Saturday, January 23, 2010

वो शाम कुछ अजीब थी...जब किशोर दा की संजीदा आवाज़ में हेमंत दा के सुर थे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 323/2010/23

ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस कड़ी की शुरुआत में हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस देश के अन्यतम वीरों में से एक, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को, जिनकी आज जयंती है। उन पर कई फ़िल्में बनीं हैं, आज इस वक़्त मुझे ऐसी ही किसी फ़िल्म के जिस गीत की याद आ रही है वह है "झंकारो झंकारो झननन झंकारो, झंकारो अग्निवीणा, आज़ाद होके बंधुओं जीयो, ये जीना कोई जीना, ये जीना क्या जीना"। आइए अब आगे बढ़ते हैं और इंदु जी के पसंद का तीसरा गीत सुनते हैं ख़ामोशी से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'ख़ामोशी' से। वैसे दोस्तों, यह गीत इतना भावुक और नायाब है कि इसे बिल्कुल ख़ामोश होकर ही सुनें तो बेहतर है। "वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है"। गुलज़ार साहब के बेहद बेहद बेहद असरदार बोल, हेमन्त कुमार का दिल को छू लेनेवाला संगीत, और उस पर किशोर कुमार की गम्भीर गायकी, कुल मिलाकर एक ऐसा गीत बना है कि दशकों बाद भी आज जब भी कभी इस गीत को सुनते हैं तो हर बार यह दिल को उतना ही छू जाता है जितना कि उस दौर के लोगों का छूता होगा। आख़िर क्या है इन गीतों में कि जिस वजह से ये गानें कभी पुराने नहीं लगते! वैसे आपको अब यह बता दें कि इंदु जी को यह गाना क्यों इतना पसंद है। "वो शाम कुछ अजीब थी -- फिल्म 'ख़ामोशी , यूँ तो ये गाना मुझे शुरू से पसंद है, पर अब ज्यादा ही पसंद आने लगा है। दिन में कई कई बार गाती हूँ, या फिर युं कहिए कि गाना पड़ता है। मेरे पोते, जो ट्विन्स हैं और एक साल के अब हुए हैं, इस गाने पर जबरदस्त रिएक्ट करते हैं। छोटे से थे तो रोते हुए चुप हो जाते थे, अब मैं कहीं भी छुप कर ये गाना गाऊं मुझे ढूंढ़ लेते हैं। दूसरा कोई ये गाना सुनाए,या सी.डी. पर सुनाने पर चुप नही होते। कई बार उदयपुर से फोन आता है 'मम्मा! बच्चे रो रहे है चुप ही नही हो रहे, गाना सुनाओ ना,'' मैं गाती हूँ 'वो शाम', सुनते ही एकदम सन्नाटा छा जाता है, अब क्यों ना पसंद हो ऐसा गाना ?" वाक़ई इंदु जी, हम भी हैरान हैं आपके इस अनुभव को जान कर।

१९६९ की फ़िल्म 'ख़ामोशी' की चर्चा हमने पहले 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में की है जिस दिन "दोस्त कहाँ कोई तुमसा" गीत सुनवाया था। आज ज़रा इस गीत की विस्तृत चर्चा की जाए। राजेश खन्ना और वहीदा रहमान एक नाव पर सवार हो कर गंगा नदी में सैर को निकले हैं हावड़ा ब्रिज के नीचे से गुज़रते हुए। जिन्होने यह फ़िल्म नहीं देखी है, उनके लिए यह बता दें कि राजेश खन्ना इस फ़िल्म में एक दिमाग़ी मरीज़ हैं और वहीदा रहमान उस अस्पताल की नर्स। राजेश खन्ना से पहले कुछ इसी तरह के एक मरीज़ (धर्मेन्द्र) को वहीदा ने ठीक कर दिया था और उनके साथ वो प्यार भी कर बैठी थीं यह भूल कर कि वो केवल एक मरीज़ हैं जिनको ठीक होते ही चले जाना है। लेकिन वहीदा धर्मेन्द्र को अपने दिल से निकाल नहीं पाती। अब जब वो राजेश खन्ना के इलाज के दौरान धीरे धीरे उनके करीब आ रही हैं तो बार बार धर्मेन्द्र की यादें उन्हे सता रही है। इस गीत को नाव पर राजेश खन्ना गा रहे हैं और गीत में "वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है" जैसे बोलों की वजह से वहीदा फ़्लैशबैक में चली जाती है और धर्मेन्द्र को याद करने लगती है। गीत के इंटर्ल्युड म्युज़िक में फ़्लैशबैक में वहीदा और धर्मेन्द्र के हँसी मज़ाक और प्यार भरे पलों को दिखाया जाता है। लेकिन गीत के ख़तम होते होते जैसे राजेश खन्ना वहीदा को अपनी बाहों में ले लेते हैं, वहीदा भी पुरानी यादों को एक तरफ़ कर अपने आप को उन पर न्योछावर कर देती है। क्या ख़ूब एक्स्प्रेशन दिए थे उस पर्टिकुलर सीन में वहीदा जी ने! दोस्तों, यह गीत सुनते हुए आँखें भर आती हैं। ख़ास कर उन लोगों की जिन्हे अपना प्यार नहीं हासिल हुआ, जिनका प्यार एक तरफ़ा ही रहा, या फिर हालात ने एक दूसरे से बिछड़ जाने पर मजबूर किया। मुझे तो कई बीती हुई बातें याद आ जाती है इस गीत को सुनते ही और रो पड़ता हूँ। आप यह गीत सुनिए और आप भी अपने पहले प्यार को याद कर रो पड़ेंगे यह मेरा दावा है। सुनिए...



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

कैसी है ये जालिम जादूगरी तेरी,
कि तेरे चेहरे को यूँहीं निहारने को जी चाहे,
कभी शर्म से झुकी पलकें निहारूं,
कभी रंग रुखसारों का चुराने को जी चाहे...

अतिरिक्त सूत्र -इस युगल गीत में एक आवाज़ आशा भोसले की है

पिछली पहेली का परिणाम-
पदम सिंह जी सूत्र तो चार होते हैं कुछ जाहिर कुछ छुपे हुए, छुपे हुए आपने खुद ढूँढने हैं, जो कि आपने ढूंढ भी लिए हैं बहुत बधाई एक बार फिर, १ और अंक आपके खाते में जुड़ा...अवध जी ज़रा सी और फुर्ती दिखाईये...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: गरजपाल की चिट्ठी - अनुराग शर्मा



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की कहानी "अशुद्ध बेवकूफ" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "गरजपाल की चिट्ठी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी "गरजपाल की चिट्ठी" का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 32 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

वासंती के नाम की चिट्ठी जाती तो रोज़ थी मगर किसी ने कभी वासंती की कोई चिट्ठी आते न देखी।
(अनुराग शर्मा की "गरजपाल की चिट्ठी" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Fifty Sixth Story, Garajpal Ki Chitthi: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2010/4. Voice: Anurag Sharma

Friday, January 22, 2010

बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे....चित्रगुप्त का रचा एक और चुलबुला नगमा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 322/2010/22

इंदु जी के पसंद के गीत आजकल ओल्ड इज़ गोल्ड की शान बनें हुए हैं। कल के गीत में रोने रुलाने की बात थी। चलिए आज मूड को ज़रा बदलते हैं और एक ख़ुशनुमा गीत सुनते हैं लता जी की ही आवाज़ में। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह रचना है फ़िल्म 'ओपेरा हाउस' का। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे और चित्रगुप्त के संगीतबद्ध किए इस गीत के बोल हैं "बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे, लगी मन की कहे हाए पा के अकेली मोरी बैयाँ गहे"। इंदु जी कहती हैं कि "बचपन में एक म्युज़िक कॊम्पीटिशन में पहला इनाम जीता था इसे गा कर, बस तभी से पसंद है। जब भी सुनती हूँ जैसे बचपन के वो दिन सामने आ जाते हैं। खूबसूरत गीत तो है ही, बी.सरोजा देवी का नृत्य व हाव भाव मनमोहक है, कमाल है।" इंदु जी, चलिए इसी बहाने हम सब को यह पता चल गया कि आप गाती भी हैं। अगर संभव हो तो अपनी आवाज़ में इस गीत को रिकार्ड कर हमें ज़रूर भेजिएगा। जैसा कि आप बता ही चुकी हैं कि यह गीत फ़िल्माया गया है बी. सरोजा देवी पर, इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे अजीत, के. एन. सिंह, ललिता पवार, और बेला बोस प्रमुख।

