Saturday, February 7, 2009

सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'पुत्र-प्रेम'



उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'पुत्र-प्रेम'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने शन्नो अग्रवाल की आवाज़ में प्रेमचंद की रचना ''माँ'' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी "पुत्र-प्रेम", जिसको स्वर दिया है लन्दन निवासी कवयित्री शन्नो अग्रवाल ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 15 मिनट।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

जब कोई खर्च सामने आता तब उनके मन में स्वाभावत: प्रश्न होता था-इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य पुरुष का? यदि दो में से किसी का कुछ भी उपहार न होता तो वे बड़ी निर्दयता से उस खर्च का गला दबा देते थे। ‘व्यर्थ’ को वे विष के समाने समझते थे।
(प्रेमचंद की "पुत्र-प्रेम" से एक अंश)


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#Twenty Fifth Story, Maa: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2009/05. Voice: Shanno Aggarwal


Friday, February 6, 2009

इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त कदम रस्ते,: पंचम दा पर विशेष



हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास में अगर किसी संगीत निर्देशक को सबसे ज्यादा प्यार मिला, तो वह निस्संदेह आर डी वर्मन,या पंचम दा हैं |सचिन देव वर्मन जैसे बड़े और महान निर्देशक के पुत्र होने के बावजूद पंचम दा ने अपनी अलग और अमिट पहचान बनाई |कहते हैं न,पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं,जब इनका जन्म हुआ था,तब अभिनेता स्व अशोक कुमार ने देखा कि नवजात आर डी बार बार पाँचवा स्वर "पा" दुहरा रहे हैं,तभी उन्होने इनका नाम रख दिया "पंचम "|आज भी वे बहुत सारे लोगों के लिये सिर्फ़ पंचम दा हैं| सिर्फ़ नौ बरस की उम्र में उन्होंने अपना पहला गीत "ऐ मेरी टोपी पलट के" बना लिया था,जिसे उनके पिता ने "फ़ंटूश" मे लिया भी था| काफ़ी कम उम्र में पंचम दा ने "सर जो तेरा चकराये …" की धुन तैयार कर ली जिसे गुरुदत्त की फ़िल्म "प्यासा" मे लिया गया | आगे जाकर जब आर डी संगीत बनाने लगे,तो उनकी शैली अपने पिता से काफ़ी अलग थी, और इस बात को लेकर दोनों का नजरिया अलग था । आर डी हिन्दुस्तानी के साथ पाश्चात्य संगीत का भी मिश्रण करते थे,जो सचिन देव वर्मन साहब को रास नहीं आता था, इस बात पर एक बार मशहूर गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी साहब ने इन्हें समझाया तो पंचम बोले : "देखिये अंकल,बाबा बहुत बड़े म्यूजिक डायरेक्टर हैं,उनसे मैने बहुत कुछ सीखा है और सीखूँगा,लेकिन मैं उनकी राह पर नहीं चलूँगा । मैं अपना रास्ता कुछ अलग निकालूंगा ।" और पंचम दा ने अपनी बात सच साबित कर दिखाई ।

सुनिए उनके शुरूआती दौर की फ़िल्म "भूत बंगला" के ये मस्ती भरा गीत -


संगीत में किसी की सफ़लता का एक पैमाना यह भी होता है कि आप अपने समकालीन कलाकारों से कितनी इज्जत पाते हैं और आपका काम कितना लोकप्रिय होता है । लेकिन आर डी वर्मन की बात करें तो उनके लिये तात्कालिक सफ़लता से ज्यादा यह बात मायने रखती थी कि आपके गाने कितने दिनों तक याद किये जायेंगें,शायद यही कारण भी है कि उनके गाने आज भी हमारे काफ़ीं करीब हैं । मिसाल के तौर पर फ़िल्म परिचय से 'बीती ना बिताई रैना' ,या फ़िर आँधी फ़िल्म मे 'इस मोड़ से जाते हैं,कुछ सुस्त कदम रस्ते' जैसे गीत आज भी काफ़ी पसंद किये जाते हैं और पंचम दा की श्रेष्ठता के परिचायक हैं ।

