Saturday, December 12, 2009

ओ सजना बरखा बहार आई....लता के मधुर स्वरों की फुहार जब बरसी शैलेन्द्र के बोलों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 288

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी"। आज का जो गीत हमने चुना है वह कोई दार्शनिक गीत नहीं है, बल्कि एक बहुत ही नमर-ओ-नाज़ुक गीत है बरखा रानी से जुड़ा हुआ। बारिश की रस भरी फुहार किस तरह से पेड़ पौधों के साथ साथ हमारे दिलों में भी प्रेम रस का संचार करती है, उसी का वर्णन है इस गीत में, जिसे हमने चुना है फ़िल्म 'परख' से। शैलेन्द्र का लिखा यह बेहद लोकप्रिय गीत है लता जी की मधुरतम आवाज़ में, "ओ सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अखियों में प्यार लाई"। मुखड़े में "बरखा" शब्द वाले गीतों में मेरा ख़याल है कि इस गीत को नंबर एक पर रखा जाना चाहिए। और सलिल चौधरी के मीठे धुनों के भी क्या कहने साहब! शास्त्रीय, लोक और पहाड़ी धुनों को मिलाकर उनके बनाए हुए इस तरह के तमाम गानें इतने ज़्यादा मीठे लगते हैं सुनने में कि जब भी हम इन्हे सुनते हैं तो चाहे कितने ही तनाव में हो हम, हमारा मन बिल्कुल प्रसन्न हो जाता है। इसी फ़िल्म में कुछ और गीत हैं लता जी की आवाज़ में जैसे कि "मिला है किसी का झुमका" और "मेरे मन के दीये, युंही घुट घुट के जल तू", जिनमें भी वही मिठास और सुरीलापन है। सलिल दा क्लासिकल नग़मों को वेस्टर्न क्लासिकल में ढाल देते थे। वेस्टर्न क्लासिकल से उन्हे बहुत लगाव था। पर उनके संगीत में हमेशा हर बार कुछ नयापन, अनोखापन रहता था। कुछ अलग ही उनके गानें होते थे जिनका असर कुछ अलग ही होता था। और हर बार उनके संगीत में कुछ नई बात होती थी। आज का प्रस्तुत गीत पूरी तरह से भारतीय शास्त्रीय संगीत पर आधारित है, और जिस राग को आधार बनाया गया है गीत में वह है खमाज।

फ़िल्म 'परख' की अगर हम बात करें तो यह फ़िल्म बनी थी १९६० में। यह बिमल रॉय की फ़िल्म थी और उन्होने इसका निर्देशन भी किया था। इस फ़िल्म की विशेषता यह है कि इसके गीतकार और संगीतकार ने गीत लेखन और संगीत निर्देशन के अलावा भी एक एक और महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जी हाँ, गीतकार शैलेन्द्र ने इस फ़िल्म में गानें लिखने के साथ साथ संवाद भी लिखे, तथा सलिल चौधरी ने संगीत देने के साथ साथ फ़िल्म की कहानी भी लिखी। सलिल दा एक अच्छे लेखक रहे है। उन्ही की कहानी 'रिक्शावाला' पर ही तो 'दो बीघा ज़मीन' बनाई गई थी। ख़ैर, आज का प्रस्तुत गीत साधना पर फ़िल्माया गया है। इस फ़िल्म के संगीत विभाग में लता जी, मन्ना दा, शैलेन्द्र और सलिल दा के अलावा थे संगीत सहायक कानु घोष और सेबास्टियन, तथा रिकार्डिस्ट थे बी. एन. शर्मा। बहुत ही आश्चर्य की बात है कि इस गीत को उस साल ना कोई पुरस्कार मिला और यहाँ तक की अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला के वार्षिक कार्यक्रम में भी कोई स्थान नहीं मिला। हालाँकि शैलेन्द्र के लिखे कुछ अन्य गानें उस वार्षिक कार्यक्रम में सुनाई दिए जैसे कि 'दिल अपना और प्रीत पराई' फ़िल्म का शीर्षक गीत और "मेरा दिल अब तेरा हो साजना", तथा 'काला बाज़ार' फ़िल्म का "खोया खोया चाँद खुला आसमाँ"। ख़ैर, पुरस्करों के मिलने ना मिलने से किसी गीत को कोई फ़र्क नही पड़ता। सब से बड़ी बात तो यही है कि ५० साल बाद भी यह गीत उतना ही ताज़ा लगता है जितना कि उस समय लगता होगा। सावन के महीने में अपने प्रेमी से दूर रहने की व्यथा पर बहुत से गानें बने हैं समय समय पर। पर इस गीत की बात ही कुछ अलग है। जैसे बोल, वैसा संगीत, और वैसी ही गायकी। हर दृष्टि से पर्फ़ेक्ट जिसे हम कहते हैं।

और अब सुनिए यह गीत, लेकिन उससे पहले हम यह भी बता दें कि इस गीत का एक बंगला संस्करण भी है, जिसे लिखा भी सलिल दा ने ही था, और लता जी ने ही गाया था और जिसके बोल हैं "ना जेयो ना, रोजोनी एखोनो बाकी, आरो किछु दिते बाकी, बोले रात जागा पाखी"। यह गीत बारिश से संबंधित तो नहीं है, बल्कि नायिका नायक को अपने से दूर जाने को मना कर रही है क्योंकि रात अभी और बाकी है, बातें अभी और बाकी है। दोस्तों, आज अगर फ़िल्म 'परख' ज़िंदा है लोगों के दिलों में तो केवल इस गीत की वजह से। तो आइए अब सुना जाए शैलेन्द्र साहब, सलिल दा और लता जी की यह मास्टरपीस।



गीत के बोल:
(ओ सजना, बरखा बहार आई
रस की फुहार लाई, अँखियों मे प्यार लाई ) \- 2
ओ सजना

तुमको पुकारे मेरे मन का पपिहरा \- 2
मीठी मीठी अगनी में, जले मोरा जियरा
ओ सजना ...

(ऐसी रिमझिम में ओ साजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन
तेरे ही, ख्वाब में, खो गए ) \- 2
सांवली सलोनी घटा, जब जब छाई \- 2
अँखियों में रैना गई, निन्दिया न आई
ओ सजना ..

और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. एक मशहूर उपन्यास पर आधारित थी ये फिल्म जो खुद भी बहुत कामियाब रही.
२. शैलेन्द्र का लिखा ये दार्शनिक गीत है खुद संगीतकार की आवाज़ में.
३. मुखड़े में शब्द है -"दम".

पिछली पहेली का परिणाम -
दो दिन के सूखे को तोडा आखिर अवध जी ने, बधाई जनाब, एक दम सही जवाब...८ अंक हुए आपके. पता नहीं ये फिल्म लोगों को क्यों नहीं भायी, पर यक़ीनन इस गीत को हम सब कभी नहीं भूल पायेंगें. दिलीप जी और पाबला जी आभार.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: मुंशी प्रेमचन्द की "नमक का दरोगा"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य "खेती" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।
कहानी का कुल प्रसारण समय मात्र 21 मिनट 31 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं।
(प्रेमचंद की "नमक का दारोगा" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Fiftieth Story, Namak Ka Daroga: Munshi Premchand/Hindi Audio Book/2009/44. Voice: Anurag Sharma

Friday, December 11, 2009

सूरज जरा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगें हम...एक अंदाज़ शैलेद्र का ये भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 287

शैलेन्द्र के लिखे गीतों को सुनते हुए आपने हर गीत में ज़रूर अनुभव किया होगा कि इन गीतों में बहुत गहरी और संजीदगी भरी बातें कही गई है, लेकिन या तो बहुत सीधे सरल शब्दों में, या फिर अचम्भे में डाल देने वाली उपमाओं और अन्योक्ति अलंकारों की मदद से। आज "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" की सातवीं कड़ी के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह भी कुछ इसी तरह के अलंकारों से सुसज्जित है। फ़िल्म 'उजाला' का यह गीत है मन्ना डे और साथियों का गाया हुआ - "सूरज ज़रा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएँगे हम, ऐ आसमाँ तू बड़ा महरबाँ आज तुझको भी दावत खिलाएँगे हम"। अब आप ही बताइए कि ऐसे बोलों की हम और क्या चर्चा करें! ये तो बस ख़ुद महसूस करने वाली बातें हैं। भूखे बच्चों को रोटियों का ख़्वाब दिखाता हुआ यह गीत भले ही ख़ुशमिज़ाज हो, लेकिन इसे ग़ौर से सुनते हुए आँखें भर आती हैं जब मन्ना दा बच्चों के साथ गा उठते हैं कि "ठंडा है चूल्हा पड़ा, और पेट में आग है, गरमागरम रोटियाँ कितना हसीं ख़्वाब है"। कॊन्ट्रस्ट और विरोधाभास देखिए इस पंक्ति में कि चूल्हा जिसे गरम होना चाहिए वह ठंडा पड़ा है और पेट जो ठंडा होना चाहिए, उसी में आग जल रही है यानी भूख लगी है। शैलेन्द्र निस्संदेह एक ऐसे गीतकार थे जो फ़िल्म संगीत को साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध किया और उसका मान और स्तर बढ़ाया। फ़िल्म संगीत के इतिहास से अगर हम उनके लिखे गीतों को अलग निकाल कर रख दें तो फिर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने का मोल आधा रह जाएगा।

