सुना है तानसेन जब दीपक राग गाते थे तो दीप जल उठते थे और जब मेघ मल्हार की तान छेड़ते थे तो मेघ अपनी गठरी खोलने को मजबूर हो जाते थे। पीछे मुड़ कर देखें तो न जाने कितने ही ऐसे फ़नकार वक्त की चादर में लिपटे मिल जाते हैं जो इतिहास का हिस्सा बन कर भी आज भी हमारे दिलो जान पर छाये हुए हैं, आज भी उनका संगीत आदमी तो आदमी, पशु पक्षियों, वृक्षों और सारी कायनात को अपने जादू से बांधे हुए है।
आइए ऐसी ही एक जादूगरनी से आप को मिलवाते हैं जो बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हैं।
आज से लगभग एक सदी पहले जब रंगीन मिजाज, संगीत पुजारी अवधी नवाबों का जमाना था, लखनऊ से कोई 80 किलोमीटर दूर फ़ैजाबाद में एक प्रेम कहानी जन्मी। पेशे से वकील, युवा असगर हुसैन को मुश्तरी से इश्क हो गया। हुसैन साहब पहले से शादी शुदा थे पर इश्क का जादू ऐसा चढ़ा कि उन्हों ने मुश्तरी को अपनी दूसरी बेगम का दर्जा दे दिया। लेकिन हर प्रेम कहानी का अंत सुखद नहीं होता, दूसरे की आहों पर परवान चढ़े इश्क का अंत तो बुरा होना ही था। मुशतरी के दो बेटियों के मां बनते बनते हुसैन साहब के सर से इश्क का भूत उतर गया और उन्हों ने न सिर्फ़ मुश्तरी से सब रिश्ते तोड़ लिए बल्कि अपनी बेटियों (जोहरा और बिब्बी) के अस्तित्व को भी नकार दिया। दुखों की कड़ी अभी टूटी नहीं थी। चार साल की बिब्बी(अख्तर)और उसकी जुड़वां बहन जोहरा ने पता नहीं कैसे विषाक्त मिठाई खा ली और जब तक कुछ कारागर इलाज होता जोहरा इस दुनिया से कूच कर गयी। इतने बड़े जहान में एक दूसरे का सहारा बनने को रह गयीं मां बेटी अकेली।
इश्क में गैरते-जज़्बात ने रोने न दिया ...
ये वो जमाना था जब पेशेवर महिलाओं प्रोत्साहन देना तो दूर हिकारत की नजर से देखा जाता था, और अगर वो गायिका किसी गायिकी के घराने से हो तब तो उसे महज कोठे वाली ही समझ लिया जाता था। लेकिन अख्तरी बाई फ़ैजाबादी को भी आसान राहें गवारा कहाँ। सात साल की कच्ची उम्र में चंद्राबाई के स्वर कान में पड़ते ही उन्हों ने अपने जीवन का सबसे अहम फ़ैसला कर डाला कि उन्हें गायिका बनना है। बस उसी उम्र से संगीत की तालीम का एक लंबा सफ़र शुरु हो गया। पहले पटना के मशहूर सारंगी वादक उस्ताद इम्दाद खान, पटियाला के अता मौहम्मद खान, कलकत्ता के मौहम्मद खान, लाहौर के अब्दुल वाहिद खान से होता हुआ ये सफ़र आखिरकार उस्ताद झंडेखान पर जा कर खत्म हुआ।
ये सफ़र इतना आसां न था। मौसिकी का सफ़र वैसे तो सबके लिए ही तकलीफ़ों से गुले गुलजार होता है लेकिन औरतों के लिए ये सफ़र कई गुना ज्यादा तकलीफ़ें ले कर आता है। अख्तरी बाई भी उससे कैसे अछूती रह पातीं। सात साल की उम्र में ही पहले उस्ताद ने गायकी की बारीकियाँ सिखाने के बहाने उनकी पोशाक उठा अपना हाथ उनकी जांघ पर सरका दिया और तेरह साल की उम्र होते होते बिहार की किसी रियासत के राजा ने उनकी गायकी के कद्रदान बनते बनते उनकी अस्मत लूट ली। इस हादसे का जख्म सारी उम्र उनके लिए हरा रहा एक बेटी के रूप में जिसे दुनिया के डर से उन्हें अपनी छोटी बहन बताना पड़ता था। पन्द्रह साल की उम्र में पहली बार मंच पर उतरने के पहले हालातों ने वो नश्तर चुभो दिए कि उसके बाद इस सफ़र को जारी रखना एक जंग लड़ने के बराबर था, पर फ़िर भी उन्हों ने अपना संगीत का सफ़र जारी रखा।
'ऐ मौहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, जाने क्युं आज मुझे तेरे नाम पे रोना आया'
कहते हैं न हिना रंग लाती है पिसने के बाद्। अख्तरी बाई ऐसी ही हिना थीं जितने नासूर जिन्दगी ने उन्हें अता किए उतने ही गहरे रंग उनकी गायकी में घुलते गये।आसपास इतने चाहने वाले होते हुए भी जिन्दगी में पसरे अकेलेपन का एहसास, 'अब आगे पता नहीं क्या हो? का डर, सच्चे प्यार की प्यास, दुख तो मानों उनके दिल में पक्का घर बना के बैठ गया था जो हजार कौशिश करने के बाद भी पल भर को भी हटने का नाम न लेता था। कोई आम महिला होती तो शायद टूट चुकी होती लेकिन अख्तरी बाई ने इन्हीं दुखों को अपनी ताकत बना लिया। जब वो गाती थीं तो उनकी आवाज में वो दर्द छलकता था जो सीधा सुनने वाले के दिल में उतर जाता था। आखों में आसूँ आये बिना न रहते थे।
गायकी और शायरी का तो जुड़वां बहनों जैसा रिश्ता है। अख्तरी बाई, जो शादी के बाद बेगम अख्तर कहलायी जाने लगीं, को भी अच्छी शायरी की खूब पहचान थी। फ़िर शायरी चाहे हिन्दूस्तानी में हो या पुरबिया, ब्रिज या उर्दू में उनकी शब्दों पर पकड़ भी उतनी ही लाजवाब थी जितनी गायकी पर । वो तभी कोई गजल गाती थीं जब उन्हें उसके शेर पसंद आ जाएं। चुनिन्दा शायरी जब उनकी शास्त्रीय संगीत में मंजी आवाज और रूह की गहराइयों से फ़ूटते दर्द में लिपट कर सामने आती थी तो सुनने वालों की आह निकले बिना न रहती। कितनी ही गजलें उनकी आवाज की नैमत पा कर अजर अमर हो गयीं। ये तो जैसे तयशुदा बात थी कि वो मिर्जा गालिब की गजलों की फ़ैन रहीं होगीं। मिर्जा गालिब की कई गजलों को उन्हों ने अपने खूबसूरत अंदाज में गा कर और खूबसूरत बना दिया। एक गजल जो मुझे भी बहुत पसंद है बेगम अख्तर की अदायगी में वो है -
जिक्र उस परीवश का और फ़िर बयां अपना...
