गाँधी जयंती पर विशेष - मैंने अहिंसा का पाठ अपनी पत्नी से पढा.....
मैं स्वप्नंष्टा नहीं हूं। मैं स्वयं को एक व्यावहारिक आदर्शवादी मानता हूं। अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है। यह सामान्य लोगों के लिए भी है। अहिंसा उसी प्रकार से मानवों का नियम है जिस प्रकार से हिंसा पशुओं का नियम है। पशु की आत्मा सुप्तावस्था में होती है और वह केवल शारीरिक शक्ति के नियम को ही जानता है। मानव की गरिमा एक उच्चतर नियम आत्मा के बल का नियम के पालन की अपेक्षा करती है...
जिन ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा की खोज की, वे न्यूटन से अधिक प्रतिभाशाली थे। वे स्वयं वेलिंग्टन से भी बडे योद्धा थे। शस्त्रों के प्रयोग का ज्ञान होने पर भी उन्होंने उसकी व्यर्थता को पहचाना और श्रांत संसार को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में है।
मैं केवल एक मार्ग जानता हूं - अहिंसा का मार्ग। हिंसा का मार्ग मेरी प्रछति के विरुद्ध है। मैं हिंसा का पाठ पढाने वाली शक्ति को बढाना नहीं चाहता... मेरी आस्था मुझे आश्वस्त करती है कि ईश्वर बेसहारों का सहारा है, और वह संकट में सहायता तभी करता है जब व्यक्ति स्वयं को उसकी दया पर छोड देता है। इसी आस्था के कारण मैं यह आशा लगाए बैठा हूं कि एक-न-एक दिन वह मुझे ऐसा मार्ग दिखाएगा जिस पर चलने का आग्रह मैं अपने देशवासियों से विश्वासपूर्वक कर सकूंगा।
मैं जीवन भर एक 'जुआरी' रहा हूं। सत्य का शोध करने के अपने उत्साह में और अहिंसा में अपनी आस्था के अनवरत अनुगमन में, मैंने बेहिचक बडे-से-बडे दांव लगाए हैं। इसमें मुझसे कदाचित गलतियां भी हुई हैं, लेकिन ये वैसी ही हैं जैसी कि किसी भी युग या किसी भी देश के बडे-से-बडे वैज्ञानिकों से होती हैं।
मैंने अहिंसा का पाठ अपनी पत्नी से पढा, जब मैंने उसे अपनी इच्छा के सामने झुकाने की कोशिश की। एक ओर, मेरी इच्छा के दृढ प्रतिरोध, और दूसरी ओर, मेरी मूर्खता को चुपचाप सहने की उसकी पीडा को देखकर अंततः मुझे अपने पर बडी लज्जा आई, और मुझे अपनी इस मूर्खतापूर्ण धारणा से मुक्ति मिली कि मैं उस पर शासन करने के लिए ही पैदा हुआ हूं। अंत में, वह मेरी अहिंसा की शिक्षिका बन गई।
अहिंसा और सत्य का मार्ग तलवार की धार के समान तीक्ष्ण है। इसका अनुसरण हमारे दैनिक भोजन से भी अधिक महत्वपूर्ण है। सही ढंग से लिया जाए तो भोजन देह की रक्षा करता है, सही ढंग से अमल में लाई जाए तो अहिंसा आत्मा की रक्षा करती है। शरीर के लिए भोजन नपी-तुली मात्रा में और निश्चित अंतरालों पर ही लिया जा सकता है; अहिंसा तो आत्मा का भोजन है, निरंतर लेना पडता है। इसमें तृप्ति जैसी कोई चीज नहीं है। मुझे हर पल इस बात के प्रति सचेत रहना पडता है कि मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ रहा हूं और उस लक्ष्य के हिसाब से अपनी परख करती रहनी पडती है।
अहिंसा के मार्ग का पहला कदम यह है कि हम अपने दैनिक जीवन में परस्पर सच्चाई, विनम्रता, सहिष्णुता और प्रेममय दयालुता का व्यवहार करें। अंग्रेजी में कहावत है कि ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है। नीतियां तो बदल सकती हैं और बदलती हैं। किंतु अहिंसा का पंथ अपरिवर्तनीय है। अहिंसा का अनुगमन उस समय करना आवश्यक है जब तुम्हारे चारों ओर हिंसा का नंगा नाच हो रहा हो। अहिंसक व्यक्ति के साथ अहिंसा का व्यवहार करना कोई बडी बात नहीं है। वस्तुतः यह कहना कठिन है कि इस व्यवहार को अहिंसा कहा भी जा सकता है या नहीं। लेकिन अहिंसा जब हिंसा के मुकाबले खडी होती है, तब दोनों का फर्क पता चलता है। ऐसा करना तब तक संभव नहीं है जब तक कि हम निरंतर सचेत, सतर्क और प्रयासरत न रहें।
