Saturday, January 9, 2010

इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते...और उन्हीं रास्तों पर आज भी राह तकते हैं गुलज़ार पंचम का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 309/2010/09

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में 'पंचम के दस रंग' शृंखला में अब तक आप ने जिन ८ रंगों का आनंद उठाया वो रंग थे भारतीय शास्त्रीय संगीत, पाश्चात्य संगीत, लोक संगीत, भक्ति संगीत, हास्य रस, रोमांटिसिज़्म, क़व्वाली और कल का रंग कुछ दर्द भरा सा था जुदाई के रंग से रंगा हुआ। आज हम जिस जौनर की बात करेंगे उसके बारे में सिर्फ़ यही कह सकते हैं कि यह जौनर है गुलज़ार और पंचम की जोड़ी का जौनर। अब इस जौनर को और क्या नाम दें? गुलज़ार साहब, जिनके ग़ैर पारंपरिक बोल हमेशा गीत को एक अलग ही मुक़ाम पर ले जाया करती है, और उस पर अगर उनके चहेते दोस्त और संगीतकार पंचम के संगीत का रंग चढ़े तो फिर कहना ही क्या! इसलिए हमने सोचा कि इस जोड़ी के नाम एक गीत तो होना ही चाहिए और एक ऐसा गीत जिसमें गुलज़ार साहब के अनोखे शब्द हों, जो आम तौर पर फ़िल्मी गीतों में सुनाई नहीं देते हों। ऐसे तो उनके अनेकों गानें हैं, लेकिन हमने आज के लिए चुना है लता मंगेशकर और किशोर कुमार की आवाज़ों में फ़िल्म 'आंधी' का गीत "इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त क़दम रस्ते, कुछ तेज़ क़दम राहें"। इसके मुखड़े में एक शब्द आता है "नशेमन"। इसे अक्सर लोग "नशे मन" समझ बैठने की भूल कर बैठते हैं, जब कि इसका अर्थ है चिड़िया का घोसला। यही है गुलज़ार साहब की शख्सियत! गुलज़ार साहब अक्सर शब्दों के जाल में श्रोताओं को उलझाते हैं लेकिन बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ। अब इस गीत के दूसरे अंतरे को ही लीजिए। गुलज़ार साहब लिखते हैं "एक दूर से आती है, पास आके पलटती है, एक राह अकेली सी, रुकती है ना चलती है"। इन्हे समझ पाने के लिए दिमाग़ पर काफ़ी ज़ोर डालना पड़ता है। और इन बोलों को पंचम ने क्या ख़ूब धुनें दी हैं कि सीधे दिल पर चोट करती है। और लता जी और किशोर दा के आवाज़ पा कर तो जैसे गीत जी उठा हो!

दोस्तों, पंचम दा के निधन के बाद गुलज़ार साहब ने अपने इस अज़ीज़ दोस्त को याद करते हुए काफ़ी कुछ कहा हैं समय समय पर। यहाँ पे हम उन्ही में से कुछ अंश पेश कर रहे हैं। इन्हे विविध भारती पर प्रसारित किया गया था विशेष कार्यक्रम 'पंचम के बनाए गुलज़ार के मन चाहे गीत' के अन्तर्गत। "याद है बारिशों के वो दिन थे पंचम? पहाड़ियों के नीचे वादियों में धुंध से झाँक कर रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं, और हम दोनों रेल की पटरियों पर बैठे, जैसे धुंध में दो पौधें हों पास पास! उस दिन हम पटरी पर बैठे उस मुसाफ़िर का इंतज़ार कर रहे थे, जिसे आना था पिछली शब लेकिन उसकी आमद का वक्त टलता रहा, हम ट्रेन का इंतज़ार करते रहे, पर ना ट्रेन आई और ना वो मुसाफ़िर। तुम युं ही धुंध में पाँव रख कर गुम हो गए। मैं अकेला हूँ धुंध में पचम! वो प्यास नहीं थी जब तुम संगीत उड़ेल देते थे और हम सब उसे अपनी मुंह में लेने की कोशिश किया करते थे। प्यास अब लगी है जब कतरा कतरा जमा कर रहा हूँ तुम्हारी यादों का। क्या तुम्हे पता था पंचम कि तुम चुप हो जाओगे और मैं तुम्हे ढ़ूंढता फिरूँगा? गाना बनाते वक़्त तुम ज़बान से ज़्यादा साउंड पर ध्यान देते थे। किसी शब्द का साउंड अच्छा लग जाए तो झट से ले लेते थे। और उस शब्द का माने? जैसे तुमने पूछा था मुझसे कि ये "नशेमन" कौन सा शहर है यार?" तो दोस्तो, आइए अब उसी नशेमन वाले गीत को सुना जाए, गुलज़ार साहब का शायराना अंदाज़ और पंचम दा की महकती धुनें!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

बहारों में छुप के हँसता है कौन,
वो पीछे से चाँद के झांकता है कौन,
सूरज तो फिर किसी साहिल पे डूबा ही होगा,
ये सितारों की बारात लेकर निकला है कौन....

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी और इंदु जी क्या बात है एक समय पर एक साथ सही जवाब. आज तो २ अंक आप दोनों को ही बांटे जायेगें. शरद जी पहुंचे ७ अंकों पर तो इंदु जी ने खाता खोला २ अंकों के साथ. बधाई, याद रहे आज की पहेली के सही जवाब पर आप दोनों को ही एक एक अंक ही मिलेगा. देखते हैं आप जवाब लेकर आयेंगें या फिर कोई नया खिलाडी मिलेगा...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी:पंडित माधवराव सप्रे की "एक टोकरी भर मिट्टी"



आवाज़ के सभी श्रोताओं को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य रचना "नया साल" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं पंडित माधवराव सप्रे लिखित प्रेरणा-कथा "एक टोकरी भर मिट्टी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

"एक टोकरी भर मिट्टी" का कुल प्रसारण समय मात्र 4 मिनट 15 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




पं. माधवराव सप्रे (1878-1926)

स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायकों में से एक पंडित माधवराव सप्रे ने भारत में राजनैतिक चेतना जगाने के साथ-साथ साहित्य जगत में भी अपना योगदान दिया था. हिन्दी केसरी और छत्तीसगढ़ मित्र नामक पत्रिकाएं शुरू करने के अतिरिक्त उन्होंने सन १९०५ में नागपुर में हिन्दी ग्रन्थ प्रकाशन मंडली की स्थापना भी की थी. रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना उन्हीं की प्रेरणा से हुई थी. उन्होंने ही बाल गंगाधर तिलक के गीता रहस्य का हिन्दी अनुवाद किया था. उनकी पुस्तक "स्वदेशी एंड बॉयकौट" भी प्रसिद्ध हुई थी.

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Fifty Fourth Story, Ek Tokri Bhar Mitti: Madhavrao Sapre/Hindi Audio Book/2009/48. Voice: Anurag Sharma

Friday, January 8, 2010

सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देती...जब मुकेश ने उंडेला दर्द पंचम के स्वरों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 308/2010/08

ल एक गुदगुदाने वाला गीत आप ने सुना था 'पंचम के दस रंग' शृंखला के अंतर्गत। पंचम के संगीत की विविधता को बनाए रखते हुए आइए आज हम कल के गीत के ठीक विपरीत दिशा में जाते हुए एक ग़मगीन नग़मा सुनते हैं। अक्सर राहुल देव बर्मन के नाम के साथ हमें ख़ुशमिज़ाज गानें ही ज़्यादा याद आते हैं, लेकिन उन्होने कई गमज़दा गानें भी बनाए हैं जो बेहद मशहूर हुए हैं। आज के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह बहुत ख़ास इसलिए भी है क्योंकि इस गीत के गायक को पंचम दा ने बहुत ज़्यादा गवाया नहीं है। जी हाँ, मुकेश और पंचम की जोड़ी बहुत ही रेयर जोड़ी रही है। 'धरम करम' में "इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल" और 'कटी पतंग' फ़िल्म के गीत "जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा" दो ऐसे गीत हैं जो सब से पहले ज़हन में आते हैं मुकेश और पंचम के एक साथ ज़िक्र से। लेकिन इस जोड़ी का एक और गीत है जो आज हमने चुना है फ़िल्म 'मुक्ति' से। "सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देती, तुम्हारे प्यार की बातें हमें सोने नहीं देती"। आनंद बक्शी की गीत रचना है और पर्दे पर शशि कपूर पर फ़िल्माया हुआ गाना है।