आज का प्रस्तुत गीत फ़िल्म 'उजाला' से है जिसका निर्माण सन् १९५९ में एफ़. सी. मेहरा ने किया था। नरेश सहगल लिखित एवं निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शम्मी कपूर, माला सिन्हा, राज कुमार और लीला चिटनिस। इस फ़िल्म में संगीत था शंकर जयकिशन का और फ़िल्म के सभी गानें सुपर हिट रहे। नाम गिनाएँ आपको? मन्ना दा और लता जी का गाया "झूमता मौसम मस्त महीना", लता जी का गाया "तेरा जल्वा जिसने देखा वो तेरा हो गया" और "ओ मोरा नादान बालमा", लता जी और मुकेश साहब का गाया "दुनिया वालों से दूर जलने वालों से दूर", तथा मन्ना दा के गाए "अब कहाँ जाएँ हम" और आज का प्रस्तुत गीत। दोस्तों, 'उजाला' ही वह फ़िल्म थी जिसमें पहली बार शम्मी कपूर ने शंकर जयकिशन के धुनों पर अभिनय किया था। उसके बाद शम्मी कपूर और शंकर जयकिशन जैसे शरीर और आत्मा बन गए थे। ख़ैर, शृंखला चल रही है शैलेन्द्र जी की, तो आज उनके बारे में क्या ख़ास बताया जाए आपको। चलिए आज हम रुख़ करते हैं शंकर जी द्वारा प्रस्तुत 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम की ओर जिसमें उन्होने शैलेन्द्र जी के बारे में ये कहा था - "शैलेन्द्र सच्ची और खरी बात कहने से डरते नहीं थे। गीत के बोलों को लेकर अक्सर हम ख़ूब झगड़ते थे, पर जैसे ही गाना रिकार्ड हो गया, फिर से वही मिठास वापस आ जाती थी। वो बहुत ही सीधे और सच्चे दिल के इंसान थे, झूठ से उनको नफ़रत थी क्योंकि उनका विश्वास था कि ख़ुदा के पास जाना है।" दोस्तों, आज शैलेन्द्र और शंकर, दोनों ही ख़ुदा के पास चले गए हैं, लेकिन यहाँ हमारे पास छोड़ गए हैं उन्हे अमरत्व प्रदान करने वाले असंख्य गीतों की अनमोल धरोहर जिसकी चमक दिन ब दिन बढ़ती चली जा रही है। इसी धरोहर से निकाल कर आज हम आपको सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'उजाला' का यह गीत, सुनिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस फिल्म में संवाद भी लिखे थे शैलेन्द्र ने.
२. फिल्म के संगीतकार ने ही फिल्म की कहानी भी लिखी.
३. मुखड़े में शब्द है -"रस".

पिछली पहेली का परिणाम -

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, December 10, 2009

मिटटी से खेलते हो बार बार किसलिए...कुछ सवाल उस उपर वाले से शैलेन्द्र ने पूछे लता के स्वरों के जरिये



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 286

"ज़रा सी धूल को हज़ार रूप नाम दे दिए, ज़रा सी जान सर पे सात आसमान दे दिए, बरबाद ज़िंदगी का ये सिंगार किस लिए?" शैलेन्द्र के ये शब्द वार करती है इस दुनिया के खोखले दिखाओं और खोखले रिवाज़ों पर। ये शब्द हैं फ़िल्म 'पतिता' में लता मंगेशकर के गाए "मिट्टी से खेलते हो बार बार किस लिए" गीत के जो आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। भगवान के द्वारा एक बार नसीब बनाने और एक बार बिगाड़ने के खेल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह गीत। जिस तरह से मिट्टी के पुतलों को बार बार तोड़कर नए सांचे में ढाल कर नए नए रूप दिए जा सकते हैं, वैसे ही इंसान का शरीर भी मिट्टी का ही एक पुतला समान है जिसे उपरवाला जब जी चाहे, जैसे चाहे बिगाड़कर नया रूप दे सकता है। शैलेन्द्र ने इस तरह के गानें बहुत से लिखे हैं जिनमें शाब्दिक अर्थ के पीछे कोई गहरा फ़ल्सफ़ा छुपा होता है। रफ़ी साहब के गाए "दुनिया ना भाए मोहे" गीत की तरह इस गीत का सुर भी कुछ कुछ शिकायती है और भगवान की तरफ़ ही इशारा है। उषा किरण पर फ़िल्माया हुआ यह गीत है। फ़िल्म 'पतिता' के संगीतकार थे शंकर जयकिशन। अमीय चक्रबर्ती के इस फ़िल्म से संबंधित तमाम जानकारियाँ हम आपको दे चुके हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २३५-वीं कड़ी में जिसमें हमने आपको इस फ़िल्म से "अंधे जहान के अंधे रास्ते" सुनवाया था।

दोस्तों, क्या आपको याद है ८० के दशक में दूरदर्शन पर एक बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम आया करता था 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' जिसमें तबस्सुम जी का नामचीन कलाकारों के साथ मुलाक़ातें दिखाई जाती थीं? याद है ना? तो साहब, १९८६ में इस गुलशन में तशरीफ़ लाए थे शंकर साहब। जी हाँ, शंकर जयकिशन वाले शंकर साहब। तो आज मैं ख़ास आपके लिए लेकर आया हूँ उस कार्यक्रम का एक अंश जिसमें तबस्सुम जी शंकर जी से पूछ रहीं हैं शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के बारे में।

तबस्सुम - अच्छा शंकर जी, जैसे शंकर जयकिशन की जोड़ी मशहूर हो गई, इसी तरह दो लेखक भी आप के साथ जुड़े हुए हैं, शैलेन्द्र जी और हसरत जी। क्या हम जान सकते हैं कि इन दोनों लेखकों का इस्तेमाल आप लोग कैसे करते थे? ऐसा कुछ था कि एक लेखक आपके साथ और एक जयकिशन जी के साथ?
शंकर - नहीं, ऐसा कुछ नहीं था, बात ऐसी है कि शैलेन्द्र के टाइप के गानें जो हैं वो हम शैलेन्द्र को दिया करते थे, और हसरत के टाइप के गानें हम हसरत को दिया करते थे।

तबस्सुम - मैं दोनों के टाइप का फ़र्क जानना चाहूँ तो?
शंकर - जी हाँ! मतलब, जैसे शैलेन्द्र जो हैं, "होठों पे सच्चाई रहती है जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है", और हसरत का है "तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे चश्म-ए-बद्दूर"।

तबस्सुम - अच्छा, यानी इन में 'रोमान्स' ज़्यादा है।

शंकर - वैसे ये दोनों ही एक दूसरे से कोई कम नही थे और मैं समझता हूँ कि इन दोनों ने जितना नाम किया और इनके गानें जितने चले, शायद ही किसी और के चले होंगे।


चले क्या साहब, आज भी चल रहे हैं और आनेवाली कई सदियों तक चलते रहेंगे गुज़रे ज़माने के ये अनमोल नग़में। और ऐसा ही एक अनमोल नग़मा आज इस महफ़िल में अब हम सुनेंगे लता जी की आवाज़ में। आइए सुनते हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. एक कटाक्ष है व्यंग्य है समाज पर शैलेन्द्र का ये गीत.
२. जिनकी आवाज़ में है ये गीत उन्हें अभी हाल ही में एक प्रतिष्ठित सम्मान से नवाजा गया है.
३. मुखड़े की दूसरी पंक्ति में शब्द है -"रोटी".

