Saturday, June 12, 2010

क्या क्या कहूँ रे कान्हा...पी सुशीला और रमेश नायडू ने रचा ये दुर्लभ गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 415/2010/115

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं गुज़रे ज़माने के कुछ भूले बिसरे नग़में 'दुर्लभ दस' लघु शृंखला के अन्तर्गत। कल इसमें हमने आपको सुनवाया था दक्षिण की सुप्रसिद्ध गायिका एस. जानकी की आवाज़ में एक बड़ा ही मीठा सा गीत। जब दक्षिण की गायिकाओं का ज़िक्र आता है, तो एस. जानकी के साथ साथ एक और नाम का ज़िक्र करना आवश्यक हो जाता है। और वो नाम है पी. सुशीला। दक्षिण में तो सुना है कि इन दोनों गायिकाओं के चाहनेवाले बहस में पड़ जाते हैं कि इन दोनों में कौन बेहतर हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी सिने संगीत जगत में लता और आशा के चाहनेवालों में होती है। तो इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना एस. जानकी के बाद एक गीत पी. सुशीला जी की आवाज़ में भी सुन लिया जाए। पी. सुशीला की आवाज़ में जिस दुर्लभ गीत को हमने खोज निकाला है वह गीत है फ़िल्म 'पिया मिलन' का, जिसके बोल हैं "क्या क्या कहूँ रे कान्हा, तू ने चुराया दिल को"। इस गीत को सुनते हुए आपको दक्षिण भारत की याद ज़रूर आएगी। गीत का संगीत दक्षिणी अंदाज़ में तैयार किया गया है, साज़ भी वहीं के हैं, और इसके लिए श्रेय जाता है संगीतकार रमेश नायडू को। दरअसल यह दक्षिण की ही फ़िल्म थी जो बनी थी सन् १९५८ में और जिसका निर्देशन किया था टी. आर. रघुनाथ ने। फ़िल्म की नायिका थीं वैजयंतीमाला।

दोस्तों, आज हम आपको जानकारी देंगे संगीतकार रमेश नायडू के बारे में। रमेश नायडू का जन्म सन् १९३३ में हुआ था आंध्रप्रदेश के कोंडापल्ली में जो कृष्णा ज़िले में स्थित है। उनका पूरा नाम था पसुपुलेटी रमेश नायडू। उनका मुख्य योगदान ७० और ८० के दशकों के तेलुगू फ़िल्मों में रहा है। उनके रचे संगीत में फ़िल्म 'मेघ संदेशम' को उनकी सर्वोत्तम कृति मानी जाती है जिसके लिए उन्हे १९८३ में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। बहुत ही कम उम्र में वो घर से भाग गए थे और एक साज़ों की दुकान पर सहायक के रूप में काम करने लगे। वहीं पर उन्होने कई साज़ बजाने सीखे और वहीं पर उन्हे हिंदी और मराठी के कई संगीतकारों से मिलने के सुयोग नसीब हुए। केवल १४ वर्ष की उम्र में उन्हे मराठी फ़िल्म 'बंदवल पहिजा' में संगीत देने का मौका मिला। कृष्णावेणी ने उन्हे जिस तेलुगू फ़िल्म में पहला मौका दिलवाया, वह फ़िल्म थी 'दाम्पत्यम'। रमेश नायडू फिर बम्बई चले गए और फिर कलकत्ते का रुख़ किया। एक बंगाली लड़की से विवाह के पश्चात्‍ उन्होने १० साल तक बंगला, नेपाली और ओड़िया फ़िल्मों में संगीत देते रहे और १९७२ में वो लौटे तेलुगू फ़िल्म जगत में फ़िल्म 'अम्मा माता' के साथ। हिंदी फ़िल्म संगीत जगत में रमेश नायडू बहुत ज़्यादा सक्रीय नहीं हो सके। उनके संगीत से सजी हिंदी फ़िल्में हैं - हैमलेट (१९५४), पिया मिलन (१९५८), जय सिंह (१९५९), नर्तकी चित्रा (१९६५), गंगा भवानी (१९७९), आज़ादी की ओर (१९८६), हम भी कुछ कम नहीं (१९९१)। और दोस्तों, आपको यह भी बता दें कि फ़िल्म 'पिया मिलन' में पी. सुशीला के अलावा लता मंगेशकर, उषा मंगेशकर, ओम वर्मा और जगमोहन बक्शी ने भी गानें गाए। लता, उषा और जगमोहन की आवाज़ों में इस फ़िल्म का "ओ साथी रे तू आ भी जा" भी अपने आप में एक दुर्लभ गीत है जिसे हम फिर किसी दिन आपको सुनवाने की कोशिश करेंगे। तो आइए आज इस महफ़िल को महकाया जाए सुरीली गायिका पी. सुशीला की आवाज़ के साथ।



क्या आप जानते हैं...
कि गायिका डॊ. पी. सुशीला एक ट्रस्ट चलाती हैं जिसके ज़रिए वो ना केवल संगीत कलाकारों को पुरस्कृत करती हैं, बल्कि ज़रूरतमंद संगीत के छात्रों को आर्थिक मदद भी देती हैं।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत के संगीतकार वो हैं जो किसी ज़माने में नौशाद साहब के सहायक हुआ करते थे और जिन्हे फ़िल्मी गीतों में मटके का प्रयोग प्रचलित करने का श्रेय दिया जाता है। संगीतकार का नाम बताएँ। २ अंक।

२. गीत के मुखड़े में शब्द है "ठिकाना"। गीत बताइए। ३ अंक।

३. इसी शीर्षक से एक और फ़िल्म भी बनी थी जिसमें लता और किशोर ने ख़य्याम साहब की धुन पर एक बेहद सुरीला युगल गीत गाया था जिसके मुखड़े में "ज़ुल्फ़" शब्द का प्रयोग हुआ है। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।

४. इस गीत की गायिका वो हैं जिन्होने अनवर के साथ मिलकर राज कपूर की एक बेहद कामयाब फ़िल्म में एक गीत गाया था। गायिका का नाम बताएँ। २ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी स्वागत, आपका खाता २ अंकों के साथ खुल गया है, अवध जी १० अंकों पर हैं और पराग जी ३ अंकों पर. बधाई...अवध जी, दों अलग अलग शख्सियतें हैं....दुविधा में मत पडिये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: चोरी का अर्थ - विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर विशेष



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में इस्मत चुगताई की एक सुन्दर और मार्मिक कहानी दो हाथ का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर इस विशेष प्रस्तुति में हम लेकर आये हैं विष्णु प्रभाकर की "चोरी का अर्थ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।
कहानी का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 18 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

"चोरी का अर्थ" का टेक्स्ट गद्य कोश पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


मेरे जीने के लिए सौ की उमर छोटी है
~विष्णु प्रभाकर (१२ जून १९१२ - ११ अप्रैल २००९)

विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर विशेष

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

उसने ढक्कन खोला, उसका हाथ जहाँ था, वही रूक गया।
(विष्णु प्रभाकर की "चोरी का अर्थ" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#Seventy Eighth Story, Chori Ka Arth: Vishnu Prabhakar/Hindi Audio Book/2010/22. Voice: Anurag Sharma

Friday, June 11, 2010

चैन मोरा लूटा मोरे राजा सुन....एस जानकी के स्वरों में सजा एक दुर्लभ मुजरा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 414/2010/114

कुछ दुर्लभ गीतों से इन दिनों हम सजा रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को। आज इसमें प्रस्तुत है दक्षिण की सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका एस. जानकी की आवाज़ में एक भूला बिसरा गीत फ़िल्म 'दुर्गा माता' से। यह एक मुजरा गीत है जिसके बोल हैं "चैन मेरा लूटा मोरे राजा सुन ज़रा, है कितना बेवफ़ा तू सैंया साजना"। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है, 'दुर्गा माता' एक धार्मिक फ़िल्म थी जिसका निर्माण सन् १९५९ में किया गया था। यह दक्षिण की ही फ़िल्म थी जिसमें संगीत था जी. के. वेंकटेश का और गीत लिखे एस. आर. साज़ ने। भले ही वेंकटेश साहब दक्षिण से ताल्लुख़ रखते हों, उन्होने इस मुजरे को बहुत ही कमाल का अंजाम दिया है। यहाँ तक कि सारंगी का भी इस्तेमाल किया है कहीं कहीं जो हक़ीक़त में कोठों पर बजा करती थी। इस फ़िल्म में एस. जानकी ने और भी कुछ गीत गाए, तथा एक युगल गीत मन्ना डे और गीता दत्त की आवाज़ों में भी है जिसके बोल हैं "तुम मेरे मन में"। इसे भी बहुत कम ही लोगों ने सुना होगा।