फ़िल्म 'मुक्ति' को मुक्ति मिली थी सन् १९७७ में। राज तिलक निर्मित व निर्देशित इस फ़िल्म की कहानी लिखी थी ध्रुव चटर्जी ने और फ़िल्म में मुख्य किरदार निभाए शशि कपूर, संजीव कुमार, विद्या सिन्हा और बिन्दिया गोस्वामी ने। फ़िल्म की कहानी थोड़ी सी अलग हट के थी। कैलाश शर्मा (शशी कपूर) अपनी पत्नी (विद्या सिन्हा) और बेटी पिंकी के साथ जीवन बीता रहे होते हैं। अपनी बेटी से उन्हे बेहद प्यार है और रोज़ उसके लिए उपहार लाया करते हैं, पियानो पर उसे गाना भी सिखाते हैं। लेकिन एक रोज़ ग़लत फ़हमी के शिकार होकर एक औरत के साथ बलात्कार के झूठे आरोप में कैलाश को फाँसी की सज़ा हो जाती है। कैलाश की बीवी और बेटी शहर छोड़ कर चले जाते हैं। उनकी मुलाक़ात एक ट्रक ड्राइवर रतन (संजीव कुमार) से होती है। पिंकी (बिन्दिया गोस्वामी) और रतन में काफ़ी मेल जोल बढ़ता है लेकिन एक पिता और पुत्री के हैसीयत से। रतन के पिंकी के घर आते जाते रहने की वजह से लोग उनके रिश्ते पर सवाल उठाते हैं जिसकी वजह से दोनों शादी कर लेते हैं और साथ ही रहते हैं। समय बीतता है, रतन एक अमीर आदमी बन जाता है। उधर कैलाश की फाँसी की सज़ा माफ़ हो कर सिर्फ़ १० साल की क़ैद हुई थी, तो वो १० साल बाद जेल से रिहा हो जाता है। और उसकी तलाश शुरु होती है अपनी पत्नी और बेटी की। पिंकी के वो संस्पर्श में आते हैं और वो अपने परिवार के हक़ीक़त से रु-ब-रु हो जाता है। रतन को कैलाश की वापसी रास नहीं आती और वो उसे मार डालने की सोचता है। क्या होता है कहानी में आगे यह आप ख़ुद ही देखिएगा कभी मौका मिले तो। अब इस गीत के बारे में यही कहेंगे कि एक क्लब में कैलाश पियानो पर बैठ कर यह दर्द भरा गीत गा रहे होते हैं और सामने रतन और पिंकी बैठे उन्हे सुन रहे हैं, पिंकी इस बात से बिल्कुल बेख़बर कि वो दरअसल अपने पिता को सुन रही है, जिनसे कभी बचपन में पियानो बजाना सीखा करती थी। गीत के इंटर्ल्युड म्युज़िक के दौरान कैलाश फ़्लैशबैक में चला जाता है और अपनी पत्नी (विद्या सिन्हा) के साथ गुज़ारे लम्हों को याद करता है। पेश-ए-ख़िदमत है राहुल देव बर्मन और मुकेश के गिने चुने नग़मों में से एक चुनिंदा नग़मा आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

सपनों को उड़कर छू लेने दो आसमान
बेड़ियाँ न डालो ख़्वाबों के क़दमों में,
आँखों में भर जाने दो रेशमी किरणें,
शर्माती न रह जाए कहीं हसरतें दिल में

पिछली पहेली का परिणाम-
अवध जी तो पीछे रह गए, पर हमें मिले एक नए विजेता अनुपम गोयल के रूप में, अनुपम जी बधाई, २ अंकों से खता खुला आपका, शरद जी दूरदर्शी फैसला :), निर्मला जी आप बस सुनने का आनंद लें.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, January 7, 2010

मेरी जीवन नैय्या बीच भंवर में गुड़ गुड़ गोते खाए....कैसे रहेंगे मुस्कुराए बिना किशोर दा और पंचम दा के सदाबहार गीत को सुनकर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 307/2010/07

'पंचम के दस रंग' शृंखला में आज है हमारी आपको गुदगुदाने की बारी। राहुल देव बर्मन ने बहुत सारी फ़िल्मों में हास्य रस के गानें बनाए हैं। इससे पहले कि हम आज के गीत पर आएँ, हम उन तमाम हिट व सुपरहिट गीतों का ज़िक्र करना चाहेंगे जिनमें पंचम ने हास्य रस के रंग भरे हैं। नीचे हम एक पूरी की पूरी फ़ेहरिस्त दे रहे हैं, ज़रा याद कीजिए इन गीतों को, इनमें से कुछ गीत आगे चलकर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में भी शामिल होंगे ऐसी हम उम्मीद करते हैं।

१. कालीराम का फट गया ढोल (बरसात की एक रात)
२. गोलमाल है भई सब गोलमाल है (गोलमाल)
३. एक दिन सपने में देखा सपना (गोलमाल)
४. मास्टर जी की आ गई चिट्ठी (किताब)
५. कायदा कायदा आख़िर फ़ायदा (ख़ूबसूरत)
६. सुन सुन सुन दीदी तेरे लिए (ख़ूबसूरत)
७. नरम नरम गरम गरम (नरम गरम)
८. एक बात सुनी है चाचाजी (नरम गरम)
९. ये लड़की ज़रा सी दीवानी लगती है (लव स्टोरी)
१०. दुक्की पे दुक्की हो (सत्ते पे सत्ता)
११. जयपुर से निकली गाड़ी (गुरुदेव)

और इन सबसे उपर, फ़िल्म 'पड़ोसन' के दो गानें - "एक चतुर नार" तथा "मेरे भोले बलम"। और भी कई गीत हो सकते हैं जो इस वक़्त मेरे ज़हन में नहीं आ रहे हैं, लेकिन फ़िल्म 'पड़ोसन' के इन दो गीतों के सामने कोई और गीत टिक नहीं सकता ऐसा मेरा विचार है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कालजयी "एक चतुर नार" आप सुन चुके हैं और गीत के पीछे की कहानी भी हमने आपको उस दिन विस्तार से बताई थी। आज आइए सुनते हैं दूसरा गीत "मेरे भोले बलम", किशोर दा की सिर्फ़ आवाज़ ही नहीं बल्कि उनका अंदाज़-ए-बयाँ ही इस गीत की जान है, इस गीत की शान है।

राहुल देव बर्मन ने सब से ज़्यादा जिन प्रमुख गीतकारों के साथ काम किया है, वे हैं मजरूह सुल्तानपुरी, आनंद बक्शी, गुलशन बवारा और गुलज़ार। लेकिन फ़िल्म 'पड़ोसन' में ये कालजयी गीत लिखे थे राजेन्द्र कृष्ण जी ने। वैसे इस तरह के हास्य रस वाले गीतों के लिए राजेन्द्र कृष्ण साहब बहुत पहले से ही जाने जाते रहे हैं। ख़ास कर ५० के दशक में सी. रामचन्द्र के साथ कई फ़िल्मों में उन्होने इस तरह के गुदगुदाने वाले गानें लिख चुके थे। आइए आज "मेरे भोले बलम" गीत का थोड़ा सा विश्लेषण किया जाए। गीत शुरु होता है किशोर दा के सचिन देव बर्मन वाले अंदाज़ से, जिस तरह से "धीरे से जाना बगियन में" में सचिन दा का अंदाज़ था। उसके तुरंत बाद बंगाल के कीर्तन के रीदम में प्रील्युड म्युज़िक शुरु होता है और पूरे गीत में यही वैष्णव कीर्तन का अंदाज़ छाया रहता है। और साज़ भी वो ही इस्तेमाल हुए हैं जैसे कि कीर्तन में होता है, खोल, एकतारा वगेरह। मुखड़े की पंक्ति है "मेरे भोले बलम, मेरे प्यारे रे बलम, मेरा जीवन तेरे बिना, मेरे पिया, है वो दीया के जिसमें तेल ना हो..."। अजीब-ओ-ग़रीब उपमाओं का इस्तेमाल होता है जो आपको हँसाए बिना नहीं रहते। ये पंक्तियाँ दरअसल किशोर गा रहे हैं सुनिल दत्त साहब को यह समझाते हुए कि नायिका सायरा बानु इस तरह से उनके लिए गाएँगी। तो अब इसके बाद सुनिल दत्त उर्फ़ भोला किशोर दा से पूछ ही लेते हैं कि "गुरु, जब वो ऐसा कहेगी न, तब मैं जवाब क्या दूँगा?" इस पर किशोर दा जिस तरह से हँसते हैं, और जिस अंदाज़ में इस सवाल का जवाब देते हैं, बस किशोर दा ही कर सकते हैं। वो कहते हैं "कहना अनुराधा...", यह उस अंदाज़ में कहते हैं जिस अंदाज़ में १९३७ की फ़िल्म 'विद्यापति' में के. सी. डे ने "गोकुल से गए गिरिधारी" गीत में कहा था। सुनिल दत्त साहब ग़लती सुधार देते हैं कि उनकी नायिका अनुराधा नहीं बल्कि बिंदु है। तब गीत "मेरे भोले बलम" से बदल कर हो जाता है "मेरी प्यारी बिंदु" और अंत तक यही रहता है। इस गीत में गायन के अलावा किशोर दा ने अभिनय करते वक़्त जिन दो कलाकारों के नकल उतारे वो हैं संगीतकार खेमचंद प्रकाश और सचिन देव बर्मन। सचिन दा के चलने का अंदाज़ और खेमचंद जी के आँखों में सूरमा लगाने की अदा को बख़ूबी उतारा जिनीयस किशोर दा ने। गीत के आख़िर में किशोर दा बहुत ही ऊँचे सुर में बिल्कुल उसी तरह से आवाज़ लगाते हैं जिस तरह से किसी वैष्णव कीर्तन के आख़िरी हिस्से में होता है। दोस्तों, अब आप यह गीत सुनिए और गीत को सुनते हुए इन पहलुओं पर ग़ौर कीजिएगा जो अभी हमने आप को बताए, तो गाना सुनने का मज़ा और भी बढ़ जाएगा। चलते चलते राजेन्द्र कृष्ण, राहुल देव बर्मन, और किशोर कुमार को सलाम इस मास्टरपीस के लिए!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

वो मुलाकातें याद है क्या,
जब हवाएं और भी रेशमी हो जाया करती थी, तुम्हारा बदन चूमकर,
और फूल खिलते थे तुम्हारी मुस्कराहट देखकर,
मौसम रंग बदलता था पाकर तुम्हारी आँखों के इशारे...

