Saturday, November 7, 2009

गुड़िया चाहे ना लाना, पप्पा जल्दी आ जाना....बचपन की जाने कितनी यादें समेटे हैं ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 255

र दोस्तों, पूर्वी जी के पसंद के गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं उनकी पसंद के पाँचवे और फिलहाल अंतिम गीत पर। यह गीत भले ही बच्चों वाला गाना हो, लेकिन बहुत ही मर्मस्पर्शी है, जिसे सुनते हुए आँखें भर ही आते हैं। परदेस गए अपने पिता के इंतेज़ार में बच्चे किस तरह से आस लगाए बैठे रहते हैं, यही बात कही गई है इस गीत में। जी हाँ, "सात समुंदर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से, अच्छी सी गुड़िया लाना, गुड़िया चाहे ना लाना, पप्पा जल्दी आ जाना"। जहाँ एक तरफ़ मासूमियत और अपने पिता के जल्दी घर लौट आने की आस है, वहीं बच्चों की परिपक्वता भी दर्शाता है यह पंक्ति कि "गुड़िया चाहे ना लाना"। आप चाहे कुछ भी ना लाओ हमारे लिए, लेकिन बस आप जल्दी से आ जाओ। आनंद बक्शी के ये सीधे सरल बोल और उस पर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का सुरीला और दिल को छू लेने वाला संगीत, गीत को वही ट्रीटमेंट मिला जिसकी उसे ज़रूरत थी। और इस गीत के गायक कलाकारों के नामों का उल्लेख भी बेहद ज़रूरी है। लता जी की आवाज़ तो आप पहचान ही सकते हैं जो कि गीत की मुख्य गायिका हैं, लेकिन उनके अतिरिक्त इस गीत में कुल तीन बाल आवाज़ें भी आपको सुनाई देंगी। क्या आपको पता है ये आवाज़ें किन गायिकाओं की है? चलिए हम बता देते हैं। ये आवाज़ें हैं सुलक्षणा पंडित, मीना पतकी, और ईला देसाई की। यह गीत है १९६७ की फ़िल्म 'तक़दीर' का जिसके मुख्य कलाकार थे भारत भूषण, शालिनी, और फ़रिदा जलाल। फ़िल्म का निर्देशन किया था ए. सलाम ने। यह फ़िल्म कोंकणी फ़िल्म 'निर्मोन' का रीमेक था।

फ़िल्म 'तक़दीर' की कहानी कुछ इस तरह की थी कि गोपाल (भारत भूषण) और शारदा (शालिनी) अपने दो बेटियों और एक बेटे के साथ रहते हैं। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी ना होने की वजह से गोपाल के मन में विदेश जाकर नौकरी करने का ख़याल आता है। जिस नाव में वो सफ़र कर रहे होते हैं वो तूफ़ानी समुंदर में डूब जाती है और वो कभी घर नहीं लौटता। इसी सिचुयशन पर वो तीन छोटे बच्चे अपने पिता के इंतेज़ार में यह गीत गाते हैं। फ़िल्म देखते हुए आपकी आँखें भर आएँगी। यह तो थी बच्चों का अपने पिता के नाम संदेश। इसी तरह से गोपाल और शारदा भी एक दूसरे के ग़म का इज़हार फ़िल्म में "जब जब बहार आई और फूल मुस्कुराए, मुझे तुम याद आए" गीत के ज़रिए करते हैं। बताने की आवश्यकता नहीं कि यह गीत इस फ़िल्म का सब से मक़बूल गीत रहा है। दोस्तों, क्योंकि आज के प्रस्तुत गीत "पप्पा जल्दी आ जाना" में सुलक्षणा पंडित की आवाज़ शामिल है और यह उनका गाया पहला फ़िल्मी गीत था, तो चलिए उन्ही की ज़ुबानी जानते हैं इस गीत की रिकार्डिंग् के बारे में जिसका ज़िक्र उन्होने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में किया था। "मैं उस वक़्त ९ बरस की थी, और मैं जब गा रही थी, मैं लता जी को देख रही थी, और वो इतनी प्यारी लग रही थीं जब वो गा रहीं थीं। उनके सामने ख़ूबसूरत से ख़ूबसूरत हीरोइन भी कुछ नहीं है।" देखा आपने सुलक्षणाजी ने लता जी की ख़ूबसूरती का किस तरह से ज़िक्र किया, आइए अब इस अनोखे गीत को सुनते हैं, अनोखा मैने इसलिए कहा क्योंकि गायिकाओं के इस कॉम्बिनेशन का यह एकमात्र गीत है। और गीत सुनने से पहले हम पूर्वी जी का एक बार फिर से आभार व्यक्त करते हैं ऐसे प्यारे प्यारे गीतों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करवाने के लिए। उम्मीद है आप आगे भी हमारी प्रतियोगिताओं में इसी तरह से सक्रिय भूमिका निभाती रहेंगी।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. कल याद किया जायेगा एक ऐसे संगीतकार को जिन्हें खुद तो बहुत अधिक सफलता नहीं मिली पर उनके सुपुत्र बतौर संगीतकार एक लम्बी पारी खेल चुके हैं.
२. इस फिल्म की नायिका थी जयश्री गाड़कर
३. मुखड़े में शब्द है -"गम".

पिछली पहेली का परिणाम -

मनु जी लगतार दो चौके....कमाल कर रहे हैं आप...बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सभ्यता का रहस्य - प्रेमचंद



सुनो कहानी: प्रेमचंद की "सभ्यता का रहस्य"
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद की हृदयस्पर्शी कहानी "घर-जमाई" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी "सभ्यता का रहस्य", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 15 मिनट 47 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

सभ्यता केवल हुनर के साथ ऐब करने का नाम है।
(प्रेमचंद की "सभ्यता का रहस्य" से एक अंश)




नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Fourty Fifth Story, Sabhyata Ka Rahasya: Premchand/Hindi Audio Book/2009/39. Voice: Anurag Sharma

Friday, November 6, 2009

सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगे...अनंत इंतज़ार की पीड़ा है इस गीत में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 254

पूर्वी जी के पसंद के गानों का लुत्फ़ इन दिनों आप उठा रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। पूर्वी जी के पसंद के इन पाँच गीतों की खासियत यह है कि ये पाँच गानें पाँच अलग गीतकार और पाँच अलग संगीतकारों की रचनाएँ हैं। कमाल अमरोही - ग़ुलाम मोहम्मद, हसरत जयपुरी - दत्ताराम, और राजेन्द्र कृष्ण - मदन मोहन के बाद आज बारी है एक ऐसे गीतकार - संगीतकार जोड़ी की जो फ़िल्म जगत के इस तरह की जोड़ियों में एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह जोड़ी है शक़ील बदायूनी और नौशाद अली की। जी हाँ, आज प्रस्तुत है शक़ील - नौशाद की एक रचना मोहम्मद रफ़ी के स्वर में। फ़िल्म 'दुलारी' का यह गीत है "सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे"। १९४९ का साल शक़ील - नौशाद के लिए एक सुखद साल रहा। महबूब ख़ान की फ़िल्म 'अंदाज़', ताजमहल पिक्चर्स की फ़िल्म 'चांदनी रात', तथा ए. आर. कारदार साहब की दो फ़िल्में 'दिल्लगी' और 'दुलारी' इसी साल प्रदर्शित हुई थी और ये सभी फ़िल्मों का गीत संगीत बेहद लोकप्रिय सिद्ध हुआ था। आज ज़िक्र 'दुलारी' का। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सुरेश, मधुबाला और गीता बाली। फ़िल्म का निर्देशन कारदार साहब ने ख़ुद ही किया था। आज के प्रस्तुत गीत पर हम अभी आते हैं, लेकिन उससे पहले आपको यह बताना चाहेंगे कि इसी फ़िल्म में लता जी और रफ़ी साहब ने अपना पहला डुएट गीत गाया था, यानी कि इसी फ़िल्म ने हमें दिया पहला 'लता-रफ़ी डुएट' और वह गीत था "मिल मिल के गाएँगे दो दिल यहाँ, एक तेरा एक मेरा"। एक और ऐसा युगल गीत था "रात रंगीली मस्त नज़ारे, गीत सुनाए चाँद सितारे"। फिर उसके बाद लता और रफ़ी की आवाज़ों में कैसे कैसे युगल गीत आए, उनके बारे में बोलने लगें तो कई हफ़्ते गुज़र जाएँगे!

मोहम्मद रफ़ी की एकल आवाज़ में "सुहानी रात ढल चुकी" राग पहाड़ी पर आधारित है। इसी फ़िल्म का गीत "तोड़ दिया दिल मेरा" भी इसी राग पर आधारित है। दोस्तों, यह राग जितना शास्त्रीय है, उससे भी ज़्यादा यह जुड़ा हुआ है पहाड़ों के लोक संगीत से। यह पहाड़ों का संगीत है, जिसमें प्रेम, शांति और वेदना के सुर सुनाई देते हैं। राग पहाड़ी पर असंख्य फ़िल्मी गानें बने हैं, लेकिन आज क्योंकि हम बात कर रहे हैं नौशाद साहब के गाने की, तो हम नज़र दौड़ाएँगे उन्ही के स्वरबद्ध कुछ ऐसे गीतों पर जो इस राग पर आधारित हैं।

१. आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले (राम और श्याम)
२. दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढ़ूंढ रहा है (सन ऒफ़ इंडिया)
३. दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात (कोहिनूर)
४. जवाँ है मोहब्बत हसीं है ज़माना (अनमोल घड़ी)
५. कोई प्यार की देखे जादूगरी (कोहिनूर)
६. ओ दूर के मुसाफ़िर हम को भी साथ ले ले (उड़न खटोला)
७. तोरा मन बड़ा पापी साँवरिया रे (गंगा जमुना)


तो दोस्तो, आनंद लीजिए रफ़ी की आवाज़ का, और हाँ, आपको यह भी बताते चलें कि यही गीत रफ़ी साहब के करीयर का पहला पहला ब्लॉकबस्टर गीत साबित हुआ था। सुनिए...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. एल पी और आनंद बख्शी ने रचा है ये गीत.
२. ये फिल्म एक कोंकणी फिल्म "निर्मोन" का रीमेक थी.
३. गीत शुरू होता है एक से नौ तक के एक अंक के नाम के साथ.