आइए आज थोड़ी चर्चा की जाए गायिका एस. जानकी की। २३ अप्रैल १९३८ को गुंटुर आंध्र प्रदेश में जन्मीं एस. जानकी अपनी करीयर में ना केवल पूरे दक्षिण भारत में छाई रहीं, बल्कि हिंदी फ़िल्म संगीत में भी उल्लेखनीय योगदान दिया। गायन के साथ साथ उन्होने गीत भी लिखे और उन्हे स्वरबद्ध भी किया। दक्षिण में एस. जानकी और एस. पी. बालासुब्रह्मण्यम की जोड़ी को सब से लोकप्रिय जोड़ी मानी जाती है। उनका करीयर १९ वर्ष की आयु में सन् १९५७ में शुरु हुआ था। दोस्तों, हमने कोशिश तो बहुत की कि एस. जानकी की पूरी हिंदी फ़िल्मोग्राफ़ी से आपका परिचय करवाएँ, लेकिन कहीं से भी हम इसे प्राप्त नहीं कर पाए। हाँ, यहाँ वहाँ से तथ्य संग्रह कर हमने कुछ फ़िल्मों की एक लिस्ट ज़रूर तैयार करी है जिनमें एस. जानकी ने गीत गाए हैं। आज की हमारी फ़िल्म 'दुर्गा माता' के अलावा कुछ और हिंदी फ़िल्में जिनमें उन्होने गीत गाएँ, वो इस प्रकार हैं - जॊनी मेरा यार, हमें भी जीने दो, दिल का साथी दिल, कर्मवीर, झंडा ऊँचा रहे हमारा, जय बालाजी, मेरा सुहाग, सच्चे का बोलबाला, सत्यमेव जयते, मेरी बहन, प्रतिघात, पाताल भैरवी, दो हाथ सौ बंदूकें, साहेब, कहाँ है कानून, बलिदान, सती अनुसूया, दशावतार, तीन दोस्त, अलख निरंजन, हक़ीक़त, आख़िरी रास्ता, पाप की दुनिया, चक्र विक्रमादित्य, नाचे मयूरी, औलाद, झूटी, काली गंगा, आग का गोला, सुर संगम, शेरा शमशेरा, धर्माधिकारी, दूध का कर्ज़, दोस्ती दुश्मनी, मोहब्बत के दुश्मन, गुरु, अव्वल नंबर, मेरा पति सिर्फ़ मेरा है, मेरा धरम, आदि। ८० के दशक में बप्पी लाहिड़ी के संगीत में एस. जानकी के गाए बहुत से हिंदी गीत ख़ूब चले थे जैसे कि "यार बिना चैन कहाँ रे" (साहेब), "गोरी का साजन, साजन की गोरी" (आख़िरी रास्ता), "मैं तेरा तोता तू मेरी मैना" (पाप की दुनिया), "दिल में हो तुम आँख में तुम" (सत्यमेव जयते) आदि। इन गीतों में एस. जानकी की आवाज़ और अंदाज़ कुछ हद तक आशा भोसले से मिलती जुलती सुनाई देती है। दोस्तों, उपर फ़िल्मों के नामों को पढ़कर आपको यह आभास ज़रूर हुआ होगा कि एस. जानकी को हिंदी फ़िल्म जगत में ज़्यादातर धार्मिक और पौराणिक विषय वाली फ़िल्मों में गाने के अवसर मिले। बाद में बप्पी लाहिड़ी ने उनकी आवाज़ का व्यावसायिक हिट फ़िल्मों में सही रूप से इस्तेमाल किया। आज एस. जानकी ७२ वर्ष की हैं और चेन्नई में जीवन यापन कर रही हैं। 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम उन्हे देते हैं ढेरों शुभकामनाएँ और सुनते हैं उनकी आवाज़ पहली बार 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर।



क्या आप जानते हैं...
कि एस. जानकी ने संगीतकार सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'दिल का साथी दिल' में कई गीत गाए थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत की गायिका दक्षिण की एक मशहूर गायिका रहीं हैं जिनके नाम में वह शब्द है जो शीर्षक एक ऐसी फ़िल्म का है जिसमें मुबारक़ बेग़म ने एक ख़ूबसूरत गीत गाया था। बताइए गायिका का नाम। ३ अंक।

२. गीत के मुखड़े में शब्द है "कान्हा"। गीत बताइए। ३ अंक।

३. फ़िल्म के शीर्षक में दो शब्द हैं जिनमे से एक शब्द शीर्षक है एक ऐसी फ़िल्म का जिसमें सुनिल दत्त और नूतन ने यादगार भूमिका निभाई थी और जिसमें लता और मुकेश का गाया एक बेहद मशहूर गीत है सावन पर। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।

४. इस फ़िल्म की नायिका वो अदाकारा हैं जिनकी माँ वसुंधरा देवी तमिल की एक गायिका रही हैं। बताइए कौन हैं इस फ़िल्म की नायिका। २ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम -

बहुत अच्छे पराग जी ३ अंक aapke aur 2 अंक avadh जी ke khate men surakshit

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

जीवन एक बुलबुला है, मानते हैं बालमुरली बालू, ह्रिचा मुखर्जी और सजीव सारथी



Season 3 of new Music, Song # 09

तीसरे सत्र के नौवें गीत के साथ हम हाज़िर हैं एक बार फिर. सजीव सारथी की कलम का एक नया रंग है इसमें, तो इसी गीत के माध्यम से आज युग्म परिवार से जुड रहे हैं दो नए फनकार. अमेरिका में बसे संगीतकार बालामुरली बालू और अपने गायन से दुनिया भर में नाम कमा चुकी ह्रिचा हैं ये दो मेहमान. वैश्विक इंटरनेटिया जुगलबंदी से बने इस गीत में जीवन के प्रति एक सकारात्मक रुख रखने की बात की गयी है, लेकिन एक अलग अंदाज़ में.

गीत के बोल -


रोको न दिल को,
उड़ने दो खुल के तुम,
जी लो इस पल को,
खुश होके आज तुम,
कोशिश है तेरे हाथों में मेरे यार,
हंसके अपना ले हो जीत या हार,
बुलबुला है बुलबुला / दो पल का है ये सिलसिला/
तू मुस्कुरा गम को भुला अब यार,
सिम सिम खुला / हर दर मिला, होता कहाँ ऐसा भला /
तो क्यों करे कोई गिला मेरे यार,

सपनें जो देखते हों तो,
सच होंगें ये यकीं रखो,
just keep on going on and on,
एक दिन जो था बुरा तो क्या,
आएगा कल भी दिन नया,
don't think that u r all alone,
कोई रहबर की तुझको है क्यों तलाश,
जब वो खुदा है हर पल को तेरे पास,
कुछ तो है तुझमें बात ख़ास,
बुलबुला है बुलबुला / दो पल का है ये सिलसिला/
तू मुस्कुरा गम को भुला अब यार,
सिम सिम खुला / हर दर मिला, होता कहाँ ऐसा भला /
तो क्यों करे कोई गिला मेरे यार,

रोको न दिल को,
उड़ने दो खुल के तुम,
जी लो इस पल को,
खुश होके आज तुम,
कोशिश है तेरे हाथों में मेरे यार,
हंसके अपना ले हो जीत या हार,
बुलबुला है बुलबुला / दो पल का है ये सिलसिला/
तू मुस्कुरा गम को भुला अब यार,
सिम सिम खुला / हर दर मिला, होता कहाँ ऐसा भला /
तो क्यों करे कोई गिला हम यार..
.



बुलबुला है मुजिबू पर भी, जहाँ श्रोताओं ने इसे खूब पसंद किया है

मेकिंग ऑफ़ "बुलबुला" - गीत की टीम द्वारा

बालामुरली बालू शुरू में मैंने सोचा था कि एक "निराश" गीत बनाऊं, उनके लिए जो जीवन से हार चुके है या किसी कारणवश बेहद दुखी हैं, फिर सोचा कि क्यों न इसी बात को दुखी अंदाज़ में कहने की बजाय जरा अपबीट अंदाज़ में कहा जाए. तो इस तरह ये धुन बनी, उसके बाद मैंने इसका डेमो सजीव को भेजा. मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने उनका लिखा गीत पढ़ा, उन्होंने मेरे एक एक नोट इतने सुन्दर शब्दों से सजा दिया था, पर मुझे लगा कि शब्दों के मूल धुन से अधिक उर्जा है, तो उसे समतुल्य करने के लिए मैंने एक बार फिर गीत के अरेंजमेंट का निरिक्षण किया और जरूरी बदलाव किये. उसके बाद ये गीत ह्रिचा के पास गया, अब ७ बार सा रे गा मा पा की विजेता से आप यही तो उम्मीद करेंगें न कि वो आपके गीत एक नयी ऊंचाई दे, और यही ह्रिचा ने किया भी...

ह्रिचा नील मुखर्जी: जब बाला ने पहली बार मुझसे इस गीत के लिए संपर्क किया तो जो चीज मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित कर रही थी वो था, उनका बहुआयामी व्यक्तित्त्व. मेरे अनुसार उन्होंने अपने अत्यधिक व्यस्त जीवनचर्या में भी जिस तरह संगीत की साधना की है वह बहुत प्रशंसनीय है. उनके इस गीत में मुझे दक्षिण भारतीय फिल संगीत शैली की झलक मिलती है जो सरल है और अत्यधिक सरस है. और इस गीत को जिस तरह लिखा गया है आज भी सार्थिक और भावप्रवल गीतों को तथाकथित अपबीट सुरों में कैसे पिरोया जा सकता है, इसकी एक मिसाल है, इसके लिए मैं सजीव को बधाई प्रेषित करती हूँ. उम्मीद है मेरा गायन भी आप सब को पसंद आएगा.

