Saturday, August 22, 2009

कौन कहे इस ओर तू फिर आये न आये, मौसम बीता जाए... कैसे एक गीत समा गयी जीवन की तमाम सच्चाइयाँ



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 179

दोस्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुन रहे हैं शरद तैलंग जी के अनुरोध पर एक के बाद एक कुल पाँच गानें। तीन गानें हम सुन चुके हैं, आज है चौथे गीत की बारी। यह एक ऐसा गीत है जो जुड़ा हुआ है हमारी मिट्टी से। इस गीत को सुनते हुए मन कहीं सुदूर गाँव में पहुँच जाता है जहाँ पर सावन की पहली फुहार के आते ही किसान और उनके परिवार के सदस्य जी जान से लग जाते हैं बीज बुवाई के काम में। "धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के, मौसम बीता जाए"। फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' का यह गीत मन्ना डे, लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में है जिसे लिखा है शैलेन्द्र ने और संगीतकार हैं सलिल चौधरी ने। इसी फ़िल्म का एक और समूह गीत "हरियाला सावन ढोल बजाता आया" हमने अपनी कड़ी नं. ९१ में सुनवाया था, और उसके साथ साथ इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम जानकारियाँ भी हमने आप को दी थी, जिनका आज हम दोहराव नहीं करेंगे। सलिल दा की कुछ धुनें बहुत ही मीठी, नाज़ुक सी हुआ करती थी, कुछ धुनों में पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत की झलक मिलती थी, और उनके कुछ गानें ऐसे थे जिनमें झलकते थे क्रांतिकारी सुर, राष्ट्रवादी विचार धारा और सामाजिक उत्थान के कलरव। 'दो बीघा ज़मीन' के ये दोनों गानें इसी तीसरी श्रेणी में आते हैं।

"धरती कहे पुकार के" गीत में लता जी के अंश बहुत थोड़े से हैं, मुख्यतः मन्ना दा की ही आवाज़ गूँजती है। सलिल दा और मन्ना दा के आपसी रिश्ते के बारे में सलिल दा की सुपुत्री अंतरा चौधरी बताती हैं - "When Manna-da and my father got together, there was laughter in the air. They would just hit it off narrating hilarious stories, no wonder then my father thought that only Manna-da could sing with such enthusiasm all those socio-political songs he composed. His association with Manna Dey began from his very first Hindi film and continued into the late 70s." अब जब सलिल दा की बेटी का ज़िक्र हम ने किया तो आप को शायद ख़याल आया होगा सलिल दा के संगीत निर्देशन में मन्ना डे और अंतरा चौधरी के गाये फ़िल्म 'मिनू' के उस सुंदर गीत का "तेरी गलियों में हम आये", क्यों, है ना? दोस्तों, 'दो बीघा ज़मीन' के प्रस्तुत गीत में आगे चलकर एक पंक्ति आती है "अपनी कहानी छोड़ जा, ख़ुद तू निशानी छोड़ जा, कौन कहे इस ओर तू फिर आये न आये"। जब अमेरिका में पुराने फ़िल्म संगीत के शौकीन एक संस्था ने सन् २००५ की अपनी वार्षिक सम्मेलन को सलिल दा के नाम समर्पित करने का निर्णय लिया तो इसी पंक्ति से प्रेरीत होकर सम्मेलन का नाम रखा गया "अपनी कहानी छोड़ जा"। इतना ही नहीं, इसी गीत के मुखड़े के शुरूआती बोलों को लेकर सन् १९६९ में एक फ़िल्म भी बनी 'धरती कहे पुकार के', जिसका शीर्षक गीत भी कुछ हद तक इसी गीत से मिलता जुलता लिखा गया कि "धरती कहे पुकार के, ओ मुझको चाहने वाले किसलिए बैठा हार के, मेरा सब कुछ उसी का है जो छू ले मुझको प्यार से"। तो दोस्तों, अब बारी है गीत सुनने की, शरद तैलंग जी के इस पसंदीदा गीत को आइए हम सब मिल कर एन्जोय करते हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. महेंद्र कपूर हैं इस गीत के गायक.
२. एक वैवाहिक स्र्त्री के पर पुरुष से सम्बन्ध को लेकर बनी एक संवेदनशील फिल्म का है ये गीत.
३. एक अंतरा शुरू होता है "न" शब्द से.

पिछली पहेली का परिणाम -
रोहित जी बधाई. १४ अंक लेकर अब आप दिशा जी और पराग जी के बराबर आ गए हैं. टक्कर गजब की है भई. शरद जी आपकी पसंद के तो हम सब पहले ही कायल हैं.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

बूढ़ी काकी - प्रेमचंद



सुनो कहानी: मुंशी प्रेमचंद की "बूढी काकी"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में मुंशी प्रेमचन्द की कहानी "कातिल" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की मार्मिक कथा "बूढ़ी काकी", जिसको स्वर दिया है नीलम मिश्रा ने।
कहानी का कुल प्रसारण समय 12 मिनट 28 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)


स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष प्रस्तुति


(प्रेमचंद की "बूढ़ी काकी" से एक अंश)

बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। ख़ूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम होंगीं। रूपा ने भली-भाँति भोजन किया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैठूँ। पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और बात होती है।


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)







यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)


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#Thirty fifth Story, Jhanki: Munshi Premchand/Hindi Audio Book/2009/29. Voice: Neelam Mishra

Friday, August 21, 2009

तकदीर का फ़साना जाकर किसे सुनाएँ...संगीतकार रामलाल का यह गीत दिल चीर कर निकल जाता है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 179

भी परसों आप ने संगीतकार वी. बल्सारा का स्वरबद्ध किया हुआ फ़िल्म 'विद्यापति' का गीत सुना था। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल अक्सर सज उठती है ऐसे ही कुछ कमचर्चित संगीतकार और गीतकारों के अविस्मरणीय गीत संगीत से। वी. बल्सारा के बाद आज भी हम एक ऐसे ही कमचर्चित संगीतकार की संगीत रचना लेकर उपस्थित हुए हैं। रामलाल चौधरी। संगीतकार रामलाल का ज़िक्र हमने इस शृंखला में कम से कम दो बार किया है, एक, फ़िल्म 'नवरंग' के गीत के वक़्त, जिसमें उन्होने शहनाई बजायी थी, और दूसरी बार फ़िल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' के गीत में, जिसमें उनका संगीत था। उनके संगीत से सजी केवल दो ही फ़िल्मों ने सफलता की सुबह देखी, जिनमें से एक थी 'गीत गाया पत्थरों ने', और उनकी दूसरी मशहूर फ़िल्म थी 'सेहरा'। आज सुनिये इसी 'सेहरा' का एक बेहद मक़बूल गीत मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में - "तक़दीर का फ़साना जाकर किसे सुनायें, इस दिल में जल रही है अरमानों की चितायें". 'विद्यापति' और 'सेहरा' के इन दो गीतों में कम से कम तीन समानतायें हैं। पहला तो हम बता ही चुके हैं कि इनके संगीतकार बड़े ही कमचर्चित रहे हैं। दूसरा, इन दोनों गीतों में शहनाई का व्यापक इस्तेमाल हुआ है। और तीसरा ये दोनों गीत हम बजा रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के पहले विजेयता शरद तैलंग जी के अनुरोध पर। जी हाँ, शरद जी का ही भेजा हुआ यह गीत है और उनकी पसंद की दाद दिए बिना मैं नहीं रह सकता।

'सेहरा' सन्‍ १९६३ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था वी. शांताराम ने। कहानी और संवाद शम्स लखनवी के थे, जो कई फ़िल्मों में गीतकार के रूप में भी जाने गये। संध्या, प्रशांत, मुमताज़, उल्हास और ललिता पवार अभिनीत यह यादगार फ़िल्म अपने गीत संगीत की वजह से और भी ज़्यादा यादगार बन गया है। इस फ़िल्म में बाबुराव पेंढरकर और केशवराव दाते ने भी अभिनय किया था, जिनका परिचय शांताराम जी से उनके 'प्रभात स्टुडियोज़' के दिनों से था। गीतकार हसरत जयपुरी ने फ़िल्म के सभी गानें लिखे और बेशुमार तारिफ़ें बटोरीं। आज का प्रस्तुत गीत एक डबल वर्ज़न गीत है जिसे रफ़ी साहब और लता जी ने अलग अलग गाया है। इन दोनों गीतों का संगीत संयोजन एक दूसरे से बिल्कुल अलग है। आज हम सुनवा रहे हैं रफ़ी साहब वाला वर्ज़न। रफ़ी साहब ने प्रस्तुत गीत में जिस गायकी का परिचय दिया है, अपनी आवाज़ के ज़रिए जिस दर्द को उभारा है, इस गीत को सुनते हुए वो हमारे कलेजे को चीर कर रख देता है। "सासों में आज मेरे तूफ़ान उठ रहे हैं, शहनाइयों से कहदो कहीं और जाके गायें, मतवाले चाँद सूरज तेरा उठाये डोला, तुझको ख़ुशी की परियाँ घर तेरे लेके जायें, तुम तो रहो सलामत सेहरा तुम्हे मुबारक़, मेरा हर एक आँसू देने लगा दुवायें"। और रामलाल जी की क्या तारीफ़ करें, शहनाई में उनको महारथ तो हासिल थी ही, बस, फिर क्या था, शहनाई से बेहतर कौन सा साज़ होगा जो दर्द को संगीत के ज़रिए साकार कर सके। यह सोचकर दिल उदास हो जाता है कि ऐसे अनमोल गीतों के सर्जक को वो ख्याति नहीं मिली जिसके वो हक़दार थे। ऐसा लगा कि जैसे इस गीत के बोल उन्ही पर सच हो गये हों कि "तक़दीर का फ़साना जाकर किसे सुनायें"।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. यह गीत जिस वाक्य से शुरू होता है उस वाक्य से लिया गया था एक फिल्म का नाम जिसमें लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत था.
२. इस फिल्म एक गीत ओल्ड इस गोल्ड पर आ चुका है जिसमें सावन के आने का जिक्र था.
३. इस क्लासिक गीत को लिखा था शैलेन्द्र ने.

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह वाह मनु जी, ज़ोरदार तालियों के साथ ६ अंकों पर पहुचने की बधाई स्वीकार करें, पराग जी इस बार हिंट कुछ छुपे हुए थे, पर आखिरकार आपने गुत्ति सुलझा ही ली, पर बाज़ी मनु जी मार ले गए. आज एक महान शहनाई वादक की पुण्यतिथि है (देखिये बॉक्स). ऐसे में ओल्ड इस गोल्ड पर एक और महान शहनाई के उस्ताद को याद करना एक दिव्य संयोग ही है

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

आज जाने की जिद न करो......... महफ़िल-ए-गज़ल में एक बार फिर हाज़िर हैं फ़रीदा खानुम



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३८

१४अगस्त को गोकुल-अष्टमी और १८ अगस्त को गुलज़ार साहब के जन्मदिवस के कारण आज की महफ़िल-ए-गज़ल पूरे डेढ हफ़्ते बाद संभव हो पाई है। कोई बात नहीं, हमारी इस महफ़िल का उद्देश्य भी तो यही है कि किसी न किसी विध भूले जा रहे संगीत को बढावा मिले। हाँ तो, डेढ हफ़्ते के ब्रेक से पहले हमने दिशा जी की पसंद की दो गज़लें सुनी थीं। आप सबको शायद यह याद हो कि अब तक हमने शरद जी की फ़ेहरिश्त से दो गज़लों का हीं आनंद लिया है। तो आज बारी है शरद जी की पसंद की अंतिम नज़्म की। आज हम जिस फ़नकारा की नज़्म को लेकर हाज़िर हुए हैं, उनकी एक गज़ल हमने पहले भी सुनी हुई है। जनाब "अतर नफ़ीस" की लिखी "वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया" को हमने महफ़िल-ए-गज़ल की २६वीं कड़ी में पेश किया था। उस कड़ी में हमने इन फ़नकारा की आज की नज़्म का भी ज़िक्र किया था और कहा था कि यह उनकी सबसे मक़बूल कलाम है। इन फ़नकारा के बारे में अपने ब्लाग सुख़नसाज़ पर श्री संजय पटेल जी कहते हैं कि ग़ज़ल गायकी की जो जागीरदारी मोहतरमा फ़रीदा ख़ानम को मिली है वह शीरीं भी है और पुरकशिश भी. वे जब गा रही हों तो दिल-दिमाग़ मे एक ऐसी ख़ूशबू तारी हो जाती है कि लगता है इस ग़ज़ल को रिवाइंड कर कर के सुनिये या निकल पड़िये एक ऐसी यायावरी पर जहाँ आपको कोई पहचानता न हो और फ़रीदा आपा की आवाज़ आपको बार बार हाँट करती रहे. तो अब तक आप समझ हीं गए होंगे कि हम मोहतरमा "मुख्तार बेग़म" की छोटी बहन "मल्लिका-ए-गज़ल" फ़रीदा खानुम जी की बात कर रहे हैं। चलिए इनसे थोड़ा और मुखातिब होते हैं।

