Saturday, May 23, 2009

देखती ही रहो आज दर्पण ना तुम, प्यार का यह महूरत निकल जाएगा...नीरज का लिखा एक प्रेम गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 89

यूँतो फ़िल्मी गीतकारों का एक अलग ही जहाँ है, उनकी अलग पहचान है, उनकी अलग अलग खासियत है, लेकिन फ़िल्म संगीत के इतिहास में अगर झाँका जाये तो हम पाते हैं कि समय समय पर कई साहित्य से जुड़े शायर और कवियों ने इस क्षेत्र में अपने हाथ आज़माये हैं। इन साहित्यकारों ने फ़िल्मों में बहुत कम काम किया है लेकिन जो भी किया है उसके लिए अच्छे फ़िल्म संगीत के चाहनेवाले उनके हमेशा क़द्रदान रहेंगे। इन्हे फ़िल्मी गीतों में पाना हमारा सौभाग्य है, फ़िल्म संगीत का सौभाग्य है। अगर हिंदी के साहित्यकारों की बात करें तो कवि प्रदीप, पंडित नरेन्द्र शर्मा, विरेन्द्र मिश्र, बाल कवि बैरागी, महादेवी वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, अमृता प्रीतम, और डा. हरिवंशराय बच्चन के साथ साथ कवि गोपालदास 'नीरज' जैसे साहित्यकारों के क़दम फ़िल्म जगत पर पड़े हैं। जी हाँ, कवि गोपाल दास 'नीरज', जिन्होने फ़िल्मों में नीरज के नाम से एक से एक 'हिट' गीत लिखे हैं। उन्होने सबसे ज़्यादा काम सचिन देव बर्मन के साथ किया है, जैसे कि शर्मिली, प्रेम पुजारी, गैम्बलर, तेरे मेरे सपने, आदि फ़िल्मों में। संगीतकार रोशन को साथ में लेकर उनके गीत सामने आये 'नयी उमर की नयी फ़सल' फ़िल्म में, और आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम आपको इसी फ़िल्म का एक गीत सुनवाने जा रहे हैं मुकेश की आवाज़ में।

'नयी उमर की नयी फ़सल' फ़िल्म आयी थी सन् १९६५ में जिसमें नायक थे राजीव और नायिका थीं तनुजा। कवि नीरज के काव्यात्मक रचनायें गीतों की शक्ल में इस फ़िल्म में गूँजे। "कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे" उनकी लिखी इस फ़िल्म की एक मशहूर रचना है जिसे आपने रफ़ी साहब की आवाज़ में कई कई बार सुना होगा। लेकिन मुकेश की आवाज़ में जिस गीत को आज हम सुनवा रहे हैं वह थोड़ा सा कम सुना सा गीत है, लेकिन अच्छे गीतों के क़द्रदानों को यह गीत बख़ूबी याद होगा। "देखती ही रहो आज दर्पण ना तुम, प्यार का यह महूरत निकल जाएगा" में भले ही साहित्य और कविता के मुक़ाबले फ़िल्मी रंग ज़्यादा है, लेकिन नीरज ने जहाँ तक संभव हुआ अपने काव्यात्मक ख्यालों को इस गाने मे पर उतारा। मसलन, एक अंतरे मे वो कहते हैं कि "सुर्ख़ होठों पे उफ़ ये हँसी मदभरी जैसे शबनम अंगारों की महमान हो, जादू बुनती हुई ये नशीली नज़र देख ले तो ख़ुदाई परेशान हो, मुस्कुराओ ना ऐसे चुराकर नज़र आईना देख कर सूरत मचल जाएगा"। तो लीजिए दोस्तों, साहित्य के उन सभी गीतकारों जिन्होने फ़िल्म संगीत में अपना अमूल्य योगदान दिया है, उन सभी को सलाम करते हुए सुनते हैं मुकेश की आवाज़ में रोशन का संगीत आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। रोशन ने जब भी किसी गीत में संगीत दिया है तो उसमें इस्तेमाल किये गये साज़ों का चुनाव इस क़दर किया कि जो गायक गायिका की आवाज़ को पूरा समर्थन दे, और प्रस्तुत गीत भी उनके इसी अंदाज़ का एक मिसाल है।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. नीरज की कलम से ही निकला एक और शानदार गीत.
२. आवाज़ है किशोर कुमार की.
३. मुखड़े में शब्द है -"ग़ज़ल".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
मनु जी आपका तुक्का इस बार सही नहीं बैठा, नीलम जी आप भी मनु जी के झांसे में आ गयी :) खैर विजेता रहे एक बार फिर, शरद तैलंग जी और रचना जी....आप दोनों को बहुत बहुत बधाई.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



सआदत हसन मंटो की "कसौटी"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने शन्नो अग्रवाल की आवाज़ में श्रवण कुमार सिंह की कहानी 'बुतरखौकी' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं सआदत हसन मंटो की "कसौटी", जिसको स्वर दिया है "किस से कहें" वाले अमिताभ मीत ने। इससे पहले आप अनुराग शर्मा की आवाज़ में मंटो की अमर कहानी टोबा टेक सिंह और एक लघुकथा सुन चुके हैं।
"कसौटी" का कुल प्रसारण समय १३ मिनट और ४४ सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था।
~ सआदत हसन मंटो (१९१२-१९५५)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

वह धर्मकांटा कहाँ है जिसके पलडों में हिन्दू और मुसलमान, ईसाई और यहूदी, काले और गोरे तुल सकते हैं?
(मंटो की "कसौटी" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#Twenty-second Story, Kasauti: Sa'adat Hasan Manto/Hindi Audio Book/2009/17. Voice: Amitabh Meet

Friday, May 22, 2009

सखी री मेरा मन उलझे तन डोले....रोशन साहब का लाजवाब संगीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 88

दोस्तों, अगर आपको याद हो तो कुछ रोज़ पहले हमने आपको 'आम्रपाली' फ़िल्म का एक गीत सुनवाया था और साथ ही आम्रपाली की कहानी भी सुनाई थी। आम्रपाली की तरह एक और नृत्यांगना हमारे देश में हुईं हैं चित्रलेखा। आज इन्ही का ज़िक्र 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। चित्रलेखा सम्राट चंद्रगुप्त के समय की राज नर्तकी थीं। चंद्रगुप्त का एक दोस्त बीजगुप्त हुआ करता था जो चित्रलेखा को देखते ही उससे प्यार कर बैठा। वह चित्रलेखा के प्यार में इस क़दर खो गया कि उसके लिए सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गया। चित्रलेखा भी उससे प्यार करने लगी। लेकिन बीजगुप्त का विवाह यशोधरा से तय हो चुका था। यशोधरा के पिता को जब बीजगुप्त और चित्रलेखा की प्रेम कहानी का पता चला तो वो योगी कुमारगिरि के पास गये और उनसे विनती की, कि वो चित्रलेखा को बीजगुप्त से मिलने जुलने को मना करें। योगी कुमारगिरि चित्रलेखा को उसके दायित्वों और कर्तव्यों की याद दिलाते हैं लेकिन चित्रलेखा योगी महाराज की बातों को हँसकर अनसुना कर देती हैं। लेकिन आगे चलकर एक दिन चित्रलेखा को अपनी ग़लतियों का अहसास हो जाता है। आईने में अपने एक सफ़ेद बाल को देख कर वो बौखला जाती है, उसे यह अहसास होता है कि सांसारिक सुख क्षणभंगुर हैं। 'जीवन क्या है?' वो अपने आप से पूछती है और राजमहल छोड़कर योगी कुमारगिरि के आश्रम चली जाती है। जब बीजगुप्त को इस बात का पता चलता है तो वो भी चित्रलेखा की तलाश में निकल पड़ते हैं। उधर कुमारगिरि जिन्होने सांसारिक जीवन को त्याग कर योग साधना को अपने जीवन का आदर्श बना लिया था, वो आख़िर चित्रलेखा की ख़ूबसूरती के प्रभाव से बच ना सके और एक रात चित्रलेखा के कमरे में आ खड़े हुए बुरे ख़यालों से। चित्रलेखा जान गयी कुमारगिरि के मन के भाव को और तुरंत आश्रम से निकल पड़ी। लेकिन अब वो कहाँ जाएगी? क्या उसे अपना प्यार वापस मिल जाएगा, या फिर वो कहीं खो जाएगी गुमनामी के अंधेरे में? इन सब का जवाब मिलता जाता है फ़िल्म के नाटकीय 'क्लाइमैक्स' में। चित्रलेखा के जीवन की दिशा को बदलने में पुरुषों का किस तरह का प्रभाव रहा है, यही विषयवस्तु है इस फ़िल्म की। श्री भगवती चरण वर्मा ने चित्रलेखा की कहानी को उपन्यास की शक्ल में प्रकाशित किया था सन् १९३४ में, और सन् १९४१ में 'फ़िल्म कार्पोरेशन औफ़ इंडिया' ने इस उपन्यास पर आधारित 'चित्रलेखा' नामक फ़िल्म बनाई थी जिसका निर्देशन किया था नवोदित निर्देशक केदार शर्मा ने। यह फ़िल्म वितरकों से घिरी रही क्योंकि एक दृश्य में चित्रलेखा बनी नायिका महताब को स्नान करते हुए दिखाया गया था। ४० के दशक की फ़िल्मों की दृष्टि से यह बहुत बड़ी बात थी। ख़ैर, आज हम यहाँ १९४१ की 'चित्रलेखा' का नहीं बल्कि १९६४ में बनी 'चित्रलेखा' का एक गीत सुनवाने जा रहे हैं।

