Saturday, March 19, 2011

होली के हजारों रंग अपने गीतों में भरने वाले शकील बदायूनीं साहब को याद करें हम उनके बेटे जावेद बदायूनीं के मार्फ़त



होली है!!! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और आप सभी को रंगीन पर्व होली पर हमारी ढेर सारी शुभकामनाएँ। तो कैसा रहा होली से पहले का दिन? ख़ूब मस्ती की न? हमनें भी की। और 'आवाज़' की हमारी टोली दिन भर रंग उड़ेलते हुए, मौज मस्ती करते हुए, लोगों को शुभकामनाएँ देते हुए, अब दिन ढलने पर आ पहुँचे हैं एक मशहूर शायर व गीतकार के बेटे के दर पर। ये उस अज़ीम शायर के बेटे हैं, जिस शायर नें अदबी शायरी के साथ साथ फ़िल्म-संगीत में भी अपना अमूल्य योगदान दिया। हम आये हैं शक़ील बदायूनी के साहबज़ादे जावेद बदायूनी के पास उनके पिता के बारे में थोड़ा और क़रीब से जानने के लिए और साथ ही शक़ील साहब के लिखे कुछ बेमिसाल होली गीत भी आपको सुनवायेंगे।

सुजॊय - जावेद बदायूनी साहब, नमस्कार, और 'हिंद-युग्म' परिवार की तरफ़ से आपको और आपके परिवार को होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ!

जावेद बदायूनी - शुक्रिया बहुत बहुत, और आपको भी होली की शुभकामनाएँ!

सुजॊय - आज का दिन बड़ा ही रंगीन है, और हमें बेहद ख़ुशी है कि आज के दिन आप हमारे पाठकों से रु-ब-रु हो रहे हैं।

जावेद बदायूनी - मुझे भी बेहद ख़ुशी है अपने पिता के बारे में बताने का मौका पाकर।

सुजॊय - जावेद साहब, इससे पहले कि मैं आप से शक़ील साहब के बारे में कुछ पूछूँ, मैं यह बताना चाहूँगा कि उन्होंने कुछ शानदार होली गीत लिखे हैं, जिनका शुमार सर्वश्रेष्ठ होली गीतों में होता है। ऐसा ही एक होली गीत है फ़िल्म 'मदर इण्डिया' का, "होली आई रे कन्हाई, रंग छलके, सुना दे ज़रा बांसुरी"। शम्शाद बेगम की आवाज़ में इस गीत को आइए पहले सुनते हैं, फिर बातचीत आगे बढ़ाते हैं।

जावेद बदायूनी - ज़रूर साहब, सुनवाइए!

गीत - होली आई रे कन्हाई (मदर इण्डिया)


सुजॊय - जावेद साहब, यह बताइए कि जब आप छोटे थे, तब पिता के रूप में शक़ील साहब का बरताव कैसा हुआ करता था? घर परिवार का माहौल कैसा था?

जावेद बदायूनी - एक पिता के रूप में उनका व्यवहार दोस्ताना हुआ करता था, और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, अपने सभी बच्चों को बहुत प्यार करते थे और सब से हँस खेल कर बातें करते थे। यानी कि घर का माहौल बड़ा ही ख़ुशनुमा हुआ करता था।

सुजॊय - अच्छा जावेद जी, क्या घर पर शायरों का आना जाना लगा रहता था?

जावेद बदायूनी - जी हाँ जी हाँ, शक़ील साहब के दोस्त लोगों का आना जाना लगा ही रहता था जिनमें बहुत से शायर भी होते थे। घर पर ही शेर-ओ-शायरी की बैठकें हुआ करती थीं।

सुजॊय - जावेद साहब, शक़ील साहब के अपने एक पुराने इंटरव्यु में ऐसा कहा था कि उनके करीयर को चार पड़ावों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भाग में १९१६ से १९३६ का समय जब वे बदायूँ में रहा करते थे। फिर १९३६ से १९४२ का समय अलीगढ़ का; १९४२ से १९४६ का दिल्ली का उनका समय, और १९४६ के बाद बम्बई का सफ़र। हमें उनकी फ़िल्मी करीयर, यानी कि बम्बई के जीवन के बारे में तो फिर भी पता है, क्या आप पहले तीन के बारे में कुछ बता सकते हैं?

जावेद बदायूनी - बदायूँ में जन्म और बचपन की दहलीज़ पार करने के बाद शक़ील साहब नें अलीगढ़ से अपनी ग्रैजुएशन पूरी की और दिल्ली चले गये, और वहाँ पर एक सरकारी नौकरी कर ली। साथ ही साथ अपने अंदर शेर-ओ-शायरी के जस्बे को क़ायम रखा और मुशायरों में भाग लेते रहे। ऐसे ही किसी एक मुशायरे में नौशाद साहब और ए. आर. कारदार साहब भी गये हुए थे और इन्होंने शक़ील साहब को नज़्म पढ़ते हुए सुना। उन पर शक़ील साहब की शायरी का इतना असर हुआ कि उसी वक़्त उन्हें फ़िल्म 'दर्द' के सभी गानें लिखने का ऒफ़र दे दिया।

सुजॊय - 'दर्द' का कौन सा गीत सब से पहले उन्होंने लिखा होगा, इसके बारे में कुछ बता सकते हैं?

जावेद बदायूनी - "हम दर्द का फ़साना" उनका लिखा पहला गीत था, और दूसरा गाना था "अफ़साना लिख रही हूँ", उमा देवी का गाया हुआ।

सुजॊय - इस दूसरे गीत को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं। क्योंकि आज होली है, आइए यहाँ पर शक़ील साहब का लिखा हुआ एक और शानदार होली गीत सुनते हैं। फ़िल्म 'कोहिनूर' से "तन रंग लो जी आज मन रंग लो"। संगीत नौशाद साहब का।

जावेद बदायूनी - ज़रूर सुनवाइए।

गीत - तन रंग लो जी आज मन रंग लो (कोहिनूर)


सुजॊय - जावेद साहब, क्या शक़ील साहब कभी आप भाई बहनों को प्रोत्साहित किया करते थे लिखने के लिये?

जावेद बदायूनी - जी हाँ, वो प्रोत्साहित भी करते थे और जब हम कुछ लिख कर उन्हें दिखाते तो वो ग़लतियों को सुधार भी दिया करते थे।

सुजॊय - शक़ील बदायूनी और नौशाद अली, जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू। ये दोनों एक दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त भी थे। क्या शक़ील साहब आप सब को नौशाद साहब और उस दोस्ती के बारे में बताया करते थे? या फिर इन दोनों से जुड़ी कोई यादगार घटना या वाकया ?

जावेद बदायूनी - शक़ील साहब और नौशाद साहब वर ग्रेटेस्ट फ़्रेण्ड्स! यह हक़ीक़त है कि शक़ील साहब नौशाद साहब के साथ अपने परिवार से भी ज़्यादा वक़्त बिताया करते थे। दोनों के आपस की ट्युनिंग् ग़ज़ब की थी और यह ट्युनिंग् इनके गीतों से साफ़ छलकती है। शक़ील साहब के गुज़र जाने के बाद भी नौशाद साहब हमारे घर आते रहते थे और हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते थे। यहाँ तक कि नौशाद साहब हमें बताते थे कि ग़ज़ल और नज़्म किस तरह से पढ़ी जाती है और मैं जो कुछ भी लिखता था, वो उन्हें सुधार दिया करते थे।

सुजॊय - यानी कि शक़ील साहब एक पिता के रूप में जिस तरह से आपको गाइड करते थे, उनके जाने के बाद वही किरदार नौशाद साहब ने निभाया और आपको पिता समान स्नेह दिया।

जावेद बदायूनी - इसमें कोई शक़ नहीं!

