Saturday, January 17, 2009

सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'दुर्गा का मन्दिर'



उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'दुर्गा का मन्दिर'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने शन्नो अग्रवाल की आवाज़ में प्रेमचंद की रचना ''आत्माराम'' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी "दुर्गा का मन्दिर", जिसको स्वर दिया है लन्दन निवासी कवयित्री शन्नो अग्रवाल ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 26 मिनट और 45 सेकंड।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८३१-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

उठा तो न जाएगा; बैठी-बैठी वहीं से कानून बघारोगी! अभी एक-आध को पटक दूंगा, तो वहीं से गरजती हुई आओगी कि हाय-हाय! बच्चे को मार डाला!
(प्रेमचंद की "दुर्गा का मन्दिर" से एक अंश)


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अगले शनिवार का आकर्षण - मुंशी प्रेमचंद की एक नयी कहानी

#Twenty Second Story, Durga Ka Mandir: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2009/02. Voice: Shanno Aggarwal

Friday, January 16, 2009

मल्लिका-ए-गजल - बेगम अख्तर




सुना है तानसेन जब दीपक राग गाते थे तो दीप जल उठते थे और जब मेघ मल्हार की तान छेड़ते थे तो मेघ अपनी गठरी खोलने को मजबूर हो जाते थे। पीछे मुड़ कर देखें तो न जाने कितने ही ऐसे फ़नकार वक्त की चादर में लिपटे मिल जाते हैं जो इतिहास का हिस्सा बन कर भी आज भी हमारे दिलो जान पर छाये हुए हैं, आज भी उनका संगीत आदमी तो आदमी, पशु पक्षियों, वृक्षों और सारी कायनात को अपने जादू से बांधे हुए है।

आइए ऐसी ही एक जादूगरनी से आप को मिलवाते हैं जो बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हैं।


आज से लगभग एक सदी पहले जब रंगीन मिजाज, संगीत पुजारी अवधी नवाबों का जमाना था, लखनऊ से कोई 80 किलोमीटर दूर फ़ैजाबाद में एक प्रेम कहानी जन्मी। पेशे से वकील, युवा असगर हुसैन को मुश्तरी से इश्क हो गया। हुसैन साहब पहले से शादी शुदा थे पर इश्क का जादू ऐसा चढ़ा कि उन्हों ने मुश्तरी को अपनी दूसरी बेगम का दर्जा दे दिया। लेकिन हर प्रेम कहानी का अंत सुखद नहीं होता, दूसरे की आहों पर परवान चढ़े इश्क का अंत तो बुरा होना ही था। मुशतरी के दो बेटियों के मां बनते बनते हुसैन साहब के सर से इश्क का भूत उतर गया और उन्हों ने न सिर्फ़ मुश्तरी से सब रिश्ते तोड़ लिए बल्कि अपनी बेटियों (जोहरा और बिब्बी) के अस्तित्व को भी नकार दिया। दुखों की कड़ी अभी टूटी नहीं थी। चार साल की बिब्बी(अख्तर)और उसकी जुड़वां बहन जोहरा ने पता नहीं कैसे विषाक्त मिठाई खा ली और जब तक कुछ कारागर इलाज होता जोहरा इस दुनिया से कूच कर गयी। इतने बड़े जहान में एक दूसरे का सहारा बनने को रह गयीं मां बेटी अकेली।

इश्क में गैरते-जज़्बात ने रोने न दिया ...


ये वो जमाना था जब पेशेवर महिलाओं प्रोत्साहन देना तो दूर हिकारत की नजर से देखा जाता था, और अगर वो गायिका किसी गायिकी के घराने से हो तब तो उसे महज कोठे वाली ही समझ लिया जाता था। लेकिन अख्तरी बाई फ़ैजाबादी को भी आसान राहें गवारा कहाँ। सात साल की कच्ची उम्र में चंद्राबाई के स्वर कान में पड़ते ही उन्हों ने अपने जीवन का सबसे अहम फ़ैसला कर डाला कि उन्हें गायिका बनना है। बस उसी उम्र से संगीत की तालीम का एक लंबा सफ़र शुरु हो गया। पहले पटना के मशहूर सारंगी वादक उस्ताद इम्दाद खान, पटियाला के अता मौहम्मद खान, कलकत्ता के मौहम्मद खान, लाहौर के अब्दुल वाहिद खान से होता हुआ ये सफ़र आखिरकार उस्ताद झंडेखान पर जा कर खत्म हुआ।

ये सफ़र इतना आसां न था। मौसिकी का सफ़र वैसे तो सबके लिए ही तकलीफ़ों से गुले गुलजार होता है लेकिन औरतों के लिए ये सफ़र कई गुना ज्यादा तकलीफ़ें ले कर आता है। अख्तरी बाई भी उससे कैसे अछूती रह पातीं। सात साल की उम्र में ही पहले उस्ताद ने गायकी की बारीकियाँ सिखाने के बहाने उनकी पोशाक उठा अपना हाथ उनकी जांघ पर सरका दिया और तेरह साल की उम्र होते होते बिहार की किसी रियासत के राजा ने उनकी गायकी के कद्रदान बनते बनते उनकी अस्मत लूट ली। इस हादसे का जख्म सारी उम्र उनके लिए हरा रहा एक बेटी के रूप में जिसे दुनिया के डर से उन्हें अपनी छोटी बहन बताना पड़ता था। पन्द्रह साल की उम्र में पहली बार मंच पर उतरने के पहले हालातों ने वो नश्तर चुभो दिए कि उसके बाद इस सफ़र को जारी रखना एक जंग लड़ने के बराबर था, पर फ़िर भी उन्हों ने अपना संगीत का सफ़र जारी रखा।

'ऐ मौहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, जाने क्युं आज मुझे तेरे नाम पे रोना आया'


कहते हैं न हिना रंग लाती है पिसने के बाद्। अख्तरी बाई ऐसी ही हिना थीं जितने नासूर जिन्दगी ने उन्हें अता किए उतने ही गहरे रंग उनकी गायकी में घुलते गये।आसपास इतने चाहने वाले होते हुए भी जिन्दगी में पसरे अकेलेपन का एहसास, 'अब आगे पता नहीं क्या हो? का डर, सच्चे प्यार की प्यास, दुख तो मानों उनके दिल में पक्का घर बना के बैठ गया था जो हजार कौशिश करने के बाद भी पल भर को भी हटने का नाम न लेता था। कोई आम महिला होती तो शायद टूट चुकी होती लेकिन अख्तरी बाई ने इन्हीं दुखों को अपनी ताकत बना लिया। जब वो गाती थीं तो उनकी आवाज में वो दर्द छलकता था जो सीधा सुनने वाले के दिल में उतर जाता था। आखों में आसूँ आये बिना न रहते थे।

