Saturday, January 30, 2010

दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल.....साबरमती के संत को याद कर रहा है आज आवाज़ परिवार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 330/2010/30

ज है ३० जनवरी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस। बापु के इस स्मृति दिवस को पूरा देश 'शहीद दिवस' के रूप में पालित करता है। बापु के साथ साथ देश के उन सभी वीर सपूतों को श्रद्धांजली अर्पित करने और सेल्युट करने का यह दिन है जिन्होने इस देश की ख़ातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए हैं। 'आवाज़' और 'हिंद युग्म' परिवार की ओर से, और हम अपनी ओर से इस देश पर मर मिटने वाले हर वीर सपूत को सलाम करते हैं, उनके सामने अपना सर झुका कर उन्हे सलामी देते हैं। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनें कवि प्रदीप का लिखा हुआ वह गीत जो बापु पर लिखे गए तमाम गीतों में लोगों के दिलों में बहुत ही लोकप्रिय स्थान रखता है। आशा भोसले और साथियो की आवाज़ों में फ़िल्म 'जागृति' का यह गीत है "दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती की संत तूने कर दिया कमाल, रघुपति राघव राजा राम"। 'जागृति' १९५४ की फ़िल्म थी 'फ़िल्मिस्तान' के बैनर तले बनी हुई। यह एक देशभक्ति मूलक फ़िल्म थी जिसकी कहानी एक अध्यापक और उनके छात्रों के मधुर रिश्ते पर आधारित थी। बहुत ही यादगार फ़िल्म और अध्यापक की भूमिका में अभी भट्टाचार्य ने एक संवेदनशील अभिनेता का उदाहरण प्रस्तुत किया। और निर्देशक सत्येन बोस ने भी विषय को बहुत ही ख़ूबसूरत तरीके से हैंडल किया। फ़िल्मिस्तान ने इस फ़िल्म के ज़रिये यह साबित किया कि अगर कहानी अच्छी हो तो बड़े स्टारकास्ट की ज़रूरत नहीं पड़ती। एक कम बजट वाली फ़िल्म भी लोगों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ सकती है अगर उसमें कोई वाक़ई कोई संदेश हो लोगों के लिए। संगीतकार हेमन्त कुमार और कवि प्रदीप ने मिलकर इस फ़िल्म में एक से एक लाजवाब देशभक्ति के गीत रचे, जो आज भी स्कूली फ़ंकशन में गाए जाते हैं। आज का प्रस्तुत गीत बापु को एक श्रद्धांजली है प्रदीप जी की तरफ़ से और इस तरह का गीत केवल प्रदीप जैसे कवि के कलम से ही निकल सकते हैं। यह गीत राजेन्द्र कृष्ण के लिखे १९४९ की मशहूर गीत "सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापु की ये अमर कहानी" को ज़बरदस्त टक्कर देती है, और यह बताना वाक़ई मुश्किल है कि कौन सा गीत बेहतर है। आशा भोसले ने इस फ़िल्म में प्रस्तुत गीत के अलावा "चलो चलें माँ सपनों के गाँव में" गा कर सभी के आँखों को नम कर दिया था।

दोस्तों, आज शहीद दिवस का उपलक्ष्य है और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बज रहा है हेमन्त कुमार का संगीतबद्ध किया हुआ गीत। इसलिए आज हम रुख़ करते हैं हेमन्त दा द्वारा प्रस्तुत किए गए सन् १९७२ के उस 'जयमाला' कार्यक्रम की ओर, जो उन्होने 'बांगलादेश वार' के ठीक बाद प्रस्तुत किया था विविध भारती पर। हमारे वीर फ़ौजी भाइयों से मुख़ातिब उन्होने कहा था - "फ़ौजी भाइयों, विजय का सेहरा सदा आप के सर पर रहे। अन्याय का मुक़ाबला ना करना बहुत बड़ा पाप है। १४ रोज़ के इस जंग को जीत कर, दुश्मनों का मुक़ाबला कर आप ने जो विजय हासिल की है, उसकी तारीफ़ में कुछ कहने के लिए मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं है। दुनिया के इतिहास में जब भी इस लड़ाई का ज़िक्र आयेगा, आप लोगों का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जायेगा। आप ने अपने जान की बाज़ी लगाकर हमारे पड़ोसी मुल्क बांगलादेश के लोगों को उनका 'शोनार बांगला' (सोने का बांगला) उन्हे लौटा कर हमारे देश का नाम बहुत ऊँचा कर दिया है। न्याय और शांति के लिए हमारा देश हमेशा लड़ता रहेगा। मेरी पहली फ़िल्म की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी। बंकिम चन्द्र चट्टॊपाध्याय का 'आनंदमठ' और उन्ही के कलम से निकला यह गीत, जिसके सहारे हम लोगों ने ना जाने कितनी लड़ाइयाँ लड़ी, वंदे मातरम।" तो दोस्तों, बापु और इस देश के तमाम शहीदों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए सुनते हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ३३०-वीं कड़ी में फ़िल्म 'जागृति' का यह गीत।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

बिजली ग़मों की गिरी ऐसी,
उम्मीदों का महल ख़ाक हो गया,
टुकड़े टुकड़े हो गए ख्वाब सब,
हसरत का दीया जल राख हो गया...

अतिरिक्त सूत्र- श्याम सुंदर के संगीत से सजा ये गीत गाया है एक कमचर्चित गायिका ने

पिछली पहेली का परिणाम-
अवध जी लगातार बढ़िया प्रदर्शन कर रहे हैं आप...बधाई...इंदु जी नज़र नहीं आ रही हैं आजकल, और पाबला जी भी नदारद हैं, आवाज़ का महोत्सव १ फरवरी को विश्व पुस्तक मेला, परगति मैदान में दोपहर २ से ४ के बीच आयोजित होगा, ओल्ड इस गोल्ड की पूरी टीम इस आयोजन पर खास तौर पर आमंत्रित है...आईये सब खूब मस्ती करेंगें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मैं एक बच्चे को प्यार कर रही थी - इस्मत चुगताई



सुनो कहानी: मैं एक बच्चे को प्यार कर रही थी

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उन्हीं की हिंदी कहानी "गरजपाल की चिट्ठी" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं इस्मत चुगताई की आत्मकथा ''कागज़ी है पैरहन'' से एक बहुत ही सुन्दर, मार्मिक प्रसंग "मैं एक बच्चे को प्यार कर रही थी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।


अनुराग वत्स के प्रयास से इस प्रसंग का टेक्स्ट सबद... पर उपलब्ध है।

कहानी का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 15 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है।
~ इस्मत चुगताई (1911-1991)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

मेरे घर शिकायत पहुंची कि मैं चाँदी के भगवान की मूर्ति चुरा रही थी। अम्मा ने सर पीट लिया और फिर मुझे भी पीटा।
(इस्मत चुगताई की "मैं एक बच्चे को प्यार कर रही थी" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Fifty Eighth Story, Main ek bachche ko pyar kar rahi thi: Ismat Chugtai/Hindi Audio Book/2010/5. Voice: Anurag Sharma

Friday, January 29, 2010

जब दिल ही टूट गया....सहगल की दर्द भरी आवाज़ और मजरूह के बोल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 329/2010/29

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पिछले तीन दिनो से आप शरद तैलंग जी के पसंद के गाने सुनते आ रहे हैं, जो 'महासवाल प्रतियोगिता' में सब से ज़्यादा सवालों के सही जवाब देकर विजेयता बने थे। आज उनकी पसंद का आख़िरी गीत, और गीत क्या साहब, यह तो ऐसा कल्ट सॊंग् है कि ६५ साल बाद भी लोग इस गीत को भुला नहीं पाए हैं। कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में बेहद मक़बूल, बेहद ख़ास, नौशाद साहब की अविस्मरणीय संगीत रचना "जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे"। फ़िल्म 'शाहजहाँ' का यह मशहूर गीत लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने। दोस्तों, अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आपने सहगल साहब के कुल दो गीत सुन चुके हैं। एक तो हाल ही में उनकी पुण्यतिथि पर फ़िल्म 'ज़िंदगी' की लोरी "सो जा राजकुमारी" सुनवाया था, और एक गीत हमने आपको फ़िल्म 'शाहजहाँ' से ही सुनवाया था "ग़म दिए मुस्तक़िल" अपने ५०-वें एपिसोड को ख़ास बनाते हुए। लेकिन उस दिन हमने इस फ़िल्म की चर्चा नहीं की थी, बल्कि नौशाद साहब की सहगल साहब पर लिखी हुई कविता से रु-ब-रु करवाया था। तो आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में फ़िल्म 'शाहजहाँ' की बातें। यह सन् १९४६ की एक सुपरहिट फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन ए. आर. कारदार साहब ने किया था। सहगल साहब के अलावा फ़िल्म के मुख्य कलाकारों में थे रागिनी, जयराज और नसरीन। यह सहगल साहब की अंतिम मशहूर फ़िल्म थी। और यह एकमात्र फ़िल्म है सहगल साहब का जिसमें नौशाद साहब का संगीत है। इस फ़िल्म ने इस इंडस्ट्री को दो नए गीतकार दिए मजरूह सुल्तानपुरी और ख़ुमार बाराबंकवी के रूप में। जहाँ एक तरफ़ ख़ुमार साहब के गानें केवल दस सालों तक ही सुनाई दिए, मजरूह साहब ने ५ दशकों तक इस इंडस्ट्री में राज किया। जहाँ तक इस फ़िल्म में सहगल साहब के गाए हुए गीतों का सवाल है, "ग़म दिए मुस्तक़िल" और आज के प्रस्तुत गीत के अलावा "ऐ दिल-ए-बेक़रार झूम", "चाह बरबाद करेगी हमें मालूम न था", "छिटकी हुई है चांदनी", "मेरे सपनों की रानी रुही रुही रुही" और "कर लीजिए चलकर मेरी जन्नत के नज़ारे" जैसे कामयाब गानें गाए सहगल साहब ने।

