Saturday, August 8, 2009

समाँ है सुहाना सुहाना नशे में जहाँ है....जहाँ किशोर की आवाज़ गूंजे वहां ऐसा क्यों न हो



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 165

पिछ्ले तीन दिनों से आप किशोर दा की आवाज़ में सुन रहे हैं जीवन के कुछ ज़रूरी और थोड़े संजीदे किस्म के विषयों पर आधारित गानें। आज माहौल को थोड़ा सा हल्का बनाते हैं और आज चुनते हैं ज़िंदगी का एक ऐसा रूप जिसमें है मस्ती, रोमांस और नशा। ऐसे गीतों में भी किशोर दा की आवाज़ ने वो अदाकारी दिखायी है कि ये गानें हर प्रेमी के दिल की आवाज़ बन कर रह गये हैं। आनंद बक्शी का लिखा और कल्याणजी-आनंदजी का स्वरबद्ध किया एक ऐसा ही गीत आज पेश है फ़िल्म 'घर घर की कहानी' से। जी हाँ, "समा है सुहाना, नशे में जहाँ है, किसी को किसी की ख़बर ही कहाँ है, हर दिल में देखो मोहब्बत जवाँ है"। कभी जवाँ दिलों की धड़कन बन कर गूँजा करता था यह नग़मा। इसमें कोई शक़ नहीं कि यह गीत समा को सुहाना बना देता है, इसकी मंद मंद रीदम से मन नशे में डूबता सा चला जाता है, और हर दिल में मोहब्बत की लौ जगा देती है। १९७० की फ़िल्म 'घर घर की कहानी' के मुख्य कलाकार थे राकेश रोशन और भारती। यह एक लो बजट फ़िल्म थी जिसकी बाकी सभी चीज़ों को लोग क्रमश: भूलने लगे हैं सिवाय एक चीज़ के, और वह है फ़िल्म का प्रस्तुत गीत। यह दक्षिण के फ़िल्मकारों की फ़िल्म थी, निर्माता थे नागा रेड्डी और निर्देशक थे टी. प्रकाश राव। यूं तो, जैसा कि हमने कहा कि फ़िल्म के नायक थे राकेश रोशन, लेकिन प्रस्तुत गीत फ़िल्माया गया है जलाल आग़ा पर। यह एक पिकनिक में गाया गया गीत है, जिस पर कालेज के छात्र छात्राओं को नृत्य करते हुए दिखाया गया है।

आज कल्याणजी-आनंदजी और किशोर कुमार की एक साथ बात चली है तो यहाँ पर मैं आप को विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम से आनंदजी की यादों के कुछ उजाले पेश कर रहा हूँ, जिनमें उन्होने किशोर दा के बारे में कई बातें कहे थे-

प्र: अच्छा आनंदजी, किशोर कुमार ने कोई विधिवत तालीम नहीं ली थी, इसके बावजूद भी कुछ लोग जन्मगत प्रतिभाशाली होते हैं, जैसे उपरवाले ने उनको सब कुछ ऐसे ही दे दिया है। उनकी गायकी की कौन सी बात आप को सब से ज़्यादा अपील करती थी?

देखिये, मैने बतौर संगीतकार कुछ ४०-५० साल काम किया है, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि 'it should be a matured voice', और यह कुद्रतन होता है। और यहाँ पर क्या है कि कितना भी अच्छा गाते हों आप, लेकिन 'voice quality' अगर माइक पे अच्छी नहीं है तो क्या फ़ायदा! फ़िल्मी गीतों में ज़्यादा मुड़कियाँ लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। हमारे यहाँ कुछ गायक हैं जो समझते हैं कि दो मुड़कियाँ ले लूँ तो मेरा गाना चलेगा, लेकिन फिर क्या होता है कि फिर हर वक़्त वो वैसा ही लगते हैं। सिर्फ़ गाना ही होगा, 'एक्टिंग' नहीं। लेकिन एक भोला भाला सीधा सादा आदमी खड़े खड़े ही गाना गा रहा है तो उसी तरह का गाना होना चाहिए। आप को मुड़कियाँ लेने की ज़रूरत नहीं है।

प्र: किशोर कुमार एक हरफ़नमौला, हर फ़न में माहिर एक कलाकार। एक खिलंदरपन था उनमें और बचपना भी। लेकिन जब वो सीरियस गाना गाते थे तो रुला देते थे। और जब वो हास्य का गाना गाते थे तो हँसी के फ़व्वारे छूटने लगते थे।

नहीं नहीं, जैसे आप स्विच बदलते हैं, वो वैसी ही थे। किसी को सीखाने से ये सब आयेगी नहीं। ये अंदर से ही आता है। उनकी 'voice quality' बहुत अच्छी थी। 'ultimate judgement' तो आप को ही लेना है, कि 'मैं सुर में गाऊँ कि नहीं', ये मुझे ही मालूम है। ये जो मैने 'सरगम' की कैसेट निकाली है उसमें यही कहा गया है कि आप अपने बच्चों में अभी से आदत डालेंगे।

प्र: आनंदजी, किशोर दा को जो समय आप देते थे उसमें वो आ जाते थे?

हम लोग उनको दोपहर का 'टाइम' ही देते थे। वो कहते थे कि 'आप के गाने में मुझे कोई प्रौब्लेम नहीं होती'. "ख‍इके पान बनारस वाला" वो दोपहर को गा कर चले गये थे, हम को याद ही नहीं था, क्योंकि पिक्चर के चार गानें बन गये थे, 'रिकार्ड' भी बन कर आ गयी थी, बाद में यह गाना डाला गया 'सिचुयशन' बनाकर।


तो दोस्तों, ये थी कुछ बातें आनंदजी के शब्दों में किशोर दा के बारे में। आगे चलकर समय समय पर इस साक्षात्कार से कई और अंश हम आप तक ज़रूर पहुँचायेंगे। तो आइए अब समा को ज़रा सुहाना बनाया जाये किशोर दा के गाये आज के प्रस्तुत गीत को सुनकर।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. कल सुनेगें दर्द में डूबी किशोर दा की सदा.
2. कल के गीत का थीम है - "दर्द, पीडा, उपेक्षा आदि".
3. एक अंतरा शुरू होता है इन शब्दों से -"तुझे क्या..".

पिछली पहेली का परिणाम -
पूर्वी जी बनी है एक और नयी प्रतिभागी....बधाई २ अंकों के लिए. रोहित जी ज़रा से पीछे रह गए. दिशा जी और प्राग जी दोनों नादारादा रहे कल. लगता नहीं कि २०० अंक पूरे होने से पहले हमें तीसरे विजेता मिल पायेंगें :(

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

भीष्म साहनी के जन्मदिन पर विशेष "चीफ़ की दावत"



सुनो कहानी: भीष्म साहनी की "चीफ़ की दावत"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ।

पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की कहानी झाँकी का पॉडकास्ट सुना था।

आज आठ अगस्त को प्रसिद्ध लेखक, नाट्यकर्मी और अभिनेता श्री भीष्म साहनी का जन्मदिन है. इस अवसर पर आवाज़ की और से प्रस्तुत है उनकी एक कहानी। मैं तब से उनका प्रशंसक हूँ जब पहली बार स्कूल में उनकी कहानी "अहम् ब्रह्मास्मि" पढी थी। मेरी इच्छा आज सुनो कहानी में वही कहानी पढने की थी परन्तु यहाँ उपलब्ध न होने के कारण आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं उनकी एक और प्रसिद्ध कहानी "चीफ की दावत" जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। आशा है आपको पसंद आयेगी।
कहानी का कुल प्रसारण समय 20 मिनट 9 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।





भीष्म साहनी (1915-2003)


हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी
पद्म भूषण भीष्म साहनी का जन्म आठ अगस्त 1915 को रावलपिंडी में हुआ था।


"नहीं, मैं नहीं चाहता की उस बुढ़िया का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बन्द किया था। माँ से कहें कि जल्दी खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ। मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे। इससे पहले
ही अपने काम से निबट लें।"
("चीफ़ की दावत" से एक अंश)




नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)






यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
VBR MP3Ogg Vorbis

#Thirty third Story, Dawat: Bhisham Sahni/Hindi Audio Book/2009/27. Voice: Anurag Sharma

Friday, August 7, 2009

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के...चिर प्रेरणा का स्त्रोत रहा है, दादा का गाया ये नायाब गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 164

ल हमने बात की थी सपनों की। दोस्तों, सपने तभी सच होते हैं जब उनको सच करने के लिए हम निरंतर प्रयास भी करें। लेकिन सफलता हमेशा हाथ लगे ऐसा जरूरी नहीं है. कई पहाड़ों, जंगलों, खाइयों से गुज़रने के बाद ही नदी का मिलन सागर से होता है। कहने का आशय यह है कि एक बार की असफलता से इंसान को घबरा कर अपनी कोशिशें बंद नहीं कर देनी चाहिए। काँटों पर चलकर ही बहारों के साये नसीब होते हैं। जी हाँ, 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़' के अंतर्गत आज हमारा विषय है 'प्रेरणा', जो दे रहे हैं किशोर कुमार किसी राह चलते राही को। यह राही ज़िंदगी का राही है, यानी कि हर एक आम आदमी, जो ज़िंदगी की राह पर निरंतर चलता चला जाता है। किशोर कुमार ने बहुत सारे इस तरह के राही और सफ़र से संबंधित जीवन दर्शन के गीत गाये हैं, उदाहरण के तौर पर फ़िल्म 'तपस्या' का गीत "जो राह चुनी तूने उसी राह पे राही चलते जाना रे", फ़िल्म 'नमकीन' का गीत "राह पे रहते हैं, यादों पे बसर करते हैं, ख़ुश रहो अहल-ए-वतन, हो हम तो सफ़र करते हैं", फ़िल्म 'आप की कसम' का गीत "ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम, वो फिर नहीं आते", फ़िल्म 'सफ़र' का गीत "ज़िंदगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं", फ़िल्म 'काला पत्थर' का गीत "एक रास्ता है ज़िंदगी जो थम गये तो कुछ नहीं", फ़िल्म ख़ुद्दार' का गीत "ऊँचे नीचे रास्ते और मंज़िल तेरी दूर, राह में राही रुक न जाना होकर के मजबूर", फ़िल्म 'दोस्त' का गीत "गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है, चलना ही ज़िंदगी है, चलती ही जा रही है", इत्यादि। लेकिन किशोर दा के गाये इन तमाम गीतों में हम ने जिस गीत को आज चुना है वह है फ़िल्म 'इम्तिहान' का - "रुक जाना नहीं तू कहीं हार के, काँटों पे चल के मिलेंगे साये बहार के"। मजरूह सुल्तानपुरी के दार्शनिक बोलों को संगीत से सँवारा है संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने।

'इम्तिहान' सन् १९७४ की फ़िल्म थी। बी. ए. चंडीरमणी के इस फ़िल्म को मदन सिन्हा ने निर्देशित किया था तथा इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे विनोद खन्ना और तनुजा। प्रस्तुत गीत फ़िल्म का सब से महत्वपूर्ण गीत है जो फ़िल्म में टुकड़ों में कई बार सुनाई देता है। ग्रामोफोन रिकार्ड पर इस गीत की कुल अवधि है लगभग ७ मिनट। किसी किसी रिकार्ड और कैसेट्स पर केवल ३ मिनट में ही गीत को समाप्त कर दिया गया है। लेकिन हम आप के लाये हैं पूरे ७ मिनट वाला वर्ज़न। इन दोनों वर्ज़नों का अंतर आप को बताना चाहेंगे। ३ मिनट वाला वर्ज़न शुरु होता है सैक्सोफ़ोन के पीस से, उसके बाद कोरल हमिंग से शुरु होता है गीत और केवल एक ही अंतरे के साथ गीत समाप्त हो जाता है। जब कि ७ मिनट वाले वर्ज़न में कुल तीन अंतरे हैं। तीसरा अंतरा लोगों ने बहुत कम ही सुना है, इसलिए इस अंतरे के बोल हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-

"नैन आँसू जो लिए हैं, ये राहों के दीये हैं,
लोगों को उनका सब कुछ देके,
तू तो चला था सपने ही लेके,
कोई नहीं तो तेरे अपने हैं सपने ये प्यार के,
ओ राही ओ राही ओ राही ओ राही"

गीटार का बड़ा ही सुंदर इस्तेमाल पूरे गीत में सुनने को मिलता है। दोस्तों, यह एक संजीदा गीत है, लेकिन इस संजीदे गीत को सुनने से पहले हम आप के दिल में थोड़ी सी गुदगुदी डालना चाहते हैं, तो क्यों न प्यारेलाल जी की कुछ बातें हो जाये अपने किशोर दा के बारे में - "किशोर दा बहुत ही मस्त आदमी थे। हम लोग उनके घर जाते थे, उनका 'फ़र्स्ट क्लास' बंगला था। बहुत बड़ा सा हौल था जहाँ पे हम बैठते थे। बहुत अच्छे ढंग से सजाया हुआ था। बस बीच में एक पीलर था जिस पर केवल सीमेंट लगा हुआ था। हम में से किसी को समझ नहीं आता था कि ऐसा क्यों है कि पूरा हौल इतनी अच्छी तरह से सजाया हुआ है सिवाय उस पीलर के। एक बार लक्ष्मी जी ने उनसे पूछा कि 'यह बताइये कि यह बीच वाला पीलर आप क्यों नहीं ठीक करवाते?' किशोर दा ने जवाब दिया 'इसीलिए ठीक नहीं करवाता कि आप यह बात मुझसे पूछें'।" तो दोस्तों, ऐसे थे हमारे किशोर दा। अब आनंद उठाइए इस गीत का और अपने आप से यह प्रण भी करें कि जीवन में चाहे कितनी भी परेशानी और तकलीफ़ों का सामना क्यों न करना पड़े, आप हिम्मत नहीं हारेंगे, और यही एक इंसान का कर्तव्य भी है।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. कल होगी ओल्ड इस गोल्ड पर किशोर दा के साथ मस्ती भरी पार्टी.
2. कल के गीत का थीम है - "मिलना जुलना, नशीले समां में झूमना".
3. मुखड़े की दूसरी पंक्ति में शब्द है -"खबर".