पिछली पहेली का परिणाम -

मनु जी धीमे धीमे चलते ही सही...आप १२ अंकों तक पहुँच ही गए बधाई...कभी कभी तुक्के लगा लिया कीजिये :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, November 5, 2009

फिर वही शाम वही गम वही तन्हाई है...तलत की आवाज़ में डूबते शाम को तन्हा दिल से उठती टीस



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 253

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं पहेली प्रतियोगिता के तीसरे विजेयता पूर्वी जी के अनुरोध पर एक के बाद एक कुल पाँच गानें। आज है उनके चुने हुए तीसरे गीत की बारी। कल का गीत था ख़ुशरंग, आज उसके ठीक विपरित, यानी कि एक ग़मज़दा नग़मा। है तो ग़मज़दा लेकिन उतना ही मक़बूल और मशहूर जितना कि कोई भी दूसरा ख़ुशनुमा हिट गीत। आज हम सुनने जा रहे हैं तलत महमूद की मख़मली आवाज़ में फ़िल्म 'जहाँ आरा' का गीत "फिर वही शाम वही ग़म वही तन्हाई है, दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। तलत साहब के गाए सब से ज़्यादा हिट गीतों की फ़ेहरिस्त में शुमार होता है इस गीत का। राजेन्द्र कृष्ण के असरदार बोल और मदन मोहन का अमर संगीत। यह अफ़सोस की ही बात है दोस्तों कि मदन मोहन के संगीत वाली फ़िल्में बॉक्स ऒफ़िस पर ज़्यादा कामयाब नहीं हुआ करती थी। लेकिन उन फ़िल्मों का संगीत कुछ ऐसा रूहानी होता था कि ये फ़िल्में केवल अपने गीत संगीत की वजह से ही लोगों के दिलों में हमेशा के लिए बस जाती थी। 'जहाँ आरा' भी एक ऐसी ही फ़िल्म थी। मैने यह कहीं पढ़ा है, पता नहीं सच है या ग़लत, कि 'जहाँ आरा' फ़िल्म कुछ इस क़दर फ़्लॊप हुई कि बहुत से सिनेमाघरों से इस फ़िल्म को उसी दिन उतार दिया गया जिस दिन यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी। यानी कि यह फ़िल्म एक डिसास्टर रही निर्माता के लिए। लेकिन संगीत रसिकों के लिए यह एक यादगार फ़िल्म है जिसकी मिठास दिन-ब-दिन बढ़ती चली जा रही है।

'जहाँ आरा' फ़िल्म बनी थी सन् १९६४ में। और १९६४ में ही आई थी मदन मोहन के संगीत में सुपरहिट फ़िल्म 'वो कौन थी'। अब इन दो फ़िल्मों में एक समानता देखिए। 'जहाँ आरा' में लता-तलत का गाया युगल गीत "ऐ सनम आज ये क़सम खाएँ" की धुन 'वो कौन थी' में लता-महेन्द्र के गाए युगल गीत "छोड़ कर तेरे प्यार का दामन" से कहीं कहीं बहुत मिलता जुलता है। ख़ैर, 'जहाँ आरा' के निर्देशक थे विनोद कुमार। मुग़ल पृष्ठभूमी पर आधारित इस फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि मिर्ज़ा युसूफ़ चंगेज़ी और जहाँ आरा बचपन के साथी थे। जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखते ही दोनों को एक दूसरे से प्यार हो गया। जहाँ आरा के वालिद और कोई नहीं बल्कि बादशाह शाहजहाँ थे, जिन्होने जहाँ का किसी भी ग़ैर पुरुष से मिलने जुलने पर पाबंदी लगा रखी थी। लेकिन जहाँ और मिर्ज़ा छुप छुप कर मिलते रहे और एक दूसरे से शादी करने का इरादा भी कर बैठे। बदक़िस्मती से जब मुमताज़ महल की मौत हो गई तो शाहजहाँ ने उनकी याद में ताजमहल बनाने की क़सम खाई। मृत्यु शय्या पर मुमताज़ महल ने अपनी बेटी जहाँ आरा से यह वचन लिया था कि उनके बाद वो अपने वालिद का ख़याल रखेगी। ऐसे में जहाँ और मिर्ज़ा का मिलन असंभव था। क्या हुआ फिर दोनो के प्यार का, क्या वो एक दूजे से मिल पाए, यह थी 'जहाँ आरा' फ़िल्म की कहानी। शाहजहाँ के किरदार में पृथ्वीराज कपूर, जहाँ आरा के किरदार में माला सिन्हा और मिर्ज़ा युसूफ़ चंगेज़ी की भूमिका में थे भारत भूषण। जाहिर सी बात है आज यह प्रस्तुत गीत फ़िल्म की कहानी के उस मोड़ पर फ़िल्माया गया होगा जब मिर्ज़ा और जहाँ का एक दूसरे से मिलना जुलना बंद हो गया था। तभी तो शाम की तन्हाइयों ने मिर्ज़ा को घेर लिया था। राजेन्द्र कृष्ण साहब ने क्या ख़ूब लिखा है कि "दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। "याद चली आई है", "याद आ रही है", "याद तेरी आएगी" जैसे बोल तो बार बार लिखे जा चुके हैं, लेकिन "दिल को समझाने तेरी याद चली आई है" में कुछ और ही बात है! तो चलिए सुनते हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. राग पहाडी पर आधारित है ये गीत.
२. शकील बदायुनीं है गीतकार.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"सितारे".

पिछली पहेली का परिणाम -

कमाल है इतने सूत्र देने के बाद भी कोई इस नायाब गीत की गुत्थी नहीं सुलझा पाया.....चलिए आज के लिए सबको शुभकामनाएँ

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, November 4, 2009

चुन चुन करती आई चिडिया...एक ऐसा गीत जो बच्चों बूढों सब के मन को भाये



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 252

पूर्वी जी के अनुरोध पर कल हमने सुने थे संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद की एक बेहतरीन संगीत रचना। आज जो गीत हम सुनने जा रहे हैं वह भी एक कमचर्चित संगीतकार की रचना है। ये हैं दत्ताराम जी। इनके संगीत में हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुने हैं मुकेश की आवाज़ में फ़िल्म 'परवरिश' का गीत "आँसू भरी हैं ये जीवन की राहें"। और आज सुनिए पूर्वी जी के अनुरोध पर फ़िल्म 'अब दिल्ली दूर नहीं' का एक बच्चों वाला गीत "चुन चुन करती आई चिड़िया"। 'अब दिल्ली दूर नही' दत्ताराम की पहली संगीतबद्ध फ़िल्म थी, जो प्रदर्शित हुई सन् १९५७ में। दोस्तों, राज कपूर के फ़िल्मों का संगीत शंकर जयकिशन ही दिया करते थे। दत्ताराम उनके सहायक हुआ करते थे। तो फिर राज साहब ने कैसे और क्यों दत्ताराम को बतौर संगीतकार नियुक्त किया, इसके बारे में विस्तार से दत्ताराम जी ने अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम 'संगीत के सितारों की महफ़िल' में बताया था, आप भी जानिए - "देखिए ऐसा है कि शंकर जयकिशन जहाँ भी जाते थे, हमेशा मैं साथ रहता था। लेकिन एक मौका ऐसा आया कि राज कपूर ने शंकर जयकिशन को बुलाया, और वो उनके वहाँ चले गए। कुछ देर तक मैं उनके साथ नहीं था। वो गए, उनका कॊटेज था, कॊटेज में उनके साथ बातचित चली। तो चलते चलते राज साहब ने कहा कि देखो, एक पिक्चर बन रही है आर.के. फ़िल्म्स की, जिसमें मैं काम नहीं कर रहा हूँ, डिरेक्शन मैं नहीं कर रहा हूँ, पैसा हमारा लगेगा। बैनर हमारा है लेकिन हम उसमें काम नहीं कर रहे हैं, और बच्चों की पिक्चर है। छोटे छोटे बच्चे हैं, उनकी पिक्चर है, साथ में याकूब साहब हैं। तो बताओ क्या करना है? तो शंकर जयकिशन कहने लगे कि जब आप काम नहीं कर रहे, डिरेक्शन नहीं कर रहे, सब कुछ बाहर के हैं, बच्चों की पिक्चर है, आप नहीं कर रहे हैं तो मज़ा नहीं आ रहा है, कुछ ठीक नहीं लग रहा है, तो हम लोग भी म्युज़िक नहीं देंगे। तो फिर राज साहब ने पूछा कि क्या करना है म्युज़िक का। तो जयकिशन ने फ़ौरन बोला कि "दत्तु को चांस दीजिए"।" तो दोस्तों, इस तरह से दत्तु, यानी कि दत्ताराम के लिए खुल गया स्वतंत्र संगीत निर्देशन का मार्ग।

दोस्तों, अभी उपर आपने पढ़ा कि किस तरह से दत्ताराम को राज साहब की फ़िल्म में ब्रेक मिला। और अब आज के प्रस्तुत गीत के बारे में भी तो विस्तार से जानिए ख़ुद दत्ताराम की ही ज़ुबाँ से! "राज साहब ने मुझसे कहा कि एक सिचुयशन है और वो सिचुयशन ऐसी है कि याकूब साहब जो हैं वो बच्चे को लेकर रोड पे चल रहे हैं, और कंधे पे बिठाके उसका एंटर्टेनमेन्ट कर रहे हैं। बच्चे को हँसा रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, और वैसा करते करते दिल्ली ले जाते हैं बच्चे को। तो जाते वक़्त क्या करेंगे, तो उसमें एक गाना है। यह फ़्री-लान्सर गाना है, इसमें कोई सिचुयशन नहीं है, लेकिन मुझे ऐसी ट्युन चाहिए जो हिट हो जाए। कोशिश करो, मेहनत करो, लेकिन गाना मुझे हिट चाहिए। तो कोशिश करते करते, कुछ जम नहीं रहा था। एक दिन, मैं बान्द्रा में कार्टर रोड पे रहता था तो समुंदर के किनारे रात को १२ बजे मैं बैठा था। अकेले मैं बैठा हूँ और समुंदर मेरे सामने है, तो सोचते सोचते मुझे कुछ ऐसा सूझा और मैं गाने लगा "चुन चुन करती आई चिड़िया"। यह गाना मैने सोचा और सोचते सोचते दूसरे दिन हसरत साहब को घर पर मैने बुलाया। कहा कि देखिए, यह तर्ज़ मैने बनाई है, इस पर आप ज़रा कुछ लिख दीजिए। मैने उनको पूरा तर्ज़ सुनाया और उन्होने लिख डाला कि "चुन चुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया, मोर भी आया, कौवा भी आया, चूहा भी आया, बंदर भी आया"। यह गीत बनाकर हम राज साहब के पास गए। मैने थोड़ा सा ही गाना गाया था कि राज साहब ने मुझे बीच में ही रोक दिया, और कहा कि बहुत हिट गाना है! राज साहब को म्युज़िक का कितना नॊलेज है कि थोड़ा सा सुनकर ही कहने लग गए कि हिट गाना है। तो ऐसे रिकार्ड हो गया वो गाना।" तो दोस्तों, अब बारी है यह गीत सुनने की। आप भी बच्चे बन जाइए आज के लिए और सुनिए यह गुदगुदाता हुआ गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. राजेंद्र कृष्ण हैं गीतकार यहाँ.
२. इस फिल्म के निर्देशक थे विनोद कुमार.
३. मुखड़े की अंतिम पंक्ति में शब्द है -"याद".

