Saturday, August 13, 2011

रेडियो और रेशम की डोरी



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 54

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नम्स्कार! आज रक्षाबंधन है। भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को मनाता यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ लेकर आये, यह हमारी शुभकामना है। आप सभी को इस पावन पर्व रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज के इस शनिवार विशेषांक में मैं अपने ही जीवन के का अनुभव आप सभी के साथ बाँटने जा रहा हूँ जो शायद आज के दिन के लिए बहुत सटीक है।

किसी नें ठीक ही कहा है कि कुछ रिश्तों को नाम नहीं दिया जा सकता। ये रिश्ते न तो ख़ून के रिश्ते हैं, न ही दोस्ती के, और न ही प्रेम-संबंध के। ये रिश्ते बस यूं ही बन जाया करते हैं। मेरा भी एक ऐसा ही रिश्ता बना है रेडियो की तीन उद्‍घोषिकाओं के साथ, जिनकी आवाज़ें मैं करीब २७-२८ सालों से सुनता चला आ रहा हूँ, पर जिनसे मिलने का मौका अभी पिछले वर्ष ही हुआ। इस रिश्ते की शुरुआत शायद तब हुई जब मैं बस चार साल का था। मेरी माँ स्कूल टीचर हुआ करती थीं जिस वजह से मैं और मेरा बड़ा भाई दोपहर को घर पर अकेले ही होते थे। ८० के दशक के उन शुरुआती सालों में मनोरंजन का एकमात्र ज़रिया रेडियो ही हुआ करता था। हम लोग गुवाहाटी में रहते थे जहाँ के स्थानीय रेडियो स्टेशन से दोपहर के समय १२:३० से २:१० बजे तक 'सैनिक भाइयों का कार्यक्रम' प्रसारित होता था (औत अब भी होता है)। इसके अन्तर्गत फ़िल्मी गीतों पर आधारित अलग अलग तरह के कार्यक्रम पेश होते थे, और इन्हें पेश करने वाली होती थीं तीन महिलाएँ जो अपना नाम अपने सैनिक भाइयों को रेखा बहन, सीमा बहन और मीता बहन बताया करतीं। इस कार्यक्रम को निरन्तर सुनते हुए उनकी आवाज़ें इतनी जानी-पहचानी से बनती चली गईं कि वो आवाज़ें कब मेरे जीवन का हिस्सा बन गईं पता ही नहीं चला। व्यक्तिगत रूप से उन्हें न मिलने के बावजूद ऐसा लगता कि जैसे उनको मैं पहचानता हूँ। जिस दिन उनमें से एक छुट्टी पर होतीं तो दिल जैसे थोड़ा उदास हो जाता। और इस तरह से उन्हें सुनते रहने का सिलसिला जारी रहा, दिन, महीने, साल गुज़रते चले गए। रविवार को और किसी भी छुट्टी के दिन दोपहर के वक़्त रेडियो सुनना नहीं भूलते।

फिर एक दिन शुरु हुआ पत्र लिखने का सिलसिला। हिम्मत जुटा कर मैंने उस कार्यक्रम में पत्र लिखा, कार्यक्रमों के लिए सुझाव दिए, कुछ चीज़ों की आलोचना भी की। पर मेरा पत्र कभी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया गया। कारण एक ही था, मैं सनिक नहीं था और वह केवल सैनिक भाइयों का कार्यक्रम था। मुझे अफ़सोस तो हुआ पर ज़्यादा बुरा नहीं लगा। पर मन ही मन तरसता रहा कि काश कभी उनके मुख से मेरा नाम सुनने को मिल जाता रेडियो पर। पर वह दिन कभी नहीं आया। फिर टेलीविज़न भी आ गया, पर रेडियो मेरी ज़िंदगी में अपनी जगह पर कायम रहा, और रेखा-सीमा-मीता बहनों की आवाज़ें भी। फिर मैं स्कूल और कॉलेज की दहलीज़ पार कर एक दिन इंजिनीयर बन गया। पत्र लिखने का सिलसिला भी वैसा चलता रहा, और जवाब न पाने का सिलसिला भी। लेकिन एक शाम ऐसी आई जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। एक दिन मेरे घर के फ़ोन पर कॉल आई। लाइन के दूसरी तरफ़ महिला बिना अपना नाम बताए मुझे इंजिनीयरिंग् में प्रथम आने की बधाई देने लगीं। धन्यवाद देते हुए फिर जब मैंने उनसे उनका नाम पूछा तो बोलीं, "मैं सीमा बहन बोल रही हूँ"। एक पल के लिए तो जैसे मेरी सांस रुक गई। समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोलूँ। दरअसल प्रथम आने पर मेरा नाम और जगह का नाम अखबार में छपा था। और क्योंकि मैं अपने पत्रों में अपना फ़ोन नंबर लिख दिया करता था, वहीं से उनको मेरे बारे में पता चल गया। मैं तो यही समझता था कि वो लोग शायद ही मेरे पत्रों को पढ़ती होंगी, पर सीमा बहन नें मुझे फ़ोन पर बताया कि वो लोग मेरे हर पत्र को बड़े ध्यान से पढ़ते थे और अफ़सोस भी करते थे कि चाहते हुए भी मेरे पत्र कार्यक्रम में वो शामिल नहीं कर सकते। फ़ोन पर ये सब बातें सुन कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। ऐसा लगा कि जैसे पिछले १८ वर्ष की मेरी साधना का फल मुझे मिल गया हो।