नौशाद साहब का दिमाग़ बहुत ही इन्नोवेटिव था तकनीकी दृष्टि से। उन्होने ही हिंदी फ़िल्म संगीत में पहली बार साउंड मिक्सिन्ग् और ट्रैक रिकार्डिंग् की शुरुआत की। यानी कि बोल और संगीत के लिए अलग अलग ट्रैक्स का इस्तेमाल। इस तक़नीक ने आगे चलकर फ़िल्म संगीत को एक नई दिशा दिखाई। और यह पहली बार नौशाद साहब ने फ़िल्म 'शाहजहाँ' में ही कर दिखाया था कि सहगल साहब की आवाज़ एक ट्रैक पर रिकार्ड हुई और उसका संगीत एक अन्य ट्रैक पर। ४० के दशक के लिहाज़ से यह हैरान कर देने वाली ही बात है! ख़ैर, "जब दिल ही टूट गया" गीत आधारित है राग भैरवी पर। सहगल साहब को समर्पित जयमाला में नौशाद साहब यह गीत बजाते हुए सहगल साहब को याद करते हुए ये कहा था - "किसी महबूबा के ग़म से दिल पाश पाश हो गया होगा! मैंने भी इसी ख़यालात का एक गीत फ़िल्म 'शाहजहाँ' के लिए बनाया था। मजरूह सुल्तानपुरी के इस गीत को गाया था महान गायक कुंदन लाल सहगल ने। उनको तो यह गीत इतना पसंद था कि मरने से पहले अपने घरवालों और अपने दोस्तों से उन्होने वसीयत की कि मेरे आख़िरी सफ़र में शमशान की भूमि तक यही गीत बजाते रहना कि "जब दिल ही टूट गया"। और लोगों ने उनकी यह वसीयत पूरी भी की।" दोस्तों, हम भी शरद जी की फ़रमाइश पूरी करते हैं इस गीत को सुनवाकर, आइए सुनते हैं।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

कोई दोस्त न दुश्मन, रहजन न रहबर है,
है सोने को धरती तो ओढने को अम्बर है,
अब कोई फूल बिछाए या सीने ताने बन्दूक,
दिल तो फकीर का अब गहरा समुन्दर है...

अतिरिक्त सूत्र -आवाज़ है आशा भोसले और साथियों की इस गीत में

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह जी अवध जी लौटे हैं एक बार फिर, २ अंकों के लिए बधाई...शरद जी को धन्येवाद दे ही चुके हैं, निर्मला जी और अनुराग जी का भी बहुत आभार

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

19वाँ विश्व पुस्तक मेला में होगा आवाज़ महोत्सव, ज़रूर पधारें



हिन्द-युग्म साहित्य को कला की हर विधा से जोड़ने का पक्षधर है। इसलिए हम अपने आवाज़ मंच पर तमाम गतिविधियों के साथ-साथ साहित्य को आवाज़ की विभिन्न परम्पराओं से भी जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

इसी क्रम में हमने प्रेमचंद की कहानियों को 'सुनो कहानी' स्तम्भ के माध्यम से पॉडकास्ट करना शुरू किया ताकि उन्हें इस माध्यम से भी संग्रहित किया जा सके। 19वाँ विश्व पुस्तक मेला जो प्रगति मैदान, नई दिल्ली में 30 जनवरी से 7 फरवरी 2010 के मध्य आयोजित हो रहा है, में हिन्द-युग्म प्रेमचंद की 15 कहानियों के एल्बम 'सुनो कहानी' को जारी करेगा।

इसी कार्यक्रम में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त की प्रतिनिधि कविताओं के संगीतबद्ध एल्बम ‘काव्यनाद’ का लोकार्पण भी होगा। उल्लेखनीय है कि 18वें विश्व पुस्तक मेला में भी हिन्द-युग्म ने इंटरनेट की हिन्दी दुनिया का प्रतिनिधित्व किया था और अपने पहला उत्पाद के तौर पर कविताओं और संगीतबद्ध गीतों के एल्बम 'पहला सुर' को जारी किया था।

सन् 2008 में इंटरनेट पर हिन्दी का जितना बड़ा संसार था, आज उससे कई गुना विस्तार उसे मिल चुका है। इसलिए हिन्द-युग्म ने भी अपनी सक्रियता, अपनी प्रचार रणनीति में विस्तार किये हैं। यह इंटरनेट जगत के लिए अपने आप में बड़ी बात है कि इंटरनेट पर काम करने वाला एक समूह विश्व पुस्तक मेला में 3X3 मीटर2 का क्षेत्रफल घेर रहा है, जहाँ की हर बात इंटरनेट से जुड़ी है।

हिन्द-युग्म हिन्दी के 6 स्तम्भ कवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संगीतबद्ध एल्बम ‘काव्यनाद’ और प्रेमचंद की 15 मशहूर कहानियों के एल्बम ‘सुनो कहानी’ के विमोचन कार्यक्रम में आपको आमंत्रित करता है। पूरा विवरण निम्नवत् है-

स्थान व समय- प्रगति मैदान सभागार, नई दिल्ली, 1 फरवरी 2010, दोपहर 2-4 (19वाँ विश्व पुस्तक मेला 2010, नई दिल्ली)

मंचासीन अतिथि-

अशोक बाजपेयी, वरिष्ठ कवि, निदेशक, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली ('काव्यनाद' का विमोचन करेंगे)

राजेन्द्र यादव, वरिष्ठ कथाकार और हंस के प्रधान सम्पादक ('सुनो कहानी' का विमोचन करेंगे)

डॉ॰ मुकेश गर्ग, संगीत विशेषज्ञ, संगीत-संकल्प पत्रिका के सम्पादक (दोनों एल्बमों की समीक्षा करेंगे)

आदित्य प्रकाश, काव्यनाद (गीतकास्ट प्रतियोगिता) के सूत्रधार और फन एशिया के रेडियो कार्यक्रम हिन्दी यात्रा के उद्‍घोषक, डैलस, अमेरिका

ज्ञान प्रकाश सिंह, गीतकास्ट प्रोजेक्ट के सहयोगी, लंदन, यूके

संचालक- प्रमोद कुमार तिवारी

मुख्य आकर्षण

  • जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त की प्रतिनिधि कविताओं के संगीतबद्ध एल्बम ‘काव्यनाद’ का विमोचन
  • प्रेमचंद की 20 कहानियों के ऑडियो एल्बम ‘सुनो कहानी’ का विमोचन
  • केरल के युवा गायक-संगीतकार निखिल-चार्ल्स और मिथिला द्वारा संगीतमयी प्रस्तुति।
  • पुणे के गायक-संगीतकार रफ़ीक़ शेख द्वारा कविता-गायन
  • 2008-09 के संगीत-सत्र के पुरस्कारों का वितरण

अपनी उपस्थिति सुनिश्चत करें।

निवेदक-
सजीव सारथी
संपादक, आवाज़
हिन्द-युग्म
9871123997
sajeevsarathie@gmail.com

Thursday, January 28, 2010

मेरे दिल में है एक बात....लता- मन्ना के युगल स्वरों में एक चुलबुला नगमा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 328/2010/28

-ल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है सुरीले गीतों की परंपरा, और इन दिनों हम आनंद ले रहे हैं इंदु जी और शरद जी के पसंद के गीतों का। आप दोनों ने ही इतने अच्छे अच्छे गीतों की फ़रमाइश हम से की है कि इन्हे सुनवाते हुए भी हम फ़क्र महसूस कर रहे हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को जैसे कुछ और ही मुकाम तक पहुँचा दिया है आप दोनों ने। बहुत शुक्रिया आपका। आज शरद जी की पसंद का जो गीत हमने चुना है वह एक युगल गीत है लता मंगेशकर और मन्ना डे का गाया हुआ। एक हल्का फुल्का युगल गीत, लेकिन उतना ही सुरीला उतना ही बेहतर। फ़िल्म 'पोस्ट बॊक्स नंबर ९९९' का यह गीत है "मेरे दिल में है एक बात कह दो तो ज़रा क्या है"। इसी फ़िल्म का लता और हेमन्त दा का गाया "नींद ना मुझको आए" भी एक बेहतरीन गीत है जिसे भी आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भविष्य में ज़रूर सुनेंगे। 'पोस्ट बॊक्स नंबर ९९९' बनकर बाहर आई सन् १९५८ में। रवीन्द्र दवे निर्मित व निर्देशित यह फ़िल्म दरअसल एक मर्डर मिस्ट्री थी जिसे सुलझाया सुनिल दत्त और शक़ीला ने। मेरा मतलब है कि कहानी कुछ इस तरह की है कि मोहन (कुंदन) अपनी विधवा माँ गंगादेवी (लीला चिटनिस) के साथ रहता है और उसे श्यामा (साधना) नाम की लड़की से प्यार है। दोनों शादी करने ही वाले हैं कि श्यामा की कोई गोली मार कर हत्या कर देता है। पुलिस आती है और चश्मदीद गवाह बिंदिया (पूर्णिमा) मोहन को ख़ूनी ठहराती है। इस तरह से मोहन को सज़ा हो जाती है। केवल उसकी माँ को यह विश्वास है कि उसका बेटा निर्दोष है। इसलिए वो अख़बार में विज्ञापन देती है कि जो कोई भी उसके बेटे को निर्दोष साबित कराएगा, उसे वो १०,००० रुपय का इनाम देंगी (५० के दशक में १०,००० रुपय भारी भरकम रकम हुआ करती थी)। और वो पाठकों से अपना रेस्पॊन्स पोस्ट बॊक्स ९९९ पर भेजने के लिए उस विज्ञापन में लिख देती हैं। कई सालों तक तो कोई भी ख़त नहीं आता, पर वो हार नहीं मानती। ५ साल के बाद किसी प्रकाशन संस्था में कार्यरत एक नौजवान विकास (सुनिल दत्त) उस विज्ञापन को पढ़ लेता है और वो गंगादेवी के बेटे को निर्दोष साबित कराने की ठान लेता है। इस मिशन में उसका साथी बनती है नीलिमा (शक़ीला) जो कि फ़िल्म की नायिका हैं। इस तरह से फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ती है और अंत में यह मर्डर मिस्ट्री सुलझती है।

