ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 62
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! आज के इस शनिवार विशेषांक में हम आपकी भेंट करवाने जा रहे हैं एक ऐसे शख़्स से जो बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। एक गीतकार, फ़िल्म-निर्माता, निर्देशक, टी.वी प्रोग्राम प्रोड्युसर होने के साथ साथ इन दिनों वो रिलायन्स एन्टरटेनमेण्ट के चेयरमैन भी हैं। तो आइए मिलते हैं श्री अमित खन्ना से, दो अंकों की इस शृंखला में, जिसका नाम है 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन'। आज प्रस्तुत है इसका पहला भाग।
सुजॉय - अमित जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। और बहुत बहुत शुक्रिया हमारे मंच पर पधारने के लिये, हमें अपना मूल्यवान समय देने के लिए।
अमित जी - नमस्कार और धन्यवाद जो मुझे आपने याद किया!
सुजॉय - सच पूछिये अमित जी तो मैं थोड़ा सा संशय में था कि आप मुझे कॉल करेंगे या नहीं, आपको याद रहेगा या नहीं।
अमित जी - मैं कभी कुछ भूलता नहीं।
सुजॉय - मैं अपने पाठकों को यह बताना चाहूँगा कि मेरी अमित जी से फ़ेसबूक पर मुलाकात होने पर जब मैंने उनसे साक्षात्कार के लिए आग्रह किया तो वो न केवल बिना कुछ पूछे राज़ी हो गये, बल्कि यह कहा कि वो ख़ुद मुझे टेलीफ़ोन करेंगे। यह बात है ३ जून की और साक्षात्कार का समय ठीक हुआ ११ जून १२:३० बजे। इस दौरान मेरी उनसे कोई बात नहीं हुई, न ही किसी तरह का कोई सम्पर्क हुआ। इसलिये मुझे लगा कि शायद अमित जी भूल जायेंगे और कहाँ इतने व्यस्त इन्सान को याद रहेगा मुझे फ़ोन करना! लेकिन ११ जून ठीक १२:३० बजे उन्होंने वादे के मुताबिक़ मुझे कॉल कर मुझे चौंका दिया। इतने व्यस्त होते हुए भी उन्होंने समय निकाला, इसके लिए हम उन्हें जितना भी धन्यवाद दें कम है। एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि फलदार पेड़ हमेशा झुके हुए होते हैं। सच कहूँ कि उनका फ़ोन आते ही अमित जी का लिखा वह गीत मुझे याद आ गया कि "आप कहें और हम न आयें, ऐसे तो हालात नहीं"। एकदम से मुझे ऐसा लगा कि जैसे यह गीत उन्हीं पर लागू हो गया हो। तो आइए बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने से पहले फ़िल्म 'देस-परदेस' के इसी गीत का आनंद ले लिया जाये!
गीत - आप कहें और हम न आयें (देस परदेस)
सुजॉय - अमित जी, आपकी पैदाइश कहाँ की है? अपने माता-पिता और पारिवारिक पार्श्व के बारे में कुछ बताइये। क्या कला, संस्कृति या फ़िल्म लाइन से आप से पहले आपके परिवार का कोई सदस्य जुड़ा हुआ था?
अमित जी - मेरा ताल्लुख़ दिल्ली से है। मेहली रोड पर हमारा घर है। मेरा स्कूल था सेण्ट. कोलम्बा'स और कॉलेज था सेण्ट. स्टीवेन्स। हमारे घर में कला-संस्कृति से किसी का दूर दूर तक कोई सम्बंध नहीं था। हमारे घर में सब इंजिनीयर थे, और नाना के तरफ़ सारे डॉक्टर थे।
सुजॉय - तो फिर आप पर भी दबाव डाला गया होगा इंजिनीयर या डॉक्टर बनने के लिये?