उस दिन के बाद मैंने कई बार सोचा कि रेडियो स्टेशन जाकर तीनों बहनों से मिलूँ, पर संकोच वश ऐसा न कर सका। फिर मैं गुवाहाटी छोड़ उच्च शिक्षा और नौकरी के लिए बाहर चला गया। कई साल बाद जब मैं गुवाहाटी लौटा और डरते डरते रेडियो ऑन किया कि कहीं रेखा, सीमा और मीता बहनें सेवा से निवृत्त न हो गई हों। पर ऐसा नहीं था। रेडियो पर उन बहनों की आवाज़ें बिल्कुल उसी तरह सुनने को मिली और एक अजीब सी ख़ुशी महसूस हुई। अभी पिछले वर्ष दुर्गा पूजा के दौरान मैं गुवाहाटी गया और इस बार मैंने ठान लिया कि रेडियो स्टेशन जाकर उनसे मिल कर ही आना है। थोड़े संकोच के साथ जब मैं 'सैन्य कार्यक्रम' के बोर्ड वाले स्टाफ़ रूम में उपस्थित हुआ और अपना परिचय दिया तो वहाँ बैठीं सीमा और मीता बहन चौंक उठीं। सीमा बहन नें तो 'प्रोग्राम एग्ज़ेक्युटिव' को बुलाकर मेरी प्रशंसा की, और इस कार्यक्रम के प्रति मेरी वफ़ादारी और कीमती सुझावों के बारे में बताया। किसी श्रोता से मिल कर उद्‍घोषक को कितनी ख़ुशी मिल सकती है, उसका अंदाज़ा मुझे पहली बार हुआ। उनकी आँखों में वही चमक मैंने देखी जो चमक शायद मेरी आँखों में भी उस दिन आई होगी जिस दिन सीमा बहन नें पहली बार मुझे फ़ोन किया था। उस दिन सीमा बहन मुझे अपने साथ अपने घर ले गईं, अपने पति से मिलवाया और मेरा अतिथि-सत्कार किया। रेखा बहन कुछ वर्ष पहले और मीता बहन पिछले वर्ष रिटायर हो गईं। मीता बहन के रिटायरमेण्ट पर जब मैंने उनको शुभकामना स्वरूप ग्रीटिंग् कार्ड भेजा तो उसे पाकर उनकी आँखें भर आई थीं, ऐसा उन्होंने मुझे फ़ोन करके बताया था। और सीमा बहन अभी हाल ही में ३१ जुलाई को रिटायर हो चुकी हैं। इस तरह से रेखा, सीमा और मीता बहनों की आवाज़ें तो रेडियो से ग़ायब हो गईं, लेकिन उनकी गूंज आज भी मुझे सुनाई देती है अपने दिल में और शायद हमेशा सुनाई देती रहेंगी। मैं दिल से इन तीनों बहनों की सलामती की दुआ करता हूँ। उद्‍घोषक-श्रोता का रिश्ता ही कह लीजिए या भाई-बहन का, यह मेरे जीवन का एक बहुत ही सुखद अनुभव रहा है जिसे मैं उम्र भर रेलिश करता रहूंगा। आज रक्षाबंधन पर मैं इन तीनों को ढेर सारी शुभकामनाएँ देता हूँ, और आपको सुनवाता हूँ यह सदाबहार राखी गीत सुमन कल्याणपुर की सुरीली आवाज़ में।

गीत - बहना नें भाई की कलाई से प्यार बांधा है (रेशम की डोरी)


और अब आज की इस प्रस्तुति को यहीं समाप्त करने की अनुमति दीजिये, फिर भेंट होगी, नमस्कार!

