Saturday, June 25, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 47 "मेरे पास मेरा प्रेम है"



पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत
भाग १
भाग २

अब आगे...

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। पिछले दो सप्ताह से आप इसमें आनंद ले रहे हैं सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई हमारी बातचीत का। पहले भाग में पंडित जी के पारिवारिक पार्श्व और शुरुआती दिनों का हाल आपनें जाना। और दूसरी कड़ी में लावण्या जी नें बताया कि किस तरह से उनके पिता का बम्बई आना हुआ और फ़िल्म-जगत में किस तरह से उनका पदार्पण हुआ। आइए बातचीत आगे बढ़ाते हैं। प्रस्तुत है लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की तीसरी कड़ी।

सुजॉय - लावण्या जी, 'हिंद-युग्म आवाज़' पर आपका हम स्वागत करते हैं, नमस्कार!

लावण्या जी - नमस्ते!

सुजॉय - लावण्या जी, फ़िल्म जगत के किन किन कलाकारों के साथ आपके परिवार का पारिवारिक सम्बंध रहा है? इसमें एक नाम लता मंगेशकर जी का अवश्य है । लता जी के साथ आपके पारिवारिक संबम्ध के बारे में हम विस्तार से जानना चाहेंगे।

लावण्या जी - स्वर साम्राज्ञी सुश्री लता मंगेशकर जी, हमारे परवार की बड़ी दीदी हैं| दीदी, पापा जी से निर्माता निर्देशक विनायक राव जी [जो मशहूर तारिका नंदा जी के पिताजी थे] उन के यहां दीदी जब् काम किया करतीं थीं उसी दौरान सबसे पहली बार मिले थे ..फिर मुझे याद आता है मैं छोटी ही थी तब दीदी घर आयीं थीं| फिर मुलाकातें होतीं रहीं बाहर काम के लिये, बंबई फिल्म निर्माण का मुख्य केंद्र है तो कहीं न कहीं मुलाक़ात हो ही जाया करती थी।

सुजॉय - लावण्या जी, हम आपसे लता जी और पंडित जी के बारे में जानेंगे, लेकिन उससे पहले हम अपने पाठकों के लिए यहाँ पर आपके द्वारा लिये लता जी के एक इंटरव्यु के कुछ अंश प्रस्तुत करना चाहेंगे। लता जी बता रही हैं पंडित नरेन्द्र शर्मा से अपनी पहली मुलाक़ात के बारे में। जब लावण्या जी नें उनसे पूछा कि पापाजी से उनकी पहली मुलाक़ात कब और कैसे हुई थी, तो लता जी नें बताया -

लता जी - "मुझे लगता है शायद १९४५ में, मास्टर विनायक के यहाँ मैं काम करती थी, और उनके घर हम रहते थे, मैं और मेरी बहन मीना। तो पंडित जी और उनके साथ, कोई और हिंदी के कवि थे, शायद अमृतलाल नागर, ये दोनों वहाँ आये थे, विनायकराव जी के वहाँ। और फ़र्स्ट टाइम विनायक जी नें मुझसे कहा कि तुम इनसे मिलो और इनको गाना सुनाओ। मैंने उस वक़्त पापा को गाना सुनाया था। फिर उन्होंने विनायकराव के साथ काम किया था, और गानें मेरे होते थे, ऐसे मैं उनको मिला करती थी वहाँ पे। और जब भी मिलती थी, पता नहीं कैसे मालूम था उनको, शायद मेरी पत्रिका उनके पास थी, मुझे मेरा भविष्य बताया करते थे। अभी ये करो, अभी ये नहीं करो, अभी टाइम अच्छा नहीं है, इस तरह से। लेकिन हम लोग हमेशा ही मिलते थे ऐसा नहीं था। जव विनायकराव की डेथ हुई और मैंने '४७ में प्लेबैक देना शुरु किया, तब पापा मुझे कभी कभी मिलते थे, पर मेरा उनके घर आना जाना या उनके घर में कौन हैं, ये मुझे कुछ मालूम नहीं था। पर उनके बातचीत करने का ढंग, मैं कहूँगी, भारतीय संस्कृति का जैसे एक चलता-फिरता पुतला मुझे लगता था। मैं सोचती थी कि कितने अच्छे हैं, इनकी हर बात कितनी अच्छी है, रहन-सहन कितना अच्छा है, क्योंकि मेरे पिताजी भी इसी तरह रहते थे न? कि मतलब धोती पहनना, कोट, और वह टोपी, मतलब, बड़ी सात्विक विचार और वो सब बात मुझे उनमें नज़र आती थी कि वो कुछ अलग हट कर हैं। इस तरह से हम कभी कभी मिलते थे, मैं कभी कभी उनके गानें गाती थी। फिर वो रेडिओ में थे, उन्होंने वहाँ 'विविध भारती' को नाम दिया। तो वहाँ भी दो एक मरतबा मैं मिली हूँ। उसके बाद, अनिल बिस्वास जी थे, उनके यहाँ मैं जाती थी, तब मुझे पता चला कि पंडित नरेन्द्र शर्मा अनिल दा के यहाँ आते हैं। और हर सण्डे को या कोई दिन था जब पापा अनिल दा को रामायण सुनाया करते थे। और वो सब लोग वहाँ बैठ के रामायण सुना करते थे। उसमें एक दो आदमी ऐसे भी थे जो मुसलिम थे, कवि थे, तो वो भी आते थे। फिर.... मुझे साल तो याद नहीं, '४८ होगा या.... अनिल दा नें दो गानें मेरे रेडिओ के लिए रेकॉर्ड किए थे जो पंडित जी के लिखे थे। एक था "रख दिया नभशून्य में" और दूसरा था "युग की संध्या"। इस तरह से पापा के साथ मेरा थोड़ा-थोड़ा परिचय बढ़ रहा था। ज़्यादा जो उनके साथ मेरा ये हुआ, वह यह था कि मैंने उनके साथ जाके भगवद गीता रेकॉर्ड किया। पर यह बहुत बाद की बात है, शायद १९६७ होगा। पापा नें मुझे चिट्ठी लिखी, और उसमें यह लिखा कि ये बड़ा अच्छा काम कर रही है, भगवद गीता गा रही है, और इसी तरह से आप अपना चालू रखें काम तो मुझे बड़ी ख़ुशी होगी। और फिर वो मिलने आये मुझे घर। मैं उनसे मिली, उन्हें चाय दी, और मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि भगवद गीता का जो पंद्रहवाँ अध्याय मैंने किया था, एक तो पापा का ख़त आया था, और एक आया था देशमुख, जो हमारे 'फ़ाइनन्स मिनिस्टर' थे, उनका, क्योंकि संस्कृत वो भी बहुत अच्छा जानते थे। तो पापा बैठे, सुना रेकॉर्ड, और फिर घर गए। अचानक कैसे मुझे, कुछ बातें याद आ जाती हैं कुछ नहीं, पापा के साथ मैं काम तो नहीं कर रही थी, वो तो रेडिओ में थे, कहीं न कहीं हम मिलते थे, फिर एक दिन मैं उनके घर गई। और फिर सिलसिला इस तरह बढ़ा कि फिर मैं रोज़ ही उनके घर जाने लगी। और मेरी रेकॉर्डिंग्‍ उनके घर के बहुत नज़दीक होती थी। तो मैं महबूब स्टुडिओ से रेकॉर्डिंग्‍ करके उनके यहाँ जाती थी, फिर भाभी से मिलती थी। बेटियों से मिलना होता था, बेटा था, ज़्यादा मेरा बेटियों के साथ बनती थी और पापा के साथ भी बैठ के बातें किया करती थीं। कभी कभी मैं कपड़े ले आती थी और वहाँ रहती थी, साथ में सो भी जाते थे नीचे गद्दे डाल के, बाहर का जो सिटिंग्‍ रूम था, वहीं पे सो जाते थे।

फ़ोटो-१: दीदी और पापा

सुजॉय - ये तो थी लता जी के संस्मरण। आगे लता जी नें और भी बहुत सारी बातें बताईं, जो हम भविष्य के लिए सुरक्षित रखते हुए लावण्या जी के बातचीत पर वापस आते हैं। लावण्या जी, एक तरफ़ आपके पिता, पंडित जी, और दूसरी तरफ़ स्व्र-साम्राज्ञी लता जी। ऐसे महान दो कलाकारों का स्पर्श आपको जीवन में मिला, जो मैं समझता हूँ कि इस तरह का सौभाग्य बहुत कम लोगों को नसीब है।

