोग अपनी आँखों से इस अत्यंत मनोरम खगोलीय घटना को देखा होगा, और बाक़ी टीवी के परदे पर इसे देख कर ही संतुष्ट हुए होंगे! यूं तो सूर्य ग्रहण साल में कई बार आता है, लेकिन सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण की बारी यदा कदा ही आती है। सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद महत्व रखता है क्युंकि सूर्य से संबधित कुछ ऐसे शोध करने के अवसर मिल जाते हैं जो सूर्य की तेज़ रोशनी की वजह से आम दिनों में संभव नहीं हो पाती। दोस्तों, संगीत के इस मंच पर विज्ञान का पाठ पढ़ा कर मैं आप को और ज़्यादा बोर नहीं करूँगा, अब मैं सीधे आ जाता हूँ आज के गीत पर। हमने यह सोचा कि इस सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण को यादगार बनाते हुए क्यों न आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' भी सूर्य देव के ही नाम कर दिया जाये। तब सूर्य देव के उपर बनने वाले तमाम गीतों को ज़हन में लाते हुए हमारी नज़र जिस गीत पर जा कर रुक गयी और हमें ऐसा लगा कि इस गीत से बेहतर आज के दिन के लिए दूसरा कोई गीत हो ही नहीं सकता, वह गीत है "जगत भर की रोशनी के लिए, करोड़ों की ज़िंदगी के लिए, सूरज रे जलते रहना, सूरज रे जलते रहना"। हेमन्त कुमार की गुरु-गम्भीर स्वर में यह गीत फ़िल्म 'हरीशचन्द्र तारामती' का है। हमें पूरा विश्वास है कि आज के दिन आप इस गीत को खुले दिल से स्वीकार करेंगे।

१९६३ में बनी थी फ़िल्म 'हरीशचन्द्र तारामती', जिसका निर्माण व निर्देशन किया था बी. के. आदर्श ने। फ़िल्म में राजा हरीशचन्द्र की भूमिका में थे पृथ्वीराज कपूर, और जयमाला थीं रानी तारामती की भूमिका में। फ़िल्म में संगीत दिया लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने और गानें लिखे कवि प्रदीप ने। प्रस्तुत गीत में कवि प्रदीप ने भले ही सूर्य की महानता का गुणगान किया है, लेकिन इसके पीछे छुपे जिस भाव को वो उजागर करना चाहते हैं वह यह है कि हर मनुष्य को अपने जीवन में ऐसे पथ पर चलना चाहिये जिससे जगत का कल्याण हो, मानवता का विकास हो, ठीक वैसे ही जैसे सूरज ख़ुद आग में जलकर पूरे संसार को रोशनी प्रदान करता है, जीवन प्रदान करता है। इस गीत को बड़े ध्यान से सुनिएगा दोस्तों, इसका एक एक शब्द एक एक अनमोल मोती के बराबर है। यह गीत एक सुंदर कविता है जो हमें थोड़े से ही शब्दों में ज़िंदगी जीने का सही और सर्वोत्तम तरीका सीखा जाती है। इसके बोल इतने सुंदर हैं कि मैं अपने आप को रोक नहीं सका, और इसके पूरे बोल नीचे लिख रहा हूँ।

जगत भर की रोशनी के लिए,
करोड़ों की ज़िंदगी के लिए,
सूरज रे जलते रहना, सूरज रे जलते रहना।

जगत कल्याण की ख़ातिर तू जन्मा है,
तू जग के वास्ते हर दुख उठा रे,
भले ही अंग तेरा भस्म हो जाये,
तू जल जल के यहाँ किरणें लुटा रे,
लिखा है यही तेरे भाग में,
के तेरा जीवन रहे आग में,
सूरज रे जलते रहना, सूरज रे जलते रहना।

करोड़ों लोग पृथ्वी के भटकते हैं,
करोड़ों आंगनों में है अंधेरा,
अरे जब तक न हो घर घर में उजियाला,
समझ ले है अधूरा काम तेरा,
जगत उद्धार में अभी देर है,
अभी तो दुनिया में अंधेर है,
सूरज रे जलते रहना, सूरज रे जलते रहना।


कवि प्रदीप, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, और हेमन्त कुमार के इस असाधारण गीत को आज हम समर्पित कर रहे हैं सूर्य देव के नाम, और साथ ही सभी से विनम्र निवेदन है कि इस गीत से ज़रूर शिक्षा ग्रहण करें, और मानव कल्याण के पथ पर ही अपने जीवन को आगे बढ़ायें।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा दूसरा (पहले गेस्ट होस्ट हमें मिल चुके हैं शरद तैलंग जी के रूप में)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. संगीतकार सज्जाद हुसैन को समर्पित है ओल्ड इस गोल्ड का १५० वां एपिसोड.
2. राजेंद्र कृष्ण ने लिखा है इस गीत को.
3. मुखड़े में शब्द है -"चांदनी".

पिछली पहेली का परिणाम -
अदा जी एक बार फिर सही जवाब, शरद जी के बाद तो लगता है आपका मैदान साफ़ हो गया, कोई भी आपको चुनौती ही नहीं दे पा रहा (38 अंक). दिशा जी कल फिर चूक गयी, और अनु गुप्ता जी भी. मंजू जी का जवाब सही है पर आने में देर कर दी. पराग जी, शरद जी, दिलीप जी, सुमित जी और निर्मला जी ने गीत का आनंद लिया, आज मुकेश जी की जयंती भी है, तो सूर्य देव के साथ उन्हें भी याद कर लिया जाए...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मगर चादर से बाहर पाँव फैलाना नहीं आता....उस्ताद शायर "यास" यगाना चंगेजी की ग़ज़ल, शिशिर पारखी की आवाज़ में



शिशिर पारखी हिंद युग्म संगीत परिवार के अहम् स्तम्भ हैं. अपनी मखमली आवाज़ और बेजोड़ ग़ज़ल गायन से पिछले लगभग ९-१० महीनों से आवाज़ के श्रोताओं का दिल जीतते रहे हैं. अपनी ग़ज़लों के माध्यम से उन्होंने कई बड़े और उस्ताद शायरों के कलामों को बेहद खूबसूरत अंदाज़ में हमारे रूबरू रखा है. "एहतराम" की सफलता के बाद आजकल शिशिर अपनी दूसरी एल्बम की तैयारी में हैं. देश विदेश के विभिन्न शहरों में कार्यक्रमों में शिरकत के दौरान भी वो आवाज़ पर आना नहीं भूलते, और बीच बीच में अपनी रिकॉर्डइंग हमें भेज कर अपनी आवाज़ के बदलते रूपों से हमें अवगत भी कराते रहते हैं. ऐसी ही उनकी भेजी एक ग़ज़ल आज हम आप सब के साथ बाँट रहे हैं जिसे उन्होंने धुन और अपनी आवाज़ देकर सजाया है. आज जिस शायर को शिशिर हमारे रूबरू लेकर आये हैं वो उस्ताद शायर हैं, मिर्जा यास यगाना चंगेजी (शायर के बारे में अधिक जानकारी जल्द ही उपलब्ध होगी)