और अब एक विशेष सूचना:

२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

भीष्म साहनी के जन्मदिन पर विशेष "चील"



सुनो कहानी: भीष्म साहनी की "चील"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ।

पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी और सलिल वर्मा की आवाज़ में संजय अनेजा की कहानी "इंतज़ार" का पॉडकास्ट सुना था।

आठ अगस्त को प्रसिद्ध लेखक, नाट्यकर्मी और अभिनेता श्री भीष्म साहनी का जन्मदिन होता है. इस अवसर पर आवाज़ की ओर से प्रस्तुत है उनकी एक कहानी। मैं तब से उनका प्रशंसक हूँ जब पहली बार स्कूल में उनकी कहानी "अहम् ब्रह्मास्मि" पढी थी। सुनो कहानी में वही कहानी पढने की मेरी बहुत पुरानी इच्छा है परन्तु यहाँ उपलब्ध न होने के कारण आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं उनकी एक और प्रसिद्ध कहानी "चील" जिसको स्वर दिया है संज्ञा टंडन ने। आशा है आपको पसंद आयेगी।

कहानी का कुल प्रसारण समय 21 मिनट 5 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



भीष्म साहनी (1915-2003)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी
पद्म भूषण भीष्म साहनी का जन्म आठ अगस्त 1915 को रावलपिंडी में हुआ था।

"ऊपर, आकाश में मण्डरा रही थी जब सहसा, अर्धवृत्त बनाती हुई तेजी से नीचे उतरी और एक ही झपट्टे में, मांस के लोथड़े क़ो पंजों में दबोच कर फिर से वैसा ही अर्द्ववृत्त बनाती हुई ऊपर चली गई।"
("चील" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें
VBR MP3

#140th Story, Cheel: Bhisham Sahni/Hindi Audio Book/2011/21. Voice: Sangya Tandon

Thursday, August 11, 2011

आगे भी जाने न तू....जब बदलती है जिंदगी एक पल में रूप अनेक तो क्यों न जी लें पल पल को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 720/2011/160

जीव सारथी के लिखे कविता-संग्रह 'एक पल की उम्र लेकर' पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इसी शीर्षक से लघु शृंखला की आज दसवीं और अंतिम कड़ी है। आज जिस कविता को हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह इस पुस्तक की शीर्षक कविता है 'एक पल की उम्र लेकर'। आइए इस कविता का रसस्वादन करें...

सुबह के पन्नों पर पायी
शाम की ही दास्ताँ
एक पल की उम्र लेकर
जब मिला था कारवाँ
वक्त तो फिर चल दिया
एक नई बहार को
बीता मौसम ढल गया
और सूखे पत्ते झर गए
चलते-चलते मंज़िलों के
रास्ते भी थक गए
तब कहीं वो मोड़ जो
छूटे थे किसी मुकाम पर
आज फिर से खुल गए,
नए क़दमों, नई मंज़िलों के लिए

मुझको था ये भरम
कि है मुझी से सब रोशनाँ
मैं अगर जो बुझ गया तो
फिर कहाँ ये बिजलियाँ

एक नासमझ इतरा रहा था
एक पल की उम्र लेकर।


ज़िंदगी की कितनी बड़ी सच्चाई कही गई है इस कविता में। जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी इस बात से बेख़बर रहते हैं हम, और जैसे एक माया-जाल से घिरे रहते हैं हमेशा। सांसारिक सुख-सम्पत्ति में उलझे रहते हैं, कभी लालच में फँस जाते हैं तो कभी झूठी शान दिखा बैठते हैं। कल किसी नें नहीं देखा पर कल का सपना हर कोई देखता है। यही दुनिया का नियम है। इसी सपने को साकार करने का प्रयास ज़िंदगी को आगे बढ़ाती है। लेकिन साथ ही साथ हमें यह भी याद रखनी चाहिए कि ज़िंदगी दो पल की है, इसलिए हमेशा ऐसा कुछ करना चाहिए जो मानव-कल्याण के लिए हो, जिससे समाज का भला हो। एक पीढ़ी जायेगी, नई पीढ़ी आयेगी, दुनिया चलता रहेगा, पर जो कुछ ख़ास कर जायेगा, वही अमर कहलाएगा। भविष्य तो किसी नें नहीं देखा, इसलिए हमें आज में ही जीना चाहिए और आज का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए, क्या पता कल हो न हो, कल आये न आये! इसी विचार को गीत के रूप में प्रस्तुत किया था साहिर नें फ़िल्म 'वक़्त' के रवि द्वारा स्वरवद्ध और आशा भोसले द्वारा गाये हुए इस गीत में - "आगे भी जाने ना तू, पीछे भी जाने ना तू, जो भी है बस यही एक पल है"।

इसी के साथ 'एक पल की उम्र लेकर' शृंखला का समापन करते हुए हम सजीव जी बधाई देते हैं इस ख़ूबसूरत काव्य-संकलन के प्रकाशन पर। इस संकलन में प्रकाशित कुल ११० कविताओं में से १० कविताओं को हमनें इस शृंखला में प्रस्तुत किया। इस पुस्तक के बारे में अतिरिक्त जानकारी के लिए या इसे प्राप्त करने के लिए यहाँ क्लिक करें। और इसी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह ख़ास शृंखला समाप्त होती है, अपनी राय व सुझाव टिप्पणी के अलावा oig@hindyugm.com पर आप भेज सकते हैं। अगले सप्ताह एक नई शृंखला के साथ उपस्थित होंगे, और मेरी और आपकी अगली मुलाक़ात होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक' में। अब आज के लिए अनुमति दीजिए, नमस्कार!