लावण्या जी - पापाजी और दीदी, दो ऐसे इंसान हैं जिनसे मिलने के बाद मुझे ज़िंदगी के रास्तों पे आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा मिली है। सँघर्ष का नाम ही जीवन है। कोई भी इसका अपवाद नहीं- सत्चरित्र का संबल, अपने भीतर की चेतना को प्रखर रखे हुए किस तरह अंधेरों से लड़ना और पथ में कांटे बिछे हों या फूल, उन पर पग धरते हुए, आगे ही बढ़ते जाना ये शायद मैंने इन दो व्यक्तियों से सीखा। उनका सान्निध्य मुझे ये सिखला गया कि अपने में रही कमजोरियों से किस तरह स्वयं लड़ना जरुरी है- उनके उदाहरण से हमें इंसान के अच्छे गुणों में विश्वास पैदा करवाता है। पापा जी का लेखन, गीत, साहित्य और कला के प्रति उनका समर्पण और दीदी का संगीत, कला और परिश्रम करने का उत्साह, मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दे गया। उन दोनों की ये कला के प्रति लगन और अनुदान सराहने लायक है ही, परन्तु उससे भी गहरा था उनका इंसानियत से भरापूरा स्वरूप जो शायद कला के क्षेत्र से भी ज्यादा विस्तृत था। दोनों ही व्यक्ति ऐसे जिनमें इंसानियत का धर्म कूट-कूट कर भरा हुआ मैंने बार बार देखा और महसूस किया । जैसे सुवर्ण शुद्ध होता है, उसे किसी भी रूप में उठालो, वह समान रूप से दमकता मिलेगा वैसे ही दोनों को मैंने हर अनुभव में पाया। जिसके कारण आज दूरी होते हुए भी इतना गहरा सम्मान मेरे भीतर बैठ गया है कि दूरी महज एक शारीरिक परिस्थिती रह गयी है। ये शब्द फिर भी असमर्थ हैं मेरे भावों को आकार देने में।

सुजॉय - वाह! अच्छा लावण्या जी, पंडित जी और लता जी के बीच पिता-पुत्री का सम्बंध था। इस सम्बंध को आपने किस तरह से महसूस किया, इसके बारे में कुछ बतायें।

लावण्या जी - हम ३ बहनें थीं - सबसे बड़ी वासवी, फिर मैं, लावण्या और मेरे बाद बांधवी। हाँ, हमारे ताऊजी की बिटिया गायत्री दीदी भी सबसे बड़ी दीदी थीं जो हमारे साथ-साथ अम्मा और पापाजी की छत्रछाया में पलकर बड़ी हुईं। पर सबसे बड़ी दीदी, लता दीदी ही थीं- उनके पिता पण्डित दीनानाथ मंगेशकर जी के देहांत के बाद १२ वर्ष की नन्ही सी लडकी के कन्धों पे मंगेशकर परिवार का भार आ पड़ा था जिसे मेरी दीदी ने बहादुरी से स्वीकार कर लिया और असीम प्रेम दिया अपने बाई बहनों को जिनके बारे में, ये सारे किस्से मशहूर हैं। पत्र पत्रिकाओं में आ भी गए हैं--उनकी मुलाक़ात, पापा से, मास्टर विनायक राव जो सिने तारिका नंदा के पिता थे, के घर पर हुई थी- पापा को याद है दीदी ने "मैं बन के चिड़िया, गाऊँ चुन चुन चुन" ऐसे शब्दों वाला एक गीत पापा को सुनाया था और तभी से दोनों को एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह पनपा--- दीदी जान गयी थीं पापा उनके शुभचिंतक हैं- संत स्वभाव के गृहस्थ कवि के पवित्र हृदय को समझ पायी थीं दीदी और शायद उन्हें अपने बिछुडे पिता की छवि दिखलाई दी थी। वे हमारे खार के घर पर आयी थीं जब हम सब बच्चे अभी शिशु अवस्था में थे और दीदी अपनी संघर्ष यात्रा के पड़ाव एक के बाद एक, सफलता से जीत रहीं थीं-- संगीत ही उनका जीवन था-गीत साँसों के तार पर सजते और वे बंबई की उस समय की लोकल ट्रेन से स्टूडियो पहुंचतीं जहाँ रात देर से ही अकसर गीत का ध्वनि-मुद्रण सम्पन्न किया जाता चूंकि बंबई का शोर-शराबा शाम होने पे थमता- दीदी से एक बार सुन कर आज दोहराने वाली ये बात है! कई बार वे भूखी ही, बाहर पड़ी किसी बेंच पे सुस्ता लेती थीं, इंतजार करते हुए ये सोचतीं "कब गाना गाऊंगी पैसे मिलेंगें और घर पे माई और बहन और छोटा भाई इंतजार करते होंगें, उनके पास पहुँचकर आराम करूंगी!" दीदी के लिए माई कुरमुरों से भरा कटोरा ढक कर रख देती थी जिसे दीदी खा लेती थीं पानी के गिलास के साथ सटक के! आज भी कहीं कुरमुरा देख लेती हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं :-)

सुजॉय - लावण्या जी, ऐसा कोई संसमरण है कि पिता अपनी पुत्री पर नाराज़ हो गए थे, यानी कि पंडित जी लता जी पर नाराज़ हुए थे?

लावण्या जी - हमारे पड़ौसी थे जयराज जी, वे भी सिने कलाकार थे और तेलगु, आन्ध्र प्रदेश से बंबई आ बसे थे। उनकी पत्नी सावित्री आंटी, पंजाबी थीं। उनके घर फ्रीज था, सो जब भी कोई मेहमान आता, हम बरफ मांग लाते। शरबत बनाने में ये काम पहले करना होता था और हम ये काम खुशी-खुशी किया करते थे। पर जयराज जी की एक बिटिया को हमारा अकसर इस तरह बर्फ मांगने आना पसंद नही था। एकाध बार उसने ऐसा भी कहा था "आ गए भिखारी बर्फ मांगने!" जिसे हमने अनसुना कर दिया। आख़िर हमारे मेहमान का हमें उस वक्त ज्यादा ख़याल था, ना कि ऐसी बातों का !! बंबई की गर्म, तपती हुई जमीन पे नंगे पैर, इस तरह दौड़ कर बर्फ लाते देख लिया था हमें दीदी नें और उनका मन पसीज गया ! इसका नतीजा ये हुआ के एक दिन मैं कॉलिज से लौट रही थी, बस से उतर कर, चल कर घर आ रही थी। देखती क्या हूँ कि हमारे घर के बाहर एक टेंपो खड़ा है जिसपे एक फ्रिज रखा हुआ है रस्सियों से बंधा हुआ। तेज क़दमों से घर पहुँची, वहाँ पापा, नाराज, पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे। अम्मा फिर जयराज जी के घर-दीदी का फोन आया था-वहाँ बात करने आ-जा रहीं थीं ! फोन हमारे घर पर भी था, पर वो सरकारी था जिसका इस्तेमाल पापा जी सिर्फ़ काम के लिए ही करते थे और कई फोन हमें, जयराज जी के घर रिसीव करने दौड़ कर जाना पड़ता था। दीदी, अम्मा से मिन्नतें कर रहीं थीं "पापा से कहो ना भाभी, फ्रीज का बुरा ना मानें। मेरे भाई-बहन आस-पड़ौस से बर्फ मांगते हैं ये मुझे अच्छा नहीं लगता- छोटा सा ही है ये फ्रीज ..जैसा केमिस्ट दवाई रखने के लिए रखते हैं ... ".अम्मा पापा को समझा रही थीं -- पापा को बुरा लगा था -- वे मिट्टी के घडों से ही पानी पीने के आदी थे। ऐसा माहौल था मानो गांधी बापू के आश्रम में फ्रीज पहुँच गया हो!! पापा भी ऐसे ही थे। उन्हें क्या जरुरत होने लगी भला ऐसे आधुनिक उपकरणों की? वे एक आदर्श गांधीवादी थे। सादा जीवन ऊंचे विचार जीनेवाले, आडम्बर से सर्वदा दूर रहनेवाले, सीधे सादे, सरल मन के इंसान ! खैर! कई अनुनय के बाद अम्मा ने, किसी तरह दीदी की बात रखते हुए फ्रीज को घर में आने दिया और आज भी वह, वहीं पे है, शायद मरम्मत की ज़रूरत हो, पर चल रहा है!

सुजॉय - इस तरह से दीदी आप सब की ज़िंदगियों से जैसे घुलमिल गईं। फिर जब आप बहनों की शादी हुई होगी, तब लता जी नें किस तरह से आपक सब को आशिर्वाद दिया?

