Saturday, August 6, 2011

वे एक स्वाभिमानी गीतकार थे, जिसने नैतिकता के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 53- गीतकार गोपाल सिंह नेपाली की जन्म-शती पर स्मरण

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी पाठकों-श्रोताओं को कृष्णमोहन मिश्र का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है, आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। आज के इस साप्ताहिक विशेषांक में हम हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार-पत्रकार, फिल्मों के चर्चित गीतकार और उत्तर छायावाद के अनूठे कवि गोपाल सिंह नेपाली का स्मरण करेंगे। इस वर्ष कवि-गीतकार श्री नेपाली का जन्मशती वर्ष है। 11 अगस्त, 1911 को बिहार के चम्पारण जिलान्तर्गत बेतिया नामक स्थान में हुआ था। यह वही क्षेत्र है जहाँ से महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन का प्रारम्भ किया था। यह इस भूमि का ही प्रभाव था कि 1962 में चीन के आक्रमण के दिनों में कवि गोपाल सिंह नेपाली ने सैनिकों की प्रशस्ति में और देशवासियों में जन-चेतना जागृत करने के लिए देशभक्ति से ओतप्रोत अनेक गीतों की रचना की थी। उनकी उस दौर की रचनाओं में सर्वाधिक चर्चित और प्रभावशाली रचना थी- "बर्फों में पिघलने को चला है लाल सितारा, चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा..."। वे एक स्वाभिमानी गीतकार थे, जिसने नैतिकता के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया। उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष को कवि लाजपत राय 'विकट' ने अपने काव्यपाठ के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। लीजिए आप भी इस कविता को सुनिए-

काव्यपाठ : कवि लाजपत राय 'विकट' : "मुझको चाह नहीं मैं प्रेमी दीवानों पर गीत लिखूँ...."


श्री नेपाली द्वारा चीन-युद्ध के दौरान रचे गए राष्ट्रवादी गीत उत्कृष्ठ स्तर के थे। उस दौर की उनकी काव्य रचनाएँ- सावन, कल्पना, नीलिमा, नवीन कल्पना आदि अत्यन्त लोकप्रिय हुईं थी। उनकी राष्ट्रीय चेतना जागृत करने वाली उनकी कविताओं और गीतों का संग्रह है- 'हमारी राष्ट्रवाणी' और 'हिमालय ने पुकारा'। गीतकार के साथ-साथ श्री नेपाली कुशल पत्रकार भी थे। उन्होने 'रतलाम टाइम्स', 'चित्रपट', 'सुधा' और 'योगी' नामक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया था।

गोपाल सिंह नेपाली का जितना योगदान साहित्य जगत में रहा है, फिल्मों के गीतकार के रूप में भी उनका योगदान अतुलनीय रहा है। 1944 से 1963 (मृत्युपर्यन्त) तक फिल्मों में सफल गीतकार के रूप सक्रिय रहे श्री नेपाली ने फिल्मों में लगभग 400 गीतों की रचना की थी। उन्होने अधिकतर धार्मिक और सामाजिक फिल्मों में गीत लिखे। अपने फिल्मी गीतों में भी उन्होने साहित्यिक स्तर में कभी समझौता नहीं किया। 1946 में सचिनदेव बर्मन ने गोपाल सिंह नेपाली के गीतों को फिल्म 'आठ दिन' के लिए संगीतबद्ध किया था। शब्द और संगीत की दृष्टि से इस फिल्म का एक गीत -"पहले न समझा प्यार था...." बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके अलावा 1953 में प्रदर्शित फिल्म 'नाग पंचमी' का गीत -"अर्थी नहीं नारी का संसार जा रहा, भगवान तेरे घर का श्रृंगार जा रहा...", 1955 की फिल्म 'शिवभक्त' का नृत्यगीत -"बार बार नाची...", 1959 की फिल्म 'नई राह' का गीत -"कहाँ तेरी मंज़िल..." तथा 1961 में प्रदर्शित फिल्म 'जय भवानी' का गीत -"शमा से कोई कह दे..." जैसे गीत गोपाल सिंह नेपाली की बहुआयामी प्रतिभा के उदाहरण हैं। फिल्म के इन गीतों के बीच 1957 में श्री नेपाली रचित एक ऐसा गीत फिल्म 'नरसी भगत' में शामिल हुआ जिसने लोकप्रियता के सारे कीर्तिमानों को तोड़ दिया। संगीतकार रवि द्वारा स्वरबद्ध तथा हेमन्त कुमार, मन्ना डे और सुधा मल्होत्रा के स्वरों में वह गीत है -"दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे..."। (यह गीत आप 'ओल्ड इज गोल्ड' की श्रृंखला --- में सुन चुके हैं।) आइए आज हम श्री नेपाली का एक श्रृंगारपूर्ण गीत सुनते हैं। यह गीत 1955 में प्रदर्शित फिल्म 'नवरात्रि' से लिया गया है। चित्रगुप्त के संगीतबद्ध गीत को मोहम्मद रफी और आशा भोसले ने स्वर दिया है।

