Saturday, July 10, 2010

सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'मंत्र'



उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'मंत्र'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में रबीन्द्र नाथ ठाकुर की रचना ''पत्नी का पत्र'' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी "मंत्र", जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 10 मिनट 34 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८३१-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

कल सवेरे आना, हम इस वक़्त मरीज़ नहीं देखते।
(प्रेमचंद की "मंत्र" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
VBR MP3

#Twentieth Story, Mantra: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2010/26. Voice: Archana Chaoji

Friday, July 9, 2010

बिन तोड़े पीसे कड़वी सुपारी का स्वाद चखा कुहू, वी डी और ऋषि ने मिलकर



Season 3 of new Music, Song # 13

देखते ही देखते आवाज़ संगीत महोत्सव अपने तीसरे संस्करण में तेरहवें गीत पर आ पहुंचा है, हमारे बहुत से श्रोताओं की शिकायत रही है कि हम कुछ ऐसे गीत नहीं प्रस्तुत करते जो आज कल के फ़िल्मी गीतों को टक्कर दे सकें, तो इसे हमारे संगीतकारों ने एक चुनौती के तौर पर लिया है, और आपने गौर किया होगा कि इस सत्र में हमने बहुत से नए जोनरों पर नए तजुर्बे किये हैं. ऐसी ही एक कोशिश आज हो रही है, एक फ़िल्मी आइटम गीत जैसा कुछ रचने की, पर यहाँ भी हमने अपनी साख नहीं खोयी है. "बाबूजी धीरे चलना" से "बीडी जलाई ले" तक जाने कितने ऐसे आइटम गीत बने हैं जो सरल होते हुए भी कहीं न कहीं गहरी चोट करते है. ये गीत भी कुछ उसी श्रेणी का है. दोस्तों, इश्क मोहब्बत को फ़िल्मी गीतकारों ने दशकों से नयी नयी परिभाषाओं में बाँधा है, हमारे "इन हाउस" गीतकार विश्व दीपक तन्हा ने भी एक नया नाम दिया है इस गीत में मोहब्बत को. ऋषि एस, जो अमूमन अपने मेलोडियस गीतों के लिए जाने जाते हैं एक अलग ही दुनिया रचते हैं इस गीत में, और कुहू अपनी आवाज़ का एक बिलकुल ही नया रंग लेकर उतर जाती है गीत की मस्ती में. यही हमारे इन कलाकारों की सबसे बड़ी खासियत है कि ये हमेशा ही कुछ नया करने की चाह में रहते हैं और दोहराव से बचना चाहते हैं, बिलकुल वैसे ही जैसे पुराने दौर के फनकार होते थे इन मामलों में. तो सुनिए आज का ये ओर्जिनल गीत.

गीत के बोल -

ये कड़वी कड़वी कड़वी……
कड़वी सुपारी….

अब मैं
छिल-छिल मरूँ…
या घट-घट जिऊँ
तिल-तिल मरूँ
या कट-कट जिऊँ

जिद्दी आँखें….
आँके है कम जो इसे,
फाँके बिन तोड़े पिसे,
काहे फिर रोए, रिसे…

कड़वी सुपारी है,
मिरची करारी है…
कड़वी सुपारी है…… हाँ

कड़वी सुपारी है,
चुभती ये आरी है…
कड़वी सुपारी है…… हाँ

तोलूँ क्या? मोलूँ क्या?
क्या खोया …बोलूँ क्या?
घोलूँ क्या? धो लूँ क्या?
ग़म की जड़ी……

होठों के कोठों पे
जूठे इन खोटों पे
हर लम्हा सजती है
हर लम्हा रजती है…

टुकड़ों की गठरी ये
पलकों की पटरी पे
जब से उतारी है
…… नींदें उड़ीं!!

आशिक तो यारों
बला का जुआरी है
तभी तो कभी तो
बने ये भिखारी है……

मानो, न मानो
पर सच तो यही है
मोहब्बत बड़ी हीं
कड़वी सुपारी है…

गीत अब यहाँ उपलब्ध है

कड़वी सुपारी है मुजीबु पर भी, जहाँ श्रोताओं ने इसे खूब सराहा है देखिये यहाँ

मेकिंग ऑफ़ "कड़वी सुपारी" - गीत की टीम द्वारा

ऋषि एस: ये गीत फिर से एक कोशिश है एक नए जौनर पर काम करने की जिस पर मैंने पहले कभी काम नहीं किया, ये तीसरी बार है जब, वी डी, कुहू और मैंने एक साथ काम किया है. मैंने गीत का खाका रचा और इन दोनों ने उसमें सांसें फूंक दी है...बस यही कहूँगा

कुहू गुप्ता:काफी समय से हम लोग कुछ अलग तरह का गाना करना चाह रहे थे और एक दिन ऋषि इस गाने को ले आये जो बॉलीवुड मायने में कुछ कुछ एक आइटम नंबर जैसा था. मुझे उनका ये एक्सपेरिमेंट बहुत पसंद आया और कडवी सुपारी का राज़ खुलने का तरीका भी जो विश्व दीपक ने बखूबी लिखा है. ऋषि का हर गाना सुनने में बड़ा आसान लगता है लेकिन जब गाने बैठो तो तरह तरह की तकलीफें होती हैं :) ख़ासकर इस गाने में मुझे vibratos और volume dynamics एक ही साथ लेनी थी जो मेरे लिए एक चुनौती थी. आशा करती हूँ इस तकनीक को मैं वैसा निभा पायी हूँ जैसा ऋषि ने गाना बनाते वक्त सोचा था. इस तरह का आईटम नंबर गाना और वो भी ओरिजिनल, मेरे लिए एक बहुत ही नया और नायाब अनुभव था और गाना पूरा होने के बाद बहुत संतुष्टि भी हुई.

विश्व दीपक तन्हा:इस गाने के बोल पहले लिखे गए या फिर ट्युन पहले तैयार हुआ.. इसका फैसला आसान नहीं। हर बार की तरह ऋषि जी ने मुझे ट्युन भेज दिया और इस बार पूरे गाने का ट्युन था.. ना कि सिर्फ़ मुखरे का। मैंने दो-चार बार पूरा का पूरा ट्युन सुना .. और शब्दों की खोज में लग गया। कुछ देर बाद न जाने कैसे मेरे दिमाग में "कड़वी सुपारी है" की आमद हुई और फिर मैं भूल हीं गया कि मैं कोई गाना लिखने बैठा था और उस रात गाने के बदले एक कविता की रचना हो गई। अगली रात जब ऋषि जी ने पूछा कि गाना किधर है तो मैंने अपनी मजबूरी बता दी। फिर उन्होंने कहा कि अच्छा कविता हीं दो.. मैं कुछ करता हूँ। और फिर उस रात हम दोनों ने मिलकर आधी पंक्तियाँ कविता से उठाकर ट्युन पर फिट कीं और आधी नई लिखी गईं। और इस तरह मज़ाक-मज़ाक में यह गाना तैयार हो गया :) गाना किससे गवाना है, इसके बारे में कोई दो राय थी हीं नहीं। दर-असल कुहू जी ने हमसे पहले हीं कह रखा था कि उन्हें एक आईटम-साँग करना है। ऋषि जी के ध्यान में यह बात थी और इसी कारण यह गाना शुरू किया गया था। फ़ाईनल प्रोडक्ट आने के बाद जब कुहू जी को सुनाया गया तो उनके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी और रिकार्ड होने के बाद हमारे आश्चर्य की। उम्मीद करता हूँ कि हमारा यह प्रयास सबों को पसंद आएगा। यह गाना एक प्रयोग है, इसलिए इसे पर्याप्त समय दें..
कुहू गुप्ता
पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 6 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं। वैसे ये अपनी संतुष्टि के लिए गाना ही अधिक पसंद करती हैं। इंटरनेट पर नये संगीत में रुचि रखने वाले श्रोताओं के बीच कुहू काफी चर्चित हैं। कुहू ने हिन्द-युग्म ताजातरीन एल्बम 'काव्यनाद' में महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' को गाया है, जो इस एल्बम का सबसे अधिक सराहा गया गीत है। इस संगीत के सत्र में भी यह इनका पांचवा गीत है।

ऋषि एस
ऋषि एस॰ ने हिन्द-युग्म पर इंटरनेट की जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीतों के निर्माण की नींव डाली है। पेशे से इंजीनियर ऋषि ने सजीव सारथी के बोलों (सुबह की ताज़गी) को अक्टूबर 2007 में संगीतबद्ध किया जो हिन्द-युग्म का पहला संगीतबद्ध गीत बना। हिन्द-युग्म के पहले एल्बम 'पहला सुर' में ऋषि के 3 गीत संकलित थे। ऋषि ने हिन्द-युग्म के दूसरे संगीतबद्ध सत्र में भी 5 गीतों में संगीत दिया। हिन्द-युग्म के थीम-गीत को भी संगीतबद्ध करने का श्रेय ऋषि एस॰ को जाता है। इसके अतिरिक्त ऋषि ने भारत-रूस मित्रता गीत 'द्रुजबा' को संगीत किया। मातृ दिवस के उपलक्ष्य में भी एक गीत का निर्माण किया। भारतीय फिल्म संगीत को कुछ नया देने का इरादा रखते हैं।