कौन सा है आपकी पसंद का गीत -
अगले रविवार सुबह की कॉफी के लिए लिख भेजिए (कम से कम ५० शब्दों में ) अपनी पसंद को कोई देशभक्ति गीत और उस ख़ास गीत से जुडी अपनी कोई याद का ब्यौरा. हम आपकी पसंद के गीत आपके संस्मरण के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगें.

पिछली पहेली का परिणाम -
लगता है रोहित राजपूत जी, पराग जी और दिशा जी को जबरदस्त टक्कर देने वाले हैं. ४ अंक हुए आपके. अब आप सुमित जी से आगे हैं. मनु जी के hnm का मतलब तो अब शरद जी और स्वप्न जी समझ ही गए होंगें, वैसे बड़ा ही दिलचस्प abbreviation था ये तो. पराग जी कहते हैं जब जागो तभी सवेरा, तो जब भी आप उठें तब भी देख लेंगें तो बात बन सकती हैं :) सुमित जी और मंजू जी हमें उम्मीद है कि आज के गीत ने आपको भी एक नयी प्रेरणा दी होगी.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई..... महफ़िल-ए-बेइख्तियार और "गुलज़ार"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३६

दिशा जी की नाराज़गी को दूर करने के लिए लीजिए हम लेकर हाज़िर हैं उनकी पसंद की पहली गज़ल। इस गज़ल की खासियत यह है कि जहाँ एक तरह इसे आवाज़ दिया है गज़लों के उस्ताद "गज़लजीत" जगजीत सिंह जी ने तो वहीं इसे लिखा है कोमल भावनाओं को अपने कोमल लफ़्जों में लपेटने वाले शायर "गुलज़ार" ने। जगजीत सिंह जी की गज़लों और नज़्मों को लेकर न जाने कितनी बार हम इस महफ़िल में हाज़िर हो चुके हैं और यकीन है कि इसी तरह आगे भी उनकी आवाज़ से हमारी यह बज़्म रौशन होती रहेगी। अब चूँकि जगजीत सिंह जी हमारी इस महफ़िल के नियमित फ़नकार हैं इसलिए हर बार उनका परिचय देना गैर-ज़रूरी मालूम होता है। वैसे भी जगजीत सिंह और गुलज़ार ऐसे दो शख्स हैं जिनकी ज़िंदगी के पन्ने अकेले हीं खुलने चाहिए, उस दौरान किसी और की आमद बने बनाए माहौल को बिगाड़ सकती है। इसलिए हमने यह फ़ैसला किया है कि आज की महफ़िल को "गुलज़ार" की शायरी की पुरकशिश अदाओं के हवाले करते हैं। जगजीत सिंह जी तो हमारे साथ हीं हैं, उनकी बातें अगली बार कभी कर लेंगे। "गुलज़ार" की बात अगर शुरू करनी हो तो इस काम के लिए अमृता प्रीतम से अच्छा कौन हो सकता है। अमृता प्रीतम कहती हैं: गुलज़ार एक बहुत प्यारे शायर हैं- जो अक्षरों के अंतराल में बसी हुई ख़ामोशी की अज़मत को जानते हैं, उनकी एक नज़्म सामने रखती हूँ-

रात भर सर्द हवा चलती रही...
...रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने

इन अक्षरों से गुजरते हुए- एक जलते और बुझते हुए रिश्ते का कंपन हमारी रगों में उतरने लगता है, इतना कि आँखें उस कागज़ की ओर देखने लगती हैं जो इन अक्षरों के आगे खाली हैं और लगता है- एक कंपन है, जो उस खाली कागज़ पर बिछा हुआ है। गुलज़ार ने उस रिश्ते के शक्ति-कण भी पहचाने हैं, जो कुछ एक बरसों में लिपटा हुआ है और उस रिश्ते के शक्ति-कण भी झेले हैं, जो जाने कितनी सदियों की छाती में बसा है...कह सकती हूँ कि आज के हालात पर गुलज़ार ने जो लिखा है, हालात के दर्द को अपने सीने में पनाह देते हुए, और अपने खून के कतरे उसके बदन में उतारते हुए-वह उस शायरी की दस्तावेज है, जो बहुत सूक्ष्म तरंगों से बुनी जाती है। ताज्जुब नहीं होता, जब अपने खाकी बदन को लिए, उफ़क़ से भी परे, इन सूक्ष्म तरंगों में उतर जाने वाला गुलज़ार कहता है-

वह जो शायर था चुप-सा रहता था,
बहकी-बहकी-सी बातें करता था....

फ़ना के मुकाम का दीदार जिसने पाया हो, उसके लिए बहुत मुश्किल है उन तल्ख घटनाओं को पकड़ पाना, जिनमें किसी रिश्ते के धागे बिखर-बिखर जाते हैं। गुलज़ार ने सूक्ष्म तरंगों का रहस्य पाया है, इसलिए मानना मुश्किल है कि ये धागे जुड़ नहीं सकते। इस अवस्था में लिखी हुई गुलज़ार की एक बहुत प्यारी नज़्म है, जिसमें वह कबीर जैसे जुलाहे को पुकारता है-

मैने तो इक बार बुना था एक हीं रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे..

लगता है- गुलज़ार और कबीर ने एक साथ कई नज़्मों में प्रवेश किया है- और ख़ाकी बदन को पानी का बुलबुला मानते हुए- यह रहस्य पाया है कि वक्त की हथेली पर बहता यह वह बुलबुला है, जिसे कभी न तो समंदर निगल सका, न कोई इतिहास तोड़ पाया!


गुलज़ार ने अपने जिस मित्र "मंसूरा अहमद" के लिए ये पंक्तियाँ लिखीं थी:

आज तेरी एक नज़्म पढी थी,
पढते-पढते लफ़्ज़ों के कुछ रंग लबों पर छूट गए...
....सारा दिन पेशानी पर,
अफ़शाँ के ज़र्रे झिलमिल-झिलमिल करते रहे।

उन्होंने गुलज़ार का परिचय कुछ यूँ दिया है:

कहीं पहले मिले हैं हम
धनक के सात रंगों से बने पुल पर मिले होंगे
जहाँ परियाँ तुम्हारे सुर के कोमल तेवरों पर रक़्स
करती थीं
परिन्दे और नीला आसमां
झुक झुक के उनको देखते थे
कभी ऐसा भी होता है हमारी ज़िंदगी में
कि सब सुर हार जाते हैं
फ़्रक़त एक चीख़ बचती है
तुम ऐसे में बशारत बन के आते हो
और अपनी लय के जादू से
हमारी टूटती साँसों से इक नग़मा बनाते हो
कि जैसे रात की बंजर स्याही से सहर फूटे
तुम्हारे लफ़्ज़ छू कर तो हमारे ज़ख़्म लौ देने लगे हैं...!


अब चलिए जनाब विनोद खेतान से रूबरु हो लेते हैं जो गुलज़ार साहब के बारे में ये विचार रखते हैं: ज़िन्दगी के अनगिन आयामों की तरह उनकी कविता में एक ही उपादान, एक ही बिम्ब कहीं उदासी का प्रतीक होता है और कहीं उल्लास का। गुलज़ार की कविता बिम्बों की इन तहों को खोलती है। कभी भिखारिन रात चाँद कटोरा लिये आती है और कभी शाम को चाँद का चिराग़ जलता है; कभी चाँद की तरह टपकी ज़िन्दगी होती है और कभी रातों में चाँदनी उगाई जाती है। कभी फुटपाथ से चाँद रात-भर रोटी नजर आता है और कभी ख़ाली कासे में रात चाँद की कौड़ी डाल जाती है। शायद चाँद को भी नहीं पता होगा कि ज़मीन पर एक गुलज़ार नाम का शख़्स है, जो उसे इतनी तरह से देखता है। कभी डोरियों से बाँध-बाँध के चाँद तोड़ता है और कभी चौक से चाँद पर किसी का नाम लिखता है, कभी उसे गोरा-चिट्टा-सा चाँद का पलंग नज़र आता है जहाँ कोई मुग्ध होकर सो सकता है और कभी चाँद से कूदकर डूबने की कोशिश करता है। गुलज़ार के गीतों में ये अद्भुत प्रयोग बार-बार दीखते हैं और हर बार आकर्षित करते हैं। कभी आँखों से खुलते हैं सबेरों के उफ़ुक़ और कभी आँखों से बन्द होती है सीप की रात; और यदि नींद नहीं आती तो फिर होता है आँखोंमें करवट लेना। कभी उनकी ख़ामोशी का हासिल एक लम्बी ख़ामोशी होता है और कभी दिन में शाम के अंदाज होते हैं या फिर जब कोई हँसता नहीं तो मौसम फीके लगते हैं। जब गुलज़ार की कविता में आँखें चाँद की ओर दिल से मुख़ातिब होती हैं तो लगता है इस शायर का ज़मीन से कोई वास्ता नहीं। पर यथार्थ की ज़मीन पर गुलज़ार का वक्त रुकता नहीं कहीं टिककर (क्योंकि) इसकी आदत भी आदमी-सी है, या फिर घिसते-घिसटते फट जाते हैं जूते जैसे लोग बिचारे। शायर ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को मुक़म्मल देखना चाहता है और आगाह करता है कि वक़्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते; या फिर वक़्त की विडंबना पर हँसता है कि वो उम्र कम कर रहा था मेरी, मैं साल अपने बढ़ा रहा था। कभी वह ख़्वाबों की दुनिया में सोए रहना चाहता है क्योंकि उसे लगता है कि जाग जाएगा ख़्वाब तो मर जाएगा और कभी वह बिल्कुल चौकन्ना हो जाता है क्योंकि उसे पता है कि समय बराबर कर देता है समय के हाथ में आरी है, वक्त से पंजा मत लेना वक्त का पंजा भारी है। पर फिर भी उम्मीद इतनी कि उसने तिनके उठाए हुए हैं परों पर।

गुलज़ार साहब के बारे में कहने को और भी कई सारी बाते हैं, लेकिन आज बस इतना हीं। अब चलिए हम "मरासिम" से आज की गज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं। जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ के बीच गुलज़ार जब "तुम्हारे ग़म की..." लेकर आते हैं तो मानो वक्त भी बगले झांकने लगता है। यकीन न हो तो खुद हीं देख लीजिए:

दिन कुछ ऐसे ग़ुज़ारता है कोई
जैसे एहसाँ उतारता है कोई

आईना देख कर तसल्ली हुई
हमको इस घर मे जानता है कोई

पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

तुम्हारे ग़म की डली उठाकर
जबां पर रख ली देखो मैने,
ये कतरा-कतरा पिघल रही है,
मैं कतरा-कतरा हीं जी रहा हूँ।

देर से गूँजते हैं सन्नाटे
जैसे हमको पुकारता है कोई




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

___ लाजिम है मगर दुःख है क़यामत का फ़राज़,
जालिम अब के भी न रोयेगा तू तो मर जायेगा...


आपके विकल्प हैं -
a) सब्र, b) जब्त, c) दर्द, d) शेखी

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "ग़म" और शेर कुछ यूं था -

अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं,
तुमने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी।