गीत -"बहारें आएँगी होठों पे फूल खिलेंगे..." : फिल्म - नवरात्रि : स्वर - मोहम्मद रफी और आशा भोसले


गोपाल सिंह नेपाली निश्चित रूप से उच्चकोटि के कवि और गीतकार थे, किन्तु उनका जीवन सदा अभावों में ही बीता। वह एक स्वाभिमानी रचनाकार थे जिन्होंने कवि-धर्म और नैतिक मूल्यों के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया। श्री नेपाली के निधन के चार दशक बाद ब्रिटिश फिल्म निर्माता डेनी बोयेल ने 'स्लमडॉग मिलियोनार' का निर्माण किया था। आस्कर पुरस्कार प्राप्त इस फिल्म में नेपाली जी के गीत "दर्शन दो घनश्याम..." का इस्तेमाल किया था, किन्तु फिल्म में इस गीत का लिए "सूरदास" को श्रेय दिया गया था। गोपाल सिंह नेपाली के पुत्र नकुल सिंह ने मुम्बई उच्च न्यायालय में फिल्म के निर्माता के विरुद्ध क्षतिपूर्ति का दावा भी पेश किया था। कैसा दुर्भाग्य है कि एक स्वाभिमानी गीतकार को मृत्यु के बाद भी अन्याय का शिकार होना पड़ा। 'हिंदयुग्म' परिवार की ओर से आज हम गोपाल सिंह नेपाली को उनकी जन्मशती के अवसर पर श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं। इस आलेख को विराम देने से पूर्व हम आपको नेपाली जी का एक ऐसा गीत सुनवाते हैं जिसमे रचनाकार का पूरा जीवन-दर्शन छिपा हुआ है। गीत के बोल हैं -

घूँघट घूँघट नैना नाचे, पनघट पनघट छैया रे,
लहर लहर हर नैया नाचे, नैया में खेवइया रे।


इस गीत को सुप्रसिद्ध लोक-गायिका शारदा सिन्हा ने स्वर देकर बिहार के ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र के गौरव गोपाल सिंह नेपाली को स्वरांजलि अर्पित की है। इन्ही स्वरों में अपनी श्रद्धापूर्ण भावनाओं को मिलाते हुए अब हम यहीं विराम लेते हैं। आप यह गीत सुनें।


और अब एक विशेष सूचना:

२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

संजय अनेजा की कहानी "इंतज़ार" का नाट्य रूपांतर



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अभिषेक ओझा की कहानी "प्रेम गली अति..." का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं संजय अनेजा की कहानी "इंतज़ार" का नाट्य रूपांतर। कलाकार हैं अर्चना चावजी और सलिल वर्मा। संगीत सहयोग पद्मसिंह का है और नाट्य रूपांतरण किया है सलिल वर्मा ने।

कहानी "इंतज़ार" का कुल प्रसारण समय 17 मिनट 53 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट मो सम कौन ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


आशा है महाजनस्य पंथे गिरतम सम्भलतम हम भी घुटनों पर चलना सीख लेंगे!
~ संजय अनेजा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"विराजिये ऋषिवर! निश्चिंत रहिये, मैं कोई मेनका नहीं जो आपका ध्यान भंग करूंगी।"
(संजय अनेजा की "इंतज़ार" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#139th Story, Intezar : Sanjay Aneja/Hindi Audio Book/2011/20. Voice: Archana Chaoji & Salil Varma 

Thursday, August 4, 2011

कोई होता मेरा अपना.....शोर के "जंगल" में कोई जानी पहचानी सदा ढूंढती जिंदगी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 715/2011/155

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और शाम लेकर मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ हाज़िर हूँ। जैसा कि आप जानते हैं इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर', जिसके अन्तर्गत सजीव जी की लिखी कविताओं की इसी शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित फ़िल्मी गीत बजाये जा रहे हैं। आज की कविता का शीर्षक है 'जंगल'।

यह जंगल मेरा है
मगर मैं ख़ुद इसके
हर चप्पे से नहीं हूँ वाकिफ़
कई अंधेरे घने कोने हैं
जो कभी नहीं देखे

मैं डरा डरा रहता हूँ
अचानक पैरों से लिपटने वाली बेलों से
गहरे दलदलों से
मुझे डर लगता है
बर्बर और ज़हरीले जानवरों से
जो मेरे भोले और कमज़ोर जानवरों को
निगल जाते हैं

मैं तलाश में भटकता हूँ,
इस जंगल के बाहर फैली शुआओं की,
मुझे यकीं है कि एक दिन
ये सारे बादल छँट जायेंगे
मेरे सूरज की किरण
मेरे जंगल में उतरेगी
और मैं उसकी रोशनी में
चप्पे-चप्पे की महक ले लूंगा
फिर मुझे दलदलों से
पैरों से लिपटी बेलों से
डर नहीं लगेगा