सजीव सारथी:"दिल यार यार" की मेकिंग के दौरान ही मेरी मुलाक़ात बाला से हुई, वो चाहते थे कि मैं उनके लिए एक युगल गीत लिखूं जिसका पूरा ट्रेक उनके पास तैयार था, और मैंने लिखा भी....पर जाने क्यों बाला उस गीत के संगीत संयोजन से संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे, तभी उन्होंने इस धुन पर काम करने की सोची, व्यक्तिगत तौर पे कहूँ तो मुझे ये धुन उनके युगल गीत से अधिक अच्छी लगी, बाला की धुनें बेहद सरल होती है, इस गीत में भी जरुरत बस एक कैच वर्ड की थी जो बुलबुला के रूप में जब मुझे मिला तो फिर गीत लिखने में जरा भी समय नहीं लगा. "सिम सिम खुला" मैं रखना चाहता था, हालाँकि ये मूल धुन पर एक नोट ज्यादा था, पर बाला ने मेरी भावनाओं का ख्याल रखते हुए उसे बहुत खूबसूरती से इन्कोपरेट किया है गाने में. "अलीबाबा चालीस चोर" वाले किस्से के लिया है ये सिम सिम खुला :), ह्रिचा के बारे में क्या कहूँ, उनकी आवाज़ में ये छोटा सा गाना मेरे लिए एक मिनी कैप्सूल है जिसे जब भी सुनता हूँ नयी उर्जा मिल जाती है

ह्रिचा देबराज नील मुखर्जी
२००२ में ह्रिचा लगातार ७ बार जी के सारेगामापा कार्यक्रम में विजेता रही है, जो अब तक भी किसी भी महिला प्रतिभागी की तरफ़ से एक रिकॉर्ड है. स्वर्गीय मास्टर मदन की याद में संगम कला ग्रुप द्वारा आयोजित हीरो होंडा नेशनल टेलंट हंट में ह्रिचा विजेता रही. और भी ढेरों प्रतियोगिताओं में प्रथम रही ह्रिचा ने सहारा इंडिया के अन्तराष्ट्रीय आयोजन "भारती" में ३ सालों तक परफोर्म किया और देश विदेश में ढेरों शोस् किये. फ़्रांस, जर्मनी, पोलेंड, बेल्जियम, इस्राईल जैसे अनेक देशों में बहुत से अन्तराष्ट्रीय कलाकारों के साथ एक मंच पर कार्यक्रम देने का सौभाग्य इन्हें मिला और साथ ही बहुत से यूरोपियन टीवी कार्यक्रमों में भी शिरकत की. अनेकों रेडियो, टी वी धारावाहिकों, लोक अल्बम्स, और जिंगल्स में अपनी आवाज़ दे चुकी ह्रिचा, बौलीवुड की क्रोस ओवर फिल्म "भैरवी" और बहुत सी राजस्थानी फ़िल्में जैसे "दादोसा क्यों परणाई", "ताबीज", "मारी तीतरी" जैसी फिल्मों में पार्श्वगायन कर चुकी हैं.

बालमुरली बालू
दिन में रिसर्चर बालामुरली बालू रात में संगीतकार का चोला पहन लेते हैं. १५ साल की उम्र से बाला ने धुनों का श्रृंगार शुरू कर दिया था. एक ड्रमर और गायक की हैसियत से कवर बैंडों के लिए १० वर्षों तक काम करने के बाद उन्हें महसूस हुआ उनकी प्रतिभा का सही अर्थ मूल गीतों को रचने में है. बाला मानते हैं कि उनकी रचनात्मकता और कुछ नया ईजाद करने की उनकी क्षमता ही उन्हें भीड़ से अलग साबित करती है. ये महत्वकांक्षी संगीतकार इन दिनों एक पॉप अल्बम "मद्रासी जेनर" पर काम रहा है, जिसके इसी वर्ष बाजार में आने की सम्भावना है

सजीव सारथी
हिन्द-युग्म के 'आवाज़' मंच के प्रधान संपादक सजीव सारथी हिन्द-युग्म के वरिष्ठतम गीतकार हैं। हिन्द-युग्म पर इंटरनेटीय जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीत निर्माण का बीज सजीव ने ही डाला है, जो इन्हीं के बागवानी में लगातार फल-फूल रहा है। कविहृदयी सजीव की कविताएँ हिन्द-युग्म के बहुचर्चित कविता-संग्रह 'सम्भावना डॉट कॉम' में संकलित है। सजीव के निर्देशन में ही हिन्द-युग्म ने 3 फरवरी 2008 को अपना पहला संगीतमय एल्बम 'पहला सुर' ज़ारी किया जिसमें 6 गीत सजीव सारथी द्वारा लिखित थे। पूरी प्रोफाइल यहाँ देखें।

Song - Bulbula
Voice - Hricha Neel Mukherjee
Music - Balamurli Balu
Lyrics - Sajeev Sarathie
Graphics - puffwazz


Song # 09, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए

Thursday, June 10, 2010

ओल्ड इस गोल्ड में एक बार फिर भोजपुरी रंग, सुमन कल्यानपुर के गाये इस दुर्लभ गीत में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 413/2010/113

'दुर्लभ दस' शृंखला की आज है तीसरी कड़ी। आज इसमें पेश है सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में एक बड़ा ही दर्द भरा लेकिन बेहद सुरीला नग़मा जिसे रचा गया था फ़िल्म 'लोहा सिंह' के लिए। गीत कुछ इस तरह से है "बैरन रतिया रे, निंदिया नाही आवे रामा"। आप में से बहुत लोगों ने इस फ़िल्म का नाम ही नहीं सुना होगा शायद। इसलिए आपको बता दें कि यह फ़िल्म आई थी सन्‍ १९६६ में जिसमें मुख्य भूमिकाओं में थे सुजीत कुमार और विजया चौधरी। कुंदन कुमार निर्देशित इस भोजपुरी फ़िल्म में मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, उषा मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर जैसे गायकों ने फ़िल्म के गीत गाए थे। संगीत था एस. एन. त्रिपाठी का और फ़िल्म के सभी गीत लिखे गीतकार आर. एस. कश्यप ने। आज के प्रस्तुत गीत के अलावा सुमन जी ने इस फ़िल्म में एक युगल गीत भी गाया था "झूला धीरे से झुलावे" महेन्द्र कपूर के साथ। फ़िल्म के सभी गानें भोजपुरी लोकशैली के थे, और त्रिपाठी जी ने अपने संगीत सफ़र में बहुत सी भोजपुरी फ़िल्मों में संगीत दिया है। जहाँ तक भोजपुरी फ़िल्मों का सवाल है, बहुत सी ऐसी भोजपुरी फ़िल्में आईं हैं जो बेहद मक़बूल रही हैं, और जिन्होने अपने समय के हिंदी फ़िल्मों को ज़बरदस्त टक्कर दिया है। जैसे कि १९५३ में 'लागी नाही छूटे रामा' फ़िल्म ने 'मुग़ल-ए-आज़म' के साथ रिलीज़ होने के बावजूद उत्तरी भारत में ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की थी। बिहार के लोक-संगीत में जो मिठास है, जो मधुरता है, उसका परिचय हमें हिंदी फ़िल्मों के कई संगीतकार समय समय पर करवाते आए हैं जिनमें एस. एन. त्रिपाठी, चित्रगुप्त और रवीन्द्र जैन का नाम मेरे ख़याल से सब से उपर आने चाहिए।

कल हमने बातें की थी चित्रगुप्त जी की। आज बात करते हैं एस. एन. त्रिपाठी जी की। त्रिपाठी जी भले ही हिंदी फ़िल्म संगीत जगत में पौराणिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों में संगीत देने वाले के नाम से टाइपकास्ट हो गए और हिट सामाजिक फ़िल्मों में संगीत देने का अवसर उन्हे नसीब नहीं हुआ, लेकिन भोजपुरी फ़िल्म जगत में उनका पदार्पण बेहद लोकप्रिय रहा। आइए आज उनके संगीत से संवरे हुए कुछ भोजपुरी फ़िल्मों और उनके लोकप्रिय गीतों पर नज़र डाली जाए। यह तथ्य हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं पंकज राग लिखित किताब "धुनों की यात्रा" के पृष्ठ संख्या २५८ से। "भोजपुरी फ़िल्म 'बिदेसिया' (१९६३) में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की पारम्परिक कजरी, चैती और बिदेसिया लोकधुनों पर आधारित गीत बेहद लोकप्रिय हुए और गली गली में बजे। "जान ले के हथेली पे चलिबे", "हँसी हँसी पनवा खिऔले बेइमनवा", बिदेसिया लोकधुन पर सृजित "ले‍ई बदरवा से कजरवा" और "दिनवाँ गिनत मोरी खिसकी उंगरिया", कजरी आधारित "रिमझिम बरसेला" तथा "इसक करै ऊ जिसकी जेब", चैती शैली में "बनि ज‍इहौं बनि के जोगनिया हो रामा पिया के करनवा" और नौटंकी की शैली का "हमें दुनिया करैला बदनाम" जैसे गीतों से एस.एन. त्रिपाठी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण जनमानस में अपनी विशिष्ट जगह बना ली थी। भोजपुरी फ़िल्म 'जेकरा चरनवा में लगले परनवा' (१९६४) के विदाई गीत "डोलिया सजाव बाबुल" और "ढूंढ़त ढूंढ़त आँख थकि ग‍इले" और "देख ली तोहार जब से बावरी सूरतिया" जैसे गीत, भोजपुरी फ़िल्म 'जोगिन' (१९६४) के "बिरही जोगनिया के" और "गंगिया रे जस तोर धार" तथा 'लोहा सिंह' (१९६६) के "पैंया लागी", "बैरन रतिया रे" तथा "झूला धीरे से झुलावे" जैसे गीत भी इन इलाकों में त्रिपाठी की लोकप्रियता को आगे बढ़ाने में सहायक रहे। अवधी फ़िल्म 'गोस्वामी तुलसीदास' (१९६४) के "आओ हे दुखिहारी शिव त्रिपुरारी", "हे अंतरयामी हरि" और "केहिके गज मस्ते हाथी" भी ख़ूब चर्चित रहे थे।" दोस्तों, उपर हमने जितने भी गीतों का ज़िक्र किया, उनमें से बहुत से गीत सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में थे। सुमन जी ने बेशुमार भोजपुरी फ़िल्मों में गीत गाए हैं, तो आइए सुनते हैं आज का यह गीत और बह निकलते हैं पूर्वी यू.पी और बिहार के सुरीली धरती की तरफ़।