विश्व दीपक तन्हा
विश्व दीपक हिन्द-युग्म की शुरूआत से ही हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। आई आई टी, खड़गपुर से कम्प्यूटर साइंस में बी॰टेक॰ विश्व दीपक इन दिनों पुणे स्थित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अपनी विशेष कहन शैली के लिए हिन्द-युग्म के कविताप्रेमियों के बीच लोकप्रिय विश्व दीपक आवाज़ का चर्चित स्तम्भ 'महफिल-ए-ग़ज़ल' के स्तम्भकार हैं। विश्व दीपक ने दूसरे संगीतबद्ध सत्र में दो गीतों की रचना की। इसके अलावा दुनिया भर की माँओं के लिए एक गीत को लिखा जो काफी पसंद किया गया।
Song - Kadvi Supari
Voice - Kuhoo Gupta
Backup voice - Rishi S
Music - Rishi S
Lyrics - Vishwa Deepak Tanha
Graphics - samarth garg


Song # 13, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए

Thursday, July 8, 2010

रिमझिम के तराने लेके आई बरसात...सुनिए एस डी दादा का ये गीत, जिसे सुनकर बिन बारिश के भी मन झूम जाता है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 435/2010/135

ज है 'रिमझिम के तराने' शृंखला की पांचवी कड़ी। यानी कि हम पहुँचे हैं इस शृंखला के बीचोंबीच, और आज जो गीत हम लेकर आए हैं, वह भी इन्ही बोलों से शुरु होता है। "रिमझिम के तराने लेके आई बरसात, याद आए किसी से वह पहली मुलाक़ात"। मोहम्मद रफ़ी और गीता दत्त की आवाज़ों में यह है १९५९ फ़िल्म 'काला बाज़ार' का एक बेहद ख़ूबसूरत और मशहूर गीत। इस फ़िल्म का "ना मैं धन चाहूँ, ना रतन चाहूँ" हमने इस स्तंभ में सुनवाया था। 'काला बाज़ार' का निर्माण देव आनंद ने किया था। फ़िल्म की कहानी व निर्देशन विजय आनंद का था। देव आनंद, वहीदा रहमान, नंदा, विजय आनंद, चेतन आनंद, लीला चिटनिस अभिनीत इस फ़िल्म के गीत संगीत का पक्ष भी काफ़ी मज़बूत था। इन दो गीतों के अलावा रफ़ी साहब का गाया "खोया खोया चांद खुला आसमान", "अपनी तो हर आह एक तूफ़ान है", "तेरी धूम हर कहीं"; आशा-मन्ना का गाया "सांझ ढली दिल की लगी थक चली पुकार के"; तथा आशा भोसले का गाया "सच हुए सपने तेरे" गीत आज भी उतने ही प्यार से सुने जाते हैं। और जहाँ तक आज के प्रस्तुत गीत की बात है, बरसात पर बने तमाम गीतों में इस गीत का स्थान बहुत ऊँचा है। और हिट रफ़ी-गीता डुएट्स में भी इस गीत का शुमार होता है। शैलेन्द्र का लिखा और सचिन देव बर्मन का स्वरबद्ध किया यह गीत शायद आपको भी किसी पहली मुलाक़ात की याद दिला दे, क्या पता!

दोस्तों, क्योंकि ज़िक्र बारिश का चल रहा है इन दिनों, तो क्यों ना गीत संगीत के साथ साथ आज कुछ शेर-ओ-शायरी भी हो जाए! इन्हे हमने इंटरनेट से ही समेटा है।

"आज फिर तेरी याद आई बारिश को देख कर,
दिल पर ज़ोर ना रहा अपनी बेक़सी को देख कर,
रोए इस क़दर तेरी याद में,
कि बारिश भी थम गई मेरी अश्कों के बारिश देख कर।"

"गिरती हुई बारिश के बूंदों को अपने हाथों से समेट लो,
जितना पानी तुम समेट पाए, उतना याद तुम हमें करते हो,
जितना पानी तुम समेट ना पाई, उतना याद हम तुम्हे करते हैं।"
"कल शाम की बारिश कितनी पुरनूर रही थी,
जो बूंद बूंद तुम पर बरस रही थी,
मुझे भी मधोश कर देने वाली तुम्हारी,
ख़ुशबू से महका रही थी,
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे
इस धरती पर अम्बर तले सितारों की हदों तक सिर्फ़
दो ही वजूद बस रह गए हैं,
एक मैं और एक तुम।"

और अब शेर-ओ-शायरी को देते हैं विराम और सुनते हैं फ़िल्म 'काला बाज़ार' का यह बड़ा ही प्यारा सा गीत। और इसी के साथ 'रिमझिम के तराने' लघु शृंखला का पहला हिस्सा होता है समाप्त। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में आप से फिर मुलाक़ात होगी रविवार की शाम और हम लेकर आएँगे इसी शृंखला का दूसरा हिस्सा। तब तक के लिए बने रहिए 'आवाज़' के साथ, और हमें दीजिए इजाज़त, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि १० अक्तूबर १९०६ को त्रिपुरा के राजपरिवार में जन्मे सचिन देव बर्मन के पिता नवद्वीप चन्द्र बर्मन स्वयं भी बहुत अच्छे गायक और सितारवादक थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस संगीतकार का कोई भी गीत अभी तक ओल्ड इस गोल्ड में नहीं बज पाया है, पर अगले एपिसोड में इस कमी को हम पूरा करेंगें, संगीतकार बताएं -३ अंक.
२. गीतकार भी खुद संगीतकार ही हैं, गीत के बोल टैगोर की एक कविता से प्रेरित हैं, गीत के आरंभिक बोल बताएं - २ अंक.
३. सुरेश वाडेकर के साथ किस गायिका की आवाज़ है इसमें - २ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
बिलकुल सही जवाब लाये इंदु जी, अवध जी और शरद जी, बधाई, इस सप्ताह के अंत में आपके स्कोर इस तरह हैं - ४८ पर शरद जी, ४२ पर अवध जी और २१ पर इंदु जी, ४ अंक है उज्जवल जी के.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, July 7, 2010

सावन में बरखा सताए....लीजिए एक शिकायत भी सुनिए मेघों की रिमझिम से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 434/2010/134

'रिमझिम के तराने' शृंखला की चौथी कड़ी में आज प्रस्तुत है एक ऐसा गीत जिसमें है जुदाई का रंग। एक तरफ़ अपने प्रेमिका से दूरी खटक रही है, और दूसरी तरफ़ सावन की झड़ियाँ मन में आग लगा रही है, मिलन की प्यास को और भी ज़्यादा बढ़ा रही है। इस भाव पर तो बहुत सारे गानें समय समय पर बने हैं, लेकिन आज हमने जिस गीत को चुना है वह बड़ा ही सुरीला है, उत्कृष्ट है संगीत के लिहाज़ से भी, बोलों के लिहाज़ से भी, और गायकी के लिहाज़ से भी। यह है हेमन्त कुमार का गाया और स्वरबद्ध किया, तथा गीतकार गुलज़ार का लिखा हुआ फ़िल्म 'बीवी और मकान' का गीत "सावन में बरखा सताए, पल पल छिन छिन बरसे, तेरे लिए मन तरसे"। मैं यकीन के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन मैंने कही पढ़ा है कि इस गीत को फ़िल्म में शामिल नहीं किया गया है। अगर यह सच है तो बड़े ही अफ़सोस की बात है कि इतना सुंदर गीत फ़िल्माया नहीं गया। ख़ैर, 'बीवी और मकान' १९६६ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था ऋषी दा, यानी कि ऋषीकेश मुखर्जी ने, तथा फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे बिस्वजीत और कल्पना। फ़िल्म तो असफल रही, लेकिन इसके गानें पसंद किए गए। हेमन्त दा के गाए सावन के इस गीत के अलावा रफ़ी साहब का गाया "जहाँ कहाँ देखा है तुम्हे, जागे जागे अखियों के सपनों में" और मन्ना डे व महमूद का गाया "अनहोनी बात है, बस मुझको मोहब्बत हो गई है" फ़िल्म के दो अन्य लोकप्रिय गीत हैं। आज के प्रस्तुत गीत के बारे में आपको बताना चाहेंगे कि इस गीत का एक बंगला संस्करण भी है लता मंगेशकर की आवाज़ में। गीत के बोल भी बिलकुल वही है जो हिंदी वर्ज़न का है। बंगला गीत के बोल हैं "आषाढ़ श्राबोण माने ना तो मोन, झोड़ो झोड़ो झोड़ो झोड़ो झोड़ेछे, तोमाके आमार मोने पोड़ेछे"।