उस दिन -
ये जंगल सचमुच में मेरा होगा
मेरा अपना।


जंगल की आढ़ लेकर कवि नें कितनी सुंदरता से वास्तविक जीवन और दुनिया का चित्रण किया है इस कविता में। हम अपने जीवन में कितने ही लोगों के संस्पर्श में आते हैं, जिन्हें हम अपना कहते हैं, पर समय समय पर पता चलता है कि जिन्हें हम अपना समझ रहे थे, वो न जाने क्यों अब ग़ैर लगने लगे हैं। हमारे अच्छे समय में रिश्तेदार, सगे संबंधी और मित्र मंडली हमारे आसपास होते हैं, पर बुरे वक़्त में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो हमारे साथ खड़े पाये जाते हैं। किसी नें ठीक ही कहा है कि बुरे वक़्त में ही सच्चे मित्र की पहचान होती है। जीवन की अँधेरी गलियों से गुज़रते हुए अहसास नहीं होता कि कितनी गंदगी आसपास फैली है, पर जब उन पर रोशनी पड़ती है तो सही-ग़लत का अंदाज़ा होता है। कई बार दिल भी टूट जाता है, पर सच तो सच है, कड़वा ही सही। और इस सच्चाई को जितनी जल्दी हम स्वीकार कर लें, हमारे लिए बेहतर है। पर टूटा दिल तो यही कहता है न कि कोई तो होता जिसे हम अपना कह लेते, चाहे वो दूर ही होता, पर होता तो कोई अपना! गुलज़ार साहब नें इस भाव पर फ़िल्म 'मेरे अपने' में एक यादगार गीत लिखा था। आज गायक किशोर कुमार का जन्मदिवस है। उन्हें याद करते हुए उन्ही का गाया यह गीत सुनते हैं जिसकी धुन बनाई है सलिल चौधरी नें।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - एक आवाज़ रफ़ी साहब की है इस युगल गीत में.
सूत्र २ - माला सिन्हा अभिनीत फिल्म है ये.
सूत्र ३ - मुखड़े में शब्द है -"वक्त".

अब बताएं -
गीतकार कौन हैं - ३ अंक
फिल्म के नायक कौन हैं - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
सत्यजीत जी कोशिश तो कर रहे हैं पर अमित जी जरा ज्यादा फुर्तीले दिख रहे हैं :)

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, August 3, 2011

कभी रात दिन हम दूर थे.....प्यार बदल देता है जीने के मायने और बदल देता है दूरियों को "मिलन" में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 714/2011/154

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब 'एक पल की उम्र लेकर' से चुनी हुई १० कविताओं पर आधारित शृंखला की आज चौथी कड़ी में हमनें जिस कविता को चुना है, उसका शीर्षक है 'मिलन'।

हम मिलते रहे
रोज़ मिलते रहे
तुमने अपने चेहरे के दाग
पर्दों में छुपा रखे थे
मैंने भी सब ज़ख्म अपने
बड़ी सफ़ाई से ढाँप रखे थे
मगर हम मिलते रहे -
रोज़ नए चेहरे लेकर
रोज़ नए जिस्म लेकर
आज, तुम्हारे चेहरे पर पर्दा नहीं
आज, हम और तुम हैं, जैसे दो अजनबी
दरअसल
हम मिले ही नहीं थे अब तक
देखा ही नहीं था कभी
एक-दूसरे का सच

आज मगर कितना सुन्दर है - मिलन
आज, जब मैंने चूम लिए हैं
तुम्हारे चेहरे के दाग
और तुमने भी तो रख दी है
मेरे ज़ख्मों पर -
अपने होठों की मरहम।


मिलन की परिभाषा कई तरह की हो सकती है। कभी कभी हज़ारों मील दूर रहकर भी दो दिल आपस में ऐसे जुड़े होते हैं कि शारीरिक दूरी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। और कभी कभी ऐसा भी होता है कि वर्षों तक साथ रहते हुए भी दो शख्स एक दूजे के लिए अजनबी ही रह जाते हैं। और कभी कभी मिलन की आस लिए दो दिल सालों तक तरसते हैं और फिर जब मिलन की घड़ी आती है तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता। ऐसा लगता है जैसे दो नदियाँ अलग अलग तन्हा बहते बहते आख़िरकार संगम में एक दूसरे से मिल गई हों। मिलन और जुदाई सिक्के के दो पहलु समान हैं। दुख और सुख, धूप और छाँव, ख़ुशी और ग़म जैसे जीवन की सच्चाइयाँ हैं, वैसे ही मिलन और जुदाई, दोनों की ही बारी आती है ज़िंदगी में समय समय पर, जिसके लिए आदमी को हमेशा तैयार रहना चाहिए। इसे तो इत्तेफ़ाक़ की ही बात कहेंगे न, जैसा कि गीतकार आनंद बक्शी नें फ़िल्म 'आमने-सामने' के गीत में कहा था कि "कभी रात दिन हम दूर थे, दिन रात का अब साथ है, वो भी इत्तेफ़ाक़ की बात थी, ये भी इत्तेफ़ाक़ की बात है"। बड़ा ही ख़ूबसूरत युगल गीत है लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ों में और संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी नें भी कितना सुरीला कम्पोज़िशन तैयार किया है इस गीत के लिए। तो लीजिए आज मिलन के रंग में रंगे इस अंक में सुनिये 'आमने-सामने' फ़िल्म का यह सदाबहार गीत।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - कल जिस महान गायक की जयंती है उन्ही की आवाज़ है गीत में.
सूत्र २ - फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा की भी अहम भूमिका थी.
सूत्र ३ - एक अंतरे शुरू होता है इस शब्द से -"आँखों".