फ़रीदा खानुम जी को २००५ में जब "हाफ़िज़ अली खां अवार्ड" से नवाज़ा गया था तो उन्होंने हिन्दुस्तान में अपने प्रवास के बारे में कुछ ऐसे विचार व्यक्त किए थे: मुझे अपने संगीत-कैरियर में हिन्दुस्तान आने के न जाने कितने आफ़र और अवसर मिलते रहे हैं, लेकिन हर बार मै बस इसी कारण से इन अवसरों को नकारती रही क्योंकि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के संबंध अच्छे नहीं थे। चूँकि इन दिनों संबंधों में कुछ सुधार आता दिख रहा है पाकिस्तान सरकार भी इस बार थोड़ी सीरियस है, इसलिए हिन्दुस्तान आने का अंतत: मैने निर्णय कर लिया। पहली मर्तबा पाकिस्तान-हिन्दुस्तान फोरम की बदौलत तो दूसरी मर्तबा एक हिन्दुस्तानी संगठन एस०पी०आई०सी० के कारण मेरा हिन्दुस्तान आना हुआ। और अबकी बार हिन्दुस्तान ने मुझे क्लासिकल और सेमी-क्लासिकल संगीत के सर्वोच्च अवार्ड से सम्मानित किया है। यह सब देखकर मुझे महसूस होता है कि हिन्दुस्तान में मुझे चाहने वाले कम नहीं। सच हीं है, कोई भी फ़नकार नफ़रत नहीं चाहता और किसी भी फ़नकार का फ़न किसी भी सीमा में बँधकर नहीं रहता। तभी तो आज के नफ़रत भरे माहौल में फ़रीदा खानुम चाहकर भी गा नहीं पाती। हाल के दिनों में लिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था: इस माहौल में कौन गाना चाहेगा। मेरा तो दिल ही नहीं करता गाने को, जब दोनों मुल्कों में माहौल सुधरेगा तभी मैं गा सकूंगी। मैने पाकिस्तान में आखि़री बार स्टेज पर दो साल पहले कराची में गाया था और हिन्दुस्तान में करीब एक बरस पहले। पाकिस्तान में कला से जुड़ी सारी गतिविधियां ठप हो गई हैं। नेताओं को फ़न की फिक्र ही कहां है! फ़नकार मौसिक़ी से दूर होते जा रहे हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि पिछले दो साल में एक बार भी मेरा गाने का मन हुआ हो। जब तक मुहब्बत का माहौल नहीं हो तब तक सब कुछ बेमानी है। यदि यही हाल रहा तो पाकिस्तान में न तो फ़न बचेगा और न ही फ़नकार। मुझे हिन्दुस्तान में भी बहुत प्यार और इज्ज़त मिली। आज भी मैं नहीं भूल सकती कि मेरे कार्यक्रमों में किस क़दर भीड़ उमड़ती थी और कैसे लोग घंटों तक सुनते जाते थे। आखिरी बार तो मेरे कार्यक्रम में उस्ताद अमजद अली खान भी मौजूद थे। मेरी तो यही दुआ है कि अल्लाह रहमत करे और जल्दी माहौल ठीक हो। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के कलाकार मिलकर ही संगीत की साझी विरासत को बचा सकते हैं, नहीं तो सब खत्म हो जाएगा। शायद हीं ऐसा कभी हो, फिर भी हम दुआ तो कर हीं सकते हैं। आमीन!

उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और उस्ताद आशिक़ अली खान की शिष्या फ़रीदा खानुम के बाद हम रूख करते हैं आज के शायर की तरफ़। आज के शायर भी बाकी उन शायरों की तरह हैं जिनकी गज़ल या नज़्म हर किसी की जुबान पर है, लेकिन जिनका नाम शायद हीं कोई जानता हो। हिन्दुस्तान में आज की नज़्म को बहुतों ने आशा भोंसले की आवाज़ में सुना है जिसका संगीत खैय्याम साहब ने दिया था और यकीं मानिए हर किसी को यह नज़्म बस इन दोनों के कारण या फिर हमारी आज की फ़नकारा फ़रीदा खानुम के कारण याद है। लेकिन जिस शख्स ने इस नज़्म में अपने दिली जज़्बातों को पिरोया था उसे पूछने वाला कोई नहीं। १९६० की पाकिस्तानी फिल्म "सहेली" का उनका लिखा एक गाना "हम भूल गए हर बात मगर तेरा प्यार नहीं भूले" जिसे संगीत से सजाया था "ए हमीद" ने और आवाज़ दी थी "नसीम बेगम" ने, देखते-देखते हमारी एक फ़िल्म "सौतन की बेटी" में शामिल भी हो गया और स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ भी दे दी फिर भी हमने यह मालूम करने की कोशिश नहीं की कि यह गाना किसकी लेखनी की उपज है। अगर अभी तक आप उस शायर से अनभिज्ञ हैं तो लीजिए हम हीं बताए देते हैं। उस शायर का नाम है "फ़ैयाज़ हाशमी" जिसने "पैग़ाम", "औलाद", "सहेली", "सवेरा" ,"सवाल" ,"औलाद" और "तौबा" जैसी न जाने कितनी पाकिस्तानी फ़िल्मों में गीत लिखे थे। उनकी लिखी कुछ गज़लें जो उतना नाम न कर सकी, जितने की वो हक़दार थीं: "हमें कोई ग़म नहीं था ग़म-ए-आशिक़ी से पहले", "कम नहीं मेरी ज़िंदगी के लिए" , "ना तुम मेरे, ना दिल मेरा, ना जान-ए-नतावां मेरी", "टकरा हीं गई मेरी नज़र उनकी नज़र से" और "तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला नहीं सकती" । इन्हीं गज़लों में कहीं वह शेर भी शामिल है जिसमें उन्होंने दीवानों की हालत का ब्योरा दिया है। आप खुद हीं देखिए:

"फ़ैयाज़" अब आया है जुनूं जोश पे अपना,
हँसता है जमाना, मैं गुजरता हूँ जिधर से।


"आज जाने की जिद न करो"- शायद हीं कोई होगा जिसने इस नज़्म को न सुना हो। और अगर किसी ने न भी सुना हो तो हम किस लिए हैं। लीजिए पेश है वह नज़्म आपकी खिदमत में। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:

आज जाने की ज़िद न करो
यूँही पहलू में बैठे रहो
हाय, मर जायेंगे
हम तो लुट जायेंगे
ऐसी बातें किया न करो

तुम ही सोचो ज़रा, क्यों न रोकें तुम्हें?
जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम
तुमको अपनी क़सम जान-ए-जाँ
बात इतनी मेरी मान लो
आज जाने की...

वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर
चंद घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं
इनको खोकर कहीं, जान-ए-जाँ
उम्र भर न तरसते रहो
आज जाने की...

कितना मासूम रंगीन है ये समा
हुस्न और इश्क़ की आज में राज है
कल की किसको खबर जान-ए-जाँ
रोक लो आज की रात को
आज जाने की...




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

मुझे पिला रहे थे वो कि खुद ही शम्मा बुझ गयी,
___ गुम, शराब गुम, बड़ी हसीन रात थी....


आपके विकल्प हैं -
a) सुराही, b) पैमाना, c) जाम, d) गिलास

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "लुत्फ़" और शेर कुछ यूं था -

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह,
जी खुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े..

सही जवाब के साथ साथ शरद जी ने जो शेर सुनाया वो भी गजब का था -

अपनी बातों में असर पैदा कर तू समन्दर सा जिगर पैदा कर
जीस्त का लुत्फ़ जो लेना हो ’शरद’,एक बच्चे सी नज़र पैदा कर...

नीलम जी धन्येवाद आपके वापस आने का, आपके शेर कुछ यूं था -

लुत्फ़ कोई भी रहा अब है न जीने में मजा
जाने वाला दे गया जाते हुए ऐसी सजा

क्या नीलम जी, अब लुत्फ़ जैसे शब्द पर भी इतना उदासी भरा शेर :). मंजू जी ने फ़रमाया-

मुद्दतों के बाद मन के आंगन में लुत्फ़ के बादल छाए
संदेश पिया के आने का कजरारे बादल लाए...

अदा जी ने खूब कहा -

लुत्फ़ जो उसके इंतज़ार में है
वो कहाँ मौसम-ए-बहार में है..

कुलदीप जी ये शेर कैफी साहब का है..आपने हमेशा की तरह बहुत शानदार शेर याद दिलाये, खासकर ये -

ज़िन्दगी का लुत्फ़ हो उड़ती रहे हरदम 'रिआज़'
हम हों शीशे की परी हो घर परीखाना रहे

वाह...रचना जी मगर कुछ यूं उदास दिखी -

लुत्फ़ सूरज के निकलने का उठा रहे थे
चाँद को दर्द ढलने का बता रहे थे

चलिए तो आप सब भी जिंदगी के लुत्फ़ यूहीं उठाते रहें इस दुआ के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं और आपको छोड़ जाते हैं शमिख फ़राज़ जी के याद दिलाये फैज़ के इस शेर के साथ -

बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है
हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है...

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


Thursday, August 20, 2009

अब के बरस भेज भैया को बाबुल....एक अमर गीत एक अमर फिल्म से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 178

रद तैलंग जी के पसंद पर कल आप ने फ़िल्म 'विद्यापति' का गीत सुना था लता जी की आवाज़ में, आज सुनिए लता जी की बहन आशा जी की आवाज़ में फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग का एक और सुनहरा नग़मा। ससुराल में ज़िंदगी बिता रही हर लड़की के दिल की आवाज़ है यह गीत "अब के बरस भेज भ‍इया को बाबुल सावन में लीजो बुलाए रे, लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ, दीजो संदेसा भिजाए रे"। हमारे देश के कई हिस्सों में यह रिवाज है कि सावन के महीने में बहू अपने मायके जाती हैं, ख़ास कर शादी के बाद पहले सावन में। इसी परम्परा को इन ख़ूबसूरत शब्दों में ढाल कर गीतकार शैलेन्द्र ने इस गीत को फ़िल्म संगीत का एक अनमोल नगीना बना दिया है। इस गीत को सुनते हुए हर शादी-शुदा लड़की का दिल भर आता है, बाबुल की यादें, अपने बचपन की यादें एक बार फिर से तर-ओ-ताज़ा हो जाती हैं उनके मन में। देश की हर बहू अपना बचपन देख पाती हैं इस गीत में। फ़िल्म 'बंदिनी' का यह गीत फ़िल्माया गया था नूतन पर। 'बंदिनी' सन् १९६३ की एक नायिका प्रधान फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन किया था बिमल राय ने। जरासंध की मर्मस्पर्शी कहानी, नबेन्दु घोष की पटकथा, नूतन, अशोक कुमार और धर्मेन्द्र के सशक्त अभिनय, और सचिन देव बर्मन तथा शैलेन्द्र के असरदार गीत-संगीत ने इस फ़िल्म को आज कालजयी बना दिया है। 'बंदिनी' का शुमार आज 'क्लासिक्स' में होता है। 'बंदिनी' कहानी है कल्याणी (नूतन) की, उसके दुखों की, उसकी व्यथा की, उसके त्याग और समर्पण की। किस तरह से एक भारतीय नारी का दृढ़ संकल्प होते हुए भी ज़िंदगी के किसी न किसी मोड़ पर उसे दुर्बल होना ही पड़ता है, इसका इस कहानी में प्रमाण मिलता है। इस फ़िल्म ने उस साल कई फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार जीते, जैसे कि नूतन (सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री), बिमल राय (सर्वश्रेष्ठ निर्देशक), जरासंध (सर्वश्रेष्ठ कहानी), कमल बोस (सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़र), और डी. बिलिमोरिया (सर्वश्रेष्ठ ध्वनि)। यह फ़िल्म आप सभी ने देखी होगी, अगर किसी ने नहीं देख रखी है तो मेरा सुझाव है कि आज ही इसकी सीडी या टेप मँगवाकर इसे देखें क्योंकि हिंदी सिनेमा की एक बेहतरीन फ़िल्म है 'बंदिनी'।

