Saturday, September 19, 2009

मिलते ही ऑंखें दिल हुआ दीवाना किसी का....एक बेहतरीन दोगाना शमशाद और तलत की आवाजों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 207

प सभी को हमारी तरफ़ से नवरात्री के आरंभ की हार्दिक शुभकामनाएँ। यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ ले कर आए, घर घर ख़ुशहाली हो, सभी सुख शांती से रहें यही हम माँ दुर्गा से प्रार्थना करते हैं। कल की तरह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आज भी एक युगल गीत की बारी। आज हम ज़रा पीछे की तरफ़ चलते हैं। साल १९५०। इस साल नौशाद और शक़ील बदायूनी ने जिन दो प्रमुख फ़िल्मों में साथ साथ काम किया था उनके नाम हैं 'दास्तान' और 'बाबुल'। दोनों ही फ़िल्में सुपरहिट रहीं। 'दास्तान' में राज कपूर और सुरय्या थे तो 'बाबुल' में दिलीप कुमार, नरगिस और मुनव्वर सुल्ताना। 'दास्तान' ए. आर. कारदार की फ़िल्म थी। निर्देशक एस. यु. सनी, जो १९४७ में कारदार साहब की फ़िल्म 'नाटक' का निर्देशन किया था, उन्होने अपनी निजी कंपनी खोली सनी आर्ट प्रोडक्शन्स के नाम से और इस बैनर के तले उन्होने अपनी पहली फ़िल्म बनाई १९५० में, 'बाबुल'। इसका निर्देशन उन्होने ख़ुद ही किया। नौशाद साहब को वो 'नाटक' और 'मेला' जैसी फ़िल्मों के दिनों से ही अच्छी तरह जानते थे, इसलिए अपनी इस पहली पहली फ़िल्म के संगीत का भार उन्ही को सौंपा। पार्श्वगायन के लिए तलत महमूद को दिलीप साहब की आवाज़ बनाई गई, लता मंगेशकर ने नरगिस का प्लेबैक किया और मुनव्वर सुल्ताना की आवाज़ बनी शमशाद बेग़म। इसी साल अनिल बिस्वास ने तलत साहब से दिलीप कुमार का प्लेबैक करवाया था 'आरज़ू' में। इस प्रयोग की सफलता को ध्यान में रखते हुए नौशाद साहब ने भी उन्ही की आवाज़ अपने गीतों के लिए चुनी और नतीजा एक बार फिर पौसिटिव रहा। तलत साहब का 'बाबुल' में गाया हुआ गीत "मेरा जीवन साथी बिछड़ गया, लो ख़तम कहानी हो गई" बेहद कामयाब रहा। फ़िल्म का शीर्षक गीत "छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा" शमशाद बेग़म और तलत महमूद ने अलग अलग गाया था। लेकिन आज हम इस फ़िल्म का जो गीत आप को सुनवाने जा रहे हैं, वह है शमशाद बेग़म और तलत साहब का गाया हुआ एक युगल गीत "मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना किसी का, अफ़साना मेरा बन गया अफ़साना किसी का"।

तलत महमूद और शमशाद बेग़म की आवाज़ें बहुत ही ज़्यादा कौन्ट्रस्टिंग है। एक तरफ़ तलत साहब की नर्म मख़मली आवाज़, और दूसरी तरफ़ शमशाद जी की वज़नदार, खनकती और 'नैज़ल वायस'। लेकिन शायद इसी कौन्ट्रस्ट की वजह से ही इनके गाए ये चंद युगलगीत इतने ज़्यादा मक़बूल रहे हैं। इसमें कोई शक़ नहीं कि फ़िल्म 'बाबुल' का यह दोगाना इस जोड़ी का सब से हिट युगलगीत है। गीत का फ़िल्मांकन कुछ इस तरह से किया गया है कि दिलीप कुमार पियानो पर बैठ कर गीत गा रहे हैं और मुनव्वर सुल्ताना हर लाइन में उनका साथ दे रहीं हैं। तलत-शमशाद की जोड़ी ने इसी फ़िल्म में एक और युगल गीत गाया था, राग दरबारी कनाडा पर आधारित यह गीत है "दुनिया बदल गई मेरी दुनिया बदल गई, टुकड़े हुए जिगर के छुरी दिल पे चल गई"। दोस्तों, इससे पहले की आप आज का यह गीत सुनें, दो शब्द पढ़ लीजिए विविध भारती के उस जयमला कार्यक्रम के जिसमें ख़ुद शमशाद बेग़म ने नौशाद साहब के फ़िल्मों के लिए उनके गाए गीतों के बारे में कहा था - "संगीतकार नौशाद साहब के साथ मैने कुछ १६/१७ फ़िल्मों में गाए हैं, जैसे कि शाहजहाँ, दर्द, दुलारी, मदर इंडिया, मुग़ल-ए-आज़म, दीदार, अनमोल घड़ी, आन, बैजु बावरा, वगैरह वगैरह। मेरे पास उनके ख़ूबसूरत गीतों का ख़ज़ाना है। लोग आज भी उनके संगीत के शैदाई हैं। मेरे स्टेज शोज़ में लोग ज़्यादातर उनके गीतों की फ़रमाइश करते हैं।" तो लीजिए दोस्तों, शमशाद बेग़म और तलत महमूद का गाया फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर का यह सुनहरा नग़मा सुनिए।



मिलते ही आँखे दिल हुआ दीवाना किसी का
अफ़साना मेरा बन गया अफ़साना किसी का ।

पूछो न मुहब्बत का असर
हाय न पूछो - हाय न पूछो
दम भर में कोई हो गया परवाना किसी का ।

हँसते ही न आ जाएं कहीं
आँखों में आंसू - आँखों में आंसू
भरते ही छलक जाए न पैमाना किसी का.

और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. गीतकार राजेंद्र कृष्ण का लिखा एक खूबसूरत काव्यात्मक गीत.
२. गीत के संगीतकार ही खुद गायक हैं.
३. मुखड़े में शब्द है -"शीतल".

पिछली पहेली का परिणाम -
पराग जी एक के बाद एक सही जवाब देकर आप पूर्वी जी के बराबर आ गए हैं, २८ अंकों पर....वाकई ये बाज़ी किसी के भी हाथ जा सकती है....पूर्वी जी ...आप आये तो खयाले-दिले-नाशाद आया....:) शरद जी बोलों के लिए धन्येवाद.....

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Friday, September 18, 2009

प्यार किया तो मरना क्या - काका हाथरसी



सुनो कहानी: काका हाथरसी की "प्यार किया तो मरना क्या"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में मुंशी प्रेमचन्द की कहानी "शंखनाद" का पॉडकास्ट सुना था। १८ सितम्बर को काका हाथरसी के जन्मदिन के अवसर पर आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार काका हाथरसी की कथा "प्यार किया तो मरना क्या", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 15 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।





गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना, प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना।
~ प्रभुनाथ गर्ग "काका" हाथरसी (1906-1995)


हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी


आप मोक्ष धाम को जाएंगे और हम रबड़ी खुरचन उड़ाएंगे। फिर आपकी पुण्य तिथि पर प्रति वर्ष नगाड़ा बजता रहेगा। चंदा होता रहेगा और धंधा चलता रहेगा।
(काका हाथरसी की "प्यार किया तो मरना क्या" से एक अंश)



नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3

#Thirty eighth Story, Pyar Kiya To Marna Kya: Kaka Hathrasi/Hindi Audio Book/2009/32. Voice: Anurag Sharma

मैं तेरे प्यार में क्या क्या न बना दिलबर....कॉमेडी सरताजों पर फिल्माया गया एक अनूठा गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 206

'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सफ़र जारी है दोस्तों, अदा जी के पसंद के पाँच गानें आप ने सुने पिछले पाँच दिनों में। आप सभी से हमारा यह अनुरोध है कि पहेली में भाग लेने के साथ साथ प्रस्तुत होने वाले गीतों की ज़रा चर्चा भी करें तो हम सब की जानकारी में बढोतरी हो सकती है। केवल आलेखों की तारीफ़ ही न करें, बल्कि आलेख में दिए गए जानकारियों के अलावा भी उन गीतों पर टिप्पणी करें, तभी हम फ़िल्म संगीत के अपने 'नौलेज बेस' को और ज़्यादा समृद्ध कर सकते हैं। ख़ैर, अब आते हैं आज के गीत की तरफ़। हमारी फ़िल्मों में अक्सर नायक नायिका की प्रधान जोड़ी के अलावा भी एक जोड़ी देखी जा सकती है। यह जोड़ी है एक हास्य अभिनेता और एक हास्य अभिनेत्री की। धुमल, महमूद, जौनी वाकर, सपरू कुछ ऐसे ही हास्य अभिनेता रहे हैं और टुनटुन, शुभा खोटे, शशिकला इस जौनर की अभिनेत्रियाँ रहीं हैं। ऐसी कौमेडियन जोड़ियों पर समय समय पर गानें भी फ़िल्माये जाते रहे हैं। आज एक ऐसी ही गीत की बारी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। महमूद और शुभा खोटे पर फ़िल्माया यह गीत है फ़िल्म 'ज़िद्दी' से, "मैं तेरे प्यार में क्या क्या न बना दिलबर, जाने ये मौसम, मैं घटा प्यार भरी तू है मेरा बादल, जाने ये मौसम"। मन्ना डे और गीता दत्त की आवाज़ों में यह गीत काफ़ी लोकप्रिय हुआ था अपने ज़माने में। मन्ना डे ने महमूद के लिए बहुत सारे गानें गाए हैं, वो उनके स्क्रीन वायस रहे हैं। और क्योंकि लता जी ने इस फ़िल्म की नायिका के लिए पार्श्व गायन किया था, इस नटखट गीत के लिए गीता जी की ही आवाज़ सबसे मज़बूत दावेदारों में से थी। 'ज़िद्दी' १९६४ में बनी प्रमोद चक्रवर्ती की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन भी उन्होने ही किया। महमूद और शुभा खोटे तो कामेडियन चरित्रों में थे, लेकिन फ़िल्म के नायक नायिका थे जय मुखर्जी और आशा पारेख। सचिन देव बर्मन का संगीत था और गीतकार हसरत जयपुरी ने फ़िल्म के गानें लिखे। इस गीत में हसरत साहब मौसम को चश्मदीद गवाह बनाते हुए दो प्रेमियों के प्रेम का इज़हार बयान कर रहे हैं। युं तो हसरत जयपुरी साहब को रोमांटिक गीतों का बादशाह माना जाता है, लेकिन इस गीत में रोमांटिसिज़्म के साथ साथ थोड़ा सा गुदगुदाने वाला हास्य रस भी है। सिर्फ़ गीत को सुन कर शायद आप को इसमें हास्य रस का उतना पता न चले, लेकिन परदे पर इस गीत का कभी फ़िल्मांकन देखिएगा ज़रूर! 'रोमांटिक कॊमेडी' का एक सुंदर उदाहरण है यह गीत।

