Saturday, October 8, 2011

मैं अकेला अपनी धुन में मगन - बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी अमित खन्ना से एक खास मुलाक़ात



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 62

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! आज के इस शनिवार विशेषांक में हम आपकी भेंट करवाने जा रहे हैं एक ऐसे शख़्स से जो बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। एक गीतकार, फ़िल्म-निर्माता, निर्देशक, टी.वी प्रोग्राम प्रोड्युसर होने के साथ साथ इन दिनों वो रिलायन्स एन्टरटेनमेण्ट के चेयरमैन भी हैं। तो आइए मिलते हैं श्री अमित खन्ना से, दो अंकों की इस शृंखला में, जिसका नाम है 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन'। आज प्रस्तुत है इसका पहला भाग।

सुजॉय - अमित जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। और बहुत बहुत शुक्रिया हमारे मंच पर पधारने के लिये, हमें अपना मूल्यवान समय देने के लिए।

अमित जी - नमस्कार और धन्यवाद जो मुझे आपने याद किया!

सुजॉय - सच पूछिये अमित जी तो मैं थोड़ा सा संशय में था कि आप मुझे कॉल करेंगे या नहीं, आपको याद रहेगा या नहीं।

अमित जी - मैं कभी कुछ भूलता नहीं।

सुजॉय - मैं अपने पाठकों को यह बताना चाहूँगा कि मेरी अमित जी से फ़ेसबूक पर मुलाकात होने पर जब मैंने उनसे साक्षात्कार के लिए आग्रह किया तो वो न केवल बिना कुछ पूछे राज़ी हो गये, बल्कि यह कहा कि वो ख़ुद मुझे टेलीफ़ोन करेंगे। यह बात है ३ जून की और साक्षात्कार का समय ठीक हुआ ११ जून १२:३० बजे। इस दौरान मेरी उनसे कोई बात नहीं हुई, न ही किसी तरह का कोई सम्पर्क हुआ। इसलिये मुझे लगा कि शायद अमित जी भूल जायेंगे और कहाँ इतने व्यस्त इन्सान को याद रहेगा मुझे फ़ोन करना! लेकिन ११ जून ठीक १२:३० बजे उन्होंने वादे के मुताबिक़ मुझे कॉल कर मुझे चौंका दिया। इतने व्यस्त होते हुए भी उन्होंने समय निकाला, इसके लिए हम उन्हें जितना भी धन्यवाद दें कम है। एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि फलदार पेड़ हमेशा झुके हुए होते हैं। सच कहूँ कि उनका फ़ोन आते ही अमित जी का लिखा वह गीत मुझे याद आ गया कि "आप कहें और हम न आयें, ऐसे तो हालात नहीं"। एकदम से मुझे ऐसा लगा कि जैसे यह गीत उन्हीं पर लागू हो गया हो। तो आइए बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने से पहले फ़िल्म 'देस-परदेस' के इसी गीत का आनंद ले लिया जाये!

गीत - आप कहें और हम न आयें (देस परदेस)


सुजॉय - अमित जी, आपकी पैदाइश कहाँ की है? अपने माता-पिता और पारिवारिक पार्श्व के बारे में कुछ बताइये। क्या कला, संस्कृति या फ़िल्म लाइन से आप से पहले आपके परिवार का कोई सदस्य जुड़ा हुआ था?

अमित जी - मेरा ताल्लुख़ दिल्ली से है। मेहली रोड पर हमारा घर है। मेरा स्कूल था सेण्ट. कोलम्बा'स और कॉलेज था सेण्ट. स्टीवेन्स। हमारे घर में कला-संस्कृति से किसी का दूर दूर तक कोई सम्बंध नहीं था। हमारे घर में सब इंजिनीयर थे, और नाना के तरफ़ सारे डॉक्टर थे।

सुजॉय - तो फिर आप पर भी दबाव डाला गया होगा इंजिनीयर या डॉक्टर बनने के लिये?

अमित जी - जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी, मुझे पूरी छूट थी कि जो मैं करना चाहूँ, जो मैं बनना चाहूँ, वह बनूँ। मेरा रुझान लिखने की तरफ़ था, इसलिए किसी ने मुझे मजबूर नहीं किया।

सुजॉय - यह बहुत अच्छी बात है, और आजकल के माता-पिता जो अपने बच्चों पर इंजिनीयर या डॉक्टर बनने के लिये दबाव डालते हैं, और कई बार इसके विपरीत परिणाम भी उन्हें भुगतने पड़ते हैं, उनके लिये यह कहना ज़रूरी है कि बच्चा जो बनना चाहे, उसकी रुझान जिस फ़ील्ड में है, उसे उसी तरफ़ प्रोत्साहित करनी चाहिए।

अमित जी - सही बात है!

सुजॉय - अच्छा अमित जी, बाल्यकाल में या स्कूल-कॉलेज के दिनों में आप किस तरह के सपने देखा करते थे अपने करीयर को लेकर? वो दिन किस तरह के हुआ करते थे? अपने बचपन और कॉलेज के ज़माने के बारे में कुछ बताइए।

अमित जी - मैं जब १४-१५ साल का था, तब मैंने अपना पहला नाटक लिखा था। फिर कविताएँ लिखने लगा, और तीनों भाषाओं में - हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी। फिर उसके बाद थिएटर से भी जुड़ा जहाँ पर मुझे करंथ, बी. एम. शाह, ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला। वो सब NSD से ताल्लुख़ रखते थे।

सुजॉय - आपने भी NSD में कोर्स किया था?

अमित जी - नहीं, मैंने कोई कोर्स नहीं किया।

सुजॉय - आपनें फिर किस विषय में पढ़ाई की।

अमित जी - मैंने इंगलिश लिटरेचर में एम.ए किया है।

सुजॉय - फिर आपनें अपना करीयर किस तरह से शुरू किया?