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी २ और अंक जुड़े आपके खाते में, अवध जी देखिये आज अच्छा मौका है, आज शायद शरद जी जवाब न दें क्योंकि उन्हें मात्र एक ही अंक मिलेगा, पर आप सही जवाब देकर २ अंक कमा सकते हैं आज. पारो जी, यूनी कवि प्रतियोगिता मासिक है, और यहाँ भी यदि कोई विजेता बन जाता है तो कम से कम अगले दो और विजेताओं के आने बाद या फिर कोई माईल स्टोन एपिसोड के बाद ही हम उन्हें दोबारा खेलने का मौका देते हैं, धुरंधरों से टकरायेंगे तभी तो आपको अपनी ताकत का अंदाजा होगा :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, January 6, 2010

परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है....लगभग १० मिनट लंबी इस कव्वाली का आनंद लीजिए पंचम के साथ



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 306/2010/06

राहुल देव बर्मन के रचे दस अलग अलग रंगों के, दस अलग अलग जौनर के गीतों का सिलसिला जारी है इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज इसमें सज रही है क़व्वाली की महफ़िल। पंचम के बनाए हुए जब मशहूर क़व्वालियों की बात चलती है तो झट से जो क़व्वालियाँ ज़हन में आती हैं, वो हैं फ़िल्म 'दीवार' में "कोई मर जाए किसी पे ये कहाँ देखा है", फ़िल्म 'कसमें वादे' में "प्यार के रंग से तू दिल को सजाए रखना", फ़िल्म 'आंधी' में "सलाम कीजिए आली जनाब आए हैं", फ़िल्म 'हम किसी से कम नहीं' की शीर्षक क़व्वाली, फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' में "पल दो पल का साथ हमारा", और 'ज़माने को दिखाना है' फ़िल्म की मशहूर क़व्वाली "परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है", जो इस फ़िल्म का शीर्षक ट्रैक भी है। तो इन तमाम सुपरहिट क़व्वालियों में से हम ने यही आख़िरी क़व्वाली चुनी है, आशा है आप सब इस क़व्वाली का लुत्फ़ उठाएँगे। बार बार इस शृंखला में नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़ी का ज़िक्र आ रहा है, और आज की यह क़व्वाली भी इसी तिकड़ी की उपज है। सचिन भौमिक की कहानी पर निर्माता निर्देशक नासिर हुसैन ने यह फ़िल्म बनाई, जिसके मुख्य कलाकार थे ऋषी कपूर और पद्मिनी कोल्हापुरी। १९८१ की इसी फ़िल्म में पद्मिनी कोल्हापुरी पहली बार बतौर नायिका पर्दे पर नज़र आईं। इससे पहले कई फ़िल्मों में वो बतौर बाल कलाकार काम कर चुकी हैं, जिनमें 'सत्यम शिवम सुंदरम' उल्लेखनीय है। 'ज़माने को दिखाना है' फ़िल्म का संगीत हिट रहा लेकिन फ़िल्म नासिर हुसैन की पिछली तीन फ़िल्मों (हम किसी से कम नहीं, यादों की बारात, कारवाँ) की तरह बॊक्स ऒफ़िस पर सफल नहीं रही।

'ज़माने को दिखाना है' फ़िल्म की इस शीर्षक क़व्वाली में आप आवाज़ें सुनेंगे शैलेन्द्र सिंह, आशा भोसले और स्वयं ऋषी कपूर की। आइए इस क़व्वाली के ज़िक्र को आगे बढ़ाने से पहले जान लेते हैं कि आशा जी ने अपने जीवन साथी पंचम से पहली मुलाक़ात का विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में किस तरह से ज़िक्र किया था - "यह बहुत पुरानी बात है, फ़िल्म 'अरमान' में एस. डी. बर्मन, यानी दादा के लिए मैं गा रही थी। रिकार्डिंग् रूम में एक जवान लड़का आया। बर्मन दादा ने कहा कि आशा, ये मेरा लड़का है। मैंने कहा नमस्ते जी, कैसे हैं आप? उन्होने मुझसे ऒटोग्राफ़ लिया और चले गए। फिर कुछ दिनों के बाद हमारी मुलाक़ात हुई। दादा ने कहा कि पंचम, आशा को ज़रा गाना सीखा। उसके बाद उनके लिए गाते गाते मुझे क्या पता था कि उनके लिए खाना भी पकाना पड़ेगा और उनका घर भी संभालना पड़ेगा!" दोस्तों, वापस आते हैं आज की क़व्वाली पर। हाँ तो हम ज़िक्र कर रहे थे कि इस क़व्वाली में ऋषी कपूर की भी आवाज़ शामिल है। इसमें उनके संवाद हैं। क़व्वाली की शुरुआत ही उनके संवाद से होती है कुछ इस क़दर। "हज़रात, आज की शाम इस महफ़िल में आपके पसंदीदा क़व्वाल चुलबुले असरानी साहब को बुलाया गया था, मगर अचानक तबीयत ख़राब हो जाने की वजह से वो चुलबुले गुलबुले से गुलगुले होकर बुलबुले हो चुके हैं। इसलिए यहाँ नहीं आ सके। उनके ना आने की मैं जनाब कर्नल टिपसी से माफ़ी चाहता हूँ इस ग़ुज़ारिश के साथ कि उनकी ये हसीन महफ़िल साज़ और आवाज़ के जादू से महरूम नहीं रहेगी। अगर मेरे सीने में दिल है और उस दिल में तड़प है और उसका असर तड़प लाज़मी है। अपने आवाज़ से सब दिलों को जीतने का वायदा तो नहीं कर सकता, पर हुज़ूर अगर ये नाचीज़ एक रात में एक दिल भी जीत सका तो मेरी क़िस्मत चमक उठेगी।" और साहब, नायिका को इम्प्रेस करने का इससे बेहतर मौका भला और क्या हो सकता था! आइए रंग जमाया जाए इस हसीन शाम का इस मचलती क़व्वली के साथ। "क्या इश्क़ ने समझा है क्या हुस्न ने जाना है, हम ख़ाक नशीनों की ठोकर में ज़माना है"। मुलाहिज़ा फ़रमाइए!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

झटपट समझ लेती हैं,
ऑंखें आखों की भाषा,
बस एक उजाला दिख जाए,
मन जाग उठे फिर आशा

पिछली पहेली का परिणाम-
कोई जवाब नहीं, कहाँ खो गए हमारे धुरंधर सब....इतना मुश्किल तो नहीं था, और फिर चारों शब्द भी दिए गए थे....फिर ? इंदु जी और पाबला जी जाने कहाँ है इन दिनों, इंदु जी, आप विजेता हैं अपनी पसंद के ५ गीतों की सूची जल्दी से भेजिए

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना.. इसरार अंसारी के बोलों के सहारे प्यार की कसमें खा रहे हैं रूप कुमार और सोनाली



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६५

मारी यह महफ़िल इस बात की गवाह रही है कि आज तक सैकड़ों ऐसे फ़नकार हुए हैं जिनके सहारे या यूँ कहिए जिनके दम पर दूसरे फ़नकार संगीत की चोटी पर पहुँच गए, लेकिन उन्हें वह सब कुछ हासिल न हुआ जिनपर उनका पहला हक़ बनता था। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। ऐसे कम हीं लोग होंगे (न के बराबर) जिन्होंने इस गज़ल को सुना न होगा, लेकिन शायर को जानने वाला कोई इक्का-दुक्का हीं मिलेगा और वह भी मिल गया तो गनीमत है। वहीं अगर हम इस बात का जिक्र करें कि इस गज़ल को गाया किसने है तब तो जवाबों की झड़ी लग जाएगी..आखिरकार जो दिखता है वही बिकता है। हम यहाँ पर इस बात की वकालत नहीं कर रहे कि गायकों को हद से ज्यादा रूतबा हासिल होता है, बल्कि समाज की कचहरी में यह अर्जी देना चाहते हैं कि शायरों को बराबर न सही तो आधा हीं महत्व मिल जाए..उनके लिए यह हीं काफी होगा। अगर हम आपको यह कहें कि इस शायर ने हीं "ज़िंदगी मौत न बन जाए संभालो यारों(सरफ़रोश)", "आँखें भी होती है दिल की जुबां(हासिल)", "क्या मेरे प्यार में दुनिया को भूला सकते हो(मनपसंद)", आखिरी निशानी(जब दिल करता है पीते हैं)", "आपका मकान बहुत अच्छा है(हम प्यार तुम्हीं से कर बैठे)", "प्यार में चुप चुप के(मितवा)" जैसी गज़लें और नज़्में लिखी थीं, मेरा दावा है कि तब भी आप इन्हें पहचान न पाएँगे। अरे भाई, उदास मत होईये..इसमें आपकी कोई गलती नहीं, यह तो अमूमन हर शायर के साथ होता है, यही तो सच्चाई है शायरों की। आपको बता दें कि इस शायर को सबसे ज्यादा जिन दो फ़नकारों ने गाया है, आज हम उन्हीं की गज़ल लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं। तो राज़ को ज्यादा देर तक राज़ न रखते हुए, हमें यह बताने में बहुत खुशी हो रही है कि उस शायर का नाम है इसरार अंसारी और वे दोनों फ़नकार हैं रूप कुमार राठौर और सोनाली (आजकल सुनाली) राठौर। आपलोग रूप कुमार और सोनाली से तो बड़े अच्छे तरीके से वाकिफ़ होंगे तो क्या आप यह जानते हैं कि रूप कुमार गायक बनने से पहले अनुप जलोटा के साथ काम किया करते थे, उनके ग्रुप में तबला-वादक थे और सोनाली पहले सोनाली जलोटा हुआ करती थीं। आगे चलकर सोनाली... राठौर हो गईं और रूप कुमार गायक। इस घटना का असर इन दोनों परिवारों पर कितना हुआ, यह तो हमें नहीं पता लेकिन इतना पता है कि सोनाली के राठौर हो जाने से संगीत जगत का बड़ा फ़ायदा हुआ। जरा सोचिए तो..अगर यह न हुआ होता तो क्या हमें रूप कुमार-सोनाली मिलते और क्या ऐसी चाशनी में डूबी हुई गज़लें हमें सुनने को नसीब होतीं। नहीं ना? अब इनके बारे में हम कुछ कहें इससे अच्छा है कि इनकी कहानी इन्हीं की जुबानी सुन ली जाए। तो roopsunali.com से साभार हम ये सारी जानकारियाँ आपके लिए लेकर हाज़िर हुए हैं। मुलाहजा फरमाईयेगा।

