Saturday, July 9, 2011

ओल्ड इस गोल्ड -शनिवार विशेष - संगीतकार दान सिंह को भावभीनी श्रद्धाजंली



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। फ़िल्म-संगीत के सुनहरे दौर के बहुत से ऐसे कमचर्चित संगीतकार हुए हैं जिन्होंने बहुत ही गिनी चुनी फ़िल्मों में संगीत दिया, पर संख्या में कम होने की वजह से ये संगीतकार धीरे धीरे हमारी आँखों से ओझल हो गये। हम भले इनके रचे गीतों को यदा-कदा सुन भी लेते हैं, पर इनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत कम लोगों को पता होता है। यहाँ तक कि कई बार इनकी खोज ही नहीं मिल पाती, ये जीवित हैं या नहीं, सटीक रूप से कहा भी नहीं जा सकता। और जिस दिन ये संगीतकार इस जगत को छोड़ कर चले जाते हैं, उस दिन उनके परिवार वालों के सहयोग से किसी अख़्बार के कोने में यह ख़बर छप जाती है कि फ़लाना संगीतकार नहीं रहे। पिछले महीने एक ऐसे ही कमचर्चित संगीतकार हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गये। लीवर की बीमारी से ग्रस्त, ७८ वर्ष की आयु में संगीतकार दान सिंह नें १८ जून को अंतिम सांस ली। दान सिंह का नाम लेते ही फ़िल्म 'माइ लव' के दो गीत "वो तेरे प्यार का ग़म" और "ज़िक्र होता है जब क़यामत का" झट से ज़हन में आ जाते हैं। आइए आज इस विशेषांक में हम दान सिंह के जीवन और संगीत सफ़र पर थोड़ा नज़र डालें।

दान सिंह राजस्थान के रहनेवाले थे, जिन्होंने संगीतकार खेमचंद प्रकाश से संगीत सीखा। वो एक अच्छा संगीतकार होने के साथ साथ एक अच्छा गायक भी थे। मुंबई आकर दो साल के संघर्ष के बाद १९६९ में उनको पहला अवसर मिला किसी फ़िल्म में संगीत देने का और वह फ़िल्म थी 'तूफ़ान'। यह फ़िल्म नहीं चली। उसके अगले ही साल आई फ़िल्म 'माइ लव', जिसके गीतों नें धूम मचा दी। लेकिन अफ़सोस की बात कि 'माइ लव' के गीतों की अपार कामयाबी के बावजूद किसी नें उनकी तरफ़ न कोई तारीफ़ की और न ही कोई प्रोत्साहन मिला। वो पार्टियों में जाते और अपनी धुनें सुनाते। "वो तेरे प्यार का ग़म, एक बहाना था सनम" गीत में दान सिंह नें जिस तरह से राग भैरवी का इस्तेमाल किया, संगीतकार मदन मोहन को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने दान सिंह को कहा था कि "भैरवी का इस्तेमाल तो हमने भी किया, पर आप इसमें ऐसा वेरिएशन कैसे ले आये?" दान सिंह को किसी नें मौका तो नहीं दिया पर उन पार्टियों में मौजूद कुछ नामी संगीतकार उनकी धुनों को चुराने लगे और अपने गीतों में उन्हें इस्तेमाल करते रहे। इससे वो इतने हताश हो गए कि अपनी डॉक्टर पत्नी उमा के साथ जयपुर लौट गए। जयपुर लौटने से पहले उन्होंने 'भूल न जाना', 'मतलबी' और 'बहादुर शाह ज़फ़र' जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया, पर इनमें से कोई भी फ़िल्म नहीं चली।

बरसों बाद राजस्थान की पृष्ठभूमि पर फ़िल्म बनी 'बवंडर', जिसका संगीत तैयार किया दान सिंह नें, और उन्होंने यह साबित भी किया कि उनके संगीत में ठेठ और जादू आज भी बरक़रार है। विषय-वस्तु की वजह से फ़िल्म चर्चा में तो आई पर एक बार फिर दान सिंह का संगीत नहीं चल पाया। क़िस्मत के सिवा किसे दोष दें!!! किसी पत्रकार नें जब एक बार उनकी असफलता का कारण पूछा तो उनका जवाब था, "न पूछिये अपनी दास्तान।" दान सिंह के जीवन को देख कर यह स्पष्ट है कि प्रतिभा के साथ साथ क़िस्मत का होना भी अत्यावश्यक है, वर्ना इतने प्रतिभाशाली और सुरीले संगीतकार होने के बावजूद क्यों किसी नें उन्हें बड़ी फ़िल्मों में मौका नहीं दिया होगा! ख़ैर, आज इन सब बातों में उलझकर क्या फ़ायदा। आज दान सिंह हमारे बीच नहीं है, पर इस बात की संतुष्टि ज़रूर है कि अच्छे संगीत के रसिक कभी उनके कम पर स्तरीय योगदान को नहीं भूलेंगे। दोस्तों, पिछले दिनों मैंने जाने-माने गीतकार और रिलायन्स एण्टरटेनमेण्ट लिमिटेड के चेयरमैन अमित खन्ना का साक्षात्कार लिया था (जिसे आप इसी साप्ताहिक स्तंभ में निकट भविष्य में पढ़ेंगे), उस साक्षात्कार में उन्होंने यह बताया कि उन्होंने दान सिंह के साथ भी काम किया है। उस साक्षात्कार के वक़्त दान सिंह जीवित थे, शायद इसीलिए मुझे उनके बारे में जानने की लालसा नहीं हुई। पर आज उनके न रहने से शायद उनकी अहमियत हमारे लिए बढ़ गई है। मैंने दोबारा अमित जी से सम्पर्क किया और उनसे पूछा:

सुजॉय - अमित जी, पिछले १८ जून को संगीतकार दान सिंह का निधन हो गया। मुझे याद है आपने कहा था कि आपने उनके साथ भी काम किया है। अगर आप दान सिंह साहब के बारे में कुछ बतायें तो हम आपके आभारी रहेंगे।

अमित खन्ना - जी हाँ, मैंने उनके लिए एक गीत लिखा था। उन्होंने उस फ़िल्म में बस इसी एक गीत की धुन बनाई थी, बाक़ी के गीत बप्पी लाहिड़ी नें कम्पोज़ किए। गीत कुछ इस तरह से था "दो लफ़्ज़ों में कैसे कह दूँ ज़िंदगी भर की बात"।

सुजॉय - इस मुखड़े को सुन कर जैसे दान सिंह साहब ख़ुद ही अपनी ज़िंदगी के बारे में कह रहे हों। तभी उन्होंने भी कहा था कि न पूछिये अपनी दास्तान।

अमित खन्ना - दान सिंह की धुनों में बहुत मेलडी था, और वो बहुत सहज-सरल इंसान थे, उन्हें वो सब कुछ नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे।

सुजॉय - बहुत बहुत धन्यवाद अमित जी!