क्या आप जानते हैं...
कि एस. एन. त्रिपाठी सन् १९३४ की 'बॊम्बे टॊकीज़' की फ़िल्म 'जीवन नैया' से संगीतकार सरस्वती देवी के सहयक बने थे, और उन्होने ही १९३६ की मशहूर फ़िल्म 'अछूत कन्या' के मशहूर गीत "मैं बन की चिड़िया" को अशोक कुमार और देविका रानी को एक माह तक अभ्यास करवाया था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. दक्षिण की एक सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका का गाया हुआ यह गीत है, जिनके साथ एस. पी. बालासुब्रहमण्यम की जोड़ी दक्षिण में सब से कामयाब व लोकप्रिय जोड़ी मानी जाती है। इस २३ अप्रैल को इस गायिका ने ७२ वर्ष पूरे किए हैं। गायिका का नाम बताएँ। ३ अंक।

२. यह एक मुजरा गीत है जिसके मुखड़े में शब्द है "बेवफ़ा"। गीत बताएँ। ३ अंक।

३. यह एक धार्मिक फ़िल्म का गीत है जो आयी थी १९५९ में। फ़िल्म में संगीत था जी. के. वेंकटेश का। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।

४. इसी फ़िल्म मे मन्ना डे और गीता दत्त का गाया हुआ एक युगल गीत भी था। गीत बताएँ। ३ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम -

अवध जी, लगता है पूरी तैयारी के साथ हैं इस बार, लगातार दूसरी बार सबसे अधिक अंक वाले सवाल का जवाब देकर आपने बाज़ी मारी है, क्या बाकी सवाल बहुत मुश्किल थे, जो अन्य धुरंधर नदारद रहे ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, June 9, 2010

ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात.. फ़िराक़ के ग़मों को दूर करने के लिए बुलाए गए हैं गज़लजीत जगजीत सिंह



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८७

ज हम जिस शायर की ग़ज़ल से रूबरू होने जा रहे हैं, उन्हें समझना न सिर्फ़ औरों को लिए बल्कि खुद उनके लिए मुश्किल का काम है/था। कहते हैं ना "पल में तोला पल में माशा"... तो यहाँ भी माज़रा कुछ-कुछ वैसा हीं है। एक-पल में हँसी-मज़ाक से लबरेज रहने वाला कोई इंसान ज्वालामुखी की तरह भभकने और फटने लगे तो आप इसे क्या कहिएगा? मुझे "अली सरदार जाफ़री" की "कहकशां" से एक वाक्या याद आ रहा है। "फ़िराक़" साहब को उनके जन्मदिन की बधाई देने उनके हीं कॉलेज से कुछ विद्यार्थी आए थे। अब चूँकि फ़िराक़ साहब अंग्रेजी के शिक्षक(प्रोफेसर शैलेश जैदी के अनुसार वो शिक्षक हीं थे , प्राध्यापक नहीं) थे, तो विद्यार्थियों ने उन्हें उनकी हीं पसंद की एक अंग्रेजी कविता सुनाई और फिर उनसे उनकी गज़लों की फरमाईश करने लगे। सब कुछ सही चल रहा था, फ़िराक़ दिल से हिस्सा भी ले रहे थे कि तभी उनके घर से किसी ने (शायद उनकी बीवी ने) आवाज़ लगाई और फ़िराक़ भड़क उठे। उन्होंने जी भरके गालियाँ दीं। इतना हीं काफ़ी नहीं था कि उन्होंने अपने जन्मदिन के लिए लाया हुआ केक उठाकर एक विद्यार्थी के मुँह पर फेंक दिया और सबको भाग जाने को कहा। तो इस तरह के "मूडियल" इंसान थे फ़िराक़ साहब।

फ़िराक़ जब खुश रहते तो माहौल को खुशनुमा बनाए रखना अपना फ़र्ज़ समझते थे। उनसे जुड़े कई सारे रोचक किस्से हैं। जैसे कि एक बार जब वो कानपुर के एक मुशायरे में शिरकत करने गए थे, तो उनके पढ़ लेने के बाद एक शायर को आमंत्रित किया गया। कवि महोदय ने संकोचवश कहा- फिराक साहब जैसे बुजुर्ग शायर के बाद अब मेरे पढने का क्या मतलब है ? फिराक साहब खामोश नहीं रहे। तत्काल यह वाक्य चिपका दिया- मियाँ जब तुम मेरे बाद पैदा हो सकते हो तो मेरे बाद शेर भी पढ़ सकते हो।

फ़िराक़ के बारे में "शैलेश जैदी" लिखते हैं: छोटा सा नाम रघुपति सहाय और अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी हिन्दी भाषाओं की योग्यता ऐसी, कि उनसे जो भी मिला दांतों तले उंगली दबा कर रह गया। प्रस्तुत है "फ़िराक़" की पुस्तक "बज़्मे-ज़िंदगी: रंगे-शायरी" से "फ़िराक़" की कहानी उन्हीं की जुबानी:

मैं २८ अगस्त १८९६ ई. को गोरखपुर में पैदा हुआ। मेरे पिता थे बाबू गोरखप्रसाद जो उस समय से लेकर १९१८ तक, जब तक उनकी मृत्यु हुई, गोरखपुर और आस-पास के ज़िलों में सबसे बड़े वकीले-दीवानी थे। मैं कई लेहाज़ से एक असाधारण बालक था। घर और घरवालों से असाधारण हद तक गहरा और प्रबल प्रेम था। सहपाठियों और साथियों से भी ऐसा ही प्रेम था मुहल्ले-टोले के लोगों से अधिक-से-अधिक लगाव था। मैं इस लगाव-प्रेम की तीव्रता, गहराई, प्रबलता और लगभग हिला देनेवाले तूफानों को जन्म-भर भूल नहीं सका। इतना ही नहीं, घर की हर वस्तु-बिस्तर, घड़े, दूसरे सामान, कमरे, बरामदे, खिड़कियाँ, दरवाजे, दीवारें, खपरैल-मेरे कलेजे के टुकड़े बन गये थे।

जब मैं लगभग ९-१0 बरस का हो गया था मुझे स्कूल में दाख़िल कर दिया गया। स्कूल में भी और घर पर भी पढ़ाने को मुझे सौभाग्य से बहुत योग्य अध्यापक मिले। बचपन में पढ़ी जानेवाली किताबों में ही जहाँ-जहाँ शैली और भाषा का रचाव या सौन्दर्य था, वह रचाव और सौन्दर्य मेरे दिल में डूब जाता था। आवाज़ की पहचान और परख मुझमें बचपन ही से थी। मातृभाषा की शिक्षा ने खड़ी बोली का रूप धारण कर लिया था और खड़ी बोली का प्रचलित स्वाभाविक, सर्वव्यवहृत, सबसे उन्नत और विकसित रूप ऊर्दू थी। मुझे हिन्दी भी पढ़ायी गयी थी, उर्दू के के साथ-साथ। लेकिन हिन्दी खड़ी बोली के रूप में मुझे उर्दू से कम जानदार और कम रची, कम स्वाभाविक और बिलकुल अप्रचलित नजर आयी।