सुजॊय - जावेद साहब, बचपन की कई यादें ऐसी होती हैं जो हमारे मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ जाती हैं। शक़ील साहब से जुड़ी आप के मन में भी कई स्मृतियाँ होंगी। उन स्मृतियों में से कुछ आप हमारे साथ बाँटना चाहेंगे?

जावेद बदायूनी - शक़ील साहब के साथ हम सब रेकॊर्डिंग् पर जाया करते थे और कभी कभी तो वो हमें शूटिंग् पर भी ले जाते। फ़िल्म 'राम और श्याम' के लिए वो हमें मद्रास ले गये थे। 'दो बदन', 'नूरजहाँ' और कुछ और फ़िल्मों की शूटिंग् पर सब गये थे। वो सब यादें अब भी हमारे मन में ताज़े हैं जो बहुत याद आते हैं।

सुजॊय - अब मैं आप से जानना चाहूँगा कि शक़ील साहब के लिखे कौन कौन से गीत आपको व्यक्तिगत तौर पे सब से ज़्यादा पसंद हैं?

जावेद बदायूनी - उनके लिखे सभी गीत अपने आप में मास्टरपीस हैं, चाहे किसी भी संगीतकार के लिये लिखे गये हों।

सुजॊय - निसंदेह!

जावेद बदायूनी - यह बताना नामुमकिन है कि कौन सा गीत सर्वोत्तम है। मैं कुछ फ़िल्मों के नाम ज़रूर ले सकता हूँ, जैसे कि 'मदर इण्डिया', 'गंगा जमुना', 'बैजु बावरा', 'चौदहवीं का चांद', 'साहब बीवी और ग़ुलाम', और 'मुग़ल-ए-आज़म'।

सुजॊय - वाह! आप ने 'मुग़ल-ए-आज़म' का ज़िक्र किया, और आज हम आप से शक़ील साहब के बारे में बातचीत करते हुए उनके लिखे कुछ होली गीत सुन रहे हैं, तो मुझे एकदम से याद आया कि इस फ़िल्म में भी एक ऐसा गीत है जिसे हम पूर्णत: होली गीत तो नहीं कह सकते, लेकिन क्योंकि उसमें राधा और कृष्ण के छेड़-छाड़ का वर्णन है, इसलिए इसे यहाँ पर बजाया जा सकता है।

जावेद बदायूनी - "मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे"।

सुजॊय - जी हाँ, आइए इस गीत को सुनते हैं, संगीत एक बार फिर नौशाद साहब का।

गीत - मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे (मुग़ल-ए-आज़म)


सुजॊय - अच्छा जावेद साहब, आप से अगला सवाल पूछने से पहले हम अपने श्रोता-पाठकों के लिए एक सवाल पूछना चाहेंगे। अभी जो हमनें गीत सुना "मोहे पनघट पे", इसी गीत का एक अन्य संस्करण भी हमारे हाथ लगा है। इस वर्ज़न को हम यहाँ पर सुनवा रहे हैं और हमारे श्रोताओं को हमें लिख भेजना है कि यह किनकी आवाज़ में है।

गीत - मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे - अन्य संस्करण (मुग़ल-ए-आज़म)


सुजॊय - जावेद साहब, हम शक़ील साहब के लिखे गीतों को हर रोज़ ही कहीं न कहीं से सुनते हैं, लेकिन उनके लिखे ग़ैर-फ़िल्मी नज़्मों और ग़ज़लों को कम ही सुना जाता है। इसलिए मैं आप से उनकी लिखी अदबी शायरी और प्रकाशनों के बारे में जानना चाहूँगा।

जावेद बदायूनी - मैं आपको बताऊँ कि भले ही वो फ़िल्मी गीतकार के रूप में ज़्यादा जाने जाते हैं, लेकिन हक़ीक़त में पहले वो एक लिटररी फ़िगर थे और बाद में फ़िल्मी गीतकार। फ़िल्मों में गीत लेखन वो अपने परिवार को चलाने के लिये किया करते थे। जहाँ तक ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं का सवाल है, उन्होंने ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों के पाँच दीवान लिखे हैं, जिनका अब 'कुल्यात-ए-शक़ील' के नाम से संकलन प्रकाशित हुआ है। उन्होंने अपने जीवन काल में ५०० से ज़्यादा ग़ज़लें और नज़्में लिखे होंगे जिन्हें आज भारत, पाक़िस्तान और दुनिया भर के देशों के गायक गाते हैं।

सुजॊय - आपनें आंकड़ा बताया तो मुझे याद आया कि हमनें आप से शक़ील साहब के लिखे फ़िल्मी गीतों की संख्या नहीं पूछी। कोई अंदाज़ा आपको कि शक़ील साहब ने कुल कितने फ़िल्मी गीत लिखे होंगे?

जावेद बदायूनी - उन्होंने १०८ फ़िल्मों में लगभग ८०० गीत लिखे हैं, और इनमें ५ फ़िल्में अनरिलीज़्ड भी हैं।

सुजॊय - वाह! जावेद साहब, यहाँ पर हम शक़ील साहब का लिखा एक और बेहतरीन होली गीत सुनना और सुनवाना चाहेंगे। नौशाद साहब के अलावा जिन संगीतकारों के साथ उन्होंने काम किया, उनमें एक महत्वपूर्ण नाम है रवि साहब का। अभी कुछ देर पहले आपने 'दो बदन' और 'चौदहवीं का चाँद' फ़िल्मों का नाम लिया जिनमें रवि का संगीत था। तो रवि साहब के ही संगीत में शक़ील साहब नें फ़िल्म 'फूल और पत्थर' के भी गीत लिखे जिनमें एक होली गीत था "लायी है हज़ारों रंग होली, कोई तन के लिये, कोई मन के लिये"। सुनते हैं इस गीत को।

गीत - लायी है हज़ारों रंग होली (फूल और पत्थर)


सुजॊय - दोस्तों, आपने ग़ौर किया कि इस गीत में और 'कोहिनूर' के होली गीत में, दोनों में ही "तन" और "मन" शब्दों का शक़ील साहब ने इस्तमाल किया है। अच्छा जावेद साहब, अब एक आख़िरी सवाल आप से। शक़ील साहब नें जो मशाल जलाई है, क्या उस मशाल को आप या कोई और रिश्तेदार उसे आगे बढ़ाने में इच्छुक हैं?

जावेद बदायूनी - मेरी बड़ी बहन रज़ीज़ शक़ील को शक़ील साहब के गुण मिले हैं और वो बहुत ख़ूबसूरत शायरी लिखती हैं।

सुजॊय - आप किस क्षेत्र में कार्यरत है?