गीत सुनने से पहले आपको यह हम बता दें कि १९६४ की 'चित्रलेखा' का निर्देशन भी केदार शर्मा ने ही किया था। फ़िल्म की मुख्य भूमिकायों में थे मीना कुमारी (चित्रलेखा), अशोक कुमार (योगी कुमारगिरि) और प्रदीप कुमार (बीजगुप्त्त. संगीतकार रोशन के स्वरबद्ध गीत इस फ़िल्म का एक प्रमुख आकर्षण रहा। लता मंगेशकर और रफ़ी साहब के गाये एकल गीत हों या फिर आशा भोंसले और उषा मंगेशकर के गाये युगल गीत, सभी के सभी गानें बेहद मकबूल हुए थे और आज भी उतने ही प्यार से सुने जाते हैं। रोशन के फ़िल्मी सफ़र का एक बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है 'चित्रलेखा' का संगीत। शास्त्रीय रागों पर आधारित गीतों को किस तरह से जनसाधारण में लोकप्रिय बनाया जा सकता है रोशन ने इस फ़िल्म के गीतों के माध्यम से साबित किया है। तो आज सुनिए लताजी की आवाज़ में १९६४ की 'चित्रलेखा' का एक सदाबहार गीत "सखी री मेरा मन उलझे तन डोले"। गीतकार हैं साहिर लुधियानवी। एक उर्दू शायर होते हुए भी उन्होने जिस दक्षता के साथ इस शुद्ध हिंदी वाली पौराणिक पीरियड फ़िल्म के गाने लिखे हैं, उनकी तारीफ़ शब्दों में करना नामुमकिन है। सुनिए!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. कवि गोपाल दास नीरज का लिखा एक शानदार गीत.
२. मुकेश की आवाज़ में है ये मधुर गीत.
३. मुखड़े में शब्द है - "दर्पण".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
रचना जी बहुत करीब थी आप, पर चूक गयी. शरद तैलंग हैं आज के विजेता जोरदार तालियाँ इनके लिए...मनु जी कहे इतनी दुविधा में रहते हैं आप....सूत्र तो पूरे पढ़ा कीजिये :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



"रोने से दुःख कम न होंगे तो क्यों न हंस खेल जिंदगी बिता लें हम..."- यही था फलसफा किशोर दा का



श्रोताओं और दर्शकों से खचा खच भरे सभागृह में एक हीरे का सौदागर आता है और उसे देख सभी १० मिनट तक सीटी बजाते हैं, चिल्लाते हैं, सारा माहौल गूंज रहा है, सब मस्त है ... |
आख़िर ये कौन है जिसे देख कर मस्ती आ जाती है, नौजवान मुश्कियां मारने लगते हैं, कौन है यह कौन है ... ?

ये जनाब हैं अपने किशोर कुमार |आदरणीय गालिब के शेर को किशोर बाबू के लिए उधार मांगूं तो कुछ ऐसा होगा -

जिसके आने से आती थी स्टेज पर मस्ती,
लोग कहतें हैं वो तो किशोर कुमार था |

एक वो भी समय था जब किशोर के दिल की धड़कन स्टेज शो के नाम पर तेज हो जाती थी | किशोर कुमार एक मस्ती का नाम जरुर था लेकिन उनमें एक शर्मिलापन भी दिख जाता था | एक बार तो सुनील दत्त और उनके दोस्तों ने उन्हें परदे के पीछे से स्टेज पर ढकेला और शो कराने के लिए मजबूर किया | डरते डरते दादा ने एक लय पकड़ ली और बस निकल पडी स्टेज शो की गाडी ... पम्प पम्प पम्प |

अब स्टेज शो में किशोर भैया तब तक गाते जब तक नही थकते | इस सजीव शो (real show) में किशोर ने गाया भी, नाचा भी और अभिनय भी किया | अपने अंदाजों को लोगों की मांग (public demand) पर बदलने लगे | कभी सभ्य आदमी (gentle man) बनकर तो कभी कुरते , पैजामे और सर पर मखमली टोपी पहन कोई जौहरी (diamond merchant) बनकर गाते रहें |क्या वे कला के हीरे(diamond)नही थे ?

उनका एक अंदाज़ आज भी याद किया जाता है | स्टेज शो की शुरुआत कुछ इस तरह से करते -
"ओ मेरे संगीत प्रेमियों....,
मेरे दादा दादियों , मेरे नाना नानियों ,
वो मेरे मामा मामियों , मेरे यारों यारियों ,
आप सब को किशोर कुमार का सप्रेम नमस्कार ..."


और सब उनके पीछे यह दोहराते मानो कोई प्रार्थना हो रही हो | कई बार तो वे स्टेज पर लेट कर, माइक को मुंह पर लगा गाते, लुढ़कते, उठते फिर गिरते | उनका यह कुदरती अंदाज लोगों को बहुत लुभाता | कला मंच पर मंझ चुके किशोर दा अब तरह तरह के नए प्रयोग करने लगे | अभिनय का अनुभव उन्हें वहां बहुत काम आ रहा था | श्रोताओं की मांग पर गाना गाया जाने लगा और किशोर कुमार दल इसके लिए हमेशा तैयार रहता था ! अपने सफल स्टेज शो के दौर में उन्होंने बहुत से संगीतकारों, गायिकाओं और अपने बेटे अमित कुमार के साथ स्टेज पर धूम मचाया, संग नाचा, गाया |

धीरे-धीरे, देश-विदेश में में उनका यह स्टेज शो उनके बिगड़ते स्वस्थ के कारण रुकने लगा और लोग किशोर स्टेज शो को तरसने लगे| बेटे अमित कुमार ने उनके इस सिलसिले को आज भी कायम रखा है |आज आवाज़ पर देखिये किशोर कुमार एक मशहूर लाइव कार्यक्रम की कुछ झलकियाँ, जहाँ वो गा रहे हैं ईना मीना डीका, मेरे सपनों की रानी, रोते हुए आते हैं सब और प्यार बांटते चलो जैसे लाजवाब गीत अपने मस्तमौला अंदाज़ में. आनंद लें-



जाते जाते ...

तुमने स्टेज पर कूदा ,
फिर गाया - नाचा ,
अब तरसता मन कहे ,
किशोर फिर से आजा |



प्रस्तुतकर्ता- अवनीश तिवारी

Thursday, May 21, 2009

बूझ मेरा क्या नाव रे....कौन है ये मचलती आवाज़ वाली गायिका....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 87

ओ. पी नय्यर के निर्देशन में जिन तीन पार्श्व गायिकाओं ने सबसे ज़्यादा गाने गाये, वो थे आशा भोंसले, गीता दत्त और शमशाद बेग़म। शमशाद बेग़म के लिए नय्यर साहब के दिल में बहुत ज़्यादा इज़्ज़त थी। शमशादजी की आवाज़ की नय्यर साहब मंदिर की घंटी की आवाज़ से तुलना किया करते थे। उनके शब्दों में शमशादजी की आवाज़ 'टेम्पल बेल' की आवाज़ थी। भले ही आशा भोंसले के आने के बाद गीता दत्त और शमशाद बेग़म से नय्यर साहब गाने लेने कम कर दिये, लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि नय्यर साहब ने ही इन दोनो गायिकायों को सबसे ज़्यादा 'हिट' गीत दिए। १९५२ से लेकर करीब करीब १९५८ तक नय्यर साहब ने इन दोनो गायिकायों से बहुत से गाने गवाये और लगभग सभी के सभी लोकप्रिय भी हुए। जहाँ तक शमशादजी के गाये हुए गीतों का सवाल है, उनकी पंजाबी लोकगीत शैली वाली अंदाज़ को नय्यर साहब ने अपने गीतों के ज़रिए ख़ूब बाहर निकाला और हर बार सफल भी हुए। नय्यर साहब के अनुसार संगीतकार ही गायक गायिका को तैयार करता है, यह संगीतकार के ही उपर है कि वह गायक गायिका से कितना काम ले सकता है और कितनी अच्छी तरह से ले सकता है। इसमें कोई शक़ नहीं कि नय्यर साहब ने हर गायक और गायिका की प्रतिभा को और भी निखारा और सँवारा और पूरे 'पर्फ़ेकशन' के साथ जनता के सामने प्रस्तुत किया। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में नय्यर साहब और शमशादजी की जोड़ी का एक मचलता हुआ नग़मा पेश कर रहे हैं फ़िल्म 'सी.आइ.डी' से।