पिछली पहेली का परिणाम -

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, December 9, 2009

मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा...जब किशोर ने स्वर दिए शैलेन्द्र के शब्दों को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 285

राज कपूर के आर.के.फ़िल्म्स के बैनर के बाहर की फ़िल्मों में लिखे हुए गीतकार शैलेन्द्र के गीतों का करवाँ इन दिनों बढ़ा जा रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। मन्ना डे, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी और मुकेश के बाद आज बारी है हमारे किशोर दा की। इससे पहले हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शैलेन्द्र, सलिल चौधरी और किशोर कुमार की तिकड़ी का केवल गीत बजाया है फ़िल्म 'नौकरी' से "छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में"। आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं इसी तिकड़ी का बनाया हुआ १९५७ की फ़िल्म 'मुसाफ़िर' का एक बड़ा ही प्यारा सा बच्चों वाला गीत - "मुन्ना बड़ा प्यारा अम्मी का दुलारा, कोई कहे चाँद कोई आँख का तारा"। 'फ़िल्म ग्रूप' के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को निर्देशित किया ॠषीकेश मुखर्जी ने। फ़िल्म की कहानी काफ़ी दिलचस्प थी। कहानी एक मकान और उसमें रहने वाले किराएदारों के इर्द-गिर्द घूमती है। हर किराएदार कुछ दिनों के लिए रहता है, दर्शकों के दिलों में जगह बनाता है और फिर एक दिन उस घर को छोड़कर चला जाता है। इस फ़िल्म में कई बड़े नाम शामिल हैं लेकिन वो फ़िल्म में एक साथ स्क्रीन स्पेस शेयर नहीं करते। सुचित्रा सेन घर से भागे हुए एक दम्पति का हिस्सा हैं जो उस मकान के पहले किराएदार होते हैं। उनके जाने के बाद अगला परिवार उस मकान में आता है जिसमें शामिल हैं किशोर कुमार, नासिर हुसैन और निरुपा रॉय। आख़िरी किराएदार परिवार में थे उषा किरण और दिलीप कुमार। दोस्तों, इस फ़िल्म में दिलीप साहब ने लता जी के साथ एक डुएट गीत गाया था "लागी नाही छूटे रामा चाहे जिया जाए"। लेकिन आज हम आपको किशोर दा का गाया गीत सुनवा रहे हैं, जो बहुत ही ख़ुशरंग है, और बहुत ही मासूमियत से भरा हुआ है। कुल मिलाकर, फ़िल्म 'मुसाफ़िर' एक दिलचस्प कहानी है और ॠषी दा ने बहुत ही अच्छा निर्देशन किया है। कहने की ज़रूरत नहीं कि उनके निर्देशित फ़िल्मों में अनाड़ी, असली नकली, अनुपमा, अनुराधा, आनंद, बावर्ची, गुड्डी, गोलमाल, जैसे कामयाब फ़िल्में शामिल हैं।

शैलेन्द्र ने प्रस्तुत गीत में लिखा है "एक दिन वो माँ से बोला क्यों फूँकती है चूल्हा, क्यों ना रोटियों का पेड़ लगा लें, आम तोड़े रोटी तोड़े, रोटी आम खा लें, काहे कले (करे) लोज लोज (रोज़ रोज़) तू ये झमेला"। इसमें बच्चे का अपनी माँ के लिए फ़िक्र झलकता है। लेकिन माँ यही जवाब देती है कि "अम्मी को आई हँसी, हँस के वो कहने लगी, लाल मेहनत के बिना रोटी किस घर में पकी, जियो मेरे लाल"। इस हँसते खेलते मस्ती भरे गीत में भी किस तरह की गम्भीर सीख दी गई है, ज़रा महसूस कीजिए। दोस्तों, जब मुन्ना और अम्मी का ज़िक्र आज हो ही रहा है तो क्यों ना हम शैलेन्द्र जी के बेटे से यह जानें कि किस तरह के संबंध थे उनके अपने पिता के साथ। क्या कभी उन्होने उनकी पिटाई भी की थी? यह अंश उसी १०४.४ आवाज़ एफ़.एम. दुबई के कार्यक्रम से लिया गया है। मनोज शैलेन्द्र कहते हैं - "बाबा का जो नेचर था बहुत ही सॉफ्ट और केयरिंग् था। जितनी भी पिटाई हुई हमारी वो सब मम्मी ने करी। बाबा ने एक बार भी हाथ नहीं उठाया हमारे उपर। लेकिन हमें याद है एक बार हमारे स्कूल की रिपोर्ट इतनी अच्छी नहीं थी, I think high school 10th class report card था जो उनसे साइन करवाना था, बाबा से। तो लेके गया, बताया, बाबा ने कहा कि this is not good, यह रिपोर्ट अच्छी नहीं है तुम्हारी। तो इतना कहा कि हमारे कमरे से बाहर जाओ और हम तुमसे बात नहीं करेंगे। It was such a painful experience, that the fact that I wont talk to you, it was such painful, I am telling, I was crying and crying. I wished कि वो हमें दो थप्पड़ मार देते तो I would have borne it and it would have been over, but this was more painful than the slaps. I went back to him and said that I am very very sorry, I will definitely improve upon." तो ये तो थी बाप बेटे का बात, अब वक़्त है माँ बेटे के रिश्ते पर आधारित गीत सुनने की। सुनते हैं "मुन्ना बड़ा प्यारा"। शैलेन्द्र, सलिल दा और किशोर दा का एक यादगार गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. शैलेन्द्र ने कुछ कड़े सवाल पूछे हैं ऊपर वाले से इस गीत में.
२. आवाज़ है लता की.
३. एक अंतरे की पहली पंक्ति में शब्द है -"धूल".

पिछली पहेली का परिणाम -

अवध जी बहुत दिनों बाद आपकी आमद हुई, चलते चलते आपने भी ६ अंक कमा ही लिए. बधाई...इंदु जी जन्मदिन किसका था, आपका ?, अगर हाँ तो हमारी पूरी टीम की तरफ से स्वीकार कीजिये ढेर सारी शुभकामनाएँ, स्वस्थ का ध्यान रखें और मधुर गीतों से जीवन संवारते रहें.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें...सज्जाद अली ने कुछ यूँ उम्मीद जगाई, साथ हैं फ़राज़ के शब्द



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६१

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की पहली गज़ल लेकर। आज की गज़ल की बात करें, उससे पहले मैं दो सप्ताह की अपनी गैर-हाज़िरी के लिए आप सबसे माफ़ी माँगना चाहूँगा। कुछ ऐसी वज़ह हीं आन पड़ी थी कि मुझे गज़लों की इस शानदार और जानदार महफ़िल को कुछ दिनों के लिए बंद करना पड़ा। लेकिन कोई बात नहीं, गज़लों की रूकी हुई यह गाड़ी दो सप्ताह के बाद फिर से पटरी पर आ गई है और निकट भविष्य में इसकी गति कम होने की मुझे कोई संभावना नज़र नहीं आ रही। तो चलिए आज की महफ़िल की शुरूआत कर हीं देते हैं। तो आज जो गज़ल हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वह यूँ तो मेहदी हसन साहब की आवाज़ में भी उपलब्ध थी, लेकिन हमने जान-बूझकर एक कम-चर्चित गायक की गाई हुई गज़ल को चुना। वैसे इस गायक को कम-चर्चित भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि पाकिस्तानी फिल्मों में इन्होंने बहुत सारे गाने गाए हैं। इस फ़नकार के अब्बाजान साजन(वास्तविक नाम: शफ़क़त हुसैन) नाम से मलयालम फिल्में निर्देशित किया करते हैं। ७० के दशक से अबतक उन्होंने लगभग ३० फिल्में निर्देशित की हैं। मज़े की बात यह है कि खुद तो वे हिन्दुस्तान में रह गए लेकिन उनके दोनों बेटों ने पाकिस्तान में खासा नाम कमाया। जैसे कि आज की गज़ल के गायक सज्जाद अली पाकिस्तान के जानेमाने पॉप गायक हैं, वहीं वक़ार अली एक जानेमाने संगीतकार। सज्जाद अली का जन्म १९६६ में कराची के एक शिया मुस्लिम परिवार में हुआ था। बचपन से हीं इन्हें संगीत की शिक्षा दी गई। शास्त्रीय संगीत में इन्हें खासी रूचि थी। उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद बरकत अली खान, उस्ताद मुबारक अली खान, मेहदी हसन खान, गुलाम अली, अमानत अली खान जैसे धुरंधरों के संगीत और गायिकी को सुनकर हीं इन्होंने खुद को तैयार किया। इनका पहला एलबम १९७९ में रीलिज हुआ था, जिसमें इन्होंने बड़े-बड़े फ़नकारों की गायिकी को दुहराया। उस एलबम के ज्यादातर गाने "हसरत मोहानी" और "मोमिन खां मोमिन" के लिखे हुए थे। यूँ तो इस एलबम ने इन्हें नाम दिया लेकिन इन्हें असली पहचान मिली पीटीवी की २५वीं सालगिरह पर आयोजित किए गए कार्यक्रम "सिलवर जुब्ली" में। दिन था २६ नवंबर १९८३. "लगी रे लगी लगन" और "बावरी चकोरी" ने रातों-रात इन्हें फर्श से अर्श पर पहुँचा दिया। एक वो दिन था और एक आज का दिन है...सज्जाद अली ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अप्रेल २००८ में "चहार बलिश" नाम से इन्होंने अपना एलबम रीलिज किया, जिसमें "चल रैन दे"(यह गाना वास्तव में जुलाई २००६ में मार्केट में आया था और इस गाने ने उस समय खासा धूम मचाया था) भी शामिल है। इनके बारे में इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि खुद ए०आर०रहमान इन्हें "ओरिजिनल क्रोसओवर" मानते हैं। वैसे कहने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन बाकी बातें कभी अगली कड़ी में। अब हम रूख करते हैं इस गज़ल के गज़लगो "अहमद फ़राज़" साहब की ओर।