इस शब्द के साथ सबसे पहला जवाब आया शरद जी का। शरद जी ने दो शेर भी पेश किए:

आप तो जब अपने ही ग़म देखते है
किसलिए फ़िर मुझमें हमदम देखते हैं (स्वरचित)

दिल गया तुमने लिया हम क्या करें
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें । (दाग़ देहलवी)

शरद जी के बाद कुलदीप जी हाज़िर हुए और उन्होंने तो जैसे शेरों की बाढ हीं ला दी। एक के बाद १७-१८ टिप्पणियाँ करना इतना आसान भी नहीं है। मुझे लगता है कि कुलदीप जी शामिख साहब को पीछे करने पर तुले हैं और यह देखिए आज शामिख साहब हमारी महफ़िल में आए हीं नहीं। कुलदीप जी ने घोषणा हीं कर दी कि चूँकि "ग़म" उनका प्रिय शब्द है, इसलिए आज उन्हें कोई नहीं रोक सकता :) अब उनके सारे शेरों को तो पेश नहीं किया जा सकता। इसलिए उन शेरों का यहाँ ज़िक्र किए देता हूँ जिनमें ग़म शब्द आता है:

अब तो हटा दो मेरे सर से गमो की चादर को
आज हर दर्द मुझपे इतना निगेहबान सा क्यूँ है

नीचे पेश हैं खुमार साहब के शेर, जिन्हें कुलदीप जी ने कई सारी गज़लों के माध्यम से हमारे बीच रखा:

हाले गम उन को सुनते जाइये
शर्त ये है के मुस्कुराते जाईये

हाले-गम कह कह के गम बढा बैठे
तीर मारे थे तीर खा बैठे

कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतमाम किया
बड़े तपाक से गम ने मुझे सलाम किया

सुकून ही सुकून है खुशी ही खुशी है
तेरा गम सलामत मुझे क्या कमी है

कुलदीप जी के बाद मंजु जी का हमारी महफ़िल में आना हुआ। यह रहा उनका स्वरचित शेर:

उनका आना है ऐसा जैसे हो हसीन रात ,
उनका जाना है ऐसे जैसे गम की हो बरसात

अदा जी भी अपने आप को एक पूरी गज़ल पेश करने से रोक नहीं पाईं। यह रहा वह शेर जिसमें ’ग़म’ शब्द की आमद है:

गम है या ख़ुशी है तू
मेरी ज़िन्दगी है तू

मनु जी ने अपना वह शेर पेश किया जिसे कुछ दिनों पहले ’हिन्द-युग्म’ पर पोस्ट किया गया था:

मिला जो दर्द तेरा और लाजवाब हुई
मेरी तड़प थी जो खींचकर गम-ए-शराब हुई

रचना जी की प्रस्तुति भी काबिल-ए-तारीफ़ रही। यह रहा उनका शेर:

मेरी सोच का कोई किनारा न होता
ग़म न होता तो कोई हमारा न होता

शरद जी की बात से एक हद तक मैं भी इत्तेफ़ाक रखता हूँ। हमारी पहेली का नियम यह है कि जो शब्द सही हो उसे लेकर या तो अपना कोई शेर डालें या फिर किसी जानीमानी हस्ती का, लेकिन बस शेर हीं। पूरी गज़ल डालने से मज़ा चला जाता है। लेकिन अगर पूरी गज़ल डालने का आपने मन बना हीं लिया है तो इस बात का यकीन कर लें कि उस गज़ल में वह शब्द ज़रूर आता है, रवानी में इस कदर भी न बह जाएँ कि किसी शायर की सारी गज़लें डालने लगें।

चलिए इतनी सारी बातों के बाद आप लोगों को अलविदा कहने का वक्त आ गया है। अगली महफ़िल तक के लिए खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Thursday, August 6, 2009

छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में....सपनों को पंख देती किशोर कुमार की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 163

प्रोफ़. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने कहा है कि "Dream is not something that we see in sleep; Dream is something that does not allow us to sleep"| इस एक लाइन में उन्होने कितनी बड़ी बात कही हैं। सच ही तो है, सपने तभी सच होते हैं जब उसको पूरा करने के लिए हम प्रयास भी करें। केवल स्वप्न देखने से ही वह पूरा नहीं हो जाता। ख़ैर, आप भी सोच रहे होंगे कि मैं किस बात को लेकर बैठ गया। दरअसल इन दिनों आप सुन रहे हैं किशोर कुमार के गीतों से सजी लघु शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़', जिसके तहत हम किशोर दा की आवाज़ के ज़रिये ज़िंदगी के दस अलग अलग पहलुओं पर रोशनी डाल रहे हैं, और आजका पहलू है 'सपना'। जी हाँ, वही सपना जो हर इंसान देखता है, कोई सोते हुए देखता है तो कोई जागते हुए। किसी को ज़िंदगी में बड़ा नाम कमाने का सपना होता है, तो किसी को अर्थ कमाने का। आप यूं भी कह सकते हैं कि यह दुनिया सपनों की ही दुनिया है। आज किशोर दा की आवाज़ के ज़रिये हम जो सपना देखने जा रहे हैं वह मेरे ख़याल से हर आम आदमी का सपना है। हर आदमी अपने परिवार को सुखी देखना चाहता है, वह चाहता है अपने परिवार के लिए एक सुंदर सा घर बनायें, छोटी सी प्यारी सी एक दुनिया बसायें, जिसमें हों केवल ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ, मिलन ही मिलन। जी हाँ, आज ज़िक्र है फ़िल्म 'नौकरी' के गीत का, "छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में, आशा दीवानी मन में बंसुरी बजाए, हम ही हम चमकेंगे तारों के इस गाँव में, आँखों की रोशनी हरदम ये समझाये"।

'दो बीघा ज़मीन' के बाद बिमल राय और सलिल चौधरी का साथ एक बार फिर जमा १९५४ की दो फ़िल्मों में। एक थी 'बिराज बहू' और दूसरी 'नौकरी'। जहाँ 'दो बीघा ज़मीन' की कहानी ग्रामीण समस्या पर आधारित थी, 'नौकरी' का आधार था शहरों में बेरोज़गारी की समस्या। बिमल राय प्रोडक्शन्स के बैनर तले बनी इस फ़िल्म के नायक थे किशोर कुमार, और उनके साथ थे शीला, निरुपा राय एवं बलराज साहनी। दुर्भाग्यवश 'नौकरी' वह कमाल नहीं कर सकी जो कमाल 'दो बीघा ज़मीन' ने दिखाया था। लेकिन सलिल चौधरी के स्वरबद्ध कम से कम एक गीत को श्रोताओं ने कालजयी करार दिया। और वह गीत है आज का प्रस्तुत गीत। गीतकार शैलेन्द्र के सीधे सरल शब्दों की एक और मिसाल यह गीत बड़े ही प्यारे शब्दों में एक आम आदमी के सपनों की बात करता है। पहले अंतरे में भाई अपनी छोटी बहन के लिए चांदी की कुर्सी और बेटा अपनी माँ के लिए सोने के सिंहासन का सपना देखता है, तो दूसरे अंतरे में भाई अपनी बहन की शादी करवाने का सपना देखता है। तथा तीसरे अंतरे में माँ के अपने बेटे का घर बसाने के सपने का ज़िक्र हुआ है। कुल मिलाकर यह गीत एक आम आदमी और एक आम घर परिवार के सपनों का संगम है। गीत के अंत में आप को एक लड़की की आवाज़ भी सुनाई देगी, क्या आप जानते हैं यह किसकी आवाज़ है? यह आवाज़ है लता और आशा की बहन उषा मंगेशकर की। जी हाँ, उनका गाया यह पहला पहला गीत था। इसी साल उन्होने 'चांदनी चौक' व 'सुबह का तारा' में भी गानें गाये और इस तरह से अपनी बड़ी दो बहनों की तरह वो भी फ़िल्म संगीत के क्षेत्र में अपने पाँव बढ़ा ही दिये। दोस्तों, आज का यह गीत सुनने से पहले आप को यह बता दें कि इस गीत का एक सैड वर्ज़न भी है जिसे हेमन्त कुमार ने गाया है, और इस गीत की धुन पर सलिल दा ने एक ग़ैर फ़िल्मी बंगला गीत भी रचा है जिसे उन्ही की बेटी अंतरा चौधरी ने गाया था जिसके बोल हैं "एक जे छिलो राजा होबुचंद्र ताहार नाम..."। हेमन्त दा और अंतरा चौधरी के गाये इन गीतों को आप फिर कभी सुन लीजियेगा दोस्तों, फिलहाल किशोर दा के गाये गीत की बारी। और हाँ, एक और बात, सपने देखिये लेकिन सोती आँखों से नहीं, बल्कि जागती हुई आँखों से। बड़े बड़े सपने देखिये, उन्हे पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत कीजिये। यकीन मानिए, एक दिन आप को अपनी मेहनत का सिला ज़रूर मिलेगा, और आप भी कहेंगे कि "सच हुए सपने तेरे, झूम ले ओ मन मेरे" !



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. दादा के गाये इस गीत के क्या कहने, शायद ही कोई ऐसा होगा जो इसे सुनकर प्रेरणा से न भर जाए.
2. कल के गीत का थीम है - "प्रेरणा".
3. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"नैन".

कौन सा है आपकी पसंद का गीत -
अगले रविवार सुबह की कॉफी के लिए लिख भेजिए (कम से कम ५० शब्दों में ) अपनी पसंद को कोई देशभक्ति गीत और उस ख़ास गीत से जुडी अपनी कोई याद का ब्यौरा. हम आपकी पसंद के गीत आपके संस्मरण के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगें.

पिछली पहेली का परिणाम -
चलिए पराग जी नींद से जागे, और सही जवाब देकर दिशा जी से २ अंकों की बढ़त ले ली..१२ अंकों के लिए बधाई जनाब. मनु जी आपकी कशमकश कब दूर होगी...स्वप्न जी और दिलीप जी आपका भी आभार, शरद जी नहीं दिखे कल :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

गाइए लता का गीत और बनिए आवाज़ का नया सुर-तारा - नया आग़ाज़



कैरिऑकि ट्रैक पर अपना हुनर दिखाने का सुनहर मौका

हममें से ऐसे बहुत होंगे जिनको बचपन से ही गाने का शौक रहा होगा। घूमते वक़्त- नहाते वक़्त या कहीं यात्रा करते वक़्त अपने सुकूँ के क्षणों में फिल्मी गीतों की पंक्तियाँ हम सभी की ज़ुबान पर ज़रूर तैरी होंगी। बहुत से लोगों ने अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों में संगीत के साथ यानी कैरिऑके ट्रैक पर अपनी गायक-कला का लोहा भी ज़रुर मनवाया होगा। हम ऐसे ही गायकों को इससे भी आगे एक और मंच दे रहे हैं। हिन्द-युग्म आज से एक नई प्रतियोगिता 'आवाज़ सुर-तारा' का आग़ाज़ कर रहा है, जिसके माध्यम से शौकिया तौर पर गाने वालों को भी एक मंच मिलेगा। यह आयोजन प्रतिमाह किया जायेगा और नग़द इनाम भी दिया जायेगा। इस आयोजन में हम किसी चर्चित हिन्दी फिल्मी गीत के कैरिऑकि (Kara-oke) ट्रैक पर गायकों से गाने को कहेंगे, सबसे बढ़िया प्रविष्टि को माह का 'आवाज़ सुर-तारा' घोषित किया जायेगा और रु 1000 का नग़द इनाम दिया जायेगा। गौरतलब है कि आवाज़ के इसी मंच पर मई माह से प्रत्येक माह महान कवियों की कविताओं को संगीतबद्ध करने की प्रतियोगिता 'गीतकास्ट' का आयोजन किया जा रहा है।

'आवाज़ सुर-तारा' प्रतियोगिता में हमें अधिकाधिक इनपुट आवाज़ की दैनिक पाठिका स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' की ओर से मिल रहा है। हमारे स्थाई श्रोताओं को मालूम है कि हिन्द-युग्म अक्टूबर 2007 से इंटरनेट के माध्यम से गीतों को कम्पोज करने की प्रतियोगिता करता आ रहा है। विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली 2008 में हिन्द-युग्म अपना पहला एल्बम भी ज़ारी कर चुका है। 2008 का संगीतबद्ध सत्र बहुत सफल रहा, जिसमें हिन्द-युग्म ने 4 जुलाई 2008 से 31 दिसम्बर 2008 तक प्रत्येक शुक्रवार को एक संगीतबद्ध गीत का विश्वव्यापी उद्‍घाटन किया।

