Saturday, October 15, 2011

"पहला म्युज़िक विडियो प्लस चैनल नें ही बनाया नाज़िया हसन को लेकर"- अमित खन्ना



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 63
"मैं अकेला अपनी धुन में मगन" - भाग:२
पढ़ें भाग ०१ यहाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! पिछले अंक में आप मिले सुप्रसिद्ध गीतकार एवं फ़िल्म व टी.वी. प्रोड्युसर-डिरेक्टर अमित खन्ना से। अमित जी इन दिनों रिलायन्स एन्टरटेनमेण्ट के चेयरमैन हैं, इसलिए ज़ाहिर है कि वो बहुत ही व्यस्त रहते हैं। बावजूद इसके उन्होंने 'हिन्द-युग्म' को अपना मूल्यवान समय दिया, पर बहुत ज़्यादा विस्तार से बातचीत सम्भव नहीं हो सकी। और वैसे भी अमित जी अपने बारे में ज़्यादा बताने में उत्साही नहीं है, उनका काम ही उनका परिचय रहा है। आइए अमित जी से बातचीत पर आधारित शृंखला 'मैं अकेला अपनी धुन मे मगन' की दूसरी कड़ी में उनसे की हुई बातचीत को आगे बढ़ाते हैं। पिछली कड़ी में यह बातचीत आकर रुकी थी फ़िल्म 'चलते चलते' के शीर्षक गीत पर। अब आगे...

सुजॉय - अमित जी, 'चलते चलते' फ़िल्म का ही एक और गीत था लता जी का गाया "दूर दूर तुम रहे"।
अमित जी - जी हाँ, इस गीत के लिए उन्हें अवार्ड भी मिला था। इस गीत की धुन बी. जे. थॉमस के मशहूर गीत "raindrops keep falling on my head" की धुन से इन्स्पायर्ड थी।

सुजॉय - चलिए इस गीत को भी सुनते चलें।

गीत - दूर दूर तुम रहे पुकारते हम रहे (चलते चलते)


सुजॉय - अच्छा, 'चलते चलते' के बाद फिर आपकी कौन सी फ़िल्में आईं?
अमित जी - उसके बाद मैंने बहुत से ग़ैर-फ़िल्मी गीत लिखे, ८० के दशक में, करीब १००-१५० गानें लिखे होंगे। फ़िल्मी गीतों की बात करें तो 'रामसे ब्रदर्स' की ४-५ हॉरर फ़िल्मों में गीत लिखे, जिनमें अजीत सिंह के संगीत में 'पुराना मन्दिर' भी शामिल है।

सुजॉय - 'पुराना मन्दिर' का आशा जी का गाया "वो बीते दिन याद हैं" गीत तो ख़ूब मकबूल हुआ था। क्यों न इस गीत को भी सुनवाते चलें और बीते दिनों को यादों को एक बार फिर ताज़े किए जायें?
अमित जी - ज़रूर!

गीत - वो बीते दिन याद हैं (पुराना मन्दिर)


सुजॉय - अच्छा अमित जी, यह बताइए कि जब आप कोई गीत लिखते हैं तो आप की रणनीति क्या होती है, किन बातों का ध्यान रखते हैं, कैसे लिखते हैं?
अमित जी - देखिए मैं बहुत spontaneously लिखता हूँ। मैं दफ़्तर या संगीतकार के वहाँ बैठ कर ही लिखता था। घर पे बिल्कुल नहीं लिखता था। फ़िल्म में गीत लिखना कोई कविता लिखना नहीं है कि किसी पहाड़ पे जा कर या तालाब के किनारे बैठ कर लिखने की ज़रूरत है, जो ऐसा कहते हैं वो झूठ कहते हैं। फ़िल्मों में गीत लिखना एक बहुत ही कमर्शियल काम है, धुन पहले बनती है और आपको उस हिसाब से सिचुएशन के हिसाब से बोल लिखने पड़ते हैं। हाँ कुछ गीतकार हैं जिन्होंने नए नए लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया, जैसे कि राजा मेहन्दी अली ख़ाँ साहब, मजरूह साहब, साहिर साहब। इनके गीतों में आपको उपमाएँ मिलेंगी, अन्य अलंकार मिलेंगे।

सुजॉय - अच्छा अलंकारों की बात चल रही है तो फ़िल्म 'मन-पसन्द' में आपनें अनुप्रास अलंकार का एक बड़ा ख़ूबसूरत प्रयोग किया था, उसके बारे में बताइए।
अमित जी - 'मन-पसन्द' मैंने ही प्रोड्युस की थी। फ़िल्म में एक सिचुएशन ऐसा आया कि जिसमे छन्दों की ज़रूरत थी। देव आनद टिना मुनीम को गाना सिखा रहे हैं। तो मैंने उसमें जयदेव की कविता से यह लाइन लेकर गीत पूरा लिखा।

सुजॉय - बहुत सुन्दर!
अमित जी - मैं यह समझता हूँ कि जो एक गीतकार लिखता है उसपे उसके जीवन और तमाम अनुभवों का असर पड़ता है। उसके गीतों में वो ही सब चीज़ें झलकती हैं। सबकॉनशियस माइण्ड में वही सबकुछ चलता रहता है गीतकार के।

सुजॉय - वाह! चलिए 'मनपसन्द' का लता जी और किशोर दा का गाया यह गीत सुनते चलें।

गीत - चारू चन्द्र की चंचल चितवन... सा रे गा मा (मनपसन्द)