और दोस्तों, आइए आज दान सिंह साहब की याद में सुनते हैं आनन्द बक्शी का लिखा और मुकेश का गाया फ़िल्म 'माइ लव' से "ज़िक्र होता है जब क़यामत का, तेरे जलवों की बात चलती है"। और हम यह कहते हैं कि जब जब फ़िल्म-संगीत के सुनहरे दौर के इतिहास का ज़िक्र छिड़ेगा, संगीतकार दान सिंह का नाम भी सम्मान के साथ लिया जाएगा। 'हिंद-युग्म आवाज़' परिवार की ओर से संगीतकार दान सिंह को श्रद्धा सुमन।

गीत - ज़िक्र होता है जब क़यामत का (माइ लव, १९७०)


तो ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक' जो समर्पित था संगीतकार दान सिंह की स्मृति को, जिनका गत १८ जून को निधन हो गया था। आज अनुमति दीजिये, फिर मुलाक़ात होगी, नमस्कार!

अनुराग शर्मा की कहानी "लागले बोलबेन"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने जयशंकर प्रसाद की कहानी "कला" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक सामयिक कहानी "लागले बोलबेन", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "लागले बोलबेन" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 19 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
उन महाशय ने पहले तो आँखें तरेर कर देखा फ़िर वापस अपने अखबार में मुंह छिपाकर बड़ी बेरुखी से बोले, "लागले बोलबेन"
(अनुराग शर्मा की "लागले बोलबेन" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#136th Story, Lagle Bolben: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/17. Voice: Anurag Sharma

Thursday, July 7, 2011

फूल गेंदवा ना मारो... - रसूलन बाई के श्रृंगार रस में हास्य रस का रंग भरते मन्ना डे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 695/2011/135

"ओल्ड इज गोल्ड" पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की आज की इस नई कड़ी में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आप सभी पाठकों / श्रोताओं का स्वागत है| कल के अंक में हमने पूरब अंग ठुमरी की अप्रतिम गायिका रसूलन बाई के कृतित्व से आपका परिचय कराया था| आज हम पूरब अंग की ठुमरी पर चर्चा जारी रखते हुए एक ऐसे व्यक्तित्व से परिचय प्राप्त करेंगे, जिन्हें ठुमरी की "बनारसी शैली के प्रवर्तक" के रूप में मान्यता दी गई है| ठुमरी के इस शिखर-पुरुष का नाम है जगदीप मिश्र| इनका जन्म आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) के एक कथक परिवार में हुआ था| संगीत के संस्कार उन्हें अपने संगीतजीवी परिवार से ही मिले| बाद में इनका परिवार वाराणसी आकर बस गया| जगदीप जी, भैया गणपत राव के समकालीन थे और उन्ही के समान ठुमरी गायन में बोलों के बनाव अर्थात बोलों में निहित भावों को स्वरों की सहायता से अभिव्यक्त करने के पक्ष में थे|

वाराणसी के संगीत परिवेश के जानकार और ठुमरी गायक रामू जी (रामप्रसाद मिश्र) के अनुसार मौजुद्दीन खाँ ने प्रारम्भ में जगदीप मिश्र को सुन-सुन कर ही ठुमरी गाना सीखा था| बाद में वे भैया गणपत राव के शिष्य बने| जाने-माने साहित्यकार रामनाथ 'सुमन' ने भी एक स्थान पर लिखा है कि मौजुद्दीन खाँ की ठुमरी-गायकी पर जगदीप मिश्र के गायन का बहुत प्रभाव था| जगदीप मिश्र से पहले ठुमरी अधिकतर मध्य लय में गायी जाती थी| विलम्बित लय में ठुमरी गायन का चलन जगदीप मिश्र ने ही आरम्भ किया, जिसे मौजुद्दीन खाँ ने आगे बढ़ाया| ऊपर की पंक्तियों में जिन रामप्रसाद मिश्र का जिक्र हुआ है वे स्वयं प्रतिष्ठित संगीतज्ञ और ठुमरी गायक थे| 'रामू जी" के नाम से प्रसिद्ध रामप्रसाद मिश्र मूलतः गया (बिहार) के रहने वाले थे| जगदीप मिश्र के प्रयत्नों से विलम्बित लय की बोल-बनाव की ठुमरियों का प्रचलन शुरू हुआ| पिछली कड़ियों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि एक शैली के रूप में ठुमरी का परिमार्जन लखनऊ में हुआ और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में ठुमरी ने लखनऊ से बनारस की यात्रा की थी| ठुमरी गायन की बनारसी शैली का स्वतंत्र विकास बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में होना शुरू हुआ| आगे चल कर बनारस में बोल-बनाव की ठुमरी का एक ऐसे स्वरुप में विकास हुआ जिस पर ब्रजभाषा के साथ-साथ अवधी, भोजपुरी, मगही आदि बोलियों का, और क्षेत्रीय लोक संगीत चैती, कजरी, सावन, झूला, झूमर, आदि का बहुत प्रभाव था|

इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में "पूरब अंग की ठुमरी" की दो शाखाएँ -"लखनवी" और "बनारसी" विकसित हुईं| बाद में जैसे-जैसे बनारसी ठुमरी की लोकप्रियता बढ़ती गई, उसी अनुपात में लखनवी ठुमरी का प्रचलन घटता गया| वर्तमान समय में बनारसी ठुमरी ही पूरब अंग की ठुमरी की एकमात्र प्रतिनिधि समझी जाने लगी है| पिछले अंक में हमने पूरब अंग ठुमरी की सुप्रसिद्ध गायिका रसूलन बाई का परिचय प्राप्त किया था| उमकी गायी कुछ लोकप्रिय ठुमरियों में से एक ठुमरी है -"फूलगेंदवा न मारो लगत करेजवा में चोट...", जिसे हम आज की संध्या में आपको सुनवाएँगे, परन्तु रसूलन बाई के स्वरों में नहीं, बल्कि मन्ना डे के स्वरों में| १९६४ में प्रदर्शित फिल्म "दूज का चाँद" में संगीतकार रोशन ने राग "भैरवी" की इस परम्परागत ठुमरी को शामिल किया था, जिसे बहुआयामी गायक मन्ना डे ने अपने स्वरों से एक अलग रंग दिया है| मूल ठुमरी श्रृंगार रस प्रधान है, किन्तु मन्ना डे ने अपने बोल-बनाव के कौशल से इसे कैसे हास्यरस में अभिमंत्रित कर दिया है, इसका सहज अनुभव आपको ठुमरी सुन कर हो सकेगा| यह ठुमरी हास्य अभिनेता आगा पर फिल्माया गया है| फिल्म के इस दृश्य में आगा अपनी प्रेमिका को रिझाने के लिए गीत के बोल पर ओंठ चलाते हैं और उनके दो साथी पेड़ के पीछे छिप कर इस ठुमरी का रिकार्ड बजाते हैं| बीच में दो बार रिकार्ड पर सुई अटकती भी है| इन क्षणों में मन्ना डे के गायन कौशल का परिचय मिलता है|

इस ठुमरी को आज सुनवाने के दो कारण भी हैं| पहला कारण तो यही है कि इस श्रृंखला की सप्ताहान्त प्रस्तुति आपको राग भैरवी में ही सुनवाने का हमने वादा किया था, और दूसरा कारण यह है कि अगले सप्ताह आज के ही दिन संगीतकार रोशन का जन्मदिवस भी है| एक सप्ताह पूर्व ही सही, उनके इस ठुमरी गीत के माध्यम से हम सब उनका स्मरण करते हैं| आइए संगीतकार रोशन द्वारा संयोजित और मन्ना डे द्वारा गायी परम्परागत ठुमरी -"फूलगेंदवा न मारो..." हास्यरस के एक अलग ही रंग में-