ए. ए. नडियाडवाला ने 'ओपेरा हाउस' का निर्माण किया था सन् १९६१ में, जिसका निर्देशन किया पी. एल. संतोषी साहब ने। फ़िल्म की कहानी कुछ इस प्रकार की थी कि सरोज (बी. सरोजा देवी) नागपुर में एक ग़रीब ज़िंदगी जी रही होती है अपनी विधवा माँ लीला और छोटी बहन नन्ही के साथ। सरोज को गायिका-नृत्यांगना की नौकरी मिल जाती है, इसलिए वो बम्बई चली जाती है। बम्बई में उसकी मुलाक़ात एक नौजवान लड़के अजीत से होती है, और दोनों को एक दूसरे से प्यार हो जाता है। कुछ समय बाद सरोज को पता चलता है कि अजीत दरअसल उसी ड्रामा-डांस कंपनी के मालिक रणजीत के छोटे भाई हैं। हालात सरोज को वापस नागपुर लौट जाने के लिए मजबूर करती है और वहाँ जा कर वो एक दूसरी ड्रामा कंपनी से जुड़ जाती है जिसके मालिक हैं चुनीलाल। उधर अजीत, जो सरोज से पागलों की तरह मोहब्बत करता है, उसे तलाशता हुआ नागपुर आ पहुँचता है। उसकी सरोज से मुलाक़ात भी होती है, लेकिन तब तक सरोज मैरी डी'सूज़ा बन चुकी होती है। अजीत को एक और राज़ का पता चलता है कि सरोज चुनीलाल के हत्या का चश्मदीद गवाह है और हत्यारा उसे ख़ामोश करने की ताक में है। तो ये है इस फ़िल्म की मूल कहानी। आज के इस प्रस्तुत गीत के अलावा इस फ़िल्म का जो सब से हिट गीत रहा, वह है लता और मुकेश का गाया डुएट "देखो मौसम, क्या बहार है, सारा आलम, बेक़रार है"। इस गीत को भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप भविष्य में ज़रूर सुन पाएँगे, लेकिन आज सुनिए "बलमा माने ना"। इंदु जी को धन्यवाद इस सुरीले बेमिसाल गीत की तरफ़ हमारा ध्यान आकृष्ट करने के लिए, सुनिए...



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

गुनगुना मेरे यार कोई गीत ख़ुशी का,
मुस्कुरा खुल के यूं कि देखे जहाँ सारा,
फिर जगा ख़याल में कोई सोच नयी,
फिर निगाह में चमका ख्वाब का तारा...

अतिरिक्त सूत्र - इस फिल्म में अभिनेत्री थी वहीदा रहमान

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह पदम सिंह जी के रूप में एक नए प्रतिभागी मिले हैं हमें, बधाई आपको और बहुत बहुत स्वागत

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, January 21, 2010

मेरी दास्ताँ मुझे ही मेरा दिल सुना के रोये कभी ...उषा खन्ना के संगीत में उभरा लता का दर्द



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 321/2010/21

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आज से एक बार फिर से छा रहा है फ़रमाइशी रंग। शरद तैलंग, स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा', पूर्वी, और पराग सांकला के बाद 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' की विजेयता बनीं हैं हमारी इंदु जी। इसलिए आज से अगले पाँच दिनों तक हम सुनने जा रहे हैं इंदु जी की पसंद के पाँच गानें बिल्कुल बैक टू बैक। यकीन मानिए दोस्तों, कि इंदु जी ने ऐसे ऐसे नायाब गानें चुन कर हमें भेजे हैं कि इन्हे सुनवाते हुए हम जितना आनंद महसूस कर रहे हैं उतना ही मज़ा हमें आया इन गीतों पर आलेख लिखते हुए। तो शुरुआत करते हैं लता मंगेशकर के गाए फ़िल्म 'आओ प्यार करें' के एक बड़े ही ख़ूबसूरत गाने से, जिसके बोल हैं "मेरी दास्ताँ मुझे ही मेरा दिल सुना के रोये"। गीतकार राजेन्द्र कृष्ण के बोल और संगीतकार उषा खन्ना की तर्ज़। उषा जी के स्वरबद्ध किए उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है आज का प्रस्तुत गीत। इस फ़िल्म के बारे में हम अभी बात करेंगे, लेकिन उससे पहले इंदु जी के चार शब्द भी जान लें कि इस गीत की उन्होने फ़रमाइश क्यों की हैं। इंदु जी लिखती हैं कि "यह फ़िल्म नहीं देखी पर जब भी खूब रोने की इच्छा होती है, इसे सुनती हूँ, ये गीत रुला देता है। जो गानों की ताकत, असर का एक उदहारण है कि हमारे गानें कितना भीतर तक उतरने की क्षमता रखते हैं। और रो लेने से मन हल्का हो जाता है यानि मन का ट्रीटमेंट गानों के द्वारा....हा हा हा हा।"

फ़िल्म 'आओ प्यार करें' सन् १९६४ में बन कर प्रदर्शित हुई थी, जिसका निर्देशन किया था आर. के. नय्यर ने। सायरा बानो, संजीव कुमार और जॊय मुखर्जी के अभिनय से सजी इस फ़िल्म को इसके संगीत की वजह से ही लोगों ने अब तक याद रखा है। आज के प्रस्तुत गीत के अलावा इस फ़िल्म में और जो सुरीले नग़में थे वे हैं लता जी की ही आवाज़ में "एक सुनहरी शाम थी", "तमन्नाओं को खिलने दे", लता-रफ़ी का गाया बड़ा ही शोख़ और नटखट डुएट "तुम अकेली तो कभी बाग़ में जाया ना करो", रफ़ी साहब की आवाज़ में "बहार-ए-हुस्न", "दिल के आने में", "दिलबर दिलबर हो दिलबर", "जिनके लिए मैं दीवाना बना" और "ये झुकी झुकी झुकी निगाहें तेरी", तथा महेन्द्र कपूर और उषा मंगेशकर का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "आओ प्यार करें"। इन सुरीले गीतों का श्रेय बहुत हद तक उषा खन्ना जी को जाता है। दोस्तों, दिल के तमाम भावनाओं को व्यक्त करते हैं हमारे फ़िल्मी गीत। शायद ही ऐसा कोई भाव होगा जो किसी ना किसी फ़िल्मी गीत में उभरकर सामने ना आया हो। और ऐसी भावनाओं को काव्यात्मक तरीके से हमारे समक्ष प्रस्तुत करने में उन प्रतिभाशाली गीतकारों के साथ साथ उन गुणी संगीतकारों के मधुर धुनों का भी बहुत बड़ा योगदान है। संगीतकारों की धुनें ही उन भावनाओं, उन विचारों को कई गुणा ज़्यादा असरदार बना देते हैं। उषा खन्ना जी की धुनें भी इस क़दर सुंदर बन पड़ी है कि उसका जादू, उसका असर नए नए रूप लेकर हमारे सामने आते रहे हैं। आज का प्रस्तुत गीत भी उन्ही गीतों में से एक है। अच्छे संगीत की तारीफ़ करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि हमें संगीत का ज्ञान हो। हम अहसानमंद हैं हमारे फ़िल्म संगीतकारों के जिन्होने हमारे जीवन से जुड़ी धुनें देकर हमारे जीवन को आसान बनाया है, जिन्हे सुन कर हम अपने ग़म भूल जाते हैं या दुख बँट जाता है अपने आप ही। आइए सुनें आज का गीत जो कि एक ऐसा ही गीत है।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

बांका सजन न माने गुहार,
देखे हैं मस्त आँखों से मतवाला,
घबराहट में सूखी मेरी जान,
छलिये ने घूंघट मेरा उठा डाला..

अतिरिक्त सूत्र - इस गीत को लिखा है मजरूह सुल्तानपुरी ने

पिछली पहेली का परिणाम-
बिलकुल सही है अवध जी..लगे रहिये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, January 20, 2010

एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है, गहरी सच्चाईयों की सहज अभिव्यक्ति यानी आवाज़े महेंदर कपूर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 320/2010/20

र आज हम आ पहुँचे हैं 'स्वरांजली' की अंतिम कड़ी में। गत ९ जनवरी को पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर साहब की जयंती थी। आइए आज 'स्वरांजली' की अंतिम कड़ी हम उन्ही को समर्पित करते हैं। महेन्द्र कपूर हमसे अभी हाल ही में २७ सितंबर २००८ को जुदा हुए हैं। ९ जनवरी १९३४ को जन्मे महेन्द्र कपूर साहब के गाए कुछ गानें आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन चुके हैं। बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों में अक्सर हमने उनकी आवाज़ पाई है। साहिर लुधियानवी के बोल, रवि का संगीत और महेन्द्र कपूर की आवाज़ चोपड़ा कैम्प के कई फ़िल्मों मे साथ साथ गूंजी। इस तिकड़ी के हमने फ़िल्म 'गुमराह' के दो गानें सुनवाए हैं, "आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया" और "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों"। आज भी हम एक ऐसा ही गीत लेकर आए हैं, लेकिन यह फ़िल्म बी. आर. चोपड़ा की दूसरी फ़िल्मों से बिल्कुल अलग हट के है। यह है १९७३ की फ़िल्म 'धुंध' का शीर्षक गीत, "संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है, एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है"। साहिर लुधियानवी के क्रांतिकारी गीतों ने बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों को एक अलग ही दर्जे तक पहुँचाया है। और रवि के संगीत में और महेन्द्र कपूर की आवाज़ में ये गानें बहुत खुलकर सामने आए हैं और कालजयी बन गए हैं। आज का प्रस्तुत गीत एक दार्शनिक गीत है जिसमें मनुष्य जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में कहा गया है। एक सस्पेन्स थ्रिलर होने की वजह से फ़िल्म का नाम 'धुंध' रखा गया और साहिर साहब ने सस्पेन्स को बरक़रार रखते हुए कितनी ख़ूबी से जीवन दर्शन को सामने लाया है इस गीत के माध्यम से। मुझे नहीं लगता कि धुंध पर इससे बेहतर और इससे सरल कोई गीत लिखा जा सकता है!