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - एक एतिहासिक फिल्म है जिसमें एक अमर योद्धा की शहादत का वर्णन है.
सूत्र २ - आवाज़ है मन्ना डे की.
सूत्र ३ - गीत में "जन्मभूमि" की महानता का जिक्र है.

अब बताएं -
गीतकार कौन है - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
किसी सशक्त प्रतिद्वंधी की अनुपस्तिथि में अमित जी एक बार फिर विजयी हुए है, बहुत बधाई.

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, August 10, 2011

फिर किसी शाख ने फेंकी छाँव....और "बहुत देर तक" महकती रही तनहाईयाँ



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 719/2011/159

'एल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहने वालों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! जैसा कि इन दिनों इस स्तंभ में आप आनंद ले रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविताओं और उन कविताओं पर आधारित फ़िल्मी रचनाओं की लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' में। आज नवी कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता 'बहुत देर तक'।

बहुत देर तक
यूँ ही तकता रहा मैं
परिंदों के उड़ते हुए काफ़िलों को
बहुत देर तक
यूँ ही सुनता रहा मैं
सरकते हुए वक़्त की आहटों को

बहुत देर तक
डाल के सूखे पत्ते
भरते रहे रंग आँखों में मेरे
बहुत देर तक
शाम की डूबी किरणें
मिटाती रही ज़िंदगी के अंधेरे

बहुत देर तक
मेरा माँझी मुझको
बचाता रहा भँवर से उलझनों की
बहुत देर तक
वो उदासी को थामे
बैठा रहा दहलीज़ पे धड़कनों की

बहुत देर तक
उसके जाने के बाद भी
ओढ़े रहा मैं उसकी परछाई को
बहुत देर तक
उसके अहसास ने
सहारा दिया मेरी तन्हाई को।


इस कविता में कवि के अंदर की तन्हाई, उसके अकेलेपन का पता चलता है। कभी कभी ज़िंदगी यूं करवट लेती है कि जब हमारा साथी हमसे बिछड़ जाता है। हम लाख कोशिश करें उसके दामन को अपनी ओर खींचे रखने की, पर जिसको जाना होता है, वह चला जाता है, अपनी तमाम यादों के कारवाँ को पीछे छोड़े। उसकी यादें तन्हा रातों का सहारा बनती हैं। फिर एक नई सुबह आती है जब कोई नया साथी मिल जाता है। पहले पहले उस बिछड़े साथी के जगह उसे रख पाना असंभव सा लगता है, पर समय के साथ साथ सब बदल जाता है। अब नया साथी भी जैसे अपना सा लगने लगता है जो इस तन्हा ज़िंदगी में रोशनी की किरण बन कर आया है। और जीवन चक्र चलता रहता है। एक बार फिर। "फिर किसी शाख़ नें फेंकी छाँव, फिर किसी शाख़ नें हाथ हिलाया, फिर किसी मोड़ पे उलझे पाँव, फिर किसी राह नें पास बुलाया"। किसी के लिए ज़िंदगी नहीं रुकती। वक़्त के साथ हर ज़ख़्म भरता नहीं, फिर भी जीते हैं लोग कोई मरता नहीं। तो उस राह नें अपनी तरफ़ उसे बुलाया, और वो उस राह पर चल पड़ा, फिर एक बार। आइए सुना जाये राहुल देव बर्मन के संगीत में फ़िल्म 'लिबास' में लता मंगेशकर की आवाज़, गीत एक बार फिर गुलज़ार साहब का।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - ये एक मल्टी स्टारर फिल्म है.
सूत्र २ - फिल्म के निर्देशक आज भी सक्रिय हैं और अपनी नई फिल्म के लिए उन्होंने रहमान को साईन किया है.
सूत्र ३ - एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से - "अनजाने".

अब बताएं -
गीतकार कौन है - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
फिल्म के निर्देशक बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी और अवध जी बहुत दिनों बाद दिखे, कहाँ रहे जनाब ?

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, August 9, 2011

आपकी याद आती रही...."अलाव" में जलते दिल की कराह



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 718/2011/158

'एक पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की लिखी कविताओं की इस शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आठवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। हमें आशा है कि अब तक इस शृंखला में प्रस्तुत कविताओं और गीतों का आपने भरपूर स्वाद चखा होगा। आज की कविता है 'अलाव'।

तुम्हारी याद
शबनम
रात भर बरसती रही
सर्द ठंडी रात थी
मैं अलाव में जलता रहा
सूखा बदन सुलगता रहा
रूह तपती रही
तुम्हारी याद
शबनम
रात भर बरसती रही