एक ऐसा ही राग आधारित गीत है फ़िल्म किनारा का "मीठे बोल बोले...", सुनिए -


विशेषज्ञों के अनुसार,आर डी अपने समकालीन निर्देशकों से सालों आगे थे और संगीत की उनकी समझ अन्य की तुलना में कहीं बेहतर थी । वे भारतीय तथा पाश्चात्य संगीत के मिश्रित प्रयोग से संगीत में जादू भर देते । संगीत फ़िल्म की सिचुएशन मे सही हो इसके लिये वह काफ़ी मेहनत करते थे, और कई बार तो धुन बनाते समय फ़िल्म के हीरो का चेहरा दिमाग में रखते थे ताकि धुन बिलकुल सही बैठे । संगीत कभी भी गायक की आवाज पर भारी नहीं पड़ना चाहिये, ऐसा पंचम दा का मानना था, और शायद इसी कारण उनके गाने जादू भरे होते थे, क्योंकि उनमें बेहतरीन सगीत और गीत के साथ सादगी भी होती थी । भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ पाश्चात्य संगीत का मिश्रण कब और कैसे करना है, यह पंचम दा को खूब आता था ; फ़िल्म अमर प्रेम के गाने 'कुछ तो लोग कहेंगें' को ही ले लें जिसमें राग खमाज और राग कलावती के साथ पाश्चात्य संगीत का अद्भुत मिश्रण है । यही नहीं, इनकी रचनात्मकता सिर्फ़ गाने बनाने तक सीमित नहीं थी । नई तकनीकि का इस्तेमाल, रेकार्डिग, बिना तबले के गाने की रेकार्डिग, और विशेष प्रभाव के लिये नये वाद्यों का ईजाद आर डी की विविधता के परिचायक हैं । यहां तक कि सुपरहिट गीत 'चुरा लिया है तुमने जो दिल को' में ग्लास पर चम्मच टकराने की आवाज का इस्तेमाल भी पचम दा ने किया था ।

"चुरा लिया है..." आशा की जादूभरी आवाज़ में -


कई सफ़ल नामों,मसलन गुलजार,आशा भोंसले,किशोर कुमार आदि के सफ़र में पंचम दा की अहम भूमिका रही है । गुलजार साहब,जो कि पंचम दा के बहुत करीब के लोगों में से एक थे,पंचम दा के बारे में कहते हैं "संगीत के तो सिर्फ़ सात ही सुर हैं,पर पंचम की शख्सियत में बेपनाह सुर थे"। आशा जी की आवाज को जिस तरह आर डी वर्मन साहब ने इस्तेमाल किया,वैसा शायद किसी ने नही (ओ पी नैयर अपवाद हैं) किया । इस महान शख्सियत के कुछ पहलुओं को आज हमने छुआ,अगली बार और कई बातों के साथ मिलेंगें आज बस इतना ही । चलते चलते आपको वह गीत सुनवाते हैं जिसने लता जी और भूपेन्द्र जी दोनों को श्रेष्ठ गायक का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलाया ।

"बीते न बितायी रैना..." फ़िल्म परिचय से -


प्रस्तुति - आलोक शंकर



Thursday, February 5, 2009

पद्मश्री हुए अमीन सयानी- आवाज़ की विशेष प्रस्तुति



सुनिए कमला भट्ट द्वारा लिये गये अमीन सयानी के ये नायाब इंटरव्यू

अपनी मखमली जादू भरी आवाज़ से दशकों तक हर उम्र के लोगों को सम्मोहित करने वाले आल इंडिया रेडियो के सबसे सफलतम संचालकों में से एक,अमीन सयानी को भारत सरकार ने ब्रॉडकास्टिंग के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान के लिए पदम् श्री से सम्मानित किया है.७७ वर्षीया सयानी हमेशा "बहनों और भाईयों" संबोधन से कार्यक्रम की शुरुआत किया करते थे,और गीतमाला,सिने कलाकारों की महफिल जैसे कार्यक्रमों से घर घर में पहचाने जाते थे. व्यवसायिक ब्राडकास्टिंग को नई बुलंदियां देने में उनका योगदान अतुलनीय है.

लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड २००५, के अनुसार उन्होंने ५४००० से अधिक रेडियो कार्यक्रमों का संचालन किया और लगभग १९००० प्रायोजित विज्ञापनों और स्पोट्स के माध्यम से अपनी आवाज़ भारत के आलावा, अमेरिका, कनाडा, श्री लंका, संयुक्त अरब अमीरात, न्यूजीलैंड, और ब्रिटन के श्रोताओं तक पहुंचाई. उनका एतिहासिक काउंट डाउन शो बिनाका गीत माला जो बाद में सिबाका गीत माला बना और फ़िर कोलगेट ने इसे प्रायोजित किया, ४६ वर्षों तक चला. पहले ये रेडियो सीलोन से सुनाई देता था. बाद में विविध भारती पर इसका प्रसारण जारी रहा. इस बेहद कामियाब संगीत काउंट डाउन को गीतों की लोकप्रियता का विश्वसनीय पैमाना माना जाता था, और सभी को इसका बेसब्री से इंतज़ार रहता था, जिस अंदाज़ से अमीन इस प्रस्तुत करते थे, वो तो बेमिसाल ही था. २००७ में हुए विविध भारती के गोल्डन जुबली समारोह में अमीन ने गीतमाला और अपने अन्य बहुत से कार्यक्रमों के माध्यम से विविध भारती के सुनहरे इतिहास को कुछ इस तरह बयान किया, आप भी देखें और सुने.



इसके आलावा अमीन ने मशहूर हस्तियों के साक्षात्कार, रेडियो नाटक और स्किट्स, क्विज शो, संगीत के विशेष कार्यक्रम, कैरियर सम्बंधित और एड्स से बचाव से जुड़े अनेकों अनेक कार्यक्रमों को अपनी आवाज़ दी. फ़िल्म "भूत बंगला","तीन देवियाँ", "बोक्सर", और "कातिल" जैसी फिल्मों में उद्घोषक की छोटी छोटी भूमिकाएं भी उन्होंने निभाई. अमीन के बारे में अधिक जानिए कमला भट्ट द्वारा लिए गए इस साक्षात्कार में, जहाँ उन्होंने अपने बहुत से अनुभवों को बांटा. इंटरव्यू ६ भागों में है जो हमें कमला जी के द्वारा इन्टरनेट पर प्रस्तुत "दा कमला शो" से प्राप्त हुआ है.



रेडियो सीलोन के साथ अमीन के अनुभव -


गीतमाला का उदय और नियमित श्रोताओं के बारे में -


बॉलीवुड और संगीत इंडस्ट्री -


किशोर कुमार और संजीव कुमार के दिलचस्प किस्से-


संगीतकार रोशन के बारे में और अपने सपनों के बारे में -


प्रस्तुति सहयोग - सुजोय चटर्जी
साक्षात्कार सौजन्य - कमला भट्ट


Wednesday, February 4, 2009

सुनिए मन्ना डे की आवाज़ में मधुशाला के गीत



पिछले दिनों हमने आवाज़ पर मन्ना डे का जिक्र किया था,हमारे कुछ श्रोताओं ने फरमाईश की,कि हम उन्हें मन्ना डे की आवाज़ में प्रस्तुत हरिवंश राय बच्चन रचित मधुशाला की रिकॉर्डिंग सुनवाएं. ये भी एक संयोग ही है कि अभी कुछ दिन पहले ही बच्चन जी पुण्यतिथि पर हमने उनकी एक कविता "क्या भूलों क्या याद करूँ ..." का स्वरबद्ध रूप भी सुनवाया था. तो आज आनंद लीजिये मन्ना डे की गहरी डूबती आवाज़ में मधुशाला के रंगों का.