अहिंसा उच्चतम कोटि का सव्यि बल है। यह आत्मबल अर्थात हमारे अंदर बैठे ईश्वरत्व की शक्ति है। अपूर्ण मनुष्य उस तत्व को पूरी तरह नहीं पकड सकता - वह उसके संपूर्ण तेज को सहन नहीं कर पाएगा, किंतु उसका अत्यल्प अंश भी हमारे अंदर सव्यि हो जाए तो उसके अद्भुत परिणाम निकल सकते हैं।
पवित्र कुरान में सत्याग्रह का पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध है। खुदा को संयम ज्यादा प्यारा है, और यही प्रेम का नियम है। यही सत्याग्रह है। हिंसा मानव दुर्बलता के प्रति एक रियायत है, सत्याग्रह एक कर्तव्य है। व्यावहारिक दृष्टि से भी देखा जाए तो हिंसा कोई भलाई नहीं पहुंचा सकती बल्कि बेहिसाब नुकसान ही पहुंचा सकती है।
अहिंसा को समझना इतना आसान नहीं है और उसे व्यवहार में लाना और भी कठिन है, क्योंकि हम दुर्बल हैं। हमें भक्तिभाव से और विनम्रतापूर्वक कार्य करना चाहिए तथा निरंतर ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए कि वह हमारे ज्ञानचक्षुओं को खोले। साथ ही, हमें प्रतिदिन ईश्वर से मिले आलोक के अनुसार कार्य करना चाहिए। इसलिए आज एक शांतिप्रेमी और शांतिसंवर्धक के रूप में मेरा कर्तव्य यह है कि अपनी स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए छेडे गए अभियान में अहिंसा के प्रति अटल आस्था बनाए रखूं। यदि भारत इस मार्ग पर चलकर स्वतंत्रता प्राप्त कर सका तो यह उसका विश्व-शांति के लिए सबसे बडा योगदान होगा
मैं तो बस प्रार्थना कर रहा हूं और आशा लगाए हूं कि एक नये और मजबूत भारत का उदय होगा। यह भारत पश्चिम की तमाम बीभत्स चीजों का घटिया अनुकरण करने वाला युद्धप्रिय राष्टं नहीं होगा। बल्कि एक ऐसा नूतन भारत होगा जो पश्चिम की अच्छी बातों को सीखने के लिए तत्पर होगा और केवल एशिया तथा अफ्रीका ही नहीं बल्कि समस्त पीडित संसार उसकी ओर आशा की दृष्टि से देखेगा...लेकिन, पश्चिम की तडक-भडक की झूठी नकल और पागलपन के बावजूद, मेरे और मेरे जैसे बहुत-से लोगों के मन में यह आशा बंधी हुई है कि भारत इस सांघातिक नृत्य से उबर जाएगा, और 1915 से लेकर बनीस साल तक उसने निरंतर अहिंसा का जो प्रशिक्षण लिया है, चाहे वह कितना ही अपरिपक्व हो, उसके बाद वह जिस नैतिक ऊँचाई पर बैठने का अधिकारी है, उस स्थान पर आसीन होगा.
वैष्णव जन तो तेने कहिये,
जे पीड पराई जाणे रे।।
पर दृखे उपकार करे तोये,
मन अभिमान न आणे रे।।
सकल लोकमां सहुने वंदे,
निंदा न करे केनी रे।।
वाच काछ मन निश्चल राखे,
धन-धन जननी तेनी रे।।
समदृष्टी ने तृष्णा त्यागी,
परत्री जेने ताम रे।।
जिहृवा थकी असत्य न बोले,
पर धन नव झाले हाथ रे।।
मोह माया व्यापे नहि जेने,
दृढ वैराग्य जेना मनमां रे।।
रामनाम शुं ताली लागी,
सकल तीरथ तेना तनमां रे।।
वणलोभी ने कपटरहित छे,
काम क्रोध निवार्या रे।।
भणे नरसैयों तेनु दरसन करतां,
कुळ एकोतेर तार्या रे।।
गुजरात के संत कवि नरसी मेहता द्वारा रचा ये भजन गाँधी जी को बहुत प्रिय था. आज आवाज़ पर सुनिए उसी भजन को एक बार फ़िर और याद करें उस महात्मा के अनमोल वचनों को,जो आज के इस मुश्किल दौर में भी हमें राह दिखा रहे हैं.