सुजॉय - 'मनपसन्द' के सभी गीत इतने सुन्दर हैं कि जी चाहता है कि सभी गीत सुनवाएँ। "सुमन सुधा रजनीगंधा" भी लाजवाब गीत है। इस गीत को हम फिर कभी अवश्य अपने श्रोताओं को सुन्वएंगें. राजेश रोशन और बप्पी लाहिड़ी के अलावा और किन किन संगीतकारों के साथ आपने काम किया है?
अमित जी - लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के साथ फ़िल्म 'भैरवी' में काम किया, एक और फ़िल्म थी उनके साथ जो बनी नहीं। भूपेन हज़ारिका के साथ NFDC की एक फ़िल्म 'कस्तूरी' में गीत लिखे। दान सिंह के साथ भी काम किया है। जगजीत सिंह के साथ भी काम किया है, दूरदर्शन की एक सीरियल था जलाल आग़ा साहब का, उसमें। अनु मलिक की २-३ फ़िल्मों में गीत लिखे, रघुनाथ सेठ के साथ १-२ फ़िल्मों में। इस तरह से कई संगीतकारों के साथ काम करने का मौका मिला।

सुजॉय - अमित जी, कई नए कलाकारों नें आप ही के लिखे गीत गा कर फ़िल्म-जगत में उतरे थे, उनके बारे में बताइए।
अमित जी - अलका याग्निक नें अपना पहला गीत 'हमारी बहू अलका' में गाया था जिसे मैंने लिखा था। उदित नारायण नें भी अपना पहला गीत रफ़ी साहब के साथ 'उन्नीस बीस' फ़िल्म में गाया था जो मेरा लिखा हुआ था। शरन प्रभाकर, सलमा आग़ा नें मेरे ग़ैर फ़िल्मी गीत गाए। पिनाज़ मसानी का पहला फ़िल्मी गीत मेरा ही लिखा हुआ था। शंकर महादेवन नें पहली बार एक टीवी सीरियल में गाया था मेरे लिए। सुनिता राव भी टीवी सीरियल से आई हैं। फिर शारंग देव, जो पंडित जसराज के बेटे हैं, उनके साथ मैंने २/३ फ़िल्मों में काम किया।

सुजॉय - जी हाँ, फ़िल्म 'शेष' में आप प्रोड्युसर, डिरेक्टर, गीतकार, कहानीकार, पटकथा, संवाद-लेखक सभी कुछ थे और संगीत दिया था शारंग देव नें।
अमित जी - फिर इलैयाराजा के लिए भी गीत लिखे। गायकों में किशोर कुमार नें सबसे ज़्यादा मेरे गीत गाये, रफ़ी साहब नें कुछ ८-१० गीत गाये होंगे। लता जी, आशा जी, मन्ना डे साहब, और मुकेश जी नें भी मेरे दो गीत गाये हैं, दोनों डुएट्स थे, एक बप्पी लाहिड़ी के लिए, एक राजेश रोशन के लिए। इनके अलावा अमित कुमार, शैलेन्द्र सिंह, कविता कृष्णमूर्ति, अलका, अनुराधा, उषा उथुप नें मेरे गीत गाये हैं। भीमसेन जोशी जी के बेटे के साथ मैंने एक ऐल्बम किया है। नॉन-फ़िल्म में नाज़िया हसन और बिद्दू नें मेरे कई गीत गाए हैं। मंगेशकर परिवार के सभी कलाकारों नें मेरे ग़ैर-फ़िल्मी गीत गाए हैं। मीना मंगेशकर का भी एक ऐल्बम था मेरे लिखे हुए गीतों का। मीना जी नें उसमें संगीत भी दिया था, वर्षा नें गीत गाया था।

सुजॉय - अमित जी, अब मैं जानना चाहूँगा 'प्लस चैनल' के बारे में।
अमित जी - 'प्लस चैनल' हमनें १९९० में शुरु की थी पार्टनर्शिप में, जिसने मनोरंजन उद्योग में क्रान्ति ला दी। उस समय ऐसी कोई संस्था नहीं थी टीवी प्रोग्रामिंग की। महेश भट्ट भी 'प्लस चैनल' में शामिल थे। हमनें कुछ १० फ़ीचर फ़िल्मों और ३००० घंटों से उपर टीवी प्रोग्रामिंग् और १००० म्युज़िक ऐल्बम्स बनाई। 'बिज़नेस न्यूज़', 'ई-न्यूज़' हमने शुरु की थी। पहला म्युज़िक विडियो हम ही नें बनाया नाज़िया हसन को लेकर।

सुजॉय - 'प्लस चैनल' तो काफ़ी कामयाब था, पर आपने इसे बन्द क्यों कर दिया?
अमित जी - रिलायन्स में आने के बाद बन्द कर दिया।

सुजॉय - क्या आपनें गीत लिखना भी छोड़ दिया है?
अमित जी - जी हाँ, अब बस मैं नए लोगों को सिखाता हूँ, मेन्टरिंग् का काम करता हूँ। रिलायन्स एन्टरटेन्मेण्ट का चेयरमैन हूँ, सलाहकार हूँ, बच्चों को सिखाता हूँ।

सुजॉय - अच्छा अमित जी, चलते चलते अपने परिवार के बारे में कुछ बताइए।
अमित जी - मैं अकेला हूँ, मैंने शादी नहीं की।

सुजॉय - अच्छा अच्छा। फिर तो 'मनपसन्द' का गीत "मैं अकेला अपनी धुन में मगन, ज़िन्दगी का मज़ा लिए जा रहा था" गीत आपकी ज़िन्दगी से भी कहीं न कहीं मिलता-जुलता रहा होगा। ख़ैर, अमित जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका, इतनी व्यस्तता के बावजूद आपनें हमें समय दिया, फिर कभी सम्भव हुआ तो आपसे दुबारा बातचीत होगी। बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
अमित जी - धन्यवाद!