जहाँ तक इस फ़िल्म के गीत संगीत का सवाल है, इस फ़िल्म का कोई भी गीत ऐसा नहीं जो प्रचलित न हुआ हो। सचिन दा और शैलेन्द्र की टीम तो थी ही, साथ ही नये उभरते गीतकार गुलज़ार ने भी एक गीत इस फ़िल्म में लिखा था "मोरा गोरा अंग ल‍इ ले"। लता जी की आवाज़ में इस गीत के अलावा एक दूसरा गीत था "जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे"। मुकेश की आवाज़ में "ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना", मन्ना डे की आवाज़ में "मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे", बर्मन दादा की आवाज़ में "मेरे साजन हैं उस पार", तथा आशा भोंसले की आवाज़ में "ओ पंछी प्यारे" और आज का यह प्रस्तुत गीत, ये सारे गानें आज सदाबहार नग़मों की फ़ेहरिस्त में दर्ज है। दोस्तों, अभी कुछ १०-१५ दिन पहले मैं विविध भारती पर ग़ैर फ़िल्मी गीतों का कार्यक्रम 'गुल्दस्ता' सुन रहा था। अचानक एक गीत बज उठा सुधा मल्होत्रा का गाया हुआ और संगीतकार का नाम बताया गया शिवराम कृष्ण। गीत कुछ ऐसा था "निम्बुआ तले डोला रख दे मुसाफ़िर, आयी सावन की बहार रे"। अब आप ज़रा इस लाइन को "अब के बरस भेज भ‍इया को बाबुल" की धुन पर गाने की कोशिश कीजिए ज़रा! जी हाँ, उस रात मैं भी चौंक गया था यह सुनकर कि इन दोनों गीतों की धुन हू-ब-हू एक है। मेरे दिल में हलचल होती रही कि कौन सा गीत पहले बना होगा, क्या एक संगीतकार दूसरे संगीतकार की धुन से प्रभावित होकर अपना गीत बनाए होंगे, वगैरह वगैरह। मेरी तफ़तीश अगले दिन समाप्त हुई जब मुझे पता चला कि यह असल में एक पारम्परिक लोक रचना है। यह एक कजरी है जिसे कई कई शास्त्रीय गायकों ने गाया है समय समय पर। सावन की ऋतु पर यह गीत गाँव गाँव में सुनने को मिलता है आज भी। और 'बंदिनी' के इस गीत में भी सावन का ही ज़िक्र है। तो दोस्तों, सावन का महीना भी चल रहा है, ऐसे में यह गीत बड़ा ही उपयुक्त बन पड़ा है हमारी इस महफ़िल के लिए। शरद जी को धन्यवाद देते हैं कि उन्होने इस गीत की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया। सुनिए और इसका आनंद उठाइए, और महिलायें इसे सुनकर अपने बचपन और बाबुल को याद करेंगीं ऐसा हमारा अनुमान है।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस गीत में शहनाई का बहुत व्यापक इस्तेमाल हुआ है.
२. गीतकार शम्स लखनवीं ने इस फिल्म की कहानी और संवाद लिखे थे.
३. एक अंतरा खत्म होता है इस शब्द पर -"दुवायें".

पिछली पहेली का परिणाम -
पूर्वी जी १० अंक कमाकर आप पराग जी, दिशा जी, और रोहित जी को जबरदस्त टक्कर दे रही हैं. बधाई. स्वप्न जी काश ऐसा हो पाता कि हम सब अपना श्रम लगाकर इस फिल्म का रीमेक बना पाते...आपकी पसंद कल्याणी के रोल के लिए श्रेष्ठ है. अन्य सभी श्रोताओं का भी आभार.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

प्यार में आता नहीं उसको गुंजाइशें करना- हुमैरा रहमान



सुनिए मशहूर ऊर्दू शायरा हुमैरा रहमान का साक्षात्कार

हम समय-समय पर कला, साहित्य और संस्कृति जगत की हस्तियों से आपको रूबरु करवाते रहते हैं। आज मिलिए प्रसिद्ध ऊर्दू शायरा हुमैरा रहमान से, जिनका नाम परवीन शाक़िर की परम्परा को आगे बढ़ाने के तौर पर भी लिया जाता है। हुमैरा रहमान जब दिल्ली में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय मुशायरा 'जश्न-ए-बहारा' में भाग लेने भारत आई थीं तो हमारे साथी निखिल आनंद गिरि ने उनसे मुलाक़ात की और इंटरनेट की दुनिया का परिचय दिया। हुमैरा ने पूरे एक घंटे तक कविता (ग़ज़ल), हिन्दुस्तान-पाकिस्तान-अमेरिका, रिश्ते, शिक्षा, राजनीति और अपनी पसंद-नापसंद, अपने बचपन पर खुलकर बात की। कुछ ग़ज़लें भी कहीं, कुछ सलाहें भी दी। सुनिए और बताइए कि आपको यह साक्षात्कार कैसा लगा?




हुमैरा रहमान

हुमैरा रहमान ऊर्दू शायरी का एक चर्चित नाम है और एक अंतर्राष्ट्रीय चेहरा है। हुमैरा की बचपन से ही साहित्य में रुचि थी। स्नातक की पढ़ाई करने के दरम्यान गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ मुल्तान (पाकिस्तान) के स्टूडेंट यूनियन की ये महासचिव रहीं। कॉलेज के दिनों से ही ये ग़ज़लपाठ, कार्यक्रम-प्रबंधन से जुड़ी रहीं। कॉलेज से पहले के दिनों में (1969-70) इन्होंने महिलाओं के लिए 'बज़्म-ए-हरीम-ए-फ़न' नामक साहित्यिक संस्था का गठन किया और इसकी महासचिव रहीं। आगे इनका जुड़ाव रेडियो पाकिस्तान, कराची (1971-76) से हुआ, जहाँ इन्होंने रेडियो उद्‍घोषक और ड्रामा कलाकार के तौर पर अपनी सेवाएँ दीं। हुमैरा का नाम पाकिस्तान की शुरू के तीन महिला उद्‍घोषकों में भी लिया जाता है। सन 1977 में ये बीबीसी, लंदन से जुड़ गयीं, जहाँ इन्होंने एनांउसर, स्क्रिप्ट लेखक के तौर पर काम किया (1988 तक)।

बाद में यह न्यूयॉर्क चली आयीं जहाँ 1990 में न्यूयॉर्क स्थित यॉन्कर्स पब्लिक लाइबरेरी में ये मॉडरेटर हो गईं और पाकिस्तान की सांस्कृतिक विरासत को दुनिया की नज़र करने के लिए अनेक प्रोग्रेम किये। 1999 में न्यूयॉर्क की एशिया सोशायटी के लिए भी मॉडरेटर का काम किया। 2000-2002 तक इन्होंने वेस्टचेस्टर मुस्लिम सेंटर, न्यूयॉर्क में ऊर्दू भाषा अध्यापन का काम किया। पिछले 1 साल से न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में ऊर्दू भाषा की संयुक्त प्रशिक्षक के तौर पर काम कर रही हैं।

दुनिया भर के लगभग सभी नामी मुशायरों में हुमैरा रहमान काव्यपाठ कर चुकी हैं। देश-विदेश के रेडियो और टीवी कार्यक्रमों में अपनी ग़ज़लों के हवाले से लोगों के दिलों में अपना विशेष स्थान बना चुकीं हुमैरा की तीन पुस्तकें 'ज़ख़्म ज़ख़्म उजाला'(संपादन), 'इंदेमाल', 'इंतेसाब' भी प्रकाशित हैं।

Wednesday, August 19, 2009

मोरे नैना सवान बादो...बहुत दुर्लभ मगर जादू भरा है फिल्म विद्यापति का ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 176

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आज आ ही गयी वह घड़ी जिसका आप सभी बड़े ही बेसबरी से इंतज़ार कर रहे थे। जी हाँ, 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के पहले विजेता शरद तैलंग जी के फ़रमाइशी गीतों को सुनने का इंतज़ार अब हुआ ख़त्म। शरद जी के पसंद के पाँच गानें हम सुनेंगे अगले पाँच दिनों में बिल्कुल बैक टू बैक। शरद जी ने हमें १० गानें लिख कर भेजे थे, जिनमें से पाँच गीतों को हम ने अपनी तरफ़ से चुन लिया है। हालाँकि उनके भेजे १० के १० गीत ही लाजवाब हैं और हर एक गीत इस सीरीज़ में शामिल होने का पूरा पूरा हक़ रखता है, लेकिन इन पाँच गीतों के दोनो तरफ़ दो ऐसी दीवारें हैं कि चाह कर भी लगातार १० गानें नहीं बजा सकते। तो दोस्तों, शरद जी के पसंद का पहला गाना जो आज हम ने चुना है वह एक बड़ा ही दुर्लभ गीत है लता मंगेशकर का गाया हुआ। दुर्लभ इसलिए कि यह फ़िल्म बहुत ज़्यादा मशहूर नहीं हुई और इसलिए भी कि इस गीत के संगीतकार बहुत कमचर्चित रहे हैं फ़िल्म संगीत निर्देशन के क्षेत्र में। सुनवा रहे हैं आप को १९६४ की फ़िल्म 'विद्यापति' से संगीतकार वी. बलसारा की संगीत रचना "मोरे नैना सावन भादों, तोरी रह रह याद सताये"। दोस्तों, शरद जी ने तो अपनी पसंद हमें बता दी, लेकिन अब मेरे सामने यह चुनौती आन पड़ी कि इस दुर्लभ गीत के बारे में जानकारी जुटायें तो जुटायें कैसे और कहाँ से। इंटरनेट मुझे कुछ ठोस बातें नहीं बता सकी। फिर अपनी लाइब्रेरी में पुराने पत्र-पत्रिकाओं में ग़ोते लगा कर जुलाई १९८७ में प्रकाशित 'लिस्नर्स बुलेटिन' नामक रेडियो पत्रिका के अंक नं. ६९ से मैने ढ़ूंढ निकाला ख़ुद वी. बल्सारा का ही लिखा एक लेख जिसमें उन्होने प्रस्तुत गीत से जुड़ी अपनी यादें उड़ेल कर रख दी थी। तो लीजिए पेश है बलसारा साहब के शब्द (सौजन्य: लिस्नर्स बुलेटिन)- "यह महज संयोग ही था कि "मोरे नैन सावन भादों" गीत के लिए रचित प्रथम धुन ही निर्देशक को पसंद आ गई; फ़िल्म 'विद्यापति' के निर्माता-निर्देशक-गीतकार तथा मेरे अभिन्न मित्र श्री प्रह्लाद शर्मा आर्थिक दृष्टि से अधिक सम्पन्न तो न थे, फिर भी उन्होने मुझ पर पूरी स्वतंत्रता दे रखी थी कि मैं ज़रूरत के मुताबिक जितने भी चाहूँ, उतने वादकों को फ़िल्म के गीत की संगीत रचना के लिए ले लूँ। फ़िल्म में काम करने के लिए बम्बई से भी कुछ कलाकारों को कलकत्ता आना पड़ा। व्यावसायिक दृष्टि से फ़िल्म को सफ़ल बनाने हेतु इसके गीतों के लिए प्रसिद्ध गायकों का चुनाव ज़रूरी था। अत: इस गीत के लिए जो पहला नाम हम लोगों के ज़हन में आया, वह कहना न होगा कि गायिका लता जी का ही था। लेकिन उनके एक गीत के लिए भी पारिश्रमिक बहुत ज़्यादा था। अगर इसका भी प्रबन्ध हो जाता तो भी हमें इस गीत को गवाने के लिए बम्बई जाना पड़ता। बम्बई के साज़ बजाने वाले के पारिश्रमिक का भुगतान हम लोगों के बस के बाहर की बात थी। लेकिन प्रह्लाद शर्मा जी किसी न किसी तरह अपना कार्य पूरा करने वाले इन्सानों में से थे। लता जी के मेरे साथ अत्यंत मधुर एवं आत्मीय संबंध हैं, इसकी जानकारी शर्मा जी को थी। शर्मा जी ने मुझे कहा कि मैं लता जी को ट्रंक काल करके यह कहूँ कि मैं 'विद्यापति' में संगीत दे रहा हूँ। क्या वे गीत गाने के लिए कलकत्ता आ सकेगी? मैं जानता था कि लता जी का उत्तर नकारात्मक होगा। फिर भी मैने कोशिश की। मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पाया जब फ़ोन पर लता जी ने तुरन्त ही कलकत्ता आने की हामी भर दी थी। गीत के लिए तिथि निर्धारित हुई, लता जी आईं, उन्होने गीत रिकार्ड कराया और वापस चली गईं। यह वह अवसर था जब लता जी सिर्फ़ गीत रिकार्ड करवाने के लिए बम्बई से कलकत्ता आईं थीं। गीत गाने के बाद लता जी उसकी धुन एवं परिणाम से इतनी संतुष्ट हुईं कि उन्होने कलकत्ता आने-जाने के हवाई जहाज़ के खर्च के सिवा गीत गायन के लिए एक पैसा भी नहीं लिया।"