लावण्या जी - हमारी शादियाँ हुईं तब भी दीदी बनारसी साडियां लेकर आ पहुँचीं। अम्मा से कहने लगीं, "भाभी, लड़कियों को सम्पन्न घरों से रिश्ते आए हैं। मेरे पापा कहाँ से इतना खर्च करेंगें? रख लो ..ससुराल जाएँगीं, वहाँ सबके सामने अच्छा दिखेगा"। कहना न होगा हम सभी रो रहे थे और देख रहे थे दीदी को जिन्होंने उमरभर शादी नहीं की पर अपनी छोटी बहनों की शादियाँ सम्पन्न हों उसके लिए साड़ियां लेकर हाजिर थीं! ममता का ये रूप, आज भी आँखें नम कर रहा है। मेरी दीदी ऐसी ही हैं। भारत कोकिला और भारत रत्ना भी वे हैं ही, मुझे उनका ये ममता भरा रूप ही याद रहता है। फिर पापा की ६०वीं साल गिरह आयी, दीदी को बहुत उत्साह था, कहने लगीं, "मैं एक प्रोग्राम दूंगीं, जो भी पैसा इकट्ठा होगा, पापा को भेंट करूंगी।" पापा को जब इस बात का पता लगा वे नाराज हो गए, कहा- "मेरी बेटी हो, अगर मेरा जन्मदिन मनाना है, घर पर आओ, साथ भोजन करेंगें, अगर मुझे इस तरह पैसे दिए, मैं तुम सब को छोड़ कर काशी चला जाऊंगा, मत बांधो मुझे माया के फेर में।"

सुजॉय - देखिए लावण्या जी, इस बात पर मुझे फिर से वही गीत याद आ गया, "तुम्हे बांधने के लिए मेरे पास और क्या है मेरा प्रेम है"। अच्छा उसके बाद क्या हुआ, प्रोग्राम हुआ था?

लावण्या जी - उसके बाद प्रोग्राम नहीं हुआ, हमने साथ मिलकर, अम्मा के हाथ से बना उत्तम भोजन खाया और पापा अति प्रसन्न हुए। आज भी यादों का काफिला चल पड़ा है और आँखें नम हैं ...इन लोगों जैसे विलक्षण व्यक्तियों से, जीवन को सहजता से जीने का, उसे सहेज कर, अपने कर्तव्य पालन करने के साथ, इंसानियत न खोने का पाठ सीखा है उसे मेरे जीवन में कहाँ तक जी पाई हूँ, ये अंदेशा नहीं है फिर भी कोशिश जारी है .........

सुजॉय - बहुत सुंदर लावण्या जी! आपसे बातचीत का सिलसिला अगले हफ़्ते भी जारी रहेगा, फ़िल्हाल आइए सुना जाये पंडित जी का लिखा और लता जी का गाया एक यादगार गीत। बताइए कौन सा गीत बजाया जाये?

लावण्या जी - "ज्योति कलश छलके"

गीत - "ज्योति कलश छलके" (भाभी की चूड़ियाँ)


तो ये था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक'। अगले हफ़्ते इसी शृंखला की चौथी कड़ी के साथ मैं वापस आऊँगा, तब तक कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमीत कड़ियों में ठुमरी-आधारित फ़िल्मी गीतों का आनंद लेते रहिएगा, नमस्कार!

अनुराग शर्मा की कहानी "बेमेल विवाह"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुलीवाला" का पॉडकास्ट संज्ञा टंडन की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "बेमेल विवाह", जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा ने।कहानी "बेमेल विवाह" का कुल प्रसारण समय 3 मिनट 22 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"कितने सहृदय हैं डॉ. अमित। कितने प्यार से बात कर रहे थे।"
(अनुराग शर्मा की "बेमेल विवाह" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
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#134nd Story, Bemel Vivah: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/15. Voice: Anurag Sharma

Friday, June 24, 2011

यादों के इडियट बॉक्स से झांकती कुछ स्मृतियाँ रिवाईंड होती, एक कहानी में जज़्ब होकर



Taaza Sur Taal (TST) - 18/2011 - REWIND - NINE LOST MEMORIES A NON FILM ALBUM BY "THE BAND CALLED NINE"

ताज़ा सुर ताल में एक बार हम फिर हाज़िर हैं कुछ लीक से हट कर बन रहे संगीत की चर्चा लेकर. पत्रकारिता में एक कामियाब नाम रहे नीलेश मिश्रा ने काफी समय पहले ट्रेक बदल कर बॉलीवुड का रुख कर लिया था. एक उभरते हुए गीतकार के रूप में यहाँ भी वो एक खास पहचान बना चुके हैं. "जादू है नशा है" (जिस्म), "तुमको लेकर चलें" (जिस्म), "क्या मुझे प्यार है" (वो लम्हें), "गुलों में रंग भरे" (सिकंदर), "आई ऍम इन लव" (वंस अपौन अ टाइम इन मुंबई) और 'अभी कुछ दिनों से (दिल तो बच्चा है जी) खासे लोकप्रिय रहे हैं. निलेश ने संगीत की दुनिया में अपना अगला कदम रखा एक बैंड "द बैंड कोल्ड नाईन" बना कर. आज हम इसी बैंड के नए और शायद पहले अल्बम "रीवायिंड" की यहाँ चर्चा करने जा रहे हैं.

अभी बीते सप्ताह इस अल्बम का दिल्ली में एक भव्य कार्यक्रम में विमोचन हुआ, "मोहल्ला लाईव" के इस कार्यक्रम में मैंने भी शिरकत की. दरअसल नीलेश और उनकी टीम केवल इसी बात से हम सबकी तालियों की हकदार हो जाती है कि उन्होंने इस अल्बम में कुछ बेहद नया कॉसेप्ट ट्राई किया है. जिस तरह हिंद युग्म में अपनी पहली अल्बम "पहला सुर" में कविताओं और गीतों को मिलाकर पेश करने का अनूठा प्रयोग किया था, यहाँ भी एक कवितामयी कहानी है जिसके बीच में गीत भी चलते हैं, यानी "थोड़े गीत थोड़ी कहानी". इस प्रयोग को नाम दिया गया है "किस्सागोई". यानी कि श्रोता को ये भी पता चल जाता है कि अमुख गीत किस सिचुएशन के लिए बना होगा. इस प्रयोग में मगर एक खामी है, गीत आप बार बार सुन सकते हैं, मगर सुनी हुई कहानी को बार बार सुनना शायद बहुत से श्रोता पसंद न करें. मगर मैं आपको बता दूं कि नीलेश की आवाज़ और कहानी को कहने की अदायगी बेहद शानदार और बाँध के रखने वाली है.

अब इस किस्सागोई में जो किस्सा है उसमें छोटे शहर और मध्यमवर्गीय परिवारों के किरदार चुनकर एक रिश्ता कायम करने की कोशिश तो की गयी है, पर कहानी में कुछ खास नयापन नहीं है हाँ उसे कहने के लिए नीलेश ने जो शब्द चुने हैं शानदार हैं बेशक. तो चलिए अब गीतों की बढ़ा जाए.

"इडियट बॉक्स" में वो सब है जो आपके बचपन को आपके लिए रीवायिंड कर देगा. आकाशवाणी की सुबहें और दूरदर्शन की शामें, बड़े सुहाने दिन थे, आज की पीढ़ी को तो शायद यकीन भी न हो उन बातों पर. शिल्पा राव की आवाज़ में वो नोस्टोलोजिया बहुत खूब छलकता है.

छोटे शहर से बड़े शहर में आये एक इंसान की तनहाईयाँ दिखती है "माज़ी" में. सूरज जगन एक उभरते हुए रोक्क् गायक है. पर मुझे शिकायत है कि जब प्रयोग में इतनी ताजगी है तो संगीत में क्यों नहीं. जब आजकल बॉलीवुड में भी सिर्फ और सिर्फ रोक्क् ही चालू है तो "बैंड कोल्ड नाईन" को यहाँ भी कुछ नया करना चाहिए था. गीत में जान आती है शिल्प राव जब 'मोरे पिया' गाती है.