गीत - मैं अकेला अपनी धुन में मगन (मनपसन्द)


तो दोस्तों, यह था गीतकार और फ़िल्मकार अमित खन्ना से की हुई बातचीत पर आधारित शृंखला 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन' का दूसरा और अन्तिम भाग। अगले शनिवार फिर एक विशेषांक के साथ उपस्थित होंगे, तब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमित कड़ियों का आनन्द लेते रहिए, नमस्कार!

घुघूतीबासूती की कहानी "ओह!"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की कहानी "अग्नि समर्पण" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं घुघूतीबासूती का व्यंग्य "ओह!", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। "ओह!" का कुल प्रसारण समय 5 मिनट 17 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट घुघूतीबासूती ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


वे ठंडी हवाएँ, वह बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियाँ, चीड़ व देवदार के वृक्ष! बस इन्हीं यादों को, अपने छूटे कुमाऊँ को, अपनी स्वर्गीय दीदी की याद को श्रद्धा व स्नेह के सुमन अर्पण करने के लिए मैंने स्वयं को नाम दिया है घुघूती बासूती!
~ घुघूतीबासूती

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"दहेज में पैसा माँगते अवश्य हैं किन्तु बहुओं को सताते जरा भी नहीं। शेष भारत में जैसे बहुओं को मारने जलाने की घटनाएँ होती हैं वैसी उसने अपने समाज में नहीं देखीं। उनके समाज में स्त्री का बहुत आदर है। जो माँगना होता है वह विवाह से पहले खुलकर माँग लेते हैं, बाद में कोई लफड़ा नहीं करते।"
(घुघूतीबासूती की "ओह!" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#149th Story, Oh: Ghughuti Basuti/Hindi Audio Book/2011/30. Voice: Anurag Sharma

Thursday, October 13, 2011

संग मेरे निकले थे साजन....आज लीजिए नेपाली लोक धुन से प्रेरित ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 765/2011/205

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की चल रही शृंखला 'पुरवाई' में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। असम, सिक्किम और उत्तर बंगाल में एक बड़ा समुदाय नेपालियों का भी है। मूलत: नेपाल से ताल्लुख़ रखने वाले ये लोग बहुत समय पहले इन अंचलों में आ बसे थे और अब ये भारत के ही नागरिक हैं और भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग भी। नेपाली लोक-गीत इतने मधुर होते हैं कि तनाव भरी ज़िन्दगी जी रहे लोग अगर इन्हें सुनें तो जैसे मन-मस्तिष्क ताज़गी से भर जाता है। पहाड़ों की मन्द-मन्द शीतल बयार जैसे इन गीतों के साथ-साथ चलने लग जाती है। जितने भी भारत के पहाड़ी अंचल हैं, उनमें जो लोक-संगीत की परम्परा है, उनमें नेपाली लोक-संगीत एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखती है। और शायद इसी वजह से हमारी हिन्दी फ़िल्मों में भी कई बार नेपाली लोक धुनों का गीतों में इस्तमाल किया गया है। सलिल चौधरी एक ऐसे संगीतकार हुए जिन्होंने असम और पहाड़ी संगीत का ख़ूब इस्तमाल किया जिनमें नेपाली लोक धुनें भी शामिल थीं। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण फ़िल्म 'मधुमति' के गीत हैं। सचिन देव बर्मन और उनके पुत्र राहुल देव बर्मन का भी इस तरह रुझान रहा है। कहा जाता है कि दादा बर्मन नें 'ज्वेल थीफ़' फ़िल्म के गीत "होठों पे ऐसी बात मैं दबा के चली आई" की रेकॉर्डिंग् करने से इन्कार कर दिया था क्योंकि इस गीत के ऑरकेस्ट्रेशन में नेपाली वाद्यों की ज़रूरत थी जिन्हें ख़ास नेपाल से मंगवाया गया था। और क्योंकि वो सामान नहीं आ पहुँचा था, दादा नें अन्य वाद्यों का इस्तमाल करना गवारा नहीं किया। दादा के बेटे पंचम नें भी कई बार नेपाली धुनों का सहारा लिया। शम्मी कपूर पर फ़िल्माये 'तीसरी मंज़िल' का गीत "दीवाना मुझसा नहीं इस अम्बर के नीचे", फ़िल्म 'जोशीले' का गीत "दिल में जो बातें हैं आओ चलो हम कह दें" और फ़िल्म 'फिर वही रात' का गीत "संग मेरे निकले थे साजन" असल में नेपाली लोक-धुनों पर ही अधारित हैं।

'पुरवाई' के लिए हमनें नेपाली लोक धुन पर आधारित जिस फ़िल्मी रचना को चुना है, वह है फ़िल्म 'फिर वही रात' का गीत "संग मेरे निकले थे साजन, हार बैठे, थोड़ी ही दूर चल के"। लता मंगेशकर, किशोर कुमार और साथियों का गाया यह गीत फ़िल्माया गया है राजेश खन्ना, किम और सहेलियों पर। यह गीत जिस नेपाली मूल लोक गीत पर आधारित है वह एक डोहोरी गीत है, जिसके बोल हैं "आगे आगे टोपई को गोला, पाछी पाछी मशीन गन भररा"। यूं तो इस गीत के कई संस्करण बने हैं, पर सबसे पुराना और लोकप्रिय जो वर्ज़न है, वह १९६५ में डैनी डेन्ज़ोंगपा और आशा भोसले का गाया हुआ एक स्टेज शो गीत है, और इस शो का आयोजन काठमाण्डु, नेपाल में किया गया था। इस नेपाली गीत को सुनने के लिए आप यहाँ क्लिक करें:

मज़े की बात ही कहिए या फिर संयोग, 'फिर वही रात' में भी डैनी नें अभिनय किया था। "संग मेरे निकले थे साजन" गीत के बारे में यही कहना चाहेंगे कि पंचम नें भले नेपाली धुन का इस्तमाल किया, पर केवल मुखड़े में। अंतरा उनका अपना कम्पोज़िशन था। गीत के शुरु में कोरस का प्रयोग बहुत लुभावना है, और अन्त में बांसुरी की तान तो जैसे हमें यकायक किसी दूर पर्वत पर उड़ा ले जाता है। फ़िल्म के न चलने से यह गीत उतना लोकप्रिय नहीं हुआ, पर बचपन में रेडियो पर मैंने इस गीत को इतना सुना है कि मेरे पसन्दीदा गीतों में से एक रहा है यह गीत। तो आइए सुनते हैं मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा यह गीत। खासी, बिहु, असमीया कीर्तन और चाय बागान के बाद आज 'पुरवाई' में बारी नेपाली लोक धुन की। सुनिए और अपने दोस्तों यारों को भी सुनने पे मजबूर कीजिए।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
मुखड़े में शब्द है "अलबेली"

पिछले अंक में
इंदु जी गीत कैसा लगा ये बतयिये
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, October 12, 2011

जाने क्या है जी डरता है...असम के चाय के बागानों से आती एक हौन्टिंग पुकार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 764/2011/204

सम के लोक-संगीत की बात चल रही हो और चाय बागानों के संगीत की चर्चा न हो, यह सम्भव नहीं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है शृंखला 'पुरवाई' में जिसमें इन दिनों आप पूर्व और उत्तर-पूर्व भारत के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीत सुन रहे हैं। चाय बागानों की अपनी अलग संस्कृति होती है, अपना अलग रहन-सहन, गीत-संगीत होता है। दरअसल इन चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूर असम, बंगाल, बिहार और नेपाल के रहने वाले हैं और इन सब की भाषाओं के मिश्रण से एक नई भाषा का विकास हुआ जिसे चाय बागान की भाषा कहा जाता है। यह न तो असमीया है, न ही बंगला, न नेपाली है और न ही हिन्दी। इन चारों भाषाओं की खिचड़ी लगती है सुनने में, पर इसका स्वाद जो है वह खिचड़ी जैसा ही स्वादिष्ट है। यहाँ का संगीत भी बेहद मधुर और कर्णप्रिय होता है। असम के चाय बागानों में झुमुर नृत्य का चलन है। यह नृत्य लड़कों और लड़कियों द्वारा एक साथ किया जाता है, और कभी-कभी केवल लड़कियाँ करती हैं झुमुर नृत्य। इस नृत्य में पाँव के स्टेप्स का बहुत महत्व होता है, एक क़दम ग़लत पड़ा और नृत्य बिगड़ जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि नृत्य करने वाले एक दूसरे की कमर को कस के पकड़े हुए होते हैं। और इस नृत्य के दौरान बजने वाला गीत-संगीत नृत्य को और भी ज़्यादा सुनद्र बना देते हैं। एक अजीब सुकून देने वाला यह संगीत है। आज के बड़े शहरों की तनाव से भरी ज़िन्दगी जीने वालों के लिए यह सुझाव देना चाहेंगे कि एक बार असम या उत्तर बंगाल के चाय बागानों की सैर कर आइए, यकीन दिलाते हैं कि आप एक नई ताज़गी और स्फूर्ति से भर उठेंगे। शायद वैसी ही ताज़गी जो यहाँ के चाय पत्तियों से बनी चाय की चुस्की लेते हुए आप महसूस करते हैं।

आज के अंक के लिए असम के चाय बागान के संगीत पर आधारित हमनें जिस गीत को चुना है, उसे भी कल की तरह भूपेन हज़ारिका नें ही स्वरबद्ध किया है। फ़िल्म 'एक पल' का यह गीत है "जाने क्या है जी डरता है, रो देने को जी करता है, अपने आप से डर लगता है, डर लगता है, क्या होगा"। लता मंगेशकर की आवाज़ है और गुलज़ार के बोल। यह १९८६ की कल्पना लाजमी निर्देशित फ़िल्म थी जो असम की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म थी। फ़िल्म के सभी गीतों में असमीया संगीत साफ़ सुनाई देता है, फिर चाहे आज का यह गीत हो या "मैं तो संग जाऊँ बनवास", विदाई गीत "ज़रा धीरे ज़रा धीमे" हो या फिर "फूले दाना दाना"। आज जो गीत आपको सुनवा रहे हैं, इसका असमीया गीत हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' के उषा मंगेशकर पर केन्द्रित अंक में सुनवा चुके हैं। याद है न "राधाचुड़ार फूल गूंजी राधापुरोर राधिका" गीत? यह एक झुमुर नृत्य शैली का लोक गीत है जिस पर आधारित यह असमीया गीत है। पर हिन्दी वर्ज़न में भूपेन हज़ारिका नें बीट्स कम कर के इसमें एक हौन्टिंग् टच ले आये हैं। गीत सुन कर वाक़ई ऐसा लगता है कि कोई डरा हुआ है। तो आइए आज असम के चाय बगानों की सैर की जाये लता मंगेशकर, भूपेन हज़ारिका और गुलज़ार के साथ फ़िल्म 'एक पल' के इस गीत के माध्यम से।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
काका बाबु और किम पर फिल्मांकित इस गीत का आरंभ होता है इस शब्द से -"संग"