अब बताएं -
गीतकार कौन हैं - ३ अंक
किस अबिनेता पर है ये गीत फिल्मांकित - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
अविनाश जी, अमित जी सत्यजीत और हिन्दुस्तानी जी को बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, August 2, 2011

दिल ढूँढता है....रोजमर्रा की आपाधापी से भरे शहरी जीवन में सुकून भरा "अवकाश" तलाशती जिंदगी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 713/2011/153

'एक पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की कविताओं से सजी इस पुस्तक में से १० चुनिंदा कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'अवकाश'।

सुबह की गलियों में
अंधेरा है बहुत
अभी आँखों को मूँदे रहो
घड़ी का अलार्म जगाये अगर
रख उसके होठों पे हाथ
चुप करा दो
काला सूरज
आसमान पर लटक तो गया होगा
बाहर शोर सुनता हूँ मैं
इंसानों का, मशीनों का,
आज खिड़की के परदे मत हटाओ
आज पड़े रहने दो, दरवाज़े पर ही,
बासी ख़बरों से सने अख़बार को
किसे चाहिए ये सुबह, ये सूरज
फिर वही धूप, वही साये
वही भीड़, वही चेहरे
वही सफ़र, वही मंज़िल
वही इश्तेहारों से भरा ये शहर
वही अंधी दौड़ लगाती
फिर भी थमी-ठहरी सी
रोज़मर्रा की ये ज़िंदगी

नहीं, आज नहीं
आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे
अपनी ही बाहों में
'हम' अतीत की गलियों में घूमेंगे
गुज़रे बीते मौसमों का सुराग ढूंढ़ेंगे
कुछ रूठे-रूठे
उजड़े-बिछड़े
सपनों को भी बुलवा लेंगे
मुझे यकीन है
कुछ तो ज़िंदा होंगे ज़रूर

खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से
ज़िंदा कर लूंगा फिर, ज़िंदगी को मैं।


इस कविता में कवि नें जिस अवकाश की कल्पना की है, वह मेरा ख़याल है कि हर आम आदमी करता होगा। आज की भाग-दौड़ भरी और तनावपूर्ण ज़िंदगी में कभी किसी दिन मन में ख़याल आता है कि काश आज छुट्टी मिल जाती उस गतानुगतिक ज़िंदगी से। तो फिर ख़यालों में ही सही, घूम तो आते यादों की गलियारों से; जिन गलियारों से होते हुए जाती है सड़क बर्फ़ से ढके पहाड़ों की तरफ़, वो पहाड़ें जिनमें गूंजती हुई ख़ामोशी की कल्पना कभी गुलज़ार साहब नें की थी 'मौसम' का वह सदाबहार गीत लिखते हुए। ग़ालिब के शेर "दिल ढूंढ़ता है फिर वो ही फ़ुरसत के रात दिन, बैठे रहें तसव्वुरे जाना किए हुए" को आगे बढ़ाते हुए गुलज़ार साहब नें बड़ी ख़ूबसूरती के साथ कभी जाड़ों की नर्म धूप को आंगन में बैठ कर सेंकना, कभी गरमी की रातों में छत पर लेटे हुए तारों को देखना, और कभी बर्फ़ीली वादियों में दिन गुज़ारना, इस तरह के अवकाश के दिनों का बड़ा ही सजीव चित्रण किया था। एक तरफ़ गुलज़ार साहब के ये सजीव ख़यालात और दूसरी तरफ़ सजीव जी के आम जीवन का बड़ा ही वास्तविक वर्णन, दोनों ही लाजवाब, दोनों ही अपने आप में बेहतरीन। आइए इस अवकाश की घड़ी में फ़िल्म 'मौसम' के इस गीत को सुनें। मदन मोहन का संगीत है। इस गीत के दो संस्करणों में लता-भूपेन्द्र का गाया युगल-संस्करण हमनें 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' में सुनवाया था, आइए आज सुना जाये भूपेन्द्र का एकल संस्करण।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - शशि कपूर नायक है फिल्म के.
सूत्र २ - एक आवाज़ लता की है इस युगल गीत में.
सूत्र ३ - एक अंतरे में "शोख नज़रों" का जिक्र है.