वैष्णव जन तो... (लता मंगेशकर के स्वर में)
वैष्णव जन तो... (आधुनिक रूप) को स्वर दिया है -
पंडित जसराज, अलका याग्निक, चित्रा, शंकर महादेवन, जसपिंदर नरूला, सुखविंदर, और सोनू निगम.
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10 श्रोताओं का कहना है :
-"सात महापाप"-
१-मेहनत के बिना दौलत
२-अंतरात्मा के बिना आनंद
३-चरित्र के बिना ज्ञान
४-नैतिक मूल्यों के बिना व्यापर
५-इंसानियत के बिना विज्ञानं
६-त्याग के बिना धर्म
७-सिधान्तो के बिना राजनीति
-महात्मा गांधी
आप सभी को गांधी जयंती तथा लाल बहादुर शास्त्री जयंती की बहुत-बहुत शुभकामनाये....
गांधी जी के अहिंसावादी विचारो से और अधिक परचित कराने के लिए आवाज़ टीम को सहृदय धन्यवाद.इस भजन को मैंने आज तक पुरा नही सुना था अतः इस भजन को उपलब्ध कराने के लिए हिन्दयुग्म की आभारी हु.
यह लेख रोचक और ज्ञानवर्धक होने के साथ ही समसामयिक भी है जो हाल में हुई घटनाओ से हमें लड़ने की शक्ति देता है.
वैष्णवजन तो तेने कहिये ..
दोनों ही गीत, पुराने और नये , अंतर्मन की गहराई में प्रविष्ट हो जाते हैं. हमें एक दूसरे लोक
में Transport कर जाते है, हम ठगे से रह जाते हैं , उस महात्मा की मूर्त और अमूर्त स्वरुप की विराटता देख,
लता की गीत के बारे में कुछ भी कहना कम है . हम बचपन से सुनते आए है. " अदभुत " शब्द ही शायद करीब जाए मेरी भावना को व्यक्त करने को.
मगर इस नए गीत की सृजनता को सलाम !! संगीतकार कौन है इस कालजयी रचना का? उसने एक बच्ची के मासूम स्वर से शुरू कर नयी पीढी को आव्हान दिया है. फ़िर पंडितजी की बुजुर्ग और अनुभवी आवाज़ को अलका की सुंदर युवा स्वर के साथ सतरंगी सुरों के साथ गूंफ़ा गया यह गुलदस्ता अलग महक / सुगंध फिजा में घोल रहा है .
बाद में आए शंकर और चित्रा के कर्नाटकी शैली से मिलते जुलते सुर नुपूर दक्षिण के संस्कृति का भी अनायास ही दर्शन कराते है. वही बात उत्तर की आवाज़ जसपिम्दर और सुखविंदर को जोड़ , उनसे
इस गीत के एक अंतरे को गवा कर प्रस्तुत गीत को अखिल भारतीय स्वरुप देने का स्तुत्य प्रयास है.
कोई शक नही , आपके लिखे हुए हर सपने को यथार्थ में तब्दील होना कोई रोक नही सकेगा. आप के बात में
खूबी यह है की आपने बात अपने स्वयं से प्रारंभ की. हर कोई शुद्धता के इस महायज्ञ में अपने आहुति से इस समाज, इस देश, और इस विश्व को बेहतर बनाने में अपना योगदान दे, तो आज महात्मा गांधी प्रासंगिक हो जायें.
आमीन ...
अच्छा कालजयी भजन, और उसपर मोहक नैसर्गिक आवाज...। बेजोड़ प्रस्तुति की बधाई और धन्यवाद।
बहुत ही सुन्दर लेख ओर फ़िर सुन्दर भजन बहुत बहुत
धन्यवाद
दूसरोँ की पीडा को
जो महसूस करे वो सच्चा इन्सान है -
बहुत सुँदर आलेख !
स स्नेह,
- लावण्या
बहुत सुंदर और सामयिक प्रस्तुति. धन्यवाद!
इस प्रस्तुति बहुत दिनों के बाद पढ़ा-सुना। बहुत ही बढ़िया है भाई।
Isaka hindi anuwad agar koi bata sake to kripa karke mujhe bataaye!
Isaka hindi anuwad agar koi bata sake to kripa karke mujhe bataaye!
Plz iska hindi anuwad bhi bataye
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