सुनिए हज़ारों बाल-जीवन में स्माइल फूँकने वाले सुबोध का साक्षात्कार
वर्ष २००९ भारतीय फिल्म इतिहास के लिए बहुत गौरवशाली रहा। ऑस्कर की धूम इस बार जितनी भारत में मची, उतनी शायद ही किसी अन्य देश में मची हो। मुख्यधारा की फिल्म और वृत्तचित्र दोनों ही वर्गों में भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों ने अपनी रौनक दिखाई। स्लमडॉग मिलिनेयर की जय हुई और स्माइल पिंकी भी मुस्कुराई। और उसकी इस मुस्कान को पूरी दुनिया ने महसूस किया।
मीडिया में 'जय हो' का बहुत शोर रहा। कलमवीरों ने अपनी-अपनी कलम की ताकत से इसके खिलाफ मोर्चा सम्हाला। हर तरफ यही गुहार थी कि 'स्माइल पिंकी' की मुस्कान की कीमत मोतियों से भी महँगी है। हमें अफसोस है कि यह सोना भारतीय नहीं सँजो पा रहे हैं। कलमकारों की यह चोट हमें भी लगातार मिलती रही। इसलिए हिन्द-युग्म की नीलम मिश्रा ने डॉ॰ सुबोध सिंह का टेलीफोनिक साक्षात्कार लिया और उनकी तपस्या की 'स्माइल' को mp3 में सदा के लिए कैद कर लिया।
ये वही डॉ॰ सुबोध हैं जो महज ४५ मिनट से दो घंटे के ऑपरेशन में 'जन्मजात कटे होंठ और तालु' (क्लेफ्ट लिप) से ग्रसित बच्चों की जिंदगियाँ बदलते हैं। 'स्माइल पिंकी' फिल्म ऐसे ही समस्या से पीड़ित, मिर्जापुर (उ॰प्र॰) के छोटे से गाँव की एक लड़की पिंकी कुमार की कहानी है, जिसके होंठ जन्म से कटे हैं, जिसके कारण वो अन्य बच्चों द्वारा तिरस्कृत होती है। अंतर्राष्ट्रीय संस्था 'स्माइल ट्रेन' के साथ मिलकर उ॰प्र॰ के लिए काम करने वाले डॉ॰ सिंह ने पिंकी का ऑपरेशन किया, जिससे उसकी पूरी दुनिया पलट गई। अब पिंकी भी बाकी बच्चों के साथ स्कूल जाती है, खेलती है। उसके लिए फ़ोन आते हैं तो आस-पास के सब लोग इकट्ठा हो जाते हैं। यह पिंकी अब तो अमेरिका भी घूम आई है।
क़रीब 39 मिनट के इस वृतचित्र में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि किस तरह एक छोटी सी समस्या से किसी बच्चे पर क्या असर पड़ता है और ऑपरेशन के बाद ठीक हो जाने पर बच्चे की मनोदशा कितनी बेहतरीन हो जाती है। पिंकी के घर के लोग बताते हैं कि होंठ कटा होने के कारण वो बाक़ी बच्चों से अलग दिखती थी और उससे बुरा बर्ताव किया जाता था। डॉ॰ सुबोध ने बताया कि उनकी संस्था ने अब तक कई हज़ार बच्चों का ऑपरेशन किया है और उनकी ज़िंदगियों में हँसी बिखेरी है।
आज हम डॉ॰ सुबोध का साक्षात्कार लेकर उपस्थित हैं।
(डॉ॰ सुबोध और पिंकी के साथ 'स्माइल पिंकी' फिल्म की निर्देशक मेगन मायलन)
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9 श्रोताओं का कहना है :
एक बहुत अच्छा साक्षात्कार... स्माइल पिंकी के सन्दर्भ में दो पक्ष होना चिंतान्पराकता का परिचायक है. प्रशसा और आलोचना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं चित्नीय तो उपेक्षा होती है,
शुक्रिया इस इंटरव्यू के लिए ।
डॉ॰ सुबोध और उनके साथियों ने अब तक १३,००० से अधिक बच्चों का निःशुल्क इलाज़ किया है, जोकि विश्व में सर्वाधिक है। ज़रा सोचें कि यदि 'स्माइल पिंकी' फिल्म नहीं बनी होती और उसे यह सराहना नहीं मिली होती तो साधारण आदमी स्माइल ट्रेन के महाप्रयास से परिचित नहीं हो पाता। सामाज़ में ऐसे बहुत से सुउद्यम हैं, जिनसे हम परिचित नहीं हो पाते हैं। यह एक महत्वपूर्ण बिन्दु है।
डॉक्टर सुबोध जी का यह साक्षात्कार हम सब तक पहुँचाने के लिए हिन्दयुग्म व नीलम जी को बहुत धन्यबाद. इस तरह के मानवीय कार्य को करने के लिए कितना प्रयास करना पड़ता होगा सुबोध जी और उनकी टीम को और कितनो के जीवन में खुशियाँ बिखेरी होंगीं उन सबने मिलकर. बहुत ही महान और सराहनीए कार्य है यह. और वह लोग अत्यंत प्रशंशा योग्य हैं.