यह सच बात है कि किसी भी संगीतकार को धुनें बनाते समय फ़िल्म की सिचुएशन को ध्यान में रख कर ही काम करना पड़ता है। लेकिन एक अच्छा संगीतकार व्यावसायिक बंधनों के बावजूद भी अपनी प्रतिभा का छाप छोड़ ही जाता है। फ़िल्म में किसी गीत को भले ही उस अभिनेता के अभिनय या फिर उसकी फ़िल्मांकन की वजह से याद रखा जाता होगा, लेकिन परदे की दुनिया से हट कर किसी गीत को इसलिए भी याद रखा जाता है क्योंकि वह कर्णप्रिय है। मीठी धुन, दिलकश आवाज़ और अर्थपूर्ण बोल उसे यादगार बना देते हैं, बिलकुल आज के इस गीत की तरह। आज के दौर के संगीत को सुन कर ऐसा लगता है जैसे साज़ों का कोई कुंभ लगा हो। गीत मासूम बच्चे की तरह खो सा जाता है इस भीड़ में। हेमन्त दा के संगीत में अनावश्यक साज़ों की भीड़ नहीं है। उनके संगीत में कुछ भी अर्थहीन नहीं लगता। उनके गानें अर्थपूर्ण बोलों और सुरीले धुनों का वह संगम है जिसमें बार बार डुबकी लगाने का मन करता है। गीत वही है जो कानों से होकर सीधे दिल में उतर जाए, पोर पोर को स्पंदित कर दे, मानव मन के गहरे अंधेरे में दबे भावों को जगा दे। फिर चाहे वह रूमानीयत की बात हो तो उतने ही शोख़ी से भर दे, और संजीदगी की बात हो तो उतने ही अंदर तक उतर जाए। वैसे आज के गीत में गुलज़ार साहब ने जुदाई की पीड़ा को उभारा है सावन के फुहारों के बीच। नायक सावन से ही पूछ रहा है कि तू ही बता दे सावन कि कहीं पर तू अगन बुझाता है तो कहीं अगन लगाता है, ऐसा क्यों? चलिए आप इस गीत सुनिए और ख़ुद ही इसके बोलों का आनंद उठाइए।



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार शंकर-जयकिशन के शंकरसिंह रघुवंशी को आमतौर पर लोग हैदराबादी समझते हैं, लेकिन वो मूलत: वहाँ के नहीं हैं। उनके पिता रामसिंह रघुवंशी मध्य प्रदेश के थे और काम के सिलसिले में हैदराबाद जाकर बस गए थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. किस गायिका ने रफ़ी साहब के साथ इस युगल गीत में आवाज़ मिलायी है -३ अंक.
२. इस हिट फिल्म के निर्देशक बताएं, जो एक कामियाब अभिनेता के भाई भी हैं - २ अंक.
३. शैलेन्द्र ने लिखा है ये गीत, संगीतकार बताएं - १ अंक.
४. मुखड़े में शब्द है -"याद", फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह, सब के सब बहुत बढ़िया जवाब लेकर आये हैं इस बार बधाई सभी को

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो.. बशीर और हुसैन बंधुओं ने माँगी बड़ी हीं अनोखी दुआ



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९१

"जगजीत सिंह ने आठ गज़लें गाईं और उनसे एक लाख रुपए मिले, अपने जमाने में गालिब ने कभी एक लाख रुपए देखे भी नहीं होंगे।" - शाइरी की बदलती दुनिया पर बशीर बद्र साहब कुछ इस तरह अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे खुद का मुकाबला ग़ालिब से नहीं करते, लेकिन हाँ इतना तो ज़रूर कहते हैं कि उनकी शायरी भी खासी मक़बूल है। तभी तो उनसे पूछे बिना उनकी शायरी प्रकाशित भी की जा रही है और गाई भी जा रही है। बशीर साहब कहते हैं- "पाकिस्तान में मेरी शाइरी ऊर्दू में छपी है, खूब बिक रही है, वह भी मुझे रायल्टी दिए बिना। वहां किसी प्रकाशक ने कुलयार बशीर बद्र किताब छापी है। जिसे हिंदी में तीन अलग अलग पुस्तक "फूलों की छतरीयां", "सात जमीनें एक सितारा" और "मोहब्बत खुशबू हैं" नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। अभी हरिहरन ने तीस हजार रुपए भेजे हैं, मेरी दो गजलें गाईं हैं। मुझसे पूछे बगैर पहले गा लिया और फिर मेरे हिस्से के पैसे भेज दिए। मेरे साथ तो सभी अच्छे हैं। अल्लामा इकबाल, फैज अहमद फैज, सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी ये सब इंकलाबी शायरी करते थे, लेकिन मैं तो मोहब्बत की शाइरी करता हूं, मोहब्बत की बात करता हूं। आज मेरी शाइरी हिन्दी, ऊर्दू, अंग्रेजी सभी भाषाओं में दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में मिल जाएगी। इंकलाबी शाइरी करने वालों के शेर आज कहां पढ़े जा रहे हैं? कई लोग मेरे शेरों को चुराकर छपवा कर लाखों कमा रहे हैं, जब कहता हूं, तो मुझे भी हिस्सा दे देते हैं।"

शायरी क्या है? शायरी की जुबान क्या है? इस सवाल पर बशीर बद्र कहते हैं - "शायरी की जुबान दिल की जुबान होती है। जज्बात शायरी है। जिंदगी शायरी है। उर्दू और हिंदी का सवाल नहीं। यह तो महज लिखने का तरीका है। जो नीरज हिंदी में लिखते हैं । और जो बशीर उर्दू में रचते हैँ। वहीं शायरी है। वहीं मुक्कमल कविता है। शायरी के लिए उर्दू आनी चाहिए। शायरी के लिए हिंदी की जानकारी चाहिए। शायरी वह है इल्म है जिसके लिए जिंदगी आनी चाहिए। मेरी शाइरी लेटेस्ट संस्कृत भाषा में है। ऊर्दू और हिन्दी दोनों ही संस्कृत भाषा की देन है।"

शायरी की जुबान किस तरह बदलती है या फिर किस तरह उस जुबान का हुलिया बदल जाता है, इस मुद्दे पर बशीर कहते हैं - " एक ज़बान दो तीन शाइर पैदा कर सकती है और उस वक्त तक कोई दूसरा काबिले जिक्र शाइर पैदा नहीं हो सकता जब तक वो ज़बान अपनी दूसरी शख़सियत (personality) में न जाहिर हो। हम देखते हैं कि अंग्रेज़ी जैसी ज़बान में रोमेंटिक पीरियड के बाद आलमगीर सतह की दस लाइनें भी नहीं लिखी जा सकीं और दो-तीन सदियों से इंग्लिश पोएट्री ऑपरेशन टेबल पर पड़ी हुई है। यही हाल फ़ारसी ज़बान का भी था कि वो हाफ़िज़, सादी, बेदिल, उर्फ़ी और नज़ीरी के बाद आज तक नींद से नहीं जागी और मीर और ग़ालिब जो इन फ़ारसी के शाइरों की हमसरी के आरज़ूमंद रहे वह बाज़ारी उर्दू ज़बान के तकदुस, तहारत और मोहब्बत के वसीले से उनसे भी बड़े शाइर हो गए। उसी फ़ारसी तहजीबयाफता उर्दू का सिलसिला फ़ैज़ और मजरूह तक सर बलंद होकर अपनी विरासत उस नई आलसी उर्दू के हवाले करके खुश है कि इसकी तमाजत में सैकड़ों अंग्रेजी और दूसरी मग़रिबी ज़बानों के लफ़्ज़ (words) हिंदुस्तानी आत्मा और तमाज़त में कुछ-कुछ तहलील होकर हमारी ग़ज़ल में नई बशारतों के दरवाजे़ खोल रही है।" बशीर यह भी मानते हैं कि वही शायरी ज्यादा मक़बूल होती है, जो लोगों को आसानी से समझ आए। तभी १८०००० से ज्यादा ग़ज़ल लिख चुके मीर कम जाने जाते हैं बनिस्पत महज़ १५०० शेरों के मालिक "ग़ालिब" से।

बशीर बद्र पर यह बात मुकम्मल तरीके से लागू होती है कि जो शायरी जानता है, समझता है, वह बशीर की इज्जत करता है। जो नहीं जानता वह बशीर को पूजता है। अपने बारे में बशीर खुद कहते हैं -"मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ। ग़जल से मेरा जनम-जनम का साथ है। ग़ज़ल का फ़न मेरा फ़न है। मेरा तजुर्बा ग़ज़ल का तजुर्बा है। मैं कौन हूँ ? मेरी तारीख़ हिन्दुस्तान की तारीख़ के आसपास है।" बशीर कौन हैं? अगर यह सवाल अभी भी आपके मन में घूम रहा है तो हम उनका छोटा-सा परिचय दिए देते हैं-