मुझे दिल की खता पर 'यास' शर्माना नहीं आता.
पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता

बुरा हो पा-ए-सरकश का कि थक जाना नहीं आता
कभी गुम राह हो कर राह पर आना नहीं आता

मुझे ऐ नाखुदा आखिर किसी को मुँह दिखाना है
बहाना करके तनहा पार उतर जाना नहीं आता

मुसीबत का पहाड़ आखिर किसी दिन कट ही जायेगा,
मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता

असीरों शौक़-ए-आजादी मुझे भी गुदगुदाती है
मगर चादर से बाहर पाँव फैलाना नहीं आता

दिल-ए -बेहौसला है इक ज़रा सी टीस का मेहमाँ
वो आंसू क्या पिएगा जिसे गम खाना नहीं आता



शिशिर की इस कोशिश पर अपनी राय अवश्य रखियेगा.

Tuesday, July 21, 2009

ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सरूर.... एक सदाबहार गीत मुकेश का गाया



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 148

रोम में एक समय ऐसा था जब यहूदियों के साथ बड़ी ज़्यादतियाँ की जाती थी। फ़िल्म 'यहूदी' की कहानी भी इसी समय को आधार बनाकर लिखी गयी 'पीरियड फ़िल्म' थी। यह कहानी थी एक यहूदी लड़की की, कि किस तरह से उसे एक रोमन राजकुमार से प्यार हो जाता है, और फिर रोमन समाज उस प्यार को क्या अंजाम देता है। बिमल राय निर्देशित यह फ़िल्म आयी थी सन् १९५८ में। फ़िल्म में कई बड़े कलाकार थे जैसे कि सोहराब मोदी (एज़रा), दिलीप कुमार (प्रिंस मारकस), मीना कुमारी (हना), नासिर हुसैन (ब्रूटस) और निगार सुल्ताना (औक्टाविया)। हृषिकेश मुखर्जी ने इस फ़िल्म की एडिटिंग की थी। एक विदेशी पीरियड फ़िल्म होने की वजह से इस फ़िल्म के गीत संगीत की ज़िम्मेदारी एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थी। किसी भी पीरियड फ़िल्म में उस समय के संगीत का होना बेहद ज़रूरी हो जाता है वर्ना फ़िल्म की आत्मा ही ख़त्म हो जाती है। और अगर कहानी विदेशी हो तो मामला और भी गम्भीर हो जाता है। इस मामले में यह ज़रूर कहना पड़ेगा कि इस फ़िल्म के संगीतकार शंकर जयकिशन ने गीतों में वही रंग भरने की पूरी पूरी कोशिश की है। इससे पहले शंकर जयकिशन के संगीत से सजी एक और पीरियड फ़िल्म 'आम्रपाली' का एक गीत हमने आप को सुनवाया है। तो आज सुनिये फ़िल्म 'यहूदी' से मुकेश का गाया "ये मेरा दीवानापन है"।

शैलेन्द्र के लिखे इस गीत में भी उनके दूसरे गीतों की तरह सरलता है, सादगी है, लेकिन सीधे सरल शब्दों में तह-ए-दिल से निकली हर एक आह का पुर-असर ज़िक्र वो कर गये हैं इस गीत में। चलिये आज शैलेन्द्र साहब के बारे में थोड़ी सी बातें आप को बतायी जाये! ३० अगस्त को रावलपिंडी में जनम लेनेवाले शंकर शैलेन्द्र, जो बाद में केवल शैलेन्द्र के नाम से जाने गये, पहचाने गये, और अपने ख़यालों व ज़िंदगी के तमाम तजुरबात को अमर गीतों की शक्ल देकर ज़माने भर के तरफ़ से माने गये। शैलेन्द्र एक ऐसे शायर, एक ऐसे कवि की हैसीयत रखते हैं, जिनकी शायरी के मज़बूत कंधों पर हिंदी फ़िल्म संगीत की इमारत आज तक खड़ी है, और न जाने कितने और दीर्घ समय तक खड़ी रहेगी। "बरसात में हम से मिले तुम" से लेकर "जीना यहाँ मरना यहाँ" तक फ़िल्म जगत को केवल १७ सालों में जो अमर गानें उन्होने दिये हैं, वो इतने कम अरसे में शायद ही किसी और गीतकार ने दिये होंगे! दोस्तों, आप को शायद याद हो, 'राज कपूर विशेष' के दौरान 'तीसरी क़सम' के गाने के साथ हम ने आप को दुबई के १०४.४ आवाज़ FM पर प्रसारित शैलेन्द्र साहब के बेटे मनोज शैलेन्द्र से की गयी एक मुलाक़ात का अंश सुनवाया था। उसी मुलाक़ात में जब मनोज जी से यह पूछा गया था कि शैलेन्द्र जी के पसंदीदा गीतों का ज़िक्र कीजिये, तो 'बंदिनी', 'संगम' और 'दूर गगन की छाँव में' जैसी फ़िल्मों के गानों के साथ साथ 'यहूदी' के इस गीत की भी बात छिड़ी थी, ख़ुद मनोज जी के शब्दों में - "there are some songs which I also distinctly remember baba enjoyed and recited in front of us, one of them was from Yahudi - "ये मेरा दीवानापन है""। एक और बेहद ज़रूरी बात, वह यह कि १९५९ से 'फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार' के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार दिया जाने लगा, और दोस्तों पता है आप को कि उस पहले पहले साल में यह पुरस्कार शैलेन्द्र को ही मिला था और वह भी 'यहूदी' के इसी गीत के लिए। अब इसके बाद शायद इस गीत की महानता का गुणगान करना ज़रूरी नहीं रह गया है। तो दोस्तों, सुनिये मुकेश, शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन को समर्पित आज का यह गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा दूसरा (पहले गेस्ट होस्ट हमें मिल चुके हैं शरद तैलंग जी के रूप में)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. कल सदी का पहला सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण है और ये गीत समर्पित है ऊर्जा के संबसे बड़े श्रोत को.
2. कवि प्रदीप हैं इस गीत के रचेता.
3. मुखड़े में शब्द है -"सूरज" :)