अमित जी - कॉलेज में रहते समय मैं 'टेम्पस' नामक लातिन पत्रिका का सम्पादक था, १९६९ से १९७१ के दौरान। दिल्ली यूनिवर्सिटी में 'डीबेट ऐण्ड ड्रामाटिक सोसायटी' का सचीव भी था। समाचार पत्रिकाओं में भी फ़िल्म-संबंधी लेख लिखता था। कॉलेज में रहते ही मेरी मुलाक़ात हुई देव (आनंद) साहब से, जो उन दिनों दिल्ली में अपने 'नवकेतन' का एक डिस्ट्रिब्युशन ऑफ़िस खोलना चाहते थे। तो मुझे उन्होंने कहा कि तुम भी कभी कभी चक्कर मार लिया करो। इस तरह से मैं उनसे जुड़ा और उस वक़्त 'हरे रामा हरे कृष्णा' बन रही थी। मुझे उस फ़िल्म के स्क्रिप्ट में काम करने का उन्होंने मौका दिया और मुझे उस सिलसिले में वो नेपाल भी लेकर गए। मुझे कोई स्ट्रगल नहीं करना पड़ा। यश जोहर नवकेतन छोड़ गये थे और मैं आ गया।

गीत - होठों पे गीत जागे, मन कहीं दूर भागे (मनपसंद)


सुजॉय - अच्छा, फिर उसके बाद आपनें उनकी किन किन फ़िल्मों में काम किया?

अमित जी - 'नवकेतन' में मेरा रोल था 'एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर' का। १९७१ में देव साहब से जुड़ने के बाद 'हीरा-पन्ना' (१९७३), 'शरीफ़ बदमाश' (१९७३), 'इश्क़ इश्क़ इश्क़' (१९७४), 'देस परदेस' (१९७८), 'लूटमार' (१९८०), इन फ़िल्मों में मैं 'एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर' था। 'जानेमन' (१९७६) और 'बुलेट' (१९७६) में मैं बिज़नेस एग्ज़ेक्युटिव और प्रोडक्शन कन्ट्रोलर था।

सुजॉय - एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर से प्रोड्युसर आप कब बनें?

अमित जी - फ़िल्म 'मन-पसंद' से। १९८० की यह फ़िल्म थी, इसके गीत भी मैंने ही लिखे थे। फ़िल्म के डिरेक्टर थे बासु चटर्जी और म्युज़िक डिरेक्टर थे राजेश रोशन।

सुजॉय - वाह! इस फ़िल्म के गीत तो बहुत ही कर्णप्रिय हैं। "होठों पे गीत जागे, मन कहीं दूर भागे", "चारु चंद्र की चंचल चितवन", "मैं अकेला अपनी धुन में मगन", एक से एक लाजवाब गीत। अच्छा राजेश रोशन के साथ आपनें बहुत काम किया है, उनसे मुलाक़ात कैसे हुई थी?

अमित जी - राजेश रोशन के परिवार को मैं जानता था, राकेश रोशन से पहले मिल चुका था, इस तरह से उनके साथ जान-पहचान थी।

सुजॉय - एक राजेश रोशन, और दूसरे संगीतकार जिनके साथ आपनें अच्छी पारी खेली, वो थे बप्पी लाहिड़ी साहब। उनसे कैसे मिले?

अमित जी - इन दोनों के साथ मैंने कुछ २०-२२ फ़िल्मों में काम किये होंगे। मेरा पहला गीत जो है 'चलते चलते' का शीर्षक गीत, वह मैंने बप्पी लाहिड़ी के लिए लिखा था। उन दिनों वो नये नये आये थे और हमारे ऑफ़िस में आया करते थे। मैं उनको प्रोड्युसर भीषम कोहली के पास लेकर गया था। तो वहाँ पर उनसे कहा गया कि फ़िल्म के टाइटल सॉंग के लिये कोई धुन तैयार करके बतायें। केवल १५ मिनट के अंदर धुन भी बनी और मैंने बोल भी लिखे।

सुजॉय - वाह! केवल १५ मिनट में यह कल्ट सॉंग्‍ आपनें लिख दिया, यह तो सच में आश्चर्य की बात है!

अमित जी - देखिये, मेरा गीत लिखने का तरीका बड़ा स्पॉन्टेनीयस हुआ करता था। मैं वहीं ऑफ़िस में ही लिखता था, घर में लाकर लिखने की आदत नहीं थी। फ़िल्म में गीत लिखना एक प्रोफ़ेशनल काम है; जो लोग ऐसा कहते हैं कि उन्हें घर पर बैठे या प्रकृति में बैठ कर लिखने की आदत है तो यह सही बात नहीं है। फ़िल्मी गीत लिखना कोई काविता या शायरी लिखना नहीं है। आज लोग कहते हैं कि आज धुन पहले बनती है, बोल बाद में लिखे जाते हैं, लेकिन मैं यह कहना चाहूँगा कि उस ज़माने में भी धुन पहले बनती थी, बोल बाद में लिखे जाते थे, 'प्यासा' में भी ऐसा ही हुआ था, 'देवदास' में भी ऐसा ही हुआ था।

सुजॉय - किशोर कुमार के गाये 'चलते चलते' फ़िल्म का शीर्षक गीत "कभी अलविदा ना कहना" तो जैसे एक ऐन्थेम सॉंग् बन गया है। आज भी यह गीत उतना ही लोकप्रिय है जितना उस ज़माने में था, और अब भी हम जब इस गीत को सुनते हैं तो एक सिहरन सी होती है तन-मन में। "हम लौट आयेंगे, तुम युंही बुलाते रहना" सुन कर तो आँखें बिना भरे नहीं रह पातीं। और अब तो एक फ़िल्म भी बन गई है 'कभी अलविदा ना कहना' के शीर्षक से। चलिए, आज इस गीत की याद एक बार फिर से ताज़ा की जाये।

गीत - चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना (चलते चलते)


तो दोस्तों, ये था गीतकार और फ़िल्म व टेलीविज़न प्रोड्युसर अमित खन्ना से बातचीत पर आधारित शृंखला 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन' का पहला भाग। अगले हफ़्ते इस बातचीत का दूसरा व अंतिम भाग ज़रूर पढियेगा इसी मंच पर। आज इजाज़त दीजिए, नमस्कार!