गायकी और शायरी का तो जुड़वां बहनों जैसा रिश्ता है। अख्तरी बाई, जो शादी के बाद बेगम अख्तर कहलायी जाने लगीं, को भी अच्छी शायरी की खूब पहचान थी। फ़िर शायरी चाहे हिन्दूस्तानी में हो या पुरबिया, ब्रिज या उर्दू में उनकी शब्दों पर पकड़ भी उतनी ही लाजवाब थी जितनी गायकी पर । वो तभी कोई गजल गाती थीं जब उन्हें उसके शेर पसंद आ जाएं। चुनिन्दा शायरी जब उनकी शास्त्रीय संगीत में मंजी आवाज और रूह की गहराइयों से फ़ूटते दर्द में लिपट कर सामने आती थी तो सुनने वालों की आह निकले बिना न रहती। कितनी ही गजलें उनकी आवाज की नैमत पा कर अजर अमर हो गयीं। ये तो जैसे तयशुदा बात थी कि वो मिर्जा गालिब की गजलों की फ़ैन रहीं होगीं। मिर्जा गालिब की कई गजलों को उन्हों ने अपने खूबसूरत अंदाज में गा कर और खूबसूरत बना दिया। एक गजल जो मुझे भी बहुत पसंद है बेगम अख्तर की अदायगी में वो है -

जिक्र उस परीवश का और फ़िर बयां अपना...



(जारी..)

प्रस्तुति - अनीता कुमार



Thursday, January 15, 2009

उदय प्रकाश का कहानीपाठ और आलाकमान की बातें



९ जनवरी २००९ को हिन्दी अकादमी की ओर से आयोजित कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग


९ जनवरी २००९ को मैं पहली दफ़ा किसी कथापाठ सरीखे कार्यक्रम में गया था। कार्यक्रम रवीन्द्र सभागार, साहित्य अकादमी, दिल्ली में था जिसमें फिल्मकार, कवि, कथाकार उदय प्रकाश का कथापाठ और उनपर प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह का वक्तव्य होना था। जाने की कई वज़हें थीं। हिन्द-युग्म पिछले १ साल से कालजयी कहानियों का पॉडकास्ट प्रसारित कर रहा है। पहले इस आयोजन में हम निरंतर नहीं थे, लेकिन जुलाई से पिट्वबर्गी अनुराग शर्मा के जुड़ने के बाद हम हर शनिवार को प्रेमचंद की कहानियाँ प्रसारित करने लगे। कई लोग शिकायत करते रहे थे (खुले तौर पर ना सही) कि कहानियों के वाचन में और प्रोफेशनलिज्म की ज़रूरत है। तो पहली बात तो ये कि मैं उदय प्रकाश जैसे वरिष्ठ कथाकारों को सुनकर यह जानना चाहता था कि असरकारी कहानीपाठ आखिर क्या बला है? हालाँकि इसमें मुझे निराशा हाथ लगी। मुझे लगा कि हिन्द-युग्म के अनुराग शर्मा, शन्नो अग्रवाल और शोभा महेन्द्रू इस मामले में बहुत आगे हैं। लेकिन फिर भी कहानीकार से कहानी सुनने का अपना अलग आनंद है।

दूसरी वजह थी कि यह भी सीखें कि यदि खुद इस तरह का आयोजन करना हो तो किन-किन बातों का ध्यान रखना होता है। चूँकि हिन्द-युग्म ने भी लंदन निवासी हिन्दी कथाकार तेजेन्द्र शर्मा का कथापाठ करवाने का निश्चय किया था। १५ जनवरी को गाँधी शांति प्रतिष्ठान सभागार, नई दिल्ली में। संयोग की बात थी कि इस कार्यक्रम में भी टिप्पणीकार के तौर पर प्रो॰ नामवर सिंह का आना परिकल्पित था। लेकिन राजेन्द्र यादव जी से जब मैं ४ या ५ जनवरी को मिलने गया तो उन्होंने बताया कि ९ जनवरी को भी ऐसा ही कार्यक्रम है जिसमें नामवर जी आ रहे हैं। अतः अपने कार्यक्रम का रूप-रंग बदलना पड़ा।

यह भी देखना चाहता था कि इस तरह के कार्यक्रमों में युवाओं की उपस्थिति क्या है। ४ युवा लेकर तो मैं ही गया था, शेष मीडियाकर्मी थे। शायद सरकारी निकायों द्वारा होने वाले प्रयासों में कहीं न कहीं कोई कमी है। क्योंकि इस तरह के कार्यक्रमों की जानकारी भी वे युवाओं तक नहीं पहुँचाते। भाई मार्केटिंग तो चाहिए ही।

एक ख़ास बात तो जो मैंने महसूस की वह ये कि हमलोगों को छोड़कर वहाँ उपस्थित ज्यादातर लोगों ने उदय प्रकाश का साहित्य उदय प्रकाश से अधिक पढ़ रखा था, इसलिए उनको नया सुनने को कुछ नहीं मिलने वाला था। इसलिए यदि वे कथापाठ के दौरान सो भी गये तो उनकी कोई गलती नहीं थी। लगभग ५० मिनट तक उदय प्रकाश का कथापाठ चलता रहा जिसमें उन्होंने अपनी कुछ लघुकथाएँ और अपनी प्रसिद्ध कहानी 'पीली छतरी वाली लड़की' का एक अंश और अपने उपन्यास 'मोहनदास' का एक हिस्सा सुनाया। इसके बाद जब हिन्दी के आलाकमान ने माइक को लपका और यह कहाँ कि आज मेरे पास बोलने के लिए बहुत कुछ नहीं है, मैं चाहूँगा कि श्रोता सवाल करें, तब लोगों में थोड़ी-बहुत हलचल हुई और लोगों ने सवाल दागना शुरू किया।

आलाकमान नामवर सिंह ने कहा कि हिन्दी साहित्य के १०० वर्षों के इतिहास में तीन ही ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने कविता और कहानी दोनों पर बराबर और समर्थ हस्तक्षेप रखा। पहले जयशंकर प्रसाद, दूसरे अज्ञेय और तीसरे उदय प्रकाश।

अपनी आलोचनाओं के लिए मशहूर नामवर उस दिन केवल प्रसंशा के शब्द इस्तेमाल कर रहे थे। जैसे उन्होंने बैठे-बैठे पिछले १०० वर्षों के १० महान कहानीकारों की एक सूची बनाई थी, जिसमें प्रेमचंद, जैनेन्द्र, यशपाल, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा इत्यादि में उदय प्रकाश का भी नाम था।