जावेद बदायूनी - मैं ३२ साल से SOTC Tour Operators के साथ था, और अब HDFC Standard Life में हूँ, मुंबई में स्थित हूँ।

सुजॊय - बहुत बहुत शुक्रिया जावेद साहब। होली के इस रंगीन पर्व को आप ने शक़ील साहब की यादों से और भी रंगीन किया, और साथ ही उनके लिखे होली गीतों को सुन कर मन ख़ुश हो गया। भविष्य में हम आप से शक़ील साहब की शख्सियत के कुछ अनछुये पहलुयों पर चर्चा करना चाहेंगे। आपको एक बार फिर होली की हार्दिक शुभकामना देते हुए अब विदा लेते हैं, नमस्कार!

जावेद बदायूनी - बहुत बहुत शुक्रिया आपका!

तो दोस्तों, होली पर ये थी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास प्रस्तुति जिसमें हमनें शक़ील बदायूनी के लिखे होली गीत सुनने के साथ साथ थोड़ी बहुत बातचीत की उन्हीं के बेटे जावेद बदायूनी से। आशा है आपको यह प्रस्तुति अच्छी लगी होगी। ज़रूर लिख भेजिएगा अपने विचार oig@hindyugm.com के पते पर। अब आज के लिए हमें इजाज़त दीजिए, 'आवाज़' पर 'सुर-संगम' लेकर सुमित हाज़िर होंगे कल सुबह ९ बजे, पधारिएगा ज़रूर। आप सभी को एक बार फिर होली की हार्दिक शुभकामनाएँ, नमस्कार!

Thursday, March 17, 2011

सांवरिया मन भाये रे....कौन भूल सकता है पहली फीमेल सिंगिंग स्टार कानन देवी के योगदान को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 615/2010/315

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! हिंदी सिनेमा की कुछ सशक्त महिला कलाकारों, जिन्होंने सिनेमा में अपनी अमिट छाप छोड़ी और आनेवाली पीढ़ियों के लिए मार्ग-प्रशस्त किया, पर केन्द्रित लघु शृंखला में आज हम ज़िक्र करेंगे फ़िल्म जगत की पहली 'फ़ीमेल सिंगिंग् स्टार' कानन देवी की। कानन देवी शुरुआती दौर की उन अज़ीम फ़नकारों में से थीं जिन्होंने फ़िल्म संगीत के शैशव में उसकी उंगलियाँ पकड़ कर उसे चलना सिखाया। एक ग़रीब घर से ताल्लुख़ रखने वाली कानन बाला को फ़िल्म जगत में अपनी पहचान बनाने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। बहुत छोटी सी उम्र में ही उन्होंने अपने पिता को खो दिया था और अपनी माँ के साथ अपना घर चलाने के लिए तरह तरह के काम करने लगीं। जब वो केवल १० वर्ष की थीं, उनके एक शुभचिंतक ने उन्हें 'ज्योति स्टुडिओज़' ले गये और 'जयदेव' नामक मूक फ़िल्म में अभिनय करने का मौका दिया। यह १९२६ की बात थी। उसके बाद वो ज्योतिष बनर्जी की 'राधा फ़िल्म्स कंपनी' में शामिल हो गईं और 'चार दरवेश', 'हरि-भक्ति', 'ख़ूनी कौन' और 'माँ' जैसी फ़िल्मों में काम किया। उनके अभिनय और गायन को न्यु थिएटर्स ने पहचाना और पी.सी. बरुआ के मन में कानन बाला को १९३५ की अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'देवदास' में अभिनय करवाने का ख़याल आया। लेकिन यह मनोकामना पूरी न हो सकी। बरुआ साहब ने ही दो साल बाद १९३७ में कानन बाला को मौका दिया फ़िल्म 'मुक्ति' में, जो काफ़ी हिट रही।

फ़िल्म 'मुक्ति' की सफलता के बाद कानन देवी और न्यु थिएटर्स का अनुबंध बढ़ता ही गया। सन् १९३७ में 'विद्यापति' में उनका अभिनय शायद उनके फ़िल्मी सफ़र का सर्वोत्तम अध्याय था जिसने उन्हें न्यु थिएटर्स का 'टॊप स्टार' बना दिया। 'मुक्ति' और 'विद्यापति' के अलावा न्यु थिएटर्स की कुछ और महत्वपूर्ण फ़िल्में जिनमें कानन देवी ने काम किया, वो हैं - 'स्ट्रीट सिंगर', 'जवानी की रीत', 'सपेरा', 'हार-जीत', और 'लगन'। फ़िल्म 'लगन' का पियानो वाला गीत अभी पिछले दिनों ही आप सुन चुके हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। इन तमाम फ़िल्मों में केवल अभिनय से ही नहीं, अपनी सुरीली आवाज़ से भी उन्होंने लोगों का दिल जीता। कानन देवी ने बचपन में संगीत की कोई मुकम्मल तालीम नहीं ली। न्यु थिएटर्स में शामिल होने के बाद उस्ताद अल्लाह रखा से उन्होंने संगीत सीखा। मेगाफ़ोन ग्रामोफ़ोन कंपनी में उन्हें गायिका की नौकरी मिलने पर वहाँ उन्हें भीष्मदेव चटर्जी से सीखने का मौका मिला। अनादि दस्तिदार से उन्होंने सीखा रबीन्द्र संगीत और फिर रायचंद बोराल ने उन्हें गायकी की बारीकियाँ सिखाकर फ़िल्मीगायन के लिए पूरी तरह से तैयार कर दिया। कानन देवी से जुड़ी कुछ और बातें हम आपको बताएँगे फिर किसी दिन, फ़िल्हाल वक़्त हो चला है उनकी आवाज़ में एक गीत सुनने का। प्रस्तुत है उनकी पहली कामयाब फ़िल्म 'मुक्ति' से यह कामयाब गीत "सांवरिया मन भाये रे"।



क्या आप जानते हैं...
कि १९४८ में कानन देवी बम्बई आ गईं और इसी साल वो आख़िरी बार किसी फ़िल्म में नज़र आईं। यह फ़िल्म थी 'चन्द्रशेखर', जिसमें उनके नायक थे अशोक कुमार।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 06/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - गायिका हैं आशा भोसले.