१९८७ की उस लेख में वी बलसारा आगे लिखते हैं कि "लता मंगेशकर की सुरीली आवाज़ में गाए इस गीत की गूँजती हुई धुन में शहनाई का विशेष महत्व था जिसे सादिक़ ने बजाया था जो कि आज बम्बई में एक बेहतरीन वादक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। राग शिवरंजनी पर आधारित इस गीत की रिकॉर्डिंग उन्ही सुप्रसिद्ध रिकार्डिस्ट श्री श्याम सुंदर घोष ने की थी जिन्हे सहगल साहब के कई गीतों को रिकार्ड करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। गीत में गूँज पैदा करने के लिए रिकॉर्डिंग के समय ही प्रतिध्वनि का प्रभाव मशीन द्वारा पैदा किया गया था। इसी तरह फ़िल्म के कुछ अन्य गीत गाने के लिए रफ़ी साहब भी बेहिचक कलकत्ता आकर गीतों की रिकॉर्डिंग करवा गए थे। इन दोनों गायकों ने कलकत्ता आकर गीतों को गाकर रिकॉर्डिंग के इतिहास में नया उदाहरण प्रस्तुत किया था। हो सकता है कि मैने अन्य संगीतकारों की तरह अधिक ख्याति न पाई हो, लेकिन अत्यधिक स्नेह, प्यार और सम्मान पाने में मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ। कुछ ऐसे ही मधुर, अविस्मरणीय क्षणों की स्मृति मेरे लिए प्रसिद्धि से कहीं बढ़ कर है!" तो दोस्तों, 'विद्यापति' के प्रस्तुत गीत की विस्तृत जानकारी हमने आप को दी, शायद आप को अच्छी लगी होगी, अब आइए हम सब आनंद उठाते हैं शरद तैलंग जी के फ़रमाइश पर बज रहे आज के इस गीत का।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस फिल्म में अभिनेत्री का स्क्रीन नाम कल्याणी था.
२. शैलेन्द्र है गीतकार इस अमर गीत के.
३. मुखड़े में शब्द है- "सावन".

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह पराग जी आपने फिर एक बार बाज़ी मार ली है, एक मुश्किल सवाल का जवाब देकर. अब आप भी दिशा जी के बराबर यानी १४ अंकों पर आ गए हैं. बधाई.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, August 18, 2009

मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने...सपनों के सौदागर गुलज़ार साहब को जन्मदिन पर समर्पित एक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 175

"एक मूड, कुछ बोल, एक मीठी सी धुन, बस, इतनी सी जान होती है गाने की। हाँ, कुछ गानों की उम्र ज़रूर बहुत लम्बी होती है। गीत बूढ़े नहीं होते, उन पर झुर्रियाँ नहीं पड़ती, बस सुनने वाले बदल जाते हैं"। दोस्तों, क्या आप को पता है कि गीत की यह परिभाषा किन के शब्द हैं? ये हैं अल्फ़ाज़ उस अनूठे गीतकार, शायर, लेखक, और निर्देशक की जिनकी कलम से निकलते हैं ऐसे ग़ैर पारम्परिक उपमायें और रूपक जो सुनने वालों को हैरत में डाल देते हैं। कभी इन्होने बादल के पंखों में मोती जड़े हैं तो कभी सितारों को ज़मीन पर चलने को मजबूर कर दिया है, कभी सर से आसमान उड़ जाता है, और कभी जिगर की गरमी से बीड़ी जलाने की भी बात कह जाते हैं। यह उन्ही के गीतों में संभव है कि कभी छाँव छम से पानी में कूद जाए या फिर सुबह शाम से खेलने लगे। इस अनोखे और अनूठे शख़्स को हम सब गुलज़ार के नाम से जानते हैं। आज उनके जन्मदिवस पर हम उन्हे दे रहे हैं ढेरों शुभकामनायें एक लम्बी उम्र की, बेहतरीन स्वास्थ्य की, और इसी तरह से लगातार लिखते रहने की। गुलज़ार साहब का लिखा जो गीत आज हम चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'आनंद' का। दोस्तों, आप को याद होगा, हाल ही में हमने आप को इस फ़िल्म का एक गीत सुनवाया था जिसे गीतकार योगेश ने लिखा था। उस कड़ी में हम ने आप को इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें बतायी थी। आज इसी फ़िल्म से गुलज़ार साहब का लिखा, सलिल दा का स्वरबद्ध किया और मुकेश जी का गाया हुआ गीत सुनिए "मैने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, सपने सुरीले सपने".

फ़िल्म 'आनंद' की तमाम बातें तो आप जान ही गये थे उस कड़ी में, इसलिए आज हम यहाँ उनका दोहराव नहीं करेंगे, बल्कि आज गुलज़ार साहब की कुछ बातें कर ली जाए। क्या ख़याल है? गुलज़ार एक बहु-आयामी कलाकार हैं। एक उमदा शायर और सुरीले गीतकार होने के साथ साथ एक सफ़ल फ़िल्म निर्माता व निर्देशक भी हैं। एक लम्बे समय से इस फ़िल्म जगत में होने के बावजूद उनके अंदर एक गम्भीरता है जो उन्हे एक अलग ही शख्सियत बनाते हैं। गुलज़ार साहब लिखते हैं कि "दर्द का तानाबाना बुनने वाले ने एक जुलाहे से पूछा, ऐ जुलाहे, जब कोई धागा टूट गया या ख़तम हो गया, एक नए धागे से जोड़ दिया तुमने, और जब कपड़ा तैयार हो गया तो एक भी गांठ नज़र नहीं आया। मैने भी तो एक रिश्ता बुना था जुलाहे, पर हर गांठ उसमें साफ़ दिखती है।" यह तो था एक रंग, ज़िंदगी का एक पहलू, लेकिन प्रस्तुत गीत में गुलज़ार साहब ने इस दुनिया को जल्द ही अलविदा कहने जा रहे एक नौजवान की जो सात रंगों वाले सुरीले सपने की बात कही है, वह सचमुच अनोखा है, दिल को छू लेने वाला है। जिस तरह से उन्होने बड़ी आसानी से यह लिख दिया है कि "छोटी छोटी बातों की हैं यादें बड़ी", इस बात में कितनी गहराई है, कितनी सच्चाई है, यह बात कोई ख़ुद महसूस किए बग़ैर नहीं लिख सकता। कोई भी गीतकार या शायर तभी लोगों के दिलों में उतर सकता है जब उसने ख़ुद ज़िंदगी को बहुत करीब से देखा हो, जिया हो। ज़िंदगी के तरह तरह के अनुभव ही एक अच्छे लेखक को जन्म देता है। गुलज़ार ऐसे ही एक लेखक और शायर हैं। उनकी क्या तारीफ़ करें, आज 'डिस्कोथेक्स्‍' में नौजवान पीढ़ी उनके लिखे "बीड़ी जल‍इ ले" पर थिरक रहे हैं। एक वरिष्ठ शायर का इस तरह से नवीनतम पीढ़ी के दिलों तक उतर पाना और वह भी अपने लेखन के स्तर को गिराये बिना, यह अपने आप में एक मिसाल है। इस तरह के मिसाल बहुत कम ही दिखाई देते हैं। तो दोस्तों, गुलज़ार साहब को जन्मदिन की फिर एक बार शुभकामनायें देते हुए आइए सुनते हैं फ़िल्म 'आनंद' की वही कालजयी रचना।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस गीत के संगीतकार ने गायक महेन्द्र कपूर को पहली बार किसी फ़िल्म में गवाया था।
२. यह गीत उस फ़िल्म का है जिस शीर्षक से सन् १९३७ में कानन बाला और पहाडी सान्याल अभिनीत एक मशहूर फ़िल्म बनी थी न्यु थियटर्स के बैनर तले।
३. लता जी के गाए इस गीत में शहनाई साज़ का व्यापक इस्तेमाल हुआ है।

पिछली पहेली का परिणाम -
रोहित जी बधाई. आपके अंक हुए १२ और आप पराग जी के बराबर आ चुके हैं अब. HNM तो अब एक जाना माना अब्ब्रिविएशन बन चुका है :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

१० बेहद दुर्लभ गीत गुलज़ार साहब के, चुने हैं पंकज सुबीर ने




सम्‍पूरन सिंह कालरा नाम के इस शख्‍स का जन्‍म 18 अगस्‍त 1936 को दीना नाम की उस जगह में हुआ जो कि आजकल पाकिस्‍तान में है । ये शख्‍स जिसको कि आजकल हम गुलज़ार के नाम से जानते हैं । गुलज़ार जो कि अभी तक 20 फिल्‍मफेयर और 5 राष्‍ट्रीय पुरुस्‍कार अपने गीतों के लिये ले चुके हैं । साथ ही साहित्‍य अकादमी पुरुस्‍कार और जाने कितने सम्‍मान उनकी झोली में हैं । सिक्‍ख धर्म में जन्‍म लेने वाले गुलज़ार का गाने लिखने से पहले का अनुभव कार मैकेनिक के रूप में है। आज हम बात करेंगें उन्‍हीं गुलज़ार साहब के कुछ उन गीतों के बारे में जो या तो फिल्‍म नहीं चलने के कारण उतने नहीं सुने गये या फिर ऐसा हुआ कि उसी फिल्‍म का कोई गीत बहुत जियादह मकबूल हो गया और ये गीत बहुत अच्‍छा होने के बाद भी बरगद की छांव तले होकर रह गया । मैंने आज जो 10 गीत छांटे हैं वे सारे गीत लता मंगेशकर तथा गुलज़ार साहब की अद्भुत जुगलबंदी के गीत हैं ।

सबसे पहले हम बात करते हैं 1966 में आई फिल्‍म सन्‍नाटा के उस अनोखे प्रभाव वाले गीत की । गुलज़ार साहब के गीतों को सलिल चौधरी जी, हेमंत कुमार जी और पंचम दा के संगीत में जाकर जाने क्‍या हो जाता है । वे नशा पैदा करने लगते हैं । सन्‍नाटा में यूं तो लता जी के चार और हेमंत दा का एक गीत था । संगीत जाहिर सी बात है हेमंद दा का ही था । ये गीत लता जी और हेमंत दा दोनों ने गाया था लेकिन मुझे लता जी का गाया ये गीत बहुत पसंद है ।