यह इंटरव्यु तब का है जब गुलजार साहब की "हु तू तू" रीलिज होने वाली थी कि यानि कि १९९९ की बात है। अपने बारे में रूप कुमार कहते हैं: आज मैं फिल्मों के लिए कुछ चुनिंदा गाने गाकर हीं संतुष्ट हूँ। ज्यादातर वक्त मैं अपनी पत्नी सोनाली के साथ गैर फिल्मी एलबम की तैयारी में हीं व्यस्त रहता हूँ। मुझे खुशी इस बात की है कि बार्डर के बाद मुझे मनमुताबिक गाने का मौका मिल रहा है। रूटीन टाईप के गाने अब मेरे पास नहीं आ रहे। संगीतकार अब मेरी रेंज और मेरी रूचि को काफी हद तक समझने लगे हैं। यह मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य है कि गुलज़ार, जावेद अख्तर, राहत इंदौरी जैसे गीतकारों के साथ काम करने का मुझे अवसर मिल रहा है। गुलज़ार साहब के "हु तू तू" में मैने चार गाने गाए हैं, चारों एक से बढकर एक हैं और चारों अलग-अलग मिजाज के हैं। चारों गाने नाना पाटेकर पर फिल्माए गए हैं। यह मेरे लिए एक दिलचस्प चुनौती रही है क्योंकि नाना कोई रोमांटिक या रेगुलर हीरो नहीं है। इन गीतों के नएपन का आलम यह है कि इसके एक गाने "बंदोबस्त है, बंदोबस्त" को मैंने कई बार अलग-अलग ढंग से गाया पर मज़ा नहीं आ रहा था। तब विशाल जी(विशाल भारद्वाज) ने मुझे दिलचस्प बात बताई। उन्होंने कहा कि कल नाना आए थे। उन्होंने पूरा गाना सुना है। उन्होंने कहा कि गाने का सिचुएशन ऐसा है कि लगना चाहिए कि गाने वाले के गले से खून टपक रहा है। यह सुनकर मैंने अपने आप को भुला दिया। मैंने तय किया कि भले हीं यह मेरा आखिरी गाना साबित हो लेकिन मैं वही मूड लाऊँगा जो नाना चाहते हैं। गाना सुनकर नाना ने मुझे गले से लगा लिया। यह मेरी सबसे बड़ी तारीफ़ थी। आजकल जैसे गाने मैं गा रहा हूँ, उन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि फिल्मी गानों के बारे में मेरी जो शास्त्रीय सोच थी मुझे वैसे हीं गाने मिल रहे हैं। मैं इसके लिखे खुद को खुशकिस्मत मानता हूँ। मैंने न सिर्फ़ फिल्मों और एलबमों में गाने गाए हैं, बल्कि कई धारावाहिकों में भी गाया है। श्याम बेनेगल की "भारत एक खोज" में मैने पारंपरिक ध्रुपद गाया है। उस्ताद अमजद अली खान के संगीत निर्देशन में धाराविक "गुफ्तगू" में गज़ल गाई है। संगीतकार वनराज भाटिया ने ध्यान के एक प्रयोगत्माक एलबम में मेरी आवाज़ इस्तेमाल की है। वीनस द्वारा जारी मेरा पहला एलबम "इशारा" काफी लोकप्रिय हुआ। इसकी एक गज़ल "वो मेरी मोहब्बत का गुजरा जमाना" (आज की गज़ल) तो आज भी गज़ल-प्रेमी गुनगुनाते हैं। इस एलबम में मेरे साथ सोनाली भी थी। वीनस द्वारा रीलिज किया गया "खुशबू" भी काफी पसंद किया गया। मेरा नया एलबम है "मितवा"। यह एलबम हमने दिल से बनाया है। हमें यकीन है कि यह हमारे प्रशंसकों के दिलों को उसी तरह धड़का देगा जिस तरह बनाते समय हमारे दिल धड़के हैं। इस पैराग्राफ़ की शुरूआत में हमने बार्डर की बात की। तो क्या आपको मालूंम है कि "संदेशें आते हैं" के लिए रूप कुमार जी को "बेस्ट सिंगर" की श्रेणी(शायद जी सिने अवार्ड्स) में नामांकित नहीं किया गया था। यह गाना भले हीं एक दोगाना हो लेकिन न जाने किस वज़ह से बस सोनू निगम को नामांकित किया गया। सोनू निगम पुरस्कार जीत भी गए..लेकिन उन्होंने इस पुरस्कार को लेने से मना कर दिया यह कहकर कि इस पुरस्कार पर दोनों का बराबर हक़ बनता है। नामांकित न होने से जहाँ रूप कुमार नाराज़ दिखे वहीं पुरस्कार नकारने पर सोनू निगम की काफी प्रशंसा की गई।........ अरे किन पुरानी यादों में खो गए हम। चलिए अब सोनाली राठोर की बारी है। अब उनसे भी रूबरू हो लिया जाए।

सोनाली कहती हैं: मेरी गायिकी का आधार शास्त्रीय गायन है। पर सच कहूँ तो बचपन में गायन की प्रति मेरा आकर्षण फिल्मी गानों के चलते हीं हुआ था। मेरी माँ लीना सेठ शास्त्रीय नृत्य के क्षेत्र में काफी नाम कमा चुकी थीं। दादा जी अमृतलाल सेठ गुजराती अखबार "जन्म-भूमि" के संपादक थे। जाहिर है कला और साहित्य का मुझपर गहरा प्रभाव था। उन दिनों मैं स्टेज पर रफ़ी जी और आशा जी के गाने खूब गाती थी। ऐसे हीं एक कार्यक्रम में हृदयनाथ मंगेशकर जी से मेरा परिचय माँ ने करवाया। दस साल की छोटी उम्र से मैं हृदयनाथ जी की शिष्या हूँ। शास्त्रीय गायन की तरफ मेरा झुकाव उन्हीं की वजह से हुआ। बीच में गले की खराबी की वज़ह से मैं गायन से दूर हो गई थी। तब उन्हीं ने सुझाव दिया कि मैं कोई साज बजाना शुरू कर दूँ। मैंने सितार बजाने में अपना सारा ध्यान लगा दिया। आज जबकि ईश्वर की दुआ से मैं फिर गा रही हूँ तो सितार बजाना मैंने छोड़ दिया है। मुझे पहली बार शोहरत मिली गुजराती गानों की एक डिस्क से, जिसका संगीत संयोजन पुरूषोत्तम उपाध्याय ने किया था। १९८५ में मेरा पहला गज़ल एलबम "आगाज़" रीलिज हुआ। इस एलबम की सफलता के बाद मेरे पाँच एलबम "भजन-कलश", "दिलकश", "खजाना-८५", "भजन-यात्रा-८६" और "शबनम" रीलिज हुए। मैंने धारावाहिक "जान-ए-आलम" और "बहादुर शाह ज़फ़र" के लिए भी गाया। १९८६ में मुझे अमीरात इंटरनेशनल की ओर से सर्वश्रेष्ठ गज़ल-गायिका का पुरस्कार मिला। मैंने गुजराती के आधुनिक गानों के एक एलबम "मोगरा नो फूल" में भी गाने गाए। हिन्दी फिल्मों में मैंने "बार्डर" के लिए "हिन्दुस्तान-हिन्दुस्तान" गाया था, लेकिन चूँकि उसे फिल्म से काट दिया गया इसलिए उसकी ज्यादा चर्चा न हो सकी। मेरे पति रूप एक बहुत अच्छे गायक हैं। हम दोनों मोहब्बत से भरी गज़लें सिर्फ़ गाते हीं नहीं हैं, उन्हें वास्तविक जीवन में जीते भी हैं। सोनाली जी के बारे में इस तरह हमें बहुत कुछ जानने को मिला। अभी और भी ऐसी चीजें हैं जो हम आपसे शेयर करना चाहते हैं, लेकिन वो सब फिर कभी। अभी तो हम बढते हैं आज की गज़ल की ओर। उससे पहले आज के गज़लगो के चंद शेरों पर गौर फरमा लिया जाए। यह करना इसलिए भी लाजिमी हो जाता है क्योंकि इसके अलावा हम इनके सम्मान में और कुछ कर भी नहीं सकते हैं। तो यह रही वो पेशकश:

दामन मे कंकड़ों के अंबार हैं तो क्या है,
बन जाएँगे ये गौहर अल्लाह के सहारे।

तय कर लिया समंदर अल्लाह के सहारे,
बदला मेरा मुकद्दर अल्लाह के सहारे।


इन दो शेरों के बाद हम रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। इस गज़ल को हमने लिया है "रूप कुमार-सोनाली" के पहले एलबम "इशारा" से। यह गज़ल तब भी बड़ी मकबूल थी और आज भी उतनी हीं मकबूल है। और हो भी क्यों न जब असल ज़िंदगी के जोड़ीदार गज़ल में अपनी ज़िंदगी को पिरो रहे हों..। जमाने-भर की रूमानियत मखमली आवाज़ के बहाने ओठों से टपक न पड़े तो और क्या हो.. क्या कहते हैं आप? और हाँ सुनते-सुनते आप इसरार साहब के बोलों को गुनना मत भूल जाईयेगा:

वो मेरी मोहब्बत का गुजरा जमाना,
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना।

हवा, तेज बारिश, वो तूफ़ां की आमद,
और ऐसे में भी तेरा वादा निभाना।
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना॥

समुंदर किनारे वो रेतों पे अक्सर,
मेरा नाम लिखना, लिखके मिटाना।
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना॥

कुछ ऐसी अदा से तेरा देख लेना,
बिना कुछ पिए हीं मेरा लड़खड़ाना।
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना॥

वो एकबार तेरी _____ से तौबा,
मेरा रूठ जाना तेरा मनाना।
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना॥




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "कुदरत" और शेर कुछ यूं था -

खुसरो कहै बातें ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर।

सीमा जी ने सबसे पहले इस शब्द को पहचाना। ये रहे वो शेर जो आपने महफ़िल में पेश किए:

वो आये घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है
कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं (ग़ालिब)

चश्म्-ए-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
दस्त-ए-कुदरत को बे-असर कर दे (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)

जिस्म के ज़िन्दाँ में उम्रें क़ैद कर पाया है कौन.
दख्ल कुदरत के करिश्मों में भला देता है कौन. (ज़ैदी जाफ़र रज़ा)

नीलम जी और निर्मला जी, यह आप लोगों का प्यार हीं है जो हमें प्रोत्साहित करता रहता है और फिर हमें भी तो हर बार किसी न किसी भूल-बिछड़े(गीत) को जानने का मौका मिल जाता है। बस यही आग्रह है कि आप लोग यह स्नेह हमेशा बरकरार रखिएगा।

मंजु जी, शायद यह आपका स्वरचित शेर हीं है। है ना?