हिन्द-युग्म के पास गायकों-संगीतकारों-गीतकारों की अच्छी फ़ौज़ है, लेकिन हम इसमें लगातार बढोत्तरी के आकांक्षी हैं, इसलिए हम इस प्रतियोगिता के माध्यम से भी नये गायकों की अपनी खोज ज़ारी रखना चाहते हैं, ताकि संगीतबद्ध गीतों के आने वाले सत्रों के लिए हम इनका इस्तेमाल कर सकें और किसी भी तरह के गीत को गाने के लिए हमारे पास गायकों का आभाव न हो।

दुनिया में हर जगह शुरूआत को महिलाओं से करने की परम्परा है, इसलिए हम भी पहले महीने में स्त्री-स्वर के गीत से इस प्रतियोगिता की शुरूआत कर रहे हैं। और स्त्री-स्वरों में लता मंगेशकर की आवाज़ श्रेष्ठ हैं।

प्रतियोगिता में भाग लेने के नियम और शर्तें-

1) प्रतियोगिता के दो चरण होंगे।
2) पहले चरण में अपनी पसंद की लता के किसी कैरिऑकि ट्रैक पर या हमारे द्वारा दिये गये तीन कैरिऑके ट्रैकों में से किसी भी एक पर अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करके हमें भेजने होगी।
3) पहले चरण (राउंड) से हम उन गायकों को चुनेंगे जिनमें संभावनाएँ अधिक होंगी।
4) चयनित प्रतिभागियों को दूसरे राउंड में गाने के लिए 1 या 2 ट्रैक दिये जायेंगे, जिसमें से किसी एक पर अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करके हमें भेजना होगा। दूसरे चरण में हमारे द्वारा दिये गये कैरिऑकि ट्रैक पर ही आपको गाना होगा।
5) पहले चरण के लिए रिकॉर्डिंग को mp3 (128kbps) फॉर्म में हमें podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल द्वारा भेजना होगा।
6) कैरिऑके ट्रैक क्या होते हैं और उनपर रिकॉर्डिंग कैसे करते हैं- जानने के लिए क्लिक करें
7) इस प्रतियोगिता में हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र में भाग ले चुके गायक-गायिका भाग नहीं ले सकेंगे।
8) जजमेंट-टीम में बॉलीवुड-फेम के कुछ गायक भी शामिल हैं।

यदि आपके पास कोई ट्रैक नहीं है तो हम लता मंगेशकर द्वारा गाये गये तीन फिल्मी गीतों के कैरिऑकि ट्रैक दे रहे हैं, जिसमें से किसी एक पर आपको अपनी आवाज़ डब करके 31 अक्टूबर 2009 तक भेजनी है। कैरिऑके ट्रैक को बजाने, रिकॉर्ड तथा मिक्स करने का काम कनाडा निवासियों संतोष शैल, हरदीप बक्षी और अमर ने किया है।

1॰ परदेस जा के परदेसिया (फिल्म- अर्पण)


2॰ शीशा हो या दिल हो (फिल्म- आशा)


3॰ वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गई (फिल्म- संजोग)


आपको जो ट्रैक पसंद आये, उसे निम्नलिखित लिंकों से डाउनलोड कर लें, साथ ही साथ आप गीत के बोलों को रोमन(हिन्दी) या देवनागरी(हिन्दी) में देखना चाहें तो उसे भी डाउनलोड कर लें।

Pardes Ja ke PardesiaSheesha Ho Ya
Wo Bhooli DastanGeet ke Bol (Lyrics)


इस अंक की प्रायोजक- स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा'

Wednesday, August 5, 2009

एक हजारों में मेरी बहना है...रक्षा बंधन पर शायद हर भाई यही कहता होगा...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 162

"कभी भ‍इया ये बहना न पास होगी, कहीं परदेस बैठी उदास होगी, मिलने की आस होगी, जाने कौन बिछड़ जाये कब भाई बहना, राखी बंधवा ले मेरे वीर"। रक्षाबंधन के पवित्र पर्व के उपलक्ष्य पर हिंद युग्म की तरफ़ से हम आप सभी को दे रहे हैं हार्दिक शुभकामनायें। भाई बहन के पवित्र रिश्ते की डोर को और ज़्यादा मज़बूत करता है यह त्यौहार। राखी उस धागे का नाम है जिस धागे में बसा हुआ है भाई बहन का अटूट स्नेह, भाई का अपनी बहन को हर विपदा से बचाने का प्रण, और बहन का भाई के लिए मंगलकामना। इस त्यौहार को हमारे फ़िल्मकारों ने भी ख़ूब उतारा है सेल्युलायड के परदे पर। गानें भी एक से बढ़कर एक बनें हैं इस पर्व पर। क्योंकि इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चल रहा है किशोर कुमार के गीतों से सजी लघु शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़', जिसके तहत हम जीवन के अलग अलग पहलुओं को किशोर दा की आवाज़ के ज़रिये महसूस कर रहे हैं, तो आज महसूस कीजिए भाई बहन के नाज़ुक-ओ-तरीन रिश्ते को किशोर दा के एक बहुत ही मशहूर गीत के माध्यम से। यह एक ऐसा सदाबहार गीत है भाई बहन के रिश्ते पर, जिस पर वक्त की धुल ज़रा भी नहीं चढ़ पायी है, ठीक वैसे ही जैसे कि भाई बहन के रिश्ते पर कभी कोई आँच नहीं आ सकती। 'हरे रामा हरे कृष्णा' फ़िल्म के इस गीत को आप ने कई कई बार सुना होगा, लेकिन आज इस ख़ास मौके पर इस गीत का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। हमें पूरी उम्मीद है कि आज इस गीत का आप दूसरे दिनों के मुक़ाबले ज़्यादा आनंद उठा पायेंगे।

फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' सन् १९७१ की फ़िल्म थी जिसके मुख्य कलाकार थे देव आनंद, ज़ीनत अमान और मुमताज़। दोस्तों, यह फ़िल्म उन गिने चुने फ़िल्मों में से है जिनकी कहानी नायक और नायिका के बजाये भाई और बहन के चरित्रों पर केन्द्रित है। भाई बहन के रिश्ते पर कामयाब व्यावसायिक फ़िल्म बनाना आसान काम नहीं है। इसमें फ़िल्मकार के पैसे दाव पर लग जाते हैं। लेकिन देव आनंद ने साहस किया और उनके उसी साहस का नतीजा है कि दर्शकों को इतनी अच्छी भावुक फ़िल्म देखने को मिली। इस फ़िल्म को देख कर किसी की आँखें नम न हुई हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। माँ बाप के अलग हो जाने की वजह से बचपन में एक दूसरे से बिछड़ गये भाई और बहन। भाई तो ज़िंदगी की सही राह पर चला लेकिन बहन भिड़ गयी हिप्पियों के दल में और डुबो दिया अपने को नशे और ख़ानाबदोशी की ज़िंदगी में। नेपाल की गलियों में भटकता हुआ भाई अपनी बहन को ढ़ूंढ ही निकालता है, लेकिन शुरु में बहन बचपन में बिछड़े भाई को पहचान नहीं पाती है। तब भाई वह गीत गाता है जो बचपन में वह उसके लिए गाया करता था (लता मंगेशकर और राहुल देव बर्मन की आवाज़ों में बचपन वाला गीत है)। भाई किस तरह से ग़लत राह पर चल पड़ने वाली बहन को सही दिशा दिखाने की कोशिश करता है, इस गीत के एक एक शब्द में उसी का वर्णन मिलता है। गीत को सुनते हुए बहन भाई को पहचान लेती है, गीत के इन दृश्यों को आप शायद ही सूखी आँखों से देखे होंगे। बहन अपने भाई को अपना परिचय देना तो चाहती है, लेकिन वो इतनी आगे निकल चुकी होती है कि वापस ज़िंदगी में लौटना उसके लिए नामुमकिन हो जाता है। इसलिए वो अपना परिचय छुपाती है और अंत में ख़ुदकुशी कर लेती है। प्रस्तुत गीत फ़िल्म का सब से महत्वपूर्ण गीत है। आनंद बक्शी, राहुल देव बर्मन और किशोर कुमार की तिकड़ी ने एक ऐसा दिल को छू लेनेवाला गीत तैयार किया है कि चाहे कितनी भी बार गीत को सुने, हर बार आँखें भर ही आती हैं। देव आनंद साहब ने ख़ुद इस फ़िल्म की कहानी लिखी और फ़िल्म को निर्देशित भी किया। इस फ़िल्म के लिए देव साहब की जितनी तारीफ़ की जाये कम ही होगी। इसके बाद शायद ही इस तरह की कोई फ़िल्म दोबारा बनी हो! इस फ़िल्म को बहुत ज़्यादा पुरस्कार तो नहीं मिला सिवाय आशा भोंसले के ("दम मारो दम" गीत के लिए फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार), लेकिन असली पुरस्कार है दर्शकों का प्यार जो इस फ़िल्म को भरपूर मिला, और साथ ही इस फ़िल्म के गीत संगीत को भी। तो लीजिए, रक्षाबंधन के इस विशेष अवसर पर सुनिये किशोर दा की आवाज़ में एक भाई के दिल की पुकार। आप सभी को एक बार फिर से रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनायें।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. किशोर दा के गाये बहतरीन गीतों में से एक.
2. कल के गीत का थीम है - "सपने".
3. मुखड़े की तीसरी पंक्ति में शब्द है -"गाँव".

कौन सा है आपकी पसंद का गीत -
अगले रविवार सुबह की कॉफी के लिए लिख भेजिए (कम से कम ५० शब्दों में ) अपनी पसंद को कोई देशभक्ति गीत और उस ख़ास गीत से जुडी अपनी कोई याद का ब्यौरा. हम आपकी पसंद के गीत आपके संस्मरण के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगें.

पिछली पहेली का परिणाम -
रोहित राजपूत जी रूप में हमें मिले एक नए प्रतिभागी...२ अंकों के लिए बधाई रोहित जी, पराग जी अपना ख्याल रखियेगा, सभी श्रोताओं को एक बार फिर इस पावन पर्व की ढेरों शुभकामनायें...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, August 4, 2009

धीरे से जाना खटियन में...किशोर दा की जयंती पर एक बहुत ही विशेष गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 161

वि नीरज ने लिखा था कि "खिलते हैं गुल यहाँ खिल के बिखरने को, मिलते हैं दिल यहाँ मिलके बिछड़ने को"। संसार के एक शाश्वत सत्य को उजागर किया था नीरज ने अपने इस गीत में। पर आत्मा कहती है कि इस संसार में कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं जो शाश्वत हैं। विज्ञान कहती है कि आवाज़ शाश्वत होती है। आज से लेकर अगले दस दिनों तक 'आवाज़' के इस मंच पर ऐसी ही एक शाश्वत आवाज़ को नमन। ये वो आवाज़ है दोस्तों जिसने जब हमें हँसाया तो हम हँस हँस कर लोट पोट हो गये, दर्द भरा कोई अफ़साना सुनाया तो दिल को रुलाकर छोड़ दिया, ज़िंदगी की सच्चाई बयान कि तो लगा जैसे जीवन का सही अर्थ पता चल गया हो, मस्ती भरे नग़में गाये तो दिल झूम उठा, और दिल के तराने छेड़े तो जैसे किसी रिश्ते की डोर और मज़बूत हो गयी। ये आवाज़ सिर्फ़ एक आवाज़ ही नहीं है, इनके तो कई कई आयाम हैं। ये हरफ़नमौला कलाकार एक गायक भी हैं और संगीतकार भी, अभिनेता भी हैं और एक संवेदनशील लेखक भी, फ़िल्म निर्माता और निर्देशक भी रहे हैं ये शख्स। हर दिल पर राज करनेवाला ये फ़नकार हैं आभास कुमार गांगुली, यानी कि हमारे, आपके, हम सभी के प्यारे किशोर कुमार। आज, ४ अगस्त, किशोर दा की ८०-वीं जयंती के उपलक्ष पर हम आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु कर रहे हैं किशोर दा को समर्पित विशेष लघु शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़'। इसके तहत किशोर दा आप का परिचय करवायेंगे जीवन के दस अलग अलग रूपों से, अलग अलग भावों से, अलग अलग सौग़ातों से। किशोर दा ने हर रंग के गानें गाये हैं, ज़िंदगी का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जो किशोर दा की आवाज़ से बावस्ता न हो। लेकिन किशोर दा के जिस अंदाज़ की वजह से लोग सब से पहले उन्हे याद करते हैं, वह है उनका खिलंदरपन, उनका मज़ाकिया स्वभाव, उनके हास्य रस में डूबे नग़में। शायद इसीलिए, इस शृंखला का पहला गीत भी हमने कुछ इसी रंग का चुना है। सन् १९७३ में बनी फ़िल्म 'छुपा रुस्तम' का गीत "धीरे से जाना खटियन में ओ खटमल"।