(जारी..)
प्रस्तुति - अनीता कुमार
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13 श्रोताओं का कहना है :
.मल्लिकाए बेगम अख्तर की आवाज के सामने हमारे हर शब्द फीके ही रह जातें है ...आपने बेहद दिल से लिखा है ये लेख ...अपनी पसंद जब शब्दों मैं ढलती है तो सब कुछ दिल्कशिश होता है ...इश्क में गैरते-जज़्बात ने रोने न दिया ...आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया मेरी पसंदीदा गजल,आवाज़ उनके दुखों को सलाम अब कोई मल्लिका पैदा भी नही हो सकती बस उन्हें याद करके ही आदर दिया जा सकता है ....
बेगम अख्तर के बारे मे बताने का शुक्रिया । इनकी आवाज के तो सभी कायल है ।
आवाज़ पर अब तक का आपका बेहतरीन आर्टिकल। लेखनी में आकर्षण है जो पाठक को अंत तक बाँधे रखती है। अलगी कड़ी का इंतज़ार रहेगा॰॰॰
बेगम अख्तर के बारे नें पढ़कर अच्छा लगा. धन्यवाद!
बेगम अख्तर के मधुर गीत सुना कर आप ने मुझ पर उपकार किया, बहुत ही सुंदर,
धन्यवाद
maine pehla geet nahi suna tha baki dono maine radio par sune hai
aur 'zikr us parivash ka' geet rafi sahb. ne bhi gaya hai
ए मलिका-ए-तरन्नुम बेग़म अख्तर, तेरे अंजाम पे रोना आया.
इश्क ने गैरते ज़ज़बात नें - ये गीत जब चित्रा सिंग ने भी गाया तो बडा अच्छा लगा था उन दिनों. मगर जब बेग़म साहिबा का गाया सुना, पहाड और हिमालय सा फ़रक मेहसूस किया.
आपने जो जीवनी बताई उससे ये स्पष्ट हुआ कि उनकी आवाज़ में क़शिश और अफ़सुर्दः दिली कहां से आयी.
मैं आप सभी पाठकों की इस हौसला अफ़्जाई के लिए तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ
HAALAAKI MUJHE BEGAM SAHIBAA KE JIWANI KE BAARE ME KOI MAALUMAAT NAHI THI.. MAIN TO INKA BACHAPAN SE MURID RAHA HUN ,BADA DUKH HUA ... MAGAR IS HASTI KE BAARE ME KYA KAHANE... AFSURDA AUR KASHISH AB SAMAJH AAEE.. AAPKO BADHAAYEE..
ARSH
aap ne begam akhtar ji ke bare main jo jankari di uske liya dhnyvad.
dukh to is bat ka hai ki unhi ke janambhumi FAIZABAD U.P. main unke nam ka kuch nahi bacha hai.
har varsh janam din avam punyatithi par akhbaro main do laine chap jati hain.
press bhi is or koi pahal nahi kar raha hai.
iske liy hamein kuch karna ho ga,tabhi ham unahen yad rakh sakenge.
pradeep srivastava,NIZAMABAD A.P
mail pradeep.srivastava2@gmail.com
mujhe aaj hee is website ka pata mila aur ise dekh,padh va sun ke eisa laga jaise mujhe mera khoya hua saathee mil gaya ho.
Aap saadhuwaad ke paatr hain.
Dr. Arun Kumar
Jodhpur
Mujhe Arvind Kumar Purohit ki 'Shubhaste Panthan:'kavita behad saargarbhit va ek nayepan ke saath anokhee maasoomiyat se bharee lagee. Aapne ise puraskrit kar ke ye saabit kar diya ke aap bhee achhee cheezon ke gungrahak hain. Kripaya Shri Purohit tak meri ye bhaawnaayein avashya hee pahunchaa dein. Main aabhaaree rahunga.
Bhavdeey,
Dr. Arun Kumar, Jodhpur
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