फ़िल्म 'ज़िद्दी' का सब से मशहूर गीत है लता जी का गाया हुआ "रात का समा झूमे चंद्रमा" जिसे फ़िल्म में आशा पारेख ने स्टेज पर परफोर्म किया था। इसके अलावा शराब के नशे में चूर आशा पारेख एक पार्टी में गाती हैं लता जी की ही आवाज़ में "ये मेरी ज़िंदगी एक पागल हवा"। रफ़ी साहब का गाया "तेरी सूरत से मिलती नहीं किसी की सूरत" भी एक सदाबहार नग़मा है। आज के प्रस्तुत गीत के अलावा इसी फ़िल्म में महमूद साहब पर एक और गीत फ़िल्माया गया था, मन्ना डे की ही आवाज़ में वह गीत है "प्यार की आग में तन बदन जल गया"। इस गीत को महमूद और मन्ना डे की जोड़ी का एक ख़ास गीत माना जाता है। जहाँ तक आज के गीत "जाने ये मौसम" का सवाल है, इस गीत को और भी ज़्यादा हास्यप्रद बना कर गोविंदा ने 'हीरो नंबर वन' में गाया था "मैं तेरे प्यार में क्या क्या न बना मीना, कभी बना कुत्ता कभी कमीना"। तो आइए दोस्तों, सिनेमा के उस सुवर्ण युग को याद करते हुए, और हास्य जोड़ी महमूद और शुभा खोटे के अंदाज़-ओ-अभिनय प्रतिभा को सलाम करते हुए, सुनते हैं मन्ना डे और गीता दत्त का गाया 'ज़िद्दी' फ़िल्म का यह गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. ये युगल गीत एक जबरदस्त नायक और मुन्नवर सुल्ताना पर फिल्माया गया था.
२. इस गीत की गायिका की आवाज़ को नय्यर साहब ने "टेम्पल बेल" का खिताब दिया था.
३. एक अंतरे की पहली पंक्ति इस शब्द पर रूकती है -"असर".

पिछली पहेली का परिणाम -
गीता जी की आवाज़ की महक उठी और पराग जी हाज़िर हो गए सही जवाब के साथ. 26 अंक हुए आपके, भाई कोई श्रोता पाबला जी के सवाल के जवाब दें, दिलीप जी आप शायद सही बता पायें...शरद जी गीत के बोल हिंदी में लिखिए, और पूर्वी जी, क्या आप वाकई नाराज़ हो गयी हैं, आपका नाम गलती से छोटा होगा, माफ़ी चाहेंगें ...पर महफिल में यूं आना तो मत छोडिये ....:) कल आप की बहुत कमी खली.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

ये बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो.... महफ़िल में पहली मर्तबा "नुसरत" और "फ़ैज़" एक साथ



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४६

पिछली कड़ी में जहाँ सारे जवाब परफ़ेक्ट होते-होते रह गए थे(शरद जी अपने दूसरे जवाब के साथ कड़ी संख्या जोड़ना भूल गए थे), वहीं इस बार हमें इस बात की खुशी है कि पहली मर्तबा किसी ने कोई गलती नहीं की है। खुशी इस बात की भी है कि जहाँ हमारे बस दो नियमित पहेली बूझक हुआ करते थे(सीमा जी और शरद जी), वहीं इसी फ़ेहरिश्त में अब शामिख जी भी शामिल हो गए हैं। उम्मीद करते हैं कि धीरे-धीरे और भी लोग हमारी इस मुहिम में भाग लेने के लिए आगे आएँगे। अभी भी ५ कड़ियाँ बाकी हैं, इसलिए कभी भी सारे रूझान बदल सकते हैं। इसलिए सभी प्रतिभागियों से आग्रह है कि वे जोर लगा दें और जो अभी भी किसी शर्मो-हया के कारण खुद को छुपाए हुए हैं,वे पर्दा हटा के सामने आ जाएँ। चलिए अब पिछली कड़ी के अंकों का हिसाब करते हैं। इस बार का गणित बड़ा हीं आसान है: सीमा जी: ४ अंक, शरद जी: २ अंक, शामिख जी: १ अंक। और हाँ, शरद जी आपकी यह बहानेबाजी नहीं चलेगी। महफ़िल-ए-गज़ल में आपको आना हीं होगा और जवाब भी देना होगा। चलिए, अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) "महाराष्ट्र प्राईड अवार्ड" से सम्मानित एक फ़नकार जिन्होंने अपने शुरूआती दिनों में "गमन" फ़िल्म का एक गीत गाकर प्रसिद्धि पाई। उस फ़नकार का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि वह कौन-सा गीत है जिसकी हम बातें कर रहे हैं।
२) आज से करीब २३ साल पहले चिट्ठी लेकर आने वाला एक फ़नकार जिसके बड़े भाई ने फिल्म "अभिमान" में लता मंगेशकर के साथ एक दोगाना गया था। उस फ़नकार के नाम के साथ अभिमान फ़िल्म का वह गाना भी बताएँ।


यूँ तो महफ़िल में किसी एक बड़े फ़नकार का आना हीं हमारे लिए बड़े फ़ख्र की बात होती है, इसलिए जब भी "नुसरत फतेह अली खान" साहब या फिर "फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" साहब की हमारी महफ़िल में आमद हुई है, हमने उस दिन को किसी जश्न की तरह जिया है, लेकिन उसे क्या कहिएगा जब एक साथ ये दो बड़े फ़नकार आपकी महफ़िल में आने को राज़ी हो जाएँ। कुछ ऐसा हीं आज यहाँ होने जा रहा है। आज हम आपको जो गज़ल सुनवाने जा रहे हैं उसे अपने बेहतरीन हर्फ़ों से सजाया है "फ़ैज़" ने तो अपनी रूहानी और रूमानी आवाज़ से सराबोर किया है "बाबा नुसरत" ने। हम बता नहीं सकते कि इस गज़ल को पेश करते हुए हमें कैसा अनुभव हो रहा है। लग रहा है मानो एक दिन के लिए हीं सही लेकिन जन्नत ने आज अपने दरवाजे हम सब के लिए खोल दिए हैं। चलिए तो फिर, आज की महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं और बात करते हैं सबसे पहले "नुसरत फतेह अली खान" की। बहुत ढूँढने पर हमें जनाब राहत फतेह अली खान का एक इंटरव्यु हाथ लगा है। हमारे लिए यह फ़ख्र की बात है कि "राहत" साहब से यह बातचीत हिन्द-युग्म की हीं एक वाहिका "रचना श्रीवास्तव" ने की थी। तो पेश हैं उस इंटरव्यु के कुछ अंश: मैं नुसरत फ़तेह अली खान साहब का भतीजा हूँ और मेरे वालिद फार्रुख फतेह अली खान साहेब को भी संगीत का शौक था बस समझ लीजिये की इसी कारण पूरे घर में ही संगीत का माहौल था। ७ साल की उमर में मैने अपना पहला कार्यक्रम किया था। खाँ साहेब ने मुझे सुना और बहुत तारीफ़ की। उनका कोई बेटा नही था तो उन्होंने मुझे गोद ले लिया था। मैं आज जो कुछ भी हूँ उन्ही की बदौलत हूँ, संगीत के रूह तक पहुँचना उन्हीं से सीखा है। १९८५ में वो मुझे बहर भी ले कर गए। जब भी कभी मै गाता था उनकी तरफ़ ही देख कर गाता था। सभी कहते थे सामने देख कर गाओ, पर मै यदि उनको न देखूँ तो गा ही नहीं सकता था। वो स्टेज पे गाते गाते हीं मुझे बहुत कुछ सिखा देते थे। आप सब तो राजीव शुक्ला को जानते हीं होंगे। जनाब कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य हैं। उनके पास भी नुसरत साहब की कुछ यादें जमा हैं। वे कहते हैं: मैं एक बार लाहौर में प्रसिद्ध गायक नुसरत फतेह अली खान का इंटरव्यू करने गया था, शायद वह उनका आखिरी टेलीविजन इंटरव्यू था। नुसरत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से पुरजोर मांग की थी कि पाकिस्तान के दरवाजे भारतीय कलाकारों के लिए खोल दिए जाने चाहिए। नुसरत शायद पहले ऐसे पाकिस्तानी कलाकार थे जिन्होंने ईमानदारी से यह बात कही थी, वरना नूरजहां से लेकर आबिदा परवीन तक किसी को भी मैंने यह कहते नहीं सुना कि भारतीय कलाकारों को पाकिस्तान में आमंत्रित किया जाना चाहिए। तो इस कदर खुले दिल के थे हमारे "बाबा नुसरत"। बस गम यही है कि ऐसा साफ़-दिल का इंसान अब हमारे बीच नहीं है..लेकिन उनकी आवाज़ तो हमेशा हीं रवां रहेगी।

"बाबा" के बाद अब समय है शायरी की दुनिया के बेताज़ बादशाह "फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" की यादें जवां करने की। फ़ैज़ के बारे में अपनी पुस्तक "पाकिस्तान की शायरी" में "श्रीकान्त" कहते हैं: किसी देश की पहचान यदि किसी साहित्यकार के नाते की जाए तो इससे बढ़कर मसिजीवी का सम्मान और क्या हो सकता है ! फ़ैज़ ऐसे ही शायर हुए, जिनकी वजह से लोग पाकिस्तान को जानते थे। वे जेल के बन्द सीख़चों से भी सारी दुनिया के दमित, दलित, शोषित लोगों को जगाते रहे। उर्दू शायरी में प्रगतिवाद की चर्चा बिना फ़ैज़ के अपूर्ण मानी जाती है। फ़ैज़ नज़्मों और ग़ज़लों दोनों के शायर हैं। उनकी रचनाओं में जज़्बाती ज़िंदगी फैली हुई है। फ़ैज़ की शायरी में वर्तमान की व्यथा, विडम्बनाएँ तथा उससे मुक्ति की छटपटाहट स्पष्ट-अस्पष्ट दृष्टव्य हैं। फ़ैज़ के सम्पूर्ण का निर्माता भले न हो, वर्तमान को यथोचित दिशा देने का यत्न अवश्य करता है, ताकि आगामी पल स्वस्थ तथा सुन्दर हो। फ़ैज़ ने शिल्प तथा विषयगत क्रान्तिकारी परिवर्तन किए, जिसका प्रभाव आज तक कुछ उर्दू कवियों में देखा जा सकता है। फ़ैज़ की शायरी में विचार और कला का अनूठा सामंजस्य मिलता है। किसी का परिचय देते समय कोई इससे ज्यादा क्या कहेगा! फ़ैज़ के बारे में किसी लेखक का यह कहना किसी भी लिहाज़ से गलत नहीं है(सौजन्य: भारतीय साहित्य संग्रह): उर्दू शाइरी में फ़ैज़ को ग़ालिब और इक़बाल को पाये का शाइर माना गया है, लेकिन उनकी प्रतिबद्ध प्रगतिशील जीवन-दृष्टि सम्पूर्ण उर्दू शाइरी में उन्हें एक नई बुलन्दी सौंप जाती है। फूलों की रंगो-बू से सराबोर शाइरी से अगर आँच भी आ रही हो तो मान लेना चाहिए कि फ़ैज़ वहाँ पूरी तरह मौजूद हैं। यही उनकी शाइरी की ख़ास पहचान है, यानी रोमानी तेवर में खालिस इन्क़लाबी बात। उनकी तमाम रचनाओं में जैसे एक अर्थपूर्ण उदासी, दर्द और कराह छुपी हुई है, इसके बावजूद वह हमें अद्भुत् रूप से अपनी पस्तहिम्मती के खिलाफ़ खड़ा करने में समर्थ है। कारण, रचनात्मकता के साथ चलने वाले उनके जीवन-संघर्ष। उन्हीं में उनकी शाइरी का जन्म हुआ और उन्हीं के चलते वह पली-बढ़ी। वे उसे लहू की आग में तपाकर अवाम के दिलो-दिमाग़ तक ले गए और कुछ इस अन्दाज़ में कि वह दुनिया के तमाम मजलूमों की आवाज़ बन गई। समय-समय पर हम इसी तरह फ़ैज़ के बारे में बाकी लेखकों और शायरों के विचार आपसे बाँटते रहेंगे। अभी आगे बढते हैं गज़ल की ओर। उससे पहले "फ़ैज़" का लिखा एक बड़ा हीं खुबसूरत शेर पेश-ए-खिदमत है:

तुम आये हो न शब-ए-इन्तज़ार गुज़री है,
तलाश में है सहर बार बार गुज़री है।


वैसे जानकारी के लिए बता दें कि इस गज़ल को "मुज़फ़्फ़र अली" की फ़िल्म "अंजुमन" में भी शामिल किया गया था, जिसमें आवाज़ें थीं संगीतकार खैय्याम और जगजीत कौर की। वह फ़िल्म अपने-आप में हीं अजूबी थी, क्योंकि उसके एक और गाने को शबाना आज़मी ने गाया था। खैर छोड़िये उन बातों को, अभी हम नुसरत साहब की आवाज़ में इस गज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं:

कब याद में तेरा साथ नहीं,कब हाथ में तेरा हाथ नहीं,
सद शुक्र के अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं।

मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ दिल बेच आयेँ जाँ दे आयेँ,
दिल वालो कूचा-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं।

जिस धज से कोई मक़्तल में गया वो शान सलामत रहती है,
ये जान तो आनी जानी है इस जाँ की तो कोई बात नहीं।

मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं, याँ नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ,
आशिक़ तो किसी का नाम नहीं कुछ इश्क़ किसी की ज़ात नहीं।

ये बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा,
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही,
___ और भी बाकी हो तो ये भी न सही


आपके विकल्प हैं -
a) आजमाईश, b) इम्तहां, c) तन्हाई, d) बेकरारी

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "तन्हाई" और शेर कुछ यूं था -

मैं बहुत जल्दी ही घर लौट के आ जाऊँगा,
मेरी तन्हाई यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे...

राहत इंदौरी के इस शेर को सबसे पहली सही पहचाना "सीमा" जी ने। सीमा जी ने वह गज़ल भी पेश की जिससे यह शेर लिया गया है। उस गज़ल का मतला और मक़ता दोनों हीं बड़े हीं शानदार हैं। आप भी देखिए:

शहर में ढूँढ रहा हूँ के सहारा दे दे
कोई हातिम जो मेरे हाथ में कासा दे दे

तुमको राहत की तबीयत का नहीं अंदाज़ा
वो भिखारी है मगर माँगो तो दुनिया दे दे।

इस गज़ल के बाद सीमा जी ने कुछ शेर महफ़िल के सुपूर्द किए। ये रही बानगी:

जब भी तन्हाई से घबरा के सिमट जाते हैं
हम तेरी याद के दामन से लिपट जाते हैं (सुदर्शन फ़ाकिर)

तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है (शहरयार)

कावे-कावे सख़्तजानी हाय तन्हाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का (मनु जी के बड़े अंकल यानि कि मिर्ज़ा ग़ालिब)

निर्मला जी, आपको हमारी पेशकश पसंद आई, इसके लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया। आगे भी हमारा यही प्रयास रहेगा कि गज़लों का यह स्तर बना रहे।

शरद जी, मंजु जी और शन्नो जी ने अपने-अपने स्वरचित शेर पेश किए। शन्नो जी, हौसला-आफ़जाई के लिए आपका किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ। आप तीनों इसी तरह महफ़िल में आते रहें और शेर सुनाते रहें, यही दुआ है। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर(क्रम से):

मेरी तन्हाई मेरे पास न आती है कभी,
जब भी आती है तेरी याद भी आ जाती है।

मेरी तन्हाई के गरजते -बरसते बादल हो ,
यादों के आंसुओं से समुन्द्र बन जाते हो।

तन्हाई के आलम में तन्हाई मुझे भाती
कुछ ऐसे लम्हों में हो जाती हूँ जज्बाती।

अंत में अपने लाजवाब शेरों के साथ महफ़िल में नज़र आए शामिख जी। कुछ शेर जो आपकी पोटली से निकलकर हमारी ओर आए:

शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है (परवीन शाकिर)

कुछ न किसी से बोलेंगे
तन्हाई में रो लेंगे (अहमद फ़राज़)

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की
तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मेरी तन्हाई की (क़तील शिफ़ाई)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Thursday, September 17, 2009

संसार से भागे फिरते हो...साहिर और रोशन ने रचा वो गीत जिसने सवाल उठाये बेहद सार्थक



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 205

र आज बारी आ गई है स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के पसंद का पाँचवा गीत सुनने की। हम इसे उनकी पसंद का अंतिम गीत नहीं कहेंगे क्योंकि वो आगे भी पहेली प्रतियोगिता को ज़रूर जीतेंगी और हमें अपने पसंद के और सुरीले गानें सुनवाएँगी, ऐसा हम उनसे उम्मीद रखते हैं। बहरहाल आइए बात की जाए आज के गीत की। आज का गीत है फ़िल्म 'चित्रलेखा' से लता जी का गाया हुआ, "संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पायोगे"। इस फ़िल्म का लता जी का ही गाया हुआ एक दूसरा गीत "सखी री मेरा मन उलझे तन डोले" हम आप को सुनवा चुके हैं और उस गीत के साथ साथ 'चित्रलेखा' की कहानी और फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें भी बता चुके हैं। साहिर लुधियानवी की गीत रचनायों को सुरों में ढाला था संगीतकार रोशन ने, और यह फ़िल्म रोशन के संगीत यात्रा की एक उल्लेखनीय फ़िल्म रही है। इस फ़िल्म में रोशन ने अपनी तरफ़ से यह साबित कर दिखाया कि शास्त्रीय संगीत पर आधारित गानें भी लोकप्रिय गीतों की तालिका में शामिल किए जा सकते हैं। लता जी के गाए इन दो गीतों के अलावा इस फ़िल्म के दूसरे मशहूर गानें हैं रफ़ी साहब का गाया "मन रे तू काहे न धीर धरे", आशा-उषा का गाया "काहे तरसाये जियरा", आशा-रफ़ी का गाया "छा गए बादल नील गगन पर, घुल गया कजरा सांझ ढली", मन्ना डे का गाया "के मारा गया ब्रह्मचारी", तथा लता जी का ही गाया एक और गीत "ए री जाने न दूँगी"। रोशन की अगर बात करें तो उन्होने लगभग ९४ फ़िल्मों में स्वतंत्र रूप से संगीत दिया और उसके अलावा भी कई ऐसी फ़िल्में हैं जिनमें उन्होने दो या तीन गीतों का संगीत तैयार किया जब कि उन फ़िल्मों में कोई और मुख्य संगीतकार थे।

"संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पायोगे, इस लोक को तुम अपना ना सके, उस लोक में भी पछताओगे", यह एक बड़ा ही दार्शनिक गीत है। गीत के मुखड़े में ही सारा निचोड़ छुपा हुआ है। भगवान को पाने का, मोक्ष प्राप्ति का एक ही रस्ता है, अपना संसार धर्म पालन करना। भगवान को पाने के लिए सांसारिक सुखों को छोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है, सांसारिक सुख भी एक तरह से भगवान को पाने का ही ज़रिया है। शायद ओशो के आदर्श भी यही बात कहते हों!!! यह गीत वार करती है घर संसार को त्याग कर सन्यास लेने वाले लोगों पर। "ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो", साहिर साहब ने इस पंक्ति में यकीनन यह कहने की कोशिश की होगी कि सन्यास लेने का मतलब यह नहीं कि घर बार छोड़कर हिमालय की राह पकड़ लें, बल्कि घर परिवार में रह कर, संसार की मोह माया में रह कर भी जो हर मोह माया से परे होता है, वही असली साधु है, वही सच्चा सन्यासी है। तरह तरह के वाक्य वाणों से संसार से भागे लोगों पर इस गीत में चोट पे चोट किया गया है जैसे कि "हम जनम बीता कर जाएँगे, तुम जनम गँवा कर जाओगे", "हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे" वगैरह। तो दोस्तों, आइए साहिर साहब के इन अमर बोलों को, जो रोशन के संगीत में ढल कर, लता जी की मधुर आवाज़ में निकले, सुनते हैं आज अदा जी के अनुरोध पर! और ज़रा याद कीजिए चित्रलेखा बनी मीना कुमारी के उस अंदाज़ को जिनमें वो योगी कुमारगिरि बने अशोक कुमार को संसार और सन्यास का अर्थ समझा रहीं हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. एक मशहूर कोमेडियन जोड़ी पर फिल्माया गया एक चुलबुला सा गीत.
२. मन्ना डे ने पुरुष स्वर दिया था.
३. मुखड़े में शब्द है -"मौसम".

पिछली पहेली का परिणाम -
रोइट जी २६ अंकों पर पहुँचने की बधाई आपको. सभी श्रोताओं की भागीदारी बेहद उत्साहवर्द्धक है, धन्येवाद.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

अरे कैसे मिलेगा मुझ जैसा हीरो....एक मस्ती भरा गीत गोपाल राव और महालक्ष्मी अय्यर का गाया



ताजा सुर ताल (22)

ताजा सुर ताल में आज में आज सुनिए एक कम चर्चित फिल्म का कम चर्चित मगर शानदार गीत

सजीव- सुजॉय, आज हम अपने श्रोताओं को कौन सी अपकमिंग फ़िल्म के संगीत से अवगत करवाने जा रहे हैं?

सुजॉय- आज हम चर्चा करेंगे 'लव खिचड़ी' फ़िल्म की और ये फिल्म अपकमिंग नहीं रही, फिल्म आ चुकी है और अधिकतर सिनेमाघरों से जा भी चुकी है, लेकिन इस फिल्म का एक गीत ख़ास ध्यान आकर्षित करता है जो आज हम सुनवाएँगे।

सजीव- अच्छा, नाम से तो लगता है कि यह कोई कॉमेडी फ़िल्म होगी, क्या ख़याल है?

सुजॉय- हाँ, यह कॊमेडी फ़िल्म ही है, और यह भी आपको बता दूँ कि इसकी कहानी कॉपी की गई है एक ऐसी हॉलीवुड फ़िल्म से, और यह हॉलीवुड फ़िल्म कॉपी है एक अमेरिकन टीवी धारावाहिक 'किचन confidentials' की।

सजीव- यानी कि चोर पे मोर!