(जारी)

अनुराग शर्मा की कहानी "अग्नि समर्पण"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की मार्मिक कहानी "छोटे मियाँ" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "अग्नि समर्पण", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "अग्नि समर्पण" का कुल प्रसारण समय 3 मिनट 44 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

शक्ति के बिना धैर्य ऐसे ही है जैसे बिना बत्ती के मोम।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"कविता ने कहा - न बाबा न, दूर से ही सिगरेट की बास आती है - बात दिल को लग गयी। तुरंत छोड़ दी।"
(अनुराग शर्मा की "अग्नि समर्पण" से एक अंश)


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#148th Story, Agni Samarpan: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/29. Voice: Anurag Sharma

Ati Kya Khandala story by Anurag Sharma



अनुराग शर्मा की कहानी "आती क्या खंडाला"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की मार्मिक कहानी "छोटे मियाँ" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "आती क्या खंडाला", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "आती क्या खंडाला" का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 53 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

शक्ति के बिना धैर्य ऐसे ही है जैसे बिना बत्ती के मोम।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"उम्र पूछी तो राजा ने मेरी ओर देखा। मैंने जवाब दिया तो रिसेप्शनिस्ट मुस्कराई, "द यंगेस्ट मैन इन द कम्युनिटी।"
(अनुराग शर्मा की "आती क्या खंडाला" से एक अंश)


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#148th Story, Ati Kya Khandala: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/29. Voice: Anurag Sharma

Thursday, October 6, 2011

निंदिया से जागी बहार....और लता जी के पावन स्वरों से जागा संसार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 760/2011/200

मस्कार दोस्तों!! आज हम आ पहुंचे हैं लता जी पर आधारित श्रृंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ की अंतिम कड़ी पर. लता जी ने हजारों गाने गाये और उनमें से १० गाने चुन कर प्रस्तुत करना बड़ा ही मुश्किल है. मजे की बात तो यह है कि हमने आपने ये सारे गाने कई बार सुने हैं पर हमेशा इन गानों में ताजगी झलकती है. आप इन गानों को सुन कर बोर नहीं हो सकते.

बेमिसाल और सर्वदा शीर्ष पर रहने के बावजूद लता ने बेहतरीन गायन के लिए रियाज़ के नियम का हमेशा पालन किया, उनके साथ काम करने वाले हर संगीतकार ने यही कहा कि वे गाने में चार चाँद लगाने के लिए हमेशा कड़ी मेहनत करती रहीं.

लता जी के लिए संगीत केवल व्यवसाय नहीं है. उनकी जीवन शैली में ही एक प्रकार का संगीत है. लता जी ने अपना संपूर्ण जीवन संगीत को समर्पित कर दिया. संगीत ही उनके जीवन की सबसे बडी़ पूंजी है. आज के युग में जब संगीत के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता परोसी जा रही है और लोकप्रियता के लिए गायक हर परिस्थिति से समझौता करने को तैयार है, हमारे लिए लता जी एक प्रेरणा-ज्योति की तरह हैं जो संगीत के अंधकारपूर्ण भविष्य को देदीप्यमान कर सकती हैं. लता जी को अनेकानेक सांगीतिक उपलब्धियों के लिए असंख्य पुरस्कारों से नवाज़ा गया. लेकिन उन्होंने कभी पुरस्कारों को अपनी मंज़िल नहीं समझा. लता को सबसे बड़ा अवार्ड तो यही मिला है कि अपने करोड़ों प्रशंसकों के बीच उनका दर्जा एक पूजनीय हस्ती का है, वैसे फ़िल्म जगत का सबसे बड़ा सम्मान दादा साहब फ़ाल्के अवार्ड और देश का सबसे बड़ा सम्मान 'भारत रत्न' लता मंगेशकर को मिल चुका है.

इतनी अधिक ख्याति अर्जित कर लेने के उपरांत भी लता जी को घमंड तो छू तक नहीं गया है। नम्रता और सदाशयता आपके व्यवहार में सदा से रही हैं।

कुछ और बातें उनके बारे में:

सन 1974 में दुनिया में सबसे अधिक गीत गाने का गिनीज़ बुक रिकॉर्ड लता जी के नाम हुआ.
लता मंगेशकर ने 'आनंद गान बैनर' तले फ़िल्मों का निर्माण भी किया है और संगीत भी दिया है।

लता मंगेशकर जी अभी भी रिकॉर्डिंग के लिये जाने से पहले कमरे के बाहर अपनी चप्पलें उतारती हैं और वह हमेशा नंगे पाँव गाना गाती हैं।

लता जी का एक और पसंदीदा गाना है. ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’. जब भी लता जी इस गाने को गाती थीं (विशेषतया स्टेज शो के दौरान) तो उनके अनुसार उनके अन्दर कुछ...कुछ अजीब सा होता था. वो जैसे किसी ध्यानावस्था में चली जाती हैं और सिर्फ़ मानसिक रूप से ही नहीं ...बदन में झुरझुरी सी होती है.

उन्होंने यह भी कहा कि जिस दिन मुझे यह अहसास होना बंद हो जायेगा मैं इस गाने को गाना बंद कर दूँगी.

एक रेडियो इंटरव्यू में लता जी से पूछा गया था "अगर आपको फिर से जीवन जीने का मौका मिले, और साथ में किस तरह का जीवन जीना है वह भी चुनने की आजादी मिले तो क्या आप फिर से यही जीवन जीना चाहेंगी? जबकी आपने अपने जीवन की शुरूआत में बहुत संघर्ष करा है."

उनका जवाब तुरंत आया, "आपसे किसने कह दिया कि मैं फिर से लता मंगेशकर बनना चाहती हूँ? मैं एक सामान्य व्यक्ति बन कर जीना चाहूंगी."


इस कड़ी का समापन करना चाहूँगा इस असामान्य व्यक्तित्व को हम सबकी और से शुभकामनाएँ देते हुए. आप और भी गाने गाएं और हम सबका मन मोहती रहें और संगीत को और ऊँचाइयों पर पहुंचाए. इस कड़ी का अंतिम गाना है सन १९८३ में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘हीरो’ का. इस गाने के बोल लिखे थे ‘आनंद बक्शी’ ने और संगीत दिया था ‘लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल’ ने.