मैंने १९१३ ई. में जुबली हाई स्कूल, गोरखपुर से हाई स्कूल पास किया। मैंने और दूसरों ने पिताजी को यह राय दी कि मुझे प्रान्त के सबसे सुप्रसिद्ध विद्यालय म्योर सेण्ट्रल कॉलेज, इलाहाबाद में दाखिल कर दिया जाये। ऐसा ही हुआ और रहने के लिए मैंने हिन्दू बोर्डिग हाउस पंसद किया, जो आज महामना पं. मदनमोहन मालवीय कॉलेज कहा जाता है। मैं उम्र के १७ वें साल में था। जहाँ तक अँगरेज़ी भाषा का सम्बन्ध है, मेरी शिक्षा की नींव की ईंटें ऐसी ठीक और जँची-तुली रखी गयी थीं कि छठे दर्जे से अब तक मुझे याद है कि मैंने अँगरेज़ी लिखने के व्याकरण या शब्द-प्रयोग की कोई ग़लती नहीं की। कॉलेज में आकर लॉजिक (न्यायशास्त्र), इतिहास और अँगरेज़ी साहित्य के गद्य-पद्य की ऐसी किताबें पढ़ने को मिलीं, जिनसे मेरे अँगरेज़ी ज्ञान को असाधारण बढ़ावा मिला।

अभी मैं एफ.ए. में ही था कि मेरे पिताजी को, परिवार को और मुझे धोखा देकर मेरा ब्याह कर दिया गया। यह ब्याह मेरे जीवन की एकमात्र दुःखान्त और विनाशकारी दुर्घटना साबित हुआ। इस दुर्घटना के बाद से ही मेरे शरीर, मेरे दिल, मेरे दिमाग़ मेरी आत्मा में विनाशकारी भूकम्प, ज्वालामुखियों का फटना, घृणा और क्रोध के तूफ़ान उठते रहे हैं। मैं अपने लिए वही चाहता था, जो हिन्दू-शास्त्रों में एक सन्तोषजनक जीवन के सम्बन्ध में कहा गया है-यानी एक ऐसी अर्धांगिनी, जिसे मैं पसन्द कर सकूँ और प्यार कर सकूँ और जो मुझे भी अपना प्यार दे सके। बी.ए. में मुझे संग्रहणी का असाध्य रोग हो गया, जिससे वैद्यराज स्व. श्री त्र्यम्बक शास्त्री ने मुझे बचाया। एक साल बी.ए. में पढ़ना छोड़ देना पड़ा। मुझे बहुत-से लोग एक हँसमुख और ज़िन्दादिल आदमी समझते हैं। मेरी ज़िन्दादिली वह चादर है, परदा है, जिसे मैं अपने दारुण जीवन पर डाले रहता हूँ। ब्याह को छप्पन बरस हो चुके और इस लम्बे अरसे में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि मैं दाँत पीस-पीसकर न रह गया हूँ। बी.ए. पास करने के पहले ही मेरे पूज्य पिताजी की मृत्यु हो चुकी थी। बी०ए० पास करने के बाद मैं कुछ कॉलेजों में अध्यापक की हैसियत से दो-तीन साल काम करता रहा और उसी हैसियत से प्राइवेट तौर पर आगरा विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी और प्रथम स्थान में एम.ए. पास किया।

ए.एम का नतीजा निकलते ही मेरी मातृ-संस्था इलाहाबाद युनिवर्सिटी ने मुझे अँगरेज़ी का अध्यापक बे–अर्ज़ी दिए ही नियुक्त कर दिया। युनिवर्सिटी में अध्यापक का पद ग्रहण करने के बाद मुझे चुनी हुई किताबों के अध्ययन, जीवन और जीवन की समस्याओं पर मनन-चिन्तन, अपने मानसिक जीवन की पृष्ठभूमि को भरपूर बनाने, अपनी रचना और लेखन-शैली को क्रमशः अधिक विकसित करने का अवसर मिलने लगा। अँगरेज़ी साहित्य और विश्व-साहित्य के पठन-पाठन से मेरी लेखन-शैली में प्रौढ़ता आती गयी। मुझे उर्दू कविता को अधिक रचाने और सँवारने के मौक़े हाथ आने लगे।

फ़िराक़ के बारे में इतना कुछ जाना तो क्यों न उनकी शायरी के दर्शन भी कर लिए जाएँ। वो कहते हैं ना "प्रत्यक्षं किम प्रमाणम":
सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं


आज हम जो गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं उन्हें अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है गज़लजीत "जगजीत सिंह" जी ने। तो पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल:

ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात
नवा-ए-मीर सुनाओ बड़ी उदास है रात

कहें न तुमसे तो फ़िर और किससे जाके कहें
____ ज़ुल्फ़ के सायों बड़ी उदास है रात

दिये रहो यूं ही कुछ देर और हाथ में हाथ
अभी ना पास से जाओ बड़ी उदास है रात

सुना है पहले भी ऐसे में बुझ गये हैं चिराग़
दिलों की ख़ैर मनाओ बड़ी उदास है रात




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "बदनसीब" और शेर कुछ यूँ था-

बेहोश हो के जल्द तुझे होश आ गया
मैं बदनसीब होश में आया नहीं हनोज़

इस शब्द पर सबसे पहले मुहर लगाई शन्नो जी ने, लेकिन शेर लेकर हाज़िर होने के मामले में अव्वल आ गईं सीमा जी। ये रहे सीमा जी के पेश किए शेर:

कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कूचा -ए-यार में. (बहादुर शाह ज़फर)

मिलने थे जहाँ साये , बिछुडे वहां पर हम
साहिल पे बदनसीब कोई डूबता गया ।

शन्नो जी, आप भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं। ये रहे आपके स्वरचित शेर:

वो खुशनसीब हैं जिन्हें आता है हँसाना
हम हैं बदनसीब जो रोते और रुलाते हैं..

किसी बदनसीब का कसूर नहीं होता है
जब किस्मत को ही मंजूर नहीं होता है

अवनींद्र जी, "बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब".. अब हम जो आपके शेरों पर बेखुद हुए जा रहे हैं तो उसका कुछ तो सबब होगा हीं। हमें वह कारण पता है, आपको न पता हो तो ढूँढिए अपने इन शेरों में:

टूटे मन की दर पे कोई फ़रियाद लाया है
कितना बदनसीब है वो जो मेरे पास आया है

इक बदनसीब हम जो तू भुला गया हमें
इक बदनसीब वो जिसे तेरा साथ मिल गया

नीलम जी और मंजु जी, हम आपके शेरों को प्रस्तुत किए देते हैं, लेकिन इनमें कई सारी कमियाँ है.. अगली बार से ध्यान दीजिएगा:

बदनसीब ख्याल था ,या कोई ख्वाब था
खुशनसीब जहाँ भी था और हमनवा वहाँ भी था

जीवन में उसके बदनसीब का साया यूँ मडराया ,
आतंक के फाग ने उसके सुहाग को था उजाडा .

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, June 8, 2010

"जय दुर्गा महारानी की" - क्या आपने पहले कभी सुनी है संगीतकार चित्रगुप्त की गाती हुई आवाज़?



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 412/2010/112

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कल की कड़ी मे हमने सुनी थी सबिता बनर्जी की गाई हुई एक दुर्लभ फ़िल्मी भजन। आज के गीत का रंग भी भक्ति रस पर ही आधारित है। भारतीय फ़िल्म जगत में सामाजिक फ़िल्मों के साथ साथ धार्मिक और पौराणिक विषयों पर आधारित फ़िल्मों का भी एक जौनर रहा है फ़िल्म निर्माण के शुरुआती दौर से ही। यह परम्परा ९० के दशक में गुल्शन कुमार के निधन के बाद धीरे धीरे विलुप्त हो गई, और आज दो चार धार्मिक गीतों के ऐल्बम के अलावा इस जौनर की कोई कृति ना सुनाई देती है और ना ही परदे पर दिखाई देती है। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर में बनने वाली धार्मिक फ़िल्मों में कुछ गिने चुने फ़िल्मों को छोड़ कर ज़्यादातर फ़िल्में बॊक्स ऒफ़िस पर असफल हुआ करती थी। दरसल धार्मिक फ़िल्मों के निर्माता इन फ़िल्मों का निर्माण ख़ास दर्शक वर्ग के लिए किया करते थे जैसे कि ग्रामीण जनता के लिए, वृद्ध वर्ग के लिए। ऐसे में आम जनता इन फ़िल्मों से कुछ दूर दूर ही रहती आई है। ज़्यादा व्यावसाय ना होने की वजह से ये कम बजट की फ़िल्में होती थीं। ना इन्हे ज़्यादा बढ़ावा मिलता और ना ही इनका ज़्यादा प्रचार हो पाता। ऐसे में इन फ़िल्मों के गानें भी लोगों तक सही रूप से नहीं पहुँच पाते। और यही वजह है कि इन फ़िल्मों के गानें आज दुर्लभ गीतों की श्रेणी में शुमार हो चुका है, जिन्हे कहीं से प्राप्त करना बेहद मुश्किल हो जाता है। इसलिए अगर दुर्लभ गीतों की इस लघु शृंखला में कुछ गानें धार्मिक फ़िल्मों से शामिल हुए हैं, तो इसमें हैरत की कोई बात नहीं है। वैसे धार्मिक फ़िल्मों में तो असंख्य धार्मिक और सामाजिक गानें हुए हैं, तो फिर ऐसा क्या ख़ास बात है आज के प्रस्तुत गीत में? ख़ास बात है इस गीत को गाने वाले गायक में। चित्रगुप्त को हमने हमेशा एक संगीतकार के रूप में जाना है और उनके संगीतबद्ध गानें ही सुनते चले आए हैं। लेकिन आज के गीत में आप सुनने जा रहे हैं उनकी गाती हुई आवाज़। और यह भी आपको बता दें कि इस गीत का संगीत चित्रगुप्त जी ने नहीं बल्कि धार्मिक फ़िल्मों के जाने माने संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी साहब ने तैयार किया है।