सुजॉय- सजीव जी, ज़रा ज़बान संभाल के, सभ्य समाज में इसे चोरी नहीं कहते, इसे कहते हैं 'इन्स्पायर्ड', यानी कि प्रेरीत!

सजीव- बिल्कुल बिल्कुल, ग़लती हो गई मुझसे! इस फ़िल्म में नायक हैं रणदीप हुडा जो फ़िल्म में एक लड़कीबाज़ नौजवान का रोल अदा कर रहे हैं। साथ मे हैं सदा, रितुपर्णा सेनगुप्ता, सोनाली कुल्कर्णी, दिव्या दत्ता, कल्पना पंडित, जेसी रंधवा और रिया सेन।

सुजॉय- यानी कि नायिकाओं की भरमार है फ़िल्म में। अच्छा संगीतकार कौन है?

सजीव- प्रीतम। सुजॉय, आज के दौर के कामयाब संगीतकारों में प्रीतम ऐसे संगीतकार हैं जो सही रूप में नए गायकों को मौके दे रहे हैं। इस फ़िल्म में उन्होने गोपाल राव और सुनिता सारथी जैसे नए गायकों से गाने गवाए हैं।

सुजॉय- ये आपने बिल्कुल ठीक बात कही है, प्रीतम ने हर फ़िल्म में कम से कम एक नए कलाकार को मौका दिया है। अब इसी फ़िल्म में कुल पाँच गीतों में से दो गीतों को इन दो नए गायकों से गवाए हैं। बाक़ी के तीन गीत गाए हैं शान, श्रेया घोषाल और अलिशा चुनॉय ने।

सजीव- सुजॉय, कई बार फिल्म के न चलने से अच्छे गीत भी लोगों तक पहुँचने से वंचित रह जाते हैं, आज का प्रस्तुत गीत भी कुछ ऐसा ही है। 'लव आजकल', 'न्युयार्क', और 'लाइफ़ पार्ट्नर' के कामयाब संगीत के बाद प्रीतम तो सब से आगे चल रहे हैं इस साल। एक के बाद एक उनकी फिल्में आई जा रही है, अगर वो इसी रफ़्तार से काम करेंगें तो उनका हाल भी नदीम श्रवण जैसा हो जायेगा....मैं तो हैरान होता है की एक संगीतकार एक साथ कैसे इतनी सारी फिल्मों पर ध्यान दे पाता है.

सुजॉय- हाँ इतना सारा कार एक साथ करने पर संगीत की गुणवतत्ता पर असर पड़ना लाजमी ही है ।

सजीव- वैसे आज जिस गीत को हमें चुना है प्रीतम का रचा, उसके बारे में आपका क्या ख़याल है..

सुजॉय- मैने इस गीत को सुना है हाल ही में, एक 'रोक्किंग song' है, और इसका संगीत भी प्रीतम के दूसरे गीतों से बिल्कुल अलग है। गीत फ़िल्म के किसी 'सिचुयशन' पर लिखा गया होगा, ऐसा लगता है। इसके गीतकार कौन हैं, कुछ पता है?

सजीव- हाँ, इस फ़िल्म के सभी गीत सिचुयशनल' हैं, यानी कि बे-मतलब का कोई गीत ज़बरदस्ती नहीं डाला गया है। जहाँ तक गीतकारों का सवाल है, तो अमिताभ वर्मा और शालीन शर्मा ने गानें लिखे हैं।

सुजॉय- यानी कि गीतकार भी नए?

सजीव- हाँ।

सुजॉय- यह एक पेपी नंबर है, जैसा कि गीत के बोल हैं "मेरा नशा है तुम पर चढ़ा है जो, डर है मज़ा है नज़दीक आती रहो", तो हम भी यही कामना करेंगे कि इस गीत का नशा लोगों पर चढ़े और लम्बे समय तक इसका सुरूर बरक़रार रहे। गोपाल राव की आवाज़ बिल्कुल ताज़े हवा के झोंके की तरह सुनाई दी मुझे । मुझे तो अच्छी लगी उनकी आवाज़, एक यूथ अपील है इस नई आवाज़ में, आपका क्या कहना है सजीव?

सजीव- सही कहा तुमने, उम्मीद करते हैं कि दूसरे संगीतकारों की भी नज़र इन पर जल्द ही पड़ेगी, और जहाँ तक गीत का सवाल है ये इस साल आये कुछ बेहतरीन गीतों में से है यकीनन, मुझे इस गीत का संगीत संयोजन जबरदस्त लगा, पियानों के थिरकते नोट्स पर जैज़ बीट्स कमाल का नशा पैदा कर देते हैं.

सुजॉय- तो चलिए, अब सुनते हैं गोपाल राव और महालक्ष्मी अय्यर का गाया आज का ताज़ा सुर ताल, मेरी तरफ़ से गीत को ३.५.

सजीव - बिलकुल सुजॉय मैं भी इस गीत को ३.५ अंक दूंगा, एक और ख़ास बात ये है की ये गीत लगभग ९.५ मिनट लम्बा है, जैसे की आजकल के अधिकतर गीत नहीं होते, और ४ लम्बे लम्बे अंतरे हैं....पर हमें यकीं है की इस गीत को हमारे श्रोता भी उतना ही एन्जॉय करेंगें जितना हमने किया



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 3.5 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं.एक ताजा गीत में "मर्तबा" शब्द का बहुत खूब इस्तेमाल हुआ है, कौन है इस गीत के गीतकार ...बताईये और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.

पिछले सवाल का सही जवाब दिया एक बार फिर से सीमा जी ने, बहुत बहुत बधाई, सागर जी आपने गलती दुरुस्त की उसके लिए धन्येवाद....और आपको गीत पसंद आया जानकर ख़ुशी हुई...



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Wednesday, September 16, 2009

जीवन से भरी तेरी आँखें....काव्यात्मक शैली में लिखा था इन्दीवर ने इस गीत को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 204

ता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, और आशा भोंसले के बाद, अदा जी की अगली फ़रमाइश में है किशोर कुमार की आवाज़। वैसे तो इन चारों गायकों ने इतने सारे मशहूर गानें गाए हैं कि किसी एक गीत को चुनना नामुमकिन सी बात हो जाती है। फिर भी अदा जी ने इनके एक एक गीत ऐसे चुन कर हमें भेजे हैं कि भई वाह! आप के पसंद की दाद देनी पड़ेगी। हर एक गीत लाजवाब है अपने अपने अंदाज़ का। तो आज जैसा कि हम ने कहा, किशोर दा की आवाज़ की बारी है, जो आवाज़ ज़िंदगी से हारे हुए लोगों को वापस जीने के लिए मजबूर कर देती है। जी हाँ, आज का गीत है फ़िल्म 'सफ़र' का, "जीवन से भरी तेरी आँखें मजबूर करे जीने के लिए, सागर भी तरसते रहते हैं तेरे रूप का रस पीने के लिए"। आँखों की ख़ूबसूरती पर असंख्य गीत बने हैं और आज भी बन रहे हैं। लेकिन इस गीत में जो काव्य है, जो जीवन दर्शन है, शॄंगार रस और जीवन दर्शन का ऐसा समावेश हर गीत में सुनाई नहीं देता। गीतकार इंदीवर का शुमार उन गीतकारों में होता है जिनके अनमोल गीत निराशा भरे मन में आशा का संचार करते हैं, उदास ज़िंदगी को जीवंत कर देते है, और इस दुनिया को समझने की दृष्टि प्रदान करते हैं, कुछ इस प्रस्तुत गीत की ही तरह। शुद्ध हिंदी का इस्तेमाल इस गीत में इंदीवर जी ने किया है। वो आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन बदलते वक़्त के इस शोरगुल भरे गीत संगीत के युग में जब भी मीठे, भावपूर्ण और अर्थपूर्ण गीतों की बात चलेगी, इंदीवर का नाम सदा सम्मान से याद किया जाएगा।

फ़िल्म 'सफ़र' बनी थी सन् १९७० में। १९६९ में 'आराधना' के साथ शुरु हो कर १९७२ तक राजेश खन्ना ने लगातार १५ सुपर हिट फ़िल्में दीं, जिसकी वजह से उन्हे फ़िल्म जगत का पहला सुपर स्टार निर्विरोध घोषित कर दिया गया। असित सेन निर्देशित फ़िल्म 'सफ़र' में राजेश खन्ना के साथ थीं शर्मीला टैगोर और थे दादामुनि अशोक कुमार और सह-नायक फ़ीरोज़ ख़ान। इस फ़िल्म में कुल पाँच गीत हैं, जो सभी के सभी कुछ हद तक दार्शनिक अंदाज़ में लिखे गए हैं। इंदीवर और कल्याणजी आनंदजी की तिकड़ी ने ऐसे कई फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक दार्शनिक गीत हमे दिए हैं। इस फ़िल्म की ही अगर बात करें तो प्रस्तुत गीत के अलावा किशोर दा का ही गाया "ज़िंदगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र", लता जी का गाया "हम थे जिनके सहारे वो हुए ना हमारे", और मन्ना डे का गाया "नदिया चले चले रे धारा" जीवन दर्शन अपने में समाए हुए हैं। फ़ीरोज़ ख़ान पर फ़िल्माया गया मुकेश का गाया गीत "जो तुम को हो पसंद वही बात करेंगे" में वैसे रोमांटिसिज़्म की ही अधिक झलक मिलती है। "जीवन से भरी तेरी आँखें मजबूर करे जीने के लिए" जैसे बोल लिखने वाले इंदीवर जी अपनी निजी ज़िंदगी में हमेशा प्यार के लिए तरसते रहे। बता रहे हैं और कोई नहीं बल्कि आनंदजी, जिनके साथ उन्होने एक लम्बी पारी खेली थी, "ये बेचारे इंदीवर जी, हमेशा प्यार के भूखे रहे। बचपन से उनको ज़िंदगी में, माँ बाप चले गए जल्दी तो अकेले रह गए। तो हमारा घर ही उनका घर था। वो हर वक़्त हम को बोलते थे कि 'तुम बनियों को तो कुछ आता नहीं है, ये है वो है, तो शोज़ पर भी जाते थे तो रहते थे साथ में, Indeevarji was like a 'father figure'।"

इस गीत का प्रील्युड म्युज़िक भी कमाल का है जो किसी हद तक पार्श्व संगीत (बैकग्राउंड म्युज़िक) की तरह सुनाई देता है। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि कल्याणजी आनंदजी एक अच्छे संगीतकार होने के साथ साथ एक बहुत अच्छे पार्श्व संगीतकार भी रहे हैं। तो दोस्तों, आइए सुनते हैं इंदीवर, कल्याणजी-आनंदजी और किशोर कुमार का यह सदाबहार गीत, जो अब भी राह चलते अगर कहीं से थोड़ी सुनाई दे जाता है तो हमारे पाँवों को रुकने पर मजबूर कर देता है।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. गीतकार साहिर लुधियानवीं ने हिंदी शब्दों का इस्तेमाल किया है इस गीत में.
२. मीना कुमारी ने फिल्म में शीर्षक भूमिका निभाई थी.
३. एक अंतरे की दूसरी पंक्ति में ये शब्द है - "धर्म".