मैं एक तीसरा काम भी करने गया था, जिसकी उम्मीद कम से कम हिन्दी अकादमी से तो नहीं की जा सकती। मैंने कार्यक्रम को mp3 रिकॉर्डर से रिकॉर्ड कर लिया ताकि वे लोग भी सुन सकें जो कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हो पाते या नहीं होना चाहते। २ घन्टे की रिकॉर्डिंग को १ घंटा ३३ मिनट का बनाकर और सुनने लायक बनाकर हमने आपके लिए लाया है। सुनें-



श्रोताओं के सवाल रिकॉर्ड नहीं हो पाये हैं, लेकिन उदय प्रकाश के जवाब से आपको अंदाज़ा लग जायेगा कि श्रोताओं ने क्या पूछा है।


आज शाम ५ बजे से हिन्द-युग्म भी इसी तरह का एक कार्यक्रम कर रहा है, जिसमें तेजेन्द्र शर्मा और गौरव सोलंकी का कथापाठ होगा, जिसपर असग़र वजाहत और अजय नावरिया अपने विचार देंगे। आप भी ज़रूर आयें। विवरण यहाँ देखें। इस कार्यक्रम में कम से कम इतना अंतर ज़रूर होगा कि यहाँ सुनने वाला नया होगा, जवान होगा और शायद ज़रूरी भी। ऐसा नहीं है कि वरिष्ठ नहीं होगे। एक तरह का पीढ़ियों का संगम होगा



जब मुझे विचित्र वीणा वादन हेतु मिला आदरणीय स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी का आशीर्वाद



(पहले अंक से आगे...)

शाम के यही कोई आठ बजे का समय था, बनारस में गंगा मैया झूम झूम कर बह रही थी और कई युवा संगीत कलाकारों को शब्द, स्वर और लय की सरिता में खो जाने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी, नगर के एक सभागार में 'आकाशवाणी संगीत प्रतियोगिता' के विजेताओ का संगीत प्रदर्शन हो रहा था, मैं मंच पर विचित्र वीणा लेकर बैठी, श्रोताओं की पहली पंक्ति में ही श्रद्धेय स्वर्गीय किशन महाराज जी को देखा और दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार किया, तत्पश्चात वीणा वादन शुरू किया, जैसे ही वादन समाप्त समाप्त हुआ, आदरणीय स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी मंच पर आए, अपना हाथ मेरे सर पर रखा और कहा "अच्छा बजा रही हो, खूब बजाओ "। उनका यह आशीर्वाद और फ़िर उनके हाथ से स्वर्ण पदक पाकर मेरी संगीत साधना सफल हो गई, जीवन का वह क्षण मेरे लिए अविस्मर्णीय हैं ।

कई बार कई संगीत समारोह में उनका तबला सुनने का अवसर भी मुझे प्राप्त हुआ, उनका तबला चतुर्मिखी था, तबले की सारी बातें उसमे शामिल थी, लव और स्याही का वे सूझबूझ से प्रयोग करते थे, उनके उठान, कायदे रेलों और परनो की विशिष्ट पहचान थी । उन्होंने तबले में गणित के महत्व को समझाया, वे किसी भी मात्रा से तिहाई शुरू कर सम पर खत्म् करते थे, जो की अत्यन्त ही कठिन हैं । प्रचलित तालो के अतिरिक्त वे अष्ट मंगल, जैत जय, पंचम सवारी, लक्ष्मी और गणेश तालों का वादन भी बहुत सुगमता और सुंदरता से करते थे. तबले के कई घरानों की रचनाओ का उनके पास समृद्ध भण्डार था ।

आदरणीय पंडित रवि शंकर, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब, पंडित भीमसेन जोशी जी के साथ ही, आदरणीय शम्भू महाराज, सितारा देवी आदि के साथ उन्होंने संगत की । देश विदेश की कई संगीत सभाओ में तबला वादन की प्रस्तुति देकर तबले का प्रेम श्रोताओ के ह्रदय में अचल स्थापित किया ।

लय भास्कर, संगती सम्राट, काशी स्वर गंगा सम्मान, संगीत नाटक अकादमी सम्मान, ताल चिंतामणि, लय चक्रवती, उस्ताद हाफिज़ अली खान व अन्य कई सम्मानों के साथ पद्मश्री व पद्मभूषण अलंकरण से उन्हें नवाजा गया ।

वे ३ सितम्बर १९२३ की आधी रात को ही इस धरती पर आए थे और चार मई २००८ की आधी रात को ही वे इस धरती को छोड़, स्वर्ग की सभा में देवों के साथ संगत करने हमेशा के लिए चले गए। उनके जाने से हमने एक युगजयी संगीत दिग्गज को खो दिया, पर उनका आशीर्वाद हम सभी के साथ हमेशा हैं, इस बात से थोड़ा धैर्य मिलता हैं । आदरणीय स्वर्गीय किशन महाराज जी को मेरी भावपूर्ण श्रद्धांजलि -

देखिये उस्ताद विलायत खान के साथ राग दरबारी में संगत करते पंडित किशन महाराज जी को -



कविता छिब्बर द्वारा प्रस्तुत पंडित जी को दी गई ये श्रद्धाजंली भी तीन खंडों में है...देखें यहाँ, यहाँ और यहाँ.

प्रस्तुति - वीणा साधिका,
राधिका
(राधिका बुधकर)


Wednesday, January 14, 2009

जब मिला तबले को वरदान



पंडित किशन महाराज (१९२३- २००८) को संगीत की तीनों विधाओं में सर्वश्रेष्ठ कलाकार होने का सौभाग्य प्राप्त था. वो तबले के उस्ताद होने के साथ साथ मूर्तिकार, चित्रकार, वीर रस के कवि और ज्योतिष के मर्मज्ञ भी थे. यानी दूसरे शब्दों में कहें तो भारत सरकार द्वारा पद्मविभूषण से सम्मानित होने वाले वाले पहले कलाकार पंडित किशन महाराज जी, एक सम्पूर्ण कलाकार थे. बीते साल में उन्हें खोना संगीत की दुनिया को हुई एक बहुत बड़ी क्षति है. वीणा साधिका, राधिका बुधकर जी लेकर आई हैं पंडित जी पर दो विशेष आलेख.