भोपाल से ताल्लुकात रखने वाले बशीर बद्र का जन्म कानपुर में हुआ था। किस दिन हुआ था, यह ठीक-ठीक बताया नहीं जा सकता क्योंकि कहीं यह दिन ३० अप्रैल १९४५ के रूप में दर्ज है तो कहीं १५ फरवरी १९३६ के। इनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। साहित्य और नाटक आकेदमी में किए गये योगदानो के लिए इन्हें १९९९ में पद्मश्री में सम्मानित किया गया था। अपनी पुस्तक "आस" के लिए उसी साल इन्हें "साहित्य अकादमी पुरस्कार" से भी नवाज़ा गया। आज के मशहूर शायर और गीतकार नुसरत बद्र इनके सुपुत्र हैं।

बशीर के शेर दुनिया के हर कोने में पहुँचे हैं। कई बार तो लोगों को यह नहीं मालूम होता कि यह शेर बशीर बद्र साहब का लिखा हुआ है मगर उसे लोग उद्धत करते पाए जाते हैं। मसलन इसी शेर को देख लीजिए:

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए


सियासी ज़िम्मेदारियों और अजमतों की शख़सियत इंदिरा गांधी ने अपनी एक राज़दार सहेली ऋता शुक्ला, टैगोर शिखर पथ, रांची-4 को अपने दिल का कोई अहसास इसी शे’र के वसीले से वाबस्ता किया था। यही वो शे’र है जो मशहूर फिल्म एक्ट्रेस मीना कुमारी ने (अंग्रेजी रिसाला) स्टार एण्ड स्टाइल (English magazine star & style) में अपने हाथ से उर्दू में लिखकर छपवाया था और हिंदुस्तान के सद्र ज्ञानी ज़ैल सिंह ने अपनी आख़री तकरीर को इसी पर समाप्त किया था। (सौजन्य: आस - बशीर बद्र)

बशीर के और भी ऐसे कई शेर हैं, जो लोगों की जुबान पर हैं। इनमें तजुर्बे से निकली नसीहत भी है, एक आत्मीय संवाद भी। कुछ शेर यहाँ पेश किए दे रहा हूँ:

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों

मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता

बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरया समन्दर से मिला, दरया नहीं रहता

हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
हम जहाँ से जाएँगे, वो रास्ता हो जाएगा

मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो

बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है

सब कुछ खाक हुआ है लेकिन चेहरा क्या नूरानी है
पत्थर नीचे बैठ गया है, ऊपर बहता पानी है

यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे


बशीर के शेरों के बारे में कन्हैयालाल नंदन कहते हैं: ("आज के प्रसिद्ध शायर - बशीर बद्र" पुस्तक से)

किसी भी शेर को लोकप्रिय होने के लिए जिन बातों की ज़रूरत होती है, वे सब इन अशआर में हैं। ज़बान की सहजता, जिन्दगी में रचा-बसा मानी, दिल को छू सकने वाली संवेदना, बन्दिश की चुस्ती, कहन की लयात्मकता—ये कुछ तत्व हैं जो उद्धरणीयता और लोकप्रियता का रसायन माने जाते हैं। बोलचाल की सुगम-सरल भाषा उनके अशआर की लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार है। वे मानते हैं कि ग़ज़ल की भाषा उन्हीं शब्दों से बनती है जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुल-मिल जाते हैं। ‘बशीर बद्र समग्र’ के सम्पादक बसन्त प्रतापसिंह ने इस बात को सिद्धान्त की सतह पर रखकर कहा कि ‘श्रेष्ठ साहित्य की इमारत समाज में अप्रचलित शब्दों की नींव पर खड़ी नहीं की जा सकती। कविता की भाषा शब्दकोषों या पुस्तकों-पत्रिकाओं में दफ़्न न होकर, करोड़ों लोगों की बोलचाल को संगठित करके और उनके साधारण शब्दों को जीवित और स्पंदनशील रगों को स्पर्श करके ही बन पाती है। यही कारण है कि आजकल बोलचाल और साहित्य दोनों में ही संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के क्लिष्ट और बोझिल शब्दों का चलन कम हो रहा है। बशीर बद्र ने ग़ज़ल को पारम्परिक क्लिष्टता और अपरिचित अरबी-फ़ारसी के बोझ से मुक्त करके जनभाषा में जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया है। बशीर बद्र इस ज़बान के जादूगर हैं।’

बशीर के बारे में उनके हमसुखन और समकालीन अदीब "निदा फ़ाज़ली" कहते हैं: "वे जहाँ भी मिलते हैं, अपने नए शेर सुनाते हैं। सुनाने से पहले यही कहते हैं कि भाई, नए शेर हैं, कोई भूल-चूक हो गई हो तो बता दो, इस्लाह कर दो। लेकिन सुनाने का अन्दाज़ ऐसा होता है जैसे कह रहे हों: क्यों झक मारते हो—ग़ज़ल कहना हो तो इस तरह कहा करो। मिज़ाज से रुमानी हैं लेकिन उनके साथ अभी तक किसी इश्क़ की कहानी मंसूब नहीं हुई। जिस उम्र में इश्क के लिए शरीर ज्यादा जाग्रत होता है, वह शौहर बन कर घर-बार के हो जाते हैं। अब जो भी अच्छा लगता है, उसे बहन बना कर रिश्तों की तहज़ीब निभाते हैं।" इस तरह निदा ने उनके रूमानी अंदाज़ पर भी चिकोटी काटी है।

जिन शायर के बारे में अबुल फ़ैज़ सहर ने यहाँ तक कहा है कि "आलमी सतह पर बशीर बद्र से पहले किसी भी ग़ज़ल को यह मक़बूलियत नहीं मिली। मीरो, ग़ालिब के शेर भी मशहूर हैं लेकिन मैं पूरे एतमाद से कह सकता हूँ कि आलमी पैमाने पर बशीर बद्र की ग़ज़लों के अश्आर से ज़्यादा किसी के शेर मशहूर नहीं हैं। वो इस वक़्त दुनिया में ग़ज़ल के सबसे मशहूर शायर हैं।" - उनकी लिखी गज़ल को महफ़िल में पेश करने का सौभाग्य मिलना कोई छोटी बात नहीं। सोने पर सुहागा यह कि आज की गज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया अहमद और मुहम्मद हुसैन यानि कि हुसैन बंधुओं ने। बशीर साहब के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है, इसलिए बाकी बातों को अगली महफ़िल के लिए बचा कर रखते हैं और अभी इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं:

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब है चांदनी
न उठे सितारों की ______, अभी आहटों का गुज़र न हो

कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "तसल्ली" और शेर कुछ यूँ था-

और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर

पिछली महफ़िल की शोभा बनीं सीमा जी। आपने तसल्ली से "तसल्ली" पर शेर कहे, जिन्हें पढकर हमारे दिल को काफ़ी सुकून, काफ़ी तसल्ली मिली। शन्नो जी, आपने हमारी मेहनत का ज़िक्र किया, हमारी हौसला-आफ़जाई की... इसके लिए आपका तहे-दिल से आभार! आपने "घोस्ट राईटर" का मतलब पूछा... तो "घोस्ट" शब्द न सिर्फ़ राईटर के लिए इस्तेमाल होता है, बल्कि "डायरेक्टर", "म्युजिक डायरेक्टर" यहाँ तक कि "प्राईम मिनिस्टर" (मनमोहन जी या सोनिया जी... असल प्राईम मिनिस्टर है कौन? :) ) तक पर लागू होता है। अगर कोई इंसान नाम तो अपना रखे लेकिन उसके लिए काम कोई और करे.. तो दूसरे इंसान को "घोस्ट" कहते हैं यानि कि भूत यानि कि आत्मा... अब समझ गईं ना आप? अनुराग जी, शायद आपकी बात सच हो.. क्योंकि और किसी के मुँह से मैंने जांनिसार और साहिर के बारे में ऐसी बातें नहीं सुनीं। अवनींद्र जी, शरद जी और मंजु जी ने अपनी-अपनी झोली से शेरों के फूल निकालकर उन्हें महफ़िल के नाम किए। महफ़िल में सुमित जी का भी आना हुआ.. लेकिन वही ना-नुकुर वाला स्वभाव.... अब इन्हें कौन समझाए कि अपना शेर ना हो तो किसी और का शेर लाकर हीं महफ़िल के हवाले कर दें। शेर याद होना जरूरी नहीं.. गूगल किस मर्ज़ की दवा है। महफ़िल खत्म होते-होते नीलम जी की आमद हुई और उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में नियम लागू किए जाने का कारण पूछा। अवनींद्र जी और शन्नो जी की कोशिशों के बाद उन्होंने भी नियम स्वीकार कर लिए। अवनींद्र जी और नीलम जी... आप दोनों में से किसी को महफ़िल छोड़ने की जरूरत नहीं। हाँ.. अगर आप लोगों से किसी ने भी ऐसी बात की तो मैं हीं महफ़िल छोड़ दूँगा... ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी... लेकिन मुझे यकीन है कि आप लोग ऐसा होने नहीं देंगे... ऐसी नौबत नहीं आएगी.. है ना?