पिछली पहेली का परिणाम -
रोहित जी बहुत दिनों बाद सही जवाब के साथ आपकी आमद हुई है बधाई...२४ अंक हुए आपके....दिशा जी भी बहुत दिनों में आई, पर ज़रा सा पीछे रह गयीं. मंजू जी के क्या कहने :) वैसे ऐसा कोई गाना है क्या....पाबला जी नज़र नहीं आये बहुत दिनों से, और स्वप्न जी, आपकी पसंद बेशक लाजवाब है...मनु जी लगता है फिर सो गए.....और पराग जी के लिए एक गीत याद आ रहा है..."अजी रूठ कर अब कहाँ जाईयेगा...."

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, September 15, 2009

बज उठेंगीं हरे कांच की चूडियाँ....आशा की आवाज़ में एक चहकता नग्मा...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 203

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के फ़रमाइशी नग़में। आज बारी है उनके पसंद का तीसरा गीत सुनने की। आशा भोंसले की आवाज़ में यह गीत है फ़िल्म 'हरे कांच की चूड़ियाँ' का शीर्षक गीत "बज उठेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ"। यह गीत बहुत ज़्यादा प्रचलित गीतों में नहीं गिना जाता है, और शायद हम में से बहुत लोगों को यह गीत कभी कभार ही याद आता होगा। ऐसे में इस सुंदर गीत का ध्यान हम सब की ओर आकृष्ट करने के लिए हम अदा जी का शुक्रिया अदा किए बग़ैर नहीं रह सकते। 'हरे कांच की चूड़ियाँ' १९६७ की फ़िल्म थी। नायिका प्रधान इस फ़िल्म में नैना साहू ने मुख्य भूमिका निभायी और उनके साथ में थे विश्वजीत, नासिर हुसैन, सप्रू, और राजेन्द्र नाथ प्रमुख। फ़िल्म की मूल कहानी कुछ इस तरह की थी कि मोहिनी (नैना साहू) प्रोफ़ेसर किशनलाल (नासिर हुसैन) की बेटी है। मोहिनी मेडिकल की छात्रा है जो सभी के साथ खुले दिल से मिलती जुलती है। एक बार वो बेहोश हो जाने के बाद जब डाक्टरी जाँच करायी जाती है तो डाक्टर उसे गर्भवती करार देता है। किशनलाल की जैसे दुनिया की उलट जाती है। कहानी उस ज़माने के लिहाज़ से थोड़ी प्राप्त वयस्क थी, जिसकी वजह से शायद यह उतनी कामयाब नहीं रही। लेकिन हमें यहाँ तो मतलब है बस अच्छे अच्छे गानें सुनने से, जो कि इस फ़िल्म में भी थे। किशोर साहू ने इस फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया था। अब नैना साहू उनके क्या लगते हैं, यह मैं आप पर छोड़ता हूँ, पता कर के मुझे भी ज़रूर बताइएगा, मैं इंतज़ार करूँगा! शंकर जयकिशन का इस फ़िल्म में संगीत था और इस गीत को लिखा शैलेन्द्र ने।

दोस्तों, यह गीत उन गीतों में से हैं जिनमें मुखड़ा और अंतरा एक जैसा ही होता है। चलिए कुछ उदाहरण दिया जाए। महेन्द्र कपूर की आवाज़ मे फ़िल्म 'हमराज़' का गीत "नीले गगन के तले धरती का प्यार पले", और 'फिर सुबह होगी' का शीर्षक गीत "वो सुबह कभी तो आएगी" में मुखड़ा और अंतरे एक ही मीटर पर, एक ही धुन पर लिखा गया है। ठीक वैसे ही 'हरे कांच की चूड़ियाँ' फ़िल्म के इस गीत में भी वही बात है। "धानी चुनरी पहन, सज के बन के दुल्हन, जाउँगी उनके घर, जिन से लागी लगन, आयेंगे जब सजन, जीतने मेरा मन, कुछ न बोलूँगी मैं, मुख न खोलूँगी मैं, बज उठेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ, ये कहेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ"। कुछ कुछ श्रृंगार रस पर आधारित इस गीत में एक लड़की के नये नये ससुराल में प्रवेश के समय का वर्णन हुआ है, कि किस तरह से वो अपने पति और नये परिवार के लोगों के दिलों को जीत लेंगी। क्योंकि ज़ाहिर सी बात है कि नयी दुल्हन ससुराल के पहले पहले दिनों में शर्म-ओ-हया के चलते अपने मुख से कुछ नहीं बोलती, इसलिए वो अपने जज़्बातों और तमन्नाओं को अपने नये परिवार वालों तक पहुँचाने का दायित्व अपने हरे कांच की चूड़ियों पर छोड़ती है। बहुत ही सुंदर शब्दों में पिरो कर शैलेन्द्र ने चूड़ियों का मानवीकरण किया है। तो लीजिए पेश है हरे कांच की चूड़ियों की कहानी आशा जी की ज़बानी।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. गीतकार इन्दीवर का लिखा एक शानदार गीत.
२. फिल्म में राजेश खन्ना और शर्मीला टैगोर की प्रमुख भूमिकाएं थी.
३. अंतरे में ये शब्द आता है -"कविता".

पिछली पहेली का परिणाम -
पूर्वी जी २८ अंकों पर आने की बधाई....लगता है आप ही सबसे पहले मंजिल पर पहुंचेंगीं...पराग जी, सबसे पहली बात, आवाज़ मंच किसी एक कलाकार या किसी ख़ास युग को समर्पित नहीं है, यहाँ संगीत विशेषकर हिंदी फ़िल्मी और गैर फ़िल्मी संगीत पर चर्चा होती है. आनंद बक्शी पहले गीतकार नहीं है आवाज़ पर जिनकी तारीफ़ हुई हो, शायद ही आपने ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय जी के आलेख में कभी किसी कलाकार की बुराई पायी हो, किसी की भी तारीफ करने का अर्थ दूसरे को बुरा कहना हरगिज़ नहीं है, फिल्म संगीत में आप आनंद बक्शी साहब के योगदान को कहीं से भी कमतर नहीं आंक सकते, यकीनन वो सबसे अधिक सफल गीतों को लिखने वाले गीतकार हैं, यो तो तथ्य है जिससे न आप इनकार कर सकते हैं न हम मुकर सकते हैं. आपने जिन महान गीतकारों की चर्चा की उन पर आलेख लिखेंगें तो हमें यकीनन बहुत ख़ुशी होगी, पर कृपया ये निवेदन हमारा सभी संगीत प्रेमियों से है कि यदि हम ए आर रहमान की तारीफ़ करें तो उसे नौशाद साहब की बुराई न समझा जाए....दोनों का अपना महत्त्व है...अपना क्लास है....ये सभी संगीत के विविध रूप हैं और ये अच्छा ही है कि हमारे पास ऐसी विविधता है.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

एक कोने में गज़ल की महफ़िल, एक कोने में मैखाना हो..."गोरखपुर" के हर्फ़ों में जाम उठाई "पंकज" ने



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४५

पूरी दो कड़ियों के बाद "सीमा" जी ने अपने पहले हीं प्रयास में सही जवाब दिया है। इसलिए पहली मर्तबा वो ४ अंकों की हक़दार हो गई हैं। "सीमा" जी के बाद हमारी "प्रश्न-पहेली" में भागेदारी की शामिख फ़राज़ ने। हुज़ूर, इस बार आपने सही किया. पिछली बार की तरह ज़ेरोक्स मशीन का सहारा नहीं लिया, इसलिए हम भी आपके अंकों में किसी भी तरह की कटौती नहीं करेंगे। लीजिए, २ अंकों के साथ आपका भी खाता खुल गया। आपके लिए अच्छा अवसर है क्योंकि हमारे नियमित पहेली-बूझक शरद जी तो अब धीरे-धीरे लेट-लतीफ़ होते जा रहे हैं, इसलिए आप उनके अंकों की बराबरी आराम से कर सकते हैं। बस नियमितता बनाए रखिए। "शरद" जी, यह क्या हो गया आपको। एक तो देर से आए और ऊपर से दूसरे जवाब में कड़ी संख्या लिखा हीं नहीं। इसलिए आपका दूसरा जवाब सही नहीं माना जाएगा। इस लिहाज़ से आपको बस .५ अंक मिलते हैं। कुलदीप जी, हमने पिछली महफ़िल में हीं कहा था कि सही जवाब देने वाले को कम से कम १ अंक मिलना तो तय है, इसलिए जवाब न देने का यह कारण तो गलत है। लगता है आपने नियमों को सही से नहीं पढा है। अभी भी देर नहीं हुई, वो कहते हैं ना कि "जब जागो, तभी सवेरा"। ये तो हुई पिछली कड़ी की बातें, अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) ‘रावलपिंडी कांस्पिरेसी केस’ के सिलसिले में गिरफ़्तार किए गए एक शायर जिन्होंने अपने परम मित्र की मौत के बाद उनके एक शेर के जवाब में कहा था "चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर"। उस शायर का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि उनके उस मित्र ने किस आँदोलन में हिस्सा लिया था?
२) १९७६ में अपने संगीत-सफ़र की शुरूआत करने वाले एक फ़नकार जिनकी उस गज़ल को हमने सुनवाया था जिसे "हस्ती" ने लिखा था। उस फ़नकार का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि वह गज़ल किस एलबम में शामिल है?