पिछली पहेली का परिणाम -
अदा जी एक बार फिर बधाई. ३६ अंक हो गए हैं आपके. दिशा जी बस ज़रा सा पीछे रह गयी. कल के गीत के साथ कुछ समस्या थी जिसे सुधार लिया गया है, आप सब जो कल उस गीत को नहीं सुन पाए आज ज़रूर सुनें. कमाल का गीत है. दिलीप जी हम आपकी आवाज़ में भी इसे जल्द ही सुनेंगें.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम....... महफ़िल-ए-नौखेज़ और "फ़ैज़"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३१

ज की महफ़िल बड़ी हीं खुश-किस्मत है। आज हमारी इस महफ़िल में एक ऐसे शम्म-ए-चरागां तशरीफ़फ़रमां हैं कि उनकी आवभगत के लिए अपनी जबानी कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी के बराबर होगा। इसलिए हमने यह निर्णय लिया है कि इनके बारे में या तो इन्हीं का कहा कुछ पेश करेंगे या फिर इनके जानने वालों का कहा। इनकी शायरी के बारे में उर्दू के एक बुजुर्ग शायर "असर" लखनवी फ़रमाते हैं: "इनकी शायरी तरक़्की के मदारिज (दर्जे) तय करके अब इस नुक्ता-ए-उरूज (शिखर-बिन्दु) पर पहुंच गई है, जिस तक शायद ही किसी दूसरे तरक्क़ी-पसंद (प्रगतिशील) शायर की रसाई हुई हो। तख़य्युल (कल्पना) ने सनाअत (शिल्प) के जौहर दिखाए हैं और मासूम जज़्बात को हसीन पैकर (आकार) बख़्शा है। ऐसा मालूम होता है कि परियों का एक ग़ौल (झुण्ड) एक तिलिस्मी फ़ज़ा (जादुई वातावरण) में इस तरह मस्ते-परवाज़ (उड़ने में मस्त) है कि एक पर एक की छूत पड़ रही है और क़ौसे-कुज़ह (इन्द्रधनुष) के अक़्कास (प्रतिरूपक) बादलों से सबरंगी बारिश हो रही है।" पंजाब के सियालकोट में जन्मे इस बेमिसाल शायर को "उर्दू" अदब और "उर्दू" शायरी का बेताज बादशाह माना जाता है। "अंजुमन तरक्की पसंद मुस्सनफ़िन-ए-हिंद" के आजीवन सदस्य रहने वाले इन शायर को सोवियत युनियन ने १९६३ में "लेनिन पीस प्राइज" से नवाज़ा था। इतना हीं नहीं "शांति के नोबल पुरस्कार" के लिए भी इन्हें दो बार नामांकित किया गया था। उर्दू के आलोचक मुम्ताज हुसैन के अनुसार इनकी शायरी में अगर एक परंपरा क़ैश(मजनूं) की है तो एक मन्सूर की। जानकारी के लिए बता दूँ कि मन्सूर एक प्रसिद्ध ईरानी वली थे जिनका विश्वास था कि आत्मा और परमात्मा एक ही है और उन्होंने "अनल-हक" (सोऽहं-मैं ही परमात्मा हूं) की आवाज़ उठाई थी। उस समय के मुसलमानों को उनका यह नारा अधार्मिक लगा और उन्होंने उन्हें फांसी दे दी। ये शायर जिनकी हम आज बात कर रहे हैं, वो मार्क्सवादी थे, इसलिए उनमें भी यह भावना कूट-कूट कर भरी थी।

फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़" आज के उर्दू शायरों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हैं। जी हाँ, हम "फ़ैज़" की हीं बात कर रहे हैं, जिन्होंने कभी कहा था कि "हम परवरिशे-लौहो-क़लम करते रहेंगे,जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे" यानि कि हम तख्ती और कलम का प्रयोग करते रहेंगे और जो भी दिल पर गुजरती है उसे लिखते रहेंगे। "फ़ैज़" का मानना था कि जब तक दिल गवाही दे, तब तक हीं लिखें, मजबूरन लिखना या फिर बेमतलब कलम को तकलीफ़ देना बड़ी बुरी बात है। अपनी पुस्तक "नक्शे-फ़रियादी" की भूमिका में ये कहते हैं: "आज से कुछ बरस पहले एक मुअय्यन जज़्बे (निश्चित भावना) के ज़ेरे-असर अशआर (शे’र) ख़ुद-ब-ख़ुद वारिद (आगत) होते थे, लेकिन अब मज़ामीन (विषय) के लिए तजस्सुस (तलाश) करना पड़ता है...हममें से बेहतर की शायरी किसी दाखली या खारिजी मुहर्रक (आंतरिक या बाह्य प्रेरक) की दस्ते-निगर (आभारी) होती है और अगर उन मुहर्रिकात की शिद्दत (तीव्रता) में कमी आ जाए या उनके इज़हार (अभिव्यक्ति) के लिए कोई सहल रास्ता पेशेनज़र न हो तो या तो तजुर्बात को मस्ख़ (विकृत) करना पड़ता है या तरीके-इज़हार को। ऐसी सूरते-हालात पैदा होने से पहले ही ज़ौक और मसलहत का तक़ाज़ा यही है कि शायर को जो कुछ कहना हो कह ले, अहले-महफ़िल का शुक्रिया अदा करे और इज़ाज़त चाहे।" उर्दू के सुप्रसिद्ध संपादक "प्रकाश पंडित" ने "फ़ैज़" पर एक पुस्तक लिखी थी "फ़ैज़ और उनकी शायरी"। उसमें उन्होंने "फ़ैज़" से जुड़ी कई सारी मज़ेदार बातों का ज़िक्र किया है। "फ़ैज़" की शायरी के बारे में ये लिखते हैं: फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़" आधुनिक काल के उन चंद बड़े शायरों में से हैं जिन्होंने काव्य-कला में नए प्रयोग तो किए लेकिन उनकी बुनियाद पुराने प्रयोगों पर रखी और इस आधार-भूत तथ्य को कभी नहीं भुलाया कि हर नई चीज़ पुरानी कोख से जन्म लेती है। यही कारण है कि इनकी शायरी का अध्ययन करते समय हमें किसी प्रकार की अजनबियत महसूस नहीं होती। इनकी शायरी की "अद्वितीयता" आधारित है इनकी शैली के लोच और मंदगति पर, कोमल, मृदुल और सौ-सौ जादू जगाने वाले शब्दों के चयन पर, "तरसी हुई नाकाम निगाहें" और "आवाज़ में सोई हुई शीरीनियां" ऐसी अलंकृत परिभाषाओं और रुपकों पर, और इन समस्त विशेषताओं के साथ गूढ़ से गूढ़ बात कहने के सलीके पर।