सवाल १ - कौन हैं ये जिनका जिक्र होगा रविवार को - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं जो इस फनकारा से संबंधित भी हैं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म की प्रमुख अभिनेत्री कौन है - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
फिर ३-३ अंक बाँट लिए अमित जी और अंजाना जी ने बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, March 16, 2011

कित गए हो खेवनहार....इस नारी प्रधान शृंखला में आज हम सम्मान कर रहे हैं सरस्वती देवी का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 614/2010/314

हिंदी सिनेमा की प्रथम महिला संगीतकार के रूप में हमनें आपका परिचय जद्दनबाई से करवाया था। लेकिन जद्दनबाई ने केवल 'तलाश-ए-हक़' फ़िल्म में ही संगीत दिया और इस फ़िल्म के गीतों को रेकॊर्ड पर भी उतारा नहीं गया था। शायद इसी वजह से प्रथम महिला संगीतकार होनें का श्रेय दिया जाता है 'बॊम्बे टाकीज़' की सरस्वती देवी को। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला की आज चौथी कड़ी में बातें संगीत निर्देशिका सरस्वती देवी की। सरस्वती देवी का जन्म सन् १९१२ में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनका परिवार एक व्यापारी परिवार था। उनका असली नाम था ख़ुर्शीद मेनोचा होमजी। पारसी समाज में उन दिनों महिलाओं के लिए फ़िल्म और संगीत जगत में क़दम रखना गुनाह माना जाता था। इसलिए ख़ुर्शीद के फ़िल्म जगत में पदार्पण का भी ख़ूब विरोध हुआ। लेकिन वो अपनी राह से ज़रा भी नहीं डीगीं। अपनी रुचि और सपने को साकार किया ख़ुर्शीद मेनोचा होमजी से सरस्वती देवी बन कर। बचपन से ही सरस्वती देवी का संगीत की तरफ़ रुझान था। विष्णु नारायण भातखण्डे से उन्होंने ध्रुपद और धमार की शिक्षा ली। फिर लखनऊ के मॊरिस म्युज़िक कॊलेज से संगीत की तालीम हासिल की। १९३३-३४ में एक संगीत समारोह में भाग लेने वो लखनऊ गईं जहाँ पर उनकी मुलाक़ात हो गई 'बॊम्बे टाकीज़' के प्रतिष्ठाता हिमांशु राय से। उन्होंने सरस्वती देवी को बम्बई आने का न्योता दिया। पहले पहले तो सरस्वती देवी ने उनसे यह कहा कि उनका सिर्फ़ शास्त्रीय संगीत का ही ज्ञान है, सुगम संगीत में कोई तजुर्बा नहीं है। हिमांशु राय ने जब उनसे कहा कि इसमें कोई चिंता की बात नहीं है, तब जाकर वो 'बॊम्बे टाकीज़' में शामिल होने के लिए तैयार हुईं। शुरु शुरु में सरस्वती देवी को हिमांशु राय की पत्नी और मशहूर अभिनेत्री देविका रानी को संगीत सिखाने का ज़िम्मा सौंपा गया। इसी दौरान वो हल्के फुल्के गानें भी बनाने लगीं। वो सरस्वती देवी ही थीं जिन्होंने उस समय की प्रचलित फ़िल्मी गीत की धारा (जो शुद्ध शास्त्रीय और नाट्य संगीत पर आधित हुआ करती थी) से अलग बहकर हल्के फुल्के ऒर्केस्ट्रेशन वाले गीतों का चलन शुरु किया, जिन्हें जनता ने हाथों हाथ ग्रहण किया। बॊम्बे टाकीज़' में तो एक से एक हिट फ़िल्मों में संगीत दिया ही, इनके अलावा सरस्वती देवी ने मिनर्वा मूवीटोन की कुछ फ़िल्मों में भी संगीत दिया था जिनमें 'पृथ्वीबल्लभ' और 'प्रार्थना' शामिल हैं।

यह १९३४-३५ की बात है कि जब फ़िल्म 'जवानी की हवा' के गीतों का सृजन हुआ, जिन्हें गाया सरस्वती देवी की बहन मानेक और नजमुल हसन नें। यह सरस्वती देवी के संगीत से सजी पहली फ़िल्म थी। ख़ुर्शीद और मानेक के फ़िल्मों में आने से पारसी समाज में हंगामा मच गया। अपनी पहचान छुपाने के लिए इन दोनों बहनों नें अपने अपने नाम बदल कर बन गईं सरस्वती देवी और चन्द्रप्रभा। 'जवानी की हवा' फ़िल्म में एक गीत चन्द्रप्रभा पर फ़िल्माया जाना था। पर उस दिन उनका गला ज़रा नासाज़ था, जिस वजह से सरस्वती देवी ने वह गीत गाया और चन्द्रप्रभा ने केवल होंठ हिलाये। यह बम्बई में रेकॊर्ड किया गया पहला प्लेबैक्ड सॊंग् था। दोस्तों, हमनें सरस्वती देवी को भारत की पहली महिला संगीतकार तो करार दे दिया, लेकिन क्या वाक़ई वो पहली थीं? १९३२-३३ में मुख्तार बेगम और गौहर कर्नाटकी गायन के क्षेत्र में तो आईं पर बतौर संगीतकार नहीं। १९३४ में इशरत सुल्ताना ने संगीत तो दिया पर उन्हें रेकॊर्ड पर उतारा नहीं गया, केवल फ़िल्म के पर्दे पर ही देखा व सुना गया। मुनिरबाई और जद्दनबाई के भी गीत रेकॊर्ड्स पर नहीं उतारे गये। इस तरह से प्रॊमिनेन्स की अगर बात करें तो सरस्वती देवी ही पहली फ़िल्मी महिला संगीतकार मानी गईं। तो लीजिए आज सरस्वती देवी की सुर-साधना को सलाम करते हुए सुनें उन्हीं की आवाज़ में एक बार फिर से 'अछूत कन्या' फ़िल्म का ही एक और गीत "कित गये हो खेवनहार"।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म संगीत के बदलते दौर के मद्देनज़र ४० के दशक में सरस्वती देवी के सहायक के रूप में जे. एस. कश्यप और रामचन्द्र पाल को नियुक्त किया गया था, लेकिन सरस्वती देवी को अपने काम में किसी की दख़लंदाज़ी नापसंद थी, और इसलिए १९५० में उन्होंने फ़िल्मों से सन्यास ले लिया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 05/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक और सुप्रसिद्ध गायिका/नायिका को समर्पित है ये कड़ी.

सवाल १ - कौन है ये मशहूर गायिका/नायिका - ३ अंक
सवाल २ - किस फिल्म का है ये गीत - १ अंक
सवाल ३ - किस फिल्म कंपनी के इस फिल्म का निर्माण किया था - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी नक़ल भी करने के लिए थोडा सा समय चाहिए होता है, पर यहाँ तो ये दोनों लगभग एक ही समय में जवाब के साथ हाज़िर हो जाते हैं. रही बात जवाब के एक जैसे होने की तो ये तय है कि जवाब इन दोनों के गूगल किया है और संबंधित साईट से जस का तस कॉपी कर यहाँ पेस्ट कर दिया है :० क्यों अमित जी और अंजाना जी सही कह रहा हूँ न, फिलहाल हम सभी विजेताओं को बधाई दिए देते हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, March 15, 2011

उडी हवा में जाती है गाती चिड़िया....देविका रानी के अभिनय और स्वर की कहानी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 613/2010/313