प्रस्तुति सहयोग - विश्व दीपक "तन्हा"




Tuesday, February 3, 2009

मैं शायर बदनाम, महफिल से नाकाम



(पिछली कड़ी से आगे...)
बक्षी साहब ने फ़िल्म मोम की 'गुड़िया(1972)' में गीत 'बाग़ों में बहार आयी' लता जी के साथ गाया था। इस पर लता जी बताती हैं कि 'मुझे याद है कि इस गीत की रिकार्डिंग से पहले आनन्द मुझसे मिलने आये और कहा कि मैं यह गीत तुम्हारे साथ गाने जा रहा हूँ 'इसकी सफलता तो सुनिश्चित है'। इसके अलावा 'शोले(1975)', 'महाचोर(1976)', 'चरस(1976)', 'विधाता(1982)' और 'जान(1996)' में भी पाश्र्व(प्लेबैक)गायक रहे। आनन्द साहब का फिल्म जगत में योगदान यहीं सीमित नहीं, 'शहंशाह(1988)', 'प्रेम प्रतिज्ञा(1989)', 'मैं खिलाड़ी तू आनाड़ी(1994)', और 'आरज़ू(1999)' में बतौर एक्शन डायरेक्टर भी काम किया, सिर्फ यही नहीं 'पिकनिक(1966)' में अदाकारी भी की।

लता की दिव्या आवाज़ में सुनिए फ़िल्म अमर प्रेम का ये अमर गीत -


बक्षी के गीतों की महानता इस बात में है कि वह जो गीत लिखते थे वह किसी गाँव के किसान और शहर में रहने वाले किसी बुद्धिजीवी और ऊँची सोच रखने वाले व्यक्तिव को समान रूप से समझ आते हैं। वह कुछ ऐसे चुनिंदा गीतकारों में से एक हैं जिनके गीत जैसे उन्होंने लिखकर दिये वह बिना किसी फेर-बदल या नुक्ताचीनी के रिकार्ड किये गये। आनन्द साहब कहते थे फिल्म के गीत उसकी कथा, पटकथा और परिस्थिति पर निर्भर करते हैं। गीत किसी भी मन: स्तिथि, परिवेश या उम्र के लिए हो सकता है सो कहानी चाहे 60,70 या आज के दशक की हो इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है।

उनका सबसे अधिक साथ संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ रहा, ढेरों फिल्में और ढेरों सुपर हिट गीतों का ये काफिला इतना लंबा है की इस पर बात करें तो पोस्ट पे पोस्ट लग जाएँगीं. फिलहाल सुनते हैं फ़िल्म सरगम का ये दर्द भरा नग्मा -


आनन्द साहब को बड़े-बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिसमें 'आदमी मुसाफ़िर है' [अपनापन(1977)], 'तेरे मेरे बीच कैसा है यह बन्धन' [ एक दूजे के लिए(1981)], 'तुझे देखा तो यह जाना सनम' [दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995)] और 'इश्क़ बिना क्या जीना यारों' [ ताल(1999)] गीतों के लिए चार बार फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी सम्मिलित है।

ऐ आर रहमान का संगीतबद्ध किया फ़िल्म ताल का ये गीत साबित करता है हर पीढी के संगीतकारों के साथ पैठ बिठाने में बक्षी साहब को कभी परेशानी नही हुई -