जया भादुड़ी की किस्‍मत है कि उनको गुलज़ार जी के कुछ अच्‍छे गीत मिले । 1972 में आई नामालूम सी फिल्‍म दूसरी सीता में भी जया ही थीं और संगीत दिया था पंचम दा ने । ये गीत मुझे बहुत पसंद है इसमें एक विचित्र सी उदासी है और एक रूह में समा जाने वाली बेचैनी है जो लता जी ने अपने स्‍वर से पैदा की है । सुनिये गीत



1996 में आई फिल्‍म माचिस गुलजा़र साहब की बनाई हुई एक अनोखी फिल्‍म थी । विशाल भारद्वाज ने कुछ अनूठे गीत रचे थे । लोकप्रिय हुए छोड़ आए हम, चप्‍पा चप्‍पा और लता जी का ही पानी पानी । मगर मुझे लगता है कि फिल्‍म में लता जी के ही गाये हुए इस गीत को जितना सराहा जाना था इसे उतना सराहा नहीं गया । जंगल से जाती पगडंडियों पर देखो तो शायद पांव पड़े हों, जैसे शब्‍दों को फिल्‍म के अन्‍य गीतों की छांव में रह जाना पड़ा । मेरे विचार से ये माचिस का सर्वश्रेष्‍ठ गीत है ।



2001 में आई फिल्‍म लाल सलाम । उस समय गुलज़ार साहब, ह्रदयनाथ जी और लता जी की तिकड़ी ने लेकिन और माया मेमसाब जैसी फिल्‍में दी थीं । उसके बाद ही ये फिल्‍म आई । लोगों को याद है फिल्‍म का मितवा गीत क्‍योंकि वहीं प्रोमो में बजता था । फिल्‍म नहीं चली और गीत भी अनसुने रह गये । लता जी ने वैसे तो चार गीत गाये और चारों ही अनोखे थे । मगर मुझे पसंद है सबसे जियादह मराठी शब्‍दों से भरा ये गीत ।




1977 में आई फिल्‍म पलकों की छांव में याद है आपको, वही जिसमें डाकिया डाक लाया जैसा मशहूर गीत था । लक्ष्‍मीकांत प्‍यारेलाल की जोड़ी और गुलज़ार साहब की जुगलबंदी ने फिल्‍म यूं तो अल्‍ला मेघ दे जैसा गीत भी रचा था लेकिन मुझे तो जाने क्‍यों पसंद आता है ये गीत जिसमें है रातों के सन्‍नाटों की सरसराती हुई आवाज़ें । सुनिये वहां जहां एक बार ठहर कर फिर गीत प्रारंभ होता है ।



1972 में आई फिल्‍म अनोखा दान में सलिल चौधरी और गुलजार साहब की जादुई जोड़ी ने एक ही गीत बनाया था । दरअसल में गुलजार साहब ने फिल्‍म का एक ही गीत लिखा था बाकी नहीं । गीत एक था मगर हजारों पर भारी था । ये आनंद का गीत है । ये प्रेम का गीत है । ये जवानी का गीत है । सुनिये और आनंद लीजिये लता जी की आवाज़ का ।



1986 में आई फिल्‍म गुलामी आपको याद होगी अमीर खुसरो और गुलज़ार साहब के संकर गीत जिहाले मस्‍कीं के कारण, जिसके बोल भले ही समझ में नहीं आते थे पर फिर भी इसे खूब पसंद किया गया । लक्ष्‍मी कांत प्‍यारे लाल जी ने फिल्‍म के तीनों गीत खूब बनाये थे । मुझे पसंद है लता जी का ये गीत जो तीन बार होता है और बहुत अच्‍छा होने के बाद भी जिहाले मस्‍कीं की आंधी में दब कर रह गया ।



1968 में आई राहगीर हेमंत दा के संगीत और गुलजार साहब के गीतों से सजी हुई थी । आपको तो याद होगी जनम से बंजारा हूं बंधू की जिसे हेमंत दा ने जिस हांटिंग अंदाज में गाया है उसे सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं । मगर क्‍या करें हमें तो आज उन गीतों की बात करनी है जो कम सुने गये । ये गीत तो विशेष अनुरोध करता हूं की जरूर सुनें और बार बार सुनें ये उसी योग्‍य है




1988 इस फिल्‍म के तो सारे ही गीतों के साथ अन्‍याय हुआ । सजीव जी ने तो मुझसे यहां तक पूछा कि पंकज जी लिबास फिल्‍म रिलीज हुई थी या नहीं । क्‍या अनोखे गीत । लता जी के चार गीत और चारों एक से बढ़कर एक । सब सुनने योग्‍य मगर मुझे यही जियादह पसंद आता है । अलग तरीके का ये गीत भीड़ में भी अलग ही दिखाई देता है ।



और अंत में 1971 में आई गुलज़ार साहब की ही फिल्‍म मेरे अपने जिसका संगीत सलिल दा ने दिया था । और आपको एक ही गाना याद होगा कोई होता जिसको अपना हम अपना कह लेते यारों । यदि ये सच है तो आपने गुलजार साहब का सबसे अनोखा गीत नहीं सुना है । ये गीत कई बार सुनिये । सुनिये सलिल दा के हांटिंग संगीत को, सुनिये गुलज़ार साहब के अनोखे शब्‍दों को और सुनिये लता जी की आवाज़ को एक बिल्‍कुल नये रूप में । इस गीत के लिये भी कहूंगा कि कई कई बारे सुनें । और मुझे इजाज़त दें । जैराम जी की ।




प्रस्तुति - पंकज सुबीर

हमें यकीन है है कि पंकज जी के चुने इन १० दुर्लभ गीतों की ये पोस्ट आपके लिए एक संग्रहण की वस्तु बन चुकी होंगी. आज गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर ये था आवाज़ का ख़ास तोहफा ख़ास आपके लिए. इन दस गीतों में से एक या दो गीत जरूर ऐसे होंगें जिन्हें आज आपने पहली बार सुना होगा. हमें बताईये कौन से हैं वो गीत जो आज आपने पंकज जी की इस पोस्ट में पहली बार सुनें.

Monday, August 17, 2009

मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती...गुलशन बावरा ने लिखा इस असाधारण गीत से इतिहास



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 174

र आज है तिरंगे के तीसरे रंग, यानी कि हरे रंग की बारी। हरा रंग है संपन्नता का, ख़ुशहाली का। "ख़ुशहाली का राज है, सर पे तिरंगा ताज है, ये आज का भारत है ओ साथी आज का भारत है"। जी हाँ दोस्तों, इस बात में कोई शक़ नहीं कि देश प्रगति के पथ पर क्रमश: अग्रसर होता जा रहा है। हरित क्रांति से देश में खाद्यान्न की समस्या बड़े हद तक समाप्त हुई है। लेकिन अब भी देश की आबादी का एक ऐसा हिस्सा भी है जिसे दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं। इस तिरंगे का हरा रंग उस दिन सार्थक होगा जिस दिन देश में कोई भी आदमी भूखा न होगा। आज तिरंगे के हरे रंग को सलामी देते हुए हमने जिस गीत को चुना है उस गीत से बेहतर शायद ही कोई और गीत होगा इस मौके के लिए। फ़िल्म 'उपकार' का सदाबहार देश भक्ति गीत "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती" आप ने हज़ारों बार सुना होगा, आज भी सुनिए, रोज़ सुनिए, क्योंकि इस तरह के गीत रोज़ रोज़ नहीं बनते। यह एक ऐसा देश भक्ति गीत है जिसने एक इतिहास रचा है। शायद ही कोई स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का पर्व होगा जो इस गाने के बग़ैर मनाया गया होगा! इस गीत में भारत के एक साधारण गाँव की दैनन्दिन जीवन शैली, किसानों की दिन चर्या को दर्शाया गया है, लेकिन देश भक्ति के रंग में ढाल कर। मनोज कुमार देश भक्ति फ़िल्मों के बादशाह माने जाते हैं। उनका नाम भारत कुमार भी पड़ गया था। फ़िल्म 'शहीद' के बाद 'उपकार', 'पूरब और पश्चिम', और 'क्रांति' जैसी कई कामयाब देश भक्ति फ़िल्मों का उन्होने निर्माण किया। फ़िल्म 'उपकार' के इस गीत को सुनते हुए हमारा दिल इस बात पर गर्व अनुभव करता है कि हम ने इस देश की मिट्टी में जन्म लिया।

फ़िल्म 'उपकार' की बाक़ी बातें हम फिर किसी दिन करेंगे, आज सिर्फ़ इस गीत के बारे में कहने को जी चाह रहा है। इस फ़िल्म में कई गीतकार थे जैसे कि क़मर जलालाबादी, इंदीवर और गुलशन बावरा। प्रस्तुत गीत गुल्शन बावरा का लिखा हुआ है और शायद यह उनके फ़िल्मी सफ़र का सब से ख़ास गीत रहा होगा। गायक महेंद्र कपूर साहब को तो थी ही महारथ हासिल देश भक्ति के गानें गाने की। और संगीतकार कल्यानजी-आनंदजी ने क्या संगीत संयोजन किया है इस गीत में, कमाल है! किसी गाँव का एक पूरा दिन हमारी आँखों के सामने ला खड़ा कर दिया है सिर्फ़ संगीत और ध्वनियों की सहायता से। इस संगीतकार जोड़ी की जितनी तारीफ़ की जाये इस गीत के लिए, कम ही होगी! तभी तो जब आनंदजी विविध भारती पर पधारे थे तो 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में उनसे इस गीत से संबंधित विस्तृत जानकारी ली गयी थी, जो आज हम ख़ास आप के लिए यहाँ पर प्रस्तुत कर रहे हैं।

प्र: आप की फ़िल्म 'उपकार', जो 'हिट', बड़ी 'सुपर डुपर हिट' रही, उसमें एक गाना है "मेरे देश की धरती सोना उगले", उसमें भी बहुत सारे 'साउंड एफ़ेक्ट्स' हैं।

क्या है कि मनोज जी की यह पहली पिक्चर थी। उनका काम हम ने देखा हुआ नहीं था, नहीं तो हम लोग क्या करते हैं कि पहले हम 'डिरेक्टर' का, उसका 'ऐंगल' क्या है, उसकी 'टेकिंग्‍' क्या है, हर 'डिरेक्टर' की एक 'ऐंगल' होती है, इस तरह से इनका कोई काम देखने को नहीं मिला था। 'हिमालय की गोद में' में उनके साथ काम किया था लेकिन ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला था कि इनका ये है, ऐसा है। तो वो सेठ जी बुलाते थे हम लोगों को। 'सेठ जी, मैं गाँव का आदमी हूँ और सुबह से शाम तक मुझे ये चाहिए कि एक गाने में सब कुछ आ जाए'। हमने कहा, 'सुबह से शाम, मतलब? समझे नहीं कि क्या चाहिए'। बोले कि 'गाँव में मैं किसान आदमी हूँ, शाम तक खेती में जो काम होता है, उसमें सब कुछ चाहता हूँ और यह वतन की बात है, देश की धरती की बात है'। तो बोले कि 'ठीक है, गाँव में तो आप भी रहे हैं, जो हम देंगे वो कर के लायेंगे क्या आप?' एक दूसरे की छेड़-खानी हम लोग आपस में बहुत करते थे। कोई बुरा नहीं मानता था, एक दूसरे के काम से लिए हम ऐसा बोलते थे। वह गाना जो हुआ, उसमें हम ने सारे 'एफ़ेक्ट्स' डाले। पंछियों की चहचहाहट, फिर वह लहट का चलना, बैलों का चलना, फिर ये, वो, सब कुछ, और ये करने के बाद, काफ़ी 'टाइम' लगा इसमें, क्योंकि 'एफ़ेक्ट्स' में काफ़ी 'टाइम' लग जाता है।

प्र: कितने घंटे लगे थे इस गाने को रिकार्ड करने में?

