महान फिल्मकार गुरुदत्त की पुण्यतीथी पर एक विशेष प्रस्तुति लेकर आए हैं दिलीप कवठेकर
कुछ दिनों पहले मैंने एक सूक्ति कहीं पढ़ी थी -
To make simple thing complicated is commonplace.
But ,to make complicated things awesomely simple is Creativity.
गुरुदत्त की अज़ीम शख्सियत पर ये विचार शत प्रतिशत खरे उतरते है. वे महान कलाकार थे , Creative Genre के प्रायः लुप्तप्राय प्रजाति, जिनके सृजनात्मक और कलात्मक फिल्मों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा.
आज से ४४ साल पहले १० अक्टुबर सन १९६४ को, उन्होंने अपने इस कलाजीवन से तौबा कर ली. रात के १ बजे के आसपास उनसे विदा लेने वाले आख़िरी शख्स थे अबरार अल्वी. उनके निधन से हमें उन कालजयी फिल्मों से मरहूम रहना पडा, जो उनके Signature Fims कही जाती है.
वसंथ कुमार शिवशंकर पदुकोने के नाम से इस दुनिया में आँख खोलने वाले इस महान कलाकार नें एक से बढ़कर एक ऐसी फिल्मों से हमारा त,अर्रूफ़ करवाया जो विश्वस्तरीय Masterpiece थीं. गुरुदत्त नें गीत संगीत की चासनी में डूबी, यथार्थ से एकदम नज़दीक खट्टी मीठी कहानियों की पर बनी फ़िल्मों से, उन जीवंत सीधे सच्चे संवेदनशील चरित्रों से हमें मिलवाया,जिनसे हम आम ज़िन्दगी में रू-ब-रू होते है. परिणाम स्वरूप हम मंत्रमुग्ध हो, उनके बनाए फिल्मी मायाजाल में डूबते उबरते रहे.
गुरुदत्त अपने आपमें एक संपूर्ण कलाकार बनने की पूरी पात्रता रखते थे. वे विश्व स्तरीय फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे. साथ ही में उनकी साहित्यिक रूचि और संगीत की समझ की झलक हमें उनके सभी फिल्मों में दिखती ही है. वे एक अच्छे नर्तक भी थे, क्योंकि उन्होंने अपने फिल्मी जीवन का आगाज़ किया था प्रभात फिल्म्स में एक कोरिओग्राफर की हैसियत से. अभिनय कभी उनकी पहली पसंद नही रही, मगर उनके सरल, संवेदनशील और नैसर्गिक अभिनय का लोहा सभी मानते थे .(उन्होने प्यासा के लिये पहले दिलीप कुमार का चयन किया था).वे एक रचनात्मक लेखक भी थे, और उन्होंने पहले पहले Illustrated Weekly of India में कहानियां भी लिखी थी.
संक्षेप में , वे एक संपूर्ण कलाकार होने की राह पर चले ज़रूर थे. मगर, उनके व्यक्तित्व में एक अधूरापन रहा हर समय, एक अशांतता रही हर पल, जिसने उन्हें एक अशांत, अधूरे कलाकार और एक भावुक प्रेमी के रूप में, दुनिया नें जाना, पहचाना.
देव साहब जो उनके प्रभात फिल्म कन्पनी से साथी थे, जिन्होंने नवकेतन के बैनर तले अपनी फिल्म 'बाजी' के निर्देशन का भार गुरुदत्त पर डाला था, नें अभी अभी कहीं यह माना था की गुरुदत्त ही उनके सच्चे मित्र थे. जितने भावुक इंसान वे थे, उसकी वजह से हमें इतनी आला दर्जे की फिल्मों की सौगात मिली, मगर उनकी मौत का भी कारण वही भावुकता ही बनी .
उनकी व्यक्तिगत जीवन पर हम अगर नज़र डालें तो हम रू-बी-रू होंगे एक त्रिकोण से जिसके अहाते में गुरुदत्त की भावनात्मक ज़िंदगी परवान चढी.