बक्षी साहब का निर्वाण 30 मार्च 2002 को मुम्बई में हुआ। फेफड़े और दिल की बीमारी को लेकर नानावती हास्पिटल में उनका इलाज काफ़ी समय चला लेकिन बचाने की कोशिश नाकामयब रही। आनन्द बक्षी साहब आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी कमी सिर्फ़ हमें नहीं खलती बल्कि उन फिल्मकारों को भी खलती है जिनके लिए वह गीत लिखते रहे, आज अगर आप उनकी आने वाली फ़िल्मों के गीत सुने तो कहीं न कहीं उनमें प्यार की मासूमियत और सच्ची भावना की कमी झलकती है, या बनावटीपन है या उनके जैसा लिखने की कोशिश है। आनन्द साहब इस दुनिया से क्या रुख़्सत हुए जैसे शब्दों ने मौन धारण कर लिया, जाने यह चुप्पी कब टूटे कब कोई दूसरा उनके जैसा गीतकार जन्म ले!

उस मशहूरो-बदनाम शायर की याद में ये नग्मा भी सुनते चलें -


प्रस्तुति - विनय प्रजापति "नज़र"




Monday, February 2, 2009

जिसके गीतों ने आम आदमी को अभिव्यक्ति दी - आनंद बख्शी



आनन्द बक्षी यह वह नाम है जिसके बिना आज तक बनी बहुत बड़ी-बड़ी म्यूज़िकल फ़िल्मों को शायद वह सफलता न मिलती जिनको बनाने वाले आज गर्व करते हैं। आनन्द साहब चंद उन नामी चित्रपट(फ़िल्म)गीतकारों में से एक हैं जिन्होंने एक के बाद एक अनेक और लगातार साल दर साल बहुचर्चित और दिल लुभाने वाले यादगार गीत लिखे, जिनको सुनने वाले आज भी गुनगुनाते हैं, गाते हैं। जो प्रेम गीत उनकी कलम से उतरे उनके बारे में जितना कहा जाये कम है, प्यार ही ऐसा शब्द है जो उनके गीतों को परिभाषित करता है और जब उन्होंने दर्द लिखा तो सुनने वालों की आँखें छलक उठीं दिल भर आया, ऐसे गीतकार थे आनन्द बक्षी। दोस्ती पर शोले फ़िल्म में लिखा वह गीत 'यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेगे' आज तक कौन नहीं गाता-गुनगुनाता। ज़िन्दगी की तल्खियो को जब शब्द में पिरोया तो हर आदमी की ज़िन्दगी किसी न किसी सिरे से उस गीत से जुड़ गयी। गीत जितने सरल हैं उतनी ही सरलता से हर दिल में उतर जाते हैं, जैसे ख़ुशबू हवा में और चंदन पानी में घुल जाता है। मैं तो यह कहूँगा प्रेम शब्द को शहद से भी मीठा अगर महसूस करना हो तो आनन्द बक्षी साहब के गीत सुनिये। मजरूह सुल्तानपुरी के साथ-साथ एक आनन्द बक्षी ही ऐसे गीतकार हैं जिन्होने 43 वर्षों तक लगातार एक के बाद एक सुन्दर और कृतिमता(बनावट)से परे मनमोहक गीत लिखे, जब तक उनके तन में साँस का एक भी टुकड़ा बाक़ी रहा।

सुनिए सबसे पहले रफी साहब की आवाज़ में ये खूबसूरत प्रेम गीत -


21 जुलाई सन् 1930 को रावलपिण्डी में जन्मे आनंद बक्षी से एक यही सपना देखा था कि बम्बई (मुम्बई) जाकर पाश्र्व(प्लेबैक) गायक बनना है। इसी सपने के पीछे दौड़ते-भागते वे बम्बई आ गये और उन्होंने अजीविका के लिए 'जलसेना (नेवी), कँराची' के लिए नौकरी की, लेकिन किसी उच्च पदाधिकारी से कहा सुनी के कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। इसी बीच भारत-पाकिस्तान बँटवारा हुआ और वह लखनऊ में अपने घर आ गये। यहाँ वह टेलीफोन आपरेटर का काम कर तो रहे थे लेकिन गायक बनने का सपना उनकी आँखों से कोहरे की तरह छँटा नहीं और वह एक बार फिर बम्बई को निकल पड़े।