'धुंध' १९७३ की फ़िल्म थी। बी. आर. चोपड़ा निर्मित और निर्देशित इस फ़िल्म में मुख्य कलाकार थे संजय ख़ान, ज़ीनत अमान, डैनी और नवीन निश्चल। यह फ़िल्म अगाथा क्रिस्टी के नाटक 'ऐन अन-एक्स्पेक्टेड गेस्ट' पर आधारित थी, जिसका हिंदी फिल्मीकरण किया लेखक अख्तर-उल-रहमान, अख़्तर मिर्ज़ा और सी. जे. पावरी ने। इस रोंगटे खड़े कर देने वाली मर्डर मिस्ट्री का प्लॊट कुछ इस तरह से था कि एक रात चन्द्रशेखर (नवीन निश्चल) की गाड़ी गहरे धुंद में ख़राब हो जाती है। कार की हेडलाइट से उन्हे सामने एक मकान नज़र आता है। दरवाज़े पर खटखटाने जाते हैं तो दरवाज़ा खुला हुआ ही पाते हैं। वो अंदर जाते हैं और देखते हैं कि कुर्सी पर एक आदमी बैठा हुआ है। उनसे वो एक टेलीफ़ोन करने की इजाज़त माँगते हैं। उस आदमी से कोई जवाब ना पाकर जैसे ही उन्हे हिलाते हैं तो वो आदमी (डैनी) नीचे गिर जाता है। दरअसल वो उस आदमी की लाश थी। चन्द्रशेखर सामने रखे टेलीफ़ोन से जैसे ही पुलिस को ख़बर करने के लिए आगे बढ़ता है तो अंधेरे से रानी रणजीत सिंह (ज़ीनत अमान, डैनी की पत्नी) हाथ में रिवोल्वर लिए उसके सामने आ जाती है। वो बताती है कि उसी ने अपने उस अत्याचारी पति का ख़ून किया है। चन्द्रशेखर रानी की तरफ़ आकर्षित भी होता है, उस पर दया भी आती है। दोनों मिल कर लाश को ठिकाने लगाने के बारे में सोचता है। क्या होता है आगे चलकर? आख़िर क्या है इस ख़ून का राज़? कौन है ख़ूनी? यही है इस फ़िल्म की कहानी। बड़ी ज़बरदस्त फ़िल्म है, अगर आप ने अब तक नहीं देख रखी है, तो ज़रूर देखिएगा। मेरे अनुसार हिंदी सिनेमा के सस्पेन्स फ़िल्मों में यह एक अव्वल दर्जे का सस्पेन्स थ्रिलर है। ख़ैर, अब वापस मुड़ते हैं आज के गीत पर। 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में ममता सिंह ने जब महेन्द्र कपूर से पूछा था कि इस गीत को गाने के लिए क्या उन्हे कोई विशेष तैयारी करनी पड़ी थी, तो उनका जवाब था - "तब तक मैं बहुत गानें गा चुका था, इसलिए ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। इस गाने का मूड भी वही था जो "नीले गगन के तले" का था।" चलिए दोस्तों, महेन्द्र कपूर साहब की याद में सुनते हैं यह गीत और 'स्वरांजली' शृंखला को समाप्त करते हुए हम भी यही दोहराते हैं कि "संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है"। धन्यवाद !



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

मेरी बेकरारियों का सबब मत पूछ,
आजमा मेरे सब्र को तू इस तरह,
रोये हैं मैंने खून के आंसू बरसों,
तेरे साथ को हूँ मैं तरसा इस तरह...

अतिरिक्त सूत्र - महिला संगीतकारों में इनका नाम अग्रिणी है

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह वाह अवध जी, आपको विजेता के रूप में पाकर आज बड़ी खुशी हो रही है, २ अंक मुबारक हो आपको...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

गजरा बना के ले आ... एक मखमली नज़्म के बहाने अफ़शां और हबीब की जुगलबंदी



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६७

भी-कभी यूँ होता है कि आप जिस चीज से बचना चाहो, जिस चीज से कन्नी काटना चाहो, वही चीज आपकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा हो जाती है, आपकी पहचान बन जाती है। यह ज्यादातर इश्क़ में होता है और वो भी हसीनाओं के साथ। हसीनाएँ पहले-पहल तो आपको नज़र-अंदाज करती हैं, लेकिन धीरे-धीरे आप उनकी नज़र में बस जाते हैं। क्या आपने भी कभी यह महसूस किया है? किया हीं होगा... इश्क़ का यह नियम है। वैसे यहाँ पर मैं जिस कारण से इस मुद्दे को उठा रहा हूँ, उसकी जड़ में इश्क़ या हसीनाएँ नहीं हैं, बल्कि "आलस्य" है। अब आप सोचेंगे कि महफ़िल-ए-गज़ल में आलस्य की बातें.. तो जी हाँ, पिछली मर्तबा मैंने आलेख की लंबाई कम होने की वज़ह समय की कमी को बताया था, जो कि तब के लिए सच था, लेकिन वही ४५ मिनट वाला किस्सा आज फिर से दुहराया जा रहा है... और इस बार सबब कुछ और है। लेखक ने सामग्रियाँ समय पर जुटा लीं थीं, लेकिन उसी समय उसे(मुझे) आलस्य ने आ घेरा.. महसूस हुआ कि आलेख तो ४५ मिनट में भी लिखा जा सकता है और अच्छा लिखा जा सकता है, (जैसा कि सजीव जी की टिप्पणी से मालूम पड़ा) तो क्यों न सुबह उठकर हीं गज़ल की महफ़िल सजाई जाए....रात की नींद बरबाद करने का क्या फायदा। और फिर इस तरह आलस्य ने भागता फिरने वाला एक इंसान आलस्य की चपेट में आ गया। क्या कीजिएगा... ठंढ के मौसम में आलस्य का कोहरा कुछ ज्यादा हीं घना हो जाता है। है ना? लेकिन अगली मर्तबा से ऐसा न होगा... इस वादे के साथ हम आज की महफ़िल की शुरूआत करते हैं। इस महफ़िल में हम जो नज़्म लेकर हाज़िर हुए हैं, उसमें गाँव की सोंधी-सोंधी खुशबू छुपी है, शादी-ब्याह की अनगिनत यादें दर्ज हैं और सबसे बढकर एक नवविवाहिता की कोमल भावनाएँ अंकुरित हो रखी हैं। प्रेमिका/नवविवाहिता मालिन से यह गुहार कर रही है कि वह गजरा बना के ले आए, क्योंकि उसका प्रेमी/साजन उसे देखने आ रहा है। वह ऐसा गजरा पहनना चाहती है, जो उसके साजन की सुंदरता को टक्कर दे सके.... गजरे में वह ऐसी कलियाँ देखना चाहती हैं जिसका सारा चमन हीं दीवाना हो.. उन कलियों में उसके साजन के लबों की लाली हो..... वैसे इन पंक्तियों तक आते-आते इस बात का भी आभास होने लगता है कि कहीं एक प्रेमी तो नहीं मालिन से फरियाद कर रहा है। हो सकता है कि उसके मिलन की पहली रात हो और वह अपनी नूर-ए-जिगर, अपनी शरीक-ए-हयात यानि कि अपनी पत्नी के बालों में गजरा सजाना चाहता हो। यह नज़्म प्रेमिका के बजाय प्रेमी पर ज्यादा सटीक बैठती है क्योंकि कोई भी शायर किसी पुरूष के लबों की प्रशंसा नहीं करता.. आखिरकार एक पुरूष (शायर) दूसरे पुरूष की सुन्दरता पर क्योंकर टिप्पणी करे। हाँ किसी शायरा से इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि वह पुरूष के लबों की, पुरूष की सूरत की प्रशंसा में कुछ कसीदे पढ दे.. लेकिन ऐसा भी कम हीं देखने को मिलता है। आपने कहीं ऐसा पढा है कि "मेरे महबूब की सूरत चाँद से मिलती-जुलती है"... नहीं ना? अरे भाई, चाँद से नहीं तो तारा से हीं मिलती-जुलती कहने में कोई हर्ज़ है क्या....लेकिन कोई नहीं कहता। हाय रे पुरूष की सुन्दरता भी.. किसी काम की नहीं!!