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी बधाई...आखिर आपने सही जवाब लपक ही लिया....४ अंक हुए आपके....:)


खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

मेरी भी इक मुमताज़ थी....मधुकर राजस्थानी के दर्द को अपनी आवाज़ दी मन्ना दा ने..



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५८

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की पहली नज़्म लेकर। शरद जी ने जिस नज़्म की फ़रमाईश की है, वह मुझे व्यक्तिगत तौर पर बेहद पसंद है या यूँ कहिए कि मेरे दिल के बेहद करीब है। इस नज़्म को महफ़िल में लाने के लिए मैं शरद जी का शुक्रिया अदा करता हूँ। यह तो हुई मेरी बात, अब मुझे "मैं" से "हम" पर आना होगा, क्योंकि महफ़िल का संचालन आवाज़ का प्रतिनिधि करता है ना कि कोई मैं। तो चलिए महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं और उस फ़नकार की बात करते हैं जिनके बारे में मोहम्मद रफ़ी साहब ने कभी यह कहा था: आप मेरे गाने सुनते हैं, मैं बस मन्ना डे के गाने सुनता हूँ। उसके बाद और कुछ सुनने की जरूरत नहीं होती। इन्हीं फ़नकार के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास यह ख्याल रखते थे: मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं, जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाये हो लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नही गा सकता है। सुनने में यह बात थोड़ी अतिशयोक्ति-सी लग सकती है, लेकिन अगर आप मन्ना दा के गाए गीतों को और उनके रेंज को देखेंगे तो कुछ भी अजीब नहीं लगेगा। मन्ना दा ने जितनी आसानी से किसी हास्य-गाने पर काम किया है(उदाहरण के लिए: एक चतुर नार) उतनी हीं आसानी से वे किसी गमगीन गाने(ऐ मेरे प्यारे वतन) को गा जाते हैं और उतनी हीं आसानी और तन्मयता से शास्त्रीय गाने(लागा चुनरी में दाग) में अपनी गलाकारी का परिचय देते हैं। मन्ना दा के बारे में सुप्रसिद्ध संगीतकार खैय्याम के विचार कुछ इस तरह हैं: शास्त्रीय संगीत पर उनकी पकड़ बहुत मज़बूत थी ही साथ ही लोकगीत गाने का अंदाज़ भी बढ़िया था- जैसे चलत मुसाफिर मोह लियो रे। दो बीघा ज़मीन का मन्ना का गाया गाना अपनी निशानी छोड़ जा मुझे बेहद पसंद है। इसके अलावा पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई भी बढ़िया है। हालांकि खैय्याम साहब ने मन्ना दा के लिए "था" का प्रयोग किया है और इसका कारण यह है कि फिल्मों में अब उनके गाने नहीं आते, लेकिन मन्ना दा आज भी उसी जोश-खरोश के साथ रियाज़ करते हैं और आज भी मंच पर उनका जादू कायम है। फिल्मों में नहीं गाते क्योंकि उनके अनुसार उनकी आवाज़ आज के नायकों को सूट नहीं करेगी। वैसे क्या आपको पता है कि गत २१ अक्टूबर को मन्ना दा को २००७ के दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया है। पूरी आवाज़-टीम की ओर से उनको इस उपलब्धि की बधाईयाँ।

यह उपलब्धि एक ऐसा मुकाम है,जिसे हासिल करके कोई भी खुश होगा। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि मन्ना दा को यह बहुत पहले हीं मिल जाना चाहिए था। उनके साथ कई बार मंच बाँट चुकी कविता कृष्णमूर्त्ति जी भी यही विचार रखती हैं: मन्ना डे को दादा साहब फालके पुरस्कार मिलना बहुत ख़ुशी की बात है. वैसे मैं तो कहूंगी कि ये उन्हें बहुत पहले ही मिल जाना चाहिये था। वो ऐसे कलाकार हैं जिन्हें शास्त्रीय संगीत की बहुत अच्छी समझ थी. उनके गाये हुए सभी गानों में एक शालीनता है। पिछले जमाने के लगभग सारे हीं संगीतकार मन्ना दा से प्रभावित नज़र आते हैं। एल-पी के नाम से विख्यात संगीतकार जोड़ी के प्यारेलाल जी को हीं देख लीजिए: मन्ना डे की आज अपनी एक जगह है। हर सांचे में ढल जाते थे वो, उनकी क्या तारीफ़ करूं। पानी की तरह वो किसी भी रंग में घुल जाते थे। हम अगर मन्ना दा की पहली फिल्म की बात करें तो उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत १९४३ में रीलिज हुई फिल्म "तमन्ना" से की, लेकिन उन्हें लोकप्रियता मिली १९५० में बनी "मशाल" के "ऊपर गगन विशाल..." गाने से। मन्ना दा अपने शुरूआती दिनों को याद करते हुए कहते हैं(सौजन्य: बीबीसी, सलमा जैदी): के०सी० डे साहब मेरे चाचा जी थे। पढाई खत्म होने के बाद चाचा ने बोला कि अब तुम गाना शुरू करो। शुरूआत तो गुरू से हीं होनी चाहिए। सही गुरू ही सही सुर-लय बताते हैं, सा रे गा मा क्या है, ये बताते हैं। तो मेरे चाचा जी ने बताया। चाचा जी बम्बई आ रहे थे, वो अंधे थे तो उनके साथ किसी को आना था, चाचा ने शादी नहीं की थी, मैं उनके बेटे जैसा था तो मुझे हीं आना पड़ा। बंबई आने के बाद मुझे चाचा जी संगीत सीखाने के लिए अमन अली खान के पास ले गए। लेकिन जल्द हीं खान साहब का इंतकाल हो गया। उनके बाद मैंने अब्दुल रहमान खान के पास सीखना शुरू किया। उनके पास ३-४ साल सीखा। फिर मैंने अनिल बिश्वास, खेमचंद प्रकाश, एस डी बर्मन को एसिस्ट किया। मैंने कई पिक्चर्स में म्युजिक भी दिया..इस तरह मैं जो कुछ भी सीखता गया उसका फल मुझे मिलता गया। हालांकि मैंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली है, लेकिन फिल्मों में इसलिए आ गया क्योंकि उन दिनों शास्त्रीय गाने वालों को अच्छा प्लेटफ़ार्म नहीं मिलता था, वे लोग भूखे मर रहे थे। जहाँ तक मेरी बात है, मैं अपने फिल्मी सफ़र से संतुष्ट हूँ। मेरा मानना है कि मैंने जिनके साथ भी काम किया है, उनकी जो देन है इस देश को, वह बहुत बड़ी है। १९६९ में फिल्म मेरे हुजूर और १९७१ में बांग्ला फिल्म निशी पद्मा के लिए दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए मन्ना दा की बातों को अब यहीं विराम देते हैं। और अब आगे बढते हैं उस दूसरे फ़नकार की ओर जिसने आज के नज़्म की रचना की है। हमारी बदकिस्मती है कि इनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए हमें "मधुकर राजस्थानी" साहब की एक बेमिसाल रचना की कुछ बेमिसाल पंक्तियाँ से हीं काम चलाना होगा:

सजनी, सजनी
कजरारी अँखियां रह गईं रोती रे
नथली से टूटा मोती रे...


इस रचना के बारे में रेडियोवाणी के युनूस खान साहब लिखते हैं: कुल मिलाकर चार मि0 बाईस सेकेन्‍ड का गीत है ये। बेहद भारतीय गीत है। अगर आप इसे ध्‍यान से सुनें और पढ़ें तो पायेंगे कि एक बेहद निषिद्ध विषय पर मधुकर राजस्‍थानी ने ये गीत लिखा है, जिसमें अश्‍लील हो जाने की पूरी संभावनाएं थीं। मगर ऐसा नहीं हुआ बल्कि जिस अंदाज़ में इसे लिखा गया है उससे गीत का लालित्‍य कुछ और बढ़ ही गया है। पिछले कुछ लेखों में मैंने आपको मधुकर राजस्‍थानी के गीतों से अवगत कराया है। इन सबको क्रम से पढ़ने के बाद आप जान चुके होंगे कि सादगी, सरलता और शिष्‍टता इन गीतों की सबसे बड़ी विशेषता है। गीत सितार की तान से शुरू होता है। फिर मन्‍ना दा की नर्म आवाज़ में ‘सजनी सजनी’ की पुकार और फिर ‘नथली से टूटा मोती रे’। इसी गीत में मन्‍ना दा जब गाते हैं ‘रूप की अगिया अंग में लागी, कैसे छिपाए लाज अभागी’ तो लाज शब्‍द पर मन्‍ना डे अपनी आवाज़ में जिस तरह का भाव लाते हैं वो अनमोल है, नये गायक अगर ये भाव व्‍यक्‍त करना सीख जाएं तो हमारा संगीत बहुत कुछ सुधर जाए। युनूस साहब की इन पंक्तियों से हमें मधुकर साहब और मन्ना दा दोनों की हुनर का सही-सही अंदाज़ा लग जाता है। आने वाली कड़ियों में कभी हम आपको यह राजस्थानी गीत जरूर सुनवाएँगे।

अब पेश है वह नज़्म जिसके लिए आज की महफ़िल सजी है। हमें पूरा यकीन है कि यह आपको बेहद पसंद आएगी। तो लुत्फ़ उठाने के लिए तैयार हो जाईये। हाँ, इस नज़्म को सुनने से पहले जान लीजिए कि युनूस भाई इसके बारे में क्या ख्याल रखते हैं: ये भी अजीबोग़रीब गीत है—पहले रूबाईनुमा चार पंक्तियां आती हैं, जिन्‍हें धीमी रफ्तार में गाया गया है। इसके बाद आता है अंतरा। जो काफी तेज़ गति में गाया गया है। लेकिन मन्‍ना दा की आवाज़ के कोमल स्‍पर्श ने इन पंक्तियों को जिंदा कर दिया है। मेरा मानना ये है कि ये गीत नहीं है बल्कि एक नाटक या बैले जैसा है। ये गीत है ही नहीं। मिनिमम तुकबंदियां हैं इसमें। यूं लगता है किसी पारसी ड्रामे के संवाद हैं। पर जज्‍बात के मामले में ये गाना बहुत गहरा है। मुझे लगता है कि आज के गीतकारों को इस तरह की रचनाओं से सबक़ लेना चाहिये। ये प्रयोगधर्मिता की एक और मिसाल है। ये और बात है कि हमें मधुकर साहब के बारे में ज्यादा कुछ नहीं मालूम, लेकिन उनकी रचनाएँ और खासकर यह गीत उनकी पहचान के लिए काफ़ी है। आप सुनेंगे तो आप भी यहीं कहेंगे। तो देरी काहे की, यह रही वह दर्द से लबरेज सुमधुर नज़्म:

सुनसान जमुना का किनारा,
प्यार का अंतिम सहारा,
चाँदनी का कफ़न ओढे,
सो रहा किस्मत का मारा,
किससे पुछूँ मैं भला अब
देखा कहीं मुमताज़ को?
मेरी भी इक मुमताज़ थी!!