अब बताएं -
गीतकार कौन हैं - ३ अंक
गायक कौन हैं - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
सत्यजीत जी थोड़ी और फुर्ती दिखानी पड़ेगी आपको अमित जी से टक्कर लेने के लिए, आप अभी ३ अंक पीछे हैं उनसे

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, August 1, 2011

मैं तो हर मोड पे तुझको दूंगा सदा....दिलों के बीच उभरी नफरत की दीवारों को मिटाने की गुहार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 712/2011/152

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब 'एक पल की उम्र लेकर' से १० चुने हुए कविताओं और उनसे सम्बंधित फ़िल्मी गीतों पर आधारित यह लघु शृंखला। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'दीवारें'।

मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें
महसूस करना चाहता हूँ
तुम्हारा दिल
पर देखना तो दूर
मैं सुन भी नहीं पाता हूँ तुम्हें
तुम कहीं दूर बैठे हो
सरहदों के पार हो जैसे
कुछ कहते तो हो ज़रूर
पर आवाज़ों को निगल जाती हैं दीवारें
जो रोज़ एक नए नाम की
खड़ी कर देते हैं 'वो' दरमियाँ हमारे

तुम्हारे घर की खिड़की से
आसमाँ अब भी वैसा ही दिखता होगा ना
तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को
पहचानती है मेरी भूख अब भी,
तुम्हारी छत पर बैठ कर
वो चाँदनी भर-भर पीना प्यालों में
याद होगी तुम्हें भी
मेरे घर की वो बैठक
जहाँ भूल जाते थे तुम
कलम अपनी
तुम्हारे गले से लग कर
रोना चाहता हूँ फिर मैं
और देखना चाहता हूँ फिर
तुम्हें चहकता हुआ
अपनी ख़ुशियों में
तरस गया हूँ सुनने को
तुम्हारे बच्चों की किलकारियाँ
जाने कितनी सदियाँ से
पर सोचता हूँ तो लगता है
जैसे अभी कल की ही तो बात थी
जब हम तुम पड़ोसी हुआ करते थे
और उन दिनों
हमारे घरों के दरमियाँ भी फ़कत
एक ईंट-पत्थर की
महीन-सी दीवार हुआ करती थी... बस।


दीवारें कभी दो परिवारों, दो घरों के बीच दरार पैदा कर देती हैं, तो कभी दो दिलों के बीच। सचमुच बड़ा परेशान करती हैं ये दीवारें, बड़ा सताती हैं। पर ये भी एक हकीकत है कि चाहे दुनिया कितनी भी दीवारें खड़ी कर दें, चाहे कितने भी पहरे बिठा दें, प्यार के रास्ते पर कितने ही पर्वत-सागर बिछा दें, सच्चा प्यार कभी हार स्वीकार नहीं करता। किसी न किसी रूप में प्यार पनपता है, जवान होता है। लेकिन यह तभी संभव है जब कोशिश दोनों तरफ़ से हों। कभी कभार कई कारणों से दोनों में से कोई एक रिश्ते को आगे नहीं बढ़ा पाता। ऐसे में दूसरे के दिल की आह एक सदा बनकर निकलती है। चाहे कोई सुने न सुने, पर दिल तो पुकारे ही चला जाता है। कई बार राह पर फूल बिछे होने के बावजूद किसी मजबूरी की वजह से कांटे चुनने पड़ते हैं। इससे रिश्ते में ग़लतफ़हमी जन्म लेती है और एक बार शक़ या ग़लतफ़हमी जन्म ले ले तो उससे बचना बहुत मुश्किल हो जाता है। अनिल धवन और रेहाना सुल्तान अभिनीत १९७० की फ़िल्म 'चेतना' में सपन जगमोहन के संगीत में गीतकार नक्श ल्यालपुरी नें भी एक ऐसा ही गीत लिखा था "मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूंगा सदा, मेरी आवाज़ को, दर्द के साज़ को तू सुने न सुने"। सजीव जी की कविता 'दीवारें' को पढ़कर सब से पहले इसी गीत की याद आई थी, तो लीजिए इस ख़ूबसूरत कविता के साथ इस ख़ूबसूरत गीत का भी आनन्द लें।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - फिल्म में प्रमुख अभिनेत्री की दोहरी भूमिका है.
सूत्र २ - इस गीत के भी दो संस्करण हैं, एक युगल और एक एकल, दोनों ही संस्करण में गायक एक ही हैं.
सूत्र ३ - पहले अंतरे की अंतिम पंक्ति में शब्द है - "औंधे"

अब बताएं -
फिल्म की नायिका बताएं - ३ अंक
गायक कौन हैं - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी ने भी अपनी आमद का बिगुल बजा दिया है, बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, July 31, 2011

दिन ढल जाए हाय रात न जाए....सरफिरे वक्त को वापस बुलाती रफ़ी साहब की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 711/2011/151