अमित जी - जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी, मुझे पूरी छूट थी कि जो मैं करना चाहूँ, जो मैं बनना चाहूँ, वह बनूँ। मेरा रुझान लिखने की तरफ़ था, इसलिए किसी ने मुझे मजबूर नहीं किया।
सुजॉय - यह बहुत अच्छी बात है, और आजकल के माता-पिता जो अपने बच्चों पर इंजिनीयर या डॉक्टर बनने के लिये दबाव डालते हैं, और कई बार इसके विपरीत परिणाम भी उन्हें भुगतने पड़ते हैं, उनके लिये यह कहना ज़रूरी है कि बच्चा जो बनना चाहे, उसकी रुझान जिस फ़ील्ड में है, उसे उसी तरफ़ प्रोत्साहित करनी चाहिए।
अमित जी - सही बात है!
सुजॉय - अच्छा अमित जी, बाल्यकाल में या स्कूल-कॉलेज के दिनों में आप किस तरह के सपने देखा करते थे अपने करीयर को लेकर? वो दिन किस तरह के हुआ करते थे? अपने बचपन और कॉलेज के ज़माने के बारे में कुछ बताइए।
अमित जी - मैं जब १४-१५ साल का था, तब मैंने अपना पहला नाटक लिखा था। फिर कविताएँ लिखने लगा, और तीनों भाषाओं में - हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी। फिर उसके बाद थिएटर से भी जुड़ा जहाँ पर मुझे करंथ, बी. एम. शाह, ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला। वो सब NSD से ताल्लुख़ रखते थे।
सुजॉय - आपने भी NSD में कोर्स किया था?
अमित जी - नहीं, मैंने कोई कोर्स नहीं किया।
सुजॉय - आपनें फिर किस विषय में पढ़ाई की।
अमित जी - मैंने इंगलिश लिटरेचर में एम.ए किया है।
सुजॉय - फिर आपनें अपना करीयर किस तरह से शुरू किया?
अमित जी - कॉलेज में रहते समय मैं 'टेम्पस' नामक लातिन पत्रिका का सम्पादक था, १९६९ से १९७१ के दौरान। दिल्ली यूनिवर्सिटी में 'डीबेट ऐण्ड ड्रामाटिक सोसायटी' का सचीव भी था। समाचार पत्रिकाओं में भी फ़िल्म-संबंधी लेख लिखता था। कॉलेज में रहते ही मेरी मुलाक़ात हुई देव (आनंद) साहब से, जो उन दिनों दिल्ली में अपने 'नवकेतन' का एक डिस्ट्रिब्युशन ऑफ़िस खोलना चाहते थे। तो मुझे उन्होंने कहा कि तुम भी कभी कभी चक्कर मार लिया करो। इस तरह से मैं उनसे जुड़ा और उस वक़्त 'हरे रामा हरे कृष्णा' बन रही थी। मुझे उस फ़िल्म के स्क्रिप्ट में काम करने का उन्होंने मौका दिया और मुझे उस सिलसिले में वो नेपाल भी लेकर गए। मुझे कोई स्ट्रगल नहीं करना पड़ा। यश जोहर नवकेतन छोड़ गये थे और मैं आ गया।
गीत - होठों पे गीत जागे, मन कहीं दूर भागे (मनपसंद)
सुजॉय - अच्छा, फिर उसके बाद आपनें उनकी किन किन फ़िल्मों में काम किया?
अमित जी - 'नवकेतन' में मेरा रोल था 'एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर' का। १९७१ में देव साहब से जुड़ने के बाद 'हीरा-पन्ना' (१९७३), 'शरीफ़ बदमाश' (१९७३), 'इश्क़ इश्क़ इश्क़' (१९७४), 'देस परदेस' (१९७८), 'लूटमार' (१९८०), इन फ़िल्मों में मैं 'एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर' था। 'जानेमन' (१९७६) और 'बुलेट' (१९७६) में मैं बिज़नेस एग्ज़ेक्युटिव और प्रोडक्शन कन्ट्रोलर था।
सुजॉय - एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्युसर से प्रोड्युसर आप कब बनें?