पत्थरों की ओट में महकी हुई तन्हाईयाँ,
कुछ नहीं कहतीं,
डालियों की झूमती और डोलती परछाईयाँ,
कुछ नहीं कहतीं,
खेलती साहिल पे लहर ले रहीं अंगड़ाईयाँ,
कुछ नहीं कहतीं,
ये जानके चुपचाप हैं मेरे ______ की तरह,
हमने तो इनके सामने खोला था दिल के राज को,
किससे पुछूँ मैं भला अब
देखा कहीं मुमताज़ को?
मेरी भी इक मुमताज़ थी!!

ये जमीं की गोद में कदमों का धुंधला-सा निशां,
खामोश है,
ये रूपहला आसमां, मद्धम सितारों का जहां,
खामोश है,
ये खुबसूरत रात का खिलता हुआ गुलशन जवां,
खामोश है,
रंगीनियाँ मदहोश हैं अपनी खुशी में डूबकर,
किस तरह इनको सुनाऊँ अब मेरी आवाज़ को,
किससे पुछूँ मैं भला अब
देखा कहीं मुमताज़ को?
मेरी भी इक मुमताज़ थी!!




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "पशेमाँ" और शेर कुछ यूं था -

तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने....

गज़ल को सुनकर इस शब्द की सबसे पहले शिनाख्त की शरद जी ने। आपने इस शब्द पर एक शेर भी पेश किया:

अपने किए पे कोई पशेमान हो गया
लो और मेरी मौत का सामान हो गया।

शरद जी के बाद महफ़िल में चचा ग़ालिब के शेर के साथ नज़र आईं अल्पना जी। अल्पना जी, यह कैसी लुकाछिपी है, कभी दिखती हैं कभी नहीं। हमें उम्मीद है कि हमारी महफ़िल आपको पसंद ज़रूर आती होगी तो थोड़ा नियमित हो जाईये :) यह रहा आपका शेर:

की मेरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
हाये उस ज़ोदपशेमाँ का पशेमाँ होना

मुरारी जी, महफ़िल में आपका स्वागत है, लेकिन यह क्या आपने किस शब्द पर गज़ल कह दी। इसमें तो "पशेमाँ" शब्द की आमद हीं नहीं है। अगली बार से ध्यान रखिएगा।
सीमा जी, थोड़ी देर हो गई- क्या बात है? ये तो आपकी हीं महफ़िल थी। खैर कोई बात नहीं...यह रही आपकी पेशकश:

वो ख़ुद नज़र आते हैं जफ़ाओं पे पशेमाँ
क्या चाहिये और तुम को "शकील" इस के सिवा और (शकील बँदायूनी)

हुस्न को नाहक़ पशेमाँ कर दिया,
ऐ जुनूँ ये भी कोई अन्दाअज़ है| (मजाज़ लखनवी)

एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे (मोमिन)

कुलदीप जी, बातों-बातों में आप कहाँ निकल गएँ? बस शिकायत करने के लिए आए थे क्या? :) कोई शेर भी तो कहना था।
शामिख जी ने कैफ़ी आज़मी साहब के लिखे हक़ीक़त फिल्म के गाने(होके मजबूर मुझे) से कुछ पंक्तियाँ पेश की:

बेमहल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होँगे
ग़म पशेमा तबस्सुम में ढल आये होँगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होँगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, November 3, 2009

मौसम है आशिकाना, ये दिल कहीं से उनको ऐसे में ढूंढ लाना...आईये सज गयी है महफिल ओल्ड इस गोल्ड की



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 251

दोस्तों, शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के बाद एक लम्बे इंतेज़ार के बाद हमें मिली हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के तीसरे विजेयता के रूप में पूर्वी जी। और आज से अगले पाँच दिनों तक हम सुनने जा रहे हैं पूर्वी जी के पसंद के पाँच सदाबहार नग़में। पूर्वी जी ने हमें कुल दस गानें चुन कर भेजे थे, जिनमें से हमने पाँच ऐसे गीतों को चुना है जिनकी फ़िल्मों का कोई भी गीत अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर नहीं बजा है। हमें पूरी उम्मीद है कि पूर्वी जी के पसंद ये गानें आप सभी बेहद एन्जॉय करेंगे, क्योंकि उनका भेजा हुआ हर एक गीत है गुज़रे ज़माने का सदाबहार नग़मा, जिन पर वक़्त का कोई भी असर नहीं चल पाया है। शुरुआत कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' के गीत "मौसम है आशिक़ाना" से। वैसे तो 'पाक़ीज़ा' फ़िल्म का कोई भी गीत ताज़े हवा के झोंके की तरह है जो इतने सालों के बाद भी वही ताज़गी, वही ख़ुशबू लिए हुए है। इन मीठे धुनों को साज़ों से निकालकर फ़ज़ाओं में बिखेरने वाले जादूगर का नाम है ग़ुलाम मोहम्मद। जी हाँ, यह बहुत ही अफ़सोस की बात है कि ग़ुलाम साहब अपने करीयर की इस सब से महत्वपूर्ण फ़िल्म की ज़बरदस्त कामयाबी को देखे बग़ैर ही इस दुनिया से चले गए। हिंदी फ़िल्मी गीतों में मटके का प्रयोग शुरु करने वाले दो संगीतकारों में दो नाम मशहूर हैं। इनमें से एक तो थे श्याम सुंदर और दूसरे ग़ुलाम मोहम्मद। ग़ुलाम साहब की म्युज़िकल हिट फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के संगीत को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यह पुरस्कार ग़ुलाम मोहम्मद की प्रतिभा का ही सम्मान था। इस सम्मन ने यह साबित किया था कि भले ही वो कमचर्चित संगीतकार हों, लेकिन प्रतिभा और उत्कृष्ट संगीत देने की दृष्टि से वो किसी से भी कम नहीं। फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' के बनने में इतने ज़्यादा समय लग गए (करीब १४ साल) कि ग़ुलाम साहब के देहान्त के बाद नौशाद साहब ने फ़िल्म का संगीत पूरा किया और फ़िल्म के 'बैकग्राउंड म्युज़िक' भी तैयार किए। यह एक तरह से नौशाद साहब की श्रद्धांजली थी अपने उस साथी के लिए जिन्होने उनकी तमाम फ़िल्मों में उनके सहायक और वादक रहे। आपको यह भी बता दें कि ग़ुलाम मोहम्मद की तरह फ़िल्म के सिनेमाटोग्राफर जोसेफ़ विर्स्चिंग् का भी फ़िल्म के पूरे होते होते निधन हो गया था। इस फ़िल्म से जुड़ी कुछ और दिलचस्प और दर्द भरी बातें हम आपको फिर कभी बताएँगे, अभी तो इस फ़िल्म के और भी गानें बजने हैं इस महफ़िल में।

१९७२ की फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' कमाल अमरोही की महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म को हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में गिना जाता है। यह एक ऐसी फ़िल्म है जिसके ज़िक्र के बग़ैर कमाल अमरोही, ग़ुलाम मोहम्मद और अदाकारा मीना कुमारी की कोई भी चर्चा अधूरी ही रह जाएगी। अशोक कुमार, राज कुमार और नादिरा फ़िल्म के महत्वपूर्ण किरदारों में थे। फ़िल्म की कहानी, संवाद, स्क्रीनप्ले, इत्यादि जितने सशक्त थे, उतना ही सुरीला था फ़िल्म का संगीत। इस फ़िल्म की सफलता के पीछे इसके संगीत का भी पूरा पूरा हाथ रहा। इस फ़िल्म में कई गीतकारों ने गीत लिखे, जैसे कि कैफ़ी आज़्मी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ भोपाली, और ख़ुद कमाल अमरोही साहब भी। आज का प्रस्तुत गीत कमाल साहब का लिखा हुआ है। कमाल साहब आम बोलचाल में भी बड़े ही अदबी भाषा का प्रयोग किया करते थे। जिस तरह का उर्दू अमरोहा में उस ज़माने में बोला जाता था, वैसी बोली बोलते थे, जिसकी वजह से कभी कभी सामने वाला हक्का बक्का रह जाता था। कुछ ऐसी ही हालात से गुज़रे थे हमारे निदा फ़ाज़्ली साहब जब वो फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' के गानें लिखने के लिए उनके पास गए थे। कमाल अमरोही साहब ने प्रस्तुत गीत में नायिका के दर्द का इज़हार किया है। कभी उन्होने पलकों का शामियाना बिछाया है तो कभी सावन के महीने को क़ातिलाना क़रार दिया है, और कभी जुगनुओं को ज़मीं पर उतरे हुए सितारे कहे हैं। यह गीत फ़िल्म संगीत के धरोहर का एक उत्कृष्टतम गीत है, जिसकी तारीफ़ शब्दों में संभव नहीं। पूर्वी जी, हम आपकी पसंद की दाद देते हैं। भई वाह! क्या गाना चुना है आपने!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस गीत के संगीतकार की ये पहली फिल्म थी.
२. आर के फिल्म्स की इस फिल्म में निर्देशन राज कपूर का नहीं था.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"भूख".