सबको मालूम है कि फ़राज़ साहब का इंतकाल पिछले साल २५ अगस्त को हुआ था। सबको मालूम है कि उन्हें २००४ में हिलाल-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा गया था और उन्होंने यह कहकर यह सम्मान लौटा दिया था कि "मेरा ईमान मुझे माफ़ नहीं करेगा अगर मैं पाकिस्तान में हो रही इन घटनाओं का मूक दर्शक बना रहूँ। कम से कम मैं इतना तो कर हीं सकता हूँ कि मैं इस तानाशाही सरकार को यह दिखा दूँ कि मौलिक अधिकारों को छीनने वाली यह सरकार लोगों के दिलों में कैसा मकाम रखती है। इसलिए मैं हिलाल-ए-इम्तियाज़ को लौटा रहा हूँ और अपने आप को इस हुकूमत से हमेशा के लिए अलग करता हूँ।" लेकिन कुछ बाते हैं जो सबको मालूम नहीं। और वे हैं फ़राज़ साहब का चुटकीला अंदाज़, हर बात को हँसी में उड़ा जाने की अदा। जैसे कि यूँ तो उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ २००४ में मिला, लेकिन उन्होंने इसे लौटाया २००६ में। तो इस मामले में किसी ने उनसे पूछा कि "दो साल की देरी क्यों?" तो उनका जवाब था कि "आपको क्या लगता है कि इन दो सालों में इसने कुछ अंडे दे दिए हैं क्या..यह आज भी वही है।" कहते हैं कि एक बार कुछ लोग फ़राज़ साहब के दरवाजे पर आए और उनसे कहने लगे कि "क्या तुम कलमा सुना सकते हो?" फ़राज़ साहब ने तपाक से जवाब दिया "क्यों? पुराने कलमे में कोई बदलाव आ गया है क्या?" फ़राज़ साहब से एक बार पूछा गया कि १९४७ के पाकिस्तान और आज के पाकिस्तान में क्या फ़र्क महसूस करते हैं। उनका जवाब था: "१९४७ में मुस्लिम लीग के प्रेसीडेंट का नाम मुहम्मद अली जिन्ना था और आज चौधरी गुजरात हुसैन है"। यह तो हुआ उनका मज़ाकिया लहज़ा। लेकिन असल में फ़राज़ साहब ४७ के पाकिस्तान और आज के पाकिस्तान में कोई फ़र्क नहीं महसूस करते थे। उनसे जब पूछा गया कि आजकल वे जोश-औ-जुनूं वाली क्रातिकारी कविताएँ क्यों नहीं लिखते। तो उनका जवाब था:"क्योंकि मैं एक हीं चीज हर बार नहीं लिखना चाहता। पाकिस्तान में चीजें नहीं बदलतीं और इसीलिए मेरी लिखी हुई पुरानी कविताएँ भी पुरानी नहीं होती..उनका आज भी उतना हीं महत्व है, जितना पहले था।" फ़राज़ हमेशा हीं सैनिक शासन के खिलाफ़ रहे थे, तब भी जब उनके बाकी साथियों ने सरकार का साथ देना मुनासिब समझा था। इस मामले में फ़राज़ दृढ-संकल्प थे। उनका कहना था कि "मैं निरंकुशता के खिलाफ़ था, हूँ और रहूँगा। माना कि वक्त बुरा है लेकिन ऐसा वक्त भी नहीं आया कि मुझे किसी के डर से देश छोड़ना पड़े। मैं घर पर हीं रहकर उनका विरोध करूँगा।" लेकिन ज़िया के शासनकाल में उन्हें भी देशनिकाला सहना पड़ा। छ: साल तक वे देश से बाहर रहे। इस मामले में वे "फ़ैज़" के उत्तराधिकारी साबित हुए। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो उन्हें फ़ैज़ के पास ला खड़ा करते हैं। इसलिए कई लोगों का यह मानना है कि सही मायने में फ़ैज़ की परछाई किसी में नज़र आती थी तो वे फ़राज़ हीं थे। फ़राज़ न सिर्फ़ क्रांति के कवि थे बल्कि प्रेम के मामले में भी उनका कोई सानी न था। कहते हैं कि ऐसा कोई प्रेम-पत्र नहीं जिसमें फ़राज़ का शेर शामिल न हो। १९५४ की बात है, जब फ़राज़ पेशावर के इस्लामिया कौलेज़ में पढा करते थे। तब अपने दोस्तों को घेर कर रोमांटिक कविताएँ सुनाना उनकी दैनिक आदत थी। उस समय लड़के-लड़कियाँ खुलेआम आपस में बात नहीं किया करते थे। फिर भी फ़राज़ को लड़कियों की चिट्ठियाँ आती थीं, वो भी न सिर्फ़ अपने कौलेज से, बल्कि शहर के दूसरे कौलेजों से भी। ऐसा असर था फ़राज़ की लेखनी में...

चलते-चलते फ़राज़ के बारे में कुछ शब्द "भारतीय साहित्य संग्रह" पर उपलब्ध फ़राज़ की पुस्तक "खानाबदोश" की समीक्षा से: अहमद फ़राज़ उर्दू के एक समर्थ, सजग और जीवन्त कवि हैं। उनकी कविता जितनी पाकिस्तानी है उतनी ही भारतीय। ऐसा इसलिए कि उर्दू में दोनों देशों के बीच बँटवारा नहीं साझा है। हम यहाँ यह याद कर सकते हैं कि पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ के अब तक के सबसे बड़े कवि फ़ैज अहमद फ़ैज़ की भारत में लोकप्रियता और प्रतिष्ठा रही है। जैसे फ़ैज़ में वैसे ही अब अहमद फ़राज़ में यह साफ़ पहचाना जा सकता है कि सरहदों के पार और उनके बावजूद, हमारे समय में हम जिन प्रश्नों, अन्तर्विरोधों, तनावों, बेचैनियों और जिज्ञासाओं से घिरे हैं, उन्हें यह कविता सीधे और निहायत आत्मीय आवाज़ में सम्बोधित करती है। एक बार फिर यह कविता इस सच्चाई का इज़हार है और एसर्शन भी। फ़राज़ की कविता ज़िन्दादिल कविता है, उसमें हमेशा एक क़िस्म की स्फूर्ति है; तब भी वह किसी रूमानी अवसाद में डूबी है। वह ऐसी कविता भी है, जो आदमी और उसके बेशुमार रिश्तों की दुनिया को कविता के भूगोल में स्मरणीय ढंग से विन्यस्त करने की चेष्टा करती है। भले उतनी उदग्र न हो जितनी, मस्लन पाब्लो नेरुदा या कि फ़ैज़ की कविता रही है, वह इसी परंपरा में है जिसमें प्रेम और क्रान्ति में, रूमानी सच्चाई और सामाजिक सच्चाई में बुनियादी तौर पर कोई विरोध भाव नहीं है। उसकी आधुनिकता परम्परा का विस्तार है, उसका अवरोध नहीं। वह अपने समय से जो रिश्ता बनाती है वह सीधा-सादा न होकर ख़ासा जटिल है। वह समय को निरी समकालीनता के बाड़े से निकाल कर उसे थोड़ा पीछे और कुछ आगे ले जानी वाली कविता है। फ़राज़ की ज़ुबान में मिठास और अपनी दुनिया में रचे-बसे होने की अनुगूँजें हैं। ज़रूरी होने पर बेबाकी, तीखापन और तंज़ भी है। उसमें उर्दू की अपनी समृद्ध परम्परा की कृतज्ञ याद है। उसमें लयों, बहरों, छन्दों की आश्चर्यजनक विविधता और क्षमता है। सबसे बढ़कर उसमें खुलापन है, जो अहमद फ़राज़ के इन्सानी तौर पर भरे पूरे और चौकन्ने होने का सबूत है। वह मित्र-कविता है जो हमसे आत्मीयता और आत्मविश्वास के साथ बात करती है और हमारे विश्वास आसानी से जीत लेती है। चलिए आज की महफ़िल की समाप्ति अहमद फ़राज़ के इस शेर से करते हैं, जिसमें मोहब्बत की हद बताई गई है:

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे|


इस शेर के बाद चलिए हम अब १९९५ में रीलिज हुई पाकिस्तानी फिल्म "चिफ़ साहब" से इस गज़ल को सुनते हैं, जिसका हर एक मिसरा न जाने कितनी दास्तान सुना जाता है। तो दिल पर हाथ रखकर इस गज़ल का आनंद लें:

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुये फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुये लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्साँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

अब न वो मैं हूँ न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो साये तमन्ना के _____ में मिलें




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "नसीब" और शेर कुछ यूं था -

हाँ नसीब अपने ही सो गए,
हाय हम क्या से क्या हो गए..

सही शब्द के साथ महफ़िल में सबसे पहली हाज़िरी लगाई "मुरारी पारीक" जी ने। मुरारी जी आपका महफ़िल-ए-गज़ल में हार्दिक स्वागत है। आप आगे भी महफ़िल की शोभा बढाते रहें, इसी कामना के साथ आपका यह शेर पेश-ए-खिदमत है:

जो खिल उठें गुलाब मेरे दिल के बाग़ में
रब्बा, मेरे "नसीब" में ऐसी बहार दे (चरागे-दिल वर्ल्ड प्रेस से)

सजीव जी, आगे से आपको शिकायत करने का मौका नहीं मिलेगा :) इस बार समय की कमी के कारण मैं ज्यादा शोध नहीं कर पाया।

शरद जी, तो कैसी लगी आपकी पसंदीदा नज़्मों पर हमारी यह पेशकश? अपनी राय जाहिर ज़रूर कीजिएगा। यह रहा "नसीब" शब्द पर आपका यह शेर:

नसीब आजमाने के दिन आ रहे है
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं। (फ़ैज़) क्या हुआ..आज कोई स्वरचित शेर नहीं!!

सीमा जी,आपने भी एक से बढकर एक शेर पेश किए। मसलन:

तेरा हिज्र मेरा नसीब है तेरा ग़म ही मेरी हयात है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों तू कहीं भी हो मेरे साथ है। (निदा फ़ाज़ली)

आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया (सुदर्शन फ़ाकिर)

कुलदीप जी, आपका पेश किया शेर भी कमाल का है:

बेशक मेरे नसीब पे रख अपना इख्तियार
लेकिन मेरे नसीब में क्या है बता तो दे (राना सहरी)

आप सबके बाद महफ़िल को संभाला शामिख जी ने। शामिख जी, आज से तीन दिनों तक आपकी हीं पसंद की गज़लें पेश होने वाली हैं, इसलिए नदारद मत होईयेगा :) ये रहे आपके शेर:

वही सिपाह-ए-सितम ख़ेमाज़न है चारों तरफ़
जो मेरे बख़्त में था अब नसीब-ए-शहर भी है (अहमद फ़राज़)

नसीब फिर कोई तक़्रीब-ए-क़र्ब हो के न हो
जो दिल में हों वही बातें किया करो उससे (अहमद फ़राज़) संयोग देखिए कि आज हमने जो गज़ल पेश की है, वो भी फ़राज़ साहब की हीं है।

मंजु जी, हर बार की तरह इस बार भी स्वरचित शेर के साथ नज़र आईं:

ऐ मेरे मालिक ! जब -जब मेरा नसीब जगाया ,
तब -तब गम के रोड़े खुशियों के फूल बन महकने लगे .

अंत में महफ़िल सुमित जी के नाम हुई। ये रही आपकी पेशकश:

नसीब में जिसके जो लिखा था वो तेरी महफ़िल में काम आया,
किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, December 8, 2009

बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आँचल ही न समाये तो क्या कीजै...कह तो दिया सब कुछ शैलेन्द्र ने और हम क्या कहें...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 284

फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने में ऐसे अनगिनत लोकप्रिय गानें हैं जिन्होने बहुत जल्द लोकप्रियता तो हासिल कर ली, लेकिन एक समय के पश्चात कहीं अंधेरे में खो से गए। लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे भी गानें बनें हैं जो जीवन की मह्त्वपूर्ण पहलुओं से हमें अवगत करवाते है। जीवन दर्शन और हमारे अस्तित्व के पीछे जो छुपे राज़ और फ़लसफ़ा हैं, उन्हे उजागर किया गया है ऐसे गीतों के माध्यम से। और इस तरह के गीत कभी भी अंधेरे में गुम नहीं हो सकते, बल्कि ये तो हमेशा हमारे साथ चलते हैं हमारे मार्गदर्शक बनकर। ये गीत किसी स्थान काल या पात्र के लिए नहीं होते, बल्कि हर युग में हर इंसान के लिए उतने ही सार्थक और लाभदायक होते हैं। गीतकार शैलेन्द्र एक ऐसे गीतकार रहे हैं जिन्होने इस तरह के दार्शनिक गीतों में जैसे जान डाल दी है। उनके लिखे सीधे सरल और हल्के फुल्के गीतों में भी ग़ौर करें तो कोई ना कोई दर्शन सामने आ ही जाता है। और कुछ गानें तो हैं ही पूरी तरह से दार्शनिक। आज हमने एक ऐसा ही गाना चुना है जिसे सुनकर हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है उनसे हम क्यों नहीं संतुष्ट रहते? क्यों हमेशा एक असंतुष्टी हमें घेरे रहती है? शैलेन्द्र की कलम से निकली यह बेशकीमती मोती है "बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आँचल ही ना समाए तो क्या कीजे, बीत गए जैसे ये दिन रैना, बाकी भी कट जाए दुआ कीजे"। मुकेश की आवाज़ में, रोशन के संगीत में यह है फ़िल्म 'सूरत और सीरत' की रचना। "सजन रे झूठ मत बोलो" गीत की तरह शैलेन्द्र ने इस गीत को भी उपदेशों की मोतियों से जड़े हैं।