आज हम जिस गज़ल को पेश करने जा रहे हैं उसके शायर और गज़ल-गायक दोनों हमारी महफ़िल में पहले भी आ चुके हैं या यूँ कहिए कि इनकी जोड़ी हमारी महफ़िल में तशरीफ़ ला चुकी है। वह नज़्म थी "एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा"। जी हाँ हम शायर "ज़फ़र गोरखपुरी" और गज़ब के गज़ल-गायक "पंकज उधास" की बातें कर रहे हैं। पंकज उधास का नाम आते हीं लोगों को शराब, साकी, मैखाना की हीं यादें आती हैं और इसलिए उन पर आरोप भी लगाया जाता है कि कच्ची उम्र के श्रोताओं को इनकी ऐसी नज़्में/गज़लें रास्ते से भटकाती हैं। लेकिन इस सिलसिले में पंकज जी के कुछ अलग हीं विचार हैं। "यह मेरे कैरियर से जुड़ी सबसे अहम बात है, जिसका खुलासा आज मैं करना चाहता हूं.....देखिए, मैं गायकी की दुनिया में २८ साल से हूं और पहले एलबम "आहट" से लेकर अब तक ४० से ज्यादा एलबम रिलीज हो चुके हैं और अगर सारी कंपोजीशन को आप देखें, तो पाएंगे कि सिर्फ पच्चीस के आस-पास ऎसी गजलें हैं, जिनमें शराब और साकी वगैरह का जिक्र है। लेकिन बदकिस्मती से म्यूजिक कंपनियों ने इन्हे इस तरह रिलीज किया कि मेरी ऐसी इमेज बन गई कि मैं पीने-पिलाने टाइप की गजलें ही गाता हूं।" जो भी हो, लेकिन संयोग देखिए कि हमारी आज की गज़ल में भी ऐसे हीं किसी "मैखाने" का ज़िक्र है। पंकज उधास साहब जहाँ एक तरफ़ गज़लों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए भी उसकी स्थिति को सामान्य मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ हिन्दी-फिल्मी संगीत की स्थिति पर कठोर शब्दों में चिंता ज़ाहिर करते हैं। उनका कहना है कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में फिल्म उद्योग में बूम आया, लेकिन फिल्म संगीत इस बूम से अछूता है। जैसा संगीत फिल्मों के लिए तैयार किया जा रहा है, उसे देखकर महसूस होता है कि म्यूजिक आगे नहीं जा रहा है। पाँच साल बाद फिल्मों में मौसिकी रहेगी ही नहीं। आजकल फिल्मों में दो-तीन आइटम सांग को ही फिल्म संगीत कहा जाने लगा है। कई फिल्में ऐसी भी आई हैं, जिनके मुख्य किरदार पर एक भी गाना नहीं फिल्माया गया। फिल्म संगीत में कहीं गंभीर काम की झलक दिखाई नहीं देती। वैसे जितने लोगों को यह लगता है कि पंकज उधास साहब अपनी गायकी की शुरूआत फिल्म "नाम" के "चिट्ठी आई है" से की थी, तो उनके लिए एक खास जानकारी हम पेश करने जा रहे हैं। १९७१ में बी० आर० इशारा की फिल्म "कामना" के लिए इन्होंने उषा खन्ना के संगीत में "नक्श लायलपुरी" की एक नज़्म गाई थी जिसके बोल कुछ यूँ थे -"-तुम कभी सामने आ जाओ तो पूछूं तुमसे/किस तरह दर्दे मुहब्बत को सहा जाता है"। बदकिस्मती से वह फिल्म रीलिज न हो पाई लेकिन इसके रिकार्ड रीलिज ज़रूर हुए। तो इतने पुराने हैं हमारे पंकज साहब।

आज से ७ साल पहले "खजाना" नाम के एक महोत्सव की शुरूआत करने वाले पंकज साहब इसके बारे में कहते हैं: सात साल पहले हमने ये सिलसिला इसलिए शुरु किया था कि साल में एक बार ग़ज़ल की दुनिया के सभी लोग एक मंच पर इकट्ठा हो सकें और हमें खुशी है कि ये कार्यक्रम हर साल कामयाबी की बुलंदियां छूता जा रहा है। इसमें दो उभरते गजल गायकों को सामने लाया जाता है। इस तरह से हम सारे स्थापित गज़ल गायक मिलकर गजल को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। इस साल यह कार्यक्रम मदन मोहन साहब को समर्पित था। गज़लों की आजकल की स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए ये कहते हैं: 'कौमी आवाज' जैसा अखबार बंद हो गया, लेकिन कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। मौसिकी और शायरी दोनों का स्तर गिरा है, मगर इसके लिए सिर्फ गायकों को दोष देना सही नहीं है।इसके लिए नगमानिगार (गीत लिखने वाले) भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जो बेहतरीन शायरी नहीं लिख रहे। नतीजतन, नई पीढ़ी का शायरी और साहित्य के साथ लगाव कम होता जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि शायर को मुफलिसी में जीना पड़ता है, इसीलिए शायर या कवि बनने से बेहतर है कि कुछ और किया जाए, जिसमें पैसा जल्द पैदा होता हो। दाग जैसे नामचीन शायरों को अपने परिवार की चिंता नहीं रहती थी। निजाम से उन्हें घर चलाने के लिए धन मिलता था। श्रोता भी अपना दामन बचा नहीं सकते। नई पीढ़ी के शायरों को न तो बढ़ावा मिलता है, न दाद। नए शायरों को प्रोत्साहन करने से तस्वीर बदल सकती है। आज केवल गंभीर काम पर जिंदा नहीं रहा जा सकता। आगे बढ़ना तो नामुमकिन है। आवाम को नए शायरों और गजल गायकों की हौसला अफजाई करना चाहिए। इतना होने के बावजूद पंकज उधास को इस बात की खुशी है कि गज़ल सुनने वाले आज भी उसी उत्साह के साथ महफ़िलों में आते हैं। इस बाबत इनका कहना है कि: गजल का साथ कभी नहीं छूट सकता और मेरा तो मानना है कि लोग आज भी उसी कशिश के साथ गजल सुनना पसंद करते हैं। आज भी जब कहीं हमारा कंसर्ट होता है, तो उसमें बेशुमार संगीत प्रेमी शिरकत करते हैं। अगर गजलों का दौर खत्म हो गया होता, तो इतने सारे लोग कहां से आते हैं। इतना जरूर है कि बीच में जब पॉप म्यूजिक का हंगामा था, तब थोड़े वक्त के लिए गजल पिछड़ गई थी, लेकिन जल्द ही पॉप हाशिए पर चला गया और गजल को फिर पहले वाला मुकाम हासिल हो गया। पंकज उधास के बारे में इतनी बातें करने के बाद यूँ तो हमें अब आज की गज़ल के शायर की तरफ़ रूख करना चाहिए, लेकिन समयाभाव(पढें: स्थानाभाव) के कारण हमें अपने इस आलेख को यहीं विराम देना होगा। "ज़फ़र" साहब की बातें कभी अगली कड़ी में करेंगे। आज हम उनके इस शेर से हीं काम चला लेते हैं:

वो बदगुमां हो तो शेर सूझे न शायरी
वो महर-बां हो ’ज़फ़र’ तो समझो ग़ज़ल हुई।


क्या आपको यह मालूम है कि "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे" के दो गीतों "न जाने मेरे दिल को क्या हो गया" और "तुझे देखा तो ये जाना सनम" की रचना "ज़फ़र" साहब ने हीं की थी। नहीं मालूम था ना। कोई बात नहीं, आज तो जान गए। तो चलिए शायर की उसी रूमानियत को महसूस करते हुए इस गज़ल का आनंद उठाते है:

एक ऐसा घर चाहिए मुझको, जिसकी फ़ज़ा मस्ताना हो,
एक कोने में गज़ल की महफ़िल, एक कोने में मैखाना हो।

ऐसा घर जिसके दरवाज़े बंद न हों इंसानों पर,
शेखो-बरहमन, रिंदो-शराबी सबका आना जाना हो।

एक तख्ती अंगूर के पानी से लिखकर दर पर रख दो,
इस घर में वो आये जिसको सुबह तलक न जाना हो।

जो मैखार यहाँ आता है अपना महमां होता है,
वो बाज़ार में जाके पीले जिसको दाम चुकाना हो।

प्यासे हैं होठों से कहना कितना है आसान "ज़फ़र"
मुश्किल उस दम आती है जब आँखों से समझाना हो।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

मैं बहुत जल्दी ही घर लौट के आ जाऊँगा,
मेरी ____ यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे...


आपके विकल्प हैं -
a) बेज़ारी, b) परछाई, c) तन्हाई, d) बेकरारी

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बच्चा" और शेर कुछ यूं था -

मेरा दिल बारिशों में फूल जैसा,
ये बच्चा रात में रोता बहुत है ...

बशीर बद्र साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "सीमा जी" ने। ये रहे आपके पेश किए हुए कुछ शेर:

ज़िन्दगी की पाठशाला में यहाँ पर उम्र भर
वृद्ध होकर भी हमेशा आदमी बच्चा रहा। (कमलेश भट्ट 'कमल' )

मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं| (मुनव्वर राना ) ..वाह! क्या बात है!

पाल-पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गए
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ (देवमणि पांडेय )

घर में वो अपनी ज़िद्द से सताता किसे नहीं
ऐ दोस्त ज़िद्दी बच्चा रुलाता किसे नहीं (प्राण शर्मा )

सीमा जी के बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। आपने भी कुछ मनोहारी शेर पेश किए। ये रही बानगी:

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झाँकी हिंदुस्तान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये

सुमित जी ने निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर महफ़िल के सुपूर्द किया:

बच्चो के छोटे हाथो को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबे पढ़कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे।

मंजु जी और शन्नो जी भी अपने-अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल में तशरीफ़ लाईं। ये रहे इनके कहे हुए शेर(क्रम से):

बच्चा हूँ तो क्या,नहीं अक्ल से कच्चा,
आग -पानी सा हूँ सच्चा,इसलिए हूँ ईश्वर-सा।

एक बच्चे की तरह खाली झोली लेकर ही आते रहे
और एक कोने में दुबक तमाशाई बन हम बैठ जाते थे.

अंत में कुलदीप जी का हमारी महफ़िल में आना हुआ। आपने भी कुछ बेहतरीन शेर पेश किए:

दिल भी जिद पर अदा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं (राजेश रेड्डी)

गुडियों से खेलती हुई बच्ची की आंख में
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमे (इफ्तिखार आरिफ)

मनु जी, क्या कहें आपको। छोड़िए..जाने दीजिए...कहने का कोई फ़ायदा नहीं।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Monday, September 14, 2009

बा होशो-हवास में दीवाना ये आज वसीयत करता है...फ़िल्मी गीतों में नए प्रयोगों के सूत्रधार रहे आनंद बख्शी साहब



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 202

स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी की पसंद का दूसरा गीत आज पेश-ए-ख़िदमत है फ़िल्म 'नाइट इन लंदन' से, "बा होश-ओ-हवास मैं दीवाना, ये आज वसीयत करता हूँ, ये दिल ये जान मिले तुम को, मैं तुम से मोहब्बत करता हूँ". ६० के दशक में शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, शंकर जयकिशन और मोहम्मद रफ़ी साहब की टीम ने एक से एक कामयाब गीत हमें दिए हैं। इस टीम के गीतों का एक अलग ही अंदाज़ हुआ करता था। ऐसे में जब अगली पीढ़ी के संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने फ़िल्म जगत में क़दम रखा, तो वे शंकर जयकिशन से मुतासिर होने की वजह से कई गानें ऐसे बनाए जिनमें शंकर जयकिशन का स्टाइल साफ़ झलकता है। रफ़ी साहब से गवाया गया और आनंद बक्शी साहब से लिखवाया गया फ़िल्म 'नाइट इन लंदन' का प्रस्तुत गीत उन्ही गीतों में से एक है। इस फ़िल्म का एक दूसरा गीत "नज़र न लग जाए किसी की राहों में" भी इसी कतार में शामिल है। किस तरह से एक पीढ़ी अपनी कला को अगली पीढ़ी को सौंप देती है, इस फ़िल्म के गानें उसी के मिसाल हैं। फ़िल्म 'नाइट इन लंदन' का निर्माण हुआ था सन् १९६७ में कपूर फ़िल्म्स के बैनर तले। बृज द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म मे जॉय मुखर्जी और माला सिंहा ने मुख्य भूमिकाएँ निभायी थी। प्यारेलाल जी ने रफ़ी साहब के गायकी के विविधता को उजागर करते हुए और इस फ़िल्म के इन दोनों गीतों का ज़िक्र करते हुए विविध भारती पर कहा था, "देखिए, हर एक गाने के शब्दों के हिसाब से, बोलों के हिसाब से, वो गाते थे, और कौन हीरो गा रहा है, वह भी देखते हुए, हम पहले ध्यान देते थे, उसके बाद में देखिए "बा होश-ओ-हवास मैं दीवाना"। 'नाइट इन लंदन', उसमें एक शब्द आता है "ओ माइ लव", थोड़ा इंडियानाइज़्ड, थोड़ा वेस्टरनाइज़्ड, लेकिन उसके अंदर भी एक अपनापन रख के। "बा होश-ओ-हवास", इसको उन्होने जैसे गाया है,उन्होने शब्दों को ऐसे मोल्ड किया है कि शायद मैं १० बार गाऊँ तो शायद एक बार उनके जैसा गा पाउँगा यह गाना।"