कुदरत की महिमा की नहीं है मिसाल ,
सृष्टि में भरे हैं रंग बेमिसाल .

अवध जी, किस शायर के नाम यह शेर डालूँ? :) स्वरचित हो तो स्वरचित डाल दें बगल में नहीं तो शायर का हीं जिक्र कर दें...हमें सहुलियत होगी:

कुछ ऐसी प्यारी शक्ल मेरे दिलरुबा की है.
जो देखता है कहता है कुदरत ख़ुदा की है

शामिख जी, इतनी देर कहाँ लगा दी आपने? समय का ख्याल रखा करें और आप तो कभी हमारी महफ़िल की शोभा हुआ करते थे..क्या हुआ? अगली बार से ध्यान रखिएगा :) यह रही आपकी पेशकश:

कुदरत ने देखो पत्तों को
है एक नया परिधान दिया
दुल्हन जैसे करके श्रृंगार
सकुची शरमाई है
क्या पतझड़ आया है? (तेजेन्द्र शर्मा)

खेत, शजर, गुल बूटे महके, पग—पग पर हरियाली लहके
लफ़्ज़ों में क्या रूप बयाँ हो कुदरत के इस पैराहन का (सुरेश चन्द्र)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, January 5, 2010

देखो ओ दीवानों तुम ये काम न करो...धार्मिक उन्माद के नाम पर ईश्वर को शर्मिंदा करने वालों को सीख देता एक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 305/2010/05

'पंचम के दस रंग' शृंखला का आज का रंग है भक्ति रस का। राहुल देव बर्मन ने जब जब कहानी में सिचुयशन आए हैं, उसके हिसाब से भक्ति मूलक गानें बनाए हैं। कुछ गानें गिनाएँ आपको? फ़िल्म 'अमर प्रेम' का "बड़ा नटखट है रे कृष्ण कन्हैया", फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' का "आओ कन्हाई मेरे धाम", फ़िल्म 'बुड्ढा मिल गया' का "आयो कहाँ से घनश्याम", फ़िल्म 'नरम गरम' का "मेरे अंगना आए रे घनश्याम आए रे", फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' का "तेरी है ज़मीं तेरा आसमाँ", आदि। लेकिन आज हमने जिस गीत को चुना है वह एक भक्ति गीत होने के साथ साथ उससे भी ज़्यादा उपदेशात्मक गीत है। यह गीत आज की पीढ़ी, जो क्षणिक भोग की ख़ातिर ग़लत राह पर चल पड़ते हैं, उस पीढ़ी को सही राह पर लाने की एक छोटी सी अर्थपूर्ण कोशिश है। 'फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' का यह गीत है "देखो ओ दीवानो तुम ये काम ना करो, राम का नाम बदनाम ना करो"। फ़िल्म की कहानी तो आपको मालूम ही है, और हमने इस फ़िल्म की चर्चा भी की थी किशोर कुमार पर आयोजित लघु शूंखला के दौरान। देव आनंद की बहन ज़ीनत अमान पारिवारिक अशांति और अस्थिरता से तंग आ कर हिप्पियों के दल में भिड़ जाती है और आम ज़िंदगी छोड़ नेपाल की तंग गलियों में अफ़ीम गांजे की नशा खोरी में मग्न हो जाती है। बरसों बाद अपनी बहन की तलाश में देव आनंद आख़िर आ ही पहुँचते हैं अपनी बहन के पास, लेकिन बहुत देर हो चुकी होती है। हिप्पि लोग अक्सर राम और कृष्ण के भक्त होने की दुहाई देकर नशा करते हैं। इसी ढ़ोंग के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह गीत जिसे आनंद बक्शी के सशक्त बोलों, राहुल देव बर्मन के भावपूर्ण धुनों और किशोर दा की मीठी आवाज़ ने अमर बना दिया है। फ़िल्म में यह गीत उसी वक्त शुरु हो जाता है जैसे ही आशा भोसले, उषा अय्यर और साथियों का गाया हुआ हिप्पिओं पर फ़िल्माया "आइ लव यु... हरे रामा हरे कृष्णा" गीत ख़त्म होता है। नशे में लीन हिप्पि झूम रहे होते हैं उस गीत के साथ और जैसे ही गीत ख़त्म होता है देव साहब अपने गीत से उन पर उपदेशों के बाण चलाने लग जाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस गीत का हर एक शब्द उपदेशात्मक है जो हमें सोचने पर विवश कर देता है कि हम जिस राह पर चल रहे हैं क्या वह राह सही है? इस गीत को अगर हर कोई अपने अपने जीवन में अपना लें तो हर किसी का जीवन सुधर सकता है, एक सुंदर शांत समाज की स्थापना हो सकती है। यह कतई न समझें कि यह गीत केवल हिप्पियों पर आरोप मात्र है, बल्कि यह हम सभी के लिए उतना ही सार्थक है।

'हरे रामा हरे कृष्णा' फ़िल्म की बातें हमने पहले की है, इसलिए आज कुछ और बातें की जाए! दोस्तों, राहुल देव बर्मन की बातें तो हम जारी रखेंगे ही इस शृंखला में भी और आगे भी, लेकिन आज आइए आनंद बक्शी साहब की कुछ बातें हो जाए। बल्कि उन्ही के कहे हुए शब्द जो १९७६ में विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम के लिए रिकार्ड किया गया था। बक्शी साहब कहते हैं, "मुझे वो दिन याद है जब सर्द रातों को पहाड़ों के नीचे बैठ कर लाउड स्पीकर में गानें सुना करता था, और सोचा करता था कि क्या ऐसा भी दिन आएगा कि जब इसी लाउड स्पीकर के नीचे बैठ कर लोग मेरे गीत सुनेंगे। बेशक़ वो वक़्त भी आया, लेकिन एक बात कहूँ आप से वहाँ आप के साथ चैन और सुकून था और यहाँ? ख़ैर छोड़िए! गीत देसी भी होते हैं और बिदेसी भी। मैं एक प्रोफ़ेशनल सॊंग् राइटर हूँ, इसलिए मुझे हर तरह के गानें लिखने पड़ते हैं। लेकिन वो गानें जिनमें इस देश की ख़ुशबू और रंग हो, वह बड़ा मज़ा देते हैं।" दोस्तों, बक्शी साहब ने जिस सुकून और देसी रंग का ज़िक्र यहाँ किया, हम आज के गीत के संदर्भ में बस यही कह सकते हैं कि यह गीत आपको उतना ही सुकून प्रदान करेगा जितना कि इस गाने में हमारे देश की संस्कृति छुपी हुई है। आइए सुनते हैं।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

कभी उल्फत की राहों में,
मुमकिन है भटक जाना भी,
साये में तलवार के चलना है,
खेल नहीं दिल का लगना भी....

पिछली पहेली का परिणाम-
रोहित जी बहुत स्वागत है आपका, २ अंक से खाता खुला है, इस बार नियमित रहिएगा, दिलीप जी वाकई ये गीत संगीत संयोजन के लिहाज से लाजवाब है...शरद जी आप तो गुरु हैं आपका क्या कहना, वैसे पहेली का फॉर्मेट आपको अच्छा लग रहा है जानकार खुशी हुई, किसी स्थापित चीज़ को हटा कर कुछ नया करना आसान नहीं होता, जब पहले दिन किसी का जवाब नहीं आया तो शंकित सा हो गया था. पर आपने जब जवाब दिया तो मन हल्का हो गया...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

साल 2010 की पहली गीतों भरी कहानी



गुनगुनाते लम्हे- 4

आज जनवरी महीना का पहला मंगलवार है। पहला मंगलवार मतलब गुनगुनाते लम्हे का दिन। वैसे देखा जाये तो आज का दिन साल 2010 का भी पहला मंगलवार है। तो चलिए आज के दिन को गीतों भरी कहानी से रुमानी बनाते हैं। अपराजिता की दिकलश आवाज़ में गुनते हैं रश्मि प्रभा की कहानी।



'गुनगुनाते लम्हे' टीम
आवाज़/एंकरिंगकहानीतकनीक
Aprajita KalyaniRashmi PrabhaKhushboo
अपराजिता कल्याणीरश्मि प्रभाखुश्बू


आप भी चाहें तो भेज सकते हैं कहानी लिखकर गीतों के साथ, जिसे दूंगी मैं अपनी आवाज़! जिस कहानी पर मिलेगी शाबाशी (टिप्पणी) सबसे ज्यादा उनको मिलेगा पुरस्कार हर माह के अंत में 500 / नगद राशि।

हाँ यदि आप चाहें खुद अपनी आवाज़ में कहानी सुनाना तो आपका स्वागत है....