हिंदी फ़िल्मों के शुरुआती दौर में हमारी समाज व्यवस्था कुछ इस तरह की थी कि अच्छे घरों के महिलाओं का इस क्षेत्र में आना असम्भव वाली बात थी। इस पुरुष शासित समाज में औरतों पर लगाये जाने वाले प्रतिबंधों में यह भी एक शामिल था। बावजूद इसके कुछ सशक्त और साहसी महिलाओं ने इस परम्परा के ख़िलाफ़ जाते हुए फ़िल्म जगत में क़दम रखा, अपना करीयर संवारा, और दूसरी महिलाओं के लिए इस राह पर चलना आसान बनाया। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इन दिनों चल रही लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की आज तीसरी कड़ी में बातें एक ऐसी अदाकारा व निर्मात्री की जिन्हें First Lady of the Indian Screen कहा जाता है। कर्नल चौधरी की बेटी और कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की पर-भाँजी (grand niece) देविका रानी को समर्पित है आज का यह अंक। ३० और ४० के दशकों में देविका रानी ने अपनी अदाकारी और फ़िल्म निर्माण से पूरे हिंदुस्तान के लोगों का दिल जीत लिया। उनका जन्म आंध्र प्रदेश के वाल्टियर में ३० मार्च १९०७ में हुआ था। १९२० के दशक में वो लंदन चली गयीं जहाँ उन्होंने रॊयल अकादमी ऒफ़ आर्ट्स ऐण्ड म्युज़िक से आर्किटेक्चर की डिग्री प्राप्त की। वहीं उनकी मुलाक़ात हुई हिमांशु राय से जिनसे उन्होंने २२ वर्ष की आयु में विवाह कर लिया। देविका रानी की फ़िल्मों में एण्ट्री हुई सन् १९२९ में 'प्रपांच पाश' नामक फ़िल्म में, लेकिन बतौर अभिनेत्री नहीं बल्कि बतौर फ़ैशन डिज़ाइनर। इस फ़िल्म का पोस्ट-प्रोडक्शन जर्मनी में हुआ था। बतौर अभिनेत्री देविका रानी की पहली फ़िल्म थी १९३३ में बनीं 'कर्म', जिसके नायक थे ख़ुद हिमांशु राय। यह फ़िल्म अंग्रेज़ी में भी बनी। हिमांशु राय के साथ मिलकर देविका रानी ने स्थापना की 'बॊम्बे टाकीज़' की, जिसकी पहली फ़िल्म आयी 'जवानी की हवा', साल १९३५ में, जो एक मर्डर मिस्ट्री थी। फिर १९३६ में बनीं 'अछूत कन्या', जिसमें उनके साथ नायक के रूप में अभिनय किया अशोक कुमार ने। फ़िल्म बेहद कामयाब रही और देविका रानी - अशोक कुमार की 'ऒन-स्क्रीन' जोड़ी तैयार हो गई। इसी फ़िल्म का मशहूर गीत "मैं बन की चिड़िया" हम आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं। 'अछूत कन्या' की कामयाबी के बाद इस जोड़ी द्वारा अभिनीत दो और कामयाब फ़िल्में आईं - 'जीवन नैया' और 'जन्मभूमि'

देविका रानी की संवेदनशील अभिनय और उनकी ख़ूबसूरती ने उनकी एक अलग पहचान बनाई फ़िल्म जगत में। उन्होंने १९३५ से लेकर १९४३ तक अभिनय किया। देविका रानी की अभिनय से सजी प्रचलित फ़िल्में हैं - कर्म, जवानी की हवा, जीवन नैय्या, अछूत कन्या, इज़्ज़त, सावित्री, जीवन प्रभात, निर्मला, वचन, और अंजान। १९४० में हिमांशु राय की मृत्यु हो जाने से 'बॊम्बे टाकीज़' की देख-रेख का सारा ज़िम्मा आ गया देविका रानी पर। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और एक से एक म्युज़िकल फ़िल्में बनाती चलीं जैसे कि 'बंधन', 'क़िस्मत', और 'झूला'। देविका रानी ने कई नये कलाकारों को भी खोज निकाला। उन्होंने ही मोहम्मद यूसुफ़ ख़ान को नैनिताल से बम्बई ला कर बना डाला दिलीप कुमार अपनी फ़िल्म 'ज्वार भाटा' में बतौर नायक ब्रेक देकर। १९४० से १९४५ तक 'बॊम्बे टाकीज़' का भार सम्भालने के बाद देविका रानी ने रशियन पेण्टर स्वेतोस्लाव रीरिच से शादी कर ली और बैंगलोर जाकर अपना घर बसा लिया, और फ़िल्मों को हमेशा के लिए कह दिया अलविदा। जीवन के अंतिम दिनों तक वो बैंगलोर में ही रहीं और ९ मार्च १९९४ को निकल पड़ीं अपनी अनंत महायात्रा पर। फ़िल्मों में महत्वपूर्ण योगदान के लिए देविका रानी को १९५८ में पद्मश्री और १९७० में दादा साहब फाल्के पुरस्कारों से भारत सरकार ने सम्मानित किया। आइए आज उनको सलाम करते हुए सुने फ़िल्म 'अछूत कन्या' का ही एक और गीत "उड़ी हवा में जाती है गाती चिड़िया ये राम"। आवाज़ देविका रानी की और संगीत सरस्वती देवी का। सरस्वती देवी का नाम भी प्रथम महिला संगीतकार के रूप में मशहूर है और उन्हीं को समर्पित होगा हमारा कल का अंक। तो लीजिए यह गीत सुनिए, और चलते चलते हम यही कहना चाहेंगे कि देविका रानी ने महिलाओं के लिए फ़िल्मों का द्वार खोल दिया, इससे उनकी प्रगतिशील विचारधारा का पता चलता है। उनका योगदान हमेशा सुनहरे अक्षरों में हमारी फ़िल्म इतिहास में लिखा रहेगा। 'आवाज़' की तरफ़ से देविका रानी को सलाम!!!



क्या आप जानते हैं...
कि १९३३-३४ में हिमांशु राय ने देविका रानी को संगीत सिखाने के लिए सरस्वती देवी को नियुक्त किया था, जिन्हें वो खोज लाये थे लखनऊ में आयोजित एक संगीत समारोह से।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 04/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - आज की पहेली आज के और अगले गीत की संगीतकारा सरस्वती देवी के नाम है, देखते हैं इनके बारे में आप कितनी जानकारी रखते हैं.

सवाल १ - संगीतकारा सरस्वती देवी का असली नाम क्या था - ३ अंक
सवाल २ - उनकी बतौर संगीतकारा पहली फिल्म कौन सी थी - १ अंक
सवाल ३ - सरस्वती देवी ने फिल्मों में पहली बार प्ले बैक किया था, किस अभिनेत्री के लिए था ये - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर से टाई है मामला...शरद जी भी हैं मैदान में अब...शरद जी शक है इस गीत को लेकर, पर लगता है कि आप ठीक हैं, गीतकार हसरत ही हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, March 14, 2011

जय जय कृष्णा.....आईये आज सलाम करें दुर्गा खोटे और सुमन कल्यानपुर को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 612/2010/312