हमने यह तो मान लिया कि किसी पुरूष की प्रशंसा कोई शायरा हीं कर सकती है.. नहीं तो कोई नहीं तो इस लिहाज से आज की नज़्म को किसी शायरा ने हीं लिखा होना चाहिए। और यहीं पर आकर हमारी गाड़ी रूक जाती है। अंतर्जाल पर हर जगह नगमानिगार के तौर पर "अफ़शां राणा" जी का नाम दर्ज है.. सुनने पर तो यह नाम किसी महिला का हीं लगता है लेकिन चूँकि इनका परिचय कहीं भी मौजूद नहीं, इसलिए ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। फिर भी बस यह पता करने के लिए कि इनके लिए "श्रीमान" लिखा जाए या "श्रीमति" हमने घंटों अपना समय गूगल के नाम कर दिया। अंततोगत्वा हमें मालूम चला कि अस्सी के दशक में एक संगीतकार खासे लोकप्रिय हुआ करते थे जिनका नाम था "सोहैल राणा"। सोहैल राणा ने अफ़शां राणा के साथ कई सारे कार्यक्रम दिए जो कि इनकी बीवी थीं(हैं)। अगर यहाँ उसी अफ़शां राणा की बात की जा रही है तो हम सही रास्ते पर हैं..यानि कि अफ़शां राणा किसी शायर का नहीं बल्कि एक शायरा का नाम है। हमें इस खोज पर यकीन करने के अलावा कोई और चारा नहीं दिख रहा..फिर भी अगर आपको अफ़शां के बारे में कोई और जानकारी हासिल हो तो हमें जरूर बताईयेगा.. बस नाम जान लेना हीं काफ़ी नहीं है.... सबसे अजीब बात तो यह है कि अंतर्जाल पर इनके नाम के सामने बस एक हीं नज़्म दर्ज है और वह है आज की नज़्म "गजरा बना के ले आ"। आखिर इन्होंने कुछ और भी तो लिखा होगा। अब चूँकि इनकी लिखी कोई और रचना हमें मिली नहीं, इसलिए इस बार कई महिनों के बाद अपना हीं एक शेर कहने पर मैं आमादा हो रहा हूँ। पसंद न आए तब भी दाद जरूर दीजिएगा:
मैं तुम्हारे वास्ते कुछ और हीं हो जाऊँगा,
तू एक दफ़ा निहार ले मैं आदमी हो जाऊँगा|


शायरा के बाद अब वक्त है आज की नज़्म के गायक से रूबरू होने का। आज इनके संक्षिप्त परिचय से हीं काम चला लेते हैं। कुछ हीं हफ़्तों में हम ग़ालिब की एक ग़ज़ल लेकर हाज़िर होने वाले हैं जिनमें आवाज़ "हबीब वली मोहम्मद" साहब की हीं हैं। तब इनके बारे में विस्तार से बातें करेंगे। (सौजन्य: सुखनसाज़)हबीब वली मोहम्मद (जन्म १९२१) विभाजन पूर्व के भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख लोकप्रिय ग़ज़ल गायकों में थे. कालेज के दिनों में उनके दोस्त उन्हें संगीत सम्राट तानसेन कहा करते थे. एम बी ए की डिग्री लेने के बाद वली मोहम्मद १९४७ में बम्बई जाकर व्यापार करने लगे. दस सालों बाद वे पाकिस्तान चले गए. वहीं उन्होंने बेहद सफल कारोबारी का दर्ज़ा हासिल किया. अब वे कैलिफ़ोर्निया में अपने परिवार के साथ रिटायर्ड ज़िन्दगी बिताते हैं. बहादुरशाह ज़फ़र की 'लगता नहीं है दिल मेरा' उनकी सबसे विख्यात गज़ल है. भारत में फ़रीदा ख़ानम द्वारा मशहूर की गई 'आज जाने की ज़िद न करो भी उन्होंने अपने अंदाज़ में गाई है. उस वक़्त के तमाम गायकों की तरह उनकी गायकी पर भी कुन्दनलाल सहगल की शैली का प्रभाव पड़ा. उनका एक तरह का सूफ़ियाना लहज़ा 'बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब, तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं' की लगातार याद दिलाता चलता है. हबीब साहब ज्यादातर ज़फ़र की हीं गज़लें गाते हैं। मेरे ख्याल से आज की नज़्म बड़ी हीं अनोखी है क्योंकि एक तो हबीब साहब की ऐसी कोई दूसरी नज़्म हमें सुनने को नहीं मिली और दूसरा यह कि ऐसी नज़्में आजकल बनती कहाँ है..। आप खुद हीं इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते होंगे.. । तो पेश है आज की नज़्म:

गजरा बना के ले आ मलनिया,
वो आए हैं घर में हमारे
देर न अब तू लगा।

सारा चमन हो जिनका दीवाना
ऐसी कलियाँ चुने के ला,
लाली हो जिन में उनके लबों की
उनको पिरो के ले आ,
गजरा बना के ले आ...मलनिया..

जो भी देखे उनकी ______
झुकी झुकी अंखियों से प्यार करे,
चंदा जैसा रूप है उनका
आंखों में रस है भरा,
गजरा बना के ले आ...मलनिया..




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "पयाम" और शेर कुछ यूं था -

कोई तो आए नई रूतों का पयाम लेकर,
अंधेरी रातों में चाँद बनना कोई तो सीखे।

इस शब्द की सबसे पहले सही पहचान की सीमा जी ने। आपने ये सारे शेर पेश किए जिसमें "पयाम" शब्द का इस्तेमाल हुआ था:

पयाम आये हैं उस यार-ए-बेवफ़ाके मुझे
जिसे क़रार न आया कहीं भुला के मुझे (अहमद फ़राज़)

सितारों के पयाम आये बहारों के सलाम आये
हज़ारों नामा आये शौक़ मेरे दिल के नाम आये (अली सरदार जाफ़री)

उम्र भर साथ निभाने का पयाम आया था
आपको देख के वह अहद-ए-वफ़ा याद आया (साहिर लुधियानवी)

सजीव जी और पी सिंह जी(माफ़ कीजिएगा, आपका पूरा नाम हमें मिल न सका), ग़ज़ल और ग़ज़ल पेश करने की अदा को पसंद करने के लिए आप दोनों का तहे-दिल से शुक्रिया। कभी कोई शेर भी महफ़िल में पेश करें!!!

शरद जी, बहुत खूब!! इस बार आप खुद के लिखे शेरों के साथ भले हीं नज़र नहीं आएँ, लेकिन हमें लता हया जी की गज़ल से मुखातिब करा गए... इस मेहरबानी के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यह रहा वह शेर:

सुबह का पहला पयाम उर्दू
ढ्लती हुई सी जैसे शाम उर्दू (लता हया)

नीलम जी, यह क्या कह रही हैं आप? अगर दिग्गजों की हम सोचने लगें तब तो हमारी भी बिसात खतरे में आ जाएगी। अभी हममें भी ऐसी क्षमता नहीं आई कि दिग्गजों के सामने खड़े हो सकें.. लेकिन यही तो ज़िंदगी है.. हमें इन सब की परवाह नहीं करनी चाहिए.. और वैसे भी आप अपने आपको किसी दिग्गज से कम कैसे आँक सकती हैं..ज़रा हमारी नज़रों से देखें :)

मंजु जी और रजनीश जी... आप दोनों ने महफ़िल में स्वरचित शेरों का सूखा नहीं होने दिया.. यह बड़ी हीं खुशी की बात है। ये रहे आप दोनों के शेर. क्रम से:

कभी हवाओं से ,कभी मेघदुतों से वियोग का पयाम भेजा है ,
बेखबर -रूखे महबूब !रुसवाई की भनक भी हुई क्या ?

पयाम ज़िन्दगी ने दिया हज़ार बार संभल जाने का...
पर एक दिल था हमारा कि हर बात पर मचल गया...

अवध जी, "ज़फ़र" साहब को आपने महफ़िल में पुन: जिंदा कर दिया... क्या बात है!!

पयाम ले के सबा वां अगर पहुँच जाती
तो मिस्ले-बू-ए-गुल उड़ कर खबर पहुँच जाती.