आज लोग इस फ़िल्म की कहानी को तो भूल चुके हैं, लेकिन इस फ़िल्म का संगीत उस समय भी जवान था, आज भी जवान है। फ़िल्म में संगीत था कल्याणजी वीरजी शाह का। जी नहीं, इसमें आनंदजी नहीं थे। कल्याणजी-आनंदजी की जोड़ी बनने से पहले की यह फ़िल्म थी, और केवल कल्याणजी भाई ने ही फ़िल्म का संगीत दिया था। लेकिन इस फ़िल्म में आनंदजी ने बतौर संगीत सहायक काम ज़रूर किया था। वैसे कल्याणजी की पहली एकल फ़िल्म थी 'सम्राट चन्द्रगुप्त', जो इसी साल, यानी कि १९५८ में बनी थी। दोनों फ़िल्मों के गानें सुपर डुपर हिट। ख़ुद संगीतकार बनने से पहले कल्याणजी शंकर जयकिशन के सहायक हुआ करते थे। फिर दोनों भाइयों ने ऒर्केस्ट्रा में वादक के रूप में काम किया, जीवंत संगीत परिवेशन भी किया। जोड़ी के रूप में कल्याणजी-आनंदजी की पहली फ़िल्में आईं सन् १९५९ में, सट्टा बाज़ार और मदारी, जिनके गानों की भी ख़ूब वाह वाही हुई। और इस सुरीली जोड़ी ने जैसे फ़िल्म इंडस्ट्री में हंगामा कर दिया। दोस्तों, क्योंकि आज का गीत स्वरबद्ध किया है कल्याणजी भाई ने, तो क्यों ना हम आनंदजी से उनके उद्‍गार सुनें अपने बड़े भाई साहब के बारे में! उनसे सवाल पूछ रहें हैं विविध भारती पर वरिष्ठ उद्‍घोषक कमल शर्मा।

प्र: आनंदजी, इस फ़िल्म इंडस्ट्री में आप ने बहुत लोगों के साथ काम किया, लेकिन आप जिनके सब से करीब थे, वो थे कल्याणजी भाई। आप ने कैसा पाया उन्हे एक भाई की हैसीयत से और एक पार्टनर की हैसीयत से?
उ: अब आप ने ऐसी बात छेड़ दी शुरु में ही, कल्याणजी भाई मेरे बड़े भाई ही नहीं बल्कि एक फ़ादर फ़िगर थे मेरे लिए। उनका साया हमेशा मेरे साथ था, वो मेरे साथ थे, शायद इसीलिए मैं किसी ग़लत रास्ते पे नहीं गया। होता है ना कि फ़िल्म इंडस्ट्री में आ गए तो इधर उधर भटक जाने का डर होता है, लेकिन क्योंकि वो मेरे साथ रहते थे तो मैं भी काबू में था और किसी ग़लत रास्ते पे नहीं गया।

प्र: कोई गाना बनाते वक़्त क्या आप दोनों एक जैसा ही सोचते थे? क्या कभी ऐसा हुआ कि आप ने कोई ट्युन बनाई जो उनको पसंद नहीं आया?
उ: देखिए, अब हम दोनों का नज़रिया थोड़ा अलग ज़रूर था, लेकिन जो गाना बन के आता था उसमें हम दोनों का कन्ट्रिब्युशन होता था। वो मुझसे ५ साल बड़े थे, इसलिए ५ साल का जेनरेशन गैप तो रहेगा ही। अब जैसे उनको क्लासिकल म्युज़िक ज़्यादा इस्तेमाल करना अच्छा लगता था, जब कि मुझे थोड़ा वेस्टर्ण अच्छा लगता था। वो कहते थे कि म्युज़िक उतनी ही किसी गीत में भरनी चाहिए जितनी ज़रूरत हो। आपके पास साज़ हैं, इसका मतलब यह नहीं कि हर गाने में सब कुछ इस्तेमाल करना है।


दोस्तों, इस बातचीत का सिलसिला हम आगे भी जारी रखेंगे जब भी कभी इस जोड़ी के गीत पेश होंगे इस महफ़िल में। फिलहाल इस बातचीत को विराम देते हुए आपको सुनवाते हैं शरद तैलंग जी की फ़रमाइश पर सुनहरे दौर का यह सुनहरा नग़मा।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

वो तो चल दिया लूट मेरी दुनिया,
उजड गया पल भर में दिल का घर,
हमने उल्फत में एक संगदिल के,
फूलों को छोड काटों पे किया गुजर...

अतिरिक्त सूत्र -नौशाद की संगीत रचना है ये

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह जी अवध जी लौटे हैं एक बार फिर, २ अंकों के लिए बधाई...शरद जी को धन्येवाद दे ही चुके हैं, निर्मला जी और अनुराग जी का भी बहुत आभार

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, January 27, 2010

बुझा दिए हैं खुद अपने हाथों से....दर्द की कसक खय्याम के सुरों में...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 327/2010/27

-रद तैलंग जी के पसंद का अगला गाना है फ़िल्म 'शगुन' से। सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में यह है इस फ़िल्म का एक बड़ा ही मीठा गीत "बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों से मोहब्बत के दीये जलाके"। साहिर लुधियानवी की शायरी और ख़य्याम साहब का सुरीला सुकून देनेवाला संगीत। इसी फ़िल्म में सुमन जी ने रफ़ी साहब के साथ "ठहरिए होश में आ लूँ तो चले जाइएगा" और "पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है" जैसे हिट गीत गाए हैं। आज के प्रस्तुत गीत की बहुत ज़्यादा चर्चा नहीं हुई लेकिन उत्कृष्टता में यह गीत किसी भी दूसरे गीत से कुछ कम नहीं, और यह गीत सुमन कल्याणपुर के गाए बेहतरीन एकल गीतों में से एक है। फ़िल्म 'शगुन' आई थी सन् १९६४ में, जिसका निर्माण हुआ था शाहीन आर्ट के बैनर तले, निर्देशक थे नज़र, और फ़िल्म के कलाकार थे कंवलजीत सिंह, वहीदा रहमान, चांद उस्मानी, नज़िर हुसैन, नीना और अचला सचदेव। दोस्तों, आपको यह बता दें कि यही कंवलजीत असली ज़िंदगी में वहीदा रहमान के पति हैं। 'शगुन' में सुमन कल्याणपुर और मोहम्मद रफ़ी के अलावा जिन गायकों ने गानें गाए वो थे तलत महमूद, मुबारक़ बेग़म और जगजीत कौर। जगजीत जी जो ख़य्याम साहब की धर्मपत्नी हैं, इस फ़िल्म में एक बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत गाया था "तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो" जो बड़ा ही मक़बूल हुआ था। इस गीत को हम जल्द ही कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं को समर्पित शृंखला के दौरान आपको सुनवाएँगे। दोस्तों, फ़िल्म 'शगुन' तो कामयाब नहीं हुई लेकिन ख़य्याम साहब का ठहराव वाला संगीत सुनने वालों के दिलों में कुछ ऐसा जा कर ठहरा कि आज तक उनके दिलों में वो बसा हुआ है।

दोस्तों, आज हम शरद जी के इस पसंदीदा गीत के बहाने चर्चा करेंगे सुमन कल्याणपुर जी का। उनके द्वारा प्रस्तुत 'जयमाला' कार्यक्रम का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है - "गीत शुरु करने से पहले मैं एक आपको बात बता देना आवश्यक समझती हूँ, कि मैं पार्श्व गायिका अवश्य हूँ, परंतु मेरा व्यवसाय संगीत नहीं है। संगीत मेरी आस्था है और गीत मेरी आराधना है। नाद शास्त्र में भगवान ने कहा है कि "नाहम् वसामी बैकुंठे, योगीनाम् हृदये न च, मदभक्त यत्र गायंती, तत्र तिष्ठामी नारद"।" दोस्तों, कितने उच्च विचार हैं सुमन जी के अपनी संगीत साधना को लेकर। और दोस्तों, उसी कार्यक्रम में सुमन जी ने आज का यह गीत भी बजाया था, जिसका अर्थ यह है कि यह गीत सुमन जी को भी बेहद पसंद है, और इस गीत को बजाने से ठीक पहले उन्होने ये कहा था - "दर्द के वो पल काटे नहीं कटते, जब कोई ऐसा भी नहीं होता कि उसे दिल का हाल बताकर कुछ जी हल्का किया जा सके। और ना कोई ऐसी राह सूझती है जो मंज़िल की तरफ़ ले जाए।" दोस्तों, हमने सुना है कि सुमन जी के परिवार के लोगों को उनका फ़िल्मों में गाना पसंद नहीं था और उनके गायन को लेकर उनके ससुराल में अशांति रहती थी। इसलिए उन्होने ही एक समय के बाद गाना छोड़ दिया और यहाँ तक कि फ़िल्म जगत से ही किनारा कर लिया। इस गीत के बोल भी कितने मिलते जुलते हैं ना उनकी ज़िंदगी से कि "बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों से मोहब्बत के दीये जलाके"। मुलाहिज़ा फ़रमाएँ।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

दुनिया में प्रीत की भी है रीत अजीब,
कोई पास रहकर भी है कितना दूर,
जाने क्या राज़ है उसकी बेरुखी में,
आखिर कोई क्यों है इतना मजबूर...