क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर की घोषित पर अनिर्मित फ़िल्म 'भैरवी' के लिए लता नें रोशन को ही संगीतकार चुना था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 16/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी नहीं है
सवाल १ - राग बताएं - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस अभिनेत्री पर फिल्माया गया है इसे - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अमित जी ३ और क्षिति जी को २ अंक अवश्य मिलेंगें, अवध जी को भी १ अंक जरूर मिलेंगें बधाई
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, July 6, 2011

जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ....मान-मनुहार की ठुमरी का मोहक अन्दाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 694/2011/134

पिछली कुछ कड़ियों में हमने आपसे "बोल-बाँट" या "बन्दिश" की ठुमरियों और इस शैली के प्रमुख रचनाकारों के विषय में चर्चा की है| आज के इस अंक में हम आपसे "बोल-बनाव" की ठुमरियों पर कुछ बातचीत करेंगे| दरअसल बोल-बनाव की ठुमरियों का विकास बनारस में हुआ| इस प्रकार की ठुमरियों में शब्द बहुत कम होते हैं और यह विलम्बित लय से शुरू होती हैं| इनमें स्वरों के प्रसार की बहुत गुंजाइश होती है| छोटी-छोटी मुरकियाँ, खटके, मींड का प्रयोग ठुमरी की गुणबत्ता को बढाता है| कुशल गायक ठुमरी के शब्दों से अभिनय कराते हैं| गायक कलाकार ठुमरी के कुछ शब्दों को लेकर अलग-अलग भावपूर्ण अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| अन्त में कहरवा ताल की लग्गी के साथ ठुमरी समाप्त होती है| ठुमरी के इस भाग में तबला संगतिकार को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिलता है|

बात जब बोल-बनाव ठुमरी की हो तो रसूलन बाई का ज़िक्र आवश्यक हो जाता है| पूरब अंग की गायकी- ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय गायिका रसूलन बाई बनारस (वाराणसी) की रहनेवाली थीं| संगीत का संस्कार इन्हें अपनी नानी से विरासत में मिला था| रसूलन बाई के संगीत को निखारने में उस्ताद आशिक खाँ, नज्जू मियाँ और टप्पा गायकी के अन्वेषक मियाँ शोरी खानदान के शम्मू खाँ का बहुत बड़ा योगदान था| पूरब अंग की भावभीनी गायकी की चैनदारी, बोल-बनाव के लहजे, कहन के खास ढंग और ठहराव- यह सारे गुण रसूलन बाई की गायकी में था| टप्पा तो जैसे रसूलन बाई के लिए ही बना था| बारीक मुरकियाँ और मोतियों की लड़ियों जैसी तानों पर उन्हें कमाल हासिल था| उनकी गायी ठुमरियाँ- "आँगन में मत सो...", "कैसी बजायी श्याम बँसुरिया...", "जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ...." आदि तथा दादरा- "कंकर मार मोहें जगाया..." और "पनघटवा न जैहो..." जैसे अनेक गीत भारतीय संगीत के अमूल्य धरोहर है|

फिल्मों में "बोल-बनाव" की ठुमरियों का प्रयोग कम हुआ है, और प्रयोग किया भी गया है तो मंच पर प्रस्तुत की जाने वाली बोल-बनाव की ठुमरियों से कुछ भिन्न रूप में| इस सम्बन्ध में कानपुर के संगीत-प्रेमी और पारखी डा. रमेशचन्द्र मिश्र के अनुसार -"फिल्मों में दर्शकों का धैर्य ना टूटे, इसलिए बोल-बनाव की ठुमरियों को थोड़ा संक्षिप्त करके, शब्दों को भरपूर संयोजित करके, गीतों को ही ठुमरी का रूप दे दिया जाता है|" बोल-बनाव की ठुमरियों के फ़िल्मी संस्करण के बारे में डा. मिश्र का कथन बिलकुल ठीक है| फिल्मों में प्रयोग किये जाने वाले गीतों की अवधि सामान्यतः 4-5 मिनट की होती है, जबकि स्वर-विस्तार और शब्दों को अलग-अलग अन्दाज़ में प्रस्तुत किए जाने के कारण बोल-बनाव की ठुमरियों की अवधि अधिक होती है| फिल्म के दर्शकों में इस शैली की ठुमरियों के लिए प्रायः धैर्य नहीं होता| इसके बावजूद कई गायक-गायिकाओं ने अपने गायन कौशल से शब्दों में नाटकीयता देकर फिल्मों में बोल-बनाव की ठुमरियों को एक नया रंग दिया है| इन्हीं पार्श्वगायिकाओं में शीर्ष पर लता मंगेशकर का नाम है|

आज जो ठुमरी आपको सुनवाने के लिए हमने चुनी है वह कोकिल-कंठी गायिका लता मंगेशकर के स्वरों में ही है| 1962 में प्रदर्शित फिल्म "सौतेला भाई" में संगीतकार अनिल विश्वास ने यह परम्परागत ठुमरी -"जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ..." लता जी से गवाया था| राग "अड़ाना" और दादरा ताल में निबद्ध इस ठुमरी को लता जी ने बोल-बनाव के अन्दाज़ में गाया है| ऊपर की पंक्तियों में हमने सिद्ध गायिका रसूलन बाई का परिचय देते हुए जिक्र किया था कि ठुमरी "जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ..." रसूलन बाई के स्वरों में हमारे लिए धरोहर है| लता जी ने इस धरोहर को आनेवाली पीढ़ियों के लिए आगे बढ़ाया है| आप इस रसपूर्ण ठुमरी का रसास्वादन करें, इससे पूर्व मैं कृष्णमोहन मिश्र, अपनी ओर से, इस कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ताओं की ओर से और आप सभी पाठकों-श्रोताओं कि ओर से संगीतकार अनिल विश्वास की स्मृतियों को उनके द्वारा ही संयोजित इस ठुमरी गीत से स्वरांजलि अर्पित करते हैं| कल इस महान संगीतकार की 97 वीं जयन्ती है|



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म "सौतेला भाई" में संगीतकार अनिल विश्वास ने तवायफ के कोठे के प्रसंग में इस ठुमरी को संयोजित किया था| परदे पर दो नर्तकियों ने इस ठुमरी को नृत्य के साथ प्रस्तुत किया है, किन्तु दोनों के लिए स्वर लता मंगेशकर ने ही दिया है|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 15/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान
सवाल १ - किस हास्य अभिनेता पर फिल्माई गयी है ये ठुमरी - ३ अंक
सवाल २ - किस संगीतकार ने इस पारंपरिक ठुमरी को संयोजित किया था - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह अमित जी न सिर्फ जल्दी आते हैं पर उनका ज्ञान भी कमाल का है. बधाई. क्षिति जी बस कुछ लेट हो जाती है. अनजाना जी आप कहाँ है, कब तक छुपे रहेंगें, हमें लगता है कि अमित जी का रथ अब बस आप ही रोक् सकते हैं :)