रात का समय ....जब पुरी दुनिया गहरी नींद में सो रही थी ...तब वाराणसी के संकट मोचन मंदिर में तबले की थाप गूंज रही थी, तबले के बोल मानो ईश्वरीय नाद की तरह सम्पूर्ण वातावरण में बहकर उसे दिव्य और भी दिव्य बना रहे थे, अचानक न जाने क्या हुआ और तबले की ध्वनी कम और मंदिर की घंटियों की आवाज़ ज्यादा सुनाई देने लगी, उन्होंने पल भर के लिए तबले की बहती गंगा को विराम दिया और सब कुछ शांत हो गया, उन्होंने फ़िर तबले पर बोलो की सरिता का प्रवाह अविरत किया और फ़िर मंदिरों की घंटिया बजने लगी, सुबह लोगो ने कहा उन्हें ईश्वरीय वरदान मिला हैं, संकट मोचन हनुमान ने स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी के तबले को वरदान दिया, और उनका तबला युगजयी हो गया ।

आदरणीय स्वर्गीय पंडित किशन जी का जन्म, जन्माष्टमी की वैसी ही आधी रात को हुआ जैसी आधी रात में युगों युगों तक हर ह्रदय पर राज्य करने वाले किशन कन्हैया का जन्म हुआ था, इस जन्माष्टमी की आधी रात को शायद वर मिला हैं कि इस रात दिव्य आत्मायें, देव, गंधर्व ही पृथ्वी पर जन्म लेंगे ।

आदरणीय स्वर्गीय पंडित किशन महाराज प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे, माथे पर एक लाल रंग का टिक्का हमेशा लगा रहता था, वे जब संगीत सभाओं में जाते, संगीत सभायें लय ताल से परिपूर्ण हो गंधर्व सभाओ की तरह गीत, गति और संगीतमय हो जाती । अपने पिताजी पंडित हरि महाराज जी से संगीत शिक्षा लेने के उपरांत आदरणीय पंडित किशन महाराज जी ने अपने चाचा पंडित कंठे महाराज जी से शिक्षा ग्रहण की ।

बनारस के संकट मोचन मंदिर में ही पहला संगीत कार्यक्रम देने के बाद सन १९४६ में पंडित जी में मुंबई की और प्रस्थान किया, एक बहुत बड़े संगीत कार्यक्रम के अवसर पर देश के श्रेष्ठ सितार वादक आदरणीय पंडित रविशंकर जी और आदरणीय पंडित किशन महाराज जी पहली बार मिले, जैसे ही इनका वादन सम्म्पन हुआ, श्रोताओ में से आदरणीय ओमकारनाथ ठाकुर जी उठे और मंच पर जाकर उन्होंने घोषणा की "यह दोनों बच्चे भविष्य के भारतीय शास्त्रीय संगीत के चमकते सितारे होंगे ।" उसी दिन से आदरणीय पंडित रविशंकर जी, ओर स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी में गहरी मैत्री हो गई ।

तबला बजाने के लिए वैसे पद्मासन में बैठने की पद्धत प्रचलित हैं, किंतु स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी दोनों घुटनों के बल बैठ कर वादन किया करते थे, ख्याल गायन के साथ उनके तबले की संगीत श्रोताओ पर जादू करती थी, उनके ठेके में एक भराव था, और दाये और बाये तबले का संवाद श्रोतोई और दर्शको पर विशिष्ट प्रभाव डालता था ।

अपनी युवा अवस्था में में पंडित जी ने कई फिल्मो में तबला वादन किया, जिनमे नीचनगर, आंधियां, बड़ी माँ आदि फिल्मे प्रमुख हैं ।

कहते हैं न महान कलाकार एक महान इंसान भी होते हैं, ऐसे ही महान आदरणीय स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी भी थे, उन्होंने बनारस में दूरदर्शन केन्द्र स्थापित करने के लिए भूख हड़ताल भी की और संगत कलाकारों के प्रति सरकार की ढुलमुल नीति का भी पुरजोर विरोध किया ।

श्रद्धेय किशन महारज जी को मेरा सादर प्रणाम, सुनतें हैं उनकी एल्बम "साज़" से तीन ताल-


प्रस्तुति -वीणा साधिका
राधिका
(राधिका बुधकर )


लेख के अगले अंक में : जब मुझे विचित्र वीणा बजाने हेतू मिला आदरणीय स्वर्गीय पंडित किशन महाराज जी का आशीर्वाद



Tuesday, January 13, 2009

गोल्डन ग्लोब ए आर रहमान ने कहा "करोड़ों भारतीयों" को सलाम




बात सन् ९६ की है। ४ सालों से बिना रूके, बिना थके फिल्मों में म्युजिक देने के बाद रहमान कुछ अलग करना चाहते थे। दीगर बात है कि कलाकार सीमाओं में अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाता और फिल्मों में संगीत देना सीमा में बँधने जैसा हीं है। निर्माता-निर्देशक,कहानी-पटकथा सबकी बात सुननी होती है।तो हुआ यूँ कि स्क्रीन अवार्ड्स के लिए रहमान मुंबई आए हुए थे और एक होटल में ठहरे थे। अचानक उन्हें कुछ ख्याल आया और उन्होंने अपने बचपन के दोस्त जी० भरत को तलब किया। जी० भरत यानि भरत बाला ने रहमान के साथ लगभग १०० से ज्यादा जिंगल्स पर काम किया था। रहमान और भरत के बीच संगीत पर चर्चा हुई। बातों-बातों में उन दोनों ने अपने अगले एलबम का प्लान कर लिया। उसी साल अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-लब्ध म्युजिक कंपनी "सोनी म्युजिक" का भारतीय संगीत-उद्योग में आना हुआ । सोनी भारतीय कलाकारों को प्रोत्साहित करने के बहाने बाज़ार में पाँव जमाना चाहती थी। सोनी के मैनेजिंग डायरेक्टर "विजय सिंह" के दिमाग में जिस पहले बंदे का नाम आया वह थे ए०आर० रहमान । सोनी ने रहमान के साथ तीन कैसेट्स का अनुबंध किया। रहमान ने भरत बाला के साथ जिस प्रोजेक्ट की चर्चा की थे, उसे उन्होंने सोनी म्युजिक के साथ भी शेयर किया। सोनी को उन दोनों का आयडिया अच्छा लगा और इस तरह रहमान के गैर-फिल्मी एलबम पर काम शुरू हो गया। दर-असल "रोजा" के "भारत हमको जान से प्यारा है" के बाद रहमान किसी देशभक्ति गाने या फिर पूरे एलबम पर काम करना चाहते थे। समय भी माकूल था। अगले हीं साल भारत की आज़ादी की ५०वीं सालगिरह मननी थी। लेकिन एम०टी०वी० के दौर के युवाओं को "वन्दे मातरम्" या फिर "जन गण मन" कितना लुभाता इसका संदेह था। रहमान ने इन दोनों ऎतिहासिक गानों से अलग कुछ रचने का विचार किया। तिरंगा के "तीन रंगों" को परिभाषित करते तीन गाने बन कर तैयार हो गए। "केसरिया" को ध्यान में रखकर जो गाना बनाया गया वह आज तक बच्चे-बच्चे की जुबान पर बैठा है। इसी गाने में पहली बार "रहमान" कैमरे के सामने आए थे। बड़ी-बड़ी लटों के बीच साधारण से नैन-नक्श लेकिन गज़ब के तेज वाले उस चेहरे को कौन भूल सकता है, जो जब हवा में हाथ उठाकर "माँ तुझे सलाम" का आलाप लेता था, तो लगता था मानो हवाएँ थम गई हैं। जी हाँ महबूब के लिखे इस गाने ने देशभक्ति की एक नई लहर पैदा कर दी। रहमान यहीं पर नहीं थमे। "सफेद" रंग के लिए "रिवाईवल- वंदे मातरम्" को तैयार किया गया। नुसरत फतेह अली खान साहब के साथ रहमान के गाए गाने "गु्रूज़ औफ पीस" की बात हीं अलहदा है। "हरे" रंग को भूषित करता और विश्व-शांति का उपदेश देता यह गाना खुद में अनोखा इसलिए भी है क्योंकि संगीत के दो महारथी पहली मर्तबा इस गाने में साथ आए। कहा जाता है कि "सोनी" ने रहमान को छूट दी थी कि वह किसी भी अंतर्राष्टीय फ़नकार को आजमा सकते हैं,यहाँ तक कि "सेलिन डिओन" का नाम भी सुझाया गया था। लेकिन रहमान ने "खान साहब" को हीं चुना। इस बाबत रहमान का कहना था कि "मैं नाम के साथ काम करना नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ कि उस कलाकार के साथ काम करूँ, जिसके काम के साथ मैं जुड़ाव महसूस करूँ। मैने बहुत सारे ऎसे गठजोड़ ( कोलेबोरेशन्स) देखे हैं जहाँ तेल और पानी के मिलने का बोध होता है। मैं ऎसा कतई नहीं चाहता।" रहमान का यही विश्वास "माँ तुझे सलाम" को बाकी देशभक्ति गानों से अलग करता है।

