ओल्ड इस गोल्ड आवाज़ का एक ऐसा स्तम्भ है जिसमें हम आपको फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर से चुनकर एक लोकप्रिय गीत सुनवाते हैं और साथ ही साथ उस गीत की चर्चा भी करते हैं उपलब्ध तथ्यों के आधार पर. आज हमने इस स्तम्भ के लिए जिस गीत को चुना है उस गीत को सुनकर न केवल आप मुस्कुरायेंगें बल्कि आपके कदम थिरकने भी लगेंगे. १९५८ में एक फ़िल्म आई थी-"दिल्ली का ठग" और इस फ़िल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे किशोर कुमार और नूतन. इस फ़िल्म में किशोर कुमार और आशा भोंसले का गाया एक ऐसा गीत है जो अपने आप में एक ही है, और ऐसा गीत फ़िर उसके बाद कभी नही बन पाया. जब किशोर दा के सामने हास्य गीत गाने की बारी आती है, तो जैसे उनका अंदाज़ ही बदल जाता है. संगीतकार चाहे जैसी भी धुन बनाये, किशोर दा उस पर अपने अंदाज़ की ऐसी छाप छोड़ देते हैं की वो गीत सिर्फ़ और सिर्फ़ उन्ही का बन कर रह जाता है. ऐसा ही है ये गीत भी जिसे आज हम आपको सुनवाने जा रहे हैं.
फ़िल्म की सिचुअशन ये है कि नूतन, किशोर कुमार को अंग्रेजी की "वोक्युबलरी" सिखा रही हैं. इस सिचुअशन पर जब गीत बनाने का सोचा गया तब तब गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी, संगीतकार रवि और गायक किशोर कुमार और आशा भोंसले ने एक ऐसा "मास्टर पीस" तैयार कर सबके सामने पेश कर दिया कि सब खुशी से झूम उठे और हँसी के मारे लोट पोट भी हो गए. आशा ने भी देखिये किस खूबी से यहाँ किशोर को टक्कर दी है गायकी में. इस तरह के गीत निभाने आसान नही होते ये याद रखियेगा. "सी ऐ टी कैट कैट माने बिल्ली..." को उस साल अमीन सायानी के हिट रेडियो कार्यक्रम बिनाका गीत माला के वार्षिक कार्यक्रम में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ था. आज भी ये गीत किशोर कुमार के सदाबहार हास्य गीतों की तालिका में एक बेहद सम्मान जनक स्थान हासिल करता है. तो सुनिए किशोर कुमार के साथ आशा भोंसले की आवाज़, फ़िल्म "दिल्ली का ठग" का ये गुदगुदाने वाला गाना.
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. कमर जलालाबादी, कल्यानजी आनंद जी और मुकेश की शानदार जुगलबंदी. २. मनमोहन देसाई की पहली निर्देशित फ़िल्म, नायक थे राजकपूर. ३. गीत के मुखड़े में शब्द है -"सुभान अल्लाह"
कुछ याद आया...?
कल की पहेली का सही जवाब दिया मीत जी ने, मनु जी ने और दिलीप जी ने. आप सब को बधाई.
प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सदर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'पत्नी से पति'
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने डॉक्टर मृदुल कीर्ति की आवाज़ में प्रेमचंद की रचना ''ठाकुर का कुआँ'' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी "पत्नी से पति", जिसको स्वर दिया है शन्नो अग्रवाल ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 27 मिनट।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी ‘हॉ, लेकिन मुझे इसका हमेशा खेद रहता है कि ऐसे अभागे देश में क्यों पैदा हुआ। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे हिन्दुस्तानी कहे या समझे । कम से कम मैंने आचार-व्यवहार वेश-भुषा, रीति-नीति, कर्म-वचन में कोई ऐसी बात नहीं रखी, जिससे हमें कोई हिन्दुस्तानी होने का कलंक लगाए।’ (प्रेमचंद की "पत्नी से पति" से एक अंश)
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आवाज़ की दुनिया के मेरे दोस्तों, आज से आवाज़ पर हम शुरू कर रहे हैं एक नया स्तंभ -"ओल्ड इस गोल्ड".यह एक ऐसा स्तंभ है जो सलाम करती है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन बेशकीमती गीतों को जिनसे फ़िल्म संगीत संसार आज तक महका हुआ है. इस स्तंभ के अंतर्गत हम न केवल आपको उस गुज़रे दौर के लोकप्रिय गाने सुनवायेंगे, बल्कि उन गीतों की थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे. आज इस नए स्तंभ की पहली कड़ी में हमने जिस गीत को चुना है आपले साथ बाँटने के लिए, वो फ़िल्म "नीला आकाश" का है. ये फ़िल्म बनी थी १९६५ में. राजेंदर भाटिया द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्या कलाकार थे धर्मेन्द्र और माला सिन्हा.जहाँ तक इसके गीत संगीत का सवाल है, इस फ़िल्म के गाने लिखे रजा मेहंदी अली खान ने, और संगीतकार थे मदन मोहन. दोस्तों, आपको शायद ये बताने की जरुरत नही कि राजा मेहंदी अली खान और मदन मोहन की जोड़ी ने बहुत सारे खूबसूरत गीत हमें दिए हैं. बल्कि यूँ कहें कि राजेंदर कृष्ण के बाद मदन मोहन जिस गीतकार के सबसे ज्यादा गीत संगीतबद्ध किए, वो थे राजा मेहंदी अली खान. नीला आकाश के ज्यादातर गाने आशा भोंसले और मोहम्मद रफी ने गाये सिवाय एक गीत के जिसे लता मंगेशकर ने गाया था. रफी और आशा की आवाजों में "तेरे पास आके मेरा वक्त गुजर जाता है...", इस फ़िल्म का सबसे हिट गीत रहा. लेकिन आज हम यहाँ जिस गीत का जिक्र कर रहे हैं वो है तो आशा और रफी की ही आवाजों में, लेकिन वो गीत है "आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है.." रूमानियत से भरे इस खूबसूरत युगल गीत में है मीठी छेड़ छाड़, कुछ शिकवे शिकायतें और हल्की फुल्की नोंक झोंक, जो हमें ले जाती है उस ज़माने में जहाँ प्यार बहुत मासूम हुआ करता था. "किसलिए आपने शरमा के झुका ली ऑंखें.." के जवाब में में नायिका का कहना -"इसलिए आपसे शरमा के झुका ली ऑंखें, आपको तीर चलाने की बुरी आदत है..", इसी मासूमियत की एक मिसाल है. इस गीत से जुड़ी एक और ख़ास बात यह है कि इस गीत का फिल्मांकन दिल्ली के लोधी गार्डन में किया गया था. तो अब सुनिए ये गीत और याद सजायिये अपने अपने प्रेमी/प्रेमिका के साथ गुजरे उन मीठी तकरारों वाले दिनों की -
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. किशोर कुमार और नूतन पर फिल्माए गए इस गीत में नूतन की अदाकारी को आवाज़ दी है आशा भोंसले ने. २. १९५८ में आई इस फ़िल्म के इस जबरदस्त हास्य गीत ने बिनाका संगीत परेड में, टॉप ३ में अपनी जगह बनाई थी. ३. गीत में अंग्रेजी शब्दों का सुंदर इस्तेमाल हुआ है.
