Sunday, November 13, 2011

लल्ला लल्ला लोरी....जब सुनाने की नौबत आये तो यही लोरी बरबस होंठों पे आये



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 786/2011/226

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और नई सप्ताह के साथ हम उपस्थित हैं, मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ, आप सभी का इस सुरीले सफ़र में फिर एक बार स्वागत करते हैं। आमतौर पर बच्चों के साथ माँ के रिश्ते को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, फ़िल्मों में भी माँ और बच्चे के रिश्ते को ज़्यादा साकार किया गया है। पर कई फ़िल्में ऐसी भी बनीं जिनमें पिता-पुत्र या पिता-पुत्री के सम्बंध को पर्दे पर साकार किया गया। ऐसी कई फ़िल्मों में पिता द्वारा गाई लोरियाँ भी रखी गईं, हालाँकि संख्या में ये बहुत कम हैं। पर इन लोरियों के माध्यम से गीतकारों नें वो सब जज़्बात, वो सब मनोभाव भरें जो एक पिता के मन में होता है अपने बच्चे के लिए। ऐसी ही कुछ लाजवाब पुरुष लोरियों को लेकर इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी', जिसमें आप दस लोरियाँ सुन रहे हैं दस अलग अलग गायकों के गाये हुए। अब तक आपनें चितलकर, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ें सुनी। और ये लोरियाँ केवल पाँच अलग गायक ही नहीं, बल्कि पाँच अलग गीतकारों के लिखे और पाँच अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध किए हुए थे। ये गीतकार-संगीतकार जोड़ियाँ हैं राजेन्द्र कृष्ण - सी. रामचन्द्र, ख़ुमार बाराबंकवी - नाशाद, शक़ील - नौशाद, प्रेम धवन - रवि, और शैलेन्द्र - शंकर-जयकिशन। ५० और ६० के दशकों के बाद आज हम ७० के दशक में क़दम रखते हुए आपको सुनवाने जा रहे हैं गायक की मुकेश की गाई हुई लोरी और इसमें गीतकार-संगीतकार जोड़ी है आनन्द बक्शी - राहुल देव बर्मन। १९७७ की फ़िल्म 'मुक्ति' की यह कालजयी लोरी है "लल्ला लल्ला लोरी, दूध की कटोरी, दूध में बताशा, मुन्नी करे तमाशा"।

गायक मुकेश की आवाज़ भी बहुत ही कोमल है और लोरियों के लिए तो बिल्कुल पर्फ़ेक्ट। उनकी गाई फ़िल्म 'मिलन' की लोरी "राम करे ऐसा हो जाए, मेरी निन्दिया तोहे मिल जाए" हम जितनी भी बार सुनें एक अद्भुत अनुभव होता है। इसी तरह से 'मुक्ति' की यह लोरी भी अपने ज़माने का हिट गीत रहा है। शशि कपूर पर ज़्यादातर किशोर कुमार और रफ़ी साहब की आवाज़ ही सजी है, पर कई फ़िल्मों में मुकेश नें उनका पार्श्वगायन किया है जैसे कि 'मुक्ति', 'दिल ने पुकारा', 'माइ लव' आदि। 'मुक्ति' फ़िल्म की तमाम जानकारियाँ हमनें उस अंक में दिया था जिसमें हमनें मुकेश का ही गाया "सुहानी चाँदनी रातें हमें सोने नहीं देती" गीत सुनवाया था। आज बस इस लोरी की बात करते हैं। इस लोरी के भी दो संस्करण है; मुकेश वाले संसकरण का मिज़ाज हँसमुख है जिसमें पिता अपनी पुत्री को प्यार करते हुए यह लोरी गाते हैं, जबकि लता जी वाला संस्करण सैड वर्ज़न है। पिता के बिछड़ जाने के बाद जब बच्चा अपनी माँ से पापा कब आयेंगे पूछता है, तो उसे सम्भालते हुए, सुलाते हुए माँ उसी लोरी को गाती हैं, पर "मुन्नी करे तमाशा" के जगह पर बोल हो जाते हैं "जीवन खेल तमाशा"। दोनों ही संस्करण अपने आप में उत्कृष्ट है। क्योंकि इस शृंखला में हम गायकों की गाई लोरियाँ बजा रहे हैं, इसलिए लता जी वाला संस्करण हम फिर कभी सुनवाने की कोशिश करेंगे अगर सम्भव हो सका तो। आइए मुकेश की कोमल आवाज़ में सुनें यह लोरी।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
मूलत: एक हास्य अभिनेता पर फ़िल्माई यह लोरी है, जो इस फ़िल्म के नायक भी हैं, पर यह फ़िल्म हास्य फ़िल्म नहीं बल्कि एक मर्मस्पर्शी फ़िल्म है। जिस बच्चे के लिए यह लोरी गाई जा रही है, उसका फ़िल्म में नाम है 'हिन्दुस्तान'। बताइए किस फ़िल्म के लोरी की बात हो रही है?

पिछले अंक में
अमित जी सवाल तो पढ़िए ध्यान से

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

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2 श्रोताओं का कहना है :

Amit का कहना है कि -

MEHMOOD - Aa Ri Aa Ja Nindiya Tu Le - Film: KUNWARA BAAP 1974

इन्दु पुरी का कहना है कि -

यह फिल्म मैंने देखि थी.बड़ी मार्मिक फिल्म थी यह.इस फिल्म मे शिशुओं को पल्स पोलियो ड्रॉप पिलाने का सन्देश दिया गया था किसमय पर दो बूँद इस दवा को न पिलाने से किस तरह एक बच्चा हमेशा के लिए विकलांग हो सकता है और उसका जीवन कितना कष्टमय हो जाता है.कम से कम मुझे यह बात उस समय भी बहुत अच्छी लगी थी और आज भी लगती है.टीचर बनने के बाद भी मैं इस बात को कभी नही भूली.और कभी भी एक भी बच्चे को इस दवा से वंचित नही रहने दिया.ड्यूटी तीन दिन के लिए लगती थी किन्तु किसी एक बच्चे के उस घर मे न मिलने पर मैंने कई कई चक्कर लगाए और कन्फर्म हो जाने पर ही कि बच्चे ने दवा पी ली है तभी शांत बैठी.
मैं यह पाप अपने सिर नही लेना चाहती थी कि जिसे यूँही छोड़ दिया वही बच्चा इस बीमारी का शिकार हो गया.
पहली बार किन्नरों पर फिल्माया गाना भी उन लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ 'सज रही मेरी माँ सुनहरी गोते मे; जिसकी अंतिम पंक्तियाँ किन्नरों के एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही धड़कते दिल उसमे बसी संवेदनाओं को उजागर कर रहा था.फिल्म सुजाता और इस फिल्म ने मुझे समाज से बहिष्कृत,अपने अनकिये की सजा भुगतते इन बच्चो के लिए बहुत भावुक कर दिया और........मैंने अपना जीवन इन बच्चों को परिवार तक पहुंचाने जैसे छोटे से काम को सौंप दिया.और......संतुष्ट,बहुत खुश हूँ.

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