1) कहानी मौलिक हो।
2) कहानी के साथ अपना फोटो भी ईमेल करें।
3) कहानी के शब्द और गीत जोड़कर समय 35-40 मिनट से अधिक न हो, गीतों की संख्या 7 से अधिक न हो।।
4) आप गीतों की सूची और साथ में उनका mp3 भी भेजें।
5) ऊपर्युक्त सामग्री podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल करें।

Monday, January 4, 2010

चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे...मन्ना डे और लता ने ऐसा समां बाँधा को होश उड़ जाए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 304/2010/04

'हिंद युग्म' और 'आवाज़' की तरफ़ से, और हम अपनी तरफ़ से आज राहुल देव बर्मन यानी कि हमारे चहेते पंचम दा को उनकी पुण्यतिथि पर अर्पित कर रहे हैं अपनी श्रद्धांजली। जैसा कि इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं उन्ही के स्वरब्द्ध किए अलग अलग रंग के, अलग अलग जौनर के गानें। पहली कड़ी में आप ने मन्ना डे और लता मंगेशकर का गाया हुआ एक बड़ा ही मीठा सा शास्त्रीय रंग वाला गाना सुना था फ़िल्म 'जुर्माना' का। आज बारी है लोक रंग की, लेकिन एक बार फिर से वही दो आवाज़ें, यानी कि लता जी और मन्ना दा के। लेकिन यह गाना बिल्कुल अलग है। जहाँ उस गाने में गायकी पर ज़ोर था क्योंकि एक संगीत शिक्षक और एक प्रतिभाशाली गायिका के चरित्रों को निभाना था, वहीं दूसरी तरफ़ आज के गाने में है भरपूर मस्ती, डांस, और छेड़-छाड़, जिसे सुनते हुए आप भी मचलने लग पड़ेंगे। संगीत, बोल और गायकी के द्वारा गाँव का पूरा का पूरा नज़ारा सामने आ जाता है इस गीत में। ग़ज़ब की मस्ती है इस गीत में। यह गीत है नासिर हुसैन की फ़िल्म 'बहारो के सपने' का "चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे", और जैसा कि कल ही हमने आपको बताया था कि नासिर साहब के इस फ़िल्म में मजरूह साहब ने गानें लिखे थे। दोस्तों, जब पंचम ने पहली पहली बार इस गीत को कॊम्पोज़ कर के नासिर साहब को सुनवाया था तो नासिर साहब को कुछ ख़ास अच्छा नहीं लगा। उन्होने कहा कि कुछ कमी है इस गीत में, गीत कुछ जमा नहीं। तब पंचम के दिमाग़ में यह ख़याल आया कि जब मुखड़ा रिपीट होता है, अगर उस वक़्त लता जी से "ह अअ" गवाया जाए तो गाने में जिस एक्स-फ़ैक्टर की कमी लग रही है, वह पूरी हो सकती है। उन्होने नासिर साहब से यह बात कहे तो नासिर साहब ख़ुशी से उछल पड़े। कहने लगे कि यही तो चाहिए था, और इस तरह से यह गीत बना। और क्या बना साहब, आज भी यह गीत रेडियो पर आते ही हमारे क़दम थिरकने लग उठते हैं। लोक धुनों पर आधारित गीतों की जब जब बात चलेगी, इस गीत का ज़िक्र अनिवार्य हो जाएगा।

'बहारों के सपने' फ़िल्म का निर्माण सन् 1967 में नासिर हुसैन ने किया था और उन्होने ही इस फ़िल्म की कहानी को लिखा व फ़िल्म को निर्देशित किया। नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़ी ने एक बार फिर गीत संगीत के पक्ष में कमाल कर दिखाया और इस फ़िल्म के सभी गानें बेहद मक़बूल हुए। फ़िल्म में संवाद लिखे राजेन्द्र सिंह बेदी ने और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राजेश खन्ना, आशा पारेख व प्रेम नाथ प्रमुख। फ़िल्म की कहानी एक औद्योगिक मिल के मज़दूरों और मालिक के बीच के अन बन की कहानी है। इस पार्श्व पर बहुत सारी फ़िल्में समय समय पर बन चुकी है और कहानी में बहुत ज़्यादा ख़ास बात नहीं है। लेकिन एक अच्छा फ़िल्मकार एक साधारण कहानी को भी एक कामयाब फ़िल्म में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है और नासिर साहब ने भी इसी बात का प्रमाण दिया है इस फ़िल्म में। जहाँ तक इस थिरकते हुए गीत का सवाल है, इसमें बेला बोस और जयश्री गाडकर के नृत्य का सुंदर प्रदर्शन देखने को मिलता है। सुरेश भट्ट का नृत्य निर्देशन इस गीत में सराहनीय रहा। तो आइए हम सब मिल कर झूम जाते हैं बहारों के सपनों के साथ, इन लोक धुनों के साथ, लता जी और मन्ना दा के स्वरों के साथ, पंचम और मजरूह के इस गाने के साथ!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

रहा नींद में ही उम्र भर,
वो इश्क नशे का मारा,
मुगालते में जीत की जो,
सब कुछ अपना हारा...

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी, लगातार दूसरी बार आपने सही जवाब दिया, ३ अंक हुए आपके, आप पूछेंगें ३ क्यों ? तो थोडा सा बदलाव किया है पहली की मार्किंग में. कोई भी जो एक बार सही जवाब देगा वही यदि अगली कड़ी में भी सही जवाब देगा तो उसे २ की जगह १ अंक से ही संतुष्ट होना पड़ेगा, ऐसा तब तक होगा जब तक कोई दूसरा सही जवाब पहले देकर २ अंक न कमा लें. यानी कि यदि आज कोई आपसे पहले सही जवाब दे गया तो उसे तो २ अंक मिलेंगे ही आपके अगले जवाब में फिर से आपको २ अंक मिल जायेगें, ऐसा इसलिए करना पड़ा ताकि कोई तो हो जो आपकी टक्कर में खड़ा रह सके :), बधाई आज के लिए.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

दूल्हा मिल गया...शाहरुख़ के कधों पर ललित पंडित के गीतों की डोली...



ताज़ा सुर ताल ०१/ २०१०

सजीव - गुड्‍ मॊर्निंग् सुजॊय! और बताओ न्यू ईयर कैसा रहा? ख़ूब जम के मस्ती की होगी तुमने?

सुजॊय - गुड्‍ मॊर्निंग् सजीव! न्यू ईयर तो अच्छा रहा और इन दिनों कड़ाके की ठंड जो पड़ रही है उत्तर भारत में, तो मैं भी उसी की चपेट में हूँ, इसलिए घर में ही रहा और रेडियो व टेलीविज़न के तमाम कार्यक्रमों, जिनमें २००९ के फ़िल्मों और उनके संगीत की समीक्षात्मक तरीके से प्रस्तुतिकरण हुआ, उन्ही का मज़ा ले रहा था।

सजीव - ठीक कहा, पिछले कुछ दिनों में हमने २००९ की काफ़ी आलोचना, समालोचना कर ली, अब आओ कमर कस लें २०१० के फ़िल्म संगीत को सुनने और उनके बारे में चर्चा करने के लिए।

सुजॊय - मैं समझ रहा हूँ सजीव कि आपका इशारा किस तरफ़ है। 'ताज़ा सुर ताल', यानी कि TST की आज इस साल की पहली कड़ी है, और इस साल के शुरु से ही हम इस सीरीज़ में इस साल रिलीज़ होने वाले संगीत को रप्त करते जाएँगे।

सजीव - हाँ, और हमारी अपने पाठकों और श्रोताओं से यह ख़ास ग़ुज़ारिश है कि अब की बार आप इसमें सक्रीय भूमिका निभाएँ। केवल यह कहकर नए संगीत से मुंह ना मोड़ लें कि आपको नया संगीत पसंद नहीं। बल्कि एक विश्लेषणात्मक रवैया अपनाएँ और इस मंच पर हमें बताएँ कि कौन सा गीत आपको अच्छा लगा और कौन सा नहीं लगा, और क्यों। ठीक कहा ना मैंने सुजॊय?

सुजॊय - १०० फ़ीसदी सही कहा आपने! और भई सीमा जी को टक्कर देने वाले भी तो चाहिए, वरना वो बिना गोलकीपर के गोल पोस्ट पर एक के बाद एक गोल करती चली जाएँगी, हा हा हा!

सजीव - आज तुम्हारा मूड कुछ हल्का फुल्का सा लग रहा है सुजॊय!

सुजॊय - जी बिल्कुल! नए साल में अभी तक ज़िंदगी ने रफ़्तार नहीं पकड़ी है न, इसलिए बिल्कुल फ़्रेश हूँ। और हमारे फ़िल्म जगत में भी साल का पहला महीना कुछ हद तक ढीला ढाला सा ही रहता है।

सजीव - ठीक कहा। तो चलो तुम्हारे इसी मूड को बरक़रार रखते हुए आज हम सुनते हैं और चर्चा करते हैं फ़िल्म 'दुल्हा मिल गया' के संगीत का। वैसे भी साल की शुरुआत 'लाइटर नोट' पे ही होनी चाहिए। बातें बहुत सारी हो गई, चलो जल्दी से इस फ़िल्म का शीर्षक गीत पहले सुन लेते हैं, फिर उसके बाद इस फ़िल्म की चर्चा शुरु करेंगे।

गीत: दुल्हा मिल गया...dulha mil gaya (title)


सुजॊय - यह तो दलेर मेहन्दी की आवाज़ थी ना?

सजीव - हाँ, कई दिनों के बाद किसी फ़िल्म में उनका गाया हुआ गाना आया है, और वो भी शाहरुख़ ख़ान पर फ़िल्माया गया है। शाहरुख़ ने इस फ़िल्म में अतिथि कलाकार के रूप में इस गीत में नज़र आएँगे। वैसे शाहरुख़ ने कई फ़िल्मों में इस तरह से एक गीत में नज़र आए हैं। कोई ऐसा गीत याद आता है तुम्हे?