चलिए अब महफ़िल में पेश किए शेरों पर भी नज़र दौड़ा लते हैं:

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहां और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही (ग़ालिब)

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब (जावेद अख़्तर)

देखा था उसे इक बार बड़ी तसल्ली से
उस से बेहतर कोई दूसरा नहीं देखा (अवनींद्र जी)

आ गया अखबार वाला हादिसे होने के बाद
कुछ तसल्ली दे के वो मेरी कहानी ले गया। (शरद जी)

तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो वक़्त कुछ मेरे मरने का टल जायेगा
क्या ये कम है मसीहा के होने से ही मौत का भी इरादा बदल जायेगा (गुलज़ार)

भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक (नवाज़ देवबंदी)

सारे जमाने का दर्द है जिसके सीने में
वो तसल्ली भी दे किसी को तो कैसे. (शन्नो जी)

मेरे ख्वाबों का जनाजा उनकी गली से गुजरा ,
बेवफा !तसल्ली के दो शब्द भी न बोल सका . (मंजु जी)

तसल्ली नहीं थी ,आंसू भी न थे
किस्मत थी किसकी ,किसकी वफ़ा थी (नीलम जी या कोई और? )

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, July 6, 2010

बरसात में हम से मिले तुम सजन....बरसती फुहारों में मिलन की मस्ती और संगीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 433/2010/133

तो दोस्तों, कहिए आपके शहर में बारिश शुरु हुई कि नहीं! अगर हाँ, तो भई आप बाहर हो रही बारिश को अपनी खिड़की से झांक झांक कर देखिए, उसका मज़ा लीजिए, और साथ ही 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों चल रही शृंखला 'रिमझिम के तराने' का भी आनंद लीजिए। और अगर अभी तक आपके शहर में, आपके गाँव में बरखा रानी की कृपा अभी तक नहीं हो पायी है, तो फिर आप केवल इन गीतों को ही सुन कर ठंडक की अनुभूति कर सकते हैं। ख़ैर, आज इस शृंखला की तीसरी कड़ी में बरसात के साथ हम मिला रहे हैं मिलन का रंग। पहली कड़ी में हमने ज़िक्र किया था कि बरसात के साथ अक्सर जुदाई के दर्द को जोड़ा जाता है। लेकिन आज जिस गीत को हमने चुना है, वह है मिलन की मस्ती का। लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में सन् १९४९ की राज कपूर की दूसरी निर्मित व निर्देशित फ़िल्म 'बरसात' का शीर्षक गीत "बरसात में तुम से मिले हम सजन हम से मिले तुम"। शैलेन्द्र का गीत और शंकर-जयकिशन का संगीत। हालाँकि शंकर जयकिशन ने विविध रागों का इस्तेमाल अपने गीतों में किया है, लेकिन राग भैरवी का इस्तेमाल जैसे उनका एक ऒबसेशन हुआ करता था। अपने पहले ही फ़िल्म से उन्होने इस राग इस्तेमाल शुरु किया। इस राग की खासियत ही यह है कि चाहे ख़ुशी का गीत हो या ग़म का, हर मूड को उभारने के लिए इस राग का इस्तेमाल हो सकता है। अब देखिए ना, इसी फ़िल्म में जहाँ एक तरफ़ इस मस्ती भले ख़ुशमिज़ाज गीत को इस राग पर आधारित किया गया है, वहीं दूसरी ओर दर्द भरा गीत "छोड़ गए बालम मुझे हाए अकेला छोड़ गए" और "मैं ज़िंदगी में हरदम रोता ही रहा हूँ" भी इसी राग पर आधारित है। जयकिशन साहब तो इस क़दर दीवाने थे इस राग के कि उन्होने अपनी बेटी का नाम तक भैरवी रख दिया।

दोस्तों, फ़िल्म 'बरसात' की बातें तो हमने पहले भी की है इस स्तंभ में, और ख़ुद मुकेश के शब्द भी पढ़े हैं जिनमें उन्होने राज कपूर के बारे में कहते हुए इस फ़िल्म के बनने की कहानी बताई थी अमीन सायानी के एक इंटरव्यू में। दोस्तों, बात चल रही थी राग भैरवी की। युं तो शंकर जयकिशन ने इस राग का बेशुमार इस्तेमाल किया है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि इस राग का बहुत ही कम इस्तेमाल बारिश से संबंधित गीतों में हुआ है। इस गीत के अलावा शंकर-जयकिशन के जिस गीत में इस राग की झलक मिलती है वह है फ़िल्म 'सांझ और सवेरा' में मोहम्मद रफ़ी और सुमन कल्याणपुर का गाया हुआ "अजहूँ ना आए बालमा, सावन बीता जाए"। इसके अलावा तो मैं कोई और गीत इस जोड़ी का ढूंढ़ नहीं पाया जो बारिश का भी हो और भैरवी पर भी आधारित हो। सिर्फ़ एस.जे का ही क्यों, किसी और संगीतकार द्वारा स्वरबद्ध ऐसा गीत भी मिलना मुश्किल है। बस बर्मन दादा रचित फ़िल्म 'मेरी सूरत तेरी आँखें" में रफ़ी साहब का गाया हुआ गीत है "नाचे मन मोरा मगन तिक ता धिकि धिकि, बदरा घिर आए, ऋत है भीगी भीगी" जिसका आधार भी भैरवी है। दरअसल हक़ीक़त यह है कि जब भी कभी राग आधारित बारिश के गाने की बात आती है तो संगीतकारों का ध्यान सब से पहले मेघ, मेघ मल्हार, मिया की मल्हार, सुर मल्हार जैसे रागों की तरफ़ ही जाता रहा है। तो लीजिए दोस्तों, आज 'रिमझिम के तराने' को करते हैं भैरवी के नाम और सुनते हैं फ़िल्म 'बरसात' का यह मचलता हुआ नग़मा।



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार शंकर-जयकिशन के शंकरसिंह रघुवंशी को आमतौर पर लोग हैदराबादी समझते हैं, लेकिन वो मूलत: वहाँ के नहीं हैं। उनके पिता रामसिंह रघुवंशी मध्य प्रदेश के थे और काम के सिलसिले में हैदराबाद जाकर बस गए थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. फिल्म के नाम में शब्द है "मकान". गीतकार बताएं -३ अंक.
२. ऋषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म में अभिनेत्री कौन है - २ अंक.
३. संगीतकार और गायक एक ही हैं. नाम बताएं - १ अंक.
४. मुखड़े में शब्द है "बरखा", गीत के बोल बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी ३ अंक, अवध जी, इंदु जी और उज्जवल जी २-२ अंकों के लिए बधाई आप सबको, कम से कम सारे सवालों के उत्तर तो आये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मुंबई है एक बार फिर फिल्म का विषय, और गैंगस्टरों की मारधाड के बीच भी है संगीत में मधुरता



ताज़ा सुर ताल २५/२०१०

सुजॊय - सजीव, बहुत दिनों के बाद आप से इस 'टी.एस.टी' के स्तंभ में मुलाक़ात हो रही है। और बताइए, हाल में आपने कौन कौन सी नई फ़िल्में देखीं और आपके क्या विचार हैं उनके बारे में?

सजीव - सुजॉय मैंने "काईट्स", "रावण" और "राजनीति" देखी. रावण और राजनीति मुझे पैसा वसूल लगी तो काईट्स उबाऊ. रावण बेशक चली नहीं पर जहाँ तक मेरा सवाल है मैं फिल्मों को सिर्फ कहानी के लिए नहीं देखता हूँ, मैं जिस मणि का कायल हूँ निर्देशन के लिए वही मणि "युवा" और "दिल से" के बाद मुझे यहाँ दिखे....जबरदस्त संगीत और छायाकारी है फिल्म की. राजनीति भी रणबीर और कंपनी के शानदार अभिनय के लिए देखी जा सकती है, बस मुझे कर्ण के पास कुंती के जाने वाला एपिसोड निरर्थक लगा, नाना पाटेकर हमेशा की तरह....सोलिड....खैर छोडो ये सब....आज का मेनू बताओ...