अतिरिक्त सूत्र -इस युगल गीत में पुरुष स्वर मन्ना दा का है

पिछली पहेली का परिणाम-
अरे इतने शानदार गीत पर भी कोई जवाब देने वाला नहीं...ताज्जुब है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

दुखाए दिल जो किसी का वो आदमी क्या है.. मुज़फ़्फ़र वारसी के शब्दों के सहारे पूछ रही हैं मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६८

पिछली दो कड़ियों से न जाने क्यों वह बात बन नहीं पा रही थी, जिसकी दरकार थी। वैसे कारण तो हमें भी पता है और आपको भी। हम इसलिए नहीं बताना चाहते कि खुद की क्या टाँग खींची जाए और आप तो आप ठहरे.. भला आप किसी का दिल क्यों दुखाने लगे। चलिए हम हीं बताए देते हैं... कारण था आलस्य। जैसा कि हमने पिछली कड़ी में यह वादा किया था कि अगली बार चाहे कितनी भी ठंढ क्यों न हो, चाहे कुहरा कितना भी घना क्यों न हो, हम अपनी महफ़िल को पर्याप्त समय देंगे.. बस ४५ मिनट में हीं इति-श्री नहीं कर देंगे और यह तो सभी जानते हैं कि जो वादा न निभाए वो प्यादा कैसा... माफ़ कीजिएगा शहजादा कैसा तो हमें वादा निभाना हीं था, आखिर हम भी तो कहीं के शहजादे हैं.... हैं ना, कहीं और के नहीं तो आपके दिलों के.... मानते हैं ना आप? हमें लगता है कि बातें ज्यादा हो गईं, इसलिए अब काम पर लग जाना चाहिए। काम से याद आया, हमने इन बातों को शुरू करने से पहले कुछ कहा था.. हाँ, यह कहा था कि आप किसी का दिल नहीं दुखाना चाहेंगे। तो हमारी आज की महफ़िल का संदेश भी यही है.. और आज की नज़्म इसी संदेश को पुख्ता करती है। शायर के लफ़्ज़ों में कहें तो "दुखाए दिल जो किसी का वो आदमी क्या है, किसी के काम न आए तो ज़िंदगी क्या है।" आदमी और ज़िंदगी की सही परिभाषा इससे बढकर क्या हो सकती है! कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर शायर न होते तो इन बातों को हम तक पहुँचाता कौन। अब शायर की बात जो चल हीं निकली है तो लगे हाथों शायर से रूबरू भी हो लेते हैं। इस बेहतरीन नज़्म को लिखने वाले शायर का नाम है "मुज़फ़्फ़र वारसी"। अपनी पुस्तक "दर्द चमकता है- मुज़फ़्फ़र वारसी की गज़ले" के प्राक्कथन में सुरेश कुमार लिखते हैं: पाकिस्तानी शायरी में मुज़फ़्फ़र वारसी का नाम एक जगमगाते हुए नक्षत्र की तरह है। उन्होंने यद्यपि उर्दू शायरी की प्रायः सभी विधाओं में अपने विचारों को अभिव्यक्ति दी है। किन्तु उनकी लोकप्रियता एक ग़ज़लगों शायर के रूप में ही अधिक है।

मिरी जिंदगी किसी और की, मिरे नाम का कोई और है,
मिरा अक्स है सर-ए-आईना,पस-ए-आईना कोई और है।

जैसा दिलकश और लोकप्रिय शे’र कहने वाले मुज़फ़्फ़र वारसी ने साधारण बोलचाल के शब्दों को अपनी ग़ज़लों में प्रयोग करके उन्हें सोच-विचार की जो गहराइयाँ प्रदान की हैं, इसके लिए उन्हें विशेष रूप से उर्दू अदब में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मुज़फ़्फ़र वारसी पाकिस्तान के उन चन्द शायरों में से एक हैं, जिनकी ख्याति सरहदों को लाँघ कर तमाम उर्दू संसार में प्रेम और मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए खुशबू की तरह बिखरी हुई है। भारत और पाकिस्तान के अनेक विख्यात ग़ज़ल गायकों ने उनकी ग़ज़लों को अपना स्वर देकर उन्हें हिन्दी और उर्दू काव्य-प्रेमियों के बीच प्रतिष्ठित किया है। भारत से प्रकाशित होने वाली प्रायः सभी उर्दू पत्रिकाओं में कई दशकों से उनकी शायरी प्रकाशित हो रही है और वे भारत में भी उतने ही लोकप्रिय हैं, जितने कि पाकिस्तान में। ‘बर्फ़ की नाव’, ‘खुले दरीचे बन्द हवा’, ‘कमन्द’ मुज़फ़्फ़र वारसी की ग़ज़लों के प्रसिद्ध उर्दू संग्रह हैं। दर्द चमकता है देवनागरी में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है।
मुज़फ़्फ़र वारसी एक ऐसे शख्सियत हैं जिनकी उपलब्धियों को बस एक पैराग्राफ़ में नहीं समेटा जा सकता। हमारी मजबूरी है कि हम इनके बारे में आज इससे ज्यादा नहीं लिख सकते, लेकिन वादा करते हैं कि अगली बार जब भी इनकी कोई गज़ल या कोई नज़्म हमारी महफ़िल में शामिल होगी, हम पूरी की पूरी महफ़िल इनके हवाले कर देंगे।

शायर के बाद अब हम इस्तेकबाल करते हैं आज की नज़्म को अपनी आवाज़ से सजाने वाली फ़नकारा का। इन फ़नकारा के बारे में यह कहना हीं काफ़ी होगा कि हर उदीयमान गायक की प्रेरणास्रोत स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने भी जब अपने कैरियर का आगाज किया तो उनपर इनकी गायकी का प्रभाव था। जन्म से अल्ला वसई और प्यार से नूरजहां कही जाने वाली इन फ़नकारा का जन्म २१ सितंबर १९२६ को अविभाजित भारत भारत के कसूर(पंजाब का एक छोटा-सा शहर) नामक स्थान पर हुआ था। (सौजन्य: जागरण): नूरजहां का जन्म पेशेवर संगीतकार मदद अली और फतेह बीबी के परिवार में हुआ था। वह अपने माता-पिता की ११ संतानों में एक थीं। संगीतकारों के परिवार में जन्मीं नूरजहां का बचपन से ही संगीत के प्रति गहरा लगाव था। नूरजहां ने पांच-छह साल की उम्र से ही गायन शुरू कर दिया था। उनकी बहन आइदान पहले से ही नृत्य और गायन का प्रशिक्षण ले रही थीं। उन दिनों कलकत्ता थिएटर का गढ़ हुआ करता था। वहां परफार्मिंग आर्टिस्टों, पटकथा लेखकों आदि की काफी मांग थी। इसी को ध्यान में रखकर नूरजहां का परिवार १९३० के दशक के मध्य में कलकत्ता चला आया। जल्द ही नूरजहां और उनकी बहन को वहां नृत्य और गायन का अवसर मिल गया। उनकी गायकी से प्रभावित होकर संगीतकार गुलाम हैदर ने उन्हें के डी मेहरा की पहली पंजाबी फिल्म शीला उर्फ पिंड दी कुड़ी में बाल कलाकार की संक्षिप्त भूमिका दिलाई। १९३० के दशक के उत्तरा‌र्द्ध तक लाहौर में कई स्टूडियो अस्तित्व में आ गए। गायकों की बढ़ती मांग को देखते हुए नूरजहां का परिवार १९३७ में लाहौर आ गया। डलसुख एल पंचोली ने बेबी नूरजहां को गुल-ए-बकवाली फिल्म में भूमिका दी। इसके बाद उनकी यमला जट (१९४०), चौधरी फिल्म प्रदर्शित हुई। इनके गाने काफी लोकप्रिय हुए। वर्ष १९४२ में नूरजहां ने अपने नाम से बेबी शब्द हटा दिया। इसी साल उनकी फिल्म खानदान आई जिसमें पहली बार उन्होंने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसी फिल्म के निर्देशक शौकत हुसैन रिजवी के साथ उन्होंने शादी की। वर्ष १९४३ में नूरजहां बंबई चली आईं। महज चार साल की संक्षिप्त अवधि के भीतर वह अपने सभी समकालीनों से काफी आगे निकल गईं। भारत और पाकिस्तान दोनों जगह के पुरानी पीढ़ी के लोग उनकी क्लासिक फिल्मों के आज भी दीवाने हैं। अनमोल घड़ी (१९४६) और जुगनू (१९४७) उनकी सबसे बड़ी हिट फिल्म है। अनमोल घड़ी का संगीत नौशाद ने दिया था। उसके गीत आवाज दे कहां है, जवां है मोहब्बत, और मेरे बचपन के साथी जैसे गीत आज भी लोगों की जुबां पर हैं। नूरजहां विभाजन के बाद अपने पति के साथ बंबई छोड़कर लाहौर चली गईं।