फ़िल्म 'सी.आइ.डी' बनी थी १९५६ में। १९५४ में 'आर पार' और १९५५ में 'मिस्टर ऐंड मिसेस ५५' बनाने के बाद गुरु दत्त ने 'सी.आइ.डी' की परिकल्पना की। देव आनंद जो ग़लत राह पर चल पड़ने वाले नायक की भूमिका निभाया करते थे, इस फ़िल्म में पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में नज़र आये। इसी फ़िल्म से वहीदा रहमान का हिंदी फ़िल्म जगत में पदार्पण हुआ। इससे पहले वो दो तेलुगू फ़िल्मों में काम कर चुकी थीं। इनमें से एक फ़िल्म ने 'सिल्वर जुबिली' मनाई और इसी मौके पर गुरु दत्त की नज़र उन पर पड़ गई, और उन्हे 'सी.आइ.डी' की नायिका के रोल का औफ़र दे बैठे। राज खोंसला निर्देशित यह 'मर्डर मिस्ट्री' अपनी रोमांचक कहानी, जानदार अभिनय और सदाबहार गीत संगीत की वजह से अमर होकर रह गयी है। ओ. पी. नय्यर और मजरूह सुल्तानपुरी के गीत संगीत तथा रफ़ी, गीता, शमशाद और आशा की आवाज़ों ने चारों तरफ़ धूम मचा दी थी। शमशाद बेग़म की आवाज़ में प्रस्तुत गीत भारतीय लोक संगीत और पाश्चात्य और्केस्ट्रेशन का संतुलित मिश्रण है जिसे सुनते ही दिल एक दम से ख़ुश हो जाता है। जब मैं छोटा था और इस गीत को सुनता था तो मुझे ऐसा लगता था कि 'नाम' को 'नाव' क्यों कहा गया है इस गीत में, क्या 'गाँव' से तुकबंदी करने के लिए ऐसा किया गया है, लेकिन बाद में मुझे पता चला कि मराठी में नाम को 'नाव' कहते हैं, और इस तरह से अर्थ भी बरक़रार रहा और तुकबंदी भी हो गयी। तो लीजिए सुनिए आज का यह गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. केदार शर्मा निर्देशित इस फिल्म में थे मीना कुमारी, अशोक कुमार और प्रदीप कुमार.
२. रोशन का संगीत और लता के स्वर.
३. मुखड़े में शब्द है -"मन".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम-
रचना जी ने एक बार फिर मैदान मारा है. मनु जी और पराग ने सहमती दी है, तो जाहिर है जवाब सही ही है.... जाते-जाते शरद तैलंग भी अपनी मुहर लगा गये, वो भी सहीवाला।

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



गोपालदास नीरज का एक संगीतबद्ध गीत



समय-समय पर आवाज़ नई प्रतिभाओं से आपको रूबरू कराता रहता है। आज हम आपको एक बहुत ही प्रतिभावान कवि, संगीतकार और गायक से मिलाने जा रहे हैं। जी हाँ, ये हैं अब्बास रज़ा अल्वी। अब्बास हिन्दी और उर्दू कविता से तबसे जुड़े हैं जबसे इन्होंने ऑस्ट्रेलिया में कवि सम्मेलन और मुशायरों में पाठ किया। सिडनी में इनके पास अपना रिकॉर्डिंग स्टूडियो है।

हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमुनी संस्कृति में पले-बढ़े तथा भारतीय तथा पाश्चात्य संगीत का अनुभव रखने वाले अल्वी ने कविताएँ लिखीं, उन्हें संगीतबद्ध किया और गाया तथा उस एल्बम का नाम दिया 'बैलेंस इन लाइफ'।

अल्वी ने ऑस्ट्रेलिया की ढेरों सांस्कृतिक तथा सामुदायिक संस्थानों के साथ काम किया। इसके साथ ही साथ इन्होंने साहित्य, रंगमंच, रेडियो व टीवी कार्यक्रमों के लिए भी काम किया। लेकिन ये दिल से कवि थे, कविताएँ इनके अंतर्मन के तार छेड़ती थी, इसलिए लिखने का काम सर्वोपरि रहा।

ऑस्ट्रेलिया में इनका पहला ऑडियो एल्बम रीलिज हुआ 'कर्बला को सलाम' जो इनके स्वर्गीय पिता जनाब मुनव्वर अब्बास अल्वी को समर्पित थी। इसके बाद 'मुनव्वर प्रोडक्शन' के बैनर तले इन्होंने प्रवासियों की भावनाओं को समाहित करते हुए एल्बम बनाया 'दूरियाँ'। फिलहाल ये 'राहत', 'फायर एण्ड गंगा', 'नज़दीकियाँ' और 'बनबास' इत्यादि संगीत-सीडियों पर काम कर रहे हैं। इन्होंने संगीत के माध्यम से समाज में जागृति पैदा करने की कोशिश की है। दुनिया के सभी मत्वपूर्ण मुद्दों यथा पर्यावरण, प्रदूषण, आतंकवाद आदि विषयों पर संगीत-निर्माण में दिलचस्पी रखने वाले अब्बास आज एक अलग तरह का गीत आप सबके के लिए लेकर आये हैं।

यह गीत है मशहूर गीतकार गोपालदास नीरज का लिखा हुआ। गाया है सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) के ही मिण्टू और पुष्पा ने। संगीत दिया है खुद अब्बास रज़ा अल्वी ने। सुनें, आप भी अपने बचपन में पहुँच जायेंगे।



गीत के बोल

बचपन के जमाने में
हम-तुम जो बनाते थे।
मिट्टी के घरोंदे वो
याद आज भी आते हैं।

बचपन के जमाने में
हम तुम जो बनाते थे।
मिट्टी के घरोंदे वो
याद आज भी आते हैं।

बचपन के जमाने में॰॰

पनघट पे गगरियों का
पल-पल जल छलकाना।
छलका-छलका कर जल
घूँघट मे मुसकाना।

पनघट पे गगरियों का
पल-पल जल छलकाना।
छलका-छलका कर जल
घूँघट मे मुसकाना।

अब तक नज़रों में वो
मंजर लहराते हैं।
मिट्टी के घरोंदे वो
याद आज भी आते हैं।

बचपन के जमाने में
हम तुम जो बनाते थे।
मिट्टी के घरोंदे वो
याद आज भी आते है।

बचपन के जमाने में॰॰॰॰

रामू के बगीचे में
आमों का चुराना वो।
बरसात के मौसम में
सड़कों पे नहाना वो।

रामू के बगीचे में
आमों का चुराना वो।
बरसात के मौसम में
सडकों पे नहाना वो।

इतना सुख देते थे
अब इतना रुलाते हैं।
मिट्टी के घरोंदे वो
याद आज भी आते हैं।

बचपन के जमाने में
हम तुम जो बनाते थे।
मिट्टी के घरोंदे वो
याद आज भी आते हैं।

बचपन के जमाने में॰॰॰

दादी की कहानी की
याद आज भी आती है।
अम्मी की प्यार भरी
लोरी तड़पाती है।

जब याद वतन आता
हम मर-मर जाते हैं।
मिट्टी के घरोंदे वो
याद आज भी आते हैं।

बचपन के जमाने में
हम-तुम जो बनाते थे
मिट्टी के घरोंदे वो
याद आज भी आते हैं।

बचपन के जमाने में॰॰॰



Wednesday, May 20, 2009

अपनी आँखों में बसा कर कोई इकरार करूँ...प्रेम की कोमल भावनाओं से सराबोर एक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 86

हा जाता है कि प्यार अंधा होता है, या फिर प्यार इंसान को अंधा बना देता है। लेकिन उस प्यार को आप क्या कहेंगे जो एक नेत्रहीन व्यक्ति अपनी मन की आँखों से करे? वह कैसे अपने प्यार का इज़हार करे, कैसे वह अपनी महबूबा की ख़ूबसूरती का बयान करे? आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जो गीत हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वही गीत इन सवालों का जवाब भी है। यह गीत इस बात का सबूत है कि प्यार की बस एक ही शर्त है, कि वो दो सच्चे दिलवालों में होनी चाहिए, बाक़ी और कुछ भी कोई मायने नहीं रखता। अगर दिल प्यार की अनुभूती को महसूस कर सकता है तो फिर आँखों की क्या ज़रूरत है! फ़िल्म 'ठोकर' का प्रस्तुत गीत "अपनी आँखों में बसाकर कोई इक़रार करूँ" प्रमाण है इस बात का कि एक नज़रों से लाचार आदमी के लिए प्यार कितना सुंदर हो सकता है। गीत में नेत्रहीन नायक अपनी नायिका को अपनी आँखों में बसाने की बात करता है क्योंकि उसे यक़ीन है कि आँखों के ज़रिए प्यार सीधे दिल में उतर जायेगा। ७० के दशक के बीचों बीच आयी इस गीत में रफ़ी साहब की आवाज़ का जादू वैसा ही बरक़रार है जैसा कि ५० और ६० के दशक में था।