पिछले अंक में
लगता है की अब सभी श्रोता हमारे इशारों में बात करते हैं :) सुजॉय की पुरवाई का असर है
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, October 11, 2011

जब से तूने बंसी बजाई रे....भूपेन हजारिका का स्वरबद्ध एक मधुर गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 763/2011/203

पूर्वी और पुर्वोत्तर राज्यों के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'पुरवाई' की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। जैसा कि पहली कड़ी में हमने कहा था कि हमारे देश के हर राज्य के अन्दर भी कई अलग अलग प्रकार के लोक गीत पाये जाते हैं; इसमे असम राज्य कोई व्यतिक्रम नहीं है। कल की कड़ी में हमने बिहु का आनद लिया था, आज प्रस्तुत है असम की भक्ति गीतों की शैली में कम्पोज़ किया एक गीत। असम के नामघरों में जिस तरह का धार्मिक संगीत गाया जाता है, यह गीत उसी शैली का है। संगीतकार भूपेन हज़ारिका नें पहली बार इसका प्रयोग अपनी असमीया फ़िल्म 'मणिराम दीवान' के "हे माई जोख़ुआ" गीत में किया था, बाद में ७० के दशक में जब उन्हे हिन्दी फ़िल्म 'आरोप' में संगीत देने का सुयोग मिला, और एक भक्ति रचना उन्हें फ़िल्म के लिए कम्पोज़ करना था, तो इसी धुन का उन्होंने दुबारा इस्तमाल किया और गायिका लक्ष्मी शंकर से यह गीत गवाया जिसके बोल थे "जब से तूने बंसी बजाई रे, बैरन निन्दिया चुराई, मेरे ओ कन्हाई, नटखट कान्हा ओ हरजाई रे काहे पकड़ी कलाई, मेरे ओ कन्हाई"। १९७४ की इस फ़िल्म में गीत लिखीं माया गोविन्द नें।

आइए आज इस कड़ी में आपको असम के नामघरों के बारे में बताते हैं। नाम का अर्थ है प्रार्थना। नामघर उस जगह को कहते हैं जहाँ लोग जमा हो कर आध्यात्मिक कार्य करते हैं जैसे कि प्रार्थना (अलग अलग प्रकार के 'नाम') और भावना (आधात्मिक नाट्य जिसमें पारम्परिक वेशभूषा और नृत्यों का प्रयोग होता है)। नामघर की परम्परा मूलत: असम के वैष्णवी हिन्दू धर्म के लोगों में पायी जाती है। वैष्णवी लोग भगवान कृष्ण के भक्त होते हैं जो नामघरों में नियमीत रूप से जाकर प्रार्थना करते हैं। वहाँ वे पवित्र ग्रंथों का पाठ करते हैं जिनमें कीर्तन, भागवत, नाम-घोसा आदि शामिल हैं, और पाठ के समय लोग "रीदमिक क्लैपिंग्" करते हैं और कई बार पारम्परिक वाद्यों का इस्तमाल किया जाता है। हालाँकि यह धार्मिक कार्यों तक ही सीमित होते हैं, नामघरों का उपयोग कम्युनिटी हॉल के रूप में किया जाता है शैक्षिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और उन्नयनमूलक कार्यों के लिए। नामघर को असम के 'neo-vaishnavite movement' का योगदान समझा जाता है। असम के प्रसिद्ध वैष्णव सन्त श्रीमन्त शंकरदेव (१४४९ - १५६९) नें नामघर की परिकल्पना की थी। किसी भी नामघर के एक अन्त में एक सिंहासन होता है, और दूसरे अन्त में होता है नामघर का मुख्य द्वार। इस सिंहासन में पवित्र ग्रंथ रखा होता है पूजा के लिए, और इस सिंहासन को सहारा स्वरूप चार हाथी, २४ सिंह और ७ बाघों की मूर्तियों का प्रयोग होता है। नामघर के अन्दर पौराणिक चरित्रों जैसे कि गरूड़, हनुमान, नागर, अनन्त आदि की मूर्तियाँ भी होती हैं। तो दोस्तों, चलिए असम की इस धार्मिक संगीत की शैली में सुनते हैं फ़िल्म 'आरोप' का गीत लक्ष्मी शंकर की आवाज़ में। बड़ा ही दिल को छू लेने वाला संगीत है इस गीत का।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
गुलज़ार का लिखा ये गीत "जाने" शब्द से शुरू होता है

पिछले अंक में
मज़ा आया इंदु जी
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, October 10, 2011

फूले बन बगिया, खिली कली कली....बिहु रंग रंगा ये सुरीला गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 762/2011/202