कुछ याद आया...?
प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सदर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
"नमक इश्क का", फ़िल्म ओमकारा का ये हिट गीत था जिसे गाने के बाद रेखा भरद्वाज ने कमियाबी का असली स्वाद चखा था. इस गीत के संगीतकार हैं विशाल भरद्वाज जो रेखा के पति और एक कामियाब संगीतकार होने के साथ साथ एक उत्कृष्ट निर्देशक भी हैं. नमक इश्क का गीत लिखा था गुलज़ार साहब ने जिन्हें रेखा अपना मेंटर मानती है. १९९६ में बनी गुलज़ार की फ़िल्म "माचिस" से विशाल भरद्वाज बतौर संगीतकार चर्चा में आए थे. इसी फ़िल्म में रेखा ने विशाल को सहयोग दिया था संगीत में. तत्पश्चात चाची ४२०, गोड़ मदर, हु तू तू और मकडी में उन्होंने विशाल के साथ काम किया. कभी कभार कुछ गीतों को अपनी आवाज़ भी दी. विशाल ने "मकडी" से निर्देशन में कदम रखा, और अगली फ़िल्म "मकबूल" में उन्होंने रेखा से दो बेहद दमदार "रोने दो" और "चिंगारी" गीत गवाए, २००३-०४ में उन्हीं के संगीत निर्देशन में रेखा की पहली चर्चित एल्बम "इश्का इश्का" आई. इससे ठीक दस साल पहले १९९४ में जब रेखा बुल्ले शाह के गीतों पर विशाल के निर्देशन में काम कर रही थी, उन्हीं दिनों माचिस की सिटिंग के लिए उनका गुलज़ार साहब के यहाँ आना जाना हुआ, जहाँ एक दिन गुलज़ार साहब ने उनसे वादा किया कि वो उनकी अल्बम के लिए गीत लिखेंगे. और गुलज़ार साहब ने अपना वादा निभाया भी.
इस एल्बम के बाद उन्हें एक अच्छे सूफी गायिका के रूप में देखा जाने लगा था. विशाल को जब भी किसी गीत में एक अलग लहजे की आवाज़ की दरकार होती वो रेखा को ही चुनते. याद कीजिये "एक वो दिन भी थे..." (चाची ४२०), "मेरी जान (भागमती), और "फूँक दे.." (नो स्मोकिंग). ऐसा नही कि रेखा ने सिर्फ़ विशाल के संगीत निर्देशन में ही गाया हो, जैसा कि कुछ आलोचक उन्हें विशाल की परछाई बता कर दरकिनार कर देते हैं. शांतनु मोइत्रा के निर्देशन में फ़िल्म "लागा चुनरी में दाग" का शीर्षक गीत इस मिथक को तोड़ने के लिए काफ़ी है. इस गीत में नायिका के मन में बदलते भावों को अपनी आवाज़ से उभारना आसान नही था और शुद्ध और क्लिष्ट हिन्दी के शब्दों का इस्तेमाल किया था इस गीत में गीतकार स्वानंद किरकिरे ने भी, पर रेखा ने इस चुनौती भरे गीत को भी उतनी खूबी से निभाया जैसे ठीक उल्टे मिजाज़ के (ठेठ देसी नाच गीत)"नमक इश्क का" गीत को निभाया था.
रेखा आजकल एक बार फ़िर खूब तारीफें बटोर रही है, दिल्ली ६ में पहली बार ऐ आर रहमान के निर्देशन में गाये रंगीले अंदाज़ के अपने गीत "गैन्दाफूल" के लिए. वहीदा रहमान पर फिल्माए गए इस गीत में देसी छेड़ छाड़ तो है ही, एक अलग तरह मस्ती भी है, जो बार बार सुने जाने को मजबूर करती है. रेखा की आवाज़ अपने पूरे शबाब पर है यहाँ और प्रसून के शब्द भी गुदगुदाते हैं. तो सुनिए...क्या क्या होता है नई नवेली दुल्हन के साथ ससुराल में -
इस बार हिन्द-युग्म आवाज़ की गूँज दक्षिण में सुनाई पड़ी है। ११ फरवरी २००९ को बंगलुरू से प्रकाशित हिन्दी दैनिक 'दक्षित भारत' में आवाज़ की पोस्ट 'रहमान के बाद अब बाज़ी मारी उस्ताद जाकिर हुसैन ने भी...' के कुछ अंश प्रकाशित हुये हैं। सीमा सचदेव ने स्कैन्ड कॉपी भेजी है। वैसे इससे पहले अमर उजाला के ब्लॉग पृष्ठ पर आवाज़ के ३ आलेखों की चर्चा हुई है, पर दक्षिण भारत के किसी अखबार में शायद ये पहली बार है. आप भी देखें (गलत-सही ही सही कुछ छापा तो उन्होंने)।
बुल्ला की जाणां मैं कौन ? सवाल जो ज़ेहन को भी सोचने के लिए मजबूर कर दें कि ज़ेहन तू कौन है? कैसा दंभ? कौन सी चतुराई? किसकी अक्ल? जो बुल्ला खुद कहता है मैं की जाना मैं कौन उसके बारे में रत्ती भर भी जान सकें या समझ सकें ये दावा करना भी बुल्ले की सोच से दगा करने जैसा है। अगर बुल्ले का इतिहास लिखूं तो कहना होगा, बुल्ला सैय्यद था, उच्च जाति मुलसमान, मोहम्मद साहब का वंशज, पर खुद बुल्ला कहता है -
न मैं मोमन विच मसीतां, ना मैं विच कुफर दियां रीतां
तो कैसे कहूं कि वो मोमिन (मुसलमान) था। बुल्ला तो अल्हा की माशूक था, जो अपने नाराज़ मुरशद को मनाने पैरों में घुंघरू बांध कर गलियों में कंजरी (वैश्य) की तरह नाचती फिरती है, गाती फिरती है,
कंजरी बनेया मेरी इज्जत घटदी नाहीं मैंनू नच के यार मनावण दे
बुल्ला की जाणां - (रब्बी शेरगिल)