१९७४ मे आयी फ़िल्म 'ठोकर' के गीतकार थे साजन दहल्वी जिन्होने इस गीत के ज़रिए ७० के ज़माने के नौजवानों के दिलों में प्यार की एक नयी अनुभूती पैदा कर दी थी। हिंदी फ़िल्मों में इस तरह के गीतों की भरमार रही है शुरु से ही, लेकिन रफ़ी साहब की आवाज़ में 'ठोकर' का यह गीत बहुत से ऐसे गीतों से बिल्कुल जुदा है, भीड़ से हट के है। संगीतकार श्यामजी-घनश्यामजी ने इस गाने की तर्ज़ बनाई थी और क्या ख़ूब बनाई थी। एक ताज़े हवा के झोंके की तरह यह गीत आया था जिसकी ख़ुशबू उस ज़माने के प्रेमियों ने ख़ूब बटोरी, और आज भी वही महक बरक़रार है। इस गीत के गीतकार और संगीतकार तो कमचर्चित ही रह गये लेकिन वो अपने इस गीत को ज़रूर अमर कर गये हैं। फ़िल्म 'ठोकर' का निर्देशन किया था दिलीप बोस ने। फ़िल्म की कहानी यह सबक सिखाती है कि जिन्दगी में पैसा ही सब कुछ नहीं है, बल्कि जीवन में सच्चा सुख किसी के प्यार से ही मिल सकता है। "मैने कब तुझसे ज़माने की ख़ुशी माँगी है, एक हल्की सी मेरे लब ने हँसी माँगी है, साथ छूटे ना कभी तेरा यह क़सम ले लूँ, हर ख़ुशी देके तुझे तेरे सनम ग़म ले लूँ"। साजन दहल्वी के इन्ही ख़ूबसूरत बोलों में ग़ोते लगाते हुए यह गीत सुनिए और इस गीतकार संगीतकार तिकड़ी को धन्यवाद दीजिए हमारे लिए एक ऐसी सुंदर रचना छोड़ जाने के लिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. शमशाद बेगम का सदाबहार गीत.
२. वहीदा रहमान की पहली हिंदी फिल्म का है ये गीत.
३. मुखड़े में शब्द है -"नदी".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
रचना जी को जोरदार बधाई...आजकल हमारे धुरंधर कैसे गुमशुदा हैं :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



पतझर सावन बसंत बहार...अनुराग शर्मा के काव्य संग्रह पर पंकज सुबीर की समीक्षा




पॉडकास्ट पुस्तक समीक्षा
पुस्तक - पतझर सावन बसंत बहार (काव्य संग्रह)
लेखक - अनुराग शर्मा और साथी (वैशाली सरल, विभा दत्‍त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्‍ता, प्रदीप मनोरिया)
समीक्षक - पंकज सुबीर


पिट्सबर्ग अमेरिका में रहने वाले भारतीय कवि श्री अनुराग शर्मा का नाम वैसे तो साहित्‍य जगत और नेट जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है । किन्‍तु फिर भी यदि उनकी कविताओं के माध्‍यम से उनको और जानना हो तो उनके काव्‍य संग्रह पतझड़, सावन, वसंत, बहार को पढ़ना होगा । ये काव्‍य संग्रह छ: कवियों वैशाली सरल, विभा दत्‍त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्‍ता, प्रदीप मनोरिया और अनुराग शर्मा की कविताओं का संकलन है । यदि अनुराग जी की कविताओं की बात की जाये तो उन कविताओं में एक स्‍थायी स्‍वर है और वो स्‍वर है सेडनेस का उदासी का । वैसे भी उदासी को कविता का स्‍थायी भाव माना जाता है । अनुराग जी की सारी कविताओं में एक टीस है, ये टीस अलग अलग जगहों पर अलग अलग चेहरे लगा कर कविताओं में से झांकती दिखाई देती है । टीस नाम की उनकी एक कविता भी इस संग्रह में है ’’एक टीस सी उठती है, रात भर नींद मुझसे आंख मिचौली करती है ।‘’

अनुराग जी की कविताओं की एक विशेषता ये है कि उनकी छंदमुक्‍त कविताएं उनकी छंदबद्ध कविताओं की तुलना में अधिक प्रवाहमान हैं । जैसे एक कविता है ‘जब हम साथ चल रहे थे तक एकाकीपन की कल्‍पना भी कर जाती थी उदास’ ये कविता विशुद्ध रूप से एकाकीपन की कविता है, इसमें मन के वीतरागीपन की झलक शब्‍दों में साफ दिखाई दे रही है । विरह एक ऐसी अवस्‍था होती है जो सबसे ज्‍यादा प्रेरक होती है काव्‍य के सृजन के लिये । विशेषकर अनुराग जी के संदर्भ में तो ये और भी सटीक लगता है क्‍योंकि उनकी कविताओं की पंक्तियों में वो ‘तुम’ हर कहीं नजर आता है । ‘तुम’ जो कि हर विरह का कारण होता है । ‘तुम’ जो कि हर बार काव्‍य सृजन का एक मुख्‍य हेतु हो जाता है । ‘घर सारा ही तुम ले गये, कुछ तिनके ही बस फेंक गये, उनको ही चुनता रहता हूं, बीते पल बुनता रहता हूं ‘ स्‍मृतियां, सुधियां, यादें कितने ही नाम दे लो लेकिन बात तो वही है । अनुराग जी की कविताओं जब भी ‘तुम’ आता है तो शब्‍दों में से छलकते हुए आंसुओं के कतरे साफ दिखाई देते हैं । साफ नजर आता है कि शब्‍द उसांसें भर रहे हैं, मानो गर्मियों की एक थमी हुई शाम में बहुत सहमी हुई सी मद्धम हवा चल रही हो । जब हार जाते हैं तो कह उठते हैं अपने ‘तुम’ से ‘ कुछेक दिन और यूं ही मुझे अकेले रहने दो’ । अकेले रहने दो से क्‍या अभिप्राय है कवि का । किसके साथ अकेले रहना चाहता है कवि । कुछ नहीं कुछ नहीं बस एक मौन सी उदासी के साथ, जिस उदासी में और कुछ न हो बस नीरवता हो, इतनी नीरवता कि अपनी सांसों की आवाज को भी सुना जा सके और आंखों से गिरते हुए आंसुओं की ध्‍वनि भी सुनाई दे ।

एक कविता में एक नाम भी आया है जो निश्चित रूप से उस ‘तुम’ का नहीं हो सकता क्‍योंकि कोई भी कवि अपनी उस ‘तुम’ को कभी भी सार्वजनिक नहीं करता, उसे वो अपने दिल के किसी कोने में इस प्रकार से छुपा देता है कि आंखों से झांक कर उसका पता न लगाया जा सके । "पतझड़ सावन वसंत बहार" संग्रह में अनुराग जी ने जो उदासी का माहौल रचा है उसे पढ़ कर ही ज्‍यादा समझा जा सकता है । क्‍योंकि उदासी सुनने की चीज नहीं है वो तो महसूसने की चीज है सो इसे पढ़ कर महसूस करें ।

इसी संग्रह से पेश है कुछ कवितायें, पंकज सुबीर और मोनिका हठीला के स्वरों में -
एक टीस सी उठती है...


जब हम चल रहे थे साथ साथ...


मेरे ख़त सब को पढाने से भला क्या होगा...


जब तुम्हे दिया तो अक्षत था...


कुछ एक दिन और...


जिधर देखूं फिजा में रंग मुझको....


साथ तुम्हारा होता तो..


पलक झपकते ही...


कितना खोया कितना पाया....






Tuesday, May 19, 2009

सागर मिले कौन से जल में....जीवन की तमाम सच्चाइयां समेटे है ये छोटा सा गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 85

जीवन दर्शन पर आधारित गीतों की जब बात चलती है तो गीतकार इंदीवर का नाम झट से ज़हन में आ जाता है। यूँ तो संगीतकार जोड़ी कल्याणजी - आनंदजी के साथ इन्होने बहुत सारे ऐसे गीत लिखे हैं, लेकिन आज हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में उनके लिखे जिस दार्शनिक गीत को आप तक पहुँचा रहे हैं वो संगीतकार रोशन की धुन पर लिखा गया था। मुकेश और साथियों की आवाज़ों में यह गीत है फ़िल्म 'अनोखी रात' का - "ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना". १९६८ में प्रदर्शित यह फ़िल्म रोशन की अंतिम फ़िल्म थी। इसी फ़िल्म के गीतों के साथ रोशन की संगीत यात्रा और साथ ही उनकी जीवन यात्रा भी अचानक समाप्त हो गई थी १९६७, १६ नवंबर के दिन। अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनका अकाल निधन हो गया। इसे भाग्य का परिहास ही कहिए या फिर काल की क्रूरता कि जीवन की इसी क्षणभंगुरता को साकार किया था रोशन साहब के इस गीत ने, और यही गीत उनकी आख़िरी गीत बनकर रह गया. ऐसा लगा जैसे उनका यह गीत उन्होने अपने आप पर ही सच साबित करके दिखाया। इंदीवर ने जो भाव इस गीत में साकार किया है और जिस तरह से पेश किया है, वह फिर उनके बाद कोई दूसरा गीतकार नहीं कर पाया.। यह गीत अपनी तरह का एकमात्र गीत है। एक अंतरे में वो लिखते हैं "अंजाने होठों पर क्यों पहचाने गीत हैं, कल तक जो बेगाने थे जनमों के मीत हैं, क्या होगा कौन से पल में कोई जाने ना"। ज़िन्दगी कब कहाँ कैसा खेल रच देती है यह पहले से कोई नहीं जान सकता, और यही फ़लसफ़ा है इस गीत का आधार।