'कोमल है कमज़ोर नहीं' - हिंदी सिनेमा की कुछ सशक्त महिला कलाकारों, जिन्होंने फ़िल्म जगत में अपना अमिट छाप छोड़ा और आनेवाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक बनीं, को समर्पित है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह बेहद ख़ास लघु शृंखला। कल इसकी पहली कड़ी को हमनें समर्पित किया था हिंदी सिनेमा की सर्वप्रथम महिला संगीत निर्देशिका, गायिका व फ़िल्म निर्मात्री जद्दनबाई को। आज दूसरी कड़ी में ज़िक्र एक और ऐसी अदाकारा की जो फ़िल्मों के शुरुआती दौर में 'लीडिंग् लेडी' के रूप में सामने आयीं, और वह भी ऐसे समय में जब अच्छे घर की महिलाओं के लिए अभिनय का द्वार लगभग बंद के समान था। ये हैं दुर्गा खोटे। इनका जन्म १४ जनवरी १९०५ को हुआ था, जिन्होंने ५० साल की अपनी फ़िल्मी करीयर में लगभग २०० फ़िल्मों में अभिनय किया और बहुत से थिएटरों के लिए काम किए। साल २००० में प्रकाशित 'इण्डिया टूडे' की विशेष मिलेनियम अंक में दुर्गा खोटे का नाम उन १०० भारतीय नामों में शामिल था जिन्होंने भारत को किसी न किसी रूप में एक आकार दिया है। उनके लिए जो शब्द उसमें इस्तमाल किए गये थे, वो थे - "Durga Khote marks the pioneering phase for woman in Indian Cinema." ऐसा नहीं कि दुर्गा खोटे से पहले किसी महिला ने अभिनय नहीं किया, लेकिन एक इज़्ज़तदार घर से फ़िल्मों में आनेवाली वो पहली महिला थीं और उन दिनों अच्छे घरों के लड़कों को भी फ़िल्मों में जाने की इज़ाज़त नहीं थी, लड़कियों का तो सवाल ही नहीं था। दुर्गा खोटे का नाम १० सर्वश्रेठ फ़िल्मी माँओं की फ़ेहरिस्त में भी शामिल है, और माँ की भूमिका में उनकी कुछ यादगार फ़िल्में हैं 'मुग़ल-ए-आज़म' (जोधाबाई), 'भरत मिलाप' (कैकेयी), 'चरणों की दासी', 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'बॊबी' और उनकी आख़िरी उल्लेखनीय फ़िल्म थी 'बिदाई', जिसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला था। हिंदी सिनेमा में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री तथा दादा साहब फाल्के पुरस्कारों से भी सम्मानित किया था। आइए आज दुर्गा खोटे को सलाम करते हुए सुनें उसी फ़िल्म 'बिदाई' का एक गीत जो उन्हीं पर फ़िल्माया भी गया था।

नवंबर १९९१ को दुर्गा खोटे के निधन के बाद लिस्नर्स बुलेटिन में उन पर एक लेख प्रकाशित हुई थी; उसी का एक अंश प्रस्तुत है यहाँ पर - "सन् १९३० में श्री मोहन भवनानी वाडिया के साथ एक मूक फ़िल्म बना रहे थे। फ़िल्म लगभग पूरी हो चुकी थी। उसी समय बोलती फ़िल्मों की लहर ने भवनानी को इसी फ़िल्म में एक सवाक् अंश जोड़ने के लिए विवश किया जिसके लिए वो एक नई युवती चाहते थे। यह कार्य उन्होंने वाडिया को सौंप दिया। वाडिया शालिनी के मित्र थे। उन्होंने उस भूमिका हेतु शालिनी के समक्ष प्रस्ताव रखा जिसे शालिनी ने तुरन्त अस्वीकार कर दिया। काफ़ी आग्रह करने पर उन्होंने अपनी छोटी बहन दुर्गा का नाम प्रस्तावित किया तथा वाडिया को वह दुर्गा के पास भी ले गईं। परिस्थितिवश दुर्गा खोटे ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस प्रकार दुर्गा को प्रथम फ़िल्म 'ट्रैप्ड' उर्फ़ 'फ़रेबी जाल' (१९३१) में सिर्फ़ दस मिनट की भूमिका मिली जिसमें उनके गाए ३ गीत भी सम्मिलित थे। फ़िल्म की शूटिंग् पूरी होने पर उन्हें २५० रुपय का चेक मिला जिससे उस समय उनके आवश्यक खर्चें निकल आये। इस फ़िल्म के प्रदर्शित होनें पर दुर्गा खोटे की बड़ी दुर्गति हुई। अपनी समस्याओं का निराकरण तो दूर, उल्टे और उलझतीं गयीं किन्तु साहसिक दुर्गा न तो भटकीं और न धैर्य को छोड़ा।" और दोस्तों, इसीलिए आज 'कोमल है कमज़ोर नहीं' में हम बात कर रहे हैं इस सशक्त महिला कीं। वापस आते हैं 'बिदाई' पर; फ़िल्म 'बिदाई' की कहानी दुर्गा खोटे पर ही केन्द्रित थी। आज का प्रस्तुत गीत एक भक्ति रचना है जिसे सुमन कल्याणपुर ने गाया है। दोस्तों, गायिका सुमन कल्याणपुर की कहानी भी कम उल्लेखनीय है। लता और आशा की चमक के आगे दूसरी सभी गायिकाओं की चमक फीकी पड़ जाया करती थी। समस्त कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं में सुमन कल्याणपुर ही थीं जिन्होंने सब से ज़्यादा गीत गाये और सब से ज़्यादा लोकप्रियता उन्हें ही मिली। उनकी आवाज़ लता जी की तरह होने की वजह से जहाँ उन्हें मौके भी मिले, लेकिन साथ ही उनके लिए एक रुकावट भी सिद्ध हुई। सुमन जी के ससुराल वालों ने भी उन्हें जनता के समक्ष आने का मौका नहीं दिया और वो गायन छोड़ने के बाद गुमनामी में चली गयीं। आइए, जिस तरह से कल हमनें जद्दनबाई के साथ साथ नरगिस जी को भी याद किया था, ठीक वैसे ही आज दुर्गा खोटे जी के साथ साथ सलाम करें सुरीली गायिका सुमन कल्याणपुर जी को भी, 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला की दूसरी कड़ी में।



क्या आप जानते हैं...
कि सुमन कल्याणपुर का जन्म २८ जनवरी १९३७ को ढाका में हुआ था, जहाँ पर वो १९४३ तक रहीं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 03/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - अपने जमाने में इस फिल्म के गीत बहुत मकबूल हुए थे.

सवाल १ - गायिका बताएं - २ अंक
सवाल २ - संगीत किसका है - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
इस बार अंजना जी को अमित जी को मात देने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, March 13, 2011

रूप जोबन गुन धरो रहत है....विपरीत परिस्तिथियों में रह कर जीत हासिल करने वाली जद्दनबाई को सलाम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 611/2010/311

"हाये अबला तेरी यही है कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी"; किसी भारतीय नारी के लिए ये शब्द प्राचीन काल से चले आ रहे हैं और कुछ हद तक आज के समाज में भी यही नज़ारा देखने को मिलता है। लेकिन यह भी तो सच है कि आज ज़माना बदल रहा है। आज की महिलाएँ भी पुरुषों के साथ क़दम से क़दम मिला कर हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर रही हैं, और इतना ही नहीं, बहुत जगहों पर पुरुषों को पीछे भी छोड़ रही हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीली महफ़िल में। पिछ्ले ८ मार्च को समूचे विश्व ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया और हर साल यह दिन इसी रूप में मनाया जाता है। हमनें भी ८ मार्च को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भारतीय महिला क्रिकेट टीम को सलाम किया था, याद है न? लेकिन हमें लगा कि सिर्फ़ इतना काफ़ी नहीं है। क्योंकि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' हिंदी फ़िल्मों पर आधारित स्तंभ है, इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि फ़िल्म जगत की उन महिला कलाकारों को विशेष रूप से याद किया जाये, जिन्होंने विपरीत परिस्थितिओं में रहकर भी न केवल अपने लिए इस क्षेत्र में सम्माननीय जगह बनाई और विशिष्ट छाप छोड़ा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी पथ प्रशस्त किया। फ़िल्म जगत की कुछ ऐसी ही महिला कलाकारों को लेकर प्रस्तुत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं'। हम सभी कलाकारों को तो इन दस अंकों में शामिल नहीं कर सकते, लेकिन फ़िल्म निर्माण के अलग अलग विभागों से चुन कर हम कुछ स्तंभ कलाकारों को इसमें शामिल करेंगे, और ये प्रतिनिधित्व करेंगे अपने विभाग के सभी महिला कलाकारों का।