"जय जयकार करो माता की, आओ चरण भवानी की, एक बार फिर प्रेम से बोलो, जय दुर्गा महारानी की" - चित्रगुप्त और साथियों की आवाज़ों में यह भक्ति गीत है १९५३ की फ़िल्म 'नव दुर्गा' का। महीपाल और उषा किरण अभिनीत इस फ़िल्म में एस. एन. त्रिपाठी ने ना केवल संगीत दिया था बल्कि अभिनय भी किया था। वैसे उन्होने इस तरह की कई धार्मिक फ़िल्मों में छोटे मोटे किरदार निभाते आए हैं समय समय पर। 'नव दुर्गा' बसंत पिक्चर्स की प्रस्तुति थी जिसका निर्देशन किया था बाबूभाई मिस्त्री ने। आइए आज चित्रगुप्त जी के शुरुआती दिनों की कुछ बातें की जाए। चित्रगुप्त भोजपुर बिहार के एक साहित्यिक कायस्थ परिवार से ताल्लुख़ रखते थे। उस परिवार में किसी को पसंद ना था कि कालेज में एम.ए (अर्थशास्त्र) की पढ़ाई के दौरान दोस्तों को गीत सुनाने वाले चित्रगुप्त एक पार्श्व गायक बनें। अपने चाचा से फ़ारसी एवं उर्दू तथा भाई से संस्कृत पढ़ने के बावजूद वे सन् १९४५ में सिर्फ़ ३६५ दिनों के लिए बम्बई आ पहुँचे यह सोचकर कि यदि संगीत देने का अवसर न मिला तो बिहार लौट जाएँगे। बम्बई आकर वे अपने एक दोस्त मदन सिन्हा के माध्यम से प्रसिद्ध निर्देशक सर्वोत्तम बादामी के सहायक से मिले। उन्ही दिनों नितिन बोस से भी उनकी मुलाक़ात हुई। तत्कालीन हरि प्रसन्न दास (जिनके सहायक के रूप में उन दिनों मन्ना डे कार्य कर रहे थे) के निर्देशन में उन्होने एक समूह गीत भी गाया था। संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी के सहायक के रूप में काम करने के साथ साथ उन्हे 'लेडी रॊबिनहुड' में स्वतंत्र रूप से संगीत देने का अवसर मिला। इस फ़िल्म में उन्होने राजकुमारी के साथ मिल कर कुछ गीत भी गाए। १९५३-५४ से धार्मिक फ़िल्मों में संगीत देने का उनका सिलसिला शुरु हुआ तो उन्होने लगभग १५ फ़िल्मों - नाग पंचमी, शिवरात्रि, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, शिवभक्त, श्री गणेश विवाह, आदि में उन्होने संगीत दिया। (सौजन्य: लिस्नर्स बुलेटिन अंक-८४)। इसी दौरान एस. एन. त्रिपाठी के संगीत में बनी धार्मिक फ़िल्म 'नव दुर्गा' में त्रिपाठी जी ने अपने इस शिष्य से यह आज का प्रस्तुत गीत गवाया। इस गीत को आज बहुत कम लोगों ने याद रखा है। तो लीजिए 'दुर्लभ दस' शृंखला की दूसरी कड़ी में सुनिए संगीतकार चित्रगुप्त की आवाज़ और एस.एन. त्रिपाठी का संगीत। फ़िल्म 'नव दुर्गा' के इस भजन को लिखा है रमेश चन्द्र पाण्डेय ने।



क्या आप जानते हैं...
कि चित्रगुप्त ने बतौर स्वतंत्र संगीतकार सब से पहले, १९४६ में, जिन तीन फ़िल्मों में संगीत दिया था उनके नाम हैं - 'फ़ाइटिंग् हीरो', 'लेडी रॊबिनहुड', तथा 'तूफ़ान क्वीन'। इन फ़िल्मों की नामावली में उनके नाम के साथ उनकी डिग्री एम.ए को जोड़ा गया था, यानी कि "चित्रगुप्त एम.ए"।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत में आवाज़ उस गायिका की है जिसे "गरीबों की लता" कहा जाता है। गायिका का नाम बताएँ। १ अंक।

२. यह एक भोजपुरी फ़िल्म का गीत है जो बनी थी १९६६ में और जिसके मुख्य कलाकार थे सुजीत कुमार और विजया चौधरी। फ़िल्म के शीर्षक में दो शब्द हैं जिसमें से पहला शब्द एक धातु का है और दूसरा शब्द एक उपाधि (सरनेम) है। फ़िल्म का नाम बताएँ। ३ अंक।

३. फ़िल्म के संगीतकार पौराणिक और धार्मिक फ़िल्मों में संगीत देने के लिए जाने जाते हैं जिन्होने अपने करीयर की शुरुआत बॊम्बे टॊकीज़ से की थी। संगीतकार का नाम बताएँ। २ अंक।

४. अगर उपर के तीन सूत्रों से आपने फ़िल्म का नाम पहचान लिया है तो फिर जुदाई के दर्द में लिपटा हुआ यह गीत भी बता दीजिए। ३ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम -

पराग जी आप सदियाँ बाद ओल्ड इस गोल्ड पर आये कल, पर ये क्या आपने तो बहुत बड़ी गलती कर दी...नियम के मुताबिक एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, तो माफ़ी चाहेंगें आपके दोनों जवाब सही हैं पर अंक एक भी नहीं मिल पायेगा. वहीँ पहली बार अवध जी ने शुरूआत में इस बार खाता खोला है, बहुत बधाई....भारतीय नागरिक जी, आपकी पसंद जरूर सुन्वएंगें, पर फिलहाल आपसे पहेली के जवाबों की हमें उम्मीद रहेगी, संगीता जी गीत को पसंद करने का आभार, शरद जी और इंदु नज़र नहीं आये.....????

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रब्बा लक़ बरसा.... अपनी फ़िल्म "कजरारे" के लिए इसी किस्मत की माँग कर रहे हैं हिमेश भाई



ताज़ा सुर ताल २१/२०१०

सुजॊय - 'ताज़ा सुर ताल' की एक और ताज़े अंक के साथ हम हाज़िर हैं। विश्व दीपक जी, इस शुक्रवार को 'राजनीति' प्रदर्शित हो चुकी हैं, और फ़िल्म की ओपनिंग अच्छी रही है ऐसा सुनने में आया है, हालाँकि मैंने यह फ़िल्म अभी तक देखी नहीं है। 'काइट्स' को आशानुरूप सफलता ना मिलने के बाद अब देखना है कि 'राजनीति' को दर्शक किस तरह से ग्रहण करते हैं। ख़ैर, यह बताइए आज हम किस फ़िल्म के संगीत की चर्चा करने जा रहे हैं।

विश्व दीपक - आज हम सुनेंगे आने वाली फ़िल्म 'कजरारे' के गानें।

सुजॊय - यानी कि हिमेश इज़ बैक!

विश्व दीपक - बिल्कुल! पिछले साल 'रेडियो - लव ऑन एयर' के बाद इस साल का उनका यह पहला क़दम है। 'रेडियो' के गानें भले ही पसंद किए गए हों, लेकिन फ़िल्म को कुछ ख़ास सफलता नहीं मिली थी। देखते हैं कि क्या हिमेश फिर एक बार कमर कस कर मैदान में उतरे हैं!

सुजॊय - 'कजरारे' को पूजा भट्ट ने निर्देशित किया है, जिसके निर्माता हैं भूषण कुमार और जॉनी बक्शी। फ़िल्म के नायक हैं, जी हाँ, हिमेश रेशम्मिया, और उनके साथ हैं मोना लायज़ा, अमृता सिंह, नताशा सिन्हा, गौरव चनाना और गुल्शन ग्रोवर। संगीत हिमेश भाई का है और गानें लिखे हैं हिमेश के पसंदीदा गीतकार समीर ने। तो विश्व दीपक जी, शुरु करते हैं गीतों का सिलसिला। पहला गीत हिमेश रेशम्मिया और सुनिधि चौहान की आवाज़ों में। इस गीत को आप एक टिपिकल हिमेश नंबर कह सकते हैं। भारतीय और पाश्चात्य साज़ों का इस्तेमाल हुआ है। हिमेश भाई के चाहनेवालों को ख़ूब रास आएगा यह गीत।

गीत: कजरा कजरा कजरारे


विश्व दीपक - सुजॊय जी, इस गाने की शुरुआत मुझे पसंद आई। जिस तरह से "सुनिधि चौहान" ने "कजरा कजरा कजरारे" गाया है, वह दिल के किसी कोने में एक नटखटपन जगा देता है और साथ हीं सुनिधि के साथ गाने को बाध्य भी करता है। मुझे आगे भी सुनिधि का यही रूप देखने की इच्छा थी, लेकिन हिमेश ने अंतरा में सुनिधि को बस "चियर लिडर" बना कर रख दिया है और गाने की बागडोर पूरी तरह से अपने हाथ में ले ली है। हिमेश की आवाज़ इस तरह के गानों में फबती है, लेकिन शब्दों का सही उच्चारण न कर पाना और अनचाही जगहों पर हद से ज्यादा जोर देना गाने के लिए हानिकारक साबित होते हैं। हिमेश "उच्चारण" संभाल लें तो कुछ बात बने। खैर अब हम दूसरे गाने की ओर बढते हैं।