"कोल्लेज में कोई दस बीस साल लंबा कोर्स नहीं होता क्या.." नीलेश पूछते हैं, और वो लड़कपन की यादें एक बार फिर उभरती है इस बार सूरज जगन की आवाज़ में "इडियट बॉक्स" के एक अन्य संस्करण में. "काठ गोदाम की बस ५ बजे जाती है...पूरी फिल्म भी नहीं देखने दी उसने..." के बाद "रूबरू" प्यार के उस अल्हडपन की कहानी है. संगीत पक्ष मुझे यहाँ भी बोलों के लिहाज से कमजोर लगा. धुन वही बढ़िया होती है जो दिल के तार छेड़े और गीत वही यादगार होता है जिसे हम अकेले में गुनगुना सकें. अगला गीत 'शायद" भी आजकल बन रहे बॉलीवुड के गीतों से कुछ खास अलग नहीं है, पर मैं बताता चलूँ कि नीलेश के बोल और उनकी कमेंट्री इन सब गीतों में भी शानदार है. नायक को सामने की बिल्डिंग में अचार के लिए नीम्बू सुखाती औरत को देख कर याद आती है "माँ" और गीत उभरता है "आँगन" "खाली खाली शामों में, उलझन से भरी दुपहरों में, कुछ ढूँढता है मन...." वाह बेहद खूबसूरत है ये गीत, यहाँ सौभाग्यवश संगीत पक्ष भी गीत के बोलों के टक्कर का है, और सूरज जगन ने दिखाया है कि वो गीतों में भाव लाना भी खूब जानते हैं.

टूटते रिश्तों की कहानी बयां करती "नैना तोरे" में शिल्पा खूब जमी है, सुन्दर शब्द और संगीत उनका भरपूर साथ देते हैं. इंटरल्यूड में सितार का सुन्दर इस्तेमाल हुआ है. ट्रांस मिक्स का उत्कृष्ट नमूना है ये गीत. नीलेश खुद माइक के पीछे आकर गाते भी हैं. एक मुश्किल कम्पोजीशन है ये. गज़ल नुमा ये गीत है "उनका ख्याल" जिसे वो अच्छा निभा गए हैं, गायिकी उनकी जैसी भी हो पर भाव पक्ष खूब संभाला है. एक गीत से रिश्ता जोड़ने के लिए ये काफी होता है. अल्बम का अंतिम गीत "दिल रफू" एक डांस नंबर है, जो भरपूर मज़ा देता है. कोंसर्ट के दौरान बहुत से लोगों को इस पर थिरकते देखा. संगीतकार अमर्त्य राहूत यहाँ कामियाब रहे हैं.

कुल मिलाकर ये अलबम आपको बेहद भाएगा ये मैं दावे के साथ कह सकता हूँ. एक नए और लाजवाब प्रयोग को इतने बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने के लिए ये पूरी टीम बधाई की हकदार है. हम तो सिफारिश करेंगें कि आप इसे अवश्य सुनें.

आवाज़ रेटिंग - 9/10

मुझे इस अल्बम के गाने कहीं ऑनलाइन सुनने को नहीं मिले, पर फ्लिप्कार्ट से इसे खरीद कर आप सुन सकते हैं



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

Thursday, June 23, 2011

भैरवी के सुरों में श्रृंगार, वैराग्य और आध्यात्म का अनूठा संगम -"बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए.."



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 685/2011/125

'ओल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की पाँचवी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका स्वागत करता हूँ| दोस्तों; संगीत के मंच की एक परम्परा है कि गायक या वादक अपनी प्रस्तुतियों का समापन राग भैरवी के गायन-वादन से करते हैं| आज की यह सप्ताहान्त प्रस्तुति है, अतः आज हमने आपके लिए जो ठुमरी चुनी है वह राग भैरवी में निबद्ध है| राग भैरवी को "सदा सुहागन राग" कहा गया है| संगीत के अन्य रागों को समय (प्रहर) या ऋतुओं में ही गाने-बजाने की परम्परा है, किन्तु "भैरवी" हर मौसम और हर समय कर्णप्रिय लगता है| राग "भैरवी की एक विशेषता यह भी होती है कि इस राग के बाद दूसरा कोई भी राग सुनने में अच्छा नहीं लगता, इसीलिए हर कलाकार द्वारा प्रस्तुति के अन्त में "भैरवी" का गायन-वादन किया जाता है| सभी कोमल स्वरों वाला यह राग उपशास्त्रीय और सुगम संगीत की रचनाओं के लिए सबसे उपयुक्त राग है| इसीलिए फिल्म संगीत में राग आधारित गीतों में सर्वाधिक संख्या भैरवी आधारित गीतों की ही है|

श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हमने अवध के नवाब वाजिद अली शाह के संगीत-नृत्य-प्रेम के विषय में चर्चा की थी| आज उसी चर्चा को आगे बढाते हैं| नवाब वाजिद अली शाह 1847 से 1856 तक अवध के शासक रहे| उनके कार्यकाल में ही "ठुमरी" एक शैली के रूप में विकसित हुई थी| उन्हीं के प्रयासों से कथक नृत्य को एक अलग आयाम मिला और ठुमरी, कथक नृत्य का अभिन्न अंग बनी| नवाब ने 'कैसर' उपनाम से अनेक गद्य और पद्य की स्वयं रचनाएँ भी की| इसके अलावा "अख्तर' उपनाम से दादरा, ख़याल, ग़ज़ल और ठुमरियों की भी रचना की थी| राग "खमाज" का सादरा -"सुध बिसर गई आज अपने गुनन की..." तथा राग "बहार" का ख़याल -"फूलवाले कन्त मैका बसन्त गडुआ मोल ले दे रे....." उनकी बहुचर्चित रचनाएँ हैं| उनका राग "खमाज" का सादरा संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी ने राग "हेमन्त" में परिवर्तित कर फिल्म "संगीत सम्राट तानसेन" में प्रयोग किया था| 7 फरवरी 1856 को अंग्रेजों ने जब उन्हें सत्ता से बेदखल किया और बंगाल के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर नज़रबन्द कर दिया तब उनका दर्द ठुमरी भैरवी -"बाबुल मोरा नैहर छुटल जाए...." में अभिव्यक्त हुआ| नवाब वाजिद अली शाह की यह ठुमरी इतनी लोकप्रिय हुई कि तत्कालीन और परवर्ती शायद ही कोई शास्त्रीय या उपशास्त्रीय गायक हो जिसने इस ठुमरी को ना गाया हो| 1936 के लखनऊ संगीत सम्मलेन में जब उस्ताद फैयाज़ खां ने इस ठुमरी को गाया तो श्रोताओं की आँखों से आँसू निकल पड़े थे| इसी ठुमरी को पण्डित भीमसेन जोशी ने अनूठे अन्दाज़ में गाया, तो विदुषी गिरिजा देवी ने बोल-बनाव से इस ठुमरी का अध्यात्मिक पक्ष उभारा है| फिल्मों में भी इस ठुमरी के कई संस्करण उपलब्ध हैं| 1938 में बनी फिल्म 'स्ट्रीट सिंगर' में कुन्दन लाल सहगल के स्वरों में यह ठुमरी भैरवी सर्वाधिक लोकप्रिय हुई|

श्रृंखला का प्रारम्भ हमने सहगल साहब के स्वरों से किया था| आज हम पुनः उन्हीं की आवाज़ में आपको वर्ष 1938 में बनी फिल्म "स्ट्रीट सिंगर" की ठुमरी भैरवी -"बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए..." सुनवाने जा रहे हैं| फिल्म के संगीतकार आर.सी. (रायचन्द्र) बोराल थे| सहगल साहब ने अपनी गायी इस ठुमरी पर स्वयं अभिनय किया है| उनके साथ अभिनेत्री कानन देवी हैं| हालाँकि उस समय पार्श्वगायन की शुरुआत हो चुकी थी, परन्तु फिल्म निर्देशक फणी मजुमदार ने गलियों में पूरे आर्केस्ट्रा के साथ इस ठुमरी की सजीव रिकार्डिंग और फिल्मांकन किया था| एक ट्रक के सहारे माइक्रोफोन सहगल साहब के निकट लटकाया गया था और चलते-चलते यह ठुमरी और दृश्य रिकार्ड हुआ था| राग भैरवी में निबद्ध यह एक शानदार ठुमरी है| भैरवी के स्वरों का जितना शुद्ध रूप इस ठुमरी गीत में किया गया है, फिल्म संगीत में उतना शुद्ध रूप कम ही पाया जाता है| आइए सुनते हैं, नवाब वाजिद अली शाह की सर्वाधिक लोकप्रिय ठुमरी रचना-
राग भैरवी : "बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए..." : फिल्म - स्ट्रीट सिंगर



क्या आप जानते हैं...
कि नवाब वाजिद अली शाह की इस ठुमरी को गाते समय के.एल. सहगल ने कुछ शब्दों में परिवर्तन किया था, किन्तु विदुषी गिरिजा देवी ने इस ठुमरी को गाते समय मूल शब्दों का ही प्रयोग किया है|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 06/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - किस अभिनेत्री पर फिल्मांकित है ये गीत - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -


खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, June 22, 2011

बिछुडती नायिका की अपने प्रियतम के लिए कामना -"मैं मिट जाऊँ तो मिट जाऊँ, तू शाद रहे आबाद रहे...."