सुजॊय - जैसे कि इस साल का सातवाँ महीना शुरु हो गया है, तो ऐसे में अगर हम पिछले ६ महीनों की तरफ़ अपनी नज़र घुमाएँ, तो आपको क्या लगता है कौन कौन से गीत उपरी पायदानों पर चल रहे हैं इस साल? मेरे सीलेक्शन कुछ इस तरह के हैं - सर्वर्श्रेष्ठ गीत - "दिल तो बच्चा है जी" (इश्क़िया), सर्वश्रेष्ठ गायक - के.के ("ज़िंदगी दो पल की" - काइट्स), सर्वश्रेष्ठ गायिका - रेखा भारद्वाज ("कान्हा" - वीर), सर्वश्रेष्ठ गीतकार - गुलज़ार ("दिल तो बच्चा है जी" - इश्क़िया), सर्वश्रेष्ठ संगीतकार - उस्ताद शुजात हुसैन ख़ान (मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेस मेहरा)।

सजीव - अरे वाह सुजॉय, बिलकुल यही सूची मेरी भी है, बस श्रेष्ठ गायिका के लिए मेरा नामांकन रिचा शर्मा के लिए होगा, "फ़रियाद है शिकायत है" गाने के लिए....बहुत ही अच्छा गाया गया है ये.

सुजॊय - सजीव, अभी पिछले ही हफ़्ते मैं विश्व दीपक जी को बता रहा था कि आजकल समानांतर सिनेमा और व्यावसायिक सिनेमा के बीच की दूरी बहुत कम सी हो गई है। आजकल पारम्परिक फ़ॊरमुला फ़िल्में बहुत कम ही बन रही है और फ़िल्मकार नए नए और विविध विषयों पर फ़िल्में बना रहे हैं।

सजीव - बिलकुल सही बात है, पश्चिमी सिनेमा की तरह हमारे देश में भी अब फ़ॊरमुला से हट के फ़िल्में आ रही हैं, जिसके लिए इस पीढ़ी के फ़िल्म निर्माताओं को दाद देनी ही पड़ेगी। तो बताओ कि आज हम किस फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं?

सुजॊय - आज हम लेकर आए हैं फ़िल्म 'वन्स अपॊन अ टाइम इन मुंबई' के गीतों को। जैसा कि सुनने में आया है कि यह फ़िल्म रजत अरोड़ा की लिखी कहानी है जो ७० के दशक की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसलिए ज़ाहिर है कि इस फ़िल्म का संगीत भी उसी दौर के मुताबिक़ होनी चाहिए।

सजीव - संगीतकार प्रीतम को इस फ़िल्म के संगीत का ज़िम्मा सौंपा गया था और अब देखना यह है कि उन्होने कितना न्याय किया है फ़िल्म की ज़रूरत के हिसाब से। बातचीत आगे बढ़ाने से पहले सुन लेते हैं फ़िल्म का पहला गीत मोहित चौहान की आवाज़ में। गीत लिखा है इरशाद कामिल ने।

गीत:पी लूँ होठों की सरगम


सुजॊय - यह गीत आजकल ख़ूब बज रहा है एफ़.एम चैनल्स पर। और सुनते सुनते गीत जैसे ज़हन में चढ़ सा गया है इन दिनों। मोहित की आवाज़ में यह रोमांटिक गीत सुनने में अच्छा लगता है। कोरस का इस्तेमाल सूफ़ी और क़व्वाली के अंदाज़ में किया गया है। प्रीतम धीरे धीरे ऐसे संगीतकार बनते जा रहे हैं जिनके गीतों से कुछ ना कुछ उम्मीदें हम ज़रूर रख सकते हैं, और वो निराश नहीं करते। उनके गीतों की लोकप्रियता का मुझे सब से बड़ा कारण यह लगता है कि वो अपनी धुनों में मेलोडी भी बरक़रार रखते हैं और आज की पीढ़ी को पसंद आने वाली मॊडर्ण अंदाज़ भी मिलाते हैं।

सजीव - और दूसरा गीत भी क़व्वाली शैली का ही है जिसे राहत फ़तेह अली ख़ान, तुल्सी कुमार और साथियों ने गाया है। गीत इरशाद कामिल का ही है। इसमें भी वही रूमानीयत भरा अंदाज़, जो पहले गीत के मुक़ाबले और परवान चढ़ती है।

सुजॊय - इस गीत को सुनने से पहले हम बता दें कि 'वन्स अपॊन अ टाइम इन मुंबई' एकता कपूर - शोभा कपूर की फ़िल्म है जिसे निर्देशित किया है मिलन लुथरिया ने। फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं अजय देवगन, ईमरान हाशमी, कंगना रनौत, प्राची देसाई, और रणदीप हूडा। क्योंकि यह फ़िल्म दो पीढ़ी के दो गैंगस्टर की कहानी है, इसमें अजय का नाम है हाजी मस्तान, और ईमरान हाशमी का नाम है दावूद इब्राहिम। और अब सुनिए यह गीत।

गीत: तुम जो आए


सजीव - इस रोमांटिक समा को और भी ज़्यादा पुख़्ता बनाता हुआ अब आ रहा है फ़िल्म का तीसरा गीत "आइ एम इन लव" कार्तिक की आवाज़ में। यह वही कार्तिक हैं जिनकी आवाज़ का इस्तेमाल ए. आर. रहमान भी कर चुके हैं। ख़ैर, इस गीत को लिखा है नीलेश मिश्रा ने। सुना है इस गीत के दो और वर्ज़न हैं, एक के.के. की आवाज़ में और दूसरा एक डान्स वर्ज़न है।

सुजॊय - कार्तिक की आवाज़ में प्लेबैक वाली बात है, अच्छी आवाज़ है लेकिन पता नहीं क्यों उनके गानें ज़्यादा नहीं आते। अगर उनका ट्रैक रिकार्ड देखा जाए तो उन्होने कई हिट गीत गाए हैं जैसे कि फ़िल्म 'गजनी' का "बहका मैं बहका", फ़िल्म 'युवराज' का "शन्नो शन्नो", '१३-बी' का "बड़े से शहर में", 'दिल्ली-६' का "हे काला बंदर" और अभी हाल ही में फ़िल्म 'रावण' में उनका गाया "बहने दे मुझे बहने दे" ख़ूब पसंद किया जा रहा है।

सजीव - दरअसल कार्तिक दक्षिण में आज के दौर अग्रणी गायकों में से एक हैं। भले ही उनके हिंदी गानें ज़्यादा नहीं आए हैं, लेकिन दक्षिण में उनके गानें बेशुमार आ रहे हैं। तो चलो फिर कार्तिक की आवाज़ में यह गीत सुन लेते हैं।

गीत: आइ एम इन लव


सुजॊय - वाह! अच्छी मेलोडी थी इस गाने में। शुरुआती संगीत में पियानो जैसे नोट्स एक मूड बना देता है, और उसके बाद कार्तिक की सूदिंग् आवाज़ में ये नर्मोनाज़ुक बोल, क्या बात है! फिर से वही बात दोहराउँगा कि प्रीतम मेलोडी को बरकरार रखते हुए जो आज की यूथ अपील डालते हैम अपने गानों में, वही बात उनके गीतों को मक़बूल कर देती है। वैसे सजीव, इस गीत को सुनते हुए मुझे के.के. की आवाज़ की भी याद आ रही थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे यह के.के टाइप का गीत है।

सजीव - शायद तभी के.के. की आवाज़ में भी यह गीत साउंड ट्रैक में रखा गया है। इस वर्ज़न को हम आज यहाँ तो नहीं सुनेंगे लेकिन उम्मीद है के.के ने भी बढ़िया ही निभाया होगा इस गीत को। चलो अब आगे बढ़ते हैं और एक बिलकुल ही अलग अंदाज़ का गीत सुनते हैं। यह दरअसल एक रीमिक्स नंबर है। ७० के दशक के दो ज़रबरदस्त राहुल देब बर्मन हिट्स "दुनिया में लोगों को" और "मोनिका ओ माइ डारलिंग" को मिलाकर इस गीत का आधार तैयार किया गया है और उसमें नए बोल डाले गए हैं "परदा परदा अपनों से कैसा परदा"।

गीत: परदा परदा


सुजॊय - हम्म्म्म.... वैसे कोई नई चीज़ तो नहीं, लेकिन एक तरह से ट्रिब्यूट सॊंग् माना जा सकता है उस पूरे दशक के नाम। सुनिधि चौहान इस तरह के गीतों को तो ख़ूब अंजाम देती है ही है, लेकिन आर. डी. बर्मन जैसी आवाज़ निकालने वाले गायक राना मजुमदार को भी दाद देनी ही पड़ेगी। सुनिधि गीत में "वो आ गया, देखो वो आ गया" जिस तरह से गाती हैं, हमें यकायक आशा जी वाली अंदाज़ याद आ जाती है।

सजीव - और अब अंतिम गीत अमिताभ भट्टाचार्य की कलम से। मिका की आवाज़ में है यह गीत "बाबूराव मस्त है", जो बाबू राव की शख़सीयत बताता है। शरारती अंदाज़ में लिखा हुआ यह एक तरह से हास्य गीत है।

सुजॊय - इस गीत को ध्यान से सुनिएगा क्योंकि इस गीत की ख़ासीयत ही है इसके बोल। मामला मस्त है!!!!