ये त्रिकोण के बिन्दु थे गीता दत्त , वहीदा रहमान और लेखक अबरार अल्वी , जिन्होंने गुरुदत्त के जीवन में महत्वपूर्ण भुमिका निभाई.
गीता दत्त रॉय, पहले प्रेमिका, बाद में पत्नी.सुख और दुःख की साथी और प्रणेता ..
वहीदा रहमान जिसके बगैर गुरुदत्त का वजूद अधूरा है, जैसे नर्गिस के बिना राज कपूर का. जो उनके Creative Menifestation का ज़रिया, या केन्द्र बिन्दु बनीं.
और फ़िर अबरार अल्वी, उतने ही प्रतिभाशाली मगर गुमनाम से लेखक, जिन्होंने गुरुदत्त के "आरपार" से लेकर "बहारें फ़िर भी आयेंगी" तक की लगभग हर फ़िल्म्स में कहानी, या पटकथा का योगदान दिया.
आज भी विश्व सिनेमा का इतिहास अधूरा है गुरुदत्त के ज़िक्र के बगैर. पूरे जहाँ में लगभग हर फ़िल्म्स संस्थान में ,जहाँ सिनेमा के तकनीकी पहलू सिखाये जाते है, गुरुदत्त की तीन क्लासिक फिल्मों को टेक्स्ट बुक का दर्जा हासिल होता है. वे है " प्यासा ", " कागज़ के फ़ूल ", और "साहिब , बीबी और गुलाम ".
इनके बारे में विस्तार से फ़िर कभी..
गुरुदत्त नें अपने फिल्मी कैरियर में कई नए तकनीकी प्रयोग भी किए.
जैसे, फ़िल्म बाज़ी में दो नए प्रयोग किए-
1, १०० एमएम के लेंस का क्लोज़ अप के लिए इस्तेमाल पहली बार किया - करीब १४ बार. इससे पहले कैमरा इतने पास कभी नही आया, कि उस दिनों कलाकारों को बड़ी असहजता के अनुभव से गुज़रना पडा. तब से उस स्टाईल का नाम ही गुरुदत्त शॉट पड़ गया है.
२. किसी भी फ़िल्म्स में पहली बार गानों का उपयोग कहानी कोई आगे बढ़ाने के लिए किया गया.
वैसे ही फ़िल्म ' काग़ज़ के फूल ' हिन्दुस्तान में सिनेमा स्कोप में बनी पहली फ़िल्म थी. दरअसल , इस फ़िल्म के लिए गुरुदत्त कुछ अनोखा ,कुछ हटके करना चाहते थे , जो आज तक भारतीय फ़िल्म के इतिहास में कभी नही हुआ.
संयोग से तभी एक हालीवुड की फ़िल्म कंपनी 20th Century Fox नें उन दिनों भारत में किसी सिनेमास्कोप में बनने वाली फ़िल्म की शूटिंग ख़त्म की थी और उसके स्पेशल लेंस बंबई में उनके ऑफिस में छूट गए थे. जब गुरुदत्त को इसका पता चला तो वे अपने सिनेमाटोग्राफर वी के मूर्ति को लेकर तुंरत वहाँ गए, लेंस लेकर कुछ प्रयोग किये , रशेस देखे और फ़िर फ़िल्म के लिए इस फार्मेट का उपयोग किया.
चलिए अब हम इस फ़िल्म के एक गाने का ज़िक्र भी कर लेते है -
वक्त नें किया क्या हसीं सितम .. तुम रहे ना तुम , हम रहे ना हम...
गीता दत्त की हसीं आवाज़ में गाये, और फ़िल्म में स्टूडियो के पृष्ठभूमि में फिल्माए गए इस गीत में भी एक ऐसा प्रयोग किया गया, जो बाद में विश्वविख्यात हुआ अपने बेहतरीन लाइटिंग की खूबसूरत संयोजन की वजह से.
आप ख़ुद ही देख कर लुत्फ़ उठाएं .