इस गाने में 'पार्ट्स' भी थे, तो इस गाने को सवेरे से 'स्टार्ट' किए थे, कुछ १६-१८ घंटे लगे होंगे, only in recording, उससे पहले 'रिहर्सल' होता रहा।


प्र: लेकिन 'फ़ाइनल प्रोडक्ट' जो मिला आप को...

क्योंकि सब कुछ चाहिए था उसमें। कोरस में गानेवाले भी चाहिए, बैल की आवाज़ भी चाहिए, लहट की भी आवाज़ आनी चाहिए, उसी 'टाइम' पे 'सिंगर' की भी आवाज़ आनी चाहिए, महेंद्र कपूर जी की आवाज़ थी बड़ी मज़बूत, वो टिके रहे 'लास्ट' तक। इस गाने की रिकार्डिंग्‍ से पहले एक बात बनी थी कि "इस देश की धरती" कि "मेरे देश की धरती"? ये सब छोटी छोटी बातें हैं, पहले यह लिखा गया था कि "इस देश की धरती सोना उगले"। बोले कि एक तो "उगले" शब्द लोग समझेंगे नही, वो बोले कि 'नहीं, यहाँ तो समझते हैं, आप के वहाँ नहीं समझते होंगे'। 'ठीक है, लेकिन "इस देश की धरती" में 'फ़ीलिंग्स्‍' नहीं आती है, "मेरे" में ज़्यादा अपनापन का अहसास होता है'। तो इस पर बहस चल रही थी कि "इस" रखें कि "मेरे" रखें। 'सिटिंग्‍' चलती रही कि "इस" रखें कि "मेरे" रखें, "मेरे" रखें कि "इस" रखें। युं करते करते आख़िर में "मेरे देश की धरती", और इस गाने ने...

प्र: इतिहास रच दिया!

इतिहास रच दिया!!!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. कल का एपिसोड समर्पित होगा गीतकार गुलज़ार को.
2. सलिल चौधरी है संगीतकार.
3. मुखड़े में एक से नौ के बीच के एक अंक का जिक्र है.

पिछली पहेली का परिणाम -
दिशा जी अब एक बार फिर आप नंबर १ हो गयी हैं, १४ अंकों के लिए बधाई. वाकई इतने आसान गीत को तो यूं झट से पहचान लिया जाना चाहिए थे...खैर हम ये मान के चलें कि हर कोई शरद जी या स्वप्न जी जैसा धुरंधर नहीं हो सकता :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

शहर अमरुद का है ये, शहर है इलाहाबाद.....पियूष मिश्रा ने एक बार फिर साबित किया अपना हुनर



ताजा सुर ताल (15)

ताजा सुर ताल का नया अंक लेकर उपस्थित हूँ मैं सुजॉय और मेरे साथ है सजीव.

सजीव - नमस्कार दोस्तों..सुजॉय लगता है आज कुछ ख़ास लेकर आये हैं आप हमारे श्रोताओं के लिए.

सुजॉय - हाँ ख़ास इस लिहाज से कि आज हम मुख्य गीत के साथ-साथ श्रोताओं को दो अन्य गीत भी सुनवायेंगें उसी फिल्म से जिसका का मूल गीत है.

सजीव - कई बार ऐसा होता है कि किसी अच्छे विषय पर खराब फिल्म बन जाती है और उस फिल्म का सन्देश अधिकतम लोगों नहीं पहुँच पाता....इसी तरह की फिल्मों की सूची में एक नाम और जुडा है हाल ही में...फिल्म "चल चलें" का.

सुजॉय - दरअसल आज के समय में बच्चे भी अभिभावकों के लिए स्टेटस का प्रतीक बन कर रह गए हैं. वो अपने सपने अपनी इच्छाएँ उन पर लादने की कोशिश करते हैं जिसके चलते बच्चों में कुंठा पैदा होती है और कुछ बच्चे तो जिन्दगी से मुँह मोड़ने तक की भी सोच लेते हैं. यही है विषय इस फिल्म का भी...

सजीव - फिल्म बेशक बहुत प्रभावी न बन पायी हो, पर एक बात अच्छी है कि निर्माता निर्देशक ने फिल्म के संगीत-पक्ष को पियूष मिश्र जैसे गीतकार और इल्लाया राजा जैसे संगीतकार को सौंपा. फिल्म को लोग भूल भी जाएँ पर फिल्म का थीम संगीत के सहारे अधिक दिनों तक जिन्दा रहेगा इसमें कोई शक नहीं....हालाँकि पियूष भाई ने कोई कसर नहीं छोडी है पर इल्लाया राजा ने अपने संगीत से निराश ही किया है....

सुजॉय- हाँ सजीव, मुझे भी संगीत में उनके इस बार कोई नयापन नहीं मिला....श्रोताओं ये वही संगीतकार हैं जिन्होंने मेरा एक सबसे पसंदीदा गीत बनाया है. आज एक लम्बे अरसे के बाद संगीतकार इलय्या राजा का ख़याल आते ही मुझे 'सदमा' फ़िल्म का वह गीत याद आ रहा है "ऐ ज़िंदगी गले लगा ले"। आज भी इस गीत को सुनता हूँ तो एक नयी उर्जा तन मन में जैसे आ जाती है ज़िंदगी को और अच्छे तरीके से जीने के लिए। जहाँ तक मेरे स्मरण शक्ति का सवाल है, मुझे याद है 'सदमा', 'हे राम', 'लज्जा', 'अंजली', 'अप्पु राजा', 'महादेव', 'चीनी कम', जैसी फ़िल्मों में उनका संगीत था।

सजीव - 2 जून 1953 को तमिल नाडु के पन्नईपूरम (मदुरई के पास) में इलय्याराजा का जन्म हुआ था पिता रामास्वामी और माता चिन्नथयी के घर संसार में। उनका असली नाम था ज्ञानदेसीकन, और उन्हे बचपन में प्यार से घर में रसय्या कह कर सब बुलाते थे। बाद में उन्होने अपने नाम में 'राजा' का प्रयोग शुरु किया जो उनके गुरु धनराज मास्टर ने रखा था। इन्हीं के पास उन्होंने अलग-अलग साज़ों की शिक्षा पायी थी। और आख़िरकार उनका नाम इलय्याराजा तमिल फ़िल्मों के निर्देशक पंजु अरुणाचलम ने रखा। पिता के मौत के बाद उनकी माताजी ने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा किया। 1968 में फ़िल्मों के प्रति उनका लगाव उन्हें मद्रास खींच ले आया सगीत में कुछ कर दिखाने का ख़्वाब लिए हुए। इन्हीं दिनों वो प्रयोगधर्मी संगीत की रचना किया करते थे और 'पवलर ब्रदर्स' के नाम से एक और्केस्ट्रा को भी संगठित किया। इस टोली को लेकर उन्होंने कई जगहों पर शोज़ किए जैसे कि स्टेज पर, चर्च में, इत्यादि। फिर वो संस्पर्श में आये संगीतकार वेंकटेश के, जिनके वो सहायक बने।

सुजॉय - बिना किसी विधिवत शिक्षा के इलय्याराजा ने जो मुकाम हासिल किया है, वो सही मायने में एक जिनीयस हैं। उन्हे ट्रिनिटी कालेज औफ़ लंदन ने क्लासिकल गीटार में स्वर्णपदक से सम्मानित किया था। इलय्याराजा ने अपने भाई की याद में 'पवलर प्रोडक्शन्स' के बैनर तले कुछ फ़िल्मों का भी निर्माण किया था। उनके इस भाई का उस समय निधन हो गया था जब उनका परिवार चरम गरीबी से गुज़र रही थी। इलय्याराजा का तमिल फ़िल्म जगत मे पदार्पण हुआ था सन् 1976 में जब उन्हे मौका मिला था फ़िल्म 'अन्नाकिलि' में संगीत देने का। फ़िल्म कामयाब रही और संगीत भी ख़ासा पसंद किया गया क्योंकि उसमें एक नयापन जो था। मुख्य संगीत और पार्श्वसंगीत मिलाकर उन्होंने कुल 750 फ़िल्मों में काम किया है। उन्हें 1998 का लता मंगेशकर पुरस्कार दिया गया था। 'चल चलें' उनके संगीत से सजी लेटेस्ट फ़िल्म है। पीयूष मिश्रा ने इस फ़िल्म में गानें लिखे हैं। गीतों में आवाज़ें हैं शान, कविता कृष्णामूर्ती, हरिहरण, साधना सरगम, सुनिधि चौहान, आदित्य नारायण और कृष्णा की।

सजीव - अच्छा सुजॉय, ये बताओ दिल्ली और मुंबई के अलावा किसी और शहर पर बना कोई गीत तुम्हें याद आया है.

सुजॉय - हूँ ....एक गीत है फिल्म चौदहवीं का चाँद में "ये लखनऊ की सरजमीं...", "झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में" गीत है और एक गीत है जिसमें बीकानेर शहर का जिक्र है फिल्म राजा और रंक में "मेरा नाम है चमेली...". याद आया आपको ?

सजीव - हाँ बिलकुल पर यदि बड़े शहरों को छोड़ दिया जाए तो ऐसे गीत लगभग न के बराबर हैं जो छोटे शहरों पर आधारित हो. मतलब जिसमें उस शहर से जुडी तमाम बातों का जिक्र हो ...

सुजॉय - हाँ तभी तो हमें आज इस गीत को चुना है जिसमें खूब तारीफ है "संगम" के शहर इलाहाबाद की."शहर है ख़ूब क्या है ये, शहर अमरूद का है ये, शहर है इलाहाबाद"। गंगा, जमुना, सरस्वती के संगम का ज़िक्र, हरिवंशराय और अमिताभ बच्चन के ज़िक्र, और तमाम ख़ूबियों की बात कही गयी है इलाहाबाद के बारे में। गीत पेपी नंबर है, जिसे शान, श्रेया घोषाल और कृष्णा ने मस्ती भरे अंदाज़ में गाया है।

सजीव - पियूष मिश्रा ने बहुत सुंदर लिखे हैं बोल. संगीत साधारण है....जिस कारण लोग जल्दी ही इस गीत को भूल जायेंगें. पर इलाहाबाद शहर के चाहने वाले तो इस गीत को सर आँखों पे बिठायेंगे ही. कुल मिलाकार गीत मधुर है. आपकी राय सुजॉय ?

सुजॉय - मुझे ऐसा लगा है कि आज फ़िल्म संगीत जिस दौर से गुज़र रही है, जिस तरह के गीत बन रहे हैं, उसमें इस फ़िल्म के गीत थोड़े से अलग सुनाई देते हैं। मिठास भी है और आज की पीढ़ी को आकर्षित करने का सामान भी है। लेकिन अगर आप मेरी व्यक्तिगत राय लेंगे तो अब भी इलय्याराजा के स्वरबद्ध किए 'सदमा' के गीतों को ही नंबर एक पर रखूँगा।

सजीव - बिलकुल....तभी तो आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 3 अंक 5 में से, अब हमारे सुधि श्रोता बताएं कि उनकी राय क्या है. गीत के बोल इस प्रकार हैं -

शहर हाय खूब क्या है ये,
शहर अमरूद का है,
शहर है इलाहाबाद...
हाँ यही रहे थे,
हरिबंश हमारे,
क्या खूब निराला, वाह अश्क दुलारे,
कभी तो गंगा को चूम ले,
कभी तो जमुना को चूम ले,
सरस्वती आके झूम ले, अरे वाह
वाह वाह वाह...

ये तो अमिताभ का,
चटपटी चाट का,
साथ में कलम दवात और किताब का,
चुटकुले है यहाँ,
फिर भी गंभीर है,
है मज़ा यही तो यहाँ ये संग साथ का...
वो है एल्फ्रेड पार्क, जो है इतना पाक,
कि लड़ते लड़ते यहीं मरे आज़ाद...
ये तो इलाहाबाद है,
इसकी क्या ही बात है,
ये तमाम शहरों का ताज मेरी जान...