"फ़ैज़" साहब दिल के कितने धनी थे, इसका पता "प्रकाश पंडित" को लिखे उनके खत से चलता है। "प्रकाश" साहब ने उनसे जब किताब प्रकाशित करने की अनुमति माँगी तो उन्होंने बड़े हीं सुलझे शब्दों में अपने को एक नाचीज़ साबित कर दिया। आप खुद देखिए कि उन्होंने क्या लिखा था।

बरादरम प्रकाश पण्डित, तस्लीमा !
आपके दो ख़त मिले। भई, मुझे अपने हालाते-ज़िन्दगी में क़तई दिलचस्पी नहीं है, न मैं चाहता हूं कि आप उन पर अपने पढ़ने वालों का वक्त ज़ाया करें। इन्तिख़ाब (कविताओं के चयन) और उसकी इशाअत (प्रकाशन) की आपको इजाज़त है। अपने बारे में मुख़्तसर मालूमात लिखे देता हूं। पैदाइश सियालकोट, 1911, तालीम स्कॉट मिशन हाई स्कूल सियालकोट, गवर्नमेंट, कालेज लाहौर (एम.ए.अंग्रेज़ी 1933, एम.ए. अरबी 1934)। मुलाज़मत एम.ए. ओ. कालेज अमृतसर 1934 से 1940 तक। हेली कालेज लाहौर 1940 से 1942 तक। फ़ौज में (कर्नल की हैसियत से) 1942 से 1947 तक। इसके बाद ‘पाकिस्तान टाइम्ज़’ और ‘इमरोज़’ की एडीटरी ताहाल (अब तक)। मार्च 1951 से अप्रैल 1955 तक जेलख़ाना (रावलपिंडी कान्सपिरेंसी केस के सिलसिले में)। किताबें ‘नक्शे-फ़र्यादी’, ‘दस्ते सबा’ और ‘ज़िन्दांनामा’।

-"फ़ैज़"
बेरुत, लेबनान
25-6-1981

फ़ैज़ साहब के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है। बाकी बातें आगे किसी कड़ी में करेंगे। अभी हम आगे बढने से पहले इन्हीं का एक शेर देख लेते हैं। हाल में हीं रीलिज हुई (या शायद होने वाली) फिल्म "सिकंदर" के एक गाने में इनके इस शेर का बड़ी हीं खूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है।

गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले,
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले


आज हम जिस गज़ल को लेकर हाज़िर हुए हैं,उसे हमने एलबम "फ़ैज़ बाई आबिदा" से लिया है। ज़ाहिर है कि उस एलबम की सभी गज़लें या नज़्में फ़ैज़ की हीं लिखी हुई थी और आवाज़ थी "बेग़म" आबिदा परवीन की। "बेग़म" साहिबा के बारे में हमने पिछले एक एपिसोड में बड़ी हीं बारीकी से बात की थी। इसलिए आज इनके बारे में कुछ भी न कहा। वक्त आया तो इनके बारे में फिर से बात करेंगे। अभी तो आज की गज़ल/नज़्म का लुत्फ़ उठाईये:

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ए-महताब से रात||

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|

और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी,
और उन हाथों से मस्स होंगे ये तरसे हुए हाथ||

उनका आँचल है कि रुख़सार के पैराहन हैं,
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं,
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छांवों में,
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं||

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|

आज फिर हुस्न-ए-दिलारा की वही धज होगी,
वो ही ख्वाबीदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर,
रंग-ए-रुख्सार पे हल्का-सा वो गाज़े का गुबार,
संदली हाथ पे धुंधली-सी हिना की तहरीर।

अपने अफ़कार की अशार की दुनिया है यही,
जाने मज़मूं है यही, शाहिदे-ए-माना है यही,
अपना मौज़ू-ए-सुखन इन के सिवा और नही,
तबे शायर का वतन इनके सिवा और नही।

ये खूं की महक है कि लब-ए-यार की खुशबू,
किस राह की जानिब से सबा आती है देखो,
गुलशन में बहार आई कि ज़िंदा हुआ आबाद,
किस सिंध से नग्मों की सदा आती है देखो||

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

फ़ल्सफ़े इश्क़ में पेश आये सवालों की तरह
हम ___ ही रहे अपने ख़यालों की तरह

आपके विकल्प हैं -
a) उलझे, b) पशेमां, c) बहते, d) परेशाँ

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था -"सूरज" और शेर कुछ यूं था -

कहीं नहीं कोई सूरज, धुंआ धुंआ है फिज़ा,
खुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो...

शरद जी जाने क्यों सुराग और सूरज को लेकर पशोपश में रहे, पर दिशा जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ सही जवाब पेश किया. दिशा जी का शेर गौर फरमाएं -

गर न चमके सूरज तो दुनिया में रोशनी कहाँ होगी
न तो सुबह का नाम बचेगा न चाँद में चाँदनी रहेगी

मंजू जी ने अपनी कविता के कुछ अंश यूं पेश किये -

राह दिखता सूरज जग को,रीति,नीति,विवेक बतलाता .
सत्य,नियम आनुसाशन का पालन, जीवन को सफल बनता

मनु जी ठहरे 'वजन" वाले इंसान तो नाप तोल कर सही जवाब दिया इस शेर के साथ -

यार बना कर मुझ को सीढी, तू बेशक सूरज हो जा..........
देख ज़रा मेरी भी जानिब, मुझको भी कुछ बख्श जलाल..

और
अभी तो दामने-गुल में थी शबनम की हसीं रंगत
अभी सूरज उधर ही चल पड़ा है हाथ फैलाए

कुलदीप अंजुम साहब आपने शायर एकदम सही बताया पर हर बार की तरह आप निदा साहब के कुछ शेर याद दिलाते तो मज़ा आता, सुमित जी को महफिल की ग़ज़ल पसंद आई, अच्छा लगा जानकार.