शायद ये आख़िरी रात थी
तुमसे ख़्वाबों में मिलने की
जलकर ख़ाक हो गया हूँ
बुझकर राख़ हो गया हूँ
अब न रहेंगे ख़्वाब
न याद
न जज़्बात ही कोई
इस सर्द ठंडी रात में
इस अलाव में
एक दिल भी बुझ गया है।


बाहर सावन की फुहारें हैं, पर दिल में आग जल रही है। कमरे के कोने में दीये की लौ थरथरा रही है। पर ये लौ दीये की है या ग़म की समझ नहीं आ रहा। बाहर पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, सब रिमझिम फुहारों में नृत्य कर रहे हैं, और यह क्या, मैं तो बिल्कुल सूखा हूँ अब तक। काश मैं भी अपने उस प्रिय जन के साथ भीग पाती! पर यह क्या, वह लौ भी बुझी जा रही है। चश्म-ए-नम भी बह बह कर सूख चुकी है, बस गालों पर निशान शेष है। जाने कब लौटेगा वो, जो निकला था कभी शहर की ओर, एक अच्छी ज़िंदगी की तलाश में। जाने यह दूरी कब तक जान लेती रहेगी, जाने इंतज़ार की घड़ियों का कब ख़ातमा होगा। शायर मख़्दूम महिउद्दीन नें नायिका की इसी बेकरारी, बेचैनी और दर्द को समेटा था १९७९ की फ़िल्म 'गमन' की एक ग़ज़ल में। जयदेव के संगीत में छाया गांगुली के गाये इस अवार्ड-विनिंग् ग़ज़ल को आज की इस कविता के साथ सुनना बड़ा ही सटीक मालूम होता है। लीजिए ग़ज़ल सुनने से पहले पेश है इसके तमाम शेर...

आपकी याद आती रही रातभर,
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रातभर।

रातभर दर्द की शमा जलती रही,
ग़म की लौ थरथराती रही रातभर।

बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा,
याद बन बन के आती रही रातभर।

याद के चाँद दिल में उतरते रहे,
चांदनी जगमगाती रही रातभर।

कोई दीवाना गलियों में फ़िरता रहा,
कोई आवाज़ आती रही रातभर।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - लता जी की आवाज़ है.
सूत्र २ - गीतकार ही खुद निर्देशक है.
सूत्र ३ - "शाख" शब्द मुखड़े की पहली दोनों पंक्तियों में आता है.

अब बताएं -
फिल्म के नायक कौन हैं - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
गीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
कल क्षिति जी ने ३ अंकों पर कब्ज़ा किया, इस शृंखला में पहली बार अमित जी से ये हक छीना है किसी ने बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, August 8, 2011

कतरा कतरा मिलती है.....खुशी और दर्द के तमाम फूलों को समेट लेता है "वो" आकर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 717/2011/157

'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय और सजीव का प्यार भरा नमस्कार! आज इस सुरीली महफ़िल की शमा जलाते हुए पेश कर रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविता 'वो'। लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की यह है सातवीं कड़ी।

समय की पृष्ठभूमि पर
बदलते रहे चित्र
कुछ चेहरे बने
कुछ बुझ गए
कुछ कदम साथ चले
कुछ खो गए
पर वो
उसकी ख़ुशबू रही साथ सदा
उसका साया साथ चला मेरे
हमेशा

टूटा कभी जब हौंसला
और छूटे सारे सहारे
उन थके से लम्हों में
डूबी-डूबी तन्हाइयों में
वो पास आकर
ज़ख़्मों को सहलाता रहा
उसके कंधों पर रखता हूँ सर
तो बहने लगता है सारा गुबार
आँखों से

वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू
अपने दामन में
फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाथ
कहता है - अभी हारना नहीं
अभी हारना नहीं
मगर उसकी उन नूर भरी
चमकती
मुस्कुराती
आँखों में
मैं देख लेता हूँ
अपने दर्द का एक
झिलमिलाता-सा कतरा।


इसमें कोई शक़ नहीं कि उस एक इंसान की आँखों में ही अपनी परछाई दिखती है, अपना दर्द बस उसी की आँखों से बहता है। जिस झिलमिलाते कतरे की बात कवि नें उपर कविता की अंतिम पंक्ति में की है, वह कतरा कभी प्यास बुझाती है तो कभी प्यास और बढ़ा देती है। यह सोचकर दिल को सुकून मिलता है कि कोई तो है जो मेरे दर्द को अपना दर्द समझता है, और दूसरी तरफ़ यह सोचकर मन उदास हो जाता है कि मेरे ग़मों की छाया उस पर भी पड़ रही है, उसे परेशान कर रही है। यह कतरा कभी सुकून बन कर तो कभी परेशानी बनकर बार बार आँखों में झलक दिखा जाता है। और कतरे की बात करें तो यह जीवन भी तो टुकड़ों में, कतरों में ही मिलता है न? शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे हमेशा लगातार जीवन में ख़ुशी, सफलता, यश, धन की प्राप्ति होती होगी। समय सदा एक जैसा नहीं रहता। जीवन में हर चीज़ टुकड़ों में मिलती है, और सबको इसी में संतुष्ट भी रहना चाहिए। अगर सबकुछ एक ही पल में, एक साथ मिल जाए फिर ज़िंदगी का मज़ा ही क्या! ज़िंदगी की प्यास हमेशा बनी रहनी चाहिए, तभी इंसान पर ज़िंदगी का नशा चढ़ा रहेगा। फ़िल्म 'इजाज़त' में गुलज़ार साहब नें कतरा कतरा ज़िंदगी की बात कही थी - "कतरा कतरा मिलती है, कतरा कतरा जीने दो, ज़िंदगी है, बहने दो, प्यासी हूँ मैं प्यासी रहने दो"। आशा भोसले का गाया और राहुल देव बर्मन का स्वरबद्ध किया यह गीत 'सुपरिम्पोज़िशन' का एक अनूठा उदाहरण है। आइए सुना जाए!