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, July 5, 2011

चाहे तो मोरा जिया लईले....राग पीलू में निखरता श्रृंगार का एक और रूप



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 693/2011/133

फिल्मों में ठुमरी के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की तेरहवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने "पछाहीं ठुमरी" की कुछ प्रमुख विशेषताओं और रचनाकारों से आपका परिचय कराया था| आज हम इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए ठुमरी के क्रमशः विस्तृत होते क्षेत्र पर भी चर्चा करेंगे| उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशक में नज़र अली और उनके भाई कदर अली ठुमरी के बड़े प्रवीण गायक हुए| ये दोनों भाई संगीतजीवी वर्ग के थे और मूलतः लखनऊ-निवासी थे| बाद में दोनों भाई ग्वालियर जाकर बस गए| नज़र अली ने "नज़रपिया" नाम से अनेक ठुमरियों की रचना की| इनकी अधिकतर ठुमरियाँ बोल-बाँट की हैं| ग्वालियर के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ राजभैया पुँछवाले ने भी नज़रपिया से ठुमरी गायन सीखा था|

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक जनसामान्य में ठुमरी गायन इतना लोकप्रिय हो चला था कि तवायफों के अतिरिक्त उस समय देश के अनेक घरानेदार और प्रतिष्ठित ध्रुवपद तथा ख़याल गायकों ने इसे बड़े शौक से अपनाया| ध्रुवपद गायकों में मथुरा के चन्दन चौबे, ख़याल गायकों में ग्वालियर के रहमत खाँ, शंकरराव पण्डित, महाराष्ट्र के भास्करराव बखले तथा रामकृष्ण बुवा बझे आदि प्रमुख थे| रहमत खाँ और शंकरराव पण्डित की ठुमरियों के ग्रामोफोन रिकार्ड भी बने जिनमें रहमत खाँ द्वारा गायी ठुमरी भैरवी -"यमुना के तीर..." और शंकरराव पण्डित द्वरा गायी राग धानी की ठुमरी -"कृष्णमुरारी विनती करत हारी..." बहुत लोकप्रिय हुई थी| शंकरराव पण्डित की ठुमरी का रिकार्ड सुनकर ही सुप्रसिद्ध गायक राजभैया पुँछवाले अभिभूत हो गए थे| उस समय के घरानेदार ख़याल गायकों में आगरे के प्यारे खाँ और उनके पुत्रगण लतीफ़ खाँ और महमूद खाँ की रुझान भी ठुमरी गायन की ओर अधिक थी और ये लोग ठुमरी गायन में बहुत प्रवीण हुए| यह तीनों गायक राजस्थान के जयपुर, शाहपुर और भदावर रियासतों से सम्बद्ध थे| बीसवीं शताब्दी के दो दशक बीतते-बीतते अपनी कलात्मकता और स्वाभाविक माधुर्य के कारण ठुमरी ने भारतीय जनमानस को इतना प्रभावित किया कि अनेक प्रतिष्ठित गायकों ने संगीत-सभाओं और संगीत-सम्मेलनों में इसे गाना प्रारम्भ कर दिया था| ठुमरी गायन के प्रति प्रतिष्ठित संगीतज्ञों के झुकाव के परिणामस्वरुप संगीत के शास्त्रज्ञ विद्वानों का ध्यान भी इस ओर गया|

आज हम आपको जो ठुमरी सुनवाने जा रहे हैं वह हमने 1966 में प्रदर्शित फिल्म "ममता" से लिया है| यह फिल्म इस वर्ष की श्रेष्ठतम संगीत प्रधान फिल्म थी| फिल्म के संगीतकार रोशन इस फिल्म के दौरान अपने उत्कर्ष पर थे| रोशन ने इस फिल्म में एक से बढ़ कर एक, राग आधारित संगीत रचनाएँ की थीं, चाहे वह -"रहते थे कभी जिनके दिल में..." (मिश्र खमाज") या फिर -"चाहे तो मोरा जिया लईले..." (पीलू), सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे| फिल्म के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने तो मानो विविध भावों को अपने गीतों में उड़ेल दिया था| इसे रोशन का दुर्भाग्य कहा जाए या फिर तत्कालीन फिल्म पुरस्कारों में प्रवेश कर चुकी राजनीति, 1966 के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार फिल्म "सूरज" के लिए शंकर-जयकिशन को प्राप्त हुआ था, जबकि फिल्म "सूरज" का संगीत "ममता" के आगे कहीं नहीं ठहरता| इन दोनों फिल्मों के बीच फिल्म "गाइड" भी थी, जिसके संगीत का स्तर "सूरज" से तो बेहतर ही था| बहरहाल, "ममता" का संगीत फिल्म के दर्शकों और समीक्षकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ था| आज भी ये गीत 'सदाबहार' बने हुए हैं| इस फिल्म में रोशन ने ग़ज़ल-गीत के साथ ठुमरी को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया था| ठुमरी और कव्वाली रोशन की प्रिय शैलियाँ थी| उनकी इस विशेषता का कारण निश्चित रूप से लखनऊ के मैरिस म्यूजिक कालेज (वर्तमान भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय) से संगीत की शिक्षा ही थी| रोशन के गुरु और कालेज के तत्कालीन प्रधानाचार्य डा. श्रीकृष्ण नारायण रातनजनकर भी ठुमरी गायकी के विद्वान थे और उनका एक ठुमरी संग्रह भी प्रकाशित हुआ था| आज फिल्म "ममता" की ही राग "पीलू", दादरा ताल में निबद्ध, मान-मनुहार से युक्त ठुमरी -"चाहे तो मोरा जिया लईले..." के साथ हम उपस्थित हुए हैं| इस ठुमरी की एक विशेषता यह भी है कि यह पारम्परिक ठुमरी नहीं है, बल्कि मजरूह सुल्तानपुरी की एक मधुर रचना का ठुमरीकरण है| लीजिए आप भी इस मोहक ठुमरी की रसानुभूति करें -



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार रोशन बहुत अच्छा दिलरुबा बजाते थे, और उनका दिलरुबा सुन कर ही ज़ेड. ए. बुख़ारी नें ऑल इण्डिया रेडिओ में ७० रुपय के वेतन पर उन्हें नौकरी दे दी, जहाँ रोशन १२ वर्ष तक कार्यरत रहे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 14/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - लता जी की आवाज़ है.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है रचना - ३ अंक
सवाल २ - किस संगीतकार ने इस पारंपरिक ठुमरी को संयोजित किया था - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित और क्षिति जो बहुत बधाई, इंदु जी का भी खाता खुल गया