गुरुदत्त इस क्लाईमेक्स की सीन में कुछ अलग नाटकीयता और रील लाईफ़ और रियल लाईफ का विरोधाभास प्रकाश व्यवस्था की माध्यम से व्यक्त करना चाहते थे. ब्लेक एंड व्हाईट रंगों से नायक और नायिका की मन की मोनोटोनी ,रिक्तता , यश और वैभव की क्षणभंगुरता के अहसास को बड़े जुदा अंदाज़ में फिल्माना चाहते थे.
जिस दिन उन्होंने नटराज स्टूडियो में शूटिंग शुरू की, तो उनके फोटोग्राफर वी के मूर्ति नें उन्हें वेंटिलेटर से छन कर आती धूप की एक तेज़ किरण दिखाई, तो गुरुदत्त बेहद रोमांचित हो उठे और उनने इस इफेक्ट को वापरने का मन बना लिया. वे मूर्ति को बोले,' मैं शूटिंग के लिए भी सन लाईट ही वापरना चाहता हूँ क्योंकि वह प्रभाव की मै कल्पना कर रहा हूँ वह बड़ी आर्क लाईट से अथवा कैमरे की अपर्चर को सेट करके नहीं आयेगा. '
तो फ़िर दो बड़े बड़े आईने स्टूडियो के बाहर रखे गये, जिनको बडी़ मेहनत से सेट करके वह प्रसिद्ध सीन शूट किया गया जिसमें गुरु दत्त और वहीदा के बीच में वह तेज रोशनी का बीम आता है. साथ में चेहरे के क्लोज़ अप में अनोखे फेंटम इफेक्ट से उत्पन्न हुए एम्बियेन्स से हम दर्शक ठगे से रह जाते है एवं उस काल में, उस वातावरण निर्मिती से उत्पन्न करुणा के एहसास में विलीन हो जाते है, एकाकार हो जाते है.
और बचता है .., गुरुदत्त के प्रति एक दार्शनिक सोच...,मात्र एक विचार , एक स्वर...
वक्त नें किया क्या हसीं सितम...
प्रस्तुति - दिलीप कवठेकर
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5 श्रोताओं का कहना है :
बधाई दिलीप,
गुरुदत्त जी के बारे में इतना सब जानकर आनंद आ गया. वे सचमुच बहुत बड़े कलाकार थे और अपने समय से तो कहीं आगे पहुँच गए थे.
मेरी पंसद का कलाकार, ओर मेरी पसंद का गीत, ओर आप ने लेख भी बहुत ही बेहतरीन लिखा .
धन्यवाद
बहुत बढ़िया आलेख लिखा है आपने, मेरे ख्याल से गुरुदत्त एक जिनीअस थे, जिन्हें मैं बतौर निर्देशक बिमल राय और वी शांताराम के साथ भारत के श्रेष्ठतम निर्देशकों में रखता हूँ, सत्यजित राय से भी उपर, प्यासा कागज़ के फूल और साहिब बीबी और गुलाम ये वो फिल्में हैं जिनका एक एक फ्रेम स्टडी करने लायक है, इस गीत को भी मैं एक मास्टर पीस मानता हूँ, इसके बारे में इतने तकनीकी बातें आपने बतायी जो ये साबित करती है की आप फ़िल्म मेकिंग के समस्त पहलूओं पर खासी पकड़ रखते हैं, भाषा भी बिल्कुल आज के समय की है, आपसे आगे भी इसी तरह के स्तरीय लेखन की उम्मीद रहेगी
दिलीप जी आपका बहुत आभार !आपने गुरुदत्त जी के विषय में बहुत सी बातें बतायी जिनसे हम अनजान थे !वो एक नर्तक भी थे आपसे मालूम हुआ !प्रस्तुत गीत में आपने प्रकाश की बीम के बारे में बहुत ही रोचक जानकारी दी !इस बात को जानने के बाद गीत देखने और सुनने में अलग ही आनंद आया !बहुत बहुत धन्यवाद !
DILIPJI BHUT BHUT DHNYWAD
gurudatt ke bare me mhtnpur
n jankari ke liye
vaise to koi mujhse puchta nhi ki ?aapka manpasand heero kaoun hai ?
par agr jeevan me kbhi puch liya to mai sirf aur sirf gurudatt kahi nam lungi .
badhai is aalekh ke liye .
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