बुल्ले के जन्म के बारे में इतिहासकार एक राय नहीं है, बुल्ले को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। कहते हैं मीर अब्दुला शाह कादरी शतारी का जन्म 1680 इसवी में बहावलपुर सिंध के गांव उच गैलानीयां में शाह मुहमंद दरवेश के घर हुआ, जो मुसलमानों में मानी जाती ऊंची जाति सैय्यद थे। वह मसजिदों में तालीम देते, स्कूली तालीम और मज़हबी तालीम। सैय्यद साहब जाने-माने मौलाना थे। बुल्ले को उस्ताद गुलाम मुर्तजा के पास तालीम के लिए भेजा गया। बुल्ले शाह ने उनकी सारंगी उठा ली। अल्हा की बंदगी करने वाले परिवार में पैदा हुए बुल्ले शाह अध्यात्म से तों बचपन से ही जुड़ गए। अल्हा की बंदगी में वक्त गुज़रता, उर्दू, फारसी के विद्वानों को पढऩे का सिलसिला चलता रहा। साधना से बुल्ले ने इतनी ताकत हासिल कर ली कि अधपके फलों को पेड़ से बिना छुए गिरा दे। पर बुल्ले को तलाश थी इक ऐसे मुरशद की जो उसे खुदा से मिला दे।
उस दिन शाह इनायत अराईं (छोटी मुसलिम जात) के बाग के पास से गुज़रते हुए, बुल्ले की नजऱ उन पर पड़ी। उसे लगा शायद मुरशद की तलाश पूरी हुई। मुरशद को आज़माने के लिए बुल्ले ने अपनी गैबी ताकत से आम गिरा दिए। शाह इनायत ने कहा, नौजवान तुमने चोरी की है। बुल्ले ने चतुराई दिखाई, ना छुआ ना पत्थर मारा कैसी चोरी? शाह इनायत ने इनायत भरी नजऱों से देखा, हर सवाल लाजवाब हो गया। बुल्ला पैरों पर नतमस्तक हो गया। झोली फैला खैर मांगी मुरशद मुझे खुदा से मिला दे। मुरशद ने कहा, मुश्किल नहीं है, बस खुद को भुला दे। फिर क्या था बुल्ला मुरशद का मुरीद हो गया, लेकिन अभी इम्तिहान बाकी थे। पहला इम्तिहान तो घर से ही शुरू हुआ। सैय्यदों का बेटा अराईं का मुरीद हो, तो तथाकथित समाज में मौलाना की इज्ज़त खाक में मिल जाएगी। पर बुल्ला कहां जाति को जानता है। कहां पहनचानता है समाज के मजहबों वाले मुखौटे। बहनें-भाभीयां जब समझाती हैं,
बुल्ले नू समझावण आइयां भैणां ते भरजाइयां बुल्ले तूं की लीकां लाइयां छड्ड दे पल्ला अराइयां
तो बुल्ला गाता है-
अलफ अल्हा नाल रत्ता दिल मेरा, मैंनू 'बे' दी खबर न काई
'बे' पड़देयां मैंनू समझ न आवे, लज्जत अलफ दी आई
ऐन ते गैन नू समझ न जाणां गल्ल अलफ समझाई
बुल्लेया कौल अलफ दे पूरे जेहड़े दिल दी करन सफाई (जिसकी अल्फ यानि उस एक की समझ लग गई उसे आगे पढऩे की जरुरत ही नहीं। अल्फ उर्दू का पहला अक्षर है बुल्ले ने कहा है, जिसने अल्फ से दिल लगा लिया, फिर उसे बाकी अक्षर ऐन-गेन नहीं भाते)
कहते हैं बुल्ले के परिवार में शादी थी, बुल्ले ने मुरशद को आने का न्यौता दिया। फकीर तबियत इनायत शाह खुद तो गए नहीं अपने एक मुरीद को भेज दिया। अराईं मुरीद फटे पुराने कपड़ों में शादी में पहुंचा। खुद को उच्च जाति समझने वाला सैय्यद परिवार तो पहले ही नाखुश था कहां मुरशद के मुरीद का स्वागत करता। बुल्ला भी जशन में ऐसा खोया कि मुरशद के बंदे को भूल बैठा। जब वह मुरीद लौट कर शाह इनायत के पास पहुंचा और किस्सा सुनाया तो बुल्ले के रवैये पर नाराज़ हुआ। बुल्ले से ये उम्मीद ना थी। जब बुल्ला मिलने आया तो उसकी तरफ पीठ कर शाह इनायत ने ऐलान कर दिया, बुल्ले का चेहरा नहीं देखूंगा। बुल्ले को गलती का अहसास हुआ, उसका इम्तिहान शुरू हो चुका था। मुरशद नाराज़ था, मुरीद अल्हा को जाने वाले रास्ते में भटक रहा था। क्या करता बहुत मनाया, पर मुरशद तो मुरशद है, जिसको चाहे आलिम (अक्लमंद) करदे, जिसे चाहे अक्ल से खाली कर दे। बुल्ला मुरशद रांझे के लिए तड़पती हीर हो गया। उसने कंजरी से नाचना सीखा, खुद कंजरी बन पैरों में घुंघरू बांध, नंगे पांव गलियों में निकल पड़ा। शाह इनायत को संगीत पसंद था, बुल्ला संगीत में डूब कर खुद को भूल गया। एक पीर के उर्स पर जहां सारे फकीर इक्टठे होते, बुल्ला भी पहुंच गया। मुरशद से जुदाई की तड़प में बुल्ले ने दिल से खून के कतरे-कतरे को निचोड़ देने वाली काफीयां लिखी थीं। जब सब नाचने-गाने वाले थक कर बैठ गए, बुल्ला मुरशद के रंग में रंगा घंटो नाचता गाता रहा। उसकी दर्द भरी आवाज़ और समर्पण से भरे बोल मुरशद का दिल पिघला गए। जाकर पूछा तू बुल्ला है? वो पैरों पर गिर पड़ा, बुल्ला नहीं मुरशद मैं भुल्ला (भूला हुआ/भटका हआ) हां। मुरशद ने सीने से लगाकर भुल्ले को जग के बंधनों से मुक्त कर अल्हा की रमज़ से मिला दिया। बुल्ला गाने लगा -
आवो नी सईयों रल देवो नी वधाई मैं वर पाया रांझा माही
बुल्ला ने अलाह को पाने को जो रास्ता अपनाया वो इश्क मिज़ाजी (इंसान से मोहब्बत) से होते हुए इश्क हकीकी (खुदा से मोहब्बत) को जाता है। बुल्ले ने एक (मुरशद) से इश्क किया और उस एक (खुदा) को पा लिया। बुल्ला कहता है,
राझां राझां करदी नी मैं आपे रांझा होई सद्दो नी मैंनू धीदो रांझा हीर ना आखो कोई
जब औरंगज़ेब ने नाचने-गाने को गैर-इसलामी बताते हुए इस पर पाबंदी लगा दी तो शाह इनायत ने बुल्ले शाह को गांव-गांव घर-घर नाचते-गाते हुए जाने की ताकीद की, ताकि तानाशाही को जवाब दिया जा सके। बुल्ला नाचते-गाते हुए पंजाब में घूमता रहा। लोगों ने काफिर कहा तो बुल्ले ने मुस्कुरा कर कहा -