प्यारेलाल जी और रफ़ी साहब के बाद अब हम आते हैं आनंद बक्शी साहब पर। इस गीत के लिए सब से ज़्यादा वाह वाही मेरे ख़याल से बक्शी साहब को ही मिलनी चाहिए। उनकी हमेशा से ही यह कोशिश रही है कि आम ज़िंदगी से शब्दों को उठाकर अपने गीतों में पिरोना। यहाँ तक कि उन्होने सरकारी और औपचारिक भाषा का भी सफल इस्तेमाल कर के दिखा दिया है प्रस्तुत गीत में। "मैं पूरे होश-ओ-हवास में यह वसीयत करता हूँ कि मेरी मौत के बाद मेरी फ़लाना जायदाद फ़लाने आदमी के नाम कर दी जाए", इस न्यायिक भाषा को एक रोमांटिक गीत में परिवर्तित कर के बक्शी साहब ने सब को चौंका दिया था। सिर्फ़ मुखड़े में ही क्यों, पहले अंतरे में वो फिर कहते हैं कि "मेरे जीते जी यार तुम्हे मेरी सारी जागिर मिले", जो एक बार फिर से उसी वसीयतनामे की औपचरिकता लिए हुए है। मुझे एक और गीत याद रहा है जिसमें आनंद बक्शी ने इस तरह का उदाहरण पेश किया था। दोस्तों, आप ने सड़क पर चलते हुए कई जगहों पर साइन बोर्ड देखा होगा जिसमें लिखा रहता है "यह आम रस्ता नहीं है"। शायद बक्शी साहब ने भी इसे कहीं पर देख लिया होगा, तभी तो 'लव स्टोरी' फ़िल्म के गीत "देखो मैने देखा है ये एक सपना" के एक अंतरे में लिख डाले हैं "यहाँ तेरा मेरा नाम लिखा है, रस्ता नहीं ये आम लिखा है"। कहने का मतलब यही है कि आनंद बक्शी के गीतों की चरम लोकप्रियता का राज़ यही है कि उन्होने ज़्यादा से ज़्यादा आम बोलचाल जैसी भाषा का प्रयोग किया, लेकिन मास के साथ साथ क्लास का भी ध्यान रखते हुए। इस बात को कहने में मुझे ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं रो रही कि आनंद बक्शी का नाम फ़िल्म संगीत के क्रांतिकारी गीतकारों की फ़ेहरिस्त में लिखा जाना चाहिए, जिन्होने फ़िल्मी गीत की प्रचलित धारा का रुख़ बदल कर रख दिया था। तो दोस्तों, अब सुनिए यह प्यार का यह वसीयतनामा, करते हुए अदा जी का शुक्रिया!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस गीत की गायिका वो हैं जिन पर ओल्ड इस गोल्ड में ताजा श्रृंखला चली है अभी.
२. ये फिल्म का शीर्षक गीत भी है.
३. शैलेन्द्र के लिखे इस गीत का मुखडा इस शब्द से शुरू होता है -"धानी".

पिछली पहेली का परिणाम -
मनु जी बहुत बढ़िया चल रहे हैं अब आप, डबल फिगर यानी १० अंकों पर पहुँचने की बधाई....आज की पहेली बहुत आसन दी है आप सब के लिए.....all the best.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रामधारी सिंह दिनकर की कविता गाइए और संगीतबद्ध कीजिए और जीतिए रु 7000 के नग़द इनाम



गीतकास्ट प्रतियोगिता की 'राष्ट्रकवि-शृंखला'

सर्वप्रथम सभी पाठकों/श्रोताओं को हिन्दी-दिवस की बधाइयाँ।

आज इस विशेष मौके पर हम गीतकास्ट प्रतियोगिता में एक नई शृंखला की शरूआत कर रहे हैं। हिन्द-युग्म ने पिछले चार महीनों में छायावादी युगीन 4 कवियों की एक-एक कविताओं को संगीतबद्ध करवाया। कल ही हमने महादेवी वर्मा की कविता 'तुम जो आ जाते एक बार' का संगीतबद्ध रूप ज़ारी किया था। दूसरी शृंखला में हमने राष्ट्रकवियों की एक-एक कविता को संगीतबद्ध/स्वरबद्ध करवाने का निश्चय किया है।

सितम्बर महीने में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती मानई जाती है, तो हमने सोचा कि क्यों न उन्हीं से शुरूआत की जाय।

हमारे एक प्रतिभागी रफ़ीक़ शेख़ की शिकायत थी कि हम इनाम स्वरूप बहुत कम धनराशि देते हैं। इसलिए इस बार से हम उसे भी बढ़ा रहे हैं। आज हिन्दी दिवस पर यह बताते हुए हमें बहुत खुशी हो रही है कि इनाम की राशि इस माह से रु 7000 होगी, पहले यह राशि रु 4000 हुआ करती थी।

इस कड़ी के प्रायोजक हैं कमल किशोर सिंह जो कि रिवरहेड, न्यूयार्क में रहते हैं। पेशे से डॉक्टर हैं। हिन्दी तथा भोजपुरी में कविताएँ लिखते हैं। आवाज़ की गीतकास्ट प्रतियोगिता में हर बार ज़रूर भाग लेते हैं। हम इन्हीं की पसंद की कविता को ही स्वरबद्ध करने की प्रतियोगिता रख रहे हैं।

गीत को केवल पढ़ना नहीं बल्कि गाकर भेजना होगा। हर प्रतिभागी इस गीत को अलग-अलग धुन में गाकर भेजे (कौन सी धुन हो, यह आपको खुद सोचना है)।

1) गीत को रिकॉर्ड करके भेजने की आखिरी तिथि 30 सितम्बर 2009 है। अपनी प्रविष्टि podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल करें।
2) इसे समूह में भी गाया जा सकता है। यह प्रविष्टि उस समूह के नाम से स्वीकार की जायेगी।
3) इसे संगीतबद्ध करके भी भेजा जा सकता है।
4) श्रेष्ठ तीन प्रविष्टियों को कमल किशोर सिंह की ओर से क्रमशः रु 4000, रु 1500 और रु 1500 के नग़द पुरस्कार दिये जायेंगे।
5) सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि को डलास, अमेरिका के एफ॰एम॰ रेडियो स्टेशन रेडियो सलाम नमस्ते के कार्यक्रमों में बजाया जायेगा। इस प्रविष्टि के गायक/गायिका से आदित्य प्रकाश रेडियो के किसी कार्यक्रम में सीधे बातचीत करेंगे, जिसे दुनिया में हर जगह सुना जा सकेगा।
6) सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि को 'हिन्दी-भाषा की यात्रा-कथा' नामक वीडियो/डाक्यूमेंट्री में भी बेहतर रिकॉर्डिंग के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है।
8) श्रेष्ठ प्रविष्टि के चयन का कार्य आवाज़-टीम द्वारा किया जायेगा। अंतिम निर्णयकर्ता में आदित्य प्रकाश का नाम भी शामिल है।
9) हिन्द-युग्म का निर्णय अंतिम होगा और इसमें विवाद की कोई भी संभावना नहीं होगी।
10) निर्णायकों को यदि अपेक्षित गुणवत्ता की प्रविष्टियाँ नहीं मिलती तो यह कोई ज़रूरी भी नहीं कि पुरस्कार दिये ही जायँ।

रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'कलम, आज उनकी जय बोल'

जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएँ,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल

Sunday, September 13, 2009

हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाज़ार की तरह....फ़िल्मी ग़ज़लों में अग्रणी कही जा सकती है ये रचना



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 201

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आज से छा रहा है फ़रमाइशी रंग एक बार फिर से। शरद तैलंद जी के बाद अब 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के दूसरे विजेयता स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के पसंद के ५ गीतों को सुनने की बारी आ गई है। आज से अगले ५ दिनों तक आप सुनेंगे अदा जी के चुने हुए वो नग़में जो उनके दिल के बहुत करीब हैं, और हमें पूरा यकीन है कि ये गानें आप सभी को उतने ही पसंद आएँगे जितने कि हमें आए हैं। सच पूछिए तो इन गीतों के बारे में लिखते हुए भी मुझे उतनी ही ख़ुशी का अनुभव हो रहा है। तो अदा जी की पसंद का पहला गाना जो हमने चुना है वह है फ़िल्म 'दस्तक' का। जी हाँ, १९७० की वही फ़िल्म 'दस्तक' जिसके लिए संगीतकार मदन मोहन को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। मदन मोहन के साथ अक्सर ऐसा हुआ है कि उनकी फ़िल्में वाणिज्यिक दृष्टि से ज़्यादा चली नहीं, लेकिन उनके गीत संगीत ने इतिहास रच दिया। यह फ़िल्म भी उन्ही में से एक है। दोस्तों, इस फ़िल्म का एक गीत "माई री मैं का से कहूँ पीर अपने जिया की" हमने आप को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की चौथी कड़ी में ही सुनवा दिया था। आज सुनिए इस फ़िल्म की एक और बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल "हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह, उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह"। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल हैं और आवाज़, बताने की ज़रूरत नहीं, लता जी की।

आइए इस ग़ज़ल को सुनने से पहले ज़रा इसका करीब से विश्लेषण किया जाए। नायिका अपने आप को "मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार" कह रहीं हैं जिसका मतलब है बाज़ार में बिकने वाला सामान, जिस पर हर नज़र ख़रीदार के हैसीयत से ही पड़ती है। पूरे ग़ज़ल में उर्दू के कुछ ऐसे ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो साधारणत: किसी फ़िल्मी गीत में ना के बराबर पाए जाते हैं। "वो हैं कहीं और मगर दिल के पास है, फिरती है कोई शय निगाह-ए-यार की तरह" में अगर नायिका अपने प्रेमी को अपने दिल के पास ही महसूस करती है तो अगले ही अंतरे में मजरूह एक फ़ेहरिस्त तैयार करते है उन लोगों की जिन्होने नायिका को सच्चे दिल से चाहा है लेकिन नायिका ही प्रेम की परीक्षा में असफल रहीं हैं - "मजरूह लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम, हम भी खड़े हुए है गुनेहगार की तरह"। ये दोनों अंतरें एक दूसरे के विपरित हैं, जिनका महत्व इस फ़िल्म को देखकर, कि किस सिचुयशन में इस ग़ज़ल का फ़िल्मांकन हुआ है, समझा जा सकता है। चलते चलते आप को यह भी बता दें कि इस ग़ज़ल में कुल ६ शेर हैं, लेकिन फ़िल्म में पहले, तीसरे और पाँचवे शेर का ही इस्तेमाल हुआ है। आप के लिए ये पूरी ग़ज़ल हम नीचे लिख रहे हैं। तो सुनिए अदा जी की यह पसंदीदा ग़ज़ल और ज़रूर लिखिए कि क्या यह आप के पसंदीदा ग़ज़लों में भी शामिल.

हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह,
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह।

इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है के एक जाम,
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह।

वो तो हैं कहीं और मगर दिल के आस पास,
फिरती है कोई शय निगाह-ए-यार की तरह।

सीधी है राह-ए-शौक़ पा यूँ ही कभी कभी,
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह।

अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाखून-ए-जुनून,
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़सार की तरह।

'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम,
हम भी खड़े हुए है गुनेहगार की तरह"।




और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. इस फिल्म के नाम में एक मशहूर शहर का नाम है.
२. इस गीत के संगीतकार जोड़ी लगभग ३२ सालों तक इंडस्ट्री पर राज़ किया है.
३. मुखड़े के शुरूआती बोलों में संख्या में सबसे अधिक हिट गीत लिखने वाले गीतकार ने न्यायिक शब्दावली का इस्तेमाल किया है.

पिछली पहेली का परिणाम -
मनु जी आपने सही मायनों में कछुवे को भी मात दे दी है...:) आप वो शख्स हैं जो ओल्ड इस गोल्ड की सबसे पहली कड़ी से हमारे साथ हैं...और २०० एपिसोड्स पूरे होने पर आप चलते चलते ८ अंकों पर आ ही गए. बधाई....पाबला जी और पराग जी हमें यकीं है कि आप की उलझनों का जवाब नियत्रक की टिप्पणी के बाद मिल ही गया होगा. २०० वें एपिसोड की ख़ुशी हमारे साथ बांटने आये हमारे सभी प्यारे प्यारे श्रोताओं का बहुत बहुत आभार

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' का संगीतबद्ध रूप



गीतकास्ट प्रतियोगिता- परिणाम-4: जो तुम आ जाते एक बार

हर वर्ष 14 सितम्बर का दिन हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। हिन्दी सेवी संस्थाएँ तरह-तरह के सांस्कृतिक और साहित्यिक आयोजन करती हैं। सरकारी उपक्रम तो हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़ा व हिन्दी मास अभियान चलाने जैसी बातें करते हैं। लेकिन हम ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं। बल्कि इससे एक दिन पहले महीयसी महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' का संगीतबद्ध संस्करण जारी कर रहे हैं।

हिन्द-युग्म डॉट कॉम अपने आवाज़ मंच पर गीतकास्ट प्रतियोगिता के माध्यम से हिन्दी के स्तम्भ कवियों की एक-एक कविताओं को संगीतबद्ध/स्वरबद्ध करने की प्रतियोगिता आयोजित करता है। इसमें हमने शुरूआती शृंखला के तौर पर छायवादी युगीन कवियों की कविताओं को स्वरबद्ध करने की प्रतियोगिता रखी। जिसके अंतर्गत अब तक जयशंकर प्रसाद की कविता ' अरुण यह मधुमय देश हमारा', सुमित्रानंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता 'स्नेह निर्झर बह गया है' को संगीतबद्ध किया जा चुका है। आज हम छायावादी युग की अंतिम कड़ी यानी महादेवी वर्मा की कविता 'जो तुम आ जाते एक बार' का परिणाम लेकर हाज़िर हैं।

जब हमें लगा कि कविता को स्वरबद्ध करना मुश्किल है, तब हमें बहुत अधिक प्रविष्टियाँ मिली। जबकि इस बार हमें महसूस हो रहा था कि महादेवी वर्मा की यह कविता बहुत आसानी से संगीतबद्ध हो जायेगी तो मात्र 10 प्रतिभागियों ने इसमें भाग लिया। लेकिन सजीव सारथी, अनुराग शर्मा, यूनुस खान, आदित्य प्रकाश और शैलेश भारतवासी सरीखे निर्णायकों ने कहा कि इस बार संगीत संयोजन, गायकी और उच्चारण के स्तर पर प्रविष्टियाँ पहले से कहीं बेहतर हैं। तब हमें बहुत संतोष भी मिला।

पाँच जजों द्वारा मिले औसत अंकों के आधार में हमने कृष्ण राज कुमार और श्रीनिवास पांडा/कुहू गुप्ता को संयुक्त विजेता घोषित करने का निर्णय लिया है। इस तरह से प्रथम स्थान के लिए निर्धारित रु 2000 और दूसरे स्थान के निर्धारित के लिए निर्धारित रु 1000 को जोड़कर आधी-आधी राशि इन दो विजेताओं (विजेता समूहों) को दी जायेगी।

आपको याद होगा की श्रीनिवास पांडा के संगीत-निर्देशन में बिस्वजीत नंदा द्वारा गायी गई निराला की कविता 'स्नेह निर्झर बह गया है' को भी पहला स्थान प्राप्त हुआ था। इस बार संगीतकार श्रीनिवास ने कुहू गुप्ता के रूप में बहुत ऊर्जावान गायिका हिन्द-युग्म को दिया है।


श्रीनिवास/कुहू

श्रीनिवास
कुहू
कुहू युग्म पर पहली बार शिरकत कर रही हैं। पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 5 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं। वैसे ये अपनी संतुष्टि के लिए गाना ही अधिक पसंद करती हैं।

श्रीनिवास हिन्द-युग्म के लिए बिलकुल नये संगीतकार हैं। 'स्नेह-निर्झर बह गया है' के माध्यम से आवाज़ पर इन्होंने अपनी एंट्री की थी। मूलरूप से तेलगू और उड़िया गीतों में संगीत देने वाले श्रीनिवास पांडा का एक उड़िया एल्बम 'नुआ पीढ़ी' रीलिज हो चुका है। इन दिनों हैदराबाद में हैं और अमेरिकन बैंक में कार्यरत हैं।

पुरस्कार- प्रथम पुरस्कार, रु 1500 का नग़द पुरस्कार

विशेष- अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात।

गीत सुनें-
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इसी स्थान पर कृष्ण राजकुमार की प्रविष्टि भी शामिल है।


कृष्ण राज कुमार

कृष्ण राज कुमार एक ऐसे गायक-संगीतकार हैं जिनके बारे में जानकर और सुनकर हर किसी को सलाम करने का मन करता है। गीतकास्ट प्रतियोगिता अभी तक 4 बार आयोजित हुई है, इन्होंने चारों दफा इसमें भाग लिया है और निर्णायकों का ध्यान आकृष्ट किया है। जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' के लिए प्रथम पुरस्कार, सुमित्रा नंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' के लिए द्वितीय पुरस्कार और इस बार महादेवी वर्मा के लिए भी प्रथम पुरस्कार। निराला की कविता 'स्नेह निर्झर बह गया है' के लिए भी इनकी प्रविष्टि उल्लेखनीय थी। कृष्ण राज कुमार जो मात्र 22 वर्ष के हैं, और जिन्होंने अभी-अभी अपने B.Tech की पढ़ाई पूरी की है, पिछले 14 सालों से कर्नाटक गायन की दीक्षा ले रहे हैं। इन्होंने हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र के संगीतबद्धों गीतों में से एक गीत 'राहतें सारी' को संगीतबद्ध भी किया है। ये कोच्चि (केरल) के रहने वाले हैं। जब ये दसवीं में पढ़ रहे थे तभी से इनमें संगीतबद्ध करने का शौक जगा।

पुरस्कार- प्रथम पुरस्कार, रु 1500 का नग़द पुरस्कार

विशेष- डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात।

गीत सुनें-
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तीसरे स्थान के विजेता आवाज़ के दैनिक श्रोता हैं। ओल्ड इज़ गोल्ड के गेस्ट-होस्ट रह चुके हैं। आवाज़ से ही कैरिऑके में अपनी आवाज़ डालना सीखे हैं और आज तीसरे स्थान के विजेता हैं। इस प्रविष्टि में संगीत इनका है और संगीत संयोजन इनके मित्र ब्रजेश दाधीच का। आवाज़ भी इन्हीं की है।


शरद तैलंग

शरद तैलंग सुगम संगीत के आकाशवाणी कलाकार, कवि, रंगकर्मी और राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के कार्यकारिणी सदस्य हैं। वे भारत विकास परिषद के अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय सम्मेलन के सांस्कृतिक सचिव भी रह चुके हैं।

आप अनेक साहित्यिक व संगीत संस्थाओँ के सदस्य अथवा पदाधिकारी रह चुके है, अनेकों संगीत एवं नाट्य प्रतियोगिताओँ में निर्णायक रह चुके हैं तथा देश के केरल, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र प्रदेशों के अनेक शहरों में अपनी संगीत प्रस्तुतियाँ दे चुके हैं। आपकी रचनाएँ देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओँ जैसे धर्मयुग, हंस, मरु गुलशन, मरु चक्र, सौगात, राजस्थान पत्रिका, राष्ट्रदूत, माधुरी, दैनिक भास्कर आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं।

ऑल इण्डिया आर्टिस्ट एसोसिएशन शिमला, जिला प्रशासन कोटा आई. एल. क्लब तथा अनेक संस्थानों द्वारा उन्हें सम्मानित किया जा चुका हैं। आप आवाज़ पर बहुचर्चित स्तम्भ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अतिथि-होस्ट रह चुके हैं।

पुरस्कार- तृतीय पुरस्कार, रु 1000 का नग़द पुरस्कार

विशेष- डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात।

गीत सुनें-
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इनके अतिरिक्त हम रफ़ीक शेख, कमल किशोर सिंह, रमेश धुस्सा, अम्बरीष श्रीवास्तव, शारदा अरोरा, कमलप्रीत सिंह, और अर्चना चाओजी इत्यादि के भी आभारी है, जिन्होंने इसमें भाग लेकर हमारा प्रोत्साहन किया और इस प्रतियोगिता को सफल बनाया। हमारा मानना है कि यदि आप इन महाकवियों की कविताओं को यथाशक्ति गाते हैं, पढ़ते हैं या संगीतबद्ध करते हैं तो आपका यह छोटा प्रयास एक सच्ची श्रद्धाँजलि बन जाता है और एक महाप्रयास के द्वार खोलता है। हम निवेदन करेंगे कि आप इसी ऊर्जा के साथ गीतकास्ट के अन्य अंक में भी भाग लेते रहें।


इस कड़ी के प्रायोजक है डैलास, अमेरिका के अशोक कुमार हैं जो पिछले 30 सालों से अमेरिका में हैं, आई आई टी, दिल्ली के प्रोडक्ट हैं। डैलास, अमेरिका में भौतिकी के प्रोफेसर हैं, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति के आजीवन सदस्य हैं। और हिन्दी-सेवा के लिए डैलास में एक सक्रिय नाम हैं। यदि आप भी इस आयोजन को स्पॉनसर करता चाहते हैं तो hindyugm@gmail.com पर सम्पर्क करें।

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