फिर मिलूँगा किसी और श्रृंखला में आप सब के साथ कुछ नया लेकर. आज्ञा दीजिए. नमस्कार.



आज पहली को विश्राम देकर हमें ये बताएं आपके जीवन में लता जी की आवाज़ और उनके गाये गीतों की क्या अहमियत है ?

पिछली पहेली का परिणाम-
इस शृंखला में में क्षिति जी विजियी हुई हैं, बधाई आपको

खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, October 5, 2011

मिला है किसी का झुमका....नटखट बोल शैलेन्द्र के और चहकती आवाज़ लता की



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 758/2011/198

‘आवाज’ के सभी पाठकों और श्रोताओं को अमित तिवारी का नमस्कार. लता जी का कायल हर संगीतकार था. मदन मोहन ने एक बार कहा था कि मैं इतनी मुश्किल धुनें बनाता हूँ कि लता के सिवा कोई और इन्हें नहीं गा सकता.

एक बार फिल्म उद्योग के साजिंदों की हड़ताल हुई थी तब संगीतकारों की मीटिंग में सचिन देव बर्मन कई बार पूछ चुके थे कि "भाई लोता गायेगा न?" साथी संगीतकार कहते "हाँ दादा", तो दादा यह कह कर फिर चुप हो जाते, "तो फिर हम ‘सेफ’ हैं."

लता जी की एक सबसे बड़ी खासियत है उनका दृढ निश्चय. कुछ लोग उन्हें इसके लिए अक्खड़ मानते हैं. उनके सिद्धांतों से उन्हें कोई नहीं डिगा सकता. उन्होंने पहले से ही तय कर रखा था कि फूहड़ व अश्लील शब्दों के प्रयोग वाले गीत वे नहीं गाएंगी.

राजकपूर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘संगम’ का गीत ‘मैं क्या करूं राम मुझे बुढ्ढा मिल गया’, जैसे गाने को वे आज भी अपनी भारी भूल मानती हैं. उन्होंने अपने कॅरियर में केवल तीन कैबरे गीत गाए. ये तीन कैबरे गीत थे ‘मेरा नाम रीटा क्रिस्टीना’ (फिल्म-अप्रैल फूल, 1964), ‘मेरा नाम है जमीला’-( फिल्म-नाइट इन लंदन, 1967) एवं ‘आ जाने जां’-(फिल्म-इंतकाम, 1969).

वैसे यह लता जी की ही आवाज का कमाल था कि उनके गाये गानों की वजह से कई दूसरे दर्जे की फिल्में भी चल गयीं.

लता जी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी उतरीं. उन्होंने एक मराठी फिल्म बादल (1953), और तीन हिंदी फिल्मों, झांझर (1953, सहनिर्माता सी. रामचन्द्र), कंचन (1955), लेकिन (1989) का निर्माण किया.

सन १९६० एक फिल्म आयी थी ‘परख’. इस फिल्म का निर्देशन किया था बिमल रॉय ने. इसमें गाँव की गोरी की भूमिका में नायिका साधना के ऊपर फिल्माया गया एक आकर्षक धुन में पिरोया हुआ लता जी का गाया गीत. शैलेन्द्र की लेखनी से ये गीत निकला है और धुन बनाने के जिम्मेदार व्यक्ति हैं-सलिल चौधरी. इसमें कड़वे नीम का नाम इतनी मीठी चतुराई से लिए गया है कि वो भी मीठा सुनाई पढने लगता है. उसके अलावा गीत में आपको बकरियां अठखेलियाँ करती मिल जाएँगी. ब्लैक एंड वाईट युग की बकरियां आज की नयी फिल्मों की बालाओं से अच्छा नृत्य किया करती थी.

इस गाने के दो वर्जन आये थे. एक हिंदी में और दूसरा बांग्ला में. शैलेन्द्र द्वारा लिखे इस गाने को संगीत दिया था सलिल चौधरी ने.

बांग्ला में इसे गाया है सलिल चौधरी की पत्नी सबिता चौधरी ने. पहले इसे सुनिए -


हिंदी में इस गाने के बोल हैं:

मिला है किसी का झुमका
ठन्डे ठन्डे हरे हरे नीम तले
ओ सच्चे मोती वाला झुमका
ठन्डे ठन्डे हरे हरे नीम तले
सुनो क्या कहता है झुमका
ठन्डे ठन्डे हरे हरे नीम टेल
मिला है किसी का झुमका

प्यार का हिंडोला यहाँ झूल गए नैना
सपने जो देखे मुझे भूल गए नैना
प्यार का हिंडोला यहाँ झूल गए नैना
सपने जो देखे मुझे भूल गए नैना
हाय रे बेचारा झुमका
ठन्डे ठन्डे हरे हरे नीम टेल
हो मिला है किसी का झुमका

जीवन भर का नाता परदेसिया से जोड़ा
आप गाई पिया संग मुझे यहाँ छोड़ा
जीवन भर का नाता परदेसिया से जोड़ा
आप गई पीया संग मुझे यहाँ छोड़ा
पडा है अकेला झुमका
ठन्डे ठन्डे हरे हरे नीम तले
हो, मिला है किसी का झुमका

हाय री ये प्रीत की है रीत जाने कैसी
तन-मन हार जाने में है जीत जाने कैसी
हाय री ये प्रीत की है रीत जाने कैसी
तन-मन हार जाने में है जीत जाने कैसी
जाने ना बेचारा झुमका
ठन्डे ठन्डे हरे हरे नीम तले
हो, मिला है किसी का झुमका
ठन्डे ठन्डे हरे हरे नीम तले
मिला है किसी का झुमका


हिंदी वर्जन को गाया था लता जी ने. गाना कुछ इस तरह से है....


इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. एल पी संगीत है गीत में.
२. लता की महकती आवाज़.
३. मुखड़े में "कोयल" का जिक्र है और फिल्म की शीर्षक भूमिका में है नायक जैकी श्रोफ़.