बुल्ले शाह ने पंजाबी सूफी साहित्य को शाहकार रचनाएं दी। 162 काफीयां, एक अठवारा, एक बारहमाहा, तीन शीहहर्फीयां, 49 दोहे और 40 गांठे लिखी। नाम-जाति-पाति, क्षेत्र, भाषा, पाक-नापाक, नींद-जगने, आग-हवा, चल-अचल के दायरे से खुद को बाहर करते हुए खुद के अंदर की खुदी को पहचानने की बात बुल्ले शाह यूं कहता है-
बुल्ला की जाना मैं कौन
ना मैं मोमन विच मसीतां न मैं विच कुफर दीयां रीतां न मैं पाक विच पलीतां, न मैं मूसा न फरओन बुल्ला की जाना मैं कौन
न मैं अंदर वेद किताबां, न विच भंगा न शराबां न रिंदा विच मस्त खराबां, न जागन न विच सौण बुल्ला की जाना मैं कौन
न मैं शादी न गमनाकी, न मैं विच पलीती पाकी न मैं आबी न मैं खाकी, न मैं आतिश न मैं पौण बुल्ला की जाना मैं कौन
न मैं अरबी न लाहौरी, न मैं हिंदी शहर नगौरी न हिंदू न तुर्क पिशौरी, न मैं रहंदा विच नदौन बुल्ला की जाना मैं कौन
न मैं भेत मजहब दा पाया, न मैं आदम हव्वा जाया न मैं अपना नाम धराएया, न विच बैठण न विच भौण बुल्ला की जाना मैं कौन
अव्वल आखर आप नू जाणां, न कोई दूजा होर पछाणां मैंथों होर न कोई स्याना, बुल्ला शौह खड़ा है कौन बुल्ला की जाना मैं कौन
बुल्ले शाह ने मज़हब, शरीयत और जेहाद के असल मतलब समझाए। 1757 में अपने रांझे संग बुल्ला शाह तो इश्क हकीकी के गीत गाता हुआ, आसमान में तारा बन चमकने को इस धरती को अलविदा कह चला गया, लेकिन आज भी उसी कसूर पाकिस्तान में बाबा बुल्ले शाह की दरगाह पर उसके मुरीद सूफी गीत दिन भर गाते हुए, झूमते नजर आते हैं।
(पिछले अंक से आगे ...) नौशाद अली का संगीत सभी के दिलों पर राज़ करता है। यदि अब तक सभी संगीतकारों का जिक्र होगा तो नौशाद का नाम आर.डी.बर्मन,रहमान आदि के साथ लिया जायेगा। उनका संगीत हमेशा अमर रहेग और ऐसे ही चमकता रहेगा। आज की तारीख का कोई भी संगीतकार मुगल-ए-आज़म जैसी एल्बम तैयार नहीं कर सकता और शायद ऐसा अमर गीत भी कभी नही-
नौशाद ने तमाम फिल्मों में काम किया लेकिन यदि उनकी किन्हीं तीन फिल्मों का जिक्र करना चाहें तो वो शायद ये होंगी: १. मुगल-ए-आज़म : शायद ही किसी को इस बारे में शक हो कि फिल्मी इतिहास में इस फिल्म का संगीत नौशाद का सर्वोत्तम संगीत रहा है। इस फिल्म के ज्यादातर गाने लता मंगेशकर द्वारा गाये गये हैं। हालाँकि ओर्केस्ट्रा आज के समय की तरह तकनीकी और आधुनिकता से लैस नहीं है लेकिन फिर भी उन गानों की मेलोडी की किसी भी अन्य गीत से तुलना नहीं की जा सकती। लता का गाया हुआ राग गारा में 'मोहे पनघट पे नंद लाल' एक तरह से कव्वाली भी है और उस गाने में हर बात सर्वोत्तम है... उसका ट्रैक..जबर्दस्त उर्दू शब्द...से लेकर लता मंगेशकर के साथ साथ कोरस भी कोई कमी नहीं छोड़ रहा था। नौशाद का संगीत उसमें चार-चाँद लगाता है। उसी फिल्म में रागदरबारी में 'प्यार किया तो डरना क्या..' एक और कव्वाली है जो ये सोचने पर मजबूर कर देती है कि 'मोहे..' और 'प्यार किया..' में से बेहतर कौन है। अगला गाना राग यमन में 'खुदा निगेबान..' में एक बार फिर उर्दू के खूबसुरत बोल हैं, लता की मिठास है और उस पर नौशाद का संगीत...कुल मिलाकर इस एल्बम में नौशाद ने फिल्म की जरुरत के हिसाब से वो जबर्दस्त संगीत दिया है जो उसके बाद से अब तक ५० वर्षॊं से न केवल टिका हुआ बल्कि आधुनिकता और सुविधा-सम्पन्न आज के संगीत को कड़ी टक्कर दे रहा है। आने वाले ५० बरसों में भी यही होगा।
२. दूसरी फिल्म है बैजू बावरा: ये वो फिल्म है जिसके बाद नौशाद की पहचान बनी, वे सब की नजरॊ में आये और उसके बाद ही उन्होंने मुगल-ए-आज़म, मेरे महबूब व बाकि फिल्मों में काम किया। ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास अपना अलग महत्त्व रखती है। इसका मशहूर भजन 'मन तरपत हरि दर्शन..' को आज भी सबसे बढ़िया भक्ति गीतों में शुमार किया जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि इस गीत के बोल लिखें हैं मोहम्मद शकील ने, इसको गाया है मोहम्मद रफी ने और धुन बनाई है नौशाद ने..ये तीनों ही मुस्लिम रहे हैं। नौशाद के संगीत और इस गीत ने ये साबित कर दिया है कि संगीत किसी एक धर्म का नहीं है। बाकि मशहूर गानों में 'ओ दुनिया के रखवाले..' जिसे गाया था नौशाद के पसंदीदा गायक रफी ने। "झूले में पवन के", जिसे लता और रफी दोनों ने अपनी आवाज़ दी। इनके गीतों को सुनना अपने आप में एक अलग अनुभव होता है। राग भैरवी में 'तू गंगा की मौज..' को कौन भूल सकता है... जिसके सुंदर बोल,कोरस एफैक्ट और ओर्केस्ट्रा सब मिलकर इस गीत को एक अमर रचना में तब्दील कर देते हैं.