गीत: बाबूराव


"वंस अपोन अ टाइम इन मुंबई" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***१/२

सुजॊय - हाँ तो क्या ख़याल है सजीव? शुरु में हमने कहा था कि फ़िल्म ७० के दशक की कहानी है। तो क्या संगीत में उसकी छाप नज़र आई? भई, मेरा ख़याल तो यही है कि गानें अच्छे हैं लेकिन ७० के दशक का स्टाइल तो सिवाय "परदा परदा" के किसी और गीत में नज़र नहीं आया। "पी लूँ" और "आइ एम इन लव" मेरे पसंदीदा गानें हैं इस फ़िल्म के। और मेरी तरफ़ से इस ऐल्बम को ३.५ की रेटिंग्।

सजीव - सहमत हूँ आपसे एक बार फिर, बढ़िया गाने हैं....पी लूं अपने फिल्मांकन के लिए चर्चित होगा, और भीगे होंठ तेरे जैसा एक हिट गीत साबित होगा आने वाले दिनों में. पर्दा भी सुनने में कम और देखने में ज्यादा अच्छा होगा ऐसी उम्मीद है, "आई ऍम इन लव" और "तुम आये" मुझे बेहद अच्छे लगे...बाबु राव भी मस्त है :)

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ७३- गायक कार्तिक ने सन् २००२ में आशा भोसले के साथ एक गीत गाया था। बताइए फ़िल्म का नाम और गीत के बोल।

TST ट्रिविया # ७४- 'वन्स अपॊन अ टाइम इन मुंबई', 'ये दिल आशिक़ाना' तथा 'धड़कन' फ़िल्मों में एक गीत ऐसा है जिनमें कम से कम एक समानता है। बताइए क्या समानता है।

TST ट्रिविया # ७५- ईमरान हाशमी अभिनीत वह कौन सी फ़िल्म है जिसमें के.के की आवाज़ में एक बेहद मक़बूल गीत आया था जिसके एक अंतरे में पंक्ति है "कैसे कटे ज़िंदगी मायूसियाँ बेबसी"।


TST ट्रिविया में अब तक -
कमाल है, क्या सवाल बहुत मुश्किल हैं, या फिर हमारे श्रोताओं ने नए संगीत को सुनना छोड़ दिया है....सीमा जी आपकी कमी खल रही है

Monday, July 5, 2010

डर लागे गरजे बदरिया ---- भरत व्यास को उनकी पुण्यतिथि पर याद किया आवाज़ परिवार ने कुछ इस तरह



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 432/2010/132

मस्कार दोस्तों। आज ५ जुलाई, गीतकार भरत व्यास जी का स्मृति दिवस है। भरत व्यास जी ने अपने करीयर में केवल अच्छे गानें ही लिखे हैं। विशुद्ध हिंदी भाषा का फ़िल्मी गीतों में उन्होने व्यापक रूप से इस्तेमाल किया और अच्छे गीतों के कद्रदानों के दिलों में जगह बनाई। आज जब कि हम इस 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बरसात के गीतों पर आधारित शृंखला 'रिमझिम के तराने' प्रस्तुत कर रहे हैं, ऐसे में यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि आज के दिन हम व्यास की लिखी हुई कोई ऐसी रचना सुनवाएँ जो सावन से जुड़ी हो, बारिश से जुड़ी हो। इसी उद्देश्य से हमने खोज बीन शुरु की और ऐसे गीतों की याद हमें आने लगी जिनमें भरत व्यास जी ने बारिश का उल्लेख किया हो। तीन गीतों का उल्लेख करते हैं, एक "ऐ बादलों, रिमझिम के रंग लिए कहाँ चले" (चाँद), दूसरा, "डर लागे, गरजे बदरिया, सावन की रुत कजरारे कारी" (राम राज्य), और तीसरा गीत फ़िल्म गज गौरी का है "आज गरज घन उठी"। ये और इन जैसे बहुत से और भी गीत हैं जिनमें भरत व्यास ने सावन के, बादलों के, रिमझिम बरसते फुहारों का रंग भरा है अपने कलम के ज़रिए। इन तमाम गीतों में से यह तय करना वाकई मुश्किल हो जाता है कि कौन सा गीत किससे बेहतर है। चलिए फिर भी हमने अपनी पसंद का एक गीत चुन लिया है आज की महफ़िल को रोशन करने के लिए, और यह गीत है फ़िल्म 'राम राज्य' का। लता मंगेशकर की आवाज़, वसंत देसाई की तर्ज़, और आपको यह भी बता दें कि यह वह पूरानी वाली 'राम राज्य' नहीं है जिसे महात्मा गांधी जी ने देखा था, बल्कि यह तो सन् १९६७ में बनी हुई फ़िल्म है

दोस्तों, अभी हाल में 'लिस्नर्स बुलेटिन' पत्रिका में एक खबर छपी थी 'गीतकार भरत व्यास के गीतों का संकलन' शीर्षक से, वही खबर यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। "सन् १९४३ में फ़िल्म 'दुहाई' के लिए "अब होवेगा ब्याह तुम्हारा" गीत लिख कर एक गीतकार के रूप में फ़िल्म जगत में प्रवेश करने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी स्व. भरत व्यास (जन्म: ६ जनवरी १९१८, निधन: ५ जुलाई १९८२) द्वारा हिंदी, राजस्थानी, आदि लगभग २०० फ़िल्मों के लिए लिखे गीतों की विस्तृत जानकारी एकत्र करने का कार्य दिल्ली निवासी संजीव तंवर पिछले कई वर्षों से कर रहे हैं जिसे निकट भविष्य में प्रकाशित किए जाने की योजना भी है। यदि पाठकों के पास स्व: भरत व्यास लिखित ग़ैर फ़िल्मी गीतों की जानकारी उपलब्ध है या उनसे सम्बंधित कोई दुर्लभ जानकारी, लेख, फ़ोटो, इत्यादि है तो उनसे निवेदन है कि इस बारे में उन्हें इस पते पर सूचित करें - संजीव तंवर, डब्ल्यू-ज़ेड-७९, नारायणा, नई दिल्ली - ११००२८; ई-मेल: sanjeevtanwar999@yahoo.com." और अब आते है आज के गाने पर। "डर लागे..." जितना भरत व्यास के सुंदर बोलों से निखरा है, उतना ही आकर्षक है इसकी धुन। शास्त्रीय संगीत में ढले हुए इस गीत में संगीतकार वसंत देसाई ने अपनी प्रतिभा और साधना के जौहर दिखाए हैं। यह गीत आधारित है राग सुरमल्हार पर। एक तरफ़ शास्त्रीय संगीत की मधुरता, तो दूसरी तरफ़ भव्य संगीत संयोजन। और लता जी के गले की बारिकियों के तो क्या कहने। एक एक मुरकी इतने साफ़, एक एक हरकत इतने परफ़ेक्ट कि ऐसा लगता है कि जैसे कोई शास्त्रीय गायिका गा रही हों। फ़िल्म 'सीमा' के "मनमोहना बड़े झूठे" में तो उन्होने कमाल ही कर दिया था। तो चलिए, भरत व्यास, वसंत देसाई और लता मंगेशकर की त्रिवेणी संगम से निकली हुई इस मधुर सुर धारा में नहा कर हम भी तृप्त होते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि गीतकार भरत व्यास ने कलकत्ता से बी.कॊम की डिग्री प्राप्त की थी और उसके बाद बम्बई आकर निर्माता-निर्देशक बी. एम. व्यास की फ़िल्मों के लिए लेखन कार्य करने लगे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस संगीतकार ने अपनी बेटी का नाम इस राग पर रखा है जिसमें ये गीत है, किस राग की बात कर रहे हैं हम -३ अंक.
२. ये संगीतकार इस संगीतकार जोड़ी के हिस्सा हैं जिन्होंने राज कपूर की इस फिल्म में संगीत दिया है, नाम बताएं - २ अंक.
३. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
४. ये लगभग इस गीतकार का लिखा पहला गीत था, कौन हैं ये महान गीतकार - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
देखिये ओल्ड इस गोल्ड का असर, रिमझिम के तराने गूंजते ही पूरे भारत में वर्षा की झमाझम शुरू हो गयी, भाई हमें भी तो बधाई दीजिए, मौसम विभागों के कयासों से हमारे प्रयास ज्यादा कारगर हुए हैं, शरद जी और अवध जी दोनों ने ३-३ अंक कमाए हैं, पर आश्चर्य इंदु जी १ अंक वाले सवाल का जवाब दिया...लगता है बहुत व्यस्त हैं इन दिनों...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, July 4, 2010