रोशन के इंतक़ाल के बाद उनकी इस अधूरी फ़िल्म का एक गीत "ख़ुशी ख़ुशी कर दो विदा, हमारी बेटी राज करेगी" उनके मुख्य सहायक संगीतकार श्याम राज ने पूरा किया था। रोशन साहब की पत्नी इरा रोशन का भी योगदान था इस फ़िल्म के संगीत में। अपने पिता को श्रद्धाजंली स्वरूप राजेश रोशन ने इसी गीत की धुन पर आगे चलकर फ़िल्म 'ख़ुदगर्ज़' में एक गीत बनाया था "यहीं कहीं जियरा हमार"। फ़िल्म 'अनोखी रात' का निर्माण किया था एल. बी. लक्ष्मण ने और इसका निर्देशन किया था असित सेन ने। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे संजीव कुमार और ज़हीदा। तो लीजिए, ज़िन्दगी की अनिश्चयता को दर्शाता यह गीत सुनिए मुकेश की पुर-असर आवाज़ में। यह 'आवाज़' की तरफ़ से श्रद्धाजंली है संगीतकार रोशन की सुर साधना को।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. साजन दहलवी का लिखा और श्याम जी घनश्याम का संगीतबद्ध गीत.
२. रफी साहब की आवाज़ में एक मधुर प्रेम गीत.
३. एक अंतरा इस तरह शुरू होता है -"मैंने कब तुझसे".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम-
नीलम जी का तुक्का सही है. मनु जी और पराग जी ने भी बधाई के पात्र हैं....पराग जी आपने बहुत ही अच्छा गीत याद दिलाया...इसे भी कभी ज़रूर सुनेंगे.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



"ज़िंदगी तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकराएगी - प्रकाश मेहरा को हिंद युग्म की श्रद्धांजली



एक नौजवान, नाकाम और हताश, मुंबई में मिली असफलताओं का बोझ दिल में लिए घर लौटने की तैयारी कर रहा था कि उसे एक युवा निर्देशक ने रुकने की हिदायत दी, और अपनी एक छोटे बजट की फिल्म में उस नौजवान को मुख्य रोल की पेशकश दी. नौजवान ने उस निर्देशक पर विश्वास किया और सोचा कि एक आखिरी दाव खेल लिया जाए. फिल्म बनी और और जब दर्शकों तक पहुँची तो कमियाबी की एक नयी कहानी लिखी जा चुकी थी... दोस्तों, वो नौजवान थे अमिताभ बच्चन और वो युवा निर्देशक थे प्रकाश मेहरा.

प्रकाश मेहरा, एक एक ऐसे जादूगर फ़िल्मकार, जिन्होने ज़िंदगी को एक जुआ समझकर पूरे आन बान से हाथ की सफ़ाई, और हेरा फेरी की हर ज़ंजीर तोड़ी, और तब जाकर कहलाये मुक़द्दर का सिकंदर । फ़िल्म जगत के ये सिकंदर यानी कि असंख्य हिट फ़िल्मों के निर्माता, निर्देशक और गीतकार प्रकाश मेहरा अब हमारे बीच नहीं रहे। उनकी मृत्यु की ख़बर सुनकर न जाने क्यों सबसे पहले 'मुक़द्दर का सिकंदर' फ़िल्म के शीर्षक गीत की वो लाइनें याद आ रहीं हैं कि -

"ज़िंदगी तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकराएगी,
मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी,
मर के जीने की अदा जो दुनिया को सिखलाएगा,
वो मुक़द्दर का सिकंदर जानेमन कहलाएगा।"


प्रकाश मेहरा फ़िल्म इंडस्ट्री के एक सशक्त स्तम्भ रहे हैं और उनके चले जाने से फ़िल्म जगत मे मानो एक विशाल शून्य सा पैदा हो गया है। प्रकाश मेहरा जब फ़िल्म इंडस्ट्री मे आये थे तब अपने शुरूआती दिनों में वो गीत लेखन का काम करते थे, यानी कि वो एक गीतकार के हैसियत से यहाँ पधारे थे। उस वक़्त उनका साथ दिया था संगीतकार जोड़ी कल्याणजी आनंदजी ने। तभी तो जब वो ख़ुद निर्माता निर्देशक बने, तो उन्होने अपनी फ़िल्मों के संगीत के लिए कल्याणजी आनंदजी को ही चुना। उजाला और प्रोफेसर जैसी फिल्मों में उन्होंने प्रोडक्शन नियंत्रण का काम संभाला पर बतौर निर्देशक प्रकाश मेहरा की पहचान बनी फ़िल्म 'हसीना मान जाएगी' से। शशी कपूर और बबिता अभिनीत यह फ़िल्म बेहद सफल रही और इसके सभी गीत भी बेहद मकबूल रहे ख़ास कर "बेखुदी में सनम" और "कभी रात दिन ..". इस फ़िल्म की सफलता ने मेहरा साहब को इंडस्ट्री मे स्थापित कर दिया और फिर उसके बाद वो एक के बाद एक सफल फ़िल्में लगातार देते चले गये, जैसे कि मेला (इस फिल्म में फिरोज़ खान और संजय खान एक साथ नज़र आये), आन बान, समाधी (इसी फिल्म में था वो मशहूर गीत "काँटा लगा"), वगैरह.

बात १९७२ की है जब प्रकाश मेहरा एक नयी कास्ट के साथ एक 'लो बजट' फ़िल्म बनाने की सोच रहे थे। इस फ़िल्म मे एक पठान की भूमिका के लिए वो प्राण साहब को 'साइन' करवाना चाह रहे थे। लेकिन मनोज कुमार ने उसी समय अपनी फ़िल्म 'शोर' मे भी उन्हे ऐसे ही एक रोल का ऑफर कर चुके थे। आख़िर मे प्राण साहब ने प्रकाश मेहरा को ही 'हाँ' कहा था। अब तक तो आप समझ ही गये होंगे कि हम किस फिल्म का ज़िक्र कर रहे हैं. ये फिल्म थी सन १९७३ मे प्रदर्शित 'ज़ंजीर'। और यही वह फ़िल्म थी जिसने हमें दिया एक महानायक, 'मेगा स्टार औफ़ द मिलेनियम' अमिताभ बच्चन, और उनके साथ थीं जया भादुड़ी। इस फ़िल्म के गीत "यारी है इमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी" के लिए गीतकार गुलशन बावरा को उस साल के सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार दिया गया था। प्रकाश मेहरा और अमिताभ बच्चन का साथ जो 'ज़ंजीर' से बना था, आगे आनेवाले दिनों में हम सब ने देखा उस जोड़ी को सफलता का नया इतिहास रचते हुए फ़िल्म लावारिस, शराबी, हेरा फेरी, मुक़द्दर का सिकंदर, और नमक हलाल जैसी सुपरहिट फ़िल्मों में।

फ़िल्म 'ज़ंजीर' से पहले प्रकाश मेहरा स्थापित तो हो चुके थे, लेकिन इस फ़िल्म ने उन्हे एक ऐसे मुक़ाम पर पहुँचाया जहाँ से वो फ़िल्म इंडस्ट्री पर हुकुमत करने लगे। उन्होने फ़िल्म निर्माण मे अपने हाथ ऐसे जमाये कि १९७४ मे कहलायी 'हाथ की सफ़ाई'। जी हाँ, रणधीर कपूर, हेमा मालिनी, विनोद खन्ना और सिमि गरेवाल अभिनीत यह फ़िल्म भी काफ़ी हिट रही, फ़िल्म के गाने भी लोकप्रिय हुए, ख़ासकर "वादा करले साजना" गीत तो अक्सर सुनाई दे जाता है। क्योंकि प्रकाश मेहरा ख़ुद भी एक गीतकार रहे हैं, उनके फ़िल्मों में गीत संगीत का पक्ष हमेशा ही मज़बूत रहा है। अपनी खुद की लगभग हर फिल्म में उनका एक गीत अवश्य होता था, फिल्म शराबी में "इन्तहा हो गयी..." गीत के लिए उन्हें गीतकार अनजान के साथ फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ गीतकार का नामांकन भी मिला. इसी फ़िल्म के लिए संगीतकार बप्पी लाहिड़ी को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार मिला था।

१९७८ मे प्रकाश मेहरा और अमिताभ बच्चन ने जो हंगामा किया वो आज एक इतिहास बन चुका है, और हमेशा हमेशा के लिए हमारे दिल मे बस गया है। हमारा इशारा 'मुक़द्दर का सिकंदर' फ़िल्म की तरफ़ है। फिल्म अपने गीत संगीत, सशक्त कहानी और जबरदस्त स्टार कास्ट के चलते इस कदर कामियाब हुई कि इस फिल्म से जुड़े हर कलाकार के कैरियर के लिए एक मील का पत्थर बन गयी. पर जानकार शराबी को उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानते हैं, जिसमें उन्होंने अमिताभ से एक जटिल किरदार को परदे पर साकार करवाया. अमिताभ और प्रकाश की जोड़ी आखिरी बार नज़र आई फिल्म जादूगर में. ये फिल्म नाकामियाब रही. प्रकाश की आखिरी फिल्म रही पुरु राजकुमार अभिनीत बाल ब्रमचारी. प्रकाश मेहरा ने ही इंडस्ट्री को अलका याग्निक जैसी गायिका दी.

