ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 323/2010/23
आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस कड़ी की शुरुआत में हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस देश के अन्यतम वीरों में से एक, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को, जिनकी आज जयंती है। उन पर कई फ़िल्में बनीं हैं, आज इस वक़्त मुझे ऐसी ही किसी फ़िल्म के जिस गीत की याद आ रही है वह है "झंकारो झंकारो झननन झंकारो, झंकारो अग्निवीणा, आज़ाद होके बंधुओं जीयो, ये जीना कोई जीना, ये जीना क्या जीना"। आइए अब आगे बढ़ते हैं और इंदु जी के पसंद का तीसरा गीत सुनते हैं ख़ामोशी से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'ख़ामोशी' से। वैसे दोस्तों, यह गीत इतना भावुक और नायाब है कि इसे बिल्कुल ख़ामोश होकर ही सुनें तो बेहतर है। "वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है"। गुलज़ार साहब के बेहद बेहद बेहद असरदार बोल, हेमन्त कुमार का दिल को छू लेनेवाला संगीत, और उस पर किशोर कुमार की गम्भीर गायकी, कुल मिलाकर एक ऐसा गीत बना है कि दशकों बाद भी आज जब भी कभी इस गीत को सुनते हैं तो हर बार यह दिल को उतना ही छू जाता है जितना कि उस दौर के लोगों का छूता होगा। आख़िर क्या है इन गीतों में कि जिस वजह से ये गानें कभी पुराने नहीं लगते! वैसे आपको अब यह बता दें कि इंदु जी को यह गाना क्यों इतना पसंद है। "वो शाम कुछ अजीब थी -- फिल्म 'ख़ामोशी , यूँ तो ये गाना मुझे शुरू से पसंद है, पर अब ज्यादा ही पसंद आने लगा है। दिन में कई कई बार गाती हूँ, या फिर युं कहिए कि गाना पड़ता है। मेरे पोते, जो ट्विन्स हैं और एक साल के अब हुए हैं, इस गाने पर जबरदस्त रिएक्ट करते हैं। छोटे से थे तो रोते हुए चुप हो जाते थे, अब मैं कहीं भी छुप कर ये गाना गाऊं मुझे ढूंढ़ लेते हैं। दूसरा कोई ये गाना सुनाए,या सी.डी. पर सुनाने पर चुप नही होते। कई बार उदयपुर से फोन आता है 'मम्मा! बच्चे रो रहे है चुप ही नही हो रहे, गाना सुनाओ ना,'' मैं गाती हूँ 'वो शाम', सुनते ही एकदम सन्नाटा छा जाता है, अब क्यों ना पसंद हो ऐसा गाना ?" वाक़ई इंदु जी, हम भी हैरान हैं आपके इस अनुभव को जान कर।
१९६९ की फ़िल्म 'ख़ामोशी' की चर्चा हमने पहले 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में की है जिस दिन "दोस्त कहाँ कोई तुमसा" गीत सुनवाया था। आज ज़रा इस गीत की विस्तृत चर्चा की जाए। राजेश खन्ना और वहीदा रहमान एक नाव पर सवार हो कर गंगा नदी में सैर को निकले हैं हावड़ा ब्रिज के नीचे से गुज़रते हुए। जिन्होने यह फ़िल्म नहीं देखी है, उनके लिए यह बता दें कि राजेश खन्ना इस फ़िल्म में एक दिमाग़ी मरीज़ हैं और वहीदा रहमान उस अस्पताल की नर्स। राजेश खन्ना से पहले कुछ इसी तरह के एक मरीज़ (धर्मेन्द्र) को वहीदा ने ठीक कर दिया था और उनके साथ वो प्यार भी कर बैठी थीं यह भूल कर कि वो केवल एक मरीज़ हैं जिनको ठीक होते ही चले जाना है। लेकिन वहीदा धर्मेन्द्र को अपने दिल से निकाल नहीं पाती। अब जब वो राजेश खन्ना के इलाज के दौरान धीरे धीरे उनके करीब आ रही हैं तो बार बार धर्मेन्द्र की यादें उन्हे सता रही है। इस गीत को नाव पर राजेश खन्ना गा रहे हैं और गीत में "वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है" जैसे बोलों की वजह से वहीदा फ़्लैशबैक में चली जाती है और धर्मेन्द्र को याद करने लगती है। गीत के इंटर्ल्युड म्युज़िक में फ़्लैशबैक में वहीदा और धर्मेन्द्र के हँसी मज़ाक और प्यार भरे पलों को दिखाया जाता है। लेकिन गीत के ख़तम होते होते जैसे राजेश खन्ना वहीदा को अपनी बाहों में ले लेते हैं, वहीदा भी पुरानी यादों को एक तरफ़ कर अपने आप को उन पर न्योछावर कर देती है। क्या ख़ूब एक्स्प्रेशन दिए थे उस पर्टिकुलर सीन में वहीदा जी ने! दोस्तों, यह गीत सुनते हुए आँखें भर आती हैं। ख़ास कर उन लोगों की जिन्हे अपना प्यार नहीं हासिल हुआ, जिनका प्यार एक तरफ़ा ही रहा, या फिर हालात ने एक दूसरे से बिछड़ जाने पर मजबूर किया। मुझे तो कई बीती हुई बातें याद आ जाती है इस गीत को सुनते ही और रो पड़ता हूँ। आप यह गीत सुनिए और आप भी अपने पहले प्यार को याद कर रो पड़ेंगे यह मेरा दावा है। सुनिए...
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
कैसी है ये जालिम जादूगरी तेरी,
कि तेरे चेहरे को यूँहीं निहारने को जी चाहे,
कभी शर्म से झुकी पलकें निहारूं,
कभी रंग रुखसारों का चुराने को जी चाहे...
अतिरिक्त सूत्र -इस युगल गीत में एक आवाज़ आशा भोसले की है
पिछली पहेली का परिणाम-
पदम सिंह जी सूत्र तो चार होते हैं कुछ जाहिर कुछ छुपे हुए, छुपे हुए आपने खुद ढूँढने हैं, जो कि आपने ढूंढ भी लिए हैं बहुत बधाई एक बार फिर, १ और अंक आपके खाते में जुड़ा...अवध जी ज़रा सी और फुर्ती दिखाईये...
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.