उनका यही दीवानापन था जिसे किशोर ने अपना स्वर दिया -


बम्बई जाकर अन्होंने ठोकरों के अलावा कुछ नहीं मिला, न जाने यह क्यों हो रहा था? पर कहते हैं न कि जो होता है भले के लिए होता है। फिर वह दिल्ली तो आ गये और EME नाम की एक कम्पनी में मोटर मकैनिक की नौकरी भी करने लगे, लेकिन दीवाने के दिल को चैन नहीं आया और फिर वह भाग्य आज़माने बम्बई लौट गये। इस बार बार उनकी मुलाक़ात भगवान दादा से हुई जो फिल्म 'बड़ा आदमी(1956)' के लिए गीतकार ढूँढ़ रहे थे और उन्होंने आनन्द बक्षी से कहा कि वह उनकी फिल्म के लिए गीत लिख दें, इसके लिए वह उनको रुपये भी देने को तैयार हैं। पर कहते हैं न बुरे समय की काली छाया आसानी से साथ नहीं छोड़ती सो उन्हें तब तक गीतकार के रूप में संघर्ष करना पड़ा जब तक सूरज प्रकाश की फिल्म 'मेहदी लगी मेरे हाथ(1962)' और 'जब-जब फूल खिले(1965)' पर्दे पर नहीं आयी। अब भाग्य ने उनका साथ देना शुरु कर दिया था या यूँ कहिए उनकी मेहनत रंग ला रही थी और 'परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना' और 'यह समा है प्यार का' जैसे लाजवाब गीतों ने उन्हें बहुत लोकप्रिय बना दिया। इसके बाद फ़िल्म 'मिलन(1967)' में उन्होंने जो गीत लिखे, उसके बाद तो वह गीतकारों की श्रेणी में सबसे ऊपर आ गये। अब 'सावन का महीना', 'बोल गोरी बोल', 'राम करे ऐसा हो जाये', 'मैं तो दीवाना' और 'हम-तुम युग-युग' यह गीत देश के घर-घर में गुनगुनाये जा रहे थे। इसके आनन्द बक्षी आगे ही आगे बढ़ते गये, उन्हें फिर कभी पीछे मुड़ के देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

फ़िल्म मिलन का ये दर्द भरा गीत, लता की आवाज़ में भला कौन भूल सकता है -


यह सुनहरा दौर था जब गीतकार आनन्द बक्षी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए 'फ़र्ज़(1967)', 'दो रास्ते(1969)', 'बॉबी(1973'), 'अमर अकबर एन्थॉनी(1977)', 'इक दूजे के लिए(1981)' और राहुल देव बर्मन के साथ 'कटी पतंग(1970)', 'अमर प्रेम(1971)', हरे रामा हरे कृष्णा(1971' और 'लव स्टोरी(1981)' फ़िल्मों में अमर गीत दिये। फ़िल्म अमर प्रेम(1971) के 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'ये क्या हुआ', और 'रैना बीती जाये' जैसे उत्कृष्ट गीत हर दिल में धड़कते हैं और सुनने वाले के दिल की सदा में बसते हैं। अगर फ़िल्म निर्माताओं के साक्षेप चर्चा की जाये तो राज कपूर के लिए 'बॉबी(1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्(1978)'; सुभाष घई के लिए 'कर्ज़(1980)', 'हीरो(1983)', 'कर्मा(1986)', 'राम-लखन(1989)', 'सौदागर(1991)', 'खलनायक(1993)', 'ताल(1999)' और 'यादें(2001)'; और यश चोपड़ा के लिए 'चाँदनी(1989)', 'लम्हे(1991)', 'डर(1993)', 'दिल तो पागल है(1997)'; आदित्य चोपड़ा के लिए 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे(1995)', 'मोहब्बतें(2000)' फिल्मों में सदाबहार गीत लिखे।

बख्शी साहब पर और बातें करेंगें इस लेख के अगले अंक में तब तक फ़िल्म महबूबा का ये अमर गीत सुनें, और याद करें उस गीतकार को जिसने आम आदमी की सरल जुबान में फिल्मी किरदारों को जज़्बात दिए.


