सितम्बर ३, १९४० को गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में जन्में प्यारेलाल (लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जोड़ी के) का बचपन बेहद संघर्षभरा रहा. उनका माँ का देहांत छोटी उम्र में ही हो गया था. उनके पिता पंडित रामप्रसाद जी ट्रम्पेट बजाते थे और चाहते थे कि प्यारेलाल वोयलिन सीखे. पिता के आर्थिक हालात ठीक नही थे, वे घर घर जाते थे जब भी कहीं उन्हें बजाने का मौका मिलता था और साथ में प्यारे को भी ले जाते. उनका मासूम चेहरा सबको आकर्षित करता था. एक बार पंडित जी उन्हें लता जी के घर लेकर गए. लता जी प्यारे के वोयलिन वादन से इतनी खुश हुई कि उन्होंने प्यारे को ५०० रुपए इनाम में दिए जो उस जमाने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. वो घंटों वोयलिन का रीयाज़ करते. अपनी मेहनत के दम पर उन्हें मुंबई के रंजीत स्टूडियो के ओर्केस्ट्रा में नौकरी मिल गई जहाँ उन्हें ८५ रुपए मासिक वेतन मिलता था. अब उनके परिवार का पालन इन्हीं पैसों से होने लगा. उन्होंने एक रात्रि स्कूल में सातवें ग्रेड की पढाई के लिए दाखिला लिया पर ३ रुपये की मासिक फीस उठा पाने की असमर्थता के चलते छोड़ना पड़ा. मुश्किल हालातों ने भी उनके हौसले कम नही किए, वो बहुत महत्वकांक्षी थे, अपने संगीत के दम पर अपने लिए नाम कमाना और देश विदेश की यात्रा करना उनका सपना था.
जानते हैं स्वयं प्यारेलाल जी से, उनके इस जीरो से सुपर हीरो बनने की लम्बी कहानी के संक्षिप्त अंश.वो शुरूआती दिन"मैंने संगीत सीखने के लिए एक संगीत ग्रुप (मद्रिगल सिंगर) जोइन किया, पर वहां मुझे हिंदू होने के कारण स्टेज आदि पर परफोर्म करने का मौका नही मिलता था. वो लोग पारसी और इसाई वादकों को अधिक बढ़ावा देते थे. पर मुझे सीखना था तो मैं सब कुछ सह कर भी टिका रहा. पर मेरे पिता ये सब अधिक बर्दाश्त नही कर पाते थे. उन्होंने ख़ुद गरीब बच्चों को मुफ्त में सिखाने का जिम्मा उठाया और वो उन्हें संगीतकार नौशाद साहब के घर भी ले जाया करते थे. करीब १५०० बच्चों को मेरे पिता ने तालीम दी"
लक्ष्मीकांत से मुलाकात"लक्ष्मीकांत पंडित हुस्नलाल भगतराम के साथ काम करते थे उन दिनों. वो मुझसे ३ साल बड़े थे उम्र में. धीरे धीरे हम एक दूसरे के घर आने जाने लगे. साथ बजाते और कभी कभी क्रिकेट खेलते और संगीत पर लम्बी चर्चाएँ करते. हमारे शौक और सपने एक जैसे होने के कारण हम बहुत जल्दी अच्छे दोस्त बन गए."
पहला बड़ा काम"श्रीरामचंद जी ने एक बार मुझे बुला कर कहा कि मैं तुम्हें एक बड़ा काम देने वाला हूँ. वो लक्ष्मी से पहले ही इस बारे में बात कर चुके थे. चेन्नई में हमने ढाई साल साथ काम किया फ़िल्म थी "देवता" कलाकार थे जेमिनी गणेशन, वैजन्ती माला, और सावित्री. जिसके हमें ६००० रुपए मिले थे. ये पहली बार था जब मैंने इतने पैसे एक साथ देखे. मैंने इन पैसों से अपने पिता के लिए एक सोने की अंगूठी खरीदी जिसकी कीमत १२०० रुपए थी."
कैसे करते थे साथ में काम"हम दोनों अलग अलग बैठ कर धुन बनाते थे और मिलने पर जो बेहतर लगती उसे चुन लेते थे, कभी कभी साथ में बैठकर भी काम करते थे. कई बार ऐसा भी हुआ कि हमने अलग अलग बैठ कर धुन बनाई फ़िर भी एक जैसी बन गयी. हमारे बीच भी मतभेद होते थे पर हमने उन्हें कभी जग जाहिर नही किया. वो मुझसे बेहतर समझ रखते थे व्यवसाय की. मैं अपने पिता की तरह बहुत तुनकमिजाज़ हुआ करता था पर वो बहुत संयम से काम करते थे. हम अपने झगडे अक्सर युहीं सुलटा लेते थे. मुझे लगता है कि फ़िल्म "शोर" का गीत "एक प्यार का नग्मा है..." हमारे ही जीवन की कहानी कहता है. हमारे नाम एक दूजे से इस कदर जुड़े हुए थे कि अक्सर लोगों को एक नाम होने की ग़लतफ़हमी हो जाती थी. जब मेरी शादी होने जा रही थी तो मेरी होने वाली पत्नी के रिश्तेदारों को लगता था कि उनकी लड़की की शादी किसी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल नाम के आदमी से होने जा रही है. (हँसते हुए) प्यारेलाल नाम लक्ष्मीकांत के बिना आज भी अधूरा ही है."