तो लीजिए हम आपको सुनाते हैं,रहमान का संगीत-बद्ध और स्वरबद्ध किया "माँ तुझे सलाम"-



कुछ बातें ऎसी होती हैं,जिन्हें सुनकर हँसी भी आती है, गुस्सा भी आता है और कुछ ओछी मानसिकता वाले लोगों पर तरस भी आता है। "वन्दे मातरम्" की रीलिज के बाद कुछ कट्टरपंथियों ने रहमान को जान से मारने की धमकी दे डाली। ये कट्टरपंथी दोनों फिरकों के थे- हिन्दु भी और मुस्लिम भी। हिन्दुओं ने रहमान पर "एक हिन्दु गाने का अपमान करने का" आरोप लगाया तो वहीं मुसलमानों ने "गैर-इस्लामिक गाने को स्वरबद्ध करने का" । रहमान फिर भी अपने पक्ष पर अडिग रहे। उनका कहना था कि "महज़ संस्कृत में होने से गाना हिन्दुओं का या फिर गैर-इस्लामिक नहीं हो जाता। इस गाने में माँ को पूजने की बात कही गई है, धरती माँ की इबादत की गई है और कौन-सा धर्म माँ और मातृभूमि की पूजा नहीं करता या फिर पूजने से मनाही करता है।" एक फ़नकार से मज़हब की बात करना कितना शर्मनाक है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। रहमान अपनी जगह सही थे और उन्होंने किसी की भी दबाव में आए बिना माँ और मातृभूमि के कदमों में सज़दे करना ज़ारी रखा। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है ५०वें गणतंत्र दिवस पर आया "जन गण मन" जिसमें देश के लगभग २५ गणमान्य संगीत-शिरोमणियों ने उनका साथ दिया। संगीत से मातृभूमि की ऎसी सेवा शायद हीं किसी ने की हो।

ए०आर०रहमान और माईकल जैक्शन को एक मंच पर कल्पना करना कईयों के लिए नामुमकिन होगा, लेकिन अक्टूबर १९९९ की वह रात इस कल्पना को हकीकत में बदलने के लिए काफी थी। कोरियोग्राफर्स "शोभना" और "प्रभुदेवा" के साथ "माईकल जैक्शन एंड फ्रेंड़्स कोंसर्ट" में "रहमान" को आमंत्रित किया गया था। रहमान ने जो गाना वहाँ गया था, उसके बोल थे "एकम् नित्यम्" । इस गाने के आधे बोल संस्कृत में थे तो आधे अंग्रेजी में। रहमान ने गाने के चुनाव से साबित कर दिया था कि "भारतीय संस्कृति" उनके दिल में किस कदर बसी हुई है। यह कंसर्ट रहमान के विदेशी साझेदारियों के मार्फत बस पहला कदम था इसके बाद रहमान की झोली में ऎसे कई सारे प्रोजेक्ट्स आते गए। "बॉम्बे" के "बॉम्बे थीम्स" से प्रेरित होकर "म्युजिकल थियेटर कम्पोज़र" एंड्र्यु ल्वायड वेबर ने रहमान के साथ "बॉम्बे ड्रीम्स" नाम के म्युजिकल प्ले पर काम किया। यह कार्यक्रम बेहद सफल साबित हुआ और विश्व मंच पर रहमान के संगीत को वाहवाही मिली। ऎसे हीं "लौड औफ द रिंग्स" के म्युजिकल एडेपटेशन को रहमान ने फीनलैंड के फोक म्युजिक बैंड "वार्तिना" के साथ मिल्कर संगीत से सुसज्जित किया और धुनों की छ्टा बिखेर दी।जानकारी के बता दूँ कि "लौड औफ द रिंग्स" ब्रिटिश लेखक "जे०आर०आर० टाल्किन" का मशहूर उपन्यास है, जिसपर इसी नाम से फिल्म भी बन चुकी है। शेखर कपूर के "लार्जर दैन लाईफ" फिल्म "एलिजाबेथ" को रहमान ने अपने संगीत से मुकम्मल किया। रहमान की धुनों को "इनसाईड मैन", "लौड औफ वार", "द एक्सिडेंटल हसबेंड" में भी इस्तेमाल किया गया है।

रहमान को सही मायने में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति तब मिली, जब २००३ में आई मैंडरिन/जापानी भाषा की फिल्म "वैरियर्स औफ हेवेन एंड अर्थ"। इस फिल्म के सभी गाने रहमान ने तैयार किये, यहाँ तक कि पार्श्व-संगीत भी रहमान का हीं था। २००४ में यह फिल्म इंग्लिश डब होकर आई और तब इसके गाने सबकी जुबान पर चढ गए। ताईवानी गायिका "जोलिन स्वाई(साई ई लिन)" के गाये मैडरिन भाषा के गाने "वैरियर्स इन पिस" को इंग्लिश में गाया युवा की "खुदा हाफिज़" फेम "सुनीता सारथी" ने तो हिंदी में गाया "साधना सरगम" ने। आंग्ल-भाषा में बोल लिखे थे "ब्लाज़े" ने तो हिंदी के बोल थे "महबूब" के। मैंडरिन भाषा के इस फिल्म के गाने फिल्म की रीलिज के बाद "बिटविन हेवेन एंड अर्थ" नाम से अलग से रीलिज किए गए।