(जारी... continued.....)

प्रस्तुति - विनय प्रजापति "नज़र"

Sunday, February 1, 2009

फरहान और कोंकणा के सपनों से भरे नैना



सप्ताह की संगीत सुर्खियाँ (10)
"सांवरिया" मोंटी से है उम्मीदें संगीत जगत को
१६ साल की उम्र में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के की -बोर्ड वादक के रूप में फ़िल्म "मिस्टर इंडिया" से अपने संगीत कैरियर की शुरुआत करने वाले मोंटी शर्मा आजकल एक टी वी चैनल पर नए गायक/गायिकाओं के हुनर की समीक्षा करते हुए दिखाई देते हैं. फ़िल्म "देवदास" में उन्होंने इस्माईल दरबार को सहयोग दिया था. इसी फ़िल्म के दौरान दरबार और निर्देशक संजय लीला बंसाली के रिश्ते बिगड़ गए, तो संजय ने मोंटी से फ़िल्म का थीम म्यूजिक बनवाया और बकायादा क्रडिट भी दिया. संजय की फ़िल्म "ब्लैक" के बाद मोंटी को अपना जलवा दिखने का भरपूर मौका मिला फ़िल्म "सांवरिया" से. इस फ़िल्म के बाद मोंटी ने इंडस्ट्री में अपने कदम जोरदार तरीके से जमा लिए. पिछले साल उनकी फ़िल्म "हीरो" का गीत हमारे टॉप ५० में स्थान बनने में सफल हुआ था. अभी हाल ही में फ़िल्म "चमकू" में अपने काम के लिए उन्हें कलाकार सम्मान के लिए नामांकन मिला है. मोंटी की आने वाली फिल्में हैं दीपक तिजोरी निर्देशित "फॉक्स", सुभाष घई की "राइट और रोंग", अनुज शर्मा की "नौटी अट फोर्टी", और इसके आलावा "आज फ़िर जीने की तम्मना है" और "खुदा हाफिज़" (जिसमें उनका संगीत सूफियाना होगा) जैसी कुछ लीक से हटकर फिल्में भी हैं. जावेद अख्तर के साथ उनका गठबंधन होगा फ़िल्म "मिर्च" में. तो कहने का तात्पर्य है कि मोंटी अब इंडस्ट्री के व्यस्तम संगीतकारों में से एक हैं, और संगीत प्रेमी उनसे कुछ अलग, कुछ ख़ास किस्म के संगीत की, यकीनन उम्मीद कर सकते हैं. उनके संगीत में शास्त्रीय वाध्यों और आधुनिक संगीत का सुंदर मिश्रण सुनने को मिलता है, रियलिटी शोस में आए प्रतिभागियों से भी वे बेहद संतुष्ट नज़र आए. उनका वादा है कि वो जल्दी ही इन नए गायकों को अपनी फिल्मों में मौका देंगें. हम तो यही उम्मीद करेंगें कि उनके संगीत के माध्यम से हमें कुछ और नए और युवा कलाकारों की आवाजें भी सुनने को मिले. शुभकामनायें मोंटी को.