३. कोहिनूर: नौशाद द्वारा संगीतबद्ध एक और फिल्म। यह फिल्म मेलोडी के अलावा भी और कईं कारणॊं से मील का पत्थर रही। 'मधुबन में राधिका नाचे रे..' गाना आज भी पसंद किया जाता है। इस पूर्णतया राग प्रधान गीत के लिये रफी साहब की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है। नौशाद जोखिम उठाने में कभी भी नहीं हिचकिचाते थे। नये नये प्रयोग करना उन्हें अच्छा लगता था। इस फिल्म के निर्देशक थोड़े घबराये हुए थे, क्योंकि यह गाना किसी भी लिहाज से पारंपरिक कव्वाली नहीं था और न ही ये सामान्य गानों की तरह अथवा पाश्चात्य समाये हुए था। फिर भी इस गाने की धुन अपने आप में आधुनिकता समेटे हुए थी जिसको अपनी आवाज़ से रफी साब ने और सुरीला बना दिया था। नौशाद इस गाने को लेकर इतने विश्वास से भरे हुए थे कि वे कोहिनूर के लिये जो भी पैसे उन्हें मिल रहे थे वे भी वापस करने को तैयार थे अगर बॉक्स ऑफिस पर ये गीत पिट जाता। लेकिन जो हुआ वो सब ने देखा और सुना। यह गाना पूरे भारत में अपने शास्त्रीय संगीत और रिद्म की वजह से कामयाब हुआ। इसी फिल्म के अन्य गीत थे 'ढल चुकी शाम-ए-गम...', 'जादूगर कातिल..' 'तन रंग लो जी..'। सभी गानों की खास बात उसका संगीत तो था ही साथ ही बहुत खूबसूरत बोल भी थे।
नौशाद के काम को और भारतीय संगीत में योगदान को इन तीन फिल्मों में कतई नहीं समेटा जा सकता। उनका योगदान निस्संदेह सराहनीय व अतुलनीय है। उनकी आखिरी फिल्म रही अकबर खान की 'ताजमहल'। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई। नौशाद का खूबसूरत संगीत खराब स्टार कास्ट के कारण लोगों की नजरों में नहीं आ पाया। फिल्म के प्रोमोशन के लिये निर्माता नौशाद के गानों का भी सही इस्तेमाल नहीं कर सके। जबकि ये वो समय था कि इस फिल्म का संगीत उस समय की अन्य फिल्मों के मुकाबले कहीं बेहतर था। ताजमहल के संगीत को नौशाद का बेस्ट तो नहीं कह सकते किन्तु आज के समय के अन्य संगीतकारों हिमेश, प्रीतम व अनु मलिक तथा अन्यों से हजार गुणा अच्छा था। यदि इस फिल्म के गानों को सुनें तो सबसे अच्छा गीत 'अपनी ज़ुल्फें मेरे...' रहा जिसे हरिहरण ने गाया। हरिहरण उन गायकों में से हैं जिन्हें हमेशा ही कम आंका गया है। प्रीति उत्तम और हरिहरण का ही गाया हुआ एक और जबर्दस्त रोमांटिक गीत 'मुमताज़ तुझे देखा...' रहा। संगीत सुनेंगे तो आपको लगेगा ही नहीं कि ८६ वर्ष का कोई बुजुर्ग ये धुन बना रहा होगा। नौशाद के संगीत में हमेशा ताज़गी समाई हुई रहती है।
चाहें कोई पिछली पीढ़ी का श्रोता हो या आज की पीढ़ी का युवा वर्ग हर कोई नौशाद के संगीत पर झूमता है। ज़रा कुछ गीतों पर नजर डालिये... मधुबाला का 'प्यार किया तो डरना क्या' जिस पर आज के दौर में रीमिक्स बनाया जाता है... और जब दिलीप कुमार का "नैन लड़ जई हैं तो मनवा मा.." सुन ले तो कदम अपने आप थिरकने लगते हैं। आज ज्यादातर लोग उस दौर से ताल्लुक नहीं रखते पर फिर भी लगता है कि नौशाद फिल्मों में संगीत नहीं देते थे...बल्कि जादू बिखेरते थे। उनके संगीत में लोक संगीत की झलक मिलती है।
लखनऊ में जन्में १८ वर्षीय बालक से जब उसके पिता ने घर और संगीत में से एक को चुनने को कहा तब उसने संगीत को चुना और खूबसूरत सपने और कड़वी सच्चाइयों वाले मुम्बई शहर जा पहुँचा। आँखों में हजारों सपने लिये फुटपाथ को घर बनाये इस शानदार संगीतकार ने सैकड़ों धुनें तैयार कर दी। यदि फिल्मों पर गौर करें तो महल, बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुगल-ए-आज़म, दर्द, मेला, संघर्ष, राम और श्याम, मेरे महबूब-जैसी न जाने कितनी ही फिल्में हैं।