कल सदी का सबसे बड़ा सूर्य ग्रहण होने वाला है, चलते चलते सूरज को सलाम करते हैं शमिख फ़राज़ जी की इस शायरी के साथ -

तेरी यादों ने पिघलाया है ऐसे
कि सूरज को छुआ हो मैंने जैसे
हाँ मैंने हर सिम्त हर तरफ से
हाँ मैंने हर लपट और कुछ निकट से....

जलता रहे सूरज वहां आसमान पर और यहाँ हम सबके जीवन में यूँहीं उजाले कायम रहे इसी दुआ के साथ लेते हैं आपसे इजाज़त अगली महफिल तक. खुदा हाफिज़.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Monday, July 20, 2009

आज की काली घटा...याद कर रही है उस आवाज़ को जो कहीं दूर होकर भी पास है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 147

सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका गीता दत्त जी के आख़िर के दिनों की दुखभरी कहानी का ज़िक्र हमनें यहाँ कई बार किया है। दोस्तों, आज यानी कि २० जुलाई का ही वह दिन था, साल १९७२, जब काल के क्रूर हाथों ने गीता जी को हम से हमेशा हमेशा के लिए छीन लिया था। आज उनके गुज़रे ३७ साल हो गये हैं, लेकिन उनके बाद दूसरी किसी भी गायिका की आवाज़ के ज़रिये उनका वह अंदाज़ फिर वापस नहीं आया, जो कभी समा को नशीला बना जाती थी तो कभी मन में एक अजीब सी विकलता भर देती थी, और कभी वेदना के स्वरों से मन को उदास कर देती थी। अगर आप मेरे एक बात का कोई ग़लत अर्थ न निकालें तो मैं यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि लता जी की आवाज़ के करीब करीब सुमन कल्याणपुर की आवाज़ ५० और ६० के दशकों में सुनाई दी थी, और दक्षिण की सुप्रसिद्ध गायिका एस. जानकी की आवाज़ भी कुछ कुछ आशा जी की आवाज़ से मिलती जुलती है। लेकिन ऐसी कोई भी दूसरी आवाज़ आज तक पैदा नहीं हुई है जो गीता जी की आवाज़ के करीब हो। कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि गीता दत्त, गीता दत्त हैं, उनकी जगह आज तक न कोई ले सका है और लगता नहीं कि आगे भी कोई ले पायेगा। आज गीता दत्त जी की पुण्य तिथि के अवसर पर हिंद युग्म की तरफ़ से हम उन्हे दे रहे हैं भावभीनी श्रद्धांजली, और सुनवा रहे हैं उनका गाया फ़िल्म 'उसकी कहानी' का एक बड़ा ही सुंदर गीत - "आज की काली घटा, मस्त मतवाली घटा".

'उसकी कहानी' फ़िल्म आयी थी सन् १९६६ में जिसका निर्माण बासु भट्टाचार्य ने किया था और मुख्य कलाकार थे तरुण घोष और अंजु महेन्द्रू। फ़िल्म का संगीत तैयार किया था एक बड़े ही कमचर्चित संगीतकार ने जिनका नाम था कानु राय। कानु राय ५० के दशक में हावड़ा से मुंबई गायक बनने आये थे। गायक बनने की उनकी तमन्ना तो पूरी नहीं हो सकी, लेकिन संगीतकार सलिल चौधरी के यहाँ उनकी अक्सर बैठकें होती थीं। यहीं उनका दो ऐसे व्यक्तियों से परिचय हुआ जो आगे चलकर सही मायने में उनके हितकर साबित हुए। और ये दो व्यक्ति थे गीतकार शैलेन्द्र और फ़िल्मकार बासु भट्टाचार्य। बासु साहब की पाँच फ़िल्मों में कानु राय का संगीत था (अनुभव, उसकी कहानी, आविष्कार, गृहप्रवेश, स्पर्श)। दोस्तों, आज हमने गीता जी की पुण्य तिथि पर कानु राय का स्वरबद्ध गीत इसलिए शामिल किया क्योंकि गीता जी को आख़िरी बार के लिए गवाने का श्रेय भी कानु राय को ही जाता है। उनकी संगीतबद्ध फ़िल्म 'अनुभव' में गीता जी की आवाज़ अंतिम बार सुनायी दी थी। 'उसकी कहानी' फ़िल्म के प्रस्तुत गीत में कैफ़ी आज़मी ने फ़िल्मी गीत की साधारण स्वरूप से बाहर निकलकर बिना तुकबंदी किए गाने को लिखा था। गीत में और्केस्ट्रेशन कम से कम रखा गया है। गीत जैसे एक ठंडी और हल्की बारिश के झोंके की तरह आता है और बड़े ही कोमलता से हमें भीगो जाता है। गीता जी के गले की कारिगरी के तो कहने ही क्या, कोमल लेकिन मादक। इसमें कोई शक़ नहीं कि यह गीत फ़िल्म संगीत के धरोहर का एक अनमोल नगीना है। दोस्तों, गीत सुनने से पहले एक बात और हम बताना चाहते हैं कि कई लोगों में यह ग़लत धारणा बनी हुई है कि मुकुल राय की तरह कानु राय भी गीता दत्त के भाई थे। लेकिन यह सच नहीं है, मुकुल राय ज़रूर गीता जी के भाई हैं, लेकिन कानु राय का गीता जी से कोई पारिवारिक संबंध नहीं है। लीजिए, गीता जी की याद में सुनते हैं "आज की काली घटा, मस्त मतवाली घटा, मुझसे कहती है के प्यासा है कोई, कौन प्यासा है मुझे क्या मालूम"। हम भी गीता जी की आवाज़ के प्यासे हैं, चाहे कितना भी उनके गानें सुन लें, दिल ही नहीं भरता, दिल तो बस यही करता है कि उनको सुनते ही चले जायें, सुनते ही चले जायें, सुनते ही चले जायें...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा दूसरा (पहले गेस्ट होस्ट हमें मिल चुके हैं शरद तैलंग जी के रूप में)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. मुकेश की आवाज़ गूंजेगी कल बहुत दिनों बाद इस महफिल में.
2. शैलेन्द्र ने लिखा है इस बेहद खूबसूरत गीत को.
3. मुखड़े में शब्द है -"सुरूर".