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, July 4, 2011

जब साहित्यिक और पौराणिक किरदारों को अपना "रंग" दिया एफ टी एस के कलाकारों ने



पिछले दिनों हिंद युग्म के खबर पृष्ठ पर हमने रंग महोत्सव के बारे में जानकारी दी थी. फिल्म एंड थियटर सोसायटी द्वारा आयोजित यह पहला वार्षिक आर्ट फेस्टिवल् जिसे "रंग" नाम दिया गया था, दिल्ली के लोधी रोड स्तिथ अलायेंज फ्रंकाईस और इंडिया हेबिटाट सभागारों में धूम धाम से संपन्न हुआ. इसमें कुल ५ नाटकों का मंचन हुआ और एक शाम रही संगीत बैंड ब्रह्मनाद के सजीव परफोर्मेंस के नाम. काफी संख्या में दर्शकों ने इस अनूठे आयोजन का आनद लिया. ५ नाटकों में से एक "सिद्धार्थ" (जिसे अशोक छाबड़ा ने निर्देशित किया है) को छोड़कर अन्य सभी नाटक युवा निर्देशक अतुल सत्य कौशिक द्वारा निर्देशित हैं, और अधिकतर कलाकार भी अपेक्षाकृत नए ही हैं रंगमंच की दुनिया में मगर सबकी कर्मठता, जुझारूपन और खुद को साबित करने की लगन उनके अभिनय में साफ़ देखी जा सकती है. अधिकतर नाटक नामी साहित्यकारों की रचनाओं से प्रेरित हैं पर निर्देशक और उनकी टीम ने उसमें अपना 'रंग' भी भरा है. नाटकों को बेहद व्यवाहरिक और मनोरंजक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है ताकि दर्शक एक पल के लिए भी ऊब महसूस न करे. यानी किरदार और विषय गंभीर होने के बावजूद उनकी प्रस्तुति आम दर्शकों को भी भरपूर मनोरजन देने में सफल हुई है. चूँकि ये ऍफ़ टी एस का पहला वार्षिकोत्सव था, इस दृष्टि से देखा जाए तो इस आयोजन को बहुत हद तक एक सफल आयोजन माना जा सकता है. ये संस्था निश्चित ही उम्मीदें जगाती है कि भविष्य में हम इस टीम से और भी उत्कृष्ट मंचनों की अपेक्षाएं रख सकते हैं जिसके माध्यम से हमें भारतीय कला संस्कृति और साहित्य के अनेक नए आयाम देखने को मिल सकेंगें.

ऍफ़ टी एस के इन नाटकों में एक और दिलचस्प पहलु हैं इनका पार्श्व संगीत. दरअसल यहाँ संगीत पूरी तरह पार्श्व भी नहीं है. "ब्रह्मनाद" बैंड के सदस्य वहीँ मंच के एक कोने में बैठे दर्शकों को नज़र आते हैं जो दृश्य के भावानुसार उपयुक्त संगीत वहीँ लाईव बजाते हैं. बीच बीच में कुछ गीत भी आते हैं और वो भी वहीँ मंच के कोने से लाईव गाये जाते हैं. ये एक अनूठा अंदाज़ लगा जिसकी बेहद सराहना भी हुई. निलोय घोष दस्तीदार, प्रनोय रॉय, श्रेहंस खुराना और सार्थक पाहवा से मिलकर बनता है बैंड "ब्रह्मनाद" जो भारतीय लोक संगीत में अपनी पहचान ढूंढ रहे हैं. आपको इनके गीतों में एक अपनापन मिलेगा. आजकल सुनाई देने वाले संगीत से बेहद अलग मिलेगा आपको इनका मिजाज़. व्यक्तिगत तौर पर मैं जिस तरह के गुण एक भारतीय बैंड में देखना चाहता हूँ मुझे उस कसौटी पर काफी हद तक खरा मिला "ब्रह्मनाद".


(काकी की भूमिका में पारुल, "कूबड़ और काकी" से एक दृश्य)

अतुल सत्य कौशिक निर्देशित नाटक कूबड़ और काकी में दो कहानियों का फ्यूज़न है, और नयी बात ये है कि ये दोनों कहानियां दो अलग अलग साहित्यकारों की है. हिंदी कथा साहित्य के दो दिग्गज कथाकारों, प्रेमचंद और धरमवीर भारती के दो अलग अलग कहानियों को एक सूत्र में बाँध कर प्रस्तुत किया गया है "कूबड़ और काकी" में. परनिर्भर और बेसहारा हुई दो औरतों के प्रति समाज के नज़रिए को बेहद संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है मंच पर कलाकारों ने. विशेषकर काकी की भूमिका में पारुल ने शानदार अभिनय किया है. दोनों ही किरदारों के माध्यम से बहुत सी सामाजिक कुरीतियों और गिरते मानवीय मूल्यों पर भी ख़ासा प्रहार किया गया है. इस नाटक के बाद हमनें बात की निर्देशक अतुल सत्य कौशिक, काकी की भूमिका जान फूंकने वाली पारुल और ब्रह्मनाद बैंड के सार्थक पाहवा से. हिंद युग्म की तरफ से मेरे यानी सजीव सारथी के साथ थे अतुल सक्सेना और तरुमिता. लीजिये सुनिए यही बातचीत



पहला नाटक देखने और इन सब कलाकारों से बात करने के बाद हमारी उत्सुकता और बढ गयी दिन का अगला नाटक "अर्जुन का बेटा" देखने की. इस नाटक को एक काव्यात्मक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है यानी पूरे नाटक के संवाद एक कवितामयी भाषा में दर्शकों तक पहुँचते है. जाहिर है ऐसे नाटकों में स्क्रिप्ट की उत्कृष्ठता सबसे अधिक अवश्य होती है, और यहाँ मैं कहूँगा की अतुल सत्य कौशिक पूरी तरह सफल हुए हैं. बेहद कसे हुए अंदाज़ में और भरपूर रचनात्मकता के साथ उन्होंने अभिमन्यु के वीरता, शौर्य और साहस का बखान किया है. हालाँकि यहाँ सभी कलाकार उस उत्कृष्टता तक नहीं पहुँच पाए हैं पर धर्मराज/अभिमन्यु की भूमिका में जिस कलाकार ने अभिनय किया उनका काम खासा सराहनीय है. यदि अन्य कलाकार भी उनका बेहतर साथ देते तो और प्रभावशाली होती ये प्रस्तुति. युद्ध के दृश्य सांस रोक देने वाले थे जो बेहद सफाई से मंचित हुए हैं. पार्श्व संगीत और लाईटिंग भी अपेक्षित प्रभाव देने में सफल हुए हैं.

(चक्रव्यूह में घिरा अभिमन्यु, "अर्जुन का बेटा" से एक दृश्य)

पर इस नाटक के वास्तविक हीरो तो खुद लेखक/निर्दशक अतुल ही हैं, कुछ संवादों की बानगी देखिये, स्वतः ही मुंह से वाह निकल पड़ती है.

गीता कहने सुनने के कुछ अवसर होते हैं अर्जुन,
प्रश्नों के उत्तर प्रश्नों पर ही निर्भर होते हैं अर्जुन...


(भीष्म पितामह अर्जुन और धर्म राज को समझाते हुए)

और जब अंत में आकर श्रीकृष्ण चक्रव्यूह का रहस्य खोलते हैं तो हर व्यक्ति जीवन के चक्रव्यूह में खुद को एक अभिमन्यु सा ही पाता है -

इस चक्रव्यूह से भला कौन निकल पाया है,
बस अंदर जाने का ही रास्ता सबने पाया है,


जो चक्रव्यूह को भेदकर पूरा वापस आ जायेगा,
वो जीवन मुक्ति पाकर अपने अंत को पा जायेगा...