अब बताएं -
फिल्म का नाम बताएं - ३ अंक
गीतकार बताएं - २ अंक
फिल्म की नायिका कौन हैं - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-
क्या बात है इतने आसान से गीत को भी लोह नहीं पहचान पाए :)

खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, October 4, 2011

रातों को जब नींद उड़ जाए....सलिल दा के संगीत की मासूमियत और लता



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 757/2011/197

मस्कार साथियों, लता जी अपने आप में एक ऐसी किताब हैं जिसको जितना भी पढ़ो कम ही है. गाना चाहे कैसा भी हो अगर उनकी आवाज आ जाए तो क्या कहना? गाने में शक्कर अपने आप घुल जाती है. ओ.पी.नय्यर को छोड़कर लता मंगेशकर ने हर बड़े संगीतकार के साथ काम किया, मदनमोहन की ग़ज़लें और सी रामचंद्र के भजन लोगों के मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ चुके हैं. जितना भी आप सुनें आपका मन नही भरेगा.

ओ.पी.नय्यर साहब के साथ लता जी ने कभी काम नहीं करा.एक बार लता जी ने हरीश भिमानी जी से कहा "आप शायद जानते होंगे, कि मैंने नय्यर साहब के लिए गीत क्यों नहीं गाये!". हरीश जी ने कहा कि मैंने सुना है कि बहुत पहले, नय्यर साहब के शुरुआत के दिनों में, फिल्म सेन्टर में एक रिकॉर्डिंग करते समय आप "सिंगर्स बूथ" में गा रही थीं और वह 'मिक्सर' पर रिकॉर्डिस्ट और निर्देशक के साथ थे और आपने 'इन्टरकोम' पर उन्हें कुछ अपशब्द कहते हुए सुना और वहीँ के वहीं हेडफोन्स उतार कर स्टूडियो से सीधे घर चल दीं, किसी को बताये बगैर. बस फिर उनके लिए कभी गाया ही नहीं.

"अच्छा...?" लताजी ने कुछ इस तरह से पूछा कि, "इतना ही सुना या आगे का दिलचस्प हिस्सा भी जानते हैं'?"

"हाँ, यह भी सुना था कि बाद में हालांकि आपको पता चला कि वह अपशब्द यूँ ही आदतन बोले गए थे, पर आपके अहं ने आपको उनके साथ सुलह करने की इजाजत नहीं दी."

लता जी कुछ देर शांत रहीं और फिर बोलीं, "मैंने जिंदगी में नय्यर साहब के लिए न कभी कोई गीत गाया है, न ही गाने के लिए कभी किसी स्टूडियो में गयी हूँ. इसकी वजह कुछ और थी."

१९५०-५१ में निर्माता दलसुख पंचोली ‘आसमान’ फिल्म में ओमकार प्रसाद नय्यर को प्रस्तुत कर रहे थे और लता जी से गाने के लिए हामी भरा ली थी. रिहर्सल की तारीख और समय भी तय हो गए. जिस दिन रिहर्सल थी उसी दिन लता जी की बहुत सारी रिकॉर्डिंग्स थीं और लता जी लेट हो गयीं और रिहर्सल में न जा सकीं और देर रात नय्यर साहब को फोन करना ठीक नहीं समझा. सुबह स्टूडियो चली गयी और वहीँ खो गयी. इस तरह दो-तीन दिन बीत गए.

नय्यर साहब को इसमें निरादर महसूस हुआ और उन्होंने वजह जानने की जगह पंचोली साहब से शिकायत करी. यह बात लता जी तक पहुँचते- पहुँचते विकृत रूप धारण कर चुकी थी. इसके बाद कभी व्यावसायिक सम्बन्ध बनाने की नौबत ही नहीं आयी.

वह गाना था ‘मोरी निंदिया चुराए गयो..’ जो बाद में गायिका राजकुमारी ने गाया था.

ओ.पी.नय्यर के निधन पर लता जी ने इस तरह अपनी श्रद्धांजलि दी थी, "इस फ़िल्म इंडस्ट्री में बहुत दिग्गज संगीतकार हुए हैं. ओपी नैयर का भी नाम उनमें बेशक आता है. उनको लोग कभी भूल ही नहीं सकते. मुझे लगता है जिस कलाकार का काम अच्छा होता है वो कभी ख़त्म नहीं होता है, वो हमेशा जीवित रहता है."

लता जी ने सलिल चौधरी के साथ पहला गाना जो रिकॉर्ड करा था वो फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ से था. ‘आ जा रे निंदिया तू आ’. इस गाने की विशेषता यह है कि इस गाने को बिना किसी संगीत के रिकॉर्ड करा गया था और मीना कुमारी खास तौर पर इसी गाने के आयी थीं.

तो आज का गाना है सलिल दा का संगीतबद्ध करा, फिल्म ‘मेम दीदी’ से. इस गाने के बोल लिखे थे ‘शैलेन्द्र’ ने.

रातों को जब नींद उड़ जाए घड़ी घड़ी याद कोई आए
किसी भी सूरत से बहले न दिल
तब क्या किया जाए बोलो क्या किया जाए

ये तो प्यार का रोग है रोग बुरा
जिसे एक दफ़ा ये लगा तो लगा

चंदा को देख, आग लग जाए
तनहाई में चाँदनी न भाए
ठंडी हवाओं में काँपे बदन
तब क्या किया जाए बोलो क्या किया जाये

ये तो प्यार का रोग है रोग बुरा
जिसे एक दफ़ा ये लगा तो लगा

होंठों पे एक नाम आए जाए
आँखों में एक छब मुस्काए
दर्पण में सूरत पराई दिखे
तब क्या किया जाए बोलो क्या किया जाए

ये तो प्यार का रोग है रोग बुरा
जिसे एक दफ़ा ये लगा तो लगा

सखियों के बीच दिल घबराए
डर हो कहीं बात खुल जाए
लेकिन अकेले में धड़के जिया
तब क्या किया जाए बोलो क्या किया जाये

ये तो प्यार का रोग है रोग बुरा
जिसे एक दफ़ा ये लगा तो लगा




इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. एक बार फिर शैलेन्द्र और सलिल दा की टीम है गीत के निर्माण में.
२. लता की चंचल आवाज़.
३. गीत में एक आभूषण का जिक्र है जिसके साथ उत्तर प्रदेश के शहर बरेली का नाम अक्सर आया है बहुते से गीतों में.

अब बताएं -
फिल्म का नाम बताओ - ३ अंक
किस पेड का जिक्र है मुखड़े में - २ अंक
फिल्म की नायिका कौन हैं - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह राजेंद्र भाई बहुत बधाई एकदम सही जवाब

खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, October 3, 2011

कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार.....निर्गुण भक्ति और लता



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 756/2011/196

मस्कार दोस्तों. आज हम आ पहुंचे हैं लता जी को समर्पित ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ श्रृंखला की सातवीं कड़ी पर. सबसे पहले तो ऊँचाइयों पर पहुँचाना कठिन होता है और जब उसे हासिल कर लिया जाए तब वहाँ पर मजबूती के साथ टिके रहना उससे भी कठिन होता है. और वही लता जी के साथ हुआ. वो उस मुकाम पर पहुँची और उन पर कई आरोप लगाये गए.

एक संगीन आरोप लगा ‘मोनोपोली’ का. आरोप लगा था कि लता जी के कहने पर म्यूजिक डायरेक्टर दूसरों को गाने का मौका ही नहीं देते. लता जी ही निर्णय करती हैं कि कौन म्यूजिक डायरेक्टर होगा, कितने गाने होंगे आदि आदि ...

लता जी से जब पूछा गया था तो वो नाराज होकर बोलीं कि अगर मुझे ही तय करना होता कि म्यूजिक डायरेक्टर कौन होगा तो तब तो आधी से ज्यादा फिल्मों में मेरे भाई हृदयनाथ को म्यूजिक डायरेक्टर होना चाहिए था.

इसके विपरीत कविता कृष्णमूर्ती ने एक साक्षात्कार में एक अनुभव शेअर किया था. १९८२ में कविता जी ने निर्माता राजकुमार कोहली की एक निर्माणाधीन फिल्म के लिए, बप्पी दा के संगीत निर्देशन में ‘डबिंग’ गायिका के तौर पर एक गाना गाया था, यह जानते हुए, कि बाद में यह किसी नामी गायिका द्वारा गाया जायेगा.

गाना था, ‘ओ मेरे सजना..’, यह गाना शिवरंजनी राग में था. गीत रिकॉर्ड हो गया, पैसे भी मिल गए. कुछ ३-४ महीने बाद कविता जी ने एक पत्रिका में पढ़ा कि लता जी बप्पी दा की एक रिकॉर्डिंग पर गयीं, पर ‘डबिंग आर्टिस्ट’ कविता कृष्णमूर्ति की रिकॉर्डिंग सुनने के बाद गाना ‘डब’ करने से इनकार कर दिया. कविता जी को लगा कि अब तो डबिंग आर्टिस्ट का काम भी हाथ से गया. जब पूरी खबर पढ़ी तो वो आश्चर्यचकित रह गयीं. लताजी ने पूरा गाना ध्यान से सुना और अपना निर्णय दिया कि ‘इस लड़की ने तो इतना अच्छा गाया है, फिर मुझसे क्यों गवाना चाहते हो?’
निर्माता-निर्देशक और संगीतकार ने लताजी को मनाने की कोशिश करी पर वो अपने फैसले पर अड़ी रहीं और वह गाना नहीं गाया.

१९८० में लताजी ने दक्षिण अमरीका के गयाना देश की राजधानी जोर्जटाउन में कार्यक्रम प्रस्तुत करा था. लता जी के गायन आगमन पर जोर्जटाउन में छुट्टी घोषित कर दी गयी थी और जोर्जटाउन शहर की ‘चाभी’ लता जी को दी गयी थी.

संगीतकार खय्याम ने तो एक बार सार्वजनिक रूप से कहा था कि ‘जब तक लता जी ने नियमित रूप से मेरे गीत नहीं गाये थे, मेरा संगीत उतना नहीं चला था. इसकी सबसे बड़ी मिसाल फिल्म ‘कभी कभी’ है.

इसी तरह संगीतकार मदन मोहन की पहली पसंद थीं लता मंगेशकर. मदन जी ने लता को ही प्राथमिकता दी थी अपने संगीत में. लता जी भी उन्हें "मदन भैया" कह के संबोधित करती थीं. मदन जी के एक बार कहा था "बचपन में ही मुझे एक ज्योतिषी ने बताया था कि मेरी शादी कब होगी, बच्चे कितने होंगे, ऐश्वर्य कितना और कब तक भोगूँगा. सिर्फ़ यह नहीं बताया था कि लता नाम की एक अलौकिक गायिका मेरी तर्जों में जान डाल देगी."

आप सबको हमने इस श्रंखला की दूसरी कड़ी मैं फिल्म ‘शागिर्द’ का गाना सुनवाया था. आज की पसंद है ‘इंदू पूरी गोस्वामी’ जी की. और क्या बढ़िया गाना चुना है उन्होंने. वो तो ऐसीहीच हैं. और भला क्या हम उनकी पसंद ठुकरा सकते हैं? वैसे मुझे भी बहुत पसंद है यह गाना. राग मांझ खमाज में इस गाने की रचना करी थी ‘मजरूह सुल्तानपुरी’ ने और संगीतबद्ध करा था ‘लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल' ने.
गाने के बोल हैं, 'कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार.....'.



इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. लता जी की मधुर मधुर आवाज़ है इस गीत में.
२. संगीत सलिल दा का है.
३. मुखड़े में शब्द है - 'घडी घडी".

अब बताएं -
गीतकार कौन हैं - ३ अंक
फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
फिल्म की नायिका कौन हैं - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-


खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, October 2, 2011

चंदा मामा आरे आवा...एक मधुर लोरी...अरे अरे सो मत जाईयेगा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 756/2011/196

सुरों की मल्लिका लता मंगेशकर पर आधारित श्रंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....' की छठी कड़ी में मैं अमित तिवारी आप सभी गुणी श्रोताओं और पाठकों का स्वागत करता हूँ. लता जी का पसन्दीदा वाद्य है ‘बाँसुरी'. पंडित पन्नालाल घोष की बाँसुरी के लिए उन्होंने कहा था कि 'उनकी बाँसुरी बजती ही नहीं थी, बल्कि गाती थी. फिल्म बसंत बहार के गाने ‘मैं पिया तेरी तू माने या न माने’ में दो गायिकाएं हैं, मैं और पन्नाबाबू की बाँसुरी.'

शहनाई उन्हें उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के अलावा किसी और की पसंद ही नहीं आयी.

युसूफ भाई यानी कि दिलीप कुमार से लता जी की मुलाकात बड़े ही अजीब ढंग से हुई थी. एक बार अनिल बिस्वास और लता जी ‘फिल्मिस्तान स्टूडियो’ लोकल ट्रेन से जा रहे थे. यह वो समय था जब इन सितारों के पास गाड़ियां नहीं हुआ करती थीं और ट्रेनों में भीड़ भी नहीं हुआ करती थी.

बांद्रा स्टेशन से दिलीप कुमार उसी डिब्बे में चढ़े. अनिल दा से दुआ सलाम हुआ. ये लोग आमने-सामने बैठे हुए थे तो अनिल दा ने कहा की युसूफ ये लता मंगेशकर है बहुत अच्छा गाती हैं. तो उन्होंने कहा कि कहाँ की है तो उन्होंने कहा कि मराठी है. तो युसूफ भाई ने सड़ा सा चेहरा करके कहा कि क्या है कि मराठी लोगों के बोल में थोड़ा दाल-भात की बू होती है.

लताजी को यह बात चुभ गयी और बस शुरू हो गयी उर्दू की पढ़ाई. एक मौलवी जी आने लगे जो बोलना सिखाते थे और गजलों का मतलब समझाते थे. दिमाग में वो था कि दाल-भात नहीं होना चाहिए और फिर वो कोशिश करती रही कि इस तरह से गाना गाना चाहिए. आखिरकार लता जी ने उर्दू में महारत हासिल कर ली. उन्ही लताजी को आज भी इस बात का मलाल है कि वे दिलीप कुमार को अपनी आवाज नहीं दे सकीं.

और उन्हीं लता जी ने बाद में भारत की लगभग सभी भाषाओँ में गाना गाया और कहीं पर भी ऐसा नहीं लगा कि वो उस भाषा को नहीं जानती हैं.

आज लता जी का गाया हुआ एक और बेहतरीन गाना सुनवाना चाहता हूँ. इस गाने की फरमाइश करी है मेरी अर्धांगिनी ने. उनका तर्क था कि जब ये श्रृंखला पाठकों और श्रोताओं की पसंद पर है तो उनकी पसंद का गाना भी तो बजना चाहिए. तो चलिए इस बार उनकी पसंद का गाना सुनवाते हैं.

ये एक भोजपुरी गाना है जिसे संगीतबद्ध करा था ‘चित्रगुप्त’ ने. गाने के बोल हैं ‘ए चंदा मामा आरे आवा पारे आवा’. फिल्म का नाम है ‘भौजी’ और गाने के बोल लिखे थे ‘मजरूह सुल्तानपुरी’ ने.

मैंने ये गाना करीब साल भर पहले सुना और उसके बाद तो २ दिन तक ये ही गाना सुनता रहा. जाने कितनी माँ अपने बच्चों को इस गाने की लोरी रोज सुनाती हैं.

चंदा मामा आरे आवा पारे आवा नदिया किनारे आवा ।
सोना के कटोरिया में दूध भात लै लै आवा
बबुआ के मुंहवा में घुटूं ।।
आवाहूं उतरी आवा हमारी मुंडेर, कब से पुकारिले भईल बड़ी देर ।
भईल बड़ी देर हां बाबू को लागल भूख ।
ऐ चंदा मामा ।।
मनवा हमार अब लागे कहीं ना, रहिलै देख घड़ी बाबू के बिना
एक घड़ी हमरा को लागै सौ जून ।
ऐ चंदा मामा ।।

आप भी सब अपनी आँखें बंद करके इस गाने को सुनिए और मैं दावा कर सकता हूँ कि आप इसकी मधुरता में खो जायेंगे.



इन ३ सूत्रों से पहचानिये अगला गीत -
१. लता जी की मधुर मधुर आवाज़ है इस गीत में.
२. मजरूह साहब का लिखा एक भजन है ये.
३. इस फिल्म का एक और गीत हम बजा चुके हैं इसी शृंखला में.

अब बताएं -
संगीतकार कौन हैं - ३ अंक
फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
फिल्म के नायक कौन हैं - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम-
अरे आप सब ने सुना हुआ था ये गीत ? मैंने पहली बार सुना (सजीव) बहुत ही मधुर है

खोज व आलेख- अमित तिवारी
विशेष आभार - वाणी प्रकाशन


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - इसराज की मोहक ध्वनि और पण्डित श्रीकुमार मिश्र



सुर संगम- 37 – सितार और सारंगी, दोनों के गुण हैं इन वाद्यों में
(दूसरा भाग)


पढ़ें पहला भाग

राग-रस-रंग की सुरीली महफिल ‘सुर संगम’ के एक और नये अंक में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आपका हार्दिक स्वागत है। गत सप्ताह हमने एक ऐसे लुप्तप्राय तंत्रवाद्य 'मयूरी वीणा' पर चर्चा आरम्भ की थी, जिसका चलन लगभग एक शताब्दी पूर्व समाप्त हो चुका था, किन्तु भारतीय संगीत के क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे भी संगीतकार हुए हैं, जिन्होने लुप्तप्राय वाद्यों और संगीत-शैलियों का पुनरोद्धार किया है। जाने-माने इसराज-वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र एक ऐसे ही कलासाधक हैं, जिन्होने विभिन्न संगीत-ग्रन्थों का अध्ययन कर लगभग लुप्त हो चुके तंत्रवाद्य 'मयूरी वीणा' का नव-निर्माण किया। पिछले अंक में हमने पंजाब में इस वाद्य के विकास पर आपसे चर्चा की थी। आज के अंक में हम बंगाल में वाद्य के विकास की पंडित श्रीकुमार मिश्र द्वारा दी गई जानकारी आपसे बाँटेंगे।

बंगाल के विष्णुपुर घराने के रामकेशव भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध ताऊस अर्थात मयूरी वीणा वादक थे। उन्होने भी इस वाद्य को संक्षिप्त रूप देने के लिए इसकी कुण्डी से मोर की आकृति को हटा दिया और इस नए स्वरूप का नाम 'इसराज' रखा। पंजाब का 'दिलरुबा' और बंगाल का 'इसराज' दरअसल एक ही वाद्य के दो नाम हैं। दोनों की उत्पत्ति 'मयूरी वीणा' से हुई है। इस श्रेणी के वाद्य वर्तमान सितार और सारंगी के मिश्रित रूप है। इसराज या दिलरुबा वाद्यों की उत्पत्ति के बाद ताऊस या मयूरी वीणा का चलन प्रायः बन्द हो गया था। लगभग दो शताब्दी पूर्व इसराज की उत्पत्ति के बाद अनेक ख्यातिप्राप्त इसराज-वादक हुए हैं। रामपुर के सेनिया घराने के सुप्रसिद्ध वादक उस्ताद वज़ीर खाँ कोलकाता में १८९२ से १८९९ तक रहे। इस दौरान उन्होने अमृतलाल दत्त को सुरबहार और इसराज-वादन की शिक्षा दी। उस्ताद अलाउद्दीन खाँ, जो उस्ताद वज़ीर खाँ के शिष्य थे, ने भी कोलकाता में इसराज-वादन की शिक्षा ग्रहण की थी। बंगाल के वादकों में स्वतंत्र वादन की परम्परा भी अत्यन्त लोकप्रिय थी। इसराज पर चमत्कारिक गतकारी शैली का विकास भी बंगाल में ही हुआ।

गया घराने के सूत्रधार हनुमान दास (१८३८-१९३६) कोलकाता में निवास करते थे और स्वतंत्र इसराज-वादन करते थे। हनुमान दास जी के शिष्य थे- कन्हाईलाल ठेडी, हाबू दत्त, कालिदास पाल, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, सुरेन्द्रनाथ, दिनेन्द्रनाथ, ब्रजेन्द्रकिशोर रायचौधरी, प्रकाशचन्द्र सेन, शीतल चन्द्र मुखर्जी आदि। ब्रजेन्द्रकिशोर रायचौधरी और प्रकाशचन्द्र सेन से सेनिया घराने के सितार-वादक इमदाद खाँ ने इसराज-वादन की शिक्षा ग्रहण की थी। कोलकाता में ही मुंशी भृगुनाथ लाल और इनके शिष्य शिवप्रसाद त्रिपाठी ‘गायनाचार्य’ इसराज वादन करते थे। शिवप्रसाद जी के शिष्य थे रामजी मिश्र व्यास। वर्तमान में सक्रिय इसराज-वादक और ‘मयूरी वीणा’ के वर्तमान स्वरूप के अन्वेषक पण्डित श्रीकुमार मिश्र, पं॰ रामजी मिश्र व्यास के पुत्र और शिष्य हैं। अपने पिता से दीक्षा लेने के अलावा इन्होने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातकोत्तर शिक्षा भी ग्रहण की है। ‘ताऊस अर्थात मयूरी वीणा’ से उत्पन्न ‘दिलरुबा’ तथा ‘इसराज’ वाद्य का प्रचलन पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र में अधिक रहा है। सिख समाज और रागी कीर्तन के साथ इस वाद्य का प्रचलन आज भी है। पंजाब के भाई वतन सिंह (निधन-१९६६) प्रसिद्ध दिलरुबा-वादक थे। फिल्म-संगीतकारों में रोशन और एस.डी. बातिश इस वाद्य के कुशल वादक रहे हैं।


गुजरात के नागर दास और उनके शिष्य मास्टर वाडीलाल प्रख्यात दिलरुबा-वादक थे। इनके शिष्य कनकराय त्रिवेदी ने दो उँगलियों की वादन तकनीक का प्रयोग विकसित किया था। त्रिवेदी जी ने इसी तकनीक की शिक्षा श्रीकुमार जी को भी प्रदान की है। वर्तमान में ओमप्रकाश मोहन, चतुर सिंह, और भगत सिंह दिलरुबा के और अलाउद्दीन खाँ तथा विजय चटर्जी इसराज के गुणी कलाकार हैं। श्रीकुमार मिश्र एकमात्र ऐसे कलाकार हैं, जो परम्परागत इसराज के साथ-साथ स्वविकसित ‘मयूरी वीणा’ का भी वादन करते हैं। आइए अब हम आपको सुनवाते हैं पण्डित श्रीकुमार मिश्र का बजाया इसराज पर राग मधुवन्ती। तबला संगति ठाकुर प्रसाद मिश्र ने की है। आप इस सुरीले वाद्य पर मोहक राग का आनन्द लीजिए और मुझे आज यहीं अनुमति दीजिये।

इसराज वादन : राग मधुवन्ती : कलाकार – श्रीकुमार मिश्र


अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक और शास्त्रीय अथवा लोक कलासाधक के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० अमित जी द्वारा प्रस्तुत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

संलग्न चित्र परिचय

१- इसराज वाद्य
२- तीन तन्त्रवाद्यों का अनूठा संगम (बाएँ से) श्रीकुमार मिश्र (इसराज), विनोद मिश्र (सारंगी) और भानु बनर्जी (वायलिन).
३- सुप्रसिद्ध फिल्म संगीतकार और गायक एस.डी. बातिश दिलरुबा वादन करते हुए : एक दुर्लभ चित्र.



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

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