पिछली पहेली का परिणाम -

दिलीप जी ८ अंकों के लिए बधाई. अवध जी आपने सही कहा. शरद जी इन दोनों गीतों में अक्सर ये भूल हो जाती है :) राज जी हमें पता था की ये आपका सबसे पसंदीदा गीत है, तभी तो सुनवाया :)वैसे किसी ने भी बोनस अंकों के लिए नहीं खेला, जानकारी के लिए बता दें एस डी बर्मन के संगीत निर्देशन में बने गीत सबसे अधिक बजे हैं ओल्ड इस गोल्ड में.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

गुनगुनाते लम्हे- गीतों भरी कहानीः एक नये कार्यक्रम की शुरूआत



गुनगुनाते लम्हे- 1


जब जमाना रेडियो का था तो रेडियो ने फिल्मी गीतों से सजा-धजाकर कई तरह के प्रयोग किये। इसी में एक प्रयोग था 'गीतों भरी कहानी' का, जिसमें कहानी को फिल्मी गीतों के माध्यम से शुरूआत से अंजाम तक पहुँचाया जाता था। आवाज़ वेब रेडियो के माध्यम से रेडियो का वो दौर इंटरनेट पर लाना चाहता है। हिन्द-युग्म आज से अपने 'आवाज़' मंच पर एक नये कार्यक्रम की शुरूआत कर रहा है, जिसे नाम दिया है 'गुनगुनाते लम्हे'। इसकी होस्ट हैं मखमली आवाज़ की मल्लिका 'रश्मि प्रभा'। हमारे श्रोता रश्मि प्रभा से पॉडकास्ट कवि सम्मेलन के माध्यम से परिचित हैं। 'गुनगुनाते लम्हे' महीने में दो बार पहले मंगलवार और तीसरे मंगलवार को सुबह 9 से 9:30 बजे के मध्य प्रसारित होगा। तो इंतज़ार किस बात का, आइए शुरू करते हैं आज का कार्यक्रम॰॰॰

बड़ा जोर है सात सुरों में, बहते आंसू जाते हैं थम ' -तो आंसुओं को थामकर हम लाये हैं कुछ गुनगुनाते लम्हें! हमारा बचपन शुरू होता है कहानियों की धरती पर, इसीलिए शुरू है हमारी कहानी और साथ में सात सुरों के रंग....
जी हाँ, हम आपकी थकान दूर करेंगे गुनगुनाती कहानियों से और बरबस खींच लायेंगे उस उम्र को जो यादें बन हमारे मौन को आवाजें देती हैं।
वक़्त की रफ़्तार रुकेगी नहीं, परिवर्तन होता रहेगा ऐसे में कुछ जादू हो, यही प्रयास है इन नन्हें गुनगुनाते लम्हों का........



आप भी चाहें तो भेज सकते हैं कहानी लिखकर गीतों के साथ, जिसे दूंगी मैं अपनी आवाज़! जिस कहानी पर मिलेगी शाबाशी (टिप्पणी) सबसे ज्यादा उनको मिलेगा पुरस्कार हर माह के अंत में 500 / नगद राशि।

हाँ यदि आप चाहें खुद अपनी आवाज़ में कहानी सुनाना तो आपका स्वागत है....


1) कहानी मौलिक हो।
2) कहानी के साथ अपना फोटो भी ईमेल करें।
3) कहानी के शब्द और गीत जोड़कर समय 35-40 मिनट से अधिक न हो, गीतों की संख्या 7 से अधिक न हो।।
4) आप गीतों की सूची और साथ में उनका mp3 भी भेजें।
5) ऊपर्युक्त सामग्री podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल करें।

'गुनगुनाते लम्हे' टीम
आवाज़/एंकरिंगतकनीक
Rashmi PrabhaKhushboo
रश्मि प्रभाखुश्बू

Monday, November 2, 2009

जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं....हमें नाज़ है कि ये क्लासिक गीत है आज ओल्ड इस गोल्ड के 250वें एपिसोड की शान



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 250

साहिर लुधियानवी के लिखे और सचिन देव बर्मन के स्वरबद्ध किए गीतों को सुनते हुए हम आज आ पहुँचे हैं इस ख़ास शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' की अंतिम कड़ी में। दोस्तों, यह जो शीर्षक हमने चुना था इस शृंखला के लिए, ये आपको पता ही होगा कि किस आधार पर हमने चुना था। जी हाँ, साहिर साहब की एक कालजयी रचना थी फ़िल्म 'प्यासा' में "जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है"। तो फिर इस शृंखला को समाप्त करने के लिए इस गीत से बेहतर भला और कौन सा गीत हो सकता है। मोहम्मद रफ़ी की अविस्मरणीय आवाज़ में यह गीत जब भी हम सुनते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 'प्यासा' १९५७ की फ़िल्म थी। गुरु दत्त ने इससे पहले सचिन दा और साहिर साहब के साथ 'बाज़ी' (१९५१) और 'जाल' (१९५२) में काम कर चुके थे। लेकिन जब उन्होने अपने निजी बैनर 'गुरु दत्त फ़िल्म्स' के बैनर तले फ़िल्मों का निर्माण शुरु किया तो उन्होने ओ. पी. नय्यर को बतौर संगीतकार और मजरूह साहब को बतौर गीतकार नियुक्त किया ('आर पार' (१९५४), 'मिस्टर ऐंड मिसेस ५५' (१९५५), 'सी.आइ.डी' (१९५६)। ये तीनों फ़िल्में ख़ुशमिज़ाज किस्म के थे। १९५७ में जब उन्होने 'प्यासा' बनाने का निश्चय किया, जो कि उनकी पहली फ़िल्मों से बिल्कुल अलग हट कर था, तो उन्होने गीत संगीत का भार सौंपा साहिर साहब और बर्मन दादा पर। यह वही शुरु शुरु का समय था दोस्तों, जब गुरु दत्त अपने निजी जीवन में भी मानसिक अवसाद से गुज़रने लगे थे। 'प्यासा' की कहानी एक ऐसे निराशावादी बेरोज़गार कवि की थी, जिसे ऐसा लगने लगा कि यह दुनिया उसके जैसे ख़यालात वाले लोगों के लिए है ही नहीं। और इस कवि का किरदार स्वयं गुरु दत्त ने निभाया था। माला सिंहा और वहीदा रहमान इस फ़िल्म की नायिकाएँ थीं। शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी, जो ख़ुद अपनी ज़िंदगी में एक ऐसे ही निराशावादी समय से गुज़रे थे, वो इस कहानी के 'अंडर करण्ट' को भली भाँती समझ गए और यही वजह थी कि इस फ़िल्म के गीतों, नज़्मों और अशारों में उन्होने जान डाल दी।

फ़िल्म 'प्यासा' के गीतों और नज़्मों में निराशावाद बार बार महसूस की जा सकती है। सब से बड़ा उदाहरण है "ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया, ये इंसाँ के दुश्मन समाजों की दुनिया... ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"। इस गीत के एक अंतरे में साहिर साहब लिखते हैं "यहाँ एक खिलौना है इंसाँ की हस्ती, ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती, यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"। रफ़ी साहब की आवाज़ ने जो पैथोस पैदा किया इस फ़िल्म के गीतों में, वो साहिर साहब के बोलों को जैसे अमर कर दिया। निराशावाद की एक और मिसाल है इस फ़िल्म का प्रस्तुत गीत, "ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवाँ ज़िंदगी के, कहाँ है कहाँ है मुहाफ़िज़ ख़ुदी के, जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है"। समाज में चल रही दुख तक़लीफ़ों की ओर इशारा करते हुए साहिर साहब ने व्यंगात्मक वार किया है कि वो लोग कहाँ है जो इस धरती पर नाज़ करते हैं, क्या उन्हे ये सामाजिक समस्याएँ दिखाई नहीं देती! कुछ इसी तरह का भाव एक बार फिर से साहिर साहब ने उजागर की थी १९५८ की फ़िल्म 'फिर सुबह होगी' के गीत "वो सुबह कभी तो आएगी" में। लेकिन उसमें एक आशावादी अंग भी था कि वो सुबह कभी तो आएगी। लेकिन प्रस्तुत गीत पूरी तरह से निराशा से घिरा हुआ है। कम से कम साज़ों का इस्तेमाल कर बर्मन दादा ने बोलों की महत्ता को बरक़रार रखा है। गीत में पार्श्व ध्वनियों का भी इस्तेमाल हुआ है, जैसे कि किसी गरीब भूखे बच्चे की खांसने की आवाज़, और वेश्यालयों में छम छम करती घुंघुरू की आवाज़। लगभग ६ मिनट का यह गीत फ़िल्म संगीत के धरोहर का एक उत्कृष्ट नगीना है, जो आज के समाज में भी उतना ही सार्थक है जितना कि ५० के उस दशक में था। दोस्तों, जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है ये तो हमें नहीं मालूम, लेकिन हम बस यही कहना चाहेंगे कि साहिर साहब और सचिन दा, आप दोनों पर हिंद को ज़रूर नाज़ है। दोस्तों, सुनिए आज का यह विचारोत्तेजक गीत, और इस विशेष शृंखला को समाप्त करने की दीजिए अपने इस दोस्त को इजाज़त। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' आज पूरी कर रही है अपनी २५०-वीं कड़ी, इस ख़ास अवसर को थोड़ा सा और ख़ास बनाते हुए अब हम आपसे पूछते हैं एक बम्पर सवाल। आपको बस इतना बताना है कि अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' अब तक किस संगीतकार के सब से ज़्यादा गानें बजे हैं। अगले १६ घंटों के अंदर सही जवाब देने वाले पहले व्यक्ति को मिलेंगे बोनस ५ अंक। तो ज़रा अपनी याद्दाश्त पर लगाइए ज़ोर, और मुझे दीजिए इजाज़त आज के लिए, नमस्ते!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस गीत के गीतकार एक बेहद सफल और अव्वल दर्जे के निर्देशक भी हैं.
२. इस फिल्म में नायिका के साथ थे राज कुमार और अशोक कुमार.
३. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से - "सूरज".

नोट - आज की पहेली के साथ साथ यदि आप सुजॉय द्वारा उपर पूछे गए सवाल का सही जवाब देते हैं तो जाहिर है ५ अंक बोनस के मिलेंगें, यानी आज एक दिन में आप कम सकते हैं ७ शानदार अंक.