संगम की नाद से देता कोई तान है,
वो देखो सामने आनंद भवन में शाम है,
पंडित नेहरु हो कि यहाँ लाल बहादुर शास्त्री,
हिंदुस्तान के तख्त के जन्मे हैं राजा यहीं,
रस के जनों का ठौर है ये,
महादेवी का मान है ये,
नेतराम का चौराहा,
आज भी इसकी शान है ये,
अलबेला ये फुर्तीला मगर रुक-रुक के चलता है,
महंगा है न खर्चीला,
तनिक थोडा अलग सा शहर है ये....




सजीव - सुजॉय जैसा कि हमें वादा किया था कि आज हम इस फिल्म के दो गीत श्रोताओं को और सुन्वायेंगें. उसका कारण ये है कि इस फिल्म का मूल थीम है जिसका हमने ऊपर जिक्र किया है को बहुत अच्छे तरीके से उभारता है. पियूष मिश्रा के उत्कृष्ट बोलों के लिए इन गीतों को सुनना ही चाहिए. तो श्रोताओं सुनिए ये दो गीत भी -

बतला दे कोई तो हमें बतला दे



चल चलें (शीर्षक)



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 3 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. कैलाश खेर ने मधुर भंडारकर की किस फिल्म में गायन और अभिनय किया है....और वो गीत कौन सा है ? बताईये और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.

पिछले सवाल का जवाब तो अब तक आपको मिल ही चुका होगा...पर अफ़सोस हमारे श्रोता कोई इसे नहीं बूझ पाए, चलिए इस बार के लिए शुभकामनाएँ.


अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Sunday, August 16, 2009

छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी....जय विज्ञान है युवा हिन्दुस्तान का नया नारा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 173

स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष पर तिरंगे के तीन रगों से रंगे तीन गानें आप इन दिनों सुन रहे हैं बैक टू बैक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल पर। कल गेरुआ रंग यानी कि वीर रस पर आधारित गीत आप ने सुना, आज का रंग है सफ़ेद, यानी कि शांति, अमन, भाईचारे और प्रगति की बातें। दोस्तों, जब देश भक्ति गीतों की बात आती है तो हम ने अक्सर यह देखा है कि गीतकार ज़्यादातर हमारे इतिहास में से चुन चुन कर देश भक्ति के उदाहरण खोज लाते हैं और हमारे देश की गौरव गाथा का बखान करते हैं। बहुत कम ही गीत ऐसे हैं जिनमें देश के नवनिर्माण, प्रगति और देश के भविष्य के विकास की ओर झाँका गया हो। जैसा कि हमने कहा कि हमारा आज का रंग है सफ़ेद, यानी कि शांति का। और देश में शांत वातावरण तब ही पैदा हो सकते हैं जब हर एक देशवासी को दो वक़्त की रोटी नसीब हो, पहनने के लिए कपड़े नसीब हो, घर नसीब हो। इन सब का सीधा ताल्लुख़ देश के विकास और प्रगति पर निर्भर करता है। ऐसे ही विचारों को गीत के शक्ल में पिरोया है गीतकार प्रेम धवन ने फ़िल्म 'हम हिंदुस्तानी' के उस मशहूर गीत में जिसे आज हम आप के लिए लेकर आये हैं। मुकेश और साथियों की आवाज़ों में और उषा खन्ना के संगीत निर्देशन में वह गीत है "छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नए दौर में लिखेंगे मिलकर नयी कहानी, हम हिंदुस्तानी"। इस गीत में धवन जी ने साफ़ शब्दों में कहा है कि पुरानी बातों पर ज़्यादा ध्यान न देकर मेहनत को ही अपना इमान बनायें।

एस. मुखर्जी निर्मित व राम मुखर्जी निर्देशित १९६० की इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सुनिल दत्त, जय मुखर्जी और आशा पारेख। फ़िल्म में उषा खन्ना का संगीत कामयाब रहा। अब आ जाइए गीतकार प्रेम धवन पर। धवन साहब देश भक्ति गीतों के बहुत अच्छे गीतकार रहे हैं। आप को शायद मनोज कुमार की फ़िल्म 'शहीद' याद हो जो शहीद भगत सिंह पर बनी थी। इस फ़िल्म में प्रेम धवन ने गानें लिखे और संगीत भी दिया था। देश भक्ति फ़िल्मों में 'शहीद' एक बहुत ही महत्वपूर्ण नाम है। इस फ़िल्म से संबंधित कुछ बातें प्रेम धवन जी ने विविध भारती के 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम में कहे थे, जिन्हे पढ़ कर आप की आँखें नम हो जायेंगी। "मेरे फ़ौजी भा‍इयों, शहीद भगत सिंह के जीवन पर आधारित एक फ़िल्म मनोज कुमार ने बनायी थी, मैने उसमें गीत लिखे और संगीत भी दिया था। यह मेरी ख़ुशनसीबी है कि भगत सिंह की माँ से मिलने का इत्तेफ़ाक़ हुआ। हम लोग उस गाँव में गए जहाँ भगत सिंह की माँ रहती थीं। उनसे हम लोग मिले और भगत सिंह के जीवन से जुड़ी कई बातें उन्होने हमें बतायीं। उनकी एक बात जो मेरे दिल को छू गयी, वह यह था कि फाँसी से एक दिन पहले वो अपने बेटे से मिलने जब जेल गयीं तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। तब भगत सिंह ने उनसे कहा कि 'माँ, मत रो, अगर तुम रोयोगी तो कोई माँ अपने बेटे को क़ुर्बानी की राह पर नहीं भेज पाएगी'। इसी बात से प्रेरीत हो कर मैने इस फ़िल्म 'शहीद' में यह गीत लिखा "तू न रोना के तू है भगत सिंह की माँ, मर के भी तेरा लाल मरेगा नहीं, घोड़ी चढ़ के तो लाते हैं दुल्हन सभी, हँस कर हर कोई फाँसी चढ़ेगा नहीं"।" दोस्तों, इन बातों को लिखते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो गये हैं, आँखें भी बोझल हो रही हैं, अब और ज़्यादा लिखा नहीं जा रहा। सुनिए आज का गीत फ़िल्म 'हम हिंदुस्तानी' का। कुछ 'रिकार्ड्स' पर यह गीत ६:३० मिनट का है तो कुछ 'रिकार्ड्स' पर ३:३० मिनट का। हम आप के लिए पूरे साढ़े ६ मिनट वाला वर्ज़न ढ़ूंढ लाए हैं। इस गीत के बोलों की जितनी तारीफ़ की जाए कम ही होगी। मुझे निम्नलिखित अंतरा सब से ज़्यादा अच्छा लगता है, आप भी ज़रूर बताइयेगा कि आप को इस गीत का कौन सा अंतरा सब से ज़्यादा भाता है।

"दाग़ ग़ुलामी का धोया है जान लुटाके,
दीप जलाये हैं ये कितने दीप बुझाके,
ली है आज़ादी तो फिर इस आज़ादी को,
रखना होगा हर दुश्मन से आज बचाके,
नया ख़ून है नयी उमंगें अब है नयी जवानी,
हम हिंदुस्तानी, हम हिंदुस्तानी"।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. कल के गीत का थीम है -"जय किसान".
2. इस अमर गीत के गीतकार ने इसी वर्ष हमसे विदा कहा है.
3. एक अंतरे में तिरेंगे के रंगों को देशभक्तों के नामों से जोड़ा गया है.

पिछली पहेली का परिणाम -
दीपाली जी सही जवाब. अब आप भी पराग जी के बराबर १२ अंकों पर आ गयी हैं...बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और आपकी पसंद के गीत (13)



"है नाम ही काफी उनका और क्या कहें, कुछ लोग तआर्रुफ के मोहताज नहीं होते" गुलजार उन्ही चंद लोगों में से एक हैं जिन्हें किसी परिचय की जरुरत नहीं है. गुलज़ार एक ऐसा नाम है जो उत्कृष्ट और उम्दा साहित्य का पर्याय बन गया है. आज अगर कही भी गुलज़ार जी का नाम आता है लोगों को विश्वास होता है कि हमें कुछ बेहतरीन ही पढ़ने-सुनने को मिलेगा. आवाज हो या लेखन दोनों ही क्षेत्रों में गुलजार जी का कोई सानी नहीं. गुलजार लफ्जों को इस तरह बुन देते है कि वो आत्मा को छूते हैं. शायद इसीलिए वो बच्चों, युवाओं और बूढों में समान रूप से लोकप्रिय है. गुलज़ार जी का स्पर्श मात्र ही शब्दों में प्राण फूँक देता है और ऐसा लगता है जैसे शब्द किसी कठपुतली की तरह उनके इशारों पर नाचने लगे है. उनकी कल्पना की उडान इतनी अधिक है कि उनसे कुछ भी अछूता नहीं रहा है. वो हर नामुमकिन को हकीकत बना देते हैं. उनके कहने का अंदाज बिलकुल निराला है. वो श्रोता और पाठक को ऐसी दुनिया में ले जाते है जहां लगता ही नहीं कि वो कुछ कह रहे है ऐसा प्रतीत होता है जैसे सब कुछ हमारे आस-पास घटित हो रहा है. कभी-कभी सोचती हूँ, गुलजार जी कोई एक व्यक्ति नहीं वरन उनमें कई गुलज़ार समाये हुए हैं. उनके बारे में कुछ कहने में शब्द कम पड़ जाते है. गुलजार जी के शब्द और आवाज ही उनकी पहचान है. जिसके कान में भी एक बार गुलजार जी के लेखनी से निकले शब्द और आवाज पड़ते है वो उनके बारे में जानने के लिए बेचैन हो उठता है. जब गुलज़ार जी इतने श्रेष्ठ हैं तो जाहिर है उनके चाहने वाले भी ऐसे-वैसे नहीं होंगे. आइये अब में आपको गुलज़ार जी के ऐसे रसिया जी से मिलाती हूँ जिनका परिचय गुलज़ार जी से सबसे पहले उनके शब्दों द्वारा हुआ था. मैं बात कर रही हूँ हमारे साथी विश्व दीपक तनहा जी की, जो गुलज़ार जी द्वारा लिखे शब्दों के वशीभूत होकर ही गुलज़ार जी तक पहुचे थे. चलिए उनकी कहानी उन्हीं ही जुबानी जान लेते है. ....