पिछली पहेली का परिणाम -
३४ अंकों के साथ स्वप्न जी अपनी मंजिल की तरफ तेजी से अग्रसर हैं. बधाई आपको. पराग जी साईट काफी अच्छी बन पड़ी है बधाई आपको भी, हम सब आपके आभारी है क्योंकि आप ही के कारण आज हम सब गीता जी को और अधिक समझ पाए हैं. राज जी, मनु जी, शमिख जी, और शरद जी आप सब का भी आभार महफिल में पधारने के लिए.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

तेरे बिन कहाँ हमसे जिया जायेगा....शान और श्रेया की आवाजों का है ये जादू



ताजा सुर ताल (11)

जाने क्या जादू है प्रेम गीतों में कि हम कभी इनसे ऊबते नहीं. कठोर से कठोर आदमी के मन में कहीं एक छुपा हुआ प्रेम का दरिया रहता है, कभी तन्हाई में जब कभी वो इन गीतों को सुनता है वह दरिया उसके मन का बहने लगता है. यदि मैं आपसे पूछूँ कि आपके सबसे पसंदीदा १० गीत कौन से हैं तो यकीनन उनमें से कम से कम ६ गीत प्रेम गीत होंगें और उनमें भी युगल गीतों के क्या कहने, यदि किसी प्रेम गीत को गायक और गायिका ने पूरी शिद्दत से प्रेम में डूब कर गीत के भावों को समझ कर गाया हो तो वो गीत एकदम ही आपके दिल के तार झनका देता है. अभी कुछ दिन पहले इस शृंखला में हमने आपको फिल्म "शोर्टकट" का एक मधुर प्रेम गीत सुनवाया था. आज भी बारी है एक और प्रेम गीत की. बेहद सुरीले हैं शान और श्रेया घोषाल और जब दोनों की सुरीली आवाजें मिल जाए तो गीत यूं भी संवर जाता है.

आज का गीत है फिल्म "जश्न" से. रॉक ऑन की तरह ये फिल्म भी एक रॉक गायक के जीरो से हीरो बनने की दास्तान है. फिल्म संगीत प्रधान है तो जाहिर है संगीतकार के लिए एक अच्छी चुनौती भी है और एक बहतरीन मौका भी खुद को साबित करने का. शारिब और तोशी की जोड़ी ने संतुलित रॉक गीतों से सजाया है इस एल्बम को. फिल्म के अन्य सभी गीत रॉक आधारित है, पर एक यही गीत है एकलौता जिसमें मेलोडी है. जहाँ अधिकतर गीत पुरुष सोलो है, जो नायक के व्यावसायिक संघर्ष की जुबान है वहीं प्रस्तुत गीत एकदम अलग मन की कोमल भावनाओं का युगल बयां है. चूँकि फिल्म के अन्य गीत कहानी और थीम के हिसाब से अधिक महत्वपूर्ण हैं तो उनके बीच इस गीत का प्रचार ज़रा कम कर हो रहा है. "दर्द - ए- तन्हाई" और "आया रे" जैसे गीत इन दिनों खूब धूम मचा रहे हैं. पर आने वाले समय में ये सुरीला प्रेम गीत श्रोताओं को अवश्य भायेगा ऐसा हमारा अनुमान है. नीलेश मिश्रा के बोलों में कुछ ख़ास नयापन नहीं है. संगीत भी सामान्य ही है, हाँ धुन ज़रूर कर्णप्रिय है, पर ये शान और श्रेया जैसे गायकारों का दम ख़म है जो इस गीत को इतना तारो ताजा बना देता है. गीत एक बार में ही आपके जेहन में घर कर लेता है और धीरे धीरे होंठों पर चढ़ भी जाता है. तो आज ताजा सुर ताल के इस अंक में सुनते हैं हम और आप यही गीत -

तेरे बिन कहाँ हमसे जिया जायेगा,
जिद छोड़ दी लो आज कह दिया...

जिंदगी भाग कर हमसे आगे चली,
थाम लो न हमें चाँद तारों तले...
तोड़ डाली तन्हाई है,
अब मोहब्बत रुत आई है....

तेरे बिन....

जाने कितने बरस धूप में मैं चला,
तुम मिले जिस घडी जैसे बादल मिला...
बरसो न टूट कर ज़रा,
भीग जाए मन ये बावरा....

तेरे बिन....



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 3.5 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. फिल्म "जश्न" से एक नए स्टार पुत्र का फिल्म जगत में पदार्पण हो रहा है. क्या आप जानते हैं उस नए कलाकार का नाम ? और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.

पिछले सवाल का सही जवाब था गीत "हम जो चलने लगे...." फिल्म जब वी मेट का. पर अफ़सोस किसी ने भी सही जवाब नहीं दिया. हाँ इस बार शमिख जी ने रेटिंग जरूर दी. शुक्रिया जनाब. मनु जी क्या रेटिंग है आपकी ? ये सस्पेंस क्यों. मंजू और दिशा जी आपने गीत का आनंद लिया हमें अच्छा लगा. रेटिंग भी देते तो और मज़ा आता.


अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, July 19, 2009

गंगा आये कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे...जीवन का फलसफा दिया था कभी गुलज़ार साहब ने इस गीत में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 146

वि गुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानियों और उपन्यासों पर बनी फ़िल्मों की जब बात आती है तब 'काबुलीवाला' का ज़िक्र करना बड़ा ही ज़रूरी हो जाता है। उनकी मर्मस्पर्शी कहानियों में से एक थी 'काबुलीवाला'। और फ़िल्म के परदे पर इस कहानी को बड़े ही ख़ूबसूरती के साथ पेश किये जाने की वजह से कहानी बिल्कुल जीवंत हो उठी है। यह कहानी थी एक अफ़ग़ान पठान अब्दुल रहमान ख़ान की और उनके साथ एक छोटी सी बच्ची मिनि के रिश्ते की। बंगाल के बाहर इस कहानी को जन जन तक पहुँचाने में इस फ़िल्म का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज दशकों बाद यह फ़िल्म सिनेमाघरों के परदों पर या टीवी के परदे पर दिखाई तो नहीं देता लेकिन रेडियो पर इस फ़िल्म के सदाबहार गानें आप ज़रूर सुन सकते हैं। दूसरे शब्दों में आज यह फ़िल्म जीवित है अपने गीत संगीत की वजह से। इस फ़िल्म का एक गीत "ऐ मेरे प्यारे वतन... तुझपे दिल क़ुर्बान" बेहद प्रचलित देशभक्ती रचना है जिसे प्रेम धवन के बोलों पर मन्ना डे ने गाया था। इसी फ़िल्म का एक दूसरा गीत है हेमन्त कुमार की आवाज़ में जो आज हम आप के लिए लेकर आये हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। गंगा नदी पर लिखे गये तमाम गीतों में यह गीत भीड़ से अलग सुनायी देता है। "ओ गंगा आये कहाँ से, गंगा जाये कहाँ रे, लहराये पानी मे जैसे धूप छाँव रे"। इस गीत को प्रेम धवन ने नहीं बल्कि गुलज़ार ने लिखा था।