ओ वर्षा के पहले बादल...सावन की पहली दस्तक को आवाज़ सलाम इस सुमधुर गीत के माध्यम से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 431/2010/131

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहने वालों का एक बार फिर से हार्दिक स्वागत है इस स्तंभ में। अगर आप हम से आज जुड़ रहे हैं, तो आपको बता दें कि आप इस वक़्त शामिल हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ है 'हिंद-युग्म' के साज़-ओ-आवाज़ विभाग, यानी कि 'आवाज़' का एक हिस्सा। हर हफ़्ते रविवार से लेकर गुरुवार तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल सजती है और हर अंक में हम आपको सुनवाते हैं हिंदी सिनेमा के गुज़रे ज़माने का एक अनमोल नग़मा। कभी ये नग़में कालजयी होते हैं तो कभी भूले बिसरे, कभी सुपर हिट तो कभी कमचर्चित। लेकिन हर एक नग़मा बेमिसाल, हर एक गीत नायाब। तभी तो इस स्तंभ को हम कहते हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड'। तो उन सभी भाइयों और बहनों का, जो हम से आज जुड़ रहे हैं, हम एक बार फिर से इस महफ़िल में हार्दिक स्वागत करते हैं। दोस्तों, भारत में इस साल के मानसून का आगमन हो चुका है। देश के कई हिस्सों में बरखा रानी छम छम बरस रही हैं इन दिनों, तो कई प्रांत ऐसे भी हैं जो अभी भी भीषण गरमी से जूझ रहे हैं। उनके लिए तो हम यही कामना करते हैं कि आपके वहाँ भी जल्द से जल्द फुहारें आरंभ हो। दोस्तों, बारिश के ये दिन, सावन का यह महीना, रिमझिम की ये फुहारें, काले बादलों की गर्जन करती हुई फ़ौज, नई कोंपलें, चारों तरफ़ हरियाली ही हरियाली, किसे नहीं अच्छा लगता होगा। प्रकृति के इस अनुपम वातावरण का मानव हृदय पर असर होना लाजमी है। तभी तो सावन की ॠतु पर असंख्य कविताएँ और गीत लिखे जा चुके हैं और अब भी लिखे जाते हैं। सावन को मिलन का मौसम भी कहा जाता है। जो प्रेमी अपनी प्रेमिका से इस समय दूर होते हैं, उनके लिए यह मौसम बड़ा कष्ट दायक बन जाता है। तभी तो जुदाई के दर्द को और भी ज़्यादा पुर असर तरीके से चित्रित करने के लिए हमारे फ़िल्मकार बरसात का सहारा लेते हैं। "सावन के झूले पड़े तुम चले आओ", "अब के सजन सावन में, आग लगेगी बदन में", "सावन आया बादल छाए, आने वाले सब आए हैं बोलो तुम कब आओगे", और भी न जाने कितने ऐसे गीत हैं जिनमें सावन के साथ जुदाई के दर्द को मिलाया गया है। ख़ैर, यह तो एक पहलु था। सावन और बरसात का आज हमने इसलिए ज़िक्र छेड़ा क्योंकि आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम शुरु कर रहे हैं इसी सुहाने मौसम को समर्पित हमारी नई लघु शृंखला 'रिमझिम के तराने'। यानी कि इस भीगे भीगे मौसम को और भी ज़्यादा रोमांटिक, और भी ज़्यादा सुहावना बनाने के लिए अगले दस कड़ियों में सुनिए बारिश के नग़में, कभी टिप टिप, कभी रिमझिम, तो कभी टापुर टुपुर के ताल पर सवार हो कर।

इस शृंखला की शुरुआत किसी ऐसे गीत से होनी चाहिए जो हमारे इतिहास से जुड़ा हुआ हो, हमारी प्राचीन संस्कृति से जुड़ी हुई हो। तो फिर ऐसे में कालीदास रचित 'मेघदूत' से बेहतर शुरुआत और क्या हो सकती है भला! 'मेघदूत' कालीदास की सुविख्यात काव्य कृति है। यह एक लिरिकल पोएम है जिसका ना केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्व है, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी बेहद महत्व रखता है। इसमें मानसून का वर्णन मिलता है और मध्य भारत में मानसून के गति पथ और दिशाओं का भी उल्लेख मिलता है जो आज के वैज्ञानिकों के शोध कार्य के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। कालीदास के अन्य महत्वपूर्ण कृतियों में शामिल हैं 'शकुंतला', 'विक्रम-उर्वषी', 'कुमारसंभवा', 'रघुवंशम' आदि। इन सभी पर फ़िल्में बन चुकी हैं। 'मेघदूत' पर सन् १९४५ में देबकी बोस ने इसी शीर्षक से फ़िल्म निर्देशित की जिसका निर्माण कीर्ति पिक्चर्स के बैनर तले हुआ था। ऐतिहासिक व काव्यिक होने की वजह से इस फ़िल्म के संगीतकार के रूप में किसी विशिष्ट संगीतकार को ही चुनना ज़रूरी था। ऐसे में कमल दासगुप्ता को चुना गया जो उन दिनों ग़ैर फ़िल्मी गीतों को मनमोहक धुनों में प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते थे। गायक जगमोहन ने भी इस फ़िल्म के गीतों में महत्वपूर्ण योगदान दिया, ख़ास कर आज का प्रस्तुत गीत "ओ वर्षा के पहले बादल, मेरा संदेसा ले जा वहाँ"। जगमोहन उन गिने चुने कलाकारों में से थे जिन्होने रबीन्द्र संगीत शैली को फ़िल्म संगीत में लाने की कोशिश की। ६ सितंबर १९१८ को जनमे जगन्मय मित्र (जगमोहन) कलकत्ते के एक ज़मीनदार परिवार से तालुख़ रखते थे। उन्होने शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत की तालीम पॊण्डिचेरी के दिलीप कुमार राय से प्राप्त की। मैट्रिक की परीक्षा के बाद वो रेडियो पर गाने लगे। हालाँकि उन्होने हिंदी फ़िल्मों के लिए ज़्यादा नहीं गाए, उनके ग़ैर फ़िल्मी रचनाएँ बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे उस ज़माने में। और उनका गाया सब से लोकप्रिय ग़ैर फ़िल्मी गीत है "यह ना बता सकूँगा मैं तुमसे है मुझे प्यार क्यों"। जगमोहन की तरह कमल दासगुप्ता भी हिंदी फ़िल्मों में कम ही नज़र आए। उपलब्ध जानकारी के अनुसार कमल बाबू ने हिंदी की जिन १६ फ़िल्मों में संगीत दिया था उनके नाम हैं - जवाब ('४२), हास्पिटल ('४३), रानी ('४३), मेघदूत ('४५), अरेबियन नाइट्स ('४६), बिंदिया ('४६), कृष्ण लीला ('४६), पहचान ('४६), ज़मीन आसमान ('४६), फ़ैसला ('४७ - अनुपम घटक के साथ), गिरिबाला ('४७), मनमानी ('४७), चन्द्रशेखर ('४८), विजय-यात्रा ('४८), ईरान की एक रात ('४९), फुलवारी ('५१)। और आइए दोस्तों, अब इस साल के मानसून का स्वागत-सत्कार किया जाए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जगमोहन के गाए फ़िल्म 'मेघदूत' के इस गाने से। गीत लिखा है फ़ैय्याज़ हाशमी ने। जी हाँ, वोही फ़य्याज़ हशमी जिन्होने कमल दासगुप्ता के लिए तलत महमूद का पहला पहला मशहूर गीत "तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला ना सकेगी" लिखा था। इस गीत को हम कभी आपको संभव हुआ तो ज़रूर सुनवाएँगे, फ़िल्हाल सुनते हैं फ़िल्म 'मेघदूत' का गीत, जिसकी अवधि है कुल ६ मिनट और ६ सेकण्ड्स, जो कि उस ज़माने के हिसाब से बहुत ही लम्बा था।



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार कमल दासगुप्ता धुन बनाते समय हारमोनियम या पियानो के बजाय कलम लेकर बैठते थे। जैसे जैसे उनके दिमाग में सुर आकार लेते थे, वे सीधे उसके नोटेशन्स कापी में लिखते जाते थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. कल इस गीतकार की पुण्यतिथि है, नाम बताएं -३ अंक.
२. इस गीतकार संगीतकार जोड़ी ने एक से बढ़कर एक नगमें दिए हैं हमें, संगीतकार बताएं - २ अंक.
३. लता के गाये सावन के इस गीत को हमने किस फिल्म से लिया है - १ अंक.
४. १९६७ में आई थी ये फिल्म, किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
क्या बात है कोई शरद जी और अवध जी को टक्कर देने मैदान में नहीं उतर रहा, अरे भाई मैदान छोड़ के भागिए मत, चार सवाल हैं...कोशिश कीजिये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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