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - ये कलात्मक फिल्म एक विचारणीय मुद्दे पर केंद्रित थी, जो आज भी एक समस्या ही है.
सूत्र २ - फिल्म के सगीतकार ने इस फिल्म के लिए राष्ट्रीय सम्मान जीता था.
सूत्र ३ - इस ग़ज़ल के एक मिसरे में शब्द है -"लौ".

अब बताएं -
शायर बताएं - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
गायिका कौन है - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
लगता है इस बार अमित जी कोई रोक् नहीं पायेगा....क्षिति जी को भी बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, August 7, 2011

तेरे पास आके मेरा वक्त गुजर जाता है ...."लम्स तुम्हारा" यूं मुझमें ठहर जाता है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 716/2011/156

ज रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं, नमस्कार! पिछले हफ़्ते आपनें सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब 'एक पल की उम्र लेकर' से चुन कर पाँच कविताओं पर आधारित पाँच फ़िल्मी गीत सुनें, इस हफ़्ते पाँच और कविताओं तथा पाँच और गीतों को लेकर हम तैयार हैं। तो स्वागत है आप सभी का, लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की छठी कड़ी में। इस कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता 'लम्स तुम्हारा'।

उस एक लम्हे में
जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा
दुनिया सँवर जाती है
मेरे आस-पास
धूप छूकर गुज़रती है किनारों से
और जिस्म भर जाता है
एक सुरीला उजास
बादल सर पर छाँव बन कर आता है
और नदी धो जाती है
पैरों का गर्द सारा
हवा उड़ा ले जाती है
पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा

खरे सोने सा, जैसा गया था रचा
उस एक लम्हे में
जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा
कितना कुछ बदल जाता है
मेरे आस-पास।


हमारी ज़िंदगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मिल कर अच्छा लगता है, जिनके साथ हम दिल की बातें शेयर कर सकते हैं। और ऐसे लोगों में एक ख़ास इंसान ऐसा होता है जो बाकी सब से ख़ास होता है, जिसके ज़िक्र से ही होठों पर मुस्कान आ जाती है, जिसके बारे में किसी को कहते वक़्त आँखों में चमक आ जाती है, जिसकी बातें करते हुए होंठ नहीं थकते। और जब उस ख़ास शख़्स से मुलाक़ात होती है तो उस मुलाक़ात की बात ही कुछ और होती है। ऐसा लगता है कि जैसे जीवन में कोई तनाव नहीं है, कोई दुख नहीं है। उसकी आँखों की चमक सारे दुखों पर जैसे पर्दा डाल देती हैं। उसकी वो नर्म छुवन जैसे सारे तकलीफ़ों पर मरहम लगा जाती है। उसकी भीनी भीनी ख़ुशबू ज़िंदगी को यूं महका जाती है कि फिर बहारों का भी इंतेज़ार नहीं रहता। वक़्त कैसे गुज़र जाता है उसके साथ पता ही नहीं चलता। बहुत ख़ुशनसीब होते हैं वो लोग जिन्हें किसी का प्यार मिलता है, सच्ची दोस्ती मिलती है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला की पहली कड़ी में फ़िल्म 'नीला आकाश' का एक गीत बजा था, आज इसी फ़िल्म से सुनिये आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी का गाया "तेरे पास आके मेरा वक़्त गुज़र जाता है, दो घड़ी के लिए ग़म जाने कहाँ जाता है"। राजा मेहंदी अली ख़ान के बोल और मदन मोहन की तर्ज़।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - फिल्म के नायक किसी ज़माने में समानांतर सिनेमा के अहम् स्तम्भ रहे हैं.
सूत्र २ - इस फिल्म के गीतकार को फिल्म के एक अन्य गीत के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.
सूत्र ३ - एक अंतरे की पहली पंक्ति में "कोहरे" का जिक्र है.