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 684/2011/124

'रस के भरे तोरे नैन' - फिल्मों में ठुमरी विषयक इस श्रृंखला में मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने आपसे चर्चा की थी कि नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में 'ठुमरी' एक शैली के रूप में विकसित हुई थी| अपने प्रारम्भिक रूप में यह एक प्रकार से नृत्य-गीत ही रहा है| राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ा से प्रारम्भ होकर सामान्य नायक-नायिका के रसपूर्ण श्रृंगार तक की अभिव्यक्ति इसमें होती रही है| शब्दों की कोमलता और स्वरों की नजाकत इस शैली की प्रमुख विशेषता तब भी थी और आज भी है| कथक नृत्य के भाव अंग में ठुमरी की उपस्थिति से नर्तक / नृत्यांगना का अभिनय मुखर हो जाता है| ठुमरी का आरम्भ चूँकि कथक नृत्य के साथ हुआ था, अतः ठुमरी के स्वर और शब्द भी भाव प्रधान होते गए|

राज-दरबार के श्रृंगारपूर्ण वातावरण में ठुमरी का पोषण हुआ था| तत्कालीन काव्य-जगत में प्रचलित रीतिकालीन श्रृंगार रस से भी यह शैली पूरी तरह प्रभावित हुई| नवाब वाजिद अली शाह स्वयं उच्चकोटि के रसिक और नर्तक थे| ऊन्होने राधा-कृष्ण के संयोग-वियोग पर कई ठुमरी गीतों की रचना करवाई| ठुमरी और कथक के अन्तर्सम्बन्ध नवाबी काल में ही स्थापित हुए थे| वाजिद अली शाह के दरबार की एक बड़ी रोचक घटना है; जिसने आगे चल कर नृत्य के साथ ठुमरी गायन की धारा को समृद्ध किया| एक बार नवाब के दरबार में अपने समय के श्रेष्ठतम पखावज वादक कुदऊ सिंह आए| दरबार में उनका भव्य सत्कार हुआ और उनसे पखावज वादन का अनुरोध किया गया| कुदऊ सिंह ने वादन शुरू किया| उन्होंने ऐसी-ऐसी क्लिष्ट और दुर्लभ तालों और पर्णों का प्रदर्शन किया कि नवाब सहित सारे दरबारी दंग रह गए| कुदऊ सिंह को पता था कि नवाब के दरबार में कथक नृत्य का बेहतर विकास हो रहा है| उन्होंने ऐसी तालों का वादन शुरू किया जो नृत्य के लिए उपयोगी थे; उनकी यह भी अपेक्षा थी कि कोई नर्तक उनके पखावज वादन में साथ दे| कुदऊ सिंह की विद्वता के सामने किसी का साहस नहीं हुआ| उस समय दरबार में कथक गुरु ठाकुर प्रसाद अपने नौ वर्षीय पुत्र के साथ उपस्थित थे| ठाकुर प्रसाद नवाब वाजिद अली शाह को नृत्य की शिक्षा दिया करते थे| कुदऊ सिंह की चुनौती उनके कानों में बार-बार खटकती रही| अन्ततः उन्होंने अपने नौ वर्षीय पुत्र बिन्दादीन को महफ़िल में खड़े होने का आदेश दिया| फिर शुरू हुई एक ऐसी प्रतियोगिता, जिसमें एक ओर एक नन्हा बालक और दूसरी ओर अपने समय का प्रौढ़ एवं विख्यात पखावज वादक था| कुदऊ सिंह एक से एक क्लिष्ट तालों का वादन करते और वह बालक पूरी सफाई से पदसंचालन कर सबको चकित कर देता था| अन्ततः पखावज के महापण्डित ने उस बालक की प्रतिभा का लोहा माना और उसे अपना आशीर्वाद दिया|

यही बालक आगे चलकर बिन्दादीन महाराज के रूप कथक के लखनऊ घराने का संस्थापक हुआ| बिन्दादीन और उनके भाई कालिका प्रसाद ने कथक नृत्य को नई ऊँचाई पर पहुँचाया| बिन्दादीन महाराज ने कथक नृत्य पर भाव प्रदर्शन के लिए 1500 से अधिक ठुमरियों की रचना की थी, जिनका प्रयोग आज भी कथक नर्तक / नृत्यांगना करते हैं| "रस के भरे तोरे नैन" श्रृंखला के आगामी किसी अंक में हम बिन्दादीन महाराज की ठुमरियों पर विस्तार से चर्चा करेंगे|

इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में आपने अमीरबाई कर्नाटकी के स्वरों में 1944 की फिल्म "भर्तृहरि" से राग हेमन्त की ठुमरी सुनी थी| आज हम आपको जो ठुमरी सुनवाने जा रहे हैं, वह भी अमीरबाई कर्नाटकी के स्वरों में ही है| 1947 की फिल्म "सिन्दूर" से यह ठुमरी ली गई है| यह वह समय था जब अमीरबाई पार्श्वगायन के क्षेत्र में शीर्ष पर थीं| 'कन्नड़ कोकिला' के नाम से विख्यात अमीरबाई ने 1947 में फिल्मिस्तान द्वारा निर्मित फिल्म "सिन्दूर" में राग "तिलक कामोद" की एक बेहद कर्णप्रिय ठुमरी का गायन किया है| फिल्म के संगीतकार हैं खेमचन्द्र प्रकाश तथा गीतकार हैं कमर जलालाबादी| ठुमरी की नायिका जाते हुए प्रियतम के कुशलता की कामना करती है, जब कि इस बिछोह से उसका ह्रदय दुखी है और आँखें आँसुओं से भीगी हैं| आइए सुनते हैं रस-भाव से भरी यह ठुमरी -



क्या आप जानते हैं...
कि भक्तकवि नरसी भगत का चर्चित भजन -"वैष्णवजन तो तेणे कहिए जे पीर पराई जाने रे..." गाने के कारण महात्मा गाँधी अमीरबाई कर्नाटकी के बहुत बड़े प्रशंसक बन गए थे|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 04/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है ये ठुमरी - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - इस पारंपरिक ठुमरी के संगीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
हिन्दुस्तानी जी और दीप चंद्रा जी के साथ अमित जी को बधाई. क्षिति जी इस शृंखला में आप सशक्त दावेदार हैं, जमे रहिये

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, June 21, 2011

साजन के छोड़ कर चले जाने की स्थिति में "मैं रोय मरूँगी..." की धमकी देती नायिका



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 683/2011/123

ठुमरी गीतों की हमारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की तीसरी कड़ी में आप सभी संगीत प्रेमियों का मैं कृष्णमोहन मिश्र स्वागत करता हूँ| कल की ठुमरी में आपने श्रृंगार रस के वियोग पक्ष का कल्पनाशील चित्रण महसूस किया था; किन्तु आज की ठुमरी में नायिका अपने प्रियतम से बिछड़ना ही नहीं चाहती| उसे रोकने के लिए नायिका तरह-तरह के प्रयत्न करती है, तर्क देती है, यहाँ तक कि वह अपने प्रियतम को धमकी भी देती है|

इस श्रृंखला की पहली कड़ी में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि ठुमरी शैली में रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है| ख़याल शैली के द्रुत लय की रचना (छोटा ख़याल) और ठुमरी में मूलभूत अन्तर यही होता है कि छोटा ख़याल में शब्दों की अपेक्षा राग के स्वरों और स्वर संगतियों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है, जबकि ठुमरी में रस के अनुकूल भावाभिव्यक्ति पर ध्यान रखना पड़ता है| प्रायः ठुमरी गायक / गायिका को एक ही शब्द अथवा शब्द समूह को अलग-अलग भाव में प्रस्तुत करना होता है| इस प्रक्रिया में राग के निर्धारित स्वरों में कहीं-कहीं परिवर्तन करना पड़ता है|