'छुपा रुस्तम' फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया था विजय आनंद ने, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे देव आनंद और हेमा मालिनी। सचिन देव बर्मन के संगीत में ढलकर इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत किशोर कुमार ने गाया था। जी हाँ, हम प्रस्तुत गीत की ही बात कर रहे हैं। यह फ़िल्म संगीत के इतिहास का शायद एकमात्र गीत होगा जो खटमल पर बना है। बर्मन दादा की इस धुन में बंगाल के लोकसंगीत की झलक है, लेकिन किशोर दा ने अपनी निजी अंदाज़ से गीत को कुछ ऐसी शक्ल दे दी है कि गाना बस किशोर दा का ही बनकर रह गया है। अगर आप को याद हो तो १९५८ की फ़िल्म 'चलती का नाम गाड़ी' में एक गीत था "मैं सितारों का तराना.... पाँच रुपया बारह आना", जिसके हर अंतरे में किशोर दा कुछ अजीब-ओ-ग़रीब सी हरकत कर जाते हैं। ऐसे एक अंतरे में वो सचिन दा की आवाज़ को नकल कर गा उठते हैं "धीरे से जाना बगियन में रे भँवरा, धीरे से जाना बगियन में"। दरसल यह सचिन दा का बनाया और उन्ही का गाया हुआ एक ग़ैर फ़िल्मी लोक गीत है। सचिन दा की आवाज़ में इस औरिजिनल गीत को भी आज हम आपको सुन्वायेंगें, तभी आज पहली बार आप ओल्ड इस गोल्ड पर दो प्लेयर पायेंगें। अब वापस आते हैं किशोर दा पर। तो 'चलती का नाम गाड़ी' के उस गीत में बर्मन दा के इस ग़ैर फ़िल्मी गीत की एक छोटी सी झलक मिलती है, और उसके बाद, करीब करीब १५ साल बाद, जब फ़िल्म 'छुपा रुस्तम' के गीत संगीत की बात चली तो इसी धुन पर 'बगियन' को 'खटियन' बना दिया गया और 'भँवरे' को 'खटमल'। वैसे गीत के आख़िर में किशोर दा 'बगियन' और 'भँवरे' पर आ ही जाते हैं, और फिर से उसी सचिन दा वाले अंदाज़ में। गीतकार नीरज ने भी बड़ी दक्षता का परिचय देते हुए इस गीत को शीर्षक गीत बना दिया है यह लिख कर कि "क्यों छुप छुप के प्यार करे तू, बड़ा छुपा हुआ रुस्तम है तू, ले ले हमको भी शरण में ओ खटमल, धीरे से जाना खटियन में"। तो सुनिए इस गीत को और आनंद उठाइए किशोर दा के उस अंदाज़ का जो उन्हे दूसरे सभी गायकों से अलग करती है।



अब ये भी सुनिए वो मूल गीत बर्मन दा (सीनीयर) की आवाज़ में -



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. किशोर दा एक भावपूर्ण गीत.
2. कल के गीत का थीम है - रिश्ते.
3. मुखड़े में शब्द है -"उमर'.

कौन सा है आपकी पसंद का गीत -
अगले रविवार सुबह की कॉफी के लिए लिख भेजिए (कम से कम ५० शब्दों में ) अपनी पसंद को कोई देशभक्ति गीत और उस ख़ास गीत से जुडी अपनी कोई याद का ब्यौरा. हम आपकी पसंद के गीत आपके संस्मरण के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगें.

पिछली पहेली का परिणाम -
दिशा जी बधाई आप पराग जी के बराबर अंकों पर आ गयी हैं अब, पराग जी कहाँ हैं आप, जागिये ज़रा....मनु जी आप भी फुर्ती दिखाईये अब तनिक...:) स्वप्न जी और शरद यकीन मानिये हम भी आप दोनों की हाजिरजवाबी को बहुत "मिस" कर रहे हैं. दिलीप जी, पोस्ट तो शाम ६.३० भारतीय समयानुसार आ चुकी थी, पता नहीं आप क्यों नहीं देख पाए....

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म...आज की महफ़िल में पेश हैं "मौलाना" के लफ़्ज़ और दर्द-ए-"अज़ीज़"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३५

पिछली महफ़िल में किए गए एक वादे के कारण शरद जी की पसंद की तीसरी गज़ल लेकर हम हाज़िर न हो सके। आपको याद होगा कि पिछली महफ़िल में हमने दिशा जी की पसंद की गज़लों का ज़िक्र किया था और कहा था कि अगली गज़ल दिशा जी की फ़ेहरिश्त से चुनी हुई होगी। लेकिन शायद समय का यह तकाज़ा न था और कुछ मजबूरियों के कारण हम उन गज़लों/नज़्मों का इंतजाम न कर सके। अब चूँकि हम वादाखिलाफ़ी कर नहीं सकते थे, इसलिए अंततोगत्वा हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि क्यों न आज अपने संग्रहालय में मौजूद एक गज़ल हीं आप सबके सामने पेश कर दी जाए। हमें पूरा यकीन है कि अगली महफ़िल में हम दिशा जी को निराश नहीं करेंगे। और वैसे भी हमारी आज़ की गज़ल सुनकर उनकी नाराज़गी पल में छू हो जाएगी, इसका हमें पूरा विश्वास है। तो चलिए हम रूख करते हैं आज़ की गज़ल की ओर जिसे मेहदी हसन साहब की आवाज़ में हम सबने न जाने कितनी बार सुना है लेकिन आज़ हम जिन फ़नकार की आवाज़ में इसे आप सबके सामने पेश करने जा रहे हैं, उनकी बात हीं कुछ अलग है। आप सबने इनकी मखमली आवाज़ जिसमें दर्द का कुछ ज्यादा हीं पुट है, को फिल्म डैडी के "आईना मुझसे मेरी पहली-सी सूरत माँगे" में ज़रूर हीं सुना होगा। उसी दौरान की "वफ़ा जो तुमसे कभी मैने निभाई होती", "फिर छिड़ी बात रात फूलों की", "ज़िंदगी जब भी तेरी बज़्म में" या फिर "ना किसी की आँख का" जैसी नज़्मों में इनकी आवाज़ खुलकर सामने आई है। मेहदी हसन साहब के शागिर्द इन महाशय का नाम पंकज़ उधास और अनूप जलोटा की तिकड़ी में सबसे ऊपर लिया जाता है। ९० के दशक में जब गज़लें अपने उत्तरार्द्ध पर थी, तब भी इन फ़नकारों के कारण गज़ल के चाहने वालों को हर महीने कम से कम एक अच्छी एलबम सुनने को ज़रूर हीं नसीब हो जाया करती थीं।

जन्म से "तलत अब्दुल अज़ीज़ खान" और फ़न से "तलत अज़ीज़" का जन्म १४ मई १९५५ को हैदराबाद में हुआ था। इनकी माँ साजिदा आबिद उर्दू की जानीमानी कवयित्री और लेखिका थीं, इसलिए उर्दू अदब और अदीबों से इनका रिश्ता बचपन में हीं बंध गया था। इन्होंने संगीत की पहली तालीम "किराना घराना" से ली थी, जिसकी स्थापना "अब्दुल करीम खान साहब" के कर-कलमों से हुई थी। उस्ताद समाद खान और उस्ताद फ़याज़ अहमद से शिक्षा लेने के बाद इन्होंने मेहदी हसन की शागिर्दगी करने का फ़ैसला लिया और उनके साथ महफ़िलों में गाने लगे। शायद यही कारण है कि मेहदी साहब द्वारा गाई हुई अमूमन सारी गज़लों के साथ इन्होंने अपने गले का इम्तिहान लिया हुआ है। हैदराबाद के "किंग कोठी" में इन्होंने सबसे पहला बड़ा प्रदर्शन किया था। लगभग ५००० श्रोताओं के सामने इन्होंने जब "कैसे सुकूं पाऊँ" गज़ल को अपनी आवाज़ से सराबोर किया तो मेहदी हसन साहब को अपने शागिर्द की फ़नकारी पर यकीन हो गया। स्नातक करने के बाद ये मुंबई चले आए जहाँ जगजीत सिंह से इनकी पहचान हुई। कुछ हीं दिनों में जगजीत सिंह भी इनकी आवाज़ के कायल हो गए और न सिर्फ़ इनके संघर्ष के साथी हुए बल्कि इनकी पहली गज़ल के लिए अपना नाम देने के लिए भी राज़ी हो गए। "जगजीत सिंह प्रजेंट्स तलत अज़ीज़" नाम से इनकी गज़लों की पहली एलबम रीलिज हुई। इसके बाद तो जैसे गज़लों का तांता लग गया। तलत अज़ीज़ यूँ तो जगजीत सिंह के जमाने के गायक हैं, लेकिन इनकी गायकी का अंदाज़ मेहदी हसन जैसे क्लासिकल गज़ल-गायकी के पुरोधाओं से मिलता-जुलता है। आज की गज़ल इस बात का साक्षात प्रमाण है। लगभग १२ मिनट की इस गज़ल में बस तीन हीं शेर हैं, लेकिन कहीं भी कोई रूकावट महसूस नहीं होती, हरेक लफ़्ज़ सुर और ताल में इस कदर लिपटा हुआ है कि क्षण भर के लिए भी श्रवणेन्द्रियाँ टस से मस नहीं होतीं। आज तो हम एक हीं गज़ल सुनवा रहे हैं लेकिन आपकी सहायता के लिए इनकी कुछ नोटेबल एलबमों की फ़ेहरिश्त यहाँ दिए देते हैं: "तलत अज़ीज़ लाईव" , "इमेजेज़", "बेस्ट आफ़ तलत अज़ीज़", "लहरें", "एहसास", "सुरूर", "सौगात", "तसव्वुर", "मंज़िल", "धड़कन", "शाहकार", "महबूब", "इरशाद", "खूबसूरत" और "खुशनुमा"। मौका मिले तो इन गज़लों का लुत्फ़ ज़रूर उठाईयेगा... नहीं तो हम हैं हीं।

चलिए अब गुलूकार के बाद शायर की तरफ़ रूख करते हैं। इन शायर को अमूमन लोग प्रेम का शायर समझते हैं, लेकिन प्रोफ़ेसर शैलेश ज़ैदी ने इनका वह रूप हम सबके सामने रखा है, जिससे लगभग सभी हीं अपरिचित थे। ये लिखते हैं: भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में हसरत मोहानी (१८७५-१९५१) का नाम भले ही उपेक्षित रह गया हो, उनके संकल्पों, उनकी मान्यताओं, उनकी शायरी में व्यक्त इन्क़लाबी विचारों और उनके संघर्षमय जीवन की खुरदरी लयात्मक आवाजों की गूंज से पूर्ण आज़ादी की भावना को वह ऊर्जा प्राप्त हुई जिसकी अभिव्यक्ति का साहस पंडित जवाहर लाल नेहरू नौ वर्ष बाद १९२९ में जुटा पाये. प्रेमचंद ने १९३० में उनके सम्बन्ध में ठीक ही लिखा था "वे अपने गुरु (बाल गंगाधर तिलक) से भी चार क़दम और आगे बढ़ गए और उस समय पूर्ण आज़ादी का डंका बजाया, जब कांग्रेस का गर्म-से-गर्म नेता भी पूर्ण स्वराज का नाम लेते काँपता था. मुसलमानों में गालिबन हसरत ही वो बुजुर्ग हैं जिन्होंने आज से पन्द्रह साल क़ब्ल, हिन्दोस्तान की मुकम्मल आज़ादी का तसव्वुर किया था और आजतक उसी पर क़ायम हैं. नर्म सियासत में उनकी गर्म तबीअत के लिए कोई कशिश और दिलचस्पी न थी" हसरत मोहानी ने अपने प्रारंभिक राजनीतिक दौर में ही स्पष्ट घोषणा कर दी थी "जिनके पास आँखें हैं और विवेक है उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि फिरंगी सरकार का मानव विरोधी शासन हमेशा के लिए भारत में क़ायम नहीं रह सकता. और वर्त्तमान स्थिति में तो उसका चन्द साल रहना भी दुशवार है." स्वराज के १२ जनवरी १९२२ के अंक में हसरत मोहनी का एक अध्यक्षीय भाषण दिया गया है. यह भाषण हसरत ने ३० दिसम्बर १९२१ को मुस्लिम लीग के मंच से दिया था- "भारत के लिए ज़रूरी है कि यहाँ प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई जाय. पहली जनवरी १९२२ से भारत की पूर्ण आज़ादी की घोषणा कर दी जाय और भारत का नाम 'यूनाईटेड स्टेट्स ऑफ़ इंडिया' रखा जाय." ध्यान देने की बात ये है कि इस सभा में महात्मा गाँधी, हाकिम अजमल खां और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गज नेता उपस्थित थे. सच्चाई यह है कि हसरत मोहानी राजनीतिकों के मस्लेहत पूर्ण रवैये से तंग आ चुके थे. एक शेर में उन्होंने अपनी इस प्रतिक्रिया को व्यक्त भी किया है-