अब बताएं -
निर्देशक कौन हैं - ३ अंक
फिल्म के नायक कौन हैं - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित, सत्यजीत और हिन्दुस्तानी जी को बधाई एक बार फिर

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - जारी है लोक संगीत शैली कजरी पे चर्चा



सुर संगम - 32 -लोक संगीत शैली "कजरी" (अंतिम भाग)

कजरी गीतों में प्रकृति का चित्रण, लौकिक सम्बन्ध, श्रृंगार और विरह भाव का वर्णन ही नहीं होता; बल्कि समकालीन सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं का चित्रण भी प्रायः मिलता है|
"केतने पीसत होइहें जेहल में चकरिया..." - कजरी गीतों के जरिए स्वतंत्रता का संघर्ष

शास्त्रीय और लोक संगीत के इस साप्ताहिक स्तम्भ "सुर संगम" के आज के अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत प्रेमियों का स्वागत करता हूँ| पिछले अंक में हमने आपसे देश के पूर्वांचल की अत्यन्त लोकप्रिय लोक-संगीत-शैली "कजरी" के बारे में कुछ जानकारी बाँटी थी| आज दूसरे भाग में हम उस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं| पिछले अंक में हमने "कजरी" के वर्ण्य विषय और महिलाओं द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली कजरियों के विभिन्न प्रकार की जानकारी आपसे बाँटी थी| मूलतः "कजरी" महिला प्रधान गायकी ही है| "कजरी" गीतों में कोमल भावों और लोक-जीवन की जैसी अभिव्यक्ति होती है उससे यह महिला प्रधान गायन शैली के रूप में ही स्थापित है| परन्तु ब्रज के सखि सम्प्रदाय के प्रभाव और उन्नीसवीं शताब्दी में उपशास्त्रीय संगीत का हिस्सा बन जाने के कारण पुरुष वर्ग द्वारा भी अपना लिया गया| बनारस (अब वाराणसी) के जिन संगीतज्ञों का ठुमरी के विकास में योगदान रहा है, उन्होंने "कजरी" को भी उप्शास्त्रीयता का रंग दिया| "कजरी" को प्रतिष्ठित करने में बनारस के उच्चकोटि के संगीतज्ञ बड़े रामदास जी का योगदान अविस्मरणीय है| इन्ही बड़े रामदास जी के प्रपौत्र पण्डित विद्याधर मिश्र ने उपशास्त्रीय अंग में कजरी गायन की परम्परा को जारी रखा है| (बड़े रामदास जी के पौत्र और विद्याधर मिश्र के पिता पं. गणेशप्रसाद मिश्र के स्वरों में आप "सुर संगम" के 28 वें अंक में टप्पा गायन सुन चुके हैं) आइए; यहाँ थोड़ा रुक कर, बड़े रामदास जी की कजरी रचना -"बरसन लागी बदरिया रूमझूम के..." उपशास्त्रीय अन्दाज़ में सुनते हैं; स्वर पण्डित विद्याधर मिश्र का है-

कजरी - "बरसन लागी बदरिया रूमझूम के..." गायक - विद्याधर मिश्र

सुनिए यहाँ

कजरी गीतों में प्रकृति का चित्रण, लौकिक सम्बन्ध, श्रृंगार और विरह भाव का वर्णन ही नहीं होता; बल्कि समकालीन सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं का चित्रण भी प्रायः मिलता है| ब्रिटिश शासनकाल में राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत अनेक कजरी गीतों की रचना की गई| बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पूरे देश में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जन-चेतना का जो विस्तार हुआ उससे "कजरी" शैली भी अछूती नहीं रही| अनेक लोकगीतकारों ने ऐसी अनेक राष्ट्रवादी कजरियों की रचना की जिनसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार भयभीत हुई और ऐसे अनेक लोक गीतों को प्रतिबन्धित कर दिया| इन लोकगीतों के रचनाकारों और गायकों को ब्रिटिश सरकार ने कठोर यातनाएँ भी दीं| परन्तु प्रतिबन्ध के बावजूद लोक परम्पराएँ जन-जन तक पहुँचती रहीं| इन विषयों पर रची गईं अनेक कजरियों में महात्मा गाँधी के सिद्धांतों को रेखांकित किया गया| ऐसी ही एक कजरी की पंक्तियाँ देखें -"चरखा कातो, मानो गाँधी जी की बतियाँ, विपतिया कटि जइहें ननदी..."| कुछ कजरियों में अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों पर प्रहार किया गया| ऐसी ही एक कजरी आज हम आपको सुनवाते हैं| इस कजरी की स्थायी की पंक्तियाँ बिल्कुल सामान्य कजरी की भाँति है, किन्तु एक अन्तरे में लोकगीतकार ने अंगेजों की दमनात्मक नीतियों को रेखांकित किया है| मूल गीत की पंक्तियाँ हैं -"कैसे खेले जईबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी..."| इन पंक्तियों में काले बादलों का घिरना, गुलामी के प्रतीक रूप में चित्रित हुआ है| अन्तरे की पंक्तियाँ हैं -