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी यकीनन आप आज के गीत का शीर्षक देखकर चौंक गए होंगें, दरअसल जब मैं (सजीव सारथी) इस पहेली के सूत्र खोज रहा था तब पता नहीं क्यों "ये दुनिया अगर मिल भी जाए" जेहन में आ गया, और सूत्र शब्द "खिलौना" लिखा गया, दिए गए सूत्रों के हिसाब से आपने सही जवाब दिया तो २ अंक तो आपको मिलेंगें पक्का :). पर जिस गीत को मैंने और सुजॉय ने २५० वें एपिसोड के लिए प्लान किया था वो यही है जो आज बजा है. उम्मीद है आप सब को प्रस्तुत गीत भी उतना ही पसंदीदा होगा जितना कि "प्यासा" के अन्य गीत. यूं तो ये फिल्म और इसका संगीत या कहें एक एक गीत एक मास्टरपीस है...कालजयी... पराग जी ३०० वें एपिसोड तक जितने भी प्रतिभागी ५० अंक छू पायें वो सब विजेता माने जायेंगें. ३०१ से सभी के अंक शून्य से शुरू होंगे और हो सकता है कि पहेली का फोर्मेट भी कुछ बदला जाए, फिलहाल आप विजेता है, अपनी पसंद हमें लिख भेजिए. अवध ही और दिलीप जी आभार.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

हमारे यहाँ के नेताओं का कोई भी बयान किसी व्यंग से कम नहीं होता....पठकथा और संवाद लेखक आर डी तैलंग से एक ख़ास बातचीत



ताजा सुर ताल TST (33)

दोस्तों, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर"

TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक-

पिछले एपिसोड में एक बार फिर वही कहानी दोहराई गयी सीमा जी ने दो सही जवाब दिए तो तनहा जी ने एक सही जवाब देकर बाज़ी समाप्त की. सीमा जी हैं २६ अंकों पर, और तनहा जी हैं १२ अंकों पर....देखते हैं क्या होता है

सजीव - सुजॉय, आज एक बार फिर से 'ताज़ा सुर ताल' एक नया मोड़ ले रहा है। अब यह शृंखला साप्ताहिक हो चुकी है, लेकिन इसका स्वरूप वही रहेगा, लेकिन गानें ज़्यादा संख्या में बजेंगे। साथ ही ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम्स के गीतों को भी समान प्राथमिकता दी जाएगी।

सुजॉय - आशा है हमारे श्रोताओं को भी अच्छा लगेगा। हर ताज़े सप्ताह की शुरुआत ताज़े गीतों के साथ हम करेंगे, और जहाँ तक दो दिन की जगह एक दिन का सवाल है, तो वैसे भी हम 'आवाज़' के अन्य स्तंभों के माध्यम से हर रोज़ ही अपने पाठकों और श्रोताओं से मिलते ही रहते हैं।

सजीव - बिल्कुल सही है। और आज इस बदले हुए TST की पहली कड़ी को और भी ज़्यादा ख़ास बनाने में हमारे नियमित साथी शरद तैलंग जी ने एक ज़बरदस्त भूमिका निभाई है।

सुजॉय - जी हाँ। जिन श्रोताओं को मालूम नहीं है उनकी जानकारी के लिए हम बता दें कि शरद तैलंग जी के छोटे भाई हैं आर. डी. तैलंग, जो एक जानेमाने संवाद व पटकथा लेखक हैं। छोटे पर्दे पर उन्होने कैसी कैसी लोकप्रिय कार्यक्रमों के लिये स्क्रीप्ट लिखे हैं ये तो आप नीचे उनकी इंटरव्यू को पढ़कर जान ही लेंगे, यहाँ बस इतना बताते हैं कि तैलंग जी ने आनेवाली फ़िल्म 'अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी' के संवाद और पटकथा लिखे हैं राजकुमार संतोषी के साथ।

सजीव - सुजॉय, हमने इस फ़िल्म के दो गानें तो सुनवा चुके हैं, और आज भी तीन गानें सुनवाएँगे, लेकिन आज इस फ़िल्म के गानों से भी ख़ास है आर. डी. तैलंग साहब की इंटरव्यू।

सुजॉय - निस्संदेह! और वैसे भी इस फ़िल्म के गीत संगीत से जुड़ी बातें तो हम उन दो गीतों के साथ बता ही चुके हैं आज तो तैलंग जी की ही बातें करते हैं। आर. डी. तैलंग जी का जन्म मध्यप्रदेश के मंडला में एक छोटे से गाँव में हुआ था, ये एक ऐसा प्रदेश हैं जहाँ से मुख्य सड़क तक पहुँचने के लिए इन्हें २० कि.मी. पैदल चलना पड़ता था। इस तरह के परिवेश से निकलकर आज तैलंग जी मुंबई की चकाचौंध तक आ पहुँचे हैं। इस सफ़र के दौरान इनके कौन कौन से मुख्य पड़ाव रहे हैं, वो आप उन्ही से जानेंगे उनके साक्षात्कार से।

सजीव - इस मुलाक़ात को अपने पाठकों तक पहुँचाने से पहले हम शरद जी का शुक्रिया अदा करते हैं जिनके सहयोग से हमें आर. दी. तैलंग जी से बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लेकिन सबसे पहले सुनते हैं अजब प्रेम की गज़ब कहानी का ये शानदार गीत नीरज श्रीधर और सुजान डीमेलो की आवाज़ में, तब तक तैलंग साहब भी आ ही जायेंगें...

प्रेम की नैय्या (अजब प्रेम की गजब कहानी)
आवाज़ रेटिंग - ***



TST ट्रिविया # 22- कैटरिना कैफ पर फिल्माए किस दोगने से सुजान को मकबूलियत मिली थी. इस मशहूर फिल्म में "खिलाडी" के नाम से मशहूर एक्टर की शीर्षक भूमिका थी.

सजीव - तैलंग जी आपका स्वागत है TST में. सबसे पहले तो अपनी इस पहली फिल्म लिए बधाईयाँ स्वीकार कीजिये.

तैलंग जी - बहुत बहुत धन्यवाद सजीव जी

सजीव - छोटे परदे से बड़े परदे की ये दूरी कैसे तय की आपने. बॉलीवुड में अपने अब तक के सफ़र पर हमारे श्रोताओं को कुछ बताईये ?

तैलंग जी - सजीव जी में यही कहूँगा कि बस कुछ किस्मत और कुछ मेहनत. मैंने अपने करियर की शुरुआत की पत्रकारिता से. मैं मुम्बई में एक संध्या दैनिक "दोपहर" में कार्टून्स बनाता था.. और साथ ही अपने अखबार के लिए reporting भी करता था, यहीं से धीरे धीरे लेखन की ओर रुझान हुआ. उस समय हमारे देश में टेलीविजन क्रांति की शुरुआत हुई ही थी. प्राइवेट चैनल्स धीरे धीरे खुल रहे थे.. इसलिए मेरा भी इस नयी टेक्नोलॉजी की तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक था, इसलिए मैंने प्लुस चॅनल नामक प्रोडक्शन हाउस में नौकरी कर ली, और वहां पर चित्रहार, मिर्च मसाला जैसे कई प्रोग्राम दूरदर्शन के लिए बनाये.. उसके बाद मैंने जी टीवी में बतौर सहायक निर्देशक नौकरी कर ली...मगर कुछ दिनों में ही महसूस होने लगा कि शायद नौकरी करने कि मेरी फितरत नहीं है.. और मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए जिसमें मुझे खुद को संतोष मिले, और जो करूँ वो करने में मुझे आनंद आये. लेखन में रूचि पहले से ही थी.. इसलिए लेखन को ही अपना व्यवसाय और आय का मुख्य जरिया बनाने का निर्णय किया और सबसे पहला प्रोग्राम मिला "स्टार यार कलाकार"... जिससे फरीदा जलाल प्रस्तुत करती थीं. उसके बाद एक बहुत ही सफल प्रोग्राम से जुड़ने का मौका मिला जिसका नाम था " मूवर्स एंड शेकर्स"... यह अपने देश में पहला ऐसा शो था जो राजनीती पे तीखे व्यंग करता था.. और स्टैंड अप कॉमेडी का भारत में पहला प्रयोग था. बस उसके बाद तो लेखन का सिलसिला शुरू हो गया. उसकी अगली कड़ी था अमिताभ बच्चन द्वारा प्रस्तुत "कौन बनेगा करोड़पति" जिसके दोनो भाग मैंने लिखे, उसके बाद अमिताभ बच्चन कि जगह देश के दूसरे सुपर स्टार शाहरुख़ खान ने उसकी बागडोर सम्हाली, तो उसमें भी मुझे लिखने का मौका मिला.. मुझे गर्व है कि मैंने देश के दो बड़े महानायकों के लिए लिखा है.. उसके बाद शाहरुख़ के लिए ही "क्या आप पांचवी पास से तेज़ हैं" और अमिताभ बच्चन के लिए बिग बॉस जैसे शो लिखे.. इन बड़े बड़े महानायकों के लिए काम करने का सीधा फायदा यह हुआ कि फिल्म जगत में थोडा नाम हो गया, और उसी के चलते, प्रसिद्ध निर्देशक राजकुमार संतोषी ने मुझे फिल्म "अशोक" के संवाद लिखने बुलाया. वो फिल्म बनने में तो अभी समय है.. लेकिन उस से पहले " अजब प्रेम कि ग़ज़ब कहानी" की तैयारियां चल रही थी, तो उन्होंने मुझे इस फिल्म में भी पटकथा और संवाद लिखने कि जिम्मेवारी दे दी. इस तरह से मेरा थोडी किस्मत और थोडी मेहनत के सहारे फिल्मों में प्रवेश हो गया.

सुजॉय - तैलंग जी, मूवर्स एंड शेखर एक ऐसा प्रोग्राम था जिसे देखने के बाद बहुत अच्छी नींद आती थी, कहाँ से लाते थे इतने बढ़िया पंच ?

तैलंग जी- सुजोय जी इस बात को शायद आपने भी महसूस किया होगा कि छोटे शहरों और मध्यम वर्गीय वातावरण में पलने बढ़ने के कारण व्यक्ति में अपने आसपास कि चीज़ों को देखने का बहुत ही मजेदार नज़रिया विकसित हो जाता है, जिसमें हास्य भी होता है, व्यंग भी होता है, यही कारण ही कि हमें प्रेमचंद, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे कई लेखकों कि रचनाओं में हास्य के साथ साथ समाज पर एक तीखा प्रहार भी देखने को मिलता है.. और हमारे देश कि, राजनीति कि स्थिति यह है कि या तो आप इस पे झल्ला सकते हैं, दुखी हो सकते हैं, या फिर इस पर हंस सकते हैं... मैंने हंसने का काम किया.. और जहाँ तक पंच का सवाल है, हमारे यहाँ के नेताओं का कोई भी बयान किसी व्यंग से कम नहीं होता...तभी तो कहते हैं, कि जब नेता कानून बनता है तो वो मजाक बन के रह जाता है, और जब वो मजाक बनाता है..तो वो कानून बन जाता है...

सजीव - जी सही कहा आपने ...चलिए अब आते है APKGK पर. राज कुमार संतोषी ने "अंदाज़ अपना अपना" जैसी क्लासिक कॉमेडी दी है. जाहिर है दर्शकों की उम्मीदें इस फिल्म से बहुत होंगी, अब फिल्म बन चुकी है, आप बताएं क्या हम हंस हंस कर लोटपोट होने के लिए तैयार रहें या फिर उम्मीदें कुछ कम रखें :)

तैलंग - जी हाँ उम्मीदें बहुत हैं, और होनी भी चाहिए, अगर उम्मीद एक अच्छे निर्देशक से नहीं लगायेंगे तो किस से लगायेंगे.. में तो यही कहूँगा कि आप पूरी उम्मीद लेकर सिनेमा हाल में आयें..क्यों कि यह हमारे लिए भी एक चुनौती होगी कि हम आपकी उम्मीदों पे खरे उतरें...