आगे की महफ़िल को अकेले संभाला शामिख जी ने। चलिए हर बार की तरह आप देर से आए, लेकिन यह कह सकते हैं कि इस बार आप दुरूस्त आए (पिछली बार की तुलना में)। यह रही आपकी पेशकश:

ये पयाम दे गई है मुझे बादे- सुबहशाही
कि ख़ुदी के आरिफ़ों का है मक़ाम पादशाही (इक़बाल)

एक रंगीन झिझक एक सादा पयाम
कैसे भूलूँ किसी का वो पहला सलाम (कैफ़ी आज़मी)

हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था (दाग दहलवी)

सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई (जिगर मुरादाबादी)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, January 19, 2010

तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के...गीतकार कमर जलालाबादी को याद कीजिये स्वराजन्ली लता के स्वरों की देकर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 319/2010/19

जनवरी २००३ को हम से बिछड़ गए थे फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार क़मर जलालाबादी और जैसे हर तरफ़ से उन्ही का लिखा हुआ गीत गूंज उठा कि "फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम, हम ना भूलेंगे तुम्हे अल्लाह क़सम"। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में क़मर साहब को हमारी 'स्वरांजली'। क़मर जलालाबादी की ख़ूबी सिर्फ़ गीत लेखन तक ही सीमीत नहीं रही। वो एक आदरणीय शायर और इंसान थे। फ़िल्म जगत की चकाचौंध में रह कर भी वो एक सच्चे कर्मयोगी का जीवन जीते रहे। १९५० के दशक में कामयाबी की शिखर पर पहुँचने के बाद भी उनकी सादगी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनकी संजीदगी उनके गीतों से छलक पड़ी। दोस्तो, क़मर साहब के साथ हुस्नलाल भगतराम और ओ. पी. नय्यर की अच्छी ट्युनिंग् जमी थी। बाद मे संगीतकार जोड़ी कल्याणजी आनंदजी के साथ तो एक लम्बी पारी उन्होने खेली और कई महत्वपूर्ण गानें इस जोड़ी के नाम किए। सन् १९६० में जिस फ़िल्म से क़मर साहब और कल्याणजी-आनंदजी की तिकड़ी बनी थी, वह फ़िल्म थी 'छलिया'। इस फ़िल्म के सभी गानें सुपर डुपर हिट हुए। उस समय शंकर जयकिशन और शैलेन्द्र-हसरत राज कपूर की फ़िल्मों का संगीत पक्ष संभालते थे। लेकिन इस फ़िल्म में इस नई तिकड़ी को मौका देना एक नया प्रयोग था जिसे इस तिकड़ी ने बख़ूबी निभाया। 'छलिया' के सफलता के बाद तो इस तिकड़ी ने बहुत सारे फ़िल्मों में एक साथ काम किया, जिनमें से महत्वपूर्ण नाम हैं पासपोर्ट, जोहर महमूद इन गोवा, हिमालय की गोद में, दिल ने पुकारा, उपकार, राज़, सुहाग रात, हसीना मान जाएगी, आंसू और मुस्कान, होली आई रे, घर घर की कहानी, प्रिया, सच्चा झूठा, पारस, जोहर महमूद इन हॊंग्‍कॊंग्, और एक हसीना दो दीवाने। लेकिन आज हमने जो गीत चुना है वह है फ़िल्म 'छलिया' से। लता जी की आवाज़ में एक बड़ा ही प्यारा सा गाना है "तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के हाये, हम हैं दीवाने तेरे नाम के"। आमतौर पर इस तरह के गानें नायक गाता है नायिका के लिए, लेकिन इस गाने में नायिका ही नायक का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में लगी हुई हैं।

'छलिया' फ़िल्म का निर्माण किया था सुभाष देसाई ने और निर्देशित किया मनमोहन देसाई साहब ने। राज कपूर और नूतन अभिनीत इस फ़िल्म का गीत संगीत पक्ष काफ़ी मज़बूत था। गीतों को उस ज़माने के राज कपूर - शंकर जयकिशन वाले अंदाज़ में बनाया गया था। इस फ़िल्म में लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल कल्याणजी-आनदजी के सहायक थे। फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में उस साल इस फ़िल्म के लिए राज कपूर और नूतन का नाम मनोनीत हुआ था सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और अभिनेत्री के लिए, लेकिन ये पुरस्कार उन्हे नहीं मिले। अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला के वार्षिक कार्यक्रम में कुल १५ गीतों में से इसी फ़िल्म के दो गीतों को शामिल किया गया, १३-वीं पायदान पर "डम डम डिगा डिगा" और ९-वीं पायदान पर "छलिया मेरा नाम"। आज जो गीत हम सुनने जा रहे हैं, वह भी उत्कृष्टता में किसी से कम नहीं है। लता जी का शुरुआती आलाप ही हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाता है। ऒर्केस्ट्रेशन भी अच्छा है, दूसरे अंतरे के इंटर्ल्युड में सैक्सोफ़ोन का अच्छा इस्तमाल हुआ है। तो दोस्तों, गीत सुनिए, अरे हाँ, मैं तो भूल ही गया, आख़िर क़मर साहब ने भी तो इस गीत का ज़िक्र किया था १९७९ में उनके द्वारा प्रस्तुत 'जयमाला' कार्यक्रम में! "डिरेक्टर मनमोहन देसाई की पहली फ़िल्म 'छलिया' अपने भाई सुभाष देसाई के लिए डिरेक्ट कर रहे थे। सुभाष देसाई ने संगीतकार के लिए कल्याणजी-आनंदजी का नाम चुना। सुभाष देसाई का नाम सुनते ही कल्याणजी भाग खड़े हुए। सुभाष देसाई ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, उन्हे पकड़ कर उन्हे फ़िल्म का संगीतकार बनाकर ही दम लिया। लीजिए फ़िल्म 'छलिया' का गीत सुनिए मेरा लिखा हुआ। हाल ही में शायर क़तिल शिफ़ाई ने इस गीत की तारीफ़ की, मैं उनके इस क़द्रदानी का शुक्रगुज़ार हूँ।"



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

पलक झपकने को जी न चाहे,
काश ये पल गुजरे न,
ठहरी है सुबह उफक के मोड़ पर,
सुहाना ये नज़ारा बिखरे न....

अतिरिक्त सूत्र - ९ जनवरी को ही इस मशहूर पार्श्वगायक की जयंती भी है

पिछली पहेली का परिणाम-
रोहित जी, बहुत बधाई बहुत दिनों बाद आपकी आमद हुई....२ अंक संभालिए....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

गुनगुनाते लम्हें में सरस्वती प्रसाद की कहानी



गुनगुनाते लम्हे- 5

जैसा कि आप जानते हैं आज महीने का तीसरा मंगलवार है। तीसरा मंगलवार मतलब गुनगुनाते लम्हे का दिन। तो चलिए आज के दिन को गीतों भरी कहानी से रुमानी बनाते हैं। अपराजिता की दिकलश आवाज़ में गुनते हैं सरस्वती प्रसाद की कहानी।



'गुनगुनाते लम्हे' टीम
आवाज़/एंकरिंगकहानीतकनीक
Aprajita KalyaniPhotobucketKhushboo
अपराजिता कल्याणीसरस्वती प्रसादखुश्बू


आप भी चाहें तो भेज सकते हैं कहानी लिखकर गीतों के साथ, जिसे दूंगी मैं अपनी आवाज़! जिस कहानी पर मिलेगी शाबाशी (टिप्पणी) सबसे ज्यादा उनको मिलेगा पुरस्कार हर माह के अंत में 500 / नगद राशि।

हाँ यदि आप चाहें खुद अपनी आवाज़ में कहानी सुनाना तो आपका स्वागत है....


1) कहानी मौलिक हो।
2) कहानी के साथ अपना फोटो भी ईमेल करें।
3) कहानी के शब्द और गीत जोड़कर समय 35-40 मिनट से अधिक न हो, गीतों की संख्या 7 से अधिक न हो।।
4) आप गीतों की सूची और साथ में उनका mp3 भी भेजें।
5) ऊपर्युक्त सामग्री podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल करें।

Monday, January 18, 2010

सो जा राजकुमारी सो जा...हिंदी फिल्म संगीत के पहले सुपर सिंगर को नमन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 318/2010/18

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों हम अपको सुनवा रहे हैं लघु शृंखला 'स्वरांजली', जिसके अन्तर्गत हम याद कर रहे हैं फ़िल्म संगीत के उन लाजवाब कलाकारों को जो या तो हमसे बिछड़े थे जनवरी के महीने में, या फिर वो मना रहे हैं अपना जन्मदिन इस महीने। यशुदास और जावेद अख़तर को हम जनमदिन की शुभकामनाएँ दे चुके हैं, और श्रद्धांजली अर्पित की है सी. रामचन्द्र, जयदेव, चित्रगुप्त, कैफ़ी आज़मी, और ओ. पी. नय्यर को। आज १८ जनवरी जिस महान कलाकार का स्मृति दिवस है, उनके बारे में यही कह सकते हैं कि वो हिंदी सिनेमा के पहले सिंगिंग् सुपरस्टार हैं, जिन्होने फ़िल्म संगीत को एक दिशा दिखाई। जब फ़िल्म संगीत का जन्म हुआ था, उस समय प्रचलित नाट्य और शास्त्रीय संगीत ही सीधे सीधे फ़िल्मी गीतों के रूप में प्रस्तुत कर दिए जाते थे। लेकिन इस अज़ीम गायक अभिनेता फ़िल्मों में लेकर आए सुगम संगीत और जिनकी उंगली थाम फ़िल्म संगीत ने चलना सीखा, आगे बढ़ना सीखा, अपना एक अलग पहचान बनाया। आप हैं फ़िल्म जगत के पहले सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल। सहगल साहब ने फ़िल्म संगीत में जो योगदान दिया है, उनका शुक्रिया अदा करने की किसी के पास ना तो शब्द हैं और ना ही कोई और तरीक़ा। फिर भी विविध भारती उन्हे श्रद्धा स्वरूप दशकों से अपने दैनिक 'भूले बिसरे गीत' कार्यक्रम में हर रोज़ याद करते हैं कार्यक्रम के अंतिम गीत के रूप में। और यह सिलसिला दशकों से बिना किसी रुकावट से चली आ रही है। सहगल साहब की आवाज़ में 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ५०-वे एपिसोड में हमने आपको फ़िल्म 'शाहजहाँ' का गीत सुनवाया था "ग़म दिए मुस्तक़िल"। आज हम कुछ साल और पीछे की तरफ़ जा रहे हैं और आपके लिए चुन कर लाए हैं सन् १९४० की फ़िल्म 'ज़िंदगी' से सहगल साहब की गाई हुई लोरी "सो जा राजकुमारी सो जा"। इस फ़िल्म में संगीत पकज मल्लिक साहब का था, और सहगल साहब के अलावा फ़िल्म में अभिनय किया जमुना और पहाड़ी सान्याल ने। इस कालजयी लोरी को लिखा था किदार शर्मा ने। यह लोरी फ़िल्मी लोरियों में एक ख़ास मुक़ाम रखती है। सहगल साहब की कोमल आवाज़ जिस तरह से "सो जा" कहती है, बस सुन कर ही इसे अनुभव किया जा सकता है।