नौशाद की बात करें और लता व रफी की बात न हो तो क्या फायदा। मुगल-ए-आज़म के राग दरबारी में 'मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोय' से लेकर गंगा जमुना के 'ढूँढो ढूँढो रे साजना' तक यदि किसी संगीतकार ने गीत की जरूरत, उसके बोल और गायिका की आवाज़ को समझा है तो वो नैशाद ही हैं।
रफी की बात करें तो गानों की लाइन लग सकती है पर फिर भी यदि किन्हीं दो गानों को चुनना पड़े तो शायद हर कोई 'ए दुनिया के रखवाले' और राग मालकौस 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' को ही चुनेगा।
लता मंगेशकर कहती हैं, "मैंने नौशाद साहब के साथ कईं महत्त्वपूर्ण गानों में काम किया है। उनकी शास्त्रीय संगीत में पकड़ और नये पॉपुलर संगीत की समझ ने उन्हें उस समय के सदाबहार गानों को कॉम्पोज़ करने का सबसे योग्य उम्मीदवार बना दिया था। वे याद करती हैं और हँसती हैं जब 'प्यार किया तो डरना क्या' गीत रिकॉर्ड हो रहा था तब बीच में आवाज़ में गुंजन पैदा करनी थी। जिसके लिये नौशाद ने उन्हें बाथरूम से गाने को कहा। उस समय आवाज़ को गुँजाने का कोई साधन नहीं था, इसलिये नौशादा साहब ने ये तरीका ईज़ाद किया। वे आगे बताती हैं कि नौशाद अपनी धुनों व आवाज़ में लगातार प्रयोग करते रहते थे जिसके लिये उन्होंने पाश्चात्य ओर्केस्ट्रा का प्रयोग करने में भी नहीम हिचकिचाये। उनके पसंदीदा गीतों में 'उठाये जा उनके सितम' (अंदाज़), 'जाने वाले से मुलाकात', 'न मिलता गम' (अमर), 'मोहे पनघट पे नंदलाल', राग केदार में 'बेकस पे करम' और राग दरबारी में 'प्यार किया तो..' गाने प्रमुख रहे। आज के समय में ऐसा संगीत दिया ही कहाँ जाता है।
जिन कलाकारों ने उनके साथ काम किया वे उन्हें मिश्रित संस्कृति का प्रतीक मानते हैं। जावेद अख्तर कहते हैं कि नौशाद न केवल एक संगीतकार थे बल्कि देश के मिश्रित संस्कृति के ऐसे प्रतीक थे जिन्होंने भारतीय फिल्म संगीत में कईं परिवर्तन लाये व इसको गरिमा प्रदान की। वे बताते हैं कि नौशाद का फिल्म संगीत में योगदान अद्वितीय था। उनका नाम हमेशा ही श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता रहेगा।
जानेमाने निर्देशक महेश भट्ट भी कुछ ऐसा ही कहते हैं। वे कहते हैं कि नौशाद सेक्युलर भारत के प्रतीक थे। उनका सम्गीत संयुक्त सम्स्कृति की प्रतिध्वनि था। जब वे भजन में संगीत दिया करते थे ऐसा लगता था मानो वे हिन्दू हों। उनमें भारतीयता की गहराई थी और यही महान इतिहास व संस्कृति उनके खून में बह रही थी।
नौशाद तेजी से बढ़ते 'रीमिक्स कल्चर' से दूर भागने का प्रयास करते और हमेशा कहते कि हमें समय के साथ आगे बढ़ना तो चाहिये पर अपनी जड़ों के साथ पकड़ हमेशा बना कर रखनी चाहिये।
और अंत में एक ऐसी बात जो शायद बहुत कम लोगों को ही पता होगी। नौशाद साहब को मछली पकड़ने का शौक था। संगीत निर्देशन के अति व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर वे "एंग्लिंग" खेलने जाया करते थे। ये एक तरह का मछली पकड़ने का खेल है। उन्होंने १९५९ में महाराष्ट्र स्टेट ऐंग्लिंग एसोसियेशन की सदस्यता प्राप्त की। जब नौशाद युवा थे तो मुम्बई की पोवई झील में गीतकार शकील बदईयुनि और मजरूह सुल्तानपुरी के साथ मछलियाँ पकड़ने जाया करते थे।
नौशाद फिल्मी संगीत के स्वर्णयुग का सबसे अहम संगीतकार थे जिसने शास्त्रीय संगीत में पगे गीतों को लोकप्रिय बनाया और उनके संगीत का जादू ही है जो बैजू बावरा और मुगले आजम का संगीत आज भी ताजातरीन लगता है।
"आज पुरानी यादों से कोई मुझे आवाज़ न दे...", नौशाद साहब के इस दर्द भरे नग्में को आवाज़ दी थी मोहम्मद रफी साहब ने, पर नौशाद साहब चाहें या न चाहें संगीत प्रेमी तो उन्हें आवाज़ देते रहेंगें, उनके अमर गीतों को जब सुनेंगें उन्हें याद करते रहेंगे. तपन शर्मा सुना रहें हैं दास्ताने नौशाद, और आज की महफ़िल है उन्हीं की मौसिकी से आबाद.