तो लीजिए सुनिए साधना सरगम की आवाज़ में यह गाना

लगभग १०० से भी ज्यादा फिल्मों में संगीत दे चुके एवं "पद्म-श्री" से सम्मानित ए०आर०रहमान को कल हीं गोल्डेन ग्लोब से नवाज़ा गया है। गुलज़ार साहब द्वारा कलमबद्ध किये और सुखविंदर सिंह की आवाज़ से सजे "जय हो" के लिए रहमान को यह सम्मान दिया गया। किसी भी भारतीय के लिए यह पहला "गोल्डेन ग्लोब" है। यह बात शायद हीं किसी को पता हो कि "जय हो" वास्तव में "युवराज" के लिए तैयार किया गया था। "गुलज़ार" इस सिलसिले में कहते हैं- "मैने एक गाना (आजा आजा जिंद शामियाने के तले, आजा ज़री वाले नीले आसमान के तले) युवराज के लिए लिखा था, लेकिन कुछ कारणो इसे फिल्म में शामिल नहीं किया जा सका। बाद में रहमान ने जब "स्लमडौग मिलिनिअर" की चर्चा की और कहा कि उस फिल्म में एक सिचुएशन है जहाँ यह गाना इस्तेमाल हो सकता है तो सुभाष जी ने इस गाने को देने के लिए हामी भर दी और दखिए कि यह गाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया।" सुभाष घई इस गाने को गंवाने से तनिक भी विचलित नहीं दिखते । उन्हैं के शब्दों में- "यह गाना ज़ायेद खान पर फिल्माया जाना था, लेकिन मुझे ज़ायेद के हरफनमौला कैरेक्टर के सामने यह गाना थोड़ा सोफ्ट महसूस हुआ इसलिए मैने रहमान और गुलज़ार साहब को दूसरा गाना गढने को कहा। जहाँ तक इस गाने की प्रसिद्धि का सवाल है तो अच्छा लगता है जब अंग्रेजी बोलने वाली जनता बिना अर्थ जाने एक हिन्दी गाना गुनगुनाती है।" रहमान ने इस गाने के लिए गोल्डेन ग्लोब के अलावा और भी कई अवार्ड जीते हैं, जिनमे क्रिटिक च्वाईस प्रमुख है। वैसे यह माना जाता है कि क्रिटिक च्वाईस एवं गोल्डेन ग्लोब ओस्कर के पहले की सीढी है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि रहमान औस्कर से ज्यादा दूर नहीं है। हम तो यही दुआ करेंगे कि रहमान औस्कर जीतें और पूरी दुनिया में भारत का नाम रोशन करें।

"स्लमडौग मिलिनिअर" के डायरेक्टर डैनी बोयल ने रहमान की क्या तारीफ की.आप भी सुनें

अंत में कुछ महान हस्तियों के शब्द रहमान के विषय में-

तमिल कवि वैरामुथु- मैं शब्दों का हीं काम करता हूँ और एक प्रतिष्ठित कवि माना जाता हूँ, फिर भी मेरे पास रहमान का वर्णन करने के लिए कोई शब्द नहीं है। रहमान एक साधारण संगीतकार नहीं, बल्कि संगीत को खुदा की देन है। कोई भी संगीतकार जब धुन बनाता है, तो उसे चिन्ता होती है कि धुन श्रोताओं पर असर करेगी या नही, लेकिन रहमान की मान्यता है कि अगर कोई धुन दिल से और सच्चाई से बनाई गई है तो धुन जरूर हीं सफ़ल होगी। इसी लगन की वज़ह से रहमान का हर गाना दिल को छू जाता है।

गुलज़ार- भारतीय फिल्म संगीत में रहमान एक मील के पत्थर से कम नहीं है। उन्होंने अकेले अपने दम पर भारतीय संगीत की दिशा और दशा बदल दी है। मुखरा-अंतरा के पुराने ढर्रे पर न चलते हुए रहमान ने कई सारे नए फोरमेट्स बनाए हैं। मुक्त छंदों (फ्री वर्स) को धुन में पिरोना आसान नहीं होता, लेकिन रहमान यह काम भी आसानी से कर जाते हैं।

गीतकार महबूब- अगर दुनिया में ऎसा कोई खुदा का बंदा है, जिसे मैं खुदा की तरह पूजता हूँ तो वह बस एक हीं है- रहमान। वह मेरे लिए मेरा परिवार है, मेरा भाई है। मैं उसकी इतनी इज़्ज़त करता हूँ कि मेरे पास उस प्रशंसा/चाहत को शब्द देने के लिए शब्द नहीं हैं।

एस०पी०बालासुब्रमण्यम- आज के संगीत में वेराईटी लाने वाला बस एक हीं इंसान है- ए०आर०रहमान।

जावेद अख्तर- मेरे अनुसार रहमान आल-राउंडर हैं। वे इंडियन क्लासिकल म्युजिक जानते है, कर्नाटिक म्युजिक से उनका लगाव है, इंडियन फोक म्युजिक पर भी बराबर पकड़ है, उन्होंने लंदन के ट्रीनिटी कालेज आफ म्युजिक से वेस्टर्न क्लासिकल म्युजिक की पढाई की है, उन्हें मध्य-पूर्वी (मिड्ल ईस्ट) संगीत का भी ज्ञान है। यही कारण है कि उनके गीतों में सभी रंगों के दर्शन होते हैं। उन्होंने संगीत एवं ध्वनि को एक नया आयाम दिया है। वे बेहद लगनशील है और बस अपने काम से मतलब रखते हैं। इतनी सफलता के बाद भी उनमें ज़र्रा-भर भी गुरूर नहीं है और यही एक सफ़ल इंसान की पहचान है।

एंड्र्यु ल्वायड वेबर- I think he has an incredible tone of voice. I have seen many Bollywood films, but what he manages to do is quite unique--he keeps it very much Indian. For me as a Westerner, I can always recognize his music because it has got a rule tone of voice of its own. It's very definitely Indian, yet it has an appeal which will go right across the world. He will hit the West in an amazing kind of way; that is, if he is led in the right way. He is the most extraordinary' composer who is still true to his cultural roots, ' and deserves to be heard by an international public.