सुजॊय - क्यों नहीं, फ़िल्म 'काल' के शीर्षक गीत "काल धमाल" में नज़र आए थे। अच्छा 'दुल्हा मिल गया' के इस गीत के अगर बात करें तो मेरा ख़याल है कि यह एक पेप्पी और कैची नंबर है जो शुरु से लेकर अंत तक अपने जोश और उत्साह को बनाए रखती है। पंजाबी रंग का गाना और उस पर दलेर साहब की गायकी, इसका असर तो होना ही था। और शाहरुख़ जो भी काम करते हैं उसमें पूरी जान लगा देते हैं।

सजीव - फ़िल्म 'दुल्हा मिल गया' में कुल १२ गानें हैं।

सुजॊय - १२ गानें? 'व्हाट्स योर राशी' में १३ गानें थे, क्या कोई होड़ सी चल पड़ी है? मुझे ऐसा लग रहा है जैसे कि ९० के दशक के उस टी-सीरीज़ का दौर वापस आने वाला है। याद है ना आपको कि जब हर फ़िल्म में ८-१० गानें होते थे, जिनमें गायिका होती थीं अनुराधा पौडवाल और अलग अलग गीतों में अलग अलग गायकों की आवाज़ें होती थीं?

सजीव - बिल्कुल याद है। लेकिन इस ऐल्बम की अच्छी बात यह है कि भले ही १२ गानें हैं लेकिन हर गाना अलग अलग क़िस्म का है। अब जो गाना हम सुनेंगे उसे गाया है अदनान सामी और अनुश्का मनचंदा ने। यह है "अकेला दिल", आजकल जो ट्रेंड चली है अंग्रेज़ी के बोलों को सुपरिम्पोज़ करने की, इस गीत में यह काम सौंपा गया है अनुश्का को। यह भी एक थिरकता गाना है, पहले गाने के मुक़ाबले थोड़ा स्लो। गाना ठीक ठाक है, बहुत कोई ख़ास बात भी नहीं है, चलो आगे इस गीत के बारे में राय श्रोताओं पर ही छोड़ते हैं।

सुजॊय - यह गाना कुछ कुछ वेस्ट इंडीज़ के कैरिबीयन के कैलीप्सो संगीत से प्रभावित लगता है, जिस तरह से अदनान सामी का ही एक मशहूर गाना था फ़िल्म 'ऐतराज़' में, "गेला गेला गेला दिल गेला गेला"। सुनिए यह गीत और दोनों गीतों के बीच समानता को महसूस कीजिए।

गीत: अकेला दिल..akela dil (dulha mil gaya)


सुजॊय - अब इस फ़िल्म से जुड़े लोगों की ज़रा बातें हो जाए? 'दुल्हा मिल गया' के प्रोड्युसर हैं विवेक वास्वानी। फ़िल्म का निर्देशन किया है मुदस्सर अज़ीज़ ने और ख़ास बात, उन्होने ही फ़िल्म के गानें भी लिखे हैं। यह उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म है। वैसे वो चर्चा में रहे हैं सुश्मिता सेन के बॊय फ़्रेंड होने की वजह से।

सजीव - मुदस्सर अज़ीज़ के ज़िक्र से मुझे फ़िल्मकार किदार शर्मा की याद आ गई। वो भी फ़िल्म निर्माण व निर्देशन के साथ साथ गीतकारी भी करते थे न?

सुजॊय - बिल्कुल ठीक। गुलज़ार साहब और कमाल अमरोही साहब भी इसी संदर्भ में याद किए जा सकते हैं। अच्छा, तो मैं 'दुल्हा मिल गया' के कास्ट से परिचय करवा रहा था। फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएँ निभाए हैं फ़रदीन ख़ान और सुश्मिता सेन ने, तथा शाहरुख़ ख़ान का ज़िक्र तो हम कर ही चुके हैं। फ़िल्म में संगीत है ललित पंडित का। वही ललित पंडित जो कभी जतीन-ललित की जोड़ी के रूप में एक से एक सुपरहिट गानें दिया करते थे। 'फ़ना' इस जोड़ी की अंतिम फ़िल्म थी।

सजीव - और एक बात सुजॊय कि जतीन-ललित ने शाहरुख़ ख़ान के कितने सारे फ़िल्मों में सुपर डुपर हिट गानें दिए, जैसे कि 'येस बॊस', 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे', 'कुछ कुछ होता है', 'मोहब्बतें', और 'कभी ख़ुशी कभी ग़म'। और जब से ये दोनों एक दूसरे से अलग हुए हैं, किसी भी फ़िल्म में इन्हे सफलता अभी तक नहीं मिली है। ख़ैर, वापस आते हैं 'दुल्हा मिल गया' पर और तीसरा गाना जो हम अब बजाएँगे वह है "आजा आजा मेरे रांझना वे आजा आजा"।

सुजॊय - बोल सुन कर तो लग रहा है कि फ़िल्म में किसी शादी के सिचुयशन के लिए बना होगा यह गाना। गाने में मुख्य स्वर है नई आवाज़ सुनंदा का, और बाद में अनुश्का उनका साथ देती हैं। अनुश्का मनचंदा इन दिनों तेज़ी से कामयाबी के पायदान चढ़ रही हैं। सुनिधि और श्रेया के बाद अब तक कोई गायिका उस मुक़ाम तक नहीं पहुँच पायी हैं। हो सकता है वह मुक़ाम अनुश्का के इंतज़ार में है।

सजीव - इस गीत में वैसे कोई नई बात नहीं है, बल्कि 'कभी ख़ुशी कभी ग़म' के "बोले चूड़ियाँ बोले कंगना" का ही एक एक्स्टेन्शन जैसा लगता है। सिर्फ़ मुखड़ा ही नहीं, अंतरे में भी जब "साथिया हाथ दे, अब मेरा साथ दे" गाया जाता है, उसमें भी "बोले चूड़ियाँ" का अंतरा याद आ ही जाता है।

गीत: आजा आजा रांझना वे...aaja aaja ranjhna ve (dulha mil gaya)


सुजॊय - अब एक बेहद नर्मोनाज़ुक गीत हो जाए इस फ़िल्म से। सजीव, इस दौर की जो सब से अग्रणी गायिकाएँ है, यानी कि श्रेय घोषाल और सुनिधि चौहान, मैंने एक पत्रिका में एक बार पढ़ा था कि श्रेया को लता घराने का माना जाता है और सुनिधि को आशा घराने का। है न मज़ेदार ऒब्ज़र्वेशन?

सजीव - हाँ, कुछ हद तक सही भी है। श्रेया ज़्यादातर नर्मोनाज़ुक गानें गाती हैं और सुनिधि किसी भी तरह के गीत गानें से नहीं कतरातीं।

सुजॊय - तो चलिए अब एक ख़ास श्रेया वाले अंदाज़ का गाना हो जाए, यह गीत है "रंग दिया दिल"। लोक रंग में रंगा हुआ गाना है, जो उपर के तीन गीतों से बिल्कुल अलग हट के है।

सजीव - कैरीबीयन से हम सीधे अपनी धरती हिंदुस्तान में उतर आते हैं और इस गीत को सुनते हुए जैसे हम पंजाब के किसी गाँव में पहुँच जाते हैं जहाँ पीली सरसों के खेत में नायिका अपने प्यार के इंतज़ार में यह गीत गा रही होती है।

गीत: रंग दिया दिल...rang diya dil (dulha mil gaya)


सुजॊय - और अब पाँचवे और अंतिम गीत की बारी। और शायद यह फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत साबित होने वाला है। अजी गीत क्या, यह तो एक क़व्वाली है, "दिलरुबाओं के जलवे तौबा"।

सजीव - पहला गाना शाहरुख़ ख़ान पर फ़िल्माया हुआ था और यह क़व्वाली भी उन्ही पर और उनके साथ सुश्मिता सेन पर फ़िल्माया गया है। पिक्चराइज़ेशन भी ज़बरदस्त हुई है इस क़व्वाली का। इस क़व्वाली की तैयारी में हर किसी ने जी जान लगाई होगी, क्योंकि शाहरुख़ ख़ान इससे पहले फ़िल्म 'मैं हूँ ना' में एक मशहूर क़व्वाली "तुम से मिल के दिल का है जो हाल क्या कहें" कर चुके हैं जिसे अपार सफलता मिली थी। तो ज़ाहिर है कि लोगों की उम्मीदें बढ़ जाती हैं।

सुजॊय - और शायद पहली बार गायक अमित कुमार शाहरुख़ ख़ान का प्लेबैक कर रहे हैं इस क़व्वाली में। 'अपना सपना मनी मनी' में "दिल में बजी गीटार" के बाद अमित कुमार की आवाज़ फिर से गूँज उठी है इस क़व्वाली में। वैसे सजीव, क्या आपको अमित कुमार की आवाज़ मे कोई और क़व्वाली याद आती है?

सजीव - नहीं भई मुझे तो कोई ऐसी क़व्वाली याद नहीं आ रही है।

सुजॊय - कोई बात नहीं, यह सवाल आज हम अपने ट्रिविया में पूछ लेंगे। "दिलरुबाओं के जलवे" में अमित कुमार के साथ आवाज़ मिलाई है मोनाली ठाकुर ने जिन्होने फ़िल्म 'रेस' का वह हिट गीत गाया था "ज़रा ज़रा टच मी टच मी"। रीयलिटी शोज़ के वजह से कई गायक गायिकाएँ सामने आ रहे हैं। लेकिन उससे भी बड़ी बात है कि इन्हे फ़िल्मों में चांस देने में संगीतकारों और फ़िल्मकारों की भूमिका। अनुश्का और मोनाली ऐसी ही रीयलिटी शोज़ से उभरी हैं। इस फ़िल्म में एक और गीत है जिसमें तुलसी की आवाज़ है, वो भी यही से आईं हैं। और फिर श्रेया सुनिधि भी तो रीयलिटी शो की ही उपज हैं!