"केतनो लाठी गोली खईलें, केतनो डामन फाँसी चढ़ीलें,
केतनों पीसत होइहें जेहल में चकरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी..."|

कजरी का यह अन्तरा गाते समय बड़ी चतुराई से अन्य सामान्य भाव वाले अन्तरों के बीच जोड़ दिया जाता था| ऐसा माना जाता है कि मूल कजरी की रचना जहाँगीर नामक लोकगीतकार ने की थी; किन्तु इसके प्रतिबन्धित अन्तरे के रचनाकार का नाम अज्ञात ही है| यह कजरी स्वतंत्रता से पूर्व विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग क्षेरीय बोलियों में प्रचलित थी| हम आपको इस कजरी के दो संस्करण सुनवाते है| पहला संस्करण लोकगायक मोहम्मद कलीम के स्वरों में है| इसे कजरी का पछाहीं संस्करण कहा जाता है| दूसरा संस्करण मीरजापुरी कजरी के रूप में है|

कजरी : "कैसे खेलन जइयो सावन मा कजरिया, बदरिया घिरी आई गोरिया..." : स्वर - मोहम्मद कलीम

कजरी : "कैसे खेलै जाबे सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी..." : समूह स्वर

वर्तमान समय में लोकगीतों का प्रचलन धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है| ऐसे में पूर्वांचल की अन्य लोक शैलियों की तुलना में "कजरी" की स्थिति कुछ बेहतर है| नई पीढी को इस सशक्त लोक गायन शैली से परिचित कराने में कुछेक संस्थाएँ और कुछ कलाकार आज भी सलग्न हैं| राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय सांस्कृतिक संगठन संस्कार भारती ने कुछ वर्ष पूर्व मीरजापुर में "कजरी महोत्सव" का आयोजन किया था| यह संगठन समय-समय पर नई पीढी के लिए कजरी प्रशिक्षण की कार्यशालाएँ भी आयोजित करता है| उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की ओर से भी विदुषी कमला श्रीवास्तव के निर्देशन में कार्यशालाएँ आयोजित होती रहती है| मीरजापुर की सुप्रसिद्ध कजरी गायिका उर्मिला श्रीवास्तव ने गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत नई पीढी के कई गायक-गायिकाओं को तैयार किया है और आज भी इस कार्य में संलग्न हैं| आइए अब हम उर्मिला श्रीवास्तव के स्वरों में सुनते हैं एक परम्परागत कजरी -

कजरी : "हमके सावन में झुलनी गढ़ाई दे पिया..." : स्वर - उर्मिला श्रीवास्तव

पारम्परिक कजरियों की धुनें और उनके टेक निर्धारित होते हैं| आमतौर पर कजरियाँ जैतसार, ढुनमुनियाँ, खेमटा, बनारसी और मीरजापुरी धुनों के नाम से पहचानी जाती हैं| कजरियों की पहचान उनके टेक के शब्दों से भी होती है| कजरी के टेक होते हैं- 'रामा', 'रे हरि', 'बलमू', 'साँवर गोरिया', 'ललना', 'ननदी' आदि| आइए हम एक बार फिर फिल्म संगीत में "कजरी" के प्रयोग पर चर्चा करते हैं| पिछले भाग में हमने आपको भोजपुरी फिल्म "विदेसिया" से महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली मीरजापुरी कजरी का रसास्वादन कराया था| आज की फ़िल्मी कजरी भी भोजपुरी फिल्म से ही है| 1964 में प्रदर्शित फिल्म "नैहर छुटल जाय" में गायक मन्ना डे ने एक परम्परागत बनारसी कजरी का गायन किया था| इसके संगीतकार जयदेव ने कजरी की परम्परागत धुन में बिना कोई काट-छाँट किये प्रस्तुत किया था| आप सुनिए श्रृंगार रस से अभिसिंचित यह फ़िल्मी कजरी और मैं कृष्णमोहन मिश्र आपसे यहीं विराम लेने की अनुमति चाहता हूँ| आपके सुझावों की हमें प्रतीक्षा रहेगी|

कजरी : "अरे रामा रिमझिम बरसेला पनियाँ..." : फिल्म - नैहर छुटल जाए : स्वर : मन्ना डे

सुर-संगम का आगामी अंक होगा ख़ास, इसलिए हमने सोचा है की उस अंक के बारे में कोई पहेली नहीं पूछी जाएगी| आगामी अंक में हम श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे महान कविगुरू श्री रबींद्रनाथ ठाकुर को जिनकी श्रावण माह की २२वीं तिथि यानी कल ८ अगस्त को पुण्यतिथि है|

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी को एक बार फिर से बधाई!!!
अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!


प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती

आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

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