'काबुलीवाला' १४ दिसम्बर १९६१ को प्रदर्शित हुई थी, इसका निर्माण किया था बिमल राय ने और निर्देशक थे हेमेन गुप्ता। बलराज साहनी, सोनू और उषा किरण अभिनीत इस फ़िल्म में सलिल चौधरी का संगीत था। बंगाल का लोकसंगीत इस फ़िल्म के गीतों में झलकता है। ख़ास कर के प्रस्तुत गीत में बाउल और भटियाली संगीत का बड़ा ही सुंदर प्रयोग हुआ है। इकतारा की ध्वनियाँ हमें सुदूर बंगाल के गांगीय इलाकों की सैर करा लाती है। गीत को सुनते हुए ऐसा लगता है कि वाकई हम किसी नाँव पर सवार हो कर गंगा म‍इया की लहरों में उथल पुथल कर रहें हों। गुलज़ार साहब ने इस गीत को लिखा था। भले ही गीत गंगा नदी को आधार बनाकर लिखा गया हो, लेकिन अगर ग़ौर करें तो पायेंगे कि इसके पीछे कई दार्शनिक बातें छुपी हुई हैं। इंसान की तुलना नदी से की गयी है; यह कोई नहीं जानता कि इंसान कहाँ से आता है और कहाँ उसकी तक़दीर उसे ले जायेगी। तमाम ख़ुशियों और दुख तक़लीफ़ों से गुज़रते हुए वह एक दिन अपने अंजाम तक पहुँच ही जाता है। ज़िंदगी की इस सच्चाई को गुलज़ार साहब ने इस सादगी और सरलता से प्रस्तुत किया है कि गीत को सुनते हुए हम उसकी धारा में जैसे बहते चले जाते हैं। और हेमन्त दा की आवाज़ के तो क्या कहने, उनकी गम्भीर और दार्शनिक, लेकिन कोमल आवाज़ में यह गीत बेहद सुंदर बन पड़ा है, सुनिये



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. गीता दत्त की पुण्य तिथि पर कल उन्हें समर्पित होगा ये गीत.
2. बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था इस फिल्म को.
3. मुखड़े में शब्द है -"मस्त".

पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी एक दम सही जवाब, अब आप भी डबल फिगर यानी १० अंकों पर आ गए हैं. स्वप्न जी, मनु जी आप सब ने भी बढ़िया कोशिश की. शरद जी सभी प्रतिभागियों की हौंसला अफजाई अब आपके जिम्मे है.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (10)



पराग सांकला जी से हमारे सभी नियमित श्रोता परिचित हैं. इन्हें हम आवाज़ पर गीता दत्त विशेषज्ञ कहते हैं, सच कहें तो इनके माध्यम से गीता दत्त जी की गायिकी के ऐसे अनछुवे पहलूओं पर हम सब का ध्यान गया है जिसके बारे में शायाद हम कभी नहीं जान पाते. एक बार पहले भी पराग ने आपको गीता जी के गाये कुछ मधुर और दुर्लभ प्रेम गीत सुनवाए थे, इसी कड़ी को आज आगे बढाते हुए आज हम सुनते हैं गीता जी के गाये १४ और प्रेम गीत. ये हिंद युग्म परिवार की तरह से भाव भीनी श्रद्धाजंली है गायिका गीता दत्त को जिनकी कल ३७ वीं पुण्यतिथि है. पेश है पराग जी के नायाब संकलन में से कुछ अनमोल मोती इस रविवार सुबह की कॉफी में

गीता रॉय (दत्त) ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत प्रेमगीत गाये हैं मगर जिनके बारे में या तो कम लोगों को जानकारी हैं या संगीत प्रेमियों को इस बात का शायद अहसास नहीं है. इसीलिए आज हम गीता के गाये हुए कुछ मधुर मीठे प्रणय गीतों की खोज करेंगे.

सन १९४८ में पंजाब के जाने माने संगीतकार हंसराज बहल के लिए फिल्म "चुनरिया" के लिए गीता ने गाया था "ओह मोटोरवाले बाबू मिलने आजा रे, तेरी मोटर रहे सलामत बाबू मिलने आजा रे". एक गाँव की अल्हड गोरी की भावनाओं को सरलता और मधुरता से इस गाने में गीता ने अपनी आवाज़ से सजीव बना दिया है.



सन १९५० में फिल्म "हमारी बेटी" के लिए जवान संगीतकार स्नेहल भाटकर (जिनका असली नाम था वासुदेव भाटकर) ने मुकेश और गीता रॉय से गवाया एक मीठा सा युगल गीत "किसने छेड़े तार मेरी दिल की सितार के किसने छेड़े तार". भावों की नाजुकता और प्रेम की परिभाषा का एक सुन्दर उदाहरण हैं यह युगल गीत जिसे लिखा था रणधीर ने.



बावरे नैन फिल्म में संगीतकार रोशन को सबसे पहला सुप्रसिद्ध गीत (ख़यालों में किसी के) देने के बाद अगले साल गीता रॉय ने रोशन के लिए फिल्म बेदर्दी के लिए गाया "दो प्यार की बातें हो जाए, एक तुम कह दो, एक हम कह दे". बूटाराम शर्मा के लिखे इस सीधे से गीत में अपनी आवाज़ की जादू से एक अनोखी अदा बिखेरी हैं गीता रोय ने.



जिस साल फिल्म "दो भाई" प्रर्दशित हुई उसी साल फिल्मिस्तान की और एक फिल्म आयी थी जिसका नाम था शहनाई. दिग्गज संगीतकार सी रामचन्द्र ने एक फडकता हुआ प्रेमगीत बनाया था "चढ़ती जवानी में झूलो झूलो मेरी रानी, तुम प्रेम का हिंडोला". इसे गाया था खुद सी रामचंद्र, गीता रॉय और बीनापानी मुख़र्जी ने. कहाँ "दो भाई" के दर्द भरे गीत और कहाँ यह प्रेम के हिंडोले!