'सूरत और सीरत' सन् १९६२ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था रजनीश बहल ने। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे धर्मेन्द्र और नूतन। इस प्रस्तुत गीत को सुनते हुए आपको याद आ गई होगी 'करण अर्जुन' फ़िल्म का गीत "ये बंधन तो प्यार का बंधन है, ये जनमों का संगम है"। और क्यों ना आए, राजेश रोशन ने अपने पिता की बनाई धुन पर ही तो इस गीत को बनाया था! आज के प्रस्तुत गीत के इंटर्ल्युड में बांसुरी पर बजाया गया जो पीस है, वही तो है 'करण अर्जुन' फ़िल्म के उस गीत के मुखड़े की धुन। है ना? जहाँ तक शैलेन्द्र जी के लिखे इस गीत का सवाल है, जैसा कि हमने पहले कहा है किस इस गीत से यही शिक्षा मिलती है कि संतुष्टी ही जीवन में सुखी होने का मंत्र है, एक अंतरे में वो लिखते हैं, "जो भी दे दे मालिक तू कर ले क़बूल, कभी कभी काँटों में भी खिलते हैं फूल, वहाँ देर भले है अंधेर नहीं, घबरा के युं गिला मत कीजे, बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आँचल ही ना समाए तो क्या कीजे"। दोस्तों, विविध भारती पर १९६६ में रोशन जी तशरीफ़ लाए थे फ़ौजी भाइयों के लिए जयमाला कार्यक्रम पेश करने हेतु। उस कार्यक्रम में उन्होने 'सूरत और सीरत' फ़िल्म के इस प्रस्तुत गीत को बजाया तो नहीं था, लेकिन इस गीत का और शैलेन्द्र जी का ज़िक्र उन्होने कुछ इस तरह से किया था - "ज़िंदगी से संगीत प्रभावित होता है और संगीत से ज़िंदगी। बदलते वक़्त के साथ साथ संगीत भी बदल रहा है। अब एक घटना याद आ रही है। फ़िल्म 'सूरत और सीरत' में मैं म्युज़िक दे रहा था। उस समय मैं अपनी उल्झनों में परेशान सा रहता था। तो शैलेन्द्र ने मेरी परेशानी देख कर कहा कि भगवान आदमी को कितना कुछ देता है पर इंसान कभी उसका शुक्रगुज़ार नहीं होता। यह कहकर वो गुमसुम से हो गए और फिर कुछ देर बाद कहा कि भगवान ने इंसान को कितना कुछ दिया, पर आँचल ही में ना समाए तो क्या किया जाए। 'सूरत और सीरत' में भी ऐसा ही एक गाने का सिचुयशन बना था।" दोस्तों, और ज़्यादा कुछ ना कहते हुए आपको सुनवा रहे हैं शैलेन्द्र-रोशन की यह अमर रचना।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. शैलन्द्र ने इस गीत में बच्चे के बहलाने के बहाने भी कुछ गूढ़ बातें कही हैं.
२. आवाज़ है किशोर कुमार की.
३. एक अंतरे की तीसरी पंक्ति में शब्द है -"पेड़".

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी, आपका भी जवाब नहीं, मुश्किल से मुश्किल सवाल का भी आसानी से जवाब लेकर हाज़िर हो जाती हैं ३२ अंक हुए आपके, हमें यकीं है कि आपको कडा मुकाबला मिलेगा हमारे ३०१ वें एपिसोड से जब हमारे धुरंधर एक बार फिर लड़ेंगें खिताब के लिए नए सिरे से....तब तक तो आप जमे रहिये निर्विवाद मैदान में.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मुंजल और रूमानी की प्रेम कहानी, मधुर गीतों की जुबानी- वेब रेडियो की ताज़ा पेशकश



गुनगुनाते लम्हे- 3

गुनगुनाते लम्हें, यानी इन्टरनेट पर वेब रेडियो की नयी पहल, आवाज़ की इस पेशकश से अब तक आप सब श्रोता बखूबी परिचित हो चुके हैं. एक बार फिर आया माह का पहला मंगलवार और एक नयी गीतों भरी कहानी लेकर हाज़िर है हमारी टीम, गुनगुनाते लम्हें की तीसरी कड़ी में. मुंजल और रूमानी के प्रेम की ये दास्ताँ सुनिए कुछ बेहद कर्णप्रिय गीतों के संग, आवाज़ है एक बार फिर अपराजिता कल्याणी की और तकनीकी संचालन है खुशबू का. इस बार कि कहानी श्री अभय कुमार सिन्हा ने लिखी है.

प्रसारण का कुल समय है १९.०१. उम्मीद है हमारी ये पेशकश आपकी सुबह को नयी उर्जा से भर देगी, तो बस प्ले पर क्लिक कीजिये और हमारी इस प्रस्तुति का आनंद लीजिये.



'गुनगुनाते लम्हे' टीम
आवाज़/एंकरिंगकहानीतकनीक
Aprajita KalyaniRenu SinhaKhushboo
अपराजिता कल्याणीअभय कुमार सिन्हाखुश्बू

Monday, December 7, 2009

दुनिया न भाये मोहे अब तो बुला ले...निराशावादी स्वरों में भी शैलेन्द्र अपना "क्लास" नहीं छोड़ते



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 283

"मेरे गीत मेरे संग सहारे, कोई ना मेरा संसार में, दिल के ये टुकड़े कैसे बेच दूँ दुनिया के बाज़ार में, मन के ये मोती रखियो तू संभाले, चरणों में तेरे"। शैलेन्द्र के लिखे ये शब्द जैसे उन्ही के दिल का आइना है। गीत लेखन शैलेन्द्र का पेशा ज़रूर था, पर सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए नहीं। फ़िल्मी गीतों का स्तर उन्होने ऊँचाई तक ही नहीं पहुँचाया बल्कि उन्हे गरीमा भी प्रदान की। और यही वजह है कि उनके जाने के ४० वर्ष बाद भी आज उनके लिखे गानें ऐसे चाव से सुने जाते हैं जैसे कल ही बनकर बाहर आए हों। "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" शृंखला की तीसरी कड़ी में आज प्रस्तुत है मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में फ़िल्म 'बसंत बहार' से एक भक्ति रचना, शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में। "दुनिया ना भाए मोहे अब तो बुला ले, चरणों में तेरे"। राग तोड़ी पर आधारित यह भजन फ़िल्म-संगीत के धरोहर का एक अनमोल नगीना है। इसी तरह के गीतों से ही तो फ़िल्म संगीत का स्तर हमेशा उपर रखा है शैलेन्द्र जैसे गीतकारों ने। 'बसंत बहार' फ़िल्म का एक गीत आप सुन चुके हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर, जिसे भी शैलेन्द्र ने ही लिखा था। याद है ना लता जी का गाया हुआ "जा जा रे जा बालमवा" जिसे आप ने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २८-वीं कड़ी में सुना था? और आज २८३-वीं कड़ी में फिर एक बार इस फ़िल्म का गीत बज रहा है। आज रफ़ी साहब की आवाज़ में जो गीत आप सुन रहे हैं, उसके अलावा भी उन्होने इस फ़िल्म में एक और गीत गाया था। वह भी एक भजन ही था - "बड़ी देर भयी, बड़ी देर भयी, कब लोगे खबर मोरे राम"। इस फ़िल्म के सभी गीत शास्त्रीय रागों पर आधारित थे और इसी फ़िल्म के ज़रिए शंकर जयकिशन ने यह साबित किया कि सिर्फ़ ऒर्केस्ट्रेशन में ही नहीं, बल्कि इस मिट्टी से जुड़ी शास्त्रीय संगीत में भी वो समान रूप से दक्षता रखते हैं। यह फ़िल्म १९५६ में आयी थी और उसी साल शंकर जयकिशन, हसरत जयपुरी और शलेन्द्र की टीम ने एक से एक कई सुपरहिट म्युज़िकल फ़िल्में दी थीं जिनके नाम हैं चोरी चोरी, हलाकू, क़िस्मत का खेल, नई दिली, पटरानी, और राजहठ।

'बसंत बहार' श्री विश्वभारती फ़िल्म्स की प्रस्तुति थी जिसके निर्देशक थे राजा नवाथे और मुख्य भूमिकाओं में थे भारत भूषण, निम्मी और कुमकुम। इस फ़िल्म के सारे गानें शैलेन्द्र ने लिखे सिवाए एक गीत के ("मैं पिया तेरी तू माने या ना माने") जिसे हसरत साहब ने लिखा था। हसरत और शैलेन्द्र में कितनी गहरी दोस्ती थी और कैसे मिलजुल कर वे काम करते थे इसके बारे में तो हम ने पिछले ही दिनों आपको बताया था। आइए आज शैलेन्द्र जी के जीवन की एक और पहलू पर रोशनी डालें जिन्हे उजागर किया था शैलेन्द्र जी की सुपुत्री आमला मजुमदार ने १०४.४ आवाज़ एफ़.एम दुबई पर - "baba came from a very very humble background, very humble background, यहाँ तक की बाबा जब रेल्वे में थे, he was only an apprentice, it was not even a full-fledged job and शादी करके मम्मी आईं और मम्मी came from a better background, their was a love marriage, mummy came from a better background, mummy came with clothes and jewellery which was the norm of the day, बाबा ने मम्मी से कहा कि देखो तुम ये सब पहनकर हमारे साथ चलोगी तो it would look very odd, ये सब अभी छोड़ दो, जब हम इस लायक हो जाएँगे कि हम तुम्हे ये कपड़े ये ज़ेवर पहना सके हम ख़ुद तुम्हे पहनाएँगे। और ऐसे भी दिन आए कि she didn't have to look back, he had far out-stepped or gone beyond even her background। लेकिन हम जिस माहौल में पैदा हुए, जिस घर में बड़े हुए, उस घर में हमने we didn't see need, we didn't see poverty, we didn't see want of any kind but हमारे घर में ऐसा था कि baba was so firm, he was the kindest soul ever but he was so firm that the children will not forget that we are humble, we come from a normal background, we are normal human beings." दोस्तों, शैलेन्द्र जी की यही सादगी, यही सरलता उनके गीतों से भी साफ़ छलकती है। हर इंसान, चाहे वो कितनी ही ऊँचाई पर क्यों ना पहुँच जाए, उसे यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि चलने के लिए उसे अपने क़दमों को ज़मीन पर ही रखना पड़ता है। शैलेन्द्र ने ना केवल इसे अपने जीवन में फ़ॊलो किया बल्कि अपने बच्चों को भी यही शिक्षा दी। आइए दोस्तों, अब आज का गीत सुना जाए जिसमें गिड़गिड़ाकर भगवान से विनती की जा रही है अपने पास बुला लेने के लिए। फ़िल्म के चरित्र और सिचुयशन के मुताबिक़ जीवन के प्रति निराशावादी स्वर गूँजते हैं इस भजन में, आइए सुनते हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस गीत के इंटर्ल्युड में बजती बांसुरी की धुन पर आधारित एक चर्चित गीत ९० के दशक में इन्हीं संगीतकार के सुपुत्र ने शाहरुख़-सलमान अभिनीत फिल्म में बनाया था.
२. बहुत ही सुंदर और शिक्षाप्रद है शैलेन्द्र का लिखा ये नायाब गीत.
३. मुखड़े की तीसरी पंक्ति में शब्द है -"रैना".