ये जीवन ही एक चक्रव्यूह और हम सब हैं अभिमन्यु,
इसके भीतर लड़ते ही बीते ये जीवन आयु...


चलिए अब ऍफ़ टी एस को और इन सभी उत्साही और प्रतिभाशाली कलाकारों को शुभकामनाएं देते हुए आईये सुनें "अर्जुन का बेटा" का ये ऑडियो प्रसारण. इसमें हालांकि बहुत स्पष्टता नहीं है पर आपको खासकर जो दिल्ली से बाहर हैं उन्हें इस प्रस्तुति की एक झलक अवश्य मिल जायेगी. जल्द ही ऍफ़ टी एस अन्य शहरों में इन नाटकों का मंचन करेगा. जरूर देखियेगा इन्हें जब भी ये आपके शहर आयें.



प्रस्तुति - सजीव सारथी

"गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे..." श्रृंगार का एक अन्दाज़ यह भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 692/2011/132

भारतीय संगीत की अत्यन्त लोकप्रिय उपशास्त्रीय शैली "ठुमरी" का फिल्मों में प्रयोग विषयक जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के इस नए अंक में आपका स्वागत है| कल हमने "पछाहीं ठुमरी" के बेमिसाल रचनाकार और गायक ललनपिया का आपसे परिचय कराया था| मध्यलय और द्रुतलय में गायी जाने वाली बोल-बाँट या बन्दिश की पछाहीं ठुमरियों में लय का चमत्कार और चपलता का गुण होता है| आज की कड़ी में पछाहीं ठुमरियों पर चर्चा को आगे बढाते हैं| पछाहीं ठुमरियाँ अधिकतर ब्रज भाषा में होती हैं| पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ब्रज और बुन्देलखण्ड क्षेत्र के लोक संगीत का इन ठुमरियों पर विशेष प्रभाव पड़ा| दूसरी ओर इनकी रचना करने में घरानेदार गायकों, सितारवादकों और कथक-नर्तकों का विशेष योगदान होने के कारण इन पर परम्परागत राग-संगीत का भी प्रभाव पड़ा| इसलिए बोल-बाँट की ठुमरी रचनाओं में विविधता दिखाई देती है| कुछ ठुमरियों में ध्रुवपद की तरह आड़ और दुगुन आदि लयकारियों का प्रयोग भी मिलता है|

पूरब की ठुमरियाँ लोकधुनों और चंचल-हलकी प्रकृति के रागों तक सीमित हैं, वहीं पछांह की ठुमरियाँ कुछ गम्भीर प्रकृति के रागों को छोड़ कर प्रायः सभी रागों में मिलती हैं| अपने समय के श्रेष्ठ संगीतज्ञ रामकृष्ण बुआ बझे ने अपने ठुमरी-गुरु सादिक अली खाँ की ठुमरियों के सम्बन्ध में बताते हुए उल्लेख किया है कि बोल-बाँट की पछाहीं ठुमरियाँ स्थायी-अन्तरा वाले मध्यलय के ख़याल के सामान और प्रायः सभी रागों में पायी जाती है| बोल-बाँट की ठुमरी के रचनाकारों और गायकों में लखनऊ के वजीर मिर्ज़ा 'कदरपिया', महाराज बिन्दादीन बेगम आलमआरा तथा 'चाँदपिया', बरेली के तवक्कुल हुसैन 'सनदपिया', फर्रुखाबाद के 'ललनपिया', मथुरा के 'सरसपिया', दिल्ली के श्रीलाल गोस्वामी 'कुँवरश्याम', गोपाल, 'सुघरछैल', ग्वालियर के नज़र अली 'नज़रपिया' आदि संगीतज्ञ मुख्यरूप से उल्लेखनीय हैं| ये सभी संगीतज्ञ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर बीसवीं शताब्दी के पहले दो दशकों के बीच सक्रिय थे| बरेली के तवक्कुल हुसैन 'सनदपिया' रामपुर के सुप्रसिद्ध सितारवादक बहादुर हुसैन के शिष्य थे| उन्होंने अधिकतर ठुमरी रचनाएँ अपनी गुरु-परम्परा में प्रचलित तंत्रवाद्य की मध्य और द्रुतलयबद्ध गतों के अनुसार कीं|

ठुमरी एकल रूप में ही गाये जाने की परम्परा है| युगल ठुमरी गायन का उदाहरण कभी-कभी नृत्य में ही मिलता है| 1964 की एक फिल्म है- "मैं सुहागन हूँ", जिसमें युगल ठुमरी गायन का प्रयोग किया गया है| फिल्म के संगीत निर्देशक लच्छीराम ने इस परम्परागत ठुमरी को आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी के स्वरों में प्रस्तुत किया है| यह फिल्म संगीतकार लच्छीराम तँवर की सफलतम फिल्मों में से एक थी| फिल्म के नायक-नायिका अजीत और माला सिन्हा हैं परन्तु इस ठुमरी को फिल्म के सह कलाकारों- सम्भवतः केवल कुमार और निशि पर फिल्माया गया है| ठुमरी के अन्त में अभिनेत्री द्वारा तीनताल में तत्कार और टुकड़े भी प्रस्तुत किये गए हैं| मूलतः यह राग "देश" में निबद्ध बोल-बाँट की ठुमरी है| इसी ठुमरी को पकिस्तान की गायिका इकबाल बानो ने मध्यलय में बोल-बनाव के साथ गाया है| फिल्म "मैं सुहागन हूँ" में बन्दिश की ठुमरी के रूप में गाया गया है| आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी ने गायन में राग देश के स्वरों को बड़े आकर्षक ढंग से निखारा है| मोहम्मद रफ़ी ने इस गीत को सपाट स्वरों में गाया है किन्तु आशा भोसले ने स्वरों में मुरकियाँ देकर और बोलों में भाव उत्पन्न कर ठुमरी को आकर्षक रूप दे दिया है| आइए सुनते हैं, श्रृंगार रस से ओतप्रोत राग देश की यह ठुमरी -



क्या आप जानते हैं...
कि सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री माला सिन्हा अभिनय के साथ-साथ गायन में भी कुशल थीं| 50 के दशक में वह रेडियो कलाकार रहीं, किन्तु फिल्मों में उन्होंने कभी नहीं गाया| यहाँ तक कि उन्हें स्वयं की अभिनीत भूमिकाओं में भी अन्य पार्श्वगायिकाओं के स्वरों का सहारा लेना पड़ा|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 13/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक बेहद सफल फिल्म की ठुमरी.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है रचना - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी लगातार अच्छा कर रहीं हैं, हालाँकि अभी भी वो अमित से पीछे हैं, पर हो सकता है कि ये बाज़ी उनके हाथ रहे, अवध जी आपने क्यों नहीं जवाब दिया वैसे :)

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, July 3, 2011

जाओ ना सताओ रसिया...छेड़-छाड़ से परिपूर्ण ठुमरी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 691/2011/131