सुजॊय - अब दूसरा गीत भी उसी हिमेश अंदाज़ का गाना है। उनकी एकल आवाज़ में सुनिए "रब्बा लक बरसा"। इस गीत में महेश भट्ट साहब ने वायस ओवर किया है। गाना बुरा नहीं है, लेकिन फिर एक बार वही बात कहना चाहूँगा कि अगर आप हिमेश फ़ैन हैं तो आपको यह गीत ज़रूर पसंद आएगा।

विश्व दीपक - जी आप सही कह रहे हैं। एक हिमेश फ़ैन हीं किसी शब्द का बारंबार इस्तेमाल बरदाश्त कर सकता है। आप मेरा इशारा समझ गए होंगे। हिमेश/समीर ने "लक लक लक लक" इतनी बार गाने में डाला है... कि "शक लक बूम बूम" की याद आने लगती है और दिमाग से यह उतर जाता है कि इस "लक़" का कुछ अर्थ भी होता है। एक तो यह बात मुझे समझ नहीं आई कि जब पूरा गाना हिन्दी/उर्दू में है तो एक अंग्रेजी का शब्द डालने की क्या जरूरत थी। मिश्र के पिरामिडों के बीच घूमते हुए कोई "लक लक" बरसा कैसे गा सकता है। खैर इसका जवाब तो "समीर" हीं दे सकते हैं। हाँ इतना कहूँगा कि इस गाने में संगीत मनोरम है, इसलिए खामियों के बावजूद सुनने को दिल करता है। विश्वास न हो तो आप भी सुनिए।

गीत: रब्बा लक़ बरसा


सुजॊय - अब इस एल्बम का तीसरा गीत और मेरे हिसाब से शायद यह इस फ़िल्म का सब से अच्छा गीत है। हिमेश रेशम्मिया के साथ इस गीत में आवाज़ है हर्षदीप कौर की। एक ठहराव भरा गीत है "आफ़रीन", जिसमें पारम्परिक साज़ों का इस्तेमाल किया गया है। ख़ास कर ढोलक का सुंदर प्रयोग सुनने को मिलता है गीत में। भले ही हर्षदीप की आवाज़ मौजूद हो गीत के आख़िर में, इसे एक हिमेश रेशम्मिया नंबर भी कहा जा सकता है।

विश्व दीपक - जी यह शांत-सा, सीधा-सादा गाना है और इसलिए दिल को छू जाता है। इस गाने के संगीत को सुनकर "तेरे नाम" के गानों की याद आ जाती है। हर्षदीप ने हिमेश का अच्छा साथ दिया है। हिमेश कहीं-कहीं अपने "नेजल" से अलग हटने की कोशिश करते नज़र आते हैं ,लेकिन "तोसे" में उनकी पोल खुल जाती है। अगर हिमेश ऐसी गलतियाँ न करें तो गीतकार भी खुश होगा कि उसके शब्दों के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि यह गाना एल्बम के बाकी गानों से बढिया है। तो लीजिए पेश है यह गाना।

गीत: आफ़रीन


सुजॊय - फ़िल्म का चौथा गीत भी एक युगल गीत है, इस बार हिमेश का साथ दे रहीं हैं श्रेया घोषाल। गीत के बोल हैं "तुझे देख के अरमान जागे"। आपको याद होगा अभी हाल ही में फ़िल्म 'हाउसफ़ुल' में एक गीत आया था "वाल्युम कम कर पप्पा जग जाएगा"। तो भई हम तो यहाँ पर यही कहेंगे कि वाल्युम कम कर नहीं तो पूरा मोहल्ला जग जाएगा। जी हाँ, "तुझे देख के अरमान जागे" के शुरु में हिमेश साहब कुछ ऐसी ऊँची आवाज़ लगाते हैं कि जिस तरह से उनके "झलक दिखला जा" गीत को सुन कर गुजरात के किसी गाँव में भूतों का उपद्रव शुरु हो गया था, अब की बार तो शायद मुर्दे कब्र खोद कर बाहर ही निकल पड़ें! ख़ैर, मज़ाक को अलग रखते हुए यह बता दूँ कि आगे चलकर हिमेश ने इस गीत को नर्म अंदाज़ में गाया है और श्रेया के आवाज़ की मिठास के तो कहने ही क्या। वो जिस गीत को भी गाती हैं, उसमें मिश्री और शहद घोल देती हैं।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, क्यों न लगे हाथों पांचवाँ गीत भी सुन लिया जाए| क्योंकि यह गीत भी हिमेश रेशम्मिया और श्रेया घोषाल की आवाजों में हीं है, और अब की बार बोल हैं "तेरीयाँ मेरीयाँ"। दोस्तों, जिस गीत में "ँ" का इस्तेमाल हो और अगर उस गाने में आवाज़ हिमेश रेशम्मिया की हो, तो फिर तो वही सोने पे सुहागा वाली बात होगी ना! नहीं समझे? अरे भई, मैं हिमेश रेशम्मिया के नैज़ल अंदाज़ की बात कर रहा हूँ। इस गीत में उन्हे भरपूर मौका मिला है अपनी उस मनपसंद शैली में गाने का, जिस शैली के लिए वो जाने भी जाते हैं और जिस शैली की वजह से वो एकाधिक बार विवादों से भी घिर चुके हैं। जहाँ तक इस गीत का सवाल है, संतूर की ध्वनियों का सुमधुर इस्तेमाल हुआ है। वैसे यह मैं नहीं बता सकता कि क्या असल में संतूर का प्रयोग हुआ है या उसकी ध्वनियों को सीन्थेसाइज़र के ज़रिये पैदा किया गया है। जो भी है, सुरीला गीत है, लेकिन श्रेया को हिस्सा कम मिला है इस गानें में।

गीत: तुझे देख के अरमान जागे


गीत: तेरीयां मेरीयां


सुजॊय - विश्व दीपक जी, मुझे ऐसा लगता है कि हिमेश रेशम्मिया जब भी कोई फ़िल्म करते हैं, तो अपने आप को ही सब से ज़्यादा सामने रखते हैं। बाके सब कुछ और बाकी सब लोग जैसे पार्श्व में चले जाते हैं। यह अच्छी बात नहीं है। अब आप उनकी कोई भी फ़िल्म ले लीजिए। वो ख़ुद इतने ज़्यादा प्रोमिनेन्स में रहते हैं कि वो फ़िल्म कम और हिमेश रेशम्मिया का प्राइवेट ऐल्बम ज़्यादा लगने लगता है। दूसरी फ़िल्मों की तो बात ही छोड़िए, 'कर्ज़', जो कि एक पुनर्जन्म की कहानी पर बनी कामयाब फ़िल्म का रीमेक है, उसका भी यही हाल हुआ है। ख़ैर, शायद यही उनका ऐटिट्युड है। आइए अब इस फ़िल्म का अगला गीत सुनते हैं "वो लम्हा फिर से जीना है"। हिमेश और हर्षदीप कौर की आवाज़ें, फिर से वही हिमेश अंदाज़। एक वक़्त था जब हिमेश के इस तरह के गानें ख़ूब चला करते थे, देखना है कि क्या बदलते दौर के साथ साथ लोगों का टेस्ट भी बदला है या फिर इस गीत को लोग ग्रहण करते हैं।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, इस गाने के साथ हीं क्यों न हम फ़िल्म का अंतिम गाना भी सुन लें| हिमेश और सुनिधि की आवाज़ें, और एक बार फिर से हिमेश का नैज़ल अंदाज़। ढोलक के तालों पर आधारित इस लोक शैली वाले गीत को सुन कर आपको अच्छा लगेगा। जैसा कि अभी अभी आपने कहा कि आजकल हिमेश जिस फ़िल्म में काम करते हैं, बस वो ही छाए रहते हैं, तो इस फ़िल्म में भी वही बात है। हर गीत में उनकी आवाज़, हर गाना वही हिमेश छाप। अपना स्टाइल होना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन अगर विविधता के लिए थोड़ा सा अलग हट के किया जाए तो उसमें बुराई क्या है? ख़ैर, मैं अपना वक्तव्य यही कहते हुए समाप्त करूँगा कि 'कजरारे' पूर्णत: हिमेश रेशम्मिया की फ़िल्म होगी।

गीत: वो लम्हा फिर से जीना है


गीत: सानु गुज़रा ज़माना याद आ गया


"कजरारे" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***

सुजॊय - हिमेश के चाहने वालों को पसंद आएँगे फ़िल्म के गानें, और जिन्हे हिमेश भाई का गीत-संगीत अभी तक पसंद नहीं आया है, उन्हें इस फिल्म से ज्यादा उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए, मैं तो ये कहूँगा की उन्हें इस एल्बम से दूर ही रहना चाहिए|

विश्व दीपक - सुजॊय जी, मुझे यह लगता है कि हमें इस एल्बम को सिरे से नहीं नकार देना चाहिए, क्योंकि संगीत बढ़िया है और कुछ गाने जैसे कि "रब्बा लक़ बरसा", "कजरारे" और "आफरीन" खूबसूरत बन पड़े हैं| हाँ इतना है कि अगर हिमेश ने अपने अलावा दूसरों को भी मौक़ा दिया होता तो शायद इस एल्बम का रंग ही कुछ और होता| लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं, हिमेश भाई और पूजा भट्ट को जो पसंद हो, हमें तो वही सुनना है| मैं बस यही उम्मीद करता हूँ कि आगे चलकर कभी हमें "नमस्ते लन्दन" जैसे गाने सुनने को मिलेंगे... तब तक के लिए "मिलेंगे मिलेंगे" :)

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ६१- "शाम-ए-ग़म की क़सम आज ग़मगीं हैं हम", इस गीत के साथ हिमेश रेशम्मिया का क्या ताल्लुख़ है?