रिजवी ने एक स्टूडियो का अधिग्रहण किया और उन्होंने शाहनूर स्टूडियो शुरू किया। शाहनूर प्रोडक्शन ने फिल्म चन्न वे (१९५०) का निर्माण किया जिसका निर्देशन नूरजहां ने किया। यह फिल्म बेहद सफल रही। इसमें तेरे मुखड़े पे काला तिल वे जैसे लोकप्रिय गाने थे। उनकी पहली उर्दू फिल्म दुपट्टा थी। इसके गीत चांदनी रातें...चांदनी रातें आज भी लोगों की जुबां पर हैं। जुगनू और चन्ना वे की ही तरह इसका भी संगीत फिरोज निजामी ने दिया था। नूरजहां की आखिरी फिल्म बतौर अभिनेत्री बाजी थी जो १९६३ में प्रदर्शित हुई। उन्होंने पाकिस्तान में १४ फिल्में बनाईं जिसमें १० उर्दू फिल्में थीं। उन्होंने अपने से नौ साल छोटे एजाज दुर्रानी से दूसरी शादी की। पारिवारिक दायित्वों के कारण उन्हें अभिनय को अलविदा करना पड़ा। हालांकि, उन्होंने गायन जारी रखा। पाकिस्तान में पा‌र्श्व गायक के तौर पर उनकी पहली फिल्म जान-ए-बहार (१९५८) थी। उन्होंने अपने आधी शताब्दी से अधिक के फिल्मी कैरियर में उर्दू, पंजाबी और सिंधी आदि भाषाओं में १० हजार गाने गाए। उन्हें मनोरंजन के क्षेत्र में पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान तमगा-ए-इम्तियाज से सम्मानित किया गया था। दिल का दौरा पड़ने से नूरजहां का २३ दिसंबर २००० को निधन हो गया।
यह थी नूरजहां की संक्षिप्त जीवनी। वैसे क्या आपको पता है कि महज ४ सालों में हीं नूरजहां ने हिन्दी-फिल्मी संगीत के आसमान में अपनी स्थिति एक खुर्शीद-सी कर ली थी और इसी कारण इन्हें मल्लिका-ए-तरन्नुम कहा जाने लगा था और यकीन मानिए आज तक यह उपाधि उनसे कोई छीन नहीं पाया है। कहते हैं कि १९४७ में जब नूरजहां ने पाकिस्तान जाने का फैसला लिया था तो खुद युसूफ़ साहब यानि कि दिलीप कुमार ने इनसे हिन्दुस्तान में बने रहने का आग्रह किया था.. अलग बात है कि नूरजहां ने उनकी यह पेशकश यह कहकर ठुकरा दी थी कि "मैं जहां पैदा हुई हूं वहीं जाउंगी।" उनका निर्णय सही था या गलत यह तो वही जानें लेकिन शायद उनके इसी स्वाभिमान को कभी-कभार कुछ लोग उनका घमंड मान बैठते थे। उदाहरण के लिए: कथा-साहित्य के किंवदंती पुरुष सआदत हसन मंटो की नजर में वह मल्लिका-ए-तरन्नुम तो थीं, पर उन्हें वह बददिमाग और नखरेबाज मानते थे। ऐसा क्यों..अगर आप यह जानना चाहते हों तो नूरजहां के अगले गाने का इंतज़ार करें, तभी इस राज़ पर से परदा उठाया जाएगा। कहते हैं ना कि इंतज़ार का फल मीठा होता है, इसलिए "थोड़ा इंतज़ार का मज़ा लीजिए"।

इन बातों के बाद अब वक्त है आज की नज़्म का, जिसे हमने १९६८ में रीलिज हुई फिल्म अदालत से लिया है। नज़्म में संगीत है जनाब तस्सादक हुसैन का। बोल हैं....आप तो जानते हैं कि इस नज़्म में बोल किसके हैं। इस गीत में बड़े हीं तफ्शील से यह बताया गया है कि सही आदमी की पहचान कैसे की जाए। आपको भी जानना हो तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है आज की प्रस्तुति:

दुखाए दिल जो किसी का वो आदमी क्या है,
किसी के काम न आए तो ज़िंदगी क्या है।

किसी को तुझ से गिला तेरी बेरूखी का न हो,
जो हो चुका है तेरा तू अगर उसी का न हो,
फिर उसके वास्ते ये क़ायनात भी क्या है,
किसी के काम न आए तो ज़िंदगी क्या है।

किसी के दिल की तू _____ है क़रार नहीं,
खिलाए फूल जो ज़ख्मों के वो बहार नहीं,
जो दूसरों के लिए ग़म हो वो खुशी क्या है,
किसी के काम न आए तो ज़िंदगी क्या है।

ये क्या कि आग किसी की हो और कोई जले,
बने शरीक-ए-सफ़र जिसका उससे बचके चले,
जो फ़ासले न मिटा दे वो प्यार हीं क्या है,
किसी के काम न आए तो ज़िंदगी क्या है।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "सूरत" और पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं -

जो भी देखे उनकी सूरत
झुकी झुकी अंखियों से प्यार करे

नज़्म को सुनकर इस शब्द की सबसे पहले सही पहचान की सीमा जी ने। हमारी महफ़िल की शोभा बनना सीमा जी आपकी आदत हो चली है। बड़ी हीं भली आदत है..इसे कभी बिगड़ने मत दीजियेगा। ये रही आपकी पेशकश:

ऐ बादशाह्-ए-ख़बाँ-ए-जहाँ तेरी मोहिनी सुरत पे क़ुर्बाँ
की मैं ने जो तेरी जबीं पे नज़र मेरा चैन गया मेरी नींद गई (बहादुर शाह ज़फ़र)

ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा
मेरी सुरत बावली बोली-
...मेरा कौन कसाला झेले? (माखनलाल चतुर्वेदी)

तुम्हारी सुरत पे आईना ठहरता नही
इस सुरत से जमाना गुजरता नही (अजय निदान)

शरद जी ने खुद के लिखे शेर के साथ महफ़िल में हाज़िरी लगाई। साथ-साथ आपने दूसरे शायरों के शेर भी कहे:

जब से मेघों से मुहब्बत हो गई है, सूर्य की धुंधली सी सूरत हो गई है,
झूमता है चन्द्र मुख को देख सागर, आदमी सी इसकी आदत हो गई है। (स्वरचित)

हालाते जिस्म सूरते जाँ और भी खराब, चारों तरफ़ खराब यहाँ और भी खराब,
सोचा था उनके देश में मंहगी है ज़िन्दगी, पर ज़िन्दगी का भाव वहाँ और भी खराब। (दुष्यन्त कुमार)

अजीब सूरते हालात होने वाली है, सुना है, अब के उसे मात होने वाली है,
मैं थक के गिरने ही वाला था उसके कदमों में, मेरी नफ़ी मेरा इसबात होने वाली है। (अमीर क़ज़लबाश)

अवध जी, आपने हबीब वली साहब की बेहतरीन गज़लों/नज़्मों का जो लेखाजोखा हमारे सामने रखा है, हम कोशिश करेंगे कि आने वाले दिनों में ये सारी हीं महफ़िल की रौनक बन जाएँ। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। ये रहे आपकी तरकश के तीर:

कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती.
मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती. (मिर्ज़ा ग़ालिब)

या कोई जान बूझ कर अनजान बन गया
या फिर यही हुआ मेरी सूरत बदल गयी। (अदम)

आगे की महफ़िल को हर बार की तरह हीं शामिख जी ने अकेले संभाला। आपने कई सारे शेर पेश किए। हम उनमें से कुछ मोती चुनकर लाए हैं:

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग
एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग (क़तील शिफ़ाई)

कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को (गुलज़ार)

देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद
वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती (निदा फ़ाज़ली)

वो प्यारी प्यारी सूरत, वो कामिनी सी मूरत
आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना (इक़बाल)

मंजु जी , बड़ी देर कर दी आपने आने में। हमारी महफ़िल का पता भूल गई थीं क्या? कुछ और देर करतीं तो अगली महफ़िल में आपसे मिलना होता। यह रहा आपकी स्वरचित पंक्तियाँ:

जब -जब तुम मुझ से बिछुड़ते हो ,
तब -तब तेरी मोहिनी सूरत सूरज -चाँद -सी साथ निभाती है .

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, January 26, 2010

हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है....गणतंत्र दिवस पर एक बार फिर गर्व के साथ गाईये



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 326/2010/26

६१-वें गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य पर 'आवाज़' की पूरी टीम की तरफ़ से आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ। हमारा देश निरंतर प्रगति के मार्ग पर बढ़ती रहे, समाज में फैले अंधकार दूर हों, यही कामना करते हैं, लेकिन सिर्फ़ कामना करने से ही बात नहीं बनेगी, जब तक हम में से हर कोई अपने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ योगदान इस दिशा में करें। देशभक्ति का अर्थ केवल हाथ में बंदूक उठाकर दुश्मनों से लड़ना ही नहीं है। बल्कि कोई भी काम जो इस देश और देशवासियों के लिए लाभकारी सिद्ध हो, वही देशभक्ति है। इसलिए हर व्यक्ति देशभक्ति का परिचय दे सकता है। ख़ैर, आइए अब रोशन करें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को। दोस्तों, साल २००९ के अंतिम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी, यानी कि ३००-वीं कड़ी में हमने आप से पूछा था एक महापहेली, जिसमें कुल १० सवाल थे। इन दस सवालों में सब से ज़्यादा सही जवाब दिया शरद तैलंग जी ने और बनें इस महासवाल प्रतियोगिता के विजेयता। इसलिए आज से अगले पाँच दिनों में हम शरद जी के पसंद के चार गानें सुनेंगे, जो उन्हे हमारी तरफ़ से इनाम है। तो आज पेश-ए-ख़िदमत है शरद जी की पसंद का पहला गीत। इसे इत्तेफ़ाक़ ही कह लीजिए कि शरद के चुने हुए गीतों में आज का यह गीत भी था, और संयोग वश आज २६ जनवरी भी है। तो क्यों ना आज के इस ख़ास दिन को याद करते हुए सुनें राज कपूर की फ़िल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' से मुकेश की आवाज़ में वही सदाबहार देशभक्ति गीत "होटों पे सच्चाई रहती है, जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है"।