आज प्रकाश मेहरा हमसे बहुत दूर चले गये हैं जहाँ से लौटना संभव नहीं। लेकिन वो हमेशा अमर रहेंगे अपनी लोकप्रिय फ़िल्मों के ज़रिये, अपनी कामयाब फ़िल्मों के ज़रिये वो लोगों के दिलों मे हमेशा राज करते रहेंगे।

"वो सिकंदर क्या था जिसने ज़ुल्म से जीता जहाँ,
प्यार से जीते दिलों को वो झुका दे आसमाँ,
जो सितारों पर कहानी प्यार की लिख जाएगा,
वो मुक़द्दर का सिकंदर जानेमन कहलाएगा।"


अपनी फ़िल्मों के ज़रिए लोगों को प्यार करना सिखाया है प्रकाश मेहरा ने। प्यार के कई आयामों को साकार करने वाले प्रकाश मेहरा ज़िंदा हैं और हमेशा रहेंगे अपने चाहनेवालों के दिलों में। हिंद युग्म की तरफ़ से प्रकाश मेहरा की स्मृति को श्रद्धा सुमन, भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। हम आज आपके लिए लाये हैं उनकी तीन फिल्मों से कुछ यादगार सीन. देखिये और याद कीजिये उस निर्देशक को जिनकी इन फिल्मों ने हमें कई यादगार लम्हें दिए हैं जीवन के.



प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी



Monday, May 18, 2009

अखियाँ भूल गयी हैं सोना....सोने सा चमकता है ये गीत आज ५० सालों के बाद भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 84

ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक बहुत ही ख़ुशनुमा, चुलबुला सा, गुदगुदाने वाला गीत लेकर हम हाज़िर हुए हैं। दोस्तों, हमारी फ़िल्मों में कुछ 'सिचुएशन' ऐसे होते हैं जो बड़े ही जाने पहचाने से होते हैं और जो सालों से चले आ रहे हैं। लेकिन पुराने होते हुए भी ये 'सिचुएशन' आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि उस ज़माने में हुआ करते थे। ऐसी ही एक 'सिचुएशन' हमारी फ़िल्मों में हुआ करती है कि जिसमें सखियाँ नायिका को उसके नायक और उसकी प्रेम कहानी को लेकर छेड़ती हैं और नायिका पहले तो इन्कार करती हैं लेकिन आख़िर में मान जाती हैं लाज भरी अखियाँ लिए। 'सिचुएशन' तो हमने आपको बता दी, हम बारी है 'लोकेशन' की। तो ऐसे 'सिचुएशन' के लिए गाँव के पनघट से बेहतर और कौन सा 'लोकेशन' हो सकता है भला! फ़िल्म 'गूँज उठी शहनाई' में भी एक ऐसा ही गीत था। यह फ़िल्म आज से पूरे ५० साल पहले, यानी कि १९५९ में आयी थी, लेकिन आज के दौर में भी यह गीत उतना ही आनंददायक है कि जितना उस समय था। गीता दत्त, लता मंगेशकर और सखियों की आवाज़ों में यह गीत बना है आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शान। गीतकार भरत व्यास और संगीतकार वसंत देसाई की यह रचना है।

फ़िल्म 'गूँज उठी शहनाई' का एक गीत हमने आपको पहले भी सुनवाया है और इस फ़िल्म से संबन्धित कुछ जानकारियाँ भी दी हैं हमने। इस फ़िल्म के ज़्यादातर गीत लताजी और रफ़ी साहब ने गाये। लेकिन प्रस्तुत गीत में मुख्य आवाज़ गीता दत्त की है जो नायिका की सहेली का पार्श्वगायन करती हैं। मुखड़ा और दो अंतरे में गीताजी और साथियों की आवाज़ें सुनने को मिलती हैं, लेकिन दूसरा अंतरा लताजी का है जिसमें नायिका अपने मन की बात बताती हैं अपनी सखियों को। अपने दिलकश गीत संगीत की वजह से यह फ़िल्म अपने ज़माने की बेहद मशहूर फ़िल्म रही है, और फ़िल्म के हर एक गीत ने इतिहास क़ायम किया है। इस गीत का संगीत संयोजन भी बड़ा निराला है। इसमें शामिल किए गए संगीत के 'पीसेस' इतने अलग हैं, इतने ज़्यादा 'प्रामिनेन्ट' हैं कि ये धुनें इस गीत की पहचान बन गये हैं। विविध भारती पर रविवार दोपहर को प्रसारित होनेवाली 'जयमाला गोल्ड' कार्यक्रम का शीर्षक संगीत भी इसी गीत से लिया गया था। सच में, ये धुनें इसी के क़ाबिल हैं। आज भी इस गीत की धुनें हमें गुदगुदाती है, दिल में एक अजीब मुस्कान जगाती है, कुछ पल के लिए ही सही लेकिन इस तनाव भरी ज़िन्दगी में थोड़ा सा सुकून ज़रूर दे जाता है यह गीत। तो लीजिए आप भी इस सुकून और मुस्कुराहट का अनुभव कीजिए इस थिरकते हुए गीत को सुनकर, "अखियाँ भूल गयीं हैं देखो सोना..."।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. रोशन साहब की अंतिम फिल्म का यादगार गीत.
२. मुकेश की आवाज़ में इन्दीवर की रचना.
३. मुखड़े में शब्द है -"जल".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम-
पराग जी ने बाज़ी मारी है आज. मनु जी और रचना जी आपको भी बधाई...एक दम सही जवाब....गीत का आनंद लें.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



जब तेरी धुन में जिया करते थे.....महफ़िल-ए-हसरत और बाबा नुसरत



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१४

कुछ फ़नकार ऐसे होते हैं, जिनकी ना तो कोई कृति पुरानी होती है और ना हीं कीर्ति पर कोई दाग लगता है। वह फ़नकार चाहे मर भी जाए लेकिन फ़न की मौत नहीं होती और यकीन मानिए- एक सच्चे फ़नकार की परिभाषा भी यही है। एक ऐसे हीं फ़नकार हैं जिनके बारे में जितना भी लिखा जाए,ना तो दिल को संतुष्टि मिलती है और ना हीं कलम को चैन नसीब होता है। कहने को तो १९९७ में हीं उस फ़नकार ने इस ईहलोक को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था,लेकिन अब भी फ़िज़ा में उनके सुरों की खनक और आवाज़ की चमक यथास्थान मौजूद है। ना हीं वक्त उसे मिटा पाया है और ना हीं मौत उसे बेअसर कर पाई है। उसी "शहंशाह-ए-कव्वाली", जिसे २००६ में "टाईम मैगजीन" ने "एशियन हिरोज" की फ़ेहरिश्त में शुमार किया था, की एक गज़ल लेकर हम आज यहाँ जमा हुए हैं। वह गज़ल वास्तव में सत्तर के दशक की है,जिसे पाकिस्तान के रिकार्ड लेबल "रहमत ग्रामोफोन" के लिए रिकार्ड किया गया था और यही कारण है कि तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम नहीं कर पाया। लेकिन परेशान मत होईये, गज़लगो का नाम नहीं मिला तो क्या, हम आपके लिए वह गज़ल छोटे रूप और पूर्ण रूप दोनों में लेकर आए हैं। आ गए सकते में? दर-असल पाँच मिनट से भी बड़ी इस रिकार्डिंग में गज़ल के बस दो हीं शेर हैं,जिसे आज के फ़नकार ने राग और आलाप से इस कदर सजाया है कि सुनने वाला गज़ल में खो-सा जाता है और उसे इस बात का भी इल्म नहीं होता कि शब्द कहाँ है और संगीत कहाँ है, दुनिया कहाँ है और वह शख्स खुद कहाँ है। तो चलिए, आप पहचानिए उस फ़नकार को और हाँ उस गज़ल को भी।