नौशाद का जन्म २५ दिसम्बर १९१९ में एक ऐसे परिवार में हुआ, जिसका संगीत से दूर दूर तक नाता नहीं था और न ही संगीत में कोई रुचि थी। पर नौशाद शायद जानते थे कि उन्हें क्या करना है। दस साल की उम्र में भी जब वे फिल्म देख कर लौटते तो उनकी डंडे से पिटाई हुआ करती थी। ये उस समय की बातें हैं जब फिल्मों में संगीत नहीं हुआ करता था। और थियेटर में पर्दे के पास बैठे संगीतकार ही संगीत बजा कर फिल्म के दृश्य के हिसाब से तालमेल बिठाया करते थे। वे कहते थे कि वे फिल्म के लिये थियेटर नहीं जाते बल्कि उस ओर्केस्ट्रा को सुनने जाते हैं। उन संगीतकारों को सुनने जो हारमोनियम, पियानो, वायलिन आदि बजाते हुए भी दृश्य की गतिविधियों के आधार पर आपस में संतुलन बनाये रखते हैं। और यही वो पल होते थे जिनमें उन्हें सबसे ज्यादा मज़ा आता था। और वो भी चार-आने वाली पहली कतार में बैठ कर।
नौशाद ने एक वाद्ययंत्र बेचने वाली दुकान पर काम किया और हारमोनियम खरीदा। उनका अगला कदम था स्थानीय ओर्केस्ट्रा में शामिल होना। जाहिर तौर पर यह सब उन्होंने अपने पिता से विपरीत जाते हुए किया। उसके बाद नौशाद एक जूनियर थियेटर क्लब से जुड़ गये। फिर उन्होंने एक नाटक कम्पनी में काम किया जो उस समय लखनऊ गई हुई थी। वे लैला मजनू पर आधारित नाटक कर रहे थे। ये पहली मर्तबा था कि उन्होंने घर में किसी की परवाह नहीं की। वे वहाँ से भाग गये और नाटक कम्पनी के साथ कभी जयपुर, जोधपुर, बरेली और गुजरात गये। विरम्गाम में उनकी कम्पनी फ्लॉप हो गई और वे वापस घर नहीं गये।
१९३७ में हताश नौशाद ने बम्बई में कदम रखा। और तब उनका संघर्ष दोबारा शुरू हुआ। जिस अकेले आदमी को वे बम्बई में जानते थे, वे थे अन्जुमन-ए-इस्लाम हाई स्कूल के हैडमास्टर जिनके साथ उन्होंने कुछ समय बिताया। ये किस्मत की बात थी कि वे हैरी डरोविट्स के सम्पर्क में आये जो समन्दर नाम की एक फिल्म बना रहे थे। नौशाद को मुश्ताक हुसैन के ओर्केस्ट्रा में ४० रूपय प्रतिमाह की तन्ख्वाह पर पियानो बजाने की नौकरी मिली। गुलाम मोहम्मद जो बाद में नौशाद अली के सहायक बने, उस समय ६० रूपये कमाया करते थे। मुश्ताक हुसैन न्यू थियेटर, कोलकाता के मशहूर संगीत निर्देशक थे। बाद में नौशाद अपना हुनर रुसी निर्माता हेनरी डारविज की फिल्म "सुनहरी मकड़ी" में दिखाने में सफल हुए।
जब हरीश्चंद्र बाली ने फिल्म "पति-पत्नी" को छोड़ा तब उस समय नौशाद को पहली बार संगीतकार के तौर पर काम मिला। उन्हें मुश्ताक हुसैन का सहायक बनाया गया लेकिन ये ज्यादा दिन नही चला और फिल्म बंद हो गई। भाग्य ने फिर साथ दिया और वे मनोहर कपूर से मिले। मनोहर उस समय पंजाबी फिल्म "मिरज़ा साहिबान" के लिये संगीत दे रहे थे। नौशाद ने कपूर के साथ काम करना शुरु कर दिया और उन्हें ७५ रू महीने के हिसाब से मिलने लगे। ये फिल्म सभी को पसंद आई और बॉक्स ऑफिस पर जबर्दस्त हिट साबित हुई।
खेमचंद प्रकाश, मदहोक, भवनानी और ग्वालानी आदि की सहायता से नौशाद धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे। उन्होंने भवनानी की फिल्म प्रेम नगर में संगीत दिया। उसके बाद उनकी गिनती ऊँचे संगीतकारों में होने लगी और देखते ही देखते वे ६०० रू. से १५०० रू. प्रति फिल्म के कमाने लगे। ए.आर.करदार की फिल्म नई दुनिया (१९४२) ने पहली बार उन्हें संगीत निर्देशक का दर्जा दिलवाया। करदार की फिल्मों में वे लगातार संगीत देने लगे। और फिल्म शारदा में उन्होंने १३ वर्षीय सुरैया के साथ "पंछी जा" गाने के लिये काम किया। रतन(१९४४) वो फिल्म थी जिसने उन्हें ऊँचाई तक पहुँचा दिया और उस समय के हिसाब से उन्हें एक फिल्म के २५००० रू मिलने लगे!!
लखनऊ में उनका परिवार हमेशा संगीत के खिलाफ रहा और नौशाद को उनसे छुपा कर रखना पड़ा कि वे संगीत के क्षेत्र में काम करते हैं। जब नौशाद की शादी हो रही थी तो बैंड उन्हें की सुपारहिट फिल्म रतन('४४) के गाने बजा रहा था। उस समय उनके पिता व ससुर उस संगीतकार को दोष दे रहे थे जिसने वो संगीत दिया... तब नौशाद की सच्चाई बताने की हिम्मत नहीं हुई कि संगीत उनका ही दिया हुआ है।
१९४६ के वर्ष में उन्होंने नूरजहां के साथ "अनमोल घड़ी" और के.एल.सहगल के साथ "शाहजहां" की और दोनों ही फिल्मों का संगीत सुपरहिट रहा। १९४७ में बंटवारा हुआ और हिन्दू मुस्लिम दंगे हुए। मुम्बई से काफी मुस्लिम कलाकार पाकिस्तान चले गये। पर बॉलीवुड में नौशाद जैसे स्थापित कलाकार वहीं रहे। १९४२ से लेकर १९६० के दशक तक वे बॉलीवुड के नामी संगीतकारों में शुमार रहे। उन्होंने अपने जीवनकाल में १०० से भी कम फिल्मों में काम किया लेकिन जितनों में भी किया उनमें से २६ फिल्में सिल्वर जुबली (२५ हफ्ते), ८ गोल्डन जुबली (५० हफ्ते) और ४ ने डायमंड जुबली (६० हफ्ते) बनाई।
नौशाद ने अनेक गीतकारों के साथ काम किया जिनमें शकील बदायूनी, मजरूह सुल्तानपुरी, मदहोक, ज़िया सरहदी और कुमार बर्बंकवी शामिल हैं। मदर इंडिया (१९५७) फिल्म जो ऑस्कर में शामिल हुई थी, उसमें उन्हीं का संगीत था। नौशाद ने गुलाम मोहम्मद की मृत्य होने पर उनकी फिल्म पाकीज़ा (१९७२) का संगीत पूरा किया। गौरतलब है कि गुलाम मोहम्मद उनके सहायक भी रह चुके थे।