दोस्तों, सहगल साहब का १८ जनवरी १९४७ को निधन हो गया था। शराब की लत ऐसी लग गई थी कि कोई दवा काम न आ सकी। उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई थी कि जब तक वो शराब न पी लें, वो अच्छी तरह से गा नहीं सकते। एक बार नौशद साहब ने फ़िल्म 'शाहजहाँ' के गाने की रिकार्डिंग् के दौरान उनसे कहा कि आप बिना पीये मुझे एक टेक दे दीजिए, फिर उसके बाद आप जो कहेँगे हम सुनेँगे। सहगल साहब मान गए, बिना पीए टेक दे दिया और उसके बाद फिर पीना शुरु किया। घर जाने से पहले नशे की हालत में फिर एक टेक उन्होने दिया, जो उनके हिसाब से बिना पीये टेक से बेहतर था। अगले दिन नौशाद साहब ने दोनों टेक सहगल साहब को सुनवाए लेकिन यह नहीं बताया कि कौन सा टेक बिना पीये है और कौन सा नशे की हालत में। सहगल साहब ने बिना पीये टेक को बेहतर क़रार देते हुए कहा कि देखा, मैंने कहा था न कि बिना पीये मेरी आवाज़ नहीं खुलती! इस पर जब नौशाद साहब ने उनसे कहा कि दरअसल यह बिना पीये वाला रिकार्डिंग् था तो वो आश्चर्यचकित रह गए। नौशाद साहब ने उनसे कहा था कि "जिन लोगों ने आप से यह कहा है कि पीये बग़ैर आपकी आवाज़ नहीं खुलती, वो आपके दोस्त नहीं हैं।" ये सुनकर सहगल साहब का जवाब था "अगर यही बात मुझसे पहले किसी ने कहा होता तो शायद कुछ दिन और जी लेता!!!" दोस्तों, लता मंगेशकर ने ९० के दशक में 'श्रद्धांजली' शीर्षक से एक ट्रिब्युट ऐल्बम जारी किया था जिसमें उन्होने सुनहरे दौर के दिग्गज गायकों को श्रद्धांजली स्वरूप याद करते हुए उनके एक एक गाने गाए थे। पहला गाना सहगल साहब का था, और आपको पता है वह कौन सा गाना था? जी हाँ, आज का प्रस्तुत गीत। लता जी कहती हैं, "स्वर्गीय श्री के. एल. सहगल, वैसे तो उनसे सीखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हुआ, मगर उनके गाए गानें सुन सुन कर ही मुझमें सुगम संगीत गाने की इच्छा जागी। मेरे पिताजी, श्री दीनानाथ मंगेशकर, जो अपने ज़माने के माने हुए गायक थे, उनको सहगल साहब की गायकी बहुत पसंद थी। वो अक्सर मुझे सहगल साहब का कोई गीत सुनाने को कहते थे।" चलिए दोस्तों, सहगल साहब की स्वर्णिम आवाज़ में सुनते है फ़िल्म 'ज़िंदगी' का यह गीत। बेहद बेहद ख़ास है आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड', है न?



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

तरसे अखियाँ,
बरसे बादल,
सूखी दुनिया,
दिल का अंचल

अतिरिक्त सूत्र - इस गीतकार ने ९ जनवरी २००३ का दिन चुना था दुनिया को अलविदा कहने के लिए

पिछली पहेली का परिणाम-


खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"इश्किया" विशाल और गुलज़ार ने दिया नया संगीतमय तोहफा



ताज़ा सुर ताल ०३/ २०१०

सुजॊय - सजीव, यह इस साल के पहले महीने जनवरी का तीसरा 'ताज़ा सुर ताल' है। हमने अब तक इस महीने 'दुल्हा मिल गया', और वीर फ़िल्मों के संगीत की चर्चा की है। इनमें से 'दुल्हा मिल गया' रिलीज़ हो चुकी है, लेकिन फ़िल्म अब तक रफ़्तार नहीं पकड़ पाई है शाहरुख़ ख़ान के होने के बावजूद।

सजीव - और सुजॊय, इसी महीने 'प्यार इम्पॊसिबल' और 'चांस पे डांस' भी प्रदर्शित हो चुकी है, लेकिन बहुत ज़्यादा उम्मीदें इनमें भी नज़र नहीं आ रही। बता सकते हो क्या कारण हो सकता है?

सुजॊय - मुझे तो यही लगता है कि 'अवतार' और '३ इडियट्स' का नशा अभी तक लोगों के ज़हन से उतरा नहीं है। क्या होता है न कि हब कोई फ़िल्म बहुत ज़्यादा हिट हो जाती है, तो उसके ठीक बाद रिलीज़ होने वाली फ़िल्में कुछ हद तक उसकी चपेट में आ ही जाते हैं। अच्छा सजीव, इससे पहले कि हम आज के फ़िल्म की बातें शुरु करें, क्यों न आप जल्दी जल्दी 'प्यार इम्पॊसिबल' और 'चांस पे डांस' के म्युज़िक के बारे में हमारे पाठकों को एक हल्का सा आभास करा दें!

सजीव - ज़रूर! देखो सुजॊय, जहाँ तक 'चांस पे डांस' के म्युज़िक का सवाल है, करीब करीब सभी गानें वेस्टर्ण डांस और फ़्युज़न डांस को आधार बनाकर ही तैयार किए गए हैं। बहुत ज़्यादा फ़ूट टैपरिंग् नंबर्स हैं जो डिस्कोज़ में काफ़ी कामयाब रहेंगे। "ढैन टे नैन" के बाद अब बारी है "पें पें पेपें" के साथ झूमने की। लेकिन इस बार विशाल भारद्वाज नहीं, बल्कि प्रीतम हैं संगीतकार। इस गीत को लोग पसंद कर रहे हैं, शहनाई और पाश्चात्य संगीत का अच्छा फ़्युज़न है इस गीत में।

सुजॊय - सजीव, मेरे पास उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब के शहनाई का एक कैसेट था किसी ज़माने में, उसमें यह धुन थी, और यह कैसेट उस ज़माने में शादियों के रिसेप्शन में अक्सर बजते रहते थे। अच्छा, 'प्यार इम्पॊसिबल' में "टेन ऒन टेन" और "प्यार इम्पॊसिबल" गीतों के अलावा तो कोई गीत सुनने को ही नहीं मिला कहीं पर। मेरा ख़याल है कि इस फ़िल्म के संगीत में चर्चा करने लायक कोई भी ख़ास बात नहीं है। उदय चोपड़ा और प्रियंका चोपड़ा की जोड़ी को भी लोग पचा नहीं पाए।

सजीव - ख़ैर, आओ अब आते हैं आज की फ़िल्म पर जिसके गानें हम सुनेंगे भी और चर्चा भी करेंगे। पहला गाना पहले सुनों और बताओ कि आज किस फ़िल्म के संगीत को लेकर मैं हाज़िर हुआ हूँ।

गीत: दिल तो बच्चा है...Dil to bachha hai (ishqiya)


सुजॊय - वाह वाह, आज आप 'इश्किया' लेकर आए हैं। मैं भी कल सोच ही रहा था कि कब हम इस फ़िल्म को शामिल करेंगे। बेहद ख़ास फ़िल्म होने वाली है यह। और जहाँ तक इस गीत का सवाल है, राहत फ़तेह अली ख़ान का गाया हुआ, एक अलग ही अंदाज़ का और लीग से हट कर गाना है। और हम इस मंच पर ख़ास तौर पे उन फ़िल्मों को ही शामिल करते हैं जिनके संगीत में कुछ अहम बात दिखाई दे, क्यों सजीव?