TST ट्रिविया # ६२- "आपको कैसा लगेगा अगर मैं आपको नए ज़माने का एक गीत सुनाऊँ जिसमें ना कोई ख़त, ना इंतेज़ार, ना झिझक, ना कोई दर्द, बस फ़ैसला है, जिसमें हीरो हीरोइन को सीधे सीधे पूछ लेता है कि मुझसे शादी करोगी?" दोस्तॊम, ये अल्फ़ाज़ थे हिमेश रेशम्मिया के जो उन्होने विविध भारती पर जयमाला पेश करते हुए कहे थे। तो बताइए कि उनका इशारा किस गाने की तरफ़ था?

TST ट्रिविया # ६३- गीतकार समीर के साथ जोड़ी बनाने से पहले हिमेश रेशम्मिया की जोड़ी एक और गीतकार के साथ ख़ूब जमी थी जब उनके चुनरिया वाले गानें एक के बाद एक आ रहे थे और छा रहे थे। बताइए उस गीतकार का नाम।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. पेण्टाग्राम
२. सोना महापात्रा
३. "give me some sunshine, give me some rain, give me another chance, I wanna grow up once again".

आलोक, आपने तीनों सवालों के सही जवाब दिए, इसलिए आपको पुरे अंक मिलते हैं| सीमा जी, इस बार आप पीछे रह गईं| खैर कोई बात नहीं, अगली बार......

Monday, June 7, 2010

"ज़रा मुरली बजा दे मेरे श्याम रे" - सबिता बनर्जी की आवाज़ में एक भूला बिसरा भजन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 411/2010/111

मस्कार दोस्तों! बेहद ख़ुशी और जोश के साथ हम फिर एक बार आप सभी का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में हार्दिक स्वागत करते हैं। पिछले डेढ़ महीने से आप हर शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' का आनंद ले रहे थे, और हमें पूरी उम्मीद है और आप के टिप्पणियों से भी साफ़ ज़ाहिर है कि आपने इस विशेष प्रस्तुति को भी हाथों हाथ ग्रहण किया है। चलिए आज से हम वापस लौट रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अपने उसी पुराने स्वरूप में और फिर से एक बार गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के उसी कारवाँ को आगे बढ़ाते हैं। अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कुल ४१० कड़ियाँ प्रस्तुत हो चुकी हैं, आज ४११-वीं कड़ी से यह सिलसिला हम आगे बढ़ा रहे हैं। तो दोस्तों, इस नई पारी की शुरुआत कुछ ख़ास अंदाज़ से होनी चाहिए, क्यों है न! इसीलिए हमने सोचा कि क्यों ना दस ऐसे गानों से इस पारी की शुरुआत की जाए जो बेहद दुर्लभ हों! ये वो गानें हों जिन्हे आप में से बहुतों ने कभी सुनी ही नहीं होगी और अगर सुनी भी हैं तो उनकी यादें अब तक बहुत ही धुंधली हो गई होंगी। पिछले डेढ़ महीने में हमने यहाँ वहाँ से, जाने कहाँ कहाँ से इन दस दुर्लभ गीतों को प्राप्त किया है जिन्हे इस ख़ास लघु शृंखला में पिरो कर हम आज से आप तक पहुँचा रहे हैं। तो प्रस्तुत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर नई लघु शृंखला 'दुर्लभ दस'। शुरुआत ईश्वर वंदना के साथ; जी हाँ, एक भक्ति रचना से इस शृंखला का आग़ाज़ कर रहे हैं। ये है फ़िल्म 'बाजे घुंगरू' से सबिता बनर्जी की गाई हुई भजन "ज़रा मुरली बजा दे मेरे श्याम रे, पड़ूँ बार बार तोरी प‍इयाँ रे"। ये वो ही सबिता बनर्जी हैं जो आगे चलकर संगीतकार सलिल चौधरी की धर्मपत्नी बनीं और सबिता बनर्जी से बनीं सबिता चौधरी। युं तो इन्होने बंगला में ही ज़्यादा गीत गाए हैं, लेकिन हिंदी फ़िल्मों के लिए भी समय समय पर कई बार अपनी आवाज़ दी है।

'बाजे घुंगरू' १९६२ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था राम राज फ़िल्म्स ने। फ़िल्म को निर्देशित किया एस. श्रीवास्तव ने और इसके मुख्य कलाकार थे मनहर देसाई और नलिनी चोनकर। फ़िल्म में संगीत था धनीराम प्रेम का। प्रस्तुत भजन गीतकार शिवराज श्रीवास्तव का लिखा हुआ है। आपको यह भी बता दें कि इस फ़िल्म का शीर्षक गीत सबिता बनर्जी ने मोहम्मद रफ़ी और सीता के साथ मिलकर गाया था, जिसके बोल थे "बाजे घुंगरू छन छन छन"। संगीतकार धनीराम को शास्त्रीय संगीत को लुभावने रूप में ढालने की अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित करने का मौका इसी फ़िल्म में मिला। ख़ास कर आज की यह प्रस्तुत भजन, जिसमें सितार के टुकड़ों का इतनी मधुरता के साथ इस्तेमाल किया गया है कि भक्ति रस जैसे भजन के बोलों में ही नहीं बल्कि इसकी हर एक धुन में समा गई है। ६० के दशक का यह दौर धनीराम के संगीत सफ़र का आख़िरी दौर था। १९६२ में 'बाजे घुंगरू' के अलावा उन्होने फ़िल्म 'मेरी बहन' में भी संगीत दिया। फिर वर्षों उपेक्षित रहने के बाद उन्हे मिला १९६७ की फ़िल्म 'आवारा लड़की' में फिर एक बार शास्त्रीय शैली पर आधारित गानें बनाने का मौका। बहुत ही अफ़सोस की बात है कि इसके बाद धनीराम को किसी निर्माता ने मौका नहीं दिया। जैसे कि पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखते हैं कि "यह विचार स्वयमेव ही आता है कि यदि कुछ निर्माताओं ने अपने 'बी' या 'सी' ग्रेड की सामाजिक फ़िल्मों में ही धनीराम को और अवसर दिया होता तो हमें शास्त्रीयता और सुगमता के बेहतरीन मिश्रण की पता नहीं कितनी और रसभरी रचनाएँ सुनने को मिल सकती थीं।" तो आइए दोस्तों, 'दुर्लभ दस' लघु शृंखला के पहले अंक में सुनते हैं शिवराज श्रीवास्तव का लिखा, धनीराम का संगीतबद्ध किया और सबिता बनर्जी का गाया फ़िल्म 'बाजे घुंगरू' से यह भजन।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्मों में संगीतकार बनने से पहले धनीराम ने लाहौर में कई फ़िल्मों में गायक के रूप में अपनी क़िस्मत आज़माई थी, जैसे कि फ़िल्म 'धमकी' (१९४५) और 'झुमके' (१९४६)।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस धार्मिक गीत के गायक मुख्य रूप से एक संगीतकार हैं, लेकिन उन्होने इस फ़िल्म में संगीत नहीं दिया है। ये वो शख़्स हैं जिनके दोनों बेटे मशहूर संगीतकार जोड़ी के रूप में फ़िल्म जगत में छाए। तो फिर इस गीत के गायक का नाम बताएँ। ४ अंक।

२. इस गीत के संगीतकार धार्मिक और पौराणिक फ़िल्मों के संगीतकार के रूप में जाने जाते हैं, और महत्वपूर्ण बात यह कि इनके संगीत से सजे एक धार्मिक फ़िल्म का एक गीत इतना ज़्यादा लोकप्रिय हुआ कि उसे उस साल का सर्वश्रेष्ठ गीत करार दिया गया था। संगीतकार का नाम बताएँ। २ अंक।

३. यह फ़िल्म १९५३ की फ़िल्म है और फ़िल्म के शीर्षक में शक्ति की देवी का नाम छुपा है। फ़िल्म का नाम बताएँ। ३ अंक।

४. इस पूरे गीत में उसी देवी के चमत्कारों का वर्णन हुआ है जिनके नाम से फ़िल्म का शीर्षक है। गीत के बोल बताएँ। २ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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