क्या ख़ूब लिखा है शैलेन्द्र जी ने इस गीत को! बाहर की दुनिया को अपने देश की महानता से अवगत करवाने का इससे सरल तरीका और भला क्या होगा। आज के हालात में भले ही यह गीत थोड़ा सा अतिशयोक्ति का आभास कराए, लेकिन इसे अगर हम एक देशभक्ति गीत के नज़रिए से देखें, तो यह एक बड़ा ही नायाब गीत है। शब्दों में सरलता होते हुए भी अर्थ बहुत गहरा है। 'जिस देश में गंगा बहती है' सन् १९६० की फ़िल्म थी। राज कपूर और पद्मिनी अभिनीत यह फ़िल्म दरसल एक 'क्राइम मेलोड्रामा' है। जहाँ एक तरफ़ इस फ़िल्म में राज साहब ने गंगा मैय्या का गुणगान किया है, वहीं आगे चलकर ८० के दशक में उन्होने ही बनाई फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली'। क्या कॊन्ट्रस्ट है! राधु कर्मकार निर्देशित 'जिस देश...' की कहानी अर्जुन देव रश्क ने लिखी, और फ़िल्म के संगीतकार का नाम बताने के ज़रूरत नहीं, शंकर जयकिशन। इस फ़िल्म ने उस साल फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स में हंगामा कर दिया। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (राज कपूर), सर्वश्रेष्ठ एडिटिंग्‍ (जी. जी. मायेकर), सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन (एम. आर. आचरेकर) के पुरस्कार तो जीते ही, सर्वर्श्रेष्ठ अभिनेत्री के लिये पद्मिनी, सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक के लिये मुकेश (प्रस्तुत गीत) और सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए शंकर जयकिशन (प्रस्तुत गीत) का नाम नामांकित हुआ था। दोस्तों, इस फ़िल्म की कहानी के बारे में हम आपको फिर किसी दिन बताएँगे, अभी तो इस फ़िल्म के और भी कई गानें इस महफ़िल में बजने हैं। तो लीजिए सुनिए शरद जी की फ़रमाइश पर यह गीत। अगर इस गीत को सुनते हुए आपको महेन्द्र कपूर का गाया "है प्रीत जहाँ की रीत सदा" गीत याद आ जाती है तो इसमें आपका कोई क़सूर नहीं है। चलते चलते आप सभी को एक बार फिर से गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

मालूम था ये एक दिन होगा,
ये फैसला इत्तेफाकन कब था,
जीयेगें टकरा के पत्थरों से सर,
तुझे भुला देना आसान कब था...

अतिरिक्त सूत्र -खय्याम के संगीत से सजा है ये नगमा

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी गीत तो आपकी पसंद का है, इंदु जी ने सही जवाब दिया है....उन्हें बधाई, मनु जी को अरसों बाद यहाँ देखा, और अवध जी महफ़िल में जब आते हैं खुशी होती है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, January 25, 2010

कहीं बेखयाल होकर यूं ही छू लिया किसीने...और डुबो दिया रफ़ी साहब ने मजरूह की शायरी में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 325/2010/25

इंदु जी के पसंद के गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं उनके चुने हुए पाँचवे और फ़िल्हाल अंतिम गीत पर। पिछले चार गीतों की तरह यह भी एक सदाबहार नग़मा है। इन सभी गीतों में एक समानता यह रही कि इन गीतों का संगीत जितना सुरीला है, इनके बोल भी उतने ही ख़ूबसूरत। आज का गीत है "कहीं बेख़याल होकर युं ही छू लिया किसी ने, कई ख़्वाब देख डाले यहाँ मेरी बेख़ुदी ने"। अब बताइए कि भाव तो बहुत ही साधारण और रोज़ मर्रा की ज़िंदगी वाला है कि बेख़याली में किसी ने छू लिया। लेकिन इस साधारण भाव को लेकर एक असाधारण गीत की रचना कर डाली है मजरूह साहब, दादा बर्मन और रफ़ी साहब की तिकड़ी ने। हालाँकि मजरूह साहब का कहना है कि दरसल इस गीत को कॊम्पोज़ जयदेव जी ने किया था जो उन दिनों दादा के सहायक हुआ करते थे। ख़ैर, हम इस वितर्क में नहीं पड़ना चाहते, बल्कि आज तो सिर्फ़ इस गीत का आनंद ही उठाएँगे। फ़िल्म 'तीन देवियाँ' का यह गीत है जो देव आनंद पर फ़िल्माया गया था जो कश्मीर में किसी महफ़िल में इसे गाते हैं। थोड़ा सुफ़ीयाना अंदाज़ भी झलकता है इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल में, और इसके संगीत संयोजन में रबाब की ध्वनियाँ हमें जैसे कश्मीर के दर्शन करा लाते हैं। देव आनंद ने जब अपने करीयर की शुरुआत की थी, तब हेमंत कुमार और फिर किशोर कुमार उनकी आवाज़ बनें। फिर एक वक़्त आया जब रफ़ी साहब की आवाज़ पर उन्होने एक से एक सुपरहिट गीत गाए। 'तीन देवियाँ' वह फ़िल्म थी जिसमें एक बार फिर से किशोर दा की वापसी हुई देव साहब के गीतों के लिए। लेकिन रफ़ी साहब के गाए इस गीत की नाज़ुकी और मदहोश कर देने वाली अंदाज़ को शायद कोई और कलाकार बाहर न ला पाता!

'तीन देवियाँ' १९६५ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन अमरजीत ने किया था। देव साहब की तीन देवियाँ थीं नंदा, कल्पना और सिमी गरेवाल। इस फ़िल्म में जयदेव के साथ साथ राहुल देव बर्मन और बासुदेव चक्रबर्ती (जो बाद में बासु-मनोहारी की जोड़ी में कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया) भी बर्मन दादा के सहायक थे। अब आपको शायद पता हो कि राहुल देव बर्मन बहुत अच्छा रबाब बजाते थे, तो हो सकता है कि इस गीत में जो रबाब सुनने को मिलता है, वो उन्ही ने बजाया हो! इस फ़िल्म की कहानी से अब आपको थोड़ा सा परिचित करवाया जाए! फ़िल्म का शीर्षक ही कौतुहल पैदा करती है कि आख़िर किस तरह की होगी इसकी कहानी! तो साहब, कहानी कुछ ऐसी है कि देव आनंद एक साज़ बेचने वाली कंपनी में काम करते हैं, जो हमेशा काम पर देर से पहुँचते हैं। उनके बॊस (आइ. एस. जोहर) उनसे चिढ़े रहे हैं। लेकिन जब जोहर को पता चलता है कि देव एक बहुत अच्छा शायर हैं, तो वो उनसे शायरी लिखवाते हैं और प्रकाशित भी करते हैं। इससे देव साहब दुनिया के सामने आ जाते हैं और जोहर का व्यापार भी ज़बरदस्त चल पड़ता है। एक दिन देव की मुलाक़ात नंदा से होती है जो कि उनके नए पड़ोसी हैं। दोनों एक दूसरे की तरफ़ आकृष्ट होते हैं। फिर एक दिन देव साहब अभिनेत्री कल्पना की गाड़ी ख़राब हो जाने पर उनकी मदद करते हैं, तो कल्पना जी को जब पता चलता है कि देव साहब एक शायर हैं, तो वो उनसे एक मुलाक़ात का आयोजन करती हैं। इस तरह से दोनों एक दूसरे की तरफ़ आकृष्ट हो जाते हैं। इतना ही काफ़ी नहीं था, एक दिन देव साहब को एक अमीर औरत (सिमी गरेवाल) के घर एक पियानो डेलिवर करने जाना था। सिमी जी भी उनसे प्रभावित हो जाती हैं और उनके घर में आयोजित पार्टी में उन्हे इनवाइट भी कर देती हैं। (प्रस्तुत गीत शायद इसी पार्टी में गाया गया था)। फिर एक बार दोनों में संबंध बढ़ने लगते हैं। यह समझते हुए कि एक साथ तीन तीन देवियों से शादी नहीं हो सकती, देव साहब को अब यह तय करना है कि जीवन संगिनी के रूप में उन्हे किसे चुनना है। तो दोस्तों, यह निर्णय हम देव साहब पर ही छोड़ते हुए, अब जल्दी से इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल का मज़ा उठाते हैं, और चलते चलते इंदु जी का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं इन सुरीले और अर्थपूर्ण गीतों को हम सब के साथ बाँटने के लिए।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

दुनिया के बाज़ार में कीमत है,
हर चीज़ की मगर,
इंसान के जज़्बात बिकते,
टकों के मोल से ज्यादा नहीं...

अतिरिक्त सूत्र -शैलेन्द्र का लिखा एक मशहूर गीत है ये

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी एक और अंक आपके खाते में जुड़ा...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रण में उलझे रामू संगीत के साथ समझौता कर गए....