"मैं येहुदी मेनुहिन का जबरदस्त फेन था. मेरा सपना था कि हिन्दुस्तान को हमेशा के लिए छोड़ कर विदेश में जाकर बसने का और किसी अँगरेज़ लड़की से शादी कर वहां सेटल होने का. पर लक्ष्मी जी ने मुझे दोस्ती का वास्ता देकर रोक लिया. राज साहब (राज कपूर) अक्सर कहा करते थे लक्ष्मी जी से - "तुमने दो अच्छे काम किए हैं जीवन में, एक अच्छा संगीत दिया और दूसरा प्यारे को विदेश जाने से रोक लिया". राज साहब मुझे बहुत स्नेह देते थे."
"अक्सर लोग सोचते हैं कि "पारसमणी" हमारी पहली फ़िल्म थी. पर वो पहली प्रर्दशित फ़िल्म थी, उससे पहले हमने ४ फिल्मों के लिए काम किया जो कभी प्रर्दशित ही नही हो पायी. पहली अप्रदर्शित फ़िल्म हमारी "हम तुम और वोह" थी. पांचवीं फ़िल्म "पारसमणी" में हमारे काम कि प्रशंसा हुई. पर "दोस्ती" ने हमें कमियाबी दी."
लता जी के बारे में -"लता जी हरफनमौला थी, आप उन्हें जो भी दें गाने को वो उनमें जिंदगी डाल देती थी. उन्होंने कभी भी हमें डेट देने में आनाकानी नही की. उन्होंने हमारी लो बजेट फिल्म्स के लिए भी कम पैसों में गीत गाये. जब काम से देर हो जाया करती तो मैं अक्सर उनके यहाँ रुक जाता और लिविंग रूम के सोफे पर सोता. हृदयनाथ मंगेशकर जिन्हें हम बालासाहेब कहते थे मेरे बहुत करीबी मित्र रहे हमेशा."
वो खट्टी मीठी यादें -बुरे दिनों में एक बार मेरे पिताजी ने रफी साहब और लता जी से से कुछ पैसे उधार लिए थे, जब रफी साहब और लता जी एक बार साथ में "ये दिल तुम बिन..." गीत की रिकॉर्डिंग पर आए तो मुझे अचानक याद आया उन पैसों के बारे में पर जब मैंने उन्हें वापस करना चाहा तो दोनों ने लेने से साफ इनकार कर दिया और कहा कि इसे हमारा आशीर्वाद समझ कर रखिये. किशोर कुमार भी बहुत प्रतिभाशाली थे जब भी स्टूडियो आते गाते हुए आते "हल्लो लक्ष्मीकानतम प्यारेलालम..." (हँसतें हुए). आर डी (बर्मन) के साथ में हमारे रिश्ते हमेशा दोस्ताना रहे बेशक हमारे बीच एक संगीतमय प्रतिस्पर्धा हमेशा चलती रहती थी. जब आर डी को पता चला कि हम फ़िल्म "फ़र्ज़" के लिए जेम्स बोंड की धुन का इस्तेमाल करने जा रहे हैं तो उन्होंने हमें कॉल किया क्योंकि वो भी "जेवेल थीफ" के लिए कुछ वैसी ही धुन बना रहे थे, और ये जानने पर कि हमारी फ़िल्म की ६-७ रीलें उस धुन पर तैयार हो चुकी हैं उन्होंने अपनी फ़िल्म से उस धुन को हटा लिया."
"मुझे याद है बात उनके आकस्मिक मौत से कुछ पहले की है. एक शादी में हमारी उनसे मुलाकात हुई, उन्होंने पूछा मुझसे कि व्हिस्की है क्या तुम्हारे पास तो मैंने कहा कि गाड़ी में रखी है, और हम तीनों पूरी रात गाड़ी में घूमते रहे और पीते रहे, उन दिनों मैं और लक्ष्मी बिल्कुल खाली थे, तब आर डी ने बताया कि वो एक नई फ़िल्म कर रहे हैं "१९४२- अ लव स्टोरी" और ये भी कहा कि तुम लोग सुनोगे तो तुम्हें भी ज़रूर पसंद आएगा. पर वो फ़िल्म रेलीस होने से पहले ही हम सब को छोड़ कर चला गया. अभी भी उस फ़िल्म के गाने सुनता हूँ तो आंख भर आती है."
संगीत की चोरी -
"बॉलीवुड में हर संगीतकार बहुत से दबाबों में काम करता है. निर्माता निर्देशक और एक्टर सभी की बात रखनी पड़ती है कई बार, उदहारण के लिए फ़िल्म हम का "जुम्मा चुम्मा" हमने सिर्फ़ अमित जी के दबाब में किया था. पर फ़िर भी हम इन सब से बचने की हमेशा कोशिश करते रहे हैं, हमारे ५०० फिल्मों के संगीत सफर में आपको गिनती के ५० गीत भी नही मिलेंगे ऐसे जिसमें हमें विदेशी धुनों की नक़ल करनी पड़ी हो, कभी कभार व्यवसायिक दबाबों के आगे झुकना पड़ता है."
दोस्तों, प्यारेलाल जी अपने सांझीदार लक्ष्मीकांत के जाने के बाद ६ सालों तक बीमार और अस्वस्थ रहे. पर अब धीरे धीरे स्वस्थ लाभ पा रहे हैं, और शराब और तम्बाकू से भी निजात पा चुके हैं. उम्मीद है कि जल्दी ही वो सक्रिय होकर काम करेंगे और इस नई पीढी को भी अपने जादू भरे संगीत से परिचित होने का मौका अवश्य देंगे. चलते चलते सुनते हैं एल पी के कुछ और यादगार नग्में. (यदि धुन की मधुरता चखनी हो तो सुनियेगा "तुम गगन के चंद्रमा हो..." और यदि संगीत संयोजन की उत्कृष्टता सुननी हो तो ध्यान से सुनियेगा इसी गुलदस्ते में से फ़िल्म तेजाब का "सो गया ये जहाँ..." गीत)
आनंद लें -