१९९७ में सुपूर्द-ए-खाक हुए नुसरत फ़तेह अली खान साहब की दसवीं वर्षगांठ पर "सिक्स डिग्री रिकार्ड्स" ने "डब कव्वाली" नाम की एक गज़लों और कव्वालियों की एक एलबम रीलिज की थी। "डब" नाम सुनकर मुझे पहली मर्तबा यह लगा कि एलबम की हरेक पेशकश किसी न किसी पुरानी गज़ल या कव्वाली की डबिंग मात्र है। गहन जाँच-पड़ताल और खोज-बीन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि "डब" महज कोई "डबिंग" नहीं है, बल्कि यह संगीत की एक विधा है। "डब" एक तरह का "रेग(reggae)" संगीत है, जिसका प्रादुर्भाव "जमैका" में हुआ था। "डब" संगीत की शुरूआत "ली स्क्रैच पेरी" और "किंग टैबी" जैसे संगीत के निर्माताओं ने की थी और "अगस्तस पाब्लो" और "माइकी ड्रेड" जैसे महानुभावों ने इस संगीत का प्रचार-प्रसार किया था। इस संगीत की खासियत यह है कि इसमें "ड्रम" और "बैस वाद्ययंत्रों(जो मुख्यत: लो पिच्ड ट्युन्स के लिए उपयोग किए जाते हैं" पर जोर दिया जाता है। आप जब "डब कव्वाली" की किसी भी प्रस्तुति को सुनेंगे तो आपको ड्रम और बैस गिटार का बढिया इस्तेमाल दिखाई देगा। इस एलबम को तैयार करने में जिस इंसान का सबसे बड़ा हाथ है(नुसरत साहब के बाद), उसका नाम है "गौडी" । "गौडी" जोकि एक इटालियन/ब्रिटिश संगीत निर्माता हैं,उन्होंने इस एलबम में एक अलग हीं प्रयोग किया है। जहाँ "बैली सागू(bally sagoo)" जैसे लोग किसी भी प्रस्तुति को नया रूप देने के लिए बस पुराने गानों की मिक्सिंग कर दिया करते हैं, वहीं "गौडी" ने नुसरत साहब के पुराने गानों से बस उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया और उस आवाज़ को अपने नए "डब" संगीत के साथ फ्युजन कर एक अनोखा हीं रूप दे दिया। अब इस जुगलबंदी का असर देखिए कि हम संगीत-प्रेमियों को कई नए और ताजातरीन नगमें सुनने को मिल गए। भले हीं इन नगमों की आत्मा पुरानी है, लेकिन नए कलेवर ने पुरानी आत्मा का काया-कल्प कर दिया है। मैं ये सारी बातें आप सबके साथ इसलिए शेयर कर रहा हूँ, क्यूँकि एक तो इस तरह संगीत के अलग-अलग विधाओं की जानकारी आपको मिल जाएगी और दूसरा कि ७० के दशक की मूल गज़ल तमाम कोशिशों के बावजूद मुझे नहीं मिली और इसलिए मैं इसी एलबम की गज़ल आपको सुनाने को बाध्य हूँ।

"जब तेरी धुन में जिया करते थे", इस गज़ल को बाबा नुसरत की सर्वश्रेष्ठ गज़लों में शुमार किया जाता है। गज़ल की शुरूआत और अंत में बाबा ने जो आलाप लिए हैं,उसे सुनकर किसी के भी रौंगटे खड़े हो जाएँ। बाबा के आलापों का असर इसलिए भी ज्यादा होता है क्योंकि बाबा गाने में "सरगम" तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें गाने के दौरान "नोट्स के नाम" भी गाए जाते हैं। रही बात इस गज़ल की तो इस गज़ल में प्यार का इकरार एक अलग हीं अंदाज से किया गया है। वैसे प्यार है हीं ऐसी चीज जिसे समझना और निबाहना दुनिया के बाकी तौर-तरीकों से बिल्कुल जुदा है। कभी चचा ग़ालिब ने प्यार को नज़र करके कहा था:
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले


चलिए बातें तो बहुत हो गईं, अब सीधे आज की गज़ल की ओर रूख करते हैं:

जब तेरे दर्द में दिल दुखता था,
हम तेरे हक़ में दुआ करते थे,
हम भी चुपचाप फिरा करते थे,
जब तेरी धुन में जिया करते थे।


जी हाँ, नुसरत साहब की आवाज़ में बस इतनी हीं गज़ल है। लेकिन अगर आप पूरी गज़ल का लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो हम आपको ऐसे हीं नहीं जाने देंगे। लीजिए पेश है पूरी गज़ल:

जब तेरी धुन में जिया करते थे,
हम भी चुपचाप फिरा करते थे।

आँख में प्यास हुआ करती थी,
दिल में तूफान उठा करते थे।

लोग आते थे गज़ल सुनने को,
हम तेरी बात किया करते थे।

सच समझते थे तेरे वादों को,
रात-दिन घर में रहा करते थे।

किसी वीराने में तुझसे मिलकर,
दिल में क्या फूल खिला करते थे।

घर की दीवार सजाने के लिए,
हम तेरा नाम लिखा करते थे।

वो भी क्या दिन थे भूलाकर तुझको,
हम तुझे याद किया करते थे।

जब तेरे दर्द में दिल दुखता था,
हम तेरे हक़ में दुआ करते थे।

बुझने लगता था जो तेरा चेहरा,
दाग़ सीने में जला करते थे।

अपने आँसू भी सितारों की तरह,
तेरे ओठों पर सजा करते थे।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

____ से,फूल से,या मेरी जुबाँ से सुनिए
हर तरफ आपका किस्सा है जहाँ से सुनिए


आपके विकल्प हैं -
a) पेड़, b) बाग़, c) चाँद, d) रात

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का शब्द था -"किताब" और सही शेर था-

धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो,
जिंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो..

सबसे पहले सही जवाब दिया नीलम जी और उन्होंने दो शेर भी अर्ज किये -

किताबों में झरने गुनगुनाते हैं ,
परियों के किस्से सुनाते हैं ,
-सफ़दर हासमी

अबकी बिछडे तो शायद ख़्वाबों में मिले ,
जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिले |
-फराज अहमद

वाह नीलम जी बधाई...किताबों के नाम पर महफिल में अच्छा खासा रंग जमा, तपन जी ने फ़रमाया -

बच्चों के नन्हे हाथों को चाँद सितारें छूने दो.
चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएँगे

वाह...इस पर शन्नो जी ने ये कहकर चुटकी ली -

खुली किताब की तरह है किसी की जिन्दगी
जिसके पन्ने किसी के पढ़ने को फडफडाते हैं

केशवेन्द्र जी शायद पहली बार तशरीफ़ लाये और सफ़दर हाश्मी साहब का ये शेर याद दिला गए -

किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं..

बहुत खूब....रचना जी ने कुछ यूँ कह कर आगाह किया -

बंद किताब के पन्ने न खोलना
है कई राज दफन इसके सीने में

सही कहा आपने...अब मनु जी कहाँ पीछे रहने वाले थे भाई वो भी फरमा गए -

तू तो कह देगा के अनपढ़ भी है, जाहिल भी है
"बे-तखल्लुस" क्या कहेंगे ये किताबों वाले..?

नीलम जी ने जिस ग़ज़ल का जिक्र किया उसके बोल कुछ यूँ थे -

किताबों से कभी गुजरो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गए वक्तों की ड्योढी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं,
जिन्हें हम दिल का वीराना समझ कर छोड़ आये थे,
वहीँ उजडे हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं...

वाह गुलज़ार साहब...क्या बात कही है आपने.....ये ग़ज़ल बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिली, यदि किसी श्रोता के पास उपलब्ध हों तो ज़रूर बांटे.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Sunday, May 17, 2009

आसमां पे है खुदा और जमीं पे हम...आजकल वो इस तरफ देखता है कम...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 83

साहिर लुधियानवी एक ऐसे गीतकार रहे हैं कि उन्होने जो भी गाने लिखे वो आम जनता के होठों की शान बन गये। उन्होने अपनी शायरी और नग़मों में ऐसे ऐसे ख़यालात पेश किये हैं कि जिसने भी इन्हे पढ़ा या सुना इनके असर से बच न सके। असंतुलित बचपन और जवानी के असफल प्रेम ने उन्हे ऐसे झटके दिये थे कि उनकी ये तमाम दर्द उनकी शायरी में फूट पड़े थे और वो बन बैठे थे एक विद्रोही शायर। लेकिन सिर्फ़ प्रेम और प्रेम की नाकामियाँ लिखने तक ही उनकी शायरी सीमित नहीं रही, बल्कि समाज में चल रही समस्यायों पर भी उनकी कलम के बाण चलाये है उसी असरदार तरीक़े से। प्रेम और विरह जैसी विषयों से परे उठकर आम जनता की दैनन्दिन समस्यायों को अपना निशाना बनाया है साहिर ने एक बार नहीं बल्कि कई कई बार। भूख, बेरोज़गारी, नारी की इज़्ज़त और ग़रीबों की तमाम दुख तकलीफ़ों पर सीधा वार उनके कलम ने बहुत बार किये हैं। एक फ़िल्मी गीतकार के दायरे सीमाओं से घिरे होते हैं और बहुत ज़्यादा अलग तरह का कुछ लिखना मुमकिन नहीं होता। लेकिन जब भी मौका हाथ लगा साहिर ने ज़िन्दगी के किसी न किसी ज्वलन्त मुद्दे को व्यक्त किया है। उदाहरण के तौर पर फ़िल्म 'फिर सुबह होगी' में मुकेश की आवाज़ में उनका लिखा गीत "आसमाँ पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम, आजकल वो इस तरफ़ देखता है कम" एक व्यंग-बाण है आज की सामाजिक व्यवस्था की तरफ़। चारों तरफ़ अन्याय, अत्याचार, शोषण पनप रहा है, क्या भगवान की नज़र इस दुनिया से उठ चुकी है! आख़िर आज भगवान इतना उदासीन क्यों है! आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में यही चिंतन पेश हो रहा है इस गीत के ज़रिए।