हम भी डॉक्टर साहेब के,,,
तहे दिल से शुक्रगुजार हैं,,,
चिकित्सा नामक " पेशे " को,,,
ऐसे ही डॉक्टर्स की जरूरत है,,
शैलेश की बात के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं, यदि स्माइल पिंकी फिल्म नहीं बनी होती तो डाक्टर साहब और उनकी टीम के ये नेक काम अधिक से अधिक लोगों तक नहीं पहुँच पाता, तो फिल्म का जो माध्यम है ये उसकी सार्थकता दर्शाता है. पर अफ़सोस इस फिल्म को भी किसी भारतीय ने नहीं बनाया. जो लोग स्लम डॉग में एक विदेशी द्वारा भारत की गरीबी के फिल्मांकन को लेकर शोर मचा रहे थे क्यों नहीं वो इस तथ्य की तारीफ करते कि एक विदेशी ने एक सच्चे और अच्छे भारतीय का ये सकारात्मक पक्ष भी दुनिया के सामने रखा. हम लोग बातें बहुत बड़ी बड़ी करते हैं, और नाहक चीज़ों के लिए हमारा "स्वाभिमान" "देशभक्ति" अचानक जाग उठती है. कम से कम स्लम डॉग से दो ऐसे बच्चे जो टीन की छत के नीचे रहते हैं आज सितारों के ख्वाब तो देख पा रहे हैं, हमने या आपने ऐसा क्या किया है जिससे हम किसी के जीवन में एक सकारात्मक परिवर्तन ला पाए हों. अभी भी इस देश में सुबोध जी जैसे लोग हैं, जिनकी आत्मा में हमारे दोमुहें समाज का मेल नहीं चढा है. क्या ऐसे लोगों को दुनिया के सामने रखने के लिए हमारे फिल्मकार साहित्यकार, या रचना कर्मी आगे आयेंगें. कहने को तो यहाँ नेता -अभिनेता खिलाडी ऐसे हैं जिनके पास वो सब कुछ है जो शायद ऐसे विदेशियों के पास भी नहीं हैं जो हमारे देश में आकर समाज सेवा के लिए धन देते हैं. जिसे स्वीकार करने में हमें कभी कोई तकलीफ नहीं होती अन्यथा.....और एक बात उनके लिए जिनका मानना है कि ऑस्कर सबसे बड़ा पुरस्कार नहीं है, यदि ऑस्कर में नहीं आती तो आज स्माइल पिंकी फिल्म को भी कोई नहीं पूछता.
जहाँ तक मैंने समझ पाया है, मेरा मतलब है कि जिस तरफ आपने संकेत किया है वह है- फिल्म-माध्यम. किसी भी अच्छाई या बुराई पर यदि आवाज़ उठानी हो तो अपने देश से सम्बंधित बातों पर वहीँ पर ही क्यों नहीं कोई नहीं सोचता. इस बारे में सबसे पहले विदेशियों के सोचने या उन्हें श्रेय देने की वजाए खुद क्यों श्रेय नहीं लेते. आपकी यही बेचैनी है ना? मैं भी इस बात से सहमत हूँ. दूसरा इशारा शायद financial support की तरफ था. वह भी सही है कि वहां भी कितने लोग हैं जो इस तरह के नेक कामों पर आर्थिक सहयोग दे सकते हैं और ऐसे issues का फिल्मो के जरिये प्रसारित करके श्रेय भी अपने देश को दे सकते हैं. ऐसा सोचना गलत नहीं है.
बहुत अच्छा साक्षात्कार नीलम जी, सुबोध जी व उनकी सुकर्मन्यता से मिलवाने का, वाकई बिरले ही लोग हैं जो तन-मन से मानवीय कार्यों मे जुटे हैं..
नमन है ऐसे परोपकारी को..
डॉ.सुबोध सिंहजी का स्माइल पिंकी पर आधारित साक्षात्कार सुना.अच्छे कार्य करने वाले सदा सराहना पाते ही हैं. डॉ सिंहजी का एक इंटरव्यू टीवी में भी देखा था ,जिस तरह का स्नेह व विश्वास गाँव की वह एक निर्धन बच्ची पिंकी उनसे पा रही थी, देखकर बहुत अच्छा लगा. वह उनसे अपने आत्मीय परिजन की तरह ही व्यवहार करती रही. नन्हे बच्चों के लिए जो उत्कृष्ट सेवा कार्य आप अपनी संस्था द्वारा निरंतर कर रहे है वे सब बधाई एवं प्रशंसा के पात्र हैं. उनको सादर साधुवाद. हिन्दीयुग्म को भी धन्यवाद कि उन्होंने इतना बढ़िया अवसर श्रोताओं को प्रदान किया ताकि लोगों को सद्प्रेरणा मिल सके.
अलका मधुसूदन पटेल
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