आज हम ठुमरी की उत्पत्ति और उसके क्रमिक विकास पर थोड़ी चर्चा करेंगे| दरअसल ठुमरी की उत्पत्ति के विषय में अनेक मत-मतान्तर हैं| सामान्य धारणा है कि 19 वीं शताब्दी के मध्यकाल में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में ठुमरी का जन्म हुआ| परन्तु यह धारणा पूरी तरह ठीक नहीं है| 19 वीं शताब्दी से काफी पहले भारतीय संगीत शास्त्र इतना समृद्ध था कि उसमें किसी नई शैली के जन्म लेने की सम्भावना नहीं थी| भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में गीत के मूल तत्वों का जो निरूपण किया गया है, उसके अन्तर्गत सभी प्रकार के गीत किसी न किसी रूप में उपस्थित थे| दरअसल नवाब वाजिद अली शाह संगीत-नृत्य प्रेमी थे और संरक्षक भी| उन्नीसवीं शताब्दी में ही नवाब और कदरपिया नामक संगीतज्ञ ने कत्थक नृत्य के साथ गायन के लिए कई प्रयोग किये| द्रुत लय के ख़याल, अवध क्षेत्र की प्रचलित लोक संगीत शैलियों तथा ब्रज क्षेत्र के कृष्णलीला से सम्बन्धित गेय पदों का नृत्य के साथ प्रयोग किया गया| नवाब के दरबारी गायक उस्ताद सादिक अली खां का योगदान भी इन प्रयोगों में था| नवाब वाजिद अली शाह ने खुद "अख्तरपिया" उपनाम से इस प्रकार के कई गीत रचे| नवाबी शासनकाल तक नृत्य के लिए तैयार की गईं ऐसी रचनाओं को "नाट्यगीति" या "काव्यगीति" ही कहा जाता था| इस शैली का "ठुमरी" नामकरण 1856 के आसपास प्रचलित हुआ| नवाब वाजिद अली शाह के दरबार से "ठुमरी" की उत्पत्ति हुई; यह कहना उपयुक्त न होगा| हाँ; नवाब के दरबार में यह एक शैली के रूप में विकसित हुई और यहीं पर "ठुमरी" के रूप में इस शैली की पहचान बनी|

"ठुमरी" का विकास क्रम कथक नृत्य में भाव प्रदर्शन से जुड़ा हुआ है| आज हम आपको जो ठुमरी सुनाने जा रहे हैं, वह भी नृत्य पर फिल्माया गया है| 1949 में निर्मित फिल्म "बेक़सूर" में गायिका राजकुमारी द्वारा गायी राग "पीलू" में निबद्ध इस ठुमरी को शामिल किया गया है| यह एक पारम्परिक ठुमरी है, किन्तु फिल्म के गीतकार आरज़ू लखनवी ने आरम्भ में और अन्तरों के मध्य विषय के अनुकूल उर्दू के शे'र भी जोड़े हैं| पूरब अंग की ठुमरियों में, विशेष रूप से दादरा में ऐसे प्रयोग प्रारम्भ से ही होते रहे हैं| फिल्मों में जब पारम्परिक गीत शामिल किये जाते है तब प्रायः भ्रम की स्थिति बन जाती है| फ़िल्मी ठुमरियों के मामले में यह भ्रम कुछ अधिक ही रहता है| रिकार्ड पर फिल्म के गीतकार का नाम अंकित होता ही है, किन्तु ठुमरी की रचना में गीतकार की भूमिका तय करना कठिन होता है| साहिर लुधियानवी और शैलेन्द्र ऐसे गीतकार हुए हैं, जिन्होंने परम्परागत शास्त्रीय और उपशास्त्रीय रचनाओं से प्रेरणा लेकर फिल्मों में कई सफल गीतों की रचनाएँ की हैं| कुछ गीतकारों ने परम्परागत ठुमरी के स्थायी को बरक़रार रखा, किन्तु अन्तरा की पंक्तियाँ अपनी ओर से जोड़ दीं| इसी प्रकार संगीतकारों की भूमिका भी अलग-अलग रही| इस ठुमरी के संगीतकार अनिल विश्वास ने ठुमरी के अनुकूल वाद्यों का बड़ा प्रभावी उपयोग किया है| आइए राग पीलू की इस ठुमरी का रसास्वादन किया जाए-



क्या आप जानते हैं...
कि अपने समय में फिल्म "बेक़सूर" बॉक्स ऑफिस पर सातवीं सबसे सफल फिल्म थी| 1950 में प्रदर्शित इस फिल्म ने लगभग नब्बे लाख रूपये की कमाई की थी|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 04/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - अमीरबाई की आवाज़ है एक बार फिर.
सवाल १ - किस राग पर आधारित है ये ठुमरी - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी आपने अपने बारे में जो जानकारी दी उसे सुनकर बेहद अच्छा लगा, हम चाहेंगें कि शृंखला में पेश होने वाले गीतों पर आप अपनी तरफ से भी कुछ टिपण्णी जोड़ें और कृष्ण मोहन जी की मेहनत को और सार्थक करें. कल आपने और अमित जी क्लिप्पिंग गलत होने के बावजूद कवल सूत्र देखकर जिस तरह जवाब दिया वो कबीले तारीफ है. दरअसल एक ही फाईल सिस्टम में दो नामों से सेव हो गयी थी, इस कारण ये गलती हुई, हमें खेद है पर इस सही जवाब के लिए हम अंक नहीं दे पायेंगें, क्योंकि प्रश्न अधूरा होने के कारण इस पहेली को निरस्त माना जायेगा. आगे से मैं इस क्लिप को डबल चेक कर लिया करूँगा, धन्येवाद

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, June 20, 2011

चाँद-दूत परिकल्पना की अनुभूति कराती ठुमरी "चंदा देस पिया के जा..."



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 682/2011/122

फ़िल्म संगीत में ठुमरी के प्रयोग पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है! कल की कड़ी में आपने राग "झिंझोटी" की ठुमरी के माध्यम से विरह की बेचैनी का अनुभव किया था| आज के ठुमरी गीत में श्रृंगार रस के वियोग पक्ष को रेखांकित किया गया है| नायिका अपनी विरह-व्यथा को नायक तक पहुँचाने के लिए वही मार्ग अपनाती है, जैसा कालिदास के "मेघदूत" में अपनाया गया है| "मेघदूत" का यक्ष जहाँ अपनी विरह वेदना की अभिव्यक्ति के लिए मेघ को सन्देश-वाहक बनाता है, वहीं आज के ठुमरी गीत की नायिका अपनी विरह व्यथा की अभिव्यक्ति के लिए चाँद को दूत बनने का अनुरोध कर रही है| आज के ठुमरी गीत के बारे में कुछ और चर्चा से पहले आइए "ठुमरी" शैली पर थोड़ी बातचीत हो जाए|

ठुमरी एक भाव-प्रधान, चपल-चाल वाला गीत है| मुख्यतः यह श्रृंगार प्रधान गीत है; जिसमें लौकिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार का श्रृंगार मौजूद होता है| इसीलिए ठुमरी में लोकगीत जैसी कोमल शब्दावली और अपेक्षाकृत हलके रागों का ही प्रयोग होता है| अधिकतर ठुमरियों के बोल अवधी, भोजपुरी अथवा ब्रज भाषा में होते हैं| नृत्य में प्रयोग की जाने वाली अधिकतर ठुमरी कृष्णलीला प्रधान होती हैं| शान्त, गम्भीर अथवा वैराग्य भावों की सृष्टि करने वाले रागों के बजाय चंचल रागों; जैसे पीलू, काफी, जोगिया, खमाज, भैरवी, तिलक कामोद, गारा, पहाड़ी, तिलंग आदि में ठुमरी गीतों को निबद्ध किया जाता है| सम्भवतः हलके या कोमल रागों में निबद्ध होने के कारण ही पं. विष्णु नारायण भातखंडे ने अपनी पुस्तक "क्रमिक पुस्तक मालिका" में ठुमरी को "क्षुद्र गायन शैली" कहा है| ठुमरी गायन में त्रिताल, चाँचर, दीपचन्दी, जत, दादरा, कहरवा आदि तालों का प्रयोग होता है|