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत दो बेहद सुंदर शृंखलाओं के बाद मैं, सुजॉय चटर्जी वापस हाज़िर हूँ इस नियमित स्तंभ के साथ। इस स्तंभ की हर लघु शृंखला की तरह आज से शुरु होने वाली शृंखला भी बहुत ख़ास है, और साथ ही अनोखा और ज़रा हटके भी। दोस्तों, आप में से बहुत से श्रोता-पाठकों को मालूम होगा कि 'आवाज़' के मुख्य सम्पादक सजीव सारथी की लिखी कविताओं का पहला संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है, और इस पुस्तक का शीर्षक है 'एक पल की उम्र लेकर'। जब सजीव जी नें मुझसे अपनी इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी चाही, तब मैं ज़रा दुविधा मे पड़ गया क्योंकि कविताओं की समीक्षा करना मेरे बस की बात नहीं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न इस पुस्तक में शामिल कुल ११० कविताओं में से दस कविताएँ छाँट कर और उन्हें आधार बनाकर फ़िल्मी गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला पेश करूँ? फ़िल्मी गीत जीवन के किसी भी पहलु से अंजान नहीं रहा है, इसलिए इन १० कविताओं से मिलते जुलते १० गीत चुनना भी बहुत मुश्किल काम नहीं था। तो सजीव जी के मना करने के बावजूद मैं यह क़दम उठा रहा हूँ और उनकी कविताओं पर आधारित प्रस्तुत कर रहा हूँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर'।

'एक पल की उम्र लेकर' शृंखला की पहली कड़ी के लिए इस पुस्तक में प्रकाशित जिस कविता को मैंने चुना है, वह है 'सरफ़िरा है वक़्त'। आइए पहले इस कविता को पढ़ें।

उदासी की नर्म दस्तक
होती है दिल पे हर शाम
और ग़म की गहरी परछाइंयाँ
तन्हाइयों का हाथ थामे
चली आती है
किसी की भीगी याद
आंखों में आती है
अश्कों में बिखर जाती है

दर्द की कलियाँ
समेट लेता हूँ मैं
अश्कों के मोती
सहेज के रख लेता हूँ मैं

जाने कब वो लौट आये

वो ठंडी चुभन
वो भीनी ख़ुशबू
अधखुली धुली पलकों का
नर्म नशीला जादू
तसव्वुर की सुर्ख़ किरणें
चन्द लम्हों को जैसे
डूबते हुए सूरज में समा जाती है
शाम के बुझते दीयों में
एक चमक सी उभर आती है

टूटे हुए लम्हें बटोर लेता हूँ मैं
बुझती हुई चमक बचा लेता हूँ मैं

जाने कब वो लौट आये

सरफिरा है वक़्त
कभी-कभी लौट आता है,

दोहराने अपने आप को।


शाम की उदासी, रात की तन्हाइयाँ, अंधेरों में बहती आँसू की नहरें जिन्हें अंधेरे में कोई दूसरा देख नहीं सकता, बस वो ख़ुद बहा लेता है, दिल का बोझ कम कर लेता है। किसी अपने की याद इस हद तक घायल कर देती है कि जीने की जैसे उम्मीद ही खोने लगती है। और फिर कभी अचानक मन में आशा की कोई किरण भी चमक उठती है कि उसकी याद की तरह शायद कभी वो ही लौट आये, क्योंकि वक़्त तो सरफिरा होता है न? कभी कभी दाम्पत्य जीवन में छोटी-छोटी ग़लतफ़हमिओं और अहम की वजह से पति-पत्नी में भी अनबन हो जाती है, रिश्ते में दरार आती है, और कई बार दोनों अलग भी हो जाते हैं। लेकिन कुछ ही समय में होता है पछतावा, अनुताप। और ऐसे में अपने साथी की यादों के सिवा कुछ नहीं होता करीब। ऐसी ही एक सिचुएशन बनी थी फ़िल्म 'गाइड' में। गीतकार शैलेन्द्र की कलम नें देव आनन्द साहब की मनस्थिति को कुछ इन शब्दों में क़ैद किया था - "दिन ढल जाये हाये रात न जाये, तू तो न आये तेरी याद सताये"। सजीव जी की उपर्योक्त कविता में भी मुझे इसी भाव की छाया मिलती है। तो आइए सुना जाये फ़िल्म 'गाइड' का यह सदाबहार गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में। आज ३१ जुलाई, रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर 'हिंद-युग्म आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम इस गायकों के शहंशाह को देते हैं ये सुरीली श्रद्धांजली।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - फिल्म के नायक थे अनिल धवन.
सूत्र २ - आवाज़ है मुकेश की.
सूत्र ३ - पहले अंतरे की दूसरी पंक्ति में शब्द है -"दीवानगी"

अब बताएं -
गीतकार बताएं - ३ अंक
फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी, हिन्दुस्तानी जी और सत्यजीत जी ने शानदार शुरुआत की है, इस बार सत्यजीत जी से खास उम्मीद रहेगी कि वो अमित जी को टक्कर दे सकें

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

"नीक सैयाँ बिन भवनवा नाहीं लागे सखिया..." - रिमझिम फुहारों के बीच श्रृंगार रस में पगी कजरी



सुर संगम - 31 -लोक संगीत शैली "कजरी" (प्रथम भाग)

महिलाओं द्वारा समूह में प्रस्तुत की जाने वाली कजरी को "ढुनमुनियाँ कजरी" कहा जाता है| भारतीय पञ्चांग के अनुसार भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष की तृतीया (इस वर्ष 16 अगस्त) को सम्पूर्ण पूर्वांचल में "कजरी तीज" पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है|