१९८१ में उन्हें भारतीय सिनेमा में योगदान के लिये दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिला। १९८८ में उन्होंने मलयालम फिल्म "ध्वनि" के लिये काम किया। १९९५ में शाहरुख की फिल्म "गुड्डु" में भी संगीत दिया जिसके कुछ गाने पॉपुलर हुए थे। सन २००४ में जब "मुगल-ए-आज़म" (रंगीन) प्रर्दशित हुई तो नौशाद विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। ८६ वर्ष की आयु में जब उन्होंने फिल्म ताजमहल(२००५) का संगीत निर्देशन दिया तो वे ऐसा करने वाले विश्व के सबसे बुजुर्ग संगीतकार बन गये। उनकी ज़िन्दगी पर आधारित ५ फिल्में भी बनी हैं-नौशाद का संगीत, संगीत का बादशाह, नौशाद पर दूरदर्शन द्वारा प्रसारित एक सीरियल, महल नौशाद और टी.वी सिरियल ज़िन्दा का सफर। उन पर किताबें भी लिखी गईं हैं चाहे मराठी में दास्तान-ए-नौशाद हो या गुजराती में 'आज अवत मन मेरो' हो।
उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा रचित रचना 'उनकी याद करें' को भी संगीतबद्ध किया। इसको गाया था ४० कोरस गायकों के साथ ए. हरिहरन ने और निर्माता थे केशव कम्युनिकेशन्स। ये गीत सीमा पर तैनात जवानों के नाम था। ५ मई, २००६ को नौशाद दुनिया को अलविदा कह गये।
सप्ताह की संगीत सुर्खियाँ (11) नामांकन में आना भी एक उपलब्धि है - पंडित रवि शंकर
ग्रैमी पुरस्कार विजेता उस्ताद जाकिर हुसैन को बधाई देने वालों में तीन बार ग्रैमी हुए पंडित रवि शंकर भी हैं. एक ताज़ा इंटरव्यू में पंडित जी ने कहा-"विश्व मोहन भट्ट को जब ग्रैमी मिला तब इस बाबत मीडिया में जग्रता आयी. मेरे पहले दो सम्मानों के बारे में तो मुझे भी ख़बर नही लगी देशवासियों की बात तो दूर है. कई बार जूरी के सदस्यों के वोट न मिल पाने के कारण कोई अच्छा संगीतकार विजयी होने से रह जाता है पर इससे उसके संगीत की महत्ता कम नही होती, मेरा मानना है कि नामांकन में आना भी एक बड़े सम्मान की बात है. मुझे दुःख है कि लक्ष्मी शंकर ग्रैमी नही जीत पायी, वे बेहद प्रतिभाशाली हैं.पर खुशी इस बात की है कि जाकिर ने इसे जीता." गौरतलब है कि मोहन वीणा वादक पंडित विश्व मोहन भट्ट भी पंडित रवि शंकर जी के ही शिष्य हैं. भारत रत्न पंडित रवि शंकर ऐ आर रहमान को भी बधाई देना नही भूले-"मैं हिन्दी फ़िल्म संगीतकारों का सालों से प्रशंसक रहा हूँ, सी रामचंद्र, सलिल चौधरी, एस डी और आर डी बर्मन, इल्ल्याराजा और अब ऐ आर रहमान जो निरंतर इतनी सुंदर धुनों से संगीत को संवार रहे हैं. फिल्मों के लिए उनका पार्श्व संगीत भी सराहनीय रहा है. विदेशों में भी अब उन्हें ख्याति प्राप्त करते देख खुशी हो रही है." दुनिया भर से ढेरों सम्मान पाने वाले पंडित रवि शंकर के लिया सबसे बड़ा सम्मान क्या है ? -"जो कुछ भी मिला है उसके लिए मैं ईश्वर, अपने गुरु और अपने प्रशंसकों को धन्येवाद देना चाहता हूँ, पर जब मैं परफोर्म करता हूँ और अपने संगीत में डूबे हुए किसी श्रोता का गर दिल भर आए और उसकी आँख से आंसू का एक कतरा गिरे, तो वो मेरे लिए सर्वोत्तम पुरस्कार है..". आपको नमन है ऐ संगीत शिरोमणि.
मैं एक खिलाड़ी जैसा महसूस कर रहा हूँ - ऐ आर रहमान
बाफ्टा की फ़तेह के बाद अब रहमान चले हैं एक और गढ़ जीतने न्यू यार्क शहर को. मनीष के ख़ास निर्मित बंद गले के सूट पहने रहमान इस समय ख़ुद को एक खिलाड़ी सा महसूस कर रहे हैं जिस पर सारे देश की नज़र है और जिससे ओलंपिक गोल्ड की पूरी पूरी उम्मीद की जा रही है -"ओलंपिक के लिए निकलते किसी खिलाड़ी से जिसपर पूरे देश को स्वर्ण लेकर आने की उम्मीद रहती है, मैं ख़ुद को इस वक्त उस खिलाड़ी सा महसूस कर रहा हूँ, पता नही मैं उनकी उम्मीदों पर खरा उतरूंगा या नही, खुदा ने मुझे पहले ही मेरी काबिलियत से अधिक दिया है, इसलिए मैं कभी भी ज्यादा की महत्वकांक्षा नही कर पाता, ये मेरा स्वाभाविक गुण है...". भारतीय संगीत एल्बम के लिए ग्रैमी जीतना चाहता हूँ - उस्ताद जाकिर हुसैन
"जब कोई दूसरा देश आपकी कला को सम्मान देता है, सबकी निगाहें आपकी तरफ़ उठ जाती है, पर जब आपका गुरु आपको शाबाशी दे कोई गौर नही करता. पर मेरे लिए दूसरी बात अधिक मायने रखती है", ग्रैमी जीतने वाले उस्ताद जाकिर हुसैन ने एक ताज़ा इंटरव्यू में ये बात कही -"मेरे गुरु और पिता मरहूम उस्ताद अल्लाह रखा खान ने मात्र दो बार मुझसे ये कहा कि मैंने अच्छा बजाया. दो बार उनके इन शब्दों से मिला सम्मान मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है. मैं कभी एक पूरी तरह से भारतीय शास्त्रीय संगीत के किसी एल्बम के लिए ग्रैमी जीतना चाहता हूँ, जैसा कि पंडित रवि शंकर जी ने कर दिखाया था. विदेशी संगीतकारों के साथ गठबंधन ग्रैमी तक पहुँचने का आसान रास्ता बना देता है...". बिल्लू को कहना नही कोई हज्ज़ाम
एक और बड़ी फ़िल्म और एक और नया विवाद, अब तो जैसे ये एक परम्परा ही हो गई है...खैर हम विवादों की तरफ़ न जाकर सुनते हैं सप्ताह का सॉलिड गीत फ़िल्म "बिल्लू" से. ठेठ देसी अंदाज़ के इस गीत में गुलज़ार साहब ने कमाल के शब्द चुने हैं. "लोशन खुसबुदार" और "उस्तरे की धार" जैसे शब्दों ने गीत को खासा नया पन दे दिया है. प्रीतम ने भी बहुत बढ़िया धुन और संयोजन किया है. आवाजें हैं रघुबीर यादव, अजय जिन्गरान और कल्पना की...हाँ ...और गाने का अन्तिम हिस्सा सबसे शानदार है....सुनिए और आनन्द लीजिये.
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
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