आपके लिए आज हमने जो ठुमरी गीत चुना है; वह 1944 की फिल्म "भर्तृहरि" से है| यह फिल्म उत्तर भारत में बहुप्रचलित 'लोकगाथा' पर आधारित है| इस लोकगाथा के नायक ईसापूर्व पहली शताब्दी में उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) के राजा भर्तृहरि हैं| यह लोकगाथा भी फिल्म निर्माताओं का प्रिय विषय रहा है| इस लोकगाथा पर पहली बार 1922 में मूक फिल्म बनी| इसके बाद 1932, 1944 और 1954 में हिन्दी में तथा 1973 में गुजराती में भी इस लोकगाथा पर फ़िल्में बनीं| 1944 में बनी फिल्म "भर्तृहरि" की नायिका सुप्रसिद्ध अभिनेत्री मुमताज शान्ति थीं और इस फिल्म के संगीतकार खेमचन्द्र प्रकाश थे; जिन्होंने उस समय तेजी से उभर रहीं पार्श्वगायिका अमीरबाई कर्नाटकी को इस ठुमरी को गाने के लिए चुना| 1906 में बीजापुर, कर्नाटक में जन्मीं अमीरबाई कर्नाटकी ने 1934 में अपनी बड़ी बहन और प्रसिद्ध अभिनेत्री गौहरबाई के सहयोग से फिल्मों में प्रवेश किया था| इसी वर्ष उन्हें पहली बार फिल्म "विष्णुभक्ति" में अभिनय करने का अवसर मिला| 1934 से 1943 के बीच अमीरबाई ने अभिनय और गायन के क्षेत्र में कड़ा संघर्ष किया| अन्ततः 1943 में उनकी किस्मत तब खुली जब उन्हें 'बोम्बे टाकीज' की फिल्म "किस्मत" में गाने का अवसर मिला| इस फिल्म के गीतों से अमीरबाई को खूब प्रसिद्धि मिली| उन्हें प्रसिद्ध करने में फिल्म के संगीतकार अनिल विश्वास का बहुत बड़ा योगदान था|

अमीरबाई कर्नाटकी के स्वरों में जो ठुमरी गीत हम आपके लिए प्रस्तुत करने जा रहे हैं; वह ऋतु प्रधान राग "हेमन्त" में निबद्ध है| इस राग में श्रृंगार का विरह पक्ष और तड़प का भाव खूब उभरता है| गायिका अमीरबाई कर्नाटकी ने नायिका की विरह-व्यथा को अपने स्वरों के माध्यम से किस खूबी से अभिव्यक्त किया है; यह आप ठुमरी सुन कर सहज ही अनुभव कर सकते हैं| यह परम्परागत ठुमरी नहीं है; इसके गीतकार हैं पं. इन्द्र; जिनकी 'चाँद-दूत' परिकल्पना को अमीरबाई कर्नाटकी के स्वरों ने सार्थक किया है|



क्या आप जानते हैं...
कि अमीरबाई कर्नाटकी ने फिल्मों में अभिनय और पार्श्वगायन के अलावा संगीत निर्देशन भी किया था| 1948 में बहाव पिक्चर्स की सफल फिल्म "शाहनाज़" में अमीरबाई ने संगीत निर्देशन किया था|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 03/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - अपने ज़माने (१९४९-१९५०) में ये फिल्म बेहद सफल हुई थी.
सवाल १ - इस पारंपरिक ठुमरी में किस गीतकार ने अपने शब्द जोड़े हैं - २ अंक
सवाल २ - किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक
सवाल ३ - गायिका कौन है - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित और अविनाश जी ने जबरदस्त वापसी की है. हिन्दुस्तानी जी ने २ अंक और क्षिति जी ने १ अंक कमाए हैं, बधाई, लगता है ये शृंखला बेहद दिलचस्प होने वाली है. वैसे हम आप सबको बता दें कि ये शृंखला २० एपिसोड्स की होगी, यानी उलट फेर हर कदम पर संभव है, अनजान जी लगता है कुछ ज्यादा ही नाराज़ हो गए हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, June 19, 2011

पिया बिन नाहीं आवत चैन: राग झिंझोटी के सुरों में उभरी देवदास की बेचैनी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 681/2011/121

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! सजीव सारथी के निर्देशन में इस सुरीले कारवाँ को लेकर आगे बढ़ते हुए हम बहुत जल्द पहुँचने वाले हैं अपने ७००-वे पड़ाव पर। इस ख़ास मंज़िल को छू पाना हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है। इसलिए हमें लगा कि जिस शृंखला के ज़रिये हम इस ७००-वे अंक तक पहुँचेंगे, वह शृंखला बेहद ख़ास होनी चाहिए। इस मनोकामना को साकार करने के लिए हम एक बार फिर से आमंत्रित कर रहे हैं हमारे अतिथि स्तंभकार और वरिष्ठ कला-समीक्षक व पत्रकार श्री कृष्णमोहन मिश्र को। आइए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अगले तीस अंकों (६८१ से ७१०) का हम आनंद लें कृष्णमोहन जी के साथ।
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'ओल्ड इज गोल्ड' के संगीत प्रेमी पाठकों/श्रोताओं का आज से शुरू हो रही हमारी नई श्रृंखला 'रस के भरे तोरे नैन...' में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से हार्दिक स्वागत है| आपको शीर्षक से ही यह अनुमान हो ही गया होगा कि इस श्रृंखला का विषय फिल्मों में शामिल उपशास्त्रीय गायन शैली "ठुमरी" है| सवाक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर से ही फ़िल्मी गीतों के रूप में ठुमरियों का प्रयोग आरम्भ हो गया था| विशेष रूप से फिल्मों के गायक सितारे कुंदनलाल सहगल ने अपने कई गीतों को ठुमरी अंग में गाकर फिल्मों में ठुमरी शैली की आवश्यकता को बल दिया| चौथे दशक के मध्य से लेकर आठवें दशक के अन्त तक की फिल्मों में सैकड़ों ठुमरियों का प्रयोग हुआ है| इनमे से अधिकतर ठुमरियाँ ऐसी हैं जो फ़िल्मी गीत के रूप में लिखी गईं और संगीतकार ने गीत को ठुमरी अंग में संगीतबद्ध किया| कुछ फिल्मों में संगीतकारों ने परम्परागत ठुमरियों का भी प्रयोग किया है| इस श्रृंखला में हम आपसे ऐसी ही कुछ चर्चित-अचर्चित फ़िल्मी ठुमरियों पर चर्चा करेंगे|

आज के ठुमरी गीत पर चर्चा से पहले भारतीय संगीत की रस, रंग और भाव से परिपूर्ण शैली "ठुमरी" पर चर्चा आवश्यक है| "ठुमरी" उपशास्त्रीय संगीत की लोकप्रिय गायन शैली है| यद्यपि इस शैली के गीत रागबद्ध होते हैं, किन्तु "ध्रुवपद" और "ख़याल" की तरह राग के कड़े प्रतिबन्ध नहीं रहते| रचना के शब्दों के अनुकूल रस और भाव की अभिव्यक्ति के लिए कभी-कभी गायक राग के स्वरों में अन्य स्वरों को भी मिला देते हैं| ऐसी ठुमरियों को 'मिश्र खमाज', 'मिश्र पहाडी', 'मिश्र काफी' आदि रागों के नाम से पहचाना जाता है| ठुमरियों में श्रृंगार और भक्ति रसों की प्रधानता होती है| कुछ ठुमरियों में इन दोनों रसों का अद्भुत मेल भी मिलता है| ठीक उसी प्रकार जैसे सूफी गीतों और कबीर के निर्गुण पदों में उपरी आवरण तो श्रृंगार रस से ओत-प्रोत होता है, किन्तु आन्तरिक भाव आध्यात्म और भक्ति भाव की अनुभूति कराता है|

आइए, अब आज के ठुमरी गीत पर थोड़ी चर्चा कर ली जाए| इस श्रृंखला की पहली फ़िल्मी ठुमरी के लिए हमने 1936 की फिल्म "देवदास" का चयन किया है| यह फिल्म सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के इसी नाम के उपन्यास पर बनाई गई थी| यह उपन्यास 1901 में लिखा गया और 1917 में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ था| "देवदास" पर सबसे पहली बार 1928 में मूक फिल्म 'इस्टर्न फिल्म सिंडिकेट' ने बनाई थी, जिसमे देवदास की भूमिका नरेश चंद्रा ने निभाया था| सवाक फिल्मों के युग में "देवदास" उपन्यास पर अब तक सात और फ़िल्में बन चुकी हैं| अकेले 'न्यू थिएटर्स' ने ही चार अलग-अलग भाषाओं में फिल्म "देवदास" का निर्माण किया था| 1935 में पी.सी. बरुआ (प्रथमेश चन्द्र बरुआ) के निर्देशन में बांग्ला भाषा की फिल्म "देवदास" का निर्माण हुआ| 1936 में श्री बरुआ के निर्देशन में ही हिन्दी में और 1937 में असमीया भाषा में यह फिल्म बनी थी| 1936 में ही 'न्यू थिएटर्स' की ओर से पी.वी. राव के निर्देशन में इस फिल्म के तमिल संस्करण का निर्माण भी किया गया था, किन्तु दक्षिण भारत में यह फिल्म बुरी तरह असफल रही| 1953 में तमिल और तेलुगु में "देवदास" के निर्माण का पुनः प्रयास हुआ और इस बार दक्षिण भारत में यह द्विभाषी प्रयोग सफल रहा| 1955 में विमल राय के निर्देशन में "देवदास" का निर्माण हुआ, जिसमें दिलीप कुमार देवदास की भूमिका में थे| इसके बाद 2002 में शाहरुख़ खान अभिनीत "देवदास" का निर्माण हुआ था|