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीली महफ़िल में। कल से हमने शुरु की है पूर्वी और पुर्वोत्तर भारत के लोक गीतों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों से सजी लघु शृंखला 'पुरवाई'। कल पहली कड़ी में आपनें सुनी अनिल बिस्वास के संगीत में मेघालय के खासी जनजाति के एक लोक धुन पर आधारित मीना कपूर की गाई फ़िल्म 'राही' की एक लोरी। आज जो गीत हम लेकर आये हैं उसके संगीतकार भी अनिल बिस्वास ही हैं और गायिका भी मीना कपूर ही हैं। पर साथ में मन्ना डे की आवाज़ भी शामिल है। पर यह गीत किसी खासी लोक धुन पर नहीं बल्कि असम की सबसे ज़्यादा लोकप्रिय लोक-गीत 'बिहु' पर आधारित है। बिहु में गीत, संगीत और नृत्य, तीनों की समान रूप से प्रधानता होती है। इनमें से कोई भी एक अगर कमज़ोर पड़ जाए, तो बात नहीं बनती। बिहु असम का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार भी है और बिहु गीत व बिहु नृत्य इस त्योहार का प्रतीक स्वरूप है। 'बिहु' शब्द 'दिमसा कछारी' जनजाति के भाषा से आया है। ये लोग मुख्यत: कृषि प्रधान होते हैं और ये ब्राई शिबराई यानि बाबा शिबराई की पूजा करते हैं। मौसम के पहली फसल को ये लोग ब्राई शिबराई को समर्पित करते हैं और उनसे शान्ति और ख़ुशहाली की दुआ माँगते हैं। इस तरह से "बि" का अर्थ है "माँगना" और "शु" का अर्थ है "शान्ति और ख़ुशहाली"। यहीं से आया है "बिशु", और क्योंकि असमीया में "श" का उच्चारण "ह" भी होता है, इस तरह से "बिशु" बन गया है "बिहु"। यूं तो बिहु साल में कई बार आता है अलग अलग रूप लेकर, लेकिन गीत-संगीत वाले बिहु की बात करें तो यह अप्रैल के महीने में बैसाखी के समय आता है जिसे 'रंगाली बिहु' या "बहाग (बैसाख) बिहु" कहा जाता है। 'रंगाली बिहु' का त्योहार उपजाऊ धरती का प्रतीक है, जिसमें बिहु नृत्य के माध्यम से स्त्री-पुरुष उत्तेजक अंग भंगिमाओं से अपनी उर्वरक होने का आहवान करते हैं। बिहु गीत-संगीत में जिन वाद्यों का प्रयोग होता है, उनमें मुख्य रूप से शामिल हैं ढोल, ताल, पेपा, टोका, बांसुरी, ख़ुतुली और गोगोना। ये सभी असम के पारम्परिक वाद्य हैं।

मीना कपूर, मन्ना डे और साथियों के गाए अनिल बिस्वास के संगीत पर हमने जिस गीत को चुना है वह है १९६२ की फ़िल्म 'सौतेला भाई' का। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे गुरु दत्त, प्रनोती घोष और बेला बोस। किसी भी बिहु गीत में रीदम के साथ मुख्य गीत शुरु होने से पहले बिना ताल के दो तीन लाइनें होती हैं, यानि जैसे कि मुखड़े के पहले का शेर। इसी तरह से प्रस्तुत गीत में भी मुख्य गीत शुरु होने से पहले के बोल हैं "फूले बन बगिया, खिली कली कली, आई ॠतु अलबेली, संग की सहेलियाँ गईं पिया घर, रह गई दैया मैं अकेली"। फिर इसके बाद बिहु रीदम के साथ मुखड़ा शुरु होता है "काह्हा करूँ, आह्हा जिया, मोह्ह गई, देखो जिया रे"। शैलेन्द्र का लिखा यह गीत है और मूल बिहु गीत के बोल हैं "पाह गिसा साह कोरी नेह लागी....."। बिहु के रीदम पर हिन्दी के बोलों को बिठाना, इसमें जो शब्दों की कटिंग् है, वह आसान काम नहीं था, इस बारे में जानिये अनिल बिस्वास से ही। "बहुत मुश्किल हुई थी। मेरे जैसे शैलेन्द्र जो थे न, वो भी चैलेन्ज उनको कर दो तो वो भी सर खपा देते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि 'दादा, मैं अब हिन्दी शब्द को इसके जैसे कैसे तोड़ूं जो आसामी लोग तोड़ गए?' मैंने कहा कि यह गाना मुझे चाहिए, अब तुम्हारे सिवा कौन लिखेगा मुझे पता नहीं। फिर कहने लगे कि हम ज़रा समुन्दर किनारे होकर आते हैं। गए और लिख के ले आए "काह करूँ आह जिया मोह गई रेमैंने बोला यह तो वैसा नहीं लग रहा है। तो बोले कि इसको आप ऐसे गाओ "काह्ह करूँ आह्ह जिया मोह्ह गई देखो जिया रे"। मैं क्या बताऊँ, 'हैट्स ऑफ़ टू दैट मैन"! तो लीजिए दोस्तों, बिहु पर आधारित फ़िल्म 'सौतेला भाई' का यह गीत सुनिए मीना कपूर, मन्ना डे और साथियों की आवाज़ों में।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
मुखड़े में शब्द है "बंसी" और "हरजाई"

पिछले अंक में
वाह अमित भाई
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, October 9, 2011

चाँद सो गया, तारे सो गए....मधुर लोरी में पुरवैया की महक लाये अनिल दा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 761/2011/201

ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। और इस सुरीले सफ़र के हमसफ़र, मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ और आप सभी को साथ लेकर फिर से चल पड़ा हूँ एक और नई शृंखला के साथ। दोस्तों, किसी भी देश में जितने भी प्रकार के संगीत पाये जाते हैं, उनमें से सबसे ज़्यादा लोकप्रिय संगीत होता है वहाँ का लोक-संगीत। जैसा कि नाम में ही "लोक" शब्द का प्रयोग है, यह है ही आम लोगों का संगीत, सर्वसाधारण का संगीत। लोक-संगीत एक ऐसी धारा है संगीत की जिसे गाने के लिए न तो किसी संगीत शिक्षा की ज़रूरत पड़ती है और न ही इसमें सुरों या तकनीकी बातों को ध्यान में रखना पड़ता है। यह तो दिल से निकलने वाला संगीत है जो सदियों से लोगों की ज़ुबाँ से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती चली आई है। हमारे देश में पाये जाने वाला लोक-संगीत यहाँ की अन्य सब चीज़ों की तरह ही विविध है, विस्तृत है, विशाल है। यहाँ न केवल हर राज्य का अपना अलग लोक-संगीत है, बल्कि एक राज्य के अन्दर भी कई कई अलग तरह के लोक-संगीत पाये जाते हैं। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम शुरु कर रहे हैं पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के लोक गीतों और लोक-संगीत शैलियों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों से सजी हमारी नई लघु शृंखला 'पुरवाई'।