लगा दो आग उज़रे-मस्लेहत को
के है बेज़ार अब इस से मेरा दिल

हसरत मोहानी का मूल्यांकन भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में अभी नहीं हुआ है. किंतु मेरा विश्वास है कि एक दिन उन्हें निश्चित रूप से सही ढंग से परखा जाएगा.
जनाब हसरत मोहानी का दिल जहाँ देश के लिए धड़कता था, वहीं माशुका के लिए भी दिल का एक कोना उन्होंने बुक कर रखा था तभी तो वे कहते हैं कि:

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है।


उन्नाव के पास मोहान में जन्मे "सैयद फ़ज़ल उल हसन" यानि कि मौलाना हसरत मोहानी ने बँटवारे के बाद भी हिन्दुस्तान को हीं चुना और मई १९५१ में लखनऊ में अपनी अंतिम साँसें लीं। ऐसे देशभक्त को समर्पित है हमारी आज़ की महफ़िल-ए-गज़ल। मुलाहज़ा फ़रमाईयेगा:

कैसे छुपाऊं राजे-ग़म, दीदए-तर को क्या करूं
दिल की तपिश को क्या करूं, सोज़े-जिगर को क्या करूं

शोरिशे-आशिकी कहाँ, और मेरी सादगी कहाँ
हुस्न को तेरे क्या कहूँ, अपनी नज़र को क्या करूं

ग़म का न दिल में हो गुज़र, वस्ल की शब हो यूं बसर
सब ये कुबूल है मगर, खौफे-सेहर को क्या करूं

हां मेरा दिल था जब बतर, तब न हुई तुम्हें ख़बर
बाद मेरे हुआ असर अब मैं असर को क्या करूं




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

अपनी तबाहियों का मुझे कोई __ नहीं,
तुमने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी...


आपके विकल्प हैं -
a) दुःख, b) रंज, c) गम, d) मलाल

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "रूह" और शेर कुछ यूं था -

रुह को दर्द मिला, दर्द को ऑंखें न मिली,
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं।

इस शब्द पर सबसे पहले मुहर लगाई दिशा जी ने, लेकिन सबसे पहले शेर लेकर हाज़िर हुए सुजाय जी। सुजाय जी आपका हमारी महफ़िल में स्वागत है, लेकिन यह क्या रोमन में शेर...देवनागरी में लिखिए तो हमें भी आनंद आएगा और आपको भी।

अगले प्रयास में दिशा जी ने यह शेर पेश किया:

काँप उठती है रुह मेरी याद कर वो मंजर
जब घोंपा था अपनों ने ही पीठ में खंजर

शरद जी का शेर कुछ यूँ था:

हरेक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे,
ए ज़िन्दगी तू कोई बददुआ लगे है मुझे।

हर बार की तरह इस बार भी शामिख जी ने हमें शायर के नाम से अवगत कराया। इसके साथ-साथ मुजफ़्फ़र वारसी साहब की वह गज़ल भी प्रस्तुत की जिससे यह शेर लिया गया है:

मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं
घेर लें मुझको सब आ के मैं तमाशा तो नहीं

ज़िन्दगी तुझसे हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझको मगर इतना तो नहीं

रूह को दर्द मिला, दर्द को आँखें न मिली
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं

सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मेरा
ज़हन की तह में 'मुज़फ़्फ़र' कोई दरिया तो नही.

शामिख साहब, आपका किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ! गज़ल के साथ-साथ आपने ’रूह’ शब्द पर यह शेर भी हम सबके सामने रखा:

हम दिल तो क्या रूह में उतरे होते
तुमने चाहा ही नहीं चाहने वालों की तरह

’अदा’ जी वारसी साहब के रंग में इस कदर रंग गईं कि उन्हें ’रूह’ लफ़्ज़ का ध्यान हीं नहीं रहा। खैर कोई बात नहीं, आपने इसी बहाने वारसी साहब की एक गज़ल पढी जिससे हमारी महफ़िल में चार चाँद लग गए। उस गज़ल से एक शेर जो मुझे बेहद पसंद है:

सोचता हूँ अब अंजाम-ए-सफ़र क्या होगा
लोग भी कांच के हैं राह भी पथरीली है

रचना जी, मंजु जी और सुमित जी का भी तह-ए-दिल से शुक्रिया। आप लोग जिस प्यार से हमारी महफ़िल में आते है, देखकर दिल को बड़ा हीं सुकूं मिलता है। आप तीनों के शेर एक हीं साँस में पढ गया:

नाम तेरा रूह पर लिखा है मैने
कहते हैं मरता है जिस्म रूह मरती नहीं।
रूह काँप जाती है देखकर बेरुखी उनकी
अरे! कब आबाद होगी दिल लगी उनकी।
रूह को शाद करे,दिल को जो पुरनूर करे,
हर नज़ारे में ये तन्जीर कहाँ होती है।

मनु जी, आप तो गज़लों के उस्ताद हैं। शेर कहने का आपका अंदाज़ औरों से बेहद अलहदा होता है। मसलन:

हर इक किताब के आख़िर सफे के पिछली तरफ़
मुझी को रूह, मुझी को बदन लिखा होगा

कुलदीप जी ने जहाँ वारसी साहब की एक और गज़ल महफ़िल-ए-गज़ल के हवाले की, वहीं जॉन आलिया साहब का एक शेर पेश किया, जिसमें रूह आता है:

रूह प्यासी कहां से आती है
ये उदासी कहां से आती है।

शामिख साहब के बाद कुलदीप जी धीरे-धीरे हमारी नज़रों में चढते जा रहे हैं। आप दोनों का यह हौसला देखकर कभी-कभी दिल में ख्याल आता है कि क्यों न महफ़िल-ए-गज़ल की एक-दो कड़ियाँ आपके हवाले कर दी जाएँ। क्या कहते हैं आप। कभी इस विषय पर आप दोनों से अलग से बात करेंगे।

चलिए इतनी सारी बातों के बाद आप लोगों को अलविदा कहने का वक्त आ गया है। अगली महफ़िल तक के लिए खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Monday, August 3, 2009

ये रेशमी जुल्फें ये शरबती ऑंखें...काका बाबू डूबे तारीफों में तो काम आई रफी साहब की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 160

मोहम्मद रफ़ी साहब के गीतों से सजी इस ख़ासम ख़ास शृंखला 'दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' के अंतिम कड़ी मे हम आज आ पहुँचे हैं। दस चेहरों में से अब तक जिन नौ चेहरों पर फ़िल्माये रफ़ी साहब के गानें आप ने सुने हैं वो हैं शम्मी कपूर, दिलीप कुमार, सुनिल दत्त, राजेन्द्र कुमार, राजकुमार, शशी कपूर, धर्मेन्द्र, मनोज कुमार एवं देव आनंद। आज इस आख़िरी कड़ी के लिए हम ने चुना है हिंदी फ़िल्मों के पहले सुपर-स्टार राजेश खन्ना पर फ़िल्माये एक गीत को। देव आनंद की तरह राजेश खन्ना के ज़्यादातर गानें किशोर कुमार की आवाज़ में हैं, लेकिन फिर वही बात कि समय समय पर जब जब संगीतकारों को यह लगा कि कोई गीत रफ़ी साहब की गायकी में ढलकर ज़्यादा बेहतर सुनाई देगा, तब तब उन्होने रफ़ी साहब से ये गानें गवाये हैं और ज़रूरी बात यह कि ये गानें मशहूर भी ख़ूब हुए हैं। फ़िल्म 'दो रास्ते' में किशोर कुमार, मुकेश और मोहम्मद रफ़ी, सुनेहरे दौर के इन तीनों महा-गायकों ने गानें गाये हैं। इन तीनों गायकों के इस फ़िल्म के लिए गाये एकल गीतों की बात करें तो मुकेश की आवाज़ में फ़िल्म का शीर्षक गीत था "दो रंग दुनिया के और दो रास्ते", किशोर दा ने गाया था "ख़िज़ाँ के फूल पे आती कभी बहार नहीं", तथा रफ़ी साहब की आवाज़ में था "ये रेशमी ज़ुल्फ़ें ये शरबती आँखें"। इन तीनों गीतों का उत्कृष्टता के मापदंड पर क्रम निर्धारित करना संभव नहीं क्योंकि अपने अपने अंदाज़ में इन तीनों ने इन गीतों के साथ पूरा पूरा न्याय किया है। लेकिन सही मायने में तारीफ़ संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की करनी चाहिए जिन्होने इन तीन गीतों के लिये अलग अलग गायकों को चुना। राजेश खन्ना और रफ़ी साहब की जोड़ी को सलाम करते हुए आज सुनिए आनंद बख्शी का लिखा हुआ "ये रेशमी ज़ुल्फ़ें ये शरबती आँखें"।

सन् २००५ में विविध भारती ने रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर कई विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया था। और इसी के तहत संगीतकार प्यारेलाल जी को आमंत्रित किया गया था रफ़ी साहब को श्रद्धांजली अर्पित करते हुए फ़ौजी भाइयों की सेवा में 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए। इस कार्यक्रम में प्यारेलाल जी ने रफ़ी साहब के गाये उनके कुछ पसंदीदा गानें तो सुनवाये ही थे, उनके साथ साथ रफ़ी साहब से जुड़ी कुछ बातें भी कही थी। और सब से ख़ास बात यह कि फ़िल्म 'दो रास्ते' का प्रस्तुत गीत भी उनकी पसंद के गीतों में शामिल था। प्यारेलाल जी ने कहा था - "आज आप से रफ़ी साहब के बारे में बातें करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है। रफ़ी साहब का नेचर ऐसा था कि उन्होने सब को हेल्प किया, चाहे कोई भी जात का हो, या म्युज़िशियन हो, या कोई भी हो, सब को समान समझते थे। इससे मुझे याद आ रहा है फ़िल्म 'दोस्ती' का वह गाना "मेरा तो जो भी क़दम है वो तेरी राहों में है, के तू कहीं भी रहे तू मेरी निगाहों में है"। एक बात और बताऊँ आपको? जब राजेश खन्ना इंडस्ट्री में आये, तो उनके लिए कई आवाज़ों की बात चल रही थी। 'दो रास्ते' में गाना था "ये रेश्मी ज़ुल्फ़ें", हम ने कहा कि 'चाहे कुछ भी हो जाये, यह गाना रफ़ी साहब ही गायेंगे, इसे और कोई नहीं गा सकता।' सुनिए उन्होने क्या गाया है, नये लड़के इसे क्या गायेंगे! क्या शोख़पन है!" जी हाँ जी हाँ, ज़रूर सुनिए यह गीत, लेकिन उससे पहले मैं नीचे उन ११ गीतों की सूची पेश कर रहा हूँ जिन्हे उस कार्यक्रम में प्यारेलाल जी ने बजाया था रफ़ी साहब को श्रद्धांजली अर्पित करते हुए।

१. मेरा तो जो भी क़दम है वो तेरी राहों में है (दोस्ती)
२. पत्थर के सनम तुझे हमने (पत्थर के सनम)
३. मस्त बहारों का मैं आशिक़ (फ़र्ज़)
४. बड़ी मस्तानी है मेरी महबूबा (जीने की राह)
५. वो हैं ज़रा ख़फ़ा ख़फ़ा (शागिर्द)
६. ये रेशमी ज़ुल्फ़ें (दो रास्ते)
७. ये जो चिलमन है (महबूब की मेहंदी)
८. हुई शाम उनका ख़याल आ गया (मेरे हमदम मेरे दोस्त)
९. वो जब याद आये बहुत याद आये (पारसमणि)
१०. न तू ज़मीं के लिये (दास्तान)
११. दिल का सूना साज़ तराना ढ़ूंढेगा (एक नारी दो रूप)

चलते चलते हम भी रफ़ी साहब के लिए यही कहेंगे कि

"दिल का सूना साज़ तराना ढ़ूंढेगा,
तीर निगाहें यार निशाना ढ़ूंढेगा,
तुझ को तेरे बाद ज़माना ढ़ूंढेगा"

'दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी', रफ़ी साहब को समर्पित इस लघु शृंखला को समाप्त करते हुए हिंद-युग्म की तरफ़ से रफ़ी साहब की सुर साधना को हमारा स्मृति सुमन!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. कल से आवाज़ पर सुनिए जिंदगी के अलग अलग रंग और उनमें डूबी किशोर दा की आवाज़ से सजे गीत.
2. कल के गीत का थीम है - हँसना -हँसाना.
3. ये एक पुराने गीत की पैरोडी है, यानी कि नक़ल कर किशोर दा आपको हंसाएंगे. मूल गीत को सीनियर बर्मन दा ने गाया है.