रंगीला की रिकार्डिंग से जुड़ा एक किस्सा सुनिये ताई "आशा भोंसले" के शब्दों में-



रहमान के प्रति और भी लोगों का मत जानने को यहाँ जाएँ-

और अब देखिये वो यादगार लम्हा जिसे हर भारतीय संगीत प्रेमी बरसों तक नही भूलना चाहेगा, सुनिए किस तरह रहमान ने अपना सम्मान दुनिया भर में फैले भारतीयों को समर्पित किया -



गोल्डेन ग्लोब के लिए रहमान को पुनश्च शुभकामनाएँ। आस्कर में बस अब डेढ महीने बचे हैं। खुदा करे कि आस्कर के जरिये रहमान भारत का नाम आसमान की बुलंदियों तक ले जाने में सफल हों।
आमीन!!!!!!


सुनिए स्लमडॉग मिलियनेयर के सभी गीत-



चित्र में उपर - बाल रहमान (सौजन्य ARR फैन्स अधिकारिक साईट), नीचे - रहमान अपने स्टूडियो में
इस शृंखला की अन्य कडियाँ भी यहाँ और यहाँ पढ़ें.


प्रस्तुति - विश्व दीपक "तन्हा"

Monday, January 12, 2009

जब रफी साहब की आवाज़ ढली शम्मी कपूर के मदमस्त अंदाज़ में...




जब दो कलाकार एक दूसरे के प्रर्याय बन जाते हैं तो कई मायनों में एक दुसरे की परछाई की तरह लगने लगते हैं। जिस तरह दो घनिष्ठ दोस्तों की जोडी में से एक को देखते ही दूसरे की ही याद आ जाये, ठीक उसी तरह जब हम शम्मी कपूर के गानों को सुनते हैं तो मोहम्मद रफी बरबस ही याद आते हैं और जब मोहम्मद रफी के चुलबुलेपन से सनी हुई आवाज को सुनते हैं तो सबसे पहले हमें शम्मी कपूर की अदायें ही याद आती हैं। एक अच्छे दोस्त की यही तो पहचान है कि वह अपने दोस्त के अनुसार खुद को ढाल ले। शम्मी के शोख व्यक्तित्व के अनुसार ही उन्हीं की तरह की शोखी मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज में भरी और उनके गीतों को अलग अंदाज दिया।

एक समय था जब लगातार चौदह फ्लाप फिल्में दे कर शम्मी कपूर की गिनती एक असफल कलाकार के रुप में की जाने लगी थी। उनकें फिल्मी कैरियर में बेहतरीन मोड उस वक्त आया जब नासिर हुसैन की फिल्म "तुमसा नहीं देखा" आई जिसमें उनका चुलबुला अंदाज और उसमें मोहम्मद रफी के गाये हुये गीत बेहद प्रसिद्द हुए जो आज तक भी संगीत प्रेमियों की पसंद बने हुये हैं, उसके बाद तो मोहम्मद रफी शम्मी कपूर की ही आवाज बन गये थे ।

१९६० का वह दौर दिलीप कुमार, राजकपूर जैसे गंभीर नायको का दौर था। तब एक ऐसा उछलता-कूदता, मस्त नायक हिंदी सिनेमा के दर्शकों को देखने को मिला जो हर हाल में मस्त रहने का हुनर जानता था। जीवन की आपाधापी में उसके गीत दूर तक और देर तक सुकून देते थे। मोहम्मद रफी ने शम्मी कपूर पर फिल्माये गये ये कालजयी गीत - "तुम मुझे यूँ भूला न पाओगे...", "जनम जनम का साथ है...", "एहसान तेरा होगा मुझ पर...", "इस रंग बदलती दुनिया में..." जैसे गंभीर गीत गाये है तो वे गीत भी गाये हैं जो शम्मी कपूर के चुलबुले व्यकितत्व से मेल खाते हुये थे। जरा बानगी देखिये, "लाल छडी मैदान खडी...", "ऐ गुलबदन...", "चाहे कोई मुझे जंगली कहे...","सर पे टोपी लाल हाथ में रेशम का रुमाल...", "ये चाँद सा रोशन चेहरा...", "दीवाना हुआ बादल...", या फिर सुरूर से भरा "है दुनिया उसी की ज़माना उसी का, मोहब्बत में जो हो गया हो किसी का..."

शम्मी कपूर एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे। उनका एक विदोही प्रेमी जैसा साहस और करिश्मा देखते ही बनता था। उनका अंदाज उनके समकालीनों से बिलकुल अलग था। उनका मनमौजी मस्त अंदाज़ युवाओं के अलावा बडों को भी बेहद पसंद आया। वे जीवन से भरे हुये इंसान के रूप में दशकों को बेहद लुभाते थे।शम्मी कपूर ने अपने कैरियर की शुरुआत १९५३ में गंभीर रोल से की पर उनको पहचान मिली १९५७ में तुम सा नहीं देखा के रोमांटिक रोल से। इस फिल्म में ग्यारह गीत हैं और वे सभी गीत मोहम्मद रफी ने गाये हैं। इन्हीं सुमधुर गीतों की बदौलत ही शम्मी लाखों करोडों लोगों के दिलों की धडकन बन गयें। ५० से ६० का दौर शम्मी कपूर का सफल दौर माना जाता है।

उस दौर की फिल्मों में रोमांस को शम्मी कपूर ने नयी परिभाषा दी बिलकुल पश्चिमी अंदाज में, जो हिंदी फिल्मों के लिये बिलकुल नया था। शम्मी कपूर युवा उमंग से भरे हुये एक कलाकार के रूप में उभरे जो फिल्म के निर्जीव परदे को अपनी ऊर्जा से भर देते थे। शम्मी कपूर की जिंदादिली और उन पर मोहम्मद रफी की दिलकश आवाज का जादू दशकों के सिर चढ कर बोला और शम्मी की फिल्में लगातार सफल होती चली गई और इस सफलता का सेहरा उनकें मधुर गीतों के कारण काफी हद तक मोहम्मद रफी के सिर बांधा जा सकता है। मोहम्मद रफी की मदमस्त आवाज और शम्मी का चुलबुलापन दोनों जैसे एक दुसरे के पूरक बन गये थे। शम्मी अपनी अदाओं से जो जादू बिखेर देते थे उसका असर आसानी से छूटने वाला नहीं था। आज भी जब हम परदे पर शम्मी कपूर को परदे पर अभिनय करते हुये देखते हैं और मोहम्मद रफी की मखमली आवाज में अवसाद से भरा हुआ यह गीत सुनते हैं "तुम मुझे यूँ भूला न पाओगे..." तो लगता है कुछ चीजें सचमुच कभी न भूलने के लिये बनी हैं और जब वे ऊछलते कूदते हुये शम्मी के किरदार को आत्मसात करते हुये गाते हैं, "तुमसे अच्छा कौन है..." तो हर सुनने वाले चेहरे पर अनायास ही मुस्कान बिखर जाती है।