शास्त्रीय और लोक संगीत के प्रति समर्पित साप्ताहिक स्तम्भ "सुर संगम" के आज के अंक में हम लोक संगीत की मोहक शैली "कजरी" अथवा "कजली" से अपने मंच को सुशोभित करने जा रहे हैं| पावस ने अनादि काल से ही जनजीवन को प्रभावित किया है| लोकगीतों में तो वर्षा-वर्णन अत्यन्त समृद्ध है| हर प्रान्त के लोकगीतों में वर्षा ऋतु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है| उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोकगीतों में ब्रज का मलार, पटका, अवध की सावनी, बुन्देलखण्ड का राछरा, तथा मीरजापुर और वाराणसी की "कजरी"; लोक संगीत के इन सब प्रकारों में वर्षा ऋतु का मोहक चित्रण मिलता है| इन सब लोक शैलियों में "कजरी" ने देश के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित किया है| "कजरी" की उत्पत्ति कब और कैसे हुई; यह कहना कठिन है, परन्तु यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर और शब्द मिले होंगे और जब लोकजीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से लोकगीत हमारे बीच हैं| प्राचीन काल से ही उत्तर प्रदेश का मीरजापुर जनपद माँ विंध्यवासिनी के शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है| अधिसंख्य प्राचीन कजरियों में शक्तिस्वरूपा देवी का ही गुणगान मिलता है| आज "कजरी" के वर्ण्य-विषय काफी विस्तृत हैं, परन्तु "कजरी" गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है|

"कजरी" के वर्ण्य-विषय ने जहाँ एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि को प्रभावित किया, वहीं हजरत अमीर खुसरो, बहादुर शाह ज़फर, सुप्रसिद्ध शायर सैयद अली मुहम्मद 'शाद', हिन्दी के कवि अम्बिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय 'प्रेमधन' आदि भी "कजरी" के आकर्षण मुक्त न हो पाए| यहाँ तक कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक कजरियों की रचना कर लोक-विधा से हिन्दी साहित्य को सुसज्जित किया| साहित्य के अलावा इस लोकगीत की शैली ने शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में भी अपनी आमद दर्ज कराई| उन्नीसवीं शताब्दी में उपशास्त्रीय शैली के रूप में ठुमरी की विकास-यात्रा के साथ-साथ कजरी भी इससे जुड़ गई| आज भी शास्त्रीय गायक-वादक, वर्षा ऋतु में अपनी प्रस्तुति का समापन प्रायः "कजरी" से ही करते है| कजरी के उपशास्त्रीय रूप का परिचय देने के लिए हमने अपने समय की सुप्रसिद्ध गायिका रसूलन बाई के स्वरों में एक रसभरी "कजरी" -"तरसत जियरा हमार नैहर में..." का चुनाव किया है| यह लोकगीतकार छबीले की रचना है; जिसे रसूलन बाई ने ठुमरी के अन्दाज में प्रस्तुत किया है| इस "कजरी" की नायिका अपने मायके में ही दिन व्यतीत कर रही है, सावन बीतने ही वाला है और वह विरह-व्यथा से व्याकुल होकर अपने पिया के घर जाने को उतावली हो रही है| लीजिए, आप भी सुनिए यह कजरी गीत -

कजरी -"तरसत जियरा हमार नैहर में..." - गायिका : रसूलन बाई


मूलतः "कजरी" महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत है| परिवार में किसी मांगलिक अवसर पर महिलाएँ समूह में कजरी-गायन करतीं हैं| महिलाओं द्वारा समूह में प्रस्तुत की जाने वाली कजरी को "ढुनमुनियाँ कजरी" कहा जाता है| भारतीय पञ्चांग के अनुसार भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष की तृतीया (इस वर्ष 16 अगस्त) को सम्पूर्ण पूर्वांचल में "कजरी तीज" पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है| इस दिन महिलाएँ व्रत करतीं है, शक्तिस्वरूपा माँ विंध्यवासिनी का पूजन-अर्चन करती हैं और "रतजगा" (रात्रि जागरण) करते हुए समूह बना कर पूरी रात कजरी-गायन करती हैं| ऐसे आयोजन में पुरुषों का प्रवेश वर्जित होता है| यद्यपि पुरुष वर्ग भी कजरी गायन करता है; किन्तु उनके आयोजन अलग होते हैं, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे| "कजरी" के विषय परम्परागत भी होते हैं और अपने समकालीन लोकजीवन का दर्शन कराने वाले भी| अधिकतर कजरियों में श्रृंगार रस (संयोग और वियोग) की प्रधानता होती है| कुछ "कजरी" परम्परागत रूप से शक्तिस्वरूपा माँ विंध्यवासिनी के प्रति समर्पित भाव से गायी जाती है| भाई-बहन के प्रेम विषयक कजरी भी सावन मास में बेहद प्रचलित है| परन्तु अधिकतर "कजरी" ननद-भाभी के सम्बन्धों पर केन्द्रित होती हैं| ननद-भाभी के बीच का सम्बन्ध कभी कटुतापूर्ण होता है तो कभी अत्यन्त मधुर भी होता है| दोनों के बीच ऐसे ही मधुर सम्बन्धों से युक्त एक "कजरी" अब हम आपको सुनवाते हैं, जिसे केवल महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली "कजरी" के रूप प्रस्तुत किया गया है| इस "कजरी" को स्वर दिया है- सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका विदुषी गिरिजा देवी, प्रभा देवी, डाली राहुत और जयता पाण्डेय ने| आप भी सुनिए; यह मोहक कजरी गीत-