'ओल्ड इज गोल्ड' पर जारी 'फिल्मों में ठुमरी' विषयक श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन..." का नया अंक लेकर मैं कृष्णमोहन मिश्र पुनः उपस्थित हूँ| इन दिनों हम ठुमरी की विकास-यात्रा के विविध पड़ाव और ठुमरी के विकास में जिनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है, ऐसे संगीतज्ञों और रचनाकारों के कृतित्व पर आपसे चर्चा कर रहे हैं| श्रृंखला की पहली पाँच कड़ियों में हमने 30 और 40 के दशक की फिल्मों तथा छठीं से दसवीं कड़ी तक 50 के दशक की फिल्मों में प्रयुक्त ठुमरियों का रसास्वादन कराया था| श्रृंखला के इस तीसरे सप्ताह में हमने आपको सुनवाने के लिए 60 के दशक की फिल्मों में प्रयोग की गई ठुमरियाँ चुनी हैं|

पिछली कड़ी में हमने आपसे "पछाहीं ठुमरी" शैली और दिल्ली के भक्त गायक-रचनाकार कुँवरश्याम के व्यक्तित्व-कृतित्व पर चर्चा की थी| "पछाहीं ठुमरी" के एक और अप्रतिम वाग्गेयकार (रचनाकार) फर्रुखाबाद के पण्डित ललन सारस्वत "ललनपिया" हुए हैं, जिन्होंने ठुमरी शैली के खजाने को खूब समृद्ध किया| फर्रुखाबाद निवासी "ललनपिया" का जन्म 1856 में हुआ था| वे भारद्वाज गोत्रीय सारस्वत ब्राह्मण थे और व्यवसाय से कथावाचक थे| उन्होंने अपने ताऊ पण्डित नन्हेंमल जी से संगीत-शिक्षा प्राप्त की थी| ललनपिया ने अनेक ध्रुवपद, धमार, सादरा, तराना, टप्पा, ठुमरी, दादरा, भजन, ग़ज़ल आदि विभिन्न प्रकार के गीतों की रचना की थी और वे इन शैलियों के गायन में भी कुशल थे, परन्तु उन्हें विशेष प्रसिद्धि ठुमरी-गायक और ठुमरी-वाग्गेयकार (रचनाकार) के रूप में मिली| ललनपिया की ठुमरियों में साहित्य और संगीत उच्चकोटि का होता था| ताल और लयकारी पर उनका अद्भुत अधिकार था| प्रायः पखावज और तबला-वादक उनके साथ संगति करने में घबराते थे| ललनपिया चूँकि कथावाचक थे अतः संस्कृत, हिन्दी, अवधी और ब्रजभाषा के अच्छे जानकार थे| उनकी ठुमरियों में ब्रजभाषा की मधुरता और रस-अलंकारों का अनूठा मिश्रण पाया जाता है| उनकी अधिकतर ठुमरियों में कृष्ण-भक्ति और श्रृंगार का अनूठा समन्वय मिलता है|

उन्होंने "ललनसागर" नामक एक वृहद् ग्रन्थ की रचना भी की थी, जिसमें उनकी ठुमरियाँ संग्रहीत हैं| इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण 1926 में और दूसरा 1927 में लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर प्रेस से प्रकाशित हुआ था| ललनपिया के कृतित्व पर कई संगीतकारों, अध्येताओं और शोधार्थियों ने काफी कार्य किया है| लखनऊ के संगीतज्ञ भारतेन्दु वाजपेई ने ललनपिया की चुनिन्दा ठुमरियों का स्वरलिपि सहित संकलन "ललनपिया की ठुमरियाँ" नामक पुस्तक में किया है| इसी प्रकार फर्रुखाबाद के संगीताचार्य ओमप्रकाश मिश्र ने ललनपिया की अनेक दुर्लभ रचनाओं का संग्रह किया है| भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय से कुछ छात्र-छात्राओं ने ललनपिया के कृतित्व पर शोध भी किये हैं|

आइए अब थोड़ी चर्चा आज प्रस्तुत की जाने वाली ठुमरी पर भी कर ली जाए| आज की ठुमरी हमने 1961 की फिल्म "रूप की रानी चोरों का राजा" से ली है| फिल्म में संगीत निर्देशन शंकर-जयकिशन का है| 'राहुल चित्र' के बैनर निर्मित और हरमन सिंह (एच.एस.) रवेल द्वारा निर्देशित इस फिल्म के नायक-नायिका देवानन्द और वहीदा रहमान हैं| ठुमरी -"जाओ ना सताओ रसिया..." नृत्यरत वहीदा रहमान पर फिल्माया गया है| यह ठुमरी राग "बागेश्वरी" और कहरवा ताल में निबद्ध है| राग बागेश्वरी में ठुमरी कम ही मिलती है, लेकिन संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन ने भक्ति रस प्रधान राग से श्रृंगार रस की सार्थक अनुभूति कराई है| यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि यह ठुमरी गीतकार शैलेन्द्र ने एक पारम्परिक ठुमरी से प्रेरित होकर लिखा है| आइए श्रृंगार रस से परिपूर्ण यह ठुमरी आशा भोसले के भावपूर्ण स्वर में सुनते हैं-



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म "रूप की रानी चोरों का राजा" के नायक देवानन्द के लिए शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देशन में एक गीत में महेंद्र कपूर, एक में सुवीर सेन और शेष गीत में तलत महमूद ने पार्श्वगायन किया था|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 12/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - ये एक युगल ठुमरी है.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है रचना - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - किन दो फनकारों की आवाजें हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वैसे तो मुकाबला मुख्यता क्षिति जी और अमित जी में ही है पर प्रतीक जी भी बढ़िया खेल रहे हैं और अविनाश जी भी, बस जरा सी कंसिस्टेंसी चाहिए, क्षिति जी, लगे रहिये बधाई

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

परदेस में जब घर-परिवार और सजनी की याद आई तब उपजा लोक संगीत "बिरहा"



सुर संगम - 27 - लोक गीत शैली -बिरहा

बिरहा गायन के मंचीय रूप में वाद्यों की संगति होती है| प्रमुख रूप से ढोलक, हारमोनियम और करताल की संगति होती है|

शास्त्रीय और लोक संगीत के साप्ताहिक स्तम्भ "सुर संगम" के इस नए अंक में आप सभी संगीत-प्रेमियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र हार्दिक स्वागत करता हूँ| दोस्तों; भारतीय लोक संगीत में अनेक ऐसी शैलियाँ प्रचलित हैं जिनमें नायक से बिछड़ जाने या नायक से लम्बे समय तक दूर होने की स्थिति में विरह-व्यथा से व्याकुल नायिका लोकगीतों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करती है| देश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में नायिका की विरह-व्यथा का प्रकटीकरण करते गीत बहुतेरे हैं, परन्तु विरह-पीड़ित नायक की अभिव्यक्ति देने वाले लोकगीत बहुत कम मिलते हैं| उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में लोक-संगीत की एक ऐसी विधा अत्यन्त लोकप्रिय है, जिसे "बिरहा" नाम से पहचाना जाता है|