शम्मी कपूर अपने गीतों को लेकर बेहद सजग रहते थे, गीत के चुनाव, उसके संगीत से लेकर आखिरी फिल्मांकन तक पूरी तरह उसमें डूबे रहते थे। यहाँ तक कि उनका एक गीत "तारीफ करूँ क्या उसकी..." में उन्होंने रफी साहब की आवाज़ के साथ मिलकर एक अनुठा प्रयोग किया, इस गीत में जितनी बार भी "तारीफ" शब्द का प्रयोग हुआ है उसे उतनी ही बार मोहम्मद रफी ने अपने अलग अंदाज में गाया है और उतनी ही बार शम्मी नें उसमें अपने अभिनय की अलग ही छटा बिखेरी है तभी तो यह गीत इतना लाजवाब बन पडा है।

शम्मी कपूर के कई गीत जैसे, "जवानियाँ ये मस्त मस्त बिन पिये...", "जनम जनम का साथ है निभाने को...", "सवेरे वाली गाडी से...", "बतमीज कहो...", "एन ईवनिगं इन पेरिस...", "दीवाना मुझ सा नहीं...", "खुली पलक में झुठा गुस्सा...", "धड़कने लगता है मेरा दिल...", "दिल देके देखों...", "बार-बार देखों..." जैसे जाने कितने बेमिसाल गीतों को मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज दी है।

शम्मी कपूर की मदमस्त अदाओं के कारण ही उन्हें भारत का ऐलविस प्रेस्ली कहा जाता था तो वही मोहम्मद रफी साहब को हर तरह के गीत गानें में कुशलता के कारण हरफनमौला कलाकार कहा जाता है और इन दोनों महान कलाकारों की उपस्थिति और उनकी जुगलबंदी भारतीय फिल्मी संगीत को और अधिक जिजीवंतता प्रदान करती है।

सुनते हैं कुछ लाजवाब नग्में इसी शानदार जोड़ी के -



देखते हैं ये विडियो भी फ़िल्म "काश्मीर की कली" का जिसका जिक्र उपर किया गया है-



प्रस्तुति - विपिन चौधरी




Sunday, January 11, 2009

संगीत के रियल्टी शो में अब नही नज़र आयेंगें शान



सप्ताह की संगीत सुर्खियाँ (8)

संगीत मददगार है केलास्ट्रोल कम करने में भी

अगर कोई बीमार व्यक्ति ३० मिनट प्रतिदिन अपनी पसंद का संगीत सुनने में लगाता है तो ये सिर्फ़ उसे मानसिक रूप से आराम नही देता, बल्कि शारीरिक रूप से भी बेहद फायदेमंद साबित होता है, ऐसा अमेरिका में हुए ताज़ा रिसर्च से प्राप्त परिणाम बताते हैं. संगीत आपके रुधिर धमनियों को साफ़ करने में भी मददगार साबित होता है. इन नतीजों के मुताबिक आपके मन का संगीत रुधिर धमनियों में नैट्रिक ऑक्साइड का संचार करता है जो रक्त ग्रथियाँ बनने से रोकने और हानिकारक केलास्ट्रोल को बनने से रोकने में सहायक साबित होते हैं. महँगी और नुकसानदायक दवाईयों से परेशान लोगों के लिए ये निश्चित ही अच्छी ख़बर है..वैसे अच्छा संगीत आपको आवाज़ पर भी सुनने को मिलता है.....तो चिंताओं को तज कर हमारे साथ संगीत का आनंद लें और स्वस्थ रहें.


खुश है अदनान

"मैं अपने सगीत में इस कदर व्यस्त रहा, कभी एक पियानिस्ट के तौर पर तो कभी बतौर गायक और संगीतकार, कभी अपनी एल्बम पर काम करने तो कभी उनकी मार्केटिंग आदि कामों ने मुझे कभी एक्टिंग के बारे में सोचने का मौका ही नही दिया. पर अब मैं अपने इस नए काम से बहुत संतुष्ट हूँ..." कहते हैं अदनान सामी, जिन्होंने अपने रोल के लिए अपना वज़न कई किलो घटा दिया. वैसे अदनान के लिए ये भी खुशी की बात है कि लंबे अन्तराल के बाद वो अभी हाल ही में अपने बेटे से मिले, दरअसल पत्नी जेबा बख्तियार (हिना फेम) से तलाक़ के बाद लगभग १० साल तक लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद उन्हें अपने बेटे से मिलने की इजाज़त मिली है. अदनान इस मिलन का एक एक पल भरपूर जीना चाहते हैं...वैसे हमें भी आपकी फ़िल्म का इंतज़ार है अदनान...


कैलाश बंधेगें प्रणय सूत्र में...

अदनान की ही तरह हिंदुस्तान में सूफी गीतों के बेताज बादशाह कैलाश खेर भी आजकल बहुत खुश हैं. उनकी खुशी के दो कारण हैं, एक तो वो ग्लोबलफेस्ट २००९ के हिस्सा चुने गए हैं, दूसरा उनको अपना जीवन साथी आखिरकार मिल ही गया है, जी हाँ कैलाश फरवरी के अन्तिम सप्ताह में विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं, इस बाबत पूछे जाने पर कैलाश ने कहा कि वो इसे एक प्राइवेट अफेयर ही रखना चाहते हैं और इस सिलसिले में बहुत ज्यादा खुलासा नही करना चाहते. कोई बात नही कैलाश मुबारकबाद तो स्वीकार कर ही सकते हैं....


अलविदा रियलटी शोस को

७ सालों से संगीत रियलिटी शो का हिस्सा रहे शान अब छोटे परदे पर होस्टिंग करते नही नज़र आयेंगे. शान अपने गायन कैरियर को नई ऊँचाईयाँ देने के उद्देश्य से इन कार्यक्रमों को अलविदा कहने का मन बना लिया है. उनका कहना है कि इन कार्यक्रमों में बहुत ज़ोर ज़ोर से चिल्ला कर बोलना पड़ता है जिससे आपका गला चोक हो जाता है और आपके गायन पर इसका असर साफ़ देखा जा सकता है. मेरा रियाज़ बिल्कुल छूट सा गया है....जो कि ग़लत है. मेरे लिए गायन अधिक महत्वपूर्ण है. मैंने पहले भी इसे छोड़ने का सोचा था, पर कुछ मजबूरियां ऐसी आ गई कि नही कर पाया...पर अब ये फैसला पक्का है....भाई हम तो यही कहेंगें कि शान आपका ये फैसला हमें तो बिल्कुल सही प्रतीत होता है...शायद हमारे श्रोता भी सहमत होंगें...



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