अनु मालिक बिंदास हैं - कैलाश खेर

"अल्लाह के बन्दे" ये गीत आज भी सुनने में उतना ही तारो ताज़ा, उतना ही जादू भरा लगता है, जितना तब था जब कैलाश खेर नाम के इस युवा गायक ने इसे गाकर सुनने वालों के दिलों में अपनी स्थायी जगह बना ली थी. बहुत थोड़े समय में ही कैलाश ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया है. हाल ही में आई "दसविदानिया" से उनके दो गीत हमारे सालाना काउंट डाउन का हिस्सा बने थे, उनकी एल्बम "कैलाशा" भी खासी मशहूर हुई थी. अपने सूफियाना अंदाज़ से मंत्रमुग्ध करने वाले कैलाश सूफीवाद को एक रहस्य से भरा प्रेम मानते हैं जो आत्मा और परमात्मा का मिलन करवाता है. और अपनी आने वाली सूफी एल्बम को लेकर बहुत उत्साहित भी हैं, जिसके लिए हर बार की तरफ़ उन्होंने ख़ुद गीत रचे और संगीतबद्ध किए हैं. मोंटी की ही तरह वो भी एक अन्य चैनल में रियलिटी शो में समीक्षक हैं जहाँ उनके साथ हैं संगीतकार अनु मालिक, जिनके साथ अक्सर उनका वैचारिक मतभेद होते दर्शक देखते ही रहते हैं. अनु मालिक के बारे में पूछने पर कैलाश कहते हैं -"शुरू में मैं अनु मालिक को पसंद नही करता था यह सोचकर कि ये आदमी बहुत ज्यादा बोलता है. पर अब मुझे महसूस होता है कि वो एक बेहद गुणी संगीतकार हैं जो बहुत कम समय में धुन बनने में माहिर हैं, और इंसान भी दिलचस्प और बिंदास हैं.", अब हम क्या कहें कैलाश...आप ख़ुद समझदार हैं...


माइकल जैक्सन अब अधिक नही जी पायेंगें

पश्चिमी संगीत के महारथी कहे जाने वाले माइकल जेक्सन इन दिनों बुरी तरह बीमार हैं और यदि एक वेबसाइट की बात पर यकीन करें तो वो ५ या ६ महीनों से अधिक जीवित नही रह पायेंगें. अश्वेत समुदाय से आकर भी रंग भेदी अमेरिका वासियों के दिलो पर बरसों बरस राज करने वाले माइकल का जीवन विवादों से भरपूर रहा. पर उनका संगीत आज भी पाश्चात्य संगीत की रीड है. इस बेहद अमीर संगीतकार की इस बिगड़ती हालत से दुनिया भर में फैले उनके चाहने वाले उदास और दुखी हैं. उनके प्रशंसक भारत में भी कम नही. मुंबई में हुआ उनका मशहूर शो आज तक याद किया जाता है. आवाज़ उम्मीद करता है कि वो जल्दी ही स्वास्थलाभ करें और फ़िर से संगीत के क्षेत्र में सक्रिय काम करें.


सपनों से भरे नैना

पिछले सप्ताह से हम इस कड़ी में आपको सुनवा रहे हैं एक गीत जिसे "सप्ताह का गीत" चुना जाता है. आज सुनिए जावेद अख्तर साहब का लिखा एक बहुत ही खूबसूरत गीत. इस गीत के लाजवाब बोल ही इसकी सबसे बड़ी खासियत है. फरहान अख्तर और कोंकणा सेन शर्मा की प्रमुख भूमिका वाली इस नई फ़िल्म का नाम है "लक बाई चांस". पर इस फ़िल्म में सबसे अधिक पसंद किया जा रहा है पुरानी जोड़ी ऋषि कपूर और डिम्पल कपाडिया का काम. जावेद अख्तर की बेटी जोया अख्तर ने इस फ़िल्म से निर्देशन की दुनिया में अपना सशक्त कदम रखा है. यूँ तो फ़िल्म में जावेद साहब के लिखे सभी गीत बहुत सुंदर हैं और शंकर एहसान लोय की तिकडी ने पिछली फ़िल्म "रॉक ऑन" से एकदम अलग किस्म का संगीत रचा है इस फ़िल्म के लिए. सुनिए "सपनों से भरे नैना...", और जावेद साहब के शब्दों में छुपे रहस्यों को महसूस कीजिये शंकर महादेवन की गहरी आवाज़ में.





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