ताज़ा सुर ताल 04/ 2010

ताज़ा सुर ताल के मंच पर मुझे देखकर आपको हैरानी ज़रूर हो रही होगी... हो भी क्यों न, जब मुझे हीं हैरानी हो रही है तो आपका हैरान होना तो लाजिमी है। बात दर-असल यह है कि सुजोय जी अभी कुछ दिनों तक कुछ ज्यादा हीं व्यस्त रहने वाले हैं.. कुछ व्यक्तिगत कारण हैं शायद... तो इसलिए सजीव जी ने यह काम मुझे सौंपा है.... अरे डरिये मत, मैं इस मंच पर बस इस हफ़्ते हीं नज़र आऊँगा, अगले हफ़्ते से सुजोय जी वापस कमान संभाल लेंगे। तो आज के इस अंक में मुझे झेलने के लिए कमर कस लीजिए...वैसे परसो तो मैं आने हीं वाला हूँ महफ़िल-ए-गज़ल की नई कड़ी के साथ, तब आप भाग नहीं पाईयेगा।

अब चूँकि सुजोय जी नहीं, इसलिए उनका वह अंदाज़ भी नहीं। आज की संगीत-समीक्षा एक सीधी-सादी समीक्षा होगी, बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी वाद-विवाद के... और न हीं अपने विचार रखने के लिए सजीव जी दूरभाष (टेलीफोन...शुद्ध हिन्दी में इसलिए लिखा क्योंकि पिछली कड़ी में एक मित्र ने आंग्ल भाषा से बचने की सलाह दी थी) के सहारे हाज़िर होंगे। तो खोलते हैं पिटारी और देखते हैं कि भानूमति की इस पिटारी में आज किस चलचित्र के गानों की किस्मत बंद है..

आज से लगभग पंद्रह साल पहले एक फिल्म आई थी "रंगीला".. निर्देशक थे श्री रामगोपाल वर्मा। उस फिल्म में संगीत था ए०आर०रहमान का। संगीत के मामले में वह फिल्म मील का एक पत्थर मानी जाती है। आज भी जब कहीं से "हाय रामा ये क्या हुआ" की स्वर-लहरियाँ बहती हुई आती हैं तो दिल मचलने को बेताब हो उठता है.... ऐसा जादू था उस फिल्म के गानों का। ऐसा नहीं था कि उस फिल्म में बस गाने हीं थे, बल्कि कहानी भी अव्वल दर्जे की थी। देखकर और सुनकर लगता था कि रामगोपाल वर्मा ने फिल्म के हर हिस्से पर बराबर काम किया है। फिल्म सफल हुई हीं हुई, गाने भी मक़बूल हुए। फिर लगा कि रामू आगे भी ऐसा कुछ कर दिखाएँगे... लेकिन न जाने रामू को क्या हो गया, कहानी पर काम करना तो उन्हें याद रहा लेकिन संगीत को वो धीरे-धीरे दर-किनार करते चले गए। इन पंद्रह सालों में मुझे बस "सत्या" हीं एक ऐसी फिल्म नज़र आ रही है, जिनके गानों में भी बराबर का दम था। "विशाल" के संगीत और "गुलज़ार" साहब के गीतों ने बहुत दिनों के बाद रामू के फिल्म के गानों से निम्न दर्जे का लेबल हटाया था। बाकी फिल्मों की अगर गिनती करें तो बस "दौड़", "मस्त" और "कंपनी" के गाने हीं सुनने लायक थे... और वे भी कुछ हीं। आजकल तो लगता है कि रामू ने कसम ले रखी है कि संगीत पर कम खर्च किया जाए और इसी कारण उन्होंने संगीत को पार्श्व-संगीत में तब्दील कर दिया है।

इन दिनों रामू एक अलग तरह का प्रयोग कर रहे हैं और वह प्रयोग है एक फिल्म में पाँच-पाँच, छह-छह संगीतकारों को मौका देने का। शायद इसके पीछे उनकी यह मंशा रहती होगी कि हर संगीतकार से उसका बढिया काम लिया जाए ताकि पूरी एलबम लोगों को पसंद आए। पर दिक्कत यह है कि ऐसा हो नहीं पाता। कोशिश तो यह होती है कि अलग-अलग मसाले मिलाकर एक बढिया रेशिपी तैयार की जाए लेकिन मसालों की सही मात्रा न मिलने से रेशिपी एक खिचड़ी मात्र बनके रह जाती है। अब आज की हीं फिल्म को ले लीजिए... फिल्म का नाम है "रण"। "अमिताभ बच्चान" अभिनीत इस फिल्म में नौ संगीतकारों ने संगीत दिया है.. वैसे इन नौ में से दो संगीतकार-जोड़ी हैं तो गिनती में बस सात हीं आएँगे। तो ये सारे संगीतकार हैं: धर्मेश भट्ट, संदीप पाटिल, जयेश गाँधी, बापी-टुटुल, संजीव कोहली, इमरान-विक्रम और अमर मोहिले। फिल्म में गीत लिखे हैं वायु, सरिम मोमिन, संदीप सिंह और प्रशांत पांडे ने। इस फिल्म के ज्यादातर गाने एंथम की तरह हैं यानि कि "गान" की तरह। तो चलिए एक-एक करके हम सारे गानों का मुआयना करते हैं।

"सिक्कों की भूख"/"वंदे मातरम" इस फिल्म का टाईटल ट्रेक है। गाने की शुरूआत विभिन्न चैनलों के मुख्य समाचारों(हेड लाईन्स) से होती है.. फिर यह गाना "रण है" में तब्दील हो जाता है। गाने में शुद्ध हिन्दी के शब्दों का बढिया इस्तेमाल हुआ है और यही इस गाने की यू०एस०पी० भी है। गीतकार के रूप में वायु सफल हुए हैं। इस गाने को संगीत से सजाया है धर्मराज भट्ट और संदीप पाटिल ने और आवाज़ें हैं वर्दन सिंह, अदिति पौल और शादाब फरीदी की। गाने का "वंदे मातरम" नाम बस इसलिए दिया जाना कि इसके इंटरल्युड में "वंदे मातरम" का आलाप लिया गया है, ज्यादा जमता नहीं। वैसे क्या आपको याद है कि रण का पहला प्रोमो "जन गण मन रण है" गाने के साथ रीलिज हुआ था। यह अलग बात है कि वह गाना विवाद में आने के कारण फिल्म से हटा लिया गया लेकिन मेरे अनुसार आज की स्थिति पर वही गाना ज्यादा सही बैठता है। आप अगर सुनना चाहें तो यहाँ जाएँ। आखिर हमें भी तो यह जानने का हक़ है कि आज के हालात में हमारा राष्ट्रगान सही मायने में क्या बनकर रह गया है। लेकिन नहीं...सरकार हमें यह भी अधिकार नहीं देना चाहती और इसीलिए हार मानकर रामू को "जन गण मन" की बजाय "वंदे मातरम" का रूपांतरण करना पड़ा। रामू तो अब यही कहेंगे कि "अधिकार हरेक हम खो बैठे, अब रूपांतरण भी रण है.."।



इस फिल्म का अगला गाना है "रिमोट को बाहर फेंक"। "जाईयेगा नहीं मेरा मतलब दूसरे चैनल पर" .. इस पंक्ति की इतनी बार पुनरावृत्ति होती है कि आप परेशान होकर अगले गाने की ओर बढ जाते हैं। यह गाना पूरी तरह से हेडलाईन्स से बनाया गया है... अगर आपको हेडलाईन्स में रूचि है तो आप सुन सकते हैं..मुझे नहीं.. इसलिए मैं आगे बढता हूँ। सुखविंदर की आवाज़ में बापी-टुटुल के संगीत से सजा और सरिम मोमिन का लिखा अगला गाना है "काँच के जैसे"। इस गाने में सुखविंदर की आवाज़ के रेंज का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। बोल अच्छे हैं लेकिन संगीत उतना जोरदार नहीं.. फिर भी यह गाना सुना जाने लायक तो जरूर है। वैसे उम्मीद की जा सकती है कि दृश्यों के साथ इस गाने का असर ज्यादा होगा.. क्योंकि इस गाने में नायक का दर्द उभरकर आता है और दर्द जताने में अमिताभ बच्चन का कोई सानी नहीं।



अगले गाने में संजीव कोहली ने "रण है" को एक अलग हीं रूप दिया है। शब्द आसान हो गए हैं और उनमें उर्दू का पुट डाला गया है। फिर भी "रण है" कहने का अंदाज लगभग वही है जो "सिक्कों की भूख" में था। यह गाना भी गीतकार "सरिम मोमिन" के नाम जाता है। संगीतकार के पास करने को इसमें कुछ खास नहीं है।



"गली-गली में शोर है" गाना मेरा पसंदीदा है, लेकिन यह गाना हर जगह सुना नहीं जा सकता। कारण? कारण है इस गाने में गालियों का इस्तेमाल। गालियों को इस तरह से "बीप" किया गया है कि आप आसानी से सही शब्द भांप लेंगे... शायद छुपाने की यह एक कला है... कहते हैं ना साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। सुनने वाला बड़े हीं आराम से गालियों को पकड़ सकता है। बस डर इस बात का है कि फिल्म रीलिज होने पर यह गाना रामू के लिए गले का घेघ न बन जाए, क्योंकि इस तरह का प्रयोग आज से पहले किसी ने नहीं किया.. किसी मेनस्ट्रीम फिल्म में खुलेआम गालियाँ सुनाना। वैसे अगर कोई मुझसे पूछे तो मुझे यह गाना बस इन गालियों के कारण हीं पसंद है। हो सकता है कि इस बात पर आप मुझसे खफ़ा हो जाएँ या फिर आप मुझे एक बुरा इंसान मानने लगें लेकिन सच तो सच है। इस गाने को लिखा है "संदीप सिंह" ने, संगीत से सजाया है "इमरान-विक्रम" ने और आवाज़ें हैं "जोजो" और "अर्ल डिसूजा" की। खैर गलियों वाला ये गाना तो हम नहीं सुना रहे, सुनिए "जाईयेगा नहीं..."