कौन सा है आपकी पसंद का गीत -
अगले रविवार सुबह की कॉफी के लिए लिख भेजिए (कम से कम ५० शब्दों में ) अपनी पसंद को कोई देशभक्ति गीत और उस ख़ास गीत से जुडी अपनी कोई याद का ब्यौरा. हम आपकी पसंद के गीत आपके संस्मरण के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगें.


पिछली पहेली का परिणाम -

दिशा जी, बधाई आपको, ८ अंकों पर आ गए आप. मंजू जी आप बस थोडा सा पीछे रह गयी....थोड़ी और कोशिश कीजिये...वाह दिलीप जी आपने तो आँखों पे लिखे गीतों की पूरी फेहरिस्त ही दे दी...शरद जी और स्वप्न जी...कॉफी/टॉफी की बहस जारी रहे...:)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

ये दूरियाँ ....मिटा रहा है कमियाबी से मोहित चौहान की दूरियाँ



ताजा सुर ताल (13)

ताजा सुर ताल की इस नयी कड़ी में आप सब का स्वागत है. आज से हम इस श्रृंखला के रूप रंग में में थोडा सा बदलाव कर रहे हैं. आज से मुझे यानी सजीव सारथी के साथ होंगें आपके प्रिय होस्ट सुजॉय चट्टर्जी भी. हम दोनों एक दिन पहले प्रस्तुत होने वाले गीत पर दूरभाष से चर्चा करेंगें और फिर उसी चर्चा को यहाँ गीत की भूमिका के रूप में प्रस्तुत करेंगें. उम्मीद है आप इस आयोजन अब और अधिक लुफ्त उठा पायेंगें. तो सुजोय स्वागत है आपका....

सुजॉय- नमस्कार सजीव और नमस्कार सभी दोस्तों को...तो सजीव आज हम कौन सा नया गीत सुनवाने जा रहे हैं ये बताएं...

सजीव - सुजॉय दरअसल योजना है कि श्रोताओं की एक के बाद एक दो गीत आज के बेहद तेजी से लोकप्रिय होते गायक मोहित चौहान के सुनवाये जाएँ...

सुजॉय - अरे वाह सजीव, हाँ आपने सही कहा....इन दिनों फ़िल्म सगीत जगत में नये नये पार्श्वगायकों की जो पौध उगी है, उसमें कई नाम ऐसे हैं जो धीरे धीरे कामयाबी की सीढ़ी पर पायदान दर पायदान उपर चढ़ते जा रहे हैं। वैसा ही एक ज़रूरी नाम है मोहित चौहान। अपनी आवाज़ और ख़ास अदायगी से मोहित चौहान आज एक व्यस्त पार्श्वगायक बन गये हैं जिनके गाने इन दिनों ख़ूब बज भी रहे हैं और लोग पसंद भी कर रहे हैं। जवाँ दिलों पर एक तरह से वो राज़ कर रहे हैं इन दिनों। हिमाचल की पहाड़ियों से उतर कर मोहित चौहान पहले दिल्ली आये जहाँ वे दस साल रहे। लेकिन सगीत की बीज उन सुरीले पहाड़ों में भी बोयी जा चुकी थी और कुछ उन्हे पारिवारिक तौर पे मिला। यह संयोग की बात ही कहिए कि दिल्ली के उन दस सालों को समर्पित करने का उन्हे मौका भी मिल गया। मेरा मतलब है 'दिल्ली ६' का वह मशहूर गीत "मसक्कली", जो कुछ दिन पहले हर 'काउंट-डाउन' पर नंबर-१ पर था।

सजीव - हाँ बिलकुल, दरअसल मैं भी समझता था कि मोहित केवल धीमे रोमांटिक गीतों में ही अच्छा कर सकते हैं, पर मसकली ने मुझे चौंका दिया. वाकई बहुत बढ़िया गाया है इसे मोहित ने, आप कुछ बता रहे थे उनके बारे में...

सुजॉय - ग़ैर फ़िल्म संगीत और पॉप अल्बम्स की जो लोग जानकारी रखते हैं, उन्हे पता होगा कि मोहित चौहान मशहूर बैंड 'सिल्क रूट' के 'लीड वोकलिस्ट' हुआ करते थे। याद है न वह हिट गीत "डूबा डूबा रहता है आँखों में तेरी", जो आयी थी 'बूँदें' अल्बम के तहत। यह अल्बम 'सिल्क रूट' की पहली अल्बम थी। यह अल्बम बेहद कामयाब रही और नयी पीढ़ी ने खुले दिल से इसे ग्रहण किया। इस बैंड का दूसरा अल्बम आया था 'पहचान', जिसे उतनी कामयाबी नहीं मिली। और दुर्भाग्यवश इसके बाद यह बैंड भी टूट गया। कहते हैं कि जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, शायद मोहित चौहान के लिए ज़िंदगी ने कुछ और ही सोच रखा था! कुछ और भी बेहतर! अब तक के उनके म्युज़िकोग्राफ़ी को देख कर तो कुछ ऐसा ही लगता है दोस्तों कि मोहित भाई सही राह पर ही चल रहे हैं।

सजीव - उस मशहूर गीत "डूबा डूबा" को लिखा था प्रसून ने, वो भी आज एक बड़े गीतकार का दर्जा रखते हैं, पर आज हम श्रोताओं के लिए लाये हैं मोहित का गाया वो गीत जिसे एक और अच्छे गीतकार इरषद कामिल ने लिखा है. आप समझ गए होंगें मैं किस गीत की बात कर रहा हूँ...

सुजॉय- हाँ सजीव बिलकुल....ये गीत है फिल्म "लव आजकल" का ये दूरियां....

सजीव - गीत शुरू होता है, एक सीटी की धुन से जो पूरे गीत में बजता ही रहता है. मोहित की आवाज़ शुरू होते ही गीत एक सम्मोहन से बांध देता है सुनने वालों को...प्रीतम का संगीत संयोजन उत्कृष्ट है....सीटी वाली धुन कई रूपों में बीच बीच में बजाने का प्रयोग तो कमाल ही है. पहले अंतरे से पहले संगीत का रुकना और फिर बोलों से शुरू करना भी गीत के स्तर को ऊंचा करता है. गीटार का तो बहुत ही सुंदर इस्तेमाल हुआ है गीत में. पर गीत के मुख्य आकर्षण तो मोहित के स्वर ही हैं. दरअसल इस तरह के धीमे रोंन्टिक गीतों में तो अब मोहित महारत ही हासिल कर चुके हैं. इरषद ने बोलों से बहुत बढ़िया निखारा है गीत को. सुजॉय मैं आपको बताऊँ कि कल ही मैंने ये फिल्म देखी है. और जिस तरह के रुझान मैंने देखे दर्शकों के उससे कह सकता हूँ कि ये फिल्म इस साल की बड़ी हिट साबित होने वाली है, और चूँकि फिल्म का संगीत फिल्म की जान है, तो अब फिल्म प्रदर्शन के बाद तो उसके गीत और अधिक मशहूर होंगे, खासकर ये गीत तो फिल्म की रीढ़ है, कई बार कई रूपों में ये गीत बजता है....और गीतकार ने शब्दों से हर सिचुअशन के साथ न्याय किया है. फिल्म में नायक नायिका जिस उहा पोह से गुजर रहे हैं, जिस समझदारी भरी नासमझी में उलझे हैं उनका बयां है ये गीत. कहते हैं फिल्म का शूट इसी गीत से आरंभ हुआ था और ख़तम भी इसी गीत पर...

सुजॉय- अच्छा यानी कुल मिलकार ये गीत भी मोहित के संगीत सफ़र में एक नया अध्याय बन कर जुड़ने वाला है...तो ये बताएं कि आवाज़ की टीम ने इस गीत को कितने अंक दिए हैं ५ में से.

सजीव - आवाज़ की टीम ने दिए ४ अंक ५ में से....पिछली बार स्वप्न जी ने एक सवाल किया था कि फिल्म कमीने के गीत को ४ अंक क्यों दिए क्या इसलिए कि इसे गुलज़ार साहब ने लिखा है ? मैं कहना चाहूँगा कि ऐसा बिलकुल नहीं है, आवाज़ की टीम के लिए सबसे जरूरी घटक है गीत की ओरिजनालिटी. नयापन जिस गीत में अधिक होगा उसे अच्छे अंक मिलेंगें पर हमारी रेटिंग तो बस एक पक्ष है, असल निर्णय तो आप सब के वोटिंग से ही होगा....सालाना संगीत चार्ट में हम आपकी रेटिंग को ही प्राथमिकता देंगें. निश्चिंत रहें...तो चलिए अब आप रेटिंग दीजिये आज के गीत को. शब्द कुछ यूं है -

ये दूरियां....ये दूरियां...
इन राहों की दूरियां,
निगाहों की दूरियां
हम राहों की दूरियां,
फ़ना हो सभी दूरियां,
क्यों कोई पास है,
दूर है क्यों कोई
जाने न कोई यहाँ पे...
आ रहा पास या,
दूर मैं जा रहा
जानूँ न मैं हूँ कहाँ पे......(वाह... कशमकश हो तो ऐसी)
ये दूरियां.....

कभी हुआ ये भी,
खाली राहों मैं भी,
तू था मेरे साथ,
कभी तुझे मिलके,
लौटा मेरा दिल ये,
खाली खाली हाथ...
ये भी हुआ कभी,
जैसे हुआ अभी,
तुझको सभी में पा लिया....
हैराँ मुझे कर जाती है दूरियां,
सताती है दूरियां,
तरसाती है दूरियां,
फ़ना हो सभी दूरियां...

कहा भी न मैंने,
नहीं जीना मैंने
तू जो न मिला
तुझे भूले से भी,
बोला न मैं ये भी
चाहूं फासला...
बस फासला रहे,
बन के कसक जो कहे,
हो और चाहत ये जवाँ
तेरी मेरी मिट जानी है दूरियां,
बेगानी है दूरियां,
हट जानी है दूरियां,
फ़ना हो सभी दूरियां...

ये दूरियां.....


तो सुजॉय सुन लिया जाए ये गीत

सुजॉय - हाँ तो लीजिये श्रोताओं सुनिए..."ये दूरियां..." फिल्म लव आजकल से ....



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. मोहित का गाया सबसे पहला फ़िल्मी गीत कौन सा था ? बताईये और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.

पिछले सवाल का सही जवाब था गीत "ओ साथी रे" फिल्म ओमकारा का और सबसे पहले सही जवाब दिया दिशा जी ने...बधाई....और सबसे अच्छी बात कि आप सब ने जम कर रेटिंग दी. वाह मोगेम्बो खुश हुआ...:) उम्मीद है आज भी ये सिलसिला जारी रहेगा...


अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, August 2, 2009

तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में....देव साहब ने पुकारा अपने प्यार को और रफी साहब ने स्वर दिए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 159

'दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' की नौवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। यूं तो अभिनेता देव आनंद के लिए ज़्यादातर गानें किशोर कुमार ने गाये हैं, लेकिन समय समय पर कुछ संगीतकारों ने ऐसे गीत बनाये हैं जिनके साथ केवल रफ़ी साहब ही उचित न्याय कर सकते थे। इस तरह से देव आनंद साहब पर भी कुछ ऐसे बेहतरीन गानें फ़िल्माये गये हैं जिनमें आवाज़ रफ़ी साहब की है। अगर संगीतकारों की बात करें तो सचिन देव बर्मन एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होने देव साहब के लिए रफ़ी साहब की आवाज़ का बहुत ही सफल इस्तेमाल किया। फ़िल्म 'गैम्बलर' के ज़्यादातर गानें किशोर दा के होते हुए भी बर्मन दादा ने एक ऐसा गीत बनाया जो उन्होने रफ़ी साहब से गवाया। याद है न आप को वह गीत? जी हाँ, "मेरा मन तेरा प्यासा"। अजी साहब, प्यासे तो हम हैं रफ़ी साहब के गीतों के, जिन्हे सुनते हुए वक्त कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता और ना ही उनके गीतों को सुनने की प्यास कभी कम होती है। ख़ैर, देव आनंद पर फ़िल्माये, सचिन देव बर्मन की धुनों पर रफ़ी साहब के गीतों की बात करें तो जो मशहूर फ़िल्में हमारे जेहन में आती हैं, वो हैं 'बम्बई का बाबू', 'काला पानी', 'काला बाज़ार', 'जुवल थीफ़', 'नौ दो ग्यारह', 'तेरे घर के सामने', वगेरह। आज देव आनंद पर फ़िल्माया हुआ रफ़ी साहब के जिस गीत को हम ने चुना है वह है 'तेरे घर के सामने' फ़िल्म से "तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में, माने ना मेरा दिल दीवाना"।

देव आनंद निर्मित एवं विजय आनंद निर्देशित फ़िल्म 'तेरे घर के सामने' बनी थी सन् १९६३ में। नूतन इस फ़िल्म की नायिका थीं। राहुल देव बर्मन ने अपने पिता को ऐसिस्ट किया था इस फ़िल्म के गीत संगीत में। इस फ़िल्म के सभी गानें बेहद सफल रहे और यह फ़िल्म बर्मन दादा के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण पड़ाव बन गया। "एक घर बनाउँगा तेरे घर के सामने", "देखो रूठा न करो बात नज़रों की सुनो", "दिल का भँवर करे पुकार प्यार का राग सुनो", तथा प्रस्तुत गीत आज भी पूरे चाव से सुने जाते हैं। मजरूह सुल्तानपुरी ने ये सारे गानें लिखे थे। "तू कहाँ ये बता" एक बड़ा ही रुमानीयत और नशे से भरा गाना है जिसे रफ़ी साहब ने जिस नशीले अंदाज़ मे गाया है कि इसका मज़ा कई गुना ज़्यादा बढ़ गया है। इस गीत की एक और खासियत है इस गीत में इस्तेमाल हुए तबले का। दोस्तों, यह तो मैं पता नहीं कर पाया कि इस गीत में तबला किसने बजाया था, लेकिन जिन्होने भी बजाया है, क्या ख़ूब बजाया है, वाह! अगर आप ने कभी ग़ौर किया होगा तो पार्श्व में बज रहे तबले की थापें आप के मन को प्रसन्नता से भर देती हैं। नशीली रात में देव आनंद पर फ़िल्माये हुए इस गीत में मजरूह साहब ने क्या ख़ूब लिखा है कि "आयी जब ठंडी हवा, मैने पूछा जो पता, वो भी कतरा के गयी, और बेचैन किया, प्यार से तू मुझे दे सदा"। गीत के बोल सीधे सरल शब्दों में होते हुए भी दिल को छू जाते हैं। तो दोस्तों, सदाबहार नायक देव आनंद और सदाबहार गायक मोहम्मद रफ़ी साहब के नाम हो रही है आज की यह नशीली शाम, सुनिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. रफी साहब का एक और प्रेम गीत.
2. कलाकार हैं -काका बाबू यानी "राजेश खन्ना".
3. पूरे गीत में नायिका की दो खूबियों का जिक्र है, एक "ऑंखें" और दूसरी...

कौन सा है आपकी पसदं का गीत -
अगले रविवार सुबह की कॉफी के लिए लिख भेजिए (कम से कम ५० शब्दों में ) अपनी पसंद को कोई देशभक्ति गीत और उस ख़ास गीत से जुडी अपनी कोई याद का ब्यौरा. हम आपकी पसंद के गीत आपके संस्मरण के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगें.


पिछली पहेली का परिणाम -

दिशा जी ६ अंकों के साथ आप पराग के स्कोर के करीब बढ़ रही हैं. दिलीप जी खूब भावुक होईये आपकी हर टिपण्णी आलेख जितनी ही रोचक होता है श्रोताओं के लिए. अर्श जी शायद पहली बार आये कल आपका भी स्वागत. शरद जी और स्वप्न जी निराश न होयें २०० एपिसोड के बाद जब पहेली को थोडा सा रूप बदला जायेगा तब आप फिर से जारी रख पायेंगें अपना संग्राम.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (११)



नोट - आज से रविवार सुबह की कॉफी में आपकी होस्ट होंगी - दीपाली तिवारी "दिशा"

रविवार सुबह की कॉफी का एक और नया अंक लेकर आज हम उपस्तिथ हुए हैं. वैसे तो मन था कि आपकी पसंद के रक्षा बंधन गीत और उनसे जुडी आपकी यादों को ही आज के अंक में संगृहीत करें पर पिछले सप्ताह हुई एक दुखद घटना ने हमें मजबूर किया कि हम शुरुआत करें उस दिवंगत अभिनेत्री की कुछ बातें आपके साथ बांटकर.

फिल्म जगत में अपने अभिनय और सौन्दर्य का जादू बिखेर एक मुकाम बनाने वाली अभिनेत्री लीला नायडू को कौन नहीं जानता. उनका फिल्मी सफर बहुत लम्बा तो नहीं था लेकिन उनके अभिनय की धार को "गागर में सागर" की तरह सराहा गया. लीला नायडू ने सन १९५४ में फेमिना मिस इंडिया का खिताब जीता था और "वोग" मैग्जीन ने उन्हें विश्व की सर्वश्रेष्ठ दस सुन्दरियों में स्थान दिया था.

लीला नायडू ने अपना फिल्मी सफर मशहूर फिल्मकार ह्रशिकेश मुखर्जी की फिल्म "अनुराधा" से शुरु किया. इस फिल्म में उन्होंने अभिनेता बलराज साहनी की पत्नि की भूमिका निभायी थी. अनुराधा फिल्म के द्वारा लीला नायडू के अभिनय को सराहा गया और फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिये राष्ट्रीय पुरुस्कार भी मिला. अपने छोटे से फिल्मी सफर में लीला नायडू ने उम्मींद, ये रास्ते हैं प्यार के, द गुरु, बागी और त्रिकाल जैसी फिल्मों में अभिनय किया. सन १९६३ में प्रदर्शित फिल्म "ये रास्ते हैं प्यार के" ने लीला नायडू को एक अलग पहचान दी. इस फिल्म में अभिनय के बाद वो नारी स्वतंत्रता की प्रतीक बन गयीं. सन १९६३ में ही उन्होंने आइवरी प्रोडक्शन की फिल्म "हाउसहोल्डर" में भी काम किया.

उनके व्यक्तिगत जीवन पर नजर डालें तो कहा जाता है कि वह अपने निजी जीवन में भी उन्मुक्त विचारों की थी. उनके पिता रमैया नायडू आन्ध्रप्रदेश के थे और न्यूक्लियर विभाग में फिजिसिस्ट थे. उनकी माँ फ्रांसिसी मूल की थीं. अपने फिल्मी कैरियर के दौरान ही लीला नायडू ने ओबेरॉय होटल के मालिक मोहन सिंह के बेटे विक्की ओबेरॉय से विवाह कर लिया. उनसे उनकी दो बेटियाँ हैं. बाद में विक्की ओबेरॉय से तलाक हो जाने के बाद लीला नायडू ने अंग्रेजी कवि डॉम मॉरेस से विवाह किया और उनके साथ लगभग दस वर्ष फ्रांस में रहीं. जब कोर्ट ने उनकी दोनों बेटियों का जिम्मा उनसे लेकर विक्की ओबेरॉय को दे दिया तो वह भारत चलीं आयीं. यहाँ लीला नायडू की मुलाकात दार्शनिक जे.कृष्णमूर्ति से हुई. उसके बाद वह आजीवन उन्हीं के साथ रहीं.

लंबे समय तक फिल्मों से दूर रहने के बाद सन १९८५ में श्याम बेनेगल की फिल्म "त्रिकाल" से उनकी बॉलीवुड में वापिसी हुई थी. इसके बाद सन १९९२ में वह निर्देशक प्रदीप कृष्ण की फिल्म "इलैक्ट्रिक मून" में नजर आयीं थीं. यह उनकी आंखिरी फिल्म थी.

कवि बिहारीलाल का एक दोहा है कि "सतसैया कए दोहरे ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगें घाव करं गंभीर" यह दोहा लीला नायडू के छोटे फिल्मी सफर पर भी लागू होता है.लीला नायडू ने छोटे फिल्मी सफर में अपने अभिनय की जो छाप छोडी़ है वो न तो बॉलीवुड भुला सकता है और न ही उनके चाहने वाले. आइये हम सभी सौन्दर्य और अभिनय की देवी को श्रद्धांजंली दें.

अब ऐसा कैसे हो सकता है कि हम आपको लीला जी पर फिमाये गए कुछ नायाब और कुछ दुर्लभ गीत ना सुनाएँ, फिल्म "अनुराधा" (इस फिल्म में बेमिसाल संगीत दिया था पंडित रवि शंकर ने ) और "ये राते हैं प्यार के", दो ऐसी फिल्में हैं जिसमें लीला जी पर फिल्माए गीतों को हम कभी नहीं भूल सकते. चलिए सुनते हैं इन्हीं दो फिल्मों से कुछ नायाब गीत -

जाने जाँ पास आओ न (सुनील दत्त, आशा भोंसले, ये रास्ते हैं प्यार के )


ये रास्ते हैं प्यार के (आशा भोंसले, शीर्षक)


आज ये मेरी जिन्दगी (आशा भोंसले, ये रास्ते हैं प्यार के)


ये खामोशियाँ (रफी- आशा, ये रास्ते हैं प्यार के, एक बेहद खूबसूरत प्रेम गीत)


सांवरे सांवरे (लता, अनुराधा)


कैसे दिन बीते (लता, अनुराधा)


और एक ये बेहद दुर्लभ सा गीत भी सुनिए -
गुनाहों का दिया हक (ये रास्ते हैं प्यार के)


रक्षा बंधन पर हमने चाहा था कि आप अपने कुछ संस्मरण बांटे पर अधिकतर श्रोता शायद इस परिस्तिथि के लिए तैयार नहीं लगे, स्वप्न जी ने कुछ लिखा तो नहीं पर अपने भाई जो अब इस दुनिया में नहीं हैं उन्हें याद करते हुए उनके सबसे पसंदीदा गीत को सुनवाने की फरमाईश की है. हमें यकीन है कि उनके आज जहाँ कहीं भी होंगे अपनी बहन की श्रद्धाजंली को ज़रूर स्वीकार करेंगें -

कोई होता जिसको अपना (किशोर कुमार, मेरे अपने)


हमलोग शुरु से ही संयुक्त परिवार में रहे. परिवार में सगे रिश्तों के अलावा ऐसे रिश्तों की भी भीड़ रही जिनसे हमारा सीधा-सीधा कोई नाता न था. यानी कि हमारा एक भरा-भरा परिवार था. हमारे यहाँ सभी तीज-त्यौहार बहुत ही विधि विधान से मनाये जाते थे. रक्षाबंधन भी इन्हीं में से एक है. मुझे आज भी याद है क मेरे ताऊजी, पापाजी तथा चाचाजी किस तरह सुबह से ही एक लम्बी पूजा में शामिल होते थे और उस दौरान नया जनेऊ पहनना आदि रस्में की जाती थीं. तरह-तरह के पकवान बनते थे. लेकिन हम बच्चे सिर्फ उनकी खुशबू से अपना काम चलाते थे क्योंकि माँ बार-बार यह कहकर टाल देती थी कि अभी पूजा खत्म नही हुई है. पूजा के बाद राखी बाँधकर खाना खाया जायेगा. उस समय तो अपने क्या दूर-दूर के रिश्तेदार भी राखी बँधवाने आते थे. आज बहुत कुछ बदल गया है. अब तो सगे भाई को भी राखी बाँधने का मौका नहीं मिलता है. खैर चलिए चलते चलते सुनते चलें रंजना भाटिया जी की पसंद का ये गीत जो इस रक्षा बंधन पर आप सब की नज़र है-

चंदा रे मेरे भैया से कहना (लता, चम्बल की कसम)


सभी भाई -बहनों के लिए ये रक्षा बंधन का पर्व मंगलमय हो इसी उम्मीद के साथ मैं दिशा आप सब से लेती हूँ इजाज़त.

प्रस्तुति - दीपाली तिवारी "दिशा"


"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

ताजा कहानी-पॉडकास्ट

ताज़ा पॉडकास्ट कवि सम्मेलन