चित्र परिचय
बिरहा गुरुओं का यह 1920 का दुर्लभ चित्र है; जिसके मध्य में बैठे हैं, बिरहा को एक प्रदर्शनकारी कला के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले गुरु बिहारी यादव, बाईं ओर है- रम्मन यादव तथा दाहिनी ओर हैं- गुरु पत्तू सरदार (यादव)|


इस लोक-संगीत की उत्पत्ति के सूत्र उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मिलते हैं| ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर महानगरों में मजदूरी करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी थी| ऐसे श्रमिकों को रोजी-रोटी के लिए लम्बी अवधि तक अपने घर-परिवार से दूर रहना पड़ता था| दिन भर के कठोर श्रम के बाद रात्रि में छोटे-छोटे समूह में यह लोग इसी लोक-विधा के गीतों का ऊँचे स्वरों में गायन किया करते थे| लगभग 55 वर्ष पहले वाराणसी के ठठेरी बाज़ार,चौखम्भा आदि व्यावसायिक क्षेत्रों में श्रमिकों को 'बिरहा' गाते हुए मैंने प्रत्यक्ष देखा-सुना है| प्रारम्भ में 'बिरहा' श्रम-मुक्त करने वाले लोकगीत के रूप में ही प्रचलित था| बिरहा गायन के आज दो प्रकार हमें मिलते हैं| पहले प्रकार को "खड़ी बिरहा" कहा जाता है| गायकी के इस प्रकार में वाद्यों की संगति नहीं होती, परन्तु गायक की लय एकदम पक्की होती है| पहले मुख्य गायक तार सप्तक के स्वरों में गीत का मुखड़ा आरम्भ करता है और फिर गायक दल उसमें सम्मिलित हो जाता है| बिरहा गायन का दूसरा रूप मंचीय है, परन्तु उसकी चर्चा से पहले आइए सुनते हैं "खड़ी विरहा" का एक उदाहरण-

खड़ी बिरहा : गायक - मन्नालाल यादव और साथी


कालान्तर में लोक-रंजन-गीत के रूप में इसका विकास हुआ| पर्वों-त्योहारों अथवा मांगलिक अवसरों पर 'बिरहा' गायन की परम्परा रही है| किसी विशेष पर्व पर मन्दिर के परिसरों में 'बिरहा दंगल' का प्रचलन भी है| बिरहा के दंगली स्वरुप में गायकों की दो टोलियाँ होती है और बारी-बारी से बिरहा गीतों का गायन करते हैं| ऐसी प्रस्तुतियों में गायक दल परस्पर सवाल-जवाब और एक दूसरे पर कटाक्ष भी करते हैं| इस प्रकार के गायन में आशुसर्जित लोक-गीतकार को प्रमुख स्थान मिलता है| 'बिरहा' के अखाड़े (गुरु घराना) भी होते है| विभिन्न अखाड़ों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव रहता है| लगभग पाँच दशक पहले एक ऐसे ही अखाड़े के गुरु -पत्तू सरदार को मैं निकट से जानता था| वह बिरहा-गीतों के अनूठे रचनाकार और गायक थे| उनके अखाड़े के सैकड़ों शिष्य थे, जिन्हें समाज में लोक गायक के रूप में भरपूर सम्मान प्राप्त था| गुरु पत्तू सरदार निरक्षर थे| प्रायः वह शाम को अपने घर के छज्जे पर बैठ कर मेरे विद्यालय से लौटने की प्रतीक्षा किया करते थे, मैं उनके गीतों को लिपिबद्ध जो करता था| गुरु पत्तू वेदव्यास की तरह बोलते जाते थे और मैं गणेश की तरह लिखता जाता था| उनके रचे गए अनेक बिरहा-गीत आज भी मेरी स्मृतियों में सुरक्षित हैं| विरहा-गीतों के प्रसंग अधिकतर रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं| कभी-कभी लोकगीतकार सामयिक विषयों पर भी गीत रचते हैं| गुरु पत्तू सरदार ने 1965 के भारत-पाक युद्ध में भारत की विजय-गाथा को इन पंक्तियों में व्यक्त किया था -"चमके लालबहादुर रामनगरिया वाला, अयूब के मुह को काला कर दिया..."| इसी प्रकार टोकियो ओलम्पिक से स्वर्ण पदक जीत कर लौटे भारतीय हाकी दल के स्वागत के लिए भी उन्होंने विरहा गीत की रचना की थी| विगत चार-पाँच दशकों में अनेक बिरहा गायकों ने लोक संगीत की इस विधा को लोकप्रिय करने में अपना योगदान किया| इनमें से दो गायकों- वाराणसी के हीरालाल यादव और इलाहाबाद के राम कैलाश यादव के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं| आइए यहाँ रुक कर राम कैलाश यादव और उनके साथियों द्वारा प्रस्तुत विरहा का आनन्द लेते हैं| इस विरहा गीत में शिव विवाह का अत्यन्त रोचक प्रसंग है|

बिरहा - शिव विवाह भाग - 1 : गायक - राम कैलाश यादव और साथी


बिरहा - शिव विवाह भाग - 2 : गायक - राम कैलाश यादव और साथी


बिरहा गायन के मंचीय रूप में वाद्यों की संगति होती है| प्रमुख रूप से ढोलक, हारमोनियम और करताल की संगति होती है| करताल गुल्ली के आकार में लगभग 8 -9 इंच लम्बे स्टील के दो टुकड़े होते हैं, जिसे गायक अपनी दोनों हथेलियों के बीच रख कर आपस में टकराते हुए बजाते हैं| बिरहा लोकगीत का फिल्मों में प्रायः नहीं के बराबर उपयोग हुआ है| आश्चर्यजनक रूप से 1955 की फिल्म "मुनीमजी" में "बिरहा" का अत्यन्त मौलिक रूप में प्रयोग किया गया है| देवानन्द और नलिनी जयवन्त अभिनीत इस फिल्म के संगीतकार सचिनदेव बर्मन हैं तथा हेमन्त कुमार और साथियों के स्वरों में इस बिरहा का गायन किया गया है| इस बिरहा में भी शिव विवाह का ही प्रसंग है| गीत की अन्तिम पंक्तियों में दो नाम लिये गए है - पहले "बरसाती" और फिर "दुखहरण" | पहला नाम अखाड़े के गुरु का और दूसरा नाम गायक का है| यह गीत बरसाती यादव अखाड़े का है और इसे किसी दुखहरण नामक गायक ने गाया था| आइए सुनते हैं लोकगीत "बिरहा" का यह फ़िल्मी रूप -

बिरहा गीत -"शिवजी बियाहने चले पालकी सजाय के..." : फिल्म - मुनीमजी : गायक - हेमन्त कुमार और साथी


और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: शास्त्रीय गायन की यह शैली पंजाब में उपजी तथा यही शैली बंगाल में जाकर 'पुरातनी' के नाम से प्रसिद्ध हुई|

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी यह क्या? आपने तो हथियार ही डाल दिये!!! खैर, क्षिती जी ने पुनः सटीक उत्तर दे कर ५ और अंक अर्जित कर लिये है, बधाई!

इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के इस अंक को यहीं पर विराम देते हैं| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे हमारे प्रिय सुजॉय चटर्जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

आलेख -कृष्ण मोहन मिश्र
प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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