"गुलजार जी से मेरी पहली पहचान फिजा फिल्म के गीतों से हुई. पहली बार इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उनके लिखे गीत तो मैंने पहले भी सुने थे लेकिन तब मैं उनके नाम से परिचित नहीं था. चूँकि आठवीं कक्षा से हीं मैने लिखना शुरू कर दिया था इसलिए शब्दों की अहमियत जानने लगा था। अच्छे शब्द पसंद आते थे। विविधभारती पर जो भी गाना सुनता, हर बार यही कोशिश रहती कि गाने का अर्थ जानूँ। ऐसा हीं कुछ हुआ जब मैने "फ़िज़ा" फिल्म गाना का "आ धूप मलूँ मैं तेरे हाथों में" सुना, उदित नारायण और अल्का याज्ञिक की आवाज़ों के अलावा जिस चीज ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह था शब्दों का प्रवाह। "चल रोक लें सूरज छिप जाएगा, पानी में गिर के बुझ जाएगा" - गीत के बोलों ने मुझे झकझोर दिया और मैं इसी सोच में रहने लगा की आखिर कोई इस तरह का कैसे सोच सकता है। इस गाने की कशिश मुझे सिनेमा हाल तक खींच ले गयी, इसी फिल्म के एक और गीत "मैं हवा हूँ फ़िज़ा हूँ जमीं की नहीं..... मैंने तिनके उठाए हुए हैं परों पे, आशियाना नहीं है मेरा....फ़िज़ा" ने मुझे अन्दर तक छू लिया. मुझे फिल्म के गीतकार के बारे में जानने की एक धुन लग गयी. फिल्म देखकर लौटने के बाद उसी शाम कैसेट की दुकान पर जाकर कैसेट कवर का मुआयना किया तो पता चला कि इन साहब के कई गाने तो मैंने पहले भी सुने हैं. धीरे-धीरे यादों की गलियों से "छैंया-छैंया", "दिल से" ," ऐ अजनबी", "सतरंगी रे", "चप्पा-चप्पा चरखा चले", "छोड़ आए हम वो गलियाँ" और भी न जाने कितने सारे गाने जो मेरे हमेशा से हीं खास रहे हैं की , मधुर गूँज सुनाई देने लगी । लेकिन तब इनके गीतकार का नाम मुझे नहीं पता था, लेकिन वो अजनबी आज अपना-सा लगने लगा था. फिर तो मैने गुलजार जी के लिखे पुराने गानों की तरफ़ रूख किया। गुलजार जी के प्रति मेरी जानकारी का दायरा तब और बड़ा जब १२वीं के बाद मैं पटना की गलियों में दाखिल हुआ । उस दौरान बंदिनी का "मोरा गोरा रंग लेई ले" सुना तो बड़ा हीं आश्चर्य लगा कि एक पंजाबी शायर( कवि या गीतकार भी कह सकते हैं) ब्रज भाषा के आसपास की किसी भाषा में भी इतना खूबसूरत लिख सकता है, फिर कहीं पढा कि यह गाना उनका पहला गाना है (हाल हीं में अंतर्जाल पर यह पढने को मिला था कि यह उनका पहला गाना नहीं है, लेकिन चूँकि ज्यादातर लोग इस गाने को हीं उनका पहला गाना मानते हैं इसलिए मेरी भी अब तक यही मान्यता है) । गुलज़ार जी के एक अन्य गीत "मेरा कुछ सामना तुम्हारे पास पड़ा है" से मुझे और बारीकियां जानने को मिली फिर क्या था मैं खुद को गुलज़ार जी का प्रशंसक बनने से रोक नहीं पाया। मानो मेरे गुलज़ार-प्रेम को पंख लग गए। इंटरनल लैन(LAN) पर सारे गाने और सारी जानकारियाँ आसानी से उपलब्ध हो जाने लगीं । फिर तो मैने उनके लिखे सारे हीं गानों को खंगाल डाला। (इस प्रेम का एक कारण यह भी था कि उसी दौरान मैने भी प्रेम के कुछ स्वाद चखे थे..... ) उसके आगे का क्या कहूँ, तब से उनके प्रति मेरी दीवानगी चलती हीं आ रही है। अब तो मैने उनको सुनने के साथ-साथ उनको पढना भी शुरू कर दिया है। "रात पश्मीने की", "पुखराज" , "मिर्ज़ा ग़ालिब" ये तीन किताबें अब तक मैने पढ ली हैं और बाकियों को अंतर्जाल पर पढता हीं रहता हूँ। लेकिन कोशिश यही है कि धीरे-धीरे उनकी सारी किताबें मेरे दराज में मौजूद हो जाएँ।
मुझे मालूम है कि "गुलज़ार" साहब की झोली में एक से बढकर एक कई सारे गाने हैं लेकिन चूँकि "आ धूप मलूँ मैं तेरे हाथों में..... आजा माहिया" वह गीत है जिसने मुझे गुलज़ार-जगत से रूबरू कराया , इसलिए मैं आज के दिन उसी गाने को सुनना पसंद करूँगा
।"

देखा दोस्तों गुलज़ार जी की लेखनी का जादू विश्व दीपक जी क्या हम भी उस जादू से बंधे हैं. चलिए अब मैं भी आपकी पसंद पूरी करने वाली छडी घुमाती हूँ और सुनवाती हूँ आपका पसंदीदा गीत...

आ धूप मलूँ मैं तेरे हाथों में



गुलजार जी की बात जहां हो वो महफिल उनके जिक्रभर से ही चमक उठती है. उनके लिए तो "कायनात में लफ्ज ही नहीं तारीफ ये भी तो कुछ कम ही है" यह बोल निकलते हैं. गुलज़ार जिस तरह से शब्दों से खेलते है वो कोई और नहीं कर सकता इसीलिए हर शख्स उनका मुरीद हो जाता है. गुलज़ार की लेखनी से घायल एक और दीवानी की बात करते हैं. ये हैं हमारी महफिल की साथी रंजना जी. रंजना जी गुलज़ार जी के प्रति कुछ इस तरह से अपने भावों को बयाँ करती है......

"इतने लोगो में ,कह दो आंखो को
इतना ऊँचा न ऐसे बोला करे
लोग मेरा नाम जान जाते हैं !!

अब इतने कम लफ्जों में इस से ज्यादा खूबसूरत बात गुलजार जी के अलावा कौन लिख सकता है. उन्होंने अपनी कही नज्मों में गीतों में ज़िंदगी के हर रंग को छुआ है . कुदरत के दिए हर रंग को इस बारीकी से अपनी कलम द्वारा कागज में उतारा है कि हर शख्स को वह सब अपना कहा और दिल के करीब लगता है. चाहे फिल्मों में हो या फिर साहित्य में, कुदरत से इतना जुडाव बहुत कम रचना कार कर पाये हैं.

गुलजार सादगी और अपनी ही भाषा में सरलता से हर बात कह देते हैं कि लगता है कोई अपनी ही बात कर रहा है. उनकी यह लेखन की सादगी जैसे रूह को छू लेती है ..गुलजार जी का सोचा और लिखा आम इंसान का लिखा- उनके द्वारा कही हुई सीधी सी बात भी आँखों में एक सपना बुन देता है ..जिस सहजता व सरलता से वे कहते हैं वो इन पंक्तियों में दिखाई देती है--—

‘बहुत बार सोचा यह सिंदूरी रोगन/जहाँ पे खड़ा हूँ/वहीं पे बिछा दूं/यह सूरज के ज़र्रे ज़मीं पर मिले तो/इक और आसमाँ इस ज़मीं पे बिछा दूँ/जहाँ पे मिले, वह जहाँ, जा रहा हूँ/मैं लाने वहीं आसमाँ जा रहा हूँ।’

उनके सभी गीत ज़िन्दगी से गहरे जुड़े हैं और हर गीत जैसे अपने ऊपर ही बात करता हुआ लगता है ...गुलज़ार जी के कहे लिखे गीत इस तरह से जहन में छाए रहते है कि जब कभी भी ज़िन्दगी की किसी मीठी भूली बिसरी बात का ज़िक्र होता है तो वह गीत बरबस याद आ जाता है ...इजाजत फिल्म का "मेरा कुछ समान तुम्हारे पास पड़ा है" का यह गीत यूँ लगता है जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कुछ कहना चाहती है या अपना दिया कुछ उधार वापस चाहती है, जैसे कुछ कहीं फिर से छूट गया है और एक कसक तथा कुछ पाने की एक उम्मीद शब्दों में ढल जाती हैं . मैं इजाजत फिल्म का गीत मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पडा है सुनना चाहती हूँ.
"

सच ही तो है कि हर किसी का अंदाज-ए-बयां अलग होता है. आइये अब हम सुनते है गुलज़ार जी के एक अलग अंदाज को ...

भीगी मेहँदी की खुशबु वो झूठ मूठ के वादे ...बहुत कुछ कह जाता है यह गीत .."



गुलज़ार जी ने एक से बढ़कर एक गीत लिखे है और जन-जन के हृदय के तारों को छेड़ दिया है. उन्होंने फिल्मी गंगा को समृद्ध किया है. "खुशबू, आंधी, किनारा, देवता, घर, गोलमाल,ख़ूबसूरत, नमकीन, मासूम, इजाजत और लिबास" आदि फिल्मों में गुलज़ार जी के लेखन कौशल का जलवा देखने को मिलता है. उनका लेखन ही नहीं निर्देशन भी कमाल का है. गुलज़ार जी ने कई प्रसिद्द फिल्मों में पटकथा व संवाद भी लिखे है. उनके लेखन की धारा को बांधा नही जा सकता. वो एक स्वछंद पंछी कि तरह कल्पना के आकाश में उड़ान भरते रहते है. गुलज़ार जी की कल्पना के हजारों शिकार हुए है, इनमें एक नाम है हमारे साथी निखिल आनंद गिरी जी का. निखिल जी अपने आप को गुलज़ार जी के शब्दजाल में फंसा पाते है और लिखते है कि---

गुलजार के कई रूप हैं. कभी वो नीली हंसी, पीली हंसी वाले गुलज़ार हैं तो कभी फूलों को चड्डी पहनाने वाले गुलज़ार...सिर्फ गुलज़ार ही हैं जो कुछ भी कर सकते हैं.....उनके ज़ेहन में शब्दों की कुश्ती चलती है...वो किसी भी शब्द को कहीं भी फिट कर सकते हैं....चांद को छत पर टांग सकते हैं, उसे रोटी भी कह सकते हैं..... यू-ट्यूब पर उनके यूएस के किसी कवि सम्मेलन का जिक्र है.....'छोटी (या नई) बहू को सारी चीज़े क्लीशे(clieshed) लगती हैं....' इतना बेहतर गुलज़ार ही लिख सकते हैं और कोई नहीं....
इजाज़त फिल्म की नज़्म " मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, वो लौटा दो...." तो मेरी साँसों में दोड़ती है. वाह क्या कहने एकदम लाजवाब....."गीला मन शायद बिस्तर के पास पड़ा हो," क्या कहा जाए इस पर... गुलजार जी कुछ कहने लायक ही नहीं छोड़ते है. हर पहलू को छूते हैं गुलज़ार

"सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली, सरहद पर कल रात, कुछ ख्वाबों का खून हुआ है.....आह....कितना सुन्दर .

वही गुलज़ार जब मस्ती में लिखते हैं तो कोई और लगते हैं.....आसमान को कूटते गुलज़ार......इश्क का नमक लगाते गुलज़ार......क्या-क्या चर्चा की जाए....अजी चर्चा क्या कई बार तो बहस भी हो जाती है गुलजार जी के लिए. साहित्यकार कमलेश्वरजी के नाती अनंत त्यागी मेरे साथ जामिया में थे.....अक्सर चर्चा होती कि गुलज़ार जी बेहतर या जावेद अख्तर.....वो हमेशा जावेद अख्तर जी पर अड़ जाते....बहस में कुछ निकलता तो नहीं मगर गुलज़ार के जी ढेरों गाना ताज़ा हो जाते....

गुलज़ार जी की रेंज इतनी ज़्यादा है कि बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को बराबर भाते हैं.....
बहरहाल, कौन-कौन से गाने पसंद है इसका गुलज़ारी जवाब यही हो सकता है कि मुझे गुलज़ार की छींक से खर्राटे तक सब कुछ पसंद है....आज मैं अपने दोस्त और मेरी पसंद का "शाम से आंख में नमी सी है..."गीत सुनना चाहता हूँ.


गुलज़ार जी के लेखन की बारीकियों को समझने के लिए बहुत ही गहरी सोच चाहिए. और गहन सोच के लिए जरुरी है कि हम गुलज़ार जी के लिखे गीतों को सुन उनकी गहराइयों में उतरें. तो सुनते है निखिल जी और उनके दोस्त की की ये ग़ज़ल -

"शाम से आँख में नमी सी है "



गुलजार जी के गीतों की फहरिस्त इतनी लम्बी है कि कभी ख़त्म ही न होगी. या यूँ कहें कि हम भी यही चाहते है कि यह सिलसिला इसी तरह चलता रहे. उनके लिखे ख़ास गीतों में से "आने वाला पल जाने वाला है, हजार राहें मुड़कर देखीं, तुझसे नाराज नहीं जिंदगी हैरान हूँ मैं, मेरा कुछ सामान तुमारे पास पडा है, यारा सिली-सिली विरहा कि रात का जलना, चल छैयां-छैयां- छैयां-छैयां, साथिया-साथिया तथा सबसे अधिक प्रसिद्द कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नैना" है. इन सभी गीतों के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरुस्कार मिला है जिसके वो सही मायनो में हकदार भी है. अभी तो गुलजार जी की कल्पना के कई और रंग देखने बांकी हैं. हम इश्वर से प्रार्थना करेंगे की गुलजार जी अपनी लेखनी का जादू इसी तरह बिखेरते रहे. वो चाँद को कुछ भी कहें, और रात को कोई भी नाम दे दें लेकिन उनके सभी चाहने वाले उनकी हर कल्पना में एक सुखद एहसास की अनुभूति करते है और करते रहेंगे.

प्रस्तुति - दीपाली तिवारी "दिशा"


"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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