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी, दूसरी कोशिश में आखिर आपने कैच लपक ही लिया बधाई, ३० अंकों पर आने की.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

तू सलामत रहे...अपनी नयी एल्बम के गीत के माध्यम से ज़ाती जिंदगी के कुछ राज़ खोल रहे हैं शायद अदनान सामी



ताजा सुर ताल TST (38)

दोस्तो, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर"

TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक-

पिछले एपिसोड में,सीमा जी दो सही जवाब आपने दिया और अंतिम सवाल का सही जवाब आपके एक मात्र प्रतिद्वंदी तनहा जी ने दिया. खैर आज हमारी अंतिम ट्रिविया है, आज तो अगर आप जवाब नहीं भी देंगीं तब भी आप ही विजेता हैं इस साल की, अपनी पसंद के १० गीत चुन कर रखिये वर्ष २००९ में प्रदर्शित फिल्मों में से, ३१ तारीख़ की शाम होगी आपके चुने हुए गीतों के नाम....बधाई


सुजॉय - सजीव, एक और नए सप्ताह की शुरुआत हो रही है, बताइए कि इसमें ख़ास क्या है?

सजीव - ख़ास.... ख़ास.... ख़ास क्या है, चलो तुम ही बताओ, मुझे तो याद नहीं आ रहा।

सुजॉय - अरे भई, आज है इस दशक के आख़िरी साल के अख़िरी महीने का पहला सोमवार! तो हुआ ना यह ख़ास? सॉरी, बैड जोक!

सजीव - वैसे इस बात में सच्चाई तो है, देखते ही देखते हम दिसंबर में पहुँच गए और बहुत जल्द यह साल भी समाप्त हो जाएगा। ख़ैर, छोड़ो इन बातों को, अब ज़िक्र किया जाए कि तरोताज़ा क्या हम अपने श्रोताओं को सुनवा रहे हैं?

सुजॉय - बिल्कुल! आज भी हम पिछले हफ़्ते की तरह एक ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम की चर्चा भी करेंगे और उससे चुन कर कुछ गानें भी सुनेंगे। यह है अदनान सामी का नया ऐल्बम 'एक लड़की दीवानी सी'।

सजीव - इस ऐल्बम के गानें पाश्चात्य रंग के हैं। हल्के फुल्के गानें हैं, जो फ़िल्मों के लिए भी आसानी से चलए जा सकते थे। चलो सब से पहले सुना जाए इस ऐल्बम का शीर्षक गीत।

एक लड़की जो दीवानी सी है...ek ladki deewani si (adnaan saami)



सुजॉय - गीत हमने सुना, आपको नहीं लगता कि यह एक टिपिकल अदनान सामी नंबर है?

सजीव - बिल्कुल! कुछ ख़ास नयापन नज़र नहीं आया इस गीत में। अगला गीत सुनवाने से पहले क्यों ना अदनान के करीयर पर एक नज़र दौड़ाई जाए?

सुजॉय - ज़रूर! मुझे जितना पता है उनका पहला ऐल्बम आया था सन् १९९१ में, जिसका नाम था 'राग टाइम'।

सजीव - उसके बाद १९९५ में आशा भोसले के साथ मिल कर उन्होने बनाई 'सरगम' ऐल्बम। और इसके ठीक दो साल बाद, १९९७ में आया वह मशहूर ऐल्बम 'बदलते मौसम' जिसके गीत "कभी तो नज़र मिलाओ" ने अदनान को कामयाबी के शिखर पर पहुँचा दिया। और "लिफ़्ट करा दे" भी इसी ऐल्बम का हिस्सा था।

सुजॉय - सही कहा, और इस कामयाबी के बाद उनकी तरफ़ फ़िल्मी संगीतकारों ने भी ध्यान देना शुरु कर दिया और मुंबई में उनके क़दम जमने लगे।

सजीव - अरे मुंबई से याद आया कि इस नए ऐल्बम में एक मुंबई पर भी गाना है। पिछले साल के आतंकी हमले और उसके बाद इस शहर ने जिस तरह के स्पिरिट का परिचय दिया है, वही है इस गीत का आधार।

सुजॉय - एक और ख़ास बात यह कि इस गीत में माइकल जैक्सन के भाई जर्मेइन जैक्सन की आवाज़ भी शामिल है अदनान के साथ। चलिए सुनते हैं।

लेट्स गो टू मुंबई सिटी...lets go to mumbai city (adnan sami)



सजीव - हाँ, तो हम बात कर रहे थे अदनान सामी के ऐल्बमों की। सन् २००२ में उनका एक और हिट ऐल्बम रिलीज़ हुआ 'तेरा चेहरा'। और २००३ में "कभी तो नज़र मिलाओ" शीर्षक से ही एक ऐल्बम निकाला गया और उस गीत को एक बार फिर से इसमें शामिल किया गया।

सुजॉय - एक और हिट गीत "भीगी भीगी रातों में तुम आओ ना" भी इसी ऐल्बम में शामिल हुआ। अदनान की खासियत यही है कि जहाँ एक तरफ़ पाश्चात्य रीदम वाले थिरकते गीतों को वो भली भाँति खींच ले जाते हैं, वहीं दूसरी ओर नर्म-ओ-नाज़ुक रोमांटिक गीतों को भी बहुत बढ़िया अंजाम देते हैं।

सजीव - मेरा ख़याल है कि तुम इस नए ऐल्बम का "तू सलामत रहे" गीत की तरफ़ इशारा कर रहे हो।

सुजॉय - बिल्कुल ठीक समझा आपने।

सजीव - हाल ही में अदनान का अपनी दूसरी पत्नी से भी तलाख हो गया। उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी से जुड़ी कई ख़बरें पिछले दिनों अख़बारों में छाई रही। इस गीत के ज़रिए शायद अदनान ने सारे गिले शिकवे भुला कर अपनी भूतपूर्व पत्नी के लिए दुआएँ माँगी होगी।

तू सलामत रहे...tu salamat rahe (adnaan sami)



सुजॉय - इस संजीदा गीत से दिल थोड़ा सा भारी हो गया है। आइए अब ज़रा दिल को हल्का किया जाए अगले गीत के ज़रिए। इस गीत के बारे में बहुत ज़्यादा कुछ कहने के लिए नहीं है, बस सुनिए और झूमिए, अपने कुर्सी पर बैठे बैठे ही सही।

सजीव - हाँ, इसे हम एक रिफ़्रेशिंग् गीत की तरह अपना सकते हैं, जिसमें है डांस के बीट्स और दिल को झूमा देने वाली ध्वनियाँ।

लैला ओ मेरी लैला...lailla o meri lailla (adnan sami)



सजीव - और अब हम आ पहुँचे हैं आज के अंतिम गीत पर। और शायद यह गीत इस ऐल्बम का सब से ख़ूबसूरत गीत होना चाहिए। "चलो चलो चलो, ऐसा अपना जहाँ बनाएँ चलो"।