'पुरवाई' का सफ़र हम शुरु कर रहे हैं उत्तर-पूर्वी राज्य मेघालय से। असम, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैण्ड, मिज़ोराम, त्रिपुरा और मेघालय राज्यों के समूह को 'सेवेन सिस्टर्स' कहा जाता है। हर राज्य की अपनी अलग संस्कृति है, संगीत में भी कई विविधताएँ हैं। मेघालय में एक बड़ी जनजाति है खासी जनजाति। आपको याद होगा कुछ महीने पहले 'ताज़ा सुर ताल' में फ़िल्म 'गुमशुदा' में एक खासी गीत शामिल किया गया था "खासी तिंग्या"। आपको शायद लगे कि यह पहला ऐसा मौका था किसी खासी गीत का हिन्दी फ़िल्मों में सुनाई देना। बोलों के लिहाज़ से शायद यह बात सच है, पर धुनों के हिसाब से नहीं। संगीतकार अनिल बिस्वास नें ५० के दशक में ही एक खासी लोक गीत की धुन को लेकर मीना कपूर की आवाज़ में एक लोरी रेकॉर्ड की थी फ़िल्म 'राही' में जिसके बोल हैं "चाँद सो गया, तारे सो गए, सो गई रात, सारे सो गए"। 'राही' १९५३ की देव आनन्द और अचला सचदेव अभिनीत फ़िल्म थी जिसमें प्रेम धवन नें गीत लिखे थे। इस गीत के बारे में अनिल दा कहते हैं, "तुमको बता दूँ कि 'राही' का बैकग्राउण्ड था एक टी-गार्डन। उसमें जो काम करने वाले थे वो ख़ास करके बिहार से आते थे, और कुछ पहाड़ से आते थे। उसमें एक सिचुएशन आया था लोरी का, बहुत अच्छा सिचुएशन था कि बच्चा गुज़र गया है, और माँ जो हैं न, पलना यही समझ के झुला रही है कि बच्चा सोया हुआ है, उसको सुला रही है। बहुत ही ख़ूबसूरत है। तो उसको मैंने उसी तरफ़ की चीज़ को लेके आया था। मणिपुर और खासिया साइड का लोक-गीत का इस्तमाल किया था, और वह गाना था "चाँद सो गया, तारे सो गए, सो जा मेरे लाल, सारे सो गए" (सौजन्य: 'संगीत सरिता', विविध भारती)। इसके अलावा भी फ़िल्म 'रोटी' में अनिल दा नें एक और खासी लोक गीत को लेकर "स्वामी घरवा नीक लागे, ठीक लागे..." गीत कम्पोज़ किया था, जिसका मूल खासी गीत था "दुई नन्का लेम छोले, सादंग नन्का लेम छोले..."। इस तरह से अनिल बिस्वास ऐसे संगीतकार हुए जिन्होंने खासी लोक-संगीत का एकाधिक बार प्रयोग अपने गीतों में किया। किसी अन्य संगीतकार नें खासी लोक धुनों का प्रयोग किया है या नहीं, इस बात की पुष्टि नहीं हो पायी है। तो आइए आज सुनते हैं 'पुरवाई' शृंखला का पहला गीत मीना कपूर की आवाज़ में, फ़िल्म 'राही' से।



चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
बिहू लोक गीत से प्रेरित इस गीत के मुखड़े में ये दो शब्द है -"बन" और "कली"

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - सरोद के पर्याय हैं- उस्ताद अमजद अली खाँ



सुर संगम- 38 – उस्ताद अमजद अली खान साहब को जन्मदिवस (9 अक्तूबर) की हार्दिक शुभकामनाएँ


आज ‘सुर संगम’ के इस नये अंक में, आप सब संगीत-रसिकों का, कृष्णमोहन मिश्र की ओर से हार्दिक स्वागत है। आज देश के जाने-माने संगीतज्ञ और सरोद-वादक उस्ताद अमजद अली खाँ का जन्मदिन है। इस अवसर पर हम 'सुर-संगम' परिवार और देश-विदेश के करोड़ों संगीत-प्रेमियों की ओर से उस्ताद का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। वर्तमान में उस्ताद अमजद अली खाँ सरोद-वादकों में शिखर पर हैं और ‘सरोद-सम्राट’ की उपाधि से विभूषित हैं।

९ अक्तूबर, १९४५ को ग्वालियर में संगीत के सेनिया बंगश घराने की छठी पीढ़ी में जन्म लेने वाले अमजद अली खाँ को संगीत विरासत में प्राप्त हुआ था। इनके पिता उस्ताद हाफ़िज़ अली खाँ ग्वालियर राज-दरबार में प्रतिष्ठित संगीतज्ञ थे। इस घराने के संगीतज्ञों ने ही ईरान के लोकवाद्य ‘रबाब’ को भारतीय संगीत के अनुकूल परिवर्द्धित कर ‘सरोद’ नामकरण किया। अमजद अली अपने पिता हाफ़िज़ अली के सबसे छोटे पुत्र हैं। उस्ताद हाफ़िज़ अली खाँ ने परिवार के सबसे छोटे और सर्वप्रिय सन्तान को बहुत छोटी उम्र में ही संगीत-शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था। मात्र बारह वर्ष की आयु में एकल सरोद-वादन का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन किया था। एक छोटे से बालक की सरोद पर अनूठी लयकारी और तंत्रकारी सुन कर दिग्गज संगीतज्ञ दंग रह गए। उस्ताद अमजद अली खाँ और उनके सरोद पर चर्चा जारी रखेंगे। यहाँ थोड़ा रुक कर आइए उस्ताद के सरोद-वादन का आनन्द लेते हैं।