सुजॉय - तैलंग जी मुझे और सजीव और हमारे सभी श्रोताओं को इस शुर्कवार का इंतज़ार रहेगा...फिलहाल हम ताजा सुर ताल में आज का दूसरा गीत APKGK से सुनवा देते हैं, ये एक मस्ती भर गीत है जिसे मिका और सूंधी चौहान ने गाया है, "कमीने" के आजा आजा दिल निचोड़े गीत में भी जिस तरह एक मशहूर रोजमर्रा की धुन का सितेमाल किया गया था, इस गीत में भी एक ऐसी धुन को पंच बनाया गया है, जिसके बजते ही शादी का ख़याल जेहन में आ जाता है....

सजीव - सुजॉय....शादी....?

सुजॉय - अरे मैं अपनी नहीं, इस गाने की बात कर रहा था, सुनिए -

ओह बाय गोड (अजब प्रेम की गजब कहानी)
आवाज़ रेटिंग - ***



TST ट्रिविया # 23- किस हालिया फिल्म में मिका ने अभिनय किया है ?

सुजॉय - तैलंग जी, कहते हैं कॉमेडी सबसे मुश्किल कला है. ये भी सुना है की इस तरह की फिल्मों में आर्टिस्ट खुद भी अपनी तरह से इन्नोवेशअंस करते हैं. कैसी टुनिंग होनी चाहिए एक कॉमिक फिल्म में संवाद लेखक और आर्टिस्ट के बीच, और प्रस्तुत फिल्म में आर्टिस्टों के साथ आपका अनुभव कैसा रहा.

तैलंग जी - देखिये सिर्फ कॉमेडी ही क्यों, अच्छा लेख्नन ही मुश्किल काम है चाहे वोः हास्य हो या गंभीर लेखन..आपने सही कहा कि आर्टिस्ट अपनी तरह से प्रस्तुत करते हैं.. लेकिन इसमें सबसे ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि कलाकार का योगदान उस दृश्य को या संवाद को बेहतर बना रहा है, तब तो उस योगदान का स्वागत किया जाना चाहिए, अन्यथा लेखन से छेड़छाड़ से जितना बच सको उतना बचना चाहिए. जहाँ तक लेखक और कलाकार के बीच तालमेल का सवाल है, लेखक को इस बात का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है कि वो जिस कलाकार या चरित्र के लिए संवाद लिख रहा है..वो संवाद उस के लगने चाहिए न कि लेखक के, और जहाँ तक कलाकार का सवाल है.. उसे इस बात का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है कि अगर लेखन के कोई शब्द लिखा है तो क्यों लिखा है.. किस शब्द को इस तरह और कितनी अहमियत के साथ बोलना है यह अच्छे कलाकार का गुण है.. बस दोनों इसी बात का ध्यान रख लें तो इस से बढ़िया कोई बात नहीं हो सकती. रणवीर और कैटरीना के साथ मेरा अनुभव बहुत अच्छा रहा, क्योंकि दोनों ही मंझे हुए कलाकार हैं ऊपर से राजकुमार संतोषी जैसे निर्देशक, उनके बारे में कहा जाता है कि वो कलाकार के अन्दर से वो अभिनय निकलवा लेते हैं जिसका ज्ञान खुद उस कलाकार को भी नहीं होता.. मेरे लिए सौभाग्य कि बात है कि मुझे पहली ही फिल्म में इतने बड़े लोगों का साथ मिला..

सजीव - हमारी हिंदी फिल्मों में संगीत अहम् भूमिका अदा करता है. इस फिल्म का संगीत भी इन दिनों काफी हिट हो चुका है, आपकी राय क्या है इस फिल्म के संगीत पर और कौन सा है आपका सबसे पसंदीदा गीत और क्यों ?

तैलंग जी - इसका संगीत वाकई बहुत बढ़िया है, क्योंकि इसमें आधुनिक पीढी का पूरा ध्यान रखा गया है, क्योंकि वही पीढी है जो आज के संगीत को लोकप्रिय बनाते हैं, क्योंकि उनकी संख्या बहुत ज्यादा है इसलिए कोई भी संगीत निर्देशक इस वर्ग को नज़रंदाज़ नहीं कर सकता...लेकिन साथ ही साथ इसमें कहीं कहीं जगह पर सूफियाना अंदाज़ भी है जो संगीत प्रेमियों के दिल को भी छू लेगा... मुझे इसमें "कैसे बताएं दिल को यारा, तू जाने न" बहुत अच्छा लगता है..

सुजॉय - और चलते चलते हिंद युग्म के सभी रचनात्मक लोगों के नाम आपका कोई सन्देश ...

तैलंग जी - देखिये कोई भी भाषा तभी प्रगति कर सकती है जब कि उस को नयी पीढी अपनाए. और नयी पीढ़ी किसी भी चीज़ को तभी अपनाती है जब वोः उसी के नए अंदाज़ में प्रस्तुत कि जाये. हिंदी को भी प्रगति करना है तो उसे पुस्तकालयों कि अलमारियों से निकल कर कंप्यूटर और इन्टरनेट जैसे मंच पे आना होगा. हिंद युग्म को देख के मैं अचंभित हो गया...क्योंकि जब हम इन्टरनेट जैसे माध्यम कि बातें करते हैं तो हमें लगता है कि यहाँ हिंदी का कोई काम नहीं..हिंद युग्म को देख कर एक ख़ुशी मिश्रित आश्चर्य हुआ, कि आपके माध्यम से हिंदी के क्षेत्र में इतना कुछ हो रहा है, यह बहुत ही स्वागत योग्य कदम है...और ये अपने ही देश में उपेक्षित भाषा को लोकप्रिय बनाने का बहुत ही उत्तम प्रयास है. मैं इसकी सराहना करता हूँ. हिंदी मैं आज भी अपार संभावनाएं हैं, व्यावसायिक तौर पर भी और सांस्कृतिक तौर पर भी, आपके माध्यम से नयी नयी प्रतिभाएं उभर कर सामने आएँगी जिनकी हिंदी को बहुत आवश्यकता है. हिन्दयुग्म के सभी रचनात्मक पाठकों को मेरी ओर से शुभ जीवन की शुभकामनायें.

सजीव - तैलंग जी धन्येवाद आपका, चलिए अब हमारे श्रोताओं को हम सुनवाते हैं इस फिल्म से आपकी पसदं का ये गीत -

तू जाने न (अजब प्रेम की गज़ब कहानी)
आवाज़ रेटिंग -***1/2



TST ट्रिविया # 24-प्रीतम की बतौर स्वतंत्र संगीतकार पहली फिल्म कौन सी थी ?

फिल्म के अन्य गीतों को यहाँ सुनें -
तेरा होने लगा हूँ...
मैं तेरा धड़कन तेरी....
अजब प्रेम की गज़ब कहानी संगीत एल्बम को आवाज़ की ओवरऑल रेटिंग ***

आवाज़ की टीम ने इन गीतों को दी है अपनी रेटिंग. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसे लगे? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीतों को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

शुभकामनाएँ....



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, November 1, 2009

फैली हुई है सपनों की बाहें...साहिर के शब्द और बर्मन दा की धुन का न्योता है, चले आईये...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 249

ज साहिर साहब और सचिन दा पर केन्द्रित शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' में बजने वाले गीत का ज़िक्र शुरु करने से पहले आइए सचिन दा के बेटे पंचम के शब्दों में अपने पिता से संबंधित एक दिल को छू लेनेवाला क़िस्सा जानें। पंचम कहते हैं "वो कभी मेरी तारीफ़ नहीं करते थे। मैं कितना भी अच्छा धुन क्यों ना बनाऊँ, वो यही कहते थे कि इससे भी अच्छा बन सकता था, और कोशिश करो। एक बार वो मॊर्निंग् वाक्' से वापस आकर बेहद ख़ुशी के साथ बोले कि आज एक बड़े मज़े की बात हो गई है। वो बोले कि आज तक जब भी मैं वाक् पर निकलता था, लोग कहते थे कि देखो एस. डी. बर्मन जा रहे हैं, पर आज वो ही लोगों ने कहा कि देखो, आर. डी. बर्मन का बाप जा रहा है! यह सुनकर मैं हँस पड़ा, हम सब बहुत ख़ुश हुए।" दोस्तों, सच ही तो है, किसी पिता के लिए इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात क्या होगी कि दुनिया उसे उनके बेटे के परिचय से पहचाने। ख़ैर, ये तो थी पिता-पुत्र की बातें, आइए अब ज़िक्र छेड़ा जाए आज के गीत का। आज भी हम एक बहुत ही सुरीली रचना लेकर उपस्थित हुए हैं, जिसे सुनते ही आप के कानों में ही नहीं बल्कि आप के दिलों में भी मिशरी सी घुल जाएगी। लता जी की मधुरतम आवाज़ में यह गीत है फ़िल्म 'हाउस नंबर ४४' का "फैली हुई हैं सपनों की बाहें, आजा चल दें कहीं दूर"।

'हाउस नंबर ४४' १९५५ की फ़िल्म थी, और एक बार फिर से नवकेतन, देव आनंद, सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी आए एक साथ। और एक बार फिर से बनें कुछ सुमधुर गानें। फ़िल्म की नायिका थीं कल्पना कार्तिक। साहिर के निजी कड़वे अनुभव उभर कर सामने आए हेमन्त कुमार के गाए "तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ" गीत में। साहिर साहब की काव्य प्रतिभा का एक बहुत ही सुंदर उदाहरण है हेमन्त दा का ही गाया हुआ "चुप है धरती चुप है चाँद सितारे, मेरे दिल की धड़कन तुझको पुकारे"। 'हाउस नंबर ४४' देव आनंद और कल्पना कार्तिक की शादी के बाद की पहली फ़िल्म थी। आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 'टैक्सी ड्राइवर' के सेट्स पर ही इन दोनों ने शादी की थी। इस फ़िल्म में जो मनोरम लोकेशन्स् दिखाए गए हैं, वो महाराष्ट्र के महाबलेश्वर की पहाड़ियाँ हैं। लता जी के गाए प्रस्तुत गीत भी इन्ही सह्याद्री की पहाड़ियों में ही फ़िल्माया गया था। दूर दूर तक फैली पहाड़ों और उन पर सांपों की तरह रेंगती हुई सड़कों के साथ फैले हुए सपनों की जो तुलना की गई है, गीत के फ़िल्मांकन से और भी ज़्यादा पुरसर हो गई है। इस गीत में लता जी की आवाज़ इतनी मीठी लगती है कि बस एक बार सुन कर दिल ही नही भरता। मुझे पूरा यकीन है कि आप कम से कम इस गीत को दो बार तो ज़रूर सुनेंगे ही। बस अपनी आँखे बंद कीजिए और निकल पड़िए किसी हिल स्टेशन के रोमांटिक सफ़र पर। चलते चलते आपको यह भी बता दूँ कि साहिर और सचिन दा की जोड़ी का यह गीत मेरा सब से पसंदीदा गीत रहा है। मैं शुक्रिया अदा करता हूँ 'आवाज़' का कि इस मंच के ज़रिए अपने बहुत ही प्रिय गीत को आप सब के साथ बाँटने का मौका मुझे मिला। तो सुनिए यह गीत और बस सुनते ही जाइए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. साहिर का रचा एक क्लासिक.
२. कल होगा २५० वां एपिसोड सचिन दा की इस अद्भुत रचना को समर्पित.
३. एक अंतरे की पहली पंक्ति में शब्द आता है -"खिलौना".