'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला की पहली कड़ी में स्मरण एक ऐसी महिला का जिन्होंने एक नहीं बल्कि फ़िल्म निर्माण के कई कई विभागों में 'पायनीयर' का काम किया और इन विभागों में महिलाओं के प्रवेश का मार्ग आसान कर दिया। हम बात कर रहे हैं जद्दनबाई की। जद्दनबाई का जन्म सन् १८९२ में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में हुआ था। एक सूत्र के हिसाब से उनका जन्म १९०८ में हुआ था, लेकिन इसकी पुष्टि नहीं हो पायी है। जद्दनबाई न केवल उन शुरुआती महिला गायिकाओं में से थीं जिनके ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड्स बनें, बल्कि वो सर्वप्रथम महिला संगीतकार भी थीं। साथ ही अभिनय और फ़िल्म निर्माण का पक्ष भी सम्भाला हिंदी फ़िल्मों के उस शुरुआती दौर में ही। आज की पीढ़ी के नौजवानों ने अगर जद्दनबाई का नाम नहीं सुन रखा है, तो उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि वो अभिनेत्री नरगिस की माँ और अभिनेता संजय दत्त की नानी थीं। अलाहाबाद में जद्दनबाई की परवरिश हुई। कहा जाता है कि जब जद्दनबाई छोटी थीं, तब कोठेवालिओं के एक मेले से वो उठा ली गईं और उन्हें एक तवाइफ़ के रूप में तैयार किया जाने लगा। जन्म से भले हिंदु हों, लेकिन वो आजीवन एक मुस्लिम बन कर रहीं। प्रसिद्ध ठुमरी गायक उस्ताद मोइजुद्दिन ख़ान की वो शिष्या बनीं, और उसके बाद उस्ताद बरक़त अली ख़ान और उस्ताद उमराव ख़ान से भी संगीत सीखा। उस्ताद उमराव ख़ान दिल्ली घराना के उस्ताद तनरस ख़ान के पुत्र थे। संगीत के प्रति लगाव और तमाम विपरीत परिस्थितिओं से लड़ने की क्षमता और धैर्य ने जद्दनबाई को एक 'सिंगिंग् स्टार' बना दिया। फ़िल्मकार महबूब ख़ान उनके अच्छे दोस्त रहे। जद्दनबाई के तीन संतान हुए तीन अलग अलग पुरुषों से। उत्तमचंद मोहनचंद से फ़ातिमा राशिद का जन्म हुआ, जिसने फ़िल्मों में उतरते वक़्त अपना नाम नरगिस रख लिया। जद्दनबाई की दूसरी संतान अख़्तर एक निर्देशक और अभिनेता बने, लेकिन फ़िल्मों को उतनी गम्भीरता से नहीं लिया। जद्दनबाई का तीसरा संतान, अनवर हुसैन, एक फ़िल्म अभिनेता बने पाये थे। १९३५ में जद्दनबाई ने 'तलाश-ए-हक़' फ़िल्म में संगीत देकर पहली महिला संगीत निर्देशिका बन गईं। १९३६ में उन्होंने स्थापना की 'संगीत फ़िल्म्स' की, जिसके तले उन्होंने कुछ फ़िल्मों का निर्माण किया और अपनी बेटी नरगिस को बतौर बाल कलाकार लौंच किया। बदक़िस्मती से जद्दनबाई को अपनी बेटी नरगिस को केवल १४ वर्ष की आयु से ही बतौर अभिनेत्री मैदान पर उतारना पड़ा, और नरगिस ने परिवार के भरण-पोषण की बागडोर सम्भाल ली। जद्दनबाई निर्मित कुछ फ़िल्मों के नाम हैं 'मैडम फ़ैशन' (१९३६), 'हृदय मंथन' (१९३६), 'मोती का हार' (१९३७), और 'जीवन स्वप्न' (१९३७)। इन फ़िल्मों के गानें रेकॊर्ड पर उतारे नहीं गये थे, शायद इसी वजह से आज ये गानें कहीं नहीं मिलते। इसलिए आइए आज जद्दनबाई को समर्पित करें उन्हीं की गायी हुई एक मशहूर ग़ैर फ़िल्मी ठुमरी "रूप जोबन गुन धरो रहत है"। इसे सुनवाने से पहले उनकी गायी कुछ और मशहूर रचनाओं का उल्लेख करना चाहेंगे, जैसे कि "तोड़ लायी राजा जामौनवा की डार", "लगत करेजवा में चोट", "ख़ान-ए-दिल से नुमाया है" आदि। तो लीजिए सुनते हैं ठुमरी "रूप जोबन..."। 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला की पहली कड़ी आज समर्पित है जद्दनबाई और उनकी पुत्री नरगिस के नाम।



क्या आप जानते हैं...
कि एक समय था जब यह अफ़वाह ख़ूब उड़ी थी कि जद्दनबाई दरअसल मोतीलाल नेहरु और प्रसिद्ध वेश्या दलीपाबाई की नाजायज़ संतान हैं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 02/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक भजन है ये.

सवाल १ - किसकी आवाज़ है - २ अंक
सवाल २ - किस नारी को समर्पित है ये गीत, जो उस फिल्म का है जिसकी कहानी उन्हीं पर आधारित है- ३ अंक
सवाल ३ - संगीतकार कौन हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अंजाना जी की शुरूआत इस बार खराब रही, अमित जी सदाबहार साबित हुए है...हिन्दुस्तानी जी और विजय जी इस बार कुछ कर दिखाईये...अवध जी उम्मीद है आपकी फरमाईश पूरी हो गयी होगी :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - राजस्थान की आत्मा में बसा है माँगणियार लोक-संगीत



सुर संगम - 11 - राजस्थान का माँगणियार लोक-संगीत

लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियाँ गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य अवसरों पर मधुर कंठों में लोक समूह लोकगीत गाते हैं। वैदिक ॠचाओं की तरह लोक-संगीत या लोकगीत अत्यंत प्राचीन एवं मानवीय संवेदनाओं के सहजतम स्त्रोत हैं।