आज हम आपके लिए फिल्म "देवदास" के जिस गीत को लेकर उपस्थित हुए हैं वह 1936 में हिन्दी भाषा में निर्मित फिल्म "देवदास" का है| फिल्म के निर्देशक पी.सी. बरुआ हैं, देवदास की भूमिका में कुंदनलाल सहगल, पारो (पार्वती) की भूमिका में जमुना बरुआ और चन्द्रमुखी की भूमिका में राजकुमारी ने अभिनय किया था| फिल्म के संगीतकार तिमिर बरन (भट्टाचार्य) थे| तिमिर बरन उस्ताद अलाउद्दीन खां के शिष्य और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वानों के कुल के थे| साहित्य और संगीत में कुशल तिमिर बरन के 'न्यू थियेटर्स' में प्रवेश करने पर पहली फिल्म "देवदास" का संगीत निर्देशन सौंपा गया| इस फिल्म के गीत आज आठ दशक के बाद भी चिर-नवीन लगते हैं| फिल्म के दो गीतों (ठुमरी) पर आज हम विशेष चर्चा करेंगे| पहली ठुमरी है -"बालम आय बसों मोरे मन में....."| राग "काफी" की यह ठुमरी प्राकृतिक परिवेश में, प्रणय निवेदन के भाव में प्रस्तुत किया गया है| दूसरी ठुमरी है -"पिया बिन नाहीं आवत चैन...", जो वास्तव में राग "झिंझोटी" की एक परम्परागत ठुमरी है, जिसका स्थायी और एक अन्तरा सहगल साहब ने अत्यन्त संवेदनशीलता के साथ गाया है| "झिंझोटी" की यह विशेषता होती है कि श्रृंगार रस प्रधान, चंचल प्रवृत्ति का होते हुए भी अद्भुत रस, भ्रम, बेचैनी और आश्चर्य भाव की अभिव्यक्ति में भी सक्षम होता है| राग "झिंझोटी" की यह ठुमरी 1925 -26 में महाराज कोल्हापुर के राज-गायक खां साहब अब्दुल करीम खां के स्वरों में अत्यन्त लोकप्रिय थी| रिकार्डिंग के बाद सहगल साहब की आवाज़ में इस ठुमरी को अब्दुल करीम खां साहब ने सुना और सहगल साहब की गायन शैली की खूब तारीफ़ करते हुए उन्हें बधाई का एक सन्देश भी भेजा था| सहगल साहब ने परदे पर शराब के नशे में धुत देवदास की भूमिका में इस ठुमरी का स्थाई और एक अन्तरा गाया है| गायन के दौरान ठुमरी में ताल वाद्य (तबला) की संगति नहीं की गई है| पार्श्व संगीत के लिए केवल वायलिन और सरोद की संगति है| आइए, राग "झिंझोटी" की यह ठुमरी के.एल. सहगल के स्वरों में सुनते हैं -



क्या आप जानते हैं...
कि "देवदास" उपन्यास के लेखक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने फिल्म देख कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था -"फिल्म देखने के बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि इस उपन्यास को लिखने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है और इसे सिनेमा के परदे पर मूर्त रूप देने के लिए ही आपका (पी.सी. बरुआ) का जन्म हुआ है|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 01/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - फिल्म की नायिका अभिनेत्री मुमताज शान्ति थीं.
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - गायिका बताएं - २ अंक
सवाल ३ - गीतकार का नाम बताएं - ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी कमाल कर दिया आपने, ३ अंकों की बहुत बधाई. शानदार शुरुआत, इस बढ़त को बरकरार रखें

खोज और आलेख
कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - गंभीर प्रकृति के राग यमन की बात



सुर संगम - २५ - राग यमन

प्रचीन काल से यह राग 'कल्याण' के नाम से ही प्रचलित था परंतु मुग़ल शासन काल के दौरान इस राग का नाम 'राग ईमान' या 'राग यमन' पड़ा।

योऽयं ध्वनि-विशेषस्तु स्वर-वर्ण-विभूषित:।
रंजको जनचित्तानां स राग कथितो बुधै:।।

उपरोक्त श्लोक का अर्थ है - स्वर और वर्ण से विभूषित ध्वनि, जो मनुष्यों का मनोरंजन करे, राग कहलाता है। सुर-संगम के २५वें साप्ताहिक अंक में मैं सुमित चक्रवर्ती आप सभी संगीत प्रेमियों का स्वागत करता हूँ। सुर-संगम का स्तंभ मूलत: आधारित है भारतीय शास्त्रीय संगीत पर। तो हमने सोचा कि क्यों न आज के इस विशेष अंक में चर्चा की जाए भारतीय शास्त्रीय संगीत के अर्क की - यानी 'राग' की। राग सुरों के आरोहण और अवतरण का ऐसा नियम है जिससे संगीत की रचना की जाती है। कोई भी राग कम से कम पाँच और अधिक से अधिक ७ स्वरों के मेल से बनता है। राग का प्राचीनतम उल्लेख सामवेद में मिलता है। वैदिक काल में ज्यादा राग प्रयुक्त होते थे, किन्तु समय के साथ-साथ उपयुक्त राग कम होते गये। सुगम संगीत व अर्धशास्त्रीय गायनशैली में किन्ही गिने चुने रागों व तालों का प्रयोग होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में रागों की भरपूर विभिन्नता पाई जाती है। इन्हीं भिन्नताओं के आधार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत को २ पद्धतियों में बाँटा गया है - हिंदुस्तानी व कर्नाटिक। सुर-संगम के आगामी अंकों में हम विभिन्न रागों को लेकर भी चर्चा करेंगे। आइए इसकी शुरुआत करते हैं राग 'यमन' से, किंतु इस राग के बारे में जानने से पहले सुन लेते हैं उस्ताद मुनव्वर खाँ द्वारा राग यमन की यह प्रस्तुति।

उस्ताद मुनव्वर खाँ - राग यमन


प्रथम पहर निशि गाइये ग नि को कर संवाद

जाति संपूर्ण तीवर मध्यम यमन आश्रय राग

इस राग को राग कल्याण के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति कल्याण थाट से होती है अत: इसे आश्रय राग भी कहा जाता है। जब किसी राग की उत्पत्ति उसी नाम के थाट से हो तो उसे आश्रय राग कहा जाता है। राग यमन की विशेषता है कि इसमें तीव्र मध्यम और अन्य स्वर शुद्ध प्रयोग किये जाते हैं। ग वादी और नि सम्वादी माना जाता है। इस राग को रात्रि के प्रथम प्रहर या संध्या समय गाया-बजाया जाता है। इसके आरोह और अवरोह दोनों में सातों स्वर प्रयुक्त होते हैं, इसलिये इसकी जाति सम्पूर्ण है। प्रचीन काल से यह राग 'कल्याण' के नाम से ही प्रचलित था परंतु मुग़ल शासन काल के दौरान इस राग का नाम 'राग ईमान' या 'राग यमन' पड़ा।

आरोह- सा रे ग, म॑ प, ध नि सां अथवा ऩि रे ग, म॑ प, ध नि सां ।

अवरोह- सां नि ध प, म॑ ग रे सा ।

पकड़- ऩि रे ग रे, प रे, ऩि रे सा ।


इस राग को गंभीर प्रकृति का राग माना गया है। इसमें बड़ा और छोटा ख्याल, तराना, ध्रुपद, तथा मसीतख़ानी और रज़ाख़ानी भी सामान्य रूप से गाई-बजाई जाती है। राग यमन जहाँ मुख्यतः हिन्दुस्तानी शैली में गाया-बजाया जाता है वहीं इसे दक्षिण भारत की कर्नाटिक शैली में राग कल्याण के रूप में गाया-बजाया जाता है। लीजिए प्रस्तुत है पं० द्त्तात्रेय विष्णु पालुस्कर द्वारा राग कल्याण में यह प्रस्तुति।

पं० डी. वी. पालुस्कर - राग कल्याण


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: एक महान रूद्रवीणा वादक जिनका हाल ही में निधन हुआ, सुर-संगेम देगा उन्हें आगामी अंक में श्रद्धांजलि।

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी को बधाई! क्षिति जी एक बार चूक गईं तो क्या? टक्कर तो आप बराबरी का दे रहीं हैं!

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे सुजॉय के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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