इस फिल्म के अगले दो गाने हैं "बेशर्म" और "मेरा भारत महान"। "बेशर्म" को सुनकर "कदम-कदम बढाए जा" की याद आती है। गाने के माध्यम से जनता को जगाने की कोशिश की जा रही है.. इन बासठ सालों में जनता के सीने पर जो घाव चस्पां हुए हैं, यह गाना उन घावों को कुरेदने का काम करता है ताकि लोगों को दर्द का एहसास हो... वे अब नहीं जगेंगे तो कब जगेंगे, तब जब घाव नासूर बन जाएगा। "बेशर्म ओ बेहया तू ज़िंदा लाश बन गया"- प्रशांत पांडे के शब्द कारगर हैं, बस धार थोड़ी और तेज होती तो क्या बात थी। संगीतकार ने ज्यादा मेहनत नहीं की है और इसीलिए गायक के पास करने को कुछ खास नहीं है। "मेरा भारत महान" एक व्यंग्य के लहजे में लिखा गया है। एक पूरानी कहावत है या शायद नाना पाटेकर का संवाद है कि "सौ में अस्सी/पंचानवे बेईमान, फिर भी मेरा देश महान", यह गाने बस इसी पंक्ति के इर्द-गिर्द बुना गया है। "कुणाल गांजावाला" बहुत दिनों के बाद सुनाई दिये हैं... सरिम मोमिन के शब्दों को अमर मोहिले ने संगीतबद्ध किया है। गाना एक बार सुना जा सकता है... पसंद आ जाए तो बार-बार सुनिए, लेकिन इसकी कम हीं संभावना है।



संगीतकारों ने मेहनत तो काफी की है, लेकिन उनकी तुलना में बाजी मारी है गीतकारों ने। एलबम सुनने के बाद आपको बस बोल हीं याद रहेंगे। वैसे बोल भी याद रह जाएँ तो गनीमत है क्योंकि एक या दो गानों को छोड़कर बाकी के बोलों में भी कुछ खास दम नहीं है।

समीक्षा - विश्व दीपक तनहा

रण के संगीत को आवाज़ रेटिंग **१/२
जैसा कि वी डी ने बताया कि रण के संगीत में कुछ खास ऐसा नहीं है जो सुनने वालों को भाये, चूँकि फिल्म एक तीव्र गति की हार्ड कोर फिल्म होनी चाहिए संगीत को पार्श्व की तरह ही इस्तेमाल किया जायेगा, फिल्म की थीम के साथ ये गीत न्याय करते होंगें, जिन्हें परदे पर सही देखा सुना जा सकता है, पर एक ऑडियो के रूप में इसे सुनना बहुत अच्छा अनुभव नहीं हो सकता...शब्दों में मामले में गीतकारों ने मेहनत की है, पर हर गीत में शब्द और उपदेश कुछ जरुरत से अधिक हो गए हैं...बहरहाल एल्बम को ढाई तारों से अधिक रेटिंग नहीं दी जा सकती

अब पेश है आज के तीन सवाल-

TST ट्रिविया # १०-एक फिल्म जिसमें मात्र ३ किरदार थे, रामू ने सुशांत सिंह को "इंस्पेक्टर कुरैशी" का किरदार पहनाया था, इसी नाम का एक और किरदार उसके बाद की एक फिल्म में रामू ने फिर रचा, कौन सी थी वो फिल्म और किसने निभाया था उस किरदार को.

TST ट्रिविया # ११-इन्टरनेट मूवी डाटाबेस में शीर्ष ५० क्राईम/एक्शन फिल्म सूची में रामू कि वो कौन सी फिल्म है जो भारतीय फिल्मों में सबसे अधिक रेंक लेकर विराजमान है.

TST ट्रिविया # १२-हॉलीवुड की फिल्म "प्रीडेटर" से प्रेरित रामू की वो कौन सी फिल्म है, जिसके प्रचार प्रसार ने फिल्म से अधिक ख्याति पायी


TST ट्रिविया में अब तक -
अभी भी हैं सीमा जी सबसे आगे....मुबारक हो..मोहतरमा...

Sunday, January 24, 2010

आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहें....देखिये आपको भी 'ओल्ड इस गोल्ड' से प्यार हो जायेगा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 324/2010/24

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं इंदु जी के पसंद के गीतों को। कुल पाँच में से तीन गानें हम पिछले तीन कड़ियों में सुन चुके हैं। आज है चौथे गीत की बारी। मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले की आवाज़ों में यह है फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' का एक बड़ा ही ज़बरदस्त और सुपरहिट डुएट "आप युं ही अगर हमसे मिलते रहे, देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा"। "मस्त, प्यारा सा खूबसूरत गीत जिस के बिना कोई पिकनिक, कोई प्रोग्राम पूरा नही होता। साधना की मासूमियत भरा सौन्दर्य, प्यार के इजहार का खूबसूरत अंदाज, मधुर संगीत, सब ने मिल कर एक ऐसा गीत दिया है जिसे आप किसी भी कार्यक्रम में गा कर समा बांध सकते हैं और इंदु पुरी का मतलब ही...समा बंध जाना, महफिल की जान।" बहुत सही कहा इंदु जी, आपने। आप के पसंद पर यह गीत आज इस महफ़िल में ऐसा समा बांधेगा कि लोग कह उठेंगे कि भई वाह! क्या पसंद है! साधना और जॊय मुखर्जी पर फ़िल्माया यह गीत कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों में पिक्चराइज़ हुआ था। इस फ़िल्म की चर्चा तो हम पहले कर चुके हैं इस महफ़िल में, तो क्यों ना आज इस गीत के संगीतकार ओ. पी. नय्यर साहब की कुछ बातें कर ली जाए! क्योंकि आज का गीत बड़ा रोमांटिक सा है, और नय्यर साहब के खयालात भी उतने ही रोमांटिक थे, तो क्यों ना आज इसी गीत के बहाने उनके शख्सियत के उस पक्ष को थोड़ा जानने की कोशिश करें जो उन्होने विविध भारती पर 'दास्तान-ए-नय्यर' शृंखला में अहमद वसी, कमल शर्मा और यूनुस ख़ान को कहे थे।

अहमद वसी: वक़्त चलता हुआ, चलता हुआ, कभी ना कभी आपको इस उमर पे लाता होगा जहाँ यह गुज़रा हुआ ज़माना जो है, ये गरदिशें जो हैं, ये अक्सर परछाइयाँ बन के चलती रहती हैं। तो क्या आप समझते हैं कि जो वक़्त गुज़रा वो बड़ा सुनहरा वक़्त था?

ओ. पी. नय्यर: वसी साहब, एक तो मैंने आप से अर्ज़ की कि मेरी ज़िंदगी का 'aim and inspiration have been an woman'. अगर उसके अंदर ७०% स्वीट मिली है तो बाक़ी के ३०% अगर मिर्ची भी लगी है तो ३०% मिर्ची में क्यों चिल्लाते हो बेटा, 'you have enjoyed your life, I have loved you, what else do you want'

यूनुस ख़ान: नय्यर साहब, जब आपकी युवावस्था के दिन थे, जब आप कुछ करना चाह रहे थे, तो आपके अंदर का एक अकेलापन ज़रूर रहा होगा आपकी जवानी के दिनों में।

नय्यर: मैं बार बार कई दफ़ा बता चुका हूँ कि मैं सड़कों पे अकेला रोया करता था 'alone in the nights and for no reason'। एक दफ़ा तो हमको मार पड़ी, मैंने बोला हम आपके बेटे ही नहीं हैं, मेरे माँ बाप तो कोई और हैं। बहुत पिटाई हुई, 'But they could not understand the loneliness in me'। हमने धोखा खाया तो पुरुषों से खाया है, औरतों ने धोखा नही दिया है। मेरी ज़िंदगी में कई औरतें रहीं जिनके साथ बड़ा मेरा दिल खोल के बात होती थी, और वो 'this was about when I was 19 years old'। लाहोर में। मैंने उसको २१.५ बरस तक छोड़ा। बड़े हसीन दिन थे वो, क्योंकि एक तो मुझे लाहोर शहर पसंद था, और मेरी जो 'romantic life' शुरु हुई वो लाहोर से हुई।

कमल शर्मा: आपकी जो शादी थी वो अरेन्ज्ड थी या...

नय्यर: 'that was a love marriage'।

यूनुस: नय्यर साहब, बात लाहोर की चल रही थी, आप ने कहा आपकी 'romantic life' वहाँ से शुरु हुई, किस तरह से आप मिलते थे और किस तरह से अपनी बातें करते थे?

नय्यर: यूनुस साहब, पब्लिक में थोड़े मिलेंगे! हम तो कोना ढ़ूंढते थे कि अलग जगह बैठ के बातें करने का मौका मिले। या उसी लड़की के घर ही चले जाते थे।

यूनुस: आप ने कभी किसी को प्रेम पत्र लिखा?

नय्यर: कमाल है कि मेरे पास चिट्ठियाँ रहीं, पर मैं चिट्ठियाँ लिखने के लिए 'I feel bored'. जो कुछ कहना था अपने ज़बान से कह दिया जी।


दोस्तों, बिल्कुल इसी गीत की तरह कि जो कुछ कहना था ज़बान से ही कह दिया कि "आप युं ही अगर हमसे मिलते रहे, देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा"। पेश-ए-ख़िदमत है आशा-रफ़ी की आवाज़ों में राजा मेहंदी अली ख़ान की गीत रचना।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

कितनी हसीं है ये दुनिया,
तेरा कूचा नहीं ये जन्नत है,
ये गली जो तेरे दर से आ रही है,
यहीं मिट जाऊं सादगी में,यही आरज़ू है ...

अतिरिक्त सूत्र -रफ़ी साहब की मधुर रूमानी आवाज़ में है ये गीत

पिछली पहेली का परिणाम-
हा हा हा ...कल कुछ व्यस्तता के चलते सूत्र गढना समय से नहीं हो पाया...खैर शरद जी आपने एकदम सही गीत चुना, बधाई २ अंकों के लिए...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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