सजीव - बिल्कुल सही कहा। और पता है इस फ़िल्म के गानें क्यों लीग से हट के है? क्यों कि इन्हे लिखा है गुलज़ार साहब ने। उनके ग़ैर पारम्परिक लेखनी जारी है और "दिल तो बच्चा है जी" में भी उन्होने उसी अंदाज़ का परिचय दिया है।

सुजॊय - 'माचिस', 'ओमकारा', और 'कमीने' जैसी कामयाब फ़िल्मों के बाद गुलज़ार साहब और विशाल भारद्वाज एक बार फिर से गीतकार संगीतकार जोड़ी के रूप में इस फ़िल्म में सामने आए हैं। अच्छा अभी हाल के कुछ सालों में राहत फ़तेह अली ख़ान ने कई लोकप्रिय गानें गाए हैं, ख़ास कर प्रीतम और साजिद वाजिद जैसे संगीतकारों के लिए। अब देखिए इस फ़िल्म में विशाल ने भी उनसे गाना लिया और क्या ख़ूब सुफ़ीयाना अंदाज़ का प्रदर्शन किया है राहत साहब ने!

सजीव - इस गीत में जो गीटार का इस्तेमाल हुआ सुनाई देता है, उसमें एक स्पनिश फ़ील सी आई है, और विशाल साहब तो भली भांति जानते हैं कि किस तरह से भारतीय और वेस्टर्ण म्युज़िक को मिक्स किया जाता है। कुल मिलाकर एक बेहद फ़्रेश गीत सुना हमने। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि यह गीत लोगों की जुबान से जल्द हटने वाला नहीं। हर कोई अपने दिल को बच्चा करार देने पर लगा है। चलो अब बारी है दूसरे गीत की। तो सुन लेते हैं यह गीत।

गीत: इब्न-ए-बतूता बगल में जूता...ibn-e-batuta (ishqkiya)


सुजॊय - फ़ुर्‍र्‍र्‍र‍र्‍र्‍ चुर्‍र्‍र्‍र‍र्‍र्‍ फ़ुर्‍र्‍र्‍र‍र्‍र्‍ चुर्‍र्‍र्‍र‍र्‍र्‍

सजीव - अरे अरे अरे ये क्या कर रहे हो?

सुजॊय - ओ हो सॊरी, गाना ख़तम हो गया? मैं तो बस गीत का मज़ा ले रहा था! बहुत दिनों के बाद कुछ अलग हट के गानें सुनने को मिले हैं ना तो इसलिए मैं उनमें बह सा गया था। जैसा संगीत भी मज़ेदार है, बोल तो और भी लाजवाब! गुलज़ार साहब अगैन ऐट हिज़ बेस्ट!

सजीव - बिल्कुल, और सुखविंदर सिंह और मिका की मस्ती भरी आवाज़ों ने और फ़ूट टैपरिंग् रीदम ने गाने को एक पेप्पी फ़ीलिंग् दी है। यह गीत ना हमें केवल किसी गाँव के खेतों की हरियाली में खींच ले जाते हैं, बल्कि एक हास्य रस का आभास भी कराते है। "थोड़ा आगे गतिरोधक है" जैसे बोल गुलज़ार साहब के कलम से ही निकलते रहे हैं।

सुजॊय - अब इससे पहले की अगले गीत की तरफ़ हम बढ़ें, आइए कुछ जानकारी हम अपने श्रोताओं व पाठकों को दे दें इस फ़िल्म के बारे में। विशाल भारद्वाज की फ़िल्म है और निर्देशक हैं अभिशेक चौबे। फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं नसीरुद्दिन शाह, अरशद वारसी और विद्या बालन प्रमुख। गीतकार संगीतकार तो बता ही चुके हैं। दरसल 'इश्किया' बॊलीवुड की कोई फ़ॊर्मुला फ़िल्म नहीं है। इस बात का अंदाज़ा तो कोई भी इस बात से लगा ही सकता है कि फ़िल्म में नसीरुद्दिन शाह मुख्य भूमिका में हैं। यह फ़िल्म है दो गैंग्स्टर्स (हूलीगन्स) और एक आकर्षक गाँव की लड़की की। अब इस फ़िल्म की कहानी के बारे में पहले से ही बताने की ग़ुस्ताख़ी मैं नहीं करूँगा, वरना अगली बार से पाठक हमें पढ़ना ही बंद कर देंगे।

सजीव- हाँ, और फ़िल्मों का मज़ा तो थियटर में जाकर ख़ुद देखने में ही है। चलो अब तीसरा गाना सुनते हैं रेखा भारद्वाज की आवाज़ में। और इसमें है गुलज़ार साहब की शायरी। इस ग़ज़ालनुमा गीत में रेखा जी ने एक बार फिर से साबित किया है कि आज की दौर में उनकी गायकी एक बहुत ही ख़ास मुक़ाम रखती है।

सुजॊय - यह गीत टूटे सपनों के बारे में है, जीवन के प्यास के बारे में है, क़रार के बारे में है। अब और ज़्यादा कहने की ज़रूरत नहीं, सीधे सुनते हैं इस गीत को।

गीत: अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ...Ab mujhe koi intezaar (ishiqiya)


सजीव- वाह! मज़ा आ गया है! और अब रेखा जी की ही आवाज़ में एक और गीत जो मेरा इस ऐल्बम का सब से फ़ेवरीट गीत है। "बड़ी धीरे जली रैना, धुआँ धुआँ नैना"। फ़िल्म 'वीर' में "कान्हा" गाने के बाद एक बार फिर से कुछ शास्त्रीय अंदाज़ में रेखा की आवाज़ इस गीत को एक अलग ही मुक़म तक लेके गई हैं। गीत तो वैसे फ़्युज़न ही है, बीट्स वेस्टर्ण है, लेकिन कुल मिलाकर यह गीत बिल्कुल इस मिट्टी से जुड़ा हुआ है। पर्क्युशन का सही इस्तेमाल किया है विशाल ने।

सुजॊय - एक और ख़ास बात क्या है इन सभी गीतों में पता है? ये गानें अपने आप में इतने सशक्त हैं कि इन्हे सुनते हुए हम इस बात को अपने दिमाग़ में भी लाए कि ये गानें किन कलाकारों पर फ़िल्माए गए होंगे! ये ख़ुद ही अपनी पहचान रखते हैं और ये किसी तरह के फ़िल्मांकन की मोहताज नहीं बनेंगे, ऐसा मेरा ख़याल है। अब लग रहा है कि २०१० के दशक में फ़िल्म संगीत में क्रांति की नई लहर आएगी और एक अलग ही सुरीला दौर एक बार फिर से जी उठेगा। चलिए सुनते हैं यह गीत।

गीत: बड़ी धीरे जली रैना...badi dhiire jali (ishiqiya)


"इश्किया" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****१/२
इस जोड़ी से हमेशा ही उम्मीद रहती है, दिल तो बच्चा है के बोल बेहद मजेदार हैं, और धुन में राज कपूर एरा का रेट्रो अंदाज़ खूब जमता है, इब्ने-बतूता एकदम तरोताज़ा है और जिस अंदाज़ से "फुर्र्र" बोला जाता है देर तक कानों में गूंजता रह जाता है, रेखा के गाये दोनों ही गीत गुलज़ार की चिर परिचित ग्लूमी अंदाज़ के हैं, बड़ी धीरे जली में लाइव वाध्यों का सुन्दर इस्तेमाल हुआ है, अन्तरो के बीच बजते संगीत में गजब का आकर्षण है, इन्हें सुनते हुए आप पूरा दिन बिता सकते हैं फिर भी ऊब नहीं पायेगें...इस वर्ष की बहुत अच्छी संगीतमयी शुरुआत हुई है इशिकिया और कुछ हद तक वीर के संगीत के चलते...इश्किया को आवाज़ ने दिए साढ़े चार तारों की रेटिंग...

अब पेश है आज के तीन सवाल-

TST ट्रिविया # 07-सन् १९६२ में सम्पूरण सिंह एक मशहूर फ़िम निर्माता-निर्देशक के सहायक बने थे। बताइए उस निर्माता-निर्देशक का नाम।

TST ट्रिविया # 08-"दिल में ऐसे संभलते हैं ग़म जैसे कोई ज़ेवर संभालता है। टूट गए, नाराज़ हो गए, अंगूठी उतारी, वापस कर दिए। कंगन उतारे, सात फेरों के साथ वापस कर दिए। पर बाक़ी ज़ेवर जो दिल में रख लिए उनका क्या होगा?" ये अल्फ़ाज़ कहे थे गुलज़ार साहब ने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में। इन अल्फ़ाज़ों को पढ़कर आपको क्या लगता है कि गुलज़ार साहब ने इसके बाद कौन सा अपना गाना बजाया होगा?

TST ट्रिविया # 09-'जुर्म और सज़ा' तथा 'ज़िंदगी और तूफ़ान' जैसी फ़िल्मों को आप विशाल भारद्वाज के साथ कैसे जोड़ सकते हैं?