गीतकार राजेंदर किशन की कलम का जादू हैं इस प्रेमगीत में जिसे संगीतबद्ध किया हैं सचिन देव बर्मन ने. "एक हम और दूसरे तुम, तीसरा कोई नहीं, यूं कहो हम एक हैं और दूसरा कोई नहीं". इसे गाया हैं किशोर कुमार और गीता रॉय ने फिल्म "प्यार" के लिए जो सन १९५० में आई थी. गीत फिल्माया गया था राज कपूर और नर्गिस पर.



"हम तुमसे पूंछते हैं सच सच हमें बताना, क्या तुम को आ गया हैं दिल लेके मुस्कुराना?" वाह वाह क्या सवाल किया हैं. यह बोल हैं अंजुम जयपुरी के लिए जिन्हें संगीतबद्ध किया था चित्रगुप्त ने फिल्म हमारी शान के लिए जो १९५१ में प्रर्दशित हुई थी. बहुत कम संगीत प्रेमी जानते हैं की गीता दत्त ने सबसे ज्यादा गीत संगीतकार चित्रगुप्त के लिए गाये हैं. यह गीत गाया हैं मोहम्मद रफी और गीता ने. रफी और गीता दत्त के गानों में भी सबसे ज्यादा गाने चित्रगुप्त ने संगीतबद्ध किये हैं.



पाश्चात्य धुन पर थिरकता हुआ एक स्वप्नील प्रेमगीत हैं फिल्म ज़माना (१९५७) से जिसके संगीत निर्देशक हैं सलील चौधरी और बोल हैं "दिल यह चाहे चाँद सितारों को छूले ..दिन बहार के हैं.." उसी साल प्रसिद्द फिल्म बंदी का मीठा सा गीत हैं "गोरा बदन मोरा उमरिया बाली मैं तो गेंद की डाली मोपे तिरछी नजरिया ना डालो मोरे बालमा". हेमंतकुमार का संगीतबद्ध यह गीत सुनने के बाद दिल में छा जाता है.



संगीतकार ओमकार प्रसाद नय्यर (जो की ओ पी नय्यर के नाम से ज्यादा परिचित है) ने कई फिल्मों को फड़कता हुआ संगीत दिया. अभिनेत्री श्यामा की एक फिल्म आई थी श्रीमती ४२० (१९५६) में, जिसके लिए ओ पी ने एक प्रेमगीत गवाया था मोहम्मद रफी और गीता दत्त से. गीत के बोल है "यहाँ हम वहां तुम, मेरा दिल हुआ हैं गुम", जिसे लिखा था जान निसार अख्तर ने.



आज के युवा संगीत प्रेमी शायद शंकरदास गुप्ता के नाम से अनजान है. फिल्म आहुती (१९५०) के लिए गीता दत्त ने शंकरदास गुप्ता एक युगल गीत गाया था "लहरों से खेले चन्दा, चन्दा से खेले तारे". उसी फिल्म के लिए और एक गीत इन दोनों ने गाया था "दिल के बस में हैं जहां ले जाएगा हम जायेंगे..वक़्त से कह दो के ठहरे बन स्वर के आयेंगे". एक अलग अंदाज़ में यह गीत स्वरबद्ध किया हैं, जैसे की दो प्रेमी बात-चीत कर रहे हैं. गीता अपनी मदभरी आवाज़ में कहती हैं -"चाँद बन कर आयेंगे और चांदनी फैलायेंगे".



अगर प्रेमगीत में हास्य रस को शामिल किया जाया तो क्या सुनने मिलेगा? मेरा जवाब हैं "दिल-ऐ-बेकरार कहे बार बार,हमसे थोडा थोडा प्यार भी ज़रूर करो जी". इस को गाया हैं गीता दत्त और गुलाम मुस्तफा दुर्रानी ने फिल्म बगदाद के लिए और संगीतबद्ध किया हैं बुलो सी रानी ने. जिस बुलो सी रानी ने सिर्फ दो साल पहले जोगन में एक से एक बेहतर भजन गीता दत्त से गवाए थे उन्हों ने इस फिल्म में उसी गीता से लाजवाब हलके फुलके गीत भी गवाएं. और जिस राजा मेहंदी अली खान साहब ने फिल्म दो भाई के लिखा था "मेरा सुन्दर सपना बीत गया" , देखिये कितनी मजेदार बाते लिखी हैं इस गाने में:

दुर्रानी : मैं बाज़ आया मोहब्बत से, उठा लो पान दान अपना
गीता दत्त : तुम्हारी मेरी उल्फत का हैं दुश्मन खानदान अपना
दुर्रानी : तो ऐसे खानदान की नाक में अमचूर करो जी



सचिन देव बर्मन ने जिस साल गीता रॉय को फिल्म दो भाई के दर्द भरे गीतों से लोकप्रियता की चोटी पर पहुंचाया उसी साल उन्ही की संगीत बद्ध की हुई फिल्म आई थी "दिल की रानी". जवान राज कपूर और मधुबाला ने इस फिल्म में अभिनय किया था. उसी फिल्म का यह मीठा सा प्रेमगीत हैं "आहा मोरे मोहन ने मुझको बुलाया हो". इसी फिल्म में और एक प्यार भरा गीत था "आयेंगे आयेंगे आयेंगे रे मेरे मन के बसैय्या आयेंगे रे".



और अब आज की आखरी पेशकश है संगीतकार बुलो सी रानी का फिल्म दरोगाजी (१९४९) के लिया संगीतबद्ध किया हुआ प्रेमगीत "अपने साजन के मन में समाई रे". बुलो सी रानी ने इस फिल्म के पूरे के पूरे यानी १२ गाने सिर्फ गीता रॉय से ही गवाए हैं. अभिनेत्री नर्गिस पर फिल्माया गया यह मधुर गीत के बोल हैं मनोहर लाल खन्ना (संगीतकार उषा खन्ना के पिताजी) के. गीता की आवाज़ में लचक और नशा का एक अजीब मिश्रण है जो इस गीत को और भी मीठा कर देता हैं.



जो अदा उनके दर्दभरे गीतों में, भजनों में और नृत्य गीतों में हैं वही अदा, वही खासियत, वही अंदाज़ उनके गाये हुए प्रेम गीतों में है. उम्मीद हैं की आप सभी संगीत प्रेमियों को इन गीतों से वही आनंद और उल्हास मिला हैं जितना हमें मिला.

प्रस्तुति - पराग सांकला


"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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