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी आपका स्कोर ३२ अंकों पर आ गया है. अवध जी जहाँ तक हमारा ख्याल है "ये तन्हाई हाय रे हाय" हसरत जयपुरी का लिखा हुआ है. दिलीप जी आपकी आवाज़ में बर्मन दा को दी गयी श्रद्धाजंली मन को छू गयी...धन्येवाद.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (१९) फिल्म गीतकार शृंखला भाग १



जब फ़िल्मी गीतकारों की बात चलती है तो कुछ गिनती के नाम ही जेहन में आते हैं, पर दोस्तों ऐसे अनेकों गीतकार हैं, जिनके नाम समय के गर्द में कहीं खो से गए हैं, जिनके लिखे गीत तो हम आज भी शौक से सुनते हैं पर उनके नाम से अपरिचित हैं, और इसके विपरीत ऐसा भी है कि कुछ बेहद मशहूर गीतकारों के लिखे बेहद अनमोल से गीत भी उनके अन्य लोकप्रिय गीतों की लोकप्रियता में कहीं गुमसुम से खड़े मिलते हैं, फ़िल्मी दुनिया के गीतकारों पर "रविवार सुबह की कॉफी" में हम आज से एक संक्षिप्त चर्चा शुरू कर रहे हैं, इस शृंखला की परिकल्पना भी खुद हमारे नियमित श्रोता पराग सांकला जी ने की है, तो चलिए पराग जी के संग मिलने चलें सुनहरे दौर के कुछ मशहूर/गुमनाम गीतकारों से और सुनें उनके लिखे कुछ बेहद सुरीले/ सुमधुर गीत. हम आपको याद दिला दें कि पराग जी मरहूम गायिका गीत दत्त जी को समर्पित जालस्थल का संचालन करते हैं.


१) शैलेन्द्र

महान गीतकार शैलेन्द्र जी का असली नाम था "शंकर दास केसरीलाल शैलेन्द्र". उनका जन्म हुआ था सन् १९२३ में रावलपिन्डी (अब पाकिस्तान में). भारतीय रेलवे में वास मुंबई में सन् १९४७ में काम कर रहे थे. उनकी कविता "जलता है पंजाब " लोकप्रिय हुई और उसी दौरान उनकी मुलाक़ात राज कपूर से हुई. उसीके साथ उनका फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ फिल्म बरसात से ! शंकर जयकिशन की जोड़ी के साथ साथ शैलेंद्र ने सचिन देव बर्मन, सलिल चौधरी और कई संगीतकारों के साथ काम किया. उनके राज कपूर के लिए लिखे गए कई गीत लोकप्रिय है, मगर आज हम उनके एक दुर्लभ गीत के बारे में बात करेंगे. लीजिये उन्ही का लिखा हुआ यह अमर गीत जिसे गाया हैं मखमली आवाज़ के जादूगर तलत महमूद ने फिल्म पतिता (१९५३) के लिए. संगीत शंकर जयकिशन का है और गीत फिल्माया गया हैं देव आनंद पर. सुप्रसिद्ध अंगरेजी कवि पी बी शेल्ली ने लिखा था "Our sweetest songs are those that tell of saddest thoughts".शैलेन्द्र ने इसी बात को लेकर यह अजरामर गीत लिखा और जैसे कि पी बी शेल्ली के विचारों को एक नए आसमानी बुलंदी पर लेकर चले गए. गीतकार शैलेन्द्र पर विस्तार से भी पढें यहाँ.



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२) इन्दीवर

बप्पी लाहिरी के साथ इन्दीवर के गाने सुननेवालों को शायद यह नहीं पता होगा की इन्दीवर (श्यामलाल राय) ने अपना पहला लोकप्रिय गीत (बड़े अरमानों से रखा हैं बलम तेरी कसम) लिखा था सन् १९५१ में फिल्म मल्हार के लिए. कहा जाता है की सन् १९४६ से १९५० तक उन्होंने काफी संघर्ष किया, मगर उसके बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है. रोशन के साथ इन्दीवर को जोड़ी बन गयी, मगर दूसरे लोकप्रिय संगीतकारों के साथ उन्हें गीत लिखने के मौके (खासकर पचास के दशक में) ज्यादा नहीं मिले. बाद में कल्यानजी - आनंद जी के साथ इन्दीवर की जोड़ी बन गयी. समय के साथ इन्दीवर ने समझौता कर लिया और फिर...

खैर, आज हम महान गायक मुकेश, संगीतकार रोशन और गीतकार इन्दीवर का एक सुमधुर गीत लेकर आये है जिसे परदे पर अभिनीत किया गया था संजीव कुमार (और साथ में मुकरी और ज़हीदा पर). फिल्म है अनोखी रात जो सन् १९६८ में आयी थी. यह फिल्म रोशन की आखरी फिल्म थी और इस फिल्म के प्रर्दशित होने से पहले ही उनका देहांत हुआ था.

इतना दार्शनिक और गहराई से भरपूर गीत शायद ही सुनने मिलता है.



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३) असद भोपाली

असद भोपाली (असद खान) ऐसे गीतकार हैं जिन्हें लगभग ४० सालके संघर्ष के बाद बहुत बड़ी सफलता मिली. उनका लिखा हुआ एक साधारण सा गीत "कबूतर जा जा जा " जैसे के देश के हर युवक युवती के लिए प्रेमगीत बन गया. यह गीत था फिल्म मैंने प्यार किया (१९८९) का जिसे संगीतबद्ध किया था राम- लक्ष्मण ने.

असद भोपाली की पहली फिल्मों में से एक थी बहुत बड़े बजट की फिल्म अफसाना (१९५१) जिसमे थे अशोक कुमार, वीणा, जीवन, प्राण, कुलदीप कौर आदि. संगीत था उस ज़माने के लोकप्रिय हुस्नलाल भगतराम का. इसके गीत (और फिल्म भी) लोकप्रिय रहे मगर असद चोटी के संगीतकारोंके गुट में शामिल ना हो सके. सालों साल तक वो एन दत्ता, हंसराज बहल, रवि, सोनिक ओमी, उषा खन्ना, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि संगीतकारों के साथ करते रहे मगर वह कामयाबी हासिल न कर सके जो उन्हें फिल्म मैंने प्यार किया से मिली.

लीजिये फिल्म अफसाना (१९५१) का लता मंगेशकर का गाया हुआ यह गीत सुनिए जिसे असद भोपाली ने दिल की गहराईयों से लिखा है



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४) कमर जलालाबादी

अमृतसर के पास एक छोटा सा गाँव हैं जिसका नाम है जलालाबाद , जहां पर जन्म हुआ था ओमप्रकाश (कमर जलालाबादी) का. महान फिल्मकार दल्सुखलाल पंचोली ने उन्हें पहला मौका दिया था फिल्म ज़मीनदार (१९४२) के लिए. उन्होंने चालीस और पचास के दशक में सदाबहार और सुरीले गीत लिखे. उन्होंने सचिन देव बर्मन के साथ उनकी पहली फिल्म एट डेज़ (१९४६) में भी काम किया. उस ज़माने के लगभग हर संगीतकार के साथ (नौशाद और शंकर जयकिशन के अलावा) उन्होंने गीत लिखे.

उनका लिखा हुआ "खुश हैं ज़माना आज पहली तारीख हैं"(फिल्म पहली तारीख १९५४) का गीत आज भी बिनाका गीतमाला पर महीने की पहली तारीख को बजता है. रिदम किंग ओ पी नय्यर के साथ भी उन्होंने "मेरा नाम चीन चीन चू" जैसे लोकप्रिय गीत लिखे.

लीजिये उनका लिखा हुआ रेलवे की तान पर थिरकता हुआ गीत "राही मतवाले" सुनिए. इसे गाया है तलत महमूद और सुरैय्या ने फिल्म वारिस (१९५४) के लिए. मज़े की बात है कि गीत फिल्माया भी गया था इन्ही दो कलाकारों पर.



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५) किदार शर्मा

महान फिल्म निर्माता, निर्देशक और गीतकार किदार शर्मा की जीवनी "The one and lonely Kidar Sharma" हाल ही में प्रर्दशित हुई थी. जिस गीतकार ने सैंकडो सुरीले गीत लिखे उन्हें आज ज़माना भूल चूका है. कुंदन लाल सहगल की फिल्म "देवदास " के अजरामर गीत इन्ही के कलम से लिखे गए है. "बालम आये बसों मोरे मन में" और "दुःख के अब दीन बीतत नाही". उनके लिखे हुए लोकप्रिय गीत है इन फिल्मों मे : नील कमल (१९४७), बावरे नैन (१९५०), सुहाग रात (१९४८). फिल्म जोगन (१९५०) का निर्देशन भी किदार शर्मा का है.

आज की तारीख में किदार शर्मा को कोई अगर याद करता हैं तो इस बात के लिए की उन्होंने हिंदी फिल्म जगत को राज कपूर, मधुबाला, गीता बाली जैसे सितारे दिए. मुबारक बेग़म का गाया "कभी तनहाईयों में यूं हामारी याद आयेगी" भी इन्ही किदार शर्मा का लिखा हुआ है. इसे स्वरबद्ध किया स्नेहल भाटकर (बी वासुदेव) ने और फिल्माया गया हैं तनुजा पर. मुबारक बेग़म के अनुसार यह गीत अन्य लोकप्रिय गायिका गानेवाली थी मगर किसी कारणवश वह ना आ सकी और मुबारक बेग़म को इस गीत को गाने का मौका मिला. उन्होंने इस गीत के भावों को अपनी मीठी आवाज़ में पिरोकर इसे एक यादगार गीत बना दिया.



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प्रस्तुति -पराग सांकला


"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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