सुजॉय - गीत के बोल भी सुंदर है। वैसे इस गीत को सुनते हुए मुझे वह गीत याद आ गया - "कुछ ऐसा जहाँ हम बनाएँ जहाँ पहला हो हर वो नज़ारा"।

सजीव - इस भाव पर और भी बहुत से गानें हैं। अदनान की जो बात मुझे सब से ज़्यादा पसंद आती है, वह है उनका प्रयोगधर्मी स्वभाव। बजाए एक व्यावसायिक कलाकार बन कर फार्मूला म्युज़िक देने के उन्होने दूसरी राह चुनी जिसमें वो ख़ुद संगीत में अलग अलग एक्स्पेरीमेंट्स करते रहते हैं।

सुजॉय - हाँ, और इतना ही नहीं, जिन जिन फ़िल्मों में उन्होने संगीत दिया है या जिन फ़िल्मों में उन्होने गाए हैं, वो सब कामयाब रहे हैं और मास और क्लास दोनों को ही पसंद आए हैं।

सजीव - तो अब अदनान साहब को भविष्य की शुभकामनाएँ देते हुए यह चर्चा यहीं समाप्त करते हैं और सुनते हैं आज का अंतिम गीत।

चलो चलो चलो...chalo chalo chalo (adnaan sami)



और अब बारी है ट्रिविया की

TST ट्रिविया # ३७-अदनान सामी को एक विशेष UNICEF Award और United Nations Peace Medal से सम्मानित किया गया था उनके एक ख़ास गीत के लिए। बताइए कि यह गीत उन्होने किस महाद्वीप को समर्पित किया था?

TST ट्रिविया # ३८- अमरीका के किस पत्रिका ने अदनान सामी को "Keyboard Discovery of The 90s" कह कर संबोधित किया था?

TST ट्रिविया # ३९- यह प्यार है या क्या है नहीं हमें इसका कोई आभास, स्नेहा के होठों पर सज रही है लता की मिठास। बताइए कि इशारा किस गीत की तरफ़ है?


"एक लड़की दीवानी सी" एल्बम को आवाज़ रेटिंग ***

हालाँकि एल्बम में अदनान ने विविधता लाने की पूरी कोशिश की है पर कोई भी गीत उस तरह अपील नहीं करता जैसा कि "तेरा चेहरा", "कभी तो नज़र मिलाओ" या फिर "भीगी भीगी रातों में" ने किया था, फिर भी अदनान के चाहने वालों को उनके ये पेशकश पसंद आएगी...

आवाज़ की टीम ने इस अल्बम को दी है अपनी रेटिंग. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसे लगे? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत अल्बम को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

शुभकामनाएँ....


अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, December 6, 2009

आजा रे परदेसी, मैं तो कब से खडी इस पार....लता के स्वरों में गूंजी शैलेन्द्र की पीड़ा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 282

"शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। इस शृंखला में हम ना केवल राज कपूर निर्मित फ़िल्मों के बाहर शैलेन्द्र के लिखे गीत सुनवा रहे हैं, बल्कि ये सभी गानें अपने आप में एक एक मास्टरपीस हैं और एक दूसरे से बिल्कुल जुदा है, अलग है, अनूठा है। आज जिस गीत को हमने चुना है वह एक हौंटिंग् नंबर है लता जी का गाया हुआ। ५० और ६० के दशकों में एक ट्रेंड चला था सस्पेन्स फ़िल्मों का और हर ऐसी फ़िल्म में लता जी का गाया हुआ एक हौंटिंग् गीत होता था। १९४९ में फ़िल्म 'महल' के बाद १९५८ में अगली इस तरह की सुपरहिट सस्पेन्स फ़िल्म आई 'मधुमती' जो पुनर्जनम की कहानी पर आधारित थी। इस फ़िल्म में शैलेन्द्र ने एक ऐसा गीत लिखा जिसे गा कर लता जी को अपने जीवन का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। जी हाँ, "मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियाँ थक गईं पंथ निहार, आजा रे परदेसी"। सलिल चौधरी के मीठे धुनों से सजी इस फ़िल्म के सभी के सभी गानें ख़ूब ख़ूब सुने गये और आज भी उनकी चमक उतनी ही बरकरार है, और रेडियो पर इस फ़िल्म के गानें तो अक्सर सुना जा सकता है। और विविध भारती के फ़रमाइशी कार्यक्रमों में भी इस फ़िल्म के गीतों की फ़रमाइशें इस फ़िल्म के बनने के ५० साल बाद भी कुछ कम होती दिखाई नहीं देती। दोस्तों, 'मधुमती' से जुड़ी तमाम जानकारियाँ हमने आपको उस दिन ही दे दिए थे जिस दिन '१० गीत जो थे मुकेश को प्रिय' शृंखला के अंतर्गत इस फ़िल्म का "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" गीत सुनवाया था। इसलिए आज उन बातों को बिना दोहराते हुए हम आपको शैलेन्द्र जी से जुड़ी कुछ और बातें बताते हैं।

शब्दों की दुनिया शैलेन्द्र की दासी थी। भाषा की पकड़ बेहद मज़बूत लेकिन बेहद सरल शब्दावली का इस्तेमाल किया करते थे। "मैं दीये की ऐसी बाती, जल ना सकी जो बुझ भी ना पाती", या फिर "मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात ज़रा सी" जैसी उपमाओं के पीछे कितनी दार्शनिक और गंभीर बातें छुपी हुई हैं, गीत को उपर उपर सुनते हुए अहसास ही नहीं होता। मुंबई के बोरीवली निवासी सुशील ठाकुर के बहनोई थे शैलेन्द्र। सुशील जी शैलेन्द्र जी को बहुत क़रीब से देखा था और जाना भी। विविध भारती ने एक बार सुशील जी को आमंत्रण दिया था शैलेन्द्र जी पर कुछ कहने के लिए। उन्होने कहा था - "मेरा और उनका तो जैसे बाप बेटे का रिश्ता था। जाड़ों के दिनों में मैं उनकी रजाई में घुस जाता था और उन्हे कविताएँ सुनाने के लिए कहता था। उनके शब्द बड़े ही सरल हुआ करते थे। १९४७ में उनकी शादी हुई और परेल के रेल्वे वर्कशॊप में नौकरी कर ली। रेल्वे का छोटा सा कमरा था जिसमें बस एक पलंग था। पूरा ख़ानदान उसी में रहते थे। उन पर कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव था। एक बार इपटा के किसी जल्से में वे अपनी कविताएँ सुना रहे थे कि राज कपूर की नज़र उन पर पड़ी और उन्हे गीत लिखने का ऑफर दे दिया। पर शैलेन्द्र जी उसे ठुकरा दिया। राज साहब ने कहा था कि कभी भी अगर पैसों की ज़रूरत पड़े तो उन्हे ज़रूर बताएँ, वे उनसे गीत लिखवाना चाहते हैं। शैलेन्द्र जी का बच्चा हुआ तो उनकी आर्थिक परेशानियाँ बढ़ गईं और वे राज साहब के पास जा पहुँचे। राज कपूर ने कहा कि अभी अभी मैं फ़िल्म 'आग' बना चुका हूँ, फिर जब मैं कोई फ़िल्म बनाउँगा तो आप को ज़रूर मौका दूँगा। उन्होने उनकी आर्थिक सहायता की और फ़िल्म 'बरसात' में उन्हे गीत लिखने का ऑफर दे दिया।" और दोस्तों, इस तरह से पदार्पण हुआ इस महान गीतकार का फ़िल्म जगत में। शैलेन्द्र जी की बातें आगे भी जारी रहेंगी, आइए अब सुना जाए आज का गीत फ़िल्म 'मधुमती' से।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. राग तोड़ी पर आधारित एक और भक्ति में डूबा गीत शैलेन्द्र का रचा.
२. राज नवाथे निर्देशक थे इस फिल्म के.
३. इस निराशावादी गीत के एक अंतरे की अंतिम पंक्ति में शब्द है -"मोती".

पिछली पहेली का परिणाम -
शैलेन्द्र को समर्पित इस नयी शृंखला में भी इंदु जी ने लीड बरकरार रखी है और २८ अंकों के साथ वो अब वो रोहित जी स्कोर के अधिक करीब आ गयी हैं, पाबला जी आप तो बहुत बड़े स्टार निकले :), दिलीप जी, आपने एकदम दुरुस्त फ़रमाया...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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