सुप्रभात! सुर-संगम की ११वीं कड़ी में आप सबका अभिनंदन! आज से हम सुर-संगम में एक नया स्तंभ जोड़ रहे हैं - वह है 'लोक-संगीत'। इसके अंतर्गत हम आपको भारत के विभिन्न प्रांतों के लोक-संगीत का स्वाद चखवाएँगे। आशा करते हैं कि इस स्तंभ के प्रभाव से सुर-संगम का यह मंच एक 'आनंद-मेला' बन उठे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था,"लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियाँ गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य अवसरों पर मधुर कंठों में लोक समूह लोकगीत गाते हैं। वैदिक ॠचाओं की तरह लोक-संगीत या लोकगीत अत्यंत प्राचीन एवं मानवीय संवेदनाओं के सहजतम स्त्रोत हैं।" भारत में लोक-संगीत एक बहुमूल्य धरोहर रहा है। विभिन्न प्रांतों की सांस्कृतिक विविधता असीम लोक कलाओं व लोक संगीतों को जन्म देती हैं। प्रत्येक प्रांत की अपनी अलग शैली, अलग तरीका है अपनी कलात्मक विविधता को व्यक्त करने का। आज हम जिस प्रांत के लोक-संगीत की चर्चा करने जा रहे हैं, वह प्रांत अपनी इसी कलात्मक विविधता, रचनात्मक शैलियों तथा रंगारग व पारंपरिक लोक-कलाओं के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है - आप समझ ही गए होंगे कि मैं बात कर रहा हूँ सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहरों से परिपूर्ण - राजस्थान की। एक ऐसा प्रदेश जिसका नाम ज़हन में आते ही आँखों के आगे छा जाते हैं ऐतिहासिक किलों, राजा-महाराजाओं, रंग-बिरंगे कपड़ों, व्यंजनो तथा लोक-कलाओं के मनमोहक चित्र।

राजस्थान की उर्वर लोक-कला व संगीत कई परंपरागत शलियों का मिश्रण है। एक ओर जहाँ घरेलु काम-काज जैसे कुएँ से पानी भर लाने, संबंधों, धार्मिक प्रथाओं, त्योहारों, मेलों, घरेलु व सामाजिक अनुष्ठानों और राजाओं-महाराजाओं को समर्पित लोक-गीत हैं, वहीं ईश्वर को समर्पित मीराबाई और कबीर के गीत भी हैं। राजस्थान के लोग परिश्रम से भरे और रेगिस्तान की कठोर धूप में बीती दिनचर्या के बाद फ़ुरसत मिलते ही स्वयं को प्रसन्न चित्त करने के लिए लोक-संगीतों, नृत्यों व नाट्यों का सहारा लेते हैं। वहाँ के हर समुदाय, हर प्रांत का लोक-संगीत विविध है, यहाँ तक कि इनके द्वारा प्रयोग किये जाने वाले वाद्‍य भी भिन्न हैं। जहाँ सामुदायिक लोक-संगीत की बात आती है वहाँ पर राजस्थान के लाँघा, माँगणियार, मिरासी, भाट व भांड आदि समुदायों का उल्लेख करना अनिवार्य बन जाता है। माँगणियार और लाँघा मुस्लिम समुदाय हैं जो राजस्थान में भारत-पाकिस्तान सीमा से सटे बाड़मेर और जैसलमेर के रेगिस्तानों में पाए जाते हैं। इनकी एक महत्त्वपूर्ण संख्या पाकिस्तान के सिंध प्रांत के थापरकर व सांघार ज़िलों में भी आबाद हैं। ये वंशानुगत पेशेवर संगीतकारों का समूह है जिनका संगीत अमीर ज़मींदारों और अभिजातों द्वारा पीढ़ियों से प्रोत्साहित किया जाता रहा है। आइए इस वीडियो द्वारा माँगणियार लोक कलाकारों की इस प्रस्तुति का आनंद लें जो इन्होंने दी थी ' द माँगणियार सिडक्शन' नामक एक कार्यक्रम में जिसे विश्व भर के अनेक देशों में प्रस्तुत किया गया और बेहद सराहा भी गया।

द माँगणियार सिडक्शन


लाँघा व माँगणियार समुदाय के लोक कलाकार मूलतः मुस्लिम होते हुए भी अपने अधिकतम गीतों में हिंदु देवी-देवताओं की तथा हिंदु त्योहारों की बढ़ाई करते हैं और 'खमाचा' अथवा 'कमयाचा' नामक एक खास वाद्‍य के प्रयोग करते हैं जो सारंगी का ही एक प्रतिरूप है। इसे घोड़े के बालों से बने गज को इसके तारों पर फ़ेरकर बजाया जाता है। माँगणियार समुदाय में कई विख्यात कलाकार हुए हैं जिनमें से ३ विशिष्ट गायकों को 'संगीत नाटक अकादमी' पुरस्कार से सम्मनित किया गया है, वे हैं - सिद्दीक़ माँगणियार, सकर खाँ माँगणियार और लाखा खाँ माँगणियार। अब चूँकि ८ मार्च को 'विश्व महिला दिवस' मनाया गया, एक महत्त्वपूर्ण बात का मैं अवश्य उल्लेख करना चाहुँगा। वह ये कि माँगणियार समुदाय की रुकमा देवी माँगणियार अपने समुदाय की एकमात्र महिला कलाकार हैं और इन्हें वर्ष २००४ में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 'देवी अहिल्या सम्मान' से पुरस्कृत किया जा चुका है। माँगणियार व लाँघा लोक कलाकार मुख्यतः जिन शैलियों को प्रस्तुत करते हैं उनमें 'माँड' सबसे ज़्याद प्रसिद्ध है। इस लोक-संगीत का प्रचलन शतकों पहले राजस्थान के ऐतिहासिक राज-दरबारों से हुआ माना जाता है। उस समय के लोक कलाकार राजा तेजाजी, गोगाजी तथा राजा रामदेवजी की गौरव गाथा का बख़ान करते हुए 'माँड' गाया करते थे। इस शैली का एक लोकगीत जो अत्यधिक लोकप्रिय हुआ वह है - 'केसरिया बालम आवो सा, पधारो मारे देस'। इसकी लोकप्रियता इतनी हुई कि आज यह गीत राजस्थान का प्रतीक बन गया है। यहाँ तक कि कई हिंदी फ़िल्मों में भी इसका खूब प्रयोग हुआ। तो चलिए सुनते हैं भुट्टे खाँ और भुंगेर खाँ माँगणियार द्वारा प्रस्तुत माँड - 'केसरिया बालम आवो सा, पधारो मारे देस'।

माँड - केसरिया बालम आवो सा, पधारो मारे देस


और अब बारी इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा जवाब तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। 'सुर-संगम' के ५०-वे अंक तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से ज़्यादा अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी तरफ़ से।

सुनिए इस गीत के हिस्से को और पहचानिए कि यह किस राग पर आधारित है।


पिछ्ली पहेली का परिणाम: कृष्‍णमोहन जी ने न केवल एक बार फ़िर सही उत्तर देकर ५ अंक और अर्जित किए बल्कि माँगणियार लोक-संगीत के बारे में जानकारी भई बाँटी। धन्यवाद एवं बधाई!

तो लीजिए, हम आ पहुँचे हैं 'सुर-संगम' की आज की कड़ी की समाप्ति पर। आशा है आपको यह कड़ी पसन्द आई। सच मानिए तो मुझे भी बहुत आनन्द आया इस कड़ी को लिखने में। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। आगामी रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी लेकर, तब तक के लिए अपने मित्र सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए, नमस्कार!

प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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