समूह कजरी -"घरवा में से निकली ननद भौजाई ..." - गिरिजा देवी, प्रभा देवी, डाली राहुत व जयता पाण्डेय


"कजरी" गीत का एक प्राचीन उदाहरण तेरहवीं शताब्दी का, आज भी न केवल उपलब्ध है, बल्कि गायक कलाकार इस "कजरी" को अपनी प्रस्तुतियों में प्रमुख स्थान देते हैं| यह "कजरी" हजरत अमीर खुसरो की बहुप्रचलित रचना है, जिसकी पंक्तियाँ हैं -"अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया..." | अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की एक रचना -"झूला किन डारो रे अमरैयाँ..." भी बेहद प्रचलित है| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कई कजरी रचनाओं को विदुषी गिरिजादेवी आज भी गातीं हैं| भारतेन्दु ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी-रचना की है| एक उदाहरण देखें -"वर्षति चपला चारू चमत्कृत सघन सुघन नीरे | गायति निज पद पद्मरेणु रत, कविवर हरिश्चन्द्र धीरे |" लोक संगीत का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है| साहित्यकारों द्वारा अपना लिये जाने के कारण कजरी-गायन का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक हो गया| इसी प्रकार उपशास्त्रीय गायक-गायिकाओं ने भी "कजरी" को अपनाया और इस शैली को रागों का बाना पहना कर क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकाल कर राष्ट्रीयता का दर्ज़ा प्रदान किया| शास्त्रीय वादक कलाकारों ने "कजरी" को सम्मान के साथ अपने साजों पर स्थान दिया, विशेषतः सुषिर वाद्य के कलाकारों ने| सुषिर वाद्यों; शहनाई, बाँसुरी, क्लेरेनेट आदि पर कजरी की धुनों का वादन अत्यन्त मधुर अनुभूति देता है| "भारतरत्न" सम्मान से अलंकृत उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई पर तो "कजरी" और अधिक मीठी हो जाती थी| यही नहीं मीरजापुर की सुप्रसिद्ध कजरी गायिका उर्मिला श्रीवास्तव आज भी अपने कार्यक्रम में क्लेरेनेट की संगति अवश्य करातीं हैं| आइए अब हम आपको सुषिर वाद्य बाँसुरी पर कजरी धुन सुनवाते हैं, जिसे सुप्रसिद्ध बाँसुरी वादक पण्डित पन्नालाल घोष ने प्रस्तुत किया है-

बाँसुरी पर कजरी धुन : वादक - पन्नालाल घोष


ऋतु प्रधान लोक-गायन की शैली "कजरी" का फिल्मों में भी प्रयोग किया गया है| हिन्दी फिल्मों में "कजरी" का मौलिक रूप कम मिलता है, किन्तु 1963 में प्रदर्शित भोजपुरी फिल्म "बिदेसिया" में इस शैली का अत्यन्त मौलिक रूप प्रयोग किया गया है| इस कजरी गीत की रचना अपने समय के जाने-माने लोकगीतकार राममूर्ति चतुर्वेदी ने और संगीतबद्ध किया है एस.एन. त्रिपाठी ने| यह गीत महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली "ढुनमुनिया कजरी" शैली में मौलिकता को बरक़रार रखते हुए प्रस्तुत किया गया है| इस कजरी गीत को गायिका गीत दत्त और कौमुदी मजुमदार ने अपने स्वरों से फिल्मों में कजरी के प्रयोग को मौलिक स्वरुप दिया है| आप यह मर्मस्पर्शी "कजरी" सुनिए और मैं कृष्णमोहन मिश्र आपसे "कजरी लोक गायन शैली" के प्रथम भाग को यहीं पर विराम देने की अनुमति चाहता हूँ| अगले रविवार को इस श्रृंखला का दूसरा भाग लेकर पुनः उपस्थित रहूँगा|

"नीक सैंयाँ बिन भवनवा नाहीं लागे सखिया..." : फिल्म - बिदेसिया : गीता दत्त, कौमुदी मजुमदार व साथी


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: सुर-संगम के २८वें अंक में हमने आपको पंडित गणेश प्रसाद मिश्र की आवाज़ में "टप्पा" सुनाया था| आगामी अंक में हम आपको सुनवाएँगे उनके दादा जी की आवाज़ में कजरी| आपको बताना है उनका नाम|

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी को एक बार फिर से बधाई!!!
अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख - कृष्णमोहन मिश्र

प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

ताजा कहानी-पॉडकास्ट

ताज़ा पॉडकास्ट कवि सम्मेलन