उस्ताद अमजद अली खाँ : राग – श्याम कल्याण : तीनताल मध्य लय


अमजद अली खाँ को बचपन में ही सरोद से ऐसा लगाव हुआ कि युवावस्था तक आते-आते एक श्रेष्ठ सरोद-वादक के रूप में पहचाने जाने लगे। उन्होने सरोद-वादन की शैली में विकास के लिए कई प्रयोग किये। उनका एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग यह है कि सरोद के तारों को उँगलियों के सिरे से बजाने के स्थान पर नाखून से बजाना। सितार की भाँति सरोद में स्वरों के पर्दे नहीं होते, इसीलिए जब उँगलियों के सिरे के स्थान पर नाखूनों से इसे बजाया जाता है तब स्वरों की स्पष्टता और मधुरता बढ़ जाती है।

उस्ताद अमजद अली खाँ ने अनेक नये रागों की रचना भी की है। ये नवसृजित राग हैं- किरण रंजिनी, हरिप्रिया कान्हड़ा, शिवांजलि, श्यामश्री, सुहाग भैरव, ललितध्वनि, अमीरी तोड़ी, जवाहर मंजरी, और बापू कौंस। वर्तमान में उस्ताद अमजद अली खाँ संगीत जगत के सर्वश्रेष्ठ सरोद-वादक हैं। उनके वादन में इकहरी तानें, गमक, खयाल की बढ़त का काम अत्यंत आकर्षक होता है। आइए, यहाँ थोड़ा रुक कर सरोद पर खाँ साहब का बजाया एक और मोहक राग- कामोद का आनन्द लेते हैं। यह प्रस्तुति चौदह मात्रा की चाँचर ताल में है। तबला संगति उस्ताद शफ़ात अहमद खाँ ने की थी।

उस्ताद अमजद अली खाँ : राग – कामोद : चाँचर ताल


युवावस्था में ही उस्ताद अमजद अली खाँ ने सरोद-वादन में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली थी। १९७१ में उन्होने द्वितीय एशियाई अन्तर्राष्ट्रीय संगीत-सम्मेलन में भाग लेकर ‘रोस्टम पुरस्कार’ प्राप्त किया था। यह सम्मेलन यूनेस्को की ओर से पेरिस में आयोजित किया गया था, जिसमें उन्होने ‘आकाशवाणी’ के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था। अमजद अली ने यह पुरस्कार मात्र २६ वर्ष की आयु में प्रपट किया था, जबकि इससे पूर्व १९६९ में यही ‘रोस्टम पुरस्कार’ उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ को शहनाई-वादन के लिए प्राप्त हो चुका था। १९६३ में मात्र १८ वर्ष की आयु में उन्होने पहली अमेरिका यात्रा की थी। इस यात्रा में पण्डित बिरजू महाराज के नृत्य-दल की प्रस्तुति के साथ अमजद अली खाँ का सरोद-वादन भी हुआ था। इस यात्रा का सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह था कि खाँ साहब के सरोद-वादन में पण्डित बिरजू महाराज ने तबला संगति की थी और खाँ साहब ने कथक संरचनाओं में सरोद की संगति की थी।

उस्ताद अमजद अली खाँ ने देश-विदेश के अनेक महत्त्वपूर्ण संगीत केन्द्रों में प्रदर्शन कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है। इनमें कुछ प्रमुख हैं- रायल अल्बर्ट हाल, रायल फेस्टिवल हाल, केनेडी सेंटर, हाउस ऑफ कामन्स, फ़्रंकफ़र्ट का मोजर्ट हाल, शिकागो सिंफनी सेंटर, आस्ट्रेलिया के सेंट जेम्स पैलेस और ओपेरा हाउस आदि। खाँ साहब अनेकानेक पुरस्कारों और सम्मानों से अलंकृत किये जा चुके हैं। इनमें कुछ प्रमुख सम्मान हैं- भारत सरकार द्वारा प्रदत्त ‘पद्मश्री’ और ‘पद्मभूषण’ सम्मान, संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार, तानसेन सम्मान, यूनेस्को पुरस्कार, यूनिसेफ का राष्ट्रीय राजदूत सम्मान आदि। वर्तमान में उस्ताद अमजद अली खाँ के दो पुत्र- अमान और अयान सहित देश-विदेश के अनेक शिष्य सरोद वादन की पताका फहरा रहे हैं। ‘हिंदयुग्म’ और ‘सुर संगम’ की ओर से आज उस्ताद अमजद अली खाँ को जन्म-दिन के अवसर पर शत-शत बधाई अर्पित करते हुए अपने पाठकों को सुनवाते हैं, उस्ताद अमजद अली खाँ द्वारा सरोद पर प्रस्तुत राग ‘भैरवी’ में एक दादरा।

उस्ताद अमजद अली खाँ : राग – भैरवी : दादरा ताल


अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक और शास्त्रीय अथवा लोक कलासाधक के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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