फ़िल्म 'फिर सुबह होगी' बनी थी १९५८ में 'पारिजात पिक्चर्स' के बैनर तले, जिसका निर्देशन किया था रमेश सहगल ने। राज कपूर, माला सिन्हा और रहमान अभिनीत यह फ़िल्म फ़िल्मी इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है। संगीतकार ख़य्याम ने इस फ़िल्म में पहली बार साहिर लुधियानवी के साथ काम किया था। उन दिनों राज कपूर की फ़िल्मों में संगीत दिया करते थे शंकर जयकिशन। पर इस फ़िल्म में मौका मिला ख़य्याम को और उन्होने यह चुनौती बड़ी ही कामयाबी से निभायी। ख़य्याम के संगीतकार चुने जाने के पीछे भी एक कहानी है। कहा जाता है कि साहिर साहब ने फ़िल्म के निर्माता को पूछा कि इस फ़िल्म के संगीतकार कौन बनने वाले हैं। जब निर्माता महोदय ने बताया कि क्योंकि यह राज कपूर की फ़िल्म है तो यक़ीनन शंकर जयकिशन ही संगीत तैयार करेंगे, तो इस पर साहिर बोले कि क्योंकि यह फ़िल्म फ्योडोर डोस्तोएव्स्की की मशहूर रूसी उपन्यास 'क्राइम ऐंड पनिशमेंट' पर आधारित है, इसलिए इस फ़िल्म के संगीत के लिए एक ऐसे संगीतकार को चुना जाए जिसने यह उपन्यास पढ़ रखा हो। बस, फिर क्या था, ख़य्याम साहब ने यह उपन्यास पढ़ रखा था और उन्हे यह फ़िल्म मिल गयी। यह बात ख़ुद ख़य्याम साहब ने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में कहा था। तो दोस्तों, लीजिए पेश है मुकेश, साहिर और ख़य्याम साहब को समर्पित आज का यह 'ओल्ड इज़ गोल्ड'।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. गीता दत्त और लता की आवाजों में छेड़ छाड़ और मस्ती से भरा ये गीत.
२. इस फिल्म का एक दोगाना पहले भी ओल्ड इस गोल्ड में आ चुका है.
३. मुखड़े में है -"जादू टोना".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
मनु जी लौटे हैं एक बार फिर विजेता बन कर...बधाई...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (5)



पराग संकला से हमारे श्रोता परिचित हैं, आप गायिका गीता दत्त के बहुत बड़े मुरीद हैं और उन्हीं की याद में गीता दत्त डॉट कॉम के नाम से एक वेबसाइट भी चलते हैं. आवाज़ पर गीता दत्त के विविध गीतों पर एक लम्बी चर्चा वो पेश कर चुके हैं अपने आलेख "असली गीता दत्त की खोज में" के साथ. आज एक बार फिर रविवार सुबह की कॉफी का आनंद लें पराग संकला के साथ गीता दत्त जी के गाये कुछ दुर्लभ "प्रेम गीतों" को सुनकर.


गीता दत्त और प्रेम गीतों की भाषा

हिंदी चित्रपट संगीत में अलग अलग प्रकार के गीत बनाते हैं. लोरी, भजन, नृत्यगीत, हास्यगीत, कव्वाली, बालगीत और ग़ज़ल. इन सब गानों के बीच में एक मुख्य प्रकार जो हिंदी फिल्मों में हमेशा से अधिक मात्रा में रहता हैं वह हैं प्रणयगीत यानी कि प्रेम की भाषा को व्यक्त करने वाले मधुर गीत! फिल्म चाहे हास्यफिल्म हो, या भावुक या फिर वीररस से भरपूर या फिर सामजिक विषय पर बनी हो, मगर हर फिल्म में प्रेम गीत जरूर होते हैं. कई फिल्मों में तो छः सात प्रेमगीत हुआ करते हैं.

चालीस के दशक में बनी फिल्मों से लेकर आज की फिल्मों तक लगभग हर फिल्म में कोई न कोई प्रणयगीत जरूर होता हैं. संगीत प्रेमियोंका यह मानना है कि चालीस, पचास और साठ के दशक हिंदी फिल्म संगीत के स्वर्णयुग हैं. इन सालों में संगीतकार, गीतकार और गायाकों की प्रतिभा अपनी बुलंदियों पर थी.

गीता रॉय (दत्त) ने एक से बढ़कर एक खूबसूरत प्रेमगीत गाये हैं मगर जिनके बारे में या तो कम लोगों को जानकारी हैं या संगीत प्रेमियों को इस बात का शायद अहसास नहीं है. इसीलिए आज हम गीता के गाये हुए कुछ मधुर मीठे प्रणय गीतों की खोज करेंगे.

सबसे पहले हम सुनेंगे इस मृदु मधुर युगल गीत को जिसे गाया हैं गीता दत्त और किशोर कुमार ने फिल्म मिस माला (१९५४)के लिए, चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में. "नाचती झूमती मुस्कुराती आ गयी प्यार की रात" फिल्माया गया था खुद किशोरकुमार और अभिनेत्री वैजयंती माला पर. रात के समय इसे सुनिए और देखिये गीता की अदाकारी और आवाज़ की मीठास. कुछ संगीत प्रेमियों का यह मानना हैं कि यह गीत उनका किशोरकुमार के साथ सबसे अच्छा गीत हैं. गौर करने की बात यह हैं कि गीता दत्त ने अभिनेत्री वैजयंती माला के लिए बहुत कम गीत गाये हैं.



जब बात हसीन रात की हो रही हैं तो इस सुप्रसिद्ध गाने के बारे में बात क्यों न करे? शायद आज की पीढी को इस गाने के बारे में पता न हो मगर सन १९५५ में फिल्म सरदार का यह गीत बिनाका गीतमाला पर काफी मशहूर था. संगीतकार जगमोहन "सूरसागर" का स्वरबद्ध किया यह गीत हैं "बरखा की रात में हे हो हां..रस बरसे नील गगन से". उद्धव कुमार के लिखे हुए बोल हैं. "भीगे हैं तन फिर भी जलाता हैं मन, जैसे के जल में लगी हो अगन, राम सबको बचाए इस उलझन से".



कुछ साल और पीछे जाते हैं सन १९४८ में. संगीतकार हैं ज्ञान दत्त और गाने के बोल लिखे हैं जाने माने गीतकार दीना नाथ मधोक ने. जी हाँ, फिल्म का नाम हैं "चन्दा की चांदनी" और गीत हैं "उल्फत के दर्द का भी मज़ा लो". १८ साल की जवान गीता रॉय की सुमधुर आवाज़ में यह गाना सुनते ही बनता है. प्यार के दर्द के बारे में वह कहती हैं "यह दर्द सुहाना इस दर्द को पालो, दिल चाहे और हो जरा और हो". लाजवाब!



प्रणय भाव के युगल गीतों की बात हो रही हो और फिल्म दिलरुबा का यह गीत हम कैसे भूल सकते हैं? अभिनेत्री रेहाना और देव आनंद पर फिल्माया गया यह गीत है "हमने खाई हैं मुहब्बत में जवानी की कसम, न कभी होंगे जुदा हम". चालीस के दशक के सुप्रसिद्ध गायक गुलाम मुस्तफा दुर्रानी के साथ गीता रॉय ने यह गीत गाया था सन १९५० में. आज भी इस गीत में प्रेमभावना के तरल और मुलायम रंग हैं. दुर्रानी और गीता दत्त के मीठे और रसीले गीतों में इस गाने का स्थान बहुत ऊंचा हैं.



गीतकार अज़ीज़ कश्मीरी और संगीतकार विनोद (एरिक रॉबर्ट्स) का "लारा लप्पा" गीत तो बहुत मशहूर हैं जो फिल्म एक थी लड़की में था. उसी फिल्म में विनोद ने गीता रॉय से एक प्रेमविभोर गीत गवाया. गाने के बोल हैं "उनसे कहना के वोह पलभर के लिए आ जाए". एक अद्भुत सी मीठास हैं इस गाने में. जब वाह गाती हैं "फिर मुझे ख्वाब में मिलने के लिए आ जाए, हाय, फिर मुझे ख्वाब में मिलने के लिए आ जाए" तब उस "हाय" पर दिल धड़क उठता हैं.



जो अदा उनके दर्दभरे गीतों में, भजनों में और नृत्य गीतों में हैं वही अदा, वही खासियत, वही अंदाज़ उनके गाये हुए प्रेम गीतों में है. उम्मीद हैं कि आप सभी संगीत प्रेमियों को इन गीतों से वही आनंद और उल्लास मिला हैं जितना हमें मिला.

उन्ही के गाये हुए फिल्म दिलरुबा की यह पंक्तियाँ हैं:
तुम दिल में चले आते हो
सपनों में ढले जाते हो
तुम मेरे दिल का तार तार
छेड़े चले जाते हो!

गीता जी, आप की आवाज़ सचमुच संगीत प्रेमियों के दिलों के तार छेड़ देती है. और भी हैं बहुत से गीत, जिन्हें फिर किसी रविवार को आपके लिए लेकर आऊँगा.

प्रस्तुति - पराग संकला



"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.


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