TST ट्रिविया में अब तक -
सीमा जी एक बार आगे बड़ी चली जा रही हैं ३ में से २ सही जवाब देकर आपने कमाए ४ और अंक, बधाई...

Sunday, January 17, 2010

ये कहाँ आ गए हम...यूँ हीं जावेद साहब के लिखे गीतों को सुनते सुनते



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 317/2010/17

स्वरांजली' की आज की कड़ी में हम जन्मदिन की मुबारक़बाद दे रहे हैं गीतकार, शायर और पटकथा व संवाद लेखक जावेद अख्तर साहब को। लेकिन अजीब बात यह कि जिन दिनों में जावेद साहब पटकथा और संवाद लिखा करते थे, उन दिनों मे वो गानें नहीं लिखते थे, और जब उन्होने बतौर गीतकर अपना सिक्का जमाया, तो पटकथा लिखना लगभग बंद सा कर दिया। जब यही सवाल उनसे पूछा गया तो उनका जवाब था - "यह सही है कि जब मैं फ़िल्में लिखता था, उस वक़्त मैं गानें नहीं लिखता था। लेकिन हाल ही में मैंने अपने बेटे फ़रहान के लिए फ़िल्म 'लक्ष्य' का स्क्रिप्ट लिखा है, एक और भी लिखा है, सोच रहा हूँ कि किसे दूँ (हँसते हुए)! कुछ फ़िल्में हैं जिनमें मैंने स्क्रिप्ट और गानें, दोनों लिखे हैं, जैसे कि 'सागर', जैसे कि 'मिस्टर इंडिया', जैसे कि 'अर्जुन'। मुझे स्क्रिप्ट लिखते हुए थकान सी महसूस हो रही थी, कुछ ख़ास अच्छा नहीं लग रहा था। और अब गानें लिखने में ज़्यादा मज़ा आ रहा है, और दिल से लिख रहा हूँ। इसलिए सोचा कि जब तक फ़िल्मे लिखने का जज़्बा फिर से ना जागे, तब तक गीत ही लिखूँगा।" दोस्तों, एक रचनाकार के रूप में जावेद साहब का पुनर्जनम हुआ सलीम जावेद की जोड़ी बिखर जाने के बाद, जब निर्देशक रमण कुमार ने उनसे अपनी फ़िल्म 'साथ साथ' के गानें लिखवाए। लेकिन इस फ़िल्म से पहले यश चोपड़ा के अनुरोध पर जावेद साहब ने फ़िल्म 'सिलसिला' में तीन गीत लिखे जो बेहद कामयाब हुए और ये गाने आज एवरग्रीन हिट्स में शोभा पाते हैं। इनमें से एक गीत है "देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए", दूसरा गीत था "नीला आसमान सो गया" और तीसरा गाना था "ये कहाँ आ गए हम युं ही साथ साथ चलते"। आइए आज जावेद साहब को जन्मदिन की शुभकामनाएँ देते हुए यही तीसरा गीत सुनें, जिसे गाया है सुरों की मल्लिका लता मंगेशकर और अभिनय के शहंशाह अमिताभ बच्चन ने।

विविध भारती को दिए गए एक साक्षात्कार में जावेद अख़तर साहब ने बताया था कि वो गीतकारिता में कैसे आए। "मैं गीतकार नहीं था, ज़बरदस्ती बना दिया गया। मैं तो फ़िल्में लिखा करता था। यश जी एक दिन मेरे घर अए, वो मुझसे उनकी फ़िल्म 'सिलसिला' के लिए एक गीत लिखवाना चाहते थे। मैंने साफ़ इंकार कर दिया, कहा कि मैं पोएट्री सिर्फ़ अपने लिए लिखा करता हूँ, फ़िल्म के लिए नहीं लिख सकता। लेकिन वो तो पीछे ही पड़ गए। इसलिए न चाहते हुए भी मैं एक गीत लिखने के लिए राज़ी हो गया। मैंने उनसे कहा कि मुझे इसके लिए कोई क्रेडिट नहीं चाहिए क्योंकि मैंने सोचा कि वो लोग मुझे एक ट्युन सुना देंगे और मुझसे उस पर गाना लिखने की उम्मीद करेंगे, अगर लिख ना पाया तो क्या होगा? मुझे फिर यश जी ने शिव-हरि से एक दिन मिलवा दिया। वो धुन सुनाते गए और शाम तक मैं "देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए" लिख चुका था। मैंने ५०० से ज़्यादा गानें लिखे हैं पर यह गीत मेरे लिए आज भी बहुत स्पेशल है। मैंने 'सिलसिला' में कुल ३ गीत लिखे, युं कह सकते हैं कि मुंह में ख़ून लग गया था। शबाना जी को "ये कहाँ आ गए हम" बहुत पसंद है, वो अकसर इसे गुनगुनाती हैं।" दोस्तों, यह गीत ही इतना ज़बरदस्त है कि इसकी बातें इतनी आसानी से ख़त्म नहीं हो सकती। अब हम आपको इस गीत के बनने की कहानी बताते हैं इस गीत के संगीतकार जोड़ी शिव-हरि के पंडित शिव कुमार शर्मा के शब्दों में जो उन्होने कहे थे विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम के तहत 'मेरी संगीत यात्रा' शृंखला के दौरान। "आप ने एक चीज़ नोटिस की होगी कि यह एक 'अन्युज़ुयल' गाना है। मैं आपको इसका बैकग्राउंड बताउँगा कि यह गाना कैसे बना। शुरु में यश जी ने कहा कि मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ कि हीरो अपने ख़यालों में बैठा हुआ है और कुछ पोएट्री लिख रहा है, या पोएट्री रीसाइट कर रहा है, कुछ शेर, और बीच में कुछ आलाप ले आएँगे, लता जी का ऐसा कुछ। तो इस तरह का सोच कर के शुरु किया कि थोड़ा म्युज़िक रहेगा, थोड़ी शेर-ओ-शायरी होगी, और फिर कुछ बीच में आलाप आएगा। यह बिल्कुल नहीं सोचा था कि इस तरह का गाना बनेगा। बनते बनते, जैसा होता था कि उस ज़माने में अमिताभ बच्चन, अभी भी उतने ही बिज़ी हैं, उस ज़माने की क्या बात कहें, कि वो १२-१ बजे जब उनकी शूटिंग् की शिफ़्ट ख़त्म होती थी, तो वो आते थे। और फिर आकर के हमारे साथ बैठते थे क्योंकि उन्होने गानें भी गाए हैं, होली का जो गाना है, और "नीला आसमान"। तो यह गाना जब बनने लगा तो उसकी शुरुआत ऐसे ही हुई, बनते बनते कुछ उसमें धुन का ज़िक्र जब आया, तो जावेद अख़तर साहब बैठे हुए थे, तो बीच में उनकी ही सारी नज़्में हैं जो बच्चन साहब ने पढ़े हैं। तो जब एक धुन गुनगुना रहे थे हम लोगोँ ने सोचा कि इसके उपर बोल आ जाएं तो कैसा लगेगा। तो धीरे धीरे जब बोल आया तो लगा कि अस्थाई बन गई। ऐसा करते करते कि ये जो नज़्म है, जो शेर पढ़ रहे हैं, उसको हम ऐसा इस्तेमाल करते हैं कि जैसे इंटर्ल्युड म्युज़िक होता है, जैसे 'इंट्रोडक्शन म्युज़िक' होता है। ऐसे करते करते इसकी शक्ल ऐसी बनीं। और वो एक ऐसा 'अन्युज़ुयल' गाना बन गया कि पोएट्री और गाना साथ में चल रहा है, लेकिन वो एक के साथ एक जुड़ा हुआ है, और वो बात आगे बढ़ रही है। तो इस क़िस्म के, मेरे ख्याल में इस किस्म का गाना फिर किसी ने दुबारा कोशिश ही नहीं की और इसमें हमनें कोरस का भी अच्छा इस्तेमाल किया था। तो वो पूरा जो उसका माहौल बना है, वह आज इस गाने को बने हुए इतने साल हो गए हैं, लेकिन अभी भी वह फ़्रेश लगता है।" बिल्कुल सही दोस्तों, आइए अब हम भी इस फ़्रेश गीत का आनंद उठाते हैं, सुर कोकिला और अभिनय के शहंशाह की आवाज़ों के साथ, और साथ ही जावेद साहब को एक बार फिर से जनमदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

क्या होता है सपनों का टूट जाना,
वही समझे जिसने हो ये दर्द पाला,
उड़कर तो आना चाहूँ तेरे पास पर,
पैरों बेडी गले पड़ी रिवाजों की माला...

अतिरिक्त सूत्र - फिल्म जगत के सबसे पहले सिंगिंग सुपर स्टार को समर्पित है ये स्वरांजली

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी आपने खुद ही कहा कि जो गीत आपने चुना वो गोल्ड तो है पर ओल्ड नहीं, शरद जी यहाँ सही निकले, बधाई जनाब २ अंक हुए आपके और...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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