सजीव - और एक मज़ेदार बात नोटिस की है तुमने इस क़व्वाली में?

सुजॊय - कौन सी?

सजीव - यही कि क़व्वाली के अंत के जो बोल हैं उनमें शाहरुख़ ख़ान और सुश्मिता सेन के कई फ़िल्मों और गीतों का ज़िक्र आता है जैसे कि शाहरुख़ की फ़िल्में बादशाह, कुछ कुछ होता है, दीवाना, कुछ कुछ होता है, बाज़ीगर, डर, अंजाम, देवदास, दिल तो पागल है, मैं हूँ ना। सुश्मिता की दस्तक, सिर्फ़ तुम और बेवफ़ा जैसी फ़िल्मों और "दिलबर" तथा "मस्त माहौल" जैसे गीतों का उल्लेख भी आता है क़व्वाली के अंतिम चरण में। मुदस्सर अज़ीज़ ने बतौर गीतकार भी अच्छा काम दिखाया है इस फ़िल्म में। अब उनकी क़िस्मत के सितारे कितने बुलंद हैं, वह तो फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद ही पता लगेगी!

सुजॊय - तो चलिए, हम सब मिलकर इस क़व्वाली का लुत्फ़ उठाते हैं। हमने १२ में से कुल ५ गानें यहाँ पे शामिल किए जो अलग अलग रंग-ओ-अंदाज़ के हैं। उम्मीद है आप सभी को पसंद आएँगे। नीचे पूछे गए सवालों के जवाब देने की कोशिश कीजिएगा लेकिन इन गीतों के बारे में अपनी राय टिप्पणी में लिखना हर श्रोता व पाठक के लिए अनिवार्य है। :-)

गीत: दिलरुबाओं के जलवे तौबा...dilrubaaon ke jalve (dulha mil gaya)


एल्बम "दूल्हा मिल गया" को आवाज़ रेटिंग **१/२
फिल्म में हालाँकि शाहरुख़ खान अतिथि भूमिका में हैं पर प्रचार प्रसार में उन्हीं का सहारा लिया जा रहा है. जैसा कि हमने उपर जिक्र किया, लगभग सभी गीत औसत ही हैं, "अकेला दिल" अदनान सामी के गायन अंदाज़ और अच्छे बोलों के कारण चर्चित हो सकता है. कुछ नयी आवाजों में संभावना नज़र आती है पर इन्हें और बेहतर गीत भी मिलने चाहिए, नए पन के अभाव में इस अल्बम को ढाई तारे की रेटिंग ही दी जा सकती है
.

और अब बारी है ताज़ा सुर ताल (TST) ट्रिविया की, जनवरी के पहले सोमवार से लेकर दिसंबर के दूसरे सप्ताह तक हर सप्ताह हम आपसे पूछेंगें ३ सवाल. हर सही जवाब के होंगें ३ अंक. इसके अलावा जो श्रोता प्रस्तुत गीतों को सुनकर अपनी रेटिंग देगा (५ में से ) वो भी १ अंक पाने का हक रखेगा, तो खेलिए हमारे संग, नए गीतों पर आपनी राय रखिये और सवालों का जवाब तलाश कर अपना संगीत ज्ञान भी बढ़ायिये...

प्रस्तुत है आज के ३ सवाल

सवाल # १. अमित कुमार ने गायिका हेमलता के साथ १९८८ की एक फ़िल्म में एक क़व्वाली गाया था। आनंद बक्शी की रचना, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत, फ़िल्म के मुख्य किरदार थे गोविन्दा और सोनम। बताइए इस क़व्वाले के बोल और फ़िल्म का नाम।

सवाल # २. क्योंकि आज ज़िक्र है संगीतकार ललित पंडित का, तो बताइए कि जतीन-ललित की जोड़ी ने अपना पहला फ़िल्मी ऐल्बम 'यारा दिलदारा' से पहले जिस ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम की रचना की थी, उस ऐल्बम का क्या शीर्षक था?

सवाल # ३. मुदस्सर अज़ीज़ ने 'दुल्हा मिल गया' में पहली बार अपने निर्देशन के जल्वे दिखाए हैं। गानें भी उन्होने ही लिखे हैं लेकिन बतौर गीतकार यह उनकी पहली फ़िल्म नहीं है। तो आप ही बता दीजिए कि इससे पहले उन्होने किस फ़िल्म में गीत लिख चुके हैं?



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, January 3, 2010

ओ मेरे दिल के चैन....किशोर का अद्भुत रूमानी अंदाज़ और मजरूह-पंचम का कमाल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 303/2010/03

शास्त्रीय और पाश्चात्य रंगों के बाद 'पंचम के दस रंग' शृंखला की तीसरी कड़ी में आज बारी है रुमानीयत की। यानी कि रोमांटिक गाने की। युं तो आर. डी. बर्मन के संगीत में एक से एक रोमांटिक गानें बने हैं समय समय पर, लेकिन जिस गीत को हमने चुना है वह एक अलग ही मुकाम रखती है इस जौनर में। और वह गीत है १९७२ की फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' का, "ओ मेरे दिल के चैन, चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए"। ७० का दशक वह दशक था जब पंचम ज़्यादातर तेज़ रफ़्तार वाले और जोशिले गानें लेकर आ रहे थे। लेकिन जब भी सिचुयशन ने डिमाण्ड की किसी सॊफ़्ट एण्ड सेन्सिटिव गाने की, उसमें भी पंचम अपना जादू दिखा गए। फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' में राजेश खन्ना के लिए एक से एक सुपर डुपर हिट गानें बनें जो किशोर दा की आवाज़ पा कर अमर हो गए। वैसे भी राजेश खन्ना की फ़िल्मों की यही खासियत हुआ करती थी कि फ़िल्म चाहे चले ना चले, उनके गानें ज़रूर कामयाब हो जाते थे। इसी फ़िल्म को अगर लें तो प्रस्तुत गीत के अलावा किशोर दा ने जो गानें इसमें गाए वो हैं "दीवाना लेके आया दिल का तराना", "कितने सपने कितने अरमाँ लाया हूँ मैं", "आओ कन्हाई मेरे धाम के दिन से हो गई शाम", "चला जाता हूँ किसी की धुन में", और लता जी के साथ डुएट "दीवाना करके छोड़ोगे लगता है युं हमको"। राजेश खन्ना, किशोर कुमार और आर. डी. बर्मन की तिकड़ी ने जैसे हंगामा कर दिया चारों तरफ़। वैसे दोस्तों, अगर "ओ मेरे दिल के चैन" के बोलों पर ग़ौर किया जाए तो मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत में ना तो कोई बहुत ज़्यादा शेर-ओ-शायरी है और ना ही यह कोई कविता है। बिल्कुल मामूली और आम बोलचाल की भाषा में लिखा हुआ गीत भी इतना ज़्यादा लोकप्रिय हो सकता है, बल्कि युं कहें कि एक 'कल्ट सॊंग्' बन सकता है, इस गीत ने यह साबित कर दिखाया है।

हरीश शाह और विनोद शाह निर्मित तथा रवि नगैच निर्देशित इस फ़िल्म में राजेश खन्ना के अलावा तनुजा और सुजीत कुमार मुख्य भूमिकाओं में थे। दोस्तों, गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने सचिन देव बर्मन के साथ जितना काम किया है, सचिन दा के बेटे पंचम के साथ भी उतनी ही महत्वपूर्ण पारी खेली है। मुझे विकिपीडिया पर मजरूह साहब के जीवनी पर नज़र दौड़ाते हुए यह बात पता चली (वैसे मैं इसकी पुष्टि नहीं कर सकता) कि 'तीसरी मंज़िल' के लिए राहुल देव बर्मन को बतौर संगीतकार नियुक्त करने के निर्णय में मजरूह साहब का बड़ा हाथ था। मजरूह और नासिर हुसैन की गहरी दोस्ती थी। मजरूह साहब के कुछ यादगार गीतों वाली फ़िल्में नासिर साहब ने ही बनाई थी, जैसे कि 'पेयिंग् गेस्ट', 'फिर वही दिल लाया हूँ', 'तीसरी मंज़िल', 'बहारों के सपने', 'प्यार का मौसम', 'कारवाँ', 'यादों की बारात', 'हम किसी से कम नहीं', 'ज़माने को दिखाना है', 'क़यामत से क़यामत तक', 'जो जीता वही सिकंदर', और 'अकेले हम अकेले तुम'। इन फ़िल्मों में से ७ फ़िल्मों में पंचम का संगीत था। और पिछले साल की फ़िल्म 'बचना ऐ हसीनों' के ज़रिए पंचम, मजरूह और किशोर दा की तिकड़ी एक बार फिर से छा गई जब इस फ़िल्म मे 'हम किसी से कम नहीं' के गीत "बचना ऐ हसीनों लो मैं आ गया" से किशोर दा की ओरिजिनल आवाज़ को ही मुखड़े में सुपरिम्पोज़ कर दी गई और किशोर दा के बेटे सुमीत कुमार ने गीत को पूरा किया। आज इस तिकड़ी का कोई भी सदस्य इस दुनिया में मौजूद नहीं है, लेकिन उनका बनाया यह रुमानीयत से भरा हुआ नग़मा आज भी जवाँ दिलो की धड़कन बना हुआ है। तो आइए, इस तिकड़ी को सलाम करते हुए सुनते हैं यह सदाजवान गीत।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

गलियों गलियों भटकता सूरज,
आँख में लेकर धूल का छाला,
टोह में किसकी है सब किरणें,
किसका सुराग है ढूंढें उजाला

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह वाह शरद जी, नयी शुरूआत का श्रीगणेश भी आपसे ही हुआ...२ अंक मिलते हैं आपको, बहुत बढ़िया....बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

ताजा कहानी-पॉडकास्ट

ताज़ा पॉडकास्ट कवि सम्मेलन