अमित जी - फ़िल्म 'मन-पसंद' से। १९८० की यह फ़िल्म थी, इसके गीत भी मैंने ही लिखे थे। फ़िल्म के डिरेक्टर थे बासु चटर्जी और म्युज़िक डिरेक्टर थे राजेश रोशन।
सुजॉय - वाह! इस फ़िल्म के गीत तो बहुत ही कर्णप्रिय हैं। "होठों पे गीत जागे, मन कहीं दूर भागे", "चारु चंद्र की चंचल चितवन", "मैं अकेला अपनी धुन में मगन", एक से एक लाजवाब गीत। अच्छा राजेश रोशन के साथ आपनें बहुत काम किया है, उनसे मुलाक़ात कैसे हुई थी?
अमित जी - राजेश रोशन के परिवार को मैं जानता था, राकेश रोशन से पहले मिल चुका था, इस तरह से उनके साथ जान-पहचान थी।
सुजॉय - एक राजेश रोशन, और दूसरे संगीतकार जिनके साथ आपनें अच्छी पारी खेली, वो थे बप्पी लाहिड़ी साहब। उनसे कैसे मिले?
अमित जी - इन दोनों के साथ मैंने कुछ २०-२२ फ़िल्मों में काम किये होंगे। मेरा पहला गीत जो है 'चलते चलते' का शीर्षक गीत, वह मैंने बप्पी लाहिड़ी के लिए लिखा था। उन दिनों वो नये नये आये थे और हमारे ऑफ़िस में आया करते थे। मैं उनको प्रोड्युसर भीषम कोहली के पास लेकर गया था। तो वहाँ पर उनसे कहा गया कि फ़िल्म के टाइटल सॉंग के लिये कोई धुन तैयार करके बतायें। केवल १५ मिनट के अंदर धुन भी बनी और मैंने बोल भी लिखे।
सुजॉय - वाह! केवल १५ मिनट में यह कल्ट सॉंग् आपनें लिख दिया, यह तो सच में आश्चर्य की बात है!
अमित जी - देखिये, मेरा गीत लिखने का तरीका बड़ा स्पॉन्टेनीयस हुआ करता था। मैं वहीं ऑफ़िस में ही लिखता था, घर में लाकर लिखने की आदत नहीं थी। फ़िल्म में गीत लिखना एक प्रोफ़ेशनल काम है; जो लोग ऐसा कहते हैं कि उन्हें घर पर बैठे या प्रकृति में बैठ कर लिखने की आदत है तो यह सही बात नहीं है। फ़िल्मी गीत लिखना कोई काविता या शायरी लिखना नहीं है। आज लोग कहते हैं कि आज धुन पहले बनती है, बोल बाद में लिखे जाते हैं, लेकिन मैं यह कहना चाहूँगा कि उस ज़माने में भी धुन पहले बनती थी, बोल बाद में लिखे जाते थे, 'प्यासा' में भी ऐसा ही हुआ था, 'देवदास' में भी ऐसा ही हुआ था।
सुजॉय - किशोर कुमार के गाये 'चलते चलते' फ़िल्म का शीर्षक गीत "कभी अलविदा ना कहना" तो जैसे एक ऐन्थेम सॉंग् बन गया है। आज भी यह गीत उतना ही लोकप्रिय है जितना उस ज़माने में था, और अब भी हम जब इस गीत को सुनते हैं तो एक सिहरन सी होती है तन-मन में। "हम लौट आयेंगे, तुम युंही बुलाते रहना" सुन कर तो आँखें बिना भरे नहीं रह पातीं। और अब तो एक फ़िल्म भी बन गई है 'कभी अलविदा ना कहना' के शीर्षक से। चलिए, आज इस गीत की याद एक बार फिर से ताज़ा की जाये।
गीत - चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना (चलते चलते)
तो दोस्तों, ये था गीतकार और फ़िल्म व टेलीविज़न प्रोड्युसर अमित खन्ना से बातचीत पर आधारित शृंखला 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन' का पहला भाग। अगले हफ़्ते इस बातचीत का दूसरा व अंतिम भाग ज़